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सं स्कृति - तिन्दु स्तानी शास्त्रीय सं गीि में समय का मित्व

July 06, 2012

तिन्दु स्तानी शास्त्रीय सं गीि में समयानुसार गायन प्रस्तु ि करने की पद्धति िै , िथा उत्तर भारिीय सं गीि-पद्धति में
राग ं के गायन-वादन के तवषय में समय का तसधदां ि प्राचीन काल से िी चला आ रिा िै , तिसे िमारे प्राचीन
पंतिि ं ने द भाग ं में तवभातिि तकया िै । प्रथम भाग तदन के बारि बिे से राति के बारि बिे िक और दू सरा
राति के बारि बिे से तदन के बारि बिे िक माना गया िै । इसमें प्रथम भाग क पूवव भाग और दु सरे क
उत्तर भाग किा िािा िै । इन भाग ं में तिन राग ं का प्रय ग ि िा िै , उन्हें सां गीतिक भाषा में “पूवाां गवादी राग”
और “उत्तरां गवादी राग” भी कििे िै । तिन राग ं का वादी स्वर िब सप्तक के पूवाां ग अथाव ि् ‘सा, रे , ग, म’, इन
स्वर ं में से ि िा िै , ि वे ‘पूवाां गवादी राग’ किे िािे िै , िथा तिन राग ं का वादी स्वर सप्तक के उत्तरां ग अथाव ि्
‘प, ध, तन, सां ’, इन स्वर ं में से ि िा िै , वे ‘उत्तरां गवादी राग’ किे िािे िै । स्वर और समय के अनुसार उत्तर
भारिीय राग ं के िीन वगव मानकर क मल-िीव्र (तवकृि) स्वर ं के अनुसार भी उनका तवभािन तकया गया िै —
१. क मल ‘रे ’ और क मल ‘ध’ वाले राग, २. शु द्ध ‘रे ’ और शुद्ध ‘ध’ वाले राग िथा ३. क मल ‘ग’ और क मल ‘तन’
वाले राग। इस आधार पर सम्पूर्व राग-रातगतनय ं की रचना की गयी िै ।
िैसे— ब्रह्म मुहूिव पर ईश्वर आराधना से तदन प्रारं भ ि िा िै , इसतलए राग भै रव में गािे िै “िाग म िन प्यारे ”।
पूिा-अचव ना समाप्त ि िाने के बाद तदन शुरू ि िा िै । कामकाि से िीवन आरम्भ ि ने लगिा िै , िब ि डी
राग में गािे िै “लंगर कां कररया तिन मार ”ं । सू रि माथे पर चढ़ने लगा िै , अलसाई हुई द पिर की दे िलीि पर
शारीर का थकना स्वाभातवक िै । िब राग सारं ग में गाया िािा िै - “अब म री बाि मानले तपयरवा”। पैर ं के
पास रुकी हुई परछाई अब शारीर से दू र ि ने लगिी िै , रुके थके िाथ तिर से कामकाि में मग्न ि िािे िै ।
सं ध्या का आभास ि ने लगिा िै , िब राग मुलिानी में गाया िािा िै “आँ गन में नन्द लाल, ठु मक-ठु मक चलि
चाल”। थका िारा सू रि पतिम की ओर झूकने लगिा िै िब मन की उदासी में ि ठ ं पर राग मारवा के शब्द
गु नगु नाने लगिे िै “तपया म रे अनंि दे स गये ”। सं ध्या की बे ला में श्याम रं ग में लीन ि ने के तलए मन अधीर ि
उठिा िै ऐसे समय तपया की याद आना स्वाभातवक िै िब राग पुररयाधानाश्री में “िु मरे तमलन की आस करू मैं”
गाया िािा िै ।

राग-समय-चक्र
राि का रं ग चढ़ने लगिा िै , मन की चंचलिा, तमलन की आकां क्षाओं में झूलिा मन तपया के तलए राग बागे श्री में
गािा िै “अपनी गरि पकड लीनी बैं या म री”। गिरािी श्यामल राि अकेलेपन से छु टकारा पाने के तलए तवरि
व्याकुल मन राग मालक स ं में गािा िै “याद आवि म िे तपया की बतियाँ , कैसे गु िारु सखी उन तबन रतियाँ ”।
मध्यराति का समय ि गया िै , भ तिक सु ख-दु ुःख की अनु भूतियाँ लेने के बाद भी मन की ररक्तिा पूर्व निी ं
ि िी। िब इस सां साररक बन्धन ं के पार उस ईश्वर के दशवन की अतभलाषा मन में िाग्रि ि िी िै और िब
दरबारी कान्हडा में गाया िािा िै “प्रथम ज्य ति ज्वाला, शरर् िे री ये माँ ”। राति का अंतिम प्रिर ईश्वर िक
पहुँ चने के तलए अतधर मन राग अडाना में गािा िै “अब कैसे घर िाऊ, श्याम म िे र कि-र कि”।
इसी चक्र के अनुसार राग ं का चलन ि िा िै । वै से अने क गायक-वादक अपनी इच्छानुसार इन राग ं के क्रम में
पररविव न करके गािे -बिािे िै िथा अन्य राग ं का समावे श भी इच्छानुसार कर लेिे िै । तकन्तु गायक या वादक
क समय का ध्यान रखकर िी गायन-वादन करना चातिए अन्यथा समय का ध्यान रखकर गायन-वादन निी ं
करने से श्र िाओं पर उसका अच्छा प्रभाव निी ं ि िा िै , और न राग से रस त्पतत्त सं भव िै ।

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