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प्रेमचंद का सम्पर्

ू ण संग्रह
डाउनलोड करें मुंशी प्रेमचुंद का सम्पूर्ण सुंग्रह पीडीऍफ़ में | इस सुंग्रह को में तीन या चार भागों में प्रस्तत करूँगा | यह दस
ू रा भाग है जिसमे उनकी कहाननयाुं
आपके सामने प्रस्तत कक िायेंगी |

पहले भाग में उनकी कहाननयाुं प्रस्तत की गयीुं थी तथा तीसरे भाग में उनके उपन्यास व िो भी साहहत्य मेरे पास उपलब्ध है सब कछ पीडीऍफ़ में उपलब्ध
कराया िाएगा |

प्रेमचन्द का सम्पूर्ण संग्रह भाग १ (प्रेमचंद की कहानियााँ ) यहााँ से डाउिलोड करें

प्रेमचन्द का सम्पूर्ण संग्रह भाग २ (प्रेमचंद की कहानियााँ ) आपके सामिे है

इस सुंग्रह में ननम्न कहाननयाुं प्रस्तत कक गयी हैं :-

स्नेह पर कतणव्य की वविय

कमला के नाम ...

मझगाुंव

प्रतापचन्र और कमलाचरर्

दख्दशा

मन का प्राबल्य

ववदषी वि
ृ रानी

माधवी

काशी में आगमन

प्रेम का स्वप्न

ववदाई

मतवाली योगगनी

त्रिया – चररि

ममलाप

मनावन

अुंधेर

मसर्ण एक आवाि

आखिरी मुंजिल

आल्हा

नसीहतों का दफ्तर

रािहठ

नेकी

बाुंका िमीुंदार

अनाथ लड़की

कमो का र्ल

सभ्यता का रहस्य

समस्या

दो सखियाूँ

सोहाग का शव

आत्म सुंगीत

एक्ट्रे स
ईश्वरीय न्याय

ममता

मन्ि

प्रायजश्चत

कप्तान साहब

इस्तीफ़ा

अलग्योझा

ईदगाह

माूँ

बेटों वाली ववधवा

बड़े भाई साहब

शाुंनत

नशा
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स्नेह पर कर्त्तव्य की विजय

रोगी जब तक बीमार रहता है उसे सध


ु नहीीं रहती कक कौन मेरी औषधध करता है , कौन मझ
ु े दे खने के
लिए आता है । वह अपने ही कष्ट मीं इतना ग्रस्त रहता है कक ककसी दस
ू रे के बात का ध्यान ही उसके हृदय
मीं उत्पन्न नहीीं होता; पर जब वह आरोग्य हो जाता है, तब उसे अपनी शश्र
ु ष करनेवािों का ध्यान और उनके
उद्योग तथा पररश्रम का अनम
ु ान होने िगता है और उसके हृदय में उनका प्रेम तथा आदर बढ़ जाता है ।
ठीक यही श वज
ृ रानी की थी। जब तक वह स्वयीं अपने कष्ट में मग्न थी, कमिाचरण की व्याकुिता और
कष्टों का अनभ
ु व न कर सकती थी। ननस्सन्दे ह वह उसकी खानतरदारी में कोई अींश शेष न रखती थी, परन्तु
यह व्यवहार-पािन के ववचार से होती थी, न कक सच्चे प्रेम से। परन्तु जब उसके हृदय से वह व्यथा लमट
गयी तो उसे कमिा का पररश्रम और उद्योग स्मरण हुआ, और यह धचींता हुई कक इस अपार उपकार का
प्रनत-उत्तर क्या द ू ? मेरा धमम था सेवा-सत्कार से उन्हें सख
ु दे ती, पर सख
ु दे ना कैसा उिटे उनके प्राण ही की
गाहक हुई हूीं! वे तो ऐसे सच्चे ददि से मेरा प्रेम करें और मैं अपना कत्तमव्य ही न पािन कर सकू ! ईश्वर
ु ददखाऊगी ? सच्चे प्रेम का कमि बहुधा कृपा के भाव से खखि जाया करता है । जह ,ीं रुप यौवन,
को क्या मह
ु ा तथा स्वाभाववक सौजन्य प्रेम के बीच बोने में अकृतकायम रहते हैं, वह ,ॉँ प्राय: उपकार का
सम्पवत्त और प्रभत
जाद ू चि जाता है। कोई हृदय ऐसा वज्र और कठोर नहीीं हो सकता, जो सत्य सेवा से द्रवीभत
ू न हो जाय।
कमिा और वज
ृ रानी में ददनोंददन प्रीनत बढ़ने िगी। एक प्रेम का दास था, दस
ू री कत्तमव्य की दासी।
सम्भव न था कक वज
ृ रानी के मख
ु से कोई बात ननकिे और कमिाचरण उसको परू ा न करे । अब उसकी
तत्परता और योग्यता उन्हीीं प्रयत्नों में व्यय होती थीह। पढ़ना केवि माता-वपता को धोखा दे ना था। वह
सदा रुख दे ख करता और इस आशा पर कक यह काम उसकी प्रसन्न्त का कारण होगा, सब कुछ करने पर
कदटबद्व रहता। एक ददन उसने माधवी को फुिवाडी से फूि चन
ु ते दे खा। यह छोटा-सा उद्यान घर के पीछे
था। पर कुटुम्ब के ककसी व्यक्क्त को उसे प्रेम न था, अतएव बारहों मास उस पर उदासी छायी रहती थी।
वज
ृ रानी को फूिों से हाददमक प्रेम था। फुिवाडी की यह दग
ु नम त दे खी तो माधवी से कहा कक कभी-कभी इसमीं
पानी दे ददया कर। धीरे -धीरे वादटका की दशा कुछ सध
ु र चिी और पौधों में फूि िगने िगे। कमिाचरण के
लिए इशारा बहुत था। तन-मन से वादटका को सस ु क्जजत करने पर उतारु हो गया। दो चतरु मािी नौकर रख
लिये। ववववध प्रकार के सन्
ु दर-सन् ॉँ
ु दर पष्ु प और पौधे िगाये जाने िगे। भ नत-भ ॉँ
नतकी घासें और पवत्तय ॉँ
गमिों में सजायी जाने िगी, क्याररय ॉँ और रववशे ठीक की जाने िगीीं। ठौर-ठौर पर िताऍ ीं चढ़ायी गयीीं।
कमिाचरण सारे ददन हाथ में पस्
ु तक लिये फुिवाडी में टहिता रहता था और मालियों को वादटका की
सजावट और बनावट की ताकीद ककया करता था, केवि इसीलिए कक ववरजन प्रसन्न होगी। ऐसे स्नेह-भक्त
का जाद ू ककस पर न चि जायगा। एक ददन कमिा ने कहा-आओ, तुम्हें वादटका की सैर कराऊ। वज
ृ रानी
उसके साथ चिी।
च दॉँ ननकि आया था। उसके उजजवि प्रकाश में पष्ु प और पत्ते परम शोभायमान थे। मन्द-मन्द वायु
चि रहा था। मोनतयों और बेिे की सग
ु क्न्ध मक्स्तषक को सरु लभत कर रही थीीं। ऐसे समय में ववरजन एक
रे शमी साडी और एक सन्
ु दर स्िीपर पदहने रववशों में टहिती दीख पडी। उसके बदन का ववकास फूिों को
िक्जजत करता था, जान पडता था कक फूिों की दे वी है । कमिाचरण बोिा-आज पररश्रम सफि हो गया।
जैसे कुमकुमे में गुिाब भरा होता है, उसी प्रकार वज
ृ रानी के नयनों में प्रेम रस भरा हुआ था। वह
मस
ु कायी, परन्तु कुछ न बोिी।
कमिा-मझ
ु जैसा भाग्यवान मन
ु ष्य सींसा में न होगा।
ववरजन-क्या मझ
ु से भी अधधक?
केमिा मतवािा हो रहा था। ववरजन को प्यार से गिे िगा ददया।
कुछ ददनों तक प्रनतददन का यही ननयम रहा। इसी बीच में मनोरीं जन की नयी सामग्री उपक्स्थत हो
गयी। राधाचरण ने धचत्रों का एक सन्
ु दर अिबम ववरजन के पास भेजा। इसमीं कई धचत्र चींद्रा के भी थे।
कहीीं वह बैठी श्यामा को पढ़ा रही है कहीीं बैठी पत्र लिख रही है । उसका एक धचत्र परु
ु ष वेष में था।
राधाचरण फोटोग्राफी की किा में कुशि थे। ववरजन को यह अिबम बहुत भाया। कफर क्या था ? कफर क्या
था? कमिा को धन ु िगी कक मैं भी धचत्र खीच।ू भाई के पास पत्र लिख भेजा कक केमरा और अन्य

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आवश्यक सामान मेरे पास भेज दीक्जये और अभ्यास आरीं भ कर ददया। घर से चिते कक स्कूि जा रहा हू
पर बीच ही में एक पारसी फोटोग्राफर की दक
ू ान पर आ बैठते। तीन-चार मास के पररश्रम और उद्योग से
इस किा में प्रवीण हो गये। पर अभी घर में ककसी को यह बात मािम
ू न थी। कई बार ववरजन ने पछ
ू ा
भी; आजकि ददनभर कहा रहते हो। छुट्टी के ददन भी नहीीं ददख पडते। पर कमिाचरण ने हू-हाीं करके टाि
ददया।
एक ददन कमिाचरण कहीीं बाहर गये हुए थे। ववरजन के जी में आया कक िाओ प्रतापचन्द्र को एक
पत्र लिख डाि;ू पर बक्सखेिा तो धचट्ठी का कागज न था माधवी से कहा कक जाकर अपने भैया के डेस्क
में से कागज ननकाि िा। माधवी दौडी हुई गयी तो उसे डेस्क पर धचत्रों का अिबम खुिा हुआ लमिा। उसने
आिबम उठा लिया और भीतर िाकर ववरजन से कहा-बदहन! दखों, यह धचत्र लमिा।
ववरजन ने उसे चाव से हाथ में िे लिया और पदहिा ही पन्ना उिटा था कक अचम्भा-सा हो गया। वह
उसी का धचत्र था। वह अपने पिींग पर चाउर ओढ़े ननद्रा में पडी हुई थी, बाि ििाट पर बबखरे हुए थे, अधरों
पर एक मोहनी मस् ु कान की झिक थी मानों कोई मन-भावना स्वप्न दे ख रही है । धचत्र के नीचे िख हुआ
था- ‘प्रेम-स्वप्न’। ववरजन चककत थी, मेरा धचत्र उन्होंने कैसे खखचवाया और ककससे खखचवाया। क्या ककसी
फोटोग्राफर को भीतर िाये होंगे ? नहीीं ऐसा वे क्या करें गे। क्या आश्चय्र है, स्वयीं ही खीींच लिया हो। इधर
महीनों से बहुत पररश्रम भी तो करते हैं। यदद स्वयीं ऐसा धचत्र खीींचा है तो वस्तत
ु : प्रशींसनीय कायम ककया
है । दस
ू रा पन्ना उिटा तो उसमें भी अपना धचत्र पाया। वह एक साडी पहने, आधे लसर पर आचि डािे
वादटका में भ्रमण कर रही थी। इस धचत्र के नीचे िख हुआ था- ‘वादटका-भ्रमण। तीसरा पन्ना उिटा तो वह
भी अपना ही धचत्र था। वह वादटका में पथ्
ृ वी पर बैठी हार गथ
ू रही थी। यह धचत्र तीनों में सबसे सन्
ु दर था,
क्योंकक धचत्रकार ने इसमें बडी कुशिता से प्राकृनतक रीं ग भरे थे। इस धचत्र के नीचे लिखा हुआ था-
‘अिबेिी मालिन’। अब ववरजन को ध्याना आया कक एक ददन जब मैं हार गूथ रही थी तो कमिाचरण
नीि के काटे की झाडी मस्
ु कराते हुए ननकिे थे। अवश्य उसी ददन का यह धचत्र होगा। चौथा पन्ना उिटा तो
एक परम मनोहर और सह ु ावना दृश्य ददखयी ददया। ननममि जि से िहराता हुआ एक सरोवर था और उसके
दोंनों तीरों पर जहा तक दृक्ष्ट पहुचती थी, गुिाबों की छटा ददखयी दे ती थी। उनके कोमि पष्ु प वायु के
झोकाीं से िचके जात थे। एसका ज्ञात होता था, मानों प्रकृनत ने हरे आकाश में िाि तारे टाक ददये हैं। ककसी
अींग्रेजी धचत्र का अनक
ु रण प्रतीत होता था। अिबम के और पन्ने अभी कोरे थे।
ववरजन ने अपने धचत्रों को कफर दे खा और सालभमान आनन्द से, जो प्रत्येक रमणी को अपनी सन्
ु दरता
पर होता है, अिबम को नछपा कर रख ददया। सींध्या को कमिाचरण ने आकर दे खा, तो अिबम का पता
नहीीं। हाथों तो तोते उड गये। धचत्र उसके कई मास के कदठन पररश्रम के फि थे और उसे आशा थी कक
यही अिबम उहार दे कर ववरजन के हृदय में और भी घर कर िगा। ू बहुत व्याकुि हुआ। भीतर जाकर
ववरजन से पछ
ू ा तो उसने साफ इन्कार ककया। बेचारा घबराया हुआ अपने लमत्रों के घर गया कक कोई उनमीं
से उठा िे गया हो। पह वहाीं भी फबनतयों के अनतररक्त और कुछ हाथ न िगा। ननदान जब महाशय परू े
ननराश हो गये तोशम को ववरजन ने अिबम का पता बतिाया। इसी प्रकार ददवस सानन्द व्यतीत हो रहे
थे। दोनों यही चाहते थे कक प्रेम-क्षेत्र मे मैं आगे ननकि जाऊ! पर दोनों के प्रेम में अन्तर था। कमिाचरण
प्रेमोन्माद में अपने को भि
ू गया। पर इसके ववरुद्व ववरजन का प्रेम कत्तमव्य की नीींव पर क्स्थत था। हा, यह
आनन्दमय कत्तमव्य था।
तीन वषम व्यतीत हो गये। वह उनके जीवन के तीन शभ
ु वषम थे। चौथे वषम का आरम्भ आपवत्तयों का
ु -सामधग्रय ॉँ इस पररमाण से लमिती है कक उनके लिए
आरम्भ था। ककतने ही प्राखणयों को साींसार की सख
ददन सदा होिी और राबत्र सदा ददवािी रहती है । पर ककतने ही ऐसे हतभाग्य जीव हैं, क्जनके आनन्द के ददन
एक बार बबजिी की भानत चमककर सदा के लिए िप्ु त हो जाते है । वज
ृ रानी उन्हीीं अभागें में थी। वसन्त
की ऋतु थी। सीरी-सीरी वायु चि रही थी। सरदी ऐसे कडाके की पडती थी कक कुओीं का पानी जम जाता
था। उस समय नगरों में प्िेग का प्रकोप हुआ। सहस्रों मनष्ु य उसकी भें ट होने िगे। एक ददन बहुत कडा
जवर आया, एक धगल्टी ननकिी और चि बसा। धगल्टी का ननकिना मानो मत्ृ यु का सींदश था। क्या वैद्य,
क्या डाक्टर ककसी की कुछ न चिती थी। सैकडो घरों के दीपक बझ
ु गये। सहस्रों बािक अनाथ और सहस्रों
ववधवा हो गयी। क्जसको क्जधर गिी लमिी भाग ननकिा। प्रत्येक मनष्ु य को अपनी-अपनी पडी हुई थी। कोई
ककसी का सहायक और दहतैषी न था। माता-वपता बच्चों को छोडकर भागे। स्त्रीयों ने परु षों से सम्बन्ध
पररत्याग ककया। गलियों में, सडको पर, घरों में क्जधर दे खखये मत
ृ कों को ढे र िगे हुए थे। दक
ु ाने बन्द हो

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गयी। द्वारों पर तािे बन्द हो गया। चत
ु दु दमक धि
ू उडती थी। कदठनता से कोई जीवधारी चिता-कफरता
ददखायी दे ता था और यदद कोई कायमवश घर से ननकिा पडता तो ऐसे शीघ्रता से प व उठाता मानों मत्ृ यु का
दत
ू उसका पीछा करता आ रहा है । सारी बस्ती उजड गयी। यदद आबाद थे तो कबिस्तान या श्मशान। चोरों
और डाकुओीं की बन आयी। ददन –दोपहार तोि टूटते थे और सय
ू म के प्रकाश में सेंधें पडती थीीं। उस दारुण
द:ु ख का वणमन नहीीं हो सकता।
बाबू श्यामचरण परम दृढ़धचत्त मनष्ु य थे। गह
ृ के चारों ओर महल्िे-के महल्िे शन्
ू य हो गये थे पर वे
अभी तक अपने घर में ननभमय जमे हुए थे िेककन जब उनका साहस मर गया तो सारे घर में खिबिी मच
गयी। ग वॉँ में जाने की तैयाररय ॉँ होने िगी। मींश
ु ीजी ने उस क्जिे के कुछ ग वॉँ मोि िे लिये थे और
मझग वॉँ नामी ग्राम में एक अच्छा-सा घर भी बनवा रख था। उनकी इच्छा थी कक पें शन पाने पर यहीीं
रहूगा काशी छोडकर आगरे में कौन मरने जाय! ववरजन ने यह सन ु ा तो बहुत प्रसन्न हुई। ग्राम्य-जीवन के
मनोहर दृश्य उसके नेत्रों में कफर रहे थे हरे -भरे वक्ष
ृ और िहिहाते हुए खेत हररणों की क्रीडा और पक्षक्षयों का
किरव। यह छटा दे खने के लिए उसका धचत्त िािानयत हो रहा था। कमिाचरण लशकार खेिने के लिए
अस्त्र-शस्त्र ठीक करने िगे। पर अचनाक मन्
ु शीजी ने उसे बि
ु ाकर कहा कक तम प्रयाग जाने के लिए तैयार
हो जाओ। प्रताप चन्द्र वहाीं तुम्हारी सहायता करे गा। ग वों में व्यथम समय बबताने से क्या िाभ? इतना
सन
ु ना था कक कमिाचरण की नानी मर गयी। प्रयाग जाने से इन्कार कर ददया। बहुत दे र तक मींश
ु ीजी उसे
समझाते रहे पर वह जाने के लिए राजी न हुआ। ननदान उनके इन अींनतम शब्दों ने यह ननपटारा कर ददया-
तुम्हारे भाग्य में ववद्या लिखी ही नहीीं है । मेरा मख
ू त
म ा है कक उससे िडता हू!
वज
ृ रानी ने जब यह बात सन ु ी तो उसे बहुत द:ु ख हुआ। वज ृ रानी यद्यवप समझती थी कक कमिा का
ध्यान पढ़ने में नहीीं िगता; पर जब-तब यह अरुधच उसे बरु ी न िगती थी, बक्ल्क कभी-कभी उसका जी
चाहता कक आज कमिा का स्कूि न जाना अच्छा था। उनकी प्रेममय वाणी उसके कानों का बहुत प्यारी
मािम
ू होती थी। जब उसे यह ज्ञात हुआ कक कमिा ने प्रयाग जाना अस्वीकार ककया है और िािाजी बहुत
समझ रहे हैं, तो उसे और भी द:ु ख हुआ क्योंकक उसे कुछ ददनों अकेिे रहना सहय था, कमिा वपता को
आज्ञज्ञेल्िघींन करे , यह सह्रय न था। माधवी को भेजा कक अपने भैया को बि
ु ा िा। पर कमिा ने जगह से
दहिने की शपथ खा िी थी। सोचता कक भीतर जाऊगा, तो वह अवश्य प्रयाग जाने के लिए कहे गी। वह क्या
जाने कक यहा हृदय पर क्या बीत रही है । बातें तो ऐसी मीठी-मीठी करती है, पर जब कभी प्रेम-परीक्षा का
समय आ जाता है तो कत्तमव्य और नीनत की ओट में मख
ु नछपाने िगती है । सत्य है कक स्त्रीयों में प्रेम की
गींध ही नहीीं होती।
जब बहुत दे र हो गयी और कमिा कमरे से न ननकिा तब वज ृ रानी स्वयीं आयी और बोिी-क्या आज
घर में आने की शपथ खा िी है । राह दे खते-दे खते ऑ ींखें पथरा गयीीं।
कमिा- भीतर जाते भय िगता है ।
ववरजन- अच्छा चिो मैं सींग-सींग चिती हू, अब तो नहीीं डरोगे?
कमिा- मझु े प्रयाग जाने की आज्ञा लमिी है ।
ववरजन- मैं भी तुम्हारे सग चिगी!

यह कहकर ववरजन ने कमिाचरण की ओर आींखे उठायीीं उनमें अींगरू के दोन िगे हुए थे। कमिा हार
गया। इन मोहनी ऑखों में ऑ ींसू दे खकर ककसका हृदय था, कक अपने हठ पर दृढ़ रहता? कमेिा ने उसे
अपने कींठ से िगा लिया और कहा-मैं जानता था कक तम
ु जीत जाओगी। इसीलिए भीतर न जाता था। रात-
भर प्रेम-ववयोग की बातें होती रहीीं! बार-बार ऑ ींखे परस्पर लमिती मानो वे कफर कभी न लमिेगी! शोक ककसे
मािम
ू था कक यह अींनतम भें ट है । ववरजन को कफर कमिा से लमिना नसीब न हुआ।

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कमला के नाम विरजन के पत्र

मझगाव
‘वप्रयतम,
प्रेम पत्र आया। लसर पर चढ़ाकर नेत्रों से िगाया। ऐसे पत्र तुम न िख करो ! हृदय ववदीणम हो जाता
है । मैं लिखींू तो असींगत नहीीं। यह ॉँ धचत्त अनत व्याकुि हो रहा है । क्या सन
ु ती थी और क्या दे खती हैं ? टूटे -
फूटे फूस के झोंपडे, लमट्टी की दीवारें , घरों के सामने कूडे-करकट के बडे-बडे ढे र, कीचड में लिपटी हुई भैंसे,
दब
ु ि
म गायें, ये सब दृश्य दे खकर जी चाहता है कक कहीीं चिी जाऊीं। मनष्ु यों को दे खों, तो उनकी सोचनीय
दशा है। हड्डडय ॉँ ननकिी हुई है । वे ववपवत्त की मनू तमय ॉँ और दररद्रता के जीववत्र धचत्र हैं। ककसी के शरीर पर
एक बेफटा वस्त्र नहीीं है और कैसे भाग्यहीन कक रात-ददन पसीना बहाने पर भी कभी भरपेट रोदटय ॉँ नहीीं
लमितीीं। हमारे घर के वपछवाडे एक गड्ढा है । माधवी खेिती थी। प वॉँ कफसिा तो पानी में धगर पडी। यह ॉँ
ककम्वदन्ती है कक गड्ढे में चड
ु ि
ै नहाने आया करती है और वे अकारण यह चिनेवािों से छे ड-छाड ककया
करती है । इसी प्रकार द्वार पर एक पीपि का पेड है । वह भत
ू ों का आवास है । गड्ढे का तो भय नहीीं है ,
परन्तु इस पीपि का वास सारे -सारे ग वॉँ के हृदय पर ऐसा छाया हुआ है । कक सय ू ामस्त ही से मागम बन्द हो
जाता है । बािक और स्त्रीया तो उधर पैर ही नहीीं रखते! ह ,ॉँ अकेिे-दक
ु े िे परु
ु ष कभी-कभी चिे जाते हैं, पर पे
भी घबराये हुए। ये दो स्थान मानो उस ननकृष्ट जीवों के केन्द्र हैं। इनके अनतररक्त सैकडों भत
ू -चड
ु ि
ै लभन्न-
लभन्न स्थानों के ननवासी पाये जाते हैं। इन िोगों को चड
ु ि
ै ें दीख पडती हैं। िोगों ने इनके स्वभाव पहचान
ककये है। ककसी भत
ू के ववषय में कहा जाता है कक वह लसर पर चढ़ता है तो महीनों नहीीं उतरता और कोई
दो-एक पज
ू ा िेकर अिग हो जाता है । गाव वािों में इन ववषयों पर इस प्रकार वातामिाप होता है , मानों ये
प्रत्यक्ष घटना है । यहा तक सन
ु ा गया हैं कक चड
ु ि ॉँ
ै भोजन-पानी म गने भी आया करती हैं। उनकी साडडय ॉँ
प्राय: बगुिे के पींख की भानत उजजवि होती हैं और वे बातें कुछ-कुछ नाक से करती है। ह ,ॉँ गहनों को प्रचार
उनकी जानत में कम है । उन्ही स्त्रीयों पर उनके आक्रमणका भय रहता है, जो बनाव श्रींग
ृ ार ककये रीं गीन वस्त्र
पदहने, अकेिी उनकी दृक्ष्ट मे पड जायें। फूिों की बास उनको बहुत भाती है । सम्भव नहीीं कक कोई स्त्री या
बािक रात को अपने पास फूि रखकर सोये।
भत
ू ों के मान और प्रनतष्ठा का अनम
ु ान बडी चतरु ाई से ककया गया है । जोगी बाबा आधी रात को
कािी कमररया ओढ़े , खडाऊ पर सवार, ग वॉँ के चारों आर भ्रमण करते हैं और भि
ू े-भटके पधथकों को मागम
बताते है। साि-भर में एक बार उनकी पज
ू ा होती हैं। वह अब भत
ू ों में नहीीं वरन ् दे वताओीं में धगने जाते है।
वह ककसी भी आपवत्त को यथाशक्क्त ग वॉँ के भीतर पग नहीीं रखने दे ते। इनके ववरुद्व धोबी बाबा से ग व-
ॉँ
भर थरामता है । क्जस वक्ष
ु पर उसका वास है , उधर से यदद कोई दीपक जिने के पश्चात ् ननकि जाए, तो
उसके प्राणों की कुशिता नहीीं। उन्हें भगाने के लिए दो बोित मददरा काफी है। उनका पज
ु ारी मींगि के ददन
उस वक्ष
ृ तिे गाजा और चरस रख आता है। िािा साहब भी भत
ू बन बैठे हैं। यह महाशय मटवारी थे। उन्हीं
कई पींडडत असलमयों ने मार डािा था। उनकी पकड ऐसी गहरी है कक प्राण लिये बबना नहीीं छोडती। कोई
पटवारी यहा एक वषम से अधधक नहीीं जीता। ग वॉँ से थोडी दरू पर एक पेड है । उस पर मौिवी साहब ननवास
करते है। वह बेचारे ककसी को नहीीं छे डते। ह ,ॉँ वह
ृ स्पनत के ददन पज
ू ा न पहुचायी जाए, तो बच्चों को छे डते हैं।
कैसी मखू त
म ा है! कैसी लमथ्या भक्क्त है ! ये भावनाऍ ीं हृदय पर वज्रिीक हो गयी है । बािक बीमार हुआ
कक भत
ू की पज
ू ा होने िगी। खेत-खलिहान में भत
ू का भोग जहा दे खखये, भत ू दीखते हैं। यह ॉँ न दे वी
ू -ही-भत
ू ों का ही साम्राजय हैं। यमराज यह ॉँ चरण नहीीं रखते, भत
है , न दे वता। भत ू ही जीव-हरण करते हैं। इन भावों
का ककस प्रकार सध
ु ार हो ? ककमधधकम
तुम्हारी
ववरजन

मझगााँि
प्यारे ,
बहुत ददनों को पश्चात ् आपकी पेरम-पत्री प्राप्त हुई। क्या सचमच
ु पत्र लिखने का अवकाश नहीीं ? पत्र
क्या लिखा है , मानो बेगार टािी है । तुम्हारी तो यह आदत न थी। क्या वह ॉँ जाकर कुछ और हो गये ? तुम्हें
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यह ॉँ से गये दो मास से अधधक होते है । इस बीच मीं कई छोटी-बडी छुट्दटय ॉँ पडी, पर तम
ु न आये। तम
ु से
कर बाधकर कहती हू- होिी की छुट्टी में अवश्य आना। यदद अब की बार तरसाया तो मझ
ु े सदा उिाहना
रहे गा।
यह ॉँ आकर ऐसी प्रतीत होता है, मानो ककसी दस ू रे सींसार में आ गयी हू। रात को शयन कर रही थी
कक अचानक हा-हा, हू-हू का कोिाहि सन ु ायी ददया। चौंककर उठा बैठी! पछ ू ा तो ज्ञात हुआ कक िडके घर-घर
से उपिे और िकडी जमा कर रहे थे। होिी माता का यही आहार था। यह बेढींगा उपद्रव जहा पहुच गया,
ईंधन का ददवािा हो गया। ककसी की शक्क्त नही जो इस सेना को रोक सके। एक नम्बरदार की मडडया िोप
हो गयी। उसमीं दस-बारह बैि सग
ु मतापव
ू क
म बाधे जा सकते थे। होिी वािे कई ददन घात में थे। अवसर
पाकर उडा िे गये। एक कुरमी का झोंपडा उड गया। ककतने उपिे बेपता हो गये। िोग अपनी िकडडया घरों
में भर िेते हैं। िािाजी ने एक पेड ईंधन के लिए मोि लिया था। आज रात को वह भी होिी माता के पेट
में चिा गया। दो-तीि घरों को ककवाड उतर गये। पटवारी साहब द्वार पर सो रहे थे। उन्हें भलू म पर
ढकेिकर िोगे चारपाई िे भागे। चतदु दमक ईंधन की िट
ू मची है। जो वस्तु एक बार होिी माता के मख
ु में
चिी गयी, उसे िाना बडा भारी पाप है । पटवारी साहब ने बडी धमककयाीं दी। मैं जमाबन्दी बबगाड दगा,
ू खसरा
झठू ाकर दगा,
ू पर कुछ प्रभाव न हुआ! यहा की प्रथा ही है कक इन ददनों वािे जो वस्तु पा जायें, ननववमघ्न उठा
िे जायें। कौन ककसकी पक ु ार करे ? नवयव
ु क पत्र
ु अपने वपता की आींख बाकर अपनी ही वस्तु उठवा दे ता
है । यदद वह ऐसा न करे , तो अपने समाज मे अपमाननत समझाजा जाए।
खेत पक गये है ।, पर काटने में दो सप्ताह का वविम्ब है । मेरे द्वार पर से मीिों का दृश्य ददखाई
दे ता है । गेहू और जौ के सथ
ु रे खेतों के ककनारे -ककनारे कुसम
ु के अरुण और केसर-वणम पष्ु पों की पींक्क्त परम
सह ु ावनी िगती है । तोते चतदु दमक मडिाया करते हैं।
माधवी ने यहा कई सखखया बना रखी हैं। पडोस में एक अहीर रहता है । राधा नाम है । गत वषम माता-
वपता प्िेगे के ग्रास हो गये थे। गह
ृ स्थी का कुि भार उसी के लसर पर है । उसकी स्त्री तुिसा प्राय: हमारे
यहा आती हैं। नख से लशख तक सन्ु दरता भरी हुई है । इतनी भोिी हैकक जो चाहता है कक घण्टों बाते सन
ु ा
करु। माधवी ने इससे बदहनापा कर रखा है । कि उसकी गुडडयों का वववाह हैं। तिु सी की गडु डया है और
माधवी का गुड्डा। सन
ु ती हू, बेचारी बहुत ननधनम है। पर मैंने उसके मख
ु पर कभी उदासीनता नहीीं दे खी।
कहती थी कक उपिे बेचकर दो रुपये जमा कर लिये हैं। एक रुपया दायज दगी ू और एक रुपये में बरानतयों
का खाना-पीना होगा। गडु डयों के वस्त्राभष
ू ण का भार राधा के लसर हैं! कैसा सरि सींतोषमय जीवि है !
िो, अब ववदा होती हू। तम्
ु हारा समय ननरथमक बातो में नष्ट हुआ। क्षमा करना। तम् ु हें पत्र लिखने
बैठती हू, तो िेखनी रुकती ही नहीीं। अभी बहुतेरी बातें लिखने को पडी हैं। प्रतापचन्द्र से मेरी पािागन कह
दे ना।
तुम्हारी
ववरजन
(3)
मझगाव
प्यारे ,
तम्
ु हारी, प्रेम पबत्रका लमिी। छाती से िगायी। वाह! चोरी और महजोरी।
ु अपने न आने का दोष मेरे
लसर धरते हो ? मेरे मन से कोई पछ
ू े कक तम्
ु हारे दशनम की उसे ककतनी अलभिाषा प्रनतददन व्याकुिता के
रुप में पररणत होती है । कभी-कभी बेसध ु हो जाती हू। मेरी यह दशा थोडी ही ददनों से होने िगी है । क्जस
समय यहा से गये हो, मझ ु े ज्ञान न था कक वहा जाकर मेरी दिेि करोगे। खैर, तुम्हीीं सच और मैं ही झठ ू ।
मझ
ु े बडी प्रसन्नता हुई कक तुमने मरे दोनों पत्र पसन्द ककये। पर प्रतापचन्द्र को व्यथम ददखाये। वे पत्र बडी
असावधानी से लिखे गये है । सम्भव है कक अशद् ु ववया रह गयी हों। मझे ववश्वास नहीीं आता कक प्रताप ने
उन्हें मल्
ू यवान समझा हो। यदद वे मेरे पत्रों का इतना आदर करते हैं कक उनके सहार से हमारे ग्राम्य-जीवन
पर कोई रोचक ननबन्ध लिख सकें, तो मैं अपने को परम भाग्यवान ् समझती हू।
कि यहा दे वीजी की पज
ू ा थी। हि, चक्की, परु चल्
ू हे सब बन्द थे। दे वीजी की ऐसी ही आज्ञा है । उनकी
आज्ञा का उल्िघींन कौन करे ? हुक्का-पानी बन्द हो जाए। साि-भर मीं यही एक ददन है , क्जस गावािे भी
छुट्टी का समझते हैं। अन्यथा होिी-ददवािी भी प्रनत ददन के आवश्यक कामों को नहीीं रोक सकती। बकरा
चढा। हवन हुआ। सत्तू खखिाया गया। अब गाव के बच्चे-बच्चे को पण
ू म ववश्वास है कक प्िेग का आगमन यहा

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न हो सकेगा। ये सब कौतक
ु दे खकर सोयी थी। िगभग बारह बजे होंगे कक सैंकडों मनष्ु य हाथ में मशािें
लिये कोिाहि मचाते ननकिे और सारे गाव का फेरा ककया। इसका यह अथम था कक इस सीमा के भीतर
बीमारी पैर न रख सकेगी। फेरे के सप्ताह होने पर कई मनष्ु य अन्य ग्राम की सीमा में घस
ु गये और थोडे
फूि,पान, चावि, िौंग आदद पदाथम पथ्
ृ वी पर रख आये। अथामत ् अपने ग्राम की बिा दस
ू रे गाव के लसर डाि
आये। जब ये िोग अपना कायम समाप्त करके वहा से चिने िगे तो उस गाववािों को सन
ु गुन लमि गयी।
सैकडों मनष्ु य िादठया िेकर चढ़ दौडे। दोनों पक्षवािों में खूब मारपीट हुई। इस समय गाव के कई मनष्ु य
हल्दी पी रहे हैं।
आज प्रात:काि बची-बचायी रस्में परू ी हुई, क्जनको यहा कढ़ाई दे ना कहते हैं। मेरे द्वार पर एक भट्टा
खोदा गया और उस पर एक कडाह दध ू से भरा हुआ रखा गया। काशी नाम का एक भर है । वह शरीर में
भभत
ू रमाये आया। गाव के आदमी टाट पर बैठे। शींख बजने िगा। कडाह के चतदु दम क मािा-फूि बबखेर
ददये गये। जब कहाड में खब
ू उबाि आया तो काशी झट उठा और जय कािीजी की कहकर कडाह में कूद
पडा। मैं तो समझी अब यह जीववत न ननकिेगा। पर पाच लमनट पश्चात ् काशी ने कफर छिाग मारी और
कडाह के बाहर था। उसका बाि भी बाका न हुआ। िोगों ने उसे मािा पहनायी। वे कर बाधकर पछ
ू ने िगे-
महराज! अबके वषम खेती की उपज कैसी होगी ? बीमारी अवेगी या नहीीं ? गाव के िोग कुशि से रहें गे ?
गुड का भाव कैसा रहे गा ? आदद। काशी ने इन सब प्रश्नों के उत्तर स्पष्ट पर ककींधचत ् रहस्यपण
ू म शब्दों में
ददये। इसके पश्चात ् सभा ववसक्जमत हुई। सन
ु ती हू ऐसी कक्रया प्रनतवषम होती है। काशी की भववष्यवाखणया यब
सत्य लसद्व होती हैं। और कभी एकाध असत्य भी ननकि जाय तो काशी उना समाधान भी बडी योग्यता से
कर दे ता है । काशी बडी पहुच का आदमी है । गाव में कहीीं चोरी हो, काशी उसका पता दे ता है । जो काम
पलु िस के भेददयों से परू ा न हो, उसे वह परू ा कर दे ता है । यद्यवप वह जानत का भर है तथावप गाव में
उसका बडा आदर है । इन सब भक्क्तयों का परु स्कार वह मददरा के अनतररक्त और कुछ नहीीं िेता। नाम
ननकिवाइये, पर एक बोति उसको भें ट कीक्जये। आपका अलभयोग न्यायािय में हैं; काशी उसके ववजय का
अनष्ु ठान कर रहा है। बस, आप उसे एक बोति िाि जि दीक्जये।
होिी का समय अनत ननकट है ! एक सप्ताह से अधधक नहीीं। अहा! मेरा हृदय इस समय कैसा खखि
रहा है ? मन में आनन्दप्रद गुदगुदी हो रही है। आखें तुम्हें दे खने के लिए अकुिा रही है । यह सप्ताह बडी
कदठनाई से कटे गा। तब मैं अपने वपया के दशमन पाऊगी।
तम्
ु हारी
ववरजन
(4)
मझगाव
प्यारे
तुम पाषाणहृदय हो, कट्टर हो, स्नेह-हीन हो, ननदम य हो, अकरुण हो झठ
ू ो हो! मैं तुम्हें और क्या गालिया
द ू और क्या कोसू ? यदद तुम इस क्षण मेरे सम्मख
ु होते, तो इस वज्रहृदयता का उत्तर दे ती। मैं कह रही हू,
तुतम दगाबाज हो। मेरा क्या कर िोगे ? नहीीं आते तो मत आओ। मेरा प्रण िेना चाहते हो, िे िो। रुिाने
की इच्छा है , रुिाओ। पर मैं क्यों रोँऊ ! मेरी बिा रोवे। जब आपको इतना ध्यान नहीीं कक दो घण्टे की यात्रा
है , तननक उसकी सधु ध िेता आऊ, तो मझ
ु े क्या पडी है कक रोँऊ और प्राण खोँऊ ?
ऐसा क्रोध आ रहा है कक पत्र फाडकर फेंक द ू और कफर तम
ु से बात न करुीं । हा ! तम
ु ने मेरी सारी
अलभिाषाएीं, कैसे घि
ू में लमिायी हैं ? होिी! होिी ! ककसी के मख
ु से यह शब्द ननकिा और मेरे हृदय में
गुदगुदी होने िगी, पर शोक ! होिी बीत गयी और मैं ननराश रह गयी। पदहिे यह शब्द सन
ु कर आनन्द होता
था। अब द:ु ख होता है । अपना-अपना भाग्य है । गाव के भख
ू े-नींगे िगोटी में फाग खेिें, आनन्द मनावें, रीं ग
उडावें और मैं अभाधगनी अपनी चारपाइर पर सफेद साडी पदहने पडी रहू। शपथ िो जो उस पर एक िाि
धब्बा भी पडा हो। शपथ िें िो जो मैंने अबीर और गुिाि हाथ से छुई भी हो। मेरी इत्र से बनी हुई अबीर,
केवडे में घोिी गुिाि, रचकर बनाये हुए पान सब तुम्हारी अकृपा का रोना रो रहे हैं। माधवी ने जब बहुत
हठ की, तो मैंने एक िाि टीका िगवा लिया। पर आज से इन दोषारोपणों का अन्त होता है । यदद कफर कोई
शब्द दोषारोपण का मख
ु से ननकिा तो जबान काट िगी।

परसों सायींकाि ही से गाव में चहि-पहि मचने िगी। नवयव
ु कों का एक दि हाथ में डफ लिये,
अश्िीि शब्द बकते द्वार-द्वार फेरी िगाने िगा। मझ
ु े ज्ञान न था कक आज यहा इतनी गालिया खानी

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पडेंगी। िजजाहीन शब्द उनके मख
ु से इस प्रकार बेधडक ननकिते थे जैसे फूि झडते हों। िजजा और सींकोच
का नाम न था। वपता, पत्र
ु के सम्मख
ु और पत्र
ु , वपता के सम्ख गालिया बक रहे थे। वपता ििकार कर पत्र
ु -
वधू से कहता है- आज होिी है ! वधू घर में लसर नीचा ककये हुए सन
ु ती है और मस्ु करा दे ती है । हमारे
पटवारी साहब तो एक ही महात्म ननकिे। आप मददरा में मस्त, एक मैिी-सी टोपी लसर पर रखे इस दि के
नायक थे। उनकी बहू-बेदटया उनकी अश्िीिता के वेग से न बच सकीीं। गालिया खाओ और हसो। यदद बदन
पर तननक भी मैि आये, तो िोग समझेंग कक इसका मह ु रम म का जन्म हैं भिी प्रथा है।
िगभग तीन बजे राबत्र के झण् ु ड होिी माता के पास पहुचा। िडके अक्ग्न-क्रीडादद में तत्पर थे। मैं भी
कई स्त्रीयों के पास गयी, वहा स्त्रीया एक ओर होलिया गा रही थीीं। ननदान होिी म आग िगाने का समय
आया। अक्ग्न िगते ही जवाि भडकी और सारा आकाश स्वणम-वणम हो गया। दरू -दरू तक के पेड-पत्ते प्रकालशत
हो गय। अब इस अक्ग्न-रालश के चारों ओर ‘होिी माता की जय!’ धचल्िा कर दौडने िगे। सबे हाथों में गेहू
और जौ कक बालिया थीीं, क्जसको वे इस अक्ग्न में फेंकते जाते थे।
जब जवािा बहुत उत्तेक्जत हुई, तो िेग एक ककनारे खडे होकर ‘कबीर’ कहने िगे। छ: घण्टे तक यही
दशा रही। िकडी के कुन्दों से चटाकपटाक के शब्द ननकि रहे थे। पशग ु ण अपने-अपने खूटों पर भय से
धचल्िा रहे थे। तुिसा ने मझ
ु से कहा- अब की होिी की जवािा टे ढ़ी जा रही है । कुशि नहीीं। जब जवािा
सीधी जाती है, गाव में साि-भर आनन्द की बधाई बजती है । परन्तु जवािा का टे ढ़ी होना अशभ
ु है ननदान
िपट कम होने िगी। आच की प्रखरता मन्द हुई। तब कुछ िोग होिी के ननकट आकर ध्यानपव ू क
म दे खने
िगे। जैसे कोइ वस्तु ढूढ़ रहे हों। तुिसा ने बतिाया कक जब बसन्त के ददन होिी नीवीं पडती है , तो पदहिे
एक एरण्ड गाड दे ते हैं। उसी पर िकडी और उपिों का ढे र िगाया जाता है। इस समय िोग उस एरण्ड के
पौधे का ढूढ रहे हैं। उस मनष्ु य की गणना वीरों में होती है जो सबसे पहिे उस पौधे पर ऐसा िक्ष्य करे कक
वह टूट कर दज
ू जा धगर। प्रथम पटवारी साहब पैंतरे बदिते आये, पर दस गज की दस
ू ी से झाककर चि
ददये। तब राधा हाथ में एक छोटा-सा सोंटा लिये साहस और दृढ़तापव
ू क
म आगे बढ़ा और आग में घस
ु कर वह
भरपरू हाथ िगाया कक पौधा अिग जा धगरा। िोग उन टुकडों को िट
ू न िगे। माथे पर उसका टीका िगाते
हैं और उसे शभ
ु समझते हैं।
यहा से अवकाश पाकर परु
ु ष-मण्डिी दे वीजी के चबत
ू रे की ओर बढ़ी। पर यह न समझना, यहा दे वीजी
की प्रनतष्ठा की गई होगी। आज वे भी गक्जया सन
ु ना पसन्द करती है । छोटे -बडे सब उन्हीं अश्िीि गालिया
सन
ु ा रहे थे। अभी थोडे ददन हुए उन्हीीं दे वीजी की पज
ू ा हुई थी। सच तो यह है कक गावों में आजकि ईश्वर
को गािी दे ना भी क्षम्य है । माता-बदहनों की तो कोई गणना नहीीं।
प्रभात होते ही िािा ने महाराज से कहा- आज कोई दो सेर भींग वपसवा िो। दो प्रकारी की अिग-
अिग बनवा िो। सिोनी आ मीठी। महारा ज ननकिे और कई मनष्ु यों को पकड िाये। भाींग पीसी जाने
िगी। बहुत से कुल्हड मगाकर क्रमपव ू क
म रखे गये। दो घडों मीं दोनो प्रकार की भाींग रखी गयी। कफर क्या
था, तीन-चार घण्टों तक वपयक्कडों का ताता िगा रहा। िोग खूब बखान करते थे और गदम न दहिा- दहिाकर
महाराज की कुशिता की प्रशींसा करते थे। जहा ककसी ने बखान ककया कक महाराज ने दस
ू रा कुल्हड भरा
बोिे-ये सिोनी है । इसका भी स्वाद चखिो। अजी पी भी िो। क्या ददन-ददन होिी आयेगी कक सब ददन
हमारे हाथ की बट
ू ी लमिेगी ? इसके उत्तर में ककसान ऐसी दृक्ष्ट से ताकता था, मानो ककसी ने उसे
सींजीवन रस दे ददया और एक की जगह तीन-तीन कुल्हड चट कर जाता। पटवारी कक जामाता मन्
ु शी
जगदम्बा प्रसाद साहब का शभ
ु ागमन हुआ है । आप कचहरी में अरायजनवीस हैं। उन्हें महाराज ने इतनी
वपिा दी कक आपे से बाहर हो गये और नाचने-कूदने िगे। सारा गाव उनसे पोदरी करता था। एक ककसान
आता है और उनकी ओर मस्
ु कराकर कहता है- तुम यहा ठाढ़ी हो, घर जाके भोजन बनाओ, हम आवत हैं।
इस पर बडे जोर की हसी होती है, काशी भर मद में माता िट्ठा कन्धे पर रखे आता और सभाक्स्थत जनों
की ओर बनावटी क्रोध से दे खकर गरजता है - महाराज, अच्छी बात नहीीं है कक तुम हमारी नयी बहुररया से
मजा िट
ू ते हो। यह कहकर मन् ु शीजी को छाती से िगा िेता है।
मींश
ु ीजी बेचारे छोटे कद के मनष्ु य, इधर-उधर फडफडाते हैं, पर नक्कारखाने मे तत
ू ी की आवाज कौन
सन
ु ता है ? कोई उन्हें प्यार करता है और ग़िे िगाता है । दोपहर तक यही छे ड-छाड हुआ की। ति ु सा अभी
तक बैठी हुई थी। मैंने उससे कहा- आज हमारे यहा तम् ु हारा न्योता है। हम तम
ु सींग खायेंगी। यह सनु ते ही
महराक्जन दो थालियों में भोजन परोसकर िायी। तुिसा इस समय खखडकी की ओर मह
ु करके खडी थी।
मैंने जो उसको हाथ पकडकर अपनी और खीींचा तो उसे अपनी प्यारी-प्यारी ऑ ींखों से मोती के सोने बबखेरते

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हुए पाया। मैं उसे गिे िगाकर बोिी- सखी सच-सच बतिा दो, क्यों रोती हो? हमसे कोइर दरु ाव मत रखो।
इस पर वह और भी लससकने िगी। जब मैंने बहुत हठ की, उसने लसर घम ु ाकर कहा-बदहन! आज प्रात:काि
उन पर ननशान पड गया। न जाने उन पर क्या बीत रही होगी। यह कहकर वह फूट-फूटकर रोने िगी। ज्ञात
हुआ कक राधा के वपता ने कुछ ऋण लिया था। वह अभी तक चक ु ा न सका था। महाजन ने सोचा कक इसे
हवािात िे चिू तो रुपये वसिू हो जायें। राधा कन्नी काटता कफरता था। आज द्वेवषयों को अवसर लमि
गया और वे अपना काम कर गये। शोक ! मि
ू धन रुपये से अधधक न था। प्रथम मझ
ु ज्ञात होता तो बेचारे
पर त्योहार के ददन यह आपवत्त न आने पाती। मैंने चप
ु के से महाराज को बि
ु ाया और उन्हें बीस रुपये दे कर
राधा को छुडाने के लिये भेजा।
उस समय मेरे द्वार पर एक टाट बबछा ददया गया था। िािाजी मध्य में कािीन पर बैठे थे। ककसान
िोग घट
ु ने तक धोनतया बाधे, कोई कुती पदहने कोई नग्न दे ह, कोई लसर पर पगडी बाधे और नींगे लसर, मख

पर अबीर िगाये- जो उनके कािे वणम पर ववशेष छटा ददखा रही थी- आने िगे। जो आता, िािाजी के पैंरों
पर थोडी-सी अबीर रख दे त। िािािी भी अपने तश्तरी में से थोडी-सी अबीर ननकािकर उसके माथे पर िगा
दे ते और मस्
ु कुराकर कोई ददल्िगी की बात कर दे ते थे। वह ननहाि हो जाता, सादर प्रणाम करता और ऐसा
प्रसन्न होकर आ बैठता, मानो ककसी रीं क ने रत्न- रालश पायी है। मझ
ु े स्पप्न में भी ध्यान न था कक िािाजी
इन उजड्ड दे हानतयों के साथ बैठकर ऐसे आनन्द से वतामिाप कर सकते हैं। इसी बीच में काशी भर आया।
उसके हाथ में एक छोटी-सी कटोरी थी। वह उसमें अबीर लिए हुए था। उसने अन्य िोगों की भानत िािाजी
के चरणों पर अबीर नहीीं रखी, ककींतु बडी धष्ृ टता से मट्
ु ठी-भर िेकर उनके मख
ु पर भिी-भानत मि दी। मैं
तो डरी, कहीीं िािाजी रुष्ट न हो जाय। पर वह बहुत प्रसन्न हुए और स्वयीं उन्होंने भी एक टीका िगाने के
स्थान पर दोनों हाथों से उसके मख ु पर अबीर मिी। उसके सी उसकी ओर इस दृक्ष्ट से दे खते थे कक
ननस्सींदेह तू वीर है और इस योग्य है कक हमारा नायक बने। इसी प्रकार एक-एक करके दो-ढाई सौ मनष्ु य
एकत्र हुए ! अचानक उन्होंने कहा-आज कहीीं राधा नहीीं दीख पडता, क्या बात है ? कोई उसके घर जाके दे खा
तो। मींश
ु ी जगदम्बा प्रसाद अपनी योग्यता प्रकालशत करने का अच्छा अवसी दे खकर बोिे उठे -हजूर वह दफा
13 नीं. अलिफ ऐक्ट (अ) में धगरफ्तार हो गया। रामदीन पाींडे ने वारण्ट जारी करा ददया। हरीच्छा से रामदीन
पाींडे भी वहा बैठे हुए थे। िािा सने उनकी ओर परम नतरस्कार दृक्ष्ट से दे खा और कहा- क्यों पाींडज
े ी, इस
दीन को बन्दीगह ृ में बन्द करने से तुम्हारा घर भर जायगा ? यही मनष्ु यता और लशष्टता अब रह गयी है ।
तम्
ु हें तननक भी दया न आयी कक आज होिी के ददन उसे स्त्री और बच्चों से अिग ककया। मैं तो सत्य
कहता हू कक यदद मैं राधा होता, तो बन्दीगहृ से िौटकर मेरा प्रथम उद्योग यही होता कक क्जसने मझु े यह
ददन ददखाया है , उसे मैं भी कुछ ददनों हिदी वपिवा द।ू तम्
ु हें िाज नहीीं आती कक इतने बडे महाजन होकर
तुमने बीस रुपये के लिए एक दीन मनष्ु य को इस प्रकार कष्ट में डािा। डूब मरना था ऐसे िोभ पर!
िािाजी को वस्तुत: क्रोध आ गया था। रामदीन ऐसा िक्जजत हुआकक सब लसट्टी-वपट्टी भि
ू गयी। मख ु से
बात न ननकिी। चप ु के से न्यायािय की ओर चिा। सब-के-सब कृषक उसकी ओर क्रोध-पण ू म दृक्ष्ट से दे ख
रहे थे। यदद िािाजी का भय न होता तो पाींडज
े ी की हड्डी-पसिी वहीीं चरू हो जाती।
इसके पश्चात िोगों ने गाना आरम्भ ककया। मद में तो सब-के-सब गाते ही थे, इस पर िािजी के
भ्रात-ृ भाव के सम्मान से उनके मन और भी उत्सादहत हो गये। खब
ू जी तोडकर गाया। डफें तो इतने जोर से
बजती थीीं कक अब फटी और तब फटीीं। जगदम्बाप्रसाद ने दहु रा नशा चढ़ाया था। कुछ तो उनकें मन में
स्वत: उमींग उत्पन्न हुई, कुछ दस
ू रों ने उत्तेजना दी। आप मध्य सभा में खडा होकर नाचने िगे; ववश्वास
मानो, नाचने िग। मैंनें अचकन, टोपी, धोती और मछोंवािे
ू परु
ु ष को नाचते न दे खा था। आध घण्टे तक वे
बन्दरों की भानत उछिते-कूदते रहे । ननदान मद ने उन्हें पथ्
ृ वी पर लिटा ददया। तत्पश्चात ् एक और अहीर
उठा एक अहीररन भी मण्डिी से ननकिी और दोनों चौक में जाकर नाचने िगे। दोनों नवयव
ु क फुतीिे थे।
उनकी कमर और पीठ की िचक वविक्षण थी। उनके हाव-भाव, कमर का िचकना, रोम-रोम का फडकना,
गदम न का मोड, अींगों का मरोड दे खकर ववस्मय होता थाीं बहुत अभ्यास और पररश्रम का कायम है ।
अभी यहा नाच हो ही रहा था कक सामने बहुत-से मनष्ु य िींबी-िींबी िादठया कन्धों पर रखे आते
ददखायी ददये। उनके सींग डफ भी था। कई मनष्ु य हाथों से झाझ और मजीरे लिये हुए थे। वे गाते-बजाते
आये और हमारे द्वार पर रुके। अकस्मात तीन- चार मन ु ष्यों ने लमिकर ऐसे आकाशभेदी शब्दों में
‘अररर...कबीर’ की ध्वनन िगायी कक घर काप उठा। िािाजी ननकिे। ये िोग उसी गाव के थे, जहा ननकासी
के ददन िादठया चिी थीीं। िािजी को दे खते ही कई परु
ु षों ने उनके मख
ु पर अबीर मिा। िािाजी ने भी

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प्रत्यत्त
ु र ददया। कफर िोग फशम पर बैठा। इिायची और पान से उनका सम्मान ककया। कफर गाना हुआ। इस
गाववािों ने भी अबीर मिीीं और मिवायी। जब ये िेग बबदा होने िगे, तो यह होिी गायी:

‘सदा आनन्द रहे दह द्वारे मोहन खेिें होरी।’

ककतना सह ु ावना गीत है ! मझ


ु े तो इसमें रस और भाव कूट-कूटकर भारा हुआ प्रतीत होता है। होिी का
भाव कैसे साधारण और सींक्षक्षपत शब्दों में प्रकट कर ददया गया है। मैं बारम्बार यह प्यारा गीत गाती हू,
आनन्द िट ू ती हू। होिी का त्योहार परस्पर प्रेम और मेि बढ़ाने के लिए है । सम्भव सन था कक वे िोग,
क्जनसे कुछ ददन पहिे िादठया चिी थीीं, इस गाव में इस प्रकार बेधडक चिे आते। पर यह होिी का ददन
है । आज ककसी को ककसी से द्वेष नहीीं है । आज प्रेम और आनन्द का स्वराजय है। आज के ददन यदद दख
ु ी
हो तो परदे शी बािम की अबिा। रोवे तो यव
ु ती ववधवा ! इनके अनतररक्त और सबके लिए आनन्द की बधाई
है ।
सन्ध्या-समय गाव की सब स्त्रीया हमारे यहा खेिने आयीीं। मातजी ने उन्हें बडे आदर से बैठाया। रीं ग
खेिा, पान बाटा। मैं मारे भय के बाहर न ननकिी। इस प्रकार छुट्टी लमिी। अब मझ
ु े ध्यान आया कक
माधवी दोपहर से गायब है । मैंने सोचा था शायद गाव में होिी खेिने गयी हो। परन्तु इन स्त्रीयों के सींग
न थी। तुिसा अभी तक चप
ु चाप खखडकी की ओर मह
ु ककये बैठी थी। दीपक में बत्ती पडी रही थी कक वह
अकस्मात ् उठी, मेरे चरणों पर धगर पडी और फूट-फूटकर रोने िगी। मैंने खखडकी की ओर झाका तो दे खती हू
कक आगे-आगे महाराज, उसके पीछे राधा और सबसे पीछे रामदीन पाींडे चि रहे हैं। गाव के बहत से आदमी
उनकेस सींग है । राधा का बदन कुम्हिाया हुआ है । िािाजी ने जयोंही सन
ु ा कक राधा आ गया, चट बाहर
ननकि आये और बडे स्नेह से उसको कण्ठ से िगा लिया, जैसे कोई अपने पत्र ु का गिे से िगाता है। राधा
धचल्िा-धचल्िाकर के चरणों में धगर पडी। िािाजी ने उसे भी बडे प्रेम से उठाया। मेरी ऑ ींखों में भी उस
समय ऑ ींसू न रुक सके। गाव के बहुत से मनष्ु य रो रहे थे। बडा करुणापण ू म दृश्य था। िािाजी के नेत्रों में
मैंने कभी ऑ ींसू ने दे खे थे। वे इस समय दे खे। रामदीन पाण्डेय मस्तक झक
ु ाये ऐसा खडा था, माना गौ-हत्या
की हो। उसने कहा-मरे रुपये लमि गये, पर इच्छा है, इनसे तुिसा के लिए एक गाय िे द।ू
राधा और तुिसा दोनों अपने घर गये। परन्तु थोडी दे र में तुिसा माधवी का हाथ पकडे हसती हुई मरे
घर आयी बोिी- इनसे पछ
ू ो, ये अब तक कहा थीीं?
मैं- कहा थी ? दोपहर से गायब हो ?
माधवी-यहीीं तो थी।
मैं- यहा कहा थीीं ? मैंने तो दोपहर से नहीीं दे खा। सच-सख ् बता दो मैं रुष्ट न होँऊगी।
माधवी- ति
ु सा के घर तो चिी गयी थी।
मैं- तुिसा तो यहा बैठी है, वहा अकेिी क्या सोती रहीीं ?
तुिसा- (हसकर) सोती काहे को जागती रह। भोजन बनाती रही, बरतन चौका करती रही।
माधवी- हा, चौका-बरतर करती रही। कोई तुम्हार नौकर िगा हुआ है न!
ज्ञात हुअ कक जब मैंने महाराज को राधा को छुडाने के लिए भेजा था, तब से माधवी तुिसा के घर
भोजन बनाने में िीन रही। उसके ककवाड
खोिे। यहा से आटा, घी, शक्कर सब िे गयी। आग जिायी और पडू डया, कचौडडया, गि
ु गुिे और मीठे समोसे
सब बनाये। उसने सोचा थाकक मैं यह सब बताकर चप
ु के से चिी जाऊगी। जब राधा और ति
ु सा जायेंगे, तो
ववक्स्मत होंगे कक कौन बना गया! पर स्यात ् वविम्ब अधधक हो गया और अपराधी पकड लिया गया। दे खा,
कैसी सश
ु ीिा बािा है।
अब ववदा होती हू। अपराध क्षमा करना। तम् ु हारी चेरी हू जैसे रखोगे वैसे रहूगी। यह अबीर और गुिाि
भेजती हू। यह तुम्हारी दासी का उपहार है । तुम्हें हमारी शपथ लमथ्या सभ्यता के उमींग में आकर इसे फेंक
न दे ना, नहीीं तो मेरा हृदय दख
ु ी होगा।
तुम्हारी,
ववरजन
(5)
मझगाव
‘प्यारे !

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तम् ु हारे पत्र ने बहुत रुिाया। अब नहीीं रहा जाता। मझ
ु े बि
ु ा िो। एक बार दे खकर चिी आऊगी। सच
बताओीं, यदद में तम् ु हारे यहा आ जाऊीं, तो हसी तो न उडाओगे? न जाने मन मे क्या समझोग ? पर कैस
आऊीं? तम
ु िािाजी को लिखो खब
ू ! कहें गे यह नयी धन
ु समायी है।
कि चारपाई पर पडी थी। भोर हो गया था, शीति मन्द पवन चि रहा था कक स्त्रीया गाने का शब्द
सन
ु ायी पडा। स्त्रीया अनाज का खेत काटने जा रही थीीं। झाककर दे खा तो दस-दस बारह-बारह स्त्रीयों का
एक-एक गोि था। सबके हाथों में हीं लसया, कन्धों पर गादठया बाधने की रस्स ् ओर लसर पर भनु े हुए मटर की
छबडी थी। ये इस समय जाती हैं, कहीीं बारह बजे िौंटे गी। आपस में गाती, चह
ु िें करती चिी जाती थीीं।
दोपहर तक बडी कुशिता रही। अचानक आकश मेघाच्छन्न हो गया। ऑ ींधी आ गयी और ओिे धगरने
िगे। मैंने इतने बडे ओिे धगरते न दे खे थे। आिू से बडे और ऐसी तेजी से धगरे जैसे बन्दक
ू से गोिी। क्षण-
भर में पथ्
ृ वी पर एक फुट ऊींचा बबछावन बबछ गया। चारों तरफ से कृषक भागने िगे। गायें, बककरया, भेडें
सब धचल्िाती हुई पेडों की छाया ढूढ़ती, कफरती थीीं। मैं डरी कक न-जाने ति
ु सा पर क्या बीती। आींखे फैिाकर
दे खा तो खुिे मैदान में तुिसा, राधा और मोदहनी गाय दीख पडीीं। तीनों घमासान ओिे की मार में पडे थे!
तुिसा के लसर पर एक छोटी-सी टोकरी थी और राधा के लसर पर एक बडा-सा गट्ठा। मेरे नेत्रों में आींसू भर
आये कक न जाने इन बेचारों की क्या गनत होगी। अकस्मात एक प्रखर झोंके ने राधा के लसर से गट्ठा धगरा
ददया। गट्ठा का धगरना था कक चट तुिसा ने अपनी टोकरी उसके लसर पर औींधा दी। न-जाने उस पष्ु प ऐसे
लसर पर ककतने ओिे पडे। उसके हाथ कभी पीठ पर जाते, कभी लसर सह
ु िाते। अभी एक सेकेण्ड से अधधक
यह दशा न रही होगी कक राधा ने बबजिी की भानत जपककर गट्ठा उठा लिया और टोकरी तुिसा को दे
दी। कैसा घना प्रेम है !
अनथमकारी दद
ु े व ने सारा खेि बबगाड ददया ! प्रात:काि स्त्रीया गाती हुई जा रही थीीं। सन्ध्या को घर-
घर शोक छाया हुआ था। ककतना के लसर िहू-िह ु ान हो गये, ककतने हल्दी पी रहे हैं। खेती सत्यानाश हो
गयी। अनाज बफम के तिे दब गया। जवर का प्रकोप हैं सारा गाव अस्पताि बना हुआ है । काशी भर का
भववष्य प्रवचन प्रमाखणत हुआ। होिी की जवािा का भेद प्रकट हो गया। खेती की यह दशा और िगान
उगाहा जा रहा है। बडी ववपवत्त का सामना है । मार-पीट, गािी, अपशब्द सभी साधनों से काम लिया जा रहा
है । दोंनों पर यह दै वी कोप!
तुम्हारी
ववरजन
(6)

मझगाव
मेरे प्राणधधक वप्रयतम,
परू े पन्द्रह ददन के पश्चात ् तुमने ववरजन की सधु ध िी। पत्र को बारम्बार पढ़ा। तुम्हारा पत्र रुिाये
बबना नहीीं मानता। मैं यों भी बहुत रोया करती हू। तुमको ककन-ककन बातों की सधु ध ददिाऊ? मेरा हृदय
ननबमि है कक जब कभी इन बातों की ओर ध्यान जाता है तो ववधचत्र दशा हो जाती है। गमी-सी िगती है ।
एक बडी व्यग्र करने वािी, बडी स्वाददष्ट, बहुत रुिानेवािी, बहुत दरु ाशापण
ू म वेदना उत्पन्न होती है । जानती हू
कक तुम नहीीं आ रहे और नहीीं आओगे; पर बार-बार जाकर खडी हो जाती हू कक आ तो नहीीं गये।
कि सायींकाि यहा एक धचत्ताकषमक प्रहसन दे खने में आया। यह धोबबयों का नाच था। पन्द्रह-बीस
मनष्ु यों का एक समद
ु ाय था। उसमे एक नवयव
ु क श्वेत पेशवाज पदहने, कमर में असींख्य घींदटया बाधे, पाव में
घघ
ु रु पदहने, लसर पर िाि टोपी रखे नाच रहा था। जब परु
ु ष नाचता था तो मअ
ृ ींग बजने िगती थी। ज्ञात
हुआ कक ये िोग होिी का परु स्कार मागने आये हैं। यह जानत परु स्कार खूब िेती है । आपके यहा कोई काम-
काज पडे उन्हें परु स्कार दीक्जये; और उनके यहा कोई काम-काज पडे, तो भी उन्हें पाररतोवषक लमिना चादहए।
ये िोग नाचते समय गीत नहीीं गाते। इनका गाना इनकी कववता है। पेशवाजवािा परु
ु ष मद
ृ ीं ग पर हाथ
रखकर एक ववरहा कहता है । दस
ू रा परु
ु ष सामने से आकर उसका प्रत्यत्त
ु र दे ता है और दोनों तत्क्षण वह
ववरहा रचते हैं। इस जानत में कववत्व-शक्क्त अत्यधधक है । इन ववरहों को ध्यान से सन ु ो तो उनमे बहुधा
उत्तम कववत्व भाव प्रकट ककये जाते हैं। पेशवाजवािे परु
ु षों ने प्रथम जो ववरहा कहा था, उसका यह अथम कक
ऐ धोबी के बच्चों! तम
ु ककसके द्वार पर आकर खडे हो? दस
ू रे ने उत्तर ददया-अब न अकबर शाह है न राजा
भोज, अब जो हैं हमारे मालिक हैं उन्हीीं से मागो। तीसरे ववरहा का अथम यह है कक याचकों की प्रनतष्ठा कम
होती है अतएव कुछ मत मागों, गा-बाजकर चिे चिो, दे नेवािा बबन मागे ही दे गा। घण्टे -भर से ये िोग ववरहे
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कहते रहे । तम्
ु हें प्रतनत न होगी, उनके मख
ु से ववरहे इस प्रकार बेधडक ननकिते थे कक आश्चयम प्रकट होता
था। स्यात इतनी सग
ु मता से वे बातें भी न कर सकते हों। यह जानत बडी वपयक्कड है । मददरा पानी की
भानत पीती है। वववाह में मददरा गौने में मददरा, पज
ू ा-पाठ में मददरा। परु स्कार मागें गे तो पीने के लिए।
धि
ु ाई मागें गे तो यह कहकर कक आज पीने के लिए पैसे नहीीं हैं। ववदा होते समय बेचू धोबी ने जो ववरहा
कहा था, वह काव्यािींकार से भरा हुआ है। तुम्हारा पररवार इस प्रकार बढ़े जैसे गींगा जी का जि। िडके
फूिे-फिें, जैसे आम का बौर। मािककन को सोहाग सदा बना रहे , जैसे दब ू की हररयािी। कैसी अनोखी
कववता है ।

तुम्हारी
ववरजन

(7)
मझगाव
प्यारे ,
एक सप्ताह तक चप ु रहने की क्षमा चाहती हू। मझ ु े इस सप्ताह में तननक भी अवकाश न लमिा।
माधवी बीमार हो गयी थी। पहिे तो कुनैन को कई पडु डया खखिायी गयीीं पर जब िाभ न हुआ और उसकी
दशा और भी बरु ी होने िगी तो, ददहिरू ाय वैद्य बि
ु ाये गये। कोई पचास वषम की आयू होगी। नींगे पाव लसर
पर एक पगडो बाधे, कन्धे पर अींगोछा रखे, हाथ में मोटा-सा सोटा लिये द्वार पर आकर बैठ गये। घर के
जमीींदार हैं, पर ककसी ने उनके शरीर मे लमजई तक नहीीं दे खी। उन्हें इतना अवकाश ही नहीीं कक अपने शरीर-
पािन की ओर ध्यान दे । इस मींडि में आठ-दस कोस तक के िोग उन पर ववश्वास करते हैं। न वे हकीम
को िाने, न डाक्टर को। उनके हकीम-डाक्टर जो कुछ हैं वे ददहिरू ाय है । सन्दे शा सन
ु ते ही आकर द्वार पर
बैठ गये। डाक्टरों की भानत नहीीं की प्रथम सवारी मागें गे- वह भी तेज क्जसमें उनका समय नष्ट न हो।
आपके घर ऐसे बैठे रहें ग,े मानों गूगें का गुड खा गये हैं। रोगी को दे खने जायेंगे तो इस प्रकार भागें गे मानो
कमरे की वायु में ववष भरा हुआ है । रोग पररचय और औषधध का उपचार केवि दो लमनट में समाप्त।
ददहिरू ाय डाक्टर नहीीं हैं- पर क्जतने मनष्ु यों को उनसे िाभ पहुचता हैं, उनकी सींख्या का अनम ु ान करना
कदठन है । वह सहानभ ु नू त की मनू तम है। उन्हें दे खते ही रे गी का आधा रोग दरू हो जाता है । उनकी औषधधया
ऐसी सग
ु म और साधारण होती हैं कक बबना पैसा-कौडी मनों बटोर िाइए। तीन ही ददन में माधवी चिने-
कफरने िगी। वस्तत
ु : उस वैद्य की औषधध में चमत्कार है ।
यहा इन ददनों मग
ु लिये ऊधम मचा रहे हैं। ये िोग जाडे में कपडे उधार दे दे ते हैं और चैत में दाम
वसि
ू करते हैं। उस समय कोई बहाना नहीीं सन
ु ते। गािी-गिौज मार-पीट सभी बातों पर उतरा आते हैं। दो-
तीन मनष्ु यों को बहुत मारा। राधा ने भी कुछ कपडे लिये थे। उनके द्वार पर जाक सब-के-सब गालिया दे ने
िगे। तुिसा ने भीतर से ककवाड बन्द कर ददये। जब इस प्रकार बस न चिा, तो एक मोहनी गाय को खटेू
से खोिकर खीींचते हुए िे चिा। इतने मीं राधा दरू से आता ददखाई ददया। आते ही आते उसने िाठी का वह
हाथ मारा कक एक मग ु लिये की किाई िटक पडी। तब तो मग ु लिये कुवपत हुए, पैंतरे बदिने िगे। राधा भी
जान पर खेन गया और तीन दष्ु टों को बेकार कर ददया। इतने काशी भर ने आकर एक मग
ु लिये की खबर
िी। ददहिरू ाय को मग
ु ालियों से धचढ़ है । सालभमान कहा करते हैं कक मैंने इनके इतने रुपये डुबा ददये इतनों
को वपटवा ददया कक क्जसका दहसाब नहीीं। यह कोिाहि सन ु ते ही वे भी पहुच गये। कफर तो सैकडो मनष्ु य
िादठया िे-िेकर दौड पडे। उन्होंने मग
ु लियों की भिी-भानत सेवा की। आशा है कक इधर आने का अब साहस
न होगा।
अब तो मइ का मास भी बीत गया। क्यों अभी छुट्टी नहीीं हुई ? रात-ददन तम्हारे आने की प्रतीक्षा
है । नगर में बीमारी कम हो गई है । हम िोग बह
ु त शीघ्र यह से चिे जायगे। शोक ! तुम इस गाव की सैर
न कर सकोगे।
तुम्हारी
ववरजन

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प्रतापचन्द्र और कमलाचरण

प्रतापचन्द्र को प्रयाग कािेज में पढ़ते तीन साि हो चक


ु े थे। इतने काि में उसने अपने सहपादठयों
और गुरुजनों की दृक्ष्ट में ववशेष प्रनतष्ठा प्राप्त कर िी थी। कािेज के जीवन का कोई ऐसा अींग न था जहा
उनकी प्रनतभा न प्रदलशमत हुई हो। प्रोफेसर उस पर अलभमान करते और छात्रगण उसे अपना नेता समझते हैं।
क्जस प्रकार क्रीडा-क्षेत्र में उसका हस्तिाघव प्रशींसनीय था, उसी प्रकार व्याख्यान-भवन में उसकी योग्यता और
सक्ष्
ू मदलशमता प्रमाखणत थी। कािेज से सम्बद्व एक लमत्र-सभा स्थावपत की गयी थी। नगर के साधारण सभ्य
जन, कािेज के प्रोफेसर और छात्रगण सब उसके सभासद थे। प्रताप इस सभा का उजजवि चन्द्र था। यहाीं
दे लशक और सामाक्जक ववषयों पर ववचार हुआ करते थे। प्रताप की वक्तत
ृ ाऍ ीं ऐसी ओजक्स्वनी और तकम-पण
ू म
होती थीीं की प्रोफेसरों को भी उसके ववचार और ववषयान्वेषण पर आश्चयम होता था। उसकी वक्तत ृ ा और
उसके खेि दोनों ही प्रभाव-पण
ू म होते थे। क्जस समय वह अपने साधारण वस्त्र पदहने हुए प्िेटफामम पर जाता,
उस समय सभाक्स्थत िोगों की आखे उसकी ओर एकटक दे खने िगती और धचत्त में उत्सक ु ता और उत्साह
की तरीं गें उठने िगती। उसका वाक्चातुयम उसक सींकेत और मद
ृ ि
ु उच्चारण, उसके अींगों-पाींग की गनत, सभी
ऐसे प्रभाव-परू रत होते थे मानो शारदा स्वयीं उसकी सहायता करती है। जब तक वह प्िेटफामम पर रहता
सभासदों पर एक मोदहनी-सी छायी रहती। उसका एक-एक वाक्य हृदय में लभद जाता और मख
ु से सहसा
‘वाह-वाह!’ के शब्द ननकि जाते। इसी ववचार से उसकी वक्ततृ ाऍ ीं प्राय: अन्त में हुआ करती थी क्योंकक
बहुतधा श्रोतागण उसी की वाक्तीक्ष्णता का आस्वादन करने के लिए आया करते थे। उनके शब्दों और
उच्चारणों में स्वाभाववक प्रभाव था। सादहत्य और इनतहास उसक अन्वेषण और अध्ययन के ववशेष थे।
जानतयों की उन्ननत और अवननत तथा उसके कारण और गनत पर वह प्राय: ववचार ककया करता था। इस
समय उसके इस पररश्रम और उद्योग के प्ररे क तथा वद्मवक ववशेषकर श्रोताओीं के साधव
ु ाद ही होते थे और
उन्हीीं को वह अपने कदठन पररश्रम का परु स्कार समझता था। हा, उसके उत्साह की यह गनत दे खकर यह
अनम
ु ान ककया जा सकता था कक वह होनहार बबरवा आगे चिकर कैसे फूि-फूि िायेगा और कैसे रीं ग-रुप
ननकािेगा। अभी तक उसने क्षण भी के लिए भी इस पर ध्यान नहीीं ददया था कक मेरे अगामी जीवन का
क्या स्वरुप होगा। कभी सोचता कक प्रोफेसर हो जाऊगा और खूब पस्
ु तकें लिखगा।
ू कभी वकीि बनने की
भावना करता। कभी सोचता, यदद छात्रववृ त्त प्राप्त होगी तो लसववि सववसम का उद्योग करुीं गा। ककसी एक ओर
मन नहीीं दटकता था।
परन्तु प्रतापचन्द्र उन ववद्याधथयों में से न था, क्जनका सारा उद्योग वक्तत
ृ ा और पस्
ु तकों ही तक
पररलमत रहता है। उसके सींयम और योग्यता का एक छोटा भाग जनता के िाभाथम भी व्यय होता था। उसने
प्रकृनत से उदार और दयािु हृदय पाया था और सवमसाधरण से लमिन-जुिने और काम करने की योग्यता
उसे वपता से लमिी थी। इन्हीीं कायों में उसका सदत्ु साह पण ू म रीनत से प्रमाखणत होता था। बहुधा सन्ध्या
समय वह कीटगींज और कटरा की दग ु न्
म धपणू म गलियों में घम
ू ता ददखायी दे ता जहा ववशेषकर नीची जानत के
िोग बसते हैं। क्जन िोगों की परछाई से उच्चवणम का दहन्द ू भागता है, उनके साथ प्रताप टूटी खाट पर बैठ
कर घींटों बातें करता और यही कारण था कक इन मह
ु ल्िों के ननवासी उस पर प्राण दे ते थे। प्रेमाद और
शारीररक सख
ु -प्रिोभ ये दो अवगुण प्रतापचन्द्र में नाममात्र को भी न थे। कोई अनाथ मनष्ु य हो प्रताप
उसकी सहायता के लिए तैयार था। ककतनी रातें उसने झोपडों में कराहते हुए रोधगयों के लसरहाने खडे रहकर
काटी थीीं। इसी अलभप्राय से उसने जनता का िाभाथम एक सभा भी स्थावपत कर रखी थी और ढाई वषम के
अल्प समय में ही इस सभा ने जनता की सेवा में इतनी सफिता प्राप्त की थी कक प्रयागवालसयों को उससे
प्रेम हो गया था।
कमिाचरण क्जस समय प्रयाग पहुचा, प्रतापचन्द्र ने उसका बडा आदर ककया। समय ने उसके धचत्त के
द्वेष की जवािा शाींत कर दी थी। क्जस समय वह ववरजन की बीमारी का समाचार पाकर बनारस पहुचा था
और उससे भें ट होते ही ववरजन की दशा सध
ु र चिी थी, उसी समय प्रताप चन्द्र को ववश्वास हो गया था कक
कमिाचरण ने उसके हृदय में वह स्थान नहीीं पाया है जो मेरे लिए सरु क्षक्षत है । यह ववचार द्वेषाक्ग्न को
शान्त करने के लिए काफी था। इससे अनतररक्त उसे प्राय: यह ववचार भी उद्ववगन ककया करता था कक मैं
ही सश
ु ीिा का प्राणघातक हू। मेरी ही कठोर वाखणयों ने उस बेचारी का प्राणघात ककया और उसी समय से
जब कक सश ु ीि ने मरते समय रो-रोकर उससे अपने अपराधों की क्षमा मागी थी, प्रताप ने मन में ठान लिया
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था। कक अवसर लमिेगा तो मैं इस पाप का प्रायक्श्चत अवश्य करुीं गा। कमिाचरण का आदर-सत्कार तथा
लशक्षा-सधु ार में उसे ककसी अींश में प्रायक्श्चत को पण
ू म करने का अपव
ू म अवसर प्राप्त हुआ। वह उससे इस
प्रकार व्यवहार रखता, जैसे छोटा भाई के साथ अपने समय का कुछ भाग उसकी सहायता करने में व्यय
करता और ऐसी सग
ु मता से लशक्षक का कत्तमवय पािन करता कक लशक्षा एक रोचक कथा का रुप धारण कर
िेती।
परन्तु प्रतापचन्द्र के इन प्रयत्नों के होते हुए भी कमिाचरण का जी यहा बहुत घबराता। सारे छात्रवास
में उसके स्वाभावनक ु ू ि एक मनष्ु य भी न था, क्जससे वह अपने मन का द:ु ख कहता। वह प्रताप से
ननस्सींकोच रहते हुए भी धचत्त की बहुत-सी बातें न कहता था। जब ननजमनता से जी अधधक घबराता तो
ववरजन को कोसने िगता कक मेरे लसर पर यह सब आपवत्तया उसी की िादी हुई हैं। उसे मझु से प्रेम नहीीं।
मख
ु और िेखनी का प्रेम भी कोई प्रेम है ? मैं चाहे उस पर प्राण ही क्यों न वारुीं , पर उसका प्रेम वाणी और
िेखनी से बाहर न ननकिेगा। ऐसी मनू तम के आगे, जो पसीजना जानती ही नहीीं, लसर पटकने से क्या िाभ।
इन ववचारों ने यहा तक जोर पकडा कक उसने ववरजन को पत्र लिखना भी त्याग ददया। वह बेचारी अपने
पत्रों में किेजा ननकिाकर रख दे ती, पर कमिा उत्तर तक न दे ता। यदद दे ता भी तो रुखा और
हृदयववदारक। इस समय ववरजन की एक-एक बात, उसकी एक-एक चाि उसके प्रेम की लशधथिता का
पररचय दे ती हुई प्रतीत होती थी। हा, यदद ववस्मरण हो गयी थी तो ववरजन की स्नेहमयी बातें , वे मतवािी
ऑ ींखे जो ववयोग के समय डबडबा गयी थीीं और कोमि हाथ क्जन्होंने उससे ववनती की थी कक पत्र बराबर
भेजते रहना। यदद वे उसे स्मरण हो आते, तो सम्भव था कक उसे कुछ सींतोष होता। परन्तु ऐसे अवसरों पर
मनष्ु य की स्मरणशक्क्त धोखा दे ददया करती है ।
ननदान, कमिाचरण ने अपने मन-बहिाव का एक ढीं ग सोच ही ननकािा। क्जस समय से उसे कुछ
ज्ञान हुआ, तभी से उसे सौन्दयम-वादटका में भ्रमण करने की चाट पडी थी, सौन्दयोपासना उसका स्वभाव हो
गया था। वह उसके लिए ऐसी ही अननवायम थी, जैसे शरीर रक्षा के लिए भोजन। बोडडिंग हाउस से लमिी हुई
एक सेठ की वादटका थी और उसकी दे खभाि के लिए मािी नौकर था। उस मािी के सरयद
ू े वी नाम की
एक कुवारी िडकी थी। यद्यवप वह परम सन्
ु दरी न थी, तथावप कमिा सौन्दयम का इतना इच्छुक न था,
क्जतना ककसी ववनोद की सामग्री का। कोई भी स्त्री, क्जसके शरीर पर यौवन की झिक हो, उसका मन
बहिाने के लिए समधु चत थी। कमिा इस िडकी पर डोरे डािने िगा। सन्ध्या समय ननरन्तर वादटका की
पटररयों पर टहिता हुआ ददखायी दे ता। और िडके तो मैदान में कसरत करते, पर कमिाचरण वादटका में
आकर ताक-झाक ककया करता। धीरे -धीरे सरयद ू े वी से पररचय हो गया। वह उससे गजरे मोि िेता और
चौगन
ु ा मल्
ू य दे ता। मािी को त्योहार के समय सबसे अधधक त्योहरी कमिाचरण ही से लमिती। यहा तक
कक सरयद
ू े वी उसके प्रीनत-रुपी जाि का आखेट हो गयी और एक-दो बार अन्धकार के पदे में परस्पर सींभोग
भी हो गया।
एक ददन सन्ध्या का समय था, सब ववद्याथी सैर को गये हुए थे, कमिा अकेिा वादटका में टहिता
था और रह-रहकर मािी के झोपडों की ओर झाकता था। अचानक झोपडे में से सरयद
ू े वी ने उसे सींकेत द्वारा
बि
ु ाया। कमिा बडी शीघ्रता से भीतर घस
ु गया। आज सरयद
ू े वी ने मिमि की साडी पहनी थी, जो
कमिाबाबू का उपहार थी। लसर में सग
ु ींधधत तेि डािा था, जो कमिा बाबू बनारस से िाये थे और एक छीींट
का सिक ू ा पहने हुई थी, जो बाबू साहब ने उसके लिए बनवा ददया था। आज वह अपनी दृक्ष्ट में परम
सन्
ु दरी प्रतीत होती थी, नहीीं तो कमिा जैसा धनी मनष्ु य उस पर क्यों पाण दे ता ? कमिा खटोिे पर बैठा
हुआ सरयद ू े वी के हाव-भाव को मतवािी दृक्ष्ट से दे ख रहा था। उसे उस समय सरयद ू े वी वज
ृ रानी से ककसी
प्रकार कम सन् ु दरी नहीीं दीख पडती थी। वणम में तननक सा अन्तर था, पर यह ऐसा कोई
बडा अींतर नहीीं। उसे सरयद
ू े वी का प्रेम सच्चा और उत्साहपण
ू म जान पडता था, क्योंकक वह जब कभी बनारस
जाने की चचाम करता, तो सरयद
ू े वी फूट-फूटकर रोने िगती और कहती कक मझ
ु े भी िेते चिना। मैं तुम्हारा
सींग न छोडूगी। कहा यह प्रेम की तीव्रता व उत्साह का बाहुल्य और कहा ववरजन की उदासीन सेवा और
ननदम यतापण
ू म अभ्यथमना !
कमिा अभी भिीभानत ऑ ींखों को सेंकने भी न पाया था कक अकस्मात ् मािी ने आकर द्वार
खटखटाया। अब काटो तो शरीर में रुधधर नहीीं। चेहरे का रीं ग उड गया। सरयद
ू े वी से धगडधगडाकर बोिा- मैं
कहा जाऊीं? सरयद
ू े वी का ज्ञान आप ही शन्
ू य हो गया, घबराहट में मख
ु से शब्द तक न ननकिा। इतने में

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मािी ने कफर ककवाड खटखटाया। बेचारी सरयद
ू े वी वववश थी। उसने डरते-डरते ककवाड खोि ददया।
कमिाचरण एक कोनें में श्वास रोककर खडा हो गया।
क्जस प्रकार बलिदान का बकरा कटार के तिे तडपता है उसी प्रकार कोने में खडे हुए कमिा का
किेजा धज्ञडक रहा था। वह अपने जीवन से ननराश था और ईश्वर को सच्चे हृदय से स्मरण कर रहा था
और कह रहा था कक इस बार इस आपवत्त से मक्
ु त हो जाऊींगा तो कफर कभी ऐसा काम न करुीं गा।
इतने में मािी की दृक्ष्ट उस पर पडी, पदहिे तो घबराया, कफर ननकट आकर बोिा- यह कौन खडा है ?
यह कौन है ?
इतना सन
ु ना था कक कमिाचरण झपटकर बाहर ननकिा और फाटक की ओर जी छोडकर भागा।
मािी एक डींडा हाथ में लिये ‘िेना-िेना, भागने न पाये?’ कहता हुआ पीछे -पीछे दौडा। यह वह कमिा है जो
मािी को परु स्कार व पाररतोवषक ददया करता था, क्जससे मािी सरकार और हुजरू कहकर बातें करता था।
वही कमिा आज उसी मािी सम्मख
ु इस प्रकार जान िेकर भागा जाता है । पाप अक्ग्न का वह कुण्ड है जो
आदर और मान, साहस और धैयम को क्षण-भर में जिाकर भस्म कर दे ता है ।
कमिाचरण वक्षृ ों और िताओीं की ओट में दौडता हुआ फाटक से बाहर ननकिा। सडक पर तागा जा
रहा था, जो बैठा और हाफते-हाफते अशक्त होकर गाडी के पटरे पर धगर पडा। यद्यवप मािी ने फाटक भी
पीछा न ककया था, तथावप कमिा प्रत्येक आने-जाने वािे पर चौंक-चौंककर दृक्ष्ट डािता थ, मानों सारा
सींसार शत्रु हो गया है। दभ
ु ामग्य ने एक और गुि खखिाया। स्टे शन पर पहुचते ही घबराहट का मारा गाडी में
जाकर बैठ गय, परन्तु उसे दटकट िेने की सधु ध ही न रही और न उसे यह खबर थी कक मैं ककधर जा रहा
हू। वह इस समय इस नगर से भागना चाहता था, चाहे कहीीं हो। कुछ दरू चिा था कक अींग्रेज अफसर
िािटे न लिये आता ददखाई ददया। उसके सींग एक लसपाही भी था। वह याबत्रयों का दटकट दे खता चिा आता
था; परन्तु कमिा ने जान कक कोई पलु िस अफसर है । भय के मारे हाथ-पाव सनसनाने िगे, किेजा धडकने
िगा। जब अींग्रेज दसरू ी गडडयों में जाच करता रहा, तब तक तो वह किेजा कडा ककये प्रेकार बैठा रहा, परन्तु
जयों उसके डडब्बे का फाटक खुिा कमिा के हाथ-पाव फूि गये, नेत्रों के सामने अींधेरा छा गया। उताविेपन
से दस
ू री ओर का ककवाड खोिकर चिती हुई रे िगाडी पर से नीचे कूद पडा। लसपाही और रे िवािे साहब ने
उसे इस प्रकार कूदते दे खा तो समझा कक कोई अभ्यस्त डाकू है , मारे हषम के फूिे न समाये कक पाररतोवषक
अिग लमिेगा और वेतनोन्ननत अिग होगी, झट िाि बत्ती ददखायी। तननक दे र में गाडी रुक गयी। अब
गाडम, लसपाही और दटकट वािे साहब कुछ अन्य मनष्ु यों के सदहत गाडी उतर गयी। अब गाडम, लसपाही और
दटकट वािे साहब कुछ अन्य मन
ु ष्यों के सदहत गाडी से उत्तर पडे और िािटे न िे-िेकर इधर-उधर दे खने
िगे। ककसी ने कहा-अब उसकी धन
ू भी न लमिेगी, पक्का डकैत था। कोई बोिा- इन िोगों को कािीजी का
इष्ट रहता है, जो कुछ न कर ददखायें, थोडा हैं परन्तु गाडम आगे ही बढ़ता गया। वेतन वद्
ु वव की आशा उसे
आगे ही लिये जाती थी। यहा तक कक वह उस स्थान पर जा पहुचा, जहा कमेिा गाडी से कूदा था। इतने में
लसपाही ने खड्डे की ओर सकींकेत करके कहा- दे खो, वह श्वेत रीं ग की क्या वस्तु है ? मझ
ु े तो कोई मनष्ु य-
सा प्रतीत होता है और िोगों ने दे खा और ववश्वास हो गया कक अवश्य ही दष्ु ट डाकू यहा नछपा हुआ है ,
चिकेर उसको घेर िो ताकक कहीीं ननकिने न पावे, तननक सावधान रहना डाकू प्राणपर खेि जाते हैं। गाडम
साहब ने वपस्तौि सभािी, लमया लसपाही ने िाठी तानी। कई स्त्रीयों ने जत
ू े उतार कर हाथ में िे लिये कक
कहीीं आक्रमण कर बैठा तो भागने में सभ
ु ीता होगा। दो मनष्ु यों ने ढे िे उठा लिये कक दरू ही से िक्ष्य करें गे।
डाकू के ननकट कौन जाय, ककसे जी भारी है ? परन्तु जब िोगों ने समीप जाकर दे खा तो न डाकू था, न डाकू
भाई; ककन्तु एक सभ्य-स्वरुप, सन्
ु दर वणम, छरहरे शरीर का नवयव
ु क पथ्
ृ वी पर औींधे मख
ु पडा है और उसके
नाक और कान से धीरे -धीरे रुधधर बह रहा है ।
कमिा ने इधर सास तोडी और ववरजन एक भयानक स्वप्न दे खकर चौंक पडी। सरयद
ू े वी ने ववरजन
का सोहाग िट
ू लिया।

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द:ु ख-दशा

सौभाग्यवती स्त्री के लिए उसक पनत सींसार की सबसे प्यारी वस्तु होती है । वह उसी के लिए जीती
और मारती है । उसका हसना-बोिना उसी के प्रसन्न करने के लिए और उसका बनाव-श्रींग
ृ ार उसी को िभ
ु ाने
के लिए होता है । उसका सोहाग जीवन है और सोहाग का उठ जाना उसके जीवन का अन्त है।
कमिाचरण की अकाि-मत्ृ यु वज
ृ रानी के लिए मत्ृ यु से कम न थी। उसके जीवन की आशाए और
उमींगे सब लमट्टी मे लमि गयीीं। क्या-क्या अलभिाषाए थीीं और क्या हो गय? प्रनत-क्षण मत
ृ कमिाचरण का
धचत्र उसके नेत्रों में भ्रमण करता रहता। यदद थोडी दे र के लिए उसकी ऑखें झपक जातीीं, तो उसका स्वरुप
साक्षात नेत्रों कें सम्मख
ु आ जाता।
ककसी-ककसी समय में भौनतक त्रय-तापों को ककसी ववशेष व्यक्क्त या कुटुम्ब से प्रेम-सा हो जाता है ।
कमिा का शोक शान्त भी न हुआ था बाबू श्यामाचरण की बारी आयी। शाखा-भेदन से वक्ष ृ को मरु झाया
हुआ न दे खकर इस बार दद
ु े व ने मि
ू ही काट डािा। रामदीन पाडे बडा दीं भी मनष्ु य था। जब तक डडप्टी
साहब मझगाव में थे, दबका बैठा रहा, परन्तु जयोंही वे नगर को िौटे , उसी ददन से उसने उल्पात करना
आरम्भ ककया। सारा गाव–का-गाव उसका शत्रु था। क्जस दृक्ष्ट से मझगाव वािों ने होिी के ददन उसे दे खा,
वह दृक्ष्ट उसके हृदय में काटे की भानत खटक रही थी। क्जस मण्डि में माझगाव क्स्थत था, उसके थानेदार
साहब एक बडे घाघ और कुशि ररश्वती थे। सहस्रों की रकम पचा जायें, पर डकार तक न िें। अलभयोग
बनाने और प्रमाण गढ़ने में ऐसे अभ्यस्त थे कक बाट चिते मनष्ु य को फास िें और वह कफर ककसी के
छुडाये न छूटे । अधधकार वगम उसक हथकण्डों से ववज्ञ था, पर उनकी चतरु ाई और कायमदक्षता के आगे ककसी
का कुछ बस न चिता था। रामदीन थानेदार साहब से लमिा और अपने हृद्रोग की औषधध मागी। उसक एक
सप्ताह पश्चात ् मझगाव में डाका पड गया। एक महाजन नगर से आ रहा था। रात को नम्बरदार के यहा
ठहरा। डाकुओीं ने उसे िौटकर घर न जाने ददया। प्रात:काि थानेदार साहब तहकीकात करने आये और एक
ही रस्सी में सारे गाव को बाधकर िे गये।
दै वात ् मक
ु दमा बाबू श्यामाचारण की इजिास में पेश हुआ। उन्हें पहिे से सारा कच्चा-धचट्ठा ववददत
था और ये थानेदार साहब बहुत ददनों से उनकी आींखों पर चढ़े हुए थे। उन्होंने ऐसी बाि की खाि ननकािी
की थानेदार साहब की पोि खि
ु गयी। छ: मास तक अलभयोग चिा और धम
ू से चिा। सरकारी वकीिों ने
बडे-बडे उपाय ककये परन्तु घर के भेदी से क्या नछप सकता था? फि यह हुआ कक डडप्टी साहब ने सब
अलभयक्ु तों को बेदाग छोड ददया और उसी ददन सायींकाि को थानेदार साहब मअ
ु त्ति कर ददये गये।
जब डडप्टी साहब फैसिा सन
ु ाकर िौटे , एक दहतधचन्तक कममचारी ने कहा- हुजूर, थानेदार साहब से
सावधान रदहयेगा। आज बहुत झल्िाया हुआ था। पहिे भी दो-तीन अफसरों को धोखा दे चक ु ा है । आप पर
अवश्य वार करे गा। डडप्टी साहब ने सन
ु ा और मस्
ु कराकर उस मन
ु ष्य को धन्यवाद ददया; परन्तु अपनी रक्षा
के लिए कोई ववशेष यत्न न ककया। उन्हें इसमें अपनी भीरुता जान पडती थी। राधा अहीर बडा अनरु ोध
करता रहा कक मै। आपके सींग रहूगा, काशी भर भी बहुत पीछे पडा रहा ; परन्तु उन्होंने ककसी को सींग न
रखा। पदहिे ही की तरह अपना काम करते रहे ।
जालिम खा बात का धनी था, वह जीवन से हाथ धोकर बाबू श्यामाचरण के पीछे पड गया। एक ददन
वे सैर करके लशवपरु से कुछ रात गये िौट रहे थे पागिखाने के ननकट कुछ कफदटन का घोडा बबदकाीं गाडी
रुक गयी और पिभर में जालिम खा ने एक वक्ष ृ की आड से वपस्तौि चिायी। पडाके का शब्द हुआ और
बाबू श्यामाचरण के वक्षस्थि से गोिी पार हो गयी। पागिखाने के लसपाही दौडे। जालिम खा पकड लिय
गया, साइस ने उसे भागने न ददया था।
इस दघ
ु ट
म नाओीं ने उसके स्वभाव और व्यवहार में अकस्मात्र बडा भारी पररवतमन कर ददया। बात-बात
पर ववरजन से धचढ़ जाती और कटूक्क्त्तयों से उसे जिाती। उसे यह भ्रम हो गया कक ये सब आपावत्तया इसी
बहू की िायी हई है । यही अभाधगन जब से घर आयी, घर का सत्यानाश हो गया। इसका पौरा बहुत ननकृष्ट
है । कई बार उसने खि ु कर ववरजन से कह भी ददया कक-तम्
ु हारे धचकने रुप ने मझ
ु े ठग लिया। मैं क्या
जानती थी कक तुम्हारे चरण ऐसे अशभ
ु हैं ! ववरजन ये बातें सन
ु ती और किेजा थामकर रह जाती। जब
ददन ही बरु े आ गये, तो भिी बातें क्योंकर सन
ु ने में आयें। यह आठों पहर का ताप उसे द:ु ख के आींसू भी न

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बहाने दे ता। आसींू तब ननकिते है। जब कोई दहतैषी हा और दख
ु को सन
ु े। ताने और व्यींग्य की अक्ग्न से
ऑ ींसू जि जाते हैं।
एक ददन ववरजन का धचत्त बैठे-बैठे घर में ऐसा घबराया कक वह तननक दे र के लिए वादटका में चिी
आयी। आह ! इस वादटका में कैसे-कैसे आनन्द के ददन बीते थे ! इसका एक-एक पध मरने वािे के असीम
प्रेम का स्मारक था। कभी वे ददन भी थे कक इन फूिों और पवत्तयों को दे खकर धचत्त प्रफुक्ल्ित होता था और
सरु लभत वायु धचत्त को प्रमोददत कर दे ती थी। यही वह स्थि है, जहा अनेक सन्ध्याऍ ीं प्रेमािाप में व्यतीत हुई
थीीं। उस समय पष्ु पों की कलिया अपने कोमि अधरों से उसका स्वागत करती थीीं। पर शोक! आज उनके
मस्तक झक
ु े हुए और अधर बन्द थे। क्या यह वही स्थान न था जहा ‘अिबेिी मालिन’ फूिों के हार गींथ
ू ती
थी? पर भोिी मालिन को क्या मािम ू था कक इसी स्थान पर उसे अपने नेतरें से ननकिे हुए मोनतयों को
हार गथने
ू पडेगें। इन्हीीं ववचारों में ववरजन की दृक्ष्ट उस कींु ज की ओर उठ गयी जहा से एक बार
कमिाचरण मस् ु कराता हुआ ननकिा था, मानो वह पवत्तयों का दहिना और उसके वस्तरें की झिक दे ख रही
है । उससे मख
ु पर उसे समय मन्द-मन्द मस्ु कान-सी प्रकट होती थी, जैसे गींगा में डूबते हुर्श्रयम की पीिी और
मलिन ककणें का प्रनतबबम्ब पडता है। आचानक प्रेमवती ने आकर कणमकटु शब्दों में कहा- अब आपका सैर
करने का शौक हुआ है !
ववरजन खडी हो गई और रोती हुई बोिी-माता ! क्जसे नारायण ने कुचिा, उसे आप क्यों कुचिती हैं !
ननदान प्रेमवती का धचत्त वहा से ऐसा उचाट हुआ कक एक मास के भीतर सब सामान औने-पौने
बेचकर मझगाव चिी गयी। वज ृ रानी को सींग न लिया। उसका मखु दे खने से उसे घण
ृ ा हो गयी थी। ववरजन
इस ववस्तत
ृ भवन में अकेिी रह गयी। माधवी के अनतररक्त अब उसका कोई दहतैषी न रहा। सव
ु ामा को
अपनी महबोिी
ु बेटी की ववपवत्तयों का ऐसा हीशेक हुआ, क्जतना अपनी बेटी का होता। कई ददन तक रोती
रही और कई ददन बराबर उसे सझाने के लिए आती रही। जब ववरजन अकेिी रह गयी तो सव ु मा ने चाहा
हहक यह मेरे यहा उठ आये और सख
ु से रहे । स्वयीं कई बार बि
ु ाने गयी, पर ववररजन ककसी प्रकार जाने
को राजी न हुई। वह सोचती थी कक ससरु को सींसार से लसधारे भी तीन मास भी नहीीं हुए, इतनी जल्दी यह
घर सनू ा हो जायेगा, तो िोग कहें गे कक उनके मरते ही सास और बेहु िड मरीीं। यहा तक कक उसके इस हठ
से सव
ु ामा का मन मोटा हो गया।
मझगाव में प्रेमवती ने एक अींधेर मचा रखी थी। असालमयों को कटु वजन कहती। काररन्दा के लसर
पर जत
ू ी पटक दी। पटवारी को कोसा। राधा अहीर की गाय बिात ् छीन िी। यहा कक गाव वािे घबरा गये !
उन्होंने बाबू राधाचरण से लशकायत की। राधाचण ने यह समाचार सन
ु ा तो ववश्वास हो गया कक अवश्य इन
दघ
ु ट
म नाओीं ने अम्मा की बद्
ु वव भ्रष्ट कर दी है। इस समय ककसी प्रकार इनका मन बहिाना चादहए। सेवती
को लिखा कक तुम माताजी के पास चिी जाओ और उनके सींग कुछ ददन रहो। सेवती की गोद में उन
ददनों एक चाद-सा बािक खेि रहा था और प्राणनाथ दो मास की छुट्टी िेकर दरभींगा से आये थे। राजा
साहब के प्राइवेट सेक्रटे री हो गये थे। ऐसे अवसर पर सेवती कैस आ सकती थी? तैयाररया करते-करते महीनों
गुजर गये। कभी बच्चा बीमार पड गया, कभी सास रुष्ट हो गयी कभी साइत न बनी। ननदान छठे महीने
उसे अवकाश लमिा। वह भी बडे ववपवत्तयों से।
परन्तु प्रेमवती पर उसक आने का कुछ भी प्रभाव न पडा। वह उसके गिे लमिकर रोयी भी नहीीं,
उसके बच्चे की ओर ऑ ींख उठाकर भी न दे खा। उसक हृदय में अब ममता और प्रेम नाम-मात्र को भी न रह
गयाञ। जैसे ईख से रस ननकाि िेने पर केवि सीठी रह जाती है , उसकी प्रकार क्जस मनष्ु य के हृदय से
प्रेम ननकि गया, वह अक्स्थ-चमम का एक ढे र रह जाता है । दे वी-दे वता का नाम मख
ु पर आते ही उसके तेवर
बदि जाते थे। मझागाव में जन्माष्टमी हुई। िोगों ने ठाकुरजी का व्रत रख और चन्दे से नाम कराने की
तैयाररया करने िगे। परन्तु प्रेमवती ने ठीक जन्म के अवसर पर अपने घर की मनू तम खेत से कफकवा दी।
एकादशी ित टूटा, दे वताओीं की पज
ू ा छूटी। वह प्रेमवती अब प्रेमवती ही न थी।
सेवती ने जयों-त्यों करके यहा दो महीने काटे । उसका धचत्त बहुत घबराता। कोई सखी-सहे िी भी न थी,
क्जसके सींग बैठकर ददन काटती। ववरजन ने तुिसा को अपनी सखी बना लिया था। परन्तु सेवती का स्भव
सरि न था। ऐसी स्त्रीयों से मेि-जोि करने में वह अपनी मानहानन समझती थी। ति
ु सा बेचारी कई बार
आयी, परन्तु जब दख कक यह मन खोिकर नहीीं लमिती तो आना-जाना छोड ददया।
तीन मास व्यतीत हो चकु े थे। एक ददन सेवती ददन चढ़े तक सोती रही। प्राणनाथ ने रात को बहुत
रुिाया था। जब नीींद उचटी तो क्या दे खती है कक प्रेमवती उसके बच्चे को गोद में लिय चम
ू रही है । कभी

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आखें से िगाती है , कभी छाती से धचपटाती है । सामने अींगीठी पर हिव
ु ा पक रहा है । बच्चा उसकी ओर
उीं गिी से सींकेत करके उछिता है कक कटोरे में जा बैठू और गरम-गरम हिव
ु ा चख।ू आज उसक मख
ु मण्डि
कमि की भानत खखिा हुआ है । शायद उसकी तीव्र दृक्ष्ट ने यह जान लिया है कक प्रेमवती के शष्ु क हृदय में
प्रेमे ने आज कफर से ननवास ककया है । सेवती को ववश्वास न हुआ। वह चारपाई पर पि ु ककत िोचनों से ताक
रही थी मानों स्वप्न दे ख रही थी। इतने में प्रेमवती प्यार से बोिी- उठो बेटी ! उठो ! ददन बहुत चढ़ आया
है ।
सेवती के रोंगटे खडे हो गओ और आींखें भर आयी। आज बहुत ददनों के पश्चात माता के मख ु से
प्रेममय बचन सन ु े। झट उठ बैठी और माता के गिे लिपट कर रोने िगी। प्रेमवती की खें से भी आींसू की
झडी िग गयीय, सख ू ा वक्ष
ृ हरा हुआ। जब दोनों के ऑ ींसू थमे तो प्रेमवती बोिी-लसत्तो ! तुम्हें आज यह बातें
अचरज प्रतीत होती है ; हा बेटी, अचरज ही न। मैं कैसे रोऊीं, जब आींखों में आींसू ही रहे ? प्यार कहा से िाऊीं
जब किेजा सख
ू कर पत्थर हो गया? ये सब ददनों के फेर हैं। ऑसू उनके साथ गये और कमिा के साथ।
अज न जाने ये दो बद
ू कहा से ननकि आये? बेटी ! मेरे सब अपराध क्षमा करना।
यह कहते-कहते उसकी ऑखें झपकने िगीीं। सेवती घबरा गयी। माता हो बबस्तर पर िेटा ददया और
पख झिने िगी। उस ददन से प्रेमवती की यह दशा हो गयी कक जब दे खों रो रही है । बच्चे को एक क्षण
लिए भी पास से दरू नहीीं करती। महररयों से बोिती तो मख
ु से फूि झडते। कफर वही पदहिे की सश
ु ीि
प्रेमवती हो गयी। ऐसा प्रतीत होता था, मानो उसक हृदय पर से एक पदाम-सा उठ गया है ! जब कडाके का
जाडा पडता है , तो प्राय: नददया बफम से ढक जाती है । उसमें बसनेवािे जिचर बफम मे पदे के पीछे नछप जाते
हैं, नौकाऍ ीं फस जाती है और मींदगनत, रजतवणम प्राण-सींजीवन जि-स्रोत का स्वरुप कुछ भी ददखायी नहीीं दे ता
है । यद्यवप बफम की चद्दर की ओट में वह मधरु ननद्रा में अिलसत पडा रहता था, तथावप जब गरमी का
साम्राजय होता है , तो बफम वपघि जाती है और रजतवणम नदी अपनी बफम का चद्दर उठा िेती है , कफर
मछलिया और जिजन्तु आ बहते हैं, नौकाओीं के पाि िहराने िगते हैं और तट पर मनष्ु यों और पक्षक्षयों का
जमघट हो जाता है।
परन्तु प्रेमवती की यह दशा बहुत ददनों तक क्स्थर न रही। यह चेतनता मानो मत्ृ यु का सन्दे श थी।
इस धचत्तोद्ववग्नता ने उसे अब तक जीवन-कारावास में रखा था, अन्था प्रेमवती जैसी कोमि-हृदय स्त्री
ववपवत्तयों के ऐसे झोंके कदावप न सह सकती।
सेवती ने चारों ओर तार ददिवाये कक आकर माताजी को दे ख जाओ पर कहीीं से कोई न आया।
प्राणनाथ को छुट्टी न लमिी, ववरजन बीमार थी, रहे राधाचरण। वह नैनीताि वाय-ु पररवतमन करने गये हुए थे।
प्रेमवती को पत्र
ु ही को दे खने की िािसा थी, पर जब उनका पत्र आ गया कक इस समय मैं नहीीं आ सकता,
तो उसने एक िम्बी सास िेकर ऑ ींखे मद
ू िी, और ऐसी सोयी कक कफर उठना नसीब न हुआ !

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मन का प्राबल्य

मानव हृदय एक रहस्यमय वस्तु है । कभी तो वह िाखों की ओर ऑख उठाकर नहीीं दे खता और कभी
कौडडयों पर कफसि पडता है । कभी सैकडों ननदम षों की हत्या पर आह ‘तक’ नहीीं करता और कभी एक बच्चे
को दे खकर रो दे ता है। प्रतापचन्द्र और कमिाचरण में यद्यवप सहोदर भाइयों का-सा प्रेम था, तथावप कमिा
की आकक्स्मक मत्ृ यु का जो शोक चादहये वह न हुआ। सन ु कर वह चौंक अवश्य पडा और थोडी दे र के लिए
उदास भी हुआ, पर शोक जो ककसी सच्चे लमत्र की मत्ृ यु से होता है उसे न हुआ। ननस्सींदेह वह वववाह के पव
ू म
ही से ववरजन को अपनी समझता था तथावप इस ववचार में उसे पण ू म सफिता कभी प्राप्त न हुई। समय-
समय पर उसका ववचार इस पववत्र सम्बन्ध की सीमा का उल्िींघन कर जाता था। कमिाचरण से उसे स्वत:
कोई प्रेम न था। उसका जो कुछ आदर, मान और प्रेम वह करता था, कुछ तो इस ववचार से कक ववरजन
सन
ु कर प्रसन्न होगी और इस ववचार से कक सश
ु ीि की मत्ृ यु का प्रायक्श्चत इसी प्रकार हो सकता है । जब
ववरजन ससरु ाि चिी आयी, तो अवश्य कुछ ददनों प्रताप ने उसे अपने ध्यान में न आने ददया, परन्तु जब से
वह उसकी बीमारी का समाचार पाकर बनारस गया था और उसकी भें ट ने ववरजन पर सींजीवनी बट
ू ी का
काम ककया था, उसी ददन से प्रताप को ववश्वास हो गया था कक ववरजन के हृदय में कमिा ने वह स्थान
नहीीं पाया जो मेरे लिए ननयत था।
प्रताप ने ववरजन को परम करणापण
ू म शोक-पत्र लिखा पर पत्र लिख्ता जाता था और सोचता जाता था
कक इसका उस पर क्या प्रभाव होगा? सामान्यत: समवेदना प्रेम को प्रौढ़ करती है। क्या आश्चयम है जो यह
पत्र कुछ काम कर जाय? इसके अनतररक्त उसकी धालममक प्रवनृ त ने ववकृत रुप धारण करके उसके मन में
यह लमथ्या ववचार उत्पन्न ककया कक ईश्वर ने मेरे प्रेम की प्रनतष्ठा की और कमिाचरण को मेरे मागम से
हटा ददया, मानो यह आकाश से आदे श लमिा है कक अब मैं ववरजन से अपने प्रेम का परु स्कार ि।ू प्रताप यह
जो जानता था कक ववरजन से ककसी ऐसी बात की आशा करना, जो सदाचार और सभ्यता से बाि बराबर भी
हटी हुई हो, मख ू त
म ा है। परन्तु उसे ववश्वास था कक सदाचार और सतीत्व के सीमान्तगमत यदद मेरी कामनाए
परू ी हो सकें, तो ववरजन अधधक समय तक मेरे साथ ननदम यता नहीीं कर सकती।
एक मास तक ये ववचार उसे उद्ववग्न करते रहे । यहा तक कक उसके मन में ववरजन से एक बार
गप्ु त भें ट करने की प्रबि इच्छा भी उत्पन्न हुई। वह यह जानता था कक अभी ववरजन के हृदय पर
तात्कालिकघव है और यदद मेरी ककसी बात या ककसी व्यवहार से मेरे मन की दश्ु चेष्टा की गन्ध ननकिी, तो
मैं ववरजन की दृक्ष्ट से हमश के लिए धगर जाऊगा। परन्तु क्जस प्रकार कोई चोर रुपयों की रालश दे खकर
धैयम नहीीं रख सकता है , उसकी प्रकार प्रताप अपने मन को न रोक सका। मनष्ु य का प्रारब्ध बहुत कुछ
अवसर के हाथ से रहता है। अवसर उसे भिा नहीीं मानता है और बरु ा भी। जब तक कमिाचरण जीववत था,
प्रताप के मन में कभी इतना लसर उठाने को साहस न हुआ था। उसकी मत्ृ यु ने मानो उसे यह अवसर दे
ददया। यह स्वाथमपता का मद यहा तक बढ़ा कक एक ददन उसे ऐसाभस होने िगा, मानों ववरजन मझ ु े स्मरण
कर रही है। अपनी व्यग्रता से वह ववरजन का अनम
ु ान करे न िगा। बनारस जाने का इरादा पक्का हो गया।
दो बजे थे। राबत्र का समय था। भयावह सन्नाटा छाया हुआ था। ननद्रा ने सारे नगर पर एक घटाटोप
चादर फैिा रखी थी। कभी-कभी वक्ष ृ ों की सनसनाहट सन
ु ायी दे जाती थी। धआ ु ीं और वक्ष
ृ ों पर एक कािी
चद्दर की भानत लिपटा हुआ था और सडक पर िािटे नें धऍ ु ीं की कालिमा में ऐसी दृक्ष्ट गत होती थीीं जैसे
बादि में नछपे हुए तारे । प्रतापचन्द्र रे िगाडी पर से उतरा। उसका किेजा बाींसों उछि रहा था और हाथ-पाव
काप रहे थे। वह जीवन में पहिा ही अवसर था कक उसे पाप का अनभ ु व हुआ! शोक है कक हृदय की यह
दशा अधधक समय तक क्स्थर नहीीं रहती। वह दग
ु न्
म ध-मागम को परू ा कर िेती है । क्जस मनष्ु य ने कभी मददरा
नहीीं पी, उसे उसकी दग
ु न्
म ध से घण
ृ ा होती है । जब प्रथम बार पीता है, तो घण्टें उसका मख
ु कडवा रहता है
और वह आश्चयम करता है कक क्यों िोग ऐसी ववषैिी और कडवी वस्तु पर आसक्त हैं। पर थोडे ही ददनों में
उसकी घण
ृ ा दरू हो जाती है और वह भी िाि रस का दास बन जाता है। पाप का स्वाद मददरा से कहीीं
अधधक भींयकर होता है ।
प्रतापचन्द्र अींधेरे में धीरे -धीरे जा रहा था। उसके पाव पेग से नहीीं उठते थे क्योंकक पाप ने उनमें
बेडडया डाि दी थी। उस आहिाद का, जो ऐसे अवसर पर गनत को तीव्र कर दे ता है, उसके मख
ु पर कोई
िक्षण न था। वह चिते-चिते रुक जाता और कुछ सोचकर आगे बढ़ता था। प्रेत उसे पास के खड्डे में कैसा
लिये जाता है?
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प्रताप का लसर धम-धम कर रहा था और भय से उसकी वपींडलिया काप रही थीीं। सोचता-ववचारता
घण्टे भर में मन्
ु शी श्यामाचरण के ववशाि भवन के सामने जा पहुचा। आज अन्धकार में यह भवन बहुत ही
भयावह प्रतीत होता था, मानो पाप का वपशाच सामने खडा है । प्रताप दीवार की ओट में खडा हो गया, मानो
ककसी ने उसक पाव बाध ददये हैं। आध घण्टे तक वह यही सोचता रहा कक िौट चिू या भीतर जाऊ? यदद
ककसी ने दे ख लिया बडा ही अनथम होगा। ववरजन मझ
ु े दे खकर मन में क्या सोचेगी? कहीीं ऐसा न हो कक
मेरा यह व्यवहार मझ
ु े सदा के लिए उसकी द्क्ष्ट से धगरा दे । परन्तु इन सब सन्दे हों पर वपशाच का
आकषमण प्रबि हुआ। इक्न्द्रयों के वश में होकर मनष्ु य को भिे-बरु े का ध्यान नहीीं रह जाता। उसने धचत्त को
दृढ़ ककया। वह इस कायरता पर अपने को धधक्कार दे ने िगा, तदन्तर घर में पीछे की ओर जाकर वादटका
की चहारदीवारी से फाद गया। वादटका से घर जाने के लिए एक छोटा-सा द्वार था। दै वयेग से वह इस
समय खि ु ा हुआ था। प्रताप को यह शकुन-सा प्रतीत हुआ। परन्तु वस्तत
ु : यह अधमम का द्वार था। भीतर
जाते हुए प्रताप के हाथ थरामने िगे। हृदय इस वेग से धडकता था; मानो वह छाती से बाहर ननकि पडेगा।
उसका दम घट
ु रहा था। धमम ने अपना सारा बि िगा ददया। पर मन का प्रबि वेग न रुक सका। प्रताप
द्वार के भीतर प्रववष्ट हुआ। आींगन में तुिसी के चबत
ू रे के पास चोरों की भानत खडा सोचने िगा कक
ववरजन से क्योंकर भें ट होगी? घर के सब ककवाड बन्द है ? क्या ववरजन भी यहा से चिी गयी? अचानक
उसे एक बन्द दरवाजे की दरारों से प्रेकाश की झिक ददखाई दी। दबे पाव उसी दरार में ऑ ींखें िगाकर भीतर
का दृश्य दे खने िगा।
ववरजन एक सफेद साडी पहिे, बाि खोिे, हाथ में िेखनी लिये भलू म पर बैठी थी और दीवार की ओर
दे ख-दे खकर कागेज पर लिखती जाती थी, मानो कोई कवव ववचार के समद्र
ु से मोती ननकाि रहा है । िखनी
दातों तिे दबाती, कुछ सोचती और लिखती कफर थोडी दे र के पश्चात ् दीवार की ओर ताकने िगती। प्रताप
बहुत दे र तक श्वास रोके हुए यह ववधचत्र दृश्य दे खता रहा। मन उसे बार-बार ठोकर दे ता, पर यह धमम का
अक्न्तम गढ़ था। इस बार धमम का पराक्जत होना मानो हृदाम में वपशाच का स्थान पाना था। धमम ने इस
समय प्रताप को उस खड्डे में धगरने से बचा लिया, जहा से आमरण उसे ननकिने का सौभाग्य न होता।
वरन ् यह कहना उधचत होगा कक पाप के खड्डे से बचानेवािा इस समय धमम न था, वरन ् दष्ु पररणाम और
िजजा का भय ही था। ककसी-ककसी समय जब हमारे सदभाव पराक्जत हो जाते हैं, तब दष्ु पररणाम का भय
ही हमें कत्तमव्यच्यत
ु होने से बचा िेता है । ववरजन को पीिे बदन पर एक ऐसा तेज था, जो उसके हृदय की
स्वच्छता और ववचार की उच्चता का पररचय दे रहा था। उसके मख
ु मण्डि की उजजविता और दृक्ष्ट की
पववत्रता में वह अक्ग्न थी ; क्जसने प्रताप की दश्ु चेष्टाओीं को क्षणमात्र में भस्म कर ददया ! उसे ज्ञान हो गया
और अपने आक्त्मक पतन पर ऐसी िजजा उत्पन्न हुई कक वहीीं खडा रोने िगा।
इक्न्द्रयों ने क्जतने ननकृष्ट ववकार उसके हृदय में उत्पन्न कर ददये थे, वे सब इस दृश्य ने इस प्रकार
िोप कर ददये, जैसे उजािा अींधरे े को दरू कर दे ता है। इस समय उसे यह इच्छा हुई कक ववरजन के चरणों
पर धगरकर अपने अपराधों की क्षमा मागे। जैसे ककसी महात्मा सींन्यासी के सम्मखु जाकर हमारे धचत्त की
दशा हो जाती है , उसकी प्रकार प्रताप के हृदय में स्वत: प्रायक्श्चत के ववचार उत्पन्न हुए। वपशाच यहा तक
िाया, पर आगे न िे जा सका। वह उिटे पावों कफरा और ऐसी तीव्रता से वादटका में आया और चाहरदीवारी
से कूछा, मानो उसका कोई पीछा करता है ।
अरूणोदय का समय हो गया था, आकाश मे तारे खझिलमिा रहे थे और चक्की का घरु -घरु शब्द
कमणगोचर हो रहा था। प्रताप पाव दबाता, मनष्ु यों की ऑ ींखें बचाता गींगाजी की ओर चिा। अचानक उसने
लसर पर हाथ रखा तो टोपी का पता न था और जेब जेब में घडी ही ददखाई दी। उसका किेजा सन्न-से हो
गया। मह
ु ॅ से एक हृदय-वेधक आह ननकि पडी।
कभी-कभी जीवन में ऐसी घटनाए हो जाती है, जो क्षणमात्र में मनष्ु य का रुप पिट दे ती है। कभी
माता-वपता की एक नतरछी धचतवन पत्र ु को सय ु श के उच्च लशखर पर पहुचा दे ती है और कभी स्त्री की एक
लशक्षा पनत के ज्ञान-चक्षुओीं को खोि दे ती है। गवमशीि परुु ष अपने सगों की दृक्ष्टयों में अपमाननत होकर
सींसार का भार बनना नहीीं चाहते। मनष्ु य जीवन में ऐसे अवसर ईश्वरदत्त होते हैं। प्रतापचन्द्र के जीवन में
भी वह शभु अवसर था, जब वह सींकीणम गलियों में होता हुआ गींगा ककनारे आकर बैठा और शोक तथा
िजजा के अश्रु प्रवादहत करने िगा। मनोववकार की प्रेरणाओीं ने उसकी अधोगनत में कोई कसर उठा न रखी
थी परन्तु उसके लिए यह कठोर कृपािु गुरु की ताडना प्रमाखणत हुई। क्या यह अनभ
ु वलसद्व नहीीं है कक
ववष भी समयानस ु ार अमत
ृ का काम करता है ?

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क्जस प्रकार वायु का झोंका सि
ु गती हुई अक्ग्न को दहका दे ता है , उसी प्रकार बहुधा हृदय में दबे हुए
उत्साह को भडकाने के लिए ककसी बाह्य उद्योग की आवश्यकता होती है । अपने दख ु ों का अनभ
ु व और
दस
ू रों की आपवत्त का दृश्य बहुधा वह वैराग्य उत्पन्न करता है जो सत्सींग, अध्ययन और मन की प्रवनृ त से
भी सींभव नहीीं। यद्यवप प्रतापचन्द्र के मन में उत्तम और ननस्वाथम जीवन व्यतीत करने का ववचार पव
ू म ही से
था, तथावप मनोववकार के धक्के ने वह काम एक ही क्षण में परू ा कर ददया, क्जसके परू ा होने में वषम िगते।
साधारण दशाओीं में जानत-सेवा उसके जीवन का एक गौण कायम होता, परन्तु इस चेतावनी ने सेवा को उसके
जीवन का प्रधान उद्दे श्य बना ददया। सव
ु ामा की हाददम क अलभिाषा पण
ू म होने के सामान पैदा हो गये। क्या
इन घटनाओीं के अन्तगमत कोई अज्ञात प्रेरक शाक्क्त थी? कौन कह सकता है ?

विदष
ु ी िज
ृ रानी

जब से मींश
ु ी सींजीवनिाि तीथम यात्रा को ननकिे और प्रतापचन्द्र प्रयाग चिा गया उस समय से
सव
ु ामा के जीवन में बडा अन्तर हो गया था। वह ठे के के कायम को उन्नत करने िगी। मींश
ु ी सींजीवनिाि के
समय में भी व्यापार में इतनी उन्ननत नहीीं हुई थी। सव ु ामा रात-रात भर बैठी ईंट-पत्थरों से माथा िडाया
करती और गारे -चन
ू े की धचींता में व्याकुि रहती। पाई-पाई का दहसाब समझती और कभी-कभी स्वयीं कुलियों
के कायम की दे खभाि करती। इन कायो में उसकी ऐसी प्रवनृ त हुई कक दान और व्रत से भी वह पहिे का-सा
प्रेम न रहा। प्रनतददन आय वद्
ृ वव होने पर भी सव
ु ामा ने व्यय ककसी प्रकार का न बढ़ाया। कौडी-कौडी दातो
से पकडती और यह सब इसलिए कक प्रतापचन्द्र धनवान हो जाए और अपने जीवन-पयमन्त सान्नद रहे ।
सव
ु ामा को अपने होनहार पत्र
ु पर अलभमान था। उसके जीवन की गनत दे खकर उसे ववश्वास हो गया
था कक मन में जो अलभिाषा रखकर मैंने पत्र
ु मागा था, वह अवश्य पण
ू म होगी। वह कािेज के वप्रींलसपि और
प्रोफेसरों से प्रताप का समाचार गप्ु त रीनत से लिया करती थी ओर उनकी सच
ू नाओीं का अध्ययन उसके लिए
एक रसेचक कहानी के तल्ु य था। ऐसी दशा में प्रयाग से प्रतापचन्द्र को िोप हो जाने का तार पहुचा मानों
उसके हुदय पर वज्र का धगरना था। सव
ु ामा एक ठण्डी सासे िे, मस्तक पर हाथ रख बैठ गयी। तीसरे ददन
प्रतापचन्द्र की पस्
ु त, कपडे और सामधग्रया भी आ पहुची, यह घाव पर नमक का नछडकाव था।
प्रेमवती के मरे का समाचार पाते ही प्राणनाथ पटना से और राधाचरण नैनीताि से चिे। उसके जीते-
जी आते तो भें ट हो जाती, मरने पर आये तो उसके शव को भी दे खने को सौभाग्य न हुआ। मत ृ क-सींस्कार
बडी धम
ू से ककया गया। दो सप्ताह गाव में बडी धम
ू -धाम रही। तत्पश्चात ् मरु ादाबाद चिे गये और प्राणनाथ
ने पटना जाने की तैयारी प्रारम्भ कर दी। उनकी इच्छा थी कक स्त्रीको प्रयाग पहुचाते हुए पटना जाय। पर
सेवती ने हठ ककया कक जब यहा तक आये हैं, तो ववरजन के पास भी अवश्य चिना चादहए नहीीं तो उसे
बडा द:ु ख होगा। समझेगी कक मझ
ु े असहाय जानकर इन िोगों ने भी त्याग ददया।
सेवती का इस उचाट भवन मे आना मानो पष्ु पों में सग
ु न्ध में आना था। सप्ताह भर के लिए सदु दन
का शभ ु ागमन हो गया। ववरजन बहुत प्रसन्न हुई और खूब रोयी। माधवी ने मन्
ु नू को अींक में िेकर बहुत
प्यार ककया।
प्रेमवती के चिे जाने पर ववरजन उस गह
ृ में अकेिी रह गई थी। केवि माधवी उसके पास थी। हृदय-
ताप और मानलसक द:ु ख ने उसका वह गुण प्रकट कर ददया, जा अब तक गप्ु त था। वह काव्य और पद्य-
रचना का अभ्यास करने िगी। कववता सच्ची भावनाओीं का धचत्र है और सच्ची भावनाए चाहे वे द:ु ख हों या
सख
ु की, उसी समय सम्पन्न होती हैं जब हम द:ु ख या सख
ु का अनभ
ु व करते हैं। ववरजन इन ददनों रात-
रात बैठी भाष में अपने मनोभावों के मोनतयों की मािा गथा
ू करती। उसका एक-एक शब्द करुणा और
वैराग्य से पररवण
ू म होता थाीं अन्य कववयों के मनों में लमत्रों की वहा-वाह और काव्य-प्रेनतयों के साधव
ु ाद से
उत्साह पैदा होता है , पर ववरजन अपनी द:ु ख कथा अपने ही मन को सन
ु ाती थी।
सेवती को आये दो- तीन ददन बीते थे। एक ददन ववरजन से कहा- मैं तुम्हें बहुधा ककसी ध्यान में
मग्न दे खती हू और कुछ लिखते भी पाती हू। मझ
ु े न बताओगी? ववरजन िक्जजत हो गयी। बहाना करने
िगी कक कुछ नहीीं, यों ही जी कुछ उदास रहता है । सेवती ने कहा-मैंन मानगी।
ू कफर वह ववरजनका बाक्स
उठा िायी, क्जसमें कववता के ददव्य मोती रखे हुए थे। वववश होकर ववरजन ने अपने नय पद्य सन
ु ाने शरु

ककये। मख
ु से प्रथम पद्य का ननकिना था कक सेवती के रोए खडे हो गये और जब तक सारा पद्य समाप्त
न हुआ, वह तन्मय होकर सन
ु ती रही। प्राणनाथ की सींगनत ने उसे काव्य का रलसक बना ददया था। बार-बार

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उसके नेत्र भर आते। जब ववरजन चपु हो गयी तो एक समा बधा हुआ था मानों को कोई मनोहर राग अभी
थम गया है। सेवती ने ववरजन को कण्ठ से लिपटा लिया, कफर उसे छोडकर दौडी हुई प्राणनाथ के पास
गयी, जैसे कोई नया बच्चा नया खखिोना पाकर हषम से दौडता हुआ अपने साधथयों को ददखाने जाता है ।
प्राणनाथ अपने अफसर को प्राथमना-पत्र लिख रहे थे कक मेरी माता अनत पीडडता हो गयी है , अतएव सेवा में
प्रस्तुत होने में वविम्ब हुआ। आशा करता हू कक एक सप्ताह का आकक्स्मक अवकाश प्रदान ककया जायगा।
सेवती को दे खकर चट आपना प्राथमना-पत्र नछपा लिया और मस्ु कराये। मनष्ु य कैसा धत
ू म है! वह अपने आपको
भी धोख दे ने से नहीीं चक
ू ता।
सेवती- तननक भीतर चिो, तुम्हें ववरजन की कववता सन
ु वाऊीं, फडक उठोगे।
प्राण0- अच्छा, अब उन्हें कववता की चाट हुई है? उनकी भाभी तो गाया करती थी – तुम तो श्याम बडे
बेखबर हो।
सेवती- तननक चिकर सन
ु ो, तो पीछे हॅं सना। मझ
ु े तो उसकी कववता पर आश्चयम हो रहा है।
प्राण0- चिो, एक पत्र लिखकर अभी आता हूीं।
सेवती- अब यही मझ ु े अच्छा नहीीं िगता। मैं आपके पत्र नोच डािींग
ू ी।
सेवती प्राणनाथ को घसीट िे आयी। वे अभी तक यही जानते थे कक ववरजन ने कोई सामान्य भजन
बनाया होगा। उसी को सन
ु ाने के लिए व्याकुि हो रही होगी। पर जब भीतर आकर बैठे और ववरजन ने
िजाते हुए अपनी भावपणू म कववता ‘प्रेम की मतवािी’ पढ़नी आरम्भ की तो महाशय के नेत्र खुि गये। पद्य
क्या था, हृदय के दख
ु की एक धारा और प्रेम –रहस्य की एक कथा थी। वह सन ु ते थे और मग्ु ध होकर
झम
ु ते थे। शब्दों की एक-एक योजना पर, भावों के एक-एक उदगार पर िहािोट हुए जाते थे। उन्होंने बहुतेरे
कववयाीं के काव्य दे खे थे, पर यह उच्च ववचार, यह नत
ू नता, यह भावोत्कषम कहीीं दीख न पडा था। वह समय
धचबत्रत हो रहा था जब अरुणोदय के पव
ू म मियाननि िहराता हुआ चिता है, कलियाीं ववकलसत होती हैं, फूि
महकते हैं और आकाश पर हल्की िालिमा छा जाती है । एक –एक शब्द में नवववकलसत पष्ु पों की शोभा और
दहमककरणों की शीतिता ववद्यमान थी। उस पर ववरजन का सरु ीिापन और ध्वनन की मधरु ता सोने में
सग ॉँ जिाया था। प्राणनाथ प्रहसन के
ु न्ध थी। ये छन्द थे, क्जन पर ववरजन ने हृदय को दीपक की भ नत
उद्दे श्य से आये थे। पर जब वे उठे तो वस्तुत: ऐसा प्रतीत होता था, मानो छाती से हृदय ननकि गया है।
एक ददन उन्होंने ववरजन से कहा- यदद तम्
ु हारी कववताऍ ीं छपे, तो उनका बहुत आदर हो।
ववरजन ने लसर नीचा करके कहा- मझ ु े ववश्वास नहीीं कक कोई इनको पसन्द करे गा।
प्राणनाथ- ऐसा सींभव ही नहीीं। यदद हृदयों में कुछ भी रलसकता है तो तम्
ु हारे काव्य की अवश्य
प्रनतष्ठा होगी। यदद ऐसे िोग ववद्यमान हैं, जो पष्ु पों की सग
ु न्ध से आनक्न्दत हो जाते हैं, जो पक्षक्षयों के
किरव और चादनी की मनोहाररणी छटा का आनन्द उठा सकते हैं, तो वे तुम्हारी कववता को अवश्य हृदय में
स्थान दें गे। ववरजन के ह्दय मे वह गुदगदु ी उत्पन्न हुई जो प्रत्येक कवव को अपने काव्यधचन्तन की प्रशींसा
लमिने पर, कववता के मदु द्रत होने के ववचार से होती है। यद्यवप वह नहीीं–नहीीं करती रही, पर वह, ‘नहीीं’,
‘हा’ के समान थी। प्रयाग से उन ददनों ‘कमिा’ नाम की अच्छी पबत्रका ननकिती थी। प्राणनाथ ने ‘प्रेम की
मतवािी’ को वहाीं भेज ददया। सम्पादक एक काव्य–रलसक महानभ
ु ाव थे कववता पर हाददमक धन्यवाद ददया
ओर जब यह कववता प्रकालशत हुई, तो सादहत्य–सींसार में धम
ू मच गयी। कदाधचत ही ककसी कवव को प्रथम
ही बार ऐसी ख्यानत लमिी हो। िोग पढते और ववस्मय से एक-दस ू रे का मींह
ु ताकते थे। काव्य–प्रेलमयों मे
कई सप्ताह तक मतवािी बािा के चचे रहे । ककसी को ववश्वास ही न आता था कक यह एक नवजात कवव
की रचना है । अब प्रनत मास ‘कमिा’ के पष्ृ ठ ववरजन की कववता से सश
ु ोलभत होने िगे और ‘भारत
मदहिा’ को िोकमत ने कववयों के सम्माननत पद पर पहुींचा ददया। ‘भारत मदहिा’ का नाम बच्चे-बच्चे की
क्जहवा पर चढ गया। को इस समाचार-पत्र या पबत्रका ‘भारत मदहिा’ को ढूढने िगते। हाीं, उसकी ददव्य
शक्क्तया अब ककसी को ववस्मय में न डािती उसने स्वयीं कववता का आदशम उच्च कर ददया था।
तीन वषम तक ककसी को कुछ भी पता न िगा कक ‘भारत मदहिा’ कौन है। ननदान प्राण नाथ से न
रहा गया। उन्हें ववरजन पर भक्क्त हो गयी थी। वे कई माींस से उसका जीवन –चररत्र लिखने की धन
ु में
थे। सेवती के द्वारा धीरे -धीरे उन्होनें उसका सब जीवन चररत्र ज्ञात कर ददया और ‘भारत मदहिा’ के
शीषमक से एक प्रभाव–परू रत िेख लिया। प्राणनाथ ने पदहिे िेख न लिखा था, परन्तु श्रद्वा ने अभ्यास की
कमी परू ी कर दी थी। िेख अतयन्त रोचक, समािोचनातमक और भावपण
ू म था।

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इस िेख का मदु दत होना था कक ववरजन को चारों तरफ से प्रनतष्ठा के उपहार लमिने िगे।
राधाचरण मरु ादाबाद से उसकी भें ट को आये। कमिा, उमादे वी, चन्द्रकुवींर और सखखया क्जन्होनें उसे ववस्मरण
कर ददया था प्रनतददन ववरजन के दशनों को आने िगी। बडे बडे गणमान्य सजजन जो ममता के
अभीमान से हककमों के सम्मख
ु लसर न झक
ु ाते, ववरजन के द्वार पर दशनम को आते थे। चन्द्रा स्वयीं तो न
आ सकी, परन्तु पत्र में लिखा – जो चाहता है कक तुम्हारे चरणें पर लसर रखकर घींटों रोऊ।

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माधिी

कभी–कभी वन के फूिों में वह सग


ु क्न्धत और रीं ग-रुप लमि जाता है जो सजी हुई वादटकाओीं को कभी
प्राप्त नहीीं हो सकता। माधवी थी तो एक मख ू म और दररद्र मनष्ु य की िडकी, परन्तु ववधाता ने उसे नाररयों
के सभी उत्तम गण
ु ों से सश
ु ोलभत कर ददया था। उसमें लशक्षा सध
ु ार को ग्रहण करने की ववशेष योग्यता थी।
माधवी और ववरजन का लमिाप उस समय हुआ जब ववरजन ससरु ाि आयी। इस भोिी–भािी कन्या ने उसी
समय से ववरजन के सींग असधारण प्रीनत प्रकट करनी आरम्भ की। ज्ञात नहीीं, वह उसे दे वी समझती थी या
क्या? परन्तु कभी उसने ववरजन के ववरुद्व एक शब्द भी मख
ु से न ननकािा। ववरजन भी उसे अपने सींग
सि
ु ाती और अच्छी–अच्छी रे शमी वस्त्र पदहनाती इससे अधधक प्रीनत वह अपनी छोटी भधगनी से भी नहीीं कर
सकती थी। धचत्त का धचत्त से सम्बन्ध होता है। यदद प्रताप को वज
ृ रानी से हाददमक समबन्ध था तो वज
ृ रानी
भी प्रताप के प्रेम में पगी हुई थी। जब कमिाचरण से उसके वववाह की बात पक्की हुई जो वह प्रतापचन्द्र
से कम दख ु ी न हुई। हाीं िजजावश उसके हृदय के भाव कभी प्रकट न होते थे। वववाह हो जाने के पश्चात
उसे ननत्य धचन्ता रहती थी कक प्रतापचन्द्र के पीडडत हृदय को कैसे तसल्िी दीं ?ू मेरा जीवन तो इस भाींनत
आनन्द से बीतता है। बेचारे प्रताप के ऊपर न जाने कैसी बीतती होगी। माधवी उन ददनों ग्यारहवें वषम में
थी। उसके रीं ग–रुप की सन्
ु दरता, स्वभाव और गुण दे ख–दे खकर आश्चयम होता था। ववरजन को अचानक यह
ध्यान आया कक क्या मेरी माधवी इस योगय नहीीं कक प्रताप उसे अपने कण्ठ का हार बनाये ? उस ददन से
वह माधवी के सध
ु ार और प्यार में और भी अधधक प्रवत
ृ हो गयी थी वह सोच-सोचकर मन –ही मन-फूिी न
समाती कक जब माधवी सोिह–सत्रह वषम की हो जायेगी, तब मैं प्रताप के पास जाऊींगी और उससे हाथ
जोडकर कहूींगी कक माधवी मेरी बदहन है । उसे आज से तुम अपनी चेरी समझो क्या प्रताप मेरी बात टाि
दे गें? नहीीं– वे ऐसा नहीीं कर सकते। आनन्द तो तब है जब कक चाची स्वयीं माधवी को अपनी बहू बनाने की
मझ ु से इच्छा करें । इसी ववचार से ववरजन ने प्रतापचन्द्र के प्रशसनीय गुणों का धचत्र माधवी के हृदय में
खीींचना आरम्भ कर ददया था, क्जससे कक उसका रोम-रोम प्रताप के प्रेम में पग जाय। वह जब प्रतापचन्द्र
का वणमन करने िगती तो स्वत: उसके शब्द असामान्य रीनत से मधरु और सरस हो जाते। शनै:-शनै:
माधवी का कामि हृदय प्रेम–रस का आस्वादन करने िगा। दपमण में बाि पड गया।
भोिी माधवी सोचने िगी, मैं कैसी भाग्यवती हूीं। मझ ु े ऐसे स्वामी लमिेंगें क्जनके चरण धोने के योग्य
भी मैं नहीीं हूीं, परन्तु क्या वें मझ
ु े अपनी चेरी बनायेगें? कुछ तो, मैं अवश्य उनकी दासी बनग ींू ी और यदद
प्रेम में कुछ आकषणम है, तो मैं उन्हें अवश्य अपना बना िींग
ू ी। परन्तु उस बेचारी को क्या मािम
ू था कक ये
आशाएीं शोक बनकर नेत्रों
के मागम से बह जायेगी ? उसको पन्द्रहवाीं परू ा भी न हुआ था कक ववरजन पर
गह
ृ -ववनाश की आपवत्तयाीं आ पडी। उस आींधी के झोंकें ने माधवी की इस कक्ल्पत पष्ु प वादठका का
सत्यानाश कर ददया। इसी बीच में प्रताप चन्द्र के िोप होने का समाचार लमिा। आींधी ने जो कुछ अवलशष्ठ
रखा था वह भी इस अक्ग्न ने जिाकर भस्म कर ददया।
परन्तु मानस कोई वस्तु है, तो माधवी प्रतापचन्द्र की स्त्री बन चक
ु ी थी। उसने अपना तन और मन
उन्हें समपमण कर ददया। प्रताप को ज्ञान नहीीं। परन्तु उन्हें ऐसी अमल्
ू य वस्तु लमिी, क्जसके बराबर सींसार
में कोई वस्तु नहीीं ति
ु सकती। माधवी ने केवि एक बार प्रताप को दे खा था और केवि एक ही बार उनके
अमत
ृ –वचन सन
ु े थे। पर इसने उस धचत्र को और भी उजजवि कर ददया था, जो उसके हृदय पर पहिे
ही ववरजन ने खीींच रखा था। प्रताप को पता नहीीं था, पर माधवी उसकी प्रेमाक्ग्न में ददन-प्रनतददन घि
ु ती
जाती है । उस ददन से कोई ऐसा व्रत नहीीं था, जो माधवी न रखती हो , कोई ऐसा दे वता नहीीं था, क्जसकी
वह पज
ू ा न करती हो और वह सब इसलिए कक ईश्वर प्रताप को जहाीं कहीीं वे हों कुशि से रखें । इन
प्रेम–कल्पनाओीं ने उस बालिका को और अधधक दृढ सश
ु ीि और कोमि बना ददया। शायद उसके धचत ने यह
ननणयम कर लिया था कक मेरा वववाह प्रतापचन्द्र से हो चक
ु ा। ववरजन उसकी यह दशा दे खती और रोती कक
यह आग मेरी ही िगाई हुई है। यह नवकुसमु ककसके कण्ठ का हार बनेगा? यह ककसकी होकर रहे गी?
हाय रे क्जस चीज को मैंने इतने पररश्रम से अींकुररत ककया और मधक्ष
ु ीर से सीींचा, उसका फूि इस प्रकार
शाखा पर ही कुम्हिाया जाता है । ववरजन तो भिा कववता करने में उिझी रहती, ककन्तु माधवी को यह
सन्तोष भी न था उसके प्रेमी और साथी उसके वप्रयतम का ध्यान मात्र था–उस वप्रयतम का जो उसके लिए
सवमथा अपररधचत था पर प्रताप के चिे जाने के कई मास पीछे एक ददन माधवी ने स्वप्न दे खा कक वे
सतयासी हो गये है। आज माधवी का अपार प्रेम प्रकट हीं आ है । आकाशवाणी सी हो गयी कक प्रताप ने
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अवश्य सींन्यास ते लिया। आज से वह भी तपस्वनी बन गयी उसने सख
ु और वविास की िािसा हृदय से
ननकाि दी।
जब कभी बैठे–बैठे माधवी का जी बहुत आकुि होता तो वह प्रतापचनद्र के घर चिी जाती। वहाीं
उसके धचत की थोडी दे र के लिए शाींनत लमि जाती थी। परन्तु जब अन्त में ववरजन के पववत्र और आदशो
जीवन ने यह गाठ खोि दी वे गींगा यमन
ु ा की भाींनत परस्पर गिे लमि गयीीं , तो माधवी का
आवागमन भी बढ गया। सव
ु ामा के पास ददन –ददन भर बैठी रह जाती, इस भवन की, एक-एक अींगुि पथ्ृ वी
प्रताप का स्मारक थी। इसी आगन में प्रताप ने काठ के घोडे दौडाये और इसी कुण्ड में कागज की नावें
चिायी थीीं। नौकरी तो स्यात काि के भींवर में पडकर डूब गयीीं, परन्तु घोडा अब भी ववद्वमान थी। माधवी
ने उसकी जजीरत अलसथ्यों में प्राण डाि ददया और उसे वादटका में कुण्ड के ककनारे एक पाटिवक्ष
ृ की
छायों में बाींध ददया। यहीीं भवन प्रतापचन्द्र का शयनागार था।माधवी अब उसे अपने दे वता का मक्न्दर
समझती है । इस पिींग ने पींताप को बहुत ददनों तक अपने अींक में थपक–थपककर सि ु ाया था। माधवी अब
उसे पष्ु पों से सस
ु क्जजत करती है। माधवी ने इस कमरे को ऐसा ससु क्जजत कर ददया, जैसे वह कभी न था।
धचत्रों के मख
ु पर से धि
ू का यवननका उठ गयी। िैम्प का भाग्य पन
ु : चमक उठा। माधवी की इस अननत
प्रेम-भाक्क्त से सव
ु ामा का द:ु ख भी दरू हो गया। धचरकाि से उसके मख
ु पर प्रतापचन्द्र का नाम अभी न
आया था। ववरजन से मेि-लमिाप हो गया, परन्तु दोनों क्स्त्रयों में कभी प्रतापचन्द्र की चचाम भी न होती थी।
ववरजन िजजा की सींकुधचत थी और सव
ु ामा क्रोध से। ककन्तु माधवी के प्रेमानि से पत्थर भी वपघि गया।
अब वह प्रेमववह्रवि होकर प्रताप के बािपन की बातें पछ
ू ने िगती तो सव
ु ामा से न रहा जाता। उसकी आखों
से जि भर आता। तब दोनों रोती और ददन-ददन भर प्रताप की बातें समाप्त न होती। क्या अब माधवी के
धचत्त की दशा सव
ु ामा से नछप सकती थी? वह बहुधा सोचती कक क्या तपक्स्वनी इसी प्रकार प्रेमक्ग्न मे
जिती रहे गी और वह भी बबना ककसी आशा के? एक ददन वजृ रानी ने ‘कमिा’ का पैकेट खोिा, तो पहिे ही
पष्ृ ठ पर एक परम प्रनतभा-पण
ू म धचत्र ववववध रीं गों में ददखायी पडा। यह ककसी महात्म का धचत्र था। उसे
ध्यान आया कक मैंने इन महात्मा को कहीीं अवश्य दे खा है। सोचते-सोचते अकस्मात उसका घ्यान प्रतापचन्द्र
तक जा पहुींचा। आनन्द के उमींग में उछि पडी और बोिी – माधवी, तननक यहाीं आना।
माधवी फूिों की क्याररयाीं सीींच रहीीं थी। उसके धचत्त–ववनोद का आजकि वहीीं कायम था। वह साडी
पानी में िथपथ, लसर के बाि बबखरे माथे पर पसीने के बबन्द ु और नत्रों में प्रेम का रस भरे हुए आकर
खडी हो गयी। ववरजन ने कहा – आ तझ
ू े एक धचत्र ददखाऊीं।
माधवी ने कहा – ककसका धचत्र है , दे खीं।ू
माधवी ने धचत्र को घ्यानपव
ू क
म दे खा। उसकी आींखों में आींसू आ गये।
ववरजन – पहचान गयी ?
माधवी - क्यों? यह स्वरुप तो कई बार स्वप्न में दे ख चक
ु ी हूीं? बदन से काींनत बरस रही है।
ववरजन – दे खो वत
ृ ान्त भी लिखा है।
माधवी ने दस
ू रा पन्ना उल्टा तो ‘स्वामी बािाजी’ शीषमक िेख लमिा थोडी दे र तक दोंनों तन्मय
होकर यह िेख पढती रहीीं, तब बातचीत होने िगी।
ववरजन – मैं तो प्रथम ही जान गयी थी कक उन्होनें अवश्य सन्यास िे लिया होगा।
माधवी पथ्
ृ वी की ओर दे ख रही थी, मख
ु से कुछ न बोिी।
ववरजन –तब में और अब में ककतना अन्तर है । मख
ु मण्डि से काींनत झिक रही है। तब ऐसे सन्
ु दर न
थे।
माधवी –हूीं।
ववरजन – इश्वमर उनकी सहायता करे । बडी तपस्या की है ।(नेत्रो में जि भरकर) कैसा सींयोग है। हम
और वे सींग–सींग खेिे, सींग–सींग रहे , आज वे सन्यासी हैं और मैं ववयोधगनी। न जाने उन्हें हम िोंगों की कुछ
सध
ु भी हैं या नहीीं। क्जसने सन्यास िे लिया, उसे ककसी से क्या मतिब? जब चाची के पास पत्र न लिखा
तो भिा हमारी सधु ध क्या होगी? माधवी बािकपन में वे कभी योगी–योगी खेिते तो मैं लमठाइयों कक लभक्षा
ददया करती थी।
माधवी ने रोते हुए ‘न जाने कब दशमन होंगें ’ कहकर िजजा से लसर झक ु ा लिया।
ववरजन– शीघ्र ही आयींगें। प्राणनाथ ने यह िेख बहुत सन्
ु दर लिखा है ।
माधवी– एक-एक शब्द से भाक्क्त टपकती है ।

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ववरजन -वक्तत
ृ ता की कैसी प्रशींसा की है ! उनकी वाणी में तो पहिे ही जाद ू था, अब क्या पछ
ू ना!
प्राण्नाथ केधचत पर क्जसकी वाणी का ऐसा प्रभाव हुआ, वह समस्त पथ्
ृ वी पर अपना जाद ू फैिा सकता है ।
माधवी – चिो चाची के यहा चिें।
ववरजन- हा उनको तो ध्यान ही नहीीं रहाीं दे खें, क्या कहती है । प्रसन्न तो क्या होगी।
मधवी- उनको तो अलभिाषा ही यह थी, प्रसन्न क्यों न होगीीं?
उनकी तो अलभिाषा ही यह थी, प्रसन्न क्यों न होंगी?
ववरजन- चि? माता ऐसा समाचार सन
ु कर कभी प्रसन्न नहीीं हो सकती। दोंनो स्त्रीया घर से बाहर
ननकिीीं। ववरजन का मखु कमि मरु झाया हुआ था, पर माधवी का अींग–अींग हषम लसिा जाता था। कोई उससे
पछ
ू े –तेरे चरण अब पथ्
ृ वी पर क्यों नहीीं पहिे? तेरे पीिे बदन पर क्यों प्रसन्नता की िािी झिक रही है ?
तझ
ु े कौन-सी सम्पवत्त लमि गयी? तू अब शोकाक्न्वत और उदास क्यों न ददखायी पडती? तझ
ु े अपने वप्रयतम
से लमिने की अब कोई आशा नहीीं, तझ ु पर प्रेम की दृक्ष्ट कभी नहीीं पहुची कफर तू क्यों फूिी नहीीं समाती?
इसका उत्तर माधवी दे गी? कुछ नहीीं। वह लसर झक ु ा िेगी, उसकी आींखें नीचे झकु जायेंगी, जैसे डलियाीं फूिों
के भार से झक
ु जाती है । कदाधचत ् उनसे कुछ अश्रबु बन्द ु भी टपक पडे; ककन्तु उसकी क्जह्रवा से एक शबद
भी न ननकिेगा।
माधवी प्रेम के मद से मतवािी है। उसका हृदय प्रेम से उन्मत हैं। उसका प्रेम, हाट का सौदा नहीीं।
उसका प्रेमककसी वस्तु का भख
ू ा सनहीीं है। वह प्रेम के बदिे प्रेम नहीीं चाहती। उसे अभीमान है कक ऐसे
पवीत्रता परु
ु ष की मनू तम मेरे हृदय में प्रकाशमान है । यह अभीमान उसकी उन्मता का कारण है, उसके प्रेम
का परु स्कार है ।
दस
ू रे मास में वज
ृ रानी ने, बािाजी के स्वागत में एक प्रभावशािी कववता लिखी यह एक वविक्षण
रचना थी। जब वह मदु द्रत हुई तो ववद्या जगत ् ववरजन की काव्य–प्रनतभा से पररधचत होते हुए भी चमत्कृत
हो गया। वह कल्पना-रुपी पक्षी, जो काव्य–गगन मे वायमु ण्डि से भी आगे ननकि जाता था, अबकी तारा
बनकर चमका। एक–एक शब्द आकाशवाणी की जयोनत से प्रकालशत था क्जन िोगों ने यह कववता पढी वे
बािाजी के भ्क्त हो गये। कवव वह सींपेरा है क्जसकी वपटारी में स पों के स्थान में हृदय बन्द होते हैं।

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काशी में आगमन

जब से वजृ रानी का काव्य–चन्द्र उदय हुआ, तभी से उसके यहाीं सदै व मदहिाओीं का जमघट िगा
रहता था। नगर मे स्त्रीयों की कई सभाएीं थी उनके प्रबींध का सारा भार उसी को उठाना पडता था। उसके
अनतररक्त अन्य नगरों से भी बहुधा स्त्रीयों उससे भें ट करने को आती रहती थी जो तीथमयात्रा करने के लिए
काशी आता, वह ववरजन से अवरश्य लमिता। राज धममलसींह ने उसकी कववताओीं का सवािंग –सन् ु दर सींग्रह
प्रकालशत ककया था। उस सींग्रह ने उसके काव्य–चमत्कार का डींका, बजा ददया था। भारतवषम की कौन
कहे , यरू ोप और अमेररका के प्रनतक्ष्ठत कववयों ने उसे उनकी काव्य मनोहरता पर धन्यवाद ददया था।
भारतवषम में एकाध ही कोई रलसक मनष्ु य रहा होगा क्जसका पस्
ु तकािय उसकी पस्
ु तक से सश
ु ोलभत न
होगा। ववरजन की कववताओीं को प्रनतष्ठा करने वािों मे बािाजी का पद सबसे ऊींचा था। वे अपनी
प्रभावशालिनी वक्तत
ृ ाओीं औरिेखों में बहुधा उसी के वाक्यों का प्रमाण ददया करते थे। उन्होंने
‘सरस्वती’ में एक बार उसके सींग्रह की सववस्तार समािोचना भी लिखी थी।
एक ददन प्रात: काि ही सीता, चन्द्रकींु वरी ,रुकमणी और रानी ववरजन के घर आयीीं। चन्द्रा ने इन
लसत्र्यों को फींशम पर बबठाया और आदर सत्कार ककया। ववरजन वहाीं नहीीं थी क्योंकक उसने प्रभात का
समय काव्य धचन्तन के लिए ननयत कर लिया था। उस समय यह ककसी आवश्यक कायम के अनतररक्त ्
सखखयों से लमिती–जि
ु ती नहीीं थी। वादटका में एक रमणीक कींु ज था। गि
ु ाब की सगक्न्धत से सरु लभत वायु
चिती थी। वहीीं ववरजन एक लशिायन पर बैठी हुई काव्य–रचना ककया करती थी। वह काव्य रुपी समद्र ु
से क्जन मोनतयों को ननकािती, उन्हें माधवी िेखनी की मािा में वपरों लिया करती थी। आज बहुत ददनों के
बाद नगरवालसयों के अनरु ोध करने पर ववरजन ने बािाजी की काशी आने का ननमींत्रण दे ने के लिए िेखनी
को उठाया था। बनारस ही वह नगर था, क्जसका स्मरण कभी–कभी बािाजी को व्यग्र कर ददया करता था।
ककन्तु काशी वािों के ननरीं तर आग्रह करने पर भी उनहें काशी आने का अवकाश न लमिता था। वे लसींहि
और रीं गून तक गये, परन्तु उन्होनें काशी की ओर मख
ु न फेरा इस नगर को वे अपना परीक्षा भवन
समझते थे। इसलिए आज ववरजन उन्हें काशी आने का ननमींत्रण दे रही हैं। िोगें का ववचार आ जाता है ,
तो ववरजन का चन्द्रानन चमक उठता है , परन्तु इस समय जो ववकास और छटा इन दोनों पष्ु पों पर है, उसे
दे ख-दे खकर दरू से फूि िक्जजत हुए जाते हैं।
नौ बजते –बजते ववरजन घर में आयी। सेवती ने कहा– आज बडी दे र िगायी।
ववरजन – कुन्ती ने सय
ू म को बि
ु ाने के लिए ककतनी तपस्या की थी।
सीता – बािा जी बडे ननष्ठूर हैं। मैं तो ऐसे मनष्ु य से कभी न बोिीं।ू
रुकलमणी- क्जसने सींन्यास िे लिया, उसे घर–बार से क्या नाता?
चन्द्रकुवरर– यहाीं आयेगें तो मैं मख
ु पर कह दीं ग
ू ी कक महाशय, यह नखरे कहाीं सीखें ?
रुकमणी – महारानी। ऋवष-महात्माओीं का तो लशष्टाचार ककया करों क्जह्रवा क्या है कतरनी है ।
चन्द्रकुवरर– और क्या, कब तक सन्तोष करें जी। सब जगह जाते हैं, यहीीं आते पैर थकते हैं।
ववरजन– (मस्
ु कराकर) अब बहुत शीघ्र दशमन पाओगें । मझ
ु े ववश्वास है कक इस मास में वे अवश्य
आयेगें।
सीता– धन्य भाग्य कक दशमन लमिेगें। मैं तो जब उनका वत
ृ ाींत पढती हूीं यही जी चाहता हैं कक पाऊीं
तो चरण पकडकर घण्टों रोऊ।
रुकमणी – ईश्वर ने उनके हाथों में बडा यश ददया। दारानगर की रानी सादहबा मर चक
ु ी थी साींस टूट
रही थी कक बािाजी को सच ू ना हुई। झट आ पहुींचे और क्षण–मात्र में उठाकर बैठा ददया। हमारे मश
ींु ीजी
(पनत) उन ददनों वहीीं थें। कहते थे कक रानीजी ने कोश की कींु जी बािाजी के चरणों पर रख दी ओर कहा–
‘आप इसके स्वामी हैं’। बािाजी ने कहा–‘मझ
ु े धन की आवश्यक्ता नहीीं अपने राजय में तीन सौ गौशिाएीं
खि
ु वा दीक्जयें’। मख
ु से ननकिने की दे र थी। आज दारानगर में दध
ू की नदी बहती हैं। ऐसा महात्मा कौन
होगा।
चन्द्रकुवींरर – राजा नविखा का तपेददक उन्ही की बदू टयों से छूटा। सारे वैद्य डाक्टर जवाब दे चक
ु े
थे। जब बािाजी चिने िगें , तो महारानी जी ने नौ िाख का मोनतयों का हार उनके चरणों पर रख ददया।
बािाजी ने उसकी ओर दे खा तक नहीीं।
रानी – कैसे रुखे मनष्ु य हैं।
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रुकमणी - ह , और क्या, उन्हें उधचत था कक हार िे िेत–े नहीीं –नहीीं कण्ठ में डाि िेते।
ववरजन – नहीीं, िेकर रानी को पदहना दे ते। क्यों सखी?
रानी – हाीं मैं उस हार के लिए गि
ु ामी लिख दे ती।
चन्द्रकींु वरर – हमारे यह (पनत) तो भारत–सभा के सभ्य बैठे हैं ढाई सौ रुपये िाख यत्न करके रख
छोडे थे, उन्हें यह कहकर उठा िे गये कक घोडा िेंगें। क्या भारत–सभावािे बबना घोडे के नहीीं चिते?
रानी–कि ये िोग श्रेणी बाींधकर मेरे घर के सामने से जा रहे थे,बडे भिे मािम
ू होते थे।
इतने ही में सेवती नवीन समाचार–पत्र िे आयी।
ववरजन ने पछ
ू ा – कोई ताजा समाचार है ?
सेवती–हाीं, बािाजी माननकपरु आये हैं। एक अहीर ने अपनी पत्र
ु ् के वववाह का ननमींत्रण भेजा था। उस
पर प्रयाग से भारतसभा के सभ्यों दहत रात को चिकर माननकपरु पहुींच।े अहीरों ने बडे उत्साह और समारोह
के साथ उनका स्वागत ककया है और सबने लमिकर पाींच सौ गाएीं भें ट दी हैं बािाजी ने वधू को आशीवामरद
ददया ओर दल्
ु हे को हृदय से िगाया। पाींच अहीर भारत सभा के सदस्य ननयत हुए।
ववरजन-बडे अच्छे समाचार हैं। माधवी, इसे काट के रख िेना। और कुछ?
सेवती- पटना के पालसयों ने एक ठाकुदद्वारा बनवाया हैं वहा की भारतसभा ने बडी धम
ू धाम से उत्स्व
ककया।
ववरजन – पटना के िोग बडे उत्साह से कायम कर रहें हैं।
चन्द्रकुवरर– गडूररयाीं भी अब लसन्दरू िगायेंगी। पासी िोग ठाकुर द्वारे बनवायींगें ?
रुकमणी-क्यों, वे मनष्ु य नहीीं हैं ? ईश्वर ने उन्हें नहीीं बनाया। आप हीीं अपने स्वामी की पज
ू ा करना
जानती हैं ?
चन्द्रकुवरर- चिो, हटो, मझ
ु ें पालसयों से लमिाती हो। यह मझ
ु े अच्छा नहीीं िगता।
रुकलमणी – हा, तुम्हारा रीं ग गोरा है न? और वस्त्र-आभष
ू णों से सजी बहुत हो। बस इतना ही अन्तर है
कक और कुछ?
चन्द्रकुवरर- इतना ही अन्तर क्यों हैं? पत्ृ वी आकाश से लमिाती हो? यह मझ
ु े अच्छा नहीीं िगता। मझ
ु े
कछवाहों वींश में हू, कुछ खबर है?
रुक्क्मणी- हा, जानती हू और नहीीं जानती थी तो अब जान गयी। तुम्हारे ठाकुर साहब (पनत) ककसी
पासी से बढकर मल्ि –यद्
ु व करें गें? यह लसफम टे ढी पाग रखना जानते हैं? मैं जानती हूीं कक कोई छोटा –सा
पासी भी उन्हें काख –तिे दबा िेगा।
ववरजन - अच्छा अब इस वववाद को जाने तो। तम
ु दोनों जब आती हो, िडती हो आती हो।
सेवती- वपता और पत्र
ु का कैसा सींयोग हुआ है? ऐसा मािम ु होता हैं कक मींश
ु ी शलिग्राम ने प्रतापचन्द्र
ही के लिए सींन्यास लिया था। यह सब उन्हीीं कर लशक्षा का फि हैं।
रक्क्मणी – हाीं और क्या? मन्
ु शी शलिग्राम तो अब स्वामी िह्रमानन्द कहिाते हैं। प्रताप को दे खकर
पहचान गये होगें ।
सेवती – आनन्द से फूिे न समाये होगें ।
रुक्क्मणी-यह भी ईश्वर की प्रेरणा थी, नहीीं तो प्रतापचन्द्र मानसरोवर क्या करने जाते?
सेवती–ईश्वर की इच्छा के बबना कोई बात होती है ?
ववरजन–तम
ु िोग मेरे िािाजी को तो भि
ू ही गयी। ऋषीकेश में पहिे िािाजी ही से प्रतापचनद्र की
भें ट हुई थी। प्रताप उनके साथ साि-भर तक रहे । तब दोनों आदमी मानसरोवर की ओर चिे।
रुक्क्मणी–हाीं, प्राणनाथ के िेख में तो यह वत
ृ ान्त था। बािाजी तो यही कहते हैं कक मींश
ु ी सींजीवनिाि
से लमिने का सौभाग्य मझ
ु े प्राप्त न होता तो मैं भी माींगने–खानेवािे साधओ
ु ीं में ही होता।
चन्द्रकींु वरर-इतनी आत्मोन्ननत के लिए ववधाता ने पहिे ही से सब सामान कर ददये थे।
सेवती–तभी इतनी–सी अवस्था में भारत के सय ु म बने हुए हैं। अभी पचीसवें वषम में होगें ?
ववरजन – नहीीं, तीसवाीं वषम है । मझ
ु से साि भर के जेठे हैं।
रुक्क्मणी -मैंने तो उन्हें जब दे खा, उदास ही दे खा।
चन्द्रकींु वरर – उनके सारे जीवन की अलभिाषाओीं पर ओींस पड गयी। उदास क्यों न होंगी?
रुक्क्मणी – उन्होने तो दे वीजी से यही वरदान माींगा था।
चन्द्रकींु वरर – तो क्या जानत की सेवा गह
ृ स्थ बनकर नहीीं हो सकती?

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रुक्क्मणी – जानत ही क्या, कोई भी सेवा गह
ृ स्थ बनकर नहीीं हो सकती। गह
ृ स्थ केवि अपने बाि-
बच्चों की सेवा कर सकता है।
चन्द्रकींु वरर – करनेवािे सब कुछ कर सकते हैं, न करनेवािों के लिए सौ बहाने हैं।
एक मास और बीता। ववरजन की नई कववता स्वागत का सन्दे शा िेकर बािाजी के पास पहुची
परन्तु यह न प्रकट हुआ कक उन्होंने ननमींत्रण स्वीकार ककया या नहीीं। काशीवासी प्रतीक्षा करते–करते थक
गये। बािाजी प्रनतददन दक्षक्षण की ओर बढते चिे जाते थे। ननदान िोग ननराश हो गये और सबसे अधीक
ननराशा ववरजन को हुई।
एक ददन जब ककसी को ध्यान भी न था कक बािाजी आयेंगे, प्राणनाथ ने आकर कहा–बदहन। िो
प्रसन्न हो जाओ, आज बािाजी आ रहे हैं।
ववरजन कुछ लिख रही थी, हाथों से िेखनी छूट पडी। माधवी उठकर द्वार की ओर िपकी। प्राणनाथ
ने हीं सकर कहा – क्या अभी आ थोडे ही गये हैं कक इतनी उद्ववग्न हुई जाती हो।
माधवी – कब आयींगें इधर से हीहोकर जायींगें नए?
प्राणनाथ – यह तो नहीीं ज्ञात है कक ककधर से आयेंगें – उन्हें आडम्बर और धम
ू धाम से बडी घण
ृ ा है ।
इसलिए पहिे से आने की नतधथ नहीीं ननयत की। राजा साहब के पास आज प्रात:काि एक मनष्ु य ने आकर
सच
ू ना दी कक बािाजी आ रहे हैं और कहा है कक मेरी आगवानी के लिए धम
ू धाम न हो, ककन्तु यहाीं के िोग
कब मानते हैं? अगवानी होगी, समारोह के साथ सवारी ननकिेगी, और ऐसी कक इस नगर के इनतहास में
स्मरणीय हो। चारों ओर आदमी छूटे हुए हैं। जयोंही उन्हें आते दे खेंगे, िोग प्रत्येक महु ल्िे में टे िीफोन द्वारा
सचू ना दे दें गे। कािेज और सकूिों के ववद्याथी वददम याीं पहने और झक्ण्डयाीं लिये इन्तजार में खडे हैं घर–घर
पष्ु प–वषाम की तैयाररयाीं हो रही हैं बाजार में दक
ु ानें सजायी जा रहीीं हैं। नगर में एक धम
ू सी मची हुई है ।
माधवी - इधर से जायेगें तो हम रोक िेंगी।
प्राणनाथ – हमने कोई तैयारी तो की नहीीं, रोक क्या िेंगे? और यह भी तो नहीीं ज्ञात हैं कक ककधर से
जायेंगें।
ववरजन – (सोचकर) आरती उतारने का प्रबन्ध तो करना ही होगा।
प्राणनाथ – ह अब इतना भी न होगा? मैं बाहर बबछावन आदद बबछावाता हूीं।
प्राणनाथ बाहर की तैयाररयों में िगे, माधवी फूि चन
ु ने िगी, ववरजन ने चाींदी का थाि भी धोकर
स्वच्छ ककया। सेवती और चन्द्रा भीतर सारी वस्तए
ु ीं क्रमानस
ु ार सजाने िगीीं।
माधवी हषम के मारे फूिी न समाती थी। बारम्बार चौक–चौंककर द्वार की ओर दे खती कक कहीीं आ तो
नहीीं गये। बारम्बार कान िगाकर सन
ु ती कक कहीीं बाजे की ध्वनन तो नहीीं आ रही है। हृदय हषम के मारे
धडक रहा था। फूि चन
ु ती थी, ककन्तु ध्यान दस
ू री ओर था। हाथों में ककतने ही काींटे चभ
ु ा लिए। फूिों के
साथ कई शाखाऍ ीं मरोड डािीीं। कई बार शाखाओीं में उिझकर धगरी। कई बार साडी काींटों में फींसा दीीं उसस
समय उसकी दशा बबिकुि बच्चों की-सी थी।
ककन्तु ववरजन का बदन बहुत सी मलिन था। जैसे जिपण ू म पात्र तननक दहिने से भी छिक जाता है ,
उसी प्रकार जयों-जयों प्राचीन घटनाए स्मरण आती थी, त्यों-त्यों उसके नेत्रों से अश्रु छिक पडते थे। आह!
कभी वे ददन थे कक हम और वह भाई-बदहन थे। साथ खेिते, साथ रहते थे। आज चौदह वषम व्यतीत हुए,
उनकास मखु दे खने का सौभग्य भी न हुआ। तब मैं तननक भी रोती वह मेरे ऑ ींसू पोछतें और मेरा जी
बहिाते। अब उन्हें क्या सधु ध कक ये ऑ ींखे ककतनी रोयी हैं और इस हृदय ने कैसे-कैसे कष्ट उठाये हैं। क्या
खबर थी की हमारे भाग्य ऐसे दृश्य ददखायेंगे? एक ववयोधगन हो जायेगी और दस
ू रा सन्यासी।
अकस्मात ् माधवी को ध्यान आया कक सव
ु मस को कदाधचत बाजाजी के आने की सच ु ना न हुई हो।
वह ववरजन के पास आक बोिी- मैं तननक चची के यह ॉँ जाती हू। न जाने ककसी ने उनसे कहा या नहीीं?
प्राणनाथ बाहर से आ रहे थे, यह सन
ु कर बोिे- वह ॉँ सबसे पहिे सच ॉँ तैयाररय ॉँ
ू ना दी गयीीं भिी-भ नत
हो रही है । बािाजी भी सीधे घर ही की ओर पधारें गे। इधर से अब न आयेंगे।
ववरजन- तो हम िोगों का चिना चादहए। कहीीं दे र न हो जाए। माधवी- आरती का थाि िाऊ?
ु ा िो (चौंककर) अरे ! तेरे हाथों में रुधधर कह ॉँ से आया?
ववरजन- कौन िे चिेगा ? महरी को बि
ु ती थी, क टेॉँ िग गये होंगे।
माधवी- ऊह! फूि चन
चन्द्रा- अभी नयी साडी आयी है। आज ही फाड के रख दी।
माधवी- तुम्हारी बिा से!

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माधवी ने कह तो ददया, ककन्तु ऑखें अश्रप
ु ण
ू म हो गयीीं। चन्द्रा साधारणत: बहुत भिी स्त्री थी। ककन्तु
जब से बाबू राधाचरण ने जानत-सेवा के लिए नौकरी से इस्तीफा दे ददया था वह बािाजी के नाम से धचढ़ती
थी। ववरजन से तो कुछ न कह सकती थी, परन्तु माधवी को छे डती रहती थी। ववरजन ने चन्द्रा की ओर
घरू कर माधवी से कहा- जाओ, सन्दक
ू से दस
ू री साडी ननकाि िो। इसे रख आओ। राम-राम, मार हाथ छिनी
कर डािे!
ॉँ चिगी।
माधवी- दे र हो जायेगी, मैं इसी भ नत ू
ववरजन- नही, अभी घण्टा भर से अधधक अवकाश है ।
यह कहकर ववरजन ने प्यार से माधवी के हाथ धोये। उसके बाि गींथ
ू ,े एक सन्
ु दर साडी पदहनायी,
चादर ओढ़ायी और उसे हृदय से िगाकर सजि नेत्रों से दे खते हुए कहा- बदहन! दे खो, धीरज हाथ से न
जाय।
माध्वी मस्
ु कराकर बोिी- तम
ु मेरे ही सींग रहना, मझ
ु े सभिती रहना। मझ
ु े अपने हृदय पर भरोसा नहीीं
है ।
ववरजन ताड गई कक आज प्रेम ने उन्मत्ततास का पद ग्रहण ककया है और कदाधचत ् यही उसकी
पराकाष्ठा है । ह ॉँ ! यह बाविी बािू की भीत उठा रही है ।
ु ाम के घर चिी। वे वह ॉँ
माधवी थोडी दे र के बाद ववरजन, सेवती, चन्द्रा आदद कई स्त्रीयों के सींग सव
की तैयाररय ॉँ दे खकर चककत हो गयीीं। द्वार पर एक बहुत बडा चदोवा बबछावन, शीशे और भ नत-भाॉँ नत की
सामधग्रयों से सस ु क्जजत खडा था। बधाई बज रही थी! बडे-बडे टोकरों में लमठाइय ॉँ और मेवे रखे हुए थे।
नगर के प्रनतक्ष्ठत सभ्य उत्तमोत्तम वस्त्र पदहने हुए स्वागत करने को खडे थे। एक भी कफटन या गाडी नहीीं
ददखायी दे ती थी, क्योंकक बािाजी सवमदा पैदि चिा करते थे। बहुत से िोग गिे में झोलिय ॉँ डािें हुए ददखाई
दे ते थे, क्जनमें बािाजी पर समपमण करने के लिये रुपये-पैसे भरे हुए थे। राजा धममलसींह के प चोंॉँ िडके रीं गीन
वस्त्र पदहने, केसररया पगडी बाींधे, रे शमी झक्ण्डयाीं कमरे से खोसें बबगुि बजा रहे थे। जयोंदह िोगों की दृक्ष्ट
ववरजन पर पडी, सहस्रों मस्तक लशष्टाचार के लिए झक
ु गये। जब ये दे ववयाीं भीतर गयीीं तो वहाीं भी आींगन
और दािान नवागत वधू की भाींनत सस
ु क्जजत ददखे! सैकडो स्त्रीयाीं मींगि गाने के लिए बैठी थीीं। पष्ु पों की
रालशया ठौर-ठौर पडी थी। सव
ु ामा एक श्वेत साडी पदहने सन्तोष और शाक्न्त की मनू तम बनी हुई द्वार पर
खडी थी। ववरजन और माधवी को दे खते ही सजि नयन हो गयी। ववरजन बोिी- चची! आज इस घर के
भाग्य जग गये।
सवु ामा ने रोकर कहा- तम्
ु हारे कारण मझ
ु े आज यह ददन दे खने का सौभाग्य हुआ। ईश्वर तम्
ु हें इसका
फि दे ।
दखु खया माता के अन्त:करण से यह आशीवामद ननकिा। एक माता के शाप ने राजा दशरथ को पत्र
ु शोक
में मत्ृ यु का स्वाद चखाया था। क्या सव
ु ामा का यह आशीवामद प्रभावहीन होगा?
दोनों अभी इसी प्रकार बातें कर रही थीीं कक घण्टे और शींख की ध्वनन आने िगी। धम
ू मची की
बािाजी आ पहुींच।े स्त्रीयों ने मींगिगान आरम्भ ककया। माधवी ने आरती का थाि िे लिया मागम की ओर
टकटकी बाींधकर दे खने िगी। कुछ ही काि मे अद्वैताम्बरधारी नवयव ु कों का समद
ु ाय दखयी पडा। भारत
सभा के सौ सभ्य घोडों पर सवार चिे आते थे। उनके पीछे अगखणत मनष्ु यों का झण्
ु ड था। सारा नगर टूट
पडा। कन्धे से कन्धा नछिा जाता था मानो समद्र
ु की तरीं गें बढ़ती चिी आती हैं। इस भीड में बािाजी का
मख
ु चन्द्र ऐसा ददखायी पडताथ मानो मेघाच्छददत चन्द्र उदय हुआ है । ििाट पर अरुण चन्दन का नतिक
था और कण्ठ में एक गेरुए रीं ग की चादर पडी हुई थी।
सव
ु ामा द्वार पर खडी थी, जयोंही बािाजी का स्वरुप उसे ददखायी ददया धीरज हाथ से जाता रहा।
द्वार से बाहर ननकि आयी और लसर झक
ु ाये, नेत्रों से मक्
ु तहार गींथ
ू ती बािाजी के ओर चिी। आज उसने
अपना खोया हुआ िाि पाया है। वह उसे हृदय से िगाने के लिए उद्ववग्न है।
सवु ामा को इस प्रकार आते दे खकर सब िोग रुक गये। ववददत होता था कक आकाश से कोई दे वी उतर
आयी है। चतदु दम क सन्नाटा छा गया। बािाजी ने कई डग आगे बढ़कर मातीजी को प्रमाण ककया और उनके
चरणों पर धगर पडे। सव ु ामा ने उनका मस्तक अपने अींक में लिया। आज उसने अपना खोया हुआ िाि पाया
है । उस पर आींखों से मोनतयों की वक्ृ ष्ट कर रहीीं है।
इस उत्साहवद्मवक दृश्य को दे खकर िोगों के हृदय जातीयता के मद में मतवािे हो गये ! पचास सहस्र
स्वर से ध्वनन आयी-‘बािाजी की जय।’ मेघ गजाम और चतुददमक से पष्ु पवक्ृ ष्ट होने िगी। कफर उसी प्रकार

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दस
ू री बार मेघ की गजमना हुई। ‘मींश
ु ी शालिग्राम की जय’ और सहस्रों मनष्ु ये स्वदे श-प्रेम के मद से मतवािे
होकर दौडे और सवु ामा के चरणों की रज माथे पर मिने िगे। इन ध्वननयों से सव ु ामा ऐसी प्रमदु दत हो रहीीं
थी जैसे महुअर के सन
ु ने से नाधगन मतवािी हो जाती है। आज उसने अपना खोया
हुआ िाि पाया है। अमल् ू य रत्न पाने से वह रानी हो गयी है। इस रत्न के कारण आज उसके चरणों की
रज िोगो के नेत्रों का अींजन और माथे का चन्दन बन रही है ।
अपव
ू म दृश्य था। बारम्बार जय-जयकार की ध्वनन उठती थी और स्वगम के ननवालसयों को भातर की
जागनृ त का शभ
ु -सींवाद सन
ु ाती थी। माता अपने पत्र
ु को किेजे से िगाये हुए है । बहुत ददन के अनन्तर उसने
अपना खोया हुआ िाि है , वह िाि जो उसकी जन्म-भर की कमाई था। फूि चारों और से ननछावर हो रहे
है । स्वणम और रत्नों की वषाम हो रही है। माता और पत्र
ु कमर तक पष्ु पों के समद्र
ु में डूबे हुए है। ऐसा
प्रभावशािी दृश्य ककसके नेत्रों ने दे खा होगा।
ु ामा बािाजी का हाथ पकडे हुए घरकी ओर चिी। द्वार पर पहुचते ही स्त्रीय ॉँ मींगि-गीत गाने िगीीं
सव
और माधवी स्वणम रधचत थाि दीप और पष्ु पों से आरती करने िगी। ववरजन ने फूिों की मािा-क्जसे माधवी
ने अपने रक्त से रीं क्जत ककया था- उनके गिे में डाि दी। बािाजी ने सजि नेत्रों से ववरजन की ओर
दे खकर प्रणाम ककया।
माधवी को बािाजी के दशनम की ककतनी अलभिाषा थी। ककन्तु इस समय उसके नेत्र पथ्
ृ वी की ओर
झक ु े हुए है । वह बािाजी की ओर नहीीं दे ख सकती। उसे भय है कक मेरे नेत्र पथ्
ृ वी हृदय के भेद को खोि
दें गे। उनमे प्रेम रस भरा हुआ है । अब तक उसकी सबसे बडी अलभिाषा यह थी कक बािाजी का दशनम पाऊ।
आज प्रथम बार माधवी के हृदय में नयी अलभिाषाएीं उत्पन्न हुई, आज अलभिाषाओीं ने लसर उठाया है , मगर
पण
ू म होने के लिए नहीीं, आज अलभिाषा-वादटका में एक नवीन किी िगी है, मगर खखिने के लिए नहीीं, वरन
मरु झाने लमट्टी में लमि जाने के लिए। माधवी को कौन समझाये कक तू इन अलभिाषाओीं को हृदय में
उत्पन्न होने दे । ये अलभिाषाएीं तुझे बहुत रुिायेंगी। तेरा प्रेम काल्पननक है। तू उसके स्वाद से पररधचत है ।
क्या अब वास्तववक प्रेम का स्वाद लिया चाहती है ?

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प्रेम का स्िप्न

मनष्ु य का हृदय अलभिाषाओीं का क्रीडास्थि और कामनाओीं का आवास है । कोई समय वह थाीं जब


कक माधवी माता के अींक में खेिती थी। उस समय हृदय अलभिाषा और चेष्टाहीन था। ककन्तु जब लमट्टी
के घरौंदे बनाने िगी उस समय मन में यह इच्छा उत्पन्न हुई कक मैं भी अपनी गुडडया का वववाह करुगी।
सब िडककयाीं अपनी गडु डयाीं ब्याह रही हैं, क्या मेरी गुडडया कुवारी रहें गी? मैं अपनी गुडडया के लिए गहने
बनवाऊगी, उसे वस्त्र पहनाऊगी, उसका वववाह रचाऊगी। इस इच्छा ने उसे कई मास तक रुिाया। पर गडु डयों
के भाग्य में वववाह न बदा था। एक ददन मेघ नघर आये और मस
ू िाधार पानी बरसा। घरौंदा वक्ृ ष्ट में बह
गया और गडु डयों के वववाह की अलभिाषा अपण
ू म हो रह गयी।
कुछ काि और बीता। वह माता के सींग ववरजन के यह ॉँ आने-जाने िगी। उसकी मीठी-मीठी बातें
सन
ु ती और प्रसन्न होती, उसके थाि में खाती और उसकी गोद में सोती। उस समय भी उसके हृदय में यह
इच्छा थी कक मेरा भवन परम सन्
ु दर होता, उसमें चाींदी के ककवाड िगे होते, भलू म ऐसी स्वच्छ होती कक
मक्खी बैठे और कफसि जाए ! मैं ववरजन को अपने घर िे जाती, वहाीं अच्छे -अच्छे पकवान बनाती और
खखिाती, उत्तम पिींग पर सि ॉँ उसकी सेवा करती। यह इच्छा वषों तक हृदय में चट
ु ाती और भिी-भ नत ु ककया
िेती रही। ककन्तु उसी घरौंदे की भानत यह घर भी ढह गया और आशाए ननराशा में पररवनतमत हो गयी।
कुछ काि और बीता, जीवन-काि का उदय हुआ। ववरजन ने उसके धचत्त पर प्रतापचन्द्र का धचत्त
खीींचना आरम्भ ककया। उन ददनों इस चचाम के अनतररक्त उसे कोई बात अच्छी न िगती थी। ननदान उसके
हृदय में प्रतापचन्द्र की चेरी बनने की इच्छा उत्पन्न हुई। पडे-पडे हृदय से बातें ककया करती। रात्र में
जागरण करके मन का मोदक खाती। इन ववचारों से धचत्त पर एक उन्माद-सा छा जाता, ककन्तु प्रतापचन्द्र
इसी बीच में गप्ु त हो गये और उसी लमट्टी के घरौंदे की भानत ये हवाई ककिे ढह गये। आशा के स्थान पर
हृदय में शोक रह गया।
अब ननराशा ने उसक हृदय में आशा ही शेष न रखा। वह दे वताओीं की उपासना करने िगी, व्रत रखने
िगी कक प्रतापचन्द्र पर समय की कुदृक्ष्ट न पडने पाये। इस प्रकार अपने जीवन के कई वषम उसने
तपक्स्वनी बनकर व्यतीत ककये। कक्ल्पत प्रेम के उल्िास मे चरू होती। ककन्तु आज तपक्स्वनी का व्रत टूट
गया। मन में नत
ू न अलभिाषाओीं ने लसर उठाया। दस वषम की तपस्या एक क्षण में भींग हो गयी। क्या यह
इच्छा भी उसी लमट्टी के घरौंदे की भानत पददलित हो जाएगी?
आज जब से माधवी ने बािाजी की आरती उतारी है ,उसके आसू नहीीं रुके। सारा ददन बीत गया। एक-
एक करके तार ननकिने िगे। सय
ू म थककर नछप गय और पक्षीगण घोसिों में ववश्राम करने िगे, ककन्तु
माधवी के नेत्र
नहीीं थके। वह सोचती है कक हाय! क्या मैं इसी प्रकार रोने के लिए बनायी गई हू? मैं कभी
हसी भी थी क्जसके कारण इतना रोती हू? हाय! रोते-रोते आधी आयु बीत गयी, क्या शेष भी इसी प्रकार
बीतेगी? क्या मेरे जीवन में एक ददन भी ऐसा न आयेगा, क्जसे स्मरण करके सन्तोष हो कक मैंने भी कभी
सदु दन दे खे थे? आज के पहिे माधवी कभी ऐसे नैराश्य-पीडडत और नछन्नहृदया नहीीं हुई थी। वह अपने
कक्ल्पत पेम मे ननमग्न थी। आज उसके हृदय में नवीन अलभिाषाए उत्पन्न हुई है । अश्रु उन्हीीं के प्रेररत है ।
जो हृदय सोिह वषम तक आशाओीं का आवास रहा हो, वही इस समय माधवी की भावनाओीं का अनम
ु ान कर
सकता है।
सव
ु ामा के हृदय मे नवीन इच्छाओीं ने लसर उठाया है। जब तक बािजी को न दे खा था, तब तक
उसकी सबसे बडी अलभिाषा यह थी कक वह उन्हें आखें भर कर दे खती और हृदय-शीति कर िेती। आज
जब आखें भर दे ख लिया तो कुछ और दे खने की अच्छा उत्पन्न हुई। शोक ! वह इच्छा उत्पन्न हुई माधवी
के घरौंदे की भानत लमट्टी में लमि जाने क लिए।
आज सव
ु ामा, ववरजन और बािाजी में साींयकाि तक बातें होती रही। बािाजी ने अपने अनभ
ु वों का
वणमन ककया। सव ु ामा ने अपनी राम कहानी सन
ु ायी और ववरजन ने कहा थोडा, ककन्तु सन
ु ा बहुत। मश
ींु ी
सींजीवनिाि के सन्यास का समाचार पाकर दोनों रोयीीं। जब दीपक जिने का समयआ पहुचा, तो बािाजी
गींगा की ओर सींध्या करने चिे और सव
ु ामा भोजन बनाने बैठी। आज बहुत ददनों के पश्चात सव
ु ामा मन
िगाकर भोजन बना रही थी। दोनों बात करने िगीीं।
सव
ु ामा-बेटी! मेरी यह हाददमक अलभिाषा थी कक मेरा िडका सींसार में प्रनतक्ष्ठत हो और ईश्वर ने मेरी
िािसा परू ी कर दी। प्रताप ने वपता और कुि का नाम उजजवि कर ददया। आज जब प्रात:काि मेरे
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स्वामीजी की जय सन ु ायी जा रही थी तो मेरा हृदय उमड-उमड आया था। मैं केवि इतना चाहती हू कक वे
यह वैराग्य त्याग दें । दे श का उपकार करने से मैं उन्हें नहीीं राकती। मैंने तो दे वीजी से यही वरदान मागा
था, परन्तु उन्हें सींन्यासी के वेश में दे खकर मेरा हृदय ववदीणम हुआ जाता है।
ववरजन सव ु ामा का अलभप्राय समझ गयी। बोिी-चाची! यह बात तो मेरे धचत्त में पदहिे ही से जमी हुई
है । अवसर पाते ही अवश्य छे डूगी।
सवु ामा-अवसर तो कदाधचत ही लमिे। इसका कौन दठकान? अभी जी में आये, कहीीं चि दें । सन ु ती हू
सोटा हाथ में लिये अकेिे वनों में घम
ू ते है। मझ
ु से अब बेचारी माधवी की दशा नहीीं दे खी जाती। उसे दे खती
हू तो जैसे कोई मेरे हृदय को मसोसने िगता है । मैंने बहुतेरी स्त्रीया दे खीीं और अनेक का वत्त
ृ ान्त पस्
ु तकों में
पढ़ा ; ककन्तु ऐसा प्रेम कहीीं नहीीं दे खा। बेचारी ने आधी आयु रो-रोकर काट दी और कभी मख ु न मैिा
ककया। मैंने कभी उसे रोते नहीीं दे खा ; परन्तु रोने वािे नेत्र और हसने वािे मख
ु नछपे नहीीं रहते। मझ
ु े ऐसी
ही पत्र
ु वधू की िािसा थी, सो भी ईश्वर ने पण
ू म कर दी। तम
ु से सत्य कहती हू, मैं उसे पत्र
ु वधू समझती हू।
आज से नहीीं, वषों से।
वज
ृ रानी- आज उसे सारे ददन रोते ही बीता। बहुत उदास ददखायी दे ती है।
सवु ामा- तो आज ही इसकी चचाम छे डो। ऐसा न हो कक कि ककसी ओर प्रस्थान कर दे , तो कफर एक
यग
ु प्रतीक्षा करनी पडे।
वज
ृ रानी- (सोचकर) चचाम करने को तो मैं करु, ककन्तु माधवी स्वयीं क्जस उत्तमता के साथ यह कायम
कर सकती है, कोई दस
ू रा नहीीं कर सकता।
सव
ु ामा- वह बेचारी मख
ु से क्या कहे गी?
वज
ृ रानी- उसके नेत्र सारी कथा कह दें गे?
सव
ु ामा- िल्िू अपने मन में क्या कहीं गे?
वज
ृ रानी- कहें गे क्या ? यह तुम्हारा भ्रम है जो तुम उसे कुवारी समझ रही हो। वह प्रतापचन्द्र की
पत्नी बन चक
ु ी। ईश्वर के यहा उसका वववाह उनसे हो चक
ु ा यदद ऐसा न होता तो क्या जगत ् में परु
ु ष न
थे? माधवी जैसी स्त्री को कौन नेत्रों में न स्थान दे गा? उसने अपना आधा यौवन व्यथम रो-रोकर बबताया है।
उसने आज तक ध्यान में भी ककसी अन्य परु
ु ष को स्थान नहीीं ददया। बारह वषम से तपक्स्वनी का जीवन
व्यतीत कर रही है। वह पिींग पर नहीीं सोयी। कोई रीं गीन वस्त्र नहीीं पहना। केश तक नहीीं गुथाये। क्या इन
व्यवहारों से नहीीं लसद्व होता कक माधवी का वववाह हो चक
ु ा? हृदय का लमिाप सच्चा वववाह है । लसन्दरू का
टीका, ग्रक्न्थ-बन्धन और भावर- ये सब सींसार के ढकोसिे है।
सवु ामा- अच्छा, जैसा उधचत समझो करो। मैं केवि जग-हसाई से डरती हू।
रात को नौ बजे थे। आकाश पर तारे नछटके हुए थे। माधवी वादटका में अकेिी ककन्तु अनत दरू हैं।
क्या कोई वहा तक पहुच सकता है? क्या मेरी आशाए भी उन्ही नक्षत्रों की भानत है ? इतने में ववरजन ने
उसका हाथ पकडकर दहिाया। माधवी चौंक पडी।
ववरजन-अधेरे में बैठी क्या कर रही है?
माधवी- कुछ नहीीं, तो तारों को दे ख रही हू। वे कैसे सह
ु ावने िगते हैं, ककन्तु लमि नहीीं सकते।
ववरजन के किेजे मे बछी-सी िग गयी। धीरज धरकर बोिी- यह तारे धगनने का समय नहीीं है। क्जस
अनतधथ के लिए आज भोर से ही फूिी नहीीं समाती थी, क्या इसी प्रकार उसकी अनतधथ-सेवा करे गी?
माधवी- मैं ऐसे अनतधथ की सेवा के योग्य कब हू?
ववरजन- अच्छा, यहा से उठो तो मैं अनतधथ-सेवा की रीनत बताऊ।
दोनों भीतर आयीीं। सव ु ामा भोजन बना चक
ु ी थी। बािाजी को माता के हाथ की रसोई बहुत ददनों में
प्राप्त हुई। उन्होंने बडे प्रेम से भोजन ककया। सवु ामा खखिाती जाती थी और रोती जाती थी। बािाजी खा
पीकर िेटे, तो ववरजन ने माधवी से कहा- अब यहा कोने में मख
ु बाधकर क्यों बैठी हो?
माधवी- कुछ दो तो खाके सो रहू, अब यही जी चाहता है ।
ववरजन- माधवी! ऐसी ननराश न हो। क्या इतने ददनों का व्रत एक ददन में भींग कर दे गी?
माधवी उठी, परन्तु उसका मन बैठा जाता था। जैसे मेघों की कािी-कािी घटाए उठती है और ऐसा
प्रतीत होता है कक अब जि-थि एक हो जाएगा, परन्तु अचानक पछवा वायु चिने के कारण सारी घटा काई
की भानत फट जाती है , उसी प्रकार इस समय माधवी की गनत हो रही है ।

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वह शभु ददन दे खने की िािसा उसके मन में बहुत ददनों से थी। कभी वह ददन भी आयेगा जब कक
मैं उसके दशमन पाऊगी? और उनकी अमत ृ -वाणी से श्रवण तप्ृ त करुगी। इस ददन के लिए उसने मान्याए कैसी
मानी थी? इस ददन के ध्यान से ही उसका हृदय कैसा खखिा उठता था!
आज भोर ही से माधवी बहुत प्रसन्न थी। उसने बडे उत्साह से फूिों का हार गूथा था। सैकडों काटे
हाथ में चभ
ु ा लिये। उन्मत्त की भानत धगर-धगर पडती थी। यह सब हषम और उमींग इसीलिए तो था कक आज
वह शभु ददन आ गया। आज वह ददन आ गया क्जसकी ओर धचरकाि से आखे िगी हुई थीीं। वह समय भी
अब स्मरण नहीीं, जब यह अलभिाषा मन में नहीीं, जब यह अलभिाषा मन में न रही हो। परन्तु इस समय
माधवी के हृदय की वह गाते नहीीं है । आनन्द की भी सीमा होती है। कदाधचत ् वह माधवी के आनन्द की
सीमा थी, जब वह वादटका में झम
ू -झम
ू कर फूिों से आचि भर रही थी। क्जसने कभी सख
ु का स्वाद ही न
चखा हो, उसके लिए इतना ही आनन्द बहुत है । वह बेचारी इससे अधधक आनन्द का भार नहीीं सभाि
सकती। क्जन अधरों पर कभी हसी आती ही नहीीं, उनकी मस्
ु कान ही हसी है । तम
ु ऐसों से अधधक हसी की
आशा क्यों करते हो? माधवी बािाजी की ओर परन्तु इस प्रकार इस प्रकार नहीीं जैसे एक नवेिी बहू आशाओीं
से भरी हुई श्रींग
ृ ार ककये अपने पनत के पास जाती है । वही घर था क्जसे वह अपने दे वता का मक्न्दर समझती
थी। जब वह मक्न्दर शन्
ू य था, तब वह आ-आकर आसओ
ु ीं के पष्ु प चढ़ाती थी। आज जब दे वता ने वास
ककया है, तो वह क्यों इस प्रकार मचि-मचि कर आ रही है ?
राबत्र भिी-भानत आद्रम हो चक
ु ी थी। सडक पर घींटों के शब्द सन
ु ायी दे रहे थे। माधवी दबे पाव बािाजी
के कमरे के द्वार तक गयी। उसका हृदय धडक रहा था। भीतर जाने का साहस न हुआ, मानो ककसी ने पैर
पकड लिए। उल्टे पाव कफर आयी और पथ्ृ वी पर बैठकर रोने िगी। उसके धचत्त ने कहा- माधवी! यह बडी
िजजा की बात है । बािाजी की चेरी सही, माना कक तझ
ु े उनसे प्रेम है ; ककन्तु तू उसकी स्त्री नहीीं है । तझ
ु े
इस समय उनक गह
ृ में रहना उधचत नहीीं है । तेरा प्रेम तुझे उनकी पत्नी नहीीं बना सकता। प्रेम और वस्तु है
और सोहाग और वस्तु है । प्रेम धचत की प्रववृ त्त है और ब्याह एक पववत्र धमम है । तब माधवी को एक वववाह
का स्मरण हो आया। वर ने भरी सभा मे पत्नी की बाह पकडी थी और कहा था कक इस स्त्री को मैं अपने
गह
ृ की स्वालमनी और अपने मन की दे वी समझता रहूगा। इस सभा के िोग, आकाश, अक्ग्न और दे वता
इसके साक्षी रहे । हा! ये कैसे शभ
ु शब्द है । मझ
ु े कभी ऐसे शब्द सन
ु ने का मौका प्राप्त न हुआ! मैं न अक्ग्न
को अपना साक्षी बना सकती हू, न दे वताओीं को और न आकाश ही को; परन्तु है अक्ग्न! है आकाश के तारो!
और हे दे विोक-वालसयों! तम
ु साक्षी रहना कक माधवी ने बािाजी की पववत्र मनू तम को हृदय में स्थान ददया,
ककन्तु ककसी ननकृष्ट ववचार को हृदय में न आने ददया। यदद मैंने घर के भीतर पैर रखा हो तो है अक्ग्न!
तम
ु मझ
ु े अभी जिाकर भस्म कर दो। हे आकाश! यदद तम
ु ने अपने अनेक नेत्रों से मझ
ु े गह
ृ में जाते दे खा,
तो इसी क्षण मेरे ऊपर इन्द्र का वज्र धगरा दो।
माधवी कुछ काि तक इसी ववचार मे मग्न बैठी रही। अचानक उसके कान में भक-भक की ध्वनन
आयीय। उसने चौंककर दे खा तो बािाजी का कमरा अधधक प्रकालशत हो गया था और प्रकाश खखडककयों से
बाहर ननकिकर आगन में फैि रहा था। माधवी के पाव तिे से लमट्टी ननकि गयी। ध्यान आया कक मेज
पर िैम्प भभक उठा। वायु की भानत वह बािाजी के कमरे में घस
ु ी। दे खा तो िैम्प फटक पथ्
ृ वी पर धगर
पडा है और भत
ू ि के बबछावन में तेि फैि जाने के कारण आग िग गयी है । दस
ू रे ककनारे पर बािाजी सख

से सो रहे थे। अभी तक उनकी ननद्रा न खि
ु ी थी। उन्होंने कािीन समेटकर एक कोने में रख ददया था।
ववद्यत
ु की भानत िपककर माधवी ने वह कािीन उठा लिया और भभकती हुई जवािा के ऊपर धगरा ददया।
धमाके का शब्द हुआ तो बािाजी ने चौंककर आखें खोिी। घर मे धआ
ु भरा था और चतदु दम क तेि की
दग
ु न्
म ध फैिी हुई थी। इसका कारण वह समझ गये। बोिे- कुशि हुआ, नहीीं तो कमरे में आग िग गयी थी।
माधवी- जी हा! यह िैम्प धगर पडा था।
बािाजी- तुम बडे अवसर से आ पहुची।
माध्वी- मैं यहीीं बाहर बैठी हुई थी।
बािाजी –तुमको बडा कष्ट हुआ। अब जाकर शयन करो। रात बहुत हा गयी है।
माधवी– चिी जाऊगी। शयन तो ननत्य ही करना है । यअ अवसर न जाने कफर कब आये?
माधवी की बातों से अपव
ू म करुणा भरी थी। बािाजी ने उसकी ओर ध्यान-पव
ू क
म दे खा। जब उन्होंने
पदहिे माधवी को दे खा था,उसक समय वह एक खखिती हुई किी थी और आज वह एक मरु झाया हुआ पष्ु प
है । न मख
ु पर सौन्दयम था, न नेत्रों में आनन्द की झिक, न माग में सोहाग का सींचार था, न माथे पर लसींदरू

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का टीका। शरीर में आभष
ू ाणों का धचन्ह भी न था। बािाजी ने अनम
ु ान से जाना कक ववधाता से जान कक
ववधाता ने ठीक तरुणावस्था में इस दखु खया का सोहाग हरण ककया है। परम उदास होकर बोिे-क्यों माधवी!
तम्
ु हारा तो वववाह हो गया है न?
माधवी के किेज मे कटारी चभ
ु गयी। सजि नेत्र होकर बोिी- हा, हो गया है।
बािाजी- और तुम्हार पनत?
माधवी- उन्हें मेरी कुछ सध
ु ही नहीीं। उनका वववाह मझु से नहीीं हुआ।
बािाजी ववक्स्मत होकर बोिे- तुम्हारा पनत करता क्या है?
माधवी- दे श की सेवा।
बािाजी की आखों के सामने से एक पदाम सा हट गया। वे माधवी का मनोरथ जान गये और बोिे-
माधवी इस वववाह को ककतने ददन हुए?
बािाजी के नेत्र सजि हो गये और मख
ु पर जातीयता के मद का उन्माद– सा छा गया। भारत माता!
आज इस पनततावस्था में भी तुम्हारे अींक में ऐसी-ऐसी दे ववया खेि रही हैं, जो एक भावना पर अपने यौवन
और जीवन की आशाऍ ीं समपमण कर सकती है । बोिे- ऐसे पनत को तुम त्याग क्यों नहीीं दे ती?
माधवी ने बािाजी की ओर अलभमान से दे खा और कहा- स्वामी जी! आप अपने मख
ु से ऐसे कहें ! मैं
आयम-बािा हू। मैंने गान्धारी और साववत्री के कुि में जन्म लिया है । क्जसे एक बार मन में अपना पनत मान
ााचक
ु ी उसे नहीीं त्याग सकती। यदद मेरी आयु इसी प्रकार रोते-रोते कट जाय, तो भी अपने पनत की ओर से
मझु े कुछ भी खेद न होगा। जब तक मेरे शरीर मे प्राण रहे गा मैं ईश्वर से उनक दहत चाहती रहूगी। मेरे
लिए यही क्या कमक है , जो ऐसे महात्मा के प्रेम ने मेरे हृदय में ननवास ककया है? मैं इसी का अपना
सौभाग्य समझती हू। मैंने एक बार अपने स्वामी को दरू से दे खा था। वह धचत्र एक क्षण के लिए भी आखों
से नही उतरा। जब कभी मैं बीमार हुई हू, तो उसी धचत्र ने मेरी शश्र ु ष
ु ा की है । जब कभी मैंने ववयोाेग के
आसू बहाये हैं, तो उसी धचत्र ने मझ
ु े सान्त्वना दी है । उस धचत्र वािे पनत को मै। कैसे त्याग द?ू मैं उसकी
हू और सदै व उसी का रहूगी। मेरा हृदय और मेरे प्राण सब उनकी भें ट हो चक ु े हैं। यदद वे कहें तो आज मैं
अक्ग्न के अींक मींाे ऐसे हषमपव
ू क
म जा बैठू जैसे फूिों की शैय्या पर। यदद मेरे प्राण उनके ककसी काम आयें तो
मैं उसे ऐसी प्रसन्नता से दे द ू जैसे कोई उपसाक अपने इष्टदे व को फूि चढ़ाता हो।
माधवी का मख
ु मण्डि प्रेम-जयोनत से अरुणा हो रहा था। बािाजी ने सब कुछ सन
ु ा और चप
ु हो गये।
सोचने िगे- यह स्त्री है ; क्जसने केवि मेरे ध्यान पर अपना जीवन समपमण कर ददया है । इस ववचार से
बािाजी के नेत्र अश्रप
ु ण
ू म हो गये। क्जस प्रेम ने एक स्त्री का जीवन जिाकर भस्म कर ददया हो उसके लिए
एक मनष्ु य के घैयम को जिा डािना कोई बात नहीीं! प्रेम के सामने धैयम कोई वस्तु नहीीं है। वह बोिे- माधवी
तुम जैसी दे ववया भारत की गौरव है । मैं बडा भाग्यवान हू कक तुम्हारे प्रेम-जैसी अनमोि वस्तु इस प्रकार
मेरे हाथ आ रही है । यदद तुमने मेरे लिए योधगनी बनना स्वीकार ककया है तो मैं भी तुम्हारे लिए इस
सन्यास और वैराग्य का त्याग कर सकता हू। क्जसके लिए तुमने अपने को लमटा ददया है।, वह तुम्हारे लिए
बडा-से-बडा बलिदान करने से भी नहीीं दहचककचायेगा।
माधवी इसके लिए पहिे ही से प्रस्तुत थी, तुरन्त बोिी- स्वामीजी! मैं परम अबिा और बद्
ु ववहीन
सत्री हू। परन्तु मैं आपको ववश्वास ददिाती हू कक ननज वविास का ध्यान आज तक एक पि के लिए भी
मेरे मन मे नही आया। यदद आपने यह ववचार ककया कक मेर प्रेम का उद्दे श्य केवि यह क आपके चरणों
में साींसाररक बन्धनों की बेडडया डाि द,ू तो (हाथ जोडकर) आपने इसका तत्व नहीीं समझा। मेरे प्रेम का
उद्दे श्य वही था, जो आज मझ
ु े प्राप्त हो गया। आज का ददन मेरे जीवन का सबसे शभ
ु ददन है । आज में
अपने प्राणनाथ के सम्मख
ु खडी हू और अपने कानों से उनकी अमत ृ मयी वाणी सनु रही हू। स्वामीजी! मझ
ु े
आशा न थी कक इस जीवन में मझ ु े यह ददन दे खने का सौभाग्य होगा। यदद मेरे पास सींसार का राजय होता
तो मैं इसी आनन्द से उसे आपके चरणों में समपमण कर दे ती। मैं हाथ जोडकर आपसे प्राथमना करती हू कक
मझ
ु े अब इन चरणों से अिग न कीक्जयेगा। मै। सन्यस िे िगी ू और आपके सींग रहूगी। वैराधगनी बनगी,

भभनू त रमाऊगी; परन्त ् आपका सींग न छोडूगी। प्राणनाथ! मैंने बहुत द:ु ख सहे हैं, अब यह जिन नहीीं सकी
जाती।
यह कहते-कहते माधवी का कींठ रुध गया और आखों से प्रेम की धारा बहने िगी। उससे वहा न बैठा
गया। उठकर प्रणाम ककया और ववरजन के पास आकर बैठ गयी। वज
ृ रानी ने उसे गिे िगा लिया और
पछ
ू ा– क्या बातचीत हुई?

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माधवी- जो तम
ु चहाती थीीं।
वज
ृ रानी- सच, क्या बोिे?
माधवी- यह न बताऊगी।
वज
ृ रानी को मानो पडा हुआ धन लमि गया। बोिी- ईश्वर ने बहुत ददनों में मेरा मनारे थ परू ा ककया।
मे अपने यहा से वववाह करुगी।
माधवी नैराश्य भाव से मस्
ु करायी। ववरजन ने कक्म्पत स्वर से कहा- हमको भि
ू तो न जायेगी?
उसकी आखों से आसू बहने िगे। कफर वह स्वर सभािकर बोिी- हमसे तू बबछुड जायेगी।
माधवी- मैं तुम्हें छोडकर कहीीं न जाऊगी।
ववरजन- चि; बातें ने बना।
माधवी- दे ख िेना।
ववरजन- दे खा है । जोडा कैसा पहनेगी?
माधवी- उजजवि, जैसे बगुिे का पर।
ववरजन- सोहाग का जोडा केसररया रीं ग का होता है ।
माधवी- मेरा श्वेत रहे गा।
ववरजन- तुझे चन्द्रहार बहुत भाता था। मैं अपना दे दगी।

माधवी-हार के स्थान पर कींठी दे दे ना।
ववरजन- कैसी बातें कर रही हैं?
माधवी- अपने श्रींग
ृ ार की!
ववरजन- तेरी बातें समझ में नहीीं आती। तू इस समय इतनी उदास क्यों है? तन
ू े इस रत्न के लिए
कैसी-कैसी तपस्याए की, कैसा-कैसा योग साधा, कैसे-कैसे व्रत ककये और तुझे जब वह रत्न लमि गया तो
हवषमत नहीीं दे ख पडती!
माधवी- तुम वववाह की बातीचीत करती हो इससे मझ
ु े द:ु ख होता है ।
ववरजन- यह तो प्रसन्न होने की बात है ।
माधवी- बदहन! मेरे भाग्य में प्रसन्नता लिखी ही नहीीं! जो पक्षी बादिों में घोंसिा बनाना चाहता है
वह सवमदा डालियों पर रहता है । मैंने ननणमय कर लिया है कक जीवन की यह शेष समय इसी प्रकार प्रेम का
सपना दे खने में काट दगी।

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विदाई

दस
ू रे ददन बािाजी स्थान-स्थान से ननवत
ृ होकर राजा धममलसींह की प्रतीक्षा करने िगे। आज राजघाट
पर एक ववशाि गोशािा का लशिारोपण होने वािा था, नगर की हाट-बाट और वीधथया मस् ु काराती हुई जान
पडती थी। सडृक के दोनों पाश्वम में झण्डे और झखणया िहरा रही थीीं। गह
ृ द्वार फूिों की मािा पदहने स्वागत
के लिए तैयार थे, क्योंककआज उस स्वदे श-प्रेमी का शभ
ु गमन है, क्जसने अपना सवमस्व दे श के दहत बलिदान
कर ददया है।
हषम की दे वी अपनी सखी-सहे लियों के सींग टहि रही थी। वायु झम
ू ती थी। द:ु ख और ववषाद का कहीीं
नाम न था। ठौर-ठौर पर बधाइया बज रही थीीं। परु
ु ष सह
ु ावने वस्त्र पहने इठािते थे। स्त्रीया सोिह श्रींग
ृ ार
ककये मींगि-गीत गाती थी। बािक-मण्डिी केसररया साफा धारण ककये किोिें करती थीीं हर परु
ु ष-स्त्री के
मख
ु से प्रसन्नता झिक रही थी, क्योंकक आज एक सच्चे जानत-दहतैषी का शभ
ु गमन है क्जसेने अपना सवमस्व
जानत के दहत में भें ट कर ददया है ।
बािाजी अब अपने सह
ु दों के सींग राजघाट की ओर चिे तो सय
ू म भगवान ने पव
ू म ददशा से ननकिकर
उनका स्वागत ककया। उनका तेजस्वी मख
ु मण्डि जयों ही िोगों ने दे खा सहस्रो मख
ु ों से ‘भारत माता की
जय’ का घोर शब्द सन ु ायी ददया और वायम
ु ींडि को चीरता हुआ आकाश-लशखर तक जा पहुींवा। घण्टों और
शींखों की ध्वनन नननाददत हुई और उत्सव का सरस राग वायु में गजने
ू िगा। क्जस प्रकार दीपक को दे खते
ही पतींग उसे घेर िेते हैं उसी प्रकार बािाजी को दे खकर िोग बडी शीघ्रता से उनके चतदु दमक एकत्र हो गये।
भारत-सभा के सवा सौ सभ्यों ने आलभवादन ककया। उनकी सन्
ु दर वाददम या और मनचिे घोडों नेत्रों में खूब
जाते थे। इस सभा का एक-एक सभ्य जानत का सच्चा दहतैषी था और उसके उमींग-भरे शब्द िोगों के धचत्त
को उत्साह से पण
ू म कर दे ते थें सडक के दोनों ओर दशमकों की श्रेणी थी। बधाइया बज रही थीीं। पष्ु प और
मेवों की वक्ृ ष्ट हो रही थी। ठौर-ठौर नगर की ििनाए श्रींग
ृ ार ककये, स्वणम के थाि में कपरू , फूि और चन्दन
लिये आरती करती जाती थीीं। और दक
ू ाने नवागता वधू की भानत सस
ु क्जजत थीीं। सारा नगेर अपनी सजावट
से वादटका को िक्जजत करता था और क्जस प्रकार श्रावण मास में कािी घटाएीं उठती हैं और रह-रहकर वन
की गरज हृदय को कपा दे ती है और उसी प्रकार जनता की उमींगवद्मवक ध्वनन (भारत माता की जय) हृदय
में उत्साह और उत्तेजना उत्पन्न करती थी। जब बािाजी चौक में पहुचे तो उन्होंने एक अद्भत ु दृश्य दे खा।
बािक-वन्ृ द ऊदे रीं ग के िेसदार कोट पदहने, केसररया पगडी बाधे हाथों में सन्
ु दर छडडया लिये मागम पर खडे
थे। बािाजी को दे खते ही वे दस-दस की श्रेखणयों में हो गये एवीं अपने डण्डे बजाकर यह ओजस्वी गीत गाने
िगे:-
बािाजी तेरा आना मब
ु ारक होवे।
धनन-धनन भाग्य हैं इस नगरी के ; धनन-धनन भाग्य हमारे ।।
धनन-धनन इस नगरी के बासी जहा तब चरण पधारे ।
बािाजी तेरा आना मब
ु ारक होवे।।
कैसा धचत्ताकषमक दृश्य था। गीत यद्यवप साधारण था, परन्तु अनके और सधे हुए स्वरों ने लमिकर उसे
ऐसा मनोहर और प्रभावशािी बना ददया कक पाींव रुक गये। चतदु दमक सन्नाटा छा गया। सन्नाटे में यह राग
ऐसा सह
ु ावना प्रतीत होता था जैसे राबत्र के सन्नाटे में बि
ु बि
ु का चहकना। सारे दशमक धचत्त की भानत खडे
थे। दीन भारतवालसयों, तुमने ऐसे दृश्य कहा दे खे? इस समय जी भरकर दे ख िो। तुम वेश्याओीं के नत्ृ य-
वाद्य से सन्तुष्ट हो गये। वाराींगनाओीं की काम-िीिाए बहुत दे ख चकु े , खूब सैर सपाटे ककये ; परन्तु यह
सच्चा आनन्द और यह सख ु द उत्साह, जो इस समय तुम अनभ ु व कर रहे हो तुम्हें कभी और भी प्राप्त हुआ
था? मनमोहनी वेश्याओीं के सींगीत और सन् ु दररयों का काम-कौतुक तम्
ु हारी वैषनयक इच्छाओीं को उत्तेक्जत
करते है । ककन्तु तुम्हारे उत्साहों को और ननबमि बना दे ते हैं और ऐसे दृश्य तुम्हारे हृदयो में जातीयता और
जानत-अलभमान का सींचार करते हैं। यदद तम
ु ने अपने जीवन मे एक बार भी यह दृश्य दे खा है , तो उसका
पववत्र धचहन तम्
ु हारे हृदय से कभी नहीीं लमटे गा।
बािाजी का ददव्य मख
ु मींडि आक्त्मक आनन्द की जयोनत से प्रकालशत था और नेत्रों से जात्यालभमान
की ककरणें ननकि रही थीीं। क्जस प्रकार कृषक अपने िहिहाते हुए खेत को दे खकर आनन्दोन्मत्त हो जाता है ,
वही दशा इस समय बािाजी की थी। जब रागे बन्द हो गेया, तो उन्होंने कई डग आगे बढ़कर दो छोटे -छोटे
बच्चों को उठा कर अपने कींधों पर बैठा लिया और बोिे, ‘भारत-माता की जय!’
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इस प्रकार शनै: शनै िोग राजघाट पर एकत्र हुए। यहा गोशािा का एक गगनस्पशी ववशाि भवन
स्वागत के लिये खडा था। आगन में मखमि का बबछावन बबछा हुआ था। गह ृ द्वार और स्तींभ फूि-पवत्तयों
से ससु क्जजत खडे थे। भवन के भीतर एक सहस गायें बींधी हुई थीीं। बािाजी ने अपने हाथों से उनकी न दों ॉँ
में खिी-भस ू ा डािा। उन्हें प्यार से थपककय ॉँ दी। एक ववस्तत ृ गह ृ मे सींगमर का अष्टभज
ु कुण्ड बना हुआ
था। वह दध ू से पररवण ू म था। बािाजी ने एक चल् ु िू दध
ू िेकर नेत्रों से िगाया और पान ककया।
अभी आगन में िोग शाक्न्त से बैठने भी न पाये थे कई मनष्ु य दौडे हुए आये और बोि-पक्ण्डत बदिू
शास्त्री, सेठ उत्तमचन्द्र और िािा माखनिाि बाहर खडे कोिाहि मचा रहे हैं और कहते है । कक हमा को
बािाजी से दो-दो बाते कर िेने दो। बदिू शास्त्री काशी के ववख्यात पींक्ण्डत थे। सन्
ु दर चन्द्र-नतिक िगाते,
हरी बनात का अींगरखा पररधान करते औश्र बसन्ती पगडी बाधत थे। उत्तमचन्द्र और माखनिाि दोनों नगर
के धनी और िक्षाधीश मनष्ु ये थे। उपाधध के लिए सहस्रों व्यय करते और मख्
ु य पदाधधकाररयों का सम्मान
और सत्कार करना अपना प्रधान कत्तमव्य जानते थे। इन महापरु
ु षों का नगर के मनष्ु यों पर बडा दबवा था।
बदिू शास्त्री जब कभी शास्त्रीथम करते, तो नन:सींदेह प्रनतवादी की पराजय होती। ववशेषकर काशी के पण्डे और
प्राग्वाि तथा इसी पन्थ के अन्य धालमक्ग्झम तो उनके पसीने की जगह रुधधर बहाने का उद्यत रहते थे।
शास्त्री जी काशी मे दहन्द ू धमम के रक्षक और महान ् स्तम्भ प्रलसद्व थे। उत्मचन्द्र और माखनिाि भी
धालममक उत्साह की मनू तम थे। ये िोग बहुत ददनों से बािाजी से शास्त्राथम करने का अवसर ढूींढ रहे थे। आज
उनका मनोरथ परू ा हुआ। पींडों और प्राग्वािों का एक दि लिये आ पहुचे।
बािाजी ने इन महात्मा के आने का समाचार सन
ु ा तो बाहर ननकि आये। परन्तु यहा की दशा ववधचत्र
पायी। उभय पक्ष के िोग िादठया सभािे अगरखे की बाहें चढाये गथ
ु ने का उद्यत थे। शास्त्रीजी प्राग्वािों
ू ों की धक्जजय ॉँ उडा दो
को लभडने के लिये ििकार रहे थे और सेठजी उच्च स्वर से कह रहे थे कक इन शद्र
ॉँ
अलभयोग चिेगा तो दे खा जाएगा। तुम्हार बाि-ब का न होने पायेगा। माखनिाि साहब गिा फाड-फाडकर
धचल्िाते थे कक ननकि आये क्जसे कुछ अलभमान हो। प्रत्येक को सब्जबाग ददखा दगा।
ू बािाजी ने जब यह
रीं ग दे खा तो राजा धममलसींह से बोिे-आप बदिू शास्त्री को जाकर समझा दीक्जये कक वह इस दष्ु टता को
त्याग दें , अन्यथा दोनों पक्षवािों की हानन होगी और जगत में उपहास होगा सो अिग।
राजा साहब के नेत्रों से अक्ग्न बरस रही थी। बोिे- इस परु
ु ष से बातें करने में अपनी अप्रनतष्ठा
समझता हू। उसे प्राग्वािों के समह
ू ों का अलभमान है परन्तु मै। आज उसका सारा मद चण
ू म कर दे ता हू।
उनका अलभप्राय इसके अनतररक्त और कुछ नहीीं है कक वे आपके ऊपर वार करें । पर जब तक मै। और मरे
ॉँ पत्र
पच ु जीववत हैं तब तक कोई आपकी ओर कुदृक्ष्ट से नहीीं दे ख सकता। आपके एक सींकेत-मात्र की दे र
है । मैं पिक मारते उन्हें इस दष्ु टता का सवाद चखा दीं ग
ू ा।
बािाजी जान गये कक यह वीर उमींग में आ गया है। राजपत
ू जब उमींग में आता है तो उसे मरने-
मारने क अनतररक्त और कुछ नहीीं सझ
ू ता। बोिे-राजा साहब, आप दरू दशी होकर ऐसे वचन कहते है? यह
अवसर ऐसे वचनों का नहीीं है । आगे बढ़कर अपने आदलमयों को रोककये, नहीीं तो पररणाम बरु ा होगा।
बािािजी यह कहते-कहते अचानक रुक गये। समद्र
ु की तरीं गों का भानत िोग इधर-उधर से उमडते
चिे आते थे। हाथों में िादठया थी और नेत्रों में रुधधर की िािी, मख
ु मींडि क्रुद्व, भक
ृ ु टी कुदटि। दे खते-दे खते
यह जन-समद ु ाय प्राग्वािों के लसर पर पहुच गया। समय सक्न्नकट था कक िादठया लसर को चम
ु े कक बािाजी
ववद्यत
ु की भानत िपककर एक घोडे पर सवार हो गये और अनत उच्च स्वर में बोिे:
‘भाइयो ! क्या अींधेर है ? यदद मझ
ु े आपना लमत्र समझते हो तो झटपट हाथ नीचे कर िो और पैरों को
एक इींच भी आगे न बढ़ने दो। मझ
ु े अलभमान है कक तुम्हारे हृदयों में वीरोधचत क्रोध और उमींग तरीं धगत हो
रहे है। क्रोध एक पववत्र उद्वोग और पववत्र उत्साह है। परन्तु आत्म-सींवरण उससे भी अधधक पववत्र धमम है ।
इस समय अपने क्रोध को दृढ़ता से रोको। क्या तुम अपनी जानत के साथ कुि का कत्तमव्य पािन कर चक
ु े
कक इस प्रकार प्राण ववसजमन करने पर कदटबद्व हो क्या तुम दीपक िेकर भी कूप में धगरना चाहते हो? ये
उिोग तम्हारे स्वदे श बान्धव और तुम्हारे ही रुधधर हैं। उन्हें अपना शत्रु मत समझो। यदद वे मख
ू म हैं तो
उनकी मख
ू त
म ा का ननवारण करना तुम्हारा कतमव्य हैं। यदद वे तुम्हें अपशब्द कहें तो तुम बरु ा मत मानों।
यदद ये तम
ु से यद्
ु व करने को प्रस्तत
ु हो तम
ु नम्रता से स्वीकार कर तो और एक चतरु वैद्य की भाींनत
अपने ववचारहीन रोधगयों की औषधध करने में तल्िीन हो जाओ। मेरी इस आशा के प्रनतकूि यदद तम
ु में से
ककसी ने हाथ उठाया तो वह जानत का शत्रु होगा।

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इन समधु चत शब्दों से चतदु दमक शाींनत छा गयी। जो जहाीं था वह वहीीं धचत्र लिखखत सा हो गया। इस
मनष्ु य के शब्दों में कहाीं का प्रभाव भरा था,क्जसने पचास सहस्र मनष्ु यों के उमडते हुए उद्वेग को इस प्रकार
शीति कर ददया ,क्जस प्रकार कोई चतरु सारथी दष्ु ट घोडों को रोक िेता हैं, और यह शक्क्त उसे ककसने की
दी थी ? न उसके लसर पर राजमक
ु ु ट था, न वह ककसी सेना का नायक था। यह केवि उस पववत्र ् और
नन:स्वाथम जानत सेवा का प्रताप था, जो उसने की थी। स्वजनत सेवक के मान और प्रनतष्ठा का कारण वे
बलिदान होते हैं जो वह अपनी जनत के लिए करता है । पण्डों और प्राग्वािों नेबािाजी का प्रतापवान रुप
दे खा और स्वर सन
ु ा, तो उनका क्रोध शान्त हो गया। क्जस प्रकार सय
ू म के ननकिने से कुहरा आ जाता है
उसी प्रकार बािाजी के आने से ववरोधधयों की सेना नततर बबतर हो गयी। बहुत से मनष्ु य – जो उपद्रव के
उदे श्य से आये थे – श्रद्वापव
ू क
म बािाजी के चरणों में मस्तक झक
ु ा उनके अनय
ु ानययों के वगम में सक्म्ित हो
गये। बदिू शास्त्री ने बहुत चाहा कक वह पण्डों के पक्षपात और मख
ू रम ता को उतेक्जत करें ,ककन्तु सफिता न
हुई।
उस समय बािाजी ने एक परम प्रभावशािी वक्तत
ृ ा दी क्जसका एक –एक शब्द आज तक सन
ु नेवािों
के हृदय पर अींककत हैं और जो भारत –वालसयों के लिए सदा दीप का काम करे गी। बािाजी की वक्तत
ृ ाएीं
प्राय: सारगलभमत हैं। परन्तु वह प्रनतभा, वह ओज क्जससे यह वक्तत
ृ ा अिींकृत है, उनके ककसी व्याख्यान में
दीख नहीीं पडते। उन्होनें अपने वाकयों के जाद ू से थोडी ही दे र में पण्डो को अहीरों और पालसयों से गिे
लमिा ददया। उस वकतत
ृ ा के अींनतम शब्द थे:
यदद आप दृढता से कायम करते जाएींगे तो अवश्य एक ददन आपको अभीष्ट लसद्वव का स्वणम स्तम्भ
ददखायी दे गा। परन्तु धैयम को कभी हाथ से न जाने दे ना। दृढता बडी प्रबि शक्क्त हैं। दृढता परु
ु ष के सब
गण
ु ों का राजा हैं। दृढता वीरता का एक प्रधान अींग हैं। इसे कदावप हाथ से न जाने दे ना। तम्
ु हारी परीक्षाएीं
होंगी। ऐसी दशा में दृढता के अनतररक्त कोई ववश्वासपात्र पथ-प्रदशमक नहीीं लमिेगा। दृढता यदद सफि न
भी हो सके, तो सींसार में अपना नाम छोड जाती है’।
बािाजी ने घर पहुचींकर समाचार-पत्र खोिा, मख
ु पीिा हो गया, और सकरुण हृदय से एक ठण्डी साींस
ननकि आयी। धममलसींह ने घबराकर पछ
ू ा– कुशि तो है ?
बािाजी–सददया में नदी का बाींध फट गया बस साहस मनष्ु य गह
ृ हीन हो गये।
धममलसींह- ओ हो।
बािाजी– सहस्रों मनष्ु य प्रवाह की भें ट हो गये। सारा नगर नष्ट हो गया। घरों की छतों पर नावें चि
रही हैं। भारत सभा के िोग पहुच गयें हैं और यथा शक्क्त िोगों की रक्षा कर रहें है , ककन्तु उनकी सींख्या
बहुत कम हैं।
धममलसींह(सजिनयन होकर) हे इश्वर। तू ही इन अनाथों को नाथ हैं। गयीीं। तीन घण्टे तक ननरन्तर
मस
ू िाधार पानी बरसता रहा। सोिह इींच पानी धगरा। नगर के उतरीय ववभाग में सारा नगर एकत्र हैं। न
रहने कों गह
ृ है, न खाने को अन्न। शव की रालशयाीं िगी हुई हैं बहुत से िोग भख
ू े मर जाते है । िोगों के
वविाप और करुणाक्रन्दन से किेजा मींह
ु को आता हैं। सब उत्पात–पीडडत मनष्ु य बािाजी को बिु ाने की रट
िगा रह हैं। उनका ववचार यह है कक मेरे पहुींचने से उनके द:ु ख दरू हो जायींगे।
कुछ काि तक बािाजी ध्यान में मग्न रहें , तत्पश्चात बोिे–मेरा जाना आवश्यक है । मैं तरु ीं त जाऊींगा।
आप सददयों की , ‘भारत सभा’ की तार दे दीक्जये कक वह इस कायम में मेरी सहायता करने को उद्यत ् रहें ।
राजा साहब ने सववनय ननवेदन ककया – आज्ञा हो तो मैं चिींू ?
बािाजी – मैं पहुींचकर आपको सचू ना दगा।
ू मेरे ववचार में आपके जाने की कोई आवश्यकता न होगी।
धममलसींह -उतम होता कक आप प्रात:काि ही जाते।
ु े यह ॉँ एक क्षण भी ठहरना कदठन जान पडता है । अभी मझ
बािाजी – नहीीं। मझ ु े वहाीं तक पहुचींने में
कई ददन िगें गें।
पि – भर में नगर में ये समाचार फैि गये कक सददयों में बाढ आ गयी और बािाजी इस समय वहाीं
आ रहें हैं। यह सनु ते ही सहस्रों मनष्ु य बािाजी को पहुींचाने के लिए ननकि पडे। नौ बजते–बजते द्वार पर
पचीस सहस्र मनष्ु यों क समदु ाय एकत्र ् हो गया। सददया की दघ ु ट
म ना प्रत्येक मनष्ु य के मख
ु पर थी िोग उन
आपनत–पीडडत मनष्ु यों की दशा पर सहानभ
ु नू त और धचन्ता प्रकालशत कर रहे थे। सैकडों मनष्ु य बािाजी के
सींग जाने को कदटबद्व हुए। सददयावािों की सहायता के लिए एक फण्ड खोिने का परामशम होने िगा।

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उधर धममलसींह के अन्त: परु में नगर की मख्
ु य प्रनतक्ष्ठत क्स्त्रयों ने आज सव
ु ामा को धन्यावाद दे ने के
लिए एक सभा एकत्र की थी। उस उच्च प्रसाद का एक-एक कौना क्स्त्रयों से भरा हुआ था। प्रथम वज ृ रानी
ने कई क्स्त्रयों के साथ एक मींगिमय सह
ु ावना गीत गाया। उसके पीछे सब क्स्त्रयाीं मण्डि बाींध कर गाते
– बजाते आरती का थाि लिये सद
ु ामा के गह
ृ पर आयीीं। सेवती और चन्दा अनतधथ-सत्कार करने के लिए
पहिे ही से प्रस्तुत थी सव
ु ामा प्रत्येक मदहिा से गिे लमिी और उन्हें आशीवादम ददया कक तुम्हारे अींक में भी
ऐसे ही सप
ु त
ू बच्चे खेिें। कफर रानीजी ने उसकी आरती की और गाना होने िगा। आज माधवी का
मख
ु मींडि पष्ु प की भाींनत खखिा हुआ था। मात्र वह उदास और धचींनतत न थी। आशाएीं ववष की गाींठ हैं। उन्हीीं
आशाओीं ने उसे कि रुिाया था। ककन्तु आज उसका धचत्र उन आशाओीं से ररक्त हो गया हैं। इसलिए
मख
ु मण्डि ददव्य और नेत्र ववकलसत है । ननराशा रहकर उस दे वी ने सारी आयु काट दी, परन्तु आशापण
ू म रह
कर उससे एक ददन का द:ु ख भी न सहा गया।
सह
ु ावने रागों के आिाप से भवन गींजू रहा था कक अचानक सददया का समाचार वहाीं भी पहुींचा और
राजा धममलसहीं यह कहते यह सनु ायी ददये – आप िोग बािाजी को ववदा करने के लिए तैयार हो जायें वे
अभी सददया जाते हैं।
यह सन
ु ते ही अधमराबत्र का सन्नाटा छा गया। सव
ु ामा घबडाकर उठी और द्वार की ओर िपकी, मानों
वह बािाजी को रोक िेगी। उसके सींग सब –की–सब क्स्त्रयाीं उठ खडी हुई और उसके पीछे –पीछे चिी।
वज
ृ रानी ने कहा –चची। क्या उन्हें बरबस ववदा करोगी ? अभी तो वे अपने कमरे में हैं।
‘मैं उन्हें न जाने दीं ग
ू ी। ववदा करना कैसा ?
वज
ृ रानी- मैं क्या सददया को िेकर चाटूींगी ? भाड में जाय। मैं भी तो कोई हूीं? मेरा भी तो उन पर कोई
अधधकार है ?
वज
ृ रानी –तुम्हें मेरी शपथ, इस समय ऐसी बातें न करना। सहस्रों मनष्ु य केवि उनके भरासे पर जी
रहें हैं। यह न जायेंगे तो प्रिय हो जायेगा।
माता की ममता ने मनष्ु यत्व और जानतत्व को दबा लिया था, परन्तु वज
ृ रानी ने समझा–बझ
ु ाकर उसे
रोक लिया। सव
ु ामा इस घटना को स्मरण करके सवमदा पछताया करती थी। उसे आश्चयम होता था कक मैं
आपसे बाहर क्यों हो गयी। रानी जी ने पछ
ू ा-ववरजन बािाजी को कौन जयमाि पदहनायेगा।
ववरजन –आप।
रानीजी – और तम
ु क्या करोगी ?
ववरजन –मैं उनके माथे पर नतिक िगाऊींगी।
रानीजी – माधवी कहाीं हैं ?
ववरजन (धीरे –से) उसे न छडों। बेचार, अपने घ्यान में मग्न हैं। सव
ु ामा को दे खा तो ननकट आकर
उसके चरण स्पशम ककयें। सव
ु ामा ने उन्हें उठाकर हृदय में िगाया। कुछ कहना चाहती थी, परन्तु ममता से
मख
ु न खोि सकी। रानी जी फूिों की जयमाि िेकर चिी कक उसके कण्ठ में डाि दीं ,ू ककन्तु चरण थरामये
और आगे न बढ सकीीं। वज
ृ रानी चन्दन का थाि िेकर चिीीं, परन्तु नेत्र-श्रावण –धन की भनत बरसने िगें ।
तब माधव चिी। उसके नेत्रों में प्रेम की झिक थी और मींह
ु पर प्रेम की िािी। अधरों पर मदहनी मस्
ु कान
झिक रही थी और मन प्रेमोन्माद में मग्न था। उसने बािाजी की ओर ऐसी धचतवन से दे खा जो अपार प्रेम
से भरी हुई। तब लसर नीचा करके फूिों की जयमािा उसके गिे में डािी। ििाट पर चन्दन का नतिक
िगाया। िोक–सींस्कारकी न्यन
ू ता, वह भी परू ी हो गयी। उस समय बािाजी ने गम्भीर स स िी। उन्हें प्रतीत
हुआ कक मैं अपार प्रेम के समद्र
ु में वहाीं जा रहा हूीं। धैयम का िींगर उठ गया और उसे मनष्ु य की भाींनत जो
अकस्मात ् जि में कफसि पडा हो, उन्होंने माधवी की बाींह पकड िी। परन्तु हाीं :क्जस नतनके का उन्होंने
सहारा लिया वह स्वयीं प्रेम की धार में तीि गनत से बहा जा रहा था। उनका हाथ पकडते ही माधवी के
रोम-रोम में बबजिी दौड गयी। शरीर में स्वेद-बबन्द ु झिकने िगे और क्जस प्रकार वायु के झोंके से पष्ु पदि
पर पडे हुए ओस के जिकण पथ् ृ वी पर धगर जाते हैं, उसी प्रकार माधवी के नेत्रों से अश्रु के बबन्द ु बािाजी के
हाथ पर टपक पडे। प्रेम के मोती थें, जो उन मतवािी आींखों ने बािाजी को भें ट ककये। आज से ये ओींखें
कफर न रोयेंगी।
आकाश पर तारे नछटके हुए थे और उनकी आड में बैठी हुई क्स्त्रयाीं यह दृश्य दे ख रही थी आज
प्रात:काि बािाजी के स्वागत में यह गीत गाया था :
बािाजी तेरा आना मब
ु ारक होवे।

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और इस समय क्स्त्रयाीं अपने मन –भावे स्वरों से गा रहीीं हैं :
बािाजी तेरा आना मब
ु ारक होवे।
आना भी मब
ु ारक था और जाना भी मब
ु ारक हैं। आने के समय भी िोगों की आींखों से आींसींू ननकिे थें
और जाने के समय भी ननकि रहें हैं। कि वे नवागत के अनतधथ स्वागत के लिए आये थें। आज उसकी
ववदाई कर रहें हैं उनके रीं ग – रुप सब पव
ू व
म त है :परन्तु उनमें ककतना अन्तर हैं।

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मतिाली योगगनी

माधवी प्रथम ही से मरु झायी हुई किी थी। ननराशा ने उसे खाक मे लमिा ददया। बीस वषम की
तपक्स्वनी योधगनी हो गयी। उस बेचारी का भी कैसा जीवन था कक या तो मन में कोई अलभिाषा ही उत्पन्न
न हुई, या हुई दद
ु ै व ने उसे कुसलु मत न होने ददया। उसका प्रेम एक अपार समद्र
ु था। उसमें ऐसी बाढ आयी
कक जीवन की आशाएीं और अलभिाषाएीं सब नष्ट हो गयीीं। उसने योधगनी के से वस्त्र ् पदहन लियें। वह
साींसररक बन्धनों से मक्
ु त हो गयी। सींसार इन्ही इच्छाओीं और आशाओीं का दस
ू रा नाम हैं। क्जसने उन्हें
नैराश्य–नद में प्रवादहत कर ददया, उसे सींसार में समझना भ्रम हैं।
इस प्रकार के मद से मतवािी योधगनी को एक स्थन पर शाींनत न लमिती थी। पष्ु प की सग
ु धधीं की
भाींनत दे श-दे श भ्रमण करती और प्रेम के शब्द सन
ु ाती कफरती थी। उसके प्रीत वणम पर गेरुए रीं ग का वस्त्र
परम शोभा दे ता था। इस प्रेम की मनू तम को दे खकर िोगों के नेत्रों से अश्रु टपक पडते थे। जब अपनी
वीणा बजाकर कोई गीत गाने िगती तो वन
ु ने वािों के धचत अनरु ाग में पग जाते थें उसका एक–एक शब्द
प्रेम–रस डूबा होता था।
मतवािी योधगनी को बािाजी के नाम से प्रेम था। वह अपने पदों में प्राय: उन्हीीं की कीनतम सन
ु ाती थी।
क्जस ददन से उसने योधगनी का वेष घारण ककया और िोक–िाज को प्रेम के लिए पररत्याग कर ददया उसी
ददन से उसकी क्जह्वा पर माता सरस्वती बैठ गयी। उसके सरस पदों को सन
ु ने के लिए िोग सैकडों कोस
चिे जाते थे। क्जस प्रकार मरु िी की ध्वनन सन
ु कर गोवपींयाीं घरों से वयाकुि होकर ननकि पडती थीीं उसी
प्रकार इस योधगनी की तान सन
ु ते ही श्रोताजनों का नद उमड पडता था। उसके पद सन
ु ना आनन्द के प्यािे
पीना था।
इस योधगनी को ककसी ने हीं सते या रोते नहीीं दे खा। उसे न ककसी बात पर हषम था, न ककसी बात का
ववषाद्। क्जस मन में कामनाएीं न हों, वह क्यों हीं से और क्यों रोये ? उसका मख
ु –मण्डि आनन्द की मनू तम
था। उस पर दृक्ष्ट पडते ही दशमक के नेत्र पववत्र ् आनन्द से पररपण
ू म हो जाते थे।

त्रत्रया-चररत्र

से ठ िगनदास जी के जीवन की बधगया फिहीन थी। कोई ऐसा मानवीय, आध्याक्त्मक या धचककत्सात्मक
प्रयत्न न था जो उन्होंने न ककया हो। यों शादी में एक पत्नीव्रत के कायि थे मगर जरुरत और
ॉँ शाददय ॉँ कीीं, यह ॉँ तक कक उम्र के चािीस साि गज
आग्रह से वववश होकर एक-दो नहीीं प च ु ए गए और अधेरे
घर में उजािा न हुआ। बेचारे बहुत रीं जीदा रहते। यह धन-सींपवत्त, यह ठाट-बाट, यह वैभव और यह ऐश्वयम
क्या होंगे। मेरे बाद इनका क्या होगा, कौन इनको भोगेगा। यह ख्याि बहुत अफसोसनाक था। आखखर यह
सिाह हुई कक ककसी िडके को गोद िेना चादहए। मगर यह मसिा पाररवाररक झगडों के कारण के सािों
तक स्थधगत रहा। जब सेठ जी ने दे खा कक बीववयों में अब तक बदस्तरू कशमकश हो रही है तो उन्होंने
नैनतक साहस से काम लिया और होनहार अनाथ िडके को गोद िे लिया। उसका नाम रखा गया मगनदास।
ॉँ
उसकी उम्र प च-छ: साि से जयादा न थी। बिा का जहीन और तमीजदार। मगर औरतें सब कुछ कर
ू रे के बच्चे को अपना नहीीं समझ सकतीीं। यह ॉँ तो प च
सकती हैं, दस ॉँ औरतों का साझा था। अगर एक उसे
प्यार करती तो बाकी चार औरतों का फज्र था कक उससे नफरत करें । ह ,ॉँ सेठ जी उसके साथ बबिकुि अपने
िडके की सी मह
ु ब्बत करते थे। पढ़ाने को मास्टर रक्खें, सवारी के लिए घोडे। रईसी ख्याि के आदमी थे।
राग-रीं ग का सामान भी मह
ु ै या था। गाना सीखने का िडके ने शौक ककया तो उसका भी इींतजाम हो गया।
गरज जब मगनदास जवानी पर पहुचा तो रईसाना ददिचाक्स्पयों में उसे कमाि हालसि था। उसका गाना
सन
ु कर उस्ताद िोग कानों पर हाथ रखते। शहसवार ऐसा कक दौडते हुए घोडे पर सवार हो जाता। डीि-डौि,
शक्ि सरू त में उसका-सा अिबेिा जवान ददल्िी में कम होगा। शादी का मसिा पेश हुआ। नागपरु के
करोडपनत सेठ मक्खनिाि बहुत िहराये हुए थे। उनकी िडकी से शादी हो गई। धमू धाम का क्जक्र ककया
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जाए तो ककस्सा ववयोग की रात से भी िम्बा हो जाए। मक्खनिाि का उसी शादी में दीवािा ननकि गया।
इस वक्त मगनदास से जयादा ईष्याम के योग्य आदमी और कौन होगा? उसकी क्जन्दगी की बहार उमींगों पर
भी और मरु ादों के फूि अपनी शबनमी ताजगी में खखि-खखिकर हुस्न और ताजगी का समा ददखा रहे थे।
मगर तकदीर की दे वी कुछ और ही सामान कर रही थी। वह सैर-सपाटे के इरादे से जापान गया हुआ था कक
ददल्िी से खबर आई कक ईश्वर ने तुम्हें एक भाई ददया है। मझ
ु े इतनी खुशी है कक जयादा असे तक क्जन्दा
न रह सकू। तुम बहुत जल्द िौट आओीं।
मगनदास के हाथ से तार का कागज छूट गया और सर में ऐसा चक्कर आया कक जैसे ककसी ऊचाई
से धगर पडा है ।

म गनदास का ककताबी ज्ञान बहुत कम था। मगर स्वभाव की सजजनता से वह खािी हाथ न था। हाथों
की उदारता ने, जो समद्
कायापिट से दख
ृ धध का वरदान है , हृदय को भी उदार बना ददया था। उसे घटनाओीं की इस
ु तो जरुर हुआ, आखखर इन्सान ही था, मगर उसने धीरज से काम लिया और एक आशा
और भय की लमिी-जि ु ी हाित में दे श को रवाना हुआ।
रात का वक्त था। जब अपने दरवाजे पर पहुचा तो नाच-गाने की महकफि सजी दे खी। उसके कदम
आगे न बढ़े िौट पडा और एक दक
ु ान के चबत
ू रे पर बैठकर सोचने िगा कक अब क्या करना चादहऐ। इतना
तो उसे यकीन था कक सेठ जी उसक साथ भी भिमनसी और मह
ु ब्बत से पेश आयेंगे बक्ल्क शायद अब और
भी कृपा करने िगें । सेठाननय ॉँ भी अब उसके साथ गैरों का-सा वतामव न करें गी। मम ु ककन है मझिी बहू जो
इस बच्चे की खशु नसीब म ॉँ थीीं, उससे दरू -दरू रहें मगर बाकी चारों सेठाननयों की तरफ से सेवा-सत्कार में
कोई शक नहीीं था। उनकी डाह से वह फायदा उठा सकता था। ताहम उसके स्वालभमान ने गवारा न ककया
कक क्जस घर में मालिक की हैलसयत से रहता था उसी घर में अब एक आधश्रत की है लसयत से क्जन्दगी
ु ालसब है, न मसिहत। मगर जाऊ कह ?ीं न
बसर करे । उसने फैसिा कर लिया कक सब यह ॉँ रहना न मन
कोई ऐसा फन सीखा, न कोई ऐसा इल्म हालसि ककया क्जससे रोजी कमाने की सरू त पैदा होती। रईसाना
ददिचक्स्पय ॉँ उसी वक्त तक कद्र की ननगाह से दे खी जाती हैं जब तक कक वे रईसों के आभष
ू ण रहें ।
जीववका बन कर वे सम्मान के पद से धगर जाती है। अपनी रोजी हालसि करना तो उसके लिए कोई ऐसा
मक्ु श्कि काम न था। ककसी सेठ-साहूकार के यह ॉँ मन
ु ीम बन सकता था, ककसी कारखाने की तरफ से एजेंट
हो सकता था, मगर उसके कन्धे पर एक भारी जुआ रक्खा हुआ था, उसे क्या करे । एक बडे सेठ की िडकी
क्जसने िाड-प्यार मे पररवररश पाई, उससे यह कींगािी की तकिीफें क्योंकर झेिी जाऍगीीं
ीं क्या मक्खनिाि
की िाडिी बेटी एक ऐसे आदमी के साथ रहना पसन्द करे गी क्जसे रात की रोटी का भी दठकाना नहीीं !
मगर इस कफक्र में अपनी जान क्यों खपाऊ। मैंने अपनी मजी से शादी नहीीं की मैं बराबर इनकार करता
रहा। सेठ जी ने जबदम स्ती मेरे पैरों में बेडी डािी है। अब वही इसके क्जम्मेदार हैं। मझ
ु से कोई वास्ता नहीीं।
िेककन जब उसने दब
ु ारा ठीं डे ददि से इस मसिे पर गौर ककया तो वचाव की कोई सरू त नजर न आई।
आखखकार उसने यह फैसिा ककया कक पहिे नागपरु चि,ू जरा उन महारानी के तौर-तरीके को दे ख,ू बाहर-ही-
ॉँ करू। उस वक्त तय करूगा कक मझ
बाहर उनके स्वभाव की, लमजाज की ज च ु े क्या करके चादहये। अगर
रईसी की बू उनके ददमाग से ननकि गई है और मेरे साथ रूखी रोदटय ॉँ खाना उन्हें मींजूर है , तो इससे
अच्छा कफर और क्या, िेककन अगर वह अमीरी ठाट-बाट के हाथों बबकी हुई हैं तो मेरे लिए रास्ता साफ है ।
कफर मैं हू और दनु नया का गम। ऐसी जगह जाऊ जह ॉँ ककसी पररधचत की सरू त सपने में भी न ददखाई दे ।
गरीबी की क्जल्ित नहीीं रहती, अगर अजनबबयों में क्जन्दगी बसरा की जाए। यह जानने-पहचानने वािों की
कनखखया और कनबनतय ॉँ हैं जो गरीबी को यन्त्रणा बना दे ती हैं। इस तरह ददि में क्जन्दगी का नक्शा
बनाकर मगनदास अपनी मदामना दहम्मत के भरोसे पर नागपरु की तरफ चिा, उस मल्िाह की तरह जो
ककश्ती और पाि के बगैर नदी की उमडती हुई िहरों में अपने को डाि दे ।

शा
मह
म के वक्त सेठ मक्खनिाि के सींद ु र बगीचे में सरू ज की पीिी ककरणें मरु झाये हुए फूिों से गिे
लमिकर ववदा हो रही थीीं। बाग के बीच में एक पक्का कुऑ ीं था और एक मौिलसरी का पेड। कुए के
ु पर अींधेरे की नीिी-सी नकाब थी, पेड के लसर पर रोशनी की सन
ु हरी चादर। इसी पेड में एक नौजवान

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थका-माींदा कुऍ ीं पर आया और िोटे से पानी भरकर पीने के बाद जगत पर बैठ गया। मालिन ने पछ ू ा- कह ॉँ
जाओगे? मगनदास ने जवाब ददया कक जाना तो था बहुत दरू , मगर यहीीं रात हो गई। यह ॉँ कहीीं ठहरने का
दठकाना लमि जाएगा?
मालिक- चिे जाओ सेठ जी की धममशािा में , बडे आराम की जगह है।
मगनदास-धममशािे में तो मझ
ु े ठहरने का कभी सींयोग नहीीं हुआ। कोई हजम न हो तो यहीीं पडा रहू। यहा
कोई रात को रहता है ?
मालिक- भाई, मैं यह ॉँ ठहरने को न कहूगी। यह बाई जी की बैठक है । झरोखे में बैठकर सेर ककया
करती हैं। कहीीं दे ख-भाि िें तो मेरे लसर में एक बाि भी न रहे ।
मगनदास- बाई जी कौन?
मालिक- यही सेठ जी की बेटी। इक्न्दरा बाई।
मगनदास- यह गजरे उन्हीीं के लिए बना रही हो क्या?
मालिन- ह ,ॉँ और सेठ जी के यह ॉँ है ही कौन? फूिों के गहने बहुत पसन्द करती हैं।
मानदास- शौकीन औरत मािम ू होती हैं?
मालिक- भाई, यही तो बडे आदलमयों की बातें है । वह शौक न करें तो हमारा-तुम्हारा ननबाह कैसे हो।
और धन है ककस लिए। अकेिी जान पर दस िौंडडय ॉँ हैं। सन
ु ा करती थी कक भगवान आदमी का हि भत

जोतता है वह ऑ ींखों दे खा। आप-ही-आप पींखा चिने िगे। आप-ही-आप सारे घर में ददन का-सा उजािा हो
जाए। तुम झठ
ू समझते होगे, मगर मैं ऑ ींखों दे खी बात कहती हू।
उस गवम की चेतना के साथ जो ककसी नादान आदमी के सामने अपनी जानकारी के बयान करने में
होता है, बढ़
ू ी मालिन अपनी सवमज्ञता का प्रदशमन करने िगी। मगनदास ने उकसाया- होगा भाई, बडे आदमी
की बातें ननरािी होती हैं। िक्ष्मी के बस में सब कुछ है । मगर अकेिी जान पर दस िौंडडय ?ॉँ समझ में नहीीं
आता।
मालिन ने बढ़
ु ापे के धचडधचडेपन से जवाब ददया- तुम्हारी समझ मोटी हो तो कोई क्या करे ! कोई पान
िगाती है, कोई पींखा झिती है , कोई कपडे पहनाती है , दो हजार रुपये में तो सेजगाडी आयी थी, चाहो तो
मह
ु दे ख िो, उस पर हवा खाने जाती हैं। एक बींगालिन गाना-बजाना लसखाती है , मेम पढ़ाने आती है , शास्त्री
जी सींस्कृत पढ़ाते हैं, कागद पर ऐसी मरू त बनाती हैं कक अब बोिी और अब बोिी। ददि की रानी हैं, बेचारी
के भाग फूट गए। ददल्िी के सेठ िगनदास के गोद लिये हुए िडके से ब्याह हुआ था। मगर राम जी की
िीिा सत्तर बरस के मदु े को िडका ददया, कौन पनतयायेगा। जब से यह सन ु ावनी आई है, तब से बहुत
उदास रहती है । एक ददन रोती थीीं। मेरे सामने की बात है । बाप ने दे ख लिया। समझाने िगे। िडकी को
बहुत चाहते हैं। सन
ु ती हू दामाद को यहीीं बि
ु ाकर रक्खेंगे। नारायन करे , मेरी रानी दध
ू ों नहाय पतों फिे।
मािी मर गया था, उन्होंने आड न िी होती तो घर भर के टुकडे म गती। ॉँ
मगनदास ने एक ठण्डी स स ॉँ िी। बेहतर है , अब यह ॉँ से अपनी इजजत-आबरू लिये हुए चि दो। यह ॉँ
मेरा ननबाह न होगा। इक्न्दरा रईसजादी है। तुम इस काबबि नहीीं हो कक उसके शौहर बन सको। मालिन से
बोिा-ता धममशािे में जाता हू। जाने वह ॉँ खाट-वाट लमि जाती है कक नहीीं, मगर रात ही तो काटनी है ककसी
तरह कट ही जाएगी रईसों के लिए मखमिी गद्दे चादहए, हम मजदरू ों के लिए पआ ु ि ही बहुत है ।
यह कहकर उसने िदु टया उठाई, डण्डा सम्हािा और ददम भरे ददि से एक तरफ चि ददया।
उस वक्त इक्न्दरा अपने झरोखे पर बैठी हुई इन दोनों की बातें सन
ु रही थी। कैसा सींयोग है कक स्त्री
को स्वगम की सब लसद्धधय ॉँ प्राप्त हैं और उसका पनत आवरों की तरह मारा-मारा कफर रहा है । उसे रात
काटने का दठकाना नहीीं।


अपने दख
गनदास ननराश ववचारों में डूबा हुआ शहर से बाहर ननकि आया और एक सराय में ठहरा जो लसफम
इसलिए मशहूर थी, कक वह ॉँ शराब की एक दक
ु को भि
ु ाया करते थे। जो भि
ु ान थी। यह ॉँ आस-पास से मजदरू िोग आ-आकर
ु ाकफर यह ॉँ ठहरते, उन्हें होलशयारी और चौकसी का
ू े-भटके मस
ॉँ ही, एक पेड के नीचे चादर बबछाकर सो रहा और जब
व्यावहाररक पाठ लमि जाता था। मगनदास थका-म दा
सब
ु ह को नीींद खि
ु ी तो उसे ककसी पीर-औलिया के ज्ञान की सजीव दीक्षा का चमत्कार ददखाई पडा क्जसकी
पहिी मींक्जि वैराग्य है । उसकी छोटी-सी पोटिी, क्जसमें दो-एक कपडे और थोडा-सा रास्ते का खाना और
िदु टया-डोर बींधी हुई थी, गायब हो गई। उन कपडों को छोडकर जो उसके बदर पर थे अब उसके पास कुछ
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भी न था और भख
ू , जो कींगािी में और भी तेज हो जाती है, उसे बेचन
ै कर रही थी। मगर दृढ़ स्वभाव का
आदमी था, उसने ककस्मत का रोना रोया ककसी तरह गज
ु र करने की तदबीरें सोचने िगा। लिखने और
गखणत में उसे अच्छा अभ्यास था मगर इस है लसयत में उससे फायदा उठाना असम्भव था। उसने सींगीत का
बहुत अभ्यास ककया था। ककसी रलसक रईस के दरबार में उसकी क़द्र हो सकती थी। मगर उसके परु
ु षोधचत
अलभमान ने इस पेशे को अक्ख्यतार करने इजाजत न दी। ह ,ॉँ वह आिा दजे का घड
ु सवार था और यह फन
मजे में परू ी शान के साथ उसकी रोजी का साधन बन सकता था यह पक्का इरादा करके उसने दहम्मत से
कदम आगे बढ़ाये। ऊपर से दे खने पर यह बात यकीन के काबबि नही मािम
ू होती मगर वह अपना बोझ
हिका हो जाने से इस वक्त बहुत उदास नहीीं था। मदामना दहम्मत का आदमी ऐसी मस ु ीींबतों को उसी ननगाह
से दे खता है,क्जसमे एक होलशयार ववद्याथी परीक्षा के प्रश्नों को दे खता है उसे अपनी दहम्मत आजमाने का,
एक मक्ु श्कि से जझ
ू ने का मौका लमि जाता है उसकी दहम्मत अजनाने ही मजबत
ू हो जाती है । अकसर
ऐसे माके मदामना हौसिे के लिए प्रेरणा का काम दे ते हैं। मगनदास इस जोश़ से कदम बढ़ाता चिा जाता
था कक जैसे कायमाबी की मींक्जि सामने नजर आ रही है । मगर शायद वहा के घोडो ने शरारत और
बबगडैिपन से तौबा कर िी थी या वे स्वाभाववक रुप बहुत मजे मे धीमे- धीमे चिने वािे थे। वह क्जस
गाींव में जाता ननराशा को उकसाने वािा जवाब पाता आखखरकार शाम के वक्त जब सरू ज अपनी आखखरी
मींक्जि पर जा पहुचा था, उसकी कदठन मींक्जि तमाम हुई। नागरघाट के ठाकुर अटिलसहीं ने उसकी धचन्ता
मो समाप्त ककया।
यह एक बडा गाव था। पक्के मकान बहुत थे। मगर उनमें प्रेतात्माऍ ीं आबाद थीीं। कई साि पहिे
प्िेग ने आबादी के बडे दहस्से का इस क्षणभींगरु सींसार से उठाकर स्वगम में पहुच ददया था। इस वक्त प्िेग
के बचे-खच
ु े वे िोग गाींव के नौजवान और शौकीन जमीींदार साहब और हल्के के कारगज
ु ार ओर रोबीिे
थानेदार साहब थे। उनकी लमिी-जुिी कोलशशों से ग वॉँ मे सतयग
ु का राज था। धन दौित को िोग जान का
अजाब समझते थे ।उसे गुनाह की तरह छुपाते थे। घर-घर में रुपये रहते हुए िोग कजम िे-िेकर खाते
और फटे हािों रहते थे। इसी में ननबाह था । काजि की कोठरी थी, सफेद कपडे पहनना उन पर धब्बा
िगाना था। हुकूमत और जबर्म दस्ती का बाजार गमम था। अहीरों को यहा आजन के लिए भी दध ू न था।
थाने में दध
ू की नदी बहती थी। मवेशीखाने के मह
ु ररम र दध
ू की कुक्ल्िया करते थे। इसी अींधरे नगरी को
मगनदास ने अपना घर बनाया। ठाकुर साहब ने असाधारण उदारता से काम िेकर उसे रहने के लिए एक
माकन भी दे ददया। जो केवि बहुत व्यापक अथो में मकान कहा जा सकता था। इसी झोंपडी में वह एक
हफ्ते से क्जन्दगी के ददन काट रहा है । उसका चेहरा जदम है। और कपडे मैिे हो रहे है । मगर ऐसा मािम

होता है कक उस अब इन बातों की अनभ
ु नू त ही नही रही। क्जन्दा है मगर क्जन्दगी रुखसत हो गई है ।
दहम्मत और हौसिा मक्ु श्कि को आसान कर सकते है ऑ ींधी और तफ
ु ान से बचा सकते हैं मगर चेहरे को
खखिा सकना उनके सामथ्यम से बाहर है टूटी हुई नाव पर बैठकरी मल्हार गाना दहम्मत काम नही दहमाकत
का काम है ।
एक रोज जब शाम के वक्त वह अींधरे मे खाट पर पडा हुआ था। एक औरत उसके दरवारजे पर
आकर भीख माींगने िगी। मगनदास का आवाज वपरधचत जान पडी। बहार आकर दे खा तो वही चम्पा मालिन
थी। कपडे तार–तार, मस
ु ीबत की रोती हुई तसबीर। बोिा-मालिन ? तम्
ु हारी यह क्या हाित है । मझ
ु े
पहचानती हो।?
मालिन ने चौंकरक दे खा और पहचान गई। रोकर बोिी –बेटा, अब बताओ मेरा कहा दठकाना िगे?
तम
ु ने मेरा बना बनाया घर उजाड ददया न उसे ददन तुमसे बात करती ने मझ
ु े पर यह बबपत पडती। बाई
ने तुम्हें बैठे दे ख लिया, बातें भी सन
ु ी सब
ु ह होते ही मझ
ु े बि
ु ाया और बरस पडी नाक कटवा िगी,
ू मींह
ु में
कालिख िगवा दगी,
ू चड
ु ि
ै , कुटनी, तू मेरी बात ककसी गैर आदमी से क्यों चिाये? तू दस
ू रों से मेरी चचाम
करे ? वह क्या तेरा दामाद था, जो तू उससे मेरा दख
ु डा रोती थी? जो कुछ मह
ींु मे आया बकती रही
मझु से भी न सहा गया। रानी रुठें गी अपना सह
ु ाग िेंगी! बोिी-बाई जी, मझ
ु से कसरू हुआ, िीक्जए अब जाती
हू छीींकते नाक कटती है तो मेरा ननबाह यहा न होगा। ईश्वर ने मींहु ददया हैं तो आहार भी दे गा चार घर
से मागगी
ू तो मेरे पेट को हो जाऐगा।। उस छोकरी ने मझ
ु े खडे खडे ननकिवा ददया। बताओ मैने तम
ु से
उसकी कौन सी लशकायत की थी? उसकी क्या चचाम की थी? मै तो उसका बखान कर रही थी। मगर बडे
आदलमयों का गुस्सा भी बडा होता है । अब बताओ मै ककसकी होकर रहू? आठ ददन इसी ददन तरह टुकडे
मागते हो गये है । एक भतीजी उन्हीीं के यहा िौंडडयों में नौकर थी, उसी ददन उसे भी ननकाि ददया।

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तम्
ु हारी बदौित, जो कभी न ककया था, वह करना पडा तम्
ु हें कहो का दोष िगाऊीं ककस्मत में जो कुछ
लिखा था, दे खना पडा।
मगनदास सन्नाटे में जो कुछ लिखा था। आह लमजाज का यह हाि है , यह घमण्ड, यह शान! मालिन का
इत्मीनन ददिाया उसके पास अगर दौित होती तो उसे मािामाि कर दे ता सेठ मक्खनिाि की बेटी को
भी मािम
ू हो जाता कक रोजी की कींू जी उसी के हाथ में नहीीं है । बोिा-तुम कफक्र न करो, मेरे घर मे
आराम से रहो अकेिे मेरा जी भी नहीीं िगता। सच कहो तो मझ
ु े तुम्हारी तरह एक औरत की तिाशा थी,
अच्छा हुआ तुम आ गयीीं।
ु -जुग क्जयों बडी उम्र हो यह ॉँ कोई
मालिन ने आींचि फैिाकर असीम ददया– बेटा तुम जग घर लमिे
तो मझ
ु े ददिवा दो। मैं यही रहूगी तो मेरी भतीजी कहा जाएगी। वह बेचारी शहर में ककसके आसरे रहे गी।
मगनिाि के खन ू में जोश आया। उसके स्वालभमान को चोट िगी। उन पर यह आफत मेरी िायी हुई
है । उनकी इस आवारागदी को क्जम्मेदार मैं हू। बोिा–कोई हजम न हो तो उसे भी यहीीं िे आओ। मैं ददन को
यहा बहुत कम रहता हू। रात को बाहर चारपाई डािकर पड रहा करुगा। मेरी वहज से तुम िोगों को कोई
तकिीफ न होगी। यहा दस
ू रा मकान लमिना मक्ु श्कि है यही झोपडा बडी मक्ु श्किो से लमिा है। यह
अींधेरनगरी है जब तुम्हरी सभ
ु ीता कहीीं िग जाय तो चिी जाना।
मगनदास को क्या मािम ू था कक हजरते इश्क उसकी जबान पर बैठे हुए उससे यह बात कहिा रहे
है । क्या यह ठीक है कक इश्क पहिे माशक
ू के ददि में पैदा होता है?

ना गपरु इस ग व से बीस मीि की दरू ी पर था। चम्मा उसी ददन चिी गई और तीसरे ददन रम्भा के
साथ िौट आई। यह उसकी भतीजी का नाम था। उसक आने से झोंपडें में जान सी पड गई।
मगनदास के ददमाग में मालिन की िडकी की जो तस्वीर थी उसका रम्भा से कोई मेि न था वह सौंदयम
नाम की चीज का अनभ
ु वी जौहरी था मगर ऐसी सरू त क्जसपर जवानी की ऐसी मस्ती और ददि का चैन
छीन िेनेवािा ऐसा आकषमण हो उसने पहिे कभी नहीीं दे खा था। उसकी जवानी का च दॉँ अपनी सन
ु हरी और
गम्भीर शान के साथ चमक रहा था। सब
ु ह का वक्त था मगनदास दरवाजे पर पडा ठण्डी–ठण्डी हवा का
मजा उठा रहा था। रम्भा लसर पर घडा रक्खे पानी भरने को ननकिी मगनदास ने उसे दे खा और एक
िम्बी सास खीींचकर उठ बैठा। चेहरा-मोहरा बहुत ही मोहम। ताजे फूि की तरह खखिा हुआ चेहरा आींखों में
गम्भीर सरिता मगनदास को उसने भी दे खा। चेहरे पर िाज की िािी दौड गई। प्रेम ने पहिा वार
ककया।
मगनदास सोचने िगा-क्या तकदीर यहा कोई और गि
ु खखिाने वािी है! क्या ददि मझ
ु े यहाीं भी चैन
न िेने दे गा। रम्भा, तू यहा नाहक आयी, नाहक एक गरीब का खून तेरे सर पर होगा। मैं तो अब तेरे
हाथों बबक चक
ु ा, मगर क्या तू भी मेरी हो सकती है ? िेककन नहीीं, इतनी जल्दबाजी ठीक नहीीं ददि का
सौदा सोच-समझकर करना चादहए। तुमको अभी जब्त करना होगा। रम्भा सन्
ु दरी है मगर झठ
ू े मोती की
आब और ताब उसे सच्चा नहीीं बना सकती। तुम्हें क्या खबर कक उस भोिी िडकी के कान प्रेम के शब्द से
पररधचत नहीीं हो चक
ु े है ? कौन कह सकता है कक उसके सौन्दयम की वादटका पर ककसी फूि चन
ु नेवािे के
हाथ नही पड चक
ु े है? अगर कुछ ददनों की ददिबस्तगी के लिए कुछ चादहए तो तुम आजाद हो मगर यह
नाजक
ु मामिा है , जरा सम्हि के कदम रखना। पेशव
े र जातों मे ददखाई पडनेवािा सौन्दयम अकसर नैनतक
बन्धनों से मक्
ु त होता है ।
तीन महीने गज
ु र गये। मगनदास रम्भा को जयों जयों बारीक से बारीक ननगाहों से दे खता त्यों–त्यों
उस पर प्रेम का रीं ग गाढा होता जाता था। वह रोज उसे कुए से पानी ननकािते दे खता वह रोज घर
में झाडु दे ती, रोज खाना पकाती आह मगनदास को उन जवार की रोदटयाीं में मजा आता था, वह अच्छे से
अच्छे व्यींजनो में, भी न आया था। उसे अपनी कोठरी हमेशा साफ सध
ु री लमिती न जाने कौन उसके
बबस्तर बबछा दे ता। क्या यह रम्भा की कृपा थी? उसकी ननगाहें शमीिी थी उसने उसे कभी अपनी तरफ
चचींि आींखो स ताकते नही दे खा। आवाज कैसी मीठी उसकी हीं सी की आवाज कभी उसके कान में नही
आई। अगर मगनदास उसके प्रेम में मतवािा हो रहा था तो कोई ताजजब
ु की बात नही थी। उसकी भख
ू ी
ननगाहें बेचन
ै ी और िािसा में डुबी हुई हमेशा रम्भा को ढुढाीं करतीीं। वह जब ककसी गाव को जाता तो मीिों
तक उसकी क्जद्दी और बेताब ऑ ींखे मड ु –मड
ू कर झोंपडे के दरवाजे की तरफ आती। उसकी ख्यानत आस
पास फैि गई थी मगर उसके स्वभाव की मस
ु ीवत और उदारहृयता से अकसर िोग अनधु चत िाभ उठाते थे
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इन्साफपसन्द िोग तो स्वागत सत्कार से काम ननकाि िेते और जो िोग जयादा समझदार थे वे िगातार
तकाजों का इन्तजार करते चकींू क मगनदास इस फन को बबिकुि नहीीं जानता था। बावजद
ू ददन रात की
दौड धप
ू के गरीबी से उसका गिा न छुटता। जब वह रम्भा को चक्की पीसते हुए दे खता तो गेहू के साथ
उसका ददि भी वपस जाता था ।वह कुऍ ीं से पानी ननकािती तो उसका किेजा ननकि आता । जब वह पडोस
की औरत के कपडे सीती तो कपडो के साथ मगनदास का ददि नछद जाता। मगर कुछ बस था न काब।ू
मगनदास की हृदयभेदी दृक्ष्ट को इसमें तो कोई सींदेह नहीीं था कक उसके प्रेम का आकषमण बबिकुि
बेअसर नही है वनाम रम्भा की उन वफा से भरी हुई खानतरदररयों की तकु कैसा बबठाता वफा ही वह जाद ू है
रुप के गवम का लसर नीचा कर सकता है । मगर। प्रेलमका के ददि में बैठने का माद्दा उसमें बहुत कम था।
कोई दस ू रा मनचिा प्रेमी अब तक अपने वशीकरण में कामायाब हो चक ु ा होता िेककन मगनदास ने ददि
आशकक का पाया था और जबान माशक
ू की।
एक रोज शाम के वक्त चम्पा ककसी काम से बाजार गई हुई थी और मगनदास हमेशा की तरह
चारपाई पर पडा सपने दे ख रहा था। रम्भा अदभत
ू छटा के साथ आकर उसके समने खडी हो गई। उसका
भोिा चेहरा कमि की तरह खखिा हुआ था। और आखों से सहानभ ु नू त का भाव झिक रहा था। मगनदास ने
उसकी तरफ पहिे आश्चयम और कफर प्रेम की ननगाहों से दे खा और ददि पर जोर डािकर बोिा-आओीं
रम्भा, तुम्हें दे खने को बहुत ददन से आखें तरस रही थीीं।
रम्भा ने भोिेपन से कहा-मैं यहाीं न आती तो तमु मझ ु से कभी न बोिेते।
मगनदास का हौसिा बढा, बोिा-बबना मजी पाये तो कुत्ता भी नही आता।
रम्भा मस्
ु कराई, किी खखि गई–मै तो आप ही चिी आई।
मगनदास का किेजा उछि पडा। उसने दहम्मत करके रम्भा का हाथ पकड लिया और भावावेश से
क पती हुई आवाज मे बोिा–नहीीं रम्भा ऐसा नही है । यह मेरी महीनों की तपस्या का फि है ।
मगनदास ने बेताब होकर उसे गिे से िगा लिया। जब वह चिने िगी तो अपने प्रेमी की ओर प्रेम
भरी दृक्ष्ट से दे खकर बोिी–अब यह प्रीत हमको ननभानी होगी।
ू म दे वता के आगमन की तैयाररय ॉँ हो रही थी मगनदास की आखे खुिी
पौ फटने के वक्त जब सय
रम्भा आटा पीस रही थी। उस शाींवत्तपण
ू म सन्नाटे में चक्की की घम
ु र–घम
ु र बहुत सह
ु ानी मािम
ू होती थी और
उससे सरू लमिाकर आपने प्यारे ढीं ग से गाती थी।
झि
ु ननया मोरी पानी में धगरी
मैं जानींू वपया मौको मनैहैं
उिटी मनावन मोको पडी
झि
ु ननया मोरी पानी मे धगरी
साि भर गुजर गया। मगनदास की मह
ु ब्बत और रम्भा के सिीके न लमिकर उस वीरान झोंपडे को
कींु ज बाग बना ददया। अब वहाीं गायें थी। फूिों की क्याररया थीीं और कई दे हाती ढीं ग के मोढ़े थे। सख
ु –
सवु वधा की अनेक चीजे ददखाई पडती थी।
एक रोज सब
ु ह के वक्त मगनदास कही जाने के लिए तैयार हो रहा था कक एक सम्भ्राींत व्यक्क्त
अींग्रेजी पोशाक पहने उसे ढूढीं ता हुआ आ पहुींचा और उसे दे खते ही दौडकर गिे से लिपट गया। मगनदास
और वह दोनो एक साथ पढ़ा करते थे। वह अब वकीि हो गया। था। मगनदास ने भी अब पहचाना और
कुछ झेंपता और कुछ खझझकता उससे गिे लिपट गया। बडी दे र तक दोनों दोस्त बातें करते रहे । बातें क्या
थीीं घटनाओीं और सींयोगो की एक िम्बी कहानी थी। कई महीने हुए सेठ िगन का छोटा बच्चा चेचक की
नजर हो गया। सेठ जी ने दख ु क मारे आत्महत्या कर िी और अब मगनदास सारी जायदाद, कोठी इिाके
और मकानों का एकछत्र स्वामी था। सेठाननयों में आपसी झगडे हो रहे थे। कममचाररयों न गबन को अपना
ढीं ग बना रक्खा था। बडी सेठानी उसे बि
ु ाने के लिए खुद आने को तैयार थी, मगर वकीि साहब ने उन्हे
रोका था। जब मदनदास न मस् ु काराकर पछु ा–तुम्हों क्योंकर मािम
ू हुआ कक मै। यहा हू तो वकीि साहब ने
फरमाया-महीने भर से तुम्हारी टोह में हू। सेठ मक्निाि ने अता-पता बतिाया। तूम ददल्िी पहुचें और
मैंने अपना महीने भर का बबि पेश ककया।
रम्भा अधीर हो रही थी। कक यह कौन है और इनमे क्या बाते हो रही है ? दस बजते-बजते वकीि
साहब मगनदास से एक हफ्ते के अन्दर आने का वादा िेकर ववदा हुए उसी वक्त रम्भा आ पहुची और
पछ
ू ने िगी-यह कौन थे। इनका तुमसे क्या काम था?

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मगनदास ने जवाब ददया- यमराज का दत
ू ।
रम्भा–क्या असगन
ु बकते हो!
मगन-नहीीं नहीीं रम्भा, यह असगन
ु नही है, यह सचमच
ु मेरी मौत का दत
ू था। मेरी खलु शयों के बाग
को रौंदने वािा मेरी हरी-भरी खेती को उजाडने वािा रम्भा मैने तुम्हारे साथ दगा की है , मैंने तुम्हे अपने
फरे ब क जाि में फासया है , मझ
ु े माफ करो। मह
ु ब्बत ने मझ
ु से यह सब करवाया मैं मगनलसहीं ठाकूर नहीीं
हू। मैं सेठ िगनदास का बेटा और सेठ मक्खनिाि का दामाद हू।
मगनदास को डर था कक रम्भा यह सन ु ते ही चौक पडेगी ओर शायद उसे जालिम, दगाबाज कहने
िगे। मगर उसका ख्याि गित ननकिा! रम्भा ने आींखो में ऑ ींसू भरकर लसफम इतना कहा-तो क्या तम

मझ
ु े छोडकर चिे जाओगे?
मगनदास ने उसे गिे िगाकर कहा-ह ।ॉँ
रम्भा–क्यों?
मगन–इसलिए कक इक्न्दरा बहुत होलशयार सन् ु दर और धनी है ।
रम्भा–मैं तुम्हें न छोडूगी। कभी इक्न्दरा की िौंडी थी, अब उनकी सौत बनगी।
ू तम
ु क्जतनी मेरी
मह
ु ब्बत करोगे। उतनी इक्न्दरा की तो न करोगे, क्यों?
मगनदास इस भोिेपन पर मतवािा हो गया। मस्
ु कराकर बोिा-अब इक्न्दरा तुम्हारी िौंडी बनेगी,
मगर सन ु ता हू वह बहुत सन्
ु दर है। कहीीं मै उसकी सरू त पर िभ
ु ा न जाऊ। मदो का हाि तुम नही जानती
मझ
ु े अपने ही से डर िगता है ।
रम्भा ने ववश्वासभरी आींखो से दे खकर कहा-क्या तम
ु भी ऐसा करोगे? उह जो जी में आये करना, मै
तम्
ु हें न छोडूगी। इक्न्दरा रानी बने, मै िौंडी हूगी, क्या इतने पर भी मझ
ु े छोड दोगें ?
मगनदास की ऑ ींखे डबडबा गयीीं, बोिा–प्यारी, मैने फैसिा कर लिया है कक ददल्िी न जाऊगा यह तो
मै कहने ही न पाया कक सेठ जी का स्वगमवास हो गया। बच्चा उनसे पहिे ही चि बसा था। अफसोस सेठ
जी के आखखरी दशमन भी न कर सका। अपना बाप भी इतनी मह
ु ब्ब्त नही कर सकता। उन्होने मझ
ु े अपना
वाररस बनाया हैं। वकीि साहब कहते थे। कक सेठाररयों मे अनबन है । नौकर चाकर िट
ू मार-मचा रहे हैं।
वह ॉँ का यह हाि है और मेरा ददि वह ॉँ जाने पर राजी नहीीं होता ददि तो यहा है वह ॉँ कौन जाए।
रम्भा जरा दे र तक सोचती रही, कफर बोिी-तो मै तुम्हें छोड दगीीं
ू इतने ददन तुम्हारे साथ रही।
क्जन्दगी का सख
ु िट
ु ा अब जब तक क्जऊगी इस सख
ू का ध्यान करती रहूगी। मगर तम
ु मझ
ु े भि
ू तो
न जाओगे? साि में एक बार दे ख लिया करना और इसी झोपडे में ।
मगनदास ने बहुत रोका मगर ऑ ींसू न रुक सके बोिे–रम्भा, यह बाते ने करो, किेजा बैठा जाता है ।
मै तुम्हे छोड नही सकता इसलिए नही कक तुम्हारे उपर कोई एहसान है । तम् ु हारी खानतर नहीीं, अपनी
खानतर वह शावत्त वह प्रेम, वह आनन्द जो मझ
ु े यहा लमिता है और कहीीं नही लमि सकता। खुशी के साथ
क्जन्दगी बसर हो, यही मनष्ु य के जीवन का िक्ष्य है। मझ
ु े ईश्वर ने यह खुशी यहा दे रक्खी है तो मै
उसे क्यो छोडू? धन–दौित को मेरा सिाम है मझ ु े उसकी हवस नहीीं है ।
रम्भा कफर गम्भीर स्वर में बोिी-मै तुम्हारे प व की बेडी न बनगी।ू चाहे तुम अभी मझ
ु े न छोडो
िेककन थोडे ददनों में तम्
ु हारी यह मह
ु ब्बत न रहे गी।
मगनदास को कोडा िगा। जोश से बोिा-तम्
ु हारे लसवा इस ददि में अब कोई और जगह नहीीं
पा सकता।
रात जयादा आ गई थी। अष्टमी का च दॉँ सोने जा चक
ु ा था। दोपहर के कमि की तरह साफ
आसमन में लसतारे खखिे हुए थे। ककसी खेत के रखवािे की बासरु ी की आवाज, क्जसे दरू ी ने तासीर, सन्नाटे
न सरु ीिापन और अधेरे ने आक्त्मकता का आकषमण दे ददया। था। कानो में आ जा रही थी कक जैसे कोई
पववत्र आत्मा नदी के ककनारे बैठी हुई पानी की िहरों से या दसू रे ककनारे के खामोश और अपनी तरफ
खीचनेवािे पेडो से अपनी क्जन्दगी की गम की कहानी सन ु ा रही है।
मगनदास सो गया मगर रम्भा की आींखों में नीद न आई।

सु बह हुई तो मगनदास उठा और रम्भा पकु ारने िगा। मगर रम्भा रात ही को अपनी चाची के
साथ वहाीं से कही चिी गयी मगनदास को उसे मकान के दरो दीवार पर एक हसरत-सी छायी हुई

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मािम
ू हुई कक जैसे घर की जान ननकि गई हो। वह घबराकर उस कोठरी में गया जहाीं रम्भा रोज चक्की
पीसती थी, मगर अफसोस आज चक्की एकदम ननश्चि थी। कफर वह कुए की तरह दौडा गया िेककन ऐसा
मािम
ू हुआ कक कुए ने उसे ननगि जाने के लिए अपना मह ु खोि ददया है । तब वह बच्चो की तरह चीख
उठा रोता हुआ कफर उसी झोपडी में आया। जह ॉँ कि रात तक प्रेम का वास था। मगर आह, उस वक्त वह
शोक का घर बना हुआ था। जब जरा ऑसू थमे तो उसने घर में चारों तरफ ननगाह दौडाई। रम्भा की साडी
अरगनी पर पडी हुई थी। एक वपटारी में वह कींगन रक्खा हुआ था। जो मगनदास ने उसे ददया था। बतमन
सब रक्खे हुए थे, साफ और सध
ु रे । मगनदास सोचने िगा-रम्भा तूने रात को कहा था-मै तुम्हे छोड दग
ु ीीं।
क्या तूने वह बात ददि से कही थी।? मैने तो समझा था, तू ददल्िगी कर रही हैं। नहीीं तो मझ
ु े किेजे में
नछपा िेता। मैं तो तेरे लिए सब कुछ छोडे बैठा था। तेरा प्रेम मेरे लिए सक कुछ था, आह, मै यों बेचन
ै हूीं,
क्या तू बेचन
ै नही है? हाय तू रो रही है । मझ
ु े यकीन है कक तू अब भी िौट आएगी। कफर सजीव कल्पनाओीं
का एक जमघट उसक सामने आया- वह नाजक
ु अदाए वह मतवािी ऑ ींखें वह भोिी भािी बातें , वह अपने
को भिू ी हुई-सी मेहरबाननय ॉँ वह जीवन दायी। मस्
ु कान वह आलशकों जैसी ददिजोइया वह प्रेम का नाश, वह
हमेशा खखिा रहने वािा चेहरा, वह िचक-िचककर कुए से पानी िाना, वह इन्ताजार की सरू त वह मस्ती से
भरी हुई बेचन
ै ी-यह सब तस्वीरें उसकी ननगाहों के सामने हमरतनाक बेताबी के साथ कफरने िगी। मगनदास
ने एक ठण्डी स स िी और आसओ ु ीं और ददम की उमडती हुई नदी को मदामना जब्त से रोककर उठ
खडा हुआ। नागपरु जाने का पक्का फैसिा हो गया। तककये के नीच से सन्दक
ू की कुजी उठायी तो कागज
का एक टुकडा ननकि आया यह रम्भा की ववदा की धचट्टी थी-
प्यारे ,
मै बहुत रो रही हू मेरे पैर नहीीं उठते मगर मेरा जाना जरूरी है । तम्
ु हे जागाऊगी। तो तम
ु जाने न
दोगे। आह कैसे जाऊीं अपने प्यारे पनत को कैसे छोडू! ककस्मत मझ ु से यह आनन्द का घर छुडवा रही है।
मझु े बेवफा न कहना, मै तुमसे कफर कभी लमिगी। ू मै जानती हू। कक तुमने मेरे लिए यह सब कुछ त्याग
ददया है। मगर तुम्हारे लिए क्जन्दगी में । बहुत कुछ उम्मीदे हैं मैं अपनी मह
ु ब्बत की धन
ु में तुम्हें उन
उम्मीदो से क्यों
दरू रक्ख!ू अब तुमसे जद ु ा होती हू। मेरी सधु मत भि
ू ना। मैं तुम्हें हमेशा याद रखग
ू ीीं। यह
आनन्द के लिए कभी न भि ू ेंगे। क्या तूम मझ ु े भि
ू सकोगें ?

तुम्हारी प्यारी
रम्भा

म गनदास को ददल्िी आए हुए तीन महीने गज


ु र चक ु े हैं। इस बीच उसे सबसे बडा जो ननजी अनभ

ककया। जा सकता है। डेढ साि पहिे का बकफक्र नौजवान अब एक समझदार और सझ


ू -बझ
ू रखने वािा
ु व
हुआ वह यह था कक रोजी की कफक्र और धन्धों की बहुतायत से उमडती हुई भावनाओीं का जोर कम

आदमी बन गया था। सागर घाट के उस कुछ ददनों के रहने से उसे ररआया की इन तकिीफो का
ननजी ज्ञान हो गया, था जो काररन्दों और मख्
ु तारो की सक्ख्तयों की बदौित उन्हे उठानी पडती है। उसने
उसे ररयासत केइन्तजाम में बहुत मदद दी और गो कममचारी दबी जबान से उसकी लशकायत करते थे।
और अपनी ककस्मतो और जमाने क उिट फेर को कोसने थे मगर ररआया खुशा थी। ह ,ॉँ जब वह सब धींधों
से फुरसत पाता तो एक भोिी भािी सरू तवािी िडकी उसके खयाि के पहिू में आ बैठती और थोडी दे र के
लिए सागर घाट का वह हरा भरा झोपडा और उसकी मक्स्तया ऑखें के सामने आ जातीीं। सारी बाते एक
सह
ु ाने सपने की तरह याद आ आकर उसके ददि को मसोसने िगती िेककन कभी कभी खूद बखुद-उसका
ख्याि इक्न्दरा की तरफ भी जा पहूचता गो उसके ददि मे रम्भा की वही जगह थी मगर ककसी तरह उसमे
इक्न्दरा के लिए भी एक कोना ननकि आया था। क्जन हािातो और आफतो ने उसे इक्न्दरा से बेजार कर
ददया था वह अब रुखसत हो गयी थीीं। अब उसे इक्न्दरा से कुछ हमददी हो गयी । अगर उसके लमजाज में
घमण्ड है , हुकूमत है तकल्िफू है शान है तो यह उसका कसरू नहीीं यह रईसजादो की आम कमजोररयाीं है
यही उनकी लशक्षा है । वे बबिकुि बेबस और मजबरू है । इन बदते हुए और सींतलु ित भावो के साथ जहाीं वह
बेचन
ै ी के साथ रम्भा की याद को ताजा ककया करता था वहा इक्न्दरा का स्वागत करने और उसे अपने ददि
में जगह दे ने के लिए तैयार था। वह ददन दरू नहीीं था जब उसे उस आजमाइश का सामना करना पडेगा।
उसके कई आत्मीय अमीराना शान-शौकत के साथ इक्न्दरा को ववदा कराने के लिए नागपरु गए हुए थे।

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मगनदास की बनतयत आज तरह तरह के भावो के कारण, क्जनमें प्रतीक्षा और लमिन की उत्कींठा ववशेष थी,
उचाट सी हो रही थी। जब कोई नौकर आता तो वह सम्हि बैठता कक शायद इक्न्दरा आ पहुची आखखर शाम
के वक्त जब ददन और रात गिे लमिे रहे थे, जनानखाने में जोर शारे के गाने की आवाजों ने बहू के पहुचने
की सच
ू ना दी।
सह ु ाग की सह
ु ानी रात थी। दस बज गये थे। खुिे हुए हवादार सहन में च दनी ॉँ नछटकी हुई थी, वह
ॉँ
च दनी ु ाब और चम्मा के फूि च दॉँ
क्जसमें नशा है । आरजू है । और खखींचाव है । गमिों में खखिे हुए गि
की सनु हरी रोशनी में जयादा गम्भीर ओर खामोश नजर आते थे। मगनदास इक्न्दरा से लमिने के लिए चिा।
उसके ददि से िािसाऍ ीं जरुर थी मगर एक पीडा भी थी। दशमन की उत्कण्ठा थी मगर प्यास से खोिी।
मह
ु ब्बत नही प्राणों को
खखचाव था जो उसे खीचे लिए जाताथा। उसके ददि में बैठी हुई रम्भा शायद बार-
बार बाहर ननकिने की कोलशश कर रही थी। इसीलिए ददि में धडकन हो रही थी। वह सोने के कमरे के
दरवाजे पर पहुचा रे शमी पदाम पडा हुआ था। उसने पदाम उठा ददया अन्दर एक औरत सफेद साडी पहने खडी
थी। हाथ में चन्द खब ू सरू त चडू डयों के लसवा उसके बदन पर एक जेवर भी न था। जयोही पदाम उठा और
मगनदास ने अन्दरी हम रक्खा वह मस् ु काराती हुई उसकी तरफ बढी मगनदास ने उसे दे खा और चककत
होकर बोिा। “रम्भा!“ और दोनो प्रेमावेश से लिपट गये। ददि में बैठी हुई रम्भा बाहर ननकि आई थी।
साि भर गुजरने के वाद एक ददन इक्न्दरा ने अपने पनत से कहा। क्या रम्भा को बबिकुि भि
ू गये? कैसे
बेवफा हो! कुछ याद है , उसने चिते वक्त तुमसे या बबनती की थी?
मगनदास ने कहा- खूब याद है। वह आवाज भी कानों में गज
ू रही है । मैं रम्भा को भोिी –भािी
िडकी समझता था। यह नहीीं जानता था कक यह बत्रया चररत्र का जाद ू है। मै अपनी रम्भा का अब भी
इक्न्दरा से जयादा प्यार करता हूीं। तम्
ु हे डाह तो नहीीं होती?
इक्न्दरा ने हीं सकर जवाब ददया डाह क्यों हो। तूम्हारी रम्भा है तो क्या मेरा गनलसहीं नहीीं है। मैं अब
भी उस पर मरती हूीं।
दस
ू रे ददन दोनों ददल्िी से एक राष्रीय समारोह में शरीक होने का बहाना करके रवाना हो गए और
सागर घाट जा पहुचें। वह झोपडा वह मह ु ब्बत का मक्न्दर वह प्रेम भवन फूि और दहरयािी से िहरा रहा
था चम्पा मालिन उन्हें वहा लमिी। गाींव के जमीींदार उनसे लमिने के लिए आये। कई ददन तक कफर
मगनलसह को घोडे ननकािना पडें । रम्भा कुए से पानी िाती खाना पकाती। कफर चक्की पीसती और गाती।
गाव की औरते कफर उससे अपने कुते और बच्चो की िेसदार टोवपयाीं लसिाती है । हा, इतना जरुर कहती कक
उसका रीं ग कैसा ननखर आया है, हाथ पावीं कैसे मि
ु ायम यह पड गये है ककसी बडे घर की रानी मािम
ू होती
है । मगर स्वभाव वही है , वही मीठी बोिी है । वही मरु ौवत, वही हसमख
ु चेहरा।
इस तरह एक हफते इस सरि और पववत्र जीवन का आनन्द उठाने के बाद दोनो ददल्िी वापस आये
और अब दस साि गज
ु रने पर भी साि में एक बार उस झोपडे के नसीब जागते हैं। वह मह
ु ब्बत की दीवार
अभी तक उन दोनो प्रेलमयों को अपनी छाया में आराम दे ने के लिए खडी है ।

-- जमाना , जनवरी 1913

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ममलाप

िा िा ज्ञानचन्द बैठे हुए दहसाब–ककताब जाच रहे थे कक उनके सप


ु त्र
ु बाबू नानकचन्द आये और बोिे-
दादा, अब यहाीं पडे –पडे जी उसता गया, आपकी आज्ञा हो तो मौ सैर को ननकि जाऊीं दो एक
महीने में िौट आऊगा।
नानकचन्द बहुत सश
ु ीि और नवयवु क था। रीं ग पीिा आींखो के धगदम हिके स्याह धब्बे कींधे झक
ु े हुए।
ज्ञानचन्द ने उसकी तरफ तीखी ननगाह से दे खा और व्यींगपणम स्वर मे बोिे –क्यो क्या यहाीं तुम्हारे लिए
कुछ कम ददिचक्स्पय ॉँ है?
ज्ञानचन्द ने बेटे को सीधे रास्ते पर िोने की बहुत कोलशश की थी मगर सफि न हुए। उनकी ड ट- ॉँ
फटकार और समझाना-बझ ु ाना बेकार हुआ। उसकी सींगनत अच्छी न थी। पीने वपिाने और राग-रीं ग में डूबा
रहता था। उन्हें यह नया प्रस्ताव क्यों पसन्द आने िगा, िेककन नानकचन्द उसके स्वभाव से पररधचत था।
बेधडक बोिा- अब यह ॉँ जी नहीीं िगता। कश्मीर की बहुत तारीफ सन
ु ी है, अब वहीीं जाने की सोचना हू।
ज्ञानचन्द- बेहरत है, तशरीफ िे जाइए।
ॉँ सौ रुपये की सख्त जरूरत है ।
नानकचन्द- (हीं सकर) रुपये को ददिवाइए। इस वक्त प च
ज्ञानचन्द- ऐसी कफजि
ू बातों का मझसे क्जक्र न ककया करो, मैं तुमको बार-बार समझा चक
ु ा।
नानकचन्द ने हठ करना शरू ू े िािा इनकार करते रहे , यह ॉँ तक कक नानकचन्द
ु ककया और बढ़
झझिाकर
ू बोिा- अच्छा कुछ मत दीक्जए, मैं यों ही चिा जाऊगा।
ू करके कहा- बेशक, तुम ऐसे ही दहम्मतवर हो। वह ॉँ भी तुम्हारे भाई-बन्द
ज्ञानचन्द ने किेजा मजबत
बैठे हुए हैं न!
नानकचन्द- मझ
ु े ककसी की परवाह नहीीं। आपका रुपया आपको मब
ु ारक रहे ।
नानकचन्द की यह चाि कभी पट नहीीं पडती थी। अकेिा िडका था, बढ़
ू े िािा साहब ढीिे पड गए।
रुपया ददया, खुशामद की और उसी ददन नानकचन्द कश्मीर की सैर के लिए रवाना हुआ।

म गर नानकचन्द यह ॉँ से अकेिा न चिा। उसकी प्रेम की बातें आज सफि हो गयी थीीं। पडोस में बाबू
रामदास रहते थे। बेचारे सीधे-सादे आदमी थे, सब
ु ह दफ्तर जाते और शाम को आते और इस बीच
नानकचन्द अपने कोठे पर बैठा हुआ उनकी बेवा िडकी से मह ु ब्बत के इशारे ककया करता। यह ॉँ तक कक
अभागी िलिता उसके जाि में आ फॅंसी। भाग जाने के मींसब
ू े हुए।
आधी रात का वक्त था, िलिता एक साडी पहने अपनी चारपाई पर करवटें बदि रही थी। जेवरों को
उतारकर उसने एक सन्दक
ू चे में रख ददया था। उसके ददि में इस वक्त तरह-तरह के खयाि दौड रहे थे
और किेजा जोर-जोर से धडक रहा था। मगर चाहे और कुछ न हो, नानकचन्द की तरफ से उसे बेवफाई का
जरा भी गुमान न था। जवानी की सबसे बडी नेमत मह
ु ब्बत है और इस नेमत को पाकर िलिता अपने को
खुशनसीब समझ रही थी। रामदास बेसध ु सो रहे थे कक इतने में कुण्डी खटकी। िलिता चौंककर उठ खडी
ू चा उठा लियाीं एक बार इधर-उधर हसरत-भरी ननगाहों से दे खा और दबे प वॉँ
हुई। उसने जेवरों का सन्दक
चौंक-चौककर कदम उठाती दे हिीज में आयी और कुण्डी खोि दी। नानकचन्द ने उसे गिे से िगा लिया।
बग्घी तैयार थी, दोनों उस पर जा बैठे।
सब
ु ह को बाबू रामदास उठे , िलित न ददखायी दी। घबराये, सारा घर छान मारा कुछ पता न चिा।
बाहर की कुण्डी खुिी दे खी। बग्घी के ननशान नजर आये। सर पीटकर बैठ गये। मगर अपने ददि का द2दम
ककससे कहते। हसी और बदनामी का डर जबान पर मोहर हो गया। मशहूर ककया कक वह अपने नननहाि
ु ते ही भ पॉँ गये कक कश्मीर की सैर के कुछ और ही माने थे। धीरे -धीरे
और गयी मगर िािा ज्ञानचन्द सन
ु ल्िे में फैि गई। यह ॉँ तक कक बाबू रामदास ने शमम के मारे आत्महत्या कर िी।
यह बात सारे मह

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मु हब्बत की सरगलममयाीं नतीजे की तरफ से बबिकुि बेखबर होती हैं। नानकचन्द क्जस वक्त बग्घी में
िलित के साथ बैठा तो उसे इसके लसवाय और कोई खयाि ने था कक एक यव
ु ती मेरे बगि में बैठी है,
क्जसके ददि का मैं मालिक हू। उसी धन
ु में वह मस्त थाीं बदनामी का डर, कानन
ू का खटका, जीववका के
साधन, उन समस्याओीं पर ववचार करने की उसे उस वक्त फुरसत न थी। ह ,ॉँ उसने कश्मीर का इरादा छोड
ददया। किकत्ते जा पहुचा। ककफायतशारी का सबक न पढ़ा था। जो कुछ जमा-जथा थी, दो महीनों में खचम हो
गयी। िलिता के गहनों पर नौबत आयी। िेककन नानकचन्द में इतनी शराफत बाकी थी। ददि मजबत ू करके
ु ब्बत को गालिय ॉँ दीीं और ववश्वास ददिाया कक अब आपके पैर चम
बाप को खत लिखा, मह ू ने के लिए जी
बेकरार है , कुछ खचम भेक्जए। िािा साहब ने खत पढ़ा, तसकीन हो गयी कक चिो क्जन्दा है खैररयत से है ।
धम
ू -धाम से सत्यनारायण की कथा सन
ु ी। रुपया रवाना कर ददया, िेककन जवाब में लिखा-खैर, जो कुछ
तम्
ु हारी ककस्मत में था वह हुआ। अभी इधर आने का इरादा मत करो। बहुत बदनाम हो रहे हो। तम् ु हारी
वजह से मझ ु े भी बबरादरी से नाता तोडना पडेगा। इस तफ
ू ान को उतर जाने दो। तम
ु हें खचम की तकिीफ न
होगी। मगर इस औरत की बाींह पकडी है तो उसका ननबाह करना, उसे अपनी ब्याहता स्त्री समझो।
नानकचन्द ददि पर से धचन्ता का बोझ उतर गया। बनारस से माहवार वजीफा लमिने िगा। इधर
िलिता की कोलशश ने भी कुछ ददि को खीींचा और गो शराब की ित न टूटी और हफ्ते में दो ददन जरूर
धथयेटर दे खने जाता, तो भी तबबयत में क्स्थरता और कुछ सींयम आ चिा था। इस तरह किकत्ते में उसने
तीन साि काटे । इसी बीच एक प्यारी िडकी के बाप बनने का सौभाग्य हुआ, क्जसका नाम उसने कमिा
रक्खा।

ती सरा साि गज ु रा था कक नानकचन्द के उस शाक्न्तमय जीवन में हिचि पैदा हुई। िािा ज्ञानचन्द
का पचासव ॉँ साि था जो दहन्दोस्तानी रईसों की प्राकृनतक आयु है । उनका स्वगमवास हो गया और
जयोंही यह खबर नानकचन्द को लमिी वह िलिता के पास जाकर चीखें मार-मारकर रोने िगा। क्जन्दगी के
नये-नये मसिे अब उसके सामने आए। इस तीन साि की सभिी हुई क्जन्दगी ने उसके ददि शोहदे पन और
नशेबाजी क खयाि बहुत कुछ दरू कर ददये थे। उसे अब यह कफक्र सवार हुई कक चिकर बनारस में अपनी
जायदाद का कुछ इन्तजाम करना चादहए, वनाम सारा कारोबार में अपनी जायदाद का कुछ इन्तजाम करना
ू में लमि जाएगा। िेककन िलिता को क्या करू। अगर इसे वह ॉँ लिये चिता
चादहए, वनाम सारा कारोबार धि
हू तो तीन साि की परु ानी घटनाएीं ताजी हो जायेगी और कफर एक हिचि पैदा होगी जो मझ ु े हूक्काम
और हमजोहिय ॉँ में जिीि कर दे गी। इसके अिावा उसे अब काननू ी औिाद की जरुरत भी नजर आने िगी
यह हो सकता था कक वह िलिता को अपनी ब्याहता स्त्री मशहूर कर दे ता िेककन इस आम खयाि को दरू
करना असम्भव था कक उसने उसे भगाया हैं िलिता से नानकचन्द को अब वह मह ु ब्बत न थी क्जसमें ददम
होता है और बेचन
ै ी होती है । वह अब एक साधारण पनत था जोगिे में पडे हुए ढोि को पीटना ही अपना
धमम समझता है, क्जसे बीबी की मह
ु ब्बत उसी वक्त याद आती है , जब वह बीमार होती है । और इसमे
अचरज की कोई बात नही है अगर क्जींदगीीं की नयी नयी उमींगों ने उसे उकसाना शरू
ु ककया। मसब
ू े पैदा
होने िेगे क्जनका दौित और बडे िोगों के मेि जोि से सबींध है मानव भावनाओीं की यही साधारण दशा
है । नानकचन्द अब मजबत
ू इराई के साथ सोचने िगा कक यहाीं से क्योंकर भागू। अगर िजाजत िेकर जाता
हूीं। तो दो चार ददन में सारा पदाम फाश हो जाएगा। अगर हीिा ककये जाता हू तो आज के तीसरे ददन
िलिता बनरस में मेरे सर पर सवार होगी कोई ऐसी तरकीब ननकािींू कक इन सम्भावनओीं से मक्ु क्त लमिे।
सोचते-सोचते उसे आखखर एक तदबीर सझ
ु ी। वह एक ददन शाम को दररया की सैर का बाहाना करके चिा
और रात को घर पर न अया। दस
ू रे ददन सब
ु ह को एक चौकीदार िलिता के पास आया और उसे थाने में िे
गया। िलिता है रान थी कक क्या माजरा है । ददि में तरह-तरह की दलु शचन्तायें पैदा हो रही थी वह ॉँ जाकर
जो कैकफयत दे खी तो दनू नया आींखों में अींधरी हो गई नानकचन्द के कपडे खून में तर-ब-तर पडे थे उसकी
वही सनु हरी घडी वही खूबसरू त छतरी, वही रे शमी साफा सब वहा मौजूद था। जेब मे उसके नाम के छपे हुए
काडम थे। कोई सींदेश न रहा कक नानकचन्द को ककसी ने कत्ि कर डािा दो तीन हफ्ते तक थाने में
तककीकातें होती रही और, आखखर कार खन
ू ी का पता चि गया पलु िस के अफसरा को बडे बडे इनाम
लमिे।इसको जासस
ू ी का एक बडा आश्चयम समझा गया। खन
ू ी नेप्रेम की प्रनतद्वन्द्ववता के जोश में यह

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काम ककया। मगर इधर तो गरीब बेगन
ु ाह खन
ू ी सि
ू ी पर चढ़ा हुआ था। और वहा बनारस में नानक चन्द
की शादी रचायी जा रही थी।
5

िा िा नानकचन्द की शादी एक रईस घराने में हुई और तब धीरे धीरे कफर वही परु ाने उठने बैठनेवािे
आने शरु
ु हुए कफर वही मजलिसे जमीीं और कफर वही सागर-ओ-मीना के दौर चिने िगे। सयींम
का कमजोर अहाता इन ववषय –वासना के बटमारो को न रोक सका। ह ,ॉँ अब इस पीने वपिाने मे कुछ
परदा रखा जाता है। और ऊपर से थोडी सी गम्भीरता बनाये रखी जाती है साि भर इसी बहार में गज
ु रा
नवेिी बहूघर में कुढ़ कुढ़कर मर गई। तपेददक ने उसका काम तमाम कर ददया। तब दस ू री शादी हुई। मगर
इस स्त्री में नानकचन्द की सौन्दयम प्रेमी आींखो के लिए लिए कोई आकषमण न था। इसका भी वही हाि
हुआ। कभी बबना रोये कौर मींह
ु में नही ददया। तीन साि में चि बसी। तब तीसरी शादी हुई। यह औरत
बहुत सन्
ु दर थी अचछी आभष ू णों से सस
ु क्जजत उसने नानकचन्द के ददि मे जगह कर िी एक बच्चा भी
पैदा हुआ था और नानकचन्द गाहमक्स्थ्क आनींदों से पररधचत होने िगा। दनु नया के नाते ररशते अपनी तरफ
खीींचने िगे मगर प्िेग के लिए ही सारे मींसब
ू े धि
ू में लमिा ददये। पनतप्राणा स्त्री मरी, तीन बरस का
प्यारा िडका हाथ से गया। और ददि पर ऐसा दाग छोड गया क्जसका कोई मरहम न था। उच्छश्रख
ीं ृ िता भी
चिी गई ऐयाशी का भी खात्मा हुआ। ददि पर रीं जोगम छागया और तबबयत सींसार से ववरक्त हो गयी।
6

जी
वन की दघु ट
म नाओीं में अकसर बडे महत्व के नैनतक पहिू नछपे हुआ करते है । इन सइमों ने
नानकचन्द के ददि में मरे हुए इन्सान को भी जगा ददया। जब वह ननराशा के यातनापण ू म
अकेिपन में पडा हुआ इन घटनाओीं को याद करता तो उसका ददि रोने िगता और ऐसा मािम ू होता कक
ईश्वर ने मझ
ु े मेरे पापों की सजा दी है धीरे धीरे यह ख्याि उसके ददि में मजबत
ू हो गया। ऊफ मैने उस
मासम
ू औरत पर कैसा जूल्म ककया कैसी बेरहमी की! यह उसी का दण्ड है। यह सोचते-सोचते िलिता की
मायस
ू तस्वीर उसकी आखों के सामने खडी हो जाती और प्यारी मख
ु डेवािी कमिा अपने मरे हूए सौतेि
भाई के साथ उसकी तरफ प्यार से दौडती हुई ददखाई दे ती। इस िम्बी अवधध में नानकचन्द को िलिता
की याद तो कई बार आयी थी मगर भोग वविास पीने वपिाने की उन कैकफयातो ने कभी उस खयाि को
जमने नहीीं ददया। एक धध
ु िा-सा सपना ददखाई ददया और बबखर गया। मािम
ू नहीदोनो मर गयी या क्जन्दा
है । अफसोस! ऐसी बेकसी की हाित में छोउ़कर मैंने उनकी सध
ु तक न िी। उस नेकनामी पर धधक्कार है
क्जसके लिए ऐसी ननदम यता की कीमत दे नी पडे। यह खयाि उसके ददि पर इस बरु ी तरह बैठा कक एक
रोज वह किकत्ता के लिए रवाना हो गया।
सबु ह का वक्त था। वह किकत्ते पहुचा और अपने उसी परु ाने घर को चिा। सारा शहर कुछ हो गया
था। बहुत तिाश के बाद उसे अपना परु ाना घर नजर आया। उसके ददि में जोर से धडकन होने िगी और
भावनाओीं में हिचि पैदा हो गयी। उसने एक पडोसी से पछ
ू ा-इस मकान में कौन रहता है ?
बढ़
ू ा बींगािी था, बोिा-हाम यह नहीीं कह सकता, कौन है कौन नहीीं है । इतना बडा मि
ु क
ु में कौन
ककसको जानता है ? ह ,ॉँ एक िडकी और उसका बढ़
ू ा म ,ॉँ दो औरत रहता है। ववधवा हैं, कपडे की लसिाई
करता है । जब से उसका आदमी मर गया, तब से यही काम करके अपना पेट पािता है ।
इतने में दरवाजा खि
ु ा और एक तेरह-चौदह साि की सन् ु दर िडकी ककताव लिये हुए बाहर ननकिी।
नानकचन्द पहचान गया कक यह कमिा है । उसकी ऑ ींखों में ऑ ींसू उमड आए, बेआक्ख्तयार जी चाहा कक उस
िडकी को छाती से िगा िे। कुबेर की दौित लमि गयी। आवाज को सम्हािकर बोिा-बेटी, जाकर अपनी
अम्म ॉँ से कह दो कक बनारस से एक आदमी आया है । िडकी अन्दर चिी गयी और थोडी दे र में िलिता
दरवाजे पर आयी। उसके चेहरे पर घघट
ू था और गो सौन्दयम की ताजगी न थी मगर आकषमण अब भी था।
ॉँ िी। पनतव्रत और धैयम और ननराशा की सजीव मनू तम सामने खडी
नानकचन्द ने उसे दे खा और एक ठीं डी स स
थी। उसने बहुत जोर िगाया, मगर जब्त न हो सका, बरबस रोने िगा। िलिता ने घींघ
ू ट की आउ़ से उसे
दे खा और आश्चयम के सागर में डूब गयी। वह धचत्र जो हृदय-पट पर अींककत था, और जो जीवन के
अल्पकालिक आनन्दों की याद ददिाता रहता था, जो सपनों में सामने आ-आकर कभी खश
ु ी के गीत सन
ु ाता
था और कभी रीं ज के तीर चभ
ु ाता था, इस वक्त सजीव, सचि सामने खडा था। िलिता पर ऐ बेहोशी छा

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गयी, कुछ वही हाित जो आदमी को सपने में होती है । वह व्यग्र होकर नानकचन्द की तरफ बढ़ी और रोती
हुई बोिी-मझ
ु े भी अपने साथ िे चिो। मझ ु से अब यह ॉँ नहीीं रहा जाता।
ु े अकेिे ककस पर छोड ददया है; मझ
िलिता को इस बात की जरा भी चेतना न थी कक वह उस व्यक्क्त के सामने खडी है जो एक जमाना
हुआ मर चक
ु ा, वनाम शायद वह चीखकर भागती। उस पर एक सपने की-सी हाित छायी हुई थी, मगर जब
नानकचनद ने उसे सीने से िगाकर कहा ‘िलिता, अब तुमको अकेिे न रहना पडेगा, तुम्हें इन ऑ ींखों की
पत
ु िी बनाकर रखूगा। मैं इसीलिए तुम्हारे पास आया हू। मैं अब तक नरक में था, अब तुम्हारे साथ स्वगम
को सखु भोगगा।’
ू तो िलिता चौंकी और नछटककर अिग हटती हुई बोिी-ऑ ींखों को तो यकीन आ गया
मगर ददि को नहीीं आता। ईश्वर करे यह सपना न हो!

-जमाना, जून १९१३

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मनािन

बा बू दयाशींकर उन िोगों में थे क्जन्हें उस वक्त तक सोहबत का मजा नहीीं लमिता जब तक कक वह


प्रेलमका की जबान की तेजी का मजा न उठायें। रूठे हुए को मनाने में उन्हें बडा आनन्द लमिता
कफरी हुई ननगाहें कभी-कभी मह
ु ब्बत के नशे की मतवािी ऑ ींखें से भी जयादा मोहक जान पडतीीं। आकषमक
िगती। झगडों में लमिाप से जयादा मजा आता। पानी में हिके-हिके झकोिे कैसा सम ॉँ ददखा जाते हैं। जब
तक दररया में धीमी-धीमी हिचि न हो सैर का ित्ु फ नहीीं।
अगर बाबू दयाशींकर को इन ददिचक्स्पयों के कम मौके लमिते थे तो यह उनका कसरू न था। धगररजा
स्वभाव से बहुत नेक और गम्भीर थी, तो भी चकींू क उनका कसरू न था। धगररजा स्वभाव से बहुत नेक और
गम्भीर थी, तो भी चींकू क उसे अपने पनत की रुधच का अनभु व हो चक
ु ा था इसलिए वह कभी-कभी अपनी
तबबयत के खखिाफ लसफम उनकी खानतर से उनसे रूठ जाती थी मगर यह बे-नीींव की दीवार हवा का एक
झोंका भी न सम्हाि सकती। उसकी ऑ ींखे, उसके होंठ उसका ददि यह बहुरूवपये का खेि जयादा दे र तक न
चिा सकते। आसमान पर घटायें आतीीं मगर सावन की नहीीं, कुआर की। वह डरती, कहीीं ऐसा न हो कक
हसी-हसी से रोना आ जाय। आपस की बदमजगी के ख्याि से उसकी जान ननकि जाती थी। मगर इन
मौकों पर बाबू साहब को जैसी-जैसी ररझाने वािी बातें सझ
ू तीीं वह काश ववद्याथी जीवन में सझ
ू ी होतीीं तो
वह कई साि तक कानन
ू से लसर मारने के बाद भी मामि
ू ी क्िकम न रहते।

द याशींकर को कौमी जिसों से बहुत ददिचस्पी थी। इस ददिचस्पी की बनु नयाद उसी जमाने में पडी जब
वह कानन ू की दरगाह के मज
ु ाववर थे और वह अक तक कायम थी। रुपयों की थैिी गायब हो गई थी
मगर कींधों में ददम मौजूद था। इस साि काींफ्रेंस का जिसा सतारा में होने वािा था। ननयत तारीख से एक
रोज पहिे बाबू साहब सतारा को रवाना हुए। सफर की तैयाररयों में इतने व्यस्त थे कक धगररजा से बातचीत
करने की भी फुसमत न लमिी थी। आनेवािी खलु शयों की उम्मीद उस क्षखणक ववयोग के खयाि के ऊपर भारी
थी।
कैसा शहर होगा! बडी तारीफ सन
ु ते हैं। दकन सौन्दयम और सींपदा की खान है । खब
ू सैर रहे गी। हजरत
तो इन ददि को खश
ु करनेवािे ख्यािों में मस्त थे और धगररजा ऑ ींखों में आींसू भरे अपने दरवाजे पर खडी
यह कैकफयि दे ख रही थी और ईश्वर से प्राथमना कर रही थी कक इन्हें खैररतय से िाना। वह खद
ु एक हफ्ता
कैसे काटे गी, यह ख्याि बहुत ही कष्ट दे नव
े ािा था।
धगररजा इन ववचारों में व्यस्त थी दयाशींकर सफर की तैयाररयों में । यह ॉँ तक कक सब तैयाररय ॉँ परू ी हो
गई। इक्का दरवाजे पर आ गया। बबसतर और रीं क उस पर रख ददये और तब ववदाई भें ट की बातें होने
िगीीं। दयाशींकर धगररजा के सामने आए और मस्ु कराकर बोिे-अब जाता हू।
धगररजा के किेजे में एक बछी-सी िगी। बरबस जी चाहा कक उनके सीने से लिपटकर रोऊ। ऑ ींसओ
ु ीं
की एक बाढ़-सी ऑ ींखें में आती हुई मािम
ू हुई मगर जब्त करके बोिी-जाने को कैसे कहू, क्या वक्त आ
गया?
इयाशींकर-ह ,ॉँ बक्ल्क दे र हो रही है ।
धगररजा-मींगि की शाम को गाडी से आओगे न?
दयाशींकर-जरूर, ककसी तरह नहीीं रूक सकता। तुम लसफम उसी ददन मेरा इींतजार करना।
धगररजा-ऐसा न हो भिू जाओ। सतारा बहुत अच्छा शहर है ।
दयाशींकर-(हसकर) वह स्वगम ही क्यों न हो, मींगि को यह ॉँ जरूर आ जाऊगा। ददि बराबर यहीीं रहे गा।
तुम जरा भी न घबराना।
यह कहकर धगररजा को गिे िगा लिया और मस्
ु कराते हुए बाहर ननकि आए। इक्का रवाना हो गया।
धगररजा पिींग पर बैठ गई और खब
ू रोयी। मगर इस ववयोग के दख ु , ऑ ींसओ
ु ीं की बाढ़, अकेिेपन के ददम
और तरह-तरह के भावों की भीड के साथ एक और ख्याि ददि में बैठा हुआ था क्जसे वह बार-बार हटाने की
कोलशश करती थी-क्या इनके पहिू में ददि नहीीं है! या है तो उस पर उन्हें परू ा-परू ा अधधकार है ? वह
मस्
ु कराहट जो ववदा होते वक्त दयाशींकर के चेहरे र िग रही थी, धगररजा की समझ में नहीीं आती थी।

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स तारा में बडी धध


ू म थी। दयाशींकर गाडी से उतरे तो वदीपोश वािींदटयरों ने उनका स्वागात ककया। एक
कफटन उनके लिए तैयार खडी थी। उस पर बैठकर वह काींफ्रेंस पींडाि की तरफ चिें दोनों तरफ झींडडय ॉँ
िहरा रही थीीं। दरवाजे पर बन्दवारें िटक रही थी। औरतें अपने झरोखों से और मदम बरामदों में खडे हो-
होकर खुशी से तालिय ॉँ बाजते थे। इस शान-शौकत के साथ वह पींडाि में पहुचे और एक खूबसरू त खेमे में
उतरे । यह ॉँ सब तरह की सवु वधाऍ ीं एकत्र थीीं, दस बजे काींफ्रेंस शरू
ु हुई। वक्ता अपनी-अपनी भाषा के जिवे
ददखाने िगे। ककसी के हसी-ददल्िगी से भरे हुए चटु कुिों पर वाह-वाह की धम ू मच गई, ककसी की आग
बरसानेवािे तकरीर ने ददिों में जोश की एक तहर-सी पेछा कर दी। ववद्वत्तापण
ू म भाषणों के मक
ु ाबिे में हसी-
ददल्िगी और बात कहने की खुबी को िोगों ने जयादा पसन्द ककया। श्रोताओीं को उन भाषणों में धथयेटर के
गीतों का-सा आनन्द आता था।
कई ददन तक यही हाित रही और भाषणों की दृक्श्ट से काींफ्रेंस को शानदार कामयाबी हालसि हुई।
आखखरकार मींगि का ददन आया। बाबू साहब वापसी की तैयाररय ॉँ करने िगे। मगर कुछ ऐसा सींयोग हुआ
कक आज उन्हें मजबरू न ठहरना पडा। बम्बई और य.ू पी. के डेिीगेटों में एक हाकी मैच ठहर गई। बाबू
दयाशींकर हाकी के बहुत अच्छे खखिाडी थे। वह भी टीम में दाखखि कर लिये गये थे। उन्होंने बहुत कोलशश
की कक अपना गिा छुडा िू मगर दोस्तों ने इनकी आनाकानी पर बबिकुि ध्यान न ददया। साहब, जो
जयादा बेतकल्िफ
ु थे, बोि-आखखर तुम्हें इतनी जल्दी क्यों है ? तुम्हारा दफ्तर अभी हफ्ता भर बींद है। बीवी
साहबा की जाराजगी के लसवा मझ
ु े इस जल्दबाजी का कोई कारण नहीीं ददखायी पडता। दयाशींकर ने जब
दे खा कक जल्द ही मझ ु ाम होने की फबनतय ॉँ कसी जाने वािी हैं, क्जससे जयादा
ु पर बीवी का गि
अपमानजनक बात मदम की शान में कोई दस
ू री नहीीं कही जा सकती, तो उन्होंने बचाव की कोई सरू त न
दे खकर वापसी मल्
ु तवी कर दी। और हाकी में शरीक हो गए। मगर ददि में यह पक्का इरादा कर लिया कक
शाम की गाडी से जरूर चिे जायेंगे, कफर चाहे कोई बीवी का गि
ु ाम नहीीं, बीवी के गि
ु ाम का बाप कहे , एक
न मानेंगे।
खैर, पाींच बजे खेि शन
ु ू हुआ। दोनों तरफ के खखिाडी बहुत तेज थे क्जन्होने हाकी खेिने के लसवा
क्जन्दगी में और कोई काम ही नहीीं ककया। खेि बडे जोश और सरगमी से होने िगा। कई हजार तमाशाई
जमा थे। उनकी तालिय ॉँ और बढ़ावे खखिाडडयों पर मारू बाजे का काम कर रहे थे और गें द ककसी अभागे की
ककस्मत की तरह इधर-उधर ठोकरें खाती कफरती थी। दयाशींकर के हाथों की तेजी और सफाई, उनकी पकड
और बेऐब ननशानेबाजी पर िोग हैरान थे, यह ॉँ तक कक जब वक्त खत्म होने में लसफम एक़ लमनट बाकी रह
गया था और दोनों तरफ के िोग दहम्मतें हार चक
ु े थे तो दयाशींकर ने गें द लिया और बबजिी की तरह
ववरोधी पक्ष के गोि पर पहुच गये। एक पटाखें की आवाज हुई, चारों तरफ से गोि का नारा बि
ु न्द हुआ!
इिाहाबाद की जीत हुई और इस जीत का सेहरा दयाशींकर के लसर था-क्जसका नतीजा यह हुआ कक बेचारे
दयाशींकर को उस वक्त भी रुकना पडा और लसफम इतना ही नहीीं, सतारा अमेचर क्िब की तरफ से इस जीत
की बधाई में एक नाटक खेिने का कोई प्रस्ताव हुआ क्जसे बध ु के रोज भी रवाना होने की कोई उम्मीद
बाकी न रही। दयाशींकर ने ददि में बहुत पेचोताब खाया मगर जबान से क्या कहते! बीवी का गूिाम कहिाने
ॉँ
का डर जबान बन्द ककये हुए था। हाि कक उनका ददि कह रहा था कक अब की दे वी रूठें गी तो लसफम
खश
ु ामदों से न मानेंगी।

बा बू दयाशींकर वादे के रोज के तीन ददन बाद मकान पर पहुचे। सतारा से धगररजा के लिए कई अनठ
तोहफे िाये थे। मगर उसने इन चीजों को कुछ इस तरह दे खा कक जैसे उनसे उसका जी भर गया
है । उसका चेहरा उतरा हुआ था और होंठ सख
ू े

ू े थे। दो ददन से उसने कुछ नहीीं खाया था। अगर चिते वक्त
दयाशींकर की आींख से आसू की चन्द बद ींू ें टपक पडी होतीीं या कम से कम चेहरा कुछ उदास और आवाज
कुछ भारी हो गयी होती तो शायद धगररजा उनसे न रूठती। आसओ
ु ीं की चन्द बदें
ू उसके ददि में इस खयाि
को तरो-ताजा रखतीीं कक उनके न आने का कारण चाहे ओर कुछ हो ननष्ठुरता हरधगज नहीीं है। शायद हाि
पछ
ू ने के लिए उसने तार ददया होता और अपने पनत को अपने सामने खैररयत से दे खकर वह बरबस उनके
सीने में जा धचमटती और दे वताओीं की कृतज्ञ होती। मगर आखों की वह बेमौका कींजस
ू ी और चेहरे की वह

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ननष्ठुर मस
ु कान इस वक्त उसके पहिू में खटक रही थी। ददि में खयाि जम गया था कक मैं चाहे इनके
लिए मर ही लमटू मगर इन्हें मेरी परवाह नहीीं है । दोस्तों का आग्रह और क्जद केवि बहाना है। कोई
ू ! मैं तो रात की रात बैठकर काटू और वह ॉँ मजे उडाये जाऍ!ीं
जबरदस्ती ककसी को रोक नहीीं सकता। खब
बाबू दयाशींकर को रूठों के मनाने में ववषेश दक्षता थी और इस मौके पर उन्होंने कोई बात, कोई
कोलशश उठा नहीीं रखी। तोहफे तो िाए थे मगर उनका जाद ू न चिा। तब हाथ जोडकर एक पैर से खडे हुए,
गुदगुदाया, तिव
ु े सहिाये, कुछ शोखी और शरारत की। दस बजे तक इन्हीीं सब बातों में िगे रहे । इसके बाद
खाने का वक्त आया। आज उन्होंने रूखी रोदटय ॉँ बडें शौक से और मामि ू ी से कुछ जयादा खायीीं-धगररजा के
हाथ से आज हफ्ते भर बाद रोदटय ॉँ नसीब हुई हैं, सतारे में रोदटयों को तरस गयें पडू डय ॉँ खाते-खाते आतों में
बायगोिे पड गये। यकीन मानो धगररजन, वह ॉँ कोई आराम न था, न कोई सैर, न कोई ित्ु फ। सैर और
ित्ु फ तो महज अपने ददि की कैकफयत पर मन
ु हसर है । बेकफक्री हो तो चदटयि मैदान में बाग का मजा
आता है और तबबयत को कोई कफक्र हो तो बाग वीराने से भी जयादा उजाड मािम
ू होता है। कम्बख्त ददि
तो हरदम यहीीं धरा रहता था, वह ॉँ मजा क्या खाक आता। तुम चाहे इन बातों को केवि बनावट समझ िो,
क्योंकक मैं तुम्हारे सामने दोषी हू और तम्
ु हें अधधकार है कक मझ
ु े झठ
ू ा, मक्कार, दगाबाज, वेवफा, बात
बनानेवािा जो चाहे समझ िो, मगर सच्चाई यही है जो मैं कह रहा हू। मैं जो अपना वादा परू ा नहीीं कर
सका, उसका कारण दोस्तों की क्जद थी।
दयाशींकर ने रोदटयों की खूब तारीफ की क्योंकक पहिे कई बार यह तरकीब फायदे मन्द साबबत हुई थी,
मगर आज यह मन्त्र भी कारगर न हुआ। धगररजा के तेवर बदिे ही रहे ।
तीसरे पहर दयाशींकर धगररजा के कमरे में गये और पींखा झिने िगे; यह ॉँ तक कक धगररजा झझिाकर

बोि उठी-अपनी नाजबरदाररय ॉँ अपने ही पास रखखये। मैंने हुजरू से भर पाया। मैं तम्
ु हें पहचान गयी, अब
धोखा नही खाने की। मझ
ु े न मािम
ू था कक मझ ु से आप यों दगा करें गे। गरज क्जन शब्दों में बेवफाइयों और
ननष्ठुरताओीं की लशकायतें हुआ करती हैं वह सब इस वक्त धगररजा ने खचम कर डािे।

शा म हुई। शहर की गलियों में मोनतये और बेिे की िपटें आने िगीीं। सडकों पर नछडकाव होने िगा
और लमट्टी की सोंधी खशु बू उडने िगी। धगररजा खाना पकाने जा रही थी कक इतने में उसके
दरवाजे पर इक्का आकर रूका और उसमें से एक औरत उतर पडी। उसके साथ एक महरी थी उसने ऊपर
आकर धगररजा से कहा—बहू जी, आपकी सखी आ रही हैं।
यह सखी पडोस में रहनेवािी अहिमद साहब की बीवी थीीं। अहिमद साहब बढ़
ू े आदमी थे। उनकी
पहिी शादी उस वक्त हुई थी, जब दधू के द तॉँ न टूटे थे। दस
ू री शादी सींयोग से उस जमाने में हुई जब मह ु
ॉँ भी बाकी न था। िोगों ने बहुत समझाया कक अब आप बढ़
में एक द त ू े हुए, शादी न कीक्जए, ईश्वर ने
िडके ददये हैं, बहुए हैं, आपको ककसी बात की तकिीफ नहीीं हो सकती। मगर अहिमद साहब खुद बढ् ु डे
और दनु नया दे खे हुए आदमी थे, इन शभु धचींतकों की सिाहों का जवाब व्यावहाररक उदाहरणों से ददया करते
थे—क्यों, क्या मौत को बढ़
ू ों से कोई दश्ु मनी है ? बढ़
ू े गरीब उसका क्या बबगाडते हैं? हम बाग में जाते हैं तो
मरु झाये हुए फूि नहीीं तोडते, हमारी आखें तरो-ताजा, हरे -भरे खूबसरू त फूिों पर पडती हैं। कभी-कभी गजरे
वगैरह बनाने के लिए कलिय ॉँ भी तोड िी जाती हैं। यही हाित मौत की है। क्या यमराज को इतनी समझ
भी नहीीं है। मैं दावे के साथ कह सकता हू कक जवान और बच्चे बढ़ ू ों से जयादा मरते हैं। मैं अभी जयों का
त्यो हू, मेरे तीन जवान भाई, प च ॉँ बहनें, बहनों के पनत, तीनों भावजें, चार बेटे, प च
ॉँ बेदटय ,ॉँ कई भतीजे,
ॉँ
सब मेरी आखों के सामने इस दनु नया से चि बसे। मौत सबको ननगि गई मगर मेरा बाि ब का न कर
सकी। यह गित, बबिकुि गित है कक बढ़
ू े आदमी जल्द मर जाते हैं। और असि बात तो यह है कक जबान
बीवी की जरूरत बढ़ ु ापे में ही होती है। बहुए मेरे सामने ननकिना चाहें और न ननकि सकती हैं, भावजें खुद
बढ़
ू ी हुईं, छोटे भाई की बीवी मेरी परछाईं भी नही दे ख सकती है , बहनें अपने-अपने घर हैं, िडके सीधे मह ींु
बात नहीीं करते। मैं ठहरा बढ़
ू ा, बीमार पडू तो पास कौन फटके, एक िोटा पानी कौन दे , दे खू ककसकी आख
से, जी कैसे बहिाऊ? क्या आत्महत्या कर ि।ू या कहीीं डूब मरू? इन दिीिों के मक
ु ाबबिे में ककसी की
जबान न खि
ु ती थी।
गरज इस नयी अहिमददन और धगररजा में कुछ बहनापा सा हो गया था, कभी-कभी उससे लमिने आ
जाया करती थी। अपने भाग्य पर सन्तोष करने वािी स्त्री थी, कभी लशकायत या रीं ज की एक बात जबान

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से न ननकािती। एक बार धगररजा ने मजाक में कहा था कक बढ़
ू े और जवान का मेि अच्छा नहीीं होता। इस
पर वह नाराज हो गयी और कई ददन तक न आयी। धगररजा महरी को दे खते ही फौरन ऑ ींगन में ननकि
आयी और गो उस इस वक्त मेहमान का आना नागवारा गज
ु रा मगर महरी से बोिी-बहन, अच्छी आयीीं, दो
घडी ददि बहिेगा।
जरा दे र में अहिमददन साहब गहने से िदी हुई, घींघ
ू ट ननकािे, छमछम करती हुई आगन मे आकर
खडी हो गईं। धगररजा ने करीब आकर कहा-वाह सखी, आज तो तुम दि ु दहन बनी हो। मझ
ु से पदाम करने िगी
हो क्या? यह कहकर उसने घींघ
ू ट हटा ददया और सखी का मह
ींु दे खते ही चौंककर एक कदम पीछे हट गई।
दयाशींकर ने जोर से कहकहा िगाया और धगररजा को सीने से लिपटा लिया और ववनती के स्वर में बोिे-
धगररजन, अब मान जाओ, ऐसी खता कफर कभी न होगी। मगर धगररजन अिग हट गई और रुखाई से
बोिी-तम्
ु हारा बहुरूप बहुत दे ख चक
ु ी, अब तम्
ु हारा असिी रूप दे खना चाहती हू।

द याशींकर प्रेम-नदी की हिकी-हिकी िहरों का आनन्द तो जरूर उठाना चाहते थे मगर तफ


ू ान से उनकी
तबबयत भी उतना ही घबराती थी क्जतना धगररजा की, बक्ल्क शायद उससे भी जयादा। हृदय-पववतमन के
क्जतने मींत्र उन्हें याद थे वह सब उन्होंने पढ़े और उन्हें कारगर न होते दे खकर आखखर उनकी तबबयत को
भी उिझन होने िगी। यह वे मानते थे कक बेशक मझ
ु से खता हुई है मगर खता उनके खयाि में ऐसी ददि
जिानेवािी सजाओीं के काबबि न थी। मनाने की किा में वह जरूर लसद्धहस्त थे मगर इस मौके पर
उनकी अक्ि ने कुछ काम न ददया। उन्हें ऐसा कोई जाद ू नजर नहीीं आता था जो उठती हुई कािी घटाओीं
और जोर पकडते हुए झोंकों को रोक दे । कुछ दे र तक वह उन्हीीं ख्यािों में खामोश खडे रहे और कफर बोिे-
आखखर धगररजन, अब तमु क्या चाहती हो।
धगररजा ने अत्यन्त सहानभ
ु नू त शन्
ू य बेपरवाही से मह
ु फेरकर कहा-कुछ नहीीं।
दयाशींकर-नहीीं, कुछ तो जरूर चाहती हो वनाम चार ददन तक बबना दाना-पानी के रहने का क्या मतिब!
क्या मझ
ु पर जान दे ने की ठानी है ? अगर यही फैसिा है तो बेहतर है तुम यों जान दो और मैं कत्ि के
ॉँ
जुमम में फ सी पाऊ, ककस्सा तमाम हो जाये। अच्छा होगा, बहुत अच्छा होगा, दनु नया की परे शाननयों से
छुटकारा हो जाएगा।
यह मन्तर बबिकुि बेअसर न रहा। धगररजा आखों में आसू भरकर बोिी-तुम खामखाह मझ
ु से झगडना
चाहते हो और मझ
ु े झगडे से नफरत है । मैं तम
ु से न बोिती हू और न चाहती हू कक तम ु मझु से बोिने की
तकिीफ गवारा करो। क्या आज शहर में कहीीं नाच नहीीं होता, कहीीं हाकी मैच नहीीं है, कहीीं शतरीं ज नहीीं
बबछी हुई है। वहीीं तम्
ु हारी तबबयत जमती है, आप वहीीं जाइए, मझ
ु े अपने हाि पर रहने दीक्जए मैं बहुत
अच्छी तरह हू।
दयाशींकर करुण स्वर में बोिे-क्या तुमने मझ
ु े ऐसा बेवफा समझ लिया है ?
धगररजा-जी ह ,ॉँ मेरा तो यही तजुबाम है।
दयाशींकर-तो तुम सख्त गिती पर हो। अगर तुम्हारा यही ख्याि है तो मैं कह सकता हू कक औरतों
...
की अन्तदृमक्ष्ट के बारे में क्जतनी बातें सन
ु ी हैं वह सब गित हैं। धगरजन, मेरे भी ददि है
धगररजा ने बात काटकर कहा-सच, आपके भी ददि है यह आज नयी बात मािम ू हुईं।
दयाशींकर कुछ झेंपकर बोिे-खैर जैसा तम
ु समझों। मेरे ददि न सही, मेर क्जगर न सही, ददमाग तो
साफ जादहर है कक ईश्वर ने मझ
ु े नहीीं ददया वनाम वकाित में फेि क्यों होता? गोया मेरे शरीर में लसफम पेट
है , मैं लसफम खाना जानता हू और सचमच
ु है भी ऐसा ही, तुमने मझु े कभी फाका करते नहीीं दे खा। तुमने कई
बार ददन-ददन भर कुछ नहीीं खाया है, मैं पेट भरने से कभी बाज नहीीं आया। िेककन कई बार ऐसा भी हुआ
है कक ददि और क्जगर क्जस कोलशश में असफि रहे वह इसी पेट ने परू ी कर ददखाई या यों कहों कक कई
बार इसी पेट ने ददि और ददमाग और क्जगर का काम कर ददखाया है और मझ
ु े अपने इस अजीब पेट पर
कुछ गवम होने िगा था मगर अब मािम ू हुआ कक मेरे पेट की अजीब पेट पर कुछ गवम होने िगा था मगर
ू हुआ कक मेरे पेट की बेहयाइय ॉँ िोगों को बरु ी मािम
...
अब मािम ू होती है इस वक्त मेरा खाना न बने। मैं
कुछ न खाऊींगा।
धगररजा ने पनत की तरफ दे खा, चेहरे पर हिकी-सी मस्
ु कराहट थी, वह यह कर रही थी कक यह
आखखरी बात तम्
ु हें जयादा सम्हिकर कहनी चादहए थी। धगररजा और औरतों की तरह यह भि
ू जाती थी कक
मदों की आत्मा को भी कष्ट हो सकता है । उसके खयाि में कष्ट का मतिब शारीररक कष्ट था। उसने
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दयाशींकर के साथ और चाहे जो ररयायत की हो, खखिाने-वपिाने में उसने कभी भी ररयायत नहीीं की और
जब तक खाने की दै ननक मात्रा उनके पेट में पहुचती जाय उसे उनकी तरफ से जयादा अन्दे शा नहीीं होता
था। हजम करना दयाशींकर का काम था। सच पनू छये तो धगररजा ही की सक्ख्यतों ने उन्हें हाकी का शौक
ददिाया वनाम अपने और सैकडों भाइयों की तरह उन्हें दफ्तर से आकर हुक्के और शतरीं ज से जयादा
मनोरीं जन होता था। धगररजा ने यह धमकी सन
ु ी तो त्योररयाीं चढ़ाकर बोिी-अच्छी बात है , न बनेगा।
दयाशींकर ददि में कुछ झेंप-से गये। उन्हें इस बेरहम जवाब की उम्मीद न थी। अपने कमरे मे जाकर
अखबार पढ़ने िगे। इधर धगररजा हमेशा की तरह खाना पकाने में िग गई। दयाशींकर का ददि इतना टूट
गया था कक उन्हें खयाि भी न था कक धगररजा खाना पका रही होगी। इसलिए जब नौ बजे के करीब उसने
आकर कहा कक चिो खाना खा िो तो वह ताजजुब से चौंक पडे मगर यह यकीन आ गया कक मैंने बाजी
मार िी। जी हरा हुआ, कफर भी ऊपर से रुखाई से कहा-मैंने तो तम
ु से कह ददया था कक आज कुछ न
खाऊगा।
धगररजा-चिो थोडा-सा खा िो।
दयाशींकर-मझ
ु े जरा भी भख
ू नहीीं है ।
धगररजा-क्यों? आज भख
ू नहीीं िगी?
दयाशींकर-तुम्हें तीन ददन से भख
ू क्यों नहीीं िगी?
धगररजा-मझु े तो इस वजह से नहीीं िगी कक तुमने मेरे ददि को चोट पहुचाई थी।
दयाशींकर-मझु े भी इस वजह से नहीीं िगी कक तुमने मझ ु े तकिीफ दी है ।
ॉँ
दयाशींकर ने रुखाई के साथ यह बातें कहीीं और अब धगररजा उन्हें मनाने िगी। फौरन प सा पिट
गया। अभी एक ही क्षण पहिे वह उसकी खश
ु ामदें कर रहे थे, मज ॉँ
ु ररम की तरह उसके सामने हाथ ब धे
खडे, धगडधगडा रहे थे, लमन्नतें करते थे और अब बाजी पिटी हुई थी, मज
ु ररम इन्साफ की मसनद पर बैठा
हुआ था। महु ब्बत की राहें मकडी के जािों से भी पेचीदा हैं।
दयाशींकर ने ददन में प्रनतज्ञा की थी कक मैं भी इसे इतना ही हैरान करूगा क्जतना इसने मझ
ु े ककया है
और थोडी दे र तक वह योधगयों की तरह क्स्थरता के साथ बैठे रहे । धगररजा न उन्हें गुदगुदाया, तिव
ु े
खुजिाये, उनके बािो में कींघी की, ककतनी ही िभ ु ाने वािी अदाए खचम कीीं मगर असर न हुआ। तब उसने
अपनी दोनों ब हेंॉँ उनकी गदम न में डाि दीीं और याचना और प्रेम से भरी हुई आखें उठाकर बोिी-चिो, मेरी
कसम, खा िो।
ॉँ बह गई। दयाशींकर ने धगररजा को गिे से िगा लिया। उसके भोिेपन और भावों की सरिता
फूस की ब ध
ने उनके ददि पर एक अजीब ददम नाक असर पेदा ककया। उनकी आखे भी गीिी हो गयीीं। आह, मैं कैसा
जालिम हू, मेरी बेवफाइयों ने इसे ककतना रुिाया है, तीन ददन तक उसके आसू नहीीं थमे, आखे नहीीं झपकीीं,
तीन ददन तक इसने दाने की सरू त नहीीं दे खी मगर मेरे एक जरा-से इनकार ने, झठ ू े नकिी इनकार ने,
चमत्कार कर ददखाया। कैसा कोमि हृदय है ! गुिाब की पींखुडी की तरह, जो मरु झा जाती है मगर मैिी नहीीं
होती। कह ॉँ मेरा ओछापन, खुदगजी और कह ॉँ यह बेखुदी, यह त्यागा, यह साहस।
दयाशींकर के सीने से लिपटी हुई धगररजा उस वक्त अपने प्रबि आकषमण से अनके ददि को खीींचे िेती
थी। उसने जीती हुई बाजी हारकर आज अपने पनत के ददि पर कब्जा पा लिया। इतनी जबदम स्त जीत उसे
कभी न हुई थी। आज दयाशींकर को मह ु ब्बत और भोिेपन की इस मरू त पर क्जतना गवम था उसका अनम
ु ान
िगाना कदठन है । जरा दे र में वह उठ खडे हुए और बोिे-एक शतम पर चिगा।

धगररजा-क्या?
दयाशींकर-अब कभी मत रूठना।
धगररजा-यह तो टे ढ़ी शतम है मगर...मींजरू है।
दो-तीन कदम चिने के बाद धगररजा ने उनका हाथ पकड लिया और बोिी-तुम्हें भी मेरी एक शतम
माननी पडेगी।
दयाशींकर-मैं समझ गया। तुमसे सच कहता हू, अब ऐसा न होगा।
दयाशींकर ने आज धगररजा को भी अपने साथ खखिाया। वह बहुत िजायी, बहुत हीिे ककये, कोई
सन
ु ेगा तो क्या कहे गा, यह तम्
ु हें क्या हो गया है । मगर दयाशींकर ने एक न मानी और कई कौर धगररजा को
अपने हाथ से खखिाये और हर बार अपनी मह
ु ब्बत का बेददी के साथ मआ
ु वजा लिया।
खाते-खाते उन्होंने हसकर धगररजा से कहा-मझ
ु े न मािम
ू था कक तुम्हें मनाना इतना आसान है ।

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धगररजा ने नीची ननगाहों से दे खा और मस्
ु करायी, मगर मह
ु से कुछ न बोिी।
--उदम ू ‘प्रेम पचीसी’ से

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अाँधेर

ना
दक

ॉँ
गपींचमी आई। साठे के क्जन्दाददि नौजवानों ने रीं ग-बबरीं गे ज नघये
मदामना सदायें गजने
बनवाये। अखाडे में ढोि की
िगीीं। आसपास के पहिवान इकट्ठे हुए और अखाडे पर तम्बोलियों ने अपनी
ु ानें सजायीीं क्योंकक आज कुश्ती और दोस्ताना मक
ु ाबिे का ददन है । औरतों ने गोबर से अपने आगन िीपे
और गाती-बजाती कटोरों में दध
ू -चावि लिए नाग पज
ू ने चिीीं।
साठे और पाठे दो िगे हुए मौजे थे। दोनों गींगा के ककनारे । खेती में जयादा मशक्कत नहीीं करनी
पडती थी इसीलिए आपस में फौजदाररय ॉँ खब ू होती थीीं। आददकाि से उनके बीच होड चिी आती थी।
साठे वािों को यह घमण्ड था कक उन्होंने पाठे वािों को कभी लसर न उठाने ददया। उसी तरह पाठे वािे अपने
प्रनतद्वींद्ववयों को नीचा ददखिाना ही क्जन्दगी का सबसे बडा काम समझते थे। उनका इनतहास ववजयों की
कहाननयों से भरा हुआ था। पाठे के चरवाहे यह गीत गाते हुए चिते थे:

साठे वािे कायर सगरे पाठे वािे हैं सरदार

और साठे के धोबी गाते:

साठे वािे साठ हाथ के क्जनके हाथ सदा तरवार।


उन िोगन के जनम नसाये क्जन पाठे मान िीन अवतार।।

गरज आपसी होड का यह जोश बच्चों में म ॉँ दध


ू के साथ दाखखि होता था और उसके प्रदशमन का सबसे
अच्छा और ऐनतहालसक मौका यही नागपींचमी का ददन था। इस ददन के लिए साि भर तैयाररय ॉँ होती रहती
थीीं। आज उनमें माके की कुश्ती होने वािी थी। साठे को गोपाि पर नाज था, पाठे को बिदे व का गराम।
दोनों सरू मा अपने-अपने फरीक की दआ
ु ए और आरजुए लिए हुए अखाडे में उतरे । तमाशाइयों पर चम्
ु बक
का-सा असर हुआ। मौजें के चौकीदारों ने िट्ठ और डण्डों का यह जमघट दे खा और मदों की अींगारे की
तरह िाि आखें तो वपछिे अनभ ॉँ च होते रहे । बिदे व
ु व के आधार पर बेपता हो गये। इधर अखाडे में द व-पें
उिझता था, गोपाि पैंतरे बदिता था। उसे अपनी ताकत का जोम था, इसे अपने करतब का भरोसा। कुछ
दे र तक अखाडे से ताि ठोंकने की आवाजें आती रहीीं, तब यकायक बहुत-से आदमी खुशी के नारे मार-मार
उछिने िगे, कपडे और बतमन और पैसे और बताशे िट ु ाये जाने िगे। ककसी ने अपना परु ाना साफा फेंका,
ककसी ने अपनी बोसीदा टोपी हवा में उडा दी साठे के मनचिे जवान अखाडे में वपि पडे। और गोपाि को
ॉँ पीसकर रह
गोद में उठा िाये। बिदे व और उसके साधथयों ने गोपाि को िहू की आखों से दे खा और द त
गये।

द स बजे रात का वक्त और सावन का महीना। आसमान पर कािी घटाए छाई थीीं। अींधेरे का यह हाि
था कक जैसे रोशनी का अक्स्तत्व ही नहीीं रहा। कभी-कभी बबजिी चमकती थी मगर अधेरे को और
जयादा अींधेरा करने के लिए। में ढकों की आवाजें क्जन्दगी का पता दे ती थीीं वनाम और चारों तरफ मौत थी।
खामोश, डरावने और गम्भीर साठे के झोंपडे और मकान इस अींधेरे में बहुत गौर से दे खने पर कािी-कािी
भेडों की तरह नजर आते थे। न बच्चे रोते थे, न औरतें गाती थीीं। पाववत्रात्मा बड्
ु ढे राम नाम न जपते थे।
मगर आबादी से बहुत दरू कई परु शोर नािों और ढाक के जींगिों से गज
ु रकर जवार और बाजरे के
खेत थे और उनकी में डों पर साठे के ककसान जगह-जगह मडैया डािे खेतों की रखवािी कर रहे थे। तिे
जमीन, ऊपर अींधरे ा, मीिों तक सन्नाटा छाया हुआ। कहीीं जींगिी सअ
ु रों के गोि, कहीीं नीिगायों के रे वड,
धचिम के लसवा कोई साथी नहीीं, आग के लसवा कोई मददगार नहीीं। जरा खटका हुआ और चौंके पडे। अींधेरा
भय का दस
ू रा नाम है, जब लमट्टी का एक ढे र, एक ठूठा पेड और घास का ढे र भी जानदार चीजें बन जाती
हैं। अींधेरा उनमें जान डाि दे ता है । िेककन यह मजबत
ू हाथोंवािे, मजबत
ू क्जगरवािे, मजबत
ू इरादे वािे
ककसान हैं कक यह सब सक्ख्तय । झेिते हैं ताकक अपने जयादा भाग्यशािी भाइयों के लिए भोग-वविास के

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सामान तैयार करें । इन्हीीं रखवािों में आज का हीरो, साठे का गौरव गोपाि भी है जो अपनी मडैया में बैठा
हुआ है और नीींद को भगाने के लिए धीमें सरु ों में यह गीत गा रहा है :
मैं तो तोसे नैना िगाय पछतायी रे

अचाकन उसे ककसी के प वॉँ की आहट मािम ू हुई। जैसे दहरन कुत्तों की आवाजों को कान िगाकर
सन
ु ता है उसी तरह गोपि ने भी कान िगाकर सन
ु ा। नीींद की औींघाई दरू हो गई। िट्ठ कींधे पर रक्खा और
मडैया से बाहर ननकि आया। चारों तरफ कालिमा छाई हुई थी और हिकी-हिकी बद
ींू ें पड रही थीीं। वह बाहर
ननकिा ही था कक उसके सर पर िाठी का भरपरू हाथ पडा। वह त्योराकर धगरा और रात भर वहीीं बेसध ु
पडा रहा। मािम
ू नहीीं उस पर ककतनी चोटें पडीीं। हमिा करनेवािों ने तो अपनी समझ में उसका काम
तमाम कर डािा। िेककन क्जन्दगी बाकी थी। यह पाठे के गैरतमन्द िोग थे क्जन्होंने अींधेरे की आड में
अपनी हार का बदिा लिया था।

गो
पाि जानत का अहीर था, न पढ़ा न लिखा, बबिकुि अक्खड। ददमागा रौशन ही नहीीं हुआ तो शरीर
का दीपक क्यों घि
ु ता। परू े छ: फुट का कद, गठा हुआ बदन, ििकान कर गाता तो सन
ु नेवािे मीि
भर पर बैठे हुए उसकी तानों का मजा िेते। गाने-बजाने का आलशक, होिी के ददनों में महीने भर तक गाता,
सावन में मल्हार और भजन तो रोज का शगि था। ननडर ऐसा कक भत ू और वपशाच के अक्स्तत्व पर उसे
ववद्वानों जैसे सींदेह थे। िेककन क्जस तरह शेर और चीते भी िाि िपटों से डरते हैं उसी तरह िाि पगडी
से उसकी रूह असाधारण बात थी िेककन उसका कुछ बस न था। लसपाही की वह डरावनी तस्वीर जो बचपन
में उसके ददि पर खीींची गई थी, पत्थर की िकीर बन गई थी। शरारतें गयीीं, बचपन गया, लमठाई की भख

गई िेककन लसपाही की तस्वीर अभी तक कायम थी। आज उसके दरवाजे पर िाि पगडीवािों की एक फौज
जमा थी िेककन गोपाि जख्मों से चरू , ददम से बेचन
ै होने पर भी अपने मकान के अींधेरे कोने में नछपा हुआ
बैठा था। नम्बरदार और मखु खया, पटवारी और चौकीदार रोब खाये हुए ढीं ग से खडे दारोगा की खुशामद कर
रहे थे। कहीीं अहीर की फररयाद सन
ु ाई दे ती थी, कहीीं मोदी रोना-धोना, कहीीं तेिी की चीख-पक
ु ार, कहीीं
कमाई की आखों से िहू जारी। किवार खडा अपनी ककस्मत को रो रहा था। फोहश और गन्दी बातों की
गममबाजारी थी। दारोगा जी ननहायत कारगुजार अफसर थे, गालियों में बात करते थे। सब
ु ह को चारपाई से
उठते ही गालियों का वजीफा पढ़ते थे। मेहतर ने आकर फररयाद की-हुजरू , अण्डे नहीीं हैं, दारोगाजी हण्टर
िेकर दौडे औश्र उस गरीब का भरु कुस ननकाि ददया। सारे ग वॉँ में हिचि पडी हुई थी। काींलसटे बि और
चौकीदार रास्तों पर यों अकडते चिते थे गोया अपनी ससरु ाि में आये हैं। जब ग वॉँ के सारे आदमी आ गये
तो वारदात हुई और इस कम्बख्त गोिाि ने रपट तक न की।
ॉँ
मखु खया साहब बेंत की तरह क पते हुए बोिे-हुजूर, अब माफी दी जाय।
दारोगाजी ने गाजबनाक ननगाहों से उसकी तरफ दे खकर कहा-यह इसकी शरारत है। दनु नया जानती है
कक जुमम को छुपाना जुमम करने के बराबर है । मैं इस बदकाश को इसका मजा चखा दगा।
ू वह अपनी ताकत
के जोम में भि
ू ा हुआ है , और कोई बात नहीीं। िातों के भत
ू बातों से नहीीं मानते।
मखु खया साहब ने लसर झक ु ाकर कहा-हुजूर, अब माफी दी जाय।
दारोगाजी की त्योररय ॉँ चढ़ गयीीं और झींझु िाकर बोिे-अरे हजूर के बच्चे, कुछ सदठया तो नहीीं गया है।
अगर इसी तरह माफी दे नी होती तो मझ ु े क्या कुत्ते ने काटा था कक यह ॉँ तक दौडा आता। न कोई मामिा,
न ममािे की बात, बस माफी की रट िगा रक्खी है । मझु े जयादा फुरसत नहीीं है । नमाज पढ़ता हू, तब तक
तम
ु अपना सिाह मशववरा कर िो और मझ ु े हसी-खशु ी रुखसत करो वनाम गौसख ॉँ को जानते हो, उसका
ॉँ
मारा पानी भी नही म गता!
ॉँ वक्त की नमाज पढ़ते और तीसों रोजे रखते, ईदों में
दारोगा तकवे व तहारत के बडे पाबन्द थे प चों
ू धाम से कुबामननय ॉँ होतीीं। इससे अच्छा आचरण ककसी आदमी में और क्या हो सकता है !
धम

मु खखया साहब दबे प वॉँ गुपचप


ु ढीं ग से गौरा के पास और बोिे-यह दारोगा बडा काकफर है, पचास से नीचे
तो बात ही नहीीं करता। अब्बि दजे का थानेदार है । मैंने बहुत कहा, हुजूर, गरीब आदमी है , घर में

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कुछ सभ
ु ीता नहीीं, मगर वह एक नहीीं सन
ु ता।
गौरा ने घघट
ू में मह
ु नछपाकर कहा-दादा, उनकी जान बच जाए, कोई तरह की आींच न आने पाए,
रूपये-पैसे की कौन बात है, इसी ददन के लिए तो कमाया जाता है ।
गोपाि खाट पर पडा सब बातें सन ॉँ ही पर टूटती है। जो
ु रहा था। अब उससे न रहा गया। िकडी ग ठ
गुनाह ककया नहीीं गया वह दबता है मगर कुचिा नहीीं जा सकता। वह जोश से उठ बैठा और बोिा-पचास
रुपये की कौन कहे , मैं पचास कौडडय ॉँ भी न दगा।
ू कोई गदर है , मैंने कसरू क्या ककया है ?
मखु खया का चेहरा फक हो गया। बडप्पन के स्वर में बोिे-धीरे बोिो, कहीीं सन
ु िे तो गजब हो जाए।
िेककन गोपाि बबफरा हुआ था, अकडकर बोिा-मैं एक कौडी भी न दगा।
ू ॉँ िगा
दे खें कौन मेरे फ सी
दे ता है ।
गौरा ने बहिाने के स्वर में कहा-अच्छा, जब मैं तम
ु से रूपये मागतो
ू मत दे ना। यह कहकर गौरा ने,
जो इस वक्त िौडी के बजाय रानी बनी हुई थी, छप्पर के एक कोने में से रुपयों की एक पोटिी ननकािी
ॉँ पीसकर उठा, िेककन मखु खया साहब फौरन से पहिे सरक
और मखु खया के हाथ में रख दी। गोपाि द त
गये। दारोगा जी ने गोपाि की बातें सन
ु िी थीीं और दआ
ु कर रहे थे कक ऐ खुदा, इस मरदद
ू के ददि को
पिट। इतने में मखु खया ने बाहर आकर पचीस रूपये की पोटिी ददखाई। पचीस रास्ते ही में गायब हो गये
थे। दारोगा जी ने खद
ु ा का शक्र
ु ककया। दआ
ु सनु ी गयी। रुपया जेब में रक्खा और रसद पहुचाने वािों की
भीड को रोते और बबिबबिाते छोडकर हवा हो गये। मोदी का गिा घींट
ु गया। कसाई के गिे पर छुरी कफर
गयी। तेिी वपस गया। मखु खया साहब ने गोपाि की गदम न पर एहसान रक्खा गोया रसद के दाम धगरह से
ददए। ग वॉँ में सख
ु रू
म हो गया, प्रनतष्ठा बढ़ गई। इधर गोपाि ने गौरा की खब
ू खबर िी। गाव में रात भर
यही चचाम रही। गोपाि बहुत बचा और इसका सेहरा मखु खया के लसर था। बडी ववपवत्त आई थी। वह टि
गयी। वपतरों ने, दीवान हरदौि ने, नीम तिेवािी दे वी ने, तािाब के ककनारे वािी सती ने, गोपाि की रक्षा
की। यह उन्हीीं का प्रताप था। दे वी की पज
ू ा होनी जरूरी थी। सत्यनारायण की कथा भी िाक्जमी हो गयी।

कफ
र सबु ह हुई िेककन गोपाि के दरवाजे पर आज िाि पगडडयों के बजाय िाि साडडयों का जमघट
था। गौरा आज दे वी की पज ू ा करने जाती थी और ग वॉँ की औरतें उसका साथ दे ने आई थीीं।
उसका घर सोंधी-सोंधी लमट्टी की खुशबू से महक रहा था जो खस और गुिाब से कम मोहक न थी। औरतें
सह
ु ाने गीत गा रही थीीं। बच्चे खुश हो-होकर दौडते थे। दे वी के चबत
ू रे पर उसने लमटटी का हाथी चढ़ाया।
ॉँ में सेंदरु डािा। दीवान साहब को बताशे और हिआ
सती की म ग ु खखिाया। हनम
ु ान जी को िड्डू से जयादा
प्रेम है , उन्हें िड्डू चढ़ाये तब गाती बजाती घर को आयी और सत्यनारायण की कथा की तैयाररय ॉँ होने िगीीं
ॉँ
। मालिन फूि के हार, केिे की शाखें और बन्दनवारें िायीीं। कुम्हार नये-नये ददये और ह डडया दे गया। बारी
हरे ढाक के पत्ति और दोने रख गया। कहार ने आकर मटकों में पानी भरा। बढ़ई ने आकर गोपाि और
गौरा के लिए दो नयी-नयी पीदढ़य ॉँ बनायीीं। नाइन ने ऑ ींगन िीपा और चौक बनायी। दरवाजे पर बन्दनवारें
बध गयीीं। ऑ ींगन में केिे की शाखें गड गयीीं। पक्ण्डत जी के लिए लसींहासन सज गया। आपस के कामों की
व्यवस्था खुद-ब-खुद अपने ननक्श्चत दायरे पर चिने िगी । यही व्यवस्था सींस्कृनत है क्जसने दे हात की
क्जन्दगी को आडम्बर की ओर से उदासीन बना रक्खा है । िेककन अफसोस है कक अब ऊच-नीच की
बेमतिब और बेहूदा कैदों ने इन आपसी कतमव्यों को सौहाद्रम सहयोग के पद से हटा कर उन पर अपमान
और नीचता का दागािगा ददया है।
शाम हुई। पक्ण्डत मोटे रामजी ने कन्धे पर झोिी डािी, हाथ में शींख लिया और खडाऊ पर खटपट
करते गोपाि के घर आ पहुचे। ऑ ींगन में टाट बबछा हुआ था। ग वॉँ के प्रनतक्ष्ठत िोग कथा सनु ने के लिए
आ बैठे। घण्टी बजी, शींख फींु का गया और कथा शरू
ु हुईं। गोपाि भी गाढ़े की चादर ओढ़े एक कोने में फींू का
गया और कथा शरू ु हुई। गोजाि भी गाढ़े की चादर ओढ़े एक कोने में दीवार के सहारे बैठा हुआ था।
मखु खया, नम्बरदार और पटवारी ने मारे हमददी के उससे कहा—सत्यनारायण क मदहमा थी कक तुम पर कोई
ऑ ींच न आई।
गोपाि ने अगडाई िेकर कहा—सत्यनारायण की मदहमा नहीीं, यह अींधरे है।
--जमाना, जि
ु ाई १९१३

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मिर्त एक आिाज

सबहवािा
ु था। ठाकुर साहब अपनी बढ़ू ी ठकुराइन के साथ गींगाजी जाते थे इसलिए सारा घर उनकी परु शोर
का वक्त था। ठाकुर दशमनलसींह के घर में एक हीं गामा बरपा था। आज रात को चन्द्रग्रहण होने

तैयारी में िगा हुआ था। एक बहू उनका फटा हुआ कुताम ट क ॉँ रही थी, दसू री बहू उनकी पगडी लिए सोचती
थी, कक कैसे इसकी मरम्मत करूाीं दोनो िडककय ॉँ नाश्ता तैयार करने में तल्िीन थीीं। जो जयादा ददिचस्प
काम था और बच्चों ने अपनी आदत के अनस
ु ार एक कुहराम मचा रक्खा था क्योंकक हर एक आने-जाने के
मौके पर उनका रोने का जोश उमींग पर होत था। जाने के वक्त साथा जाने के लिए रोते, आने के वक्त
ॉँ
इसलिए रोते ककशरीनी का ब ट-बखरा मनोनकु ू ि नहीीं हुआ। बढ़ी ठकुराइन बच्चों को फुसिाती थी और बीच-
बीच में अपनी बहुओीं को समझाती थी-दे खों खबरदार ! जब तक उग्रह न हो जाय, घर से बाहर न
ननकिना। हलसया, छुरी ,कुल्हाडी , इन्हें हाथ से मत छुना। समझाये दे ती हू, मानना चाहे न मानना। तुम्हें
मेरी बात की परवाह है । मींह
ु में पानी की बींद
ू े न पडें। नारायण के घर ववपत पडी है । जो साध—
ु लभखारी
दरवाजे पर आ जाय उसे फेरना मत। बहुओीं ने सन ु ा और नहीीं सन
ु ा। वे मना रहीीं थीीं कक ककसी तरह यह
यह ॉँ से टिें। फागुन का महीना है , गाने को तरस गये। आज खूब गाना-बजाना होगा।
ठाकुर साहब थे तो बढ़ ू े , िेककन बढ़
ू ापे का असर ददि तक नहीीं पहुचा था। उन्हें इस बात का गवम था
कक कोई ग्रहण गींगा-स्नान के बगैर नहीीं छूटा। उनका ज्ञान आश्चयम जनक था। लसफम पत्रों को दे खकर महीनों
पहिे सय
ू -म ग्रहण और दस
ू रे पवो के ददन बता दे ते थे। इसलिए गाववािों की ननगाह में उनकी इजजत अगर
पक्ण्डतों से जयादा न थी तो कम भी न थी। जवानी में कुछ ददनों फौज में नौकरी भी की थी। उसकी गमी
अब तक बाकी थी, मजाि न थी कक कोई उनकी तरफ सीधी आख से दे ख सके। सम्मन िानेवािे एक
ॉँ ग वॉँ में भी नहीीं लमि
चपरासी को ऐसी व्यावहाररक चेतावनी दी थी क्जसका उदाहरण आस-पास के दस-प च
सकता। दहम्मत और हौसिे के कामों में अब भी आगे-आगे रहते थे ककसी काम को मक्ु श्कि बता दे ना,
उनकी दहम्मत को प्रेररत कर दे ना था। जह ॉँ सबकी जबानें बन्द हो जाए, वह ॉँ वे शेरों की तरह गरजते थे।
जब कभी ग वॉँ में दरोगा जी तशरीफ िाते तो ठाकुर साहब ही का ददि-गुदाम था कक उनसे आखें लमिाकर
आमने-सामने बात कर सकें। ज्ञान की बातों को िेकर नछडनेवािी बहसों के मैदान में भी उनके कारनामे
कुछ कम शानदार न थे। झगडा पक्ण्डत हमेशा उनसे मह ु नछपाया करते। गरज, ठाकुर साहब का स्वभावगत
ू हा बनने पर मजबरू कर दे ता था। ह ,ॉँ कमजोरी इतनी थी कक
गवम और आत्म-ववश्वास उन्हें हर बरात में दल्
अपना आल्हा भी आप ही गा िेते और मजे िे-िेकर क्योंकक रचना को रचनाकार ही खूब बयान करता है !

ज ब दोपहर होते-होते ठाकुराइन ग वॉँ से चिे तो सैंकडों आदमी उनके साथ थे और पक्की सडक पर
ॉँ िगा हुआ था कक जैसे कोई बाजार है। ऐसे-ऐसे बढ़
पहुचे, तो याबत्रयों का ऐसा त ता ु ें िादठय ॉँ टे कते
या डोलियों पर सवार चिे जाते थे क्जन्हें तकिीफ दे ने की यमराज ने भी कोई जरूरत न समझी थी। अन्धे
दस
ू रों की िकडी के सहारे कदम बढ़ाये आते थे। कुछ आदलमयों ने अपनी बढ़
ू ी माताओीं को पीठ पर िाद
लिया था। ककसी के सर पर कपडों की पोटिी, ककसी के कन्धे पर िोटा-डोर, ककसी के कन्धे पर कावर।
ू े कह ॉँ से िायें। मगर धालममक उत्साह का यह
ककतने ही आदलमयों ने पैरों पर चीथडे िपेट लिये थे, जत
वरदान था कक मन ककसी का मैिा न था। सबके चेहरे खखिे हुए, हसते-हसते बातें करते चिे जा रहे थें कुछ
औरतें गा रही थी:
च दॉँ सरू ज दन
ू ो िोक के मालिक
एक ददना उनहू पर बनती
हम जानी हमहीीं पर बनती

ऐसा मािम
ू होता था, यह आदलमयों की एक नदी थी, जो सैंकडों छोटे -छोटे नािों और धारों को िेती
हुई समद्र
ु से लमिने के लिए जा रही थी।
जब यह िोग गींगा के ककनारे पहुचे तो तीसरे पहर का वक्त था िेककन मीिों तक कहीीं नति रखने
की जगह न थी। इस शानदार दृश्य से ददिों पर ऐसा रोब और भक्क्त का ऐसा भाव छा जाता था कक

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बरबस ‘गींगा माता की जय’ की सदायें बि
ु न्द हो जाती थीीं। िोगों के ववश्वास उसी नदी की तरह उमडे हुए
थे और वह नदी! वह िहराता हुआ नीिा मैदान! वह प्यासों की प्यास बझ ु ानेवािी! वह ननराशों की आशा!
वह वरदानों की दे वी! वह पववत्रता का स्त्रोत! वह मट्
ु ठी भर खाक को आश्रय दे नेवीिी गींगा हसती-
मस्
ु कराती थी और उछिती थी। क्या इसलिए कक आज वह अपनी चौतरफा इजजत पर फूिी न समाती थी
या इसलिए कक वह उछि-उछिकर अपने प्रेलमयों के गिे लमिना चाहती थी जो उसके दशमनों के लिए मींक्जि
ॉँ े
तय करके आये थे! और उसके पररधान की प्रशींसा ककस जबान से हो, क्जस सरू ज से चमकते हुए तारे ट क
थे और क्जसके ककनारों को उसकी ककरणों ने रीं ग-बबरीं गे, सन्
ु दर और गनतशीि फूिों से सजाया था।
अभी ग्रहण िगने में धण्टे की दे र थी। िोग इधर-उधर टहि रहे थे। कहीीं मदाररयों के खेि थे, कहीीं
चरू नवािे की िच्छे दार बातों के चमत्कार। कुछ िोग मेढ़ों की कुश्ती दे खने के लिए जमा थे। ठाकुर साहब
भी अपने कुछ भक्तों के साथ सैर को ननकिे। उनकी दहम्मत ने गवारा न ककया कक इन बाजारू
ददिचक्स्पयों में शरीक हों। यकायक उन्हें एक बडा-सा शालमयाना तना हुआ नजर आया, जह ॉँ जयादातर पढ़े -
लिखे िोगों की भीड थी। ठाकुर साहब ने अपने साधथयों को एक ककनारे खडा कर ददया और खुद गवम से
ताकते हुए फशम पर जा बैठे क्योंकक उन्हें ववश्वास था कक यह ॉँ उन पर दे हानतयों की ईष्याम--दृक्ष्ट पडेगी और
सम्भव है कुछ ऐसी बारीक बातें भी मािम ू हो जाय तो उनके भक्तों को उनकी सवमज्ञता का ववश्वास ददिाने
में काम दे सकें।
यह एक नैनतक अनष्ु ठान था। दो-ढाई हजार आदमी बैठे हुए एक मधरु भाषी वक्ता का भाषणसन ु रहे
थे। फैशनेबि
ु िोग जयादातर अगिी पींक्क्त में बैठे हुए थे क्जन्हें कनबनतयों का इससे अच्छा मौका नहीीं लमि
सकता था। ककतने ही अच्छे कपडे पहने हुए िोग इसलिए दख ु ी नजर आते थे कक उनकी बगि में ननम्न
श्रेणी के िोग बैठे हुए थे। भाषण ददिचस्त मािम
ू पडता था। वजन जयादा था और चटखारे कम, इसलिए
तालिय ॉँ नहीीं बजती थी।

व क्ता ने अपने भाषण में कहा—


मेरे प्यारे दोस्तो, यह हमारा और आपका कतमव्य है। इससे जयादा महत्त्वपण
और कौम के लिए जयादा शभ
ू ,म जयादा पररणामदायक
ु और कोई कतमव्य नहीीं है । हम मानते हैं कक उनके आचार-व्यवहार की दशा
अत्यींत करुण है । मगर ववश्वास माननये यह सब हमारी करनी है । उनकी इस िजजाजनक साींस्कृनतक क्स्थनत
का क्जम्मेदार हमारे लसवा और कौन हो सकता है ? अब इसके लसवा और कोई इिाज नहीीं हैं कक हम उस
घण
ृ ा और उपेक्षा को; जो उनकी तरफ से हमारे ददिों में बैठी हुई है , घोयें और खब
ू मिकर धोयें। यह
आसान काम नहीीं है। जो कालिख कई हजार वषो से जमी हुई है , वह आसानी से नहीीं लमट सकती। क्जन
िोगों की छाया से हम बचते आये हैं, क्जन्हें हमने जानवरों से भी जिीि समझ रक्खा है, उनसे गिे लमिने
में हमको त्याग और साहस और परमाथम से काम िेना पडेगा। उस त्याग से जो कृष्ण में था, उस दहम्मत
से जो राम में थी, उस परमाथम से जो चैतन्य और गोववन्द में था। मैं यह नहीीं कहता कक आप आज ही
उनसे शादी के ररश्ते जोडें या उनके साथ बैठकर खायें-वपयें। मगर क्या यह भी मम
ु ककन नहीीं है कक आप
उनके साथ सामान्य सहानभ
ु नू त, सामान्य मनष्ु यता, सामान्य सदाचार से पेश आयें? क्या यह सचमच

असम्भव बात है ? आपने कभी ईसाई लमशनररयों को दे खा है ? आह, जब मैं एक उच्चकोदट का सन्
ु दर,
सक ु ु मार, गौरवणम िेडी को अपनी गोद में एक कािा–किट ू ा बच्च लिये हुए दे खता हू क्जसके बदन पर फोडे
हैं, खन ू है और गन्दगी है—वह सन्ु दरी उस बच्चे को चम
ू ती है, प्यार करती है, छाती से िगाती है—तो मेरा
जी चाहता है उस दे वी के कदमों पर लसर रख द।ू अपनी नीचता, अपना कमीनापन, अपनी झठ
ू ी बडाई,
अपने ह्रदय की सींकीणमता मझ
ु े कभी इतनी सफाई से नजर नहीीं आती। इन दे ववयों के लिए क्जन्दगी में क्या-
क्या सींपदाए, नहीीं थी, खलु शय ॉँ ब हेंॉँ पसारे हुए उनके इन्तजार में खडी थी। उनके लिए दौित की सब सख ु -
सवु वधाए थीीं। प्रेम के आकषमण थे। अपने आत्मीय और स्वजनों की सहानभ ु नू तय ॉँ थीीं और अपनी प्यारी
मातभ
ृ लू म का आकषमण था। िेककन इन दे ववयों ने उन तमाम नेमतों, उन सब साींसाररक सींपदाओीं को सेवा,
सच्ची ननस्वाथम सेवा पर बलिदान कर ददया है ! वे ऐसी बडी कुबामननय ॉँ कर सकती हैं, तो हम क्या इतना भी
नहीीं कर सकते कक अपने अछूत भाइयों से हमददी का सिक
ू कर सकें? क्या हम सचमच
ु ऐसे पस्त-दहम्मत,
ऐसे बोदे , ऐसे बेरहम हैं? इसे खब
ू समझ िीक्जए कक आप उनके साथ कोई ररयायत, कोई मेहरबानी नहीीं
कर रहें हैं। यह उन पर कोई एहसान नहीीं है । यह आप ही के लिए क्जन्दगी और मौत का सवाि है ।
इसलिए मेरे भाइयों और दोस्तो, आइये इस मौके पर शाम के वक्त पववत्र गींगा नदी के ककनारे काशी के

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पववत्र स्थान में हम मजबत
ू ददि से प्रनतज्ञा करें कक आज से हम अछूतों के साथ भाई-चारे का सिक
ू करें गे,
उनके तीज-त्योहारों में शरीक होंगे और अपने त्योहारों में उन्हें बि
ु ायेंगे। उनके गिे लमिेंगे और उन्हें अपने
गिे िगायेंगे! उनकी खलु शयों में खश
ु और उनके ददों मे ददम मन्द होंगे, और चाहे कुछ ही क्यों न हो जाय,
चाहे ताना-नतश्नों और क्जल्ित का सामना ही क्यों न करना पडे, हम इस प्रनतज्ञा पर कायम रहें गे। आप में
सैंकडों जोशीिे नौजवान हैं जो बात के धनी और इरादे के मजबत
ू हैं। कौन यह प्रनतज्ञा करता है ? कौन
अपने नैनतक साहस का पररचय दे ता है ? वह अपनी जगह पर खडा हो जाय और ििकारकर कहे कक मैं यह
प्रनतज्ञा करता हू और मरते दम तक इस पर दृढ़ता से कायम रहूगा।

सू रज गींगा की गोद में जा बैठा था और म ॉँ प्रेम और गवम से मतवािी जोश में उमडी हुई रीं ग केसर को
शमामती और चमक में सोने की िजाती थी। चार तरफ एक रोबीिी खामोशी छायी थीीं उस सन्नाटे में
सींन्यासी की गमी और जोश से भरी हुई बातें गींगा की िहरों और गगनचम्
ु बी मींददरों में समा गयीीं। गींगा
एक गम्भीर म ॉँ की ननराशा के साथ हसी और दे वताओीं ने अफसोस से लसर झक ु ा लिया, मगर मह ु से कुछ
न बोिे।
सींन्यासी की जोशीिी पक
ु ार कफजाीं में जाकर गायब हो गई, मगर उस मजमे में ककसी आदमी के ददि
तक न पहुची। वह ॉँ कौम पर जान दे ने वािों की कमी न थी: स्टे जों पर कौमी तमाशे खेिनेवािे कािेजों के
होनहार नौजवान, कौम के नाम पर लमटनेवािे पत्रकार, कौमी सींस्थाओीं के मेम्बर, सेक्रेटरी और प्रेलसडेंट, राम
और कृष्ण के सामने लसर झक ु ानेवािे सेठ और साहूकार, कौमी कालिजों के ऊचे हौंसिोंवािे प्रोफेसर और
अखबारों में कौमी तरक्क्कयों की खबरें पढ़कर खश
ु होने वािे दफ्तरों के कममचारी हजारों की तादाद में मौजद

थे। आखों पर सन
ु हरी ऐनकें िगाये, मोटे -मोटे वकीिों क एक परू ी फौज जमा थी। मगर सींन्यासी के उस
गमम भाषण से एक ददि भी न वपघिा क्योंकक वह पत्थर के ददि थे क्जसमें ददम और घि
ु ावट न थी,
क्जसमें सददच्छा थी मगर कायम-शक्क्त न थी, क्जसमें बच्चों की सी इच्छा थी मदो का–सा इरादा न था।
सारी मजलिस पर सन्नाटा छाया हुआ था। हर आदमी लसर झक ु ाये कफक्र में डूबा हुआ नजर आता
था। शलमिंदगी ककसी को सर उठाने न दे ती थी और आखें झेंप में मारे जमीन में गडी हुई थी। यह वही सर
हैं जो कौमी चचों पर उछि पडते थे, यह वही आखें हैं जो ककसी वक्त राष्रीय गौरव की िािी से भर जाती
थी। मगर कथनी और करनी में आदद और अन्त का अन्तर है। एक व्यक्क्त को भी खडे होने का साहस न
हुआ। कैंची की तरह चिनेवािी जबान भी ऐसे महान ् उत्तरदानयत्व के भय से बन्द हो गयीीं।

ठा कुर दशमनलसींह अपनी जगी पर बैठे हुए इस दृश्य को बहुत गौर और ददिचस्पी से दे ख रहे थे। वह
अपने मालममक ववश्वासो में चाहे कट्टर हो या न हों, िेककन साींस्कृनतक मामिों में वे कभी अगव
करने के दोषी नहीीं हुए थे। इस पेचीदा और डरावने रास्ते में उन्हें अपनी बद्
ु ाई
ु धध और वववेक पर भरोसा नहीीं
होता था। यह ीं तकम और यक्ु क्त को भी उनसे हार माननी पडती थी। इस मैदान में वह अपने घर की क्स्त्रयों
की इच्छा परू ी करने ही अपना कत्तमव्य समझते थे और चाहे उन्हें खुद ककसी मामिे में कुछ एतराज भी हो
िेककन यह औरतों का मामिा था और इसमें वे हस्तक्षेप नहीीं कर सकते थे क्योंकक इससे पररवार की
व्यवस्था में हिचि और गडबडी पैदा हो जाने की जबरदस्त आशींका रहती थी। अगर ककसी वक्त उनके कुछ
जोशीिे नौजवान दोस्त इस कमजोरी पर उन्हें आडे हाथों िेते तो वे बडी बद्
ु धधमत्ता से कहा करते थे—भाई,
यह औरतों के मामिे हैं, उनका जैसा ददि चाहता है, करती हैं, मैं बोिनेवािा कौन हू। गरज यह ॉँ उनकी
फौजी गमम-लमजाजी उनका साथ छोड दे ती थी। यह उनके लिए नतलिस्म की घाटी थी जह ॉँ होश-हवास बबगड
जाते थे और अन्धे अनक
ु रण का पैर बधी हुई गदम न पर सवार हो जाता था।
िेककन यह ििकार सन ु कर वे अपने को काबू में न रख सके। यही वह मौका था जब उनकी दहम्मतें
आसमान पर जा पहुचती थीीं। क्जस बीडे को कोई न उठाये उसे उठाना उनका काम था। वजमनाओीं से उनको
आक्त्मक प्रेम था। ऐसे मौके पर वे नतीजे और मसिहत से बगावत कर जाते थे और उनके इस हौसिे में
यश के िोभ को उतना दखि नहीीं था क्जतना उनके नैसधगमक स्वाभाव का। वनाम यह असम्भव था कक एक
ऐसे जिसे में जह ॉँ ज्ञान और सभ्यता की धम
ू -धाम थी, जह ॉँ सोने की ऐनकों से रोशनी और तरह-तरह के
पररधानों से दीप्त धचन्तन की ककरणें ननकि रही थीीं, जह ॉँ कपडे-ित्ते की नफासत से रोब और मोटापे से

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प्रनतष्ठा की झिक आती थी, वह ॉँ एक दे हाती ककसान को जबान खोिने का हौसिा होता। ठाकुर ने इस
दृश्य को गौर और ददिचस्पी से दे खा। उसके पहिू में गद
ु गद
ु ी-सी हुई। क्जन्दाददिी का जोश रगों में दौडा।
वह अपनी जगह से उठा और मदामना िहजे में ििकारकर बोिा-मैं यह प्रनतज्ञा करता हू और मरते दम तक
उस पर कायम रहूगा।

इ तना सन
ु ना था कक दो हजार आखें अचम्भे से उसकी तरफ ताकने िगीीं। सभ
थी—गाढे की ढीिी लमजमई, घट
ु ानअल्िाह, क्या हुलिया
ु नों तक चढ़ी हुई धोती, सर पर एक भारी-सा उिझा हुआ साफा, कन्धे पर
चन
ु ौटी और तम्बाकू का वजनी बटुआ, मगर चेहरे से गम्भीरता और दृढ़ता स्पष्ट थी। गवम आखों के तींग घेरे
से बाहर ननकिा पडता था। उसके ददि में अब इस शानदार मजमे की इजजत बाकी न रही थी। वह परु ाने
वक्तों का आदमी था जो अगर पत्थर को पज
ू ता था तो उसी पत्थर से डरता भी था, क्जसके लिए एकादशी
का व्रत केवि स्वास्थ्य-रक्षा की एक यक्ु क्त और गींगा केवि स्वास्थ्यप्रद पानी की एक धारा न थी। उसके
ववश्वासों में जागनृ त न हो िेककन दवु वधा नहीीं थी। यानी कक उसकी कथनी और करनी में अन्तर न था और
न उसकी बनु नयाद कुछ अनक
ु रण और दे खादे खी पर थी मगर अधधकाींशत: भय पर, जो ज्ञान के आिोक के
बाद वनृ तयों के सींस्कार की सबसे बडी शक्क्त है । गेरुए बाने का आदर और भक्क्त करना इसके धमम और
ववश्वास का एक अींग था। सींन्यास में उसकी आत्मा को अपना अनच
ु र बनाने की एक सजीव शक्क्त नछपी
हुई थी और उस ताकत ने अपना असर ददखाया। िेककन मजमे की इस हैरत ने बहुत जल्द मजाक की सरू त
अक्ख्तयार की। मतिबभरी ननगाहें आपस में कहने िगीीं—आखखर गींवार ही तो ठहरा! दे हाती है, ऐसे भाषण
कभी काहे को सन
ु े होंगे, बस उबि पडा। उथिे गड्ढे में इतना पानी भी न समा सका! कौन नहीीं जानता कक
ऐसे भाषणों का उद्दे श्य मनोरीं जन होता है ! दस आदमी आये, इकट्ठे बैठ, कुछ सन
ु ा, कुछ गप-शप मारी
और अपने-अपने घर िौटे , न यह कक कौि-करार करने बैठे, अमि करने के लिए कसमें खाये!
ु क की रोशनी में इतना अींधरे ा है, वह ॉँ कभी
मगर ननराश सींन्यासी सो रहा था—अफसोस, क्जस मल्
रोशनी का उदय होना मक्ु श्कि नजर आता है । इस रोशनी पर, इस अींधेरी, मद
ु ाम और बेजान रोशनी पर मैं
जहाित को, अज्ञान को जयादा ऊची जगह दे ता हू। अज्ञान में सफाई है और दहम्मत है , उसके ददि और
जबान में पदाम नहीीं होता, न कथनी और करनी में ववरोध। क्या यह अफसोस की बात नहीीं है कक ज्ञान और
अज्ञान के आगे लसर झक
ु ाये? इस सारे मजमें में लसफम एक आदमी है, क्जसके पहिू में मदों का ददि है और
गो उसे बहुत सजग होने का दावा नहीीं िेककन मैं उसके अज्ञान पर ऐसी हजारों जागनृ तयों को कुबामन कर
सकता हू। तब वह प्िेटफामम से नीचे उतरे और दशमनलसींह को गिे से िगाकर कहा—ईश्वर तम् ु हें प्रनतज्ञा पर
कायम रखे।
--जमाना, अगस्त-लसतम्बर १९१३

आखखरी मंजजल

आ ह ? आज तीन साि गज
ु र गए, यही मकान है , यही बाग है , यही गींगा का ककनारा, यही सींगमरमर
का हौज। यही मैं हू और यही दरोदीवार। मगर इन चीजों से ददि पर कोई असर नहीीं होता। वह
नशा जो गींगा की सह
ु ानी और हवा के ददिकश झौंकों से ददि पर छा जाता था। उस नशे के लिए अब जी
तरस-जरस के रह जाता है । अब वह ददि नही रहा। वह यव
ु ती जो क्जींदगी का सहारा थी अब इस दनु नया में
नहीीं है।
मोदहनी ने बडा आकषमक रूप पाया था। उसके सौंदयम में एक आश्चयमजनक बात थी। उसे प्यार करना
मक्ु श्कि था, वह पज
ू ने के योग्य थी। उसके चेहरे पर हमेशा एक बडी िभ
ु ावनी आक्त्मकता की दीक्प्त रहती
थी। उसकी आींखे क्जनमें िाज और गींभीरता और पववत्रता का नशा था, प्रेम का स्रोत थी। उसकी एक-एक
धचतवन, एक-एक कक्रया एक-एक बात उसके ह्रदय की पववत्रता और सच्चाई का असर ददि पर पैदा करती
थी। जब वह अपनी शमीिी आींखों से मेरी ओर ताकती तो उसका आकषमण और असकी गमी मेरे ददि में

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एक जवारभाटा सा पैदा कर दे ती थी। उसकी आींखों से आक्त्मक भावों की ककरनें ननकिती थीीं मगर उसके
होठों प्रेम की बानी से अपररधचत थे। उसने कभी इशारे से भी उस अथाह प्रेम को व्यक्त नहीीं ककया क्जसकी
िहरों में वह खद
ु नतनके की तरह बही जाती थी। उसके प्रेम की कोई सीमा न थी। वह प्रेम क्जसका िक्ष्य
लमिन है , प्रेम नहीीं वासना है। मोदहनी का प्रेम वह प्रेम था जो लमिने में भी ववयोग के मजे िेता है। मझ
ु े
ॉँ
खूब याद है एक बार जब उसी हौज के ककनारे च दनी रात में मेरी प्रेम – भरी बातों से ववभोर होकर उसने
कहा था-आह  वह आवाज अभी मेरे ह्रदय पर अींककत है , ‘लमिन प्रेम का आदद है अींत नहीीं।’ प्रेम की
समस्या पर इससे जयादा शनदार, इससे जयादा ऊींचा ख्याि कभी मेरी नजर में नहीीं गुजरा। वह प्रेम जो
धचतावनो से पैदा होता है और ववयोग में भी हरा-भरा रहता है, वह वासना के एक झोंके को भी बदामश्त नहीीं
कर सकता। सींभव है कक यह मेरी आत्मस्तुनत हो मगर वह प्रेम, जो मेरी कमजोररयों के बावजूद मोदहनी को
मझ
ु से था उसका एक कतरा भी मझ
ु े बेसध
ु करने के लिए काफी था। मेरा हृदय इतना ववशाि ही न था,
मझ
ु े आश्चयम होता था कक मझ
ु में वह कौन-सा गण
ु था क्जसने मोदहनी को मेरे प्रनत प्रेम से ववह्वि कर
ददया था। सौन्दयम, आचरण की पववत्रता, मदामनगी का जौहर यही वह गुण हैं क्जन पर मह
ु ब्बत ननछावर
होती है । मगर मैं इनमें से एक पर भी गवम नहीीं कर सकता था। शायद मेरी कमजोररय ॉँ ही उस प्रेम की
तडप का कारण थीीं।
मोदहनी में वह अदायें न थीीं क्जन पर रीं गीिी तबीयतें कफदा हो जाया करती हैं। नतरछी धचतवन, रूप-
गवम की मस्ती भरी हुई आींखें, ददि को मोह िेने वािी मस्ु कराहट, चींचि वाणी, उनमें से कोई चीज यह ॉँ न
थी! मगर क्जस तरह च दॉँ की मद्धधम सह ु ानी रोशनी में कभी-कभी फुहारें पडने िगती हैं, उसी तरह ननश्छि
प्रेम में उसके चेहरे पर एक मस्
ु कराहट कौंध जाती और आींखें नम हो जातीीं। यह अदा न थी, सच्चे भावों की
तस्वीर थी जो मेरे हृदय में पववत्र प्रेम की खिबिी पैदा कर दे ती थी।

शा म का वक्त था, ददन और रात गिे लमि रहे थे। आसमान पर मतवािी घटायें छाई हुई थीीं और मैं
मोदहनी के साथ उसी हौज के ककनारे बैठा हुआ था। ठण्डी-ठण्डी बयार और मस्त घटायें हृदय के
ककसी कोने में सोते हुए प्रेम के भाव को जगा ददया करती हैं। वह मतवािापन जो उस वक्त हमारे ददिों पर
छाया हुआ था उस पर मैं हजारों होशमींददयों को कुबामन कर सकता हू। ऐसा मािम ू होता था कक उस मस्ती
के आिम में हमारे ददि बेताब होकर आींखों से टपक पडेंगे। आज मोदहनी की जबान भी सींयम की बेडडयों से
मक्
ु त हो गई थी और उसकी प्रेम में डूबी हुई बातों से मेरी आत्मा को जीवन लमि रहा था।
एकाएक मोदहनी ने चौंककर गींगा की तरफ दे खा। हमारे ददिों की तरह उस वक्त गींगा भी उमडी हुई
थी।
पानी की उस उद्ववग्न उठती-धगरती सतह पर एक ददया बहता हुआ चिा जाता था और और उसका
चमकता हुआ अक्स धथरकता और नाचता एक पच् ु छि तारे की तरह पानी को आिोककत कर रहा था। आह!
उस नन्ही-सी जान की क्या बबसात थी! कागज के चींद पज
ु े, बाींस की चींद तीलियाीं, लमट्टी का एक ददया कक
जैसे ककसी की अतप्ृ त िािसाओीं की समाधध थी क्जस पर ककसी दख
ु बटानेवािे ने तरस खाकर एक ददया
जिा ददया था मगर वह नन्हीीं-सी जान क्जसके अक्स्तत्व का कोई दठकाना न था, उस अथाह सागर में
उछिती हुई िहरों से टकराती, भवरों से दहिकोरें खाती, शोर करती हुई िहरों को रौंदती चिी जाती थी।
शायद जि दे ववयों ने उसकी ननबमिता पर तरस खाकर उसे अपने आींचिों में छुपा लिया था।
जब तक वह ददया खझिलमिाता और दटमदटमाता, हमददम िहरों से झकोरे िेता ददखाई ददया। मोदहनी
टकटकी िगाये खोयी-सी उसकी तरफ ताकती रही। जब वह आींख से ओझि हो गया तो वह बेचन
ै ी से उठ
खडी हुई और बोिी- मैं ककनारे पर जाकर उस ददये को दे खगी।

क्जस तरह हिवाई की मनभावन पक ु ार सन
ु कर बच्चा घर से बाहर ननकि पडता है और चाव-भरी
आींखों से दे खता और अधीर आवाजों से पक
ु ारता उस नेमत के थाि की तरफ दौडता है , उसी जोश और चाव
के साथ मोदहनी नदी के ककनारे चिी।
बाग से नदी तक सीदढ़य ॉँ बनी हुई थीीं। हम दोनों तेजी के साथ नीचे उतरे और ककनारे पहुचते ही
मोदहनी ने खश
ु ी के मारे उछिकर जोर से कहा-अभी है! अभी है ! दे खो वह ननकि गया!

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वह बच्चों का-सा उत्साह और उद्ववग्न अधीरता जो मोदहनी के चेहरे पर उस समय थी, मझ
ु े कभी न
भि
ू ेगी। मेरे ददि में सवाि पैदा हुआ, उस ददये से ऐसा हाददम क सींबींध, ऐसी ववह्विता क्यों? मझ
ु जैसा
कववत्वशन्
ू य व्यक्क्त उस पहे िी को जरा भी न बझ
ू सका।
मेरे हृदय में आशींकाएीं पैदा हुई। अींधेरी रात है , घटायें उमडी हुई, नदी बाढ़ पर, हवा तेज, यह ॉँ इस
वक्त ठहरना ठीक नहीीं। मगर मोदहनी! वह चाव-भरे भोिेपन की तस्वीर, उसी ददये की तरफ आखें िगाये
ु चाप खडी थी और वह उदास ददया जयों दहिता मचिता चिा जाता था, न जाने कह ॉँ ककस दे श!
चप
मगर थोडी दे र के बाद वह ददया आखों से ओझि हो गया। मोदहनी ने ननराश स्वर में पछ
ू ा-गया! बझ

गया होगा?
और इसके पहिे कक मैं जवाब द ू वह उस डोंगी के पास चिी गई, क्जस पर बैठकर हम कभी-कभी
नदी की सैरें ककया करते थे, और प्यार से मेरे गिे लिपटकर बोिी-मैं उस ददये को दे खने जाऊगी कक वह
कह ॉँ जा रहा है , ककस दे श को।
यह कहते-कहते मोदहनी ने नाव की रस्सी खोि िी। क्जस तरह पेडों की डालिय ॉँ तफ
ू ान के झोंकों से
ॉँ
झींकोिे खाती हैं उसी तरह यह डोंगी ड वाडोि हो रही थी। नदी का वह डरावना ववस्तार, िहरों की वह
भयानक छि गें ॉँ , पानी की वह गरजती हुई आवाज, इस खौफनाक अींधेरे में इस डोंगी का बेडा क्योंकर पार
होगा! मेरा ददि बैठ गया। क्या उस अभागे की तिाश में यह ककश्ती भी डूबेगी! मगर मोदहनी का ददि उस
वक्त उसके बस में न था। उसी ददये की तरह उसका हृदय भी भावनाओीं की ववराट, िहरों भरी, गरजती हुई
नदी में बहा जा रहा था। मतवािी घटायें झक
ु ती चिी आती थीीं कक जैसे नदी के गिे लमिेंगी और वह
कािी नदी यों उठती थी कक जैसे बदिों को छू िेंगी। डर के मारे आखें मींद
ु ी जाती थीीं। हम तेजी के साथ
उछिते, कगारों के धगरने की आवाजें सन
ु ते, कािे-कािे पेडों का झम
ू ना दे खते चिे जाते थे। आबादी पीछे
छूट गई, दे वताओीं को बस्ती से भी आगे ननकि गये। एकाएक मोदहनी चौंककर उठ खडी हुई और बोिी-
अभी है! अभी है! दे खों वह जा रहा है ।
मैंने आींख उठाकर दे खा, वह ददया जयों का त्यों दहिता-मचिता चिा जाता था।

उ स ददये को दे खते हम बहुत दरू ननकि गए। मोदहनी ने यह राग अिापना शरू
मैं साजन से लमिन चिी
ु ककया:

कैसा तडपा दे ने वािा गीत था और कैसी ददम भरी रसीिी आवाज। प्रेम और आींसओु ीं में डूबी हुई।
मोहक गीत में कल्पनाओीं को जगाने की बडी शक्क्त होती है। वह मनष्ु य को भौनतक सींसार से उठाकर
कल्पनािोक में पहुचा दे ता है । मेरे मन की आींखों में उस वक्त नदी की परु शोर िहरें , नदी ककनारे की
ू ती हुई डालिय ,ॉँ सनसनाती हुई हवा सबने जैसे रूप धर लिया था और सब की सब तेजी से कदम उठाये
झम
चिी जाती थीीं, अपने साजन से लमिने के लिए। उत्कींठा और प्रेम से झम ू ती हुई ऐ यव
ु ती की धींध
ु िी सपने-
जैसी तस्वीर हवा में , िहरों में और पेडों के झरु मट
ु में चिी जाती ददखाई दे ती और कहती थी- साजन से
लमिने के लिए! इस गीत ने सारे दृश्य पर उत्कींठा का जाद ू फींू क ददया।
मैं साजन से लमिन चिी
साजन बसत कौन सी नगरी मैं बौरी ना जानू
ना मोहे आस लमिन की उससे ऐसी प्रीत भिी
मैं साजन से लमिन चिी
मोदहनी खामोश हुई तो चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था और उस सन्नाटे में एक बहुत मद्धधम,
रसीिा स्वक्प्नि-स्वर क्षक्षनतज के उस पार से या नदी के नीचे से या हवा के झोंकों के साथ आता हुआ मन
के कानों को सन ु ाई दे ता था।
मैं साजन से लमिन चिी
ु े खयाि न रहा कक कह ॉँ हू और कह ॉँ
मैं इस गीत से इतना प्रभाववत हुआ कक जरा दे र के लिए मझ
जा रहा हू। ददि और ददमाग में वही राग गजू रहा था। अचानक मोदहनी ने कहा-उस ददये को दे खो। मैंने
ददये की तरफ दे खा। उसकी रोशनी मींद हो गई थी और आयु की पींज
ू ी खत्म हो चिी थी। आखखर वह एक
बार जरा भभका और बझ
ु गया। क्जस तरह पानी की बद
ू नदी में धगरकर गायब हो जाती है, उसी तरह
अींधेरे के फैिाव में उस ददये की हस्ती गायब हो गई ! मोदहनी ने धीमे से कहा, अब नहीीं ददखाई दे ता! बझ

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गया! यह कहकर उसने एक ठण्डी साींस िी। ददम उमड आया। आसओ
ु ीं से गिा फींस गया, जबान से लसफम
इतना ननकिा, क्या यही उसकी आखखरी मींक्जि थी? और आखों से आसू धगरने िगे।
मेरी आखों के सामने से पदाम-सा हट गया। मोदहनी की बेचन
ै ी और उत्कींठा, अधीरता और उदासी का
रहस्य समझ में आ गया और बरबस मेरी आींखों से भी आसू की चींद बींद
ू ें टपक पडीीं। क्या उस शोर-भरे ,
खतरनाक, तफ
ू ानी सफर की यही आखखरी मींक्जि थी?
दस
ू रे ददन मोदहनी उठी तो उसका चेहरा पीिा था। उसे रात भर नीींद नहीीं आई थी। वह कवव स्वभाव
की स्त्री थी। रात की इस घटना ने उसके ददम -भरे भावक
ु हृदय पर बहुत असर पैदा ककया था। हसी उसके
होंठों पर यू ही बहुत कम आती थी, ह ॉँ चेहरा खखिा रहता थाीं आज से वह हसमख
ु पन भी बबदा हो गया,
हरदम चेहरे पर एक उदासी-सी छायी रहती और बातें ऐसी क्जनसे हृदय छिनी होता था और रोना आता
था। मैं उसके ददि को इन ख्यािों से दरू रखने के लिए कई बार हसाने वािे ककस्से िाया मगर उसने उन्हें
खोिकर भी न दे खा। ह ,ॉँ जब मैं घर पर न होता तो वह कवव की रचनाएीं दे खा करती मगर इसलिए नहीीं
कक उनके पढ़ने से कोई आनन्द लमिता था बक्ल्क इसलिए कक उसे रोने के लिए खयाि लमि जाता था और
वह कववताए जो उस जमाने में उसने लिखीीं ददि को वपघिा दे ने वािे ददम-भरे गीत हैं। कौन ऐसा व्यक्क्त है
जो उन्हें पढ़कर अपने आसू रोक िेगा। वह कभी-कभी अपनी कववताए मझ
ु े सन
ु ाती और जब मैं ददम में
डूबकर उनकी प्रशींसा करता तो मझ
ु े उसकी ऑ ींखों में आत्मा के उल्िास का नशा ददखाई पडता। हसी-
ददल्िगी और रीं गीनी मम
ु ककन है कुछ िोगों के ददिों पर असर पैदा कर सके मगर वह कौन-सा ददि है जो
ददम के भावों से वपघि न जाएगा।
एक रोज हम दोनों इसी बाग की सैर कर रहे थे। शाम का वक्त था और चैत का महीना। मोदहनी की
तबबयत आज खश ु थी। बहुत ददनों के बाद आज उसके होंठों पर मस्ु कराहट की झिक ददखाई दी थी। जब
शाम हो गई और परू नमासी का च दॉँ गींगा की गोद से ननकिकर ऊपर उठा तो हम इसी हौज के ककनारे बैठ
ॉँ
गए। यह मौिलसररयों की कतार ओर यह हौज मोदहनी की यादगार हैं। च दनी में बबसात आयी और चौपड
होने िगी। आज तबबयत की ताजगी ने उसके रूप को चमका ददया था और उसकी मोहक चपितायें मझ
ु े
मतवािा ककये दे ती थीीं। मैं कई बाक्जय ॉँ खेिा और हर बार हारा। हारने में जो मजा था वह जीतने में कह ।ॉँ
हल्की-सी मस्ती में जो मजा है वह छकने और मतवािा होने में नहीीं।
ॉँ
च दनी खूब नछटकी हुई थी। एकाएक मोदहनी ने गींगा की तरफ दे खा और मझु से बोिी, वह उस पार
कैसी रोशनी नजर आ रही है ? मैंने भी ननगाह दौडाई, धचता की आग जि रही थी िेककन मैंने टािकर कहा-
ॉँ खाना पका रहे हैं।
स झी
मोदहनी को ववश्वास नहीीं हुआ। उसके चेहरे पर एक उदास मस्ु कराहट ददखाई दी और आखें नम हो
गईं। ऐसे दख
ु दे ने वािे दृश्य उसके भावक
ु और ददम मींद ददि पर वही असर करते थे जो िू की िपट फूिों
के साथ करती है ।
थोडी दे र तक वह मौन, ननश्चिा बैठी रही कफर शोकभरे स्वर में बोिी-‘अपनी आखखरी मींक्जि पर
पहुच गया!’
-जमाना, अगस्त-लसतम्बर १९११

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आल्हा

आ ल्हा का नाम ककसने नहीीं सन


ु ा। परु ाने जमाने के चन्दे ि राजपत
ू ों में वीरता और जान पर खेिकर
स्वामी की सेवा करने के लिए ककसी राजा महाराजा को भी यह अमर कीनतम नहीीं लमिी। राजपत
ू ों
के नैनतक ननयमों में केवि वीरता ही नहीीं थी बक्ल्क अपने स्वामी और अपने राजा के लिए जान दे ना भी
उसका एक अींग था। आल्हा और ऊदि की क्जन्दगी इसकी सबसे अच्छी लमसाि है । सच्चा राजपत
ू क्या
होता था और उसे क्या होना चादहये इसे लिस खूबसरू ती से इन दोनों भाइयों ने ददखा ददया है, उसकी
लमसाि दहन्दोस्तान के ककसी दस
ू रे दहस्से में मक्ु श्कि से लमि सकेगी। आल्हा और ऊदि के माके और
उसको कारनामे एक चन्दे िी कवव ने शायद उन्हीीं के जमाने में गाये, और उसको इस सब
ू े में जो िोकवप्रयता
प्राप्त है वह शायद रामायण को भी न हो। यह कववता आल्हा ही के नाम से प्रलसद्ध है और आठ-नौ
शताक्ब्दय ॉँ गुजर जाने के बावजूद उसकी ददिचस्पी और सवमवप्रयता में अन्तर नहीीं आया। आल्हा गाने का
इस प्रदे श मे बडा ररवाज है । दे हात में िोग हजारों की सींख्या में आल्हा सन
ु ने के लिए जमा होते हैं। शहरों
में भी कभी-कभी यह मण्डलिय ॉँ ददखाई दे जाती हैं। बडे िोगों की अपेक्षा सवमसाधारण में यह ककस्सा अधधक
िोकवप्रय है। ककसी मजलिस में जाइए हजारों आदमी जमीन के फशम पर बैठे हुए हैं, सारी महाकफि जैसे
बेसध
ु हो रही है और आल्हा गाने वािा ककसी मोढ़े पर बैठा हुआ आपनी अिाप सन
ु ा रहा है । उसकी आवज
आवश्यकतानस
ु ार कभी ऊची हो जाती है और कभी मद्धधम, मगर जब वह ककसी िडाई और उसकी
तैयाररयों का क्जक्र करने िगता है तो शब्दों का प्रवाह, उसके हाथों और भावों के इशारे , ढोि की मदामना िय
उन पर वीरतापण
ू म शब्दों का चस्
ु ती से बैठना, जो जडाई की कववताओीं ही की अपनी एक ववशेषता है, यह
सब चीजें लमिकर सन
ु ने वािों के ददिों में मदामना जोश की एक उमींग सी पैदा कर दे ती हैं। बयान करने का
तजम ऐसा सादा और ददिचस्प और जबान ऐसी आमफहम है कक उसके समझने में जरा भी ददक्कत नहीीं
होती। वणमन और भावों की सादगी, किा के सौंदयम का प्राण है।
राजा परमािदे व चन्दे ि खानदान का आखखरी राजा था। तेरहवीीं शाताब्दी के आरम्भ में वह खानदान
समाप्त हो गया। महोबा जो एक मामि
ू ी कस्बा है उस जमाने में चन्दे िों की राजधानी था। महोबा की
सल्तनत ददल्िी और कन्नौज से आींखें लमिाती थी। आल्हा और ऊदि इसी राजा परमािदे व के दरबार के
सम्मननत सदस्य थे। यह दोनों भाई अभी बच्चे ही थे कक उनका बाप जसराज एक िडाई में मारा गया।
राजा को अनाथों पर तरस आया, उन्हें राजमहि में िे आये और मोहब्बत के साथ अपनी रानी मलिनहा के
सप
ु द
ु म कर ददया। रानी ने उन दोनों भाइयों की परवररश और िािन-पािन अपने िडके की तरह ककया।
जवान होकर यही दोनों भाई बहादरु ी में सारी दनु नया में मशहूर हुए। इन्हीीं ददिावरों के कारनामों ने महोबे
का नाम रोशन कर ददया है।

बडे िडइया महोबेवािा


क्जनके बि को वार न पार

आल्हा और ऊदि राजा परमािदे व पर जान कुबामन करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। रानी
मलिनहा ने उन्हें पािा, उनकी शाददयाीं कीीं, उन्हें गोद में खखिाया। नमक के हक के साथ-साथ इन एहसानों
ॉँ
और सम्बन्धों ने दोनों भाइयों को चन्दे ि राजा का ज ननसार रखवािा और राजा परमािदे व का वफादार
सेवक बना ददया था। उनकी वीरता के कारण आस-पास के सैकडों घमींडी राजा चन्दे िों के अधीन हो गये।
ू के च दॉँ से बढ़कर
महोबा राजय की सीमाए नदी की बाढ़ की तरह फैिने िगीीं और चन्दे िों की शक्क्त दज
परू नमासी का च दॉँ हो गई। यह दोनों वीर कभी चैन से न बैठते थे। रणक्षेत्र में अपने हाथ का जौहर ददखाने
की उन्हें धन
ु थी। सख
ु -सेज पर उन्हें नीींद न आती थी। और वह जमाना भी ऐसा ही बेचनै नयों से भरा हुआ
था। उस जमाने में चैन से बैठना दनु नया के परदे से लमट जाना था। बात-बात पर तिवाींरें चितीीं और खून
की नददय ॉँ बहती थीीं। यह ॉँ तक कक शाददया भी खूनी िडाइयों जैसी हो गई थीीं। िडकी पैदा हुई और शामत
आ गई। हजारों लसपादहयों, सरदारों और सम्बक्न्धयों की जानें दहे ज में दे नी पडती थीीं। आल्हा और ऊदि
उस परु शोर जमाने की यच्ची तस्वीरें हैं और गोकक ऐसी हाितों ओर जमाने के साथ जो नैनतक दब
ु ि
म ताए
और ववषमताए पाई जाती हैं, उनके असर से वह भी बचे हुए नहीीं हैं, मगर उनकी दब
ु ि
म ताए उनका कसरू
नहीीं बक्ल्क उनके जमाने का कसरू हैं।
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आ ल्हा का मामा मादहि एक कािे ददि का, मन में द्वेष पािने वािा आदमी था। इन दोनों भाइयों
का प्रताप और ऐश्वयम उसके हृदय में क टेॉँ की तरह खटका करता था। उसकी क्जन्दगी की सबसे
बडी आरजू यह थी कक उनके बडप्पन को ककसी तरह खाक में लमिा दे । इसी नेक काम के लिए उसने
अपनी क्जन्दगी न्यौछावर कर दी थी। सैंकडों वार ककये, सैंकडों बार आग िगायी, यह ॉँ तक कक आखखरकार
उसकी नशा पैदा करनेवािी मींत्रणाओीं ने राजा परमाि को मतवािा कर ददया। िोहा भी पानी से कट जाता
है ।
एक रोज राजा परमाि दरबार में अकेिे बैठे हुए थे कक मादहि आया। राजा ने उसे उदास दे खकर
पछ
ू ा, भइया, तुम्हारा चेहरा कुछ उतरा हुआ है । मादहि की आखों में आसू आ गये। मक्कार आदमी को
अपनी भावनाओीं पर जो अधधकार होता है वह ककसी बडे योगी के लिए भी कदठन है । उसका ददि रोता है
मगर होंठ हसते हैं, ददि खलु शयों के मजे िेता है मगर आखें रोती हैं, ददि डाह की आग से जिता है मगर
जबान से शहद और शक्कर की नददय ॉँ बहती हैं।
मादहि बोिा-महाराज, आपकी छाया में रहकर मझ
ु े दनु नया में अब ककसी चीज की इच्छा बाकी नहीीं
मगर क्जन िोगों को आपने धि ू से उठाकर आसमान पर पहुचा ददया और जो आपकी कृपा से आज बडे
प्रताप और ऐश्वयमवािे बन गये, उनकी कृतघ्रता और उपद्रव खडे करना मेरे लिए बडे द:ु ख का कारण हो रही
है ।
परमाि ने आश्चयम से पछ
ू ा- क्या मेरा नमक खानेवािों में ऐसे भी िोग हैं?
मादहि- महाराज, मैं कुछ नहीीं कह सकता। आपका हृदय कृपा का सागर है मगर उसमें एक खींख
ू ार
घडडयाि आ घस
ु ा है ।
-वह कौन है ?
-मैं।
राजा ने आश्चयामक्न्वत होकर कहा-तुम!
मदहि- ह ॉँ महाराज, वह अभागा व्यक्क्त मैं ही हू। मैं आज खदु अपनी फररयाद िेकर आपकी सेवा में
उपक्स्थत हुआ हू। अपने सम्बक्न्धयों के प्रनत मेरा जो कतमव्य है वह उस भक्क्त की तुिना में कुछ भी नहीीं
जो मझ
ु े आपके प्रनत है । आल्हा मेरे क्जगर का टुकडा है । उसका माींस मेरा माींस और उसका रक्त मेरा रक्त
है । मगर अपने शरीर में जो रोग पैदा हो जाता है उसे वववश होकर हकीम से कहना पडता है। आल्हा अपनी
दौित के नशे में चरू हो रहा है । उसके ददि में यह झठ
ू ा खयाि पैदा हो गया है कक मेरे ही बाहु-बि से यह
राजय कायम है।
राजा परमाि की आींखें िाि हो गयीीं, बोिा-आल्हा को मैंने हमेशा अपना िडका समझा है ।
मादहि- िडके से जयादा।
परमाि- वह अनाथ था, कोई उसका सींरक्षक न था। मैंने उसका पािन-पोषण ककया, उसे गोद में
खखिाया। मैंने उसे जागीरें दीीं, उसे अपनी फौज का लसपहसािार बनाया। उसकी शादी में मैंने बीस हजार
चन्दे ि सरू माओीं का खून बहा ददया। उसकी म ॉँ और मेरी मलिनहा वषों गिे लमिकर सोई हैं और आल्हा
क्या मेरे एहसानों को भि
ू सकता है ? मादहि, मझ
ु े तुम्हारी बात पर ववश्वास नहीीं आता।
मादहि का चेहरा पीिा पड गया। मगर सम्हिकर बोिा- महाराज, मेरी जबान से कभी झठ
ू बात नहीीं
ननकिी।
परमाह- मझ
ु े कैसे ववश्वास हो?
मदहि ने धीरे से राजा के कान में कुछ कह ददया।

आ ल्हा और ऊदि दोनों चौगान के खेि का अभ्यास कर रहे थे। िम्बे-चौडे मैदान में हजारों आदमी
इस तमाशे को दे ख रहे थे। गें द ककसी अभागे की तरह इधर-उधर ठोकरें खाता कफरता था। चोबदार
ने आकर कहा-महाराज ने याद फरमाया है।
आल्हा को सन्दे ह हुआ। महाराज ने आज बेवक्त क्यों याद ककया? खेि बन्द हो गया। गें द को ठोकरों से
छुट्टी लमिी। फौरन दरबार मे चौबदार के साथ हाक्जर हुआ और झक
ु कर आदाब बजा िाया।
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परमाि ने कहा- मैं तम ॉँ ?
ु से कुछ म ग ू दोगे?
आल्हा ने सादगी से जवाब ददया-फरमाइए।
परमाि-इनकार तो न करोगे?
आल्हा ने कनखखयों से मादहि की तरफ दे खा समझ गया कक इस वक्त कुछ न कुछ दाि में कािा
है । इसके चेहरे पर यह मस्
ु कराहट क्यों? गूिर में यह फूि क्यों िगे? क्या मेरी वफादारी का इम्तहान लिया
जा रहा है ? जोश से बोिा-महाराज, मैं आपकी जबान से ऐसे सवाि सन ु ने का आदी नहीीं हू। आप मेरे
सींरक्षक, मेरे पािनहार, मेरे राजा हैं। आपकी भवों के इशारे पर मैं आग में कूद सकता हू और मौत से िड
सकता हू। आपकी आज्ञा पाकर में असम्भव को सम्भव बना सकता हू आप मझ
ु से ऐसे सवाि न करें ।
परमाि- शाबाश, मझु े तुमसे ऐसी ही उम्मीद है ।
आल्हा-मझ
ु े क्या हुक्म लमिता है ?
परमाि- तम्
ु हारे पास नाहर घोडा है ?
आल्हा ने ‘जी ह ’ॉँ कहकर मादहि की तरफ भयानक गुस्से भरी हुई आखों से दे खा।
परमाि- अगर तुम्हें बरु ा न िगे तो उसे मेरी सवारी के लिए दे दो।
आल्हा कुछ जवाब न दे सका, सोचने िगा, मैंने अभी वादा ककया है कक इनकार न करूगा। मैंने बात
हारी है । मझ
ु े इनकार न करना चादहए। ननश्चय ही इस वक्त मेरी स्वालमभक्क्त की परीक्षा िी जा रही है।
मेरा इनकार इस समय बहुत बेमौका और खतरनाक है। इसका तो कुछ गम नहीीं। मगर मैं इनकार ककस
महु से करू, बेवफा न कहिाऊगा? मेरा और राजा का सम्बन्ध केवि स्वामी और सेवक का ही नहीीं है, मैं
उनकी गोद में खेिा हू। जब मेरे हाथ कमजोर थे, और प वॉँ में खडे होने का बत
ू ा न था, तब उन्होंने मेरे
जल्
ु म सहे हैं, क्या मैं इनकार कर सकता हू?
ववचारों की धारा मड
ु ी- माना कक राजा के एहसान मझ
ु पर अनधगनती हैं मेरे शरीर का एक-एक रोआ
उनके एहसानों के बोझ से दबा हुआ है मगर क्षबत्रय कभी अपनी सवारी का घोडा दस ू रे को नहीीं दे ता। यह
क्षबत्रयों का धमम नहीीं। मैं राजा का पािा हुआ और एहसानमन्द हू। मझु े अपने शरीर पर अधधकार है। उसे मैं
राजा पर न्यौछावर कर सकता हू। मगर राजपत ू ी धमम पर मेरा कोई अधधकार नहीीं है , उसे मैं नहीीं तोड
सकता। क्जन िोगों ने धमम के कच्चे धागे को िोहे की दीवार समझा है , उन्हीीं से राजपत
ू ों का नाम चमक
रहा है । क्या मैं हमेशा के लिए अपने ऊपर दाग िगाऊ? आह! मादहि ने इस वक्त मझ
ु े खूब जकड रखा है ।
सामने खींख
ू ार शेर है; पीछे गहरी खाई। या तो अपमान उठाऊ या कृतघ्न कहिाऊ। या तो राजपत ू ों के नाम
को डुबोऊ या बबामद हो ज ऊ। ॉँ खैर, जो ईश्वर की मजी, मझ
ु े कृतघ्न कहिाना स्वीकार है, मगर अपमाननत
होना स्वीकार नहीीं। बबामद हो जाना मींजरू है, मगर राजपत
ू ों के धमम में बट्टा िगाना मींजरू नहीीं।
आल्हा सर नीचा ककये इन्हीीं खयािों में गोते खा रहा था। यह उसके लिए परीक्षा की घडी थी क्जसमें
सफि हो जाने पर उसका भववष्य ननभमर था।
मगर मादहिा के लिए यह मौका उसके धीरज की कम परीक्षा िेने वािा न था।
वह ददन अब आ गया क्जसके इन्तजार में कभी आखें नहीीं थकीीं। खुलशयों की यह बाढ़ अब सींयम की
िोहे की दीवार को काटती जाती थी। लसद्ध योगी पर दब
ु ि
म मनष्ु य की ववजय होती जाती थी। एकाएक
परमाि ने आल्हा से बि
ु न्द आवाज में पछ
ू ा- ककस दननधा में हो? क्या नहीीं दे ना चाहते?
आल्हा ने राजा से आींखें लमिाकर कहा-जी नहीीं।
परमाि को तैश आ गया, कडककर बोिा-क्यों?
आल्हा ने अववचि मन से उत्तर ददया-यह राजपत
ू ों का धमम नहीीं है ।
परमाि-क्या मेरे एहसानों का यही बदिा है ? तुम जानते हो, पहिे तुम क्या थे और अब क्या हो?
आल्हा-जी ह ,ॉँ जानता हू।
परमाि- तुम्हें मैंने बनाया है और मैं ही बबगाड सकता हू।
आल्हा से अब सि न हो सका, उसकी आखें िाि हो गयीीं और त्योररयों पर बि पड गये। तेज िहजे
में बोिा- महाराज, आपने मेरे ऊपर जो एहसान ककए, उनका मैं हमेशा कृतज्ञ रहूगा। क्षबत्रय कभी एहसान
नहीीं भि
ू ता। मगर आपने मेरे ऊपर एहसान ककए हैं, तो मैंने भी जो तोडकर आपकी सेवा की है। लसफम
नौकरी और नामक का हक अदा करने का भाव मझ
ु में वह ननष्ठा और गमी नहीीं पैदा कर सकता क्जसका मैं
बार-बार पररचय दे चक
ु ा हू। मगर खैर, अब मझ
ु े ववश्वास हो गया कक इस दरबार में मेरा गज
ु र न होगा।
मेरा आखखरी सिाम कबि ू हो और अपनी नादानी से मैंने जो कुछ भि
ू की है वह माफ की जाए।

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मादहि की ओर दे खकर उसने कहा- मामा जी, आज से मेरे और आपके बीच खन
ू का ररश्ता टूटता है।
आप मेरे खन
ू के प्यासे हैं तो मैं भी आपकी जान का दश्ु मन हू।

आ ल्हा की म ॉँ का नाम दे वि दे वी था। उसकी धगनती उन हौसिे वािी उच्च ववचार क्स्त्रयों में है
क्जन्होंने दहन्दोस्तान के वपछिे कारनामों को इतना स्पह
जबकक आपसी फूट और बैर की एक भयानक बाढ़ मल्
ृ णीय बना ददया है । उस अींधेरे यग
ु में भी
ु क में आ पहुची थी, दहन्दोस्तान में ऐसी ऐसी दे ववय ॉँ
पैदा हुई जो इनतहास के अींधेरे से अींधेरे पन्नों को भी जयोनतत कर सकती हैं। दे वि दे वी से सन ु ा कक
आल्हा ने अपनी आन को रखने के लिए क्या ककया तो उसकी आखों भर आए। उसने दोनों भाइयों को गिे
िगाकर कहा- बेटा ,तुमने वही ककया जो राजपत
ू ों का धमम था। मैं बडी भाग्यशालिनी हू कक तुम जैसे दो
बात की िाज रखने वािे बेटे पाये हैं ।
उसी रोज दोनों भाइयों महोबा से कूच कर ददया अपने साथ अपनी तिवार और घोडो के लसवा और
कुछ न लिया। माि –असबाब सब वहीीं छोड ददये लसपाही की दौित और इजजत सबक कुछ उसकी तिवार
है । क्जसके पास वीरता की सम्पनत है उसे दस
ू री ककसी सम्पनत की जरुरत नहीीं।
बरसात के ददन थे, नदी नािे उमडे हुए थे। इन्द्र की उदारताओीं से मािामाि होकर जमीन फूिी नहीीं
समाती थी । पेडो पर मोरों की रसीिी झनकारे सन ु ाई दे ती थीीं और खेतों में ननक्श्चन्तता की शराब से
मतवाि ककसान मल्हार की तानें अिाप रहे थे । पहाडडयों की घनी हररयावि पानी की दपमन –जैसी सतह
और जगींिी बेि बट
ू ों के बनाव सींवार से प्रकृनत पर एक यौवन बरस रहा था। मैदानों की ठीं डी-ठडीीं मस्त
हवा जींगिी फूिों की मीठी मीठी, सहु ानी, आत्मा को उल्िास दे नेवािी महक और खेतों की िहराती हुई रीं ग
बबरीं गी उपज ने ददिो में आरजओ
ु ीं का एक तफ ू ान उठा ददया था। ऐसे मब ु ारक मौसम में आल्हा ने महोबा
को आखखरी सिाम ककया । दोनों भाइयो की आखे रोते रोते िाि हो गयी थीीं क्योंकक आज उनसे उनका दे श
छूट रहा था । इन्हीीं गलियों में उन्होंने घट
ु ने के बि चिना सीखा था, इन्ही तािाबों में कागज की नावें
चिाई थीीं, यही जवानी की बेकफकक्रयों के मजे िट
ू े थे। इनसे अब हमेशा के लिए नाता टूटता था। दोनो भाई
आगे बढते जाते थे , मगर बहुत धीरे -धीरे । यह खयाि था कक शायद परमाि ने रुठनेवािों को मनाने के
लिए अपना कोई भरोसे का आदमी भेजा होगा। घोडो को सम्हािे हुए थे, मगर जब महोबे की पहाडडयो
का आखखरी ननशान ऑ ींखों से ओझि हो गया तो उम्मीद की आखखरी झिक भी गायब हो गयी। उन्होनें
क्जनका कोई दे श नथा एक ठीं डी साींस िी और घोडे बढा ददये। उनके ननवामसन का समाचार बहुत जल्द
चारों तरफ फैि गया। उनके लिए हर दरबार में जगह थीीं, चारों तरफ से राजाओ के सदे श आने िगे।
कन्नौज के राजा जयचन्द ने अपने राजकुमार को उनसे लमिने के लिए भेजा। सींदेशों से जो काम न ननकिा
वह इस मि
ु ाकात ने परू ा कर ददया। राजकुमार की खानतदाररया और आवभगत दोनों भाइयों को कन्नौज
खीींच िे नई। जयचन्द आींखें बबछाये बैठा था। आल्हा को अपना सेनापनत बना ददया।

आ ल्हा और ऊदि के चिे जाने के बाद महोबे में तरह-तरह के अींधेर शरु
था। मातहत राजाओीं ने बगावत का झण्डा बि
िोगों को वश में रख सके। ददल्िी के राज पथ्
ु हुए। परमाि कमजी शासक
ु न्द ककया। ऐसी कोई ताकत न रही जो उन झगडािू
ृ वीराज की कुछ सेना लसमता से एक सफि िडाई िडकर
वापस आ रही थी। महोबे में पडाव ककया। अक्खड लसपादहयों में तिवार चिते ककतनी दे र िगती है। चाहे
राजा परमाि के मि ु ाक्जयों की जयादती हो चाहे चौहान लसपादहयों की, तनीजा यह हुआ कक चन्दे िों और
चौहानों में अनबन हो गई। िडाई नछड गई। चौहान सींख्या में कम थे। चींदेिों ने आनतथ्य-सत्कार के ननयमों
को एक ककनारे रखकर चौहानों के खून से अपना किेजा ठीं डा ककया और यह न समझे कक मठ्
ु ठी भर
लसपादहयों के पीछे सारे दे श पर ववपवत्त आ जाएगी। बेगुनाहों को खून रीं ग िायेगा। पथ्
ृ वीराज को यह ददि
तोडने वािी खबर लमिी तो उसके गुस्से की कोई हद न रही। ऑ ींधी की तरह महोबे पर चढ़ दौडा और
लसरको, जो इिाका महोबे का एक मशहूर कस्बा था, तबाह करके महोबे की तरह बढ़ा। चन्दे िों ने भी फौज
खडी की। मगर पहिे ही मकु ाबबिे में उनके हौसिे पस्त हो गये। आल्हा-ऊदि के बगैर फौज बबन दल्ू हे की
बारात थी। सारी फौज नततर-बबतर हो गयी। दे श में तहिका मच गया। अब ककसी क्षण पथ्
ृ वीराज महोबे में
आ पहुचेगा, इस डर से िोगों के हाथ-प वॉँ फूि गये। परमाि अपने ककये पर बहुत पछताया। मगर अब

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पछताना व्यथम था। कोई चारा न दे खकर उसने पथ्
ृ वीराज से एक महीने की सक्न्ध की प्राथमना की। चौहान
राजा यद्
ु ध के ननयमों को कभी हाथ से न जाने दे ता था। उसकी वीरता उसे कमजोर, बेखबर और नामस्
ु तैद
दश्ु मन पर वार करने की इजाजत न दे ती थी। इस मामिे में अगर वह इन ननयमों को इतनी सख्ती से
पाबन्द न होता तो शहाबद्
ु दीन के हाथों उसे वह बरु ा ददन न दे खना पडता। उसकी बहादरु ी ही उसकी जान
की गाहक हुई। उसने परमाि का पैगाम मींजूर कर लिया। चन्दे िों की जान में जान आई।
अब सिाह-मशववरा होने िगा कक पथ् ृ वीराज से क्योंकर मक
ु ाबबिा ककया जाये। रानी मलिनहा भी इस
मशववरे में शरीक थीीं। ककसी ने कहा, महोबे के चारों तरफ एक ऊची दीवार बनायी जाय ; कोई बोिा, हम
िोग महोबे को वीरान करके दक्क्खन को ओर चिें। परमाि जबान से तो कुछ न कहता था, मगर समपमण
के लसवा उसे और कोई चारा न ददखाई पडता था। तब रानी मलिनहा खडी होकर बोिी :
‘चन्दे ि वींश के राजपत
ू ो, तम
ु कैसी बच्चों की-सी बातें करते हो? क्या दीवार खडी करके तम
ु दश्ु मन को
रोक िोगे? झाडू से कहीीं ऑ ींधी रुकती है ! तम
ु महोबे को वीरान करके भागने की सिाह दे ते हो। ऐसी
कायरों जैसी सिाह औरतें ददया करती हैं। तुम्हारी सारी बहादरु ी और जान पर खेिना अब कह ॉँ गया? अभी
बहुत ददन नहीीं गज ु रे कक चन्दे िों के नाम से राजे थरामते थे। चन्दे िों की धाक बींधी हुई थी, तुमने कुछ ही
सािों में सैंकडों मैदान जीते, तुम्हें कभी हार नहीीं हुई। तुम्हारी तिवार की दमक कभी मन्द नहीीं हुई। तम ु
अब भी वही हो, मगर तुममें अब वह परु
ु षाथम नहीीं है। वह परु
ु षाथम बनाफि वींश के साथ महोबे से उठ गया।
दे वि दे वी के रुठने से चक्ण्डका दे वी भी हमसे रुठ गई। अब अगर कोई यह हारी हुई बाजी सम्हाि सकता है
तो वह आल्हा है । वही दोनों भाई इस नाजक ु वक्त में तुम्हें बचा सकते हैं। उन्हीीं को मनाओ, उन्हीीं को
समझाओीं, उन पर महोते के बहुत हक हैं। महोबे की लमट्टी और पानी से उनकी परवररश हुई है। वह महोबे
के हक कभी भिू नहीीं सकते, उन्हें ईश्वर ने बि और ववद्या दी है, वही इस समय ववजय का बीडा उठा
सकते हैं।’
रानी मलिनहा की बातें िोगों के ददिों में बैठ गयीीं।

ज गना भाट आल्हा और ऊदि को कन्नौज से िाने के लिए रवाना हुआ। यह दोनों भाई राजकुवर
िाखन के साथ लशकार खेिने जा रहे थे कक जगना ने पहुचकर प्रणाम ककया। उसके चेहरे से परे शानी
ू ा—कवीश्वर, यह ॉँ कैसे भि
और खझझक बरस रही थी। आल्हा ने घबराकर पछ ू पडे? महोबे में तो खैररयत है?
हम गरीबों को क्योंकर याद ककया?
जगना की ऑ ींखों में ऑ ींसू भर जाए, बोिा—अगर खैररयत होती तो तम्
ु हारी शरण में क्यों आता।
मस
ु ीबत पडने पर ही दे वताओीं की याद आती है । महोबे पर इस वक्त इन्द्र का कोप छाया हुआ है । पथ् ृ वीराज
चौहान महोबे को घेरे पडा है। नरलसींह और वीरलसींह तिवारों की भें ट हो चक
ु े है। लसरकों सारा राख को ढे र हो
गया। चन्दे िों का राज वीरान हुआ जाता है । सारे दे श में कुहराम मचा हुआ है। बडी मक्ु श्किों से एक महीने
की मौहित िी गई है और मझ ु े राजा परमाि ने तुम्हारे पास भेजा है। इस मस ु ीबत के वक्त हमारा कोई
मददगार नहीीं है, कोई ऐसा नहीीं है जो हमारी ककम्मत बॅंधाये। जब से तुमने महोबे से नहीीं है , कोई ऐसा
नहीीं है जो हमारी दहम्मत बधाये। जब से तुमने महोबे से नाता तोडा है तब से राजा परमाि के होंठों पर
हसी नहीीं आई। क्जस परमाि को उदास दे खकर तुम बेचन
ै हो जाते थे उसी परमाि की ऑ ींखें महीनों से नीींद
को तरसती हैं। रानी मदहिना, क्जसकी गोद में तम
ु खेिे हो, रात-ददन तम्
ु हारी याद में रोती रहती है । वह
अपने झरोखें से कन्नैज की तरफ ऑ ींखें िगाये तम्
ु हारी राह दे खा करती है । ऐ बनाफि वींश के सपत
ू ो !
चन्दे िों की नाव अब डूब रही है। चन्दे िों का नाम अब लमटा जाता है । अब मौका है कक तुम तिवारे हाथ
में िो। अगर इस मौके पर तुमने डूबती हुई नाव को न सम्हािा तो तुम्हें हमेशा के लिए पछताना पडेगा
क्योंकक इस नाम के साथ तुम्हारा और तुम्हारे नामी बाप का नाम भी डूब जाएगा।
आल्हा ने रुखेपन से जवाब ददया—हमें इसकी अब कुछ परवाह नहीीं है । हमारा और हमारे बाप का
नाम तो उसी ददन डूब गया, जब हम बेकसरू महोबे से ननकाि ददए गए। महोबा लमट्टी में लमि जाय,
चन्दे िों को धचराग गि
ु हो जाय, अब हमें जरा भी परवाह नहीीं है । क्या हमारी सेवाओीं का यही परु स्कार था
जो हमको ददया गया? हमारे बाप ने महोबे पर अपने प्राण न्यौछावर कर ददये, हमने गोडों को हराया और
चन्दे िों को दे वगढ़ का मालिक बना ददया। हमने यादवों से िोहा लिया और कदठयार के मैदान में चन्दे िों
का झींडा गाड ददया। मैंने इन्ही हाथों से कछवाहों की बढ़ती हुई िहर को रोका। गया का मैदान हमीीं ने

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जीता, रीव ॉँ का घमण्ड हमीीं ने तोडा। मैंने ही मेवात से खखराज लिया। हमने यह सब कुछ ककया और इसका
हमको यह परु स्कार ददया गया है? मेरे बाप ने दस राजाओीं को गि
ु ामी का तौक पहनाया। मैंने परमाि की
ु से ननकि आया। मैने चािीस िडाइय ॉँ िडी
सेवा में सात बार प्राणिेवा जख्म खाए, तीन बार मौत के मह
और कभी हारकर न आया। ऊदि ने सात खूनी माके जीते। हमने चन्दे िों की बहादरु ी का डींका बजा ददया।
चन्दे िों का नाम हमने आसमान तक पहुचा ददया और इसके यह परु स्कार हमको लमिा है ? परमाि अब
क्यों उसी दगाबाज मादहि को अपनी मदद के लिए नहीीं बि
ु ाते क्जसकों खश
ु करने के लिए मेरा दे श
ननकािा हुआ था !
जगना ने जवाब ददया—आल्हा ! यह राजपत
ू ों की बातें नहीीं हैं। तुम्हारे बाप ने क्जस राज पर प्राण
न्यौछावर कर ददये वही राज अब दश्ु मन के पाींव तिे रौंदा जा रहा है । उसी बाप के बेटे होकर भी क्या
तम्
ु हारे खन
ू में जोश नहीीं आता? वह राजपत ू जो अपने मस ु ीबत में पडे हुए राजा को छोडता है, उसके लिए
नरक की आग के लसवा और कोई जगह नहीीं है । तम् ु हारी मातभृ लू म पर बबामदी की घटा छायी हुई हैं। तम्
ु हारी
माऍ ीं और बहनें दश्ु मनों की आबरु िट
ू नेवािी ननगाहों को ननशाना बन रही है, क्या अब भी तुम्हारे खून में
जोश नहीीं आता? अपने दे श की यह दग
ु त
म दे खकर भी तुम कन्नौज में चैन की नीींद सो सकते हो?
दे वि दे वी को जगना के आने की खबर हुई। असने फौरन आल्हा को बि
ु ाकर कहा—बेटा, वपछिी बातें
भि
ू जाओीं और आज ही महोबे चिने की तैयारी करो।
आल्हा कुछ जबाव न दे सका, मगर ऊदि झझिाकर
ु बोिा—हम अब महोबे नहीीं जा सकते। क्या तुम
वह ददन भि
ू गये जब हम कुत्तों की तरह महोबे से ननकाि ददए गए? महोबा डूबे या रहे , हमारा जी उससे
भर गया, अब उसको दे खने की इच्छा नहीीं हे । अब कन्नौज ही हमारी मातभ
ृ लू म है ।
राजपत
ू नी बेटे की जबान से यह पाप की बात न सन
ु सकी, तैश में आकर बोिी—ऊदि, तझ
ु े ऐसी बातें
मींह
ु से ननकािते हुए शमम नहीीं आती ? काश, ईश्वर मझ ॉँ ही रखता कक ऐसे बेटों की म ॉँ न बनती। क्या
ु े बझ
इन्हीीं बनाफि वींश के नाम पर किींक िगानेवािों के लिए मैंने गभम की पीडा सही थी? नािायको, मेरे सामने
से दरू हो जाओीं। मझ
ु े अपना मह
ु न ददखाओीं। तुम जसराज के बेटे नहीीं हो, तुम क्जसकी रान से पैदा हुए हो
वह जसराज नहीीं हो सकता।
यह ममामन्तक चोट थी। शमम से दोनों भाइयों के माथे पर पसीना आ गया। दोनों उठ खडे हुए और
बोिे- माता, अब बस करो, हम जयादा नहीीं सनु सकते, हम आज ही महोबे जायेंगे और राजा परमाि की
खखदमत में अपना खन
ू बहायेंगे। हम रणक्षेत्र में अपनी तिवारों की चमक से अपने बाप का नाम रोशन
करें गे। हम चौहान के मक
ु ाबबिे में अपनी बहादरु ी के जौहर ददखायेंगे और दे वि दे वी के बेटों का नाम अमर
कर दें गे।

दो नों भाई कन्नौज से चिे, दे वि भी साथ थी। जब वह रुठनेवािे अपनी मातभ ृ लू म में पहुचे तो सख
धानों में पानी पड गया, टूटी हुई दहम्मतें बींध गयीीं। एक िाख चन्दे ि इन वीरों की अगवानी करने के
ू ें

लिए खडे थे। बहुत ददनों के बाद वह अपनी मातभ ृ लू म से बबछुडे हुए इन दोनों भाइयों से लमिे। ऑ ींखों ने
खुशी के ऑ ींसू बहाए। राजा परमाि उनके आने की खबर पाते ही कीरत सागर तक पैदि आया। आल्हा और
ऊदि दौडकर उसके पाींव से लिपट गए। तीनों की आींखों से पानी बरसा और सारा मनमट
ु ाव धि
ु गया।
दश्ु मन सर पर खडा था, जयादा आनतथ्य-सत्कार का मौकर न था, वहीीं कीरत सागर के ककनारे दे श के
नेताओीं और दरबार के कममचाररयों की राय से आल्हा फौज का सेनापनत बनाया गया। वहीीं मरने-मारने के
लिए सौगन्धें खाई गई। वहीीं बहादरु ों ने कसमें खाई कक मैदान से हटें गे तो मरकर हटें गें। वहीीं िोग एक
दस
ू रे के गिे लमिे और अपनी ककस्मतों को फैसिा करने चिे। आज ककसी की ऑ ींखों में और चेहरे पर
उदासी के धचन्ह न थे, औरतें हॅं स-हस कर अपने प्यारों को ववदा करती थीीं, मदम हस-हसकर क्स्त्रयों से अिग
होते थे क्योंकक यह आखखरी बाजी है , इसे जीतना क्जन्दगी और हारना मौत है ।
उस जगह के पास जह ॉँ अब और कोई कस्बा आबाद है, दोनों फौजों को मक
ु ाबिा हुआ और अठारह
ददन तक मारकाट का बाजार गमम रहा। खूब घमासान िडाई हुई। पथ्
ृ वीराज खुद िडाई में शरीक था। दोनों
दि ददि खोिकर िडे। वीरों ने खब
ू अरमान ननकािे और दोनों तरफ की फौजें वहीीं कट मरीीं। तीन िाख
आदलमयों में लसफम तीन आदमी क्जन्दा बचे-एक पथ्
ृ वीराज, दस
ू रा चन्दा भाट तीसरा आल्हा। ऐसी भयानक
अटि और ननणामयक िडाई शायद ही ककसी दे श और ककसी यग
ु में हुई हो। दोनों ही हारे और दोनों ही

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जीते। चन्दे ि और चौहान हमेशा के लिए खाक में लमि गए क्योंकक थानेसर की िडाई का फैसिा भी इसी
मैदान में हो गया। चौहानों में क्जतने अनभ
ु वी लसपाही थे, वह सब औरई में काम आए। शहाबद्
ु दीन से
मक
ु ाबबिा पडा तो नौलसखखये, अनभ
ु वहीन लसपाही मैदान में िाये गये और नतीजा वही हुआ जो हो सकता
था। आल्हा का कुद पता न चिा कक कह ॉँ गया। कहीीं शमम से डूब मरा या साधू हो गया।
जनता में अब तक यही ववश्वास है कक वह क्जन्दा है । िोग कहते हैं कक वह अमर हो गया। यह
बबल्कुि ठीक है क्योंकक आल्हा सचमच
ु अमर है अमर है और वह कभी लमट नहीीं सकता, उसका नाम
हमेशा कायम रहे गा।
--जमाना, जनवरी १९१२

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निीहतों का दफ्तर

बा बू अक्षयकुमार पटना के एक वकीि थे और बडे वकीिों में समझे जाते थे। यानी रायबहादरु ी के
करीब पहुच चक
ु े थे। जैसा कक अकसर बडे आदलमयों के बारे में मशहूर है , इन बाबू साब का
ॉँ
िडकपन भी बहुत गरीबी में बीता था। म -बाप अब अपने शैतान िडकों को ड टते ॉँ -ड पटते
ॉँ तो बाबू
अक्षयकुमार का नाम लमसाि के तौर पर पेश ककया जाता था—अक्षय बाबू को दे खों, आज दरवाजें पर हाथी
झम
ू ता है, कि पढ़ने को तेि नहीीं मयस्सर होता था, पआ
ु ि जिाकर उसकी ऑ ींच में पढ़ते, सडक की
िािटे नों की रोशनी में सबक याद करते। ववद्या इस तरह आती है । कोई-कोई कल्पनाशीि व्यक्क्त इस बात
के भी साक्षी थे कक उन्होंने अक्षय बाबू को जग
ु नू की रोशनी में पढ़ते दे खा है जग
ु नू की दमक या पआ
ु ि की
ऑ ींच में स्थायी प्रकाश हो सकता है, इसका फैसिा सन
ु नेवािों की अक्ि पर था। कहने का आशय यह है कक
अक्षयकुमार का बचपन का जमाना बहुत ईष्याम करने योग्य न था और न वकाित का जमाना खुशनसीबबयों
की वह बाढ़ अपने साथ िाया क्जसकी उम्मीद थी। बाढ़ का क़्िक्र ही क्या, बरसों तक अकाि की सरू त थीीं
ॉँ खडी
यह आशा कक लसयाह गाउन कामधेनु साबबत होगा और दलु िया की सारी नेमतें उसके सामने हाथ ब धे
रहे गी, झठ
ू ननकिी। कािा गाउन कािे नसीब को रोशन न कर सका। अच्छे ददनों के इन्तजार में बहुत ददन
गुजर गए और आखखरकार जब अच्छे ददन आये, जब गाडमन पादटम यों में शरीक होने की दावतें आने िगीीं,
जब वह आम जिसों में सभापनत की कुसी पर शोभायमान होने िगे तो जवानी बबदा हो चक
ु ी थी और बािों
को खखजाब की जरुरत महसस
ू होने िगी थी। खासकर इस कारण से कक सन्
ु दर और हसमख
ु हे मवती की
खानतरदारी जरुरी थी क्जसके शभ
ु आगमन ने बाबू अक्षयकुमार के जीवन की अक्न्तम आकाींक्षा को परू ा कर
ददया था।
2

क्ज
स तरह दानशीिता मनष्ु य की दग
ु ण
ुम ों को नछपा िेती है उसी तरह कृपणता उसके सद्गुणों पर पदाम
डाि दे ती है। कींजूस आदमी के दश्ु मन सब होते हैं, दोस्त कोई नहीीं होता। हर व्यक्क्त को उससे
नफरत होती है । वह गरीब ककसी को नक
ु सान नहीीं पहूचाता, आम तौर पर वह बहुत ही शाक्न्तवप्रय, गम्भीर,
सबसे लमिजुि कर रहनेवािा और स्वालभमानी व्यक्क्त होता हे मगर कींजस
ू ी कािा रीं ग है क्जस पर दसू रा
कोई रीं ग, चाहे ककतना ही चटख क्यों न हों, नहीीं चढ़ सकता। बाबू अक्षयकुमार भी कींजूस मशहूर थे, हाि ककॉँ
जैसा कायदा है , यह उपाधध उन्हें ईष्याम के दरबार से प्राप्त हुई थी। जो व्यक्क्त कींजस
ू कहा जाता हो, समझ
ॉँ
िो कक वह बहुत भाग्यशािी है और उससे डाह करने वािे बहुत हैं। अगर बाबू अक्षयकुमार कौडडयों को द त
से पकडते थे तो ककसी का क्या नक
ु सान था। अगर उनका मकान बहुत ठाट-बाट से नहीीं सजा हुआ था,
अगर उनके यह ॉँ मफ्
ु तखोर ऊघनेवािे नौकरों की फौज नहीीं थी, अगर वह दो घोडों की कफटन पर कचहरी
नहीीं जाते थे तो ककसी का क्या नक
ु सान था। उनकी क्जन्दगी का उसि
ू था कक कौडडयों की तुम कफक्र रखो,
रुपये अपनी कफक्र आप कर िेंगे। और इस सन
ु हरे उसि
ू का कठोरता से पािन करने का उन्हें परू ा अधधकार
था। इन्हीीं कौडडयों पर जवानी की बहारें और ददि की उमींगें न्यौछावर की थीीं। ऑ ींखों की रोशनी और सेहत
ॉँ से पकडते थे तो बहुत अच्छा करते थे, पिकों से
जैसी बडी नेमत इन्हीीं कौडडयों पर चढ़ाती थीीं। उन्हें द तों
उठाना चादहए था।
िेककन सन्
ु दर हसमख
ु हे मवती का स्वभाव इसके बबिकुि उिटा था। अपनी दस
ू री बहनों की तरह वह
भी सख
ु -सवु वधा पर जान दे ती थी और गो बाबू अक्षयकुमार ऐसे नादान और ऐसे रुखे-सख
ू े नहीीं थे कक
उसकी कद्र करने के काबबि कमजोररयों की कद्र न करते (नहीीं, वह लसींगार और सजावट की चीजों को
दे खकर कभी-कभी खश
ु होने की कोलशश भी करते थे) मगर कभी-कभी जब हे मवती उनकी नेक सिाहों ही
परवाह न करके सीमा से आगे बढ़ जाती थी तो उस ददन बाबू साहब को उसकी खानतर अपनी वकाित की
योग्यता का कुछ-न-कुछ दहस्सा जरुर खचम करना पडता था।
एक रोज जब अक्षयकुमार कचहरी से आये तो सन्
ु दर और हसमख
ु हे मवती ने एक रीं गीन लिफाफा
उनके हाथ में रख ददया। उन्होंने दे खा तो अन्दर एक बहुत नफीस गि ु ाबी रीं ग का ननमींत्रण था। हे मवती से
बोिे—इन िोगों को एक-न-एक खब्त सझ ू ता ही रहता हैं। मेरे खयाि में इस ड्रामैदटक परफारमें स की कोई
जरुरत न थीीं।

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हे मवती इन बातों के सन
ु ने की आदी थी, मस्
ु कराकर बोिी—क्यों, इससे बेहतर और कौन खश
ु ी को
मौकर हो सकता हैं।
अक्षय कुमार सगझ गये कक अब बहस-मब
ु ादहसे की जरुरत आ गई, सम्हाि बैठे और बोिे—मेरी
जान, बी० ए० के इम्तहान में पास होना कोई गैर-मामि
ू ी बात नहीीं है, हजारों नौजवान हर साि पास होते
रहते हैं। अगर मेरा भाई होता तो मैं लसफम उसकी पीठ ठोंककर कहता कक शाबाश, खूब मेहनत की। मझ
ु े
ड्रामा खेिने का खयाि भी न पैदा होता। डाक्टर साहब तो समझदार आदमी हैं, उन्हें क्या सझ
ू ी !
हे मवती—मझ
ु े तो जाना ही पडेगा।
अक्षयकुमार—क्यों, क्या वादा कर लिया है ?
हे मवती—डाक्टर साहब की बीवी खुद आई थी।
अक्षयकुमार—तो मेरी जान, तम
ु भी कभी उनके घर चिी जाना, परसों जाने की क्या जरुरत है ?
हे मवती—अब बता ही द,ू मझ
ु े नानयका का पाटम ददया गया है और मैंने उस मींजरू कर लिया है।
यह कहकर हे मवती ने गवम से अपने पनत की तरफ दे खा, मगर अक्षयकुमार को इस खबर से बहुत
खुशी नहीीं हुई। इससे पहिे दो बार हे मवती शकुन्तिा बन चक
ु ी थी। इन दोनों मौकों पर बाबू साहब को
काफी खचम करना पडा था। उन्डें डर हुआ कक अब की हफ्ते में कफर घोष कम्पनी दो सौ का बबि पेश
करे गी। और इस बात की सख्त जरुरत थी कक अभी से रोक-थाम की जाय। उन्होंने बहुत मि ु ायलमयत से
हे मवती का हाथ पकड लिया और बहुत मीठे और महु ब्बत में लिपटे हुए िहजे में बोिे—प्यारी, यह बिा
कफर तुमने अपने सर िे िी। अपनी तकिीफ और परे शानी का बबिकुि खयाि नहीीं ककया। यह भी नहीीं
सोचा कक तम्
ु हारी परे शानी तम्
ु हारे इस प्रेमी को ककतना परे शान करती है । मेरी जान, यह जिसे नैनतक दृक्ष्ट
से बहुत आपवत्तजनक होते हैं। इन्हीीं मौकों पर ददिों में ईष्याम के बीज बोये जाते हैं। यहीीं, पीठ पीछे बरु ाई
करने की आदत पडती है और यहीीं तानेबाजी और नोकझोंक की मश्क होती है । फि ॉँ िेडी हसीन है , इसलिए
उसकी दस
ू री बहनों का फजम है कक उससे जिें। मेरी जान, ईश्वर न करे कक कोई डाही बने मगर डाह करने
के योग्य बनना तो अपने अक्ख्तयार की बात नहीीं। मझ
ु े भय है कक तुम्हारा दाहक सौन्दयम ककतने ही ददिों
को जिाकर राख कर दे गा। प्यारी हे म,ू मझ
ु े दख
ु है कक तुमने मझ
ू से पछ
ू े बगैर यह ननमींत्रण स्वीकार कर
लिया। मझ
ु े ववश्वास है , अगर तुम्हें मािम
ू होता कक मैं इसे पसन्द न करुगा तो तुम हरधगज स्वीकार न
करतीीं।
सन्
ु दर और हसमखु हे मवती इस मह
ु ब्बत में लिपटी हुई तकरीर को बजादहर बहुत गौर से सन
ु ती रही।
इसके बाद जान-बझ
ू कर अनजान बनते हुए बोिी—मैंने तो यह सोचकर मींजरू कर लिया था कक कपडे सब
पहिे ही के रक्खें हुए हैं, जयादा सामान की जरुरत न होगी, लसफम चन्द घींटों की तकिीफ है और एहसान
मफ्
ु त। डाक्टरों को नाराज करना भी तो अच्छी बात नहीीं है। मगर अब न जाऊगी। मैं अभी उनको अपनी
मजबरू ी लिखे दे ती हू। सचमच
ु क्या फायदा, बेकार की उिझन।
यह सनु कर कक कपडे सब पहिे के रक्खें हुए हैं, कुछ जयादा खचम न होगा, अक्षयकुमार के ददि पर
से एक बडा बोझ उठ गया। डाक्टरों को नाराज करना भी तो अच्छी बात नहीीं । यह जुमिा भी मानी से
खािी न था। बाबू साहब पछताये कक अगर पहिे से यह हाि मािम
ू होता तो काहे को इस तरह रुखा-सख
ू ा
उपदे शक बनना पडता। गदम न दहिाकर बोिे—नहीीं-नहीीं मेरी जान, मेरा मींशा यह हरधगज नहीीं कक तम
ु जाओीं
ही मत। जब तम ु ननमींत्रण स्वीकार कर चकु ी हो तो अब उससे मक ु रना इन्साननयत से हटी हुई बात मािम

होती है। मेरी लसफम यह मींशा थी कक जह ॉँ तक मम ु ककन हो, ऐसे जिसों से दरू रहना चादहये।
मगर हे मवती ने अपना फैसिा बहाि रक्खा—अब मैं न जाऊगी। तुम्हारी बातें धगरह में बाींध िीीं।

दू सरे ददन शाम को अक्षयकुमार हवाखोरी को ननकिे। आनन्द बाग उस वक्त जोबन पर था। ऊींचे-ऊींचे सरो
और अशोक की कतारों के बीच, िाि बजरी से सजी हुई सडक ऐसी खूबसरू त मािम ू होती थी कक जैसे
कमि के पत्तों में फूि खखिो हुआ है या नोकदार पिकों के बीच में िाि मतवािी आींखें जेब दे रही हैं। बाबू
अक्षयकुमार इस क्यारी पर हवा के हल्के-फुल्के ताजगी दे नेवािे झोंकों को मजा उठाते हुए एक सायेदार कींु ज
में जा बैठे। यह उनकी खास जगह थी। इस इनायतों की बस्ती में आकर थोडी दे र के लिए उनके ददि पर
फूिों के खखिेपन और पत्तों की हररयािी का बहुत ही नशीिा असर होता था। थोडी दे र के लिए उनका ददि
भी फूि की तरह खखि जाता था। यह ॉँ बैठे उन्हें थोडी दे र हुई थी कक उन्हें एक बढ़
ू ा आदमी अपनी तरफ

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आता हुआ ददखायी ददया। उसने सिाम ककया और एक मोहरदार बन्द लिफाफा दे कर गायब हो गया। अक्षय
बाबू ने लिफाफा खोिा और उसकी अम्बरी महक से रुह फडक उठी। खत का मजमन ू यह था:
‘मेरे प्यारे अक्षय बाब,ू आप इस नाचीज के खत को पढ़कर बहुत हैरत में आएींगे, मगर मझ
ु े आशा है
कक आप मेरी इस दढठाई को माफ करें गे। आपके आचार-ववचार, आपकी सरु ु धच और आपके रहन-सहन की
तारीफें सन
ु -सन
ु कर मेरे ददि में आपके लिए एक प्रेम और आदर का भाव पैदा हो गया है। आपके सादे
रहन-सहन ने मझ
ु े मोदहत कर लिया है। अगर हया-शमम मेरा दामन न पकडे होती तो मैं अपनी भावनाओीं
को और भी स्पष्ट शब्दों में प्रकालशत करती। साि भर हुआ कक मैंने सामान्य परु
ु षों की दब ु ि
म ताओीं से
ननराश होकर यह इरादा कर लिया था कक शेष जीवन खुलशयों को सपना दे खने में काटूगी। मैंने ढूींढा, मगर
क्जस ददि की तिाश थी, न लमिा। िेककन जब से मैंने आपको दे खा है, मद्
ु दतों की सोयी हुई उमींगें जाग
उठी हैं। आपके चेहरे पर सन्
ु दरता और जवानी की रोशनी न सही मगर कल्पना की झिक मौजद ू है ,
ॉँ
क्जसकी मेरी ननगाह में जयादा इजजत हैं हाि कक मेरा खयाि है कक अगर आपको अपने बदहरीं ग की धचन्ता
होती तो शायद मेरे अक्स्तत्व का दब ु ि
म अींश जयादा प्रसन्न होता। मगर मैं रुप की भख
ू ी नहीीं हू। मझ
ु े एक
सच्चे, प्रदशमन से मक्
ु त, सीने में ददि रखनेवािे इन्सान की चाह है और मैंने उसे पा लिया। मैंने एक चतुर
पनडुब्बे की तरह समन्
ु दर की तह में बैठकर उस रतन को ढूींढ ननकािा है, मेरी आपसे केवि यह प्राथमना है
कक आप कि रात को डाक्टर ककचिू के मकान पर तशरीफ िायें। मैं आपका बहुत एहसान मानगी। ू वह ॉँ
एक हरे कपडे पहने स्त्री अशोकों के कींु ज में आपके लिए आींखें बबछाये बैठी नजर आयेगीीं।’
इस खत को अक्षयकुमार ने दोबारा पढ़ा। इसका उनके ददि पर क्या असर हुआ, यह बयान करने की
ॉँ ऐसे नाजक
जरुरत नहीीं। वह ऋवषयों नहीीं थे, हाि कक ु मौके पर ऋवषयों का कफसि जाना भी असम्भव नहीीं।
उन्हें एक नशा-सा महसस ु े यह ॉँ बैठे दे खा होगा। मैने आज कई ददन से
ू होने िगा। जरुर इस परी ने मझ
आईना भी नहीीं दे खा, जाने चेहरे की क्या कैकफयत हो रही हैं। इस खयाि से बेचन
ै होकर वह दौडे हुए एक
हौज पर गए और उसके साफ पानी में अपनी सरू त दे खी, मगर सींतोष न हुआ। बहुत तेजी से कदम बढ़ाते
हुए मकान की तरफ चिे और जाते ही आईने पर ननगाह दौडाई। हजामत साफ नहीीं है और साफा कम्बख्त
खूबसरू ती से नहीीं बधा। मगर तब भी मझ
ु े कोई बदस
ू रत नहीीं कह सकता। यह जरुर कोई आिा दरजे की
पढ़ी-लिखी, ऊचे ववचारों वािी स्त्री है । वनाम मामि
ू ी औरतों की ननगाह में तो दौित और रुप के लसवा और
कोई चीज जचती ही नहीीं। तो भी मेरा यह फूहडपन ककसी सरु
ु धच-सम्पन्न स्त्री को अच्छा नहीीं मािम
ू हो
सकता। मझ ु े अब इसका खयाि रखना होगा। आज मेरे भाग्य जागे हैं। बहुत मद् ु दत के बाद मेरी कद्र
करनेवािा एक सच्चा जौहरी नजर आया है । भारतीय क्स्त्रयों शमम और हया की पत
ु िी होती हैं। जब तक कक
अपने ददि की हिचिों से मजबरू न हो जाये वह ऐसा खत लिखने को साहस नहीीं कर सकतीीं।
इन्हीीं खयािों में बाबू अक्षयकुमार ने रात काटी। पिक तक नहीीं झपकी।

दू सरे ददन सब ु ह दस बजे तक बाबू अक्षयकुमार ने शहर की सारी फैशनेबि


है रत में थे कक आज बाबू साहब यह ॉँ कैसे भि ू पडे। कभी भि
ु दक
ु ानों की सैर की। दक
ू कर भी न झ कतेॉँ
ु ानदार
थे, यह कायापिट
क्योंकर हुई? गरज, आज उन्होंने बडी बेददी से रुपया खचम ककया और जब घर चिे तो कफटन पर बैठने की
जगह न थी।
ू ा—आज सबेरे से कह ॉँ गायब हो गये? अक्षयकुमार
हे मवती ने उनके माथे पर से पसीना साफ करके पछ
ने चेहरे को जरा गम्भीर बनाकर जवाब ददया—आज क्जगर में कुछ ददम था, डाक्टर चड्ढा के पास चिा गया
था।
हे मवती के सन्
ु दर हसते हुए चेहरे पर मस्
ु कराहट-सी आ गयी, बोिी—तुमने मझ
ु से बबिकुि क्जक्र नहीीं
ककया? क्जगर का ददम भयानक मजम है ।
अक्षयकुमार—डाक्टर साहब ने कहा है , कोई डरने की बात नहीीं है ।
हे मवती—इसकी दवा डा० ककचिू के यह ॉँ बहुत अच्छी लमिती है । मािमू नहीीं, डाक्टर चड्ढा मजम की
तह तक पहुचे भी या नहीीं।
अक्षयकुमार ने हे मवती की तरफ एक बार चभ
ु ती हुई ननगाहों से दे खा और खाना खाने िगे। इसके बाद
अपने कमरे में जाकर बैठै। शाम को जब वह पाकम, घींटाघर, आनन्द बाग की सैर करते हुए कफटन पर जा
रहे थे तो उनके होंठों पर िािी और गािों पर जवानी की गि
ु ाबी झिक मौजद
ू थीीं। तो भी प्रकृनत के
अन्याय पर, क्जसने उन्हें रुप की सम्पदा से वींधचत रक्खा था, उन्हें आज क्जतना गुस्सा आया, शायद और
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कभी न आया हो। आज वह पतिी नाक के बदिे अपना खब
ू सरू त गाउन और डडप्िोमा सब कुछ दे ने क
लिए तैयार थे।
डाक्टर साहब ककचिू का खब ू सरू त िताओीं से सजा हुआ बगिा रात के वक्त ददन का सम ॉँ ददखा रहा
था। फाटक के खम्भे, बरामदे की मेहराबें, सरों के पेडों की कतारें सब बबजिी के बल्बों से जगमगा रही थीीं।
इन्सान की बबजिी की कारीगरी अपना रीं गारीं ग जाद ू ददखा रही थी। दरवाजे पर शभ
ु ागमन का बन्दनवार,
पेडों पर रीं ग-बबरीं गे पक्षी, िताओीं में खखिे हुए फूि, यह सब इसी बबजिी की रोशनी के जिवे हैं। इसी
सहु ानी रोशनी में शहर के रईस इठिाते कफर रहे हैं। अभी नाटक शरु ु करने में कुछ दे र है । मगर उत्कण्ठा
िोगों को अधीर करने पर िगी हैं। डाक्टर ककचिू दरवाजे पर खडे मेहमानों का स्वागत कर रहे हैं। आठ
बजे होंगे कक बाबू अक्षयकुमार बडी आन-बान के साथ अपनी कफटन से उतरे । डाक्टर साहब चौंक पडे, आज
यह गि
ू र में कैसे फूि िग गए। उन्होंने बडे उत्साह से आगे बढ़कर बाबू साहब का स्वागत ककया और सर
से प वॉँ तक उन्हें गौर से दे खा। उन्हें कभी खयाि भी न हुआ था कक बाबू अक्षयकुमार ऐसे सन्
ु दर सजीिे
कपडे पहने हुए गबरु नौजवान बन सकते हैं। कायाकल्प का स्टष्ट उदाहरण ऑ ींखों के सामने खडा था।
अक्षय बाबू को दे खते ही इधर-उधर के िोग आकर उनके चारों ओर जमा हो गए। हर शख्स है रत से
एक-दस ु ताकता था। होंठ रुमाि की आड ढूींढने िगे, ऑ ींखें सरगोलशय ॉँ करने िगीीं। हर शख्स ने
ू रे का मींह
गैरमामि
ू ी तपाक से उनका लम़िाज पछ
ू ा। शराबबयों की मजलिस और पीने की मनाही करने वािी हजरते
वाइज की तशरीफआवरी का नज़िारा पेश हो गया।
अक्षय बाबू बहुत झेंप रहे थे। उनकी ऑ ींखें ऊपर को न उठती थीीं। इसलिए जब लमजा़िापलु समयों को
तफ
ू ान दरू हुआ तो उन्होंने अपनी हरे कपडों वािी स्त्री की तिाश में चारों तरफ एक ननगाह दौडायी और
ददि में कहा—यह शोहदें हैं, मसखरे , मगर अभी-अभी उनकी ऑ ींखें खि
ु ी जाती हैं। मैं ददखा दगा
ू कक मझ

पर भी सन् ु दररय ॉँ भी हैं जो सच्चे ददि से मेरे लमजा़ि की कैकफयत
ु दररयों की दृक्ष्ट पडती है । ऐसी सन्
पछ ू ती हैं और क्जनसे अपना ददे ददि कहने में मैं भी रीं गीन-बयान हो सकता हू। मगर उस हरे कपडों वािी
प्रेलमका का कहीीं पता न था। ननगों चारों तरफ से घम ू -घामकर नाकाम वापस आयीीं।
आध घींटे के बाद नाटक शरु
ू हुआ। बाबू साहब ननराश भाव से पैर उठाते हुए धथयेटर हाि में गए और
कुसी पर बैठ गए। बैठ क्या गए, धगर पडे। पदाम उठा। शकुन्तिा अपनी दोनों सखखयों के साथ लसर पर घडा
रक्खें पौदों को सीींचती हुई ददखाई दी। दशमक बाग-बाग हो गये। तारीफों के नार नाबि
ु न्द हुए। शकुन्तिा का
जो काल्पननक धचत्र खखींच सकता है , वह ऑ ींखों के सामने खडा था—वही प्रेलमका का खि ु ापन, वही आकषमक
गम्भीरता, वही मतवािी चाि, वही शमीिी ऑ ींखें । अक्षय बाबू पहचान गए यह सन्
ु दर हॅ समख
ु हे मवती थी।
बाबू अक्षयकुमार का चेहरा गस्
ु से से िाि हो गया। इसने मझ
ु से वादा ककया था कक मैं नाटक में न
जाऊगी। मैंने घींटों इस समझाया। अपनी असमथमता लिखने पर तेयार थी। मगर लसफम-दस
ू रों को ररझाने और
िभ
ु ाने के लिए, लसफम दस
ू रों के ददिों में अपने रुप और अपनी अदाओीं को जाद ू फूकने के लिए, लसफम दस
ू री
औरतों को जिाने के लिए उसने मेरी नसीहतों का और अपने वादे का, यह ॉँ तक कक मेरी अप्रसन्नता का भी
जरा भी खयाि न ककया !
ॉँ
हे मवती ने भी उडती हुई ननगाहों से उनकी तरफ दे खा। उनके ब कपन पर उसे जरा भी ताजजुब न
हुआ। कम-से-कम वह मस् ु करायी नहीीं।
सारी महकफि बेसध ु हो रही थी। मगर अक्षयबाबू का जी वह । न िगता थाीं वह बार-बार उठके बाहर
जाते, इधर-उधर बेचन ु िाकर वापस आते। चह ॉँ तक कक बारह
ै ी से ऑ ींखें फाड-फाड दे खते और हर बार झींझ
बज गए और अब मायस ू होकर उन्होंने अपने-आप को कोसना शरु ु ककया—मैं भी कैसा अहमक हू। एक
शोख औरत के चकमे मे आ गया। जरुर इन्हीीं बदमाशों में से ककसी की शरारत होगी। यह िोग मझ
ु े दे ख-
दे खकर कैसा हसते थे! इन्हीीं में से ककसी मसखरे ने यह लशगफ
ू ा छोडा है । अफसोस ! सैकडों रुपये पर पानी
कफर गया, िक्जजत हुआ सो अिग। कई मक ु दमें हाथ से गए। हे मवती की ननगाहों में जिीि हो गया और
यह सब लसफम इन हादहयों की खानतर ! मझ
ु से बडा अहमक और कौन होगा !
इस तरह अपने ऊपर िानत भेजते, गुस्से में भरे हुए वे कफर महाकफि की तरफ चिे कक एकाएक एक
सरो के पेड के नीचे वह हररतवसना सन्
ु दरी उन्हें इशारे से अपनी तरफ बिु ाती हुई नजर आयी। खश
ु ी के
ॉँ खखि गई, ददिोंददमाग पर एक नशा-सा छा गया। मस्ती के कदम उठाते, झम
मारे उनकी ब छें ू ते और ऐींठते
उस स्त्री के पास आये और आलशकाना जोश के साथ बोिे—ऐ रुप की रानी, मैं तम्
ु हारी इस कृपा के लिए
हृदय से तुम्हारा कृतज्ञ हू। तुम्हें दे खने के शौक में इस अधमरे प्रेमी की ऑ ींखें पथरा गई और अगर तम्
ु हें

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कुछ दे र तक और यह ऑ ींखें दे ख न पातीीं तो तम्
ु हें अपने रुप के मारे हुए की िाश पर हसरत के ऑ ींसू
बहाने पडते। कि शाम ही से मेरे ददि की जो हाित हो रही है , उसका क्जक्र बयान की ताकत से बाहर हैं।
मेरी जान, मैं कि कचहरी न गया, और कई मक
ु दमें हाथ से खोए। मगर तम्
ु हारे दशमन से आत्मा को जो
आनन्द लमि रहा है, उस पर मैं अपनी जान भी न्योछावर कर ससकता हू। मझ ु े अब धैयम नहीीं है। प्रेम की
आग ने सींयम और धैयम को जिाकर खाक कर ददया है । तम् ु हें अपने हुस्न के दीवाने से यह पदाम करना
शोभा नहीीं दे ता। शमा और परवाना में पदाम कैसा। रुप की खान और ऐ सौन्दयम की आत्मा ! तेरी मह
ु ब्बत
भरी बातों ने मेरे ददि में आरजओ
ु ीं का तूफान पैदा कर ददया है । अब यह ददि तुम्हारे ऊपर न्योछावर है
और यह जान तुम्हारे चरणों पर अवपमत है ।
यह कहते हुए बाबू अक्षयकुमार ने आलशकों जैसी दढठाई से आगे बढ़कर उस हररतवसना सन् ु दरी का
घघट
ू उठा ददया और हे मवती को मस्
ु कराते दे खकर बेअक्ख्तयार मह
ु से ननकिा—अरे ! और कफर कुछ मह ींु से
न ननकिा। ऐसा मािम
ू हुआ कक जैसे ऑ ींखों के सामने से पदाम हट गया। बोिे।– यह सब तम्
ु हारी शरारत
थी?
सन्
ु दर, हसमख
ु हे मवती मस्
ु करायी और कुछ जवाब दे ना चाहती थीीं, मगर बाबू अक्षयकुमार ने उस वक्त
जयादा सवाि-जवाब का मौका न दे खा। बहुत िक्जजत होते हुए बोिे—हे मवत, अब मींह
ु से कुद मत कहो,
तुम जीतीीं मैं हार गया। यह हार कभी न भि
ू ेगी।
--जमाना, मई-जून 1992

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राजहठ

द शहरे के ददन थे, अचिगढ़ में उत्सव की तैयाररय ॉँ हो रही थीीं। दरबारे आम में राजय के मींबत्रयों के
स्थान पर अप्सराऍ ीं शोभायमान थीीं। धममशािों और सरायों में घोडे दहनदहना रहे थे। ररयासत के नौकर,
क्या छोटे , क्या बडे, रसद पहुचाने के बहाने से दरबाजे आम में जमे रहते थे। ककसी तरह हटाये न हटते थे।
दरबारे खास में पींडडत और पज ु ारी और महन्त िोग आसन जमाए पाठ करते हुए नजर आते थे। वह ॉँ ककसी
राजय के कममचारी की शकि न ददखायी दे ती थी। घी और पज ू ा की सामग्री न होने के कारण सबु ह की पज
ू ा
शाम को होती थी। रसद न लमिने की वजह से पींडडत िोग हवन के घी और मेवों के भोग के अक्ग्नकींु ड में
डािते थे। दरबारे आम में अींग्रेजी प्रबन्ध था और दरबारे खास में राजय का।
राजा दे वमि बडे हौसिेमन्द रईस थे। इस वावषमक आनन्दोत्सव में वह जी खोिकर रुपया खचम करते।
क्जन ददनों अकाि पडा, राजय के आधे आदमी भख
ू ों तडपकर मर गए। बख
ु ार, हैजा और प्िेग में हजारों
आदमी हर साि मत्ृ यु का ग्रास बन जाते थे। राजय ननधमन था इसलिए न वह ॉँ पाठशािाऍ ीं थीीं, न
धचककत्सािय, न सडकें। बरसात में रननवास दिदि हो जाता और अधेरी रातों में सरे शाम से घरों के दरवाजे
बन्द हो जाते। अधेरी सडकों पर चिना जान जोखखम था। यह सब और इनसे भी जयादा कष्टप्रद बातें
स्वीकार थीीं मगर यह कदठन था, असम्भव था कक दग
ु ाम दे वी का वावषमक आनन्दोत्सव न हो। इससे राजय की
शान बट्टा िगने का भय था। राजय लमट जाए, महिों की ईटें बबक जाऍ ीं मगर यह उत्सव जरुर हो। आस
पास के राजे-रईस आमींबत्रत होते, उनके शालमयानों से मीिों तक सींगमरमर का एक शहर बस जाता, हफ्तों
तक खब
ू चहि-पहि धम
ू -धाम रहती। इसी की बदौित अचिगढ़ का नाम अटिगढ़ हो गया था।

म गर कींु वर इन्दरमि को राजा साहब की इन मस्ताना कारम वाइयों में बबिकुि आस्था न थी। वह प्रकृनत
से एक बहुत गम्भीर और सीधासादा नवयव ु क था। यों गजब का ददिेर, मौत के सामने भी ताि
ठोंककर उतर पडे मगर उसकी बहादरु ी खून की प्यास से पाक थी। उसके वार बबना पर की धचडडयों या
बेजबान जानवरों पर नहीीं होते थे। उसकी तिवार कमजोरों पर नहीीं उठती थी। गरीबों की दहमायत, अनाथों
की लसफाररशें, ननधमनों की सहायता और भाग्य के मारे हुओीं के घाव की मरहम-पट्टी इन कामों से उसकी
आत्मा को सख ु लमिता था। दो साि हुए वह इींदौर कािेज से ऊची लशक्षा पाकर िौटा था और तब से उसका
यह जोश असाधारण रुप में बढ़ा हुआ था, इतना कक वह साधरण समझदारी की सीमाओीं को ि च ॉँ गया था,
चौबीस साि का िम्बा-तडींगा हैकि जवान, धन ऐश्वयम के बीच पिा हुआ, क्जसे धचन्ताओीं की कभी हवा तक
न िगी, अगर रुिाया तो हसी ने। वह ऐसा नेक हो, उसके मदामना चेहरे पर धचन्ति को पीिापन और
झरु रम य ॉँ नजर आयें यह एक असाधारण बात थी। उत्सव का शभ ु ददन पास आ पहुचा था, लसफम चार ददन
बाकी थे। उत्सव का प्रबन्ध परू ा हो चक
ु ा था, लसफम अगर कसर थी तो कहीीं-कहीीं दोबारा नजर डाि िेने की।
तीसरे पहर का वक्त था, राजा साहब रननवास में बैठे हुए कुछ चन ु ी हुई अप्सराओीं का गाना सन
ु रहे थे।
उनकी सरु ीिी तानों से जो खुशी हो रही थी; उससे कहीीं जयादा खुशी यह सोचकर हो रही थी कक यह तराने
पोलिदटकि एजेण्ट को भडका दें गे। वह ऑ ींखें बन्द करके सन
ु ेगा और खश
ु ी के मारे उछि-उछि पडेगा।
इस ववचार से जो प्रसन्नता होती थी वह तानसेन की तानों में भी नहीीं हो सकती थी। आह, उसकी
जबान से अनजाने ही, ‘वाह-वाह’ ननकि पडेगी। अजब नहीीं कक उठकर मझ
ु से हाथ लमिाये और मेरे चन
ु ाव
की तारीफ करें इतने में कींु वर इींदरमि बहुत सादा कपडे पहने सेवा में उपक्स्थत हुए और सर झक
ु ाकर
अलभवादन ककया। राजा साहब की ऑ ींखें शमम से झक ु गई, मगर कुवर साहब का इस समय आना अच्छा
नहीीं िगा। गानेवालियों को वह ॉँ से उठ जाने का इशारा ककया।
कींु वर इन्दरमि बोिे—महाराज, क्या मेरी बबनती पर बबिकुि ध्यान न ददया जायेगा?
राजा साहब की गद्दी के उत्तराधधकारी राजकुमार की इजजत करते थे और मह
ु ब्बत तो कुदरती बात
थी, तो भी उन्हें यह बेमौका हठ पसन्द न आता था। वह इतने सींकीणम बद्
ु धध न थे कक कींु वर साहब की नेक
सिाहों की कद्र न करें । इससे ननश्चय ही राजय पर बोझ बढ़ता जाता था ओर ररआया पर बहुत जल्
ु म करना
पडता था। मैं अींधा नहीीं हू कक ऐसी मोटी-मोटी बातें न समझ सकू। मगर अच्छी बातें भी मौका-महि
दे खकर की जाती हैं। आखखरकार नाम और यश, इजजत और आबरु भी कोई चीज है ? ररयासत में सींगमरमर
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की सडकें बनवा द,ू गिी-गिी मदरसे खोि द,ू घर-घर कुऍ ीं खोदवा द,ू दवाओीं की नहरे जारी कर द ू मगर
दशहरे की धम
ू -धाम से ररयासत की जो इजजत और नाम है वह इन बातों से कभी हालसि नहीीं हो सकता।
यह हो सकता है कक धीरे -धीरे यह खचम घटा द ू मगर एकबारगी ऐसा करना न तो उधचत है और न सम्भव।
जवाब ददया—आखखर तुम क्या चाहते हो? क्या दशहरा बबिकुि बन्द कर द?ू
इन्दरमि ने राजा साहब के तेवर बदिे हुए दे खे, तो आदरपव ू क
म बोिे—मैंने कभी दशहरे के उत्सव के
खखिाफ मींह
ु से एक शब्द नहीीं ननकािा, यह हमारा जातीय पवम है , यह ववजय का शभ ु ददन है, आज के ददन
खुलशय ॉँ मनाना हमारा जाती कतमव्य है । मझ
ु े लसफम इन अप्सराओीं से आपवत्त है , नाच-गाने से इस ददन की
गम्भीरता और महत्ता डूब जाती है।
राजा साहब ने व्यींग्य के स्वर में कहा—तम्
ु हारा मतिब है कक रो-रोकर जशन मनाऍ,ीं मातम करें ।
इन्दरमि ने तीखें होकर कहा—यह न्याय के लसद्धान्तों के खखिाफ बात है कक हम तो उत्सव मनाऍ,ीं
और हजारों आदमी उसकी बदौित मातम करें । बीस हजार मजदरू एक महीने से मफ्
ु त में काम कर रहे है ,
क्या उनके घरों में खुलशय ॉँ मनाई जा रही हैं? जो पसीना बहायें वह रोदटयों को तरसें और क्जन्होंने
हरामकारी को अपना पेशा बना लिया है , वह हमारी महकफिों की शोभा बनें। मैं अपनी ऑ ींखों से यह अन्याय
और अत्याचार नहीीं दे ख सकता। मैं इस पाप-कमम में योग नहीीं दे सकता। इससे तो यही अच्छा है कक मींह

नछपाकर कहीीं ननकि जाऊ। ऐसे राज में रहना, मैं अपने उसि ू ों के खखिाफ और शममनाम समझता हू।
इन्दरमि ने तैश में यह धष्ृ टतापण
ू म बातें कीीं। मगर वपता के प्रेम को जगाने की कोलशश ने राजहठ के
सोए हुए कािे दे व को जगा ददया। राजा साहब गुस्से से भरी हुई ऑ ींखों से दे खकर बोिे—ह ,ॉँ मैं भी यही
ठीक समझता हू। तम ु अपने उसिू ों के पक्के हो तो मैं भी अपनी धनु का परू ा हू।
इन्दरमि ने मस्
ु कराकर राजा साहब को सिाम ककया। उसका मस् ु कराना घाव पर नमक हो गया। राजकुमार
की ऑ ींखों में कुछ बदें
ू शायद मरहम का काम दे तीीं।

रा जकुमार ने इधर पीठ फेरी, उधर राजा साहब ने कफर अप्सराओीं को बि


प्रफुक्ल्ित करनेवािे गानों की आवाजें गजने

ु ाया और कफर धचत्त को
िगीीं। उनके सींगीत-प्रेम की नदी कभी इतने जोर-शोर से
न उमडी थी, वाह-वाह की बाढ़ आई हुई थी, तालियों का शोर मचा हुआ था और सरु की ककश्ती उस परु शोर
दररया में दहींडोिे की तरह झि
ू रही थी।
यह ॉँ तो नाच-गाने का हीं गामा गरम था और रननवास में रोने-पीटने का। रानी भान कुवर दग
ु ाम की पज
ू ा
करके िौट रही थी कक एक िौंडी ने आकर यह ममामन्तक समाचार ददया। रानी ने आरती का थाि जमीन
पर पटक ददया। वह एक हफ्ते से दग ु ाम का व्रत रखती थीीं। मग
ृ छािे पर सोती और दध
ू का आहार करती
थीीं। प वॉँ थरामय,े जमीन पर धगर पडी। मरु झाया हुआ फूि हवा के झोंके को न सह सका। चेररय ॉँ सम्हि
गयीीं और रानी के चारों तरफ गोि बाींधकर छाती और लसर पीटने िगीीं। कोहराम मच गया। ऑ ींखों में ऑ ींसींू
न सही, ऑ ींचिों से उनका पदाम नछपा हुआ था, मगर गिे में आवाज तो थी। इस वक्त उसी की जरुरत थी।
उसी की बि
ु न्दी और गरज में इस समय भाग्य की झिक नछपी हुई थी।
िौडडय ॉँ तो इस प्रकार स्वालमभक्क्त का पररचय दे ने में व्यस्त थीीं और भानकुवर अपने खयािों में डूबी
हुई थीीं। कींु वर से ऐसी बेअदबी क्योंकर हुई, यह खयाि में नहीीं आता। उसने कभी मेरी बातों का जवाब नहीीं
ददया, जरुर राजा की जयादती है।
इसने इस नाच-रीं ग का ववरोध ककया होगा, ककया ही चादहए। उन्हें क्या, जो कुछ बनेगी-बबगडेगी उसे
क्जम्मे िगेगी। यह गस् ु त कहा होगा। बात की उसे कह ॉँ बदामश्त,
ु सेवर हैं ही। झल्िा गये होंगे। उसे सख्त-सस्
यही तो उसमें बडा ऐब है, रुठकर कहीीं चिा गया होगा। मगर गया कह ?ॉँ दग
ु ाम ! तुम मेरे िाि की रक्षा
करना, मैं उसे तुम्हारे सप
ु द
ु म करती हू। अफसोस, यह गजब हो गयाह। मेरा राजय सन ू ा हो गया और इन्हें
अपने राग-रीं ग की सझ ॉँ
ू ी हुई है । यह सोचते-सोचते रानी के शरीर में कपकपी आ गई, उठकर गस्से से क पती
हुई वह बेधडक नाचगाने की महकफि की तरफ चिी। करीब पहुची तो सरु ीिी तानें सन
ु ाई दीीं। एक बरछी-सी
क्जगर में चभ
ु गयी। आग पर तेि पड गया।
रानी को दे खते ही गानेवालियों में एक हिचि-सी मच गई। कोई ककसी कोने में जा नछपी, कोई धगरती-
पडती दरवाजें की तरफ भागी। राजा साहब ने रानी की तरफ घरू कर दे खा। भयानक गस्
ु से का शोिा सामने
दहक रहा था। उनकी त्योररयों पर भी बि पड गए। खन
ू बरसाती हुई ऑ ींखें आपस में लमिीीं। मोम ने िोहे
को सामना ककया।
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रानी थरामयी हुई आवाज में बोिी—मेरा इन्दरमि कह ॉँ गया? यह कहते-कहते उसकी आवाज रुक गई
ॉँ
और होंठ क पकर रह गए।
राजा ने बेरुखी से जवाब ददया—मैं नहीीं जानता।
रानी लससककय ॉँ भरकर बोिी—आप नहीीं जानते कक वह कि तीसरे पहर से गायब है और उसका कहीीं
ॉँ
पता नहीीं? आपकी इन जहरीिी नाधगनों ने यह ववष बोया है । अगर उसका बाि भी ब का हुआ तो उसके
क्जम्मेदार आप होंगे।
राजा ने तुसी से कहा—वह बडा घमण्डी और बबनकहा हो गया है , मैं उसका मींह
ु नहीीं दे खना चाहता।
रानी कुचिे हुए स पॉँ की तरह ऐींठकर बोिी—राजा, तुम्हारी जबान से यह बातें ननकि रही हैं ! हाय मेरा
िो, मेरी ऑ ींखों की पि
ु ती, मेरे क्जगर का टुकडा, मेरा सब कुछ यों अिोप हो जाए और इस बेरहम का ददि
जरा भी न पसीजे ! मेरे घर में आग िग जाए और यह ॉँ इन्द्र का अखाडा सजा रहे ! मैं खन
ू के आसू रोऊ
और यह ॉँ खश
ु ी के राग अिापे जाएीं !
राजा के नथने फडकने िगे, कडककर बोिे—रानी भानकींु वर अब जबान बन्द करो। मैं इससे जयादा
नहीीं सन
ु सकता। बेहतर होगा कक तुम महि में चिी जाओ।
रानी ने बबफरी हुई शेरनी की तरह गदम न उठाकर कहा—ह ,ॉँ मैं खुद जाती हू। मैं हुजरू के ऐश में ववघ्न
नहीीं डािना चाहती, मगर आपकों इसका भग ु तान करना पडेगा। अचिगढ़ में या तो भान कुवर रहे गी या
आपकी जहरीिी, ववषैिी पररय ॉँ !
राजा पर इस धमकी को कोई असर न हुआ। गैंडे की ढाि पर कच्चे िोहे का असर क्या हो सकता है !
जी में आया कक साफ-साफ कह दें , भान कींु वर चाहे रहे या न रहे यह पररयाीं जरुर रहें गी िेककन आपने को
रोककर बोिे—तम
ु को अक्ख्तयार है, जो ठीक समझो वह करो।
रानी कुछ कदम चिकर कफर िौटीीं और बोिी—बत्रया-हठ रहे गी या राजहठ?
राजा ने ननष्कम स्वर में उत्तर ददया—इस वक्त तो राजहठ ही रहे गी।

रा नी भानकींु वर के चिे जाने के बाद राजा दे वमि कफर अपने कमरे में आ बैठे, मगर धचक्न्तत और मन
बबिकुि बझ
ु ा हुआ, मद
ु े के समान। रानी की सख्त बातों से ददि के सबसे नाजकु दहस्सों में टीस और
जिन हो रही थी। पहिे तो वह अपने ऊपर झींझ ु िाए कक मैंने उसकी बातों को क्यों इतने धीरज से सन ु ा
मगर जब गुस्से की आग धीमी हुई और ददमाग का सन्तुिन कफर असिी हाित पर आया तो उन घटनाओीं
पर अपने मन में ववचार करने िगे। न्यायवप्रय स्वभाव के िोंगों के लिए क्रोध एक चेतावनी होती है , क्जससे
ीं
उन्हें अपने कथन और आचार की अच्छाई और बरु ाई को ज चने और आगे के लिए सावधान हो जाने का
मौका लमिता हैं। इस कडवी दवा से अकसर अनभ
ु व को शक्क्त सींकट को व्यापकता और धचन्तन को
सजगता प्राप्त होती है । राजा सोचने िगे—बेशक ररयासत के अन्दरुनी हािात के लिहाज से यह सब नाच-
रीं ग बेमौका है। बेशक वह ररआया के साथ अपना फजम नहीीं अदा कर रहे थे। वह इन खचो और इस नैनतक
धब्बे को लमटाने के लिए तैयार थे, मगर इस तरह कक नक्
ु ताचीनी करने वािी ऑ ींखें उसमें कुछ और मतिब
न ननकाि सकें। ररयासत की शान कायम रहे । इतना इन्दरमि से उन्होंने साफ कह ददया था कक अगर
इतने पर भी अपनी क्जद से बाज नहीीं आता तो उसकी दढठाई है । हर एक मम
ु ककन पहिू से गौर करने पर
राजा साहब के इस फैसिे में जरा भी फेर फार न हुआ। कींु वर का यों गायब हो जाना जरुर धचन्ता की बात
है और ररयासत के लिए उसके खतरनाक नतीजे हो सकते हैं मगर वह अपने आप को इन नतीजों की
क्जम्मदाररयों से बबिकुि बरी समझते थे। वह यह मानते थे कक इन्दरमि के चिे जाने के बाद उनका यह
महकफिें जमाना बेमौका और दस ू रों को भडकानेवािा था मगर इसका कींु वर के आखखरी फैसिे पर क्या असर
पड सकता है? कींु वर ऐसा नाद ,ॉँ नातजुबक े ार और बजु ददि तो नहीीं है कक आत्महत्या कर िें, ह ,ॉँ वह दो-चार
ददन इधर-उधर आवारा घम
ू ेगा और अगर ईश्वर ने कुछ भी वववेक उसे ददया तो वह दख
ु ी और िक्जजत
होकर जरुर चिा आएगा। मैं खुद उसे ढूढ़ ननकािगा।
ू वह ऐसा कठोर नहीीं है कक अपने बढ़
ू े बाप की मजबरू ी
पर कुछ भी ध्यान न दे ।
इन्दरमि से फाररग होकर राजा साहब का ध्यान रानी की तरफ पहुचा और जब उसकी आग की तरह
दहकती हुई बाते याद आयीीं तो गस्
ु से से बदन में पसीना आ गया और वह बेताब होकर उठकर टहिनें िगे।
बेशक, मैं उसके साथ बेरहमी से पेश आया। म ॉँ को अपनी औिाद ईमान से भी जयादा प्यारी होती है और

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उसका रुष्ट होना उधचत था मगर इन धमककयों के क्या माने? इसके लसवा कक वह रुठकर मैके चिी जाए
और मझ
ु े बदनाम करे , वह मेरा और क्या कर सकती है ? अक्िमन्दों ने कहा है कक औरत की आज बेवफा
होती है, वह मीठे पानी की चींचि, चि
ु बि
ु ी-चमकीिी धारा है , क्जसकी गोद में चहकती और धचमटती है उसे
बािू का ढे र बनाकर छोडती है । यही भानकुवर है क्जसकी नाजबरदाररयाीं मह
ु ब्बत का दजाम रखती हैं। आह,
क्या वह वपछिी बातें भि
ू जाऊ ! क्या उन्हें ककस्सा समझकर ददि को तसकीन द।ू
इसी बीच में एक िौंडी ने आकर कहा कक महारानी ने हाथी मगवाया है और न जाने कह ॉँ जा रही हैं।
कुछ बताती नहीीं। राजा ने सन
ु ा और मह
ु फेर लिया।

श से काई का हरा मखमिी घघट



ॉँ
हर इन्दौर से तीन मीि दरू उत्तर की तरफ घने पेडों के बीच में एक तािाब है क्जसके च दी-जै
कभी नहीीं उठता। कहते हैं ककसी जमाने में उसके चारों तरफ पक्के
घाट बने हुए थे मगर इस वक्त तो लसफम यह अनश्रनु त बाकी थी जो कक इस दनु नया में अकसर ईट-पत्थर
से चेहरे

की यादगारी से जयादा दटकाऊ हुआ करती है ।


तािाब के परू ब में एक परु ाना मक्न्दर था, उसमें लशव जी राख की धन ू ी रमाये खामोश बैठे हुए थे।
अबाबीिें और जींगिी कबत ू र उन्हीीं अपनी मीठी बोलिय ॉँ सन
ु ाया करते। मगर उस वीराने में भी उनके भक्तों
की कमी न थी। मींददर के अन्दर भरा हुआ पानी और बाहर बदबद
ू ार कीचड, इस भक्क्त के प्रमाण थे। वह
मस
ु ाकफर जो इस तािाब में नहाता उसके एक िोटे पानी से अपने ईश्वर की प्यास बझु ाता था। लशव जी
खाते कुछ न थे मगर पानी बहुत पीते थे। उनकी न बझ
ु नेवािी प्यास कभी न बझ ु ती थी।
तीसरे पहर का वक्त था। क्वार की धपू तेज थी। कींु वर इन्दरमि अपने हवा की चािवािे घोडे पर
सवार इन्दौर की तरफ से आए और एक पेड की छाया में ठहर गए। वह बहुत उदास थे। उन्होंने घोडे को
ॉँ ददया और खद
पेड से ब ध ु जीन के ऊपर डािनेवािा कपडा बबछाकर िेट रहे । उन्हें अचिगढ़ से ननकिे
आज तीसरा ददन है मगर धचन्ताओीं ने पिक नहीीं झपकने दी। रानी भानकींु वर उसके ददि से एक पि के
लिए भी दरू न होती थी। इस वक्त ठण्डी हवा िगी तो नीींद आ गई। सपने में दे खने िगा कक जैसे रानी
आई हैं और उसे गिे िगाकर रो रही हैं। चौंककर ऑ ींखें खोिीीं तो रानी सचमच
ु सामने खडी उसकी तरफ
ऑ ींसू भरी ऑ ींखों से ताक रही थीीं। वह उठ बैठा और म ॉँ के पैरों को चम
ू ा। मगर रानी ने ममता से उठाकर
गिे िगा िेने के बजाय अपने प वॉँ हटा लिए और मींहु से कुछ न बोिी।
इन्दरमि ने कहा—म ॉँ जी, आप मझ ु से नाराज हैं?
रानी ने रुखाई से जवाब ददया—मैं तम्
ु हारी कौन होती हू !
कींु वर—आपको यकीन आए न आए, मैं जब से अचिगढ़ से चिा हू एक पि के लिए भी आपका
ख्याि ददि से दरू नहीीं हुआ। अभी आप ही को सपने में दे ख रहा था।
इन शब्दों ने रानी का गुस्सा ठीं डा ककया। कुवर की ओर से ननक्श्चत होकर अब वह राजा का ध्यान
ू ा—तुम तीन ददन कह ॉँ रहे ?
कर रही थी। उसने कींु वर से पछ
कींु वर ने जावाब ददया—क्या बताऊ, कह ॉँ रहा। इन्दौर चिा गया था वह ॉँ पोलिदटकि एजेण्ट से सारी
कथा कह सन
ु ाई।
रानी ने यह सन
ु ा तो माथा पीटकर बोिी—तुमने गजब कर ददया। आग िगा दी।
इन्दरमि—क्या करु, खद ु पछताता हू, उस वक्त यही धन
ु सवार थी।
रानी—मझु े क्जन बातों का डर था वह सब हो गई। अब कौन मह ींु िेकर अचिगढ़ जायेंगे।
इन्दरमि—मेरा जी चाहता है कक अपना गिा घोंट ि।ू
रानी—गुस्सा बरु ी बिा हैं। तुम्हारे आने के बाद मैंने रार मचाई और कुद यही इरादा करके इन्दौर जा
रही थी, रास्ते में तुम लमि गए।
ॉँ
यह बातें हो ही रही थीीं कक सामने से बहे लियों और स डननयों की एक िम्बी कतार आती हुई ददखाई
ॉँ
दीीं। स डननयों पर मदम सवार थे। सरु मा िगी ऑ ींखों वािे, पेचदार जुल्फोंवािे। बहे लियों में हुस्न के जिवे थे।
शोख ननगाहें , बेधडक धचतवनें, यह उन नाच-रीं ग वािों का काकफिा था जो अचिगढ़ से ननराश और खखन्न
चिा आता था। उन्होंने रानी की सवारी दे खी और कींु वर का घोडा पहचान लिया। घमण्ड से सिाम ककया
मगर बोिे नहीीं। जब वह दरू ननकि गए तो कींु वर ने जोर से कहकहा मारा। यह ववजय का नारा था।
रानी ने पछ
ू ा—यह क्या कायापिट हो गई। यह सब अचिगढ़ से िौटे आते है और ऐन दशहरे के
ददन?
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इन्दरमि बडे गवम से बोिे—यह पोलिदटकि एजेण्ट के इनकारी तार के कररश्में हैं, मेरी चाि बबिकुि
ठीक पडी।
रानी का सन्दे ह दरू हो गया। जरुर यही बात है यह इनकारी तार की करामात है । वह बडी दे र तक
बेसध
ु -सी जमीन की तरफ ताकती रही और उसके ददि में बार-बार यह सवाि पैदा होता था, क्या इसी का
नाम राजहठ है।
आखखरी इन्दरमि ने खामोशी तोडी—क्या आज चिने का इरादा है कक कि?
रानी—कि शाम तक हमको अचिगढ़ पहुचना है, महाराज घबराते होंगे।

-जमाना, लसतम्बर १९१२

मिर्त एक आिाज

सबहवािा
ु था। ठाकुर साहब अपनी बढ़ू ी ठकुराइन के साथ गींगाजी जाते थे इसलिए सारा घर उनकी परु शोर
का वक्त था। ठाकुर दशमनलसींह के घर में एक हीं गामा बरपा था। आज रात को चन्द्रग्रहण होने

तैयारी में िगा हुआ था। एक बहू उनका फटा हुआ कुताम ट क ॉँ रही थी, दसू री बहू उनकी पगडी लिए सोचती
थी, कक कैसे इसकी मरम्मत करूाीं दोनो िडककय ॉँ नाश्ता तैयार करने में तल्िीन थीीं। जो जयादा ददिचस्प
काम था और बच्चों ने अपनी आदत के अनस
ु ार एक कुहराम मचा रक्खा था क्योंकक हर एक आने-जाने के
मौके पर उनका रोने का जोश उमींग पर होत था। जाने के वक्त साथा जाने के लिए रोते, आने के वक्त
ॉँ
इसलिए रोते ककशरीनी का ब ट-बखरा मनोनकु ू ि नहीीं हुआ। बढ़ी ठकुराइन बच्चों को फुसिाती थी और बीच-
बीच में अपनी बहुओीं को समझाती थी-दे खों खबरदार ! जब तक उग्रह न हो जाय, घर से बाहर न
ननकिना। हलसया, छुरी ,कुल्हाडी , इन्हें हाथ से मत छुना। समझाये दे ती हू, मानना चाहे न मानना। तुम्हें
मेरी बात की परवाह है । मींह
ु में पानी की बींद
ू े न पडें। नारायण के घर ववपत पडी है । जो साध—
ु लभखारी
दरवाजे पर आ जाय उसे फेरना मत। बहुओीं ने सन ु ा और नहीीं सन
ु ा। वे मना रहीीं थीीं कक ककसी तरह यह
यह ॉँ से टिें। फागन
ु का महीना है , गाने को तरस गये। आज खब ू गाना-बजाना होगा।
ठाकुर साहब थे तो बढ़ ू े , िेककन बढ़
ू ापे का असर ददि तक नहीीं पहुचा था। उन्हें इस बात का गवम था
कक कोई ग्रहण गींगा-स्नान के बगैर नहीीं छूटा। उनका ज्ञान आश्चयम जनक था। लसफम पत्रों को दे खकर महीनों
पहिे सय
ू -म ग्रहण और दस
ू रे पवो के ददन बता दे ते थे। इसलिए गाववािों की ननगाह में उनकी इजजत अगर
पक्ण्डतों से जयादा न थी तो कम भी न थी। जवानी में कुछ ददनों फौज में नौकरी भी की थी। उसकी गमी
अब तक बाकी थी, मजाि न थी कक कोई उनकी तरफ सीधी आख से दे ख सके। सम्मन िानेवािे एक
ॉँ ग वॉँ में भी नहीीं लमि
चपरासी को ऐसी व्यावहाररक चेतावनी दी थी क्जसका उदाहरण आस-पास के दस-प च
सकता। दहम्मत और हौसिे के कामों में अब भी आगे-आगे रहते थे ककसी काम को मक्ु श्कि बता दे ना,
उनकी दहम्मत को प्रेररत कर दे ना था। जह ॉँ सबकी जबानें बन्द हो जाए, वह ॉँ वे शेरों की तरह गरजते थे।
जब कभी ग वॉँ में दरोगा जी तशरीफ िाते तो ठाकुर साहब ही का ददि-गुदाम था कक उनसे आखें लमिाकर
आमने-सामने बात कर सकें। ज्ञान की बातों को िेकर नछडनेवािी बहसों के मैदान में भी उनके कारनामे
कुछ कम शानदार न थे। झगडा पक्ण्डत हमेशा उनसे मह ु नछपाया करते। गरज, ठाकुर साहब का स्वभावगत
ू हा बनने पर मजबरू कर दे ता था। ह ,ॉँ कमजोरी इतनी थी कक
गवम और आत्म-ववश्वास उन्हें हर बरात में दल्
अपना आल्हा भी आप ही गा िेते और मजे िे-िेकर क्योंकक रचना को रचनाकार ही खूब बयान करता है !

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ब दोपहर होते-होते ठाकुराइन ग वॉँ से चिे तो सैंकडों आदमी उनके साथ थे और पक्की सडक पर
ॉँ िगा हुआ था कक जैसे कोई बाजार है। ऐसे-ऐसे बढ़
पहुचे, तो याबत्रयों का ऐसा त ता ु ें िादठय ॉँ टे कते
या डोलियों पर सवार चिे जाते थे क्जन्हें तकिीफ दे ने की यमराज ने भी कोई जरूरत न समझी थी। अन्धे
दस
ू रों की िकडी के सहारे कदम बढ़ाये आते थे। कुछ आदलमयों ने अपनी बढ़
ू ी माताओीं को पीठ पर िाद
लिया था। ककसी के सर पर कपडों की पोटिी, ककसी के कन्धे पर िोटा-डोर, ककसी के कन्धे पर कावर।
ककतने ही आदलमयों ने पैरों पर चीथडे िपेट लिये थे, जूते कह ॉँ से िायें। मगर धालममक उत्साह का यह
वरदान था कक मन ककसी का मैिा न था। सबके चेहरे खखिे हुए, हसते-हसते बातें करते चिे जा रहे थें कुछ
औरतें गा रही थी:
च दॉँ सरू ज दन
ू ो िोक के मालिक
एक ददना उनहू पर बनती
हम जानी हमहीीं पर बनती

ऐसा मािम
ू होता था, यह आदलमयों की एक नदी थी, जो सैंकडों छोटे -छोटे नािों और धारों को िेती
हुई समद्र
ु से लमिने के लिए जा रही थी।
जब यह िोग गींगा के ककनारे पहुचे तो तीसरे पहर का वक्त था िेककन मीिों तक कहीीं नति रखने
की जगह न थी। इस शानदार दृश्य से ददिों पर ऐसा रोब और भक्क्त का ऐसा भाव छा जाता था कक
बरबस ‘गींगा माता की जय’ की सदायें बि
ु न्द हो जाती थीीं। िोगों के ववश्वास उसी नदी की तरह उमडे हुए
थे और वह नदी! वह िहराता हुआ नीिा मैदान! वह प्यासों की प्यास बझ ु ानेवािी! वह ननराशों की आशा!
वह वरदानों की दे वी! वह पववत्रता का स्त्रोत! वह मट्
ु ठी भर खाक को आश्रय दे नेवीिी गींगा हसती-
मस्
ु कराती थी और उछिती थी। क्या इसलिए कक आज वह अपनी चौतरफा इजजत पर फूिी न समाती थी
या इसलिए कक वह उछि-उछिकर अपने प्रेलमयों के गिे लमिना चाहती थी जो उसके दशमनों के लिए मींक्जि
ॉँ े
तय करके आये थे! और उसके पररधान की प्रशींसा ककस जबान से हो, क्जस सरू ज से चमकते हुए तारे ट क
थे और क्जसके ककनारों को उसकी ककरणों ने रीं ग-बबरीं गे, सन्
ु दर और गनतशीि फूिों से सजाया था।
अभी ग्रहण िगने में धण्टे की दे र थी। िोग इधर-उधर टहि रहे थे। कहीीं मदाररयों के खेि थे, कहीीं
चरू नवािे की िच्छे दार बातों के चमत्कार। कुछ िोग मेढ़ों की कुश्ती दे खने के लिए जमा थे। ठाकुर साहब
भी अपने कुछ भक्तों के साथ सैर को ननकिे। उनकी दहम्मत ने गवारा न ककया कक इन बाजारू
ददिचक्स्पयों में शरीक हों। यकायक उन्हें एक बडा-सा शालमयाना तना हुआ नजर आया, जह ॉँ जयादातर पढ़े -
लिखे िोगों की भीड थी। ठाकुर साहब ने अपने साधथयों को एक ककनारे खडा कर ददया और खद ु गवम से
ताकते हुए फशम पर जा बैठे क्योंकक उन्हें ववश्वास था कक यह ॉँ उन पर दे हानतयों की ईष्याम--दृक्ष्ट पडेगी और
सम्भव है कुछ ऐसी बारीक बातें भी मािम ू हो जाय तो उनके भक्तों को उनकी सवमज्ञता का ववश्वास ददिाने
में काम दे सकें।
यह एक नैनतक अनष्ु ठान था। दो-ढाई हजार आदमी बैठे हुए एक मधरु भाषी वक्ता का भाषणसन ु रहे
थे। फैशनेबि
ु िोग जयादातर अगिी पींक्क्त में बैठे हुए थे क्जन्हें कनबनतयों का इससे अच्छा मौका नहीीं लमि
सकता था। ककतने ही अच्छे कपडे पहने हुए िोग इसलिए दख ु ी नजर आते थे कक उनकी बगि में ननम्न
श्रेणी के िोग बैठे हुए थे। भाषण ददिचस्त मािम
ू पडता था। वजन जयादा था और चटखारे कम, इसलिए
तालिय ॉँ नहीीं बजती थी।

व क्ता ने अपने भाषण में कहा—


मेरे प्यारे दोस्तो, यह हमारा और आपका कतमव्य है। इससे जयादा महत्त्वपण
और कौम के लिए जयादा शभ
ू ,म जयादा पररणामदायक
ु और कोई कतमव्य नहीीं है । हम मानते हैं कक उनके आचार-व्यवहार की दशा
अत्यींत करुण है । मगर ववश्वास माननये यह सब हमारी करनी है । उनकी इस िजजाजनक साींस्कृनतक क्स्थनत
का क्जम्मेदार हमारे लसवा और कौन हो सकता है ? अब इसके लसवा और कोई इिाज नहीीं हैं कक हम उस
घण
ृ ा और उपेक्षा को; जो उनकी तरफ से हमारे ददिों में बैठी हुई है , घोयें और खूब मिकर धोयें। यह
आसान काम नहीीं है। जो कालिख कई हजार वषो से जमी हुई है , वह आसानी से नहीीं लमट सकती। क्जन
िोगों की छाया से हम बचते आये हैं, क्जन्हें हमने जानवरों से भी जिीि समझ रक्खा है, उनसे गिे लमिने
में हमको त्याग और साहस और परमाथम से काम िेना पडेगा। उस त्याग से जो कृष्ण में था, उस दहम्मत
से जो राम में थी, उस परमाथम से जो चैतन्य और गोववन्द में था। मैं यह नहीीं कहता कक आप आज ही
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उनसे शादी के ररश्ते जोडें या उनके साथ बैठकर खायें-वपयें। मगर क्या यह भी मम
ु ककन नहीीं है कक आप
उनके साथ सामान्य सहानभ
ु नू त, सामान्य मनष्ु यता, सामान्य सदाचार से पेश आयें? क्या यह सचमच

असम्भव बात है ? आपने कभी ईसाई लमशनररयों को दे खा है ? आह, जब मैं एक उच्चकोदट का सन्
ु दर,
सक ु ु मार, गौरवणम िेडी को अपनी गोद में एक कािा–किट ू ा बच्च लिये हुए दे खता हू क्जसके बदन पर फोडे
हैं, खून है और गन्दगी है—वह सन् ु दरी उस बच्चे को चम
ू ती है, प्यार करती है, छाती से िगाती है—तो मेरा
जी चाहता है उस दे वी के कदमों पर लसर रख द।ू अपनी नीचता, अपना कमीनापन, अपनी झठ
ू ी बडाई,
अपने ह्रदय की सींकीणमता मझ
ु े कभी इतनी सफाई से नजर नहीीं आती। इन दे ववयों के लिए क्जन्दगी में क्या-
क्या सींपदाए, नहीीं थी, खलु शय ॉँ ब हेंॉँ पसारे हुए उनके इन्तजार में खडी थी। उनके लिए दौित की सब सख ु -
सवु वधाए थीीं। प्रेम के आकषमण थे। अपने आत्मीय और स्वजनों की सहानभ ु नू तय ॉँ थीीं और अपनी प्यारी
मातभ
ृ लू म का आकषमण था। िेककन इन दे ववयों ने उन तमाम नेमतों, उन सब साींसाररक सींपदाओीं को सेवा,
सच्ची ननस्वाथम सेवा पर बलिदान कर ददया है ! वे ऐसी बडी कुबामननय ॉँ कर सकती हैं, तो हम क्या इतना भी
नहीीं कर सकते कक अपने अछूत भाइयों से हमददी का सिक
ू कर सकें? क्या हम सचमच
ु ऐसे पस्त-दहम्मत,
ऐसे बोदे , ऐसे बेरहम हैं? इसे खूब समझ िीक्जए कक आप उनके साथ कोई ररयायत, कोई मेहरबानी नहीीं
कर रहें हैं। यह उन पर कोई एहसान नहीीं है । यह आप ही के लिए क्जन्दगी और मौत का सवाि है ।
इसलिए मेरे भाइयों और दोस्तो, आइये इस मौके पर शाम के वक्त पववत्र गींगा नदी के ककनारे काशी के
पववत्र स्थान में हम मजबत
ू ददि से प्रनतज्ञा करें कक आज से हम अछूतों के साथ भाई-चारे का सिक
ू करें गे,
उनके तीज-त्योहारों में शरीक होंगे और अपने त्योहारों में उन्हें बि
ु ायेंगे। उनके गिे लमिेंगे और उन्हें अपने
गिे िगायेंगे! उनकी खलु शयों में खश
ु और उनके ददों मे ददम मन्द होंगे, और चाहे कुछ ही क्यों न हो जाय,
चाहे ताना-नतश्नों और क्जल्ित का सामना ही क्यों न करना पडे, हम इस प्रनतज्ञा पर कायम रहें गे। आप में
सैंकडों जोशीिे नौजवान हैं जो बात के धनी और इरादे के मजबत
ू हैं। कौन यह प्रनतज्ञा करता है ? कौन
अपने नैनतक साहस का पररचय दे ता है ? वह अपनी जगह पर खडा हो जाय और ििकारकर कहे कक मैं यह
प्रनतज्ञा करता हू और मरते दम तक इस पर दृढ़ता से कायम रहूगा।

सू रज गींगा की गोद में जा बैठा था और म ॉँ प्रेम और गवम से मतवािी जोश में उमडी हुई रीं ग केसर को
शमामती और चमक में सोने की िजाती थी। चार तरफ एक रोबीिी खामोशी छायी थीीं उस सन्नाटे में
सींन्यासी की गमी और जोश से भरी हुई बातें गींगा की िहरों और गगनचम्
ु बी मींददरों में समा गयीीं। गींगा
एक गम्भीर म ॉँ की ननराशा के साथ हसी और दे वताओीं ने अफसोस से लसर झक ु ा लिया, मगर मह ु से कुछ
न बोिे।
सींन्यासी की जोशीिी पक
ु ार कफजाीं में जाकर गायब हो गई, मगर उस मजमे में ककसी आदमी के ददि
तक न पहुची। वह ॉँ कौम पर जान दे ने वािों की कमी न थी: स्टे जों पर कौमी तमाशे खेिनेवािे कािेजों के
होनहार नौजवान, कौम के नाम पर लमटनेवािे पत्रकार, कौमी सींस्थाओीं के मेम्बर, सेक्रेटरी और प्रेलसडेंट, राम
और कृष्ण के सामने लसर झक ु ानेवािे सेठ और साहूकार, कौमी कालिजों के ऊचे हौंसिोंवािे प्रोफेसर और
अखबारों में कौमी तरक्क्कयों की खबरें पढ़कर खुश होने वािे दफ्तरों के कममचारी हजारों की तादाद में मौजद

थे। आखों पर सन
ु हरी ऐनकें िगाये, मोटे -मोटे वकीिों क एक परू ी फौज जमा थी। मगर सींन्यासी के उस
गमम भाषण से एक ददि भी न वपघिा क्योंकक वह पत्थर के ददि थे क्जसमें ददम और घि
ु ावट न थी,
क्जसमें सददच्छा थी मगर कायम-शक्क्त न थी, क्जसमें बच्चों की सी इच्छा थी मदो का–सा इरादा न था।
सारी मजलिस पर सन्नाटा छाया हुआ था। हर आदमी लसर झक ु ाये कफक्र में डूबा हुआ नजर आता
था। शलमिंदगी ककसी को सर उठाने न दे ती थी और आखें झेंप में मारे जमीन में गडी हुई थी। यह वही सर
हैं जो कौमी चचों पर उछि पडते थे, यह वही आखें हैं जो ककसी वक्त राष्रीय गौरव की िािी से भर जाती
थी। मगर कथनी और करनी में आदद और अन्त का अन्तर है। एक व्यक्क्त को भी खडे होने का साहस न
हुआ। कैंची की तरह चिनेवािी जबान भी ऐसे महान ् उत्तरदानयत्व के भय से बन्द हो गयीीं।

ठा कुर दशमनलसींह अपनी जगी पर बैठे हुए इस दृश्य को बहुत गौर और ददिचस्पी से दे ख रहे थे। वह
अपने मालममक ववश्वासो में चाहे कट्टर हो या न हों, िेककन साींस्कृनतक मामिों में वे कभी अगव
ु ाई
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करने के दोषी नहीीं हुए थे। इस पेचीदा और डरावने रास्ते में उन्हें अपनी बद्
ु धध और वववेक पर भरोसा नहीीं
होता था। यह ीं तकम और यक्ु क्त को भी उनसे हार माननी पडती थी। इस मैदान में वह अपने घर की क्स्त्रयों
की इच्छा परू ी करने ही अपना कत्तमव्य समझते थे और चाहे उन्हें खद
ु ककसी मामिे में कुछ एतराज भी हो
िेककन यह औरतों का मामिा था और इसमें वे हस्तक्षेप नहीीं कर सकते थे क्योंकक इससे पररवार की
व्यवस्था में हिचि और गडबडी पैदा हो जाने की जबरदस्त आशींका रहती थी। अगर ककसी वक्त उनके कुछ
जोशीिे नौजवान दोस्त इस कमजोरी पर उन्हें आडे हाथों िेते तो वे बडी बद्
ु धधमत्ता से कहा करते थे—भाई,
यह औरतों के मामिे हैं, उनका जैसा ददि चाहता है, करती हैं, मैं बोिनेवािा कौन हू। गरज यह ॉँ उनकी
फौजी गमम-लमजाजी उनका साथ छोड दे ती थी। यह उनके लिए नतलिस्म की घाटी थी जह ॉँ होश-हवास बबगड
जाते थे और अन्धे अनक
ु रण का पैर बधी हुई गदम न पर सवार हो जाता था।
िेककन यह ििकार सन ु कर वे अपने को काबू में न रख सके। यही वह मौका था जब उनकी दहम्मतें
आसमान पर जा पहुचती थीीं। क्जस बीडे को कोई न उठाये उसे उठाना उनका काम था। वजमनाओीं से उनको
आक्त्मक प्रेम था। ऐसे मौके पर वे नतीजे और मसिहत से बगावत कर जाते थे और उनके इस हौसिे में
यश के िोभ को उतना दखि नहीीं था क्जतना उनके नैसधगमक स्वाभाव का। वनाम यह असम्भव था कक एक
ऐसे जिसे में जह ॉँ ज्ञान और सभ्यता की धम
ू -धाम थी, जह ॉँ सोने की ऐनकों से रोशनी और तरह-तरह के
पररधानों से दीप्त धचन्तन की ककरणें ननकि रही थीीं, जह ॉँ कपडे-ित्ते की नफासत से रोब और मोटापे से
प्रनतष्ठा की झिक आती थी, वह ॉँ एक दे हाती ककसान को जबान खोिने का हौसिा होता। ठाकुर ने इस
दृश्य को गौर और ददिचस्पी से दे खा। उसके पहिू में गुदगुदी-सी हुई। क्जन्दाददिी का जोश रगों में दौडा।
वह अपनी जगह से उठा और मदामना िहजे में ििकारकर बोिा-मैं यह प्रनतज्ञा करता हू और मरते दम तक
उस पर कायम रहूगा।

इ तना सन
ु ना था कक दो हजार आखें अचम्भे से उसकी तरफ ताकने िगीीं। सभ
थी—गाढे की ढीिी लमजमई, घट
ु ानअल्िाह, क्या हुलिया
ु नों तक चढ़ी हुई धोती, सर पर एक भारी-सा उिझा हुआ साफा, कन्धे पर
चन
ु ौटी और तम्बाकू का वजनी बटुआ, मगर चेहरे से गम्भीरता और दृढ़ता स्पष्ट थी। गवम आखों के तींग घेरे
से बाहर ननकिा पडता था। उसके ददि में अब इस शानदार मजमे की इजजत बाकी न रही थी। वह परु ाने
वक्तों का आदमी था जो अगर पत्थर को पज
ू ता था तो उसी पत्थर से डरता भी था, क्जसके लिए एकादशी
का व्रत केवि स्वास्थ्य-रक्षा की एक यक्ु क्त और गींगा केवि स्वास्थ्यप्रद पानी की एक धारा न थी। उसके
ववश्वासों में जागनृ त न हो िेककन दवु वधा नहीीं थी। यानी कक उसकी कथनी और करनी में अन्तर न था और
न उसकी बनु नयाद कुछ अनक
ु रण और दे खादे खी पर थी मगर अधधकाींशत: भय पर, जो ज्ञान के आिोक के
बाद वनृ तयों के सींस्कार की सबसे बडी शक्क्त है । गेरुए बाने का आदर और भक्क्त करना इसके धमम और
ववश्वास का एक अींग था। सींन्यास में उसकी आत्मा को अपना अनच
ु र बनाने की एक सजीव शक्क्त नछपी
हुई थी और उस ताकत ने अपना असर ददखाया। िेककन मजमे की इस हैरत ने बहुत जल्द मजाक की सरू त
अक्ख्तयार की। मतिबभरी ननगाहें आपस में कहने िगीीं—आखखर गींवार ही तो ठहरा! दे हाती है, ऐसे भाषण
कभी काहे को सन
ु े होंगे, बस उबि पडा। उथिे गड्ढे में इतना पानी भी न समा सका! कौन नहीीं जानता कक
ऐसे भाषणों का उद्दे श्य मनोरीं जन होता है ! दस आदमी आये, इकट्ठे बैठ, कुछ सन
ु ा, कुछ गप-शप मारी
और अपने-अपने घर िौटे , न यह कक कौि-करार करने बैठे, अमि करने के लिए कसमें खाये!
ु क की रोशनी में इतना अींधरे ा है, वह ॉँ कभी
मगर ननराश सींन्यासी सो रहा था—अफसोस, क्जस मल्
रोशनी का उदय होना मक्ु श्कि नजर आता है । इस रोशनी पर, इस अींधेरी, मद
ु ाम और बेजान रोशनी पर मैं
जहाित को, अज्ञान को जयादा ऊची जगह दे ता हू। अज्ञान में सफाई है और दहम्मत है , उसके ददि और
जबान में पदाम नहीीं होता, न कथनी और करनी में ववरोध। क्या यह अफसोस की बात नहीीं है कक ज्ञान और
अज्ञान के आगे लसर झक
ु ाये? इस सारे मजमें में लसफम एक आदमी है, क्जसके पहिू में मदों का ददि है और
गो उसे बहुत सजग होने का दावा नहीीं िेककन मैं उसके अज्ञान पर ऐसी हजारों जागनृ तयों को कुबामन कर
सकता हू। तब वह प्िेटफामम से नीचे उतरे और दशमनलसींह को गिे से िगाकर कहा—ईश्वर तुम्हें प्रनतज्ञा पर
कायम रखे।
--जमाना, अगस्त-लसतम्बर १९१३

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नेकी

सा वन का महीना था। रे वती रानी ने पाींव में मेहींदी रचायी, माींग-चोटी सींवारी और तब अपनी बढ़
सास ने जाकर बोिी—अम्माीं जी, आज भी मेिा दे खने जाऊगी।
ू ी

रे वती पक्ण्डत धचन्तामखण की पत्नी थी। पक्ण्डत जी ने सरस्वती की पज


ू ा में जयादा िाभ न दे खकर
िक्ष्मी दे वी की पज
ू ा करनी शरू
ु की थी। िेन-दे न का कार-बार करते थे मगर और महाजनों के ववपरीत
खास-खास हाितों के लसवा पच्चीस फीसदी से जयादा सद
ू िेना उधचत न समझते थे।
रे वती की सास बच्चे को गोद में लिये खटोिे पर बैठी थी। बहू की बात सन
ु कर बोिी—भीग जाओगी
तो बच्चे को जक ु ाम हो जायगा।
रे वती—नहीीं अम्माीं, कुछ दे र न िगेगी, अभी चिी आऊगी।
रे वती के दो बच्चे थे—एक िडका, दस
ू री िडकी। िडकी अभी गोद में थी और िडका हीरामन सातवें
साि में था। रे वती ने उसे अच्छे -अच्छे कपडे पहनाये। नजर िगने से बचाने के लिए माथे और गािों पर
काजि के टीके िगा ददये, गुडडय ॉँ पीटने के लिए एक अच्छी रीं गीन छडी दे दी और अपनी सहे लियाीं के साथ
मेिा दे खने चिी।
कीरत सागर के ककनारे औरतों का बडा जमघट था। नीिगींू घटाएीं छायी हुई थीीं। औरतें सोिह लसींगार
ककए सागर के खि
ु े हुए हरे -भरे सन्
ु दर मैदान में सावन की ररमखझम वषाम की बहार िट
ू रही थीीं। शाखों में
झि
ू े पडे थे। कोई झि
ू ा झि
ू ती कोई मल्हार गाती, कोई सागर के ककनारे बैठी िहरों से खेिती। ठीं डी-ठीं डी
खुशगवार पानी की हिकी-हिकी फुहार पहाडडयों की ननखरी हुई हररयावि, िहरों के ददिकश झकोिे मौसम
को ऐसा बना रहे थे कक उसमें सींयम दटक न पाता था।
आज गडु डयों की ववदाई है । गुडडयाीं अपनी ससरु ाि जायेंगी। कींु आरी िडककय ॉँ हाथ-प वॉँ में में हदी रचाये
गुडडयों को गहने-कपडे से सजाये उन्हें ववदा करने आयी हैं। उन्हें पानी में बहाती हैं और छकछक-कर सावन
के गीत गाती हैं। मगर सख
ु -चैन के आींचि से ननकिते ही इन िाड-प्यार में पिी हुई गुडडयों पर चारों तरफ
से छडडयों और िकडडयों की बौछार होने िगती है।
रे वती यह सैर दे ख रही थी और हीरामन सागर की सीदढ़यों पर और िडककयों के साथ गडु डय ॉँ पीटने
में िगा हुआ था। सीदढ़यों पर काई िगी हुई थीीं अचानक उसका पाींव कफसिा तो पानी में जा पडा। रे वती
चीख मारकर दौडी और सर पीटने िगी। दम के दम में वह ॉँ मदो और औरतों का ठट िग गया मगर यह
ककसी की इन्साननयत तकाजा न करती थी कक पानी में जाकर मम
ु ककन हो तो बच्चे की जान बचाये। सींवारे
हुए बाि न बबखर जायेंगे! धि
ु ी हुई धोती न भीींग जाएगी! ककतने ही मदो के ददिों में यह मदामना खयाि
आ रहे थे। दस लमनट गुजरे गयें मगर कोई आदमी दहम्मत करता नजर न आया। गरीब रे वती पछाडे खा
रही थीीं अचानक उधर से एक आदमी अपने घोडे पर सवार चिा जाता था। यह भीड दे खकर उतर पडा और
एक तमाशाई से पछ
ू ा—यह कैसी भीड है ? तमाशाई ने जवाब ददया—एक िडका डूब गया है ।
मस
ु ाकफर –कहाीं?
तमाशाई—जहाीं वह औरत खडी रो रही है।
मस
ु ाकफर ने फौरन अपनी गाढ़े की लमजमई उतारी और धोती कसकर पानी में कूद पडा। चारो तरफ
सन्नाटा छा गया। िोग हैरान थे कक यह आदमी कौन हैं। उसने पहिा गोता िगाया, िडके की टोपी लमिी।
दस
ू रा गोता िगाया तो उसकी छडी हाथ में िगी और तीसरे गोते के बाद जब ऊपर आया तो िडका उसकी
गोद में था। तमाशाइयों ने जोर से वाह-वाह का नारा बि
ु न्द ककया। माीं दौडकर बच्चे से लिपट गयी। इसी
बीच पक्ण्डत धचन्तामखण के और कई लमत्र आ पहुचे और िडके को होश में िाने की कफक्र करने िगे। आध
घण्टे में िडके ने आखें खोि दीीं। िोगों की जान में जान आई। डाक्टर साहब ने कहा—अगर िडका दो
लमनट पानी में रहता तो बचना असम्भव था। मगर जब िोग अपने गुमनाम भिाई करने वािे को ढूींढ़ने
िगे तो उसका कहीीं पता न था। चारों तरफ आदमी दौडाये, सारा मेिा छान मारा, मगर वह नजर न आया।

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बी
स साि गज
ु र गए। पक्ण्डत धचन्तामखण का कारोबार रोज ब रोज बढ़ता गया। इस बीच में उसकी माीं
ने सातों यात्राएीं कीीं और मरीीं तो ठाकुरद्वारा तैयार हुआ। रे वती बहू से सास बनी, िेन-दे न, बही-
खाता हीरामखण के साथ में आया हीरामखण अब एक हष्ट-पष्ु ट िम्बा-तगडा नौजवान था। बहुत अच्छे
स्वभाव का, नेक। कभी-कभी बाप से नछपाकर गरीब असालमयों को यों ही कजम दे ददया करता। धचन्तामखण
ने कई बार इस अपराध के लिए बेटे को ऑ ींखें ददखाई थीीं और अिग कर दे ने की धमकी दी थी। हीरामखण
ने एक बार एक सींस्कृत पाठशािा के लिए पचास रुपया चन्दा ददया। पक्ण्डत जी उस पर ऐसे क्रुद्ध हुए कक
दो ददन तक खाना नहीीं खाया । ऐसे अवप्रय प्रसींग आये ददन होते रहते थे, इन्हीीं कारणों से हीरामखण की
तबीयत बाप से कुछ खखींची रहती थीीं। मगर उसकी या सारी शरारतें हमेशा रे वती की साक्जश से हुआ करती
थीीं। जब कस्बे की गरीब ववधवायें या जमीींदार के सताये हुए असालमयों की औरतें रे वती के पास आकर
हीरामखण को आींचि फैिा—फैिाकर दआ
ु एीं दे ने िगती तो उसे ऐसा मािम
ू होता कक मझ
ु से जयादा भाग्यवान
और मेरे बेटे से जयादा नेक आदमी दनु नया में कोई न होगा। तब उसे बरबस वह ददन याद आ जाता तब
हीरामखण कीरत सागर में डूब गया था और उस आदमी की तस्वीर उसकी आखों के सामने खडी हो जाती
क्जसने उसके िाि को डूबने से बचाया था। उसके ददि की गहराई से दआ
ु ननकिती और ऐसा जी चाहता
कक उसे दे ख पाती तो उसके पाींव पर धगर पडती। उसे अब पक्का ववश्वास हो गया था कक वह मनष्ु य न था
बक्ल्क कोई दे वता था। वह अब उसी खटोिे पर बैठी हुई, क्जस पर उसकी सास बैठती थी, अपने दोनों पोतों
को खखिाया करती थी।
आज हीरामखण की सत्ताईसवीीं सािधगरह थी। रे वती के लिए यह ददन साि के ददनों में सबसे अधधक
शभ
ु था। आज उसका दया का हाथ खब
ू उदारता ददखिाता था और यही एक अनधु चत खचम था क्जसमें
पक्ण्डत धचन्तामखण भी शरीक हो जाते थे। आज के ददन वह बहुत खश
ु होती और बहुत रोती और आज
अपने गुमनाम भिाई करनेवािे के लिए उसके ददि से जो दआ
ु ए ननकितीीं वह ददि और ददमाग की अच्छी
से अच्छी भावनाओीं में रीं गी होती थीीं। उसी ददन की बदौित तो आज मझ
ु े यह ददन और यह सख
ु दे खना
नसीब हुआ है!

ए क ददन हीरामखण ने आकर रे वती से कहा—अम्माीं, श्रीपरु नीिाम पर चढ़ा हुआ है , कहो तो मैं भी दाम
िगाऊीं।
रे वती—सोिहो आना है ?
हीरामखण—सोिहो आना। अच्छा गाींव है । न बडा न छोटा। यह ॉँ से दस कोस है । बीस हजार तक बोिी
चढ़ चक
ु ी है। सौ-दौ सौ में खत्म हो जायगी।
रे वती-अपने दादा से तो पछ
ू ो
हीरामखण—उनके साथ दो घींटे तक माथापच्ची करने की ककसे फुरसत है।
हीरामखण अब घर का मालिक हो गया था और धचन्तामखण की एक न चिने पाती। वह गरीब अब
ऐनक िगाये एक गद्दे पर बैठे अपना वक्त खाींसने में खचम करते थे।
दस
ू रे ददन हीरामखण के नाम पर श्रीपरु खत्म हो गया। महाजन से जमीींदार हुए अपने मन ु ीम और दो
चपरालसयों को िेकर गाींव की सैर करने चिे। श्रीपरु वािों को खबर हुई। नयें जमीींदार का पहिा आगमन था।
घर-घर नजराने दे ने की तैयाररय ॉँ होने िगीीं। पाींचतें ददन शाम के वक्त हीरामखण गाींव में दाखखि हुए। दही
और चावि का नतिक िगाया गया और तीन सौ असामी पहर रात तक हाथ बाींधे हुए उनकी सेवा में खडे
रहे । सवेरे मख्
ु तारे आम ने असालमयों का पररचय कराना शरू
ु ककया। जो असामी जमीींदार के सामने आता वह
अपनी बबसात के मत
ु ाबबक एक या दो रुपये उनके पाींव पर रख दे ता । दोपहर होते-होते पाींच सौ रुपयों का
ढे र िगा हुआ था।
हीरामखण को पहिी बार जमीींदारी का मजा लमिा, पहिी बार धन और बि का नशा महसस ू हुआ।
सब नशों से जयादा तेज, जयादा घातक धन का नशा है । जब असालमयों की फेहररस्त खतम हो गयी तो
मख्
ु तार से बोिे—और कोई असामी तो बाकी नहीीं है ?
मख्
ु तार—हाीं महाराज, अभी एक असामी और है , तखत लसींह।
हीरामखण—वह क्यों नहीीं आया ?
मख्
ु तार—जरा मस्त है ।
हीरामखण—मैं उसकी मस्ती उतार दगा।
ू जरा कोई उसे बि
ु ा िाये।
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थोडी दे र में एक बढ़
ू ा आदमी िाठी टे कता हुआ आया और दण्डवत ् करके जमीन पर बैठ गया, न
नजर न ननयाज। उसकी यह गस् ु ताखी दे खकर हीरामखण को बख
ु ार चढ़ आया। कडककर बोिे—अभी ककसी
जमीींदार से पािा नही पडा हैं। एक-एक की हे कडी भि
ु ा दगा!

तखत लसींह ने हीरामखण की तरफ गौर से दे खकर जवाब ददया—मेरे सामने बीस जमीींदार आये और
चिे गये। मगर कभी ककसी ने इस तरह घड
ु की नहीीं दी।
यह कहकर उसने िाठी उठाई और अपने घर चिा आया।
बढ़
ू ी ठकुराइन ने पछ
ू ा—दे खा जमीींदार को कैसे आदमी है ?
तखत लसींह—अच्छे आदमी हैं। मैं उन्हें पहचान गया।
ठकुराइन—क्या तुमसे पहिे की मि
ु ाकात है ।
तखत लसींह—मेरी उनकी बीस बरस की जान-पदहचान है, गडु डयों के मेिेविी बात याद है न?
उस ददन से तखत लसींह कफर हीरामखण के पास न आया।

छ: महीने के बाद रे वती को भी श्रीपरु दे खने का शौक हुआ। वह और उसकी बहू और बच्चे सब श्रीपरु
आये। ग वॉँ की सब औरतें उससे लमिने आयीीं। उनमें बढ़ ू ी ठकुराइन भी थी। उसकी बातचीत,
सिीका और तमीज दे खकर रे वती दीं ग रह गयी। जब वह चिने िगी तो रे वती ने कहा—ठकुराइन, कभी-
कभी आया करना, तम
ु से लमिकर तबबयत बहुत खुश हुई।
इस तरह दोनों औरतों में धीरे -धीरे मेि हो गया। यहा तो यह कैकफयत थी और हीरामखण अपने
मख्
ु तारे आम के बहकाते में आकर तखत लसींह को बेदखि करने की तरकीबें सोच रहा था।
जेठ की परू नमासी आयी। हीरामखण की सािधगरह की तैयाररय ॉँ होने िगीीं। रे वती चिनी में मैदा छान
रही थी कक बढ़ ु कराकर कहा—ठकुराइन, हमारे यह ॉँ कि तम्
ू ी ठकुराइन आयी। रे वती ने मस् ु हारा न्योता है ।
ॉँ है ?
ठकुराइन-तुम्हारा न्योता लसर-आखों पर। कौन-सी बरसग ठ
रे वती उनतीसवीीं।
ठकुराइन—नरायन करे अभी ऐसे-ऐसे सौ ददन तुम्हें और दे खने नसीब हो।
रे वती—ठकुराइन, तुम्हारी जबान मब
ु ारक हो। बडे-बडे जन्तर-मन्तर ककये हैं तब तुम िोगों की दआ
ु से
यह ददन दे खना नसीब हुआ है । यह तो सातवें ही साि में थे कक इसकी जान के िािे पड गये। गुडडयों का
मेिा दे खने गयी थी। यह पानी में धगर पडे। बारे , एक महात्मा ने इसकी जान बचायी । इनकी जान उन्हीीं
की दी हुई हैं बहुत तिाश करवाया। उनका पता न चिा। हर बरसग ठ ॉँ पर उनके नाम से सौ रुपये ननकाि
रखती हू। दो हजार से कुछ ऊपर हो गये हैं। बच्चे की नीयत है कक उनके नाम से श्रीपरु में एक मींददर
बनवा दें । सच मानो ठकुराइन, एक बार उनके दशमन हो जाते तो जीवन सफि हो जाता, जी की हवस
ननकाि िेत।े
रे वती जब खामोश हुई तो ठकुराइन की आखों से आसू जारी थे।
दस ू रे ददन एक तरफ हीरामखण की सािधगरह का उत्सव था और दसू री तरफ तखत लसींह के खेत
नीिाम हो रहे थे।
ठकुराइन बोिी—मैं रे वती रानी के पास जाकर दहु ाई मचाती हू।
तखत लसींह ने जवाब ददया—मेरे जीते-जी नहीीं।

अ साढ़ का महीना आया। मेघराज ने अपनी प्राणदायी उदारता ददखायी। श्रीपरु के ककसान अपने-अपने
खेत जोतने चिे। तखतलसींह की िािसा भरी आखें उनके साथ-साथ जातीीं, यह ॉँ तक कक जमीन उन्हें
अपने दामन में नछपा िेती।
तखत लसींह के पास एक गाय थी। वह अब ददन के ददन उसे चराया करता। उसकी क्जन्दगी का अब
यही एक सहारा था। उसके उपिे और दध
ू बेचकर गज
ु र-बसर करता। कभी-कभी फाके करने पड जाते। यह
सब मस
ु ीबतें उसने झेंिीीं मगर अपनी कींगािी का रोना रोने केलिए एक ददन भी हीरामखण के पास न गया।
हीरामखण ने उसे नीचा ददखाना चाहा था मगर खुद उसे ही नीचा दे खना पडा, जीतने पर भी उसे हार हुई,
परु ाने िोहे को अपने नीच हठ की आच से न झक
ु ा सका।
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एक ददन रे वती ने कहा—बेटा, तम
ु ने गरीब को सताया, अच्छा न ककया।
हीरामखण ने तेज होकर जवाब ददया—वह गरीब नहीीं है । उसका घमण्ड मैं तोड दगा।

दौित के नशे में मतवािा जमीींदार वह चीज तोडने की कफक्र में था जो कहीीं थी ही नहीीं। जैसे
नासमझ बच्चा अपनी परछाईं से िडने िगता है।

सा ि भर तखतलसींह ने जयों-त्यों करके काटा। कफर बरसात आयी। उसका घर छाया न गया था। कई
ददन तक मस ू िाधर में ह बरसा तो मकान का एक दहस्सा धगर पडा। गाय वह ॉँ बधी हुई थी, दबकर
मर गयीीं तखतलसींह को भी सख्त चोट आयी। उसी ददन से बख ु ार आना शरूु हुआ। दवा –दारू कौन करता,
रोजी का सहारा था वह भी टूटा। जालिम बेददम मस ु ीबत ने कुचि डािा। सारा मकान पानी से भरा हुआ, घर
में अनाज का एक दाना नहीीं, अींधेरे में पडा हुआ कराह रहा था कक रे वती उसके घर गयी। तखतलसींह ने
आखें खोिीीं और पछ
ू ा—कौन है ?
ठकुराइन—रे वती रानी हैं।
तखतलसींह—मेरे धन्यभाग, मझ
ु पर बडी दया की ।
रे वती ने िक्जजत होकर कहा—ठकुराइन, ईश्वर जानता है, मैं अपने बेटे से है रान हू। तुम्हें जो
तकिीफ हो मझ ु से कहो। तुम्हारे ऊपर ऐसी आफत पड गयी और हमसे खबर तक न की?
यह कहकर रे वती ने रुपयों की एक छोटी-सी पोटिी ठकुराइन के सामने रख दी।
रुपयों की झनकार सन
ु कर तखतलसींह उठ बैठा और बोिा—रानी, हम इसके भख
ू े नहीीं है । मरते दम
गन
ु ाहगार न करो
दसू रे ददन हीरामखण भी अपने मस
ु ादहबों को लिये उधर से जा ननकिा। धगरा हुआ मकान दे खकर
मस्
ु कराया। उसके ददि ने कहा, आखखर मैंने उसका घमण्ड तोड ददया। मकान के अन्दर जाकर बोिा—ठाकुर,
अब क्या हाि है ?
ठाकुर ने धीरे से कहा—सब ईश्वर की दया है , आप कैसे भि
ू पडे?
ू री बार हार खानी पडी। उसकी यह आरजू कक तखतलसींह मेरे प वॉँ को आखों से चम
हीरामखण को दस ू ,े
अब भी परू ी न हुई। उसी रात को वह गरीब, आजाद, ईमानदार और बेगरज ठाकुर इस दनु नया से ववदा हो
गया।

बू ढ़ी ठकुराइन अब दनु नया में अकेिी थी। कोई उसके गम का शरीक और उसके मरने पर आसू बहानेवािा
न था। कींगािी ने गम की आच और तेज कर दी थीीं जरूरत की चीजें मौत के घाव को चाहे न भर सकें
मगर मरहम का काम जरूर करती है ।
रोटी की धचन्ता बरु ी बिा है। ठकुराइन अब खेत और चरागाह से गोबर चन
ु िाती और उपिे बनाकर
ॉँ
बेचती । उसे िाठी टे कते हुए खेतों को जाते और गोबर का टोकरा लसर पर रखकर बोझ में ह फते हुए आते
दे खना बहुत ही ददम नाक था। यहा तक कक हीरामखण को भी उस पर तरस आ गया। एक ददन उन्होंने आटा,
दाि, चावि, थालियों में रखकर उसके पास भेजा। रे वती खद
ु िेकर गयी। मगर बढ़
ू ी ठकुराइन आखों में आसू
ू ता है और हाथ-प वॉँ चिते हैं, मझ
भरकर बोिा—रे वती, जब तक आखों से सझ ु े और मरनेवािे को गुनाहगार
न करो।
उस ददन से हीरामखण को कफर उसके साथ अमिी हमददी ददखिाने का साहस न हुआ।
एक ददन रे वती ने ठकुराइन से उपिे मोि लिये। ग वॉँ मे पैसे के तीस उपिे बबकते थे। उसने चाहा
कक इससे बीस ही उपिे ि।ू उस ददन से ठकुराइन ने उसके यह ॉँ उपिे िाना बन्द कर ददया।
ऐसी दे ववय ॉँ दनु नया में ककतनी है! क्या वह इतना न जानती थी कक एक गुप्त रहस्य जबान पर िाकर
मैं अपनी इन तकिीफों का खात्मा कर सकती हू! मगर कफर वह एहसान का बदिा न हो जाएगा! मसि
मशहूर है नेकी कर और दररया में डाि। शायद उसके ददि में कभी यह ख्याि ही नहीीं आया कक मैंने रे वती
पर कोई एहसान ककया।
यह वजादार, आन पर मरनेवािी औरत पनत के मरने के बाद तीन साि तक क्जन्दा रही। यह जमाना
उसने क्जस तकिीफ से काटा उसे याद करके रोंगटे खडे हो जाते हैं। कई-कई ददन ननराहार बीत जाते। कभी
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गोबर न लमिता, कभी कोई उपिे चरु ा िे जाता। ईश्वर की मजी! ककसी की घर भरा हुआ है, खानेवाि नहीीं।
कोई यो रो-रोकर क्जन्दगी काटता है ।
बदु ढ़या ने यह सब दख
ु झेिा मगर ककसी के सामने हाथ नहीीं फैिाया।

ही रामखण की तीसवीीं सािधगरह आयी। ढोि की सह


पडू डयाीं पक रही थीीं, दस
ु ानी आवाज सन
ु ायी दे ने िगी। एक तरफ घी की
ू री तरफ तेि की। घी की मोटे िाह्मणों के लिए, तेि की गरीब-भख
ू े-नीचों के
लिए।
अचानक एक औरत ने रे वती से आकर कहा—ठकुराइन जाने कैसी हुई जाती हैं। तुम्हें बि
ु ा रही हैं।
रे वती ने ददि में कहा—आज तो खैररयत से काटना, कहीीं बदु ढ़या मर न रही हो।
यह सोचकर वह बदु ढ़या के पास न गयी। हीरामखण ने जब दे खा, अम्म ॉँ नहीीं जाना चाहती तो खद

चिा। ठकुराइन पर उसे कुछ ददनों से दया आने िगी थी। मगर रे वती मकान के दरवाजे ते उसे मना करने
आयी। या रहमददि, नेकलमजाज, शरीफ रे वती थी।
हीरामखण ठकुराइन के मकान पर पहुचा तो वह ॉँ बबल्कुि सन्नाटा छाया हुआ था। बढ़
ू ी औरत का चेहरा
पीिा था और जान ननकिने की हाित उस पर छाई हुई थी। हीरामखण ने जो से कहा—ठकुराइन, मैं हू
हीरामखण।
ठकुराइन ने आखें खोिी और इशारे से उसे अपना लसर नजदीक िाने को कहा। कफर रुक-रुककर
बोिी—मेरे लसरहाने वपटारी में ठाकुर की हड्डडय ॉँ रखी हुई हैं, मेरे सह
ु ाग का सेंदरु भी वहीीं है । यह दोनों
प्रयागराज भेज दे ना।
यह कहकर उसने आखें बन्द कर िी। हीरामखण ने वपटारी खोिी तो दोनों चीजें दहफाजत के साथ
रक्खी हुई थीीं। एक पोटिी में दस रुपये भी रक्खे हुए लमिे। यह शायद जानेवािे का सफरखचम था!
रात को ठकुराइन के कष्टों का हमेशा के लिए अन्त हो गया।
उसी रात को रे वती ने सपना दे खा—सावन का मेिा है, घटाए छाई हुई हैं, मैं कीरत सागर के ककनारे
खडी हू। इतने में हीरामखण पानी में कफसि पडा। मै छाती पीट-पीटकर रोने िगी। अचानक एक बढ़ ू ा आदमी
पानी में कूदा और हीरामखण को ननकाि िाया। रे वती उसके प वॉँ पर धगर पडी और बोिी—आप कौन है?
उसने जवाब ददया—मैं श्रीपरु में रहता हू, मेरा नाम तखतलसींह है ।
श्रीपरु अब भी हीरामखण के कब्जे में है , मगर अब रौनक दोबािा हो गयी है । वह ॉँ जाओ तो दरू से
ु हरा किश ददखाई दे ने िगता है; क्जस जगह तखत लसींह का मकान था, वह ॉँ यह लशवािा
लशवािे का सन
बना हुआ है । उसके सामने एक पक्का कुआ और पक्की धममशािा है । मस ु ाकफर यह ॉँ ठहरते हैं और तखत
लसींह का गुन गाते हैं। यह लशवािा और धममशािा दोनों उसके नाम से मशहूर हैं।
उदम ू ‘प्रेमपचीसी’ से

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बााँका जमींदार

ठा कुर प्रद्यम्
ु न लसींह एक प्रनतक्ष्ठत वकीि थे और अपने हौसिे और दहम्मत के लिए सारे शहर में
मश्हूर। उनके दोस्त अकसर कहा करते कक अदाित की इजिास में उनके मदामना कमाि जयादा
साफ तरीके पर जादहर हुआ करते हैं। इसी की बरकत थी कक बाबजूद इसके कक उन्हें शायद ही कभी ककसी
मामिे में सख
ु रू
म ई हालसि होती थी, उनके मव
ु क्क्किों की भक्क्त-भावना में जरा भर भी फकम नहीीं आता था।
इन्साफ की कुसी पर बैठनेवािे बडे िोगों की ननडर आजादी पर ककसी प्रकार का सन्दे ह करना पाप ही क्यों
न हो, मगर शहर के जानकार िोग ऐिाननया कहते थे कक ठाकुर साहब जब ककसी मामिे में क्जद पकड
िेते हैं तो उनका बदिा हुआ तेवर और तमतमाया हुआ चेहरा इन्साफ को भी अपने वश में कर िेता है ।
एक से जयादा मौकों पर उनके जीवट और क्जगर ने वे चमत्कार कर ददखाये थे जह ॉँ कक इन्साफ और
कानन
ू के जवाब दे ददया। इसके साथ ही ठाकुर साहब मदामना गुणों के सच्चे जौहरी थे। अगर मव
ु क्क्कि को
कुश्ती में कुछ पैठ हो तो यह जरूरी नहीीं था कक वह उनकी सेवाए प्राप्त करने के लिए रुपया-पैसा दे ।
इसीलिए उनके यह ॉँ शहर के पहिवानों और फेकैतों का हमेशा जमघट रहता था और यही वह जबदमस्त
प्रभावशािी और व्यावहाररक कानन
ू ी बारीकी थी क्जसकी काट करने में इन्साफ को भी आगा-पीछा सोचना
ु घर की ड्योदढ़य ॉँ बहुत ऊची थी
पडता। वे गवम और सच्चे गवम की ददि से कदर करते थे। उनके बेतकल्िफ
वह ॉँ झक
ु ने की जरुरत न थी। इन्सान खब
ू लसर उठाकर जा सकता था। यह एक ववश्वस्त कहानी है कक एक
बार उन्होंने ककसी मक
ु दमें को बावजद
ू बहुत ववनती और आग्रह के हाथ में िेने से इनकार ककया। मव
ु क्क्कि
कोई अक्खड दे हाती था। उसने जब आरज-ू लमन्नत से काम ननकिते न दे खा तो दहम्मत से काम लिया।
वकीि साहब कुसी से नीचे धगर पडे और बबफरे हुए दे हाती को सीने से िगा लिया।

ध न और धरती के बीच आददकाि से एक आकषमण है । धरती में साधारण गुरुत्वाकषमण के अिावा एक


खास ताकत होती है, जो हमेशा धन को अपनी तरफ खीींचती है । सद
ू और तमस्सक
ु और व्यापार, यह
दौित की बीच की मींक्जिें हैं, जमीन उसकी आखखरी मींक्जि है । ठाकुर प्रद्यम्
ु न लसींह की ननगाहें बहुत असे
से एक बहुत उपजाऊ मौजे पर िगी हुई थीीं। िेककन बैंक का एकाउण्ट कभी हौसिे को कदम नहीीं बढ़ाने
दे ता था। यह ॉँ तक कक एक दफा उसी मौजे का जमीींदार एक कत्ि के मामिे में पकडा गया। उसने लसफम
रस्मों-ररवाज के माकफक एक आसामी को ददन भर धप
ू और जेठ की जिती हुई धप
ू में खडा रखा था िेककन
अगर सरू ज की गमी या क्जस्म की कमजोरी या प्यास की तेजी उसकी जानिेवा बन जाय तो इसमें
जमीींदार की क्या खता थी। यह शहर के वकीिों की जयादती थी कक कोई उसकी दहमायत पर आमदा न
हुआ या मम ु ककन है जमीींदार के हाथ की तींगी को भी उसमें कुछ दखि हो। बहरहाि, उसने चारों तरफ से
ठोकरें खाकर ठाकुर साहब की शरण िी। मक ु दमा ननहायत कमजोर था। पलु िस ने अपनी परू ी ताकत से
धावा ककया था और उसकी कुमक के लिए शासन और अधधकार के ताजे से ताजे ररसािे तैयार थे। ठाकुर
साहब अनभु वी सपेरों की तरह स पॉँ के बबि में हाथ नहीीं डािते थे िेककन इस मौके पर उन्हें सख
ू ी मसिहत
के मक
ु ाबिे में अपनी मरु ादों का पल्िा झक
ु ता हुआ नजर आया। जमीींदार को इत्मीनान ददिाया और
वकाितनामा दाखखि कर ददया और कफर इस तरह जी-जान से मक ु दमे की पैरवी की, कुछ इस तरह जान
िडायी कक मैदान से जीत का डींका बजाते हुए ननकिे। जनता की जबान इस जीत का सेहरा उनकी कानन ू ी
पैठ के सर नहीीं, उनके मदामना गण
ु ों के सर रखती है क्योंकक उन ददनों वकीि साहब नजीरों और दफाओीं की
दहम्मततोड पेचीदधगयों में उिझने के बजाय दीं गि की उत्साहवद्मधक ददिचक्स्पयों में जयादा िगे रहते थे
िेककन यह बात जरा भी यकीन करने के काबबि नहीीं मािम
ू होती। जयादा जानकान िोग कहते हैं कक
अनार के बमगोिों और सेब और अींगूर की गोलियों ने पलु िस के, इस परु शोर हमिे को तोडकर बबखेर ददया
गरज कक मैदान हमारे ठाकुर साहब के हाथ रहा। जमीींदार की जान बची। मौत के मह
ु से ननकि आया
उनके पैरों पर धगर पडा और बोिा—ठाकुर साहब, मैं इस काबबि तो नहीीं कक आपकी खखदमत कर सकू।
ईश्वर ने आपको बहुत कुछ ददया है िेककन कृष्ण भगवान ् ने गरीब सद ु ामा के सख
ू े चावि खश
ु ी से कबि

ककए थे। मेरे पास बज
ु ग
ु ों की यादगार छोटा-सा वीरान मौजा है उसे आपकी भें ट करता हू। आपके िायक तो
नहीीं िेककन मेरी खानतर इसे कबि
ू कीक्जए। मैं आपका जस कभी न भि
ू गा।
ू वकीि साहब फडक उठे । दो-
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चार बार ननस्पह
ृ बैराधगयों की तरह इन्कार करने के बाद इस भें ट को कबि
ू कर लिया। मींह ॉँ मरु ाद
ु -म गी
लमिी।
3

इ स मौजे के िोग बेहद सरदश और झगडािू थे, क्जन्हें इस बात का गवम था कक कभी कोई जमीींदार उन्हें
बस में नहीीं कर सका। िेककन जब उन्होंने अपनी बागडोर प्रद्यम्
ु न लसींह के हाथों में जाते दे खी तो
चौकडडय ॉँ भि
ू गये, एक बदिगाम घोडे की तरह सवार को कनखखयों से दे खा, कनौनतय ॉँ खडी कीीं, कुछ
दहनदहनाये और तब गदम नें झक
ु ा दीीं। समझ गये कक यह क्जगर का मजबत
ू आसन का पक्का शहसवार है।
असाढ़ का महीना था। ककसान गहने और बतमन बेच-बेचकर बैिों की तिाश में दर-ब-दर कफरते थे।
ॉँ की बढ़
ग वों ू ी बननयाइन नवेिी दिु हन बनी हुई थी और फाका करने वािा कुम्हार बरात का दल् ू हा था
मजदरू मौके के बादशाह बने हुए थे। टपकती हुई छतें उनकी कृपादृक्ष्ट की राह दे ख रही थी। घास से ढके
हुए खेत उनके ममतापण ू म हाथों के मह
ु ताज। क्जसे चाहते थे बसाते थे, क्जस चाहते थे उजाडते थे। आम और
जामनु के पेडों पर आठों पहर ननशानेबाज मनचिे िडकों का धावा रहता था। बढ़ ू े गदम नों में झोलिय ॉँ िटकाये
पहर रात से टपके की खोज में घम
ू ते नजर आते थे जो बढ़
ु ापे के बावजूद भोजन और जाप से जयादा
ददिचस्प और म़िेदार काम था। नािे परु शोर, नददय ॉँ अथाह, चारों तरफ हररयािी और खुशहािी। इन्हीीं
ददनों ठाकुर साहब मौत की तरह, क्जसके आने की पहिे से कोई सचू ना नहीीं होती, ग वॉँ में आये। एक सजी
हुई बरात थी, हाथी और घोडे, और साज-सामान, िठै तों का एक ररसािा-सा था। ग वॉँ ने यह तूमतडाक और
आन-बान दे खी तो रहे -सहे होश उड गये। घोडे खेतों में ऐींडने िगे और गींड
ु े गलियों में । शाम के वक्त ठाकुर
साहब ने अपने असालमयों को बि
ु ाया और बि
ु न्द आवाज में बोिे—मैंने सन
ु ा है कक तम
ु िोग सरकश हो और
मेरी सरकशी का हाि तम
ु को मािम
ू ही है । अब ईंट और पत्थर का सामना है। बोिो क्या मींजरू है ?
एक बढ़ ॉँ
ू े ककसान ने बेद के पेड की तरह क पते हुए जवाब ददया—सरकार, आप हमारे राजा हैं। हम
आपसे ऐींठकर कह ॉँ जायेंगे।
ठाकुर साहब तेवर बदिकर बोिे—तो तुम िोग सब के सब कि सब ु ह तक तीन साि का पेशगी
ु िो कक मैं हुक्म को दहु राना नहीीं जानता वनाम मैं ग वॉँ में
िगान दाखखि कर दो और खूब ध्यान दे कर सन
हि चिवा दगा
ू और घरों को खेत बना दगा।

सारे ग वॉँ में कोहराम मच गया। तीन साि का पेशगी िगान और इतनी जल्दी जट
ु ाना असम्भव था।
रात इसी है स-बैस में कटी। अभी तक आरज-ू लमन्नत के बबजिी जैसे असर की उम्मीद बाकी थी। सब
ु ह बडी
इन्तजार के बाद आई तो प्रिय बनकर आई। एक तरफ तो जोर जबदम स्ती और अन्याय-अत्याचार का बाजार
गमम था, दस
ू री तरफ रोती हुई आखों, सदम आहों और चीख-पकु ार का, क्जन्हें सनु नेवािा कोई न था। गरीब
ककसान अपनी-अपनी पोटलिय ॉँ िादे , बेकस अन्दाज से ताकते, ऑ ींखें में याचना भरे बीवी-बच्चों को साथ
लिये रोते-बबिखते ककसी अज्ञात दे श को चिे जाते थे। शाम हुई तो ग वॉँ उजड गया।

य ह खबर बहुत जल्द चारों तरफ फैि गयी। िोगों को ठाकुर साहब के इन्सान होने पर सन्दे ह होने
िगा। ग वॉँ वीरान पडा हुआ था। कौन उसे आबाद करे । ककसके बच्चे उसकी गलियों में खेिें। ककसकी
औरतें कुओीं पर पानी भरें । राह चिते मस
ु ाकफर तबाही का यह दृश्य आखों से दे खते और अफसोस करते।
नहीीं मािम
ू उन वीराने दे श में पडे हुए गरीबों पर क्या गज
ु री। आह, जो मेहनत की कमाई खाते थे और सर
उठाकर चिते थे, अब दस ू रों की गिु ामी कर रहे हैं।
इस तरह परू ा साि गुजर गया। तब ग वॉँ के नसीब जागे। जमीन उपजाऊ थी। मकान मौजूद। धीरे -
धीरे जुल्म की यह दास्तान फीकी पड गयी। मनचिे ककसानों की िोभ-दृक्ष्ट उस पर पडने िगी। बिा से
जमीींदार जालिम हैं, बेरहम हैं, सक्ख्तय ॉँ करता है , हम उसे मना िेंगे। तीन साि की पेशगी िगान का क्या
क्जक्र वह जैसे खुश होगा, खुश करें गे। उसकी गालियों को दआ
ु समझेंगे, उसके जूते अपने सर-आखों पर
रक्खेंगे। वह राजा हैं, हम उनके चाकर हैं। क्जन्दगी की कशमकश और िडाई में आत्मसम्मान को ननबाहना
ू रा अषाढ़ आया तो वह ग वॉँ कफर बगीचा बना हुआ था। बच्चे कफर अपने दरवाजों
कैसा मक्ु श्कि काम है! दस
पर घरौंदे बनाने िगे, मदों के बि
ु न्द आवाज के गाने खेतों में सन
ु ाई ददये व औरतों के सह
ु ाने गीत चक्क्कयों
पर। क्जन्दगी के मोहक दृश्य ददखाईं दे ने िगे।

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साि भर गज
ु रा। जब रबी की दस
ू री फसि आयी तो सन
ु हरी बािों को खेतों में िहराते दे खकर
ककसानों के ददि िहराने िगते थे। साि भर परती जमीन ने सोना उगि ददया थाीं औरतें खश
ु थीीं कक अब
के नये-नये गहने बनवायेंगे, मदम खश
ु थे कक अच्छे -अच्छे बैि मोि िेंगे और दारोगा जी की खश
ु ी का तो
अन्त ही न था। ठाकुर साहब ने यह खुशखबरी सन ु ी तो दे हात की सैर को चिे। वही शानशौकत, वही िठै तों
का ररसािा, वही गींड ॉँ
ु ों की फौज! ग ववािों ने उनके आदर सत्कार की तैयाररय ॉँ करनी शरू ु कीीं। मोटे -ताजे
बकरों का एक परू ा गिा चौपाि के दरवाज पर बाधाीं िकडी के अम्बार िगा ददये, दध
ू के हौज भर ददये।
ठाकुर साहब ग वॉँ की मेड पर पहुचे तो परू े एक सौ आदमी उनकी अगवानी के लिए हाथ ब धे ॉँ खडे थे।
िेककन पहिी चीज क्जसकी फरमाइश हुई वह िेमनेड और बफम थी। असालमयों के हाथों के तोते उड गये।
यह पानी की बोति इस वक्त वह ॉँ अमत ृ के दामों बबक सकती थी। मगर बेचारे दे हाती अमीरों के चोचिे
क्या जानें। मज
ु ररमों की तरह लसर झक
ु ाये भौंचक खडे थे। चेहरे पर झेंप और शमम थी। ददिों में धडकन और
भय। ईश्वर! बात बबगड गई है , अब तम्
ु हीीं सम्हािो।,’
बफम की ठण्डक न लमिी तो ठाकुर साहब की प्यास की आग और भी तेज हुई, गुस्सा भडक उठा,
कडककर बोिे—मैं शैतान नहीीं हू कक बकरों के खून से प्यास बझ
ु ाऊ, मझ
ु े ठीं डा बफम चादहए और यह प्यास
तुम्हारे और तुम्हारी औरतों के आसओ
ु ीं से ही बझ
ु ग
े ी। एहसानफरामोश, नीच मैंने तुम्हें जमीन दी, मकान
ददये और है लसयत दी और इसके बदिे में तुम ये दे रहे हो कक मैं खडा पानी को तरसता हू! तुम इस
काबबि नहीीं हो कक तुम्हारे साथ कोई ररयायत की जाय। कि शाम तक मैं तुममें से ककसी आदमी की सरू त
इस ग वॉँ में न दे खू वनाम प्रिय हो जायेगा। तुम जानते हो कक मझ
ु े अपना हुक्म दहु राने की आदत नहीीं है ।
रात तम्
ु हारी है , जो कुछ िे जा सको, िे जाओ। िेककन शाम को मैं ककसी की मनहूस सरू त न दे ख।ू यह
रोना और चीखना कफजू है, मेरा ददि पत्थर का है और किेजा िोहे का, आसओ
ु ीं से नहीीं पसीजता।
ू री रात को सारे ग वॉँ कोई ददया जिानेवािा तक न रहा। फूिता-फिता ग वॉँ
और ऐसा ही हुआ। दस
भत
ू का डेरा बन गया।

ब हुत ददनों तक यह घटना आस-पास के मनचिे ककस्सागोयों के लिए ददिचक्स्पयों का खजाना बनी
रही। एक साहब ने उस पर अपनी किम। भी चिायी। बेचारे ठाकुर साहब ऐसे बदनाम हुए कक घर से
ननकिना मक्ु श्कि हो गया। बहुत कोलशश की ग वॉँ आबाद हो जाय िेककन ककसकी जान भारी थी कक इस
अींधेर नगरी में कदम रखता जह ॉँ मोटापे की सजा फ सी
ॉँ थी। कुछ मजदरू -पेशा िोग ककस्मत का जुआ
खेिने आये मगर कुछ महीनों से जयादा न जम सके। उजडा हुआ ग वॉँ खोया हुआ एतबार है जो बहुत
मक्ु श्कि से जमता है। आखखर जब कोई बस न चिा तो ठाकुर साहब ने मजबरू होकर आराजी माफ करने
का काम आम ऐिान कर ददया िेककन इस ररयासत से रही-सही साख भी खो दी। इस तरह तीन साि गुजर
जाने के बाद एक रोज वह ॉँ बींजारों का काकफिा आया। शाम हो गयी थी और परू ब तरफ से अींधेरे की िहर
बढ़ती चिी आती थी। बींजारों ने दे खा तो सारा ग वॉँ वीरान पडा हुआ है ।, जह ॉँ आदलमयों के घरों में धगद्ध
और गीदड रहते थे। इस नतलिस्म का भेद समझ में न आया। मकान मौजूद हैं, जमीन उपजाऊ है, हररयािी
से िहराते हुए खेत हैं और इन्सान का नाम नहीीं! कोई और ग वॉँ पास न था वहीीं पडाव डाि ददया। जब
सब ु ककया और काकफिा ग वॉँ से
ु ह हुई, बैिों के गिों की घींदटयों ने कफर अपना रजत-सींगीत अिापना शरू
कुछ दरू ननकि गया तो एक चरवाहे ने जोर-जबदम स्ती की यह िम्बी कहानी उन्हें सन
ु ायी। दनु नया भर में
घम
ू ते कफरने ने उन्हें मक्ु श्किों का आदी बना ददया था। आपस में कुद मशववरा ककया और फैसिा हो गया।
ठाकुर साहब की ड्योढ़ी पर जा पहुचे और नजराने दाखखि कर ददये। ग वॉँ कफर आबाद हुआ।
यह बींजारे बिा के चीमड, िोहे की-सी दहम्मत और इरादे के िोग थे क्जनके आते ही ग वॉँ में िक्ष्मी
का राज हो गया। कफर घरों में से धए
ु ीं के बादि उठे , कोल्हाडों ने कफर धए
ु ओर भाप की चादरें पहनीीं,
तुिसी के चबत
ू रे पर कफर से धचराग जिे। रात को रीं गीन तबबयत नौजवानों की अिापें सन
ु ायी दे ने िगीीं।
ॉँ रु ी की
चरागाहों में कफर मवेलशयों के गल्िे ददखाई ददये और ककसी पेड के नीचे बैठे हुए चरवाहे की ब स
मद्धधम और रसीिी आवाज ददम और असर में डूबी हुई इस प्राकृनतक दृश्य में जाद ू का आकषमण पैदा करने
िगी।
भादों का महीना था। कपास के फूिों की सख
ु म और सफेद धचकनाई, नति की ऊदी बहार और सन का
शोख पीिापन अपने रूप का जिवा ददखाता था। ककसानों की मडैया और छप्परों पर भी फि-फूि की रीं गीनी

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ददखायी दे ती थी। उस पर पानी की हिकी-हिकी फुहारें प्रकृनत के सौंदयम के लिए लसींगार करनेवािी का कमा
दे रही थीीं। क्जस तरह साधओ
ु ीं के ददि सत्य की जयोनत से भरे होते हैं, उसी तरह सागर और तािाब साफ-
शफ़्फाफ पानी से भरे थे। शायद राजा इन्द्र कैिाश की तरावट भरी ऊचाइयों से उतरकर अब मैदानों में
आनेवािे थे। इसीलिए प्रकृनत ने सौन्दयम और लसद्धधयों और आशाओीं के भी भण्डार खोि ददये थे। वकीि
साहब को भी सैर की तमन्ना ने गुदगुदाया। हमेशा की तरह अपने रईंसाना ठाट-बाट के साथ ग वॉँ में आ
पहुचे। दे खा तो सींतोष और ननक्श्चन्तता के वरदान चारों तरफ स्पष्ट थे।

गा
ववािों ने उनके शभु ागमन का समाचार सनु ा, सिाम को हाक्जर हुए। वकीि साहब ने उन्हें अच्छे -
अच्छे कपडे पहने, स्वालभमान के साथ कदम लमिाते हुए दे खा। उनसे बहुत मस्
ु कराकर लमिे। फसि
का हाि-चाि पछ
ू ा। बढ़
ू े हरदास ने एक ऐसे िहजे में क्जससे परू ी क्जम्मेदारी और चौधरापे की शान टपकती
थी, जवाब ददया—हुजरू के कदमों की बरकत से सब चैन है । ककसी तरह की तकिीफ नहीीं आपकी दी हुई
नेमत खाते हैं और आपका जस गाते हैं। हमारे राजा और सरकार जो कुछ हैं, आप हैं और आपके लिए जान
तक हाक्जर है ।
ठाकुर साहब ने तेबर बदिकर कहा—मैं अपनी खुशामद सन
ु ने का आदी नहीीं हू।
बढ़
ू े हरदास के माथे पर बि पडे, अलभमान को चोट िगी। बोिा—मझु े भी खुशामद करने की आदत
नहीीं है।
ठाकुर साहब ने ऐींठकर जवाब ददया—तुम्हें रईसों से बात करने की तमीज नहीीं। ताकत की तरह
तम्
ु हारी अक्ि भी बढ़
ु ापे की भें ट चढ़ गई।
हरदास ने अपने साधथयों की तरफ दे खा। गस्ु से की गमी से सब की आख फैिी हुई और धीरज की
सदी से माथे लसकुडे हुए थे। बोिा—हम आपकी रै यत हैं िेककन हमको अपनी आबरू प्यारी है और चाहे आप
जमीींदार को अपना लसर दे दें आबरू नहीीं दे सकते।
हरदास के कई मनचिे साधथयों ने बि
ु न्द आवाज में ताईद की—आबरू जान के पीछे है ।
ठाकुर साहब के गुस्से की आग भडक उठी और चेहरा िाि हो गया, और जोर से बोिे—तुम िोग
जबान सम्हािकर बातें करो वनाम क्जस तरह गिे में झोलिय ॉँ िटकाये आये थे उसी तरह ननकाि ददये
जाओगे। मैं प्रद्यम्
ु न लसींह हू, क्जसने तुम जैसे ककतने ही हे कडों को इसी जगह कुचिवा डािा है। यह कहकर
उन्होंने अपने ररसािे के सरदार अजन ुम लसींह को बि
ु ाकर कहा—ठाकुर, अब इन चीदटयों के पर ननकि आये हैं,
कि शाम तक इन िोगों से मेरा ग वॉँ साफ हो जाए।
ु सा अब धचनगारी बनकर आखों से ननकि रहा था। बोिा—हमने इस ग वॉँ को
हरदास खडा हो गया। गस्
छोडने के लिए नहीीं बसाया है। जब तक क्जयेंगे इसी ग वॉँ में रहें गे, यहीीं पैदा होंगे और यहीीं मरें गे। आप बडे
आदमी हैं और बडों की समझ भी बडी होती है । हम िोग अक्खड गींवार हैं। नाहक गरीबों की जान के पीछ
मत पडडए। खून-खराबा हो जायेगा। िेककन आपको यही मींजूर है तो हमारी तरफ से आपके लसपादहयों को
चन
ु ौती है, जब चाहे ददि के अरमान ननकाि िें।
इतना कहकर ठाकुर साहब को सिाम ककया और चि ददया। उसके साथी गवम के साथ अकडते हुए
चिे। अजुन
म लसींह ने उनके तेवर दे खे। समझ गया कक यह िोहे के चने हैं िेककन शोहदों का सरदार था, कुछ
अपने नाम की िाज थी। दस
ू रे ददन शाम के वक्त जब रात और ददन में मठ
ु भेड हो रही थी, इन दोनों
जमातों का सामना हुआ। कफर वह धौि-धप्पा हुआ कक जमीन थराम गयी। जबानों ने मींह ु के अन्दर वह माके
ददखाये कक सरू ज डर के मारे पक्श्छम में जा नछपा। तब िादठयों ने लसर उठाया िेककन इससे पहिे कक वह
डाक्टर साहब की दआ
ु और शकु क्रये की मस्
ु तहक हों अजन
ुम लसींह ने समझदारी से काम लिया। ताहम उनके
चन्द आदलमयों के लिए गुड और हल्दी पीने का सामान हो चक
ु ा था।
वकीि साहब ने अपनी फौज की यह बरु ी हाितें दे खीीं, ककसी के कपडे फटे हुए, ककसी के क्जस्म पर
ॉँ -ह फते
गदम जमी हुई, कोई ह फते ॉँ बेदम (खून बहुत कम नजर आया क्योंकक यह एक अनमोि चीज है और
इसे डींडों की मार से बचा लिया गया) तो उन्होंने अजन ॉँ
ुम लसींह की पीठ ठोकी और उसकी बहादरु ी और ज बाजी
की खबू तारीफ की। रात को उनके सामने िड्डू और इमरनतयों की ऐसी वषाम हुई कक यह सब गदम -गबु ार धि

गया। सब ू कर भी इस ग वॉँ का
ु ह को इस ररसािे ने ठीं डे-ठीं डे घर की राह िी और कसम खा गए कक अब भि
रूख न करें गे।

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तब ठाकुर साहब ने ग वॉँ के आदलमयों को चौपाि में तिब ककया। उनके इशारे की दे र थी। सब िोग
इकट्ठे हो गए। अक्ख्तयार और हुकूमत अगर घमींड की मसनद से उतर आए तो दश्ु मनों को भी दोस्त बना
सकती है । जब सब आदमी आ गये तो ठाकुर साहब एक-एक करके उनसे बगिगीर हुए ओर बोिे—मैं ईश्वर
का बहु ऋणी हू कक मझ ु े ग वॉँ के लिए क्जन आदलमयों की तिाश थी, वह िोग लमि गये। आपको मािमू है
कक यह ग वॉँ कई बार उजडा और कई बार बसा। उसका कारण यही था कक वे िोग मेरी कसौटी पर परू े न
उतरते थे। मैं उनका दश्ु मन नहीीं था िेककन मेरी ददिी आरजू यह थी कक इस ग वॉँ में वे िोग आबाद हों जो
जुल्म का मदों की तरह सामना करें , जो अपने अधधकारों और ररआयतों की मदों की तरह दहफाजत करें , जो
हुकूमत के गुिाम न हों, जो रोब और अक्ख्तयार की तेज ननगाह दे खकर बच्चों की तरह डर से सहम न
जाऍ।ीं मझ
ु े इत्मीनान है कक बहुत नक
ु सान और शलमिंदगी और बदनामी के बाद मेरी तमन्नाए परू ी हो गयीीं।
मझ
ु े इत्मीनान है कक आप उल्टी हवाओीं और ऊची-ऊची उठनेवािी िहरों का मक
ु ाबिा कामयाबी से करें गे। मैं
आज इस ग वॉँ से अपना हाथ खीींचता हू। आज से यह आपकी लमक्ल्कयत है । आपही इसके जमीींदार और
मालिक हैं। ईश्वर से मेरी यही प्राथमना है कक आप फिें -फूिें ओर सरसब्ज हों।
इन शब्दों ने ददिों पर जाद ू का काम ककया। िोग स्वालमभक्क्त के आवेश से मस्त हो-होकर ठाकुर
साहब के पैरों से लिपट गये और कहने िगे—हम आपके, कदमों से जीते-जी जुदा न होंगे। आपका-सा
ु ुगम हम कह ॉँ पायेंगे। वीरों की भक्क्त और सहनभ
कद्रदान और ररआया-परवर बज ु नू त, वफादारी और एहसान
का एक बडा ददम नाक और असर पैदा करने वािा दृश्य आखों के सामने पेश हो गया। िेककन ठाकुर साहब
अपने उदार ननश्चय पर दृढ़ रहे और गो पचास साि से जयादा गज
ु र गये हैं। िेककन उन्हीीं बींजारों के वाररस
अभी तक मौजा साहषगींज के माफीदार हैं। औरतें अभी तक ठाकुर प्रद्यम्
ु न लसींह की पज
ू ा और मन्नतें करती
हैं और गो अब इस मौजे के कई नौजवान दौित और हुकूमत की बि ु ींदी पर पहुच गये हैं िेककन गढ़ू े और
अक्खड हरदास के नाम पर अब भी गवम करते हैं। और भादों सद
ु ी एकादशी के ददन अभी उसी मब ु ारक फतेह
की यादगार में जश्न मनाये जाते हैं।

—जमाना, अक्तूबर १९१३

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अनाथ लड़की

से
ठ परु
ु षोत्तमदास पन
ू ा की सरस्वती पाठशािा का मआ
ु यना करने के बाद बाहर ननकिे तो एक िडकी ने
दौडकर उनका दामन पकड लिया। सेठ जी रुक गये और मह
ु ब्बत से उसकी तरफ दे खकर पछ
ू ा—क्या
नाम है ?
िडकी ने जवाब ददया—रोदहणी।
सेठ जी ने उसे गोद में उठा लिया और बोिे—तुम्हें कुछ इनाम लमिा?
िडकी ने उनकी तरफ बच्चों जैसी गींभीरता से दे खकर कहा—तम
ु चिे जाते हो, मझ
ु े रोना आता है,
मझ
ु े भी साथ िेते चिो।
सेठजी ने हसकर कहा—मझ
ु े बडी दरू जाना है , तुम कैसे चािोगी?
रोदहणी ने प्यार से उनकी गदम न में हाथ डाि ददये और बोिी—जह ॉँ तुम जाओगे वहीीं मैं भी चिगी।
ू मैं
तुम्हारी बेटी हूगी।
मदरसे के अफसर ने आगे बढ़कर कहा—इसका बाप साि भर हुआ नही रहा। म ॉँ कपडे सीती है , बडी
मक्ु श्कि से गज
ु र होती है।
सेठ जी के स्वभाव में करुणा बहुत थी। यह सन
ु कर उनकी आखें भर आयीीं। उस भोिी प्राथमना में वह
ददम था जो पत्थर-से ददि को वपघिा सकता है । बेकसी और यतीमी को इससे जयादा ददम नाक ढीं ग से जादहर
ु ककन था। उन्होंने सोचा—इस नन्हें -से ददि में न जाने क्या अरमान होंगे। और िडककय ॉँ अपने
कना नामम
खखिौने ददखाकर कहती होंगी, यह मेरे बाप ने ददया है । वह अपने बाप के साथ मदरसे आती होंगी, उसके
साथ मेिों में जाती होंगी और उनकी ददिचक्स्पयों का क्जक्र करती होंगी। यह सब बातें सन
ु -सन
ु कर इस
भोिी िडकी को भी ख्वादहश होती होगी कक मेरे बाप होता। म ॉँ की मह
ु ब्बत में गहराई और आक्त्मकता होती
है क्जसे बच्चे समझ नहीीं सकते। बाप की मह
ु ब्बत में खुशी और चाव होता है क्जसे बच्चे खूब समझते हैं।
सेठ जी ने रोदहणी को प्यार से गिे िगा लिया और बोिे—अच्छा, मैं तुम्हें अपनी बेटी बनाऊगा।
िेककन खूब जी िगाकर पढ़ना। अब छुट्टी का वक्त आ गया है , मेरे साथ आओ, तुम्हारे घर पहुचा द।ू
यह कहकर उन्होंने रोदहणी को अपनी मोटरकार में बबठा लिया। रोदहणी ने बडे इत्मीनान और गवम से
अपनी सहे लियों की तरफ दे खा। उसकी बडी-बडी आखें खश ॉँ
ु ी से चमक रही थीीं और चेहरा च दनी रात की
तरह खखिा हुआ था।

से ठ ने रोदहणी को बाजार की खूब सैर करायी और कुछ उसकी पसन्द से, कुछ अपनी पसन्द से बहुत-
सी चीजें खरीदीीं, यह ॉँ तक कक रोदहणी बातें करते-करते कुछ थक-सी गयी और खामोश हो गई। उसने
इतनी चीजें दे खीीं और इतनी बातें सन
ु ीीं कक उसका जी भर गया। शाम होते-होते रोदहणी के घर पहुचे और
मोटरकार से उतरकर रोदहणी को अब कुछ आराम लमिा। दरवाजा बन्द था। उसकी म ॉँ ककसी ग्राहक के घर
कपडे दे ने गयी थी। रोदहणी ने अपने तोहफों को उिटना-पिटना शरू
ु ककया—खूबसरू त रबड के खखिौने, चीनी
की गडु डया जरा दबाने से च-च
ू ू करने िगतीीं और रोदहणी यह प्यारा सींगीत सन
ु कर फूिी न समाती थी।
रे शमी कपडे और रीं ग-बबरीं गी साडडयों की कई बण्डि थे िेककन मखमिी बट
ू े की गि
ु काररयों ने उसे खब

िभ
ु ाया था। उसे उन चीजों के पाने की क्जतनी खुशी थी, उससे जयादा उन्हें अपनी सहे लियों को ददखाने की
बेचन ु दरी के जूते अच्छे सही िेककन उनमें ऐसे फूि कह ॉँ हैं। ऐसी गुडडया उसने कभी दे खी भी न
ै ी थी। सन्
होंगी। इन खयािों से उसके ददि में उमींग भर आयी और वह अपनी मोदहनी आवाज में एक गीत गाने
िगी। सेठ जी दरवाजे पर खडे इन पववत्र दृश्य का हाददम क आनन्द उठा रहे थे। इतने में रोदहणी की म ॉँ
रुक्क्मणी कपडों की एक पोटिी लिये हुए आती ददखायी दी। रोदहणी ने खुशी से पागि होकर एक छि ग ॉँ
भरी और उसके पैरों से लिपट गयी। रुक्क्मणी का चेहरा पीिा था, आखों में हसरत और बेकसी नछपी हुई
थी, गप्ु त धचींता का सजीव धचत्र मािम
ू होती थी, क्जसके लिए क्जींदगी में कोई सहारा नहीीं।
मगर रोदहणी को जब उसने गोद में उठाकर प्यार से चम
ू ा मो जरा दे र के लिए उसकी ऑ ींखों में
उन्मीद और क्जींदगी की झिक ददखायी दी। मरु झाया हुआ फूि खखि गया। बोिी—आज तू इतनी दे र तक
कह ॉँ रही, मैं तुझे ढूढ़ने पाठशािा गयी थी।

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रोदहणी ने हुमककर कहा—मैं मोटरकार पर बैठकर बाजार गयी थी। वह ॉँ से बहुत अच्छी-अच्छी चीजें
िायी हू। वह दे खो कौन खडा है ?
म ॉँ ने सेठ जी की तरफ ताका और िजाकर लसर झक
ु ा लिया।
बरामदे में पहुचते ही रोदहणी म ॉँ की गोद से उतरकर सेठजी के पास गयी और अपनी म ॉँ को यकीन
ददिाने के लिए भोिेपन से बोिी—क्यों, तम ु मेरे बाप हो न?
सेठ जी ने उसे प्यार करके कहा—ह ,ॉँ तुम मेरी प्यारी बेटी हो।
रोदहणी ने उनसे मींह
ु की तरफ याचना-भरी आखों से दे खकर कहा—अब तुम रोज यहीीं रहा करोगे?
ु झाकर जवाब ददया—मैं यह ॉँ रहूगा तो काम कौन करे गा? मैं कभी-कभी तुम्हें
सेठ जी ने उसके बाि सि
दे खने आया करूगा, िेककन वह ॉँ से तुम्हारे लिए अच्छी-अच्छी चीजें भेजगा।

रोदहणी कुछ उदास-सी हो गयी। इतने में उसकी म ॉँ ने मकान का दरवाजा खोिा ओर बडी फुती से
मैिे बबछावन और फटे हुए कपडे समेट कर कोने में डाि ददये कक कहीीं सेठ जी की ननगाह उन पर न पड
जाए। यह स्वालभमान क्स्त्रयों की खास अपनी चीज है ।
रुक्क्मणी अब इस सोच में पडी थी कक मैं इनकी क्या खानतर-तवाजो करू। उसने सेठ जी का नाम
सन
ु ा था, उसका पनत हमेशा उनकी बडाई ककया करता था। वह उनकी दया और उदारता की चचामए अनेकों
बार सन
ु चक
ु ी थी। वह उन्हें अपने मन का दे वता समझा कतरी थी, उसे क्या उमीद थी कक कभी उसका घर
भी उसके कदमों से रोशन होगा। िेककन आज जब वह शभ
ु ददन सींयोग से आया तो वह इस काबबि भी
नहीीं कक उन्हें बैठने के लिए एक मोढ़ा दे सके। घर में पान और इिायची भी नहीीं। वह अपने आसओ
ु ीं को
ककसी तरह न रोक सकी।
आखखर जब अींधरे ा हो गया और पास के ठाकुरद्वारे से घण्टों और नगाडों की आवाजें आने िगीीं तो
उन्होंने जरा ऊची आवाज में कहा—बाईजी, अब मैं जाता हू। मझ ु े अभी यह ॉँ बहुत काम करना है। मेरी
रोदहणी को कोई तकिीफ न हो। मझ
ु े जब मौका लमिेगा, उसे दे खने आऊगा। उसके पािने-पोसने का काम
मेरा है और मैं उसे बहुत खुशी से परू ा करूगा। उसके लिए अब तुम कोई कफक्र मत करो। मैंने उसका
वजीफा ब धॉँ ददया है और यह उसकी पहिी ककस्त है ।
यह कहकर उन्होंने अपना खूबसरू त बटुआ ननकािा और रुक्क्मणी के सामने रख ददया। गरीब औरत
की आखें में आसू जारी थे। उसका जी बरबस चाहता था कक उसके पैरों को पकडकर खूब रोये। आज बहुत
ददनों के बाद एक सच्चे हमददम की आवाज उसके मन में आयी थी।
जब सेठ जी चिे तो उसने दोनों हाथों से प्रणाम ककया। उसके हृदय की गहराइयों से प्राथमना ननकिी—
आपने एक बेबस पर दया की है, ईश्वर आपको इसका बदिा दे ।
दस ॉँ सज-धज आखों में खुबी जाती थी। उस्ताननयों ने उसे
ू रे ददन रोदहणी पाठशािा गई तो उसकी ब की
बारी-बारी प्यार ककया और उसकी सहे लिय ॉँ उसकी एक-एक चीज को आश्चयम से दे खती और ििचाती थी।
अच्छे कपडों से कुछ स्वालभमान का अनभ
ु व होता है । आज रोदहणी वह गरीब िडकी न रही जो दस
ू रों की
तरफ वववश नेत्रों से दे खा करती थी। आज उसकी एक-एक कक्रया से शैशवोधचत गवम और चींचिता टपकती
थी और उसकी जबान एक दम के लिए भी न रुकती थी। कभी मोटर की तेजी का क्जक्र था कभी बाजार
की ददिचक्स्पयों का बयान, कभी अपनी गडु डयों के कुशि-मींगि की चचाम थी और कभी अपने बाप की
मह
ु ब्बत की दास्तान। ददि था कक उमींगों से भरा हुआ था।
एक महीने बाद सेठ परुु षोत्तमदास ने रोदहणी के लिए कफर तोहफे और रुपये रवाना ककये। बेचारी
ववधवा को उनकी कृपा से जीववका की धचन्ता से छुट्टी लमिी। वह भी रोदहणी के साथ पाठशािा आती और
ॉँ दटय ॉँ एक ही दरजे के साथ-साथ पढ़तीीं, िेककन रोदहणी का नम्बर हमेशा म ॉँ से अव्वि रहा सेठ
दोनों म -बे
जी जब पन
ू ा की तरफ से ननकिते तो रोदहणी को दे खने जरूर आते और उनका आगमन उसकी प्रसन्नता
और मनोरीं जन के लिए महीनों का सामान इकट्ठा कर दे ता।
इसी तरह कई साि गुजर गये और रोदहणी ने जवानी के सह
ु ाने हरे -भरे मैदान में पैर रक्खा, जबकक
बचपन की भोिी-भािी अदाओीं में एक खास मतिब और इरादों का दखि हो जाता है ।
रोदहणी अब आन्तररक और बाह्य सौन्दयम में अपनी पाठशािा की नाक थी। हाव-भाव में आकषमक
गम्भीरता, बातों में गीत का-सा खखींचाव और गीत का-सा आक्त्मक रस था। कपडों में रीं गीन सादगी, आखों
में िाज-सींकोच, ववचारों में पववत्रता। जवानी थी मगर घमण्ड और बनावट और चींचिता से मक्
ु त। उसमें एक

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एकाग्रता थी ऊचे इरादों से पैदा होती है । क्स्त्रयोधचत उत्कषम की मींक्जिें वह धीरे -धीरे तय करती चिी जाती
थी।

से ठ जी के बडे बेटे नरोत्तमदास कई साि तक अमेररका और जममनी की यनु नवलसमदटयों की खाक छानने
के बाद इींजीननयररींग ववभाग में कमाि हालसि करके वापस आए थे। अमेररका के सबसे प्रनतक्ष्ठत
कािेज में उन्होंने सम्मान का पद प्राप्त ककया था। अमेररका के अखबार एक दहन्दोस्तानी नौजवान की इस
शानदार कामयाबी पर चककत थे। उन्हीीं का स्वागत करने के लिए बम्बई में एक बडा जिसा ककया गया था।
इस उत्सव में शरीक होने के लिए िोग दरू -दरू से आए थे। सरस्वती पाठशािा को भी ननमींत्रण लमिा और
रोदहणी को सेठानी जी ने ववशेष रूप से आमींबत्रत ककया। पाठशािा में हफ्तों तैयाररय ॉँ हुई। रोदहणी को एक
दम के लिए भी चैन न था। यह पहिा मौका था कक उसने अपने लिए बहुत अच्छे -अच्छे कपडे बनवाये।
ु ाव में वह लमठास थी, काट-छ टॉँ में वह फबन क्जससे उसकी सन्
रीं गों के चन ु दरता चमक उठी। सेठानी
कौशल्या दे वी उसे िेने के लिए रे िवे स्टे शन पर मौजूद थीीं। रोदहणी गाडी से उतरते ही उनके पैरों की तरफ
झक
ु ी िेककन उन्होंने उसे छाती से िगा लिया और इस तरह प्यार ककया कक जैसे वह उनकी बेटी है । वह
उसे बार-बार दे खती थीीं और आखों से गवम और प्रेम टपक पडता था।
इस जिसे के लिए ठीक समन्
ु दर के ककनारे एक हरे -भरे सह
ु ाने मैदान में एक िम्बा-चौडा शालमयाना
िगाया गया था। एक तरफ आदलमयों का समद्र
ु उमडा हुआ था दस
ू री तरफ समद्र
ु की िहरें उमड रही थीीं,
गोया वह भी इस खश
ु ी में शरीक थीीं।
जब उपक्स्थत िोगों ने रोदहणी बाई के आने की खबर सन
ु ी तो हजारों आदमी उसे दे खने के लिए खडे
हो गए। यही तो वह िडकी है। क्जसने अबकी शास्त्री की परीक्षा पास की है। जरा उसके दशमन करने चादहये।
अब भी इस दे श की क्स्त्रयों में ऐसे रतन मौजद
ू हैं। भोिे-भािे दे शप्रेलमयों में इस तरह की बातें होने िगीीं।
शहर की कई प्रनतक्ष्ठत मदहिाओीं ने आकर रोदहणी को गिे िगाया और आपस में उसके सौन्दयम और उसके
कपडों की चचाम होने िगी।
आखखर लमस्टर परु ॉँ वह बडा लशष्ट और गम्भीर उत्सव था िेककन उस
ु षोत्तमदास तशरीफ िाए। हाि कक
वक्त दशमन की उत्कींठा पागिपन की हद तक जा पहुची थी। एक भगदड-सी मच गई। कुलसमयों की कतारे
गडबड हो गईं। कोई कुसी पर खडा हुआ, कोई उसके हत्थों पर। कुछ मनचिे िोगों ने शालमयाने की रक्स्सय ॉँ
पकडीीं और उन पर जा िटके कई लमनट तक यही तफ ू ान मचा रहा। कहीीं कुलसमयाीं टूटीीं, कहीीं कुलसमय ॉँ उिटीीं,
कोई ककसी के ऊपर धगरा, कोई नीचे। जयादा तेज िोगों में धौि-धप्पा होने िगा।
तब बीन की सह ु ानी आवाजें आने िगीीं। रोदहणी ने अपनी मण्डिी के साथ दे शप्रेम में डूबा हुआ गीत
शरू
ु ककया। सारे उपक्स्थत िोग बबिकुि शान्त थे और उस समय वह सरु ीिा राग, उसकी कोमिता और
स्वच्छता, उसकी प्रभावशािी मधरु ता, उसकी उत्साह भरी वाणी ददिों पर वह नशा-सा पैदा कर रही थी
क्जससे प्रेम की िहरें उठती हैं, जो ददि से बरु ाइयों को लमटाता है और उससे क्जन्दगी की हमेशा याद रहने
वािी यादगारें पैदा हो जाती हैं। गीत बन्द होने पर तारीफ की एक आवाज न आई। वहीीं ताने कानों में अब
तक गज
ू रही थीीं।
गाने के बाद ववलभन्न सींस्थाओीं की तरफ से अलभनन्दन पेश हुए और तब नरोत्तमदास िोगों को
धन्यवाद दे ने के लिए खडे हुए। िेककन उनके भाषाण से िोगों को थोडी ननराशा हुई। यों दोस्तो की मण्डिी
में उनकी वक्तत ृ ा के आवेग और प्रवाह की कोई सीमा न थी िेककन सावमजननक सभा के सामने खडे होते ही
शब्द और ववचार दोनों ही उनसे बेवफाई कर जाते थे। उन्होंने बडी-बडी मक्ु श्कि से धन्यवाद के कुछ शब्द
कहे और तब अपनी योग्यता की िक्जजत स्वीकृनत के साथ अपनी जगह पर आ बैठे। ककतने ही िोग उनकी
योग्यता पर ज्ञाननयों की तरह लसर दहिाने िगे।
अब जिसा खत्म होने का वक्त आया। वह रे शमी हार जो सरस्वती पाठशािा की ओर से भेजा गया
था, मेज पर रखा हुआ था। उसे हीरो के गिे में कौन डािे? प्रेलसडेण्ट ने मदहिाओीं की पींक्क्त की ओर नजर
दौडाई। चन
ु ने वािी आख रोदहणी पर पडी और ठहर गई। उसकी छाती धडकने िगी। िेककन उत्सव के
सभापनत के आदे श का पािन आवश्यक था। वह सर झक ु ाये हुए मेज के पास आयी और क पते ॉँ हाथों से
हार को उठा लिया। एक क्षण के लिए दोनों की आखें लमिीीं और रोदहणी ने नरोत्तमदास के गिे में हार डाि
ददया।

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दस
ू रे ददन सरस्वती पाठशािा के मेहमान ववदा हुए िेककन कौशल्या दे वी ने रोदहणी को न जाने ददया।
बोिी—अभी तम् ु हें यह ॉँ एक हफ्ता रहना होगा। आखखर मैं भी तो तम्
ु हें दे खने से जी नहीीं भरा, तम् ु हारी म ॉँ हू।
एक म ॉँ से इतना प्यार और दस
ू री म ॉँ से इतना अिगाव!
रोदहणी कुछ जवाब न दे सकी।
यह सारा हफ्ता कौशल्या दे वी ने उसकी ववदाई की तैयाररयों में खचम ककया। सातवें ददन उसे ववदा
करने के लिए स्टे शन तक आयीीं। चिते वक्त उससे गिे लमिीीं और बहुत कोलशश करने पर भी आसओु ीं को
न रोक सकीीं। नरोत्तमदास भी आये थे। उनका चेहरा उदास था। कौशल्या ने उनकी तरफ सहानभ ु नू तपण
ू म
ु े यह तो ख्याि ही न रहा, रोदहणी क्या यह ॉँ से पन
आखों से दे खकर कहा—मझ ू ा तक अकेिी जायेगी? क्या
हजम है , तुम्हीीं चिे जाओ, शाम की गाडी से िौट आना।
नरोत्तमदास के चेहरे पर खश
ु ी की िहर दौड गयी, जो इन शब्दों में न नछप सकी—अच्छा, मैं ही चिा
जाऊगा। वह इस कफक्र में थे कक दे खें बबदाई की बातचीत का मौका भी लमिता है या नहीीं। अब वह खब
ू जी
भरकर अपना ददे ददि सन ु ायेंगे और मम
ु ककन हुआ तो उस िाज-सींकोच को, जो उदासीनता के परदे में
नछपी हुई है, लमटा दें गे।

रु क्क्मणी को अब रोदहणी की शादी की कफक्र पैदा हुई। पडोस की औरतों में इसकी चचाम होने िगी थी।
िडकी इतनी सयानी हो गयी है , अब क्या बढ़
ु ापे में ब्याह होगा? कई जगह से बात आयी, उनमें कुछ
बडे प्रनतक्ष्ठत घराने थे। िेककन जब रुक्क्मणी उन पैमानों को सेठजी के पास भेजती तो वे यही जवाब दे ते
कक मैं खदु कफक्र में हू। रुक्क्मणी को उनकी यह टाि-मटोि बरु ी मािम
ू होती थी।
रोदहणी को बम्बई से िौटे महीना भर हो चक ु ा था। एक ददन वह पाठशािा से िौटी तो उसे अम्मा
की चारपाई पर एक खत पडा हुआ लमिा। रोदहणी पढ़ने िगी, लिखा था—बहन, जब से मैंने तम् ु हारी िडकी
को बम्बई में दे खा है, मैं उस पर रीझ गई हू। अब उसके बगैर मझ
ु े चैन नहीीं है । क्या मेरा ऐसा भाग्य होगा
कक वह मेरी बहू बन सके? मैं गरीब हू िेककन मैंने सेठ जी को राजी कर लिया है । तुम भी मेरी यह ववनती
कबिू करो। मैं तुम्हारी िडकी को चाहे फूिों की सेज पर न सि
ु ा सकू, िेककन इस घर का एक-एक आदमी
उसे आखों की पत ु िी बनाकर रखेगा। अब रहा िडका। म ॉँ के मह ु से िडके का बखान कुछ अच्छा नहीीं
मािम ू होता। िेककन यह कह सकती हू कक परमात्मा ने यह जोडी अपनी हाथों बनायी है । सरू त में , स्वभाव
में , ववद्या में , हर दृक्ष्ट से वह रोदहणी के योग्य है । तम
ु जैसे चाहे अपना इत्मीनान कर सकती हो। जवाब
जल्द दे ना और जयादा क्या लिख।ू नीचे थोडे-से शब्दों में सेठजी ने उस पैगाम की लसफाररश की थी।
रोदहणी गािों पर हाथ रखकर सोचने िगी। नरोत्तमदास की तस्वीर उसकी आखों के सामने आ खडी
हुई। उनकी वह प्रेम की बातें , क्जनका लसिलसिा बम्बई से पन
ू ा तक नहीीं टूटा था, कानों में गींज
ू ने िगीीं।
उसने एक ठण्डी स स ॉँ िी और उदास होकर चारपाई पर िेट गई।

स रस्वती पाठशािा में एक बार कफर सजावट और सफाई के दृश्य ददखाई दे रहे हैं। आज रोदहणी की
शादी का शभ
ु ददन। शाम का वक्त, बसन्त का सह
ु ाना मौसम। पाठशािा के दारो-दीवार मस्
ु करा रहे हैं
और हरा-भरा बगीचा फूिा नहीीं समाता।
चन्द्रमा अपनी बारात िेकर परू ब की तरफ से ननकिा। उसी वक्त मींगिाचरण का सह
ु ाना राग उस
ॉँ
रूपहिी च दनी और हल्के-हल्के हवा के झोकों में िहरें मारने िगा। दल्
ू हा आया, उसे दे खते ही िोग है रत में
आ गए। यह नरोत्तमदास थे।
ू हा मण्डप के नीचे गया। रोदहणी की म ॉँ अपने को रोक न सकी, उसी वक्त जाकर सेठ जी के पैर
दल्
पर धगर पडी। रोदहणी की आखों से प्रेम और आन्दद के आसू बहने िगे।
मण्डप के नीचे हवन-कुण्ड बना था। हवन शरू ु हुआ, खुशबू की िपेटें हवा में उठीीं और सारा मैदान
महक गया। िोगों के ददिो-ददमाग में ताजगी की उमींग पैदा हुई।
कफर सींस्कार की बारी आई। दल् ू हा और दल्
ु हन ने आपस में हमददी; क्जम्मेदारी और वफादारी के
पववत्र शब्द अपनी जबानों से कहे । वववाह की वह मब
ु ारक जींजीर गिे में पडी क्जसमें वजन है , सख्ती है ,

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पाबक्न्दय ॉँ हैं िेककन वजन के साथ सख
ु और पाबक्न्दयों के साथ ववश्वास है। दोनों ददिों में उस वक्त एक
नयी, बिवान, आक्त्मक शक्क्त की अनभ
ु नू त हो रही थी।
जब शादी की रस्में खत्म हो गयीीं तो नाच-गाने की मजलिस का दौर आया। मोहक गीत गजने
ू िगे।
सेठ जी थककर चरू हो गए थे। जरा दम िेने के लिए बागीचे में जाकर एक बेंच पर बैठ गये। ठण्डी-ठण्डी
हवा आ रही आ रही थी। एक नशा-सा पैदा करने वािी शाक्न्त चारों तरफ छायी हुई थी। उसी वक्त रोदहणी
उनके पास आयी और उनके पैरों से लिपट गयी। सेठ जी ने उसे उठाकर गिे से िगा लिया और हसकर
बोिे—क्यों, अब तो तम
ु मेरी अपनी बेटी हो गयीीं?
--जमाना, जून १९१४

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कमों का र्ल

मझेअध्ययन
ु हमेशा आदलमयों के परखने की सनक रही है और अनभ ु व के आधार पर कह सकता हू कक यह
क्जतना मनोरीं जक, लशक्षाप्रद और उदधाटनों से भरा हुआ है, उतना शायद और कोई अध्ययन
न होगा। िेककन अपने दोस्त िािा साईंदयाि से बहुत असे तक दोस्ती और बेतकल्िफ ु ी के सम्बन्ध रहने
पर भी मझु े उनकी थाह न लमिी। मझ ु े ऐसे दब
ु ि
म शरीर में ज्ञाननयों की-सी शाक्न्त और सींतोष दे खकर
आश्चयम होता था जो एक़ नाजक
ु पौधे की तरह मस
ु ीबतों के झोंकों में भी अचि और अटि रहता था। जयों
वह बहुत ही मामि ू ी दरजे का आदमी था क्जसमें मानव कमजोररयों की कमी न थी। वह वादे बहुत करता
था िेककन उन्हें परू ा करने की जरूरत नहीीं समझता था। वह लमथ्याभाषी न हो िेककन सच्चा भी न था।
बेमरु ौवत न हो िेककन उसकी मरु ौवत नछपी रहती थी। उसे अपने कत्तमव्य पर पाबन्द रखने के लिए दबाव
ओर ननगरानी की जरुरत थी, ककफायतशारी के उसि
ू ों से बेखबर, मेहनत से जी चरु ाने वािा, उसि
ू ों का
कमजोर, एक ढीिा-ढािा मामि
ू ी आदमी था। िेककन जब कोई मस
ु ीबत लसर पर आ पडती तो उसके ददि में
साहस और दृढ़ता की वह जबदम स्त ताकत पैदा हो जाती थी क्जसे शहीदों का गुण कह सकते हैं। उसके पास
न दौित थी न धालममक ववश्वास, जो ईश्वर पर भरोसा करने और उसकी इच्छाओीं के आगे लसर झक
ु ा दे ने
का स्त्रोत है । एक छोटी-सी कपडे की दक
ु ान के लसवाय कोई जीववका न थी। ऐसी हाितों में उसकी दहम्मत
और दृढ़ता का सोता कह ॉँ नछपा हुआ है , वह ॉँ तक मेरी अन्वेषण-दृक्ष्ट नहीीं पहुचती थी।

बा प के मरते ही मस
ु ीबतों ने उस पर छापा मारा कुछ थोडा-सा कजम ववरासत में लमिा क्जसमें बराबर
बढ़ते रहने की आश्चयमजनक शक्क्त नछपी हुई थी। बेचारे ने अभी बरसी से छुटकारा नहीीं पाया था
कक महाजन ने नालिश की और अदाित के नतिस्मी अहाते में पहुचते ही यह छोटी-सी हस्ती इस तरह फूिी
क्जस तरह मशक फिती है। डडग्री हुई। जो कुछ जमा-जथा थी; बतमन-भ डेंॉँ , ह डी-तवा,
ॉँ उसके गहरे पेट में
समा गये। मकान भी न बचा। बेचारे मस
ु ीबतों के मारे साईंदयाि का अब कहीीं दठकाना न था। कौडी-कौडी
को मह
ु ताज, न कहीीं घर, न बार। कई-कई ददन फाके से गज
ु र जाते। अपनी तो खैर उन्हें जरा भी कफक्र न
थी िेककन बीवी थी, दो-तीन बच्चे थे, उनके लिए तो कोई-न-कोई कफक्र करनी पडती थी। कुनबे का साथ
और यह बेसरोसामानी, बडा ददम नाक दृश्य था। शहर से बाहर एक पेड की छ हॉँ में यह आदमी अपनी
मस
ु ीबत के ददन काट रहा था। सारे ददन बाजारों की खाक छानता। आह, मैंने एक बार उस रे िवे स्टे शन पर
दे खा। उसके लसर पर एक भारी बोझ था। उसका नाजग ु , सख
ु -सवु वधा में पिा हुआ शरीर, पसीना-पसीना हो
रहा था। पैर मक्ु श्कि से उठते थे। दम फूि रहा था िेककन चेहरे से मदामना दहम्मत और मजबत ू इरादे की
रोशनी टपकती थी। चेहरे से पण
ू म सींतोष झिक रहा था। उसके चेहरे पर ऐसा इत्मीनान था कक जैसे यही
उसका बाप-दादों का पेशा है। मैं हैरत से उसका मींह
ु ताकता रह गया। दख
ु में हमददी ददखिाने की दहम्मत
न हुई। कई महीने तक यही कैकफयत रही। आखखरकार उसकी दहम्मत और सहनशक्क्त उसे इस कदठन
दग
ु म
म घाटी से बाहर ननकि िायी।

थो
डे ही ददनों के बाद मस
ु ीबतों ने कफर उस पर हमिा ककया। ईश्वर ऐसा ददन दश्ु मन को भी न
ददखिाये। मैं एक महीने के लिए बम्बई चिा गया था, वह ॉँ से िौटकर उससे लमिने गया। आह,
वह दृश्य याद करके आज भी रोंगटे खडे हो जाते हैं। ओर ददि डर से क पॉँ उठता है । सब
ु ह का वक्त था।
ु अन्दर चिा गया, मगर वह ॉँ साईंदयाि का वह
मैंने दरवाजे पर आवाज दी और हमेशा की तरह बेतकल्िफ
हसमख
ु चेहरा, क्जस पर मदामना दहम्मत की ताजगी झिकती थी, नजर न आया। मैं एक महीने के बाद
उनके घर जाऊ और वह आखों से रोते िेककन होंठों से हसते दौडकर मेरे गिे लिपट न जाय! जरूर कोई
आफत है। उसकी बीवी लसर झक
ु ाये आयी और मझ
ु े उसके कमरे में िे गयी। मेरा ददि बैठ गया। साईंदयाि
एक चारपाई पर मैि-े कुचैिे कपडे िपेटे, आखें बन्द ककये, पडा ददम से कराह रहा था। क्जस्म और बबछौने पर
मक्क्खयों के गच्
ु छे बैठे हुए थे। आहट पाते ही उसने मेरी तरफ दे खा। मेरे क्जगर के टुकडे हो गये। हड्डडयों
ॉँ रह गया था। दब
का ढ चा ु ि
म ता की इससे जयादा सच्ची और करुणा तस्वीर नहीीं हो सकती। उसकी बीवी ने

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मेरी तरफ ननराशाभरी आखों से दे खा। मेरी आसू भर आये। उस लसमटे हुए ढ चे ॉँ में बीमारी को भी मक्ु श्कि
से जगह लमिती होगी, क्जन्दगी का क्या क्जक्र! आखखर मैंने धीरे पक
ु ारा। आवाज सन ु ते ही वह बडी-बडी
आखें खि
ु गयीीं िेककन उनमें पीडा और शोक के आसू न थे, सन्तोष और ईश्वर पर भरोसे की रोशनी थी
और वह पीिा चेहरा! आह, वह गम्भीर सींतोष का मौन धचत्र, वह सींतोषमय सींकल्प की सजीव स्मनृ त। उसके
पीिेपन में मदामना दहम्मत की िािी झिकती थी। मैं उसकी सरू त दे खकर घबरा गया। क्या यह बझ
ु ते हुए
धचराग की आखखरी झिक तो नहीीं है ?
मेरी सहमी हुई सरू त दे खकर वह मस्
ु कराया और बहुत धीमी आवाज में बोिा—तुम ऐसे उदास क्यों हो,
यह सब मेरे कमों का फि है ।

म गर कुछ अजब बदककस्मत आदमी था। मस


ु ीबतों को उससे कुछ खास मह
ु ब्बत थी। ककसे उम्मीद थी
कक वह उस प्राणघातक रोग से मक्ु क्त पायेगा। डाक्टरों ने भी जवाब दे ददया था। मौत के मींह
ननकि आया। अगर भववष्य का जरा भी ज्ञान होता तो सबसे पहिे मैं उसे जहर दे दे ता। आह, उस शोकपण
ू म
ु से

घटना को याद करके किेजा मींह


ु को आता है । धधककार है इस क्जन्दगी पर कक बाप अपनी आखों से अपनी
इकिौते बेटे का शोक दे खे।
कैसा हसमख
ु , कैसा खूबसरू त, होनहार िडका था, कैसा सश
ु ीि, कैसा मधरु भाषी, जालिम मौत ने उसे
छ टॉँ लिया। प्िेग की दहु ाई मची हुई थी। शाम को धगल्टी ननकिी और सब
ु ह को—कैसी मनहूस, अशभु सब
ु ह
थी—वह क्जन्दगी सबेरे के धचराग की तरह बझ ु गयी। मैं उस वक्त उस बच्चे के पास बैठा हुआ था और
साईंदयाि दीवार का सहारा लिए हुए खामोशा आसमान की तरफ दे खता था। मेरी और उसकी आखों के
सामने जालिम और बेरहम मौत ने उस बचे को हमारी गोद से छीन लिया। मैं रोते हुए साईंदयाि के गिे से
लिपट गया। सारे घर में कुहराम मचा हुआ था। बेचारी म ॉँ पछाडें खा रही थी, बहनें दौड-दौडकर भाई की
िाश से लिपटती थीीं। और जरा दे र के लिए ईष्याम ने भी समवेदना के आगे लसर झकु ा ददया था—महु ल्िे की
औरतों को आस बहाने के लिए ददि पर जोर डािने की जरूरत न थी।
जब मेरे आसू थमे तो मैंने साईंदयाि की तरफ दे खा। आखों में तो आसू भरे हुए थे—आह, सींतोष का
आखों पर कोई बस नहीीं, िेककन चेहरे पर मदामना दृढ़ता और समपमण का रीं ग स्पष्ट था। इस दख
ु की बाढ़
और तफ
ू ानों मे भी शाक्न्त की नैया उसके ददि को डूबने से बचाये हुए थी।
इस दृश्य ने मझ ु े चककत नहीीं स्तक्म्भत कर ददया। सम्भावनाओीं की सीमाए ककतनी ही व्यापक हों
ऐसी हृदय-द्रावक क्स्थनत में होश-हवास और इत्मीनान को कायम रखना उन सीमाओीं से परे है । िेककन इस
दृक्ष्ट से साईंदयाि मानव नहीीं, अनत-मानव था। मैंने रोते हुए कहा—भाईसाहब, अब सींतोष की परीक्षा का
अवसर है । उसने दृढ़ता से उत्तर ददया—ह ,ॉँ यह कमों का फि है।
मैं एक बार कफर भौंचक होकर उसका मींह
ु ताकने िगा।

िे
ककन साईंदयाि का यह तपक्स्वयों जैसा धैयम और ईश्वरे च्छा पर भरोसा अपनी आखों से दे खने पर भी
मेरे ददि में सींदेह बाकी थे। मम
ु ककन है , जब तक चोट ताजी है सि का बाध कायम रहे । िेककन
उसकी बनु नयादें दहि गयी हैं, उसमें दरारें पड गई हैं। वह अब जयादा दे र तक दख
ु और शोक की जहरों का
मक
ु ाबिा नहीीं कर सकता।
क्या सींसार की कोई दघ
ु ट
म ना इतनी हृदयद्रावक, इतनी ननममम, इतनी कठोर हो सकता है! सींतोष और
दृढ़ता और धैयम और ईश्वर पर भरोसा यह सब उस आधी के समान घास-फूस से जयादा नहीीं। धालममक
ववश्वास तो क्या, अध्यात्म तक उसके सामने लसर झक
ु ा दे ता है । उसके झोंके आस्था और ननष्ठा की जडें
दहिा दे ते हैं।
िेककन मेरा अनम
ु ान गित ननकिा। साईंदयाि ने धीरज को हाथ से न जाने ददया। वह बदस्तूर
क्जन्दगी के कामों में िग गया। दोस्तों की मि
ु ाकातें और नदी के ककनारे की सैर और तफरीह और मेिों की
चहि-पहि, इन ददिचक्स्पयों में उसके ददि को खीींचने की ताकत अब भी बाकी थी। मैं उसकी एक-एक
कक्रया को, एक-एक बात को गौर से दे खता और पढ़ता। मैंने दोस्ती के ननयम-कायदों को भि
ु ाकर उसे उस

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हाित में दे खा जह ॉँ उसके ववचारों के लसवा और कोई न था। िेककन उस हाित में भी उसके चेहरे पर वही
परू
ु षोधचत धैयम था और लशकवे-लशकायत का एक शब्द भी उसकी जबान पर नहीीं आया।

इ सी बीच मेरी छोटी िडकी चन्द्रमख


ु ी ननमोननया की भें ट चढ़ गयी। ददन के धींधे से फुरसत पाकर जब मैं
घर पर आता और उसे प्यार से गोद में उठा िेता तो मेरे हृदय को जो आनन्द और आक्त्मक शक्क्त
लमिती थी, उसे शब्दों में नहीीं व्यक्त कर सकता। उसकी अदाए लसफम ददि को िभ
ु ानेवािी नहीीं गम को
भि
ु ानेवािी हैं। क्जस वक्त वह हुमककर मेरी गोद में आती तो मझु े तीनों िोक की सींपवत्त लमि जाती थी।
उसकी शरारतें ककतनी मनमोहक थीीं। अब हुक्के में मजा नहीीं रहा, कोई धचिम को धगरानेवािा नहीीं! खाने
में मजा नहीीं आता, कोई थािी के पास बैठा हुआ उस पर हमिा करनेवािा नहीीं! मैं उसकी िाश को गोद में
लिये बबिख-बबिखकर रो रहा था। यही जी चाहता था कक अपनी क्जन्दगी का खात्मा कर द।ू यकायक मैंने
साईंदयाि को आते दे खा। मैंने फौरन आसू पोंछ डािे और उस नन्हीीं-सी जान को जमीन पर लिटाकर बाहर
ननकि आया। उस धैयम और सींतोष के दे वता ने मेरी तरफ सींवद
े नशीि की आखों से दे खा और मेरे गिे से
लिपटकर रोने िगा। मैंने कभी उसे इस तरह चीखें मारकर रोते नहीीं दे खा। रोते-रोते उसी दहचककय ॉँ बींध
गयीीं, बेचन
ै ी से बेसध
ु और बेहार हो गया। यह वही आदमी है क्जसका इकिौता बेटा मरा और माथे पर बि
नहीीं आया। यह कायापिट क्यों?

इ स शोक पण
ू म घटना के कई ददन बाद जबकक दख
को गये। शाम का वक्त था। नदी कहीीं सन
ु ी ददि सम्हिने िगा, एक रोज हम दोनों नदी की सैर
ु हरी, कहीीं नीिी, कहीीं कािी, ककसी थके हुए मस
ु ाकफर की
तरह धीरे -धीरे बह रही थी। हम दरू जाकर एक टीिे पर बैठ गये िेककन बातचीत करने को जी न चाहता
था। नदी के मौन प्रवाह ने हमको भी अपने ववचारों में डुबो ददया। नदी की िहरें ववचारों की िहरों को पैदा
कर दे ती हैं। मझ
ु े ऐसा मािमू हुआ कक प्यारी चन्द्रमख
ु ी िहरों की गोद में बैठी मस्
ु करा रही है। मैं चौंक पडा
ओर अपने आसओ ु ीं को नछपाने के लिए नदी में मींहु धोने िगा। साईंदयाि ने कहा—भाईसाहब, ददि को
मजबत
ू करो। इस तरह कुढ़ोगे तो जरूर बीमार हो जाओगे।
मैंने जवाब ददया—ईश्वर ने क्जतना सींयम तम्
ु हें ददया है, उसमें से थोडा-सा मझ
ु े भी दे दो, मेरे ददि में
इतनी ताकत कह ।ॉँ
साईंदयाि मस्
ु कराकर मेरी तरफ ताकने िगे।
मैंने उसी लसिलसिे में कहा—ककताबों में तो दृढ़ता और सींतोष की बहुत-सी कहाननय ॉँ पढ़ी हैं मगर सच
मानों कक तम ु जैसा दृढ़, कदठनाइयों में सीधा खडा रहने वािा आदमी आज तक मेरी नजर से नहीीं गज ु रा।
तुम जानते हो कक मझ
ु े मानव स्वभाव के अध्ययन का हमेशा से शौक है िेककन मेरे अनभ
ु व में तुम अपनी
तरह के अकेिे आदमी हो। मैं यह न मानगा
ू कक तुम्हारे ददि में ददम और घि
ु ावट नहीीं है । उसे मैं अपनी
आखों से दे ख चकु ा हू। कफर इस ज्ञाननयों जैसे सींतोष और शाक्न्त का रहस्य तुमने कह ॉँ नछपा रक्खा है?
तुम्हें इस समय यह रहस्य मझ ु से कहना पडेगा।
साईंदयाि कुछ सोच-ववचार में पड गया और जमीन की तरफ ताकते हुए बोिा—यह कोई रहस्य नहीीं,
मेरे कमों का फि है ।
यह वाक्य मैंने चौथी बार उसकी जबान से सन
ु ा और बोिा—क्जन, कमों का फि ऐसा शक्क्तदायक है,
उन कमों की मझ
ु े भी कुछ दीक्षा दो। मैं ऐसे फिों से क्यों वींधचत रहू।
साईंदयाि ने व्याथापण
ू म स्वर में कहा—ईश्वर न करे कक तुम ऐसा कमम करो और तम्
ु हारी क्जन्दगी पर
उसका कािा दाग िगे। मैंने जो कुछ ककया है, व मझ
ु े ऐसा िजजाजनक और ऐसा घखृ णत मािम
ू होता है
कक उसकी मझु े जो कुछ सजा लमिे, मैं उसे खुशी के साथ झेिने को तैयार हू। आह! मैंने एक ऐसे पववत्र
खानदान को, जह ॉँ मेरा ववश्वास और मेरी प्रनतष्ठा थी, अपनी वासनाओीं की गन्दगी में लिथेडा और एक ऐसे
पववत्र हृदय को क्जसमें मह
ु ब्बत का ददम था, जो सौन्दयम-वादटका की एक अनोखी-नयी खखिी हुई किी थी,
और सच्चाई थी, उस पववत्र हृदय में मैंने पाप और ववश्वासघात का बीज हमेशा के लिएबो ददया। यह पाप है
जो मझ
ु से हुआ है और उसका पल्िा उन मस ु ीबतों से बहुत भारी है जो मेरे ऊपर अब तक पडी हैं या आगे
चिकर पडेंगी। कोई सजा, कोई दख
ु , कोई क्षनत उसका प्रायक्श्चत नहीीं कर सकती।

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मैंने सपने में भी न सोचा था कक साईंदयाि अपने ववश्वासों में इतना दृढ़ है । पाप हर आदमी से होते
हैं, हमारा मानव जीवन पापों की एक िम्बी सच
ू ी है, वह कौन-सा दामन है क्जस पर यह कािे दाग न हों।
िेककन ककतने ऐसे आदमी हैं जो अपने कमों की सजाओीं को इस तरह उदारतापव ू क
म मस्
ु कराते हुए झेिने के
लिए तैयार हों। हम आग में कूदते हैं िेककन जिने के लिए तैयार नहीीं होते।
मैं साईंदयाि को हमेशा इजजत की ननगाह से दे खता हू, इन बातों को सन
ु कर मेरी नजरों में उसकी
इजजत नतगुनी हो गयी। एक मामि ू ी दनु नयादार आदमी के सीने में एक फकीर का ददि नछपा हुआ था
क्जसमें ज्ञान की जयोनत चमकती थी। मैंने उसकी तरफ श्रद्धापण
ू म आखों से दे खा और उसके गिे से
लिपटकर बोिा—साईंदयाि, अब तक मैं तम्
ु हें एक दृढ़ स्वभाव का आदमी समझता था, िेककन आज मािम

हुआ कक तुम उन पववत्र आत्माओीं में हो, क्जनका अक्स्तत्व सींसार के लिए वरदान है । तुम ईश्वर के सच्चे
भक्त हो और मैं तम्
ु हारे पैरों पर लसर झक
ु ाता हू।
—उदम ू ‘प्रेम पचीसी’ से

िभ्यता का रहस्य

यों
तो मेरी समझ में दनु नया की एक हजार एक बातें नहीीं आती—जैसे िोग प्रात:काि उठते ही बािों
पर छुरा क्यों चिाते हैं ? क्या अब परु
ु षों में भी इतनी नजाकत आ गयी है कक बािों का बोझ उनसे
नहीीं सभिता ? एक साथ ही सभी पढ़े -लिखे आदलमयों की आखें क्यों इतनी कमजोर हो गयी है ? ददमाग की
कमजोरी ही इसका कारण है या और कुछ? िोग खखताबों के पीछे क्यों इतने है रान होते हैं ? इत्यादद—िेककन
इस समय मझ
ु े इन बातों से मतिब नहीीं। मेरे मन में एक नया प्रश्न उठ रहा है और उसका जवाब मझ
ु े
कोई नहीीं दे ता। प्रश्न यह है कक सभ्य कौन है और असभ्य कौन ? सभ्यता के िक्षण क्या हैं ? सरसरी नजर
से दे खखए, तो इससे जयादा आसान और कोई सवाि ही न होगा। बच्चा-बच्चा इसका समाधान कर सकता है ।
िेककन जरा गौर से दे खखए, तो प्रश्न इतना आसान नहीीं जान पडता। अगर कोट-पतिन
ू पहनना, टाई-है ट
कािर िगाना, मेज पर बैठकर खाना खाना, ददन में तेरह बार कोको या चाय पीना और लसगार पीते हुए
चिना सभ्यता है, तो उन गोरों को भी सभ्य कहना पडेगा, जो सडक पर बैठकर शाम को कभी-कभी टहिते
नजर आते हैं; शराब के नशे से आखें सख
ु ,म पैर िडखडाते हुए, रास्ता चिनेवािों को अनायास छे डने की धन
ु !
क्या उन गोरों को सभ्य कहा जा सकता है ? कभी नहीीं। तो यह लसद्ध हुआ कक सभ्यता कोई और ही चीज
है , उसका दे ह से इतना सम्बन्ध नहीीं है क्जतना मन से।
2

मे
रे इने-धगने लमत्रों में एक राय रतनककशोर भी हैं। आप बहुत ही सहृदय, बहुत ही उदार, बहुत लशक्षक्षत
और एक बडे ओहदे दार हैं। बहुत अच्छा वेतन पाने पर भी उनकी आमदनी खचम के लिए काफी नहीीं
होती। एक चौथाई वेतन तो बगिे ही की भें ट हो जाती है। इसलिए आप बहुधा धचींनतत रहते हैं। ररश्वत तो
नहीीं िेत—
े कम-से-कम मैं नहीीं जानता, हािाकक कहने वािे कहते हैं—िेककन इतना जानता हू कक वह भत्ता
बढ़ाने के लिए दौरे पर बहुत रहते हैं, यहा तक कक इसके लिए हर साि बजट की ककसी दस ू रे मद से रुपये
ननकािने पडते हैं। उनके अफसर कहते हैं, इतने दौरे क्यों करते हो, तो जवाब दे ते हैं, इस क्जिे का काम ही

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ऐसा है कक जब तक खब
ू दौरे न ककए जाए ररआया शाींत नहीीं रह सकती। िेककन मजा तो यह है कक राय
साहब उतने दौरे वास्तव में नहीीं करते, क्जतने कक अपने रोजनामचे में लिखते हैं। उनके पडाव शहर से
पचास मीि पर होते हैं। खेमे वह ॉँ गडे रहते हैं, कैंप के अमिे वहा पडे रहते हैं और राय साहब घर पर लमत्रों
के साथ गप-शप करते रहते हैं, पर ककसी की मजाि है कक राय साहब की नेकनीयती पर सन्दे ह कर सके।
उनके सभ्य परु
ु ष होने में ककसी को शींका नहीीं हो सकती।
एक ददन मैं उनसे लमिने गया। उस समय वह अपने घलसयारे दमडी को डाट रहे थे। दमडी रात-ददन
का नौकर था, िेककन घर रोटी खाने जाया करता था। उसका घर थोडी ही दरू पर एक गाव में था। कि रात
को ककसी कारण से यहा न आ सका। इसलिए डाट पड रही थी।
राय साहब—जब हम तुम्हें रात-ददन के लिए रखे हुए हैं, तो तम
ु घर पर क्यों रहे ? कि के पैसे कट
जायेंगे।
दमडी—हजरू , एक मेहमान आ गये थे, इसी से न आ सका।
राय साहब—तो कि के पैसे उसी मेहमान से िो।
दमडी—सरकार, अब कभी ऐसी खता न होगी।
राय साहब—बक-बक मत करो।
दमडी—हजूर......
राय साहब—दो रुपये जुरमाना।
दमडी रोता चिा गया। रोजा बख्शाने आया था, नमा़ि गिे पड गयी। दो रुपये जुरमाना ठुक गया।
खता यही थी कक बेचारा कसरू माफ कराना चाहता था।
यह एक रात को गैरहाक़्िर होने की सजा थी ! बेचारा ददन-भर का काम कर चक
ु ा था, रात को यहा
सोया न था, उसका दण्ड ! और घर बैठे भत्ते उडानेवािे को कोई नहीीं पछ
ू ता ! कोई दीं ड नहीीं दे ता। दीं ड तो
लमिे और ऐसा लमिे कक क्जींदगी-भर याद रहे ; पर पकडना तो मक्ु श्कि है। दमडी भी अगर होलशयार होता, तो
जरा रात रहे आकर कोठरी में सो जाता। कफर ककसे खबर होती कक वह रात को कहा रहा। पर गरीब इतना
चींट न था।

द मडी के पास कुि छ: बबस्वे जमीन थी। पर इतने ही प्राखणयों का खचम भी था। उसके दो िडके, दो
िडककया और स्त्री, सब खेती में िगे रहते थे, कफर भी पेट की रोदटया नहीीं मयस्सर होती थीीं। इतनी
जमीन क्या सोना उगि दे ती ! अगर सब-के-सब घर से ननकि मजदरू ी करने िगते, तो आराम से रह सकते
थे; िेककन मौरूसी ककसान मजदरू कहिाने का अपमान न सह सकता था। इस बदनामी से बचने के लिए दो
बैि बाध रखे थे ! उसके वेतन का बडा भाग बैिों के दाने-चारे ही में उड जाता था। ये सारी तकिीफें मींजरू
थीीं, पर खेती छोडकर मजदरू बन जाना मींजूर न था। ककसान की जो प्रनतष्ठा है, वह कहीीं मजदरू की हो
सकती है, चाहे वह रुपया रोज ही क्यों न कमाये ? ककसानी के साथ मजदरू ी करना इतने अपमान की बात
नहीीं, द्वार पर बधे हुए बैि हुए बैि उसकी मान-रक्षा ककया करते हैं, पर बैिों को बेचकर कफर कहा मह

ददखिाने की जगह रह सकती है !
एक ददन राय साहब उसे सरदी से कापते दे खकर बोिे—कपडे क्यों नहीीं बनवाता ? काप क्यों रहा है ?
दमडी—सरकार, पेट की रोटी तो परू ा ही नहीीं पडती, कपडे कहा से बनवाऊ ?
राय साहब—बैिों को बेच क्यों नहीीं डािता ? सैकडों बार समझा चक
ु ा, िेककन न-जाने क्यों इतनी
मोटी-सी बात तेरी समझ में नहीीं आती।
दमडी—सरकार, बबरादरी में कहीीं मह
ु ददखाने िायक न रहूगा। िडकी की सगाई न हो पायेगी, टाट
बाहर कर ददया जाऊगा।
राय साहब—इन्हीीं दहमाकतों से तुम िोगों की यह दग
ु नम त हो रही है। ऐसे आदलमयों पर दया करना भी
पाप है । (मेरी तरफ कफर कर) क्यों मींश
ु ीजी, इस पागिपन का भी कोई इिाज है ? जाडों मर रहे हैं, पर
दरवाजे पर बैि जरूर बाधेंगे।
मैंने कहा—जनाब, यह तो अपनी-अपनी समझ है ।
राय साहब—ऐसी समझ को दरू से सिाम कीक्जए। मेरे यह ीं कई पश्ु तों से जन्माष्टमी का उत्सव
मनाया जाता था। कई हजार रुपयों पर पानी कफर जाता था। गाना होता था; दावतें होती थीीं, ररश्तेदारों को

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न्योते ददये जाते थे, गरीबों को कपडे बाटे जाते थे। वालिद साहब के बाद पहिे ही साि मैंने उत्सव बन्द कर
ददया। फायदा क्या ? मफ्
ु त में चार-पाच हजार की चपत खानी पडती थी। सारे कसबे में वावेिा मचा, आवाजें
कसी गयीीं, ककसी ने नाक्स्तक कहा, ककसी ने ईसाई बनाया िेककन यहा इन बातों की क्या परवा ! आखखर
थोडे ही ददनों में सारा कोिाहि शान्त हो गया। अजी, बडी ददल्िगी थी। कसबे में ककसी के यहा शादी हो,
िकडी मझ
ु से िे ! पश्ु तों से यह रस्म चिी आती थी। वालिद तो दस
ू रों से दरख्त मोि िेकर इस रस्म को
ननभाते थे। थी दहमाकत या नहीीं ? मैंने फौरन िकडी दे ना बन्द कर ददया। इस पर भी िोग बहुत रोये-धोये,
िेककन दसू रों का रोना-धोना सन
ु ,ू या अपना फायदा दे ख।ू िकडी से कम-से-कम 500)रुपये सिाना की बचत
हो गयी। अब कोई भि
ू कर भी इन चीजों के लिए ददक करने नहीीं आता।
मेरे ददि में कफर सवाि पैदा हुआ, दोनों में कौन सभ्य है, कुि-प्रनतष्ठा पर प्राण दे नेवािे मख
ू म दमडी;
या धन पर कुि-मयामदा को बलि दे नेवािे राय रतन ककशोर !
4

रा य साहब के इजिास में एक बडे माके का मक


ु दमा पेश था। शहर का एक रईस खून के मामिे में
फस गया था। उसकी जमानत के लिए राय साहब की खुशामदें होने िगीीं। इजजत की बात थी। रईस
साहब का हुक्म था कक चाहे ररयासत बबक जाय, पर इस मक ु दमे से बेदाग ननकि जाऊ। डालिय ॉँ िगाई
गयीीं, लसफाररशें पहुचाई गयीीं, पर राय साहब पर कोई असर न हुआ। रईस के आदलमयों को प्रत्यक्ष रूप से
ररश्वत की चचाम करने की दहम्मत न पडती थी। आखखर जब कोई बस न चिा, तो रईस की स्त्री से लमिकर
सौदा पटाने की ठानी।
रात के दस बजे थे। दोनों मदहिाओीं में बातें होने िगीीं। 20 हजार की बातचीत थी ! राय साहब की
पत्नी तो इतनी खश
ु हुईं कक उसी वक्त राय साहब के पास दौडी हुई आयी और कहनें िगी—िे िो, िे िो
राय साहब ने कहा—इतनी बेसि न हो। वह तम्ु हें अपने ददि में क्या समझेंगी ? कुछ अपनी इजजत
का भी खयाि है या नहीीं ? माना कक रकम बडी है और इससे मैं एकबारगी तुम्हारी आये ददन की फरमायशों
से मक्
ु त हो जाऊगा, िेककन एक लसववलियन की इजजत भी तो कोई मामि
ू ी चीज नहीीं है। तुम्हें पहिे
बबगडकर कहना चादहए था कक मझ
ु से ऐसी बेदद
ू ी बातचीत करनी हो, तो यहा से चिी जाओ। मैं अपने कानों
से नहीीं सन
ु ना चाहती।
स्त्री—यह तो मैंने पहिे ही ककया, बबगडकर खूब खरी-खोटी सन
ु ायीीं। क्या इतना भी नहीीं जानती ?
बेचारी मेरे पैरों पर सर रखकर रोने िगी।
राय साहब—यह कहा था कक राय साहब से कहूगी, तो मझु े कच्चा ही चबा जायेंगे ?
यह कहते हुए राय साहब ने गदगद होकर पत्नी को गिे िगा लिया।
स्त्री—अजी, मैं न-जाने ऐसी ककतनी ही बातें कह चक
ु ी, िेककन ककसी तरह टािे नहीीं टिती। रो-रोकर
जान दे रही है।
राय साहब—उससे वादा तो नहीीं कर लिया ?
स्त्री—वादा ? मैं रुपये िेकर सन्दक
ू में रख आयी। नोट थे।
राय साहब—ककतनी जबरदस्त अहमक हो, न मािम
ू ईश्वर तुम्हें कभी समझ भी दे गा या नहीीं।
स्त्री—अब क्या दे गा ? दे ना होता, तो दे न दी होती।
राय साहब—हा मािम
ू तो ऐसा ही होता है । मझ
ु से कहा तक नहीीं और रुपये िेकर सन्दक
ू में दाखखि
कर लिए ! अगर ककसी तरह बात खि ु जाय, तो कहीीं का न रहू।
स्त्री—तो भाई, सोच िो। अगर कुछ गडबड हो, तो मैं जाकर रुपये िौटा द।ू
राय साहब—कफर वही दहमाकत ! अरे , अब तो जो कुछ होना था, हो चक
ु ा। ईश्वर पर भरोसा करके
जमानत िेनी पडेगी। िेककन तुम्हारी दहमाकत में शक नहीीं। जानती हो, यह साप के मह
ु में उगिी डािना
है । यह भी जानती हो कक मझ
ु े ऐसी बातों से ककतनी नफरत है, कफर भी बेसि हो जाती हो। अबकी बार
तुम्हारी दहमाकत से मेरा व्रत टूट रहा है। मैंने ददि में ठान लिया था कक अब इस मामिे में हाथ न डािगा,

िेककन तुम्हारी दहमाकत के मारे जब मेरी कुछ चिने भी पाये ?
स्त्री—मैं जाकर िौटाये दे ती हू।
राय साहब—और मैं जाकर जहर खाये िेता हू।
इधर तो स्त्री-परु
ु ष में यह अलभनय हो रहा था, उधर दमडी उसी वक्त अपने गाव के मखु खया के खेत
से जआ
ु र काट रहा था। आज वह रात-भर की छुट्टी िेकर घर गया था। बैिों के लिए चारे का एक नतनका
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भी नहीीं है । अभी वेतन लमिने में कई ददन की दे र थी, मोि िे न सकता था। घर वािों ने ददन को कुछ
घास छीिकर खखिायी तो थी, िेककन ऊट के मह
ु में जीरा। उतनी घास से क्या हो सकता था। दोनों बैि
भख
ू े खडे थे। दमडी को दे खते ही दोनों पछें
ू खडी करके हुकारने िगे। जब वह पास गया तो दोनों उसकी
हथेलिया चाटने िगे। बेचारा दमडी मन मसोसकर रह गया। सोचा, इस वक्त तो कुछ हो नहीीं सकता, सबेरे
ककसी से कुछ उधार िेकर चारा िाऊगा।
िेककन जब ग्यारह बजे रात उसकी आखें खुिीीं, तो दे खा कक दोनों बैि अभी तक नाद पर खडे हैं।
चादनी रात थी, दमडी को जान पडा कक दोनों उसकी ओर उपेक्षा और याचना की दृक्ष्ट से दे ख रहे हैं। उनकी
क्षुधा-वेदना दे खकर उसकी आखें सजि हो आयीीं। ककसान को अपने बैि अपने िडकों की तरह प्यारे होते हैं।
वह उन्हें पशु नहीीं, अपना लमत्र और सहायक समझता। बैिों को भख
ू े खडे दे खकर नीींद आखों से भाग गयी।
कुछ सोचता हुआ उठा। हलसया ननकािी और चारे की कफक्र में चिा। गाव के बाहर बाजरे और जआ ु र के
खेत खडे थे। दमडी के हाथ कापने िगे। िेककन बैिों की याद ने उसे उत्तेक्जत कर ददया। चाहता, तो कई
बोझ काट सकता था; िेककन वह चोरी करते हुए भी चोर न था। उसने केवि उतना ही चारा काटा, क्जतना
बैिों को रात-भर के लिए काफी हो। सोचा, अगर ककसी ने दे ख भी लिया, तो उससे कह दगा,
ू बैि भखू े थे,
इसलिए काट लिया। उसे ववश्वास था कक थोडे-से चारे के लिए कोई मझ
ु े पकड नहीीं सकता। मैं कुछ बेचने के
लिए तो काट नहीीं रहा हू; कफर ऐसा ननदमयी कौन है , जो मझ
ु े पकड िे। बहुत करे गा, अपने दाम िे िेगा।
उसने बहुत सोचा। चारे का थोडा होना ही उसे चोरी के अपराध से बचाने को काफी था। चोर उतना काटता,
क्जतना उससे उठ सकता। उसे ककसी के फायदे और नक
ु सान से क्या मतिब ? गाव के िोग दमडी को
चारा लिये जाते दे खकर बबगडते जरूर, पर कोई चोरी के इिजाम में न फसाता, िेककन सींयोग से हल्के के
थाने का लसपाही उधर जा ननकिा। वह पडोस के एक बननये के यहा जआ
ु होने की खबर पाकर कुछ ऐींठने
की टोह में आया था। दमडी को चारा लसर पर उठाते दे खा, तो सन्दे ह हुआ। इतनी रात गये कौन चारा
काटता है ? हो न हो, कोई चोरी से काट रहा है , डाटकर बोिा—कौन चारा लिए जाता है ? खडा रह!
दमडी ने चौककर पीछे दे खा, तो पलु िस का लसपाही ! हाथ-पाव फूि गये, कापते हुए बोिा—हुजूर, थोडा
ही-सा काटा है, दे ख िीक्जए।
लसपाही—थोडा काटा हो या बहुत, है तो चोरी। खेत ककसका है ?
दमडी—बिदे व महतो का।
लसपाही ने समझा था, लशकार फसा, इससे कुछ ऐींठगा; िेककन वहा क्या रखा था। पकडकर गाव में
िाया और जब वहा भी कुछ हत्थे चढ़ता न ददखाई ददया तो थाने िे गया। थानेदार ने चािान कर ददया।
मक
ु दमा राय साहब ही के इजिास में पेश ककया।
राय साहब ने दमडी को फसे हुए दे खा, तो हमददी के बदिे कठोरता से काम लिया। बोिे—यह मेरी
बदनामी की बात है। तेरा क्या बबगडा, साि-छ: महीने की सजा हो जायेगी, शलममन्दा तो मझ
ु े होना पड रहा है
! िोग यही तो कहते होंगे कक राय साहब के आदमी ऐसे बदमाश और चोर हैं। तू मेरा नौकर न होता, तो मैं
हिकी सजा दे ता; िेककन तू मेरा नौकर है, इसलिए कडी-से-कडी सजा दगा।
ू मैं यह नहीीं सन
ु सकता कक राय
साहब ने अपने नौकर के साथ ररआयत की।
यह कहकर राय साहब ने दमडी को छ: महीने की सख्त कैद का हुक्म सन ु ा ददया।
उसी ददन उन्होंने खन
ू के मक
ु दमे में जमानत िे िी। मैंने दोनों वत्त
ृ ान्त सन ु े और मेरे ददि में यह
ख्याि और भी पक्का हो गया कक सभ्यता केवि हुनर के साथ ऐब करने का नाम है । आप बरु े -से-बरु ा काम
करें , िेककन अगर आप उस पर परदा डाि सकते हैं, तो आप सभ्य हैं, सजजन हैं, जेक्न्टिमैन हैं। अगर आप
में यह लसफत नहीीं तो आप असभ्य हैं, गवार हैं, बदमाश हैं। यह सभ्यता का रहस्य है !

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िमस्या

मे
रे दफ्तर में चार चपरासी हैं। उनमें एक का नाम गरीब है । वह बहुत ही सीधा, बडा आज्ञाकारी, अपने
काम में चौकस रहने वािा, घड ु ककया खाकर चप
ु रह जानेवािा यथा नाम तथा गुण वािा मनष्ु य
है ।मझ
ु े इस दफ्तर में साि-भर होते हैं, मगर मैंने उसे एक ददन के लिए भी गैरहाक्जर नहीीं पाया। मैं उसे 9
बजे दफ्तर में अपनी फटी दरी पर बैठे हुए दे खने का ऐसा आदी हो गया हू कक मानो वह भी उसी इमारत
का कोई अींग है । इतना सरि है कक ककसी की बात टािना नहीीं जाना। एक मसु िमान है । उससे सारा दफ्तर
डरता है, मािम
ू नहीीं क्यों ? मझ
ु े तो इसका कारण लसवाय उसकी बडी-बडी बातों के और कुछ नहीीं मािम

होता। उसके कथनानस
ु ार उसके चचेरे भाई रामपरु ररयासत में काजी हैं, फूफा टोंक की ररयासत में कोतवाि
हैं। उसे सवमसम्मनत ने ‘काजी-साहे ब’ की उपाधध दे रखी है । शेष दो महाशय जानत के िाह्मण हैं। उनके
आशीवामदों का मल्
ू य उनके काम से कहीीं अधधक है। ये तीनों कामचोर, गुस्ताख और आिसी हैं। कोई छोटा-
सा काम करने को भी कदहए तो बबना नाक-भौं लसकोडे नहीीं करते। क्िकों को तो कुछ समझते ही नहीीं !
केवि बडे बाबू से कुछ दबते हैं, यद्यवप कभी-कभी उनसे झगड बैठते हैं। मगर इन सब दग ु ण
ुम ों के होते हुए
भी दफ्तर में ककसी की लमट्टी इतनी खराब नही है, क्जतनी बेचारे गरीब की। तरक्की का अवसर आया है , तो
ये तीनों मार िे जाते हैं, गरीब को कोई पछ
ू ता भी नहीीं। और सब दस-दस पाते हैं, वह अभी छ: ही में पडा
हुआ है । सब
ु ह से शाम तक उसके पैर एक क्षण के लिए भी नहीीं दटकते—यहा तक कक तीनों चपरासी उस
पर हुकूमत जताते हैं और ऊपर की आमदनी में तो उस बेचारे का कोई भाग ही नहीीं। नतस पर भी दफ्तर
के सब कममचारी—दफ्तरी से िेकर बाबू तक सब—उससे धचढ़ते हैं। उसकी ककतनी ही बार लशकायतें हो चक
ु ी
हैं, ककतनी ही बार जम
ु ामना हो चकु ा है और डाट-डपट तो ननत्य ही हुआ करती है । इसका रहस्य कुछ मेरी
समझ में न आता था। हा, मझ ु े उस पर दया अवश्य आती थी, और आपने व्यवहार से मैं यह ददखाना चाहता
था कक मेरी दृक्ष्ट में उसका आदर चपरालसयों से कम नहीीं। यहा तक कक कई बार मैं उसके पीछे अन्य
कममचाररयों से िड भी चक
ु ा हू।
2

ए क ददन बडे बाबू ने गरीब से अपनी मेज साफ करने को कहा। वह तरु न्त मेज साफ करने िगा।
दै वयोग से झाडन का झटका िगा, तो दावात उिट गयी और रोशनाई मेज पर फैि गयी। बडे बाबू यह
दे खते ही जामे से बाहर हो गये। उसके कान पकडकर खूब ऐींठे और भारतवषम की सभी प्रचलित भाषाओीं से
दव
ु च
म न चन
ु -चन
ु कर उसे सन
ु ाने िगे। बेचारा गरीब आखों में आसू भरे चप
ु चाप मनू तमवत ् खडा सन
ु ता था, मानो
उसने कोई हत्या कर डािी हो। मझ
ु े बाबू का जरा-सी बात पर इतना भयींकर रौद्र रूप धारण करना बरु ा
मािम ू हुआ। यदद ककसी दस ू रे चपरासी ने इससे भी बडा कोई अपराध ककया होता, तो भी उस पर इतना
वज्र-प्रहार न होता। मैंने अींग्रज
े ी में कहा—बाबू साहब, आप यह अन्याय कर रहे हैं। उसने जान-बझ
ू कर तो
रोशनाई धगराया नहीीं। इसका इतना कडा दण्ड अनौधचत्य की पराकाष्ठा है।
बाबज
ू ी ने नम्रता से कहा—आप इसे जानते नहीीं, बडा दष्ु ट है ।
‘मैं तो उसकी कोई दष्ु टता नहीीं दे खता।’
‘आप अभी उसे जानते नहीीं, एक ही पाजी है । इसके घर दो हिों की खेती होती है , हजारों का िेन-दे न
करता है; कई भैंसे िगती हैं। इन्हीीं बातों का इसे घमण्ड है।’
‘घर की ऐसी दशा होती, तो आपके यहा चपरासधगरी क्यों करता?’
‘ववश्वास माननए, बडा पोढ़ा आदमी है और बिा का मक्खीचस
ू ।’
‘यदद ऐसा ही हो, तो भी कोई अपराध नहीीं है ।’
‘अजी, अभी आप इन बातों को नहीीं जानते। कुछ ददन और रदहए तो आपको स्वयीं मािम
ू हो जाएगा
कक यह ककतना कमीना आदमी है ?’
एक दस
ू रे महाशय बोि उठे —भाई साहब, इसके घर मनों दध
ू -दही होता है, मनों मटर, जुवार, चने होते
हैं, िेककन इसकी कभी इतनी दहम्मत न हुई कक कभी थोडा-सा दफ्तरवािों को भी दे दो। यहा इन चीजों को
तरसकर रह जाते हैं। तो कफर क्यों न जी जिे ? और यह सब कुछ इसी नौकरी के बदौित हुआ है । नहीीं तो
पहिे इसके घर में भन
ू ी भाग न थी।

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बडे बाबू कुछ सकुचाकर बोिे—यह कोई बात नहीीं। उसकी चीज है , ककसी को दे या न दे ; िेककन यह
बबल्कुि पशु है।
मैं कुछ-कुछ ममम समझ गया। बोिा—यदद ऐसे तच्
ु छ हृदय का आदमी है, तो वास्तव में पशु ही है । मैं
यह न जानता था।
अब बडे बाबू भी खिु े। सींकोच दरू हुआ। बोिे—इन सौगातों से ककसी का उबार तो होता नहीीं, केवि
दे ने वािे की सहृदयता प्रकट होती है । और आशा भी उसी से की जाती है , जो इस योग्य होता है । क्जसमें
सामथ्यम ही नहीीं, उससे कोई आशा नहीीं करता। नींगे से कोई क्या िेगा ?
रहस्य खुि गया। बडे बाबू ने सरि भाव से सारी अवस्था दरशा दी थी। समद्
ृ धध के शत्रु सब होते हैं,
छोटे ही नहीीं, बडे भी। हमारी ससरु ाि या नननहाि दररद्र हो, तो हम उससे आशा नहीीं रखते ! कदाधचत ् वह
हमें ववस्मत
ृ हो जाती है। ककन्तु वे सामथ्यमवान ् होकर हमें न पछ
ू ें , हमारे यहा तीज और चौथ न भेजें, तो
हमारे किेजे पर साप िोटने िगता है । हम अपने ननधमन लमत्र के पास जाय, तो उसके एक बीडे पान से ही
सींतुष्ट हो जाते हैं; पर ऐसा कौन मनष्ु य है, जो अपने ककसी धनी लमत्र के घर से बबना जिपान के िौटाकर
उसे मन में कोसने न िगे और सदा के लिए उसका नतरस्कार न करने िगे। सद
ु ामा कृष्ण के घर से यदद
ननराश िौटते तो, कदाधचत ् वह उनके लशशप
ु ाि और जरासींध से भी बडे शत्रु होते। यह मानव-स्वभाव है ।

तीन

क ई ददन पीछे मैंने गरीब से पछ


ू ा—क्यों जी, तुम्हारे घर पर कुछ खेती-बारी होती है ?
गरीब ने दीन भाव से कहा—हा, सरकार, होती है । आपके दो गुिाम हैं, वही करते हैं ?
‘गायें-भैंसें भी िगती हैं?’
‘हा, हुजरू ; दो भैंसें िगती हैं, मद
ु ा गायें अभी गालभन नहीीं है । हुजरू , िोगों के ही दया-धरम से पेट की
रोदटया चि जाती हैं।’
‘दफ्तर के बाबू िोगों की भी कभी कुछ खानतर करते हो?’
गरीब ने अत्यन्त दीनता से कहा—हुजूर; मैं सरकार िोगों की क्या खानतर कर सकता हू। खेती में जौ,
चना, मक्का, जुवार के लसवाय और क्या होता है । आप िोग राजा हैं, यह मोटी-झोटी चीजें ककस मह ु से
आपकी भें ट करू। जी डरता है, कहीीं कोई डाट न बैठे कक इस टके के आदमी की इतनी मजाि। इसी के मारे
बाबज
ू ी, दहयाव नहीीं पडता। नहीीं तो दध
ू -दही की कौन बबसात थी। मह
ु िायक बीडा तो होना चादहए।
‘भिा एक ददन कुछ िाके दो तो, दे खो, िोग क्या कहते हैं। शहर में यह चीजें कहा मयस्सर होती हैं।
इन िोगों का जी कभी-कभी मोटी-झोटी चीजों पर चिा करता है ।’
‘जो सरकार, कोई कुछ कहे तो? कहीीं कोई साहब से लशकायत कर दे तो मैं कहीीं का न रहू।’
‘इसका मेरा क्जम्मा है , तुम्हें कोई कुछ न कहे गा। कोई कुछ कहे गा, तो मैं समझा दगा।’

‘तो हुजरू , आजकि तो मटर की फलसि है। चने के साग भी हो गये हैं और कोल्हू भी खडा हो गया
है । इसके लसवाय तो और कुछ नहीीं है ।’
‘बस, तो यही चीजें िाओ।’
‘कुछ उल्टी-सीधी पडे, तो हुजरू ही सभािेंगे!’
‘हा जी, कह तो ददया कक मैं दे ख िगा।’

दस
ू रे ददन गरीब आया तो उसके साथ तीन हृष्ट-पष्ु ट यव
ु क भी थे। दो के लसरों पर टोकररया थीीं,
उसमें मटर की फननया भरी हुई थीीं। एक के लसर पर मटका था, उसमें ऊख का रस था। तीनों ऊख का एक-
एक गट्ठर काख में दबाये हुए थे। गरीब आकर चप ु के से बरामदे के सामने पेड के नीचे खडा हो गया।
दफ्तर में आने का उसे साहस नहीीं होता था, मानो कोई अपराधी वक्ष
ृ के नीचे खडा था कक इतने में दफ्तर
के चपरालसयों और अन्य कममचाररयों ने उसे घेर लिया। कोई ऊख िेकर चस
ू ने िगा, कई आदमी टाकरें पर
टूट पडे, िट
ू मच गयी। इतने में बडे बाबू दफ्तर में आ पहुचे। यह कौतक
ु ब दे खा तो उच्च स्वर से बोिे—
यह क्या भीड िगा रखी है , अपना-अपना काम दे खो।
मैंने जाकर उनके कान में कहा—गरीब, अपने घर से यह सौगात िाया है। कुछ आप िे िीक्जए, कुछ
इन िोगों को बाट दीक्जए।
बडे बाबू ने कृबत्रम क्रोध धारण करके कहा—क्यों गरीब, तम
ु ये चीजें यहा क्यों िाये ? अभी िे जाओ,
नहीीं तो मैं साहब से रपट कर दगा।
ू कोई हम िोगों को मिक
ू ा समझ लिया है।

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गरीब का रीं ग उड गया। थर-थर कापने िगा। मह
ु से एक शब्द भी न ननकिा। मेरी ओर अपराधी नेत्रों
से ताकने िगा।
मैंने उसकी ओर से क्षमा-प्राथमना की। बहुत कहने-सन
ु ने पर बाबू साहब राजी हुए। सब चीजों में से
आधी-आधी अपने घर लभजवायी। आधी में अन्य िोगों के दहस्से िगाये गये। इस प्रकार यह अलभनय
समाप्त हुआ।

अ ब दफ्तर में गरीब का नाम होने िगा। उसे ननत्य घड


ु ककया न लमितीीं; ददन-भर दौडना न पडता।
कममचाररयों के व्यींग्य और अपने सहयोधगयों के कटुवाक्य न सन
ु ने पडते। चपरासी िोग स्वयीं उसका
काम कर दे ते। उसके नाम में भी थोडा-सा पररवतमन हुआ। वह गरीब से गरीबदास बना। स्वभाव में कुछ
तबदीिी पैदा हुई। दीनता की जगह आत्मगौरव का उद्भव हुआ। तत्परता की जगह आिस्य ने िी। वह अब
भी कभी दे र करके दफ्तर आता, कभी-कभी बीमारी का बहाना करके घर बैठ रहता। उसके सभी अपराध अब
क्षम्य थे। उसे अपनी प्रनतष्ठा का गुर हाथ िग गया था। वह अब दसवें-पाचवे ददन दध
ू , दही िाकर बडे बाबू
की भें ट ककया करता। दे वता को सींतुष्ट करना सीख गया। सरिता के बदिे अब उसमें काइयापन आ गया।
एक रोज बडे बाबू ने उसे सरकारी फामों का पासमि छुडाने के लिए स्टे शन भेजा। कई बडे-बडे पलु िींदे
थे। ठे िे पर आये। गरीब ने ठे िेवािों से बारह आने मजदरू ी तय की थी। जब कागज दफ्तर में गये तो
उसने बडे बाबू से बारह आने पैसे ठे िेवािों को दे ने के लिए वसि
ू ककये। िेककन दफ्तर से कुछ दरू जाकर
उसकी नीयत बदिी। अपनी दस्तूरी मागने िगा। ठे िेवािे राजी न हुए। इस पर गरीब ने बबगडकर सब पैसे
जेब में रख लिये और धमकाकर बोिा—अब एक फूटी कौडी भी न दगा। ू जाओ जहा फररयाद करो। दे खें,
क्या बना िेते हो।
ठे िेवािे ने जब दे खा कक भें ट न दे ने से जमा ही गायब हुई जाती है तो रो-धोकर चार आने पैसे दे ने
पर राजी हुए। गरीब ने अठन्नी उसके हवािे की, बारह आने की रसीद लिखाकर उसके अगूठे के ननशान
िगवाये और रसीद दफ्तर में दाखखि हो गयी।
यह कुतूहि दे खकर में दीं ग रह गया। यह वही गरीब है, जो कई महीने पहिे सरिता और दीनता की
मनू तम था, क्जजसे कभी चपरालसयों से भी अपने दहस्से की रकम मागने का साहस न होता था, जो दस
ू रों को
खखिाना भी न जानता था, खाने का तो क्जक्र ही क्या। यह स्वभावाींतर दे खकर अत्यन्त खेद हुआ। इसका
उत्तरदानयत्व ककसके लसर था ? मेरे लसर, क्जसने उसे चघ्घडपन और धतू त
म ा का पहिा पाठ पढ़ाया था। मेरे
धचत्त में प्रश्न उठा—इस काइयापन से, जो दस
ू रों का गिा दबाता है , वह भोिापन क्या बरु ा था, जो दस
ू रों का
अन्याय सह िेता था। वह अशभ
ु मह
ु ू तम था, जब मैंने उसे प्रनतष्ठा-प्राक्प्त का मागम ददखाया, क्योंकक वास्तव में
वह उसके पतन का भयींकर मागम था। मैंने बाह्य प्रनतष्ठा पर उसकी आत्म-प्रनतष्ठा का बलिदान कर ददया।

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दो िखखयााँ

1
िखनऊ
1-7-25
प्यारी बहन,
जब से यहा आयी हू, तुम्हारी याद सताती रहती है । काश! तुम कुछ ददनों के लिए यहा चिी आतीीं, तो
ककतनी बहार रहती। मैं तम्
ु हें अपने ववनोद से लमिाती। क्या यह सम्भव नहीीं है ? तम्
ु हारे माता-वपता क्या
तम्
ु हें इतनी आजादी भी न दें गे ? मझ
ु े तो आश्चयम यही है कक बेडडया पहनकर तम
ु कैसे रह सकती हो! मैं तो
इस तरह घण्टे -भर भी नहीीं रह सकती। ईश्वर को धन्यवाद दे ती हू कक मेरे वपताजी परु ानी िकीर पीटने
वािों में नहीीं। वह उन नवीन आदशों के भक्त हैं, क्जन्होंने नारी-जीवन को स्वगम बना ददया है । नहीीं तो मैं
कहीीं की न रहती।
ववनोद हाि ही में इींग्िैंड से डी0 कफि0 होकर िौटे हैं और जीवन-यात्रा आरम्भ करने के पहिे एक
बार सींसार-यात्रा करना चाहते हैं। योरप का अधधकाींश भाग तो वह दे ख चक
ु े हैं, पर अमेररका, आस्रे लिया और
एलशया की सैर ककये बबना उन्हें चैन नहीीं। मध्य एलशया और चीन का तो यह ववशेष रूप से अध्ययन करना
चाहते हैं। योरोवपयन यात्री क्जन बातों की मीमाींसा न कर सके, उन्हीीं पर प्रकाश डािना इनका ध्येय है । सच
कहती हू, चन्दा, ऐसा साहसी, ऐसा ननभीक, ऐसा आदशमवादी परु
ु ष मैंने कभी नहीीं दे खा था। मैं तो उनकी बातें
सन
ु कर चककत हो जाती हू। ऐसा कोई ववषय नहीीं है, क्जसका उन्हें परू ा ज्ञान न हो, क्जसकी वह आिोचना न
कर सकते हो; और यह केवि ककताबी आिोचना नहीीं होती, उसमें मौलिकता और नवीनता होती है ।
स्ववन्त्रता के तो वह अनन्य उपासक हैं। ऐसे परु
ु ष की पत्नी बनकर ऐसी कौन-सी स्त्री है , जो अपने सौभाग्य
पर गवम न करे । बहन, तुमसे क्या कहू कक प्रात:काि उन्हें अपने बगिे की ओर आते दे खकर मेरे धचत्त की
क्या दशा हो जाती है। यह उन पर न्योछावर होने के लिए ववकि हो जाता है। यह मेरी आत्मा में बस गये
हैं। अपने परु
ु ष की मैंने मन में जो कल्पना की थी, उसमें और उनमें बाि बराबर भी अन्तर नहीीं। मझ
ु े रात-
ददन यही भय िगा रहता है कक कहीीं मझ
ु में उन्हें कोई त्रदु ट न लमि जाय। क्जन ववषयों से उन्हें रुधच है ,
उनका अध्ययन आधी रात तक बैठी ककया करती हू। ऐसा पररश्रम मैंने कभी न ककया था। आईने-कींघी से
मझ
ु े कभी उतना प्रेम न था, सभ
ु ावषतों को मैंने कभी इतने चाव से कण्ठ न ककया था। अगर इतना सब
कुछ करने पर भी मैं उनका हृदय न पा सकी, तो बहन, मेरा जीवन नष्ट हो जायेगा, मेरा हृदय फट जायेगा
और सींसार मेरे लिए सन
ू ा हो जायेगा।
कदाधचत ् प्रेम के साथ ही मन में ईष्याम का भाव भी उदय हो जाता है। उन्हें मेरे बगिे की ओर जाते
हुए दे ख जब मेरी पडोलसन कुसम
ु अपने बरामदे में आकर खडी हो जाती है, तो मेरा ऐसा जी चाहता है कक
उसकी आखें जयोनतहीन हो जाय। कि तो अनथम ही हो गया। ववनोद ने उसे दे खते ही है ट उतार िी और
मस्
ु कराए। वह कुिटा भी खीसें ननकािने िगी। ईश्वर सारी ववपवत्तया दे , पर लमथ्यालभमान न दे । चड
ु ि
ै ों की-
सी तो आपकी सरू त है, पर अपने को अप्सरा समझती हैं। आप कववता करती हैं और कई पबत्रकाओीं में
उनकी कववताए छप भी गई हैं। बस, आप जमीन पर पाव नहीीं रखतीीं। सच कहती हू, थोडी दे र के लिए
ववनोद पर से मेरी श्रद्धा उठ गयी। ऐसा आवेश होता था कक चिकर कुसम
ु का मह
ु नोच ि।ू खैररयत हुई
कक दोनों में बातचित न हुई, पर ववनोद आकर बैठे तो आध घण्टे तक मैं उनसे न बोि सकी, जैसे उनके
शब्दों में वह जाद ू ही न था, वाणी में वह रस ही न था। तब से अब तक मेरे धचत्त की व्यग्रता शान्त नहीीं
हुई। रात-भर मझ
ु े नीींद नहीीं आयी, वही दृश्य आखों के सामने बार-बार आता था। कुसम
ु को िक्जजत करने
के लिए ककतने मसब ू े बाध चक ु ी हू। अगर यह भय न होता कक ववनोद मझ ु े ओछी और हिकी समझेंगे, तो
मैं उनसे अपने मनोभावों को स्पष्ट कह दे ती। मैं सम्पण
ू त
म : उनकी होकर उन्हें सम्पण
ू त
म : अपना बनाना
चाहती हू। मझु े ववश्वास है कक सींसार का सबसे रूपवान ् यवु क मेरे सामने आ जाय, तो मैं उसे आख उठाकर
न दे खगी।
ू ववनोद के मन में मेरे प्रनत यह भाव क्यों नहीीं है ।
चन्दा, प्यारी बहन; एक सप्ताह के लिए आ जा। तुझसे लमिने के लिए मन अधीर हो रहा है । मझ
ु े इस
समय तेरी सिाह और सहानभ
ु नू त की बडी जरूरत है। यह मेरे जीवन का सबसे नाजक
ु समय है । इन्हीीं दस-
पाच ददनों में या तो पारस हो जाऊगी या लमट्टी। िो सात बज गए और अभी बाि तक नहीीं बनाये। ववनोद

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के आने का समय है । अब ववदा होती हू। कहीीं आज कफर अभाधगनी कुसम
ु अपने बरामदे में न आ खडी हो।
अभी से ददि काप रहा है । कि तो यह सोचकर मन को समझाया था कक यों ही सरि भाव से वह हस पडी
होगी। आज भी अगर वही दृश्य सामने आया, तो उतनी आसानी से मन को न समझा सकूगी।
तुम्हारी,
पद्मा

गोरखपरु
5-7-25
वप्रय पद्मा,
भिा एक यग
ु के बाद तम्
ु हें मेरी सधु ध तो आई। मैंने तो समझा था, शायद तम
ु ने परिोक-यात्रा कर
िी। यह उस ननष्ठुरता का दीं ड ही है, जो कुसम
ु तम्
ु हें दे रही है । 15 एवप्रि को कािेज बन्द हुआ और एक
जुिाई को आप खत लिखती हैं—परू े ढाई महीने बाद, वह भी कुसम ु की कृपा से। क्जस कुसम
ु को तम
ु कोस
रही हो, उसे मैं आशीवामद दे रही हू। वह दारुण द:ु ख की भानत तुम्हारे रास्ते में न आ खडी होती, तो तुम्हें
क्यों मेरी याद आती ? खैर, ववनोद की तम ु ने जो तसवीर खीींची, वह बहुत ही आकषमक है और मैं ईश्वर से
मना रही हू, वह ददन जल्द आए कक मैं उनसे बहनोई के नाते लमि सकू। मगर दे खना, कहीीं लसववि मैरेज न
कर बैठना। वववाह दहन्द-ू पद्धनत के अनस
ु ार ही हो। ह , तुम्हें अक्ख्त्यर है जो सैकडों बेहूदा और व्यथम के
कपडे हैं, उन्हें ननकाि डािो। एक सच्चे, ववद्वान पक्ण्डत को अवश्य बि
ु ाना, इसलिए नहीीं कक वह तुमसे बात-
बात पर टके ननकिवाये, बक्ल्क इसलिए कक वह दे खता रहे कक वह सब कुछ शास्त्र-ववधध से हो रहा है , या
नहीीं।
अच्छा, अब मझ
ु से पछ
ू ो कक इतने ददनों क्यों चप्ु पी साधे बैठी रही। मेरे ही खानदान में इन ढाई
महीनों में , पाच शाददय ॉँ हुई। बारातों का ताता िगा रहा। ऐसा शायद ही कोई ददन गया हो कक एक सौ
महमानों से कम रहे हों और जब बारात आ जाती थी, तब तो उनकी सींख्या पाच-पाच सौ तक पहुच जाती
थी। ये पाचों िडककया मझ ु से छोटी हैं और मेरा बस चिता तो अभी तीन-चार साि तक न बोिती, िेककन
मेरी सन
ु ता कौन है और ववचार करने पर मझ
ु े भी ऐसा मािम
ू होता है कक माता-वपता का िडककयों के
वववाह के लिए जल्दी करना कुछ अनधु चत नहीीं है । क्जन्दगी का कोई दठकाना नहीीं। अगर माता-वपता अकाि
मर जाय, तो िडकी का वववाह कौन करे । भाइयों का क्या भरोसा। अगर वपता ने काफी दौित छोडी है तो
कोई बात नहीीं; िेककन जैसा साधारणत: होता है , वपता ऋण का भार छोड गये, तो बहन भाइयों पर भार हो
जाती है । यह भी अन्य ककतने ही दहन्द-ू रस्मों की भानत आधथमक समस्या है , और जब तक हमारी आधथमक
दशा न सध
ु रे गी, यह रस्म भी न लमटे गी।
अब मेरे बलिदान की बारी है । आज के पींद्रहवें ददन यह घर मेरे लिए ववदे श हो जायगा। दो-चार महीने
के लिए आऊगी, तो मेहमान की तरह। मेरे ववनोद बनारसी हैं, अभी कानन
ू पढ़ रहे हैं। उनके वपता नामी
वकीि हैं। सनु ती हू, कई गाव हैं, कई मकान हैं, अच्छी मयामदा है । मैंने अभी तक वर को नहीीं दे खा। वपताजी
ने मझ
ु से पछ
ु वाया था कक इच्छा हो, तो वर को बि ु ा द।ू पर मैंने कह ददया, कोई जरूरत नहीीं। कौन घर में
बहू बने। है तकदीर ही का सौदा। न वपताजी ही ककसी के मन में पैठ सकते हैं, न मैं ही। अगर दो-एक बार
दे ख ही िेती, नहीीं मि
ु ाकात ही कर िेती तो क्या हम दोनों एक-दस
ू रे को परख िेते ? यह ककसी तरह सींभव
नहीीं। जयादा-से-जयादा हम एक-दस
ू रे का रीं ग-रूप दे ख सकते हैं। इस ववषय में मझ
ु े ववश्वास है कक वपताजी
मझ
ु से कम सींयत नहीीं हैं। मेरे दोनों बडे बहनोई सौंदयम के पत
ु िे न हों पर कोई रमणी उनसे घण
ृ ा नहीीं कर
सकती। मेरी बहनें उनके साथ आनन्द से जीवन बबता रही हैं। कफर वपताजी मेरे ही साथ क्यों अन्याय
करें गे। यह मैं मानती हू कक हमारे समाज में कुछ िोगों का वैवादहक जीवन सख ु कर नहीीं है , िेककन सींसार में
ऐसा कौन समाज है , क्जसमें दख ु ी पररवार न हों। और कफर हमेशा परु ु षों ही का दोष तो नहीीं होता, बहुधा
क्स्त्रय ॉँ ही ववष का गाठ होती हैं। मैं तो वववाह को सेवा और त्याग का व्रत समझती हू और इसी भाव से
उसका अलभवादन करती हू। हा, मैं तुम्हें ववनोद से छीनना तो नहीीं चाहती िेककन अगर 20 जुिाई तक तुम
दो ददन के लिए आ सको, तो मझ
ु े क्जिा िो। जयों-जयों इस व्रत का ददन ननकट आ रहा है , मझ
ु े एक अज्ञात
शींका हो रही है; मगर तम
ु खद
ु बीमार हो, मेरी दवा क्या करोगी—जरूर आना बहन !
तम्
ु हारी,

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चन्दा

मींसरू ी
5-8-25
प्यारी चन्दा,
सैंकडों बातें लिखनी हैं, ककस क्रम से शरू
ु करू, समझ में नहीीं आता। सबसे पहिे तुम्हारे वववाह के शभ

अवसर पर न पहुच सकने के लिए क्षमा चाहती हू। मैं आने का ननश्चय कर चक
ु ी थी, मैं और प्यारी चींदा के
स्वयींवर में न जाऊ: मगर उसके ठीक तीन ददन पहिे ववनोद ने अपना आत्मसमपमण करके मझ ु े ऐसा मग्ु ध
कर ददया कक कफर मझु े ककसी की सधु ध न रही। आह! वे प्रेम के अन्तस्ति से ननकिे हुए उष्ण, आवेशमय
और कींवपत शब्द अभी तक कानों में गज ू रहे हैं। मैं खडी थी, और ववनोद मेरे सामने घट
ु ने टे के हुए प्रेरणा,
ववनय और आग्रह के पत ु िे बने बैठे थे। ऐसा अवसर जीवन में एक ही बार आता है , केवि एक बार, मगर
उसकी मधरु स्मनृ त ककसी स्वगम-सींगीत की भाती जीवन के तार-तार में व्याप्त रहता है । तुम उस आनन्द का
अनभ
ु व कर सकोगी—मैं रोने िगी, कह नहीीं सकती, मन में क्या-क्या भाव आये; पर मेरी आखों से आसओ
ु ीं
की धारा बहने िगी। कदाधचत ् यही आनन्द की चरम सीमा है । मैं कुछ-कुछ ननराश हो चिी थी। तीन-चार
ददन से ववनोद को आते-जाते कुसम
ु से बातें करते दे खती थी, कुसम
ु ननत नए आभष
ू णों से सजी रहती थी
और क्या कहू, एक ददन ववनोद ने कुसम ु की एक कववता मझ ु े सन
ु ायी और एक-एक शब्द पर लसर धन ु ते
रहे । मैं मानननी तो हू ही; सोचा,जब यह उस चड ु ि
ै पर िट्टू हो रहे हें , तो मझ
ु े क्या गरज पडी है कक इनके
लिए अपना लसर खपाऊ। दस ू रे ददन वह सबेरे आये, तो मैंने कहिा ददया, तबीयत अच्छी नहीीं है । जब उन्होंने
मझ
ु से लमिने के लिए आग्रह ककया, तब वववश होकर मझ
ु े कमरे में आना पडा। मन में ननश्चय करके आयी
थी—साफ कह दीं ग ू ी अब आप न आया कीक्जए। मैं आपके योग्य नहीीं हू, मैं कवव नहीीं, ववदष
ु ी नहीीं, सभ
ु ावषणी
नहीीं....एक परू ी स्पीच मन में उमड रही थी, पर कमरे में आई और ववनोद के सतष्ृ ण नेत्र दे खे, प्रबि उत्कींठा
में कापते हुए होंठ—बहन, उस आवेश का धचत्रण नहीीं कर सकती। ववनोद ने मझ ु े बैठने भी न ददया। मेरे
सामने घटु नों के बि फशम पर बैठ गये और उनके आतरु उन्मत्त शब्द मेरे हृदय को तरीं धगत करने िगे।
एक सप्ताह तैयाररयों में कट गया। पापा ओर मामा फूिे न समाते थे।
और सबसे प्रसन्न थी कुसम
ु ! यही कुसम
ु क्जसकी सरू त से मझ
ु े घण
ृ ा थी ! अब मझ
ु े ज्ञात हुआ कक
मैंने उस पर सन्दे ह करके उसके साथ घोर अन्याय ककया। उसका हृदय ननष्कपट है , उसमें न ईष्याम है , न
तष्ृ णा, सेवा ही उसके जीवन का मि
ू तत्व है । मैं नहीीं समझती कक उसके बबना ये सात ददन कैसे कटते। मैं
कुछ खोई-खोई सी जान पडती थी। कुसम
ु पर मैंने अपना सारा भार छोड ददया था। आभष
ू णों के चन
ु ाव और
सजाव, वस्त्रों के रीं ग और काट-छाट के ववषय में उसकी सरु
ु धच वविक्षण है। आठवें ददन जब उसने मझ
ु े
दि
ु दहन बनाया, तो मैं अपना रूप दे खकर चककत रह गई। मैंने अपने को कभी ऐसी सन्
ु दरी न समझा था।
गवम से मेरी आखों में नशा-सा छा गया।
उसी ददन सींध्या-समय ववनोद और में दो लभन्न जि-धाराओीं की भानत सींगम पर लमिकर अलभन्न हो
गये। ववहार-यात्रा की तैयारी पहिे ही से हो चक
ु ी थी, प्रात:काि हम मींसरू ी के लिए रवाना हो गये। कुसम

हमें पहुचाने के लिए स्टे शन तक आई और ववदा होते समय बहुत रोयी। उसे साथ िे चिना चाहती थी, पर
न जाने क्यों वह राजी न हुई।
मींसरू ी रमणीक है, इसमें सन्दे ह नहीीं। श्यामवणम मेघ-मािाए पहाडडयों पर ववश्राम कर रही हैं, शीति
पवन आशा-तरीं गों की भानत धचत्त का रीं जन कर रहा है , पर मझ
ु े ऐसा ववश्वास है कक ववनोद के साथ मैं ककसी
ननजमन वन में भी इतने ही सख
ु से रहती। उन्हें पाकर अब मझ
ु े ककसी वस्तु की िािसा नहीीं। बहन, तुम इस
आनन्दमय जीवन की शायद कल्पना भी न कर सकोगी। सब ु ह हुई, नाश्ता आया, हम दोनों ने नाश्ता ककया;
डाडी तैयार है, नौ बजते-बजते सैर करने ननकि गए। ककसी जि-प्रपात के ककनारे जा बैठे। वहा जि-प्रवाह
का मधरु सींगीत सन
ु रहे हैं। या ककसी लशिा-खींड पर बैठे मेघों की व्योम-क्रीडा दे ख रहे हैं। ग्यारह बजते-
बजते िौटै । भोजन ककया। मैं प्यानो पर जा बैठी। ववनोद को सींगीत से प्रेम है। खद
ु बहुत अच्छा गाते हैं
और मैं गाने िगती हू, तब तो वह झम ू ने ही िगते हैं। तीसरे पहर हम एक घींटे के लिए ववश्राम करके
खेिने या कोई खेि दे खने चिे जाते हैं। रात को भोजन करने के बाद धथयेटर दे खते हैं और वहा से िौट
कर शयन करते हैं। न सास की घड
ु ककया हैं न ननदों की कानाफूसी, न जेठाननयों के ताने। पर इस सख
ु में

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भी मझ
ु े कभी-कभी एक शींका-सी होती है —फूि में कोई काटा तो नहीीं नछपा हुआ है, प्रकाश के पीछे कहीीं
अन्धकार तो नहीीं है ! मेरी समझ में नहीीं आता, ऐसी शींका क्यों होती है। अरे , यह िो पाच बज गए, ववनोद
तैयार हैं, आज टे ननस का मैच दे खने जाना है । मैं भी जल्दी से तैयार हो जाऊ। शेष बातें कफर लिखगी।

हा, एक बात तो भि
ू ी ही जा रही थी। अपने वववाह का समाचार लिखना। पनतदे व कैसे हैं ? रीं ग-रूप
कैसा है ? ससरु ाि गयी, या अभी मैके ही में हो ? ससरु ाि गयीीं, तो वहा के अनभ
ु व अवश्य लिखना। तुम्हारी
खूब नम
ु ाइश हुई होगी। घर, कुटुम्ब और मह ु ल्िे की मदहिाओीं ने घघट
ू उठा-उठाकर खूब मह
ु दे खा होगा,
खूब परीक्षा हुई होगी। ये सभी बातें ववस्तार से लिखना। दे खें कब कफर मिु ाकात होती है।
तुम्हारी,
पद्मा

गोरखपरु
1-9-25
प्यारी पद्मा,
तुम्हारा पत्र पढ़कर धचत्त को बडी शाींनत लमिी। तुम्हारे न आने ही से मैं समझ गई थी कक ववनोद बाबू
तुम्हें हर िे गए, मगर यह न समझी थी कक तुम मींसरू ी पहुच गयी। अब उस आमोद-प्रमोद में भिा गरीब
चन्दा क्यों याद आने िगी। अब मेरी समझ में आ रहा है कक वववाह के लिए नए और परु ाने आदशम में क्या
अन्तर है । तुमने अपनी पसन्द से काम लिया, सख
ु ी हो। मैं िोक-िाज की दासी बनी रही, नसीबों को रो रही
हू।
अच्छा, अब मेरी बीती सन
ु ो। दान-दहे ज के टीं टे से तो मझ
ु े कुछ मतिब है नहीीं। वपताजी ने बडा ही
उदार-हृदय पाया है। खब
ू ददि खोिकर ददया होगा। मगर द्वार पर बारात आते ही मेरी अक्ग्न-परीक्षा शरू
ु हो
गयी। ककतनी उत्कण्ठा थी—वह-दशमन की, पर दे खू कैसे। कुि की नाक न कट जाएगी। द्वार पर बारात
आयी। सारा जमाना वर को घेरे हुए था। मैंने सोचा—छत पर से दे खू। छत पर गयी, पर वहा से भी कुछ न
ददखाई ददया। हा, इस अपराध के लिए अम्माजी की घड ु ककया सन
ु नी पडीीं। मेरी जो बात इन िोगों को अच्छी
नहीीं िगती, उसका दोष मेरी लशक्षा के माथे मढ़ा जाता है। वपताजी बेचारे मेरे साथ बडी सहानभ
ु नू त रखते हैं।
मगर ककस-ककस का मह
ु पकडें। द्वारचार तो यों गज
ु रा और भावरों की तैयाररया होने िगी। जनवासे से
गहनों और कपडों का थाि आया। बहन ! सारा घर—स्त्री-परु
ु ष—सब उस पर कुछ इस तरह टूटे , मानो इन
िोगों ने कभी कुछ दे खा ही नहीीं। कोई कहता है, कींठा तो िाये ही नहीीं; कोई हार के नाम को रोता है!
अम्माजी तो सचमच
ु रोने िगी, मानो मैं डुबा दी गयी। वर-पक्षवािों की ददि खोिकर ननींदा होने िगी। मगर
मैंने गहनों की तरफ आख उठाकर भी नहीीं दे खा। हा, जब कोई वर के ववषय में कोई बात करता था, तो मैं
तन्मय होकर सन ु ने िगती था। मािम ू हुआ—दब ु िे-पतिे आदमी हैं। रीं ग साविा है, आखें बडी-बडी हैं, हसमख

हैं। इन सच
ू नाओीं से दशनोत्कींठा और भी प्रबि होती थी। भावरों का मह ु ू तम जयों-जयों समीप आता था, मेरा
धचत्त व्यग्र होता जाता था। अब तक यद्यवप मैंने उनकी झिक भी न दे खी थी, पर मझ
ु े उनके प्रनत एक
अभत
ू पव
ू म प्रेम का अनभ
ु व हो रहा था। इस वक्त यदद मझ
ु े मािम
ू हो जाता कक उनके दश्ु मनों को कुछ हो
गया है, तो मैं बाविी हो जाती। अभी तक मेरा उनसे साक्षात ् नहीीं हुआ हैं, मैंने उनकी बोिी तक नहीीं सन
ु ी
है , िेककन सींसार का सबसे रूपवान ् परु
ु ष भी, मेरे धचत्त को आकवषमत नहीीं कर सकता। अब वही मेरे सवमस्व
हैं।
आधी रात के बाद भावरें हुईं। सामने हवन-कुण्ड था, दोनों ओर ववप्रगण बैठे हुए थे, दीपक जि रहा
था, कुि दे वता की मनू तम रखी हुई थीीं। वेद मींत्र का पाठ हो रहा था। उस समय मझ ु े ऐसा मािम
ू हुआ कक
सचमच ु दे वता ववराजमान हैं। अक्ग्न, वाय,ु दीपक, नक्षत्र सभी मझ ु े उस समय दे वत्व की जयोनत से प्रदीप्त
जान पडते थे। मझ
ु े पहिी बार आध्याक्त्मक ववकास का पररचय लमिा। मैंने जब अक्ग्न के सामने मस्तक
झक
ु ाया, तो यह कोरी रस्म की पाबींदी न थी, मैं अक्ग्नदे व को अपने सम्मख
ु मनू तमवान ्, स्वगीय आभा से
तेजोमय दे ख रही थी। आखखर भावरें भी समाप्त हो गई; पर
पनतदे व के दशमन न हुए।
अब अक्न्तम आशा यह थी कक प्रात:काि जब पनतदे व किेवा के लिए बि ु ाये जायगे, उस समय
दे खगी।
ू तब उनके लसर पर मौर न होगा, सखखयों के साथ मैं भी जा बैठूगी और खब
ू जी भरकर दे खगी।
ू पर
क्या मािम
ू था कक ववधध कुछ और ही कुचक्र रच रहा है। प्रात:काि दे खती हू, तो जनवासे के खेमे उखड रहे

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हैं। बात कुछ न थी। बारानतयों के नाश्ते के लिए जो सामान भेजा गया था, वह काफी न था। शायद घी भी
खराब था। मेरे वपताजी को तम
ु जानती ही हो। कभी ककसी से दबे नहीीं, जहा रहे शेर बनकर रहे । बोिे—जाते
हैं, तो जाने दो, मनाने की कोई जरूरत नहीीं; कन्यापक्ष का धमम है बारानतयों का सत्कार करना, िेककन सत्कार
का यह अथम नहीीं कक धमकी और रोब से काम लिया जाय, मानो ककसी अफसर का पडाव हो। अगर वह
अपने िडके की शादी कर सकते हैं, तो मैं भी अपनी िडकी की शादी कर सकता हू।
बारात चिी गई और मैं पनत के दशमन न कर सकी ! सारे शहर में हिचि मच गई। ववरोधधयों को
हसने का अवसर लमिा। वपताजी ने बहुत सामान जमा ककया था। वह सब खराब हो गया। घर में क्जसे
दे खखए, मेरी ससरु ाि की ननींदा कर रहा है—उजड्ड हैं, िोभी हैं, बदमाश हैं, मझ
ु े जरा भी बरु ा नहीीं िगता।
िेककन पनत के ववरुद्ध मैं एक शब्द भी नहीीं सन
ु ना चाहती। एक ददन अम्माजी बोिी—िडका भी बेसमझ
है । दध
ू पीता बच्चा नहीीं, कानन
ू पढ़ता है, मछ-दाढ़ी
ू आ गई है , उसे अपने बाप को समझाना चादहए था कक
आप िोग क्या कर रहे हैं। मगर वह भी भीगी बबल्िी बना रहा। मैं सन
ु कर नतिलमिा उठी। कुछ बोिी तो
नहीीं, पर अम्माजी को मािम
ू जरूर हो गया कक इस ववषय में मैं उनसे सहमत नहीीं। मैं तुम्हीीं से पछ
ू ती हू
बहन, जैसी समस्या उठ खडी हुई थी, उसमें उनका क्या धमम था ? अगर वह अपने वपता और अन्य
सम्बक्न्धयों का कहना न मानते, तो उनका अपमान न होता ? उस वक्त उन्होंने वही ककया, जो उधचत था।
मगर मझ ु े ववश्वास है कक जरा मामिा ठीं डा होने पर वह आयेंगे। मैं अभी से उनकी राह दे खने िगी हू।
डाककया धचट्दठया िाता है, तो ददि में धडकन होने िगती हैं—शायद उनका पत्र भी हो ! जी में बार-बार
आता है, क्यों न मैं ही एक खत लिख;ू मगर सींकोच में पडकर रह जाती हू। शायद मैं कभी न लिख सकूगी।
मान नहीीं है केवि सींकोच है । पर हा, अगर दस-पाच ददन और उनका पत्र न आया, या वह खद ु न आए, तो
सींकोच मान का रूप धारण कर िेगा। क्या तम
ु उन्हें एक धचट्ठी नहीीं लिख सकती ! सब खेि बन जाय।
क्या मेरी इतनी खानतर भी न करोगी ? मगर ईश्वर के लिए उस खत में कहीीं यह न लिख दे ना कक चींदा ने
प्रेरणा की है। क्षमा करना ऐसी भद्दी गिती की, तुम्हारी ओर से शींका करके मैं तुम्हारे साथ अन्याय कर
रही हू, मगर मैं समझदार थी ही कब ?

तुम्हारी,
चन्दा

5
मींसरू ी
20-9-25
प्यारी चन्दा,
मैंने तुम्हारा खत पाने के दस
ू रे ही ददन काशी खत लिख ददया था। उसका जवाब भी लमि गया।
शायद बाबज
ू ी ने तुम्हें खत लिखा हो। कुछ परु ाने खयाि के आदमी हैं। मेरी तो उनसे एक ददन भी न
ननभती। हा, तुमसे ननभ जायगी। यदद मेरे पनत ने मेरे साथ यह बतामव ककया होता—अकारण मझ
ु से रूठे
होते—तो मैं क्जन्दगी-भर उनकी सरू त न दे खती। अगर कभी आते भी, तो कुत्तों की तरह दत्ु कार दे ती। परु
ु ष
पर सबसे बडा अधधकार उसकी स्त्री का है । माता-वपता को खश
ु रखने के लिए वह स्त्री का नतरस्कार नहीीं
कर सकता। तुम्हारे ससरु ािवािों ने बडा घखृ णत व्यवहार ककया। परु ाने खयािवािों का गजब का किेजा है ,
जो ऐसी बातें सहते हैं। दे खा उस प्रथा का फि, क्जसकी तारीफ करते तम्
ु हारी जबान नहीीं थकती। वह दीवार
सड गई। टीपटाप करने से काम न चिेगा। उसकी जगह नये लसरे से दीवार बनाने की जरूरत है ।
अच्छा, अब कुछ मेरी भी कथा सन
ु िो। मझ
ु े ऐसा सींदेह हो रहा है कक ववनोद ने मेरे साथ दगा की
है । इनकी आधथमक दशा वैसी नहीीं, जैसी मैंने समझी थी। केवि मझ
ु े ठगने के लिए इन्होंने सारा स्वाग भरा
था। मोटर मागे की थी, बगिे का ककराया अभी तक नहीीं ददया गया, फरननचर ककराये के थे। यह सच है कक
इन्होंने प्रत्यक्ष रूप से मझ
ु े धोखा नहीीं ददया। कभी अपनी दौित की डीींग नहीीं मारी, िेककन ऐसा रहन-सहन
बना िेना, क्जससे दस
ू रों को अनम
ु ान हो कक यह कोई बडे धनी आदमी हैं, एक प्रकार का धोखा ही है। यह
स्वाग इसीलिए भरा गया था कक कोई लशकार फस जाय। अब दे खती हू कक ववनोद मझ ु से अपनी असिी
हाित को नछपाने का प्रयत्न ककया करते हैं। अपने खत मझ
ु े नहीीं दे खने दे त,े कोई लमिने आता है , तो चौंक
पडते हैं और घबरायी हुई आवाज में बेरा से पछ ू ते हैं, कौन है ? तम
ु जानती हो, मैं धन की िौंडी नहीीं। मैं
केवि ववशद्ु ध हृदय चाहती हू। क्जसमें परु
ु षाथम है, प्रनतभा है, वह आज नहीीं तो कि अवश्य ही धनवान ् होकर

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रहे गा। मैं इस कपट-िीिा से जिती हू। अगर ववनोद मझ ु से अपनी कदठनाइया कह दें , तो मैं उनके साथ
सहानभ ु नू त करूगी, उन कदठनाइयों को दरू करने में उनकी मदद करूगी। यों मझ
ु से परदा करके यह मेरी
सहानभ
ु त
ू ी और सहयोग ही से हाथ नहीीं धोते, मेरे मन में अववश्वास, द्वेष और क्षोभ का बीज बोते हैं। यह
धचींता मझ
ु े मारे डािती हैं। अगर इन्होंने अपनी दशा साफ-साफ बता दी होती, तो मैं यहा मींसरू ी आती ही
क्यों ? िखनऊ में ऐसी गरमी नहीीं पडती कक आदमी पागि हो जाय। यह हजारों रुपये क्यों पानी पडता।
सबसे कदठन समस्या जीववका की है। कई ववद्याियों में आवेदन-पत्र भेज रखे हैं।जवाब का इींतजार कर रहे
हैं। शायद इस महीने के अींत तक कहीीं जगह लमि जाय। पहिे तीन-बार सौ लमिेंगे। समझ में नहीीं आता,
कैसे काम चिेगा। डेढ़ सौ रुपये तो पापा मेरे कािेज का खचम दे ते थे। अगर दस-पाच महीने जगह न लमिी
तो यह क्या करें गे, यह कफक्र और भी खाये डािती है। मक्ु श्कि यही है कक ववनोद मझ
ु से परदा रखते हैं।
अगर हम दोनों बैठकर परामशम कर िेत,े तो सारी गक्ु त्थया सि
ु झ ् जातीीं। मगर शायद यह मझ
ु े इस योग्य ही
नहीीं समझते। शायद इनका खयाि है कक मैं केवि रे शमी गडु डया हू, क्जसे भानत-भानत के आभष ू णों, सग
ु ींधों
और रे शमी वस्त्रों से सजाना ही काफी है। धथरे टर में कोई नया तमाशा होने वािा होता है , दौडे हुए आकर
मझ
ु े खबर दे ते हैं। कहीीं कोई जिसा हो, कोई खेि हो, कहीीं सैर करना हो उसकी शभ
ु सच
ू ना मझ
ु े अवविम्ब
दी जाती है और बडी प्रसन्नता के साथ, मानो मैं रात-ददन ववनोद और क्रीडा और वविास में मग्न रहना
चाहती हू, मानो मेरे हृदय में गींभीर अींश है ही नहीीं। यह मेरा अपमान है; घोर अपमान, क्जसे मैं अब नहीीं सह
सकती। मैं अपने सींपण ू म अधधकार िेकर ही सींतष्ु ट हो सकती हू। बस, इस वक्त इतना ही। बाकी कफर। अपने
यहा का हाि-हवाि ववस्तार से लिखना। मझ
ु े अपने लिए क्जतनी धचींता है, उससे कम तुम्हारे लिए नहीीं है ।
दे खो, हम दोनों के डोंगे कहा िगते हैं। तम
ु अपनी स्वदे शी, पाच हजार वषों की परु ानी जजमर नौका पर बैठी
हो, मैं नये, द्रत
ु गामी मोटर-बोट पर। अवसर, ववज्ञान और उद्योग। मेरे साथ हैं। िेककन कोई दै वी ववपवत्त आ
जाय, तब भी इसी मोटर-बोट पर डूबगी।
ू साि में िाखों आदमी रे ि के टक्करों से मर जाते हैं, पर कोई
बैिगाडडयों पर यात्रा नहीीं करता। रे िों का ववस्तार बढ़ता ही जाता है । बस।
तुम्हारी,
पद्मा

गोरखपरु
25-9-25
प्यारी पद्मा,
कि तम्ु हारा खत लमिा, आज जवाब लिख रही हू। एक तम ु हो कक महीनों रटाती हो। इस ववषय में
तुम्हें मझ
ु से उपदे श िेना चादहए। ववनोद बाबू पर तुम व्यथम ही आक्षेप िगा रही हो। तम
ु ने क्यों पहिे ही
उनकी आधथमक दशा की जाच-पडताि नहीीं की ? बस, एक सन्
ु दर, रलसक, लशष्ट, वाणी-मधरु यव
ु क दे खा और
फूि उठीीं ? अब भी तुम्हारा ही दोष है । तम
ु अपने व्यवहार से, रहन-सहन से लसद्ध कर दो कक तुममें गींभीर
अींश भी हैं, कफर दे खू कक ववनोद बाबू कैसे तुमसे परदा रखते हैं। और बहन, यह तो मानवी स्वभाव है । सभी
चाहते हैं कक िोग हमें सींपन्न समझें। इस स्वाग को अींत तक ननभाने की चेष्टा की जाती है और जो इस
काम में सफि हो जाता है, उसी का जीवन सफि समझा जाता है। क्जस यग
ु में धन ही सवमप्रधान हो,
मयामदा, कीनतम, यश—यहा तक कक ववद्या भी धन से खरीदी जा सके, उस यग
ु में स्वाग भरना एक िाक्जमी
बात हो जाती है । अधधकार योग्यता का मह
ु ताकते हैं ! यही समझ िो कक इन दोनों में फूि और फि का
सींबींध है । योग्यता का फूि िगा और अधधकार का फि आया।
इन ज्ञानोपदे श के बाद अब तुम्हें हाददमक धन्यवाद दे ती हू। तम
ु ने पनतदे व के नाम जो पत्र लिखा था,
उसका बहुत अच्छा असर हुआ। उसके पाचवें ही ददन स्वामी का कृपापात्र मझ ु े लमिा। बहन, वह खत पाकर
मझ
ु े ककतनी खुशी हुई, इसका तुम अनम
ु ान कर सकती हो। मािम
ू होता था, अींधे को आखें लमि गयी हैं।
कभी कोठे पर जाती थी, कभी नीचे आती थी। सारे में खिबिी पड गयी। तम् ु हें वह पत्र अत्यन्त
ननराशाजनक जान पडता, मेरे लिए वह सींजीवन-मींत्र था, आशादीपक था। प्राणेश ने बारानतयों की उद्दीं डता पर
खेद प्रकट ककया था, पर बडों के सामने वह जबान कैसे खोि सकते थे। कफर जनानतयों ने भी, बारानतयों का
जैसा आदर-सत्कार करना चादहए था, वैसा नहीीं ककया। अन्त में लिखा था—‘वप्रये, तम्
ु हारे दशमनों की ककतनी
उत्कींठा है, लिख नहीीं सकता। तम्
ु हारी कक्ल्पत मनू तम ननत आखों के सामने रहती है । पर कुि-मयामदा का

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पािन करना मेरा कत्तमव्य है । जब तक माता-वपता का रुख न पाऊ, आ नहीीं सकता। तम्
ु हारे ववयोग में चाहे
प्राण ही ननकि जाय, पर वपता की इच्छा की उपेक्षा नहीीं कर सकता। हा, एक बात का दृढ़-ननश्चय कर चक
ु ा
हू—चाहे इधर की दनु नयाीं उधर हो जाय, कपत
ू कहिाऊ, वपता के कोप का भागी बन,ू घर छोडना पडे पर
अपनी दस ू री शादी न करूगा। मगर जहा तक मैं समझता हू, मामिा इतना ति
ू न खीींचगे ा। यह िोग थोडे
ददनों में नमम पड जायगे और तब मैं आऊगा और अपनी हृदयेश्वरी को आखों पर बबठाकर िाऊगा।
बस, अब मै। सींतुष्ट हू बहन, मझ
ु े और कुछ न चादहए। स्वामी मझ ु पर इतनी कृपा रखते हैं, इससे
अधधक और वह क्या कर सकते हैं ! वप्रयतम! तुम्हारी चन्दा सदस तुम्हारी रहे गी, तुम्हारी इच्छा ही उसका
कत्तमव्य है । वह जब तक क्जएगी, तुम्हारे पववत्र चरणों से िगी रहे गी। उसे बबसारना मत।
बहन, आखों में आसू भर आते हैं, अब नहीीं लिखा जाता, जवाब जल्द दे ना।
तम्
ु हारी,
चन्दा

7
ददल्िी
15-12-25
प्यारी बहन,
ॉँ
तुझसे बार-बार क्षमा म गती हू, पैरों पडती हू। मेरे पत्र न लिखने का कारण आिस्य न था, सैर-सपाटे
की धन
ु न थी। रोज सोचती थी कक आज लिखगी, ू पर कोई-न-कोई ऐसा काम आ पडता था, कोई ऐसी बात
हो जाती थी; कोई ऐसी बाधा आ खडी होती थी कक धचत्त अशाींत हो जाता था और मह
ु िपेट कर पड रहती
थी। तम
ु मझ
ु े अब दे खो तोशायद पदहचान न सको। मींसरू ी से ददल्िी आये एक महीना हो गया। यहा
ववनोद को तीन सौ रुपये की एक जगह लमि गयी है । यह सारा महीना बाजार की खाक छानने में कटा।
ववनोद ने मझ
ु े परू ी स्वाधीनता दे रखी है । मैं जो चाहू, करू, उनसे कोई मतिब नहीीं। वह मेरे मेहमान हैं।
गह
ृ स्थी का सारा बोझ मझ ु पर डािकर वह ननक्श्चींत हो गए हैं। ऐसा बेकफक्रा मैंने आदमी ही नहीीं दे खा।
हाक्जरी की परवाह है , न डडनर की, बि
ु ाया तो आ गए, नहीीं तो बैठे हैं। नौकरों से कुछ बोिने की तो मानो
इन्होंने कसम ही खा िी है । उन्हें डाटू तो मैं, रखू तो मैं, ननकािू तो मैं, उनसे कोई मतिब ही नहीीं। मैं
चाहती हू, वह मेरे प्रबन्ध की आिोचना करें , ऐब ननकािें; मैं चाहती हू जब मैं बाजार से कोई चीज िाऊ, तो
वह बतावें मैं जट गई या जीत आई; मैं चहती हू महीने के खचम का बजट बनाते समय मेरे और उनके बीच
में खब
ू बहस हो, पर इन अरमानों में से एक भी परू ा नहीीं होता। मैं नहीीं समझती, इस तरह कोई स्त्री कहा
तक गह
ृ -प्रबन्ध में सफि हो सकती है। ववनोद के इस सम्पण
ू म आत्म-समपमण ने मेरी ननज की जरूरतों के
लिए कोई गींज
ु ाइश ही नहीीं रखी। अपने शौक की चीजें खुद खरीदकर िाते बरु ा मािम
ू होता है , कम-से-कम
मझु से नहीीं हो सकमा। मैं जानती हू, मैं अपने लिए कोई चीज िाऊ, तो वह नाराज न होंगे। नहीीं, मझ ु े
ववश्वास है, खुश होंगे; िेककन मेरा जी चाहता है , मेरे शौक लसींगार की चीजें वह खुद िा कर दें । उनसे िेने में
जो आनन्द है, वह खद
ु जाकर िाने में नहीीं। वपताजी अब भी मझ
ु े सौ रुपया महीना दे ते हैं और उन रुपयों
को मैं अपनी जरूरतों पर खचम कर सकती हू। पर न जाने क्यों मझ
ु े भय होता है कक कहीीं ववनोदद समझें, मैं
उनके रुपये खचम ककये डािती हू। जो आदमी ककसी बात पर नाराज नहीीं हो सकता, वह ककसी बात पर खुश
भी नहीीं हो सकता। मेरी समझ में ही नहीीं आता, वह ककस बात से खश
ु और ककस बात से नाराज होते हैं।
बस, मेरी दशा उस आदमी की-सी है, जो बबना रास्ता जाने इधर-उधर भटकता कफरे । तम्
ु हें याद होगा, हम
दोनों कोई गखणत का प्रश्न िगाने के बाद ककतनी उत्सक
ु ता से उसका जवाब दे खती थी; जब हमारा जवाब
ककताब के जवाब से लमि जाता था, तो हमें ककतना हाददम क आनन्द लमिता था। मेहनत सफि हुईं, इसका
ववश्वास हो जाता था। क्जन गखणत की पस्
ु तकों में प्रश्नों के उत्तर न लिखे होते थे, उसके प्रश्न हि करने की
हमारी इच्छा ही न होती थी। सोचते थे, मेहनत अकारथ जायगी। मैं रोज प्रश्न हि करती हू, पर नहीीं जानती
कक जवाब ठीक ननकिा, या गित। सोचो, मेरे धचत्त की क्या दशा होगी।
एक हफ्ता होता है, िखनऊ की लमस ररग से भें ट हो गई। वह िेडी डाक्टर हैं और मेरे घर बहुत
आती-जाती हैं। ककसी का लसर भी धमका और लमस ररग बिु ायी गयीीं। पापा जब मेडडकि कािेज में प्रोफेसर
थे, तो उन्होंने इन लमस ररग को पढ़ाया था। उसका एहसान वह अब भी मानती हैं। यहा उन्हें दे खकर भोजन
का ननमींत्रण न दे ना अलशष्टता की हद होती। लमस ररग ने दावत मींजरू कर िी। उस ददन मझ
ु े क्जतनी
कदठनाई हुई, वह बयान नहीीं कर सकती। मैंने कभी अगरे जों के साथ टे बि
ु पर नहीीं खाया। उनमें भोजन के
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क्या लशष्टाचार हैं, इसका मझ
ु े बबिकुि ज्ञान नहीीं। मैंने समझा था, ववनोद मझ
ु े सारी बातें बता दें गे। वह
बरसों अगरे जों के साथ इींग्िैंड रह चक
ु े हैं। मैंने उन्हें लमस ररग के आने की सच
ू ना भी दे दी। पर उस भिे
आदमी ने मानो सन
ु ा ही नहीीं। मैंने भी ननश्चय ककया, मैं तम
ु से कुछ न पछ
ू ू गी, यही न होगा कक लमस ररग
हसेंगी। बिा से। अपने ऊपर बार-बार झझिाती
ु थी कक कहा लमस ररग को बि
ु ा बैठी। पडोस के बगिों में
कई हमी-जैसे पररवार रहते हैं। उनसे सिाह िे सकती थी। पर यही सींकोच होता था कक ये िोग मझ
ु े
गवाररन समझेंगे। अपनी इस वववशता पर थोडी दे र तक आसू भी बहाती रही। आखखर ननराश होकर अपनी
बद्
ु धध से काम लिया। दसू रे ददन लमस ररग आयीीं। हम दोनों भी मेज पर बैठे। दावत शरू
ु हुई। मैं दे खती थी
कक ववनोद बार-बार झेंपते थे और लमस ररग बार-बार नाक लसकोडती थीीं, क्जससे प्रकट हो रहा था कक
लशष्टाचार की मयामदा भींग हो रही है । मैं शमम के मारे मरी जाती थी। ककसी भानत ववपवत्त लसर सके टिी।
तब मैंने कान पकडे कक अब ककसी अगरे ज की दावत न करूगी। उस ददन से दे ख रही हू, ववनोद मझ ु से कुछ
खखींचे हुए हैं। मैं भी नहीीं बोि रही हू। वह शायद समझते हैं कक मैंने उनकी भद्द करा दी। मैं समझ रही हू।
कक उन्होंने मझ
ु े िक्जजत िक्जजत ककया। सच कहती हू, चन्दा, गह
ृ स्थी के इन झींझटों में मझ
ु े अब ककसी से
हसने बोिने का अवसर नहीीं लमिता। इधर महीनों से कोई नयी पस् ु तक नहीीं पढ़ सकी। ववनोद की
ववनोदशीिता भी न जाने कहा चिी गयी। अब वह लसनेमा या धथएटर का नाम भी नहीीं िेत।े हा , मैं चिू तो
वह तैयार हो जायेंगे। मैं चाहती हू, प्रस्ताव उनकी ओर से हो, मैं उसका अनम ु ोदन करू। शायद वह पदहिे की
आदतें छोड रहे हैं। मैं तपस्या का सींकल्प उनके मख ु पर अींककत पाती हू। ऐसा जान पडता है , अपने में गह ृ -
सींचािन की शक्क्त न पाकर उन्होंने सारा भार मझ ु पर डाि ददया है । मींसरू ी में वह घर के सींचािक थे। दो-
ढाई महीने में पन्द्रह सौ खचम ककये। कहा से िाये, यह में अब तक नहीीं जानती। पास तो शायद ही कुछ रहा
हो। सींभव है ककसी लमत्र से िे लिया हो। तीन सौ रुपये महीने की आमदनी में धथएटर और लसनेमा का
क्जक्र ही क्या ! पचास रुपये तो मकान ही के ननकि जाते हैं। मैं इस जींजाि से तींग आ गयी हू। जी चाहता
है , ववनोद से कह द ू कक मेरे चिाये यह ठे िा न चिेगा। आप तो दो-ढाई घींटा यनू नवलसमटी में काम करके
ददन-भर चैन करें , खूब टे ननस खेिें, खूब उपन्यास पढ़ें , खूब सोयें और मैं सब
ु ह से आधी रात तक घर के
झींझटों में मरा करू। कई बार छे डने का इरादा ककया, ददि में ठानकर उनके पास गयी भी, िेककन उनका
सामीप्य मेरे सारे सींयम, सारी ग्िानन, सारी ववरक्क्त को हर िेता है । उनका ववकलसत मख
ु मींडि, उनके
अनरु क्त नेत्र, उनके कोमि शब्द मझ
ु पर मोदहनी मींत्र-सा डाि दे ते हैं। उनके एक आलिींगन में मेरी सारी
वेदना वविीन हो जाती है। बहुत अच्छा होता, अगर यह इतने रूपवान ्, इतने मधरु भाषी, इतने सौम्य न होते।
तब कदाधचत ् मैं इनसे झगड बैठती, अपनी कदठनाइया कह सकती। इस दशा में तो इन्होंने मझ ु े जैसे भेड
बना लिया है। मगर माया को तोडने का मौका तिाश कर रही हू। एक तरह से मैं अपना आत्म-सम्मान खो
बैठी हू। मैं क्यों हर एक बात में ककसी की अप्रसन्नता से डरती रहती हू ? मझ ु में क्यों यह भाव नहीीं आता
कक जो कुछ मैं कर रही हू, वह ठीक है । मैं इतनी मख ु ापेक्षा क्यों करती हू ? इस मनोववृ त्त पर मझ
ु े ववजय
पाना है, चाहे जो कुछ हो। अब इस वक्त ववदा होती हू। अपने यहा के समाचार लिखना, जी िगा है ।

तुम्हारी,
पद्मा

8
काशी
25-12-25
प्यारी पद्मा,
तुम्हारा पत्र पढ़कर मझ ु े कुछ द:ु ख हुआ, कुछ हसी आयी, कुछ क्रोध आया। तुम क्या चाहती हो, यह
तुम्हें खुद नहीीं मािम ू । तुमने आदशम पनत पाया है, व्यथम की शींकाओीं से मन को अशाींत न करो। तम ु
स्वाधीनता चाहती थीीं, वह तुम्हें लमि गयी। दो आदलमयों के लिए तीन सौ रुपये कम नहीीं होते। उस पर
अभी तुम्हारे पापा भी सौ रुपये ददये जाते हैं। अब और क्या करना चादहए? मझ
ु े भय होता है कक तुम्हारा
धचत्त कुछ अव्यवक्स्थत हो गया है। मेरे पास तुम्हारे लिए सहानभ
ु नू त का एक शब्द भी नहीीं।
मैं पन्द्रह तारीख को काशी आ गयी। स्वामी स्वयीं मझ
ु े ववदा कराने गये थे। घर से चिते समय बहुत
रोई। पहिे मैं समझती थी कक िडककया झठ ू -मठ
ू रोया करती हैं। कफर मेरे लिए तो माता-वपता का ववयोग
कोई नई बात न थी। गमी, दशहरा और बडे ददन की छुट्दटयों के बाद छ: सािों से इस ववयोग का अनभ
ु व

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कर रही हू। कभी आखों में आसू न आते थे। सहे लियों से लमिने की खश ु ी होती थी। पर अबकी तो ऐसा
जान पडता था कक कोई हृदय को खीींचे िेता है। अम्माजी के गिे लिपटकर तो मैं इतना रोई कक मझ
ु े मछ
ू ाम
आ गयी। वपताजी के पैरों पर िोट कर रोने की अलभिाषा मन में ही रह गयी। हाय, वह रुदन का आनन्द
! उस समय वपता के चरणों पर धगरकर रोने के लिए मैं अपने प्राण तक दे दे ती। यही रोना आता था कक
मैंने इनके लिए कुछ न ककया। मेरा पािन-पोषण करने में इन्होंने क्या कुछ कष्ट न उठाया ! मैं जन्म की
रोधगणी हू। रोज ही बीमार रहती थी। अम्माजी रात-रात भर मझु े गोद में लिये बैठी रह जाती थी। वपताजी
के कन्धों पर चढ़कर उचकने की याद मझु े अभी तक आती है । उन्होंने कभी मझु े कडी ननगाह से नहीीं दे खा।
मेरे लसर में ददम हुआ और उनके हाथों के तोते उड जाते थे। दस वषम की उम्र तक तो यों गए। छ: साि
दे हरादन
ू में गज
ु रे । अब, जब इस योग्य हुई कक उनकी कुछ सेवा करू, तो यों पर झाडकर अिग हो गई। कुि
आठ महीने तक उनके चरणों की सेवा कर सकी और यही आठ महीने मेरे जीवन की ननधध है । मेरी ईश्वर
से यही प्राथमना है कक मेरा जन्म कफर इसी गोद में हो और कफर इसी अतुि वपतस्
ृ नेह का आनन्द भोग।ू
सन्ध्या समय गाडी स्टे शन से चिी। मैं जनाना कमरे में थी और िोग दस
ू रे कमरे में थे। उस वक्त
सहसा मझ ु े स्वामीजी को दे खने की प्रबि इच्छा हुई। सान्त्वना, सहानभ
ु नू त और आश्रय के लिए हृदय व्याकुि
हो रहा था। ऐसा जान पडता था जैसे कोई कैदी कािापानी जा रहा हो।
घींटे भर के बाद गाडी एक स्टे शन पर रुकी। मैं पीछे की ओर खखडकी से लसर ननकािकर दे खने िगी।
उसी वक्त द्वार खुिा और ककसी ने कमरे में कदम रखा। उस कमरे में एक औरत भी न थी। मैंने चौंककर
पीछे दे खा तो एक परु
ु ष। मैंने तरु न्त मह
ु नछपा लिया और बोिी, आप कौन हैं ? यह जनाना कमरा है ।
मरदाने कमरे में जाइए।
परु
ु ष ने खडे-खडे कहा—मैं तो इसी कमरे में बैठूगा। मरदाने कमरे में भीड बहुत है ।
मैंने रोष से कहा—नहीीं, आप इसमें नहीीं बैठ सकते।
‘मैं तो बैठूगा।’
‘आपको ननकिना पडेगा। आप अभी चिे जाइये, नहीीं तो मैं अभी जींजीर खीींच िगी।’

‘अरे साहब, मैं भी आदमी हू, कोई जानवर नहीीं हू। इतनी जगह पडी हुई है । आपका इसमें हरज क्या
है ?’
गाडी ने सीटी दी। मैं और घबराकर बोिी—आप ननकिते हैं, या मैं जींजीर खीींचू ?
परु
ु ष ने मस्
ु कराकर कहा—आप तो बडी गस्
ु सावर मािम
ू होती हैं। एक गरीब आदमी पर आपको जरा
भी दया नहीीं आती ?
गाडी चि पडी। मारे क्रोध और िजजा के मझ
ु े पसीना आ गया। मैंने फौरन द्वार खोि ददया और
बोिी—अच्छी बात है , आप बैदठए, मैं ही जाती हू।
बहन, मैं सच कहती हू, मझु े उस वक्त िेशमात्र भी भय न था। जानती थी, धगरते ही मर जाऊगी, पर
एक अजनबी के साथ अकेिे बैठने से मर जाना अच्छा था। मैंने एक पैर िटकाया ही था कक उस परु
ु ष ने
मेरी बाह पकड िी और अन्दर खीींचता हुआ बोिा—अब तक तो आपने मझ ु े कािेपानी भेजने का सामान कर
ददया था। यहा और कोई तो है नहीीं, कफर आप इतना क्यों घबराती हैं। बैदठए, जरा हलसए-बोलिए। अगिे
स्टे शन पर मैं उतर जाऊगा, इतनी दे र तक कृपा-कटाक्ष से वींधचत न कीक्जए। आपको दे खकर ददि काबू से
.......
बाहर हुआ जाता है । क्यों एक गरीब का खन
ू लसर पर िीक्जएगा।
मैंने झटककर अपना हाथ छुटा लिया। सारी दे ह कापने िगी। आखों में आसू भर आये। उस वक्त
अगर मेरे पास कोई छुरी या कटार होती, तो मैंने जरूर उसे ननकाि लिया होता और मरने-मारने को तैयार
हो गई होती। मगर इस दशा में क्रोध से ओींठ चबाने के लसवा और क्या करती ! आखखर झल्िाना व्यथम
समझकर मैंने सावधान होने की चेष्टा करके कहा—आप कौन हैं ? उसने उसी दढठाई से कहा—तुम्हारे प्रेम
का इच्छुक।
‘आप तो मजाक करते हैं। सच बतिाइए।’
‘सच बता रहा हू, तुम्हारा आलशक हू।’
‘अगर आप मेरे आलशक हैं, तो कम-से-कम इतनी बात माननए कक अगिे स्टे शन पर उतर जाइए।
मझ
ु े बदनाम करके आप कुछ न पायेंगे। मझ
ु पर इतनी दया कीक्जए।’
मैंने हाथ जोडकर यह बात कही। मेरा गिा भी भर आया था। उस आदमी ने द्वार की ओर जाकर
कहा—अगर आपका यही हुक्म है, तो िीक्जए, जाता हू। याद रखखएगा।

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उसने द्वार खोि लिया और एक पाव आगे बढ़ाया। मझ ु े मािम ू हुआ वह नीचे कूदने जा रहा है ।
बहन, नहीीं कह सकती कक उस वक्त मेरे ददि की क्या दशा हुई। मैंने बबजिी की तरह िपककर उसका हाथ
पकड लिया और अपनी तरफ जोर से खीींच लिया।
उसने ग्िानन से भरे हुए स्वर में कहा—‘क्यों खीींच लिया, मैं तो चिा जा रहा था।’
‘अगिा स्टे शन आने दीक्जए।’
‘जब आप भगा ही रही हैं, तो क्जतनी जल्द भाग जाऊ उतना ही अच्छा।’
‘मैं यह कब कहती हू कक आप चिती गाडी से कूद पडडए।’
‘अगर मझ ु पर इतनी दया है, तो एक बार जरा दशमन ही दे दो।’
‘अगर आपकी स्त्री से कोई दस
ू रा परु
ु ष बातें करता, तो आपको कैसा िगता?’
परु
ु ष ने त्योररया चढ़ाकर कहा—‘मैं उसका खन
ू पी जाता।’
मैंने ननस्सींकोच होकर कहा—तो कफर आपके साथ मेरे पनत क्या व्यवहार करें गे, यह भी आप समझते
होंगे ?
‘तुम अपनी रक्षा आप ही कर सकती हो। वप्रये! तुम्हें पनत की मदद की जरूरत ही नहीीं। अब आओ,
मेरे गिे से िग जाओ। मैं ही तुम्हारा भाग्यशािी स्वामी और सेवक हू।’
मेरा हृदय उछि पडा। एक बार मह ु से ननकिा—अरे ! आप!!’ और मैं दरू हटकर खडी हो गयी। एक
हाथ िींबा घघट
ू खीींच लिया। मह
ु से एक शब्द न ननकिा।
स्वामी ने कहा—अब यह शमम और परदा कैसा?
मैंने कहा—आप बडे छलिये हैं ! इतनी दे र तक मझ
ु े रुिाने में क्या मजा आया?
स्वामी—इतनी दे र में मैंने तुम्हें क्जतना पहचान लिया, उतना घर के अन्दर शायद बरसों में भी न
पहचान सकता। यह अपराध क्षमा करो। क्या तुम सचमच
ु गाडी से कूद पडतीीं ?
‘अवश्य?’
‘बडी खैररयत हुई, मगर यह ददल्िगी बहुत ददनों याद रहे गी।’ मेरे स्वामी औसत कद के, साविे,
चेचकरू, दब
ु िे आदमी हैं। उनसके कहीीं रूपवान ् परु
ु ष मैंने दे खे हैं: पर मेरा हृदय ककतना उल्िलसत हो रहा था
! ककतनी आनन्दमय सन्तुक्ष्ट का अनभ
ु व कर रही थी, मैं बयान नहीीं कर सकती।
मैंने पछ
ू ा—गाडी कब तक पहुचेगी ?
‘शाम को पहुच जायेंगे।’
मैंने दे खा, स्वामी का चेहरा कुछ उदास हो गया है। वह दस लमनट तक चप
ु चाप बैठे बाहर की तरफ
ताकते रहे । मैंने उन्हें केवि बात में िगाने ही के लिए यह अनावश्यक प्रश्न पछ
ू ा था। पर अब भी जब वह
न बोिे तो मैंने कफर न छे डा। पानदान खोिकर पान बनाने िगी। सहसा, उन्होंने कहा—चन्दा, एक बात कहू
?
मैंने कहा—हा-हा, शौक से कदहए।
उन्होंने लसर झक ु ाकर शमामते हुए कहा—मैं जानता कक तुम इतनी रूपवती हो, तो मैं तुमसे वववाह न
करता। अब तुम्हें दे खकर मझ ु े मािमू हो रहा है कक मैंने तम्
ु हारे साथ अन्याय ककया है । मैं ककसी तरह
तुम्हारे योग्य न था।
मैंने पान का बीडा उन्हें दे ते हुए कहा—ऐसी बातें न कीक्जए। आप जैसे हैं, मेरे सवमस्व हैं। मैं आपकी
दासी बनकर अपने भाग्य को धन्य मानती हू।
दस
ू रा स्टे शन आ गया। गाडी रुकी। स्वामी चिे गये। जब-जब गाडी रुकती थी, वह आकर दो-चार बातें
कर जाते थे। शाम को हम िोग बनारस पहुच गए। मकान एक गिी में है और मेरे घर से बहुत छोटा है।
इन कई ददनों में यह भी मािम
ू हो रहा है कक सासजी स्वभाव की रूखी हैं। िेककन अभी ककसी के बारे में
कुछ नहीीं कह सकती। सम्भव है, मझ
ु े भ्रम हो रहा हो। कफर लिखूगी। मझ
ु े इसकी धचन्ता नहीीं कक घर कैसा
है , आधथमक दशा कैसी है , सास-ससरु कैसे हैं। मेरी इच्छा है कक यहा सभी मझ
ु से खुश रहें । पनतदे व को
मझ
ु से प्रेम है , यह मेरे लिए काफी है । मझ
ु े और ककसी बात की परवा नहीीं। तुम्हारे बहनोईजी का मेरे पास
बार-बार आना सासजी को अच्छा नहीीं िगता। वह समझती हैं, कहीीं यह लसर न चढ़ जाय। क्यों मझ
ु पर
उनकी यह अकृपा है, कह नहीीं सकती; पर इतना जानती हू कक वह अगर इस बात से नाराज होती हैं, तो
हमारे ही भिे के लिए। वह ऐसी कोई बात क्यों

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करें गी, क्जसमें हमारा दहत न हो। अपनी सन्तान का अदहत कोई माता नहीीं कर सकती। मझ
ु ही में कोई
बरु ाई उन्हें नजर आई होगी। दो-चार ददन में आप ही मािम
ू हो जाएगा ! अपने यहा के समाचार लिखना।
जवाब की आशा एक महीने के पहिे तो है नहीीं, यों तम्
ु हारी खश
ु ी।

तुम्हारी,
चन्दा

9
ददल्िी
1-2-26
प्यारी बहन,
तम्
ु हारे प्रथम लमिन की कुतह
ू िमय कथा पढ़कर, धचत्त प्रसन्न हो गया। मझ
ु े तम्
ु हारे ऊपर हसद हो
रहा है। में ने समझा था, तम्
ु हें मझ
ु पर हसद होगा, पर कक्रया उिटी हो गयी, तम्
ु हें चारों ओर हररयािी ही
नजर आती है, मैं क्जधर नजर डािती हू, सख
ू े रे त और नग्न टीिों के लसवा और कुछ नहीीं। खैर ! अब कुछ
मेरा वत्त
ृ ान्त सन
ु ो—
“अब क्जगर थामकर बैठो, मेरी बारी आयी।”
ववनोद की अववचलित दशमननकता अब असह्य हो गयी है । कुछ ववधचत्र जीव हैं, घर में आग िगे, पत्थर
पडे इनकी बिा से। इन्हें मझ
ु पर जरा भी दया नहीीं आती। मैं सब
ु ह से शाम तक घर के झींझटों में कुढ़ा
करू, इन्हें कुछ परवाह नहीीं। ऐसा सहानभ
ु नू त से खािी आदमी कभी नहीीं दे खा था। इन्हें तो ककसी जींगि में
तपस्या करनी चादहए थी। अभी तो खैर दो ही प्राणी हैं, िेककन कहीीं बाि-बच्चे हो गये तब तो मैं बे-मौत मर
जाऊगी। ईश्वर न करे , वह दारुण ववपवत्त मेरे लसर पडे।
चन्दा, मझु े अब ददि से िगी हुई है कक ककसी भानत इनकी वह समाधध भींग कर द।ू मगर कोई उपाय
सफि नहीीं होता, कोई चाि ठीक नहीीं पडती। एक ददन मैंने उनके कमरे के िींप का बल्व तोड ददया। कमरा
अधेरा पडा रहा। आप सैर करके आये, तो कमरा अधेरा दे खा। मझ
ु से पछ
ू ा, मैंने कह ददया बल्ब टूट गया।
बस, आपने भोजन ककया और मेरे कमरे में आकर िेट रहे । पत्रों और उपन्यासों की ओर दे खा तक नहीीं, न-
जाने वह उत्सक
ु ता कहा वविीन हो गयी। ददन-भर गज
ु र गया, आपको बल्व िगवाने की कोई कफक्र नहीीं।
आखखर, मझ
ु ी को बाजार से िाना पडा।
एक ददन मैंने झझिाकर
ु रसोइये को ननकाि ददया। सोचा जब िािा रात-भर भख
ू े सोयेंगे, तब आखें
खि
ु ेंगी। मगर इस भिे आदमी ने कुछ पछ
ू ा तक नहीीं। चाय न लमिी, कुछ परवाह नहीीं। ठीक दस बजे
आपने कपडे पहने, एक बार रसोई की ओर जाकर दे खा, सन्नाटा था। बस, कािेज चि ददये। एक आदमी
पछ
ू ता है, महाराज कहा गया, क्यों गया; अब क्या इन्तजाम होगा, कौन खाना पकायेगा, कम-से-कम इतना तो
मझ
ु से कह सकते थे कक तुम अगर नहीीं पका सकती, तो बाजार ही से कुछ खाना मगवा िो। जब वह चिे
गए, तो मझ ु े बडा पश्चात्ताप हुआ। रायि होटि से खाना मगवाया और बैरे के हाथ कािेज भेज ददया। पर
खुद भखू ी ही रही। ददन-भर भख ू के मारे बरु ा हाि था। लसर में ददम होने िगा। आप कािेज से आए और
मझ
ु े पडे दे खा तो ऐसे परे शान हुए मानो मझ ु े बत्रदोष है । उसी वक्त एक डाक्टर बि
ु ा भेजा। डाक्टर आये,
आखें दे खी, जबान दे खी, हरारत दे खी, िगाने की दवा अिग दी, पीने की अिग, आदमी दवा िेने गया। िौटा
तो बारह रुपये का बबि भी था। मझ
ु े इन सारी बातों पर ऐसा क्रोध आ रहा था कक कहा भागकर चिी
जाऊ। उस पर आप आराम-कुसी डािकर मेरी चारपाई के पास बैठ गए और एक-एक पि पर पछ
ू ने िगे
कैसा जी है ?
ददम कुछ कम हुआ ? यहा मारे भख ू के आतें कुिकुिा रही थी। दवा हाथ से छुई तक नहीीं।
आखखर झख मारकर मैंने कफर बैरे से खाना मींगवाया। कफर चाि उिटी पडी। मैं डरी कक कहीीं सबेरे कफर यह
महाशय डाक्टर को न बि
ु ा बैठैं, इसलिए सबेरा होते ही हारकर कफर घर के काम-धन्धे में िगी। उसी वक्त
एक दस
ू रा महाराज बि
ु वाया। अपने परु ाने महाराज को बेकसरू ननकािकर दण्डस्वरूप एक काठ के उल्िू को
रखना पडा, जो मामि
ू ी चपानतया भी नहीीं पका सकता। उस ददन से एक नयी बिा गिे पडी। दोनों वक्त दो
घींटे इस महाराज को लसखाने में िग जाते हैं। इसे अपनी पाक-किा का ऐसा घमण्ड है कक मैं चाहे क्जतना
बकू, पर करता अपने ही मन की है । उस पर बीच-बीच में मस्
ु कराने िगता है, मानो कहता हो कक ‘तम
ु इन
बातों को क्या जानो, चप
ु चाप बैठी दे ख्ती जाव।’ जिाने चिी थी ववनोद को और खद
ु जि गयी। रुपये खचम

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हुए, वह तो हुए ही, एक और जींजाि में फस गयी। मैं खद ु जानती हू कक ववनोद का डाक्टर को बि ु ाना या
मेरे पास बैठे रहना केवि ददखावा था। उनके चेहरे पर जरा भी घबराहट न थी, धचत्त जरा भी अशाींत न था।
चींदा, मझ
ु े क्षमा करना। मैं नहीीं जानती कक ऐसे परु
ु ष के पािे पडकर तम्
ु हारी क्या दशा होती, पर मेरे
लिए इस दशा में रहना असह्य है। मैं आगे जो वत्तृ ान्त कहने वािी हू, उसे सन
ु कर तुम नाक-भौं लसकोडोगी,
मझु े कोसोगी, किींककनी कहोगी; पर जो चाहे कहो, मझ ु े परवा नहीीं। आज चार ददन होते हैं, मैंने बत्रया-चररत्र
का एक नया अलभनय ककया। हम दोनों लसनेमा दे खने गये थे। वहा मेरी बगि में एक बींगािी बाबू बैठे हुए
थे। ववनोद लसनेमा में इस तरह बैठते हैं, मानो ध्यानावस्था में हों। न बोिना, न चािना! कफल्म इतनी सन्
ु दर
थी, ऐक्क्टीं ग इतनी सजीव कक मेरे मह
ु से बार-बार प्रशींसा के शब्द ननकि जाते थे। बींगािी बाबू को भी बडा
आनन्द आ रहा था। हम दोनों उस कफल्म पर आिोचनाए करने िगे। वह कफल्म के भावों की इतनी रोचक
व्याख्या करता था कक मन मग्ु ध हो जाता था। कफल्म से जयादा मजा मझ
ु े उसकी बातों में आ रहा था।
बहन, सच कहती हू, शक्ि-सरू त में वह ववनोद के तिओ
ु ीं की बराबरी भी नहीीं कर सकता, पर केवि ववनोद
को जिाने के लिए मैं उससे मस् ु करा-मस्
ु करा कर बातें करने िगी। उसने समझा, कोई लशकार फस गया।
अवकाश के समय वह बाहर जाने िगा, तो मैं भी उठ खडी हुई; पर ववनोद अपनी जगह पर ही बैठे रहे ।
मैंने कहा—बाहर चिते हो, मेरी तो बैठे-बैठे कमर दख
ु गयी।
ववनोद बोिे—हा-हा चिो, इधर-उधर टहि आयें। मैंने िापरवाही से कहा—तुम्हारा जी न चाहे तो मत
चिो, मैं मजबरू नहीीं करती।
ववनोद कफर अपनी जगह पर बैठते हुए बोिे—अच्छी बात है ।
मैं बाहर आयी तो बींगािी बाबू ने पछ
ू ा—क्या आप यहीीं की रहने वािी हैं ? ‘मेरे पनत यहा यनू नवलसमटी
में प्रोफेसर हैं।’
‘अच्छा! वह आपके पनत थे। अजीब आदमी हैं।’
‘आपको तो मैंने शायद यहा पहिे ही दे खा है ।’
‘हा, मेरा मकान तो बींगाि में है । कींचनपरु के महाराज साहब का प्राइवेट सेक्रेटरी हू। महाराजा साहब
वाइसराय से लमिने आये हैं। ’
‘तो अभी दो-चार ददन रदहएगा?’
‘जी हा, आशा तो करता हू। रहू तो साि-भर रह जाऊ। जाऊ तो दस ू री गाडी से चिा जाऊ। हमारे
महाराजा साहब का कुछ ठीक नहीीं। यों बडे सजजन और लमिनसार हैं। आपसे लमिकर बहुत खश ु होंगे।
यह बातें करते-करते हम रे स्रा में पहुच गये। बाबू ने चाय और टोस्ट लिया। मैंने लसफम चाय िी।
‘तो इसी वक्त आपका महाराजा साहब से पररचय करा दीं ।ू आपको आश्चयम होगा कक मक
ु ु टधाररयों में
भी इतनी नम्रता और ववनय हो सकती है। उनकी बातें सन
ु कर आप मग्ु ध हो जायगी।’
मैंने आईने में अपनी सरू त दे खकर कहा—जी नहीीं, कफर ककसी ददन पर रखखए। आपसे तो अक्सर
मि
ु ाकात होती रहे गी। क्या आपकी स्त्री आपके साथ नहीीं आयीीं ?
यव
ु क ने मस् ु कराकर कहा—मैं अभी क्वारा हू और शायद क्वारा ही रहू?
मैंने उत्सक
ु होकर पछ ू ा—अच्छा! तो आप भी क्स्त्रयों से भागने वािे जीवों में हैं। इतनी बातें तो हो
गयी और आपका नाम तक न पछ
ू ा।
बाबू ने अपना नाम भव
ु नमोहन दास गप्ु त बताया। मैंने अपना पररचय ददया।
‘जी नहीीं, मैं उन अभागों में हू, जो एक बार ननराश होकर कफर उसकी परीक्षा नहीीं करते। रूप की तो
सींसार में कमी नहीीं, मगर रूप और गण ु का मेि बहुत कम दे खने में आता है। क्जस रमणी से मेरा प्रेम था,
वह आज एक बडे वकीि की पत्नी है । मैं गरीब था। इसकी सजा मझ
ु े ऐसी लमिी कक जीवनपयमन्त न
भि
ू ेगी। साि-भर तक क्जसकी उपासना की, जब उसने मझ
ु े धन पर बलिदान कर ददया, तो अब और क्या
आशा रख?ू
मैंने हसकर कहा—‘आपने बहुत जल्द दहम्मत हार दी।’
भवु न ने सामने द्वार की ओर ताकते हुए कहा—मैंने आज तक ऐसा वीर ही नहीीं दे खा, जो रमखणयों
से परास्त न हुआ हो। ये हृदय पर चोट करती हैं और हृदय एक ही गहरी चोट सह सकता है। क्जस रमणी
ने मेरे प्रेम को तच्
ु छ समझकर पैरों से कुचि ददया, उसको मैं ददखाना चाहता हू कक मेरी आखों में धन
ककतनी तुच्छ वस्तु है , यही मेरे जीवन का एकमात्र उद्दे श्य है । मेरा जीवन उसी ददन सफि होगा, जब

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ववमिा के घर के सामने मेरा ववशाि भवन होगा और उसका पनत मझ
ु से लमिने में अपना सौभाग्य
समझेगा।
मैंने गम्भीरता से कहा—यह तो कोई बहुत ऊचा उद्दे श्य नहीीं है। आप यह क्यों समझते हैं कक ववमिा
ने केवि धन के लिए आपका पररत्याग ककया। सम्भव है , इसके और भी कारण हों। माता-वपता ने उस पर
दबाव डािा हो, या अपने ही में उसे कोई ऐसी त्रदु ट ददखिाई दी हो, क्जससे आपका जीवन द:ु खमय हो जाता।
आप यह क्यों समझते हैं कक क्जस प्रेम से वींधचत होकर आप इतने द:ु खी हुए, उसी प्रेम से वींधचत होकर वह
सख
ु ी हुई होगी। सम्भव था, कोई धनी स्त्री पाकर आप भी कफसि जाते।
भव
ु न ने जोर दे कर कहा—यह असम्भव है , सवमथा असम्भव है। मैं उसके लिए बत्रिोक का राजय भी
त्याग दे ता।
मैंने हसकर कहा—हा, इस वक्त आप ऐसा कह सकते हैं; मगर ऐसी परीक्षा में पडकर आपकी क्या
दशा होती, इसे आप ननश्चयपव
ू क
म नहीीं बता सकते। लसपाही की बहादरु ी का प्रमाण उसकी तिवार है , उसकी
जबान नहीीं। इसे अपना सौभाग्य समखझए कक आपको उस परीक्षा में नहीीं पडना पडा। वह प्रेम, प्रेम नहीीं है ,
जो प्रत्याघात की शरण िे। प्रेम का आदद भी सहृदयता है और अन्त भी सहृदयता। सम्भव है , आपको अब
भी कोई ऐसी बात मािम
ू हो जाय, जो ववमिा की तरफ से आपको नमम कर दे ।
भव
ु न गहरे ववचार में डूब गया। एक लमनट के बाद उन्होंने लसर उठाया। और बोिे—‘लमसेज ववनोद,
आपने आज एक ऐसी बात सझ
ु ा दी, जो आज तक मेरे ध्यान में आयी ही न थी। यह भाव कभी मेरे मन में
उदय ही नहीीं हुआ। मैं इतना अनद
ु ार क्यों हो गया, समझ में नहीीं आता। मझु े आज मािम
ू हुआ कक प्रेम के
ऊचे आदशम का पािन रमखणया ही कर सकती हैं। परु ु ष कभी प्रेम के लिए आत्म-समपमण नहीीं कर सकता
— वह प्रेम को स्वाथम और वासना से पथ
ृ क नहीीं कर सकता। अब मेरा जीवन सख
ु मय हो जायगा। आपने
मझ ु े आज लशक्षा दी है , उसके लिए आपको धन्यवाद दे ता हू।’
यह कहते-कहते भव ु न सहसा चौंक पडे और बोिे—ओह! मैं ककतना बडा मखू म हू—सारा रहस्य समझ
में आ गया, अब कोई बात नछपी नहीीं है । ओह, मैंने ववमिा के साथ घोर अन्याय ककया! महान ् अन्याय! मैं
बबल्कुि अींधा हो गया था। ववमिा, मझ
ु े क्षमा करो।
भव
ु न इसी तरह दे र तक वविाप करते रहे । बार-बार मझ
ु े धन्यवाद दे ते थे और मख
ू त
म ा पर पछताते थे।
हमें इसकी सध ु ही न रही कक कब घींटी बजी, कब खेि शरू
ु हुआ। यकायक ववनोद कमरे में आए। मैं चौंक
पडी। मैंने उनके मख
ु की ओर दे खा, ककसी भाव का पता न था। बोिे—तम
ु अभी यही हो, पद्मा! खेि शरूु
हुए तो दे र हुई! मैं चारों तरफ तम्
ु हें खोज रहा था।
मैं हकबकाकर उठ खडी हुई और बोिी—खेि शरू ु हो गया? घींटी की आवाज तो सनु ायी ही नहीीं दी।
भव
ु न भी उठे । हम कफर आकर तमाशा दे खने िगे। ववनोद ने मझ ु े अगर इस वक्त दो-चार िगने
वािी बातें कह दी होतीीं, उनकी आखों में क्रोध की झिक ददखायी दे ती, तो मेरा अशान्त हृदय सभि जाता,
मेरे मन को ढाढ़स होती, पर उनके अववचलित ववश्वास ने मझ
ु े और भी अशाींत कर ददया। बहन, मैं चाहती हू,
वह मझ ु पर शासन करें । मैं उनकी कठोरता, उनकी उद्दण्डता, उनकी बलिष्ठता का रूप दे खना चाहती हू।
उनके प्रेम, प्रमोद, ववश्वास का रूप दे ख चक
ु ी। इससे मेरी आत्मा को तक्ृ प्त नहीीं होती ! तुम उस वपता को
क्यों कहोगी, जो अपने पत्र
ु को अच्छा खखिाये, अच्छा पहनाये, पर उसकी लशक्षा-दीक्षा की कुछ धचनता न करे ;
वह क्जस राह जाय, उस राह जाने दे ; जो कुछ करे , वह करने दे । कभी उसे कडी आख से दे खे भी नहीीं। ऐसा
िडका अवश्य ही आवारा हो जायगा। मेरा भी वही हाि हुआ जाता है । यह उदासीनता मेरे लिए असह्य है ।
इस भिे आदमी ने यहा तक न पछ ू ा कक भवु न कौन है ? भव
ु न ने यही तो समझा होगा कक इसका पनत
इसकी बबल्कुि परवाह नहीीं करता। ववनोद खुद स्वाधीन रहना चाहते हैं, मझ
ु े भी स्वाधीन छोड दे ना चाहते
हैं। वह मेरे ककसी काम में हस्तक्षेप नहीीं करना चाहते। इसी तरह चाहते हैं कक मैं भी उनके ककसी काम में
हस्तक्षेप न करू मैं इस स्वाधीनता को दोनों ही के लिए ववष तुल्य समझती हू। सींसार में स्वाधीनता का
चाहे जो भी मल्
ू य हो, घर में तो पराधीनता ही फिती-फूिती है। मैं क्जस तरह अपने एक जेवर को अपना
समझती हू, उसी तरह ववनोद को अपना समझना चाती हू। अगर मझ ु से पछ
ू े बबना ववनोद उसे ककसी को दे
दें , तो मैं िड पडूगी। मैं चाहती हू, कहा हू, क्या पढ़ती हू, ककस तरह जीवन जीवन व्यतीत करती हू, इन सारी
बातों पर उनकी तीव्र दृक्ष्ट रहनी चादहए। जब वह मेरी परवाह नहीीं करते, तो मैं उनकी परवाह क्यों करू? इस
खीींचातानी में हम एक-दस
ू रे से अिग होते चिे जा रहे हैं और क्या कहू, मझ
ु े कुछ नहीीं मािम
ू कक वह ककन

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लमत्रों को रोज पत्रा लिखते हैं। उन्होंने भी मझ
ु से कभी कुछ नहीीं पछ
ू ा। खैर, मैं क्या लिख रही थी, क्या
कहने िगी। ववनोद ने मझ
ु से कुछ नहीीं पद
ू ा। मैं कफर भव
ु न से कफल्म के सम्बन्ध में बातें करने िगी।
जब खेि खत्म हो गया और हम िोग बाहर आए और तागा ठीक करने िगे, तो भव
ु न ने कहा—‘मैं
अपनी कार में आपको पहुचा दगा।’

हमने कोई आपवत्त नहीीं की। हमारे मकान का पता पछ
ू कर भव
ु न ने कार चिा दी। रास्ते में मैंने भव
ु न
से कहा—‘कि मेरे यहा दोपहर का खाना खाइएगा।’ भव
ु न ने स्वीकार कर लिया।
भव ु न तो हमें पहुचाकर चिे गए, पर मेरा मन बडी दे र तक उन्हीीं की तरफ िगा रहा। इन दो-तीन
घींटों में भवु न को क्जतना समझी, उतना ववनोद को आज तक नहीीं समझी। मैंने भी अपने हृदय की क्जतनी
बातें उससे कह दीीं, उतनी ववनोद से आज तक नहीीं कहीीं। भव
ु न उन मनष्ु यों में है, जो ककसी पर परु
ु ष को
मेरी कुदृक्ष्ट डािते दे खकर उसे मार डािेगा। उसी तरह मझ
ु े ककसी परु
ु ष से हसते दे खकर मेरा खन
ू पी िेगा
और जरूरत पडेगी, तो मेरे लिए आग में कूद पडेगा। ऐसा ही परु
ु ष-चररत्र मेरे हृदय पर ववजय पर सकता
है ।मेरे ही हृदय पर नहीीं, नारी-जानत (मेरे ववचार में ) ऐसे ही परु
ु ष पर जान दे ती हैं। वह ननबमि है, इसलिए
बिवान ् का आश्रय ढूढ़ती है ।
बहन, तुम ऊब गई होगी, खत बहुत िम्बा हो गया; मगर इस काण्ड को समाप्त ककए बबना नहीीं रहा
जाता। मैंने सबेरे ही से भव
ु न की दावत की तैयारी शरू
ु कर दी। रसोइया तो काठ का उल्िू है , मैंने सारा
काम अपने हाथ से ककया। भोजन बनाने में ऐसा आनन्द मझ
ु े और कभी न लमिा था।
भव
ु न बाबू की कार ठीक समय पर आ पहुची। भव ु न उतरे और सीधे मेरे कमरे में आए। दो-चार बातें
हुईं। डडनर-टे बि पर जा बैठे। ववनोद भी भोजन करने आए। मैंने उन दोनों आदलमयों का पररचय करा ददया।
मझ ु े ऐसा मािम ू हुआ कक ववनोद ने भवु न की ओर से कुछ उदासीनता ददखायी। इन्हें राजाओीं-रईसों से धचढ़
है , साम्यवादी हैं। जब राजाओीं से धचढ़ है तो उनके वपट्ठुओीं से क्यों न होती। वह समझते हैं, इन रईसों के
दरबार में खुशामदी, ननकम्मे, लसद्धान्तहीन, चररत्रहीन िोगों का जमघट रहता है , क्जनका इसके लसवाय और
कोई काम नहीीं कक अपने रईस की हर एक उधचत-अनधु चत इच्छा परू ी करें और प्रजा का गिा काटकर
अपना घर भरें । भोजन के समय बातचीत की धारा घम
ू ते-घम
ू ते वववाह और प्रेम-जैसे महत्त्व के ववषय पर
आ पहुची।
ववनोद ने कहा—‘नहीीं, मैं वतममान वैवादहक प्रथा को पसन्द नहीीं करता। इस प्रथा का आववष्कार उस
समय हुआ था, जब मनष्ु य सभ्यता की प्रारक्म्भक दशा में था। तब से दनु नयाीं बहुत आगे बढ़ी है । मगर
वववाह प्रथा में जौ-भर भी अन्तर नहीीं पडा। यह प्रथा वतममान काि के लिए इपयोगी नहीीं।’
भव
ु न ने कहा—‘आखखर आपको इसमें क्या दोष ददखाई दे ते हैं ?
ववनोद ने ववचारकर कहा—‘इसमें सबसे बडा ऐब यह है कक यह एक सामाक्जक प्रश्न को धालममक रूप
दे दे ता है।’
‘और दस
ू रा?’
‘दस
ू रा यह कक यह व्यक्क्तयों की स्वाधीनता में बाधक हैं। यह स्त्रीव्रत और पनतव्रत का स्वाग रचकर
हमारी आत्मा को सींकुधचत कर दे ता है । हमारी बद्
ु धध के ववकास में क्जतनी रुकावट इस प्रथा ने डािी है ,
उतनी और ककसी भौनतक या दै ववक क्राींनत से भी नहीीं हुई। इसने लमथ्या आदशों को हमारे सामने रख ददया
और आज तक हम उन्हीीं परु ानी, सडी हुई, िजजाजनक पाशववक िकीरों को पीटते जाते हैं। व्रत केवि एक
ननरथमक बींधन का नाम है । इतना महत्त्वपण
ू म नाम दे कर हमने उस कैद को धालममक रूप दे ददया है। परु
ु ष
क्यों चाहता है कक स्त्री उसको अपना ईश्वर, अपना सवमस्व समझे ? केवि इसलिए कक वह उसका भरण-
पोषण करता है । क्या स्त्री का कत्तमव्य केवि परु
ु ष की सम्पवत्त के लिए वाररस पैदा करना है ? उस सम्पवत्त के
लिए क्जस पर, दहन्द ू नीनतशास्त्र के अनस
ु ार, पनत के दे हान्त के बाद उसका कोई अधधकार नहीीं रहता।
समाज की यह सारी व्यवस्था, सारा सींगठन सम्पवत्त-रक्षा के आधार पर हुआ है । इसने सम्पवत्त को प्रधान
और व्यक्क्त को गौण कर ददया है। हमारे ही वीयम से उत्पन्न सन्तान हमारी कमाई हुई जायदाद का भोग
करे , इस मनोभाव में ककतनी स्वाथामन्धता, ककतना दासत्व नछपा हुआ है, इसका कोई अनम ु ान नहीीं कर
सकता। इस कैद में जकडी हुई समाज की सन्तान यदद आज घर में, दे श में , सींसार में, अपने क्रूर स्वाथम के
लिए रक्त की नददया बहा रही है , तो क्या आश्चयम है । मैं इस वैवादहक प्रथा को सारी बरु ाइयों का मि

समझता हू।

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भव
ु न चककत हो गया। मैं खद
ु चककत हो गई। ववनोद ने इस ववषय पर मझ
ु से कभी इतनी स्पष्टता
से बातचीत न की थी। मैं यह तो जानती थी, वह साम्यवादी हैं, दो-एक बार इस ववषय पर उनसे बहस भी
कर चक
ु ी हू , पर वैवादहक प्रथा के वे इतने ववरोधी हैं, यह मझ
ु े मािम
ू न था। भव
ु न के चेहरे से ऐसा प्रकट
होता था कक उन्होंने ऐसे दाशमननक ववचारों की गींध तक नहीीं पाई। जरा दे र के बाद बोिे—प्रोफेसर साहे ब,
आपने तो मझ
ु े एक बडे चक्कर में डाि ददया। आखखर आप इस प्रथा की जगह कोई और प्रथा रखना चाहते
हैं या वववाह की आवश्यकता ही नहीीं समझते ? क्जस तरह पश-ु पक्षी आपस में लमिते हैं, वह हमें भी करना
चादहए?
ववनोद ने तुरींत उत्तर ददया—बहुत कुछ। पश-ु पखखयों में सभी का मानलसक ववकास एक-सा नहीीं है ।
कुछ ऐसे हैं, जो जोडे के चन ु ाव में कोई ववचार नहीीं रखते। कुछ ऐसे हैं, जो एक बार बच्चे पैदा करने के
बाद अिग हो जाते हैं, और कुछ ऐसे हैं, जो जीवनपयमन्त एक साथ रहते हैं। ककतनी ही लभन्न-लभन्न श्रेखणया
हैं। मैं मनष्ु य होने के नाते उसी श्रेणी को श्रेष्ठ समझता हू, जो जीवनपयमन्त एक साथ रहते हैं। मगर
स्वेच्छा से। उनके यहा कोई कैद नहीीं, कोई सजा नहीीं। दोनों अपने-अपने चारे -दाने की कफक्र करते हैं। दोनों
लमिकर रहने का स्थान बनाते हैं, दोनों साथ बच्चों का पािन करते हैं। उनके बीच में कोई तीसरा नर या
मादा आ ही नहीीं सकता, यहा तक कक उनमें से जब एक मर जाता है तो दस
ू रा मरते दम तक फुट्टै ि रहता
है । यह अन्धेर मनष्ु य-जानत ही में है कक स्त्री ने ककसी दस
ू रे परु
ु ष से हसकर बात की और उसके परु
ु ष की
छाती पर साप िोटने िगा, खून-खराबे के मींसब
ू े सोचे जाने िगे। परु
ु ष ने ककसी दस
ू री स्त्री की ओर रलसक
नेत्रों से दे खा और अधािंधगनी ने त्योररया बदिीीं, पनत के प्राण िेने को तैयार हो गई। यह सब क्या है ? ऐसा
मनष्ु य-समाज सभ्यता का ककस मह
ु से दावा कर सकता है ?
भव
ु न ने लसर सहसिाते हुए कहा—मगर मनष्ु यों में भी तो लभन्न-लभन्न श्रेखणया हैं। कुछ िोग हर
महीने एक नया जोडा खोज ननकािेंगे।
ववनोद ने हसकर कहा—िेककन यह इतना आसान काम न होगा। या तो वह ऐसी स्त्री चाहे गा, जो
सन्तान का पािन स्वयीं कर सकती हो या उसे एक मश्ु त सारी रकम अदा करना पडेगी !
भव
ु न भी हसे—आप अपने को ककस श्रेणी में रक्खेंगे?
ववनोद इस प्रश्न के लिए तैयार न थ। था भी बेढींगा-सा सवाि। झेंपते हुए बोिे—पररक्स्थनतया क्जस
श्रेणी में िे जाय। मैं स्त्री और परु
ु ष दोनों के लिए पण
ू म स्वाधीनता का हामी हू। कोई कारण नहीीं है कक मेरा
मन ककसी नवयौवना की ओर आकवषमत हो और वह भी मझ
ु े चाहे तो भी मैं समाज और नीनत के भय से
उसकी ओर ताक न सकू। मैं इसे पाप नहीीं समझता।
भवु न अभी कुछ उत्तर न दे ने पाये थे कक ववनोद उठ खडे हुए। कािेज के लिए दे र हो रही थी। तरु न्त
कपडे पहने और चि ददये। हम दोनों दीवानखाने में आकर बैठे और बातें करने िगे।
भव
ु न ने लसगार जिाते हुए कहा—‘कुछ सन ु ा’ कहा जाकर तान टूटी?
मैंने मारे शमम के लसर झक
ु ा लिया। क्या जवाब दे ती। ववनोद की अक्न्तम बात ने मेरे हृदय पर कठोर
आघात ककया था। मझ
ु े ऐसा मािम
ू हो रहा था कक ववनोद ने केवि मझ
ु े सन
ु ाने के लिए वववाह का यह नया
खण्डन तैयार ककया है । वह मझ
ु से वपींड छुडा िेना चाहते हैं। वह ककसी रमणी की ताक में हैं, मझ
ु से उनका
जी भर गया। वह ख्याि करके मझ ु े बडा द:ु ख हुआ। मेरी आखों से आसू बहने िगे। कदाधचत ् एकाींत में मैं
न रोती, पर भवु न के सामने मैं सींयत न रह सकी। भव ु न ने मझ
ु े बहुत साींत्वना दी—‘आप व्यथम इतना शोक
करती हैं। लमस्टर ववनोद आपका मान न करें ; पर सींसार में कम-से-कम एक ऐसा व्यक्क्त है , जो आपके
सींकेत पर अपने प्राण तक न्योछावर कर सकता। आप-जैसी रमणी-रत्न पाकर सींसार में ऐसा कौन परु
ु ष है ,
जो अपने भाग्य को धन्य न मानेगा। आप इसकी बबिकुि धचन्ता न करें ।’
मझ
ु े भव
ु न की यह बात बरु ी मािम
ू हुई। क्रोध से मेरा मख ु िाि हो गया। यह धतू म मेरी इस दब
ु ि
म ता
से िाभ उठाकर मेरा सवमनाश करना चाहता है। अपने दभ ु ामग्य पर बराबर रोना आता था। अभी वववाह हुए
साि भी नहीीं परू ा हुआ, मेरी यह दशा हो गई कक दस
ू रों को मझ
ु े बहकाने और मझ
ु पर अपना जाद ू चिाने
का साहस हो रहा है। क्जस वक्त मैंने ववनोद को दे खा था, मेरा हृदय ककतना फूि उठा था। मैंने अपने
हृदय को ककतनी भक्क्त से उनके चरणों पर अपमण ककया था। मगर क्या जानती थी कक इतनी जल्द मैं
उनकी आखों से धगर जाऊगी और मझ
ु े पररत्यक्ता समझ, कफर शोहदे मझ
ु पर डोरे डािेंगे।
मैंने आसू पोंछते हुए कहा—मैं आपसे क्षमा मागती हू। मझ
ु े जरा ववश्राम िेने दीक्जए।
‘हा-हा, आराम करें ; मैं बैठा दे खता रहूगा।’

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‘जी नहीीं, अब आप कृपा करके जाइए। यों मझ
ु े आराम न लमिेगा।’
‘अच्छी बात है , आप आराम कीक्जए। मैं सन्ध्या-समय आकर दे ख जाऊगा।’
‘जी नहीीं, आपको कष्ट करने की कोई जरूरत नहीीं है ।’
‘अच्छा तो मैं कि जाऊगा। शायद महाराजा साहब भी आवें ।’
‘नहीीं, आप िोग मेरे बि
ु ाने का इन्तजार कीक्जएगा। बबना बि
ु ाये न आइएगा।’
‘यह कहती हुई मैं उठकर अपने सोने के कमरे की ओर चिी। भव
ु न एक क्षण मेरी ओर दे खता रहा,
कफर चपु के से चिा गया।
बहन, इसे दो ददन हो गये हैं। पर मैं कमरे से बाहर नहीीं ननकिी। भव
ु न दो-तीन बार आ चक
ु ा है,
मगर मैंने उससे लमिने से साफ इनकार कर ददया। अब शायद उसे कफर आने का साहस न होगा। ईश्वर ने
बडे नाजक
ु मौके पर मझ
ु े सब
ु द्
ु धध प्रदान की, नहीीं तो मैं अब तक अपना सवमनाश कर बैठी होती। ववनोद
प्राय: मेरे पास ही बैठे रहते हैं। िेककन उनसे बोिने को मेरा जी नहीीं चाहता। जो परु
ु ष व्यलभचार का
दाशननमक लसद्धाींतों से समथनम कर सकता है , क्जसकी आखों में वववाह-जैसे पववत्र बन्धन को कोई मल्
ू य नहीीं,
जो न मेरा हो सकता है , न मझ
ु े अपना बना सकता है, उसके साथ मझ
ु -जैसी मानननी गववमणी स्त्री का कै
ददन ननवाम होगा!
बस, अब ववदा होती हू। बहन, क्षमा करना। मैंने तुम्हारा बहुत-सा अमल्
ू य समय िे लिया। मगर इतना
समझ िो कक मैं तुम्हारी दया नहीीं, सहानभ
ु नू त चाहती हू।
तुम्हारी,
पद्मा

10
काशी
5-1-26
बहन,
तुम्हारा पत्र पढ़कर मझ ु े ऐसा मािम
ू हुआ कक कोई उपन्यास पढ़कर उठी हूीं। अगर तुम उपन्यास
लिखों, तो मझ ु ें ववश्वास है , उसकी धम ू मच जाय। तम
ु आप उसकी नानयका बन जाना। तुम ऐसी-ऐसी बातें
कह ॉँ सीख गयी, मझ
ु ें तो यही आश्चयम है । उस बींगािी के साथ तुम अकेिी कैसी बैठी बातें करती रहीीं, मेरी
तो समझ नहीीं आता। मैं तो कभी न कर सकती। तम
ु ववनोद को जिाना चाहती हो, उनके धचत्त को अशाींत
करना चाहती हो। उस गरीब के साथ तम
ु ककतना भयींकर अन्याय कर रही हो ! तम
ु यह क्यों समझती हो
कक ववनोद तम्
ु हारी उपेक्षा कर रहे हैं, अपने ववचारों में इतने मग्न है कक उनकी रुधच ही नहीीं रही। सींभव है ,
वह कोई दाशमननक तत्व खोज रहें हो, कोई थीलसस लिख रहीीं हो, ककसी पस्
ु तक की रचना कर रहे हों। कौन
कह सकता है ? तुम जैसी रुपवती स्त्री पाकर यदद कोई मनष्ु य धचक्न्तत रहे , तो समझ िो कक उसके ददि
पर कोई बडा बोझ हैं। उनको तुम्हारी सहानभ
ु नू त की जरुरत है, तुम उनका बोझ हिका कर सकती हों।
िेककन तुम उिटे उन्हीीं को दोष दे ती हों। मेरी समझ में नही आता कक तुम एक ददन क्यों ववनोद से ददि
खोिकर बातें नहीीं कर िेती, सींदेह को क्जतनी जल्द हो सकें, ददि से ननकाि डािना चादहए। सींदेह वह चोट
है , क्जसका उपच जल्द न हो, तो नासरू पड जाता है और कफर अच्छा नहीीं होता। क्यों दो-चार ददनों के लिए
यह ॉँ नहीीं चिी आतीीं ? तम
ु शायद कहो, तू ही क्यों नहीीं चिी आती। िेककन मै स्वतन्त्र नही हू, बबना सास-
ससरु से पछ ू े कोई काम नहीीं कर सकती। तम्
ु हें तो कोई बींधन नहीीं है ।
बहन, आजकि मेरा जीवन हषम और शोक का ववधचत्र लमश्रण हो रहा हैं। अकेिी होती हू, तो रोती हूीं,
आनन्द आ जाते है तो हॅं सती हू। जी चाहता है, वह हरदम मेरे सामने बैठे रहते। िेककन रात के बारह बजे
ीं कक कोई बच्चे को
के पहिे उनके दशमन नहीीं होते। एक ददन दोपहर को आ गयें, तो सासजी ने ऐसा ड टा
क्या ड टेीं गा। मझ
ु ें ऐसा भय हो रहा है कक सासजी को मझ
ु से धचढ़ हैं। बहन, मैं उन्हें भरसक प्रसन्न रखने
की चेष्टा करती हू। जो काम कभी न ककये थे, वह उनके लिए करती हू, उनके स्नान के लिए पानी गमम
करती हू, उनकी पज ॉँ
ू ा के लिए चौकी बबछाती हू। वह स्नान कर िेती हैं, तो उनकी धोती छ टती हू, वह िेटती
हैं तो उनके पैर दबाती हू; जब वह सो जाती है तो उन्हें पींखा झिती हू। वह मेरी माता हैं, उन्ही के गभम से
वह रत्न उत्पन्न हुआ है जो मेरा प्राणधार है । मै उनकी कुछ सेवा कर सकू, इससे बढकर मेरे लिए सौभाग्य
की और क्या बात होगी। मैं केवि इतना ही चाहती हू कक वह मझ ु से हसकर बोिे, मगर न जाने क्यों वह
ु े कोसने ददया करती हैं। मैं जानती हू, दोष मेरा ही हैं। ह ,ॉँ मझ
बात-बात पर मझ ु े मािम
ू नहीीं, वह क्या हैं।
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अगर मेरा यही अपराध है कक मैं अपनी दोनों नन्दों से रुपवती क्यों हू, पढ़ी-लिखी क्यों हू, आन्नद मझु ें
इतना क्यों चाहते हैं, तो बहन, यह मेरे बस की बात नही। मेरे प्रनत सासजी को भ्रम होता होगा कक मैं ही
आन्नद को भरमा रहीीं हू। शायद वह पछताती है कक क्यों मझ
ु ें बहू बनाया ! उन्हे भय होता है कक कहीीं मैं
उनके बैटे को उनसे छीन न ि।ू दो-एक बार मझु े जादग
ू रनी कही चक ु ी हैं। दोनों ननदें अकारण ही मझ
ु से
जिती रहती है । बडी ननदजी तो अभी किोर हैं, उनका जिना मेरी समझ में नही आता। मैं उनकी जगह
होती,तो अपनी भावज से कुछ सीखने की, कुछ पढ़ने की कोलशश करती, उनके चरण धो-धोकर पीती, पर इस
छोकरी को मेरा अपमान करने ही में आन्नद आता हैं। मैं जानती हू, थोडे ददनों में दोनों ननदें िक्जजत
होंगी। ह ,ॉँ अभी वे मझ
ु से बबचकती हैं। मैं अपनी तरफ से तो उन्हें अप्रसन्न होने को कोई अवसर नहीीं दे ती।
मगर रुप को क्या करु। क्या जानती थी कक एक ददन इस रुप के कारण मैं अपराधधनी ठहरायी
जाऊगी। मैं सच कहती हू बहन, यहा मैने लसगाींर करना एक तरह से छोड ही ददया हैं। मैिी-कुचैिी बनी बेठी
रहती हू। इस भय से कक कोई मेरे पढ़ने-लिखने पर नाक न लसकोडे, पस्ु तकों को हाथ नहीीं िगाती। घर से
पस् ॉँ िायी थी। उसमें कोई पस्
ु तकों का एक गटठर ब ध ु तकें बडी सन्
ु दर हैं। उन्हें पढ़ने के लिए बार-बार जी
चाहता हैं, मगर छरती हू कक कोई ताना न दे बैठे। दोनों ननदें मझ ु ें दे खती रहती हैं कक यह क्या करती हैं,
कैसे बैठती है, कैसे बोिती है , मानो दो-दो जासस
ू मेरे पीछे िगा ददए गए हों। इन दोनों मदहिाओीं को मेरी
बदगोई में क्यों इतना मजा आता हैं, नही कह सकती। शायद आजकि उन्हे लसवा दस
ू रा काम ही नहीीं।
गुस्सा तो ऐसा आता हैं कक एक बार खझढ़क द,ू िेककन मन को समझाकर रोक िेती हू। यह दशा बहुत ददनों
नहीीं रहे गी। एक नए आदमी से कुछ दहचक होना स्वाभाववक ही है , ववशेषकर जब वह नया आदमी लशक्षा
और ववचार व्यवहार में हमसे अिग हो। मझ
ु ी को अगर ककसी फ्रेंच िेडी के साथ रहना पडे, तो शायद मे भी
उसकी हरएक बात को आिोचना और कुतह ू ि की दृक्ष्ट से दे खने िग।ू यह काशीवासी िोग पज
ू ा-पाठ बहुत
करते है । सासजी तो रोज गींगा-स्नान करने जाती हैं। बडी ननद भी उनके साथ जाती है। मैने कभी पज ू ा
नहीीं की। याद है, हम और तुम पज
ू ा करने वािों को ककतना बनाया करती थी। अगर मै पज
ू ा करने वािों का
चररत्र कुछ उन्नत पाती, तो शायद अब तक मै भी पज ू ा करती होती। िेककन मझ ु े तो कभी ऐसा अनभ
ु व
ू ा करने वालिय ॉँ भी उसी तरह दस
प्राप्त नहीीं हुआ, पज ू रों की ननन्दा करती हैं, उसी तरह आपस में िडती-
झगडती हैं, जैसे वे जो कभी पज
ू ा नहीीं करतीीं। खैर, अब मझ
ु े धीरे -धीरे पज
ू ा से श्रद्धा होती जा रही हैं। मेरे
दददया ससरु जी ने एक छोटा-सा ठाकुरद्वारा बनवा ददया था। वह मेरे घर के सामने ही हैं। मैं अक्सर
सासजी के साथ वह ॉँ जाती हू और अब यह कहने में मझ
ु े कोई सींकोच नहीीं कक उन ववशाि मनू तमयों के दशमन
से मझ
ु े अपने अतस्ति में एक जयोनत का अनभ
ु व होता है। क्जतनी अश्रद्धा से मैं राम और कृष्ण के
जीवन की आिोचना ककया करती थी, वह बहुत कुछ लमट चक ु ी हैं।
िेककन रुपवती होने का दण्ड यहीीं तक बस नहीीं है । ननदें अगर मेरे रुप कों दे खकर जिती हैं, तो यह
स्वाभाववक हैं। द:ु खी तो इस बात का है कक यह दण्ड मझ
ु े उस तरफ से भी लमि रहा है , क्जधर से इसकी
कोई सींभावना न होनी चादहए—मेरे आनन्द बाबू ु े इसका दण्ड दे रहे है । ह ,ॉँ उनकी दण्डनीनत एक
भी मझ
ननरािे ही ढग की हैं। वह मेरे पास ननत्य ही कोई-न-कोई सौगात िाते रहते है । वह क्जतनी दे र मेरे पास
रहते है । उनके मन में यह सींदेह होता रहता है कक मझ
ु े उनका रहना अच्छा नहीीं िगता। वह समझते है कक
मैं उनसे जो प्रेम करती हू, यह केवि ददखावा है , कोशि है ।। वह मेरे सामने कुछ ऐसे दबे-दबायें, लसमटे -
लसमटायें रहते है कक मैं मारे िजजा के मर जाती हू। उन्हें मझ
ु से कुछ कहते हुए ऐसा सींकोच होता है , मानो
वह कोई अनाधधकार चेष्टा कर रहे हों। जैसे मैिे-कुचैिे कपडे पहने हुए कोई आदमी उजजवि वस्त्र पहनने
वािों से दरू ही रहना चाहता है, वही दशा इनकी है । वह शायद समझते हैं कक ककसी रुपवती स्त्री को रूपहीन
परु
ु ष से प्रेम हो ही नहीीं सकता। शायद वह ददि में पछतातें है कक क्यों इससे वववाह ककया। शायद उन्हें
अपने ऊपर ग्िानन होती है। वह मझ ु े कभी रोते दे ख िेते है, तो समझते है । मैं अपने भाग्य को रों रही हू,
कोई पत्र लिखते दे खते हैं, तो समझते है, मैं उनकी रुपहीनता ही का रोना रो रही हू। क्या कहू बहन, यह
सौन्दयम मेरी जान का गाहक हो गया। आनन्द के मन से शींका को ननकािने और उन्हें अपनी ओर से
आश्वासन दे ने के लिए मझ
ु े ऐसी-ऐसी बातें करनी पडती हैं, ऐसे-ऐसे आचरण करने पडते हैं, क्जन पर मझ
ु े
घण
ृ ा होती हैं। अगर पहिे से यह दशा जानती, तो िह्मा से कहती कक मझ
ु े कुरूपा ही बनाना। बडे असमींजस
में पडी हू! अगर सासजी की सेवा नहीीं करती, बडी ननदजी का मन नहीीं रखती, तो उनकी ऑ ींखों से धगरती
हू। अगर आनन्द बाबू को ननराश करती हू, तो कदाधचत ् मझु से ववरक्त ही हो जाय। मै तुमसे अपने हृदय की
बात कहती हू। बहन, तुमसे क्या पदाम रखना है; मझ
ु े आनन्द बाबू से उतना प्रेम है, जो ककसी स्त्री को परू
ु ष

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से हो सकता है , उनकी जगह अब अगर इन्द्र भी सामने आ जाय, तो मै उनकी ओर ऑख उठाकर न दे ख।ू
मगर उन्हें कैसे ववश्वास ददिाऊ। मै दे खती हू, वह ककसी न ककसी बहाने से बार-बार घर मे आते है और दबी
हुई, ििचाई हुई नजरों से मेरे कमरे के द्वार की ओर दे खते है, तो जी चाहता है , जाकर उनका हाथ पकड िू
और अपने कमरे में खीींच िे आऊ। मगर एक तो डर होता है कक ककसी की ऑ ींख पड गयी, तो छाती पीटने
िगेगी, और इससे भी बडा डर यह कक कहीीं आनन्द इसे भी कौशि ही न समझ बैठे। अभी उनकी आमदनी
बहुम कम है, िेककन दो-चार रुपये सौगातों मे रोज उडाते हैं। अगर प्रेमोपहार-स्वरूप वह धेिे की कोई चीज
दें , तो मैं उसे ऑ ींखों से िगाऊ, िेककन वह कर-स्वरूप दे ते हैं, मानो उन्हें ईश्वर ने यह दण्ड ददया हैं। क्या
करू, अब मझ ॉँ करना पडेगा। प्रेम-प्रदशमन से मझ
ु े भी प्रेम का स्व ग ु े धचढ़ हैं। तुम्हें याद होगा, मैने एक बार
कहा था कक प्रेम या तो भीतर ही रहे गा या बाहर ही रहे गा। समान रूप से वह भीतर और बाहर दोनों जगह
ॉँ वेश्याओीं के लिए है, कुिवींती तो प्रेम को हृदय ही में सींधचत रखती हैं!
नहीीं रह सकता। सव ग
बहन, पत्र बहुत िम्बा हो गया, तम
ु पढ़ते-पढ़ते ऊब गयी होगी। मैं भी लिखते-लिखते थक गयी। अब
शेष बातें कि लिखगी।
ू परसों यह पत्र तम्
ु हारे पास पहूचेगा।
X X X

बहन, क्षमा करना; कि पत्र लिखने का अवसर नहीीं लमिा। रात एक ऐसी बात हो गयी, क्जससे धचत्त
अशान्त उठा। बडी मक्ु श्किों से यह थोडा-सा समय ननकाि सकी हू। मैने अभी तक आनन्द से घर के ककसी
प्राणी की लशकायत नहीीं की थी। अगर सासजी ने कोई बात की दी या ननदजी ने कोई ताना दे ददया; तो
इसे उनके कानों तक क्यों पहुचाऊ। इसके लसवा कक गह ृ -किह उत्पन्न हो, इससे और क्या हाथ आयेगा।
इन्हीीं जरा-जरा सी बातों को न पेट में डािने से घर बबगडते हैं। आपस में वैमनस्य बढ़ता हैं। मगर सींयोग
की बात, कि अनायास ही मेरे मींह
ु से एक बात ननकि गयी क्जसके लिये मै अब भी अपने को कोस रहीीं हू,
और ईश्वर से मनाती हू कक वह आगे न बढ़े । बात यह हुई कक कि आन्नद बाबू बहुत दे र करके मेरे पास
आये। मैं उनके इन्तार में बैठी एक पस्
ु तक पढ़ रही थी। सहसा सासजी ने आकर पछ
ू ा—क्या अभी तक
बबजिी जि रही है? क्या वह रात-भर न आयें, तो तुम रात-भर बबजिी जिाती रहोगी?
मैनें उसी वक्त बत्ती ठण्डी कर दी। आनन्द बाबू थोडी ही दे र मे आयें, तो कमरा अधेरा पडा था न-
जाने उस वक्त मेरी मनत ककतनी मन्द हो गयी थी। अगर मैने उनकी आहट पाते ही बत्ती जिा दी होती, तो
कुछ न होता, मगर मैं अधेरे में पडी रहीीं। उन्होनें पछ
ू ा—क्या सो गयीीं? यह अधेरा क्यों पडा हुआ है?
हाय! इस वक्त भी यदद मैने कह ददया होता कक मैने अभी बती गुि कर दी तो बात बन जाती। मगर
मेरे मह
ु से ननकिा—‘साींसजी का हुक्म हुआ कक बत्ती गुि कर दो, गुि कर दी। तम
ु रात-भर न आओ, तो
क्या रातभर बत्ती जिती रहें ?’
‘तो अब तो जिा दो। मै रोशनी के सामने से आ रहा हू। मझ
ु े तो कुछ सझ
ू ता ही नहीीं।’
‘मैने अब बटन को हाथ से छूने की कसम खा िी है। जब जरूरत पडगी; तो मोम की बत्ती जिा लिया
करूगी। कौन मफ् ु ककय ॉँ सहें ।’
ु त में घड
आन्नद ने बबजिी का बटन दबाते हुए कहा—‘और मैने कसम खा िी कक रात-भर बत्ती जिेगी, चाहे
ककसी को बरु ा िगे या भिा। सब कुछ दे खता हू, अन्धा नहीीं हू। दसू री बहू आकर इतनी सेवा करे गी तो
दे खूगा; तुम नसीब की खोटी हो कक ऐसे प्राखणयों के पािे पडी। ककसी दसू री सास की तुम इतनी खखदमत
करतीीं, तो वह तुम्हें पान की तरह फेरती, तुम्हें हाथों पर लिए रहती, मगर यह ॉँ चाहे प्राण ही दे दे , ककसी के
मह
ु से सीधी बात न ननकिेगी।’
मझ
ु े अपनी भि
ू साफ मािम
ू हो गयी। उनका क्रोध शान्त करने के इरादे से बोिी—गिती भी तो मेरी
ॉँ ने गुि करने को कहा, तो क्या बरु ा कहा ?
ही थी कक व्यथम आधी रात तक बत्ती जिायें बैठी रही। अम्म जी
मझ
ु े समझाना, अच्छी सीख दे ना, उनका धमम हैं। मेरा धमम यही है कक यथाशक्क्त उनकी सेवा करू और उनकी
लशक्षा को धगरह बाध।ू
आन्नद एक क्षण द्वार की ओर ताकते रहे । कफर बोिे—मझ
ु े मािम
ू हो रहा है कक इस घर में मेरा
अब गज ु र न होगा। तुम नहीीं कहतीीं, मगर मै सब कुछ सन
ु ता रहता हू। सब समझता हू। तुम्हें मेरे पापों का
प्रायक्श्चत करना पड रहा हैं। मै कि अम्म जी ॉँ से साफ-साफ कह दगा—‘अगर
ू आपका यही व्यवहार है , तो
आप अपना घर िीक्जए, मै अपने लिए कोई दस
ू री राह ननकाि िगा।’

मैंने हाथ जोडकर धगडधगडाते हुए कहा—नहीीं-नहीीं। कहीीं ऐसा गजब भी न करना। मेरे मह
ु में आग
िगे, कह ॉँ से कहा बत्ती का क्जकर कर बैठी। मैं तम्
ु हारे चरण छूकर कहती हू, मझ
ु े न सासजी से कोई

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लशकायत है, न ननदजी से, दोनों मझ
ु से बडी है, मेरी माता के तल्
ु य हैं। अगर एक बात कडी भी कह दें , तो
मझ
ु े सि करना चादहए! तम ु उनसे कुछ न कहना नहीीं तो मझे बडा द:ु ख होगा।
आनन्द ने रुधे कींठ से कहा—तम् ॉँ का किेजा नहीीं पसीजता, अब क्या
ु हारी-जैसी बहू पाकर भी अम्म जी
कोई स्वगम की दे वी घर में आती? तुम डरो मत, मैं ख्वाहमख्वाह िडूगा नहीीं। मगर ह ,ॉँ इतना अवश्य कह दगा

कक जरा अपने लमजाज को काबू में रखें। आज अगर मै दो-चार सौ रुपयें घर में िाता होता, तो कोई चू न
करता। कुछ कमाकर नहीीं िाता, यह उसी का दण्ड है। सच पछ
ू ों, तो मझ
ु े वववाह करने का कोई अधधकार ही
न था। मझ
ु -जैसे मन्द बद्
ु धध को, जो कौडी कमा नहीीं सकता, उसे अपने साथ ककसी मदहिा को डुबाने का
क्या हक था! बहनजी को न-जाने क्या सझ
ू ी है कक तुम्हारे पीछे पडी रहती हैं। ससरु ाि का सफाया कर
ददया, अब यह ॉँ भी आग िगाने पर तुिी हुई है । बस, वपताजी का लिहाज करता हू, नहीीं इन्हें तो एक ददन में
ठीक कर दे ता।
बहन, उस वक्त तो मैने ककसी तरह उन्ही शान्त ककया, पर नहीीं कह सकती कक कब वह उबि पडे।
मेरे लिए वह सारी दनु नयाीं से िडाई मोि िे िेगें। मै क्जन पररक्स्थतयों में हू, उनका तुम अनम
ु ान कर सकती
हो। मझ ु पर ककतनी ही मार पडे मझ ु े रोना न चादहए, जबान तक न दहिाना चादहए। मैं रोयी और घर तबाह
हुआ। आनन्द कफर कुछ न सन ु ग
े े, कुछ न दे खेगें। कदाधचत इस उपाय से वह अपने ववचार मे मेरे हृदय में
अपने प्रेम का अींकुर जमाना चाहते हो। आज मझ ु े मािमू हुआ कक यह ककतने क्रोधी हैं। अगर मैने जरा-सा
पचु ार दे ददया होता, तो रात ही को वह सासजी की खोपडी पर जा पहुचते। ककतनी यव ु नतय ॉँ इसी अधधकार
के गवम में अपने को भि ू जाती हैं। मै तो बहन, ईश्वर ने चाहा तो कभी न भि
ू गी।
ू मझु े इस बात का डर
नहीीं है कक आनन्द अिग घर बना िेगें, तो गज
ु र कैसे होगा। मै उनके साथ सब-कुछ झेि सकती हू। िेककन
घर तो तबाह हो जायेगा।
बस, प्यारी पद्मा, आज इतना ही। पत्र का जवाब जल्द दे ना।

तुम्हारी,
चन्दा

11
ददल्िी
5-2-26
प्यारी चन्दा,
क्या लिख,ू मझ
ु पर तो ववपवत्त का पहाड टूट पडा! हाय, वह चिे गए। मेरे ववनोद का तीन ददन से
पता नहीीं—ननमोही चिा गया, मझ
ु े छोडकर बबना कुछ कहे -सन
ु े चिा गया—अभी तक रोयी नहीीं। जो िोग
पछू ने आते हैं, उनसे बहाना कर दे ती हू कक—दो-चार ददन में आयेंगे, एक काम से काशी गये हैं। मगर जब
रोऊगी तो यह शरीर उन ऑ ींसओ ु ीं में डूब जायेगा। प्राण उसी मे ववसक्जमत हो जायगे। छलियें ने मझ
ु से कुछ
भी नहीीं कहा, रोज की तरह उठा, भोजन ककया, ववद्यािय गया; ननयत समय पर िौटा, रोज की तरह
मस
ु कराकर मेरे पास आया। हम दोनों ने जिपान ककया, कफर वह दै ननक पत्र पढ़ने िगा, मैं टे ननस खेिने
चिी गयी। इधर कुछ ददनो से उन्हें टे ननस से कुछ प्रेम न रहा था, मैं अकेिी ही जाती। िौटी, तो रोज ही की
तरह उन्हें बरामदे में टहिते और लसगार पीते दे खा। मझ
ु े दे खते ही वह रोज की तरह मेरा ओवरकोट िाये
और मेरे ऊपर डाि ददया। बरामदे से नीचे उतरकर खि
ु े मैदान मे हम टहिने िगे। मगर वह जयादा बोिे
नहीीं, ककसी ववचार में डूबे रहें । जब ओस अधधक पडने िगी, तो हम दोनों कफर अन्दर चिे आयें। उसी वक्त
वह बींगािी मदहिा आ गयी, क्जनसे मैने वीणा सीखना शरू
ु ककया है । ववनोद भी मेरे साथ ही बैठे रहे ।
सींगीत उन्हें ककतना वप्रय है, यह तुम्हें लिख चक
ु ी हू। कोई नयी बात नहीीं हुई। मदहिा के चिे जाने के बाद
हमने साथ-ही-साथ भोजन नयका कफर मै अपने कमरे में िेटने आयी। वह रोज की तरह अपने कमरे मे
लिखने-पढ़ने चिे गयें! मैं जल्द ही सो गयी, िेककन बेखबर पडी रहू, उनकी आहट पाते ही आप-ही-आप
ऑ ींखे खुि गयीीं। मैने दे खा, वह अपना हरा शाि ओढ़े खडे थें। मैने उनकी ओर हाथ बढ़ाकर कहा—आओीं, खडे
क्यों हो, और कफर सो गयी। बस, प्यारी बहन! वही ववनोद के अींनतम दशमन थे। कह नहीीं सकती, वह पींिग
पर िेटे या नहीीं। इन ऑखों में न-जाने कौन-सी महाननद्रा समायी हुई थी। प्रात: उठी तो ववनोद को न पाया।
मैं उनसे पहिे उठती हू, वह पडे सोते रहते हैं। पर आज वह पिींग पर न थें। शाि भी न था। मैने समझा,
शायद अपने कमरे में चिे गये हों। स्नान-गह
ृ में चिी गयी। आध घींटें मे बाहर आयी, कफर भी वह न

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ददखायी ददये। उनके कमरे में गयी, वह ॉँ भी न थें। आश्चयम हुआ कक इतने सबरे कह ॉँ चिे गयें। सहसा खटी

पर पडी—कपडे ने थे। ककसी से लमिने चिे गये? या स्नान के पहिे सैर करने की ठानी। कम-से-कम मझ ु से
कह तो दे त,े सींशय मे तो जी न पडता। क्रोध आया—मझ
ु े िौंडी समझते हैं…
हाक्जरी का समय आया। बैरा मेज पर चाय रख गया। ववनोद के इतींजार में चाय ठीं डी हो गयी। मै
बार-बार झझािती
ु थी, कभी भीतर जाती, कभी बाहर आती, ठान िी थी कक आज जयोही महाशय आयेंगे, ऐसा
िताडूगी कक वह भी याद करें गे। कह दगी,
ू आप अपना घर िीक्जए, आपकों अपना घर मब ु ारक रहें , मै अपने
घर चिी जाऊगी। इस तरह तो रोदटय ॉँ वह ीं भी लमि जायेंगी। जाडे के नौ बजने में दे र ही क्या िगती है ।
ववनोद का अभी पता नहीीं। झल्िायी हुई कमरे मे गयी कक एक पत्र लिखकर मेज पर रख द—साफ-साफ

लिख द ू कक इस तरह अगर रहना है, तो आप रदहए मे नहीीं रह सकती। मै क्जतना ही तरह दे ती जाती हू,
उतना ही तम
ु मझ
ु े धचढ़ाते हों। बहन, उस क्रोध मे सन्तप्त भावों की नदी-सी मन में उमड रही थी। अगर
लिखने बैठती, तो पन्नों-के-पन्ने लिख डािती। िेककन आह! मै तो भाग जान की धमकी ही दे रही थी, वह
पहिे ही भाग चक
ु े थे। जयोंही मेज पर बैठी, मझ
ु े पैडी मे उनका एक पत्र लमिा। मैने तुरन्त उस पत्र को
ॉँ
ननकाि लिया और सरसरी ननगाह से पढ़ा—मेरे हाथ क पने िगे, प वॉँ थरथराने िगे, जान पडा कमरा दहि
रहा है । एक ठण्डी, िम्बी, हृदय को चीरने वािी आह खीींचकर मैं कोच पर धगर पडी। पत्र यह था—
‘वप्रयें ! नौ महीने हुए, जब मझ
ु े पहिी बार तुम्हारे दशमनों का सौभाग्य हुआ था। उस वक्त मैने अपने
को धन्य माना था। आज तुमसे ववयोग का दभ ु ामग्य हो रहा है कफर भी मैं अपने को धन्य मानता हू। मझ
ु े
जाने का िोशमात्र भी द:ु ख नहीीं है, क्योकक मै जानता हू तुम खुश होगी। जब तुम मेरे साथ सख
ु ी नही रह
सकती; तो मैं तबरदस्ती क्यों पडा रहू। इससे तो यह कहीीं अच्छा है कक हम और तम ु अिग हो जाय। मै
जैसा हू, वैसा ही रहूगा। तम
ु भी जैसी हो, वैसी ही रहोगी। कफर सखु ी जीवन की सम्भावना कहा? मै वववाह को
आत्म-ववकास का परू ी का साधन समझता हू। स्त्री परु ु ष के सम्बन्ध का अगर कोई अथम है, तो यही है, वनाम
मै वववाह की कोई जरुरत नहीीं समझता। मानव सन्तान बबना वववाह के भी जीववत रहे गी और शायद इससे
अच्छे रूप में । वासना भी बबना वववाह के परू ी हो सकती है, घर के प्रबन्ध के लिए वववाह करने की काई
जरुरत नहीीं। जीववका एक बहुत ही गौण प्रश्न है । क्जसे ईश्वर ने दो हाथ ददये है वह कभी भख ू ा नहीीं रह
सकता। वववाह का उद्दे श्य यही और केवि यही हैं कक स्त्री और परूु ष एक-दसू रे की आत्मोन्ननत में सहायक
हों। जह ॉँ अनरु ाग हों, वहा वववाह है और अनरु ाग ही आत्मोन्ननत का मख्
ु य साधन है । जब अनरु ाग न हो, तो
वववाह भी न रहा। अनरु ाग के बबना वववाह का अथम नहीीं।
क्जस वक्त मैने तम्
ु हें पहिी बार दे खा था, तम
ु मझ
ु े अनरु ाग की सजीव मनू तम-सी नजर आयी थीीं।
तम
ु मे सौंदयम था, लशक्षा थी, प्रेम था, स्फूनतम थी, उमींग थी। मैं मग्ु ध हो गया। उस वक्त मेरी अन्धी ऑ ींखों को
ू ा कक जह ॉँ तुममें इतने गण
यह न सझ ु थे, वह ॉँ चींचिता भी थी, जो इन सब गुणों पर पदाम डाि दे ती। तम

चींचि हो, गजब की चींचि, जो उस वक्त मझ
ु े न सझ
ू ा था। तम
ु ठीक वैसी ही हो, जैसी तुम्हारी दस
ू री बहनें
होती है, न कम, न जयादा। मैने तुमको स्वाधीन बनाना चाहा था, क्योंकक मेरी समझ मे अपनी परू ी ऊचाई
तक पहुचने के लिए इसी की सबसे अधधक जरूरत है। सींसार भर में परू
ु षों के ववरुद्ध क्यों इतना शोर मचा
हुआ है? इसीलिए कक हमने औरतों की आजादी छीन िी है और उन्हें अपनी इच्छाओीं की िौंडी बना रखा है।
मैने तम्
ु हें स्वाधीन कर ददया। मै तम्
ु हारे ऊपर अपना कोई अधधकार नहीीं मानता। तम
ु अपनी स्वालमनी हो,
मझ
ु े कोई धचन्ता न थी। अब मझ
ु े मािम
ू हो रहा है, तम
ु स्वेच्छा से नहीीं, सींकोच या भय या बन्धन के
कारण रहती हो। दो ही चार ददन पहिे मझ
ु पर यह बात खि
ु ी है। इसीलिए अब मै तम्
ु हारें सख
ु के मागम
में बाधा नहीीं डािना चाहता। मै कहीीं भागकर नहीीं जा रहा हू। केवि तुम्हारे रास्ते से हटा जा रहा हू, और
इतनी दरू हटा जा रहा हू, कक तुम्हें मेरी ओर से परू ी ननक्श्चन्तता हो जाय। अगर मेरे बगैर तुम्हारा जीवन
अधधक सन्
ु दर हो सकता है, तो तुम्हें जबरन नहीीं रखना चाहता। अगर मै समझता कक तुम मेरे सख
ु के मागम
बाधक हो रही हों, तो मैने तुमसे साफ-साफ कह ददया होता। मै धैयम और नीनत का ढोंग नहीीं मानता, केवि
आत्माका सींतोष चाहता हू—अपने लिए भी, तुम्हारे लिए भी। जीवन का तत्व यही है; मल्
ू य यही है । मैने
डेस्क में अपने ववभाग के अध्यक्ष के नाम एक पत्र लिखकर रख ददया हैं। वह उनके पास भेज दे ना। रूपये
की कोई धचन्ता मत करना। मेरे एकाउीं ट मे अभी इतने रूपये हैं, जो तम्
ु हारे लिए कई महीने को काफी हैं,
और उस वक्त तक लमिते रहे गें, जब तक तम ु िेना चाहोगी। मै समझता हू, मैने अपना भाव स्पष्ट कर
ददया है। इससे अधधक स्पष्ट मै नहीीं करना चाहता। क्जस वक्त तुम्हारी इच्छा मझ
ु से लमिने की हो, बैंक से
मेरा पता पछ
ू िेना। मगर दो-चार ददन के बाद। घबराने की कोई बात नहीीं। मै स्त्री को अबिा या अपींग

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नहीीं समझता। वह अपनी रक्षा स्वयीं कर सकती हैं—अगर करना चाहें । अगर अब या अब से दो-चार महीना,
दो-चार साि पीछें तम्
ु हे मेरी याद आए और तम
ु समझों कक मेरे साथ सख
ु ी रह सकती हो, तो मझ
ु े केवि दो
शब्द लिखकर डाि दे ना, मै तरु न्त आ जाऊगा, क्योंकक मझ
ु े तम
ु से कोई लशकायत नहीीं हैं। तम्
ु हारे साथ मेरे
जीवन के क्जतने के क्जतने ददन कटे हैं, वह मेरे लिए स्वगम-स्वप्न के ददन हैं। जब तक जीउगी, इस जीवन
की आनन्द-स्मनृ तयों कों हृदय में सींधचत रखगा।
ू आह! इतनी दे र तक मन को रोके रहने के बाद ऑ ींखों से
एक बद ू ऑ ींसू धगर ही पडा। क्षमा करना, मैनें तुम्हें ‘चींचि’ कहा हैं। अचींचि कौन है? जानता हू कक तम
ु ने
मझ
ु े अपने हृदय से ननकािकर फेंक ददया हैं, कफर भी इस एक घींटे में ककतनी बार तुमको दे ख-दे खकर िौट
आया हू! मगर इन बातों को लिखकर मैं तुम्हारी दया को उकसाना नहीीं चाहता। तुमने वही ककया, क्जसका
मेरी नीनत में तुमको अधधकार था, है और रहे गाीं। मैं वववाह में आत्मा को सवोपरी रखना चाहता हू। स्त्री और
परु
ु ष में मै वही प्रेम चाहता हू, जो दो स्वाधीन व्यक्क्तयों में होता हैं। वह प्रेम नहीीं क्जसका आधार
पराधीनता हैं।
बस, अब और कुछ न लिखगा।
ू तुमको एक चेतावनी दे ने की इच्छा हो रही है पर दगा
ू नहीीं; क्योंकक
तुम अपना भिा और बरु ा खुद समझ सकती हो। तुमने सिाह दे ने का हक मझ
ु से छीन लिया है। कफर भी
ॉँ भरने वािे शोहदों की कमी नहीीं है , उनसे
इतना कहे बगैर नहीीं रहा जाता कक सींसार में प्रेम का स्व ग
बचकर रहना। ईश्वर से यही प्राथमना करता हू कक तुम जह ीं रहो, आनन्द से रहों। अगर कभी तुम्हें मेरी
जरूरत पडे, तो याद करना। तुम्हारी एक तस्वीर का अपहरण ककये जाता हू। क्षमा करना, क्या मेरा इतना
अधधकार भी नहीीं? हाय! जी चाहता है , एक बार कफर दे ख आऊ, मगर नहीीं आऊगा।’
—तम्
ु हारा ठुकराया हुआ,
ववनोद

बहन, यह पत्र पढ़कर मेरे धचत्त की जो दशा हुई, उसका तम


ु अनम
ु ान कर सकती हो। रोयी तो नहीीं; पर
ददि बैठा जाता था। बार-बार जी चाहता था कक ववष खाकर सो रहू। दस बजने में अब थोडी ही दे र थी। मैं
तुरन्त ववद्यािय गयी और दशमन-ववभाग के अध्यक्ष को ववनोद का पत्र पढ़कर बोिे—आपको मािम ू है, वह
कह ॉँ गये और कब तक आयेंगें? इसमें तो केवि एक मास की छुटटी म गी
ॉँ गयी है। मैनें बहाना ककया—वह
एक आवश्यक कायम से काशी गये है । और ननराश होकर िौट आयी। मेरी अन्तरात्मा सींहस्रों क्जहवा बनकर
मझ
ु े धधक्कार रही थी। कमरे में उनकी तस्वीर के सामने घट
ु ने टे ककर मैने क्जतने पश्चाताप–पण
ू म शब्दों में
क्षमा मागी है , वह अगर ककसी तरह उनके कानों तक पहुच सकती, तो उन्हें मािम
ू होता कक उन्हें मेरी ओर
से ककतना भ्रमू हुआ! तब से अब तक मैनें कुछ भोजन नहीीं ककया और न एक लमनट सोयी। ववनोद मेरी
क्षुधा ॉँ ददन उनकी खबर न लमिी, तो
और ननद्रा भी अपने साथ िेते गये और शायद इसी तरह दस-प च
प्राण भी चिे जायेंगें। आज मैं बैंक तकम गयी थी, यह पछ
ू ने कक दहम्मत न पडी कक ववनोद का कोई पत्र
आयाीं। वह सब क्या सोचते कक यह उनकी पत्नी होकर हमसे पछ
ू ने आयी हैं!
बहन, अगर ववनोद न आये, तो क्या होगा? मैं समझती थी, वह मेरी तरफ से उदासीन हैं, मेरी परवा
नहीीं करते, मझ
ु से अपने ददि की बातें नछपाते हैं, उन्हें शायद मैं भारी हो गयी हू। अब मािम
ू हुआ, मै कैसे
भयींकर-भ्रम में पडी हुई थी। उनका मन इतना कोमि है, यह मैं जानती, तो उस ददन क्यों भव ु न को मह ु
िगाती? मैं उस अभागे का मह
ु तक न दे खती। इस वक्त जो उसे दे ख पाऊ, तो शायद गोिी मार द।ू जरा
तम
ु ववनोद के पत्र को कफर पढों, बहन—आप मझ
ु े स्वाधीन बनाने चिे थे। अगर स्वाधीन बनाते थें, तो भव
ु न
से जरा दे र मेरा बातचीत कर िेना क्यों इतना अखरा? मझ
ु ें उनकी अववचलित शाींनत से धचढ़ होती थी।
वास्तव में उनके हृदय में इस रात-सी बात ने क्जतनी अशाींनत पैदा कर दी, शायद मझ
ु में न कर सकती। मैं
ककसी रमणी से उनकी रूधच दे खकर शायद मह
ु फुिा िेती, ताने दे ती, खुद रोती, उन्हें रुिाती; पर इतनी जल्द
भाग न जाती। मदों का घर छोडकर भागना तो आज तक नहीीं सन
ु ा, औरतें ही घर छोडकर मैके भागती है,
या कहीीं डूबने जाती हैं, या आत्महत्या करती हैं। परू ींू ों पर ताव दे ते हैं। मगर यह ॉँ उल्टी
ु ष ननद्मवन्द्व बैठे मछ
गींगा बह रही हैं—परू
ु ष ही भाग खडा हुआ! इस अशाींनत की थाह कौन िगा सकता हैं? इस प्रेम की गहराई
को कौन समझ सकता हैं? मै तो अगर इस वक्त ववनोद के चरणों पर पडे-पडे मर जाऊ तो समझ,ू मझ ु े
स्वगम लमि गया। बस, इसके लसवा मझ
ु े अब और कोई इच्छा नहीीं हैं। इस अगाध-प्रेम ने मझ
ु े तप्ृ त कर
ददया। ववनोद मझ
ु से भागे तो, िेककन भाग न सके। वह मेरे हृदय से, मेरी धारणा से, इतने ननकट कभी न
थे। मैं तो अब भी उन्हें अपने सामने बैठा दे ख रही हू। क्या मेरे सामने कफिासफर बनने चिे थे? कह ॉँ गयी
आपकी वह दाशमननक गींभीरता? यों अपने को धोखा दे ते हो? यों अपनी आत्मा को कुचिते हों ? अबकी तो
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तम
ु भागे, िेककन कफर भागना तो दे खगी।ू मै न जानती थी कक तम
ु ऐसे चतरु बहुरूवपये हो। अब मैने
समझा, और शायद तम्ु हारी दाशमननक गींभीरता को भी समझ मे आया होगा कक प्रेम क्जतना ही सच्चा क्जतना
ही हाददमक होता है , उतना ही कोमि होता हें वह वपवत्त के उन्मत्त सागर में थपेड खा सकता है , पर अवहे िना
की एक चोट भी नहीीं सह सकता। बदहन, बात ववधचत्र है , पर है सच्ची, मै इस समय अपने अन्तस्ति में
क्जतनी उमींग, क्जतने आनन्द का अनभु व कर रही हू, याद नहीीं आता कक ववनोद के हृदय से लिपटकर भी
कभी पाया हो। तब पदाम बीच में था, अब कोई पदाम बीच में नहीीं रहा। मै उनको प्रचलित प्रेम व्यापार की
कसौटी पर कसना चाहती थी। यह फैशन हो गया कक परु
ु ष घर मे आयें, तो स्त्री के वास्ते कोई तोहफा िाये,
परु
ु ष रात-ददन स्त्री के लिए गहने बनवाने, कपडे लसिवाने, बेि, फीते, िेस खरीदने में मस्त रहे , कफर स्त्री को
उससे कोई लशकायत नहीीं। वह आदशम-पनत है, उसके प्रेम में ककसे सींदेह हो सकता है ? िेककन उसकी प्रेयसी
की मत्ृ यु के तीसरे महीने वह कफर नया वववाह रचाता है । स्त्री के साथ अपने प्रेम को भी धचता मे जिा
आता है । कफर वही स्व ग ॉँ इस नयी प्रेयसी से होने िगते हैं, कफर वही िीिा शरू
ु हो जाती है। मैंने यही प्रेम
दे खा था और इसी कसौटी पर ववनोद कस रही थी। ककतनी मन्दबद् ु धध हू ! नछछोरे पन को प्रेम समझे बैठी
थी। ककतनी क्स्त्रया जानती हैं कक अधधकाींश ऐसे ही गहने, कपडे और हसने-बोिने में मस्त रहने वािे जीव
ॉँ भरते रहते हैं। कुत्ते को चप
िम्पट होते हैं। अपनी िम्पटता को नछपाने के लिए वे यह स्व ग ु रखने के लिए
उसके सामने हड्डी के टुकडे फेंक दे ते हैं। बेचारी भोिी-भािी उसे अपना सवमस्व दे कर खखिौने पाती है और
उन्हीीं में मग्न रहती है । मैं ववनोद को उसी क टेॉँ पर तौि रही थी—हीरे को साग के तराजू पर रख दे ती थी।
मैं जानती हू, मेरा दृढ़ ववश्वास और वह अटि है कक ववनोद की दृक्ष्ट कभी ककसी पर स्त्री पर नहीीं पड
सकती। उनके लिए मै हू, अकेिी मै हू, अच्छी हू या बरु ी हू, जो कुछ हू, मै हू। बहन, मेरी तो मारे गवम और
आनन्द से छाती फूि उठी है। इतना बडा साम्राजय—इतना अचि, इतना स्वरक्षक्षत, ककसी हृदयेश्वरी को
नसीब हुआ है ! मझ ु े तो सन्दे ह है। और मैं इस पर भी असन्तुष्ट थी, यह न जानती थी कक ऊपर बबि ू े
तैरते हैं, मोती समद्र
ु की तह मे लमिते हैं। हाय! मेरी इस मख ू तम ा के कारण, मेरे प्यारे ववनोद को ककतनी
मानलसक वेदना हो रही है। मेरे जीवन-धन, मेरे जीवन-सवमस्व न जाने कह ॉँ मारे -मारे कफरते होंगें , न जाने
ककस दशा में होगें , न-जाने मेरे प्रनत उनके मन में कैसी-कैसी शींकाऍ ीं उठ रही होंगी—प्यारे ! तुमने मेरे साथ
कुछ कम अन्याय नहीीं ककया। अगर मैने तम्
ु हें ननष्ठुर समझा, तो तुमने तो मझ
ु े उससे कहीीं बदतर समझा—
क्या अब भी पेट नहीीं भरा? तुमने मझ
ु े इतनी गयी-गज
ु री समझ लिया कक इस अभागे भव
ु न मै ऐसे-ऐसे

एक िाख भव ु नों को तम्


ु हारे चरणों पर भें ट कर सकती हू। मझु े तो सींसार में ऐसा कोई प्राणी ही नहीीं नजर
आता, क्जस पर मेरी ननगाह उठ सके। नहीीं, तम ु मझ
ु े इतनी नीच, इतनी किींककनी नहीीं समझ सकते—शायद
वह नौबत आती, तो तम
ु और मैं दो में से एक भी इस सींसार में न होता।
बहन, मैंने ववनोद को बि
ु ाने की, खीींच िाने की, पकड मगवाने की एक तरकीब सोची है । क्या कहू,
पहिे ही ददन यह तरकीब क्यों न सझ ू ी ? ववनोद को दै ननक पत्र पढ़े बबना चैन नहीीं आता और वह कौन-सा
पत्र पढ़ते हैं, मैं यह भी जानती हू। कि के पत्र में यह खबर छपेगी—‘पद्मा मर रही है ’, और परसों ववनोद
यह ॉँ होंगे—रुक ही नहीीं सकते। कफर खूब झगडे होंगे, खूब िडाइय ॉँ होंगी।
अब कुछ तुम्हारे ववषय में । क्या तुम्हारी बदु ढ़या सचमच
ु तुमसे इसलिए जिती है कक तुम सन्
ु दर हो,
लशक्षक्षत हो ? खब
ू ! और तम्
ु हारे आनन्द भी ववधचत्र जीव मािम
ू होते हैं। मैने सन
ु ा है कक परु
ु ष ककतना ही
कुरूप हो, उसकी ननगाह अप्सराओीं ही पर जाकर पडती है । कफर आन्नद बाबू तम
ु से क्यों बबचकते है ? जरा
गौरसे दे खना, कहीीं राधा और कृष्ण के बीच में कोई कुब्जा तो नहीीं? अगर सासजी यों ही नाक में दम करती
रहें , तो मैं तो यही सिाह दगी
ू कक अपनी झोपडी अिग बना िो। मगर जानती हू, तुम मेरी यह सिाह न
मानोगी, ककसी तरह न मानेगी। इस सदहष्णुता के लिए मैं तम्
ु हें बधाई दे ती हू। पत्र जल्द लिखना। मगर
शायद तुम्हारा पत्र आने के पहिे ही मेरा दस
ू रा पत्र पहुचे।

तुम्हारी,
पद्मा

12

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काशी
10-2-26
वप्रय पद्मा,
कई ददन तक तुम्हारे पत्र की प्रतीक्षा करने के बाद आज यह खत लिख रही हू। मैं अब भी आशा कर
रही हू कक ववनोद बाबू घर आ गये होगें , मगर अभी वह न आये हों और तुम रो-रोकर अपनी ऑ ींखे फोडे
डािती हो, तो मझ
ु े जरा भी द:ु ख न होगा! तुमने उनके साथ जो अन्याय ककया है, उसका यही दण्ड है। मझ
ु े
तुमसे जरा भी सहानभ
ु नू त नहीीं है। तुम गदृ हणी होकर वह कुदटि क्रीडा करने चिी थीीं, जो प्रेम का सौदा
करने वािी क्स्त्रयों को ही शोभा दे ती है । मैं तो जब खुश होती कक ववनोद ने तुम्हारा गिा घोंट ददया होता
और भव
ु न के कुसींस्कारों को सदा के लिए शाींत कर दे ते। तम
ु चाहे मझ
ु से रूठ ही क्यों न जाओ पर मैं
इतना जरूर कहूगी कक तम ु ववनोद के योग्य नहीीं हो। शायद तम ु ने अग्रेजी ककताबों मे पढ़ा होगा कक क्स्त्रया
छै िे रलसकों पर ही जान दे ती हैं और यह पढ़कर तम् ु हारा लसर कफर गया है। तम् ु हें ननत्य कोई सनसनी
चादहए, अन्यथा तुम्हारा जीवन शष्ु क हो जायेगा। तुम भारत की पनतपरायणा रमणी नहीीं, यरू ोप की
आमोदवप्रय यव
ु ती हो। मझ
ु े तुम्हारे ऊपर दया आती है। तुमने अब तक रूप को ही आकषमण का मि
ू समझ
रखा है । रूप में आकमषण है, मानती हू। िेककन उस आकषमण का नाम मोह है, वह स्थायी नहीीं, केवि धोखे
की टट्टी है । प्रेम का एक ही मि
ू मींत्र है, और वह है सेवा। यह मत समझो कक जो परू
ु ष तुम्हारे ऊपर भ्रमर
की भ नतॉँ मडराया करता है, वह तुमसे प्रेम करता है । उसकी यह रूपासक्क्त बहुत ददनों तक नहीीं रहे गी। प्रेम
का अींकुर रूप में है, पर उसको पल्िववत और पक्ु ष्पत करना सेवा ही का काम है । मझ ु े ववश्वास नहीीं आता
कक ववनोद को बाहर से थके-म देॉँ , पसीने मे तर दे खकर तम
ु ने कभी पींखा झिा होगा। शायद टे बि
ु -फैन
िगाने की बात भी न सझ
ू ी होगी। सच कहना, मेरा अनम
ु ान ठीक या नहीीं? बतिाओ, तम
ु ने की उनके पैरों में
चींपी की है? कभी उनके लसर में तेज डािा है? तुम कहोगी, यह खखदमतगारों का काम है , िेडडया यह मरज
नहीीं पाितीीं। तुमने उस आनन्द का अनभ
ु व ही नहीीं ककया। तम
ु ववनोद को अपने अधधकार में रखना चाहती
हो, मगर उसका साधन नहीीं करतीीं। वविासनी मनोरीं जन कर सकती है , धचरसींधगनी नहीीं बन सकती। परू
ु ष के
गिे से लिपटी हुई भी वह उससे कोसों दरू रहती है । मानती हू, रूपमोह मनष्ु य का स्वभाव है, िेककन रूप से
हृदय की प्यास नहीीं बझ
ु ती, आत्मा की तक्ृ प्त नहीीं होती। सेवाभाव रखने वािी रूप-ववहीन स्त्री का पनत ककसी
स्त्री के रूप-जाि मे फस जाय, तो बहुत जल्द ननकि भागता है, सेवा का चस्का पाया हुआ मन केवि
नखरों और चोचिों पर िट्टू नहीीं होता। मगर मैं तो तम् ॉँ
ु हें उपदे श करने बैठ गयी, हाि कक तम
ु मझ
ु से दो-
चार महीने बडी होगी। क्षमा करो बहन, यह उपदे श नहीीं है । ये बातें हम-तम
ु सभी जानते हैं, केवि कभी-कभी
भि
ू जाते हैं। मैंने केवि तम्
ु हें याद ददिा ददया हैं। उपदे श मे हृदय नहीीं होता, िेककन मेरा उपदे श मेरे मन
की वह व्यथा है , जो तुम्हारी इस नयी ववपवत्त से जागररत हुई है।
अच्छा, अब मेरी रामकहानी सन ु ो। इस एक महीने में यह ॉँ बडी-बडी घटनाऍ ीं हो गयीीं। यह तो मैं पहिे
ही लिख चक ु ी हू कक आनन्द बाबू और अम्म जी ॉँ में कुछ मनमट ु ाव रहने िगा। वह आग भीतर-ही-भीतर
सिु गती रहती थी। ददन में दो-एक बार म ॉँ बेटे में चोंचें हो जाती थी। एक ददन मेरी छोटी ननदजी मेरे कमरे
से एक पस्
ु तक उठा िे गयीीं। उन्हें पढ़ने का रोग है । मैंने कमरे में ककताब न दे खी, तो उनसे पछ
ू ा। इस जरा-
सी बात पर वह भिे-मानस बबगड गयी और कहने िगी—तम ु े चोरी िगाती हो। अम्म ॉँ ने उन्हीीं का
ु तो मझ
पक्ष लिया और मझ
ु े खब
ू सन ॉँ मझ
ु ायी। सींयोग की बात, अम्म जी ु े कोसने ही दे रही थीीं कक आन्नद बाबू घर
में आ गये। अम्माजी उन्हें दे खते ही और जोर से बकने िगीीं, बहू की इतनी मजाि! वह तन
ू े लसर पर चढ़ा
रखा है और कोई बात नहीीं। पस्
ु तक क्या उसके बाप की थी? िडकी िायी, तो उसने कौन गुनाह ककया? जरा
भी सि न हुआ, दौडी हुई उसके लसर पर जा पहुची और उसके हाथों से ककताब छीनने िगी।
बहन, मैं यह स्वीकार करती हू कक मझ
ु े पस्
ु तक के लिए इतनी उताविी न करनी चादहए थी। ननदजी
पढ़ चक
ु ने पर आप ही दे जातीीं। न भी दे तीीं तो उस एक पस्
ु तक के न पढ़ने से मेरा क्या बबगडा जाता था।
मगर मेरी शामत कक उनके हाथों से ककताब छीनने िगी थी। अगर इस बात पर आनन्द बाबू मझ
ु े डाट
बताते, तो मझ
ु े जरा भी द:ु ख न होता मगर उन्होंने उल्टे मेरा पक्ष लिया और त्योररया चढ़ाकर बोिे—ककसी
की चीज कोई बबना पछ
ू े िाये ही क्यों? यह तो मामि
ू ी लशष्टाचार है ।
ु ना था कक अम्म ॉँ के लसर पर भत
इतना सन ू -सा सवार हो गया। आनन्द बाबू भी बीच-बीच मे
फुिझडडय ॉँ छोडते रहे और मैं अपने कमरे में बैठी रोती रही कक कह -से
ॉँ -कह ॉँ मैंने ककताब म गी।
ॉँ ॉँ
न अम्म जी
ही ने भोजन ककया, न आनन्द बाबू ने ही। और मेरा तो बार-बार यही जी चाहता था कक जहर खा ि।ू रात

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ु ार उनके प वॉँ पक्रड लिये। मैं पैंताने की ओर तो थी ही।
को जब अम्म जी िेटी तो मैं अपने ननयम के अनस
ॉँ ने जो पैर से मझ
अम्म जी ु े ढकेिा तो मैं चारपाई के नीचे धगर पडी। जमीन पर कई कटोररय ॉँ पडी हुई थीीं।
मैं उन कटोररयों पर धगरी, तो पीठ और कमर में बडी चोट आयी। मैं धचल्िाना न चाहती थी, मगर न जाने
कैसे मेरे मह
ु से चीख ननकि गयी। आनन्द बाबू अपने कमरे में आ गये थे, मेरी चीख सन
ु कर दौडे पडे और
ॉँ के द्वार पर आकर बोिे—क्या उसे मारे डािती हो, अम्म ?ॉँ अपराधी तो मैं हू; उसकी जान क्यों िे
अम्म जी
रही हो? यह कहते हुए वह कमरे में घस
ु गये और मेरा हाथ पकड कर जबरदस्ती खीींच िे गये। मैंने बहुत
चाहा कक अपना हाथ छुडा ि,ू पर आन्नद ने न छोडा! वास्वत में इस समय उनका हम िोगों के बीच में कूद
पडना मझ ॉँ
ु े अच्छा नहीीं िगता था। वह न आ जाते, तो मैंने रो-धोकर अम्म जी को मना लिया होता। मेरे
धगर पडने से उनका क्रोध कुछ शान्त हो चिा था। आनन्द का आ जाना गजब हो गया। अम्म जी ॉँ कमरे के
बाहर ननकि आयीीं और मह ु धचढ़ाकर बोिी—ह ,ॉँ दे खो, मरहम-पट्टी कर दो, कहीीं कुछ टूट-फूट न गया हो !
आनन्द ने ऑ ींगन में रूककर कहा—क्या तम
ु चाहती हो कक तम
ु ककसी को मार डािो और मैं न बोिू
?
‘ह ,ॉँ मैं तो डायन हू, आदलमयों को मार डािना ही तो मेरा काम है । ताजजुब है कक मैंने तुम्हें क्यों न
मार डािा।’
‘तो पछतावा क्यों हो रहा है, धेिे की सींखखया में तो काम चिता है ।‘
‘अगर तुम्हें इस तरह औरत को लसर चढ़ाकर रखना है, तो कहीीं और िे जाकर रखो। इस घर में
उसका ननवामह अब न होगा।’
‘मैं खुद इसी कफ्रक में हू, तुम्हारे कहने की जरूरत नहीीं।’
‘मैं भी समझ िगी ू कक मैंने िडका ही नहीीं जना।’
‘मैं भी समझ िगा
ू कक मेरी माता मर गयी।’
मैं आनन्द का हाथ पकडकर जोर से खीींच रही थी कक उन्हें वह ॉँ से हटा िे जाऊ, मगर वह बार-बार
ॉँ अपने कमरे में चिी गयीीं, तो वह अपने कमरे में आये और
मेरा हाथ झटक दे ते थे। आखखर जब अम्म जी
लसर थामकर बैठ गये।
मैंने कहा—यह तुम्हें क्या सझ
ू ी ?
आनन्द ने भलू म की ओर ताकते हुए कहा—अम्म ॉँ ने आज नोदटस दे ददया।
‘तुम खुद ही उिझ पडे, वह बेचारी तो कुछ बोिी नहीीं।’
‘मैं ही उिझ पडा !’
‘और क्या। मैंने तो तम
ु से फररयाद न की थी।’
‘पकड न िाता, तो अम्मा ने तम्
ु हें अधमरा कर ददया होता। तम
ु उनका क्रोध नहीीं जानती।’
‘यह तुम्हारा भ्रम है । उन्होंने मझ
ु े मारा नहीीं, अपना पैर छुडा रही थीीं। मैं पट्टी पर बैठी थी, जरा-सा
धक्का खाकर धगर पडीीं। अम्म ॉँ मझ
ु े उठाने ही जा रही थीीं कक तुम पहुच गये।’
‘नानी के आगे नननहाि का बखान न करो, मैं अम्म ॉँ को खूब जानता हू। मैं कि ही दस ू रा घर िे
िगा,
ू यह मेरा ननश्चय है । कहीीं-न-कहीीं नौकरी लमि ही जायेगी। ये िोग समझते हैं कक मैं इनकी रोदटयों पर
पडा हुआ हू। इसी से यह लमजाज है !’
मैं क्जतना ही उनको समझती थी, उतना वह और बफरते थे। आखखर मैंने झझिाकर
ु कहा—तो तुम
अकेिे जाकर दस
ू रे घर में रहो। मैं न जाऊगी। मझ
ु े यहीीं पडी रहने दो।
आनन्द ने मेरी ओर कठोर नेत्रों से दे खकर कहा—यही िातें खाना अच्छा िगता है?
‘हा, मझ
ु े यही अच्छा िगता है ।’
‘तो तुम खाओ, मैं नहीीं खाना चाहता। यही फायदा क्या थोडा है कक तुम्हारी दद
ु म शा ऑ ींखों से न
दे खूगा, न पीडा होगी।’
‘अिग रहने िगोगे, तो दनु नया क्या कहे गी।’
‘इसकी परवाह नहीीं। दनु नयाीं अन्धी है ।’
‘िोग यही कहें गे कक स्त्री ने यह माया फैिायी है ।‘
‘इसकी भी परवाह नहीीं, इस भय से अपना जीवन सींकट में नहीीं डािना चाहता।’
मैंने रोकर कहा—तम
ु मझ
ु े छोड दोगे, तम्
ु हें मेरी जरा भी मह
ु ब्बत नहीीं है । बहन, और ककसी समय इस
प्रेम-आग्रह से भरे हुए शब्दों ने न जाने क्या कर ददया होता। ऐसे ही आग्रहों पर ररयासतें लमटती हैं, नाते
टूटते हैं, रमणी के पास इससे बढ़कर दस ू रा अस्त्र नहीीं। मैंने आनन्द के गिे में बाहें डाि दी थीीं और उनके
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कन्धे पर लसर रखकर रो रही थी। मगर इस समय आनन्द बाबू इतने कठोर हो गये थे कक यह आग्रह भी
उन पर कुछ असर न कर सका। क्जस माता न जन्म ददया, उसके प्रनत इतना रोष ! हम अपनी माता की
एक कडी बात नहीीं सह सकते, इस आत्मालभमान का कोई दठकाना है । यही वे आशाऍ ीं हैं, क्जन पर माता ने
अपने जीवन के सारे सख
ु -वविास अपमण कर ददये थे, ददन का चैन और रात की नीींद अपने ऊपर हराम कर
िी थी ! पत्र
ु पर माता का इतना भी अधधकार नहीीं !
आनन्द ने उसी अववचलित कठोरता से कहा—अगर मह
ु ब्बत का यही अथम है कक मैं इस घर में
तुम्हारी दग
ु नम त कराऊ, तो मझ
ु े वह मह
ु ब्बत नहीीं है।
प्रात:काि वह उठकर बाहर जाते हुए मझ ॉँ भी िेता
ु से बोिे—मैं जाकर घर ठीक ककये आता हू। त गा
आऊगा, तैयार रहना।
मैंने दरवाजा रोककर कहा—क्या अभी तक क्रोध शान्त नहीीं हुआ?
‘क्रोध की बात नहीीं, केवि दस
ू रों के लसर से अपना बोझ हटा िेने की बात है ।’
‘यह अच्छा काम नहीीं कर रहे हो। सोचो, माता जी को ककतना द:ु ख होगा। ससरु जी से भी तुमने कुछ
पछ
ू ा ?’
ू ने की कोई जरूरत नहीीं। कताम-धताम जो कुछ हैं, वह अम्म ॉँ हैं। दादाजी लमट्टी के िोंदे हैं।’
‘उनसे पछ
‘घर के स्वामी तो हैं ?‘
‘तुम्हें चिना है या नहीीं, साफ कहो।’
‘मैं तो अभी न जाऊगी।’
‘अच्छी बात है , िात खाओ।’
मैं कुछ नहीीं बोिी। आनन्द ने एक क्षण के बाद कफर कहा—तम्
ु हारे पास कुछ रूपये हो, तो मझ
ु े दो।
मेरे पास रूपये थे, मगर मैंने इनकार कर ददया। मैंने समझा, शायद इसी असमींजस में पडकर वह रूक
जाय। मगर उन्होंने बात मन में ठान िी थी। खखन्न होकर बोिे—अच्छी बात है , तम्
ु हारे रूपयों के बगैर भी
मेरा काम चि जायगा। तुम्हें यह ववशाि भवन, यह सख
ु -भोग, ये नौकर-चाकर, ये ठाट-बाट मब
ु ारक हों। मेरे
ू ों मरोगी। वह ॉँ यह सख
साथ क्यों भख ु कह ॉँ ! मेरे प्रेम का मल्
ू य ही क्या !
यह कहते हुए वह चिे गये। बहन, क्या कहू, उस समय अपनी बेबसी पर ककतना द:ु ख हो रहा था।
बस, यही जी में आता था कक यमराज आकर मझ ु े उठा िे जायें। मझ
ु े कि-किींककनी के कारण माता और
पत्र ॉँ के पैरों पर धगर पडी और रो-रोकर आनन्द बाबू के चिे
ु में यह वैमनस्य हो रहा था। जाकर अम्म जी
जाने का समाचार कहा। मगर माताजी का हृदय जरा भी न पसीजा। मझ ु े आज मािम
ू हुआ कक माता भी
इतनी वज्र-हृदया हो सकती है। कफर आनन्द बाबू का हृदय क्यों न कठोर हो। अपनी माता ही के पत्र
ु तो हैं।
माताजी ने ननदम यता से कहा—तुम उसके साथ क्यों न चिी गयी ? जब वह कहता था तब चिा जाना
चादहए था। कौन जाने, यह ॉँ मैं ककसी ददन तुम्हें ववष दे द।ू
मैंने धगडधगडाकर कहा—अम्म जी,ॉँ उन्हें बि
ु ा भेक्जए, आपके पैरों पडती हू। नहीीं तो कहीीं चिे जायेंगे।
अम्म ॉँ उसी ननदम यता से बोिीीं—जाय चाहे रहे , वह मेरा कौन है । अब तो जो कुछ हो, तुम हो, मझ ु े
कौन धगनता है । आज जरा-सी बात पर यह इतना झल्िा रहा है । और मेरी अम्माजी ने मझ
ु े सैकडों ही बार
पीटा होगा। मैं भी छोकरी न थी, तम्
ु हारी ही उम्र की थी, पर मजाि न थी कक तम्
ु हारे दादाजी से ककसी के
सामने बोि सकू। कच्चा ही खा जातीीं ! मार खाकर रात-भर रोती रहती थी, पर इस तरह घर छोडकर कोई
न भागता था। आजकि के िौंडे ही प्रेम करना नहीीं जानते, हम भी प्रेम करते थे, पर इस तरह नहीीं कक म -ॉँ
बाप, छोटे -बडे ककसी को कुछ न समझें।
यह कहती हुई माताजी पज
ू ा करने चिी गयी। मैं अपने कमरे में आकर नसीबों को रोने िगी। यही
शींका होती थी कक आनन्द ककसी तरफ की राह न िें। बार-बार जी मसोसता था कक रूपये क्यों न दे ददये।
बेचारे इधर-उधर मारे -मारे कफरते होंगे। अभी हाथ-मह
ु भी नहीीं धोया, जिपान भी नहीीं ककया। वक्त पर
जिपान न करें गे तो, जुकाम हो जायेगा, और उन्हें जक
ु ाम होता है, तो हरारत भी हो जाती है । महरी से
कहा—जरा जाकर दे ख तो बाबज
ू ी कमरे में हैं? उसने आकर कहा—कमरे में तो कोई नहीीं, खूटी पर कपडे भी
नहीीं है।
मैंने पछ
ू ा—क्या और भी कभी इस तरह अम्म जी ॉँ से रूठे हैं? महरी बोिी—कभी नहीीं बहू ऐसा सीधा
तो मैंने िडका ही नहीीं दे खा। मािककन के सामने कभी लसर नहीीं उठाते थे। आज न-जाने क्यों चिे गए।

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मझ
ु े आशा थी कक दोपहर को भोजन के समय वह आ जायेँगे। िेककन दोपहर कौन कहे ; शाम भी हो
गयी और उनका पनत नहीीं। सारी रात जागती रही। द्वार की ओर कान िगे हुए थे। मगर रात भी उसी
तरह गज
ु र गयी। बहन, इस प्रकार परू े तीन बीत गये। उस वक्त तम
ु मझ
ु े दे खतीीं, तो पहचान न सकतीीं।
रोते-रोते आखें िाि हो गयी थीीं। इन तीन ददनों में एक पि भी नहीीं सोयी और भख
ू का तो क्जक्र ही क्या,
पानी तक न वपया। प्यास ही न िगती थी। मािम
ू होता था, दे ह में प्राण ही नहीीं हैं। सारे घर में मातम-सा
ॉँ भोजन करने दोनों वक्त जाती थीीं, पर मह
छाया हुआ था। अम्म जी ु जूठा करके चिी आती थी। दोनों ननदों
की हसी और चह ु र भी गायब हो गयी थी। छोटी ननदजी तो मझ ु से अपना अपराध क्षमा कराने आयी।
चौथे ददन सबेरे रसोइये ने आकर मझ
ु से कहा—बाबज
ू ी तो अभी मझ
ु े दशाश्वमेध घाट पर लमिे थे। मैं
उन्हें दे खते ही िपककर उनके पास आ पहुचा और बोिा—भैया, घर क्यों नहीीं चिते? सब िोग घबडाये हुए
हैं। बहूजी ने तीन ददन से पानी तक वपया। उनका हाि बहुत बरु ा है। यह सन
ु कर वह कुछ सोच में पड गये,
कफर बोिे—बहूजी ने क्यों दाना-पानी छोड रखा है? जाकर कह दे ना, क्जस आराम के लिए उस घर को न छोड
सकी, उससे क्या इतनी जल्द जी-भर गया !
ॉँ उसी समय आगन में आ गयी। महाराज की बातों की भनक कानों में पड गयी, बोिी—क्या
अम्म जी
है अिग,ू क्या आनन्द लमिा था ?
महाराज—हा, बडी बहू, अभी दशाश्वमेध घाट पर लमिे थे। मैंने कहा—घर क्यों नहीीं चिते, तो बोिे—
उस घर में मेरा कौन बैठा हुआ है?
ॉँ
अम्म —कहा नहीीं और कोई अपना नहीीं है , तो स्त्री तो अपनी है , उसकी जान क्यों िेते हो?
महाराज—मैंने बहुत समझाया बडी बहू, पर वह टस-से-मस न हुए।
ॉँ
अम्म —करता क्या है?
महाराज—यह तो मैंने नहीीं पछ
ू ा, पर चेहरा बहुत उतरा हुआ था।
ॉँ
अम्म —जयों-जयों तम
ु बढ़ ू ा होता, कह ॉँ रहते हो, कह ॉँ
ू े होते हो, शायद सदठयाते जाते हो। इतना तो पछ
खाते-पीते हो। तुम्हें चादहए था, उसका हाथ पकड िेते और खीींचकर िे आते। मगर तुम नकमहरामों को
अपने हिवे-माींडे से मतिब, चाहे कोई मरे या क्जये। दोनों वक्त बढ़-बढ़कर हाथ मारते हो और मछों
ू पर ताव
दे ते हो। तुम्हें इसकी क्या परवाह है कक घर में दस
ू रा कोई खाता है या नहीीं। मैं तो परवाह न करती, वह
आये या न आये। मेरा धमम पािना-पोसना था, पाि पोस ददया। अब जह ॉँ चाहे रहे । पर इस बहू का क्या
करू, जो रो-रोकर प्राण ददये डािती है । तम्
ु हें ईश्वर ने आखे दी हैं, उसकी हाित दे ख रहे हो। क्या मह
ु से
इतना भी न फूटा कक बहू अन्न जि त्याग ककये पडी हुई।
महाराज—बहूजी, नारायण जानते हैं, मैंने बहुत तरह समझाया, मगर वह तो जैसे भागे जाते थे। कफर मैं
क्या करता।
ॉँ
अम्म —समझाया नहीीं, अपना लसर। तुम समझाते और वह योंही चिा जाता। क्या सारी िच्छे दार बातें
मझ
ु ी से करने को है? इस बहू को मैं क्या कहू। मेरे पनत ने मझ
ु से इतनी बेरूखी की होती, तो मैं उसकी सरू त
न दे खती। पर, इस पर उसने न-जाने कौन-सा जाद ू कर ददया है । ऐसे उदालसयों को तो कुिटा चादहए, जो
उन्हें नतगनी का नाच नचाये।
कोई आध घींटे बाद कहार ने आकर कहा—बाबज
ू ी आकर कमरे में बैठे हुए हैं।
मेरा किेजा धक-धक करने िगा। जी चाहता था कक जाकर पकड िाऊ, पर अम्म जी ॉँ का हृदय सचमच

वज्र है । बोिी—जाकर कह दे , यह ॉँ उनका कौन बैठा हुआ है, जो आकर बैठे हैं !
मैंने हाथ जोडकर कहा—अम्म जी,ॉँ उन्हें अन्दर बि
ु ा िीक्जए, कहीीं कफर न चिे जाऍ।ीं
ॉँ
अम्म —यह ॉँ उनका कौन बैठा हुआ है, जो आयेगा। मैं तो अन्दर कदम न रखने दगी।

अम्म जी ॉँ तो बबगड रही थी, उधर छोटी ननदजी जाकर आनन्द बाबू को िायी। सचमच ु उनका चेहरा
उतरा हुआ था, जैसे महीनों का मरीज हो। ननदजी उन्हें इस तरह खीचें िाती थी, जैसे कोई िडकी ससरु ाि
जा रही हो। अम्म जीॉँ ने मस्ु काराकर कहा—इसे यह ॉँ क्यों िायीीं? यह ॉँ इसका कौन बैठा हुआ है?
आनन्द लसर झक ॉँ खडे थे। जबान न खि
ु ाये अपराधधयों की भ नत ॉँ ने कफर पछ
ु ती थी। अम्म जी ू ा—चार
ददन से कह ॉँ थे?
‘कहीीं नही, यहीीं तो था।’
‘खूब चैन से रहे होगे।’
‘जी ह ,ॉँ कोई तकिीफ न थी।’

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‘वह तो सरू त ही से मािम
ू हो रहा है ।’
ननदजी जिपान के लिए लमठाई िायीीं। आनन्द लमठाई खाते इस तरह झेंप रहे थे मानों ससरु ाि आये
हों, कफर माताजी उन्हें लिए अपने कमरे में चिी गयीीं। वह ॉँ आध घींटे तक माता और पत्र
ु में बातें होती रही।
मैं कान िगाये हुए थी, पर साफ कुछ न सनु ायी दे ता था। ह ,ॉँ ऐसा मािम
ू होता था कक कभी माताजी रोती हैं
और कभी आन्नद। माताजी जब पज ू ा करने ननकिीीं, तो उनकी आखें िाि थीीं। आनन्द वह ॉँ से ननकिे, तो
सीधे मेरे कमरे में आये। मैं उन्हें आते दे ख चटपट मह ॉँ
ु ढ पकर चारपाई पर रही, मानो बेखबर सो रही हू। वह
कमरे में आये, मझु े चरपाई पर पडे दे खा, मेरे समीप आकर एक बार धीरे पकु ारा और िौट पडे। मझु े जगाने
की दहम्मत न पडी। मझ
ु े जो कष्ट हो रहा था, इसका एकमात्र कारण अपने को समझकर वह मन-ही-मन
द:ु खी हो रहे थे। मैंने अनम
ु ान ककया था, वह मझ
ु े उठायेंगे, मैं मान करूगी, वह मनायेंगे, मगर सारे मींसब
ू े
खाक में लमि गए। उन्हें िौटते दे खकर मझ
ु से न रहा गया। मैं हकबकाकर उठ बैठी और चारपाई से नीचे
उतरने िगी, मगर न-जाने क्यों, मेरे पैर िडखडाये और ऐसा जान पडा मैं धगरी जाती हू। सहसा आनन्द ने
पीछे कफर कर मझु े सींभाि लिया और बोिे—िेट जाओ, िेट जाओ, मैं कुरसी पर बैठा जाता हू। यह तम ु ने
अपनी क्या गनत बना रखी है ?
मैंने अपने को सभािकर कहा—मैं तो बहुत अच्छी तरह हू। आपने कैसे कष्ट ककया?
‘पहिे तुम कुछ भोजन कर िो, तो पीछे मैं कुछ बात करूगा।’
‘मेरे भोजन की आपको क्या कफक्र पडी है। आप तो सैर सपाटे कर रहे हैं !’
‘जैसे सैर-सपाटे मैंने ककये हैं, मेरा ददि जानता है। मगर बातें पीछे करूगा, अभी मह-हाथ
ु धोकर खा
िो। चार ददन से पानी तक मह
ु में नहीीं डािा। राम ! राम !’
‘यह आपसे ककसने कहा कक मैंने चार ददन से पानी तक मह
ु में नहीीं डािा। जब आपको मेरी परवाह
न थी, तो मैं क्यों दाना-पानी छोडती?’
‘वह तो सरू त ही कहे दे ती हैं। फूि से… मरु झा गये।’
‘जरा अपनी सरू त जाकर आईने में दे खखए।’
‘मैं पहिे ही कौन बडा सन्
ु दर था। ठूठ को पानी लमिे तो क्या और न लमिे तो क्या। मैं न जानता
था कक तुम यह अनशन-व्रत िे िोगी, नहीीं तो ईश्वर जानता है , अम्म ॉँ मार-मारकर भगातीीं, तो भी न जाता।’
मैंने नतरस्कार की दृक्ष्ट से दे खकर कहा—तो क्या सचमच
ु तुम समझे थे कक मैं यहा केवि आराम के
ववचार से रह गयी?
आनन्द ने जल्दी से अपनी भि
ू सध ु री—नहीीं, नहीीं वप्रये, मैं इतना गधा नहीीं हू, पर यह मैं कदावप न
समझता था कक तम
ु बबिकुि दाना-पानी छोड दोगी। बडी कुशि हुई कक मझ ु े महाराज लमि गया, नहीीं तो
तमु प्राण ही दे दे ती। अब ऐसी भि ॉँ
ू कभी न होगी। कान पकडता हू। अम्म जी तम्
ु हारा बखान कर-करके
रोती रही।
मैंने प्रसन्न होकर कहा—तब तो मेरी तपस्या सफि हो गयी।
‘थोडा-सा दध
ू पी िो, तो बातें हों। जाने ककतनी बातें करनी है ।
‘पी िगी,
ू ऐसी क्या जल्दी है ।’
‘जब तक तुम कुछ खा न िोगी, मैं यही समझगा
ू कक तुमने मेरा अपराध क्षमा नहीीं ककया।’
‘मैं भोजन जभी करूगी, जब तुम यह प्रनतज्ञा करो कक कफर कभी इस तरह रूठकर न जाओगे।’
‘मैं सच्चे ददि से यह प्रनतज्ञा करता हू।’
बहन, तीन ददन कष्ट तो हुआ, पर मझ ु े उसके लिए जरा भी पछतावा नहीीं है । इन तीन ददनों के
अनशन ने ददिों मे जो सफाई कर दी, वह ककसी दस
ू री ववधध से कदावप न होती। अब मझ
ु े ववश्वास है कक
हमारा जीवन शाींनत से व्यतीत होगा। अपने समाचार शीघ्र, अनत शीघ्र लिखना।

तुम्हारी
चन्दा

13

ददल्िी
20-2-26
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प्यारी बहन,
तम्
ु हारा पत्र पढ़कर मझ
ु े तम्
ु हारे ऊपर दया आयी। तम
ु मझ
ु े ककतना ही बरु ा कहो, पर मैं अपनी यह
दग
ु नम त ककसी तरह न सह सकती, ककसी तरह नहीीं। मैंने या तो अपने प्राण ही दे ददये होते, या कफर उस सास
का मह
ु न दे खती। तुम्हारा सीधापन, तुम्हारी सहनशीिता, तम्
ु हारी सास-भक्क्त तम्
ु हें मब
ु ारक हो। मैं तो
तुरन्त आनन्द के साथ चिी जाती और चाहे भीख ही क्यों न मागनी पडती उस घर में कदम न रखती।
मझ
ु े तुम्हारे ऊपर दया ही नहीीं आती, क्रोध भी आता है , इसलिए कक तुममें स्वालभमान नहीीं है । तुम-जैसी
क्स्त्रयों ने ही सासों और परू ु में जाय ऐसा घर—जह ॉँ अपनी
ु षों का लमजाज आसमान चढ़ा ददया है । ‘जहन्नम
इजजत नहीीं।’ मैं पनत-प्रेम भी इन दामों न ि।ू तुम्हें उन्नीसवी सदी में जन्म िेना चादहए था। उस वक्त
तुम्हारे गुणों की प्रशींसा होती। इस स्वाधीनता और नारी-स्वत्व के नवयग
ु में तुम केवि प्राचीन इनतहास हो।
यह सीता और दमयन्ती का यग ु नहीीं। परू
ु षों ने बहुत ददनों तक राजय ककया। अब स्त्री-जानत का राजय
होगा। मगर अब तम्
ु हें अधधक न कोसगी।

अब मेरा हाि सन
ु ो। मैंने सोचा था, पत्रों में अपनी बीमारी का समाचार छपवा दगी।
ू िेककन कफर
ॉँ िग जायेगा। कोई लमजाज पछ
ख्याि आया; यह समाचार छपते ही लमत्रों का त ता ू ने आयेगा। कोई दे खने
आयेगा। कफर मैं कोई रानी तो हू नहीीं, क्जसकी बबमारी का बि ु ेदटन रोजाना छापा जाय। न जाने िोगों के
ददि में कैसे-कैसे ववचार उत्पन्न हों। यह सोचकर मैंने पत्र में छपवाने का ववचार छोड ददया। ददन-भर मेरे
धचत्त की क्या दशा रही, लिख नहीीं सकती। कभी मन में आता, जहर खा ि,ू कभी सोचती, कहीीं उड जाऊीं।
ॉँ
ववनोद के सम्बन्ध में भ नत-भ ॉँ की शींकाऍ ीं होने िगीीं। अब मझ
नत ु े ऐसी ककतनी ही बातें याद आने िगीीं, जब
मैंने ववनोद के प्रनत उदासीनता का भाव ददखाया था। मैं उनसे सब कुछ िेना चाहती थी; दे ना कुछ न चाहती
थी। मैं चाहती थी कक वह आठों पहर भ्रमर की भ नत ॉँ मझ ॉँ मझ
ु पर मडराते रहें , पतींग की भ नत ु े घेरे रहें ।
उन्हें ककताबो और पत्रों में मग्न बैठे दे खकर मझ
ु े झझिाहट
ु होने िगती थी। मेरा अधधकाींश समय अपने ही
बनाव-लसींगार में कटता था, उनके ववषय में मझ
ु े कोई धचन्ता ही न होती थी। अब मझ
ु े मािम
ू हुआ कक सेवा
का महत्व रूप से कहीीं अधधक है। रूप मन को मग्ु ध कर सकता है, पर आत्मा को आनन्द पहुचाने वािी
कोई दस
ू री ही वस्तु है ।
इस तरह एक हफ्ता गज
ु र गया। मैं प्रात:काि मैके जाने की तैयाररया कर रही थी—यह घर फाडे
खाता था—कक सहसा डाककये ने मझ ॉँ
ु े एक पत्र िाकर ददया। मेरा हृदय धक-धक करने िगा। मैंने क पते हुए
हाथों से पत्र लिया, पर लसरनामे पर ववनोद की पररधचत हस्तलिवप न थी, लिवप ककसी स्त्री की थी, इसमें
सन्दे ह न था, पर मैं उससे सवमथा अपररधचत थी। मैंने तरु न्त पत्र खोिा और नीचे की तरफ दे खा तो चौंक
पडी—वह कुसम ु का पत्र था। मैंने एक ही सास में सारा पत्र पढ़ लिया। लिखा था—‘बहन, ववनोद बाबू तीन
ददन यह ॉँ रहकर बम्बई चिे गये। शायद वविायत जाना चाहते हैं। तीन-चार ददन बम्बई रहें गे। मैंने बहुत
चाहा तकक उन्हें ददल्िी वापस कर द,ू पर वह ककसी तरह न राजी हुए। तुम उन्हें नीचे लिखे पते से तार दे
दो। मैंने उनसे यह पता पछ
ू लिया था। उन्होंने मझ
ु े ताकीद कर दी थी कक इस पते को गुप्त रखना, िेककन
तुमसे क्या परदा। तमु तुरन्त तार दे दो, शायद रूक जायॅ। वह बात क्या हुई ! मझ
ु से ववनोद ने तो बहुत
पछ
ू ने पर भी नहीीं बताया, पर वह द:ु खी बहुत थे। ऐसे आदमी को भी तुम अपना न बना सकी, इसका मझ ु े
आश्चयम है; पर मझ
ु े इसकी पहिे ही शींका थी। रूप और गवम में दीपक और प्रकाश का सम्बन्ध है। गवम रूप
का प्रकाश है ।’…
मैंने पत्र रख ददया और उसी वक्त ववनोद के नाम तार भेज ददया कक बहुत बीमार हू, तरु न्त आओ।
मझ
ु े आशा थी कक ववनोद तार द्वारा जवाब दें गे, िेककन सारा ददन गुजर गया और कोई जवाब न आया।
बगिे के सामने से कोई साइककि ननकिती, तो मैं तरु न्त उसकी ओर ताकने िगती थीीं कक शायद तार का
चपरासी हो। रात को भी मैं तार का इन्तजार करती रही। तब मैंने अपने मन को इस ववचार से शाींत ककया
कक ववनोद आ रहे हैं, इसलिए तार भेजने की जरूरत न समझी।
अब मेरे मन में कफर शकाए उठने िगी। ववनोद कुसम
ु के पास क्यों गये, कहीीं कुसम
ु से उन्हें प्रेम तो
नहीीं हैं? कहीीं उसी प्रेम के कारण तो वह मझ
ु से ववरक्त नहीीं हो गये? कुसम
ु कोई कौशि तो नहीीं कर रही हैं?
उसे ववनोद को अपने घर ठहराने का अधधकार ही क्या था? इस ववचार से मेरा मन बहुत क्षुब्ध हो उठा।
कुसम
ु पर क्रोध आने िगा। अवश्य दोनों में बहुत ददनों से पत्र-व्यवहार होता रहा होगा। मैंने कफर कुसम
ु का
पत्र पढ़ा और अबकी उसके प्रत्येक शब्द में मेरे लिए कुछ सोचने की सामग्री रखी हुई थी। ननश्चय ककया कक
कुसम ु को एक पत्र लिखकर खूब कोस।ू आधा पत्र लिख भी डािा, पर उसे फाड डािा। उसी वक्त ववनोद को

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एक पत्र लिखा। तम
ु से कभी भें ट होगी, तो वह पत्र ददखिाऊगी; जो कुछ मह
ु में आया बक डािा। िेककन इस
पत्र की भी वही दशा हुई जो कुसमु के पत्र की हुई थी। लिखने के बाद मािम
ू हुआ कक वह ककसी ववक्षप्त
हृदय की बकवाद है । मेरे मन में यही बात बैठती जाती थी वह कुसम ु के पास हैं। वही छलिनी उन पर
अपना जाद ू चिा रही है । यह ददन भी बीत गया। डाककया कई बार आया, पर मैंने उसकी ओर ऑ ींख भी नहीीं
उठायी। चन्दा, मैं नहीीं कह सकती, मेरा हृदय ककतना नतितलमिा रहा था। अगर कुसम
ु इस समय मझ
ु े लमि
जाती, तो मैं न-जाने क्या कर डािती।
रात को िेटे-िेटे ख्याि आया, कहीीं वह यरू ोप न चिे गये हों। जी बैचन
े हो उठा। लसर में ऐसा चक्कर
आने िगा, मानों पानी में डूबी जाती हू। अगर वह यरू ोप चिे गये, तो कफर कोई आशा नहीीं—मैं उसी वक्त
उठी और घडी पर नजर डािी। दो बजे थे। नौकर को जगाया और तार-घर जा पहुची। बाबज ू ी कुरसी पर
िेटे-िेटे सो रहे थे। बडी मक्ु श्कि से उनकी नीींद खि
ु ी। मैंने रसीदी तार ददया। जब बाबज
ू ी तार दे चकु े , तो
मैंने पछ
ू ा— इसका जवाब कब तक आयेगा?
बाबू ने कहा—यह प्रश्न ककसी जयोनतषी से कीक्जए। कौन जानता है , वह कब जवाब दें । तार का
चपरासी जबरदस्ती तो उनसे जवाब नहीीं लिखा सकता। अगर कोई और कारण न हो, तो आठ-नौ बजे तक
जवाब आ जाना चादहए।
घबराहट में आदमी की बद्
ु धध पिायन कर जाती है। ऐसा ननरथमक प्रश्न करके मैं स्वयीं िक्जजत हो
गयी। बाबज
ू ी ने अपने मन में मझ
ु े ककतना मख
ू म समझा होगा; खैर, मैं वहीीं एक बेंच पर बैठ गयी और तुम्हें
ववश्वास न आयेगा, नौ बजे तक वहीीं बैठी रही। सोचो, ककतने घींटे हुए? परू े सात घींटे। सैकडों आदमी आये
और गये, पर मैं वहीीं जमी बैठी रही। जब तार का डमी खटकता, मेरे हृदय में धडकन होने िगती। िेककन
इस भय से कक बाबज
ू ी झल्िा न उठें , कुछ पछ
ू ने का साहस न करती थीीं। जब दफ्तर की घडी में नौ बजे,
तो मैंने डरते-डरते बाबू से पछ
ू ा—क्या अभी तक जवाब नहीीं आया।
बाबू ने कहा— आप तो यहीीं बैठी हैं, जवाब आता तो क्या मैं खा डािता? मैंने बेहयाई करके कफर
पछ
ू ा—तो क्या अब न आवेगा? बाबू ने मह
ु फेरकर कहा—और—दो-चार घींटे बैठी रदहए।
बहन, यह वाग्बाण शर के समान हृदय में िगा। आखे भर आयीीं। िेककन कफर मैं वह टिी नहीीं। अब
भी आशा बधी हुई थी कक शायद जवाब आता हो। जब दो घींटे और गज ु र गये, तब मैं ननराश हो गयी। हाय
! ववनोद ने मझ
ु े कहीीं का न रखा। मैं घर चिी, तो ऑ ींखें से आसओ
ु ीं की झडी िगी हुई थी। रास्ता न सझू ता
था।
सहसा पीछे से एक मोटर का हानम सन
ु ायी ददया। मैं रास्ते से हट गयी। उस वक्त मन में आया, इसी
ॉँ और जीवन का अन्त कर द।ू मैंने ऑ ींखे पोंछकर मोटर की ओर दे खा, भव
मोटर के नीचे िेट ज ऊ ु न बैठा
हुआ था और उसकी बगि में बैठी थी कुसम ु ! ऐसा जान पडा, अक्ग्न की जवािा मेरे पैरों से समाकर लसर
से ननकि गयी। मैं उन दोनों की ननगाहों से बचना चाहती थी, िेककन मोटर रूक गयी और कुसम ु उतर कर
मेरे गिे से लिपट गयी। भव
ु न चप
ु चाप मोटर में बैठा रहा, मानो मझ
ु े जानता ही नहीीं। ननदम यी, धत
ू म !
कुसम ू ा—मैं तो तुम्हारे पास जाती थी, बहन? वह ॉँ से कोई खबर आयी? मैंने बात टािने के लिए
ु ने पछ
कहा—तुम कब आयीीं?
भव
ु न के सामने मैं अपनी ववपवत्त-कथा न कहना चाहती थी।
कुसम
ु —आओ, कार में बैठ जाओ।
‘नहीीं, मैं चिी जाउगी। अवकाश लमिे, तो एक बार चिी आना।’
कुसम
ु ने मझ
ु से आग्रह न ककया। कार में बैठकर चि दी। मैं खडी ताकती रह गयी ! यह वही कुसम

है या कोई और? ककतना बडा अन्तर हो गया है ?
मैं घर चिी, तो सोचने िगी—भव ु न से इसकी जान-पहचान, कैसे हुई? कहीीं ऐसा तो नहीीं है कक ववनोद
ने इसे मेरी टोह िेने को भेजा हो ! भव
ु न से मेरे ववषय में कुछ पछ
ू ने तो नहीीं आयी हैं?
मैं घर पहुचकर बैठी ही थी कक कुसम
ु आ पहुची। अब की वह मोटर में अकेिी न थी—ववनोद बैठे हुए
थे। मैं उन्हे दे खकर दठठक गयी ! चादहए तो यह था कक मैं दौडकर उनका हाथ पकड िेती और मोटर से
अतार िाती, िेककन मैं जगह से दहिी तक नहीीं। मनू तम की भानत अचि बैठी रही। मेरी मानननी प्रकृनत
आपना उद्दण्ड-स्वरूप ददखाने के लिए ववकि हो उठी। एक क्षण में कुसम
ु ने ववनोद को उतारा और उनका
हाथ पकडे हुये िे आयी। उस वक्त मैंने दे खा कक ववनोद का मख
ु बबिकुि पीिा पड गया है और वह इतने

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अशक्त हो गये हैं कक अपने सहारे खडे भी नहीीं रह सकते, मैंने घबराकर पछ
ू ा, क्यों तम्
ु हारा यह क्या हाि
है ?
कुसम
ु ने कहा—हाि पीछे पछ
ू ना, जरा इनकी चौपाई चटपट बबछा दो और थोडा-सा दध
ू मगवा िो।
मैंने तुरन्त चारपाई बबछायी और ववनोद को उस पर िेटा ददया। और दध ू तो रखा हुआ था। कुसम ु
इस वक्त मेरी स्वालमनी बनी हुई थी। मैं उसके इशारे पर नाच रही थी। चन्दा, इस वक्त मझ
ु े ज्ञात हुआ कक
कुसम
ु पर ववनोद को क्जतना ववश्वास है, वह मझ
ु पर नहीीं। मैं इस योग्य हू ही नहीीं। मेरा ददि सैकडों प्रश्न
पछ
ू ने के लिए तडफडा रहा था, िेककन कुसम
ु एक पि के लिए भी ववनोद के पास से ने टिती थी। मैं इतनी
मख ॉँ ब ध
ू म हू कक अवसर पाने पर इस दशा में भी मैं ववनोद से प्रश्नों का त ता ॉँ दे ती।
ववनोद को जब नीींद आ गयी, मैंने ऑ ींखो में ऑ ींसू भरकर कुसम
ु से पछ
ू ा—बहन, इन्हें क्या लशकायत है?
मैंने तार भेजा। उसका जवाब नहीीं आया। रात दो बजे एक जरुरी और जवाबी तार भेजा। दस बजे तक तार-
घर बैठी जवाब की राह दे खती रही। वहीीं से िौट रही थी, जब तम ु हे कह ॉँ लमि
ु रास्ते में लमिी। यह तम्
गये?
कुसम
ु मेरा हाथ पकडकर दस
ू रे कमरे में िे गयी और बोिी—पहिे तुम यह बताओीं कक भव
ु न का क्या
मआ
ु मिा था? दे खो, साफ, कहना।
मैंने आपवत्त करते हुए कहा—कुसम
ु , तुम यह प्रश्न पछ
ू कर मेरे साथ अन्याय कर रही हो। तुम्हें खुद
समझ िेना चादहए था कक इस बात में कोई सार नहीीं है ! ववनोद को केवि भ्रम हो गया।
‘बबना ककसी कारण के?’
‘ह ,ॉँ मेरी समझ में तो कोई कारण न था।’
‘मैं इसे नहीीं मानती। यह क्यों नहीीं कहतीीं कक ववनोद को जिाने, धचढाने और जगाने के लिए तम
ु ने
ॉँ रचा था।’
यह स्व ग
कुसम
ु की सझ
ू पर चककत होकर मैंने कहा—वह तो केवि ददल्िगी थी।
‘तुम्हारे लिए ददल्िगी थी, ववनोद के लिए वज्रपात था। तुमने इतने ददनों उनके साथ रहकर भी उन्हें
नहीीं समझा ! तुम्हें अपने बनाव-सवार के आगे उन्हें समझने की कह ॉँ फुरसत ? कदाधचत ् तुम समझती हो
कक तुम्हारी यह मोहनी मनू तम ही सब कुछ है । मैं कहती हू, इसका मल्
ू य दो-चार महीने के लिए हो सकता है ।
स्थायी वस्तु कुछ और ही है।’
मैंने अपनी भि
ू स्वीकार करते हुए कहा—ववनोद को मझ
ु से कुछ पछू ना तो चादहए था?
कुसम ु ने हसकर कहा—यही तो वह नही कर सकते। तम ु से ऐसी बात पछ ू ना उनके लिए असम्भव है ।
वह उन प्राखणयों में है , जो स्त्री की ऑ ींखें से धगरकर जीते नहीीं रह सकते। स्त्री या परू
ु ष ककसी के लिए भी
वह ककसी प्रकार का धालममक या नैनतक बन्धन नहीीं रखना चाहते। वह प्रत्येक प्राणी के लिए पण
ू म स्वाधीनता
के समथमक हैं। मन और इच्छा के लसवा वह कोई बींधन स्वीकार नहीीं करते। इस ववषय पर मेरी उनसे खूब
बातें हुई हैं। खैर—मेरा पता उन्हें मािम ू था ही, यह ॉँ से सीधे मेरे पास पहुचे। मैं समझ गई कक आपस में
पटी नहीीं। मझ ु े तुम्हीीं पर सन्दे ह हुआ।
मैंने पछ
ू ा—क्यों? मझ ु पर तुम्हें क्यों सन्दे ह हुआ?
‘इसलिए कक मैं तम् ु हे पहिे दे ख चक ु ी थी।’
‘अब तो तम्
ु हें मझ
ु पर सन्दे ह नहीीं।’
‘नहीीं, मगर इसका कारण तम्
ु हारा सींयम नहीीं, परम्परा है । मैं इस समय स्पष्ट बातें कर रहीीं हूीं, इसके
लिए क्षमा करना।’
‘नहीीं, ववनोद से तुम्हें क्जतना प्रेम है, उससे अधधक अपने-आपसे है । कम-से-कम दस ददन पहिे यही
बात थी। अन्यथा यह नौबत ही क्यों आती? ववनोद यह ॉँ से सीधे मेरे पास गये और दो-तीन ददन रहकर
बम्बई चिे गये। मैंने बहुत पछ ू ा, पर कुछ बतिाया नहीीं। वह ॉँ उन्होंने एक ददन ववष खा लिया।’
मेरे चेहरे का रीं ग उड गया।
‘बम्बई पहुचते ही उन्होंने मेरे पास एक खत लिखा था। उसमें यह ॉँ की सारी बातें लिखी थीीं और
अन्त में लिखा था—मैं इस जीवन से तींग आ गया हू, अब मेरे लिए मौत के लसवा और कोई उपाय नहीीं है ।’
मैंने एक ठीं डी सास िी।
‘मैं यह पत्र पाकर घबरा गयी और उसी वक्त बम्बई रवाना हो गयी। जब वह ॉँ पहुची, तो ववनोद को
मरणासन्न पाया। जीवन की कोई आशा नहीीं थी। मेरे एक सम्बन्धी वह ॉँ डाक्टारी करते हैं। उन्हें िाकर

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ददखाया तो वह बोिे—इन्होंने जहर खा लिया है। तरु न्त दवा दी गयी। तीन ददन तक डाक्टर साहब न ददन-
को-ददन और रात-को-रात न समझा, और मैं तो एक क्षण के लिए ववनोद के पास से न हटी। बारे तीसरे
ददन इनकी ऑ ींख खि
ु ी। तम्
ु हारा पहिा तार मझ
ु े लमिा था, पर उसका जवाब दे ने की ककसे फुरसत थी? तीन
ददन और बम्बई रहना पडा। ववनोद इतने कमजोर हो गये थे कक इतना िम्बा सफर करीनाउनके लिए
असम्भव था। चौथे ददन मैंने जब उनसे यह ॉँ आने का प्रस्ताव ककया, तो बोिे—मैं अब वह ॉँ न जाऊगा। जब
मैंने बहुत समझाया, तब इस शतम पर राजी हुए ताकक मैं पहिे आकर यह ॉँ की पररक्स्थनत दे ख जाऊीं।’
मेरे मह
ु से ननकिा—‘हा ! ईश्वर, मैं ऐसी अभाधगनी हू।’
‘अभाधगनी नहीीं हो बहन, केवि तुमने ववनोद को समझा न था। वह चाहते थे कक मैं अकेिी जाऊ, पर
मैंने उन्हें इस दशा में वह छोडना उधचत न समझा। परसों हम दोनों वह ॉँ चिे। यह ॉँ पहुचकर ववनोद तो
वेदटींग-रूम में ठहर गये, मैं पता पछ
ू ती हुई भव
ु न के पास पहुची। भव
ु न को मैंने इतना फटकारा कक वह रो
ु से यह ॉँ तक कह डािा कक तम
पडा। उसने मझ ु ने उसे बरु ी तरह दत्ु कार ददया है। आखों का बरु ा आदमी है , पर
ददि का बरु ा नहीीं। उधर से जब मझ
ु े सन्तोष हो गया और रास्ते में तुमसे भें ट हो जाने पर रहा-सहा भ्रम
भी दरू हो गया, तो मैं ववनोद को तुम्हारे पास िायी। अब तुम्हारी वस्तु तुम्हें सौपतीीं हू। मझ
ु े आशा है , इस
दघ
ु ट
म ना ने तुम्हें इतना सचेत कर ददया होगा कक कफर नौबत न आयेगी। आत्मसमपमण करना सीखो। भि ू
जाओ कक तुम सन्ु दरी हो, आनन्दमय जीवन का यही मि ू मींत्र है । मैं डीींग नहीीं मारती, िेककन चाहू तो आज
ववनोद को तुमसे छीन सकती हू। िेककन रूप में मैं तुम्हारे तिओ ु ीं के बराबर भी नहीीं। रूप के साथ अगर
तुम सेवा-भाव धारण कर सको, तो तुम अजेय हो जाओगी।’
मैं कुसम
ु के पैरों पर धगर पडी और रोती हुई बोिी—बहन, तम ु ने मेरे साथ जो उपकार ककया है, उसके
लिए मरते दम तक तम् ु हारी ऋणी रहूगी। तम
ु ने न सहायता की होती, तो आज न-जाने क्या गनत होती।
बहन, कुसम
ु कि चिी जायगी। मझ
ु े तो अब वह दे वी-सी दीखती है । जी चाहता है , उसके चरण धो-
धोकर पीऊ। उसके हाथों मझ
ु े ववनोद ही नहीीं लमिे हैं, सेवा का सच्चा आदशम और स्त्री का सच्चा कत्तमव्य-
ज्ञान भी लमिा है। आज से मेरे जीवन का नवयग
ु आरम्भ होता है, क्जसमें भोग और वविास की नहीीं,
सहृदयता और आत्मीयता की प्रधानता होगी।
तुम्हारी,
पद्मा

िोहाग का शि

म ध्यप्रदे श के एक पहाडी ग वॉँ में एक छोटे -से घर की छत पर एक यव


ु क मानो सींध्या की ननस्तब्धता
ॉँ
में िीन बैठा था। सामने चन्द्रमा के मलिन प्रकाश में ऊदी पवमतमािाऍ ीं अनन्त के स्वप्न की भ नत

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गम्भीर रहस्यमय, सींगीतमय, मनोहर मािम
ू होती थीीं, उन पहाडडयों के नीचे जि-धारा की एक रौप्य रे खा
ऐसी मािम
ू होती थी, मानो उन पवमतों का समस्त सींगीत, समस्त गाम्भीयम, सम्पण
ू म रहस्य इसी उजजवि
प्रवाह में िीन हो गया हो। यव ू ा से प्रकट होता था कक उसकी दशा बहुत सम्पन्न नही है । ह ,ॉँ
ु क की वेषभष
उसके मख ु से तेज और मनक्स्वता झिक रही थी। उसकी ऑ ींखो पर ऐनक न थी, न मछें ू मड ु ी हुई थीीं, न
बाि सवारे हुए थे, किाई पर घडी न थी, यह ॉँ तक कक कोट के जेब में फाउन्टे नपेन भी न था। या तो वह
लसद्धान्तों का प्रेमी था, या आडम्बरों का शत्र।ु
यव
ु क ववचारों में मौन उसी पवमतमािा की ओर दे ख रहा था कक सहसा बादि की गरज से भयींकर
ध्वनन सन
ु ायी दी। नदी का मधरु गान उस भीषण नाद में डूब गया। ऐसा मािम ू हुआ, मानो उस भयींकर
नाद ने पवमतो को भी दहिा ददया है , मानो पवमतों में कोई घोर सींग्राम नछड गया है । यह रे िगाडी थी, जो नदी
पर बने हुए पिु से चिी आ रही थी।
एक यव ु ती कमरे से ननकि कर छत पर आयी और बोिी—आज अभी से गाडी आ गयी। इसे भी
आज ही वैर ननभाना था।
यव
ु क ने यव
ु ती का हाथ पकड कर कहा—वप्रये ! मेरा जी चाहता है ; कहीीं न जाऊ; मैंने ननश्चय कर
लिया है । मैंने तुम्हारी खानतर से हामी भर िी थी, पर अब जाने की इच्छा नहीीं होती। तीन साि कैसे कटें गे।
यव
ु ती ने कातर स्वर में कहा—तीन साि के ववयोग के बाद कफर तो जीवनपयमन्त कोई बाधा न खडी
होगी। एक बार जो ननश्चय कर लिया है , उसे परू ा ही कर डािो, अनींत सख
ु की आशा में मैं सारे कष्ट झेि
िगी।

यह कहते हुए यव
ु ती जिपान िाने के बहाने से कफर भीतर चिी गई। ऑ ींसओ
ु ीं का आवेग उसके बाबू
से बाहर हो गया। इन दोनों प्राखणयों के वैवादहक जीवन की यह पहिी ही वषमग ठ थी। यव ु क बम्बई-
ववश्वववद्यािय से एम० ए० की उपाधध िेकर नागपरु के एक कािेज में अध्यापक था। नवीन यग
ु की नयी-
नयी वैवादहक और सामाक्जक क्राींनतयों न उसे िेशमात्र भी ववचलित न ककया था। परु ानी प्रथाओीं से ऐसी
प्रगाढ़ ममता कदाधचत ् वद्
ृ धजनों को भी कम होगी। प्रोफेसर हो जाने के बाद उसके माता-वपता ने इस
बालिका से उसका वववाह कर ददया था। प्रथानस
ु ार ही उस आखलमचौनी के खैि मे उन्हें प्रेम का रत्न लमि
गया। केवि छुट्दटयों में यह ॉँ पहिी गाडी से आता और आखखरी गाडी से जाता। ये दो-चार ददन मीठे स्व्प्न
ॉँ रो-रोकर बबदा होते। इसी कोठे पर खडी होकर वह उसको
के समान कट जाते थे। दोनों बािकों की भ नत
दे खा करती, जब तक ननदम यी पहाडडयाीं उसे आड मे न कर िेतीीं। पर अभी साि भी न गज
ु रने पाया था कक
ववयोग ने अपना षड्यींत्र रचना शरूु कर ददया। केशव को ववदे श जा कर लशक्षा परू ी करने के लिए एक ववृ त्त
लमि गयी। लमत्रों ने बधाइय ॉँ दी। ककसके ऐसे भाग्य हैं, क्जसे बबना म गे
ॉँ स्वभाग्य-ननमामण का ऐसा अवसर
प्राप्त हो। केशव बहुत प्रसन्न था। वह इसी दवु वधा में पडा हुआ घर आया। माता-वपता और अन्य
सम्बक्न्धयों ने इस यात्रा का घोर ववरोध ककया। नगर में क्जतनी बधाइय लमिी थीीं, यह ीं उससे कहीीं अधधक
बाधाऍ ीं लमिीीं। ककन्तु सभ
ु द्रा की उच्चाकाींक्षाओीं की सीमा न थी। वह कदाधचत ् केशव को इन्द्रासन पर बैठा
हुआ दे खना चाहती थी। उसके सामने तब भी वही पनत सेवा का आदशम होता था। वह तब भी उसके लसर में
तेि डािेगी, उसकी धोती छ टेॉँ गी, उसके प वॉँ दबायेगी और उसके पींखा झिेगी। उपासक की महत्वाकाींक्षा
उपास्य ही के प्रनत होती है। वह उसको सोने का मक्न्दर बनवायेगा, उसके लसींहासन को रत्नों से सजायेगा,
स्वगम से पष्ु प िाकर भें ट करे गा, पर वह स्वयीं वही उपासक रहे गा। जटा के स्थान पर मक
ु ु ट या कौपीन की
जगह वपताम्बर की िािसा उसे कभी नही सताती। सभ
ु द्रा ने उस वक्त तक दम न लिया जब तक केशव ने
वविायत जाने का वादा न कर लिया, माता-वपता ने उसे कींिककनी और न जाने क्या-क्या कहा, पर अन्त में
सहमत हो गए। सब तैयाररयाीं हो गयीीं। स्टे शन समीप ही था। यह ॉँ गाडी दे र तक खडी रहती थी। स्टे शनों के
समीपस्थ ग वॉँ के ननवालसयों के लिए गाडी का आना शत्रु का धावा नहीीं, लमत्र का पदापमण है । गाडी आ गयी।
सभ
ु द्रा जिपान बना कर पनत का हाथ धि
ु ाने आयी थी। इस समय केशव की प्रेम-कातर आपवत्त ने उसे एक
क्षण के लिए ववचलित कर ददया। हा ! कौन जानता है , तीन साि मे क्या हो जाय ! मन में एक आवेश
उठा—कह द,ू प्यारे मत जाओ। थोडी ही खायेंगे, मोटा ही पहनेगें, रो-रोकर ददन तो न कटे गें। कभी केशव के
आने में एक-आधा महीना िग जाता था, तो वह ववकि हो जाया करता थी। यही जी चाहता था, उडकर
उनके पास पहुच जाऊ। कफर ये ननदम यी तीन वषम कैसे कटें गें ! िेककन उसने कठोरता से इन ननराशाजनक
ॉँ
भावों को ठुकरा ददया और क पते कींठ से बोिी—जी तो मेरा भी यही चाहता है। जब तीन साि का अनम ु ान
करती हू, तो एक कल्प-सा मािम
ू होता है। िेककन जब वविायत में तुम्हारे सम्मान और आदर का ध्यान

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करती हू, तो ये तीन साि तीन ददन से मािम ू होते हैं। तम ु तो जहाज पर पहुचते ही मझ ु े भिू जाओगे।
नये-नये दृश्य तम्
ु हारे मनोरीं जन के लिए आ खडे होंगे। यरू ोप पहुचकर ववद्वानो के सत्सींग में तम्
ु हें घर की
ु े तो रोने के लसवा और कोई धींधा नहीीं है । यही स्मनृ तय ॉँ ही मेरे जीवन का आधार
याद भी न आयेगी। मझ
होंगी। िेककन क्या करु, जीवन की भोग-िािसा तो नहीीं मानती। कफर क्जस ववयोग का अींत जीवन की सारी
ववभनू तय ॉँ अपने साथ िायेगा, वह वास्तव में तपस्या है । तपस्या के बबना तो वरदान नहीीं लमिता।
केशव को भी अब ज्ञात हुआ कक क्षखणक मोह के आवेश में स्वभाग्य ननमामण का ऐसा अच्छा अवसर
त्याग दे ना मख
ू त
म ा है । खडे होकर बोिे—रोना-धोना मत, नहीीं तो मेरा जी न िगेगा।
सभ
ु द्रा ने उसका हाथ पकडकर हृदय से िगाते हुए उनके मह
ु की ओर सजि नेत्रों से दे खा ओर
बोिी—पत्र बराबर भेजते रहना।
सभ
ु द्रा ने कफर आखें में आसू भरे हुए मस्
ु करा कर कहा—दे खना वविायती लमसों के जाि में न फस
जाना।
केशव कफर चारपाई पर बैठ गया और बोिा—तुम्हें यह सींदेह है, तो िो, मैं जाऊगा ही नहीीं।
ु दा ने उसके गिे मे ब हेॉँ डाि कर ववश्वास-पण
सभ्र ू म दृक्ष्ट से दे खा और बोिी—मैं ददल्िगी कर रही थी।
‘अगर इन्द्रिोक की अप्सरा भी आ जाये, तो आख उठाकर न दे खीं।ू िह्मा ने ऐसी दस
ू री सष्ृ टी की ही
नहीीं।’
‘बीच में कोई छुट्टी लमिे, तो एक बार चिे आना।’
‘नहीीं वप्रये, बीच में शायद छुट्टी न लमिेगी। मगर जो मैंने सन
ु ा कक तुम रो-रोकर घि
ु ी जाती हो, दाना-पानी
छोड ददया है , तो मैं अवश्य चिा आऊगा ये फूि जरा भी कुम्हिाने न पायें।’
दोनों गिे लमि कर बबदा हो गये। बाहर सम्बक्न्धयों और लमत्रों का एक समह
ू खडा था। केशव ने बडों
के चरण छुए, छोटों को गिे िगाया और स्टे शन की ओर चिे। लमत्रगण स्टे शन तक पहुचाने गये। एक क्षण
में गाडी यात्री को िेकर चि दी।
उधर केशव गाडी में बैठा हुआ पहाडडयों की बहार दे ख रहा था; इधर सभ
ु द्रा भलू म पर पडी लससककय
भर रही थी।

दद न गुजरने िगे। उसी तरह, जैसे बीमारी के ददन कटते हैं—ददन पहाड रात कािी बिा। रात-भर
मनाते गज
ु रती थी कक ककसी तरह भोर होता, तो मनाने िगती कक जल्दी शाम हो। मैके गयी कक
वह ॉँ जी बहिेगा। दस-प च
ॉँ ददन पररवतमन का कुछ असर हुआ, कफर उनसे भी बरु ी दशा हुई, भाग कर ससरु ाि
चिी आयी। रोगी करवट बदिकर आराम का अनभ ु व करता है ।
ॉँ
पहिे प च-छह महीनों तक तो केशव के पत्र पींद्रहवें ददन बराबर लमिते रहे । उसमें ववयोग के द:ु ख
कम, नये-नये दृश्यों का वणमन अधधक होता था। पर सभ
ु द्रा सींतुष्ट थी। पत्र लिखती, तो ववरह-व्यथा के लसवा
उसे कुछ सझ
ू ता ही न था। कभी-कभी जब जी बेचन
ै हो जाता, तो पछताती कक व्यथम जाने ददया। कहीीं एक
ददन मर जाऊ, तो उनके दशमन भी न हों।
िेककन छठे महीने से पत्रों में भी वविम्ब होने िगा। कई महीने तक तो महीने में एक पत्र आता रहा,
कफर वह भी बींद हो गया। सभ
ु द्रा के चार-छह पत्र पहुच जाते, तो एक पत्र आ जाता; वह भी बेददिी से लिखा
हुआ—काम की अधधकता और समय के अभाव के रोने से भरा हुआ। एक वाक्य भी ऐसा नहीीं, क्जससे हृदय
को शाींनत हो, जो टपकते हुए ददि पर मरहम रखे। हा ! आदद से अन्त तक ‘वप्रये’ शब्द का नाम नहीीं।
सभ
ु द्रा अधीर हो उठी। उसने योरप-यात्रा का ननश्यच कर लिया। वह सारे कष्ट सह िेगी, लसर पर जो कुछ
पडेगी सह िेगी; केशव को आखों से दे खती रहे गी। वह इस बात को उनसे गप्ु त रखेगी, उनकी कदठनाइयों को
और न बढ़ायेगी, उनसे बोिेगी भी नहीीं ! केवि उन्हें कभी-कभी ऑ ींख भर कर दे ख िेगी। यही उसकी शाींनत
के लिए काफी होगा। उसे क्या मािम
ू था कक उसका केशव उसका नहीीं रहा। वह अब एक दस
ू री ही कालमनी
के प्रेम का लभखारी है।
सभ
ु द्रा कई ददनों तक इस प्रस्ताव को मन में रखे हुए सेती रही। उसे ककसी प्रकार की शींका न होती
थी। समाचार-पत्रों के पढ़ते रहने से उसे समद्र
ु ी यात्रा का हाि मािम
ू होता रहता था। एक ददन उसने अपने
सास-ससरु के सामने अपना ननश्चय प्रकट ककया। उन िोगों ने बहुत समझाया; रोकने की बहुत चेष्टा की;
िेककन सभु द्रा ने अपना हठ न छोडा। आखखर जब िोगों ने दे खा कक यह ककसी तरह नहीीं मानती, तो राजी

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हो गये। मैकेवािे समझा कर हार गये। कुछ रूपये उसने स्वयीं जमा कर रखे थे, कुछ ससरु ाि में लमिे। म -ॉँ
बाप ने भी मदद की। रास्ते के खचम की धचींता न रही। इींग्िैंड पहुचकर वह क्या करे गी, इसका अभी उसने
कुछ ननश्चय न ककया। इतना जानती थी कक पररश्रम करने वािे को रोदटयों की कहीीं कमी नहीीं रहती।
ववदा होते समय सास और ससरु दोनों स्टे शन तक आए। जब गाडी ने सीटी दी, तो सभ
ु द्रा ने हाथ
जोडकर कहा—मेरे जाने का समाचार वह ॉँ न लिखखएगा। नहीीं तो उन्हें धचींता होगी ओर पढ़ने में उनका जी न
िगेगा।
ससरु ने आश्वासन ददया। गाडी चि दी।

िीं
दन के उस दहस्से में, जह ॉँ इस समद्
ृ धध के समय में भी दररद्रता का राजय हैं, ऊपर के एक छोटे से
ु द्रा एक कुसी पर बैठी है। उसे यह ॉँ आये आज एक महीना हो गया है । यात्रा के पहिे
कमरे में सभ
उसके मन मे क्जतनी शींकाए थी, सभी शान्त होती जा रही है । बम्बई-बींदर में जहाज पर जगह पाने का प्रश्न
ॉँ
बडी आसानी से हि हो गया। वह अकेिी औरत न थी जो योरोप जा रही हो। प च-छह क्स्त्रय ॉँ और भी उसी
जहाज से जा रही थीीं। सभ ु द्रा को न जगह लमिने में कोई कदठनाई हुई, न मागम में । यह ॉँ पहुचकर और
क्स्त्रयों से सींग छूट गया। कोई ककसी ववद्यािय में चिी गयी; दो-तीन अपने पनतयों के पास चिीीं गयीीं, जो
यह ॉँ पहिे आ गये थे। सभ
ु द्रा ने इस मह
ु ल्िे में एक कमरा िे लिया। जीववका का प्रश्न भी उसके लिए बहुत
कदठन न रहा। क्जन मदहिाओीं के साथ वह आयी थी, उनमे कई उच्च- अधधकाररयों की पक्त्नय ॉँ थी। कई
अच्छे -अच्छे अगरे ज घरनों से उनका पररचय था। सभ
ु द्रा को दो मदहिाओीं को भारतीय सींगीत और दहन्दी-
भाषा लसखाने का काम लमि गया। शेष समय मे वह कई भारतीय मदहिाओीं के कपडे सीने का काम कर
िेती है । केशव का ननवास-स्थान यह ॉँ से ननकट है, इसीलिए सभ
ु द्रा ने इस मह
ु ल्िे को पींसद ककया है। कि
केशव उसे ददखायी ददया था। ओह ! उन्हें ‘बस’ से उतरते दे खकर उसका धचत्त ककतना आतरु हो उठा था।
बस यही मन में आता था कक दौडकर उनके गिे से लिपट जाय और पछ ु यह ॉँ आते ही बदि
ू े —क्यों जी, तम
गए। याद है, तुमने चिते समय क्या-क्या वादा ककये थे? उसने बडी मक्ु श्कि से अपने को रोका था। तब से
इस वक्त तक उसे मानो नशा-सा छाया हुआ है, वह उनके इतने समीप है ! चाहे रोज उन्हें दे ख सकती है,
ु सकती है; ह ,ॉँ स्पशम तक कर सकती है । अब यह उससे भाग कर कह ॉँ जायेगें? उनके पत्रों की
उनकी बातें सन
अब उसे क्या धचन्ता है । कुछ ददनों के बाद सम्भव है वह उनसे होटि के नौकरों से जो चाहे , पछ
ू सकती है ।
सींध्या हो गयी थी। धऍ
ु ीं में बबजिी की िािटनें रोती ऑ ींखें की भानत जयोनतहीन-सी हो रही थीीं। गिी
में स्त्री-परु
ु ष सैर करने जा रहे थे। सभ
ु द्रा सोचने िगी—इन िोगों को आमोद से ककतना प्रेम है , मानो ककसी
को धचन्ता ही नहीीं, मानो सभी सम्पन्न है , जब ही ये िोग इतने एकाग्र होकर सब काम कर सकते है । क्जस
समय जो काम करने है जी-जान से करते हैं। खेिने की उमींग है, तो काम करने की भी उमींग है और एक
हम हैं कक न हसते है , न रोते हैं, मौन बने बैठे रहते हैं। स्फूनतम का कहीीं नाम नहीीं, काम तो सारे ददन करते
हैं, भोजन करने की फुरसत भी नहीीं लमिती, पर वास्तव में चौथाई समय भी काम में नही िगते। केवि
काम करने का बहाना करते हैं। मािम
ू होता है, जानत प्राण-शन्
ू य हो गयी हैं।
सहसा उसने केशव को जाते दे खा। ह ,ॉँ केशव ही था। कुसी से उठकर बरामदे में चिी आयी। प्रबि
इच्छा हुई कक जाकर उनके गिे से लिपट जाय। उसने अगर अपराध ककया है, तो उन्हीीं के कारण तो। यदद
वह बराबर पत्र लिखते जाते, तो वह क्यों आती?
िेककन केशव के साथ यह यव ु ती कौन है? अरे ! केशव उसका हाथ पकडे हुए है । दोनों मस्
ु करा-मस्
ु करा
कर बातें करते चिे जाते हैं। यह यवु ती कौन है?
सभ
ु द्रा ने ध्यान से दे खा। यव ॉँ
ु ती का रीं ग स विा था। वह भारतीय बालिका थी। उसका पहनावा
भारतीय था। इससे जयादा सभ
ु द्रा को और कुछ न ददखायी ददया। उसने तुरींत जत
ू े पहने, द्वार बन्द ककया
और एक क्षण में गिी में आ पहुची। केशव अब ददखायी न दे ता था, पर वह क्जधर गया था, उधर ही वह
बडी तेजी से िपकी चिी जाती थी। यह यवु ती कौन है? वह उन दोनों की बातें सन
ु ना चाहती थी, उस यव
ु ती
को दे खना चाहती थी उसके प वॉँ इतनी तेज से उठ रहे थे मानो दौड रही हो। पर इतनी जल्दी दोनो कह ॉँ
अदृश्य हो गये? अब तक उसे उन िोगों के समीप पहुच जाना चादहए था। शायद दोनों ककसी ‘बस’ पर जा
बैठे।

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अब वह गिी समाप्त करके एक चौडी सडक पर आ पहुची थी। दोनों तरफ बडी-बडी जगमगाती हुई
ु ाने थी, क्जनमें सींसार की ववभनू तय ीं गवम से फूिी उठी थी। कदम-कदम पर होटि और रे स्र ॉँ थे। सभ
दक ु द्रा
दोनों और नेत्रों से ताकती, पगपग पर भ्राींनत के कारण मचिती ककतनी दरू ननकि गयी, कुछ खबर नहीीं।
कफर उसने सोचा—यों कह ॉँ तक चिी जाऊींगी? कौन जाने ककधर गये। चिकर कफर अपने बरामदे से
दे खू। आखखर इधर से गये है , तो इधर से िौटें गे भी। यह ख्याि आते ही वह घम
ू पडी ओर उसी तरह दौडती
हुई अपने स्थान की ओर चिी। जब वहा पहुची, तो बारह बज गये थे। और इतनी दे र उसे चिते ही गज
ु रा !
एक क्षण भी उसने कहीीं ववश्राम नहीीं ककया।
वह ऊपर पहुची, तो गह
ृ -स्वालमनी ने कहा—तुम्हारे लिए बडी दे र से भोजन रखा हुआ है ।
सभ
ु द्रा ने भोजन अपने कमरे में मगा लिया पर खाने की सधु ध ककसे थी ! वह उसी बरामदे मे उसी
तरफ टकटकी िगाये खडी थी, क्जधर से केशव गया।
एक बज गया, दो बजा, कफर भी केशव नहीीं िौटा। उसने मन में कहा—वह ककसी दस
ू रे मागम से चिे
गये। मेरा यह ॉँ खडा रहना व्यथम है। चि,ू सो रहू। िेककन कफर ख्याि आ गया, कहीीं आ न रहे हों।
मािम ू नहीीं, उसे कब नीींद आ गयी।

दू सरे ददन प्रात:काि सभ


ु द्रा अपने काम पर जाने को तैयार हो रही थी कक एक यव
आकर खडी हो गयी और मस्
ु ती रे शमी साडी पहने
ु कराकर बोिी—क्षमा कीक्जएगा, मैंने बहुत सबेरे आपको कष्ट ददया। आप तो
कहीीं जाने को तैयार मामि
ू होती है ।
सभु द्रा ने एक कुसी बढ़ाते हुए कहा—ह ,ॉँ एक काम से बाहर जा रही थी। मैं आपकी क्या सेवा कर
सकती हू?
यह कहते हुए सभ ु ती को लसर से प वॉँ तक उसी आिोचनात्मक दृक्ष्ट से दे खा, क्जससे क्स्त्रय ॉँ
ु द्रा ने यव
ही दे ख सकती हैं। सौंदयम की ककसी पररभाषा से भी उसे सन् ु दरी न कहा जा सकता था। उसका रीं ग स विा, ॉँ
महु कुछ चौडा, नाक कुछ धचपटी, कद भी छोटा और शरीर भी कुछ स्थिू था। ऑ ींखों पर ऐनक िगी हुई थी।
िेककन इन सब कारणों के होते हुए भी उसमें कुछ ऐसी बात थी, जो ऑ ींखों को अपनी ओर खीींच िेती थी।
उसकी वाणी इतनी मधरु , इतनी सींयलमत, इतनी ववनम्र थी कक जान पडता था ककसी दे वी के वरदान हों।
एक-एक अींग से प्रनतमा ववकीणम हो रही थी। सभ
ु द्रा उसके सामने हिकी एवीं तुच्छ मािम
ू होती थी। यव
ु ती
ने कुसी पर बैठते हुए कहा—
‘अगर मैं भिू ती हू, तो मझु े क्षमा कीक्जएगा। मैंने सन
ु ा है कक आप कुछ कपडे भी सीती है , क्जसका
प्रमाण यह है कक यह ॉँ सीववींग मशीन मौजद ू है ।‘
सभु द्रा—मैं दो िेडडयों को भाषा पढ़ाने जाया करती हू, शेष समय में कुछ लसिाई भी कर िेती हू। आप
कपडे िायी हैं।
यव
ु ती—नहीीं, अभी कपडे नहीीं िायी। यह कहते हुए उसने िजजा से लसर झक ु ा कर मस्ु काराते हुए
कहा—बात यह है कक मेरी शादी होने जा रही है । मैं वस्त्राभष
ू ण सब दहींदस्
ु तानी रखना चाहती हू। वववाह भी
वैददक रीनत से ही होगा। ऐसे कपडे यह ॉँ आप ही तैयार कर सकती हैं।
सभ
ु द्रा ने हसकर कहा—मैं ऐसे अवसर पर आपके जोडे तैयार करके अपने को धन्य समझगी।
ू वह
शभ
ु नतधथ कब है?
यव
ु ती ने सकुचाते हुए कहा—वह तो कहते हैं, इसी सप्ताह में हो जाय; पर मैं उन्हें टािती आती हू।
मैंने तो चाहा था कक भारत िौटने पर वववाह होता, पर वह इतने उताविे हो रहे हैं कक कुछ कहते नहीीं
बनता। अभी तो मैंने यही कह कर टािा है कक मेरे कपडे लसि रहे हैं।
सभु द्रा—तो मैं आपके जोडे बहुत जल्द दे दगी।

यव
ु ती ने हसकर कहा—मैं तो चाहती थी आप महीनों िगा दे तीीं।
सभ
ु द्रा—वाह, मैं इस शभ
ु कायम में क्यों ववघ्न डािने िगी? मैं इसी सप्ताह में आपके कपडे दे दगी,
ू और
उनसे इसका परु स्कार िगी।

यव
ु ती खखिखखिाकर हसी। कमरे में प्रकाश की िहरें -सी उठ गयीीं। बोिीीं—इसके लिए तो परु स्कार वह
दें ग,े बडी खश
ु ी से दें गे और तम्
ु हारे कृतज्ञ होंगे। मैंने प्रनतज्ञा की थी कक वववाह के बींधन में पडूगी ही नही; पर

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उन्होंने मेरी प्रनतज्ञा तोड दी। अब मझ ू हो रहा है कक प्रेम की बेडडय ॉँ ककतनी आनींदमय होती है। तम
ु े मािम ु
तो अभी हाि ही में आयी हो। तम्
ु हारे पनत भी साथ होंगे?
सभु द्रा ने बहाना ककया। बोिी—वह इस समय जममनी में हैं। सींगीत से उन्हें बहुत प्रेम है। सींगीत ही
का अध्ययन करने के लिए वह ॉँ गये हैं।
‘तुम भी सींगीत जानती हो?’
‘बहुत थोडा।’
‘केशव को सींगीत बहुत प्रेम है ।’
केशव का नाम सन ु कर सभ ु द्रा को ऐसा मािम
ू हुआ, जैसे बबच्छू ने काट लिया हो। वह चौंक पडी।
यवु ती ने पछ
ू ा—आप चौंक कैसे गयीीं? क्या केशव को जानती हो?
सभ ु ा। वह यह ॉँ क्या करते हैं?
ु द्रा ने बात बनाकर कहा—नहीीं, मैंने यह नाम कभी नहीीं सन
सभ
ु द्रा का ख्याि आया, क्या केशव ककसी दस
ू रे आदमी का नाम नहीीं हो सकता? इसलिए उसने यह
प्रश्न ककया। उसी जवाब पर उसकी क्जींदगी का फैसिा था।
ु ती ने कहा—यह ॉँ ववद्यािय में पढ़ते हैं। भारत सरकार ने उन्हें भेजा है। अभी साि-भर भी तो
यव
आए नहीीं हुआ। तुम दे खकर प्रसन्न होगी। तेज और बद्ु धध की मनू तम समझ िो। यह ॉँ के अच्छे -अच्छे प्रोफेसर
उनका आदर करते है। ऐसा सन् ु दर भाषण तो मैंने ककसी के महु से सन ु ा ही नहीीं। जीवन आदशम है । मझ ु से
उन्हें क्यों प्रेम हो गया है , मझ
ु े इसका आश्चयम है । मझ
ु में न रूप है, न िावण्य। ये मेरा सौभाग्य है । तो मैं
शाम को कपडे िेकर आऊगी।
सभ
ु द्रा ने मन में उठते हुए वेग को सभ ि ॉँ कर कहा—अच्छी बात है ।
जब यव ु ती चिी गयी, तो सभ ु द्रा फूट-फूटकर रोने िगी। ऐसा जान पडता था, मानो दे ह में रक्त ही
नहीीं, मानो प्राण ननकि गये हैं वह ककतनी नन:सहाय, ककतनी दब
ु ि
म है, इसका आज अनभ
ु व हुआ। ऐसा मािमू
हुआ, मानों सींसार में उसका कोई नहीीं है। अब उसका जीवन व्यथम है । उसके लिए अब जीवन में रोने के
लसवा और क्या है ? उनकी सारी ज्ञानेंदद्रय ॉँ लशधथि-सी हो गयी थीीं मानों वह ककसी ऊचे वक्ष
ृ से धगर पडी हो।
हा ! यह उसके प्रेम और भक्क्त का परु स्कार है । उसने ककतना आग्रह करके केशव को यह ॉँ भेजा था?
इसलिए कक यह ॉँ आते ही उसका सवमनाश कर दें ?
परु ानी बातें याद आने िगी। केशव की वह प्रेमातुर ऑ ींखें सामने आ गयीीं। वह सरि, सहज मनू तम ऑ ींखों
के सामने नाचने िगी। उसका जरा लसर धमकता था, तो केशव ककतना व्याकुि हो जाता था। एक बार जब
उसे फसिी बख
ु ार आ गया था, तो केशव घबरा कर, पींद्रह ददन की छुट्टी िेकर घर आ गया था और उसके
लसरहाने बैठा रात-भर पींखा झिता रहा था। वही केशव अब इतनी जल्द उससे ऊब उठा! उसके लिए सभ
ु द्रा
ने कौन-सी बात उठा रखी। वह तो उसी का अपना प्राणाधार, अपना जीवन धन, अपना सवमस्व समझती थी।
नहीीं-नहीीं, केशव का दोष नहीीं, सारा दोष इसी का है । इसी ने अपनी मधरु बातों से अन्हें वशीभत
ू कर लिया
है । इसकी ववद्या, बद्
ु धध और वाकपटुता ही ने उनके हृदय पर ववजय पायी है । हाय! उसने ककतनी बार केशव
से कहा था, मझ
ु े भी पढ़ाया करो, िेककन उन्होंने हमेशा यही जवाब ददया, तुम जैसी हो, मझ
ु े वैसी ही पसन्द
हो। मैं तुम्हारी स्वाभाववक सरिता को पढ़ा-पढ़ा कर लमटाना नहीीं चाहता। केशव ने उसके साथ ककतना बडा
अन्याय ककया है! िेककन यह उनका दोष नहीीं, यह इसी यौवन-मतवािी छोकरी की माया है ।
सभ
ु द्रा को इस ईष्याम और द:ु ख के आवेश में अपने काम पर जाने की सध
ु न रही। वह कमरे में इस
ु दठय ॉँ बध जातीीं, कभी द त
तरह टहिने िगी, जैसे ककसी ने जबरदस्ती उसे बन्द कर ददया हो। कभी दोनों मट् ॉँ
पीसने िगती, कभी ओींठ काटती। उन्माद की-सी दशा हो गयी। ऑ ींखों में भी एक तीव्र जवािा चमक उठी।
जयों-जयों केशव के इस ननष्ठुर आघात को सोचती, उन कष्टों को याद करती, जो उसने उसके लिए झेिे थे,
उसका धचत्त प्रनतकार के लिए ववकि होता जाता था। अगर कोई बात हुई होती, आपस में कुछ मनोमालिन्य
का िेश भी होता, तो उसे इतना द:ु ख न होता। यह तो उसे ऐसा मािम
ू होता था कक मानों कोई हसते-हसते
अचानक गिे पर चढ़ बैठे। अगर वह उनके योग्य नहीीं थी, तो उन्होंने उससे वववाह ही क्यों ककया था? वववाह
करने के बाद भी उसे क्यों न ठुकरा ददया था? क्यों प्रेम का बीज बोया था? और आज जब वह बीच पल्िवों
से िहराने िगा, उसकी जडें उसके अन्तस्ति के एक-एक अणु में प्रववष्ट हो गयीीं, उसका रक्त उसका सारा
उत्सगम वक्ष
ृ को सीींचने और पािने में प्रवत्त
ृ हो गया, तो वह आज उसे उखाड कर फेंक दे ना चाहते हैं। क्या
हृदय के टुकडे-टुकडे हुए बबना वक्ष
ृ उखड जायगा?

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सहसा उसे एक बात याद आ गयी। दहींसात्मक सींतोष से उसका उत्तेक्जत मख
ु -मण्डि और भी कठोर हो
गया। केशव ने अपने पहिे वववाह की बात इस यव
ु ती से गप्ु त रखी होगी ! सभ
ु द्रा इसका भींडाफोड करके
केशव के सारे मींसब
ू ों को धि
ू में लमिा दे गी। उसे अपने ऊपर क्रोध आया कक यव
ु ती का पता क्यों न पछ

लिया। उसे एक पत्र लिखकर केशव की नीचता, स्वाथमपरता और कायरता की किई खोि दे ती—उसके
पाींडडत्य, प्रनतभा और प्रनतष्ठा को धि
ू में लमिा दे ती। खैर, सींध्या-समय तो वह कपडे िेकर आयेगी ही। उस
समय उससे सारा कच्चा धचट्ठा बयान कर दगी।

सु भ्रदा ददन-भर यव
ु ती का इन्तजार करती रही। कभी बरामदे में आकर इधर-उधर ननगाह दौडाती, कभी
सडक पर दे खती, पर उसका कहीीं पता न था। मन में झझिाती
ु थी कक उसने क्यों उसी वक्त सारा
वत
ृ ाींत न कह सन
ु ाया।
ू था। उस मकान और गिी का नम्बर तक याद था, जह ॉँ से वह उसे पत्र
केशव का पता उसे मािम
लिखा करता था। जयों-जयों ददन ढिने िगा और यव
ु ती के आने में वविम्ब होने िगा, उसके मन में एक
तरीं गी-सी उठने िगी कक जाकर केशव को फटकारे , उसका सारा नशा उतार दे , कहे —तुम इतने भींयकर दहींसक
हो, इतने महान धत
ू म हो, यह मझ ू न था। तुम यही ववद्या सीखने यह ॉँ आये थे। तुम्हारे पाींडडत्य की
ु े मािम
यही फि है ! तुम एक अबिा को क्जसने तुम्हारे ऊपर अपना सवमस्व अपमण कर ददया, यों छि सकते हो।
तुममें क्या मनष्ु यता नाम को भी नहीीं रह गयी? आखखर तम
ु ने मेरे लिए क्या सोचा है । मैं सारी क्जींदगी
तुम्हारे नाम को रोती रहू ! िेककन अलभमान हर बार उसके पैरों को रोक िेता। नहीीं, क्जसने उसके साथ ऐसा
कपट ककया है, उसका इतना अपमान ककया है , उसके पास वह न जायगी। वह उसे दे खकर अपने ऑ ींसओ ु ीं को
रोक सकेगी या नहीीं, इसमें उसे सींदेह था, और केशव के सामने वह रोना नहीीं चाहती थी। अगर केशव उससे
घण
ृ ा करता है, तो वह भी केशव से घण ु ती न आयी। बवत्तय ॉँ भी जिीीं, पर
ृ ा करे गी। सींध्या भी हो गयी, पर यव
उसका पता नहीीं।
एकाएक उसे अपने कमरे के द्वार पर ककसी के आने की आहट मािम ू हुई। वह कूदकर बाहर ननकि
आई। यव
ु ती कपडों का एक पलु िींदा लिए सामने खडी थी। सभ
ु द्रा को दे खते ही बोिी—क्षमा करना, मझ
ु े आने
में दे र हो गयी। बात यह है कक केशव को ककसी बडे जरूरी काम से जममनी जाना है । वह ॉँ उन्हें एक महीने
से जयादा िग जायगा। वह चाहते हैं कक मैं भी उनके साथ चि।ू मझ
ु से उन्हें अपनी थीलसस लिखने में बडी
सहायता लमिेगी। बलिमन के पस्
ु तकाियों को छानना पडेगा। मैंने भी स्वीकार कर लिया है । केशव की इच्छा
है कक जममनी जाने के पहिे हमारा वववाह हो जाय। कि सींध्या समय सींस्कार हो जायगा। अब ये कपडे मझ
ु े
आप जममनी से िौटने पर दीक्जएगा। वववाह के अवसर पर हम मामि
ू ी कपडे पहन िें गे। और क्या करती?
इसके लसवा कोई उपाय न था, केशव का जममन जाना अननवायम है।
सभ
ु द्रा ने कपडो को मेज पर रख कर कहा—आपको धोखा ददया गया है ।
यव
ु ती ने घबरा कर पछ
ू ा—धोखा? कैसा धोखा? मैं बबिकुि नहीीं समझती। तुम्हारा मतिब क्या है?
सभु द्रा ने सींकोच के आवरण को हटाने की चेष्टा करते हुए कहा—केशव तुम्हें धोखा दे कर तुमसे
वववाह करना चाहता है ।
‘केशव ऐसा आदमी नहीीं है , जो ककसी को धोखा दे । क्या तुम केशव को जानती हो?
‘केशव ने तम
ु से अपने ववषय में सब-कुछ कह ददया है?’
‘सब-कुछ।’
‘मेरा तो यही ववचार है कक उन्होंने एक बात भी नहीीं नछपाई?’
‘तुम्हे मािम
ू है कक उसका वववाह हो चक
ु ा है?’
यव
ु ती की मख ु -जयोनत कुछ मलिन पड गयी, उसकी गदम न िजजा से झक
ु गयी। अटक-अटक कर
बोिी—ह ,ॉँ उन्होंने मझ .....
ु से यह बात कही थी।
सभु द्रा परास्त हो गयी। घण
ृ ा-सच
ू क नेत्रों से दे खती हुई बोिी—यह जानते हुए भी तम
ु केशव से वववाह
करने पर तैयार हो।
यव
ु ती ने अलभमान से दे खकर कहा—तम
ु ने केशव को दे खा है?
‘नहीीं, मैंने उन्हें कभी नहीीं दे खा।’
‘कफर, तम
ु उन्हें कैसे जानती हो?’

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‘मेरे एक लमत्र ने मझ
ु से यह बात कही हे , वह केशव को जानता है ।’
‘अगर तम
ु एक बार केशव को दे ख िेतीीं, एक बार उससे बातें कर िेतीीं, तो मझ
ु से यह प्रश्न न करती।
एक नहीीं, अगर उन्होंने एक सौ वववाह ककये होते, तो मैं इनकार न करती। उन्हें दे खकर में अपने को
बबिकुि भि
ू जाती हू। अगर उनसे वववाह न करू, ता कफर मझ ु े जीवन-भर अवववादहत ही रहना पडेगा। क्जस
समय वह मझ ु से बातें करने िगते हैं, मझ
ु े ऐसा अनभ ॉँ खखिी जा रही
ु व होता है कक मेरी आत्मा पष्ु पकी भ नत
है । मैं उसमें प्रकाश और ववकास का प्रत्यक्ष अनभ
ु व करती हू। दनु नया चाहे क्जतना हसे, चाहे क्जतनी ननन्दा
करे , मैं केशव को अब नहीीं छोड सकती। उनका वववाह हो चक ु ा है, वह सत्य है; पर उस स्त्री से उनका मन
कभी न लमिा। यथाथम में उनका वववाह अभी नहीीं हुआ। वह कोई साधारण, अद्मधलशक्षक्षता बालिका है। तुम्हीीं
सोचों, केशव जैसा ववद्वान, उदारचेता, मनस्वी परू
ु ष ऐसी बालिका के साथ कैसे प्रसन्न रह सकता है? तम्
ु हें
कि मेरे वववाह में चिना पडेगा।
सभ
ु द्रा का चेहरा तमतमाया जा रहा था। केशव ने उसे इतने कािे रीं गों में रीं गा है, यह सोच कर उसका
रक्त खौि रहा था। जी में आता था, इसी क्षण इसको दत्ु कार द,ू िेककन उसके मन में कुछ और ही मींसब
ू े
पैदा होने िगे थे। उसने गींभीर, पर उदासीनता के भाव से पछ
ू ा—केशव ने कुछ उस स्त्री के ववषय में नही
कहा?
यवु ती ने तत्परता से कहा—घर पहुचने पर वह उससे केवि यही कह दें गे कक हम और तुम अब स्त्री
और परू
ु ष नहीीं रह सकते। उसके भरण-पोषण का वह उसके इच्छानसु ार प्रबींध कर दें गे, इसके लसवा वह और
क्या कर सकते हैं। दहन्द-ू नीनत में पनत-पत्नी में ववच्छे द नहीीं हो सकता। पर केवि स्त्री को पण
ू म रीनत से
स्वाधीन कर दे ने के ववचार से वह ईसाई या मस
ु िमान होने पर भी तैयार हैं। वह तो अभी उसे इसी आशय
ु े उस अभाधगनी पर बडी दया आती है, मैं तो यह ॉँ
का एक पत्र लिखने जा रहे थे, पर मैंने ही रोक लिया। मझ
तक तैयार हू कक अगर उसकी इच्छा हो तो वह भी हमारे साथ रहे । मैं उसे अपनी बहन समझगी।
ू ककींतु
केशव इससे सहमत नहीीं होते।
सभ
ु द्रा ने व्यींग्य से कहा—रोटी-कपडा दे ने को तैयार ही हैं, स्त्री को इसके लसवा और क्या चादहए?
यव
ु ती ने व्यींग्य की कुछ परवाह न करके कहा—तो मझ
ु े िौटने पर कपडे तैयार लमिेंगे न?
सभु द्रा—ह ,ॉँ लमि जायेंगे।
यव
ु ती—कि तुम सींध्या समय आओगी?
सभ
ु द्रा—नहीीं, खेद है, अवकाश नहीीं है ।
यव
ु ती ने कुछ न कहा। चिी गयी।

सदहक
ु रही थी! केशव के लिए वह अपने प्राणों का कोई मल्ू य नहीीं समझी थी। वही केशव उसे पैरों से
भद्रा ककतना ही चाहती थी कक समस्या पर शाींतधचत्त होकर ववचार करे , पर हृदय में मानों जवािा-सी

ठुकरा रहा है । यह आघात इतना आकक्स्मक, इतना कठोर था कक उसकी चेतना की सारी कोमिता मक्ू च्छम त
हो गयी ! उसके एक-एक अणु प्रनतकार के लिए तडपने िगा। अगर यही समस्या इसके ववपरीत होती, तो
क्या सभ
ु द्रा की गरदन पर छुरी न कफर गयी होती? केशव उसके खून का प्यासा न हो जाता? क्या परू
ु ष हो
जाने से ही सभी बाते क्षम्य और स्त्री हो जाने से सभी बातें अक्षम्य हो जाती है? नहीीं, इस ननणमय को सभ
ु द्रा
की ववद्रोही आत्मा इस समय स्वीकार नहीीं कर सकती। उसे नाररयों के ऊींचे आदशो की परवाह नहीीं है । उन
क्स्त्रयों में आत्मालभमान न होगा? वे परू
ु षों के पैरों की जनू तया बनकर रहने ही में अपना सौभाग्य समझती
होंगी। सभ
ु द्रा इतनी आत्मलभमान-शन्
ू य नहीीं है । वह अपने जीते-जी यह नहीीं दे ख सकती थी कक उसका पनत
उसके जीवन की सवमनाश करके चैन की बींशी बजाये। दनु नया उसे हत्याररनी, वपशाधचनी कहे गी, कहे —उसको
परवाह नहीीं। रह-रहकर उसके मन में भयींकर प्रेरणा होती थी कक इसी समय उसके पास चिी जाय, और
इसके पदहिे कक वह उस यव
ु ती के प्रेम का आन्नद उठाये, उसके जीवन का अन्त कर दे । वह केशव की
ननष्ठुरता को याद करके अपने मन को उत्तेक्जत करती थी। अपने को धधक्कार-धधक्कार कर नारी सि
ु भ
शींकाओीं को दरू करती थी। क्या वह इतनी दब
ु ि
म है? क्या उसमें इतना साहस भी नहीीं है? इस वक्त यदद
कोई दष्ु ट उसके कमरे में घस
ु आए और उसके सतीत्व का अपहरण करना चाहे , तो क्या वह उसका प्रनतकार
न करे गी? आखखर आत्म-रक्षा ही के लिए तो उसने यह वपस्तौि िे रखी है । केशव ने उसके सत्य का

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अपहरण ही तो ककया है । उसका प्रेम-दशमन केवि प्रवींचना थी। वह केवि अपनी वासनाओीं की तक्ृ प्त के लिए
सभ ॉँ भरता था। कफर उसक वध करना क्या सभ
ु द्रा के साथ प्रेम-स्व ग ु द्रा का कत्तमव्य नहीीं?
इस अक्न्तम कल्पना से सभ
ु द्रा को वह उत्तेजना लमि गयी, जो उसके भयींकर सींकल्प को परू ा करने के
लिए आवश्यक थी। यही वह अवस्था है , जब स्त्री-परू
ु ष के खन
ू की प्यासी हो जाती है।
उसने खूटी पर िटकाती हुई वपस्तौि उतार िी और ध्यान से दे खने िगी, मानो उसे कभी दे खा न हो।
कि सींध्या-समय जब कायम-मींददर के केशव और उसकी प्रेलमका एक-दसू रे के सम्मखु बैठे हुए होंगे, उसी
समय वह इस गोिी से केशव की प्रेम-िीिाओीं का अन्त कर दे गी। दस
ू री गोिी अपनी छाती में मार िेगी।
क्या वह रो-रो कर अपना अधम जीवन काटे गी?

सीं
ध्या का समय था। आयम-मींददर के ऑ ींगन में वर और वधू इष्ट-लमत्रों के साथ बैठे हुए थे। वववाह का
सींस्कार हो रहा था। उसी समय सभ
ु द्रा पहुची और बदामदे में आकर एक खम्भें की आड में इस भ नत ॉँ
खडी हो गई कक केशव का मह
ु उसके सामने था। उसकी ऑ ींखें में वह दृश्य खखींच गया, जब आज से तीन
ॉँ
साि पहिे उसने इसी भ नत केशव को मींडप में बैठे हुए आड से दे खा था। तब उसका हृदय ककतना
उछवालसत हो रहा था। अींतस्ति में गद
ु गुदी-सी हो रही थी, ककतना अपार अनरु ाग था, ककतनी असीम
ॉँ सख
अलभिाषाऍ ीं थीीं, मानों जीवन-प्रभात का उदय हो रहा हो। जीवन मधरु सींगीत की भ नत ु द था, भववष्य
ॉँ सन्
उषा-स्वप्न की भ नत ु द्रा को ऐसा भ्रम हुआ, मानों यह केशव नहीीं है। ह ,ॉँ
ु दर। क्या यह वही केशव है? सभ
यह वह केशव नहीीं था। यह उसी रूप और उसी नाम का कोई दस ू रा मनष्ु य था। अब उसकी मस्
ु कुराहट में ,
उनके नेत्रों में, उसके शब्दों में, उसके हृदय को आकवषमत करने वािी कोई वस्तु न थी। उसे दे खकर वह उसी
ॉँ नन:स्पींद, ननश्चि खडी है , मानों कोई अपररधचत व्यक्क्त हो। अब तक केशव का-सा रूपवान, तेजस्वी,
भ नत
सौम्य, शीिवान, परू
ु ष सींसार में न था; पर अब सभ ु द्रा को ऐसा जान पडा कक वह ॉँ बैठे हुए यव
ु कों में और
उसमें कोई अन्तर नहीीं है । वह ईष्यामक्ग्न, क्जसमें वह जिी जा रही थी, वह दहींसा-कल्पना, जो उसे वह ॉँ तक
िायी थी, मानो एगदम शाींत हो गयी। ववररक्त दहींसा से भी अधधक दहींसात्मक होती है —सभ
ु द्रा की दहींसा-
कल्पना में एक प्रकार का ममत्व था—उसका केशव, उसका प्राणवल्िभ, उसका जीवन-सवमस्व और ककसी का
नहीीं हो सकता। पर अब वह ममत्व नहीीं है । वह उसका नहीीं है , उसे अब परवा नहीीं, उस पर ककसका
अधधकार होता है ।
वववाह-सींस्कार समाप्त हो गया, लमत्रों ने बधाइय ॉँ दीीं, सहे लियों ने मींगिगान ककया, कफर िोग मेजों पर
जा बैठे, दावत होने िगी, रात के बारह बज गये; पर सभ ॉँ खडी रही, मानो कोई
ु द्रा वहीीं पाषाण-मनू तम की भ नत
ववधचत्र स्वप्न दे ख रही हो। ह ,ॉँ जैसे कोई बस्ती उजड गई हो, जैसे कोई सींगीत बन्द हो गया हो, जैसे कोई
दीपक बझ
ु गया है ।
जब िोग मींददर से ननकिे, तो वह भी ननकिे, तो वह भी ननकि आयी; पर उसे कोई मागम न सझ
ू ता
था। पररधचत सडकें उसे भि
ू ी हुई-सी जान पडने िगीीं। सारा सींसार ही बदि गया था। वह सारी रात सडकों
पर भटकती कफरी। घर का कहीीं पता नहीीं। सारी दक
ु ानें बन्द हो गयीीं, सडकों पर सन्नाटा छा गया, कफर भी
ॉँ उसे जीवन-पथ में भी भटकना पडेगा?
वह अपना घर ढूढती हुई चिी जा रही थी। हाय! क्या इसी भ नत
सहसा एक पलु िसमैन ने पक ु कह ॉँ जा रही हो?
ु ारा—मैडम, तम
सभ
ु द्रा ने दठठक कर कहा—कहीीं नहीीं।
ु हारा स्थान कह ॉँ है ?’
‘तम्
‘मेरा स्थान?’
‘ह ,ॉँ तुम्हारा स्थान कह ॉँ है? मैं तुम्हें बडी दे र से इधर-उधर भटकते दे ख रहा हू। ककस स्रीट में रहती
हो?
सभ
ु द्रा को उस स्रीट का नाम तक न याद था।
‘तुम्हें अपने स्रीट का नाम तक याद नहीीं?’
‘भि
ू गयी, याद नहीीं आता।‘
सहसा उसकी दृक्ष्ट सामने के एक साइन बोडम की तरफ उठी, ओह! यही तो उसकी स्रीट है । उसने
लसर उठाकर इधर-उधर दे खा। सामने ही उसका डेरा था। और इसी गिी में, अपने ही घर के सामने, न-जाने
ककतनी दे र से वह चक्कर िगा रही थी।

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अ भी प्रात:काि ही था कक यव
ु ती सभ
ु द्रा के कमरे में पहुची। वह उसके कपडे सी रही थी। उसका सारा
तन-मन कपडों में िगा हुआ था। कोई यव ु ती इतनी एकाग्रधचत होकर अपना श्रग
होगी। न-जाने उससे कौन-सा परु स्कार िेना चाहती थी। उसे यव
ु ती के आने की खबर न हुई।
ीं ृ ार भी न करती

यव
ु ती ने पछ
ू ा—तुम कि मींददर में नहीीं आयीीं?
सभ
ु द्रा ने लसर उठाकर दे खा, तो ऐसा जान पडा, मानो ककसी कवव की कोमि कल्पना मनू तममयी हो गयी
है । उसकी उप छवव अननींद्य थी। प्रेम की ववभनू त रोम-रोम से प्रदलशमत हो रही थी। सभ
ु द्रा दौडकर उसके गिे
से लिपट गई, जैसे उसकी छोटी बहन आ गयी हो, और बोिी — ह ,ॉँ गयी तो थी।
‘मैंने तुम्हें नहीीं दे खा।‘
‘ह ,ीं मैं अिग थी।‘
‘केशव को दे खा?’
‘ह ॉँ दे खा।‘
‘धीरे से क्यों बोिी? मैंने कुछ झठ
ू कहा था?
सभ
ु द्रा ने सहृदयता से मस्
ु कराकर कहा — मैंने तुम्हारी ऑ ींखों से नहीीं, अपनी ऑ ींखों से दे खा। मझे तो
वह तुम्हारे योग्य नहीीं जींच।े तुम्हें ठग लिया।
यव
ु ती खखिखखिाकर हसी और बोिी—वह ! मैं समझती हू, मैंने उन्हें ठगा है ।
एक बार वस्त्राभष
ू णों से सजकर अपनी छवव आईने में दे खी तो मािम
ू हो जायेगा।
‘तब क्या मैं कुछ और हो जाऊगी।‘
ॉँ
‘अपने कमरे से फशम, तसवीरें , ह डडय ,ॉँ गमिे आदद ननकाि कर दे ख िो, कमरे की शोभा वही रहती है!’
यव ू ण कह ॉँ से िाऊ। न-जाने अभी ककतने
ु ती ने लसर दहिा कर कहा—ठीक कहती हो। िेककन आभष
ददनों में बनने की नौबत आये।
‘मैं तुम्हें अपने गहने पहना दगी।‘

‘तुम्हारे पास गहने हैं?’
‘बहुत। दे खो, मैं अभी िाकर तुम्हें पहनाती हू।‘
यवु ती ने महु से तो बहुत ‘नहीीं-नहीीं’ ककया, पर मन में प्रसन्न हो रही थी। सभ
ु द्रा ने अपने सारे गहने
पहना ददये। अपने पास एक छल्िा भी न रखा। यव
ु ती को यह नया अनभ
ु व था। उसे इस रूप में ननकिते
शमम तो आती थी; पर उसका रूप चमक उठा था। इसमें सींदेह न था। उसने आईने में अपनी सरू त दे खी तो
उसकी सरू त जगमगा उठी, मानो ककसी ववयोधगनी को अपने वप्रयतम का सींवाद लमिा हो। मन में गद
ु गद
ु ी
होने िगी। वह इतनी रूपवती है , उसे उसकी कल्पना भी न थी।
कहीीं केशव इस रूप में उसे दे ख िेत;े वह आकाींक्षा उसके मन में उदय हुई, पर कहे कैसे। कुछ दे र में
बाद िजजा से लसर झकु ा कर बोिी—केशव मझ ु े इस रूप में दे ख कर बहुत हसेगें।
सभ
ु द्रा —हसेगें नहीीं, बिैया िेंगे, ऑ ींखें खुि जायेगी। तुम आज इसी रूप में उसके पास जाना।
यव
ु ती ने चककत होकर कहा —सच! आप इसकी अनम
ु नत दे ती हैं!
सभ
ु द्रा ने कहा—बडे हषम से।
‘तम्
ु हें सींदेह न होगा?’
‘बबल्कुि नहीीं।‘
‘और जो मैं दो-चार ददन पहने रहू?’
‘तुम दो-चार महीने पहने रहो। आखखर, पडे ही तो है !’
‘तुम भी मेरे साथ चिो।‘
‘नहीीं, मझ
ु े अवकाश नहीीं है।‘
‘अच्छा, िो मेरे घर का पता नोट कर िो।‘
‘ह ,ॉँ लिख दो, शायद कभी आऊ।‘
ु ती वह ॉँ से चिी गयी। सभ
एक क्षण में यव ॉँ प्रसन्न-मख
ु द्रा अपनी खखडकी पर उसे इस भ नत ु खडी दे ख
रही थी, मानो उसकी छोटी बहन हो, ईष्याम या द्वेष का िेश भी उसके मन में न था।

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मक्ु श्कि से, एक घींटा गज
ु रा होगा कक यव
ु ती िौट कर बोिी—सभ
ु द्रा क्षमा करना, मैं तम्
ु हारा समय
बहुत खराब कर रही हू। केशव बाहर खडे हैं। बि ु ा ि?ू
एक क्षण, केवि एक क्षण के लिए, सभ ु द्रा कुछ घबडा गयी। उसने जल्दी से उठ कर मेज पर पडी हुई
चीजें इधर-उधर हटा दीीं, कपडे करीने से रख ददये। उसने जल्दी से उिझे हुए बाि सभाि लिये, कफर उदासीन
भाव से मस्
ु करा कर बोिी—उन्हें तुमने क्यों कष्ट ददया। जाओ, बि
ु ा िो।
एक लमनट में केशव ने कमरे में कदम रखा और चौंक कर पीछे हट गये, मानो प वॉँ जि गया हो।
मह
ु से एक चीख ननकि गयी। सभ
ु द्रा गम्भीर, शाींत, ननश्चि अपनी जगह पर खडी रही। कफर हाथ बढ़ा कर
बोिी, मानो ककसी अपररधचत व्यक्क्त से बोि रही थी—आइये, लमस्टर केशव, मैं आपको ऐसी सश
ु ीि, ऐसी
सन्
ु दरी, ऐसी ववदष
ु ी रमणी पाने पर बधाई दे ती हू।
केशव के मह ु पर हवाइय ॉँ उड रही थीीं। वह पथ-भ्रष्ट-सा बना खडा था। िजजा और ग्िानन से उसके
चेहरे पर एक रीं ग आता था, एक रीं ग जाता था। यह बात एक ददन होनेवािी थी अवश्य, पर इस तरह
अचानक उसकी सभ
ु द्रा से भें ट होगी, इसका उसे स्वप्न में भी गम
ु ान न था। सभ
ु द्रा से यह बात कैसे कहे गा,
इसको उसने खूब सोच लिया था। उसके आक्षेपों का उत्तर सोच लिया था, पत्र के शब्द तक मन में अींककत
कर लिये थे। ये सारी तैयाररय ॉँ धरी रह गयीीं और सभ
ु द्रा से साक्षात ् हो गया। सभ
ु द्रा उसे दे ख कर जरा सी
नहीीं चौंकी, उसके मख
ु पर आश्चयम, घबराहट या द:ु ख का एक धचह्न भी न ददखायी ददया। उसने उसी भींनत
उससे बात की; मानो वह कोई अजनबी हो। यह ीं कब आयी, कैसे आयी, क्यों आयी, कैसे गज
ु र करती है; यह
और इस तरह के असींख्य प्रश्न पछ
ू ने के लिए केशव का धचत्त चींचि हो उठा। उसने सोचा था, सभ
ु द्रा उसे
धधक्कारे गी; ववष खाने की धमकी दे गी—ननष्ठुर; ननदम य और न-जाने क्या-क्या कहे गी। इन सब आपदाओीं के
लिए वह तैयार था; पर इस आकक्स्मक लमिन, इस गवमयक्
ु त उपेक्षा के लिए वह तैयार न था। वह प्रेम-
व्रतधाररणी सभ
ु द्रा इतनी कठोर, इतनी हृदय-शन्
ू य हो गयी है? अवश्य ही इस सारी बातें पहिे ही मािम
ू हो
चक
ु ी हैं। सब से तीव्र आघात यह था कक इसने अपने सारे आभष
ू ण इतनी उदारता से दे डािे, और कौन जाने
वापस भी न िेना चाहती हो। वह परास्त और अप्रनतम होकर एक कुसी पर बैठ गया। उत्तर में एक शब्द भी
उसके मख
ु से न ननकिा।
यव
ु ती ने कृतज्ञता का भाव प्रकट करके कहा—इनके पनत इस समय जममनी में है।
केशव ने ऑ ींखें फाड कर दे खा, पर कुछ बोि न सका।
यवु ती ने कफर कहा—बेचारी सींगीत के पाठ पढ़ा कर और कुछ कपडे सी कर अपना ननवामह करती है।
वह महाशय यह ॉँ आ जाते, तो उन्हें उनके सौभाग्य पर बधाई दे ती।
केशव इस पर भी कुछ न बोि सका, पर सभ ु द्रा ने मस्
ु करा कर कहा—वह मझ ु से रूठे हुए हैं, बधाई
ु ती ने आश्चयम से कहा—तुम उन्हीीं के प्रेम मे यह ॉँ आयीीं, अपना घर-बार छोडा,
पाकर और भी झल्िाते। यव
यह ॉँ मेहनत-मजदरू ी करके ननवामह कर रही हो, कफर भी वह तुमसे रूठे हुए हैं? आश्चयम!
सभ ॉँ प्रसन्न-मख
ु द्रा ने उसी भ नत ु से कहा—परू
ु ष-प्रकृनत ही आश्चयम का ववषय है, चाहे लम. केशव इसे
स्वीकार न करें ।
यव
ु ती ने कफर केशव की ओर प्रेरणा-पण ॉँ अप्रनतम बैठा रहा।
ू म दृक्ष्ट से दे खा, िेककन केशव उसी भ नत
उसके हृदय पर यह नया आघात था। यव
ु ती ने उसे चप
ु दे ख कर उसकी तरफ से सफाई दी—केशव, स्त्री और
परू
ु ष, दोनों को ही समान अधधकार दे ना चाहते हैं।
केशव डूब रहा था, नतनके का सहारा पाकर उसकी दहम्मत बध गयी। बोिा—वववाह एक प्रकार का
समझौता है । दोनों पक्षों को अधधकार है , जब चाहे उसे तोड दें ।
यव
ु ती ने हामी भरी—सभ्य-समाज में यह आन्दोनि बडे जोरों पर है ।
सभ
ु द्रा ने शींका की—ककसी समझौते को तोडने के लिए कारण भी तो होना चादहए?
केशव ने भावों की िाठी का सहार िेकर कहा—जब इसका अनभ
ु व हो जाय कक हम इस बन्धन से
मक्
ु त होकर अधधक सख
ु ी हो सकते हैं, तो यही कारण काफी है। स्त्री को यदद मािम
ू हो जाय कक वह दस
ू रे
...
परू
ु ष के साथ
सभ
ु द्रा ने बात काट कर कहा—क्षमा कीक्जए लम. केशव, मझ
ु में इतनी बद्
ु धध नहीीं कक इस ववषय पर
आपसे बहस कर सकू। आदशम समझौता वही है, जो जीवन-पयमन्त रहे । मैं भारत की नहीीं कहती। वह ॉँ तो स्त्री
ु ष की िौंडी है, मैं इग्िैंड की कहती हू। यह ॉँ भी ककतनी ही औरतों से मेरी बातचीत हुई है। वे तिाकों की
परू
बढ़ती हुई सींख्या को दे ख कर खुश नहीीं होती। वववाह सबसे ऊचा आदशम उसकी पववत्रता और क्स्थरता है ।

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परू
ु षों ने सदै व इस आदम श को तोडा है, क्स्त्रयों ने ननबाहा है । अब परू
ु षों का अन्याय क्स्त्रयों को ककस ओर िे
जायेगा, नहीीं कह सकती।
इस गम्भीर और सींयत कथन ने वववाद का अन्त कर ददया। सभ
ु द्रा ने चाय मगवायी। तीनों आदलमयों
ू ना चाहता था, अभी आप यह ॉँ ककतने ददनों रहें गी। िेककन न पछ
ने पी। केशव पछ ू सका। वह यह ॉँ पींद्रह
ू ही बैठा—अभी आप यह ॉँ
लमनट और रहा, िेककन ववचारों में डूबा हुआ। चिते समय उससे न रहा गया। पछ
ककतने ददन और रहे गी?
‘सभ
ु द्रा ने जमीन की ओर ताकते हुए कहा—कह नहीीं सकती।‘
‘कोई जरूरत हो, तो मझु े याद कीक्जए।‘
‘इस आश्वासन के लिए आपको धन्यवाद।‘
केशव सारे ददन बेचन
ै रहा। सभ
ु द्रा उसकी ऑ ींखों में कफरती रही। सभ
ु द्रा की बातें उसके कानों में गजती

ु द्रा यह ॉँ आयी थी। सारी पररक्स्थनत उसकी
रहीीं। अब उसे इसमें कोई सन्दे ह न था कक उसी के प्रेम में सभ
ु ान करके उसके रोयें खडे हो गये। यह ॉँ सभ
समझ में आ गयी थी। उस भीषण त्याग का अनम ु द्रा ने क्या-
क्या कष्ट झेिे होंगे, कैसी-कैसी यातनाऍ ीं सही होंगी, सब उसी के कारण? वह उस पर भार न बनना चाहती
थी। इसलिए तो उसने अपने आने की सच
ू ना तक उसे न दी। अगर उसे पहिे मािम ु द्रा यह ॉँ
ू होती कक सभ
आ गयी है, तो कदाधचत ् उसे उस यव
ु ती की ओर इतना आकषमण ही न होता। चौकीदार के सामने चोर को
घर में घस
ु ने का साहस नहीीं होता। सभ
ु द्रा को दे खकर उसकी कत्तमव्य-चेतना जाग्रत हो गयी। उसके पैरों पर
ॉँ
धगर कर उससे क्षमा म गने के लिए उसका मन अधीर हो उठा; वह उसके मह
ु से सारा वत
ृ ाींत सन
ु ेगा। यह
मौन उपेक्षा उसके लिए असह्य थी। ददन तो केशव ने ककसी तरह काटा, िेककन जयों ही रात के दस बजे, वह
सभ
ु द्रा से लमिने चिा। यव ू ा—कह ॉँ जाते हो?
ु ती ने पछ
केशव ने बट ॉँ
ू का िेस ब धते हुए कहा—जरा एक प्रोफेसर से लमिना है , इस वक्त आने का वादा कर
चक
ु ा हू?
‘जल्द आना।‘
‘बहुत जल्द आऊगा।‘
केशव घर से ननकिा, तो उसके मन में ककतनी ही ववचार-तींरगें उठने िगीीं। कहीीं सभ
ु द्रा लमिने से
ु ार नहीीं है । ह ,ॉँ यह हो सकता है कक वह अपने
इनकार कर दे , तो? नहीीं ऐसा नहीीं हो सकता। वह इतनी अनद
ववषय में कुछ न कहे । उसे शाींत करने के लिए उसने एक कृपा की कल्पना कर डािी। ऐसा बीमार था कक
बचने की आशा न थी। उलममिा ने ऐसी तन्मय होकर उसकी सेवा-सश्र
ु ष ु ा की कक उसे उससे प्रेम हो गया।
कथा का सभ
ु द्रा पर जो असर पडेगा, इसके ववषय में केशव को कोई सींदेह न था। पररक्स्थनत का बोध होने
पर वह उसे क्षमा कर दे गी। िेककन इसका फि क्या होगा िेककन इसका फि क्या होगा? क्या वह दोनों के
साथ एक-सा प्रेम कर सकता है ? सभ
ु द्रा को दे ख िेने के बाद उलममिा को शायद उसके साथ-साथ रहने में
आपवत्त हो। आपवत्त हो ही कैसे सकती है ! उससे यह बात नछपी नहीीं है । ह ,ॉँ यह दे खना है कक सभ
ु द्रा भी इसे
स्वीकार करती है कक नहीीं। उसने क्जस उपेक्षा का पररचय ददया है , उसे दे खते हुए तो उसके मान में सींदेह ही
जान पडता है। मगर वह उसे मनायेगा, उसकी ववनती करे गा, उसके पैरों पडेगा और अींत में उसे मनाकर ही
छोडेगा। सभ
ु द्रा से प्रेम और अनरु ाग का नया प्रमाण पा कर वह मानो एक कठोर ननद्रा से जाग उठा था।
उसे अब अनभु व हो रहा था कक सभ
ु द्रा के लिए उसके हृदय जो स्थान था, वह खािी पडा हुआ है । उलममिा
उस स्थान पर अपना आधधपत्य नहीीं जमा सकती। अब उसे ज्ञात हुआ कक उलममिा के प्रनत उसका प्रेम केवि
वह तष्ृ णा थी, जो स्वादयक्
ु त पदाथों को दे ख कर ही उत्पन्न होती है। वह सच्ची क्षुधा न थी अब कफर उसे
सरि सामान्य भोजन की इच्छा हो रही थी। वविालसनी उलममिा कभी इतना त्याग कर सकती है , इसमें उसे
सींदेह था।
सभु द्रा के घर के ननकट पहुच कर केशव का मन कुछ कातर होने िगा। िेककन उसने जी कडा करके
जीने पर कदम रक्खा और क्षण में सभ ु द्रा के द्वार पर पहुचा, िेककन कमरे का द्वार बींद था। अींदर भी
प्रकाश न था। अवश्य ही वह कही गयी है , आती ही होगी। तब तक उसने बरामदे में टहिने का ननश्चय
ककया।
सहसा मािककन आती हुई ददखायी दी। केशव ने बढ़ कर पछ
ू ा— आप बता सकती हैं कक यह मदहिा
कह ॉँ गयी हैं?
मािककन ने उसे लसर से प वॉँ तक दे ख कर कहा—वह तो आज यह ॉँ से चिी गयीीं।

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ू ा—चिी गयीीं! कह ॉँ चिी गयीीं?
केशव ने हकबका कर पछ
‘यह तो मझ
ु से कुछ नहीीं बताया।‘
‘कब गयीीं?’
‘वह तो दोपहर को ही चिी गयी?’
‘अपना असबाव िे कर गयीीं?’

‘असबाव ककसके लिए छोड जाती? ह ,ॉँ एक छोटा-सा पैकेट अपनी एक सहे िी के लिए छोड गयी हैं। उस
पर लमसेज केशव लिखा हुआ है। मझ
ु से कहा था कक यदद वह आ भी जाय, तो उन्हें दे दे ना, नहीीं तो डाक से
भेज दे ना।’
केशव को अपना हृदय इस तरह बैठता हुआ मािम
ू हुआ जैसे सय ॉँ
ू म का अस्त होना। एक गहरी स स
िेकर बोिा—
‘आप मझ
ु े वह पैकेट ददखा सकती हैं? केशव मेरा ही नाम है।’
मािककन ने मस्
ु करा कर कहा—लमसेज केशव को कोई आपवत्त तो न होगी?
‘तो कफर मैं उन्हें बि
ु ा िाऊ?’
‘ह ,ॉँ उधचत तो यही है !’
‘बहुत दरू जाना पडेगा!’
केशव कुछ दठठकता हुआ जीने की ओर चिा, तो मािककन ने कफर कहा—मैं समझती हू, आप इसे
लिये ही जाइये, व्यथम आपको क्यों दौडाऊ। मगर कि मेरे पास एक रसीद भेज दीक्जएगा। शायद उसकी
जरुरत पडे!
यह कहते हुए उसने एक छोटा-सा पैकेट िाकर केशव को दे ददया। केशव पैकेट िेकर इस तरह भागा,
मानों कोई चोर भागा जा रहा हो। इस पैकेट में क्या है, यह जानने के लिए उसका हृदय व्याकुि हो रहा था।
इसे इतना वविम्ब असह्य था कक अपने स्थान पर जाकर उसे खोिे। समीप ही एक पाकम था। वह ॉँ जाकर
उसने बबजिी के प्रकाश में उस पैकेट को खोिा डािा। उस समय उसके हाथ क पॉँ रहे थे और हृदय इतने
वेग से धडक रहा था, मानों ककसी बींधु की बीमारी के समाचार के बाद लमिा हो।
पैकेट का खुिना था कक केशव की ऑ ींखों से ऑ ींसओ
ु ीं की झडी िग गयी। उसमें एक पीिे रीं ग की साडी
थी, एक छोटी-सी सेंदरु की डडबबया और एक केशव का फोटा-धचत्र के साथ ही एक लिफाफा भी था। केशव ने
उसे खोि कर पढ़ा। उसमें लिखा था—
‘बहन मैं जाती हू। यह मेरे सोहाग का शव है । इसे टे म्स नदी में ववसक्जमत कर दे ना। तम्
ु हीीं िोगों के
हाथों यह सींस्कार भी हो जाय, तो अच्छा।

तुम्हारी,
सभ
ु द्रा
केशव ममामहत-सा पत्र हाथ में लिये वहीीं घास पर िेट गया और फूट-फूट कर रोने िगा।

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आत्म-िंगीत

आ धी रात थी। नदी का ककनारा था। आकाश के तारे क्स्थर थे और नदी में उनका प्रनतबबम्ब िहरों के
साथ चींचि। एक स्वगीय सींगीत की मनोहर और जीवनदानयनी, प्राण-पोवषणी घ्वननय ॉँ इस ननस्तब्ध
और तमोमय दृश्य पर इस प्रकाश छा रही थी, जैसे हृदय पर आशाऍ ीं छायी रहती हैं, या मख
ु मींडि पर शोक।
रानी मनोरमा ने आज गुरु-दीक्षा िी थी। ददन-भर दान और व्रत में व्यस्त रहने के बाद मीठी नीींद की
ु ीीं और ये मनोहर ध्वननय ॉँ कानों में पहुची। वह व्याकुि हो
गोद में सो रही थी। अकस्मात ् उसकी ऑ ींखें खि
गयी—जैसे दीपक को दे खकर पतींग; वह अधीर हो उठी, जैसे ख डॉँ की गींध पाकर चीींटी। वह उठी और
द्वारपािों एवीं चौकीदारों की दृक्ष्टय ॉँ बचाती हुई राजमहि से बाहर ननकि आयी—जैसे वेदनापण
ू म क्रन्दन
सनु कर ऑ ींखों से ऑ ींसू ननकि जाते हैं।
सररता-तट पर कटीिी झाडडया थीीं। ऊचे कगारे थे। भयानक जींतु थे। और उनकी डरावनी आवाजें! शव
थे और उनसे भी अधधक भयींकर उनकी कल्पना। मनोरमा कोमिता और सक
ु ु मारता की मनू तम थी। परीं तु उस
मधरु सींगीत का आकषमण उसे तन्मयता की अवस्था में खीींचे लिया जाता था। उसे आपदाओीं का ध्यान न
था।
वह घींटों चिती रही, यह ॉँ तक कक मागम में नदी ने उसका गनतरोध ककया।

म नोरमा ने वववश होकर इधर-उधर दृक्ष्ट दौडायी। ककनारे पर एक नौका ददखाई दी। ननकट जाकर

ॉँ
ॉँ मैं उस पार जाऊगी, इस मनोहर राग ने मझ
बोिी—म झी,
म झी—रात
ु े व्याकुि कर ददया है ।
को नाव नहीीं खोि सकता। हवा तेज है और िहरें डरावनी। जान-जोखखम हैं
मनोरमा—मैं रानी मनोरमा हू। नाव खोि दे , महम
ु ॉँ मजदरू ी दगी।
गी ू
ॉँ
म झी—तब तो नाव ककसी तरह नहीीं खोि सकता। राननयों का इस में ननबाह नहीीं।
मनोरमा—चौधरी, तेरे प वॉँ पडती हू। शीघ्र नाव खोि दे । मेरे प्राण खखींचे चिे जाते हैं।
ॉँ
म झी—क्या इनाम लमिेगा?
ॉँ ।
मनोरमा—जो तू म गे
ॉँ
‘म झी—आप ॉँ
ही कह दें , गवार क्या जान,ू कक राननयों से क्या चीज म गनी चादहए। कहीीं कोई ऐसी
ॉँ बैठू, जो आपकी प्रनतष्ठा के ववरुद्ध हो?
चीज न म ग
मनोरमा—मेरा यह हार अत्यन्त मल्ू यवान है । मैं इसे खेवे में दे ती हू। मनोरमा ने गिे से हार
ननकािा, उसकी चमक से म झी का मख ु -मींडि प्रकालशत हो गया—वह कठोर, और कािा मख ु , क्जस पर
झरु रम य ॉँ पडी थी।
अचानक मनोरमा को ऐसा प्रतीत हुआ, मानों सींगीत की ध्वनन और ननकट हो गयी हो। कदाधचत कोई
पण
ू म ज्ञानी परु
ु ष आत्मानींद के आवेश में उस सररता-तट पर बैठा हुआ उस ननस्तब्ध ननशा को सींगीत-पण
ू म
कर रहा है । रानी का हृदय उछिने िगा। आह ! ककतना मनोमग्ु धकर राग था ! उसने अधीर होकर कहा—
ॉँ अब दे र न कर, नाव खोि, मैं एक क्षण भी धीरज नहीीं रख सकती।
म झी,
ॉँ
म झी—इस हार हो िेकर मैं क्या करुगा?
मनोरमा—सच्चे मोती हैं।
ॉँ
म झी—यह ॉँ
और भी ववपवत्त हैं म खझन गिे में पहन कर पडोलसयों को ददखायेगी, वह सब डाह से
जिेंगी, उसे गालिय ॉँ दें गी। कोई चोर दे खेगा, तो उसकी छाती पर स पॉँ िोटने िगेगा। मेरी सन
ु सान झोपडी पर
ददन-दहाडे डाका पड जायगा। िोग चोरी का अपराध िगायेंगे। नहीीं, मझ
ु े यह हार न चादहए।
ॉँ वही दगी।
मनोरमा—तो जो कुछ तू म ग, ू िेककन दे र न कर। मझ
ु े अब धैयम नहीीं है। प्रतीक्षा करने की
तननक भी शक्क्त नहीीं हैं। इन राग की एक-एक तान मेरी आत्मा को तडपा दे ती है ।
ॉँ
म झी—इससे भी अच्दी कोई चीज दीक्जए।
मनोरमा—अरे ननदम यी! तू मझ
ु े बातों में िगाये रखना चाहता हैं मैं जो दे ती है, वह िेता नहीीं, स्वयीं कुछ
ॉँ
म गता नही। तुझे क्या मािम
ू मेरे हृदय की इस समय क्या दशा हो रही है । मैं इस आक्त्मक पदाथम पर
अपना सवमस्व न्यौछावर कर सकती हू।

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ॉँ
म झी—और क्या दीक्जएगा?
मनोरमा—मेरे पास इससे बहुमल्
ू य और कोई वस्तु नहीीं है, िेककन तू अभी नाव खोि दे , तो प्रनतज्ञा
करती हू कक तझ
ु े अपना महि दे दगी,
ू क्जसे दे खने के लिए कदाधचत तू भी कभी गया हो। ववशद्ु ध श्वेत
पत्थर से बना है , भारत में इसकी तुिना नहीीं।
ॉँ
म झी—(हस कर) उस महि में रह कर मझ
ु े क्या आनन्द लमिेगा? उिटे मेरे भाई-बींधु शत्रु हो जायगे।
इस नौका पर अधेरी रात में भी मझु े भय न िगता। ऑ ींधी चिती रहती है, और मैं इस पर पडा रहता हू।
ककींतु वह महि तो ददन ही में फाड खायगा। मेरे घर के आदमी तो उसके एक कोने में समा जायगे। और
आदमी कह ॉँ से िाऊगा; मेरे नौकर-चाकर कह ?ॉँ इतना माि-असबाब कह ?ॉँ उसकी सफाई और मरम्मत कह ॉँ
से कराऊगा? उसकी फुिवाररय ॉँ सख
ू जायगी, उसकी क्याररयों में गीदड बोिेंगे और अटाररयों पर कबत
ू र
और अबाबीिें घोंसिे बनायेंगी।
मनोरमा अचानक एक तन्मय अवस्था में उछि पडी। उसे प्रतीत हुआ कक सींगीत ननकटतर आ गया
है । उसकी सन्
ु दरता और आनन्द अधधक प्रखर हो गया था—जैसे बत्ती उकसा दे ने से दीपक अधधक प्रकाशवान
हो जाता है । पहिे धचत्ताकषमक था, तो अब आवेशजनक हो गया था। मनोरमा ने व्याकुि होकर कहा—आह!
तू कफर अपने मह ॉँ
ु से क्यों कुछ नहीीं म गता? आह! ककतना ववरागजनक राग है , ककतना ववह्रवि करने
वािा! मैं अब तननक धीरज नहीीं धर सकती। पानी उतार में जाने के लिए क्जतना व्याकुि होता है , श्वास
हवा के लिए क्जतनी ववकि होती है , गींध उड जाने के लिए क्जतनी व्याकुि होती है, मैं उस स्वगीय सींगीत
के लिए उतनी व्याकुि हू। उस सींगीत में कोयि की-सी मस्ती है , पपीहे की-सी वेदना है , श्यामा की-सी
ववह्विता है, इससे झरनों का-सा जोर है , ऑ ींधी का-सा बि! इसमें वह सब कुछ है, इससे वववेकाक्ग्न
ॉँ
प्रजजवलित होती, क्जससे आत्मा समादहत होती है , और अींत:करण पववत्र होता है। म झी, अब एक क्षण का
भी वविम्ब मेरे लिए मत्ृ यु की यींत्रणा है । शीघ्र नौका खोि। क्जस सम
ु न की यह सग
ु ींध है, क्जस दीपक की
यह दीक्प्त है, उस तक मझ
ु े पहुचा दे । मैं दे ख नहीीं सकती इस सींगीत का रचनयता कहीीं ननकट ही बैठा हुआ
है , बहुत ननकट।
ॉँ
म झी—आपका महि मेरे काम का नहीीं है , मेरी झोपडी उससे कहीीं सह
ु ावनी है ।
मनोरमा—हाय! तो अब तुझे क्या द?ू यह सींगीत नहीीं है , यह इस सवु वशाि क्षेत्र की पववत्रता है, यह
समस्त सम
ु न-समह
ू का सौरभ है, समस्त मधरु ताओीं की माधरु ताओीं की माधरु ी है, समस्त अवस्थाओीं का सार
है । नौका खोि। मैं जब तक जीऊगी, तेरी सेवा करुगी, तेरे लिए पानी भरुगी, तेरी झोपडी बहारुगी। ह ,ॉँ मैं तेरे
मागम के कींकड चन
ु गी,
ू ॉँ
तेरे झोंपडे को फूिों से सजाऊगी, तेरी म खझन के पैर मिगी।
ू ॉँ
प्यारे म झी, यदद मेरे
पास सौ जानें होती, तो मैं इस सींगीत के लिए अपमण करती। ईश्वर के लिए मझ
ु े ननराश न कर। मेरे धैयम का
अक्न्तम बबींद ु शष्ु क हो गया। अब इस चाह में दाह है, अब यह लसर तेरे चरणों में है ।
ॉँ
यह कहते-कहते मनोरमा एक ववक्षक्षप्त की अवस्था में म झी के ननकट जाकर उसके पैरों पर धगर
पडी। उसे ऐसा प्रतीत हुआ, मानों वह सींगीत आत्मा पर ककसी प्रजजवलित प्रदीप की तरह जयोनत बरसाता
हुआ मेरी ओर आ रहा है। उसे रोमाींच हो आया। वह मस्त होकर झम ू ने िगी। ऐसा ज्ञात हुआ कक मैं हवा में
उडी जाती हू। उसे अपने पाश्वम-दे श में तारे खझिलमिाते हुए ददखायी दे ते थे। उस पर एक आमववस्मत ृ का
भावावेश छा गया और अब वही मस्ताना सींगीत, वही मनोहर राग उसके मह ु से ननकिने िगा। वही अमतृ
की बदें
ू , उसके अधरों से टपकने िगीीं। वह स्वयीं इस सींगीत की स्रोत थी। नदी के पास से आने वािी
ध्वननय ,ॉँ प्राणपोवषणी ध्वननय ॉँ उसी के मह
ु से ननकि रही थीीं।
मनोरमा का मख
ु -मींडि चन्द्रमा के तरह प्रकाशमान हो गया था, और ऑ ींखों से प्रेम की ककरणें ननकि
रही थीीं।

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एक्ट्रे ि

रीं
गमींच का परदा धगर गया। तारा दे वी ने शकींु तिा का पाटम खेिकर दशमकों को मग्ु ध कर ददया था। क्जस
वक्त वह शकींु तिा के रुप में राजा दष्ु यन्त के सम्मख
ु खडी ग्िानन, वेदना, और नतरस्कार से उत्तेक्जत
भावों को आग्नेय शब्दों में प्रकट कर रही थी, दशमक-वन्ृ द लशष्टता के ननयमों की उपेक्षा करके मींच की ओर
ॉँ दौड पडे थे और तारादे वी का यशोगान करने िगे थे। ककतने ही तो स्टे ज पर चढ़ गये
उन्मत्तों की भ नत
और तारादे वी के चरणों पर धगर पडे। सारा स्टे ज फूिों से पट गया, आभष
ू णें की वषाम होने िगी। यदद उसी
ॉँ
क्षण मेनका का ववमान नीचे आ कर उसे उडा न िे जाता, तो कदाधचत उस धक्कम-धक्के में दस-प च
आदलमयों की जान पर बन जाती। मैनज
े र ने तुरन्त आकर दशमकों को गण
ु -ग्राहकता का धन्यवाद ददया और
वादा भी ककया कक दसू रे ददन कफर वही तमाशा होगा। तब िोगों का मोहान्माद शाींत हुआ। मगर एक यव ु क
उस वक्त भी मींच पर खडा रहा। िम्बे कद का था, तेजस्वी मद्र
ु ा, कुन्दन का-सा दे वताओीं का-सा स्वरुप, गठी
हुई दे ह, मख
ु से एक जयोनत-सी प्रस्फुदटत हो रही थी। कोई राजकुमार मािम
ू होता था।
जब सारे दशमकगण बाहर ननकि गये, उसने मैनेजर से पछ ू ा—क्या तारादे वी से एक क्षण के लिए लमि
सकता हू?
मैनेजर ने उपेक्षा के भाव से कहा—हमारे यह ॉँ ऐसा ननयम नहीीं है ।
यव
ु क ने कफर पछ
ू ा—क्या आप मेरा कोई पत्र उसके पास भेज सकते हैं?
मैनेजर ने उसी उपेक्षा के भाव से कहा—जी नहीीं। क्षमा कीक्जएगा। यह हमारे ननयमों के ववरुद्ध है ।
यव
ु क ने और कुछ न कहा, ननराश होकर स्टे ज के नीचे उतर पडा और बाहर जाना ही चाहता था कक
मैनेजर ने पछ
ू ा—जरा ठहर जाइये, आपका काडम?
यव
ु क ने जेब से कागज का एक टुकडा ननकि कर कुछ लिखा और दे ददया। मैनेजर ने पज
ु े को उडती
हुई ननगाह से दे खा—कींु वर ननममिकान्त चौधरी ओ. बी. ई.। मैनेजर की कठोर मद्र
ु ा कोमि हो गयी। कींु वर
ननममिकान्त—शहर के सबसे बडे रईस और ताल्िक ु े दार, सादहत्य के उजजवि रत्न, सींगीत के लसद्धहस्त
आचायम, उच्च-कोदट के ववद्वान, आठ-दस िाख सािाना के नफेदार, क्जनके दान से दे श की ककतनी ही
सींस्थाऍ ीं चिती थीीं—इस समय एक क्षुद्र प्राथी के रुप में खडे थे। मैनज
े र अपने उपेक्षा-भाव पर िक्जजत हो
गया। ववनम्र शब्दों में बोिा—क्षमा कीक्जएगा, मझ
ु से बडा अपराध हुआ। मैं अभी तारादे वी के पास हुजरू का
काडम लिए जाता हू।
ॉँ बजे
कींु वर साहब ने उससे रुकने का इशारा करके कहा—नहीीं, अब रहने ही दीक्जए, मैं कि प च
आऊगा। इस वक्त तारादे वी को कष्ट होगा। यह उनके ववश्राम का समय है।
मैनेजर—मझ
ु े ववश्वास है कक वह आपकी खानतर इतना कष्ट सहषम सह िेंगी, मैं एक लमनट में आता
हू।
ककन्तु कींु वर साहब अपना पररचय दे ने के बाद अपनी आतरु ता पर सींयम का परदा डािने के लिए
वववश थे। मैनेजर को सजजनता का धन्यवाद ददया। और कि आने का वादा करके चिे गये।

ता रा एक साफ-सथु रे और सजे हुए कमरे में मेज के सामने ककसी ववचार में मग्न बैठी थी। रात का
वह दृश्य उसकी ऑ ींखों के सामने नाच रहा था। ऐसे ददन जीवन में क्या बार-बार आते हैं? ककतने
मनष्ु य उसके दशमनों के लिए ववकि हो रहे हैं? बस, एक-दस
ू रे पर फाट पडते थे। ककतनों को उसने पैरों से
ठुकरा ददया था—ह ,ॉँ ठुकरा ददया था। मगर उस समह
ू में केवि एक ददव्यमनू तम अववचलित रुप से खडी थी।
उसकी ऑ ींखों में ककतना गम्भीर अनरु ाग था, ककतना दृढ़ सींकल्प ! ऐसा जान पडता था मानों दोनों नेत्र उसके
हृदय में चभ
ु े जा रहे हों। आज कफर उस परु
ु ष के दशमन होंगे या नहीीं, कौन जानता है । िेककन यदद आज
उनके दशमन हुए, तो तारा उनसे एक बार बातचीत ककये बबना न जाने दे गी।
यह सोचते हुए उसने आईने की ओर दे खा, कमि का फूि-सा खखिा था, कौन कह सकता था कक वह
नव-ववकलसत पष्ु प तैंतीस बसींतों की बहार दे ख चक
ु ा है । वह काींनत, वह कोमिता, वह चपिता, वह माधय
ु म
ककसी नवयौवना को िक्जजत कर सकता था। तारा एक बार कफर हृदय में प्रेम दीपक जिा बैठी। आज से

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बीस साि पहिे एक बार उसको प्रेम का कटु अनभ ु व हुआ था। तब से वह एक प्रकार का वैधव्य-जीवन
व्यतीत करती रही। ककतने प्रेलमयों ने अपना हृदय उसको भें ट करना चाहा था; पर उसने ककसी की ओर ऑ ींख
उठाकर भी न दे खा था। उसे उनके प्रेम में कपट की गन्ध आती थी। मगर आह! आज उसका सींयम उसके
हाथ से ननकि गया। एक बार कफर आज उसे हृदय में उसी मधरु वेदना का अनभ ु व हुआ, जो बीस साि
पहिे हुआ था। एक परु
ु ष का सौम्य स्वरुप उसकी ऑ ींखें में बस गया, हृदय पट पर खखींच गया। उसे वह
ककसी तरह भि
ू न सकती थी। उसी परु
ु ष को उसने मोटर पर जाते दे खा होता, तो कदाधचत उधर ध्यान भी
न करती। पर उसे अपने सम्मख
ु प्रेम का उपहार हाथ में लिए दे खकर वह क्स्थर न रह सकी।
सहसा दाई ने आकर कहा—बाई जी, रात की सब चीजें रखी हुई हैं, कदहए तो िाऊ?
तारा ने कहा—नहीीं, मेरे पास चीजें िाने की जरुरत नहीीं; मगर ठहरो, क्या-क्या चीजें हैं।
‘एक ढे र का ढे र तो िगा है बाई जी, कह ॉँ तक धगनाऊ—अशकफम य ॉँ हैं, िच
ू ज
े बाि के वपन, बटन, िाकेट,
अगदू ठय ॉँ सभी तो हैं। एक छोटे -से डडब्बे में एक सन्
ु दर हार है । मैंने आज तक वैसा हार नहीीं दे खा। सब
सींदक
ू में रख ददया है।’
‘अच्छा, वह सींदक
ू मेरे पास िा।’ दाई ने सन्दक
ू िाकर मेज रख ददया। उधर एक िडके ने एक पत्र
िाकर तारा को ददया। तारा ने पत्र को उत्सक
ु नेत्रों से दे खा—कींु वर ननममिकान्त ओ. बी. ई.। िडके से
पछ ॉँ हुए थे?
ू ा—यह पत्र ककसने ददया। वह तो नहीीं, जो रे शमी साफा ब धे
िडके ने केवि इतना कहा—मैनेजर साहब ने ददया है । और िपका हुआ बाहर चिा गया।
सींदक
ू में सबसे पहिे डडब्बा नजर आया। तारा ने उसे खोिा तो सच्चे मोनतयों का सन्
ु दर हार था।
डडब्बे में एक तरफ एक काडम भी था। तारा ने िपक कर उसे ननकाि लिया और पढ़ा—कींु वर ननममिकान्त...।
काडम उसके हाथ से छूट कर धगर पडा। वह झपट कर कुरसी से उठी और बडे वेग से कई कमरों और
बरामदों को पार करती मैनेजर के सामने आकर खडी हो गयीीं। मैनेजर ने खडे होकर उसका स्वागत ककया
और बोिा—मैं रात की सफिता पर आपको बधाई दे ता हू।
तारा ने खडे-खडे पछ
ू ा—कुवर ननममिकाींत क्या बाहर हैं? िडका पत्र दे कर भाग गया। मैं उससे कुछ
पछ
ू न सकी।
‘कुवर साहब का रुक्का तो रात ही तुम्हारे चिे आने के बाद लमिा था।’
‘तो आपने उसी वक्त मेरे पास क्यों न भेज ददया?’
मैनेजर ने दबी जबान से कहा—मैंने समझा, तम
ु आराम कर रही होगी, कष्ट दे ना उधचत न समझा।
और भाई, साफ बात यह है कक मैं डर रहा था, कहीीं कुवर साहब को तम
ु से लमिा कर तम्
ु हें खो न बैठू। अगर
मैं औरत होता, तो उसी वक्त उनके पीछे हो िेता। ऐसा दे वरुप परु
ु ष मैंने आज तक नहीीं दे खा। वही जो
ॉँ खडे थे तुम्हारे सामने। तम
रे शमी साफा ब धे ु ने भी तो दे खा था।
तारा ने मानो अधमननद्रा की दशा में कहा—ह ,ॉँ दे खा तो था—क्या यह कफर आयेंगे?
ह ,ॉँ आज प च
ॉँ बजे शाम को। बडे ववद्वान आदमी हैं, और इस शहर के सबसे बडे रईस।’
‘आज मैं ररहसमि में न आऊगी।’

कु वर साहब आ रहे होंगे। तारा आईने के सामने बैठी है और दाई उसका श्रग
जमाने में एक ववद्या है । पहिे पररपाटी के अनस
ीं ृ ार कर रही है । श्रींग
ु ार ही श्रींग
ृ ार भी इस
ृ ार ककया जाता था। कववयों, धचत्रकारों और
रलसकों ने श्रींग ॉँ दी थी। ऑ ींखों के लिए काजि िाजमी था, हाथों के लिए में हदी, पाव के
ृ ार की मयामदा-सी ब ध
लिए महावर। एक-एक अींग एक-एक आभष
ू ण के लिए ननददमष्ट था। आज वह पररपाटी नहीीं रही। आज
प्रत्येक रमणी अपनी सरु
ु धच सब
ु द्
ु वव और तुिनात्मक भाव से श्रींग
ृ ार करती है । उसका सौंदयम ककस उपाय से
आकषमकता की सीमा पर पहुच सकता है, यही उसका आदशम होता हैं तारा इस किा में ननपण ु थी। वह
पन्द्रह साि से इस कम्पनी में थी और यह समस्त जीवन उसने परु
ु षों के हृदय से खेिने ही में व्यतीत
ककया था। ककस धचवतन से, ककस मस्
ु कान से, ककस अगडाई से, ककस तरह केशों के बबखेर दे ने से ददिों का
कत्िेआम हो जाता है ; इस किा में कौन उससे बढ़ कर हो सकता था! आज उसने चन
ु -चन
ु कर आजमाये
हुए तीर तरकस से ननकािे, और जब अपने अस्त्रों से सज कर वह दीवानखाने में आयी, तो जान पडा मानों
सींसार का सारा माधय
ु म उसकी बिाऍ ीं िे रहा है । वह मेज के पास खडी होकर कुवर साहब का काडम दे ख रही
थी, उसके कान मोटर की आवाज की ओर िगे हुए थे। वह चाहती थी कक कुवर साहब इसी वक्त आ जाऍ ीं

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और उसे इसी अन्दाज से खडे दे खें। इसी अन्दाज से वह उसके अींग प्रत्यींगों की पण
ू म छवव दे ख सकते थे।
उसने अपनी श्रींग
ृ ार किा से काि पर ववजय पा िी थी। कौन कह सकता था कक यह चींचि नवयौवन उस
अवस्था को पहुच चकु ी है, जब हृदय को शाींनत की इच्छा होती है , वह ककसी आश्रम के लिए आतरु हो उठता
है , और उसका अलभमान नम्रता के आगे लसर झक ु ा दे ता है ।
तारा दे वी को बहुत इन्तजार न करना पडा। कुवर साहब शायद लमिने के लिए उससे भी उत्सक
ु थे।
दस ही लमनट के बाद उनकी मोटर की आवाज आयी। तारा सभि गयी। एक क्षण में कुवर साहब ने कमरे
में प्रवेश ककया। तारा लशष्टाचार के लिए हाथ लमिाना भी भि
ू गयी, प्रौढ़ावस्था में भी प्रेमी की उद्ववग्नता
और असावधानी कुछ कम नहीीं होती। वह ककसी सिजजा यव ॉँ लसर झक
ु ती की भ नत ु ाए खडी रही।
कुवर साहब की ननगाह आते ही उसकी गदम न पर पडी। वह मोनतयों का हार, जो उन्होंने रात को भें ट
ककया था, चमक रहा था। कुवर साहब को इतना आनन्द और कभी न हुआ। उन्हें एक क्षण के लिए ऐसा
जान पडा मानों उसके जीवन की सारी अलभिाषा परू ी हो गयी। बोिे—मैंने आपको आज इतने सबेरे कष्ट
ददया, क्षमा कीक्जएगा। यह तो आपके आराम का समय होगा? तारा ने लसर से खखसकती हुई साडी को सभाि
कर कहा—इससे जयादा आराम और क्या हो सकता कक आपके दशमन हुए। मैं इस उपहार के लिए और क्या
आपको मनों धन्यवाद दे ती हू। अब तो कभी-कभी मि
ु ाकात होती रहे गी?
ननममिकान्त ने मस्ु कराकर कहा—कभी-कभी नहीीं, रोज। आप चाहे मझु से लमिना पसन्द न करें , पर
एक बार इस डयोढ़ी पर लसर को झक
ु ा ही जाऊगा।
तारा ने भी मस्
ु करा कर उत्तर ददया—उसी वक्त तक जब तक कक मनोरीं जन की कोई नयी वस्तु नजर
न आ जाय! क्यों?
‘मेरे लिए यह मनोरीं जन का ववषय नहीीं, क्जींदगी और मौत का सवाि है । ह ,ॉँ तम
ु इसे ववनोद समझ
सकती हो, मगर कोई पहवाह नहीीं। तुम्हारे मनोरीं जन के लिए मेरे प्राण भी ननकि जायें, तो मैं अपना जीवन
सफि समझगा।

दोंनों तरफ से इस प्रीनत को ननभाने के वादे हुए, कफर दोनों ने नाश्ता ककया और कि भोज का न्योता
दे कर कुवर साहब ववदा हुए।

ए क महीना गज
ु र गया, कुवर साहब ददन में कई-कई बार आते। उन्हें एक क्षण का ववयोग भी असह्य
था। कभी दोनों बजरे पर दररया की सैर करते, कभी हरी-हरी घास पर पाकों में बैठे बातें करते, कभी
ॉँ
गाना-बजाना होता, ननत्य नये प्रोग्राम बनते थे। सारे शहर में मशहूर था कक ताराबाई ने कुवर साहब को फ स
लिया और दोनों हाथों से सम्पवत्त िट ू रही है । पर तारा के लिए कुवर साहब का प्रेम ही एक ऐसी सम्पवत्त
थी, क्जसके सामने दनु नया-भर की दौित दे य थी। उन्हें अपने सामने दे खकर उसे ककसी वस्तु की इच्छा न
होती थी।
मगर एक महीने तक इस प्रेम के बाजार में घम
ू ने पर भी तारा को वह वस्तु न लमिी, क्जसके लिए
उसकी आत्मा िोिप
ु हो रही थी। वह कुवर साहब से प्रेम की, अपार और अतुि प्रेम की, सच्चे और ननष्कपट
प्रेम की बातें रोज सन
ु ती थी, पर उसमें ‘वववाह’ का शब्द न आने पाता था, मानो प्यासे को बाजार में पानी
छोडकर और सब कुछ लमिता हो। ऐसे प्यासे को पानी के लसवा और ककस चीज से तक्ृ प्त हो सकती है ?
प्यास बझ
ु ाने के बाद, सम्भव है, और चीजों की तरफ उसकी रुधच हो, पर प्यासे के लिए तो पानी सबसे
मल्
ू यवान पदाथम है। वह जानती थी कक कुवर साहब उसके इशारे पर प्राण तक दे दें गे, िेककन वववाह की बात
क्यों उनकी जबान से नहीीं लमिती? क्या इस ववष्य का कोई पत्र लिख कर अपना आशय कह दे ना सम्भव
था? कफर क्या वह उसको केवि ववनोद की वस्तु बना कर रखना चाहते हैं? यह अपमान उससे न सहा
जाएगा। कुवर के एक इशारे पर वह आग में कूद सकती थी, पर यह अपमान उसके लिए असह्य था। ककसी
शौकीन रईस के साथ वह इससे कुछ ददन पहिे शायद एक-दो महीने रह जाती और उसे नोच-खसोट कर
अपनी राह िेती। ककन्तु प्रेम का बदिा प्रेम है, कुवर साहब के साथ वह यह ननिमजज जीवन न व्यतीत कर
सकती थी।
ॉँ उन्हें ताराबाई के पींजे से छुडाना
उधर कुवर साहब के भाई बन्द भी गाकफि न थे, वे ककसी भ नत
चाहते थे। कहीीं कींु वर साहब का वववाह ठीक कर दे ना ही एक ऐसा उपाय था, क्जससे सफि होने की आशा
थी और यही उन िोगों ने ककया। उन्हें यह भय तो न था कक कींु वर साहब इस ऐक्रे स से वववाह करें गे। ह ,ॉँ

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यह भय अवश्य था कक कही ररयासत का कोई दहस्सा उसके नाम कर दें , या उसके आने वािे बच्चों को
ररयासत का मालिक बना दें । कुवर साहब पर चारों ओर से दबाव पडने िगे। यह ॉँ तक कक योरोवपयन
अधधकाररयों ने भी उन्हें वववाह कर िेने की सिाह दी। उस ददन सींध्या समय कींु वर साहब ने ताराबाई के
पास जाकर कहा—तारा, दे खो, तुमसे एक बात कहता हू, इनकार न करना। तारा का हृदय उछिने िगा।
बोिी—कदहए, क्या बात है? ऐसी कौन वस्तु है, क्जसे आपकी भें ट करके मैं अपने को धन्य समझ?ू
बात महु से ननकिने की दे र थी। तारा ने स्वीकार कर लिया और हषोन्माद की दशा में रोती हुई
कींु वर साहब के पैरों पर धगर पडी।

ए क क्षण के बाद तारा ने कहा—मैं तो ननराश हो चिी थी। आपने बढ़ी िम्बी परीक्षा िी।

‘यह बात नहीीं है तारा! अगर मझ


ॉँ
कींु वर साहब ने जबान द तों-तिे दबाई, मानो कोई अनधु चत बात सन
ु े ववश्वास होता कक तम
ु िी हो!
ु मेरी याचना स्वीकार कर िोगी, तो कदाधचत
पहिे ही ददन मैंने लभक्षा के लिए हाथ फैिाया होता, पर मैं अपने को तुम्हारे योग्य नहीीं पाता था। तुम
सदगुणों की खान हो, और मैं...मैं जो कुछ हू, वह तुम जानती ही हो। मैंने ननश्चय कर लिया था कक उम्र भर
तुम्हारी उपासना करता रहूगा। शायद कभी प्रसन्न हो कर तुम मझ ु े बबना म गेॉँ ही वरदान दे दो। बस, यही
मेरी अलभिाषा थी! मझ
ु में अगर कोई गणु है, तो यही कक मैं तुमसे प्रेम करता हू। जब तुम सादहत्य या
सींगीत या धमम पर अपने ववचार प्रकट करने िगती हो, तो मैं दीं ग रह जाता हू और अपनी क्षुद्रता पर
िक्जजत हो जाता हू। तुम मेरे लिए साींसाररक नहीीं, स्वगीय हो। मझ
ु े आश्चयम यही है कक इस समय मैं मारे
खशु ी के पागि क्यों नहीीं हो जाता।’
कींु वर साहब दे र तक अपने ददि की बातें कहते रहे । उनकी वाणी कभी इतनी प्रगल्भ न हुई थी!
तारा लसर झक ु ाये सन
ु ती थी, पर आनींद की जगह उसके मख ु पर एक प्रकार का क्षोभ—िजजा से
लमिा हुआ—अींककत हो रहा था। यह परु
ु ष इतना सरि हृदय, इतना ननष्कपट है? इतना ववनीत, इतना उदार!
सहसा कुवर साहब ने पछू ा—तो मेरे भाग्य ककस ककस ददन उदय होंगे, तारा? दया करके बहुत ददनों के
लिए न टािना।
तारा ने कुवर साहब की सरिता से परास्त होकर धचींनतत स्वर में कहा—कानन
ू का क्या कीक्जएगा?
कुवर साहब ने तत्परता से उत्तर ददया—इस ववषय में तुम ननश्चींत रहो तारा, मैंने वकीिों से पछ
ू लिया है ।
एक कानन
ू ऐसा है क्जसके अनस
ु ार हम और तुम एक प्रेम-सत्र
ू में बध सकते हैं। उसे लसववि-मैररज कहते
हैं। बस, आज ही के ददन वह शभ
ु मह
ु ू तम आयेगा, क्यों?
तारा लसर झक
ु ाये रही। बोि न सकी।
‘मैं प्रात:काि आ जाऊगा। तैयार रहना।’
तारा लसर झक
ु ाये रही। मह
ु से एक शब्द न ननकिा।
ॉँ बैठी रही। परु
कींु वर साहब चिे गये, पर तारा वहीीं मनू तम की भ नत ु षों के हृदय से क्रीडा करनेवािी चतुर
नारी क्यों इतनी ववमढ़
ू हो गयी है !

वव
वाह का एक ददन और बाकी है । तारा को चारों ओर से बधाइय ॉँ लमि रही हैं। धथएटर के सभी स्त्री-
परु
ु षों ने अपनी सामथ्यम के अनस
ु ार उसे अच्छे -अच्छे उपहार ददये हैं, कुवर साहब ने भी आभष
ू णों से
ॉँ
सजा हुआ एक लसींगारदान भें ट ककया हैं, उनके दो-चार अींतरीं ग लमत्रों ने भ नत-भ ॉँ के सौगात भेजे हैं; पर
नत
तारा के सन्
ु दर मख
ु पर हषम की रे खा भी नहीीं नजर आती। वह क्षुब्ध और उदास है । उसके मन में चार ददनों
से ननरीं तर यही प्रश्न उठ रहा है —क्या कुवर के साथ ववश्वासघात करें ? क्जस प्रेम के दे वता ने उसके लिए
अपने कुि-मयामदा को नतिाींजलि दे दी, अपने बींधज
ु नों से नाता तोडा, क्जसका हृदय दहमकण के समान
ननष्किींक है, पवमत के समान ववशाि, उसी से कपट करे ! नहीीं, वह इतनी नीचता नहीीं कर सकती , अपने
जीवन में उसने ककतने ही यव
ु कों से प्रेम का अलभनय ककया था, ककतने ही प्रेम के मतवािों को वह सब्ज
बाग ददखा चकु ी थी, पर कभी उसके मन में ऐसी दवु वधा न हुई थी, कभी उसके हृदय ने उसका नतरस्कार न
ककया था। क्या इसका कारण इसके लसवा कुछ और था कक ऐसा अनरु ाग उसे और कहीीं न लमिा था।

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ु ी बना सकती है? ह ,ॉँ अवश्य। इस ववषय में उसे िेशमात्र भी सींदेह
क्या वह कुवर साहब का जीवन सख
नहीीं था। भक्क्त के लिए ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो असाध्य हो; पर क्या वह प्रकृनत को धोखा दे सकती है ।
ढिते हुए सय
ू म में मध्याह्न का-सा प्रकाश हो सकता है ? असम्भव। वह स्फूनतम, वह चपिता, वह ववनोद, वह
सरि छवव, वह तल्िीनता, वह त्याग, वह आत्मववश्वास वह कह ॉँ से िायेगी, क्जसके सक्म्मश्रण को यौवन
कहते हैं? नहीीं, वह ककतना ही चाहे , पर कींु वर साहब के जीवन को सख
ु ी नहीीं बना सकतीीं बढ़
ू ा बैि कभी
जवान बछडों के साथ नहीीं चि सकता।
आह! उसने यह नौबत ही क्यों आने दी? उसने क्यों कृबत्रम साधनों से, बनावटी लसींगार से कींु वर को
धोखें में डािा? अब इतना सब कुछ हो जाने पर वह ककस मह ु से कहे गी कक मैं रीं गी हुई गुडडया हू, जबानी
मझ
ु से कब की ववदा हो चक ु ी, अब केवि उसका पद-धचह्न रह गया है।
रात के बारह बज गये थे। तारा मेज के सामने इन्हीीं धचींताओीं में मग्न बैठी हुई थी। मेज पर उपहारों
के ढे र िगे हुए थे; पर वह ककसी चीज की ओर ऑ ींख उठा कर भी न दे खती थी। अभी चार ददन पहिे वह
इन्हीीं चीजों पर प्राण दे ती थी, उसे हमेशा ऐसी चीजों की तिाश रहती थी, जो काि के धचह्नों को लमटा सकें,
पर अब उन्हीीं चीजों से उसे घण
ृ ा हो रही है । प्रेम सत्य है— और सत्य और लमथ्या, दोनों एक साथ नहीीं रह
सकते।
तारा ने सोचा—क्यों न यह ॉँ से कहीीं भाग जाय? ककसी ऐसी जगह चिी जाय, जह ॉँ कोई उसे जानता
भी न हो। कुछ ददनों के बाद जब कींु वर का वववाह हो जाय, तो वह कफर आकर उनसे लमिे और यह सारा
वत्त
ृ ाींत उनसे कह सन
ु ाए। इस समय कींु वर पर वज्रपात-सा होगा—हाय न-जाने उनकी दशा होगी; पर उसके
लिए इसके लसवा और कोई मागम नहीीं है। अब उनके ददन रो-रोकर कटें गे, िेककन उसे ककतना ही द:ु ख क्यों
न हो, वह अपने वप्रयतम के साथ छि नहीीं कर सकती। उसके लिए इस स्वगीय प्रेम की स्मनृ त, इसकी वेदना
ही बहुत है । इससे अधधक उसका अधधकार नहीीं।
दाई ने आकर कहा—बाई जी, चलिए कुछ थोडा-सा भोजन कर िीक्जए अब तो बारह बज गए।
तारा ने कहा—नहीीं, जरा भी भख
ू नहीीं। तुम जाकर खा िो।
दाई—दे खखए, मझ
ु े भि
ू न जाइएगा। मैं भी आपके साथ चिगी।

तारा—अच्छे -अच्छे कपडे बनवा रखे हैं न?
दाई—अरे बाई जी, मझ
ु े अच्छे कपडे िेकर क्या करना है? आप अपना कोई उतारा दे दीक्जएगा।
दाई चिी गई। तारा ने घडी की ओर दे खा। सचमच
ु बारह बज गए थे। केवि छह घींटे और हैं।
प्रात:काि कींु वर साहब उसे वववाह-मींददर में िे-जाने के लिए आ जायेंगे। हाय! भगवान, क्जस पदाथम से तम
ु ने
इतने ददनों तक उसे वींधचत रखा, वह आज क्यों सामने िाये? यह भी तम्
ु हारी क्रीडा हैं
तारा ने एक सफद साडी पहन िी। सारे आभष
ू ण उतार कर रख ददये। गमम पानी मौजूद था। साबन

और पानी से मह ु जा कर खडी हो गयी—कह ॉँ थी वह छवव, वह जयोनत, जो
ु धोया और आईने के सम्मख
ु ा िेती थी! रुप वही था, पर क्राींनत कह ?ॉँ अब भी वह यौवन का स्व ग
ऑ ींखों को िभ ॉँ भर सकती है?
तारा को अब वह ॉँ एक क्षण भी और रहना कदठन हो गया। मेज पर फैिे हुए आभष ू ण और वविास
की सामधग्रय ॉँ मानों उसे काटने िगी। यह कृबत्रम जीवन असह्य हो उठा, खस की टदटटयों और बबजिी के
पींखों से सजा हुआ शीति भवन उसे भट्टी के समान तपाने िगा।
उसने सोचा—कह ॉँ भाग कर जाऊ। रे ि से भागती हू, तो भागने ना पाऊगी। सबेरे ही कुवर साहब के
आदमी छूटें गे और चारों तरफ मेरी तिाश होने िगेगी। वह ऐसे रास्ते से जायगी, क्जधर ककसी का ख्याि भी
न जाय।
तारा का हृदय इस समय गवम से छिका पडता था। वह द:ु खी न थी, ननराश न थी। कफर कींु वर साहब
से लमिेगी, ककींतु वह ननस्वाथम सींयोग होगा। प्रेम के बनाये हुए कत्तमव्य मागम पर चि रही है , कफर द:ु ख क्यों हो
और ननराश क्यों हो?
सहसा उसे ख्याि आया—ऐसा न हो, कुवर साहब उसे वह ॉँ न पा कर शेक-ववह्विता की दशा में अनथम
कर बैठें। इस कल्पना से उसके रोंगटे खडे हो गये। एक क्षण के के लिए उसका मन कातर हो उठा। कफर
वह मेज पर जा बैठी, और यह पत्र लिखने िगी—
वप्रयतम, मझ
ु े क्षमा करना। मैं अपने को तम्
ु हारी दासी बनने के योग्य नहीीं पाती। तम
ु ने मझ
ु े प्रेम का
वह स्वरुप ददखा ददया, क्जसकी इस जीवन में मैं आशा न कर सकती थी। मेरे लिए इतना ही बहुत है । मैं
जब जीऊगी, तुम्हारे प्रेम में मग्न रहूगी। मझ
ु े ऐसा जान पड रहा है कक प्रेम की स्मनृ त में प्रेम के भोग से

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कही अधधक माधय
ु म और आनन्द है। मैं कफर आऊगी, कफर तम्
ु हारे दशमन करुगी; िेककन उसी दशामें जब तम

वववाह कर िोगे। यही मेरे िौटने की शतम है। मेरे प्राणें के प्राण, मझ
ु से नाराज न होना। ये आभष
ू ण जो
तम ु ने मेरे लिए भेजे थे, अपनी ओर से नववधू के लिए छोडे जाती हू। केवि वह मोनतयों को हार, जो तम्
ु हारे
प्रेम का पहिा उपहार है , अपने साथ लिये जाती हू। तुमसे हाथ जोडकर कहती हू, मेरी तिाश न करना। मैं
तुम्हरी हू और सदा तुम्हारी रहूगा.....।
तुम्हारी,
तारा

यह पत्र लिखकर तारा ने मेज पर रख ददया, मोनतयों का हार गिे में डािा और बाहर ननकि आयी।
धथएटर हाि से सींगीत की ध्वनन आ रही थी। एक क्षण के लिए उसके पैर बध गये। पन्द्रह वषो का परु ाना
सम्बन्ध आज टूट रहा था। सहसा उसने मैनेजर को आते दे खा। उसका किेजा धक से हो गया। वह बडी
तेजी से िपककर दीवार की आड में खडी हो गयी। जयों ही मैनेजर ननकि गया, वह हाते के बाहर आयी
और कुछ दरू गलियों में चिने के बाद उसने गींगा का रास्ता पकडा।
गींगा-तट पर सन्नाटा छाया हुआ था। दस-प च ॉँ साध-ु बैरागी धनू नयों के सामने िेटे थे। दस-प च
ॉँ यात्री
ॉँ रें गती चिी जाती थी। एक छोटी-सी
कम्बि जमीन पर बबछाये सो रहे थे। गींगा ककसी ववशाि सपम की भ नत
नौका ककनारे पर िगी हुई थी। मल्िाहा नौका में बैठा हुआ था।
तारा ने मल्िाहा को पक ॉँ उस पार नाव िे चिेगा?
ु ारा—ओ म झी,
ॉँ ने जवाब ददया—इतनी रात गये नाव न जाई।
म झी
मगर दन ु कर उसे ड डॉँ उठाया और नाव को खोिता हुआ बोिा—सरकार, उस
ू ी मजदरू ी की बात सन
पार कह ॉँ जैहैं?
‘उस पार एक ग वॉँ में जाना है।’
‘मद
ु ा इतनी रात गये कौनों सवारी-लसकारी न लमिी।’
‘कोई हजम नहीीं, तुम मझे उस पर पहुचा दो।’
ॉँ ने नाव खोि दी। तारा उस पार जा बैठी और नौका मींद गनत से चिने िगी, मानों जीव स्वप्न-
म झी
साम्राजय में ववचर रहा हो।
ॉँ पथ्
इसी समय एकादशी का च द, ृ वी से उस पार, अपनी उजजवि नौका खेता हुआ ननकिा और व्योम-
सागर को पार करने िगा।

ईश्िरीय न्द्याय

का नपरु क्जिे में पींडडत भग


ृ ुदत्त नामक एक बडे जमीींदार थे। मींश
ु ी सत्यनारायण उनके काररींदा थे। वह
बडे स्वालमभक्त और सच्चररत्र मनष्ु य थे। िाखों रुपये की तहसीि और हजारों मन अनाज का
ॉँ
िेन-दे न उनके हाथ में था; पर कभी उनकी ननयत डाव डोि न होती। उनके सप्र
ु बींध से ररयासत ददनोंददन
उन्ननत करती जाती थी। ऐसे कत्तव्यमपरायण सेवक का क्जतना सम्मान होना चादहए, उससे अधधक ही होता
था। द:ु ख-सख
ु के प्रत्येक अवसर पर पींडडत जी उनके साथ बडी उदारता से पेश आते। धीरे -धीरे मींश
ु ी जी का
ववश्वास इतना बढ़ा कक पींडडत जी ने दहसाब-ककताब का समझना भी छोड ददया। सम्भव है , उनसे आजीवन
इसी तरह ननभ जाती, पर भावी प्रबि है । प्रयाग में कुम्भ िगा, तो पींडडत जी भी स्नान करने गये। वह ॉँ से
िौटकर कफर वे घर न आये। मािम
ू नहीीं, ककसी गढ़े में कफसि पडे या कोई जि-जींतु उन्हें खीींच िे गया,
उनका कफर कुछ पता ही न चिा। अब मश
ींु ी सत्यनाराण के अधधकार और भी बढ़े । एक हतभाधगनी ववधवा
और दो छोटे -छोटे बच्चों के लसवा पींडडत जी के घर में और कोई न था। अींत्येक्ष्ट-कक्रया से ननवत्त
ृ होकर एक
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ददन शोकातरु पींडडताइन ने उन्हें बि
ु ाया और रोकर कहा—िािा, पींडडत जी हमें मझधार में छोडकर सरु परु को
लसधर गये, अब यह नैया तम्ु ही पार िगाओगे तो िग सकती है । यह सब खेती तम् ु हारी िगायी हुई है , इसे
तम्
ु हारे ही ऊपर छोडती हू। ये तम्
ु हारे बच्चे हैं, इन्हें अपनाओ। जब तक मालिक क्जये, तम्
ु हें अपना भाई
समझते रहे । मझ
ु े ववश्वास है कक तुम उसी तरह इस भार को सभािे रहोगे।
सत्यनाराण ने रोते हुए जवाब ददया—भाभी, भैया क्या उठ गये, मेरे तो भाग्य ही फूट गये, नहीीं तो
मझ
ु े आदमी बना दे त।े मैं उन्हीीं का नमक खाकर क्जया हू और उन्हीीं की चाकरी में मरुगा भी। आप धीरज
रखें । ककसी प्रकार की धचींता न करें । मैं जीते-जी आपकी सेवा से मह
ु न मोडूगा। आप केवि इतना कीक्जएगा
कक मैं क्जस ककसी की लशकायत करु, उसे ड टॉँ दीक्जएगा; नहीीं तो ये िोग लसर चढ़ जायेंगे।

इ स घटना के बाद कई वषो तक मींश


ु ीजी ने ररयासत को सभािा। वह अपने काम में बडे कुशि थे। कभी
एक कौडी का भी बि नहीीं पडा। सारे क्जिे में उनका सम्मान होने िगा। िोग पींडडत जी को भि
ू -सा
गये। दरबारों और कमेदटयों में वे सक्म्मलित होते, क्जिे के अधधकारी उन्हीीं को जमीींदार समझते। अन्य रईसों
में उनका आदर था; पर मान-वद्
ृ वव की महगी वस्तु है। और भानक
ु ु वरर, अन्य क्स्त्रयों के सदृश पैसे को खूब
पकडती। वह मनष्ु य की मनोववृ त्तयों से पररधचत न थी। पींडडत जी हमेशा िािा जी को इनाम इकराम दे ते
रहते थे। वे जानते थे कक ज्ञान के बाद ईमान का दस
ू रा स्तम्भ अपनी सद
ु शा है । इसके लसवा वे खुद भी
ॉँ कर लिया करते थे। नाममात्र ही को सही, पर इस ननगरानी का डर जरुर बना रहता
कभी कागजों की ज च
था; क्योंकक ईमान का सबसे बडा शत्रु अवसर है । भानक
ु ु वरर इन बातों को जानती न थी। अतएव अवसर तथा
धनाभाव-जैसे प्रबि शत्रओ
ु ीं के पींजे में पड कर मींश
ु ीजी का ईमान कैसे बेदाग बचता?
कानपरु शहर से लमिा हुआ, ठीक गींगा के ककनारे , एक बहुत आजाद और उपजाऊ ग वॉँ था। पींडडत जी
इस ग वॉँ को िेकर नदी-ककनारे पक्का घाट, मींददर, बाग, मकान आदद बनवाना चाहते थे; पर उनकी यह
कामना सफि न हो सकी। सींयोग से अब यह ग वॉँ बबकने िगा। उनके जमीींदार एक ठाकुर साहब थे। ककसी
फौजदारी के मामिे में फसे हुए थे। मक ु दमा िडने के लिए रुपये की चाह थी। मींश
ु ीजी ने कचहरी में यह
समाचार सन ु ा। चटपट मोि-तोि हुआ। दोनों तरफ गरज थी। सौदा पटने में दे र न िगी, बैनामा लिखा गया।
रक्जस्री हुई। रुपये मौजूद न थे, पर शहर में साख थी। एक महाजन के यह ॉँ से तीस हजार रुपये मगवाये
गये और ठाकुर साहब को नजर ककये गये। ह ,ॉँ काम-काज की आसानी के खयाि से यह सब लिखा-पढ़ी
मींश
ु ीजी ने अपने ही नाम की; क्योंकक मालिक के िडके अभी नाबालिग थे। उनके नाम से िेने में बहुत
झींझट होती और वविम्ब होने से लशकार हाथ से ननकि जाता। मींश
ु ीजी बैनामा लिये असीम आनींद में मग्न
भानक
ु ु वरर के पास आये। पदाम कराया और यह शभ
ु -समाचार सन
ु ाया। भानक
ु ु वरर ने सजि नेत्रों से उनको
धन्यवाद ददया। पींडडत जी के नाम पर मक्न्दर और घाट बनवाने का इरादा पक्का हो गया।
मशी
ु ू रे ही ददन उस ग वॉँ में आये। आसामी नजराने िेकर नये स्वामी के स्वागत को हाक्जर
जी दस
हुए। शहर के रईसों की दावत हुई। िोगों के नावों पर बैठ कर गींगा की खूब सैर की। मक्न्दर आदद बनवाने
के लिए आबादी से हट कर रमणीक स्थान चन ु ा गया।

य द्यवप इस ग वॉँ को अपने नाम िेते समय मींश


ु ी जी के मन में कपट का भाव न था, तथावप दो-चार
ु ी जी इस ग वॉँ के आय-व्यय का
ददन में ही उनका अींकुर जम गया और धीरे -धीरे बढ़ने िगा। मींश
दहसाब अिग रखते और अपने स्वालमनों को उसका ब्योरो समझाने की जरुरत न समझते। भानक
ु ु वरर इन
बातों में दखि दे ना उधचत न समझती थी; पर दस
ू रे काररींदों से बातें सन
ु -सन
ु कर उसे शींका होती थी कक
कहीीं मींश
ु ी जी दगा तो न दें गे। अपने मन का भाव मींश
ु ी से नछपाती थी, इस खयाि से कक कहीीं काररींदों ने
उन्हें हानन पहुचाने के लिए यह षडयींत्र न रचा हो।
इस तरह कई साि गुजर गये। अब उस कपट के अींकुर ने वक्ष
ृ का रुप धारण ककया। भानक
ु ु वरर को
मींश
ु ी जी के उस मागम के िक्षण ददखायी दे ने िगे। उधर मींश
ु ी जी के मन ने कानन
ू से नीनत पर ववजय
पायी, उन्होंने अपने मन में फैसिा ककया कक ग वॉँ मेरा है । ह ,ॉँ मैं भानक
ु ु वरर का तीस हजार का ऋणी अवश्य
हू। वे बहुत करें गी तो अपने रुपये िे िेंगी और क्या कर सकती हैं? मगर दोनों तरफ यह आग अन्दर ही

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अन्दर सि
ु गती रही। मींश
ु ी जी अस्त्रसक्जजत होकर आक्रमण के इींतजार में थे और भानक
ु ु वरर इसके लिए
अवसर ढूढ़ रही थी। एक ददन उसने साहस करके मींश
ु ी जी को अन्दर बि
ु ाया और कहा—िािा जी ‘बरगदा’
के मक्न्दर का काम कब से िगवाइएगा? उसे लिये आठ साि हो गये, अब काम िग जाय तो अच्छा हो।
क्जींदगी का कौन दठकाना है , जो काम करना है; उसे कर ही डािना चादहए।
इस ढीं ग से इस ववषय को उठा कर भानक
ु ु वरर ने अपनी चतुराई का अच्छा पररचय ददया। मींश
ु ी जी
भी ददि में इसके कायि हो गये। जरा सोच कर बोिे—इरादा तो मेरा कई बार हुआ, पर मौके की जमीन
नहीीं लमिती। गींगातट की जमीन असालमयों के जोत में है और वे ककसी तरह छोडने पर राजी नहीीं।
भानकु ु वरर—यह बात तो आज मझ ु े मािम ू हुई। आठ साि हुए, इस ग वॉँ के ववषय में आपने कभी भि ू
कर भी दी तो चचाम नहीीं की। मािम ु ाफा है, कैसा ग वॉँ है, कुछ सीर होती है
ू नहीीं, ककतनी तहसीि है , क्या मन
या नहीीं। जो कुछ करते हैं, आप ही करते हैं और करें गे। पर मझ
ु े भी तो मािम
ू होना चादहए?
मींश ू हो गया कक इस चतरु स्त्री से बाजी िे जाना मक्ु श्कि है । ग वॉँ िेना
ु ी जी सभि उठे । उन्हें मािम
ही है तो अब क्या डर। खुि कर बोिे—आपको इससे कोई सरोकार न था, इसलिए मैंने व्यथम कष्ट दे ना
मन
ु ालसब न समझा।
भानक
ु ु वरर के हृदय में कुठार-सा िगा। पदे से ननकि आयी और मींश
ु ी जी की तरफ तेज ऑ ींखों से दे ख
कर बोिी—आप क्या कहते हैं! आपने ग वॉँ मेरे लिये लिया था या अपने लिए! रुपये मैंने ददये या आपने?
उस पर जो खचम पडा, वह मेरा था या आपका? मेरी समझ में नहीीं आता कक आप कैसी बातें करते हैं।
ु ी जी ने सावधानी से जवाब ददया—यह तो आप जानती हैं कक ग वॉँ हमारे नाम से बसा हुआ है ।
मींश
रुपया जरुर आपका िगा, पर मैं उसका दे नदार हू। रहा तहसीि-वसि
ू का खचम, यह सब मैंने अपने पास से
ददया है । उसका दहसाब-ककताब, आय-व्यय सब रखता गया हू।
भानक ॉँ
ु ु वरर ने क्रोध से क पते हुए कहा—इस कपट का फि आपको अवश्य लमिेगा। आप इस ननदम यता
से मेरे बच्चों का गिा नहीीं काट सकते। मझ
ु े नहीीं मािम
ू था कक आपने हृदय में छुरी नछपा रखी है, नहीीं तो
यह नौबत ही क्यों आती। खैर, अब से मेरी रोकड और बही खाता आप कुछ न छुऍ।ीं मेरा जो कुछ होगा, िे
िगी।
ू जाइए, एकाींत में बैठ कर सोधचए। पाप से ककसी का भिा नहीीं होता। तुम समझते होगे कक बािक
अनाथ हैं, इनकी सम्पवत्त हजम कर िगा।
ू इस भि
ू में न रहना, मैं तुम्हारे घर की ईट तक बबकवा िगी।

ु ु वरर कफर पदे की आड में आ बैठी और रोने िगी। क्स्त्रय ॉँ क्रोध के बाद ककसी न
यह कहकर भानक
ू ा। यह ॉँ से उठ आये और दफ्तर जाकर
ककसी बहाने रोया करती हैं। िािा साहब को कोई जवाब न सझ
कागज उिट-पिट करने िगे, पर भानक ु ु वरर भी उनके पीछे -पीछे दफ्तर में पहुची और ड टॉँ कर बोिी—मेरा
कोई कागज मत छूना। नहीीं तो बरु ा होगा। तम ु ववषैिे साप हो, मैं तम्
ु हारा मह
ु नहीीं दे खना चाहती।
ु ी जी कागजों में कुछ काट-छ टॉँ करना चाहते थे, पर वववश हो गये। खजाने की कुन्जी ननकाि कर
मींश
फेंक दी, बही-खाते पटक ददये, ककवाड धडाके-से बींद ककये और हवा की तरह सन्न-से ननकि गये। कपट में
हाथ तो डािा, पर कपट मन्त्र न जाना।
दस
ू रें काररींदों ने यह कैकफयत सन
ु ी, तो फूिे न समाये। मींश
ु ी जी के सामने उनकी दाि न गिने पाती।
भानक
ु ु वरर के पास आकर वे आग पर तेि नछडकने िगे। सब िोग इस ववषय में सहमत थे कक मींश
ु ी
सत्यनारायण ने ववश्वासघात ककया है। मालिक का नमक उनकी हड्डडयों से फूट-फूट कर ननकिेगा।
ु दमेबाजी की तैयाररय ॉँ होने िगीीं! एक तरफ न्याय का शरीर था, दस
दोनों ओर से मक ू री ओर न्याय
की आत्मा। प्रकृनत का परु
ु ष से िडने का साहस हुआ।
भानकुवरर ने िािा छक्कन िाि से पछ ॉँ
ू ा—हमारा वकीि कौन है ? छक्कन िाि ने इधर-उधर झ क
ॉँ रखा होगा। इस मक
कर कहा—वकीि तो सेठ जी हैं, पर सत्यनारायण ने उन्हें पहिे ग ठ ु दमें के लिए बडे
होलशयार वकीि की जरुरत है । मेहरा बाबू की आजकि खूब चि रही है । हाककम की किम पकड िेते हैं।
ॉँ से उतार लिया है,
बोिते हैं तो जैसे मोटरकार छूट जाती है सरकार! और क्या कहें , कई आदलमयों को फ सी
उनके सामने कोई वकीि जबान तो खोि नहीीं सकता। सरकार कहें तो वही कर लिये जाय।
छक्कन िाि की अत्यक्ु क्त से सींदेह पैदा कर लिया। भानक
ु ु वरर ने कहा—नहीीं, पहिे सेठ जी से पछ

लिया जाय। उसके बाद दे खा जायगा। आप जाइए, उन्हें बि
ु ा िाइए।
छक्कनिाि अपनी तकदीर को ठोंकते हुए सेठ जी के पास गये। सेठ जी पींडडत भग
ृ द
ु त्त के जीवन-काि
से ही उनका काननू -सम्बन्धी सब काम ककया करते थे। मक ु दमे का हाि सनु ा तो सन्नाटे में आ गये।
सत्यनाराण को यह बडा नेकनीयत आदमी समझते थे। उनके पतन से बडा खेद हुआ। उसी वक्त आये।

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भानक
ु ु वरर ने रो-रो कर उनसे अपनी ववपवत्त की कथा कही और अपने दोनों िडकों को उनके सामने खडा
करके बोिी—आप इन अनाथों की रक्षा कीक्जए। इन्हें मैं आपको सौंपती हू।
सेठ जी ने समझौते की बात छे डी। बोिे—आपस की िडाई अच्छी नहीीं।
भानक
ु ु वरर—अन्यायी के साथ िडना ही अच्छा है ।
सेठ जी—पर हमारा पक्ष ननबमि है ।
भानक
ु ु वरर कफर पदे से ननकि आयी और ववक्स्मत होकर बोिी—क्या हमारा पक्ष ननबमि है ? दनु नया
जानती है कक ग वॉँ हमारा है। उसे हमसे कौन िे सकता है ? नहीीं, मैं सि
ु ह कभी न करुगी, आप कागजों को
दे खें। मेरे बच्चों की खानतर यह कष्ट उठायें। आपका पररश्रम ननष्फि न जायगा। सत्यनारायण की नीयत
पहिे खराब न थी। दे खखए क्जस लमती में ग वॉँ लिया गया है, उस लमती में तीस हजार का क्या खचम ददखाया
गया है । अगर उसने अपने नाम उधार लिखा हो, तो दे खखए, वावषमक सद
ू चक
ु ाया गया या नहीीं। ऐसे नरवपशाच
से मैं कभी सि
ु ह न करुगी।
सेठ जी ने समझ लिया कक इस समय समझाने-बझ
ु ाने से कुछ काम न चिेगा। कागजात दे खें,
अलभयोग चिाने की तैयाररय ॉँ होने िगीीं।

मींु
ॉँ
शी सत्यनारायणिाि खखलसयाये हुए मकान पहुचे। िडके ने लमठाई म गी। उसे पीटा। स्त्री पर इसलिए
बरस पडे कक उसने क्यों िडके को उनके पास जाने ददया। अपनी वद् ृ धा माता को ड टॉँ कर कहा—
ॉँ घर आऊ
तुमसे इतना भी नहीीं हो सकता कक जरा िडके को बहिाओ? एक तो मैं ददन-भर का थका-म दा
और कफर िडके को खेिाऊ? मझ
ु े दनु नया में न और कोई काम है, न धींधा। इस तरह घर में बावैिा मचा कर
बाहर आये, सोचने िगे—मझ ु से बडी भि
ू हुई। मैं कैसा मख
ू म हू। और इतने ददन तक सारे कागज-पत्र अपने
हाथ में थे। चाहता, कर सकता था, पर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहा। आज लसर पर आ पडी, तो सझ ू ी। मैं
चाहता तो बही-खाते सब नये बना सकता था, क्जसमें इस ग वॉँ का और रुपये का क्जक्र ही न होता, पर मेरी
मखू त
म ा के कारण घर में आयी हुई िक्ष्मी रुठी जाती हैं। मझ
ु े क्या मािम
ू था कक वह चड
ु ि
ै मझ
ु से इस तरह
पेश आयेगी, कागजों में हाथ तक न िगाने दे गी।
इसी उधेडबन
ु में मींश
ु ी जी एकाएक उछि पडे। एक उपाय सझ
ू गया—क्यों न कायमकत्तामओीं को लमिा
ि?ू यद्यवप मेरी सख्ती के कारण वे सब मझ
ु से नाराज थे और इस समय सीधे बात भी न करें गे, तथावप
ु ठी में न आ जाय। ह ,ॉँ इसमें रुपये पानी की तरह बहाना पडेगा,
उनमें ऐसा कोई भी नहीीं, जो प्रिोभन से मठ्
पर इतना रुपया आयेगा कह ॉँ से? हाय दभ
ु ामग्य? दो-चार ददन पहिे चेत गया होता, तो कोई कदठनाई न पडती।
क्या जानता था कक वह डाइन इस तरह वज्र-प्रहार करे गी। बस, अब एक ही उपाय है । ककसी तरह कागजात
गुम कर द।ू बडी जोखखम का काम है, पर करना ही पडेगा।
दष्ु कामनाओीं के सामने एक बार लसर झक
ु ाने पर कफर सभिना कदठन हो जाता है । पाप के अथाह
दिदि में जह ॉँ एक बार पडे कक कफर प्रनतक्षण नीचे ही चिे जाते हैं। मींश
ु ी सत्यनारायण-सा ववचारशीि
मनष्ु य इस समय इस कफक्र में था कक कैसे सेंध िगा पाऊ!
मींश
ु ी जी ने सोचा—क्या सेंध िगाना आसान है? इसके वास्ते ककतनी चतुरता, ककतना साहब, ककतनी
बद्
ु वव, ककतनी वीरता चादहए! कौन कहता है कक चोरी करना आसान काम है ? मैं जो कहीीं पकडा गया, तो
मरने के लसवा और कोई मागम न रहे गा।
बहुत सोचने-ववचारने पर भी मींशु ी जी को अपने ऊपर ऐसा दस्
ु साहस कर सकने का ववश्वास न हो
सका। ह ,ॉँ इसमें सग
ु म एक दस
ू री तदबीर नजर आयी—क्यों न दफ्तर में आग िगा द?ू एक बोति लमट्टी का
तेि और ददयासिाई की जरुरत हैं ककसी बदमाश को लमिा ि,ू मगर यह क्या मािम
ू कक वही उसी कमरे में
रखी है या नहीीं। चड
ु ि
ै ने उसे जरुर अपने पास रख लिया होगा। नहीीं; आग िगाना गुनाह बेिजजत होगा।
बहुत दे र मींश
ु ी जी करवटें बदिते रहे । नये-नये मनसब
ू े सोचते; पर कफर अपने ही तको से काट दे ते।
वषामकाि में बादिों की नयी-नयी सरू तें बनती और कफर हवा के वेग से बबगड जाती हैं; वही दशा इस समय
उनके मनसब
ू ों की हो रही थी।
पर इस मानलसक अशाींनत में भी एक ववचार पण
ू रु
म प से क्स्थर था—ककसी तरह इन कागजात को अपने
हाथ में िाना चादहए। काम कदठन है—माना! पर दहम्मत न थी, तो रार क्यों मोि िी? क्या तीस हजार की
जायदाद दाि-भात का कौर है ?—चाहे क्जस तरह हो, चोर बने बबना काम नहीीं चि सकता। आखखर जो िोग

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चोररय ॉँ करते हैं, वे भी तो मनष्ु य ही होते हैं। बस, एक छि ग
ॉँ का काम है । अगर पार हो गये, तो राज करें गे,
धगर पडे, तो जान से हाथ धोयेंगे।

रा त के दस बज गये। मींश
द्वार पर थोडा-सा पआ
ु ी सत्यनाराण कींु क्जयों का एक गच्
ु छा कमर में दबाये घर से बाहर ननकिे।
ु ि रखा हुआ था। उसे दे खते ही वे चौंक पडे। मारे डर के छाती धडकने िगी।
जान पडा कक कोई नछपा बैठा है । कदम रुक गये। पआ
ु ि की तरफ ध्यान से दे खा। उसमें बबिकुि हरकत न
ॉँ आगे बडे और मन को समझाने िगे—मैं कैसा बौखि हू
हुई! तब दहम्मत ब धी,
अपने द्वार पर ककसका डर और सडक पर भी मझ ु े ककसका डर है? मैं अपनी राह जाता हू। कोई मेरी
तरफ नतरछी ऑ ींख से नहीीं दे ख सकता। ह ,ॉँ जब मझ
ु े सेंध िगाते दे ख िे—नहीीं, पकड िे तब अिबत्ते डरने
की बात है । नतस पर भी बचाव की यक्ु क्त ननकि सकती है ।
अकस्मात उन्होंने भानक
ु ु वरर के एक चपरासी को आते हुए दे खा। किेजा धडक उठा। िपक कर एक
ु गये। बडी दे र तक वह ॉँ खडे रहे । जब वह लसपाही ऑ ींखों से ओझि हो गया, तब कफर
अधेरी गिी में घस
सडक पर आये। वह लसपाही आज सब ु ाम था, उसे उन्होंने ककतनी ही बार गालिय ॉँ दी थीीं,
ु ह तक इनका गि
िातें मारी थीीं, पर आज उसे दे खकर उनके प्राण सख
ू गये।
उन्होंने कफर तकम की शरण िी। मैं मानों भींग खाकर आया हू। इस चपरासी से इतना डरा मानो कक
वह मझ ु े दे ख िेता, पर मेरा कर क्या सकता था? हजारों आदमी रास्ता चि रहे हैं। उन्हीीं में मैं भी एक हू।
क्या वह अींतयाममी है ? सबके हृदय का हाि जानता है ? मझु े दे खकर वह अदब से सिाम करता और वह ॉँ का
कुछ हाि भी कहता; पर मैं उससे ऐसा डरा कक सरू त तक न ददखायी। इस तरह मन को समझा कर वे आगे
बढ़े । सच है, पाप के पींजों में फसा हुआ मन पतझड का पत्ता है, जो हवा के जरा-से झोंके से धगर पडता है।
मींश
ु ी जी बाजार पहुचे। अधधकतर दक ु ी थीीं। उनमें स डॉँ और गायें बैठी हुई जग
ू ानें बींद हो चक ु ािी कर
रही थी। केवि हिवाइयों की दक
ू ानें खि ॉँ िगाते कफरते थे। सब
ु ी थी और कहीीं-कहीीं गजरे वािे हार की ह क
हिवाई मींश
ु ी जी को पहचानते थे, अतएव मींश
ु ी जी ने लसर झक
ु ा लिया। कुछ चाि बदिी और िपकते हुए
चिे। एकाएक उन्हें एक बग्घी आती ददखायी दी। यह सेठ बल्िभदास सवकीि की बग्घी थी। इसमें बैठकर
हजारों बार सेठ जी के साथ कचहरी गये थे, पर आज वह बग्घी कािदे व के समान भयींकर मािम ू हुई।
फौरन एक खािी दक ू ान पर चढ़ गये। वह ॉँ ववश्राम करने वािे स डॉँ ने समझा, वे मझ
ु े पदच्यत
ु करने आये हैं!
माथा झक
ु ाये फींु कारता हुआ उठ बैठा; पर इसी बीच में बग्घी ननकि गयी और मींश
ु ी जी की जान में जान
आयी। अबकी उन्होंने तकम का आश्रय न लिया। समझ गये कक इस समय इससे कोई िाभ नहीीं , खैररयत
यह हुई कक वकीि ने दे खा नहीीं। यह एक घाघ हैं। मेरे चेहरे से ताड जाता।
कुछ ववद्वानों का कथन है कक मनष्ु य की स्वाभाववक प्रववृ त्त पाप की ओर होती है, पर यह कोरा
अनम
ु ान ही अनम
ु ान है , अनभ
ु व-लसद्ध बात नहीीं। सच बात तो यह है कक मनष्ु य स्वभावत: पाप-भीरु होता है
और हम प्रत्यक्ष दे ख रहे हैं कक पाप से उसे कैसी घण
ृ ा होती है ।
एक फिािंग आगे चि कर मींश
ु ी जी को एक गिी लमिी। वह भानक
ु ु वरर के घर का एक रास्ता था।
धधिी-सी
ु िािटे न जि रही थी। जैसा मश
ींु ी जी ने अनम
ु ान ककया था, पहरे दार का पता न था। अस्तबि में
चमारों के यह ॉँ नाच हो रहा था। कई चमाररनें बनाव-लसींगार करके नाच रही थीीं। चमार मद
ृ ीं ग बजा-बजा कर
गाते थे—
‘नाहीीं घरे श्याम, घेरर आये बदरा।
सोवत रहे उ, सपन एक दे खेउ, रामा।
खलु ि गयी नीींद, ढरक गये कजरा।
नाहीीं घरे श्याम, घेरर आये बदरा।’
ींु ी जी दबे-प वॉँ िािटे न के पास गए और क्जस तरह बबल्िी
दोनों पहरे दार वही तमाशा दे ख रहे थे। मश
चह
ू े पर झपटती है, उसी तरह उन्होंने झपट कर िािटे न को बझ
ु ा ददया। एक पडाव परू ा हो गया, पर वे उस
कायम को क्जतना दष्ु कर समझते थे, उतना न जान पडा। हृदय कुछ मजबत
ू हुआ। दफ्तर के बरामदे में पहुचे
और खूब कान िगाकर आहट िी। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। केवि चमारों का कोिाहि सन ु ायी
ींु ी जी के ददि में धडकन थी, पर लसर धमधम कर रहा था; हाथ-प वॉँ क पॉँ रहे थे,
दे ता था। इस समय मश
ॉँ बडे वेग से चि रही थी। शरीर का एक-एक रोम ऑ ींख और कान बना हुआ था। वे सजीवता की मनू तम
सस

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हो रहे थे। उनमें क्जतना पौरुष, क्जतनी चपिता, क्जतना-साहस, क्जतनी चेतना, क्जतनी बद्
ु वव, क्जतना औसान
था, वे सब इस वक्त सजग और सचेत होकर इच्छा-शक्क्त की सहायता कर रहे थे।
दफ्तर के दरवाजे पर वही परु ाना तािा िगा हुआ था। इसकी कींु जी आज बहुत तिाश करके वे बाजार
से िाये थे। तािा खुि गया, ककवाडो ने बहुत दबी जबान से प्रनतरोध ककया। इस पर ककसी ने ध्यान न
ददया। मींश
ु ी जी दफ्तर में दाखखि हुए। भीतर धचराग जि रहा था। मींश
ु ी जी को दे ख कर उसने एक दफे
लसर दहिाया, मानो उन्हें भीतर आने से रोका।
ु ी जी के पैर थर-थर क पॉँ रहे थे। एडडय ॉँ जमीन से उछिी पडती
मींश थीीं। पाप का बोझ उन्हें असह्य
था।
पि-भर में मींश
ु ी जी ने बदहयों को उिटा-पिटा। लिखावट उनकी ऑ ींखों में तैर रही थी। इतना अवकाश
कह ॉँ था कक जरुरी कागजात छ टॉँ िेते। उन्होंनें सारी बदहयों को समेट कर एक गट्ठर बनाया और लसर पर
रख कर तीर के समान कमरे के बाहर ननकि आये। उस पाप की गठरी को िादे हुए वह अधेरी गिी से
गायब हो गए।
तींग, अधेरी, दग
ु न्
म धपण ॉँ स्वाथम, िोभ और कपट का बोझ लिए
ू म कीचड से भरी हुई गलियों में वे नींगे प व,
चिे जाते थे। मानो पापमय आत्मा नरक की नालियों में बही चिी जाती थी।
बहुत दरू तक भटकने के बाद वे गींगा ककनारे पहुचे। क्जस तरह किवु षत हृदयों में कहीीं-कहीीं धमम का
धधिा
ु प्रकाश रहता है , उसी तरह नदी की कािी सतह पर तारे खझिलमिा रहे थे। तट पर कई साधु धन ू ी
जमाये पडे थे। ज्ञान की जवािा मन की जगह बाहर दहक रही थी। मींश
ु ी जी ने अपना गट्ठर उतारा और
चादर से खब ू मजबत ॉँ कर बिपव
ू बध ू क
म नदी में फेंक ददया। सोती हुई िहरों में कुछ हिचि हुई और कफर
सन्नाटा हो गया।

मींु
शी सतयनाराणिाि के घर में दो क्स्त्रय ॉँ थीीं—माता और पत्नी। वे दोनों अलशक्षक्षता थीीं। नतस पर भी
मींश
ु ी जी को गींगा में डूब मरने या कहीीं भाग जाने की जरुरत न होती थी ! न वे ब डी पहनती थी, न
मोजे-जूत,े न हारमोननयम पर गा सकती थी। यह ॉँ तक कक उन्हें साबन
ु िगाना भी न आता था। हे यरवपन,
िच
ु ज
े , जाकेट आदद परमावश्यक चीजों का तो नाम ही नहीीं सन ु ा था। बहू में आत्म-सम्मान जरा भी नहीीं था;
न सास में आत्म-गौरव का जोश। बहू अब तक सास की घड ु ककय ॉँ भीगी बबल्िी की तरह सह िेती थी—हा
मख ू े ! सास को बच्चे के नहिाने-धि ु ाने, यह ॉँ तक कक घर में झाडू दे ने से भी घण ृ ा न थी, हा ज्ञानाींधे! बहू
स्त्री क्या थी, लमट्टी का िोंदा थी। एक पैसे की जरुरत होती तो सास से म गती। ॉँ साराींश यह कक दोनों
क्स्त्रय ॉँ अपने अधधकारों से बेखबर, अींधकार में पडी हुई पशव ु त ् जीवन व्यतीत करती थीीं। ऐसी फूहड थी कक
रोदटयाीं भी अपने हाथों से बना िेती थी। कींजस ू ी के मारे दािमोट, समोसे कभी बाजार से न मगातीीं। आगरे
वािे की दक
ू ान की चीजें खायी होती तो उनका मजा जानतीीं। बदु ढ़या खस
ू ट दवा-दरपन भी जानती थी। बैठी-
बैठी घास-पात कूटा करती।
ु ी जी ने म ॉँ के पास जाकर कहा—अम्म ॉँ ! अब क्या होगा? भानक
मींश ु ु वरर ने मझ
ु े जवाब दे ददया।
माता ने घबरा कर पछ
ू ा—जवाब दे ददया?
ु ी—ह ,ॉँ बबिकुि बेकसरू !
मींश
माता—क्या बात हुई? भानक
ु ु वरर का लमजाज तो ऐसा न था।
ु ी—बात कुछ न थी। मैंने अपने नाम से जो ग वॉँ लिया था, उसे मैंने अपने अधधकार में कर लिया।
मींश
कि मझ ु से और उनसे साफ-साफ बातें हुई। मैंने कह ददया कक ग वॉँ मेरा है । मैंने अपने नाम से लिया है,
उसमें तम्
ु हारा कोई इजारा नहीीं। बस, बबगड गयीीं, जो मह
ु में आया, बकती रहीीं। उसी वक्त मझ
ु े ननकाि ददया
और धमका कर कहा—मैं तुमसे िड कर अपना ग वॉँ िे िगी।
ू अब आज ही उनकी तरफ से मेरे ऊपर
ु दमा दायर होगा; मगर इससे होता क्या है ? ग वॉँ मेरा है । उस पर मेरा कब्जा है । एक नहीीं, हजार मक
मक ु दमें
चिाएीं, डडगरी मेरी होगी?
माता ने बहू की तरफ ममािंतक दृक्ष्ट से दे खा और बोिी—क्यों भैया? वह ग वॉँ लिया तो था तुमने
उन्हीीं के रुपये से और उन्हीीं के वास्ते?

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मींश ु से ऐसा आबाद और मािदार ग वॉँ नहीीं छोडा जाता। वह मेरा
ु ी—लिया था, तब लिया था। अब मझ
ु से अपना रुपया भी नहीीं िे सकती। डेढ़ सौ ग वॉँ तो हैं। तब भी हवस नहीीं
कुछ नहीीं कर सकती। मझ
मानती।
माना—बेटा, ककसी के धन जयादा होता है , तो वह उसे फेंक थोडे ही दे ता है? तम
ु ने अपनी नीयत
बबगाडी, यह अच्छा काम नहीीं ककया। दनु नया तुम्हें क्या कहे गी? और दनु नया चाहे कहे या न कहे , तुमको भिा
ऐसा करना चादहए कक क्जसकी गोद में इतने ददन पिे, क्जसका इतने ददनों तक नमक खाया, अब उसी से
दगा करो? नारायण ने तुम्हें क्या नहीीं ददया? मजे से खाते हो, पहनते हो, घर में नारायण का ददया चार पैसा
है , बाि-बच्चे हैं, और क्या चादहए? मेरा कहना मानो, इस किींक का टीका अपने माथे न िगाओ। यह अपजस
मत िो। बरक्कत अपनी कमाई में होती है ; हराम की कौडी कभी नहीीं फिती।
मींश
ु ी—ऊह! ऐसी बातें बहुत सन
ु चक
ु ा हू। दनु नया उन पर चिने िगे, तो सारे काम बन्द हो जाय। मैंने
इतने ददनों इनकी सेवा की, मेरी ही बदौित ऐसे-ऐसे चार-प च ॉँ ग वॉँ बढ़ गए। जब तक पींडडत जी थे, मेरी
नीयत का मान था। मझ
ु े ऑ ींख में धि
ू डािने की जरुरत न थी, वे आप ही मेरी खानतर कर ददया करते थे।
उन्हें मरे आठ साि हो गए; मगर मस
ु म्मात के एक बीडे पान की कसम खाता हू; मेरी जात से उनको हजारों
रुपये-मालसक की बचत होती थी। क्या उनको इतनी भी समझ न थी कक यह बेचारा, जो इतनी ईमानदारी से
मेरा काम करता है , इस नफे में कुछ उसे भी लमिना चादहए? यह कह कर न दो, इनाम कह कर दो, ककसी
तरह दो तो, मगर वे तो समझती थी कक मैंने इसे बीस रुपये महीने पर मोि िे लिया है। मैंने आठ साि
तक सब ककया, अब क्या इसी बीस रुपये में गुिामी करता रहू और अपने बच्चों को दस ू रों का मह
ु ताकने के
लिए छोड जाऊ? अब मझु े यह अवसर लमिा है । इसे क्यों छोडू? जमीींदारी की िािसा लिये हुए क्यों मरु? जब
तक जीऊगा, खद
ु खाऊगा। मेरे पीछे मेरे बच्चे चैन उडायेंगे।
माता की ऑ ींखों में ऑ ींसू भर आये। बोिी—बेटा, मैंने तुम्हारे मह
ु से ऐसी बातें कभी नहीीं सन
ु ी थीीं, तुम्हें
क्या हो गया है ? तुम्हारे आगे बाि-बच्चे हैं। आग में हाथ न डािो।
बहू ने सास की ओर दे ख कर कहा—हमको ऐसा धन न चादहए, हम अपनी दाि-रोटी में मगन हैं।
मींश
ु ी—अच्छी बात है , तुम िोग रोटी-दाि खाना, गाढ़ा पहनना, मझ
ु े अब हल्वे-परू ी की इच्छा है।
माता—यह अधमम मझ
ु से न दे खा जायगा। मैं गींगा में डूब मरुगी।
ॉँ बोना है, तो मझ
पत्नी—तुम्हें यह सब क टा ु े मायके पहुचा दो, मैं अपने बच्चों को िेकर इस घर में न
रहूगी!
मींश
ु ी ने झझिा
ु कर कहा—तम
ु िोगों की बद् ॉँ खा गयी है । िाखों सरकारी नौकर रात-ददन
ु वव तो भ ग
दस
ू रों का गिा दबा-दबा कर ररश्वतें िेते हैं और चैन करते हैं। न उनके बाि-बच्चों ही को कुछ होता है, न
उन्हीीं को है जा पकडता है। अधमम उनको क्यों नहीीं खा जाता, जो मझ
ु ी को खा जायगा। मैंने तो सत्यवाददयों
को सदा द:ु ख झेिते ही दे खा है। मैंने जो कुछ ककया है, सख
ु िट
ू ू गा। तुम्हारे मन में जो आये, करो।
प्रात:काि दफ्तर खुिा तो कागजात सब गायब थे। मींश
ु ी छक्कनिाि बौखिाये से घर में गये और
मािककन से पछ
ू ा—कागजात आपने उठवा लिए हैं।
भानक ु े क्या खबर, जह ॉँ आपने रखे होंगे, वहीीं होंगे।
ु ु वरर ने कहा—मझ
कफर सारे घर में खिबिी पड गयी। पहरे दारों पर मार पडने िगी। भानक
ु ु वरर को तरु न्त मींश
ु ी
सत्यनारायण पर सींदेह हुआ, मगर उनकी समझ में छक्कनिाि की सहायता के बबना यह काम होना
असम्भव था। पलु िस में रपट हुई। एक ओझा नाम ननकािने के लिए बि ु ाया गया। मौिवी साहब ने कुराम
फेंका। ओझा ने बताया, यह ककसी परु ाने बैरी का काम है । मौिवी साहब ने फरमाया, ककसी घर के भेददये ने
यह हरकत की है । शाम तक यह दौड-धप
ू रही। कफर यह सिाह होने िगी कक इन कागजातों के बगैर
मक
ु दमा कैसे चिे। पक्ष तो पहिे से ही ननबमि था। जो कुछ बि था, वह इसी बही-खाते का था। अब तो
सबत
ू भी हाथ से गये। दावे में कुछ जान ही न रही, मगर भानकुवरर ने कहा—बिा से हार जाऍगेीं । हमारी
चीज कोई छीन िे, तो हमारा धमम है कक उससे यथाशक्क्त िडें, हार कर बैठना कायरों का काम है। सेठ जी
(वकीि) को इस दघ
ु ट
म ना का समाचार लमिा तो उन्होंने भी यही कहा कक अब दावे में जरा भी जान नहीीं है ।
केवि अनम
ु ान और तकम का भरोसा है। अदाित ने माना तो माना, नहीीं तो हार माननी पडेगी। पर
भानक
ु ु वरर ने एक न मानी। िखनऊ और इिाहाबाद से दो होलशयार बैररक्स्टर बि
ु ाये। मक
ु दमा शरु
ु हो गया।
सारे शहर में इस मक
ु दमें की धम
ू थी। ककतने ही रईसों को भानक
ु ु वरर ने साथी बनाया था। मक
ु दमा
शरु
ु होने के समय हजारों आदलमयों की भीड हो जाती थी। िोगों के इस खखींचाव का मख्
ु य कारण यह था

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कक भानक ु ु वरर एक पदे की आड में बैठी हुई अदाित की कारवाई दे खा करती थी, क्योंकक उसे अब अपने
नौकरों पर जरा भी ववश्वास न था।
वादी बैररस्टर ने एक बडी मालममक वक्तत
ृ ा दी। उसने सत्यनाराण की पव
ू ामवस्था का खब
ू अच्छा धचत्र
खीींचा। उसने ददखिाया कक वे कैसे स्वालमभक्त, कैसे कायम-कुशि, कैसे कमम-शीि थे; और स्वगमवासी पींडडत
भग
ृ ुदत्त का उस पर पण
ू म ववश्वास हो जाना, ककस तरह स्वाभाववक था। इसके बाद उसने लसद्ध ककया कक
मींश
ु ी सत्यनारायण की आधथमक व्यवस्था कभी ऐसी न थी कक वे इतना धन-सींचय करते। अींत में उसने मश
ींु ी
जी की स्वाथमपरता, कूटनीनत, ननदम यता और ववश्वास-घातकता का ऐसा घणृ ोत्पादक धचत्र खीींचा कक िोग मींश
ु ी
जी को गोलिय ॉँ दे ने िगे। इसके साथ ही उसने पींडडत जी के अनाथ बािकों की दशा का बडा करूणोत्पादक
वणमन ककया—कैसे शोक और िजजा की बात है कक ऐसा चररत्रवान, ऐसा नीनत-कुशि मनष्ु य इतना धगर
जाय कक अपने स्वामी के अनाथ बािकों की गदम न पर छुरी चिाने पर सींकोच न करे । मानव-पतन का ऐसा
करुण, ऐसा हृदय-ववदारक उदाहरण लमिना कदठन है । इस कुदटि कायम के पररणाम की दृक्ष्ट से इस मनष्ु य
के पव
ू म पररधचत सदगण ॉँ के दाने थे,
ु ों का गौरव िप्ु त हो जाता है । क्योंकक वे असिी मोती नहीीं, नकिी क च
जो केवि ववश्वास जमाने के ननलमत्त दशामये गये थे। वह केवि सींद
ु र जाि था, जो एक सरि हृदय और छि-
छीं द से दरू रहने वािे रईस को फसाने के लिए फैिाया गया था। इस नर-पशु का अींत:करण ककतना
अींधकारमय, ककतना कपटपण
ू ,म ककतना कठोर है ; और इसकी दष्ु टता ककतनी घोर, ककतनी अपावन है । अपने
शत्रु के साथ दया करना एक बार तो क्षम्य है, मगर इस मलिन हृदय मनष्ु य ने उन बेकसों के साथ दगा
ददया है, क्जन पर मानव-स्वभाव के अनस
ु ार दया करना उधचत है ! यदद आज हमारे पास बही-खाते मौजद

होते, अदाित पर सत्यनारायण की सत्यता स्पष्ट रुप से प्रकट हो जाती, पर मींश
ु ी जी के बरखास्त होते ही
दफ्तर से उनका िप्ु त हो जाना भी अदाित के लिए एक बडा सबत
ू है ।
शहर में कई रईसों ने गवाही दी, पर सन
ु ी-सन
ु ायी बातें क्जरह में उखड गयीीं। दस
ू रे ददन कफर मक
ु दमा
पेश हुआ।
प्रनतवादी के वकीि ने अपनी वक्तत
ृ ा शरु
ु की। उसमें गींभीर ववचारों की अपेक्षा हास्य का आधधक्य
था—यह एक वविक्षण न्याय-लसद्धाींत है कक ककसी धनाढ़य मनष्ु य का नौकर जो कुछ खरीदे , वह उसके
स्वामी की चीज समझी जाय। इस लसद्धाींत के अनस
ु ार हमारी गवनममेंट को अपने कममचाररयों की सारी
सम्पवत्त पर कब्जा कर िेना चादहए। यह स्वीकार करने में हमको कोई आपवत्त नहीीं कक हम इतने रुपयों का
प्रबींध न कर सकते थे और यह धन हमने स्वामी ही से ऋण लिया; पर हमसे ऋण चक
ु ाने का कोई तकाजा
ॉँ जाती है । यदद दहसाब के कागजात ददखिाये जाय, तो वे साफ बता दें गे कक
न करके वह जायदाद ही म गी
मैं सारा ऋण दे चक
ु ा। हमारे लमत्र ने कहा कक ऐसी अवस्था में बदहयों का गम
ु हो जाना भी अदाित के
लिये एक सबत ू होना चादहए। मैं भी उनकी यक्ु क्त का समथमन करता हू। यदद मैं आपसे ऋण िे कर अपना
वववाह करु तो क्या मझ
ु से मेरी नव-वववादहत वधू को छीन िेंगे?
‘हमारे सय
ु ोग लमत्र ने हमारे ऊपर अनाथों के साथ दगा करने का दोष िगाया है । अगर मींश
ु ी
सत्यनाराण की नीयत खराब होती, तो उनके लिए सबसे अच्छा अवसर वह था जब पींडडत भग
ृ ुदत्त का
स्वगमवास हुआ था। इतने वविम्ब की क्या जरुरत थी? यदद आप शेर को फसा कर उसके बच्चे को उसी
वक्त नहीीं पकड िेत,े उसे बढ़ने और सबि होने का अवसर दे ते हैं, तो मैं आपको बद्
ु ववमान न कहूगा। यथाथम
बात यह है कक मींश
ु ी सत्यनाराण ने नमक का जो कुछ हक था, वह परू ा कर ददया। आठ वषम तक तन-मन
से स्वामी के सींतान की सेवा की। आज उन्हें अपनी साधत ु ा का जो फि लमि रहा है, वह बहुत ही द:ु खजनक
और हृदय-ववदारक है । इसमें भानक ु ु वरर का दोष नहीीं। वे एक गण ु -सम्पन्न मदहिा हैं; मगर अपनी जानत के
अवगण
ु उनमें भी ववद्यमान हैं! ईमानदार मनष्ु य स्वभावत: स्पष्टभाषी होता है; उसे अपनी बातों में नमक-
लमचम िगाने की जरुरत नहीीं होती। यही कारण है कक मींश
ु ी जी के मद
ृ भ
ु ाषी मातहतों को उन पर आक्षेप
करने का मौका लमि गया। इस दावे की जड केवि इतनी ही है , और कुछ नहीीं। भानक ु ु वरर यह ॉँ उपक्स्थत
ु दत में कभी इस ग वॉँ का क्जक्र उनके सामने आया? कभी
हैं। क्या वे कह सकती हैं कक इस आठ वषम की मद्
उसके हानन-िाभ, आय-व्यय, िेन-दे न की चचाम उनसे की गयी? मान िीक्जए कक मैं गवनममेंट का मि ु ाक्जम हू।
यदद मैं आज दफ्तर में आकर अपनी पत्नी के आय-व्यय और अपने टहिओ ु ीं के टै क्सों का पचडा गाने िग,ू
तो शायद मझ ु े शीघ्र ही अपने पद से पथ ृ क होना पडे, और सम्भव है , कुछ ददनों तक बरे िी की अनतधथशािा
में भी रखा जाऊ। क्जस ग वॉँ से भानक
ु ु वरर का सरोवार न था, उसकी चचाम उनसे क्यों की जाती?’

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इसके बाद बहुत से गवाह पेश हुए; क्जनमें अधधकाींश आस-पास के दे हातों के जमीींदार थे। उन्होंने
बयान ककया कक हमने मींश
ु ी सत्यनारायण असालमयों को अपनी दस्तखती रसीदें और अपने नाम से खजाने
में रुपया दाखखि करते दे खा है ।
इतने में सींध्या हो गयी। अदाित ने एक सप्ताह में फैसिा सन
ु ाने का हुक्म ददया।

स त्यनाराण को अब अपनी जीत में कोई सन्दे ह न था। वादी पक्ष के गवाह भी उखड गये थे और बहस
भी सबत
ू से खािी थी। अब इनकी धगनती भी जमीींदारों में होगी और सम्भव है, यह कुछ ददनों में
रईस कहिाने िगें गे। पर ककसी न ककसी कारण से अब शहर के गणमान्य परु
ु षों से ऑ ींखें लमिाते शमामते थे।
उन्हें दे खते ही उनका लसर नीचा हो जाता था। वह मन में डरते थे कक वे िोग कहीीं इस ववषय पर कुछ
पछ
ू -ताछ न कर बैठें। वह बाजार में ननकिते तो दक
ू ानदारों में कुछ कानाफूसी होने िगती और िोग उन्हें
नतरछी दृक्ष्ट से दे खने िगते। अब तक िोग उन्हें वववेकशीि और सच्चररत्र मनष्ु य समझते, शहर के धनी-
मानी उन्हें इजजत की ननगाह से दे खते और उनका बडा आदर करते थे। यद्यवप मींश
ु ी जी को अब तक
इनसे टे ढ़ी-नतरछी सन
ु ने का सींयोग न पडा था, तथावप उनका मन कहता था कक सच्ची बात ककसी से नछपी
नहीीं है । चाहे अदाित से उनकी जीत हो जाय, पर उनकी साख अब जाती रही। अब उन्हें िोग स्वाथी, कपटी
और दगाबाज समझेंगे। दस
ू रों की बात तो अिग रही, स्वयीं उनके घरवािे उनकी उपेक्षा करते थे। बढ़
ू ी माता
ने तीन ददन से मह
ु में पानी नहीीं डािा! स्त्री बार-बार हाथ जोड कर कहती थी कक अपने प्यारे बािकों पर
दया करो। बरु े काम का फि कभी अच्छा नहीीं होता! नहीीं तो पहिे मझ
ु ी को ववष खखिा दो।
ु ाया जानेवािा था, प्रात:काि एक कींु जडडन तरकाररय ॉँ िेकर आयी और मींलु शयाइन
क्जस ददन फैसिा सन
से बोिी—
‘बहू जी! हमने बाजार में एक बात सन
ु ी है । बरु ा न मानों तो कहू? क्जसको दे खो, उसके मह
ु से यही
बात ननकिती है कक िािा बाबू ने जािसाजी से पींडडताइन का कोई हिका िे लिया। हमें तो इस पर यकीन
नहीीं आता। िािा बाबू ने न सभािा होता, तो अब तक पींडडताइन का कहीीं पता न िगता। एक अींगुि जमीन
न बचती। इन्हीीं में एक सरदार था कक सबको सभाि लिया। तो क्या अब उन्हीीं के साथ बदी करें गे? अरे बहू!
कोई कुछ साथ िाया है कक िे जायगा? यही नेक-बदी रह जाती है । बरु े का फि बरु ा होता है । आदमी न
दे खे, पर अल्िाह सब कुछ दे खता है ।’
बहू जी पर घडों पानी पड गया। जी चाहता था कक धरती फट जाती, तो उसमें समा जाती। क्स्त्रय ॉँ
स्वभावत: िजजावती होती हैं। उनमें आत्मालभमान की मात्रा अधधक होती है। ननन्दा-अपमान उनसे सहन
नहीीं हो सकता है। लसर झकु ाये हुए बोिी—बआ
ु ! मैं इन बातों को क्या जान?ू मैंने तो आज ही तम्
ु हारे मह
ु से
ु ी है । कौन-सी तरकाररय ॉँ हैं?
सन
मींश
ु ी सत्यनारायण अपने कमरे में िेटे हुए कींु जडडन की बातें सन
ु रहे थे, उसके चिे जाने के बाद
आकर स्त्री से पछ
ू ने िगे—यह शैतान की खािा क्या कह रही थी।
स्त्री ने पनत की ओर से मींह
ु फेर लिया और जमीन की ओर ताकते हुए बोिी—क्या तुमने नहीीं सन ु ा?
तुम्हारा गुन-गान कर रही थी। तुम्हारे पीछे दे खो, ककस-ककसके मह
ु से ये बातें सन
ु नी पडती हैं और ककस-
ककससे मह
ु नछपाना पडता है ।
मींश
ु ी जी अपने कमरे में िौट आये। स्त्री को कुछ उत्तर नहीीं ददया। आत्मा िजजा से परास्त हो गयी।
जो मनष्ु य सदै व सवम-सम्माननत रहा हो; जो सदा आत्मालभमान से लसर उठा कर चिता रहा हो, क्जसकी
सक
ु ृ नत की सारे शहर में चचाम होती हो, वह कभी सवमथा िजजाशन्
ू य नहीीं हो सकता; िजजा कुपथ की सबसे
बडी शत्रु है। कुवासनाओीं के भ्रम में पड कर मींश
ु ी जी ने समझा था, मैं इस काम को ऐसी गप्ु त-रीनत से परू ा
कर िे जाऊगा कक ककसी को कानों-कान खबर न होगी, पर उनका यह मनोरथ लसद्ध न हुआ। बाधाऍ ीं आ
खडी हुई। उनके हटाने में उन्हें बडे दस्
ु साहस से काम िेना पडा; पर यह भी उन्होंने िजजा से बचने के
ननलमत्त ककया। क्जसमें यह कोई न कहे कक अपनी स्वालमनी को धोखा ददया। इतना यत्न करने पर भी ननींदा
से न बच सके। बाजार का सौदा बेचनेवालिय ॉँ भी अब अपमान करतीीं हैं। कुवासनाओीं से दबी हुई िजजा-
शक्क्त इस कडी चोट को सहन न कर सकी। मींश ु ी जी सोचने िगे, अब मझु े धन-सम्पवत्त लमि जायगी,
ऐश्वयमवान ् हो जाऊगा, परन्तु ननन्दा से मेरा पीछा न छूटे गा। अदाित का फैसिा मझ
ु े िोक-ननन्दा से न बचा
सकेगा। ऐश्वयम का फि क्या है ?—मान और मयामदा। उससे हाथ धो बैठा, तो ऐश्वयम को िेकर क्या करुगा?

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धचत्त की शक्क्त खोकर, िोक-िजजा सहकर, जनसमद
ु ाय में नीच बन कर और अपने घर में किह का बीज
बोकर यह सम्पवत्त मेरे ककस काम आयेगी? और यदद वास्तव में कोई न्याय-शक्क्त हो और वह मझ
ु े इस
कुकृत्य का दीं ड दे , तो मेरे लिए लसवा मख
ु में कालिख िगा कर ननकि जाने के और कोई मागम न रहे गा।
सत्यवादी मनष्ु य पर कोई ववपत्त पडती हैं, तो िोग उनके साथ सहानभ
ु नू त करते हैं। दष्ु टों की ववपवत्त िोगों
के लिए व्यींग्य की सामग्री बन जाती है । उस अवस्था में ईश्वर अन्यायी ठहराया जाता है ; मगर दष्ु टों की
ववपवत्त ईश्वर के न्याय को लसद्ध करती है । परमात्मन! इस दद
ु म शा से ककसी तरह मेरा उद्धार करो! क्यों न
जाकर मैं भानक ु ु वरर के पैरों पर धगर पडू और ववनय करु कक यह मक
ु दमा उठा िो? शोक! पहिे यह बात
मझ
ु े क्यों न सझू ी? अगर कि तक में उनके पास चिा गया होता, तो बात बन जाती; पर अब क्या हो सकता
है । आज तो फैसिा सन
ु ाया जायगा।
मींश
ु ी जी दे र तक इसी ववचार में पडे रहे , पर कुछ ननश्चय न कर सके कक क्या करें ।
भानक ु ु वरर को भी ववश्वास हो गया कक अब ग वॉँ हाथ से गया। बेचारी हाथ मि कर रह गयी। रात-भर
उसे नीींद न आयी, रह-रह कर मींश
ु ी सत्यनारायण पर क्रोध आता था। हाय पापी! ढोि बजा कर मेरा पचास
हजार का माि लिए जाता है और मैं कुछ नहीीं कर सकती। आजकि के न्याय करने वािे बबिकुि ऑ ींख के
अधे हैं। क्जस बात को सारी दनु नया जानती है, उसमें भी उनकी दृक्ष्ट नहीीं पहुचती। बस, दस
ू रों को ऑ ींखों से
दे खते हैं। कोरे कागजों के गुिाम हैं। न्याय वह है जो दध
ू का दध
ू , पानी का पानी कर दे ; यह नहीीं कक खुद
ही कागजों के धोखे में आ जाय, खुद ही पाखींडडयों के जाि में फस जाय। इसी से तो ऐसी छिी, कपटी,
दगाबाज, और दरु ात्माओीं का साहस बढ़ गया है। खैर, ग वॉँ जाता है तो जाय; िेककन सत्यनारायण, तुम शहर
में कहीीं मह
ु ददखाने के िायक भी न रहे ।
इस खयाि से भानक ु ु वरर को कुछ शाक्न्त हुई। शत्रु की हानन मनष्ु य को अपने िाभ से भी अधधक
वप्रय होती है , मानव-स्वभाव ही कुछ ऐसा है । तुम हमारा एक ग वॉँ िे गये, नारायण चाहें गे तो तम
ु भी इससे
सख
ु न पाओगे। तुम आप नरक की आग में जिोगे, तुम्हारे घर में कोई ददया जिाने वािा न रह जायगा।
फैसिे का ददन आ गया। आज इजिास में बडी भीड थी। ऐसे-ऐसे महानभ
ु ाव उपक्स्थत थे, जो बगुिों
की तरह अफसरों की बधाई और बबदाई के अवसरों ही में नजर आया करते हैं। वकीिों और मख्
ु तारों की
पिटन भी जमा थी। ननयत समय पर जज साहब ने इजिास सश
ु ोलभत ककया। ववस्तत
ृ न्याय भवन में
सन्नाटा छा गया। अहिमद ने सींदक
ू से तजबीज ननकािी। िोग उत्सक
ु होकर एक-एक कदम और आगे
खखसक गए।
जज ने फैसिा सन
ु ाया—मद्
ु दई का दावा खाररज। दोनों पक्ष अपना-अपना खचम सह िें।
यद्यवप फैसिा िोगों के अनम
ु ान के अनस
ु ार ही था, तथावप जज के मह
ु से उसे सन
ु कर िोगों में
हिचि-सी मच गयी। उदासीन भाव से फैसिे पर आिोचनाऍ ीं करते हुए िोग धीरे -धीरे कमरे से ननकिने
िगे।
एकाएक भानक
ु ु वरर घघट
ू ननकािे इजिास पर आ कर खडी हो गयी। जानेवािे िौट पडे। जो बाहर
ननकि गये थे, दौड कर आ गये। और कौतह
ू िपव
ू क
म भानक
ु ु वरर की तरफ ताकने िगे।
भानकु ु वरर ने कींवपत स्वर में जज से कहा—सरकार, यदद हुक्म दें , तो मैं मींश
ु ी जी से कुछ पछ
ू ू।
यद्यवप यह बात ननयम के ववरुद्ध थी, तथावप जज ने दयापव ू क
म आज्ञा दे दी।
तब भानक
ु ु वरर ने सत्यनारायण की तरफ दे ख कर कहा—िािा जी, सरकार ने तम्
ु हारी डडग्री तो कर ही
दी। ग वॉँ तम् ु ारक रहे ; मगर ईमान आदमी का सब कुछ है । ईमान से कह दो, ग वॉँ ककसका है?
ु हें मब
हजारों आदमी यह प्रश्न सन
ु कर कौतह
ू ि से सत्यनारायण की तरफ दे खने िगे। मींश
ु ी जी ववचार-
सागर में डूब गये। हृदय में सींकल्प और ववकल्प में घोर सींग्राम होने िगा। हजारों मनष्ु यों की ऑ ींखें उनकी
तरफ जमी हुई थीीं। यथाथम बात अब ककसी से नछपी न थी। इतने आदलमयों के सामने असत्य बात मह
ु से
ननकि न सकी। िजजा से जबान बींद कर िी—‘मेरा’ कहने में काम बनता था। कोई बात न थी; ककींतु
घोरतम पाप का दीं ड समाज दे सकता है , उसके लमिने का परू ा भय था। ‘आपका’ कहने से काम बबगडता
था। जीती-क्जतायी बाजी हाथ से ननकिी जाती थी, सवोत्कृष्ट काम के लिए समाज से जो इनाम लमि
सकता है, उसके लमिने की परू ी आशा थी। आशा के भय को जीत लिया। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे ईश्वर
ने मझ
ु े अपना मखु उजजवि करने का यह अींनतम अवसर ददया है। मैं अब भी मानव-सम्मान का पात्र बन
सकता हू। अब अपनी आत्मा की रक्षा कर सकता हू। उन्होंने आगे बढ़ कर भानक
ु ु वरर को प्रणाम ककया और
ॉँ
क पते हुए स्वर से बोिे—आपका!

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हजारों मनष्ु यों के मह
ु से एक गगनस्पशी ध्वनन ननकिी—सत्य की जय!
जज ने खडे होकर कहा—यह कानन
ू का न्याय नहीीं, ईश्वरीय न्याय है ! इसे कथा न समखझएगा; यह
सच्ची घटना है । भानक
ु ु वरर और सत्य नारायण अब भी जीववत हैं। मींश
ु ी जी के इस नैनतक साहस पर िोग
मग
ु ध हो गए। मानवीय न्याय पर ईश्वरीय न्याय ने जो वविक्षण ववजय पायी, उसकी चचाम शहर भर में
महीनों रही। भानक
ु ु वरर मींश
ु ी जी के घर गयी, उन्हें मना कर िायीीं। कफर अपना सारा कारोबार उन्हें सौंपा
और कुछ ददनों उपराींत यह ग वॉँ उन्हीीं के नाम दहब्बा कर ददया। मींश
ु ी जी ने भी उसे अपने अधधकार में
रखना उधचत न समझा, कृष्णापमण कर ददया। अब इसकी आमदनी दीन-दखु खयों और ववद्याधथमयों की
सहायता में खचम होती है ।

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ममता

बा बू रामरक्षादास ददल्िी के एक ऐश्वयमशािी खत्री थे, बहुत ही ठाठ-बाट से रहनेवािे। बडे-बडे अमीर
उनके यह ॉँ ननत्य आते-आते थे। वे आयें हुओीं का आदर-सत्कार ऐसे अच्छे ढीं ग से करते थे कक इस
बात की धम
ू सारे मह
ु ल्िे में थी। ननत्य उनके दरवाजे पर ककसी न ककसी बहाने से इष्ट-लमत्र एकत्र हो जाते,
टे ननस खेिते, ताश उडता, हारमोननयम के मधरु स्वरों से जी बहिाते, चाय-पानी से हृदय प्रफुक्ल्ित करते,
अधधक और क्या चादहए? जानत की ऐसी अमल्
ू य सेवा कोई छोटी बात नहीीं है। नीची जानतयों के सध
ु ार के
लिये ददल्िी में एक सोसायटी थी। बाबू साहब उसके सेक्रेटरी थे, और इस कायम को असाधारण उत्साह से पण
ू म
करते थे। जब उनका बढ़ ू ा कहार बीमार हुआ और कक्रक्श्चयन लमशन के डाक्टरों ने उसकी सश्र
ु ष ु ा की, जब
उसकी ववधवा स्त्री ने ननवामह की कोई आशा न दे ख कर कक्रक्श्चयन-समाज का आश्रय लिया, तब इन दोनों
अवसरों पर बाबू साहब ने शोक के रे जल्यश
ू न्स पास ककये। सींसार जानता है कक सेक्रेटरी का काम सभाऍ ीं
करना और रे जल्यश
ू न बनाना है। इससे अधधक वह कुछ नहीीं कर सकता।
लमस्टर रामरक्षा का जातीय उत्साह यही तक सीमाबद्ध न था। वे सामाक्जक कुप्रथाओीं तथा अींध-
ववश्वास के प्रबि शत्रु थे। होिी के ददनों में जब कक मह
ु ल्िे में चमार और कहार शराब से मतवािे होकर
फाग गाते और डफ बजाते हुए ननकिते, तो उन्हें , बडा शोक होता। जानत की इस मख
ू त
म ा पर उनकी ऑ ींखों में
ऑ ींसू भर आते और वे प्रात: इस कुरीनत का ननवारण अपने हीं टर से ककया करते। उनके हीं टर में जानत-
दहतैवषता की उमींग उनकी वक्तत
ृ ा से भी अधधक थी। यह उन्हीीं के प्रशींसनीय प्रयत्न थे, क्जन्होंने मख्
ु य होिी
के ददन ददल्िी में हिचि मचा दी, फाग गाने के अपराध में हजारों आदमी पलु िस के पींजे में आ गये।
सैकडों घरों में मख्
ु य होिी के ददन मह
ु रम म का-सा शोक फैि गया। इधर उनके दरवाजे पर हजारों परु
ु ष-
क्स्त्रय ॉँ अपना दख
ु डा रो रही थीीं। उधर बाबू साहब के दहतैषी लमत्रगण अपने उदारशीि लमत्र के सद्व्यवहार
की प्रशींसा करते। बाबू साहब ददन-भर में इतने रीं ग बदिते थे कक उस पर ‘पेररस’ की पररयों को भी ईष्याम
ु ानें थीीं; ककींतु बाबू साहब को इतना अवकाश न था कक
हो सकती थी। कई बैंकों में उनके दहस्से थे। कई दक
उनकी कुछ दे खभाि करते। अनतधथ-सत्कार एक पववत्र धमम है । ये सच्ची दे शदहतैवषता की उमींग से कहा
करते थे—अनतधथ-सत्कार आददकाि से भारतवषम के ननवालसयों का एक प्रधान और सराहनीय गुण है ।
अभ्यागतों का आदर-सम्मान करनें में हम अद्ववतीय हैं। हम इससे सींसार में मनष्ु य कहिाने योग्य हैं। हम
सब कुछ खो बैठे हैं, ककन्तु क्जस ददन हममें यह गण
ु शेष न रहे गा; वह ददन दहींद-ू जानत के लिए िजजा,
अपमान और मत्ृ यु का ददन होगा।
लमस्टर रामरक्षा जातीय आवश्यकताओीं से भी बेपरवाह न थे। वे सामाक्जक और राजनीनतक कायो में
पण म पेण योग दे ते थे। यह ॉँ तक कक प्रनतवषम दो, बक्ल्क कभी-कभी तीन वक्तत
ू रु ृ ाऍ ीं अवश्य तैयार कर िेते।
भाषणों की भाषा अत्यींत उपयक्
ु त, ओजस्वी और सवािंग सींद
ु र होती थी। उपक्स्थत जन और इष्टलमत्र उनके
ू क शब्दों की ध्वनन प्रकट करते, तालिय ॉँ बजाते, यह ॉँ तक कक बाबू साहब को
एक-एक शब्द पर प्रशींसासच
व्याख्यान का क्रम क्स्थर रखना कदठन हो जाता। व्याख्यान समाप्त होने पर उनके लमत्र उन्हें गोद में उठा
िेते और आश्चयमचककत होकर कहते—तेरी भाषा में जाद ू है ! साराींश यह कक बाबू साहब के यह जातीय प्रेम
और उद्योग केवि बनावटी, सहायता-शन्
ू य तथ फैशनेबबि था। यदद उन्होंने ककसी सदद्
ु योग में भाग लिया
था, तो वह सक्म्मलित कुटुम्ब का ववरोध था। अपने वपता के पश्चात वे अपनी ववधवा म ॉँ से अिग हो गए
थे। इस जातीय सेवा में उनकी स्त्री ववशेष सहायक थी। ववधवा म ॉँ अपने बेटे और बहू के साथ नहीीं रह
सकती थी। इससे बहू की सवाधीनता में ववघ्न पडने से मन दब
ु ि
म और मक्स्तष्क शक्क्तहीन हो जाता है । बहू
को जिाना और कुढ़ाना सास की आदत है । इसलिए बाबू रामरक्षा अपनी म ॉँ से अिग हो गये थे। इसमें
सींदेह नहीीं कक उन्होंने मात-ृ ऋण का ववचार करके दस हजार रुपये अपनी म ॉँ के नाम जमा कर ददये थे, कक
उसके ब्याज से उनका ननवामह होता रहे ; ककींतु बेटे के इस उत्तम आचरण पर म ॉँ का ददि ऐसा टूटा कक वह
ददल्िी छोडकर अयोध्या जा रहीीं। तब से वहीीं रहती हैं। बाबू साहब कभी-कभी लमसेज रामरक्षा से नछपकर
उससे लमिने अयोध्या जाया करते थे, ककींतु वह ददल्िी आने का कभी नाम न िेतीीं। ह ,ॉँ यदद कुशि-क्षेम की
धचट्ठी पहुचने में कुछ दे र हो जाती, तो वववश होकर समाचार पछ
ू दे ती थीीं।

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सी मह
ु ल्िे में एक सेठ धगरधारी िाि रहते थे। उनका िाखों का िेन-दे न था। वे हीरे और रत्नों का
व्यापार करते थे। बाबू रामरक्षा के दरू के नाते में साढ़ू होते थे। परु ाने ढीं ग के आदमी थे—प्रात:काि
यमन
ु ा-स्नान करनेवािे तथा गाय को अपने हाथों से झाडने-पोंछनेवािे! उनसे लमस्टर रामरक्षा का स्वभाव न
लमिता था; परन्तु जब कभी रुपयों की आवश्यकता होती, तो वे सेठ धगरधारी िाि के यह ॉँ से बेखटके मगा
लिया करते थे। आपस का मामिा था, केवि चार अींगुि के पत्र पर रुपया लमि जाता था, न कोई दस्तावेज,
न स्टाम्प, न साक्षक्षयों की आवश्यकता। मोटरकार के लिए दस हजार की आवश्यकता हुई, वह वह ॉँ से आया।
ु दौड के लिए एक आस्रे लियन घोडा डेढ़ हजार में लिया गया। उसके लिए भी रुपया सेठ जी के यह ॉँ से
घड
आया। धीरे -धीरे कोई बीस हजार का मामिा हो गया। सेठ जी सरि हृदय के आदमी थे। समझते थे कक
उसके पास दक
ु ानें हैं, बैंकों में रुपया है । जब जी चाहे गा, रुपया वसि
ू कर िेंगे; ककन्तु जब दो-तीन वषम व्यतीत
ॉँ ही का अधधक्य रहा तो धगरधारी िाि को
हो गये और सेठ जी तकाजों की अपेक्षा लमस्टर रामरक्षा की म ग
सन्दे ह हुआ। वह एक ददन रामरक्षा के मकान पर आये और सभ्य-भाव से बोिे—भाई साहब, मझ ु े एक हुण्डी
का रुपया दे ना है , यदद आप मेरा दहसाब कर दें तो बहुत अच्छा हो। यह कह कर दहसाब के कागजात और
उनके पत्र ददखिायें। लमस्टर रामरक्षा ककसी गाडमन-पाटी में सक्म्मलित होने के लिए तैयार थे। बोिे—इस
समय क्षमा कीक्जए; कफर दे ख िगा,
ू जल्दी क्या है?
धगरधारी िाि को बाबू साहब की रुखाई पर क्रोध आ गया, वे रुष्ट होकर बोिे—आपको जल्दी नहीीं है ,
मझु े तो है! दो सौ रुपये मालसक की मेरी हानन हो रही है! लमस्टर के असींतोष प्रकट करते हुए घडी दे खी।
पाटी का समय बहुत करीब था। वे बहुत ववनीत भाव से बोिे—भाई साहब, मैं बडी जल्दी में हू। इस समय
मेरे ऊपर कृपा कीक्जए। मैं कि स्वयीं उपक्स्थत हूगा।
सेठ जी एक माननीय और धन-सम्पन्न आदमी थे। वे रामरक्षा के कुरुधचपण
ू म व्यवहार पर जि गए।
मैं इनका महाजन हू—इनसे धन में, मान में , ऐश्वयम में , बढ़ा हुआ, चाहू तो ऐसों को नौकर रख ि,ू इनके
दरवाजें पर आऊ और आदर-सत्कार की जगह उिटे ऐसा रुखा बतामव? वह हाथ ब धे ॉँ मेरे सामने न खडा रहे ;
ककन्तु क्या मैं पान, इिायची, इत्र आदद से भी सम्मान करने के योग्य नहीीं? वे नतनक कर बोिे—अच्छा, तो
कि दहसाब साफ हो जाय।
रामरक्षा ने अकड कर उत्तर ददया—हो जायगा।
रामरक्षा के गौरवशाि हृदय पर सेठ जी के इस बतामव के प्रभाव का कुछ खेद-जनक असर न हुआ।
इस काठ के कुन्दे ने आज मेरी प्रनतष्ठा धि
ू में लमिा दी। वह मेरा अपमान कर गया। अच्छा, तम
ु भी इसी
ददल्िी में रहते हो और हम भी यही हैं। ननदान दोनों में ग ठॉँ पड गयी। बाबू साहब की तबीयत ऐसी धगरी
और हृदय में ऐसी धचन्ता उत्पन्न हुई कक पाटी में आने का ध्यान जाता रहा, वे दे र तक इसी उिझन में पडे
रहे । कफर सट
ू उतार ददया और सेवक से बोिे—जा, मन ु ीम जी को बि ु ा िा। मन ु ीम जी आये, उनका दहसाब
दे खा गया, कफर बैंकों का एकाउीं ट दे खा; ककन्तु जयों-जयों इस घाटी में उतरते गये, त्यों-त्यों अधेरा बढ़ता गया।
बहुत कुछ टटोिा, कुछ हाथ न आया। अन्त में ननराश होकर वे आराम-कुसी पर पड गए और उन्होंने एक
ॉँ िे िी। दक
ठीं डी स स ु ानों का माि बबका; ककन्तु रुपया बकाया में पडा हुआ था। कई ग्राहकों की दक
ु ानें टूट
गयी। और उन पर जो नकद रुपया बकाया था, वह डूब गया। किकत्ते के आढ़नतयों से जो माि मगाया था,
ु ाने की नतधथ लसर पर आ पहुची और यह ॉँ रुपया वसि
रुपये चक ू न हुआ। दक ु ानों का यह हाि, बैंकों का
इससे भी बरु ा। रात-भर वे इन्हीीं धचींताओीं में करवटें बदिते रहे । अब क्या करना चादहए? धगरधारी िाि
सजजन परु
ु ष हैं। यदद सारा हाि उसे सन
ु ा द,ू तो अवश्य मान जायगा, ककन्तु यह कष्टप्रद कायम होगा कैसे?
जयों-जयों प्रात:काि समीप आता था, त्यों-त्यों उनका ददि बैठा जाता था। कच्चे ववद्याथी की जो दशा परीक्षा
के सक्न्नकट आने पर होती है , यही हाि इस समय रामरक्षा का था। वे पिींग से न उठे । मह-हाथ
ु भी न
धोया, खाने को कौन कहे । इतना जानते थे कक द:ु ख पडने पर कोई ककसी का साथी नहीीं होता। इसलिए एक
आपवत्त से बचने के लिए कई आपवत्तयों का बोझा न उठाना पडे, इस खयाि से लमत्रों को इन मामिों की
खबर तक न दी। जब दोपहर हो गया और उनकी दशा जयों की त्यों रही, तो उनका छोटा िडका बि
ु ाने
आया। उसने बाप का हाथ पकड कर कहा—िािा जी, आज दाने क्यों नहीीं तिते?
रामरक्षा—भख
ू नहीीं है।
‘क्या काया है?’
‘मन की लमठाई।’
‘और क्या काया है ?’

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‘मार।’
‘ककसने मारा है ?’
‘धगरधारीिाि ने।’
िडका रोता हुआ घर में गया और इस मार की चोट से दे र तक रोता रहा। अन्त में तश्तरी में रखी
हुई दध
ू की मिाई ने उसकी चोट पर मरहम का काम ककया।
3

रो
गी को जब जीने की आशा नहीीं रहती, तो औषधध छोड दे ता है । लमस्टर रामरक्षा जब इस गुत्थी को न
सि ु िपेट कर सो रहे । शाम को एकाएक उठ कर सेठ जी के यह ॉँ
ु झा सके, तो चादर तान िी और मह
पहुचे और कुछ असावधानी से बोिे—महाशय, मैं आपका दहसाब नहीीं कर सकता।
सेठ जी घबरा कर बोिे—क्यों?
रामरक्षा—इसलिए कक मैं इस समय दररद्र-ननहीं ग हू। मेरे पास एक कौडी भी नहीीं है। आप का रुपया
जैसे चाहें वसि
ू कर िें।
सेठ—यह आप कैसी बातें कहते हैं?
रामरक्षा—बहुत सच्ची।
सेठ—दक ु ानें नहीीं हैं?
रामरक्षा—दक
ु ानें आप मफ्
ु त िो जाइए।
सेठ—बैंक के दहस्से?
रामरक्षा—वह कब के उड गये।
सेठ—जब यह हाि था, तो आपको उधचत नहीीं था कक मेरे गिे पर छुरी फेरते?
रामरक्षा—(अलभमान) मैं आपके यह ॉँ उपदे श सन
ु ने के लिए नहीीं आया हू।
यह कह कर लमस्टर रामरक्षा वह ॉँ से चि ददए। सेठ जी ने तरु न्त नालिश कर दी। बीस हजार मि
ू ,
ॉँ हजार ब्याज। डडगरी हो गयी। मकान नीिाम पर चढ़ा। पन्द्रह हजार की जायदाद प च
पच ॉँ हजार में ननकि
गयी। दस हजार की मोटर चार हजार में बबकी। सारी सम्पवत्त उड जाने पर कुि लमिा कर सोिह हजार से
अधधक रमक न खडी हो सकी। सारी गह
ृ स्थी नष्ट हो गयी, तब भी दस हजार के ऋणी रह गये। मान-बडाई,
धन-दौित सभी लमट्टी में लमि गये। बहुत तेज दौडने वािा मनष्ु य प्राय: मह
ु के बि धगर पडता है।

इ स घटना के कुछ ददनों पश्चात ् ददल्िी म्यनु नलसपैलिटी के मेम्बरों का चन


ु ाव आरम्भ हुआ। इस पद के
अलभिाषी वोटरों की सजाऍ ीं करने िगे। दिािों के भाग्य उदय हुए। सम्मनतय ॉँ मोनतयों की तोि बबकने
िगीीं। उम्मीदवार मेम्बरों के सहायक अपने-अपने मव
ु क्क्कि के गण
ु गान करने िगे। चारों ओर चहि-पहि
मच गयी। एक वकीि महाशय ने भरी सभा में मव
ु क्क्कि साहब के ववषय में कहा—
‘मैं क्जस बज
ु रुग का पैरोकार हू, वह कोई मामि
ू ी आदमी नहीीं है । यह वह शख्स है , क्जसने फरजींद
अकबर की शादी में पचीस हजार रुपया लसफम रक्स व सरुर में सफम कर ददया था।’
उपक्स्थत जनों में प्रशींसा की उच्च ध्वनन हुई
एक दस ू रे महाशय ने अपने मह ु ल्िे के वोटरों के सम्मख
ु मव
ु क्क्कि की प्रशींसा यों की—
“मैं यह नहीीं कह सकता कक आप सेठ धगरधारीिाि को अपना मेम्बर बनाइए। आप अपना भिा-बरु ा
स्वयीं समझते हैं, और यह भी नहीीं कक सेठ जी मेरे द्वारा अपनी प्रशींसा के भख
ू ें हों। मेरा ननवेदन केवि यही
ॉँ पररचय िे िें। ददल्िी में केवि एक
है कक आप क्जसे मेम्बर बनायें, पहिे उसके गुण-दोषों का भिी भ नत
मनष्ु य है, जो गत वषो से आपकी सेवा कर रहा है। केवि एक आदमी है , क्जसने पानी पहुचाने और
स्वच्छता-प्रबींधों में हाददमक धमम-भाव से सहायता दी है । केवि एक परु
ु ष है, क्जसको श्रीमान वायसराय के
दरबार में कुसी पर बैठने का अधधकार प्राप्त है, और आप सब महाशय उसे जानते भी हैं।”
उपक्स्थत जनों ने तालिय ॉँ बजायीीं।
सेठ धगरधारीिाि के मह ु ी फैजुिरहमान ख ।ॉँ बडे जमीींदार
ु ल्िे में उनके एक प्रनतवादी थे। नाम था मींश
और प्रलसद्ध वकीि थे। बाबू रामरक्षा ने अपनी दृढ़ता, साहस, बद्
ु ववमत्ता और मद
ृ ु भाषण से मींश
ु ी जी साहब
की सेवा करनी आरम्भ की। सेठ जी को परास्त करने का यह अपव
ू म अवसर हाथ आया। वे रात और ददन
इसी धन
ु में िगे रहते। उनकी मीठी और रोचक बातों का प्रभाव उपक्स्थत जनों पर बहुत अच्छा पडता। एक
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बार आपने असाधारण श्रद्धा-उमींग में आ कर कहा—मैं डींके की चोट पर कहता हू कक मींश
ु ी फैजि
ु रहमान
से अधधक योग्य आदमी आपको ददल्िी में न लमि सकेगा। यह वह आदमी है, क्जसकी गजिों पर कववजनों
में ‘वाह-वाह’ मच जाती है। ऐसे श्रेष्ठ आदमी की सहायता करना मैं अपना जातीय और सामाक्जक धमम
समझता हू। अत्यींत शोक का ववषय है कक बहुत-से िोग इस जातीय और पववत्र काम को व्यक्क्तगत िाभ
का साधन बनाते हैं; धन और वस्तु है, श्रीमान वायसराय के दरबार में प्रनतक्ष्ठत होना और वस्त,ु ककींतु
सामाक्जक सेवा तथा जातीय चाकरी और ही चीज है । वह मनष्ु य, क्जसका जीवन ब्याज-प्राक्प्त, बेईमानी,
कठोरता तथा ननदम यता और सख
ु -वविास में व्यतीत होता हो, इस सेवा के योग्य कदावप नहीीं है ।

से
ठ धगरधारीिाि इस अन्योक्क्तपणू म भाषण का हाि सन ु कर क्रोध से आग हो गए। मैं बेईमान हू!
ब्याज का धन खानेवािा हू! ववषयी हू! कुशि हुई, जो तुमने मेरा नाम नहीीं लिया; ककींतु अब भी तुम
मेरे हाथ में हो। मैं अब भी तम्
ु हें क्जस तरह चाहू, नचा सकता हू। खश ु ामददयों ने आग पर तेि डािा। इधर
रामरक्षा अपने काम में तत्पर रहे । यह ॉँ तक कक ‘वोदटींग-डे’ आ पहुचा। लमस्टर रामरक्षा को उद्योग में बहुत
कुछ सफिता प्राप्त हुई थी। आज वे बहुत प्रसन्न थे। आज धगरधारीिाि को नीचा ददखाऊगा, आज उसको
जान पडेगा कक धन सींसार के सभी पदाथो को इकट्ठा नहीीं कर सकता। क्जस समय फैजुिरहमान के वोट
अधधक ननकिेंगे और मैं तालिय ॉँ बजाऊगा, उस समय धगरधारीिाि का चेहरा दे खने योग्य होगा, मह
ु का रीं ग
बदि जायगा, हवाइय ॉँ उडने िगेगी, ऑ ींखें न लमिा सकेगा। शायद, कफर मझ
ु े मह
ु न ददखा सके। इन्हीीं ववचारों
में मग्न रामरक्षा शाम को टाउनहाि में पहुचे। उपक्स्थत जनों ने बडी उमींग के साथ उनका स्वागत ककया।
थोडी दे र के बाद ‘वोदटींग’ आरम्भ हुआ। मेम्बरी लमिने की आशा रखनेवािे महानभ ु ाव अपने-अपने भाग्य का
अींनतम फि सन
ु ने के लिए आतुर हो रहे थे। छह बजे चेयरमैन ने फैसिा सन
ु ाया। सेठ जी की हार हो गयी।
फैजि
ु रहमान ने मैदान मार लिया। रामरक्षा ने हषम के आवेग में टोपी हवा में उछाि दी और स्वयीं भी कई
बार उछि पडे। महु ल्िेवािों को अचम्भा हुआ। च दनी चौक से सेठ जी को हटाना मेरु को स्थान से उखाडना
था। सेठ जी के चेहरे से रामरक्षा को क्जतनी आशाऍ ीं थीीं, वे सब परू ी हो गयीीं। उनका रीं ग फीका पड गया था।
खेद और िजजा की मनू तम बने हुए थे। एक वकीि साहब ने उनसे सहानभ ु नू त प्रकट करते हुए कहा—सेठ जी,
ु े आपकी हार का बहुत बडा शोक है । मैं जानता कक खुशी के बदिे रीं ज होगा, तो कभी यह ॉँ न आता। मैं
मझ
तो केवि आपके ख्याि से यह ॉँ आया था। सेठ जी ने बहुत रोकना चाहा, परीं तु ऑ ींखों में ऑ ींसू डबडबा ही
गये। वे नन:स्पह
ृ बनाने का व्यथम प्रयत्न करके बोिे—वकीि साहब, मझ
ु े इसकी कुछ धचींता नहीीं, कौन
ररयासत ननकि गयी? व्यथम उिझन, धचींता तथा झींझट रहती थी, चिो, अच्छा हुआ। गिा छूटा। अपने काम
में हरज होता था। सत्य कहता हू, मझ
ु े तो हृदय से प्रसन्नता ही हुई। यह काम तो बेकाम वािों के लिए है,
घर न बैठे रहे , यही बेगार की। मेरी मख
ू त
म ा थी कक मैं इतने ददनों तक ऑ ींखें बींद ककये बैठा रहा। परीं तु सेठ
जी की मख
ु ाकृनत ने इन ववचारों का प्रमाण न ददया। मख
ु मींडि हृदय का दपमण है, इसका ननश्चय अिबत्ता हो
गया।
ककींतु बाबू रामरक्षा बहुत दे र तक इस आनन्द का मजा न िट ू ने पाये और न सेठ जी को बदिा िेने
के लिए बहुत दे र तक प्रतीक्षा करनी पडी। सभा ववसक्जमत होते ही जब बाबू रामरक्षा सफिता की उमींग में
ऐींठतें , मोंछ पर ताव दे ते और चारों ओर गवम की दृक्ष्ट डािते हुए बाहर आये, तो दीवानी की तीन लसपादहयों
ने आगे बढ़ कर उन्हें धगरफ्तारी का वारीं ट ददखा ददया। अबकी बाबू रामरक्षा के चेहरे का रीं ग उतर जाने की,
और सेठ जी के इस मनोवाींनछत दृश्य से आनन्द उठाने की बारी थी। धगरधारीिाि ने आनन्द की उमींग में
तालिय ॉँ तो न बजायीीं, परीं तु मस्
ु करा कर मह
ु फेर लिया। रीं ग में भींग पड गया।
आज इस ववषय के उपिक्ष्य में मींश ु ी फैजि
ु रहमान ने पहिे ही से एक बडे समारोह के साथ गाडमन
पाटी की तैयाररय ीं की थीीं। लमस्टर रामरक्षा इसके प्रबींधकत्ताम थे। आज की ‘आफ्टर डडनर’ स्पीच उन्होंने बडे
पररश्रम से तैयार की थी; ककींतु इस वारीं ट ने सारी कामनाओीं का सत्यानाश कर ददया। यों तो बाबू साहब के
लमत्रों में ऐसा कोई भी न था, जो दस हजार रुपये जमानत दे दे ता; अदा कर दे ने का तो क्जक्र ही कया; ककींतु
कदाधचत ऐसा होता भी तो सेठ जी अपने को भाग्यहीन समझते। दस हजार रुपये और म्यनु नस्पैलिटी की
प्रनतक्ष्ठत मेम्बरी खोकर इन्हें इस समय यह हषम हुआ था।
लमस्टर रामरक्षा के घर पर जयोंही यह खबर पहुची, कुहराम मच गया। उनकी स्त्री पछाड खा कर
पथ्
ृ वी पर धगर पडी। जब कुछ होश में आयी तो रोने िगी। और रोने से छुट्टी लमिी तो उसने धगरधारीिाि

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को कोसना आरम्भ ककया। दे वी-दे वता मनाने िगी। उन्हें ररश्वतें दे ने पर तैयार हुई कक ये धगरधारीिाि को
ककसी प्रकार ननगि जाय। इस बडे भारी काम में वह गींगा और यमन ु ा से सहायता म गॉँ रही थी, प्िेग और
ु ामदें कर रही थी कक ये दोनों लमि कर उस धगरधारीिाि को हडप िे जाय! ककींतु धगरधारी
ववसधू चका की खश
का कोई दोष नहीीं। दोष तुम्हारा है । बहुत अच्छा हुआ! तुम इसी पज ू ा के दे वता थे। क्या अब दावतें न
खखिाओगे? मैंने तुम्हें ककतना समझया, रोयी, रुठी, बबगडी; ककन्तु तुमने एक न सन ु ी। धगरधारीिाि ने बहुत
अच्छा ककया। तुम्हें लशक्षा तो लमि गयी; ककन्तु तुम्हारा भी दोष नहीीं। यह सब आग मैंने ही िगायी।
मखमिी स्िीपरों के बबना मेरे प वॉँ ही नहीीं उठते थे। बबना जडाऊ कडों के मझ
ु े नीींद न आती थी। सेजगाडी
मेरे ही लिए मगवायी थी। अींगरे जी पढ़ने के लिए मेम साहब को मैंने ही रखा। ये सब क टेॉँ मैंने ही बोये हैं।
लमसेज रामरक्षा बहुत दे र तक इन्हीीं ववचारों में डूबी रही। जब रात भर करवटें बदिने के बाद वह
सबेरे उठी, तो उसके ववचार चारों ओर से ठोकर खा कर केवि एक केन्द्र पर जम गये। धगरधारीिाि बडा
बदमाश और घमींडी है । मेरा सब कुछ िे कर भी उसे सींतोष नहीीं हुआ। इतना भी इस ननदम यी कसाई से न
दे खा गया। लभन्न-लभन्न प्रकार के ववचारों ने लमि कर एक रुप धारण ककया और क्रोधाक्ग्न को दहिा कर
प्रबि कर ददया। जवािामख
ु ी शीशे में जब सय
ू म की ककरणें एक होती हैं, तब अक्ग्न प्रकट हो जाती हैं। स्त्री के
हृदय में रह-रह कर क्रोध की एक असाधारण िहर उत्पन्न होती थी। बच्चे ने लमठाई के लिए हठ ककया; उस
पर बरस पडीीं; महरी ने चौका-बरतन करके चल्
ू हें में आग जिा दी, उसके पीछे पड गयी—मैं तो अपने द:ु खों
को रो रही हू, इस चड
ु ि
ै को रोदटयों की धन
ु सवार है । ननदान नौ बजे उससे न रहा गया। उसने यह पत्र
लिख कर अपने हृदय की जवािा ठीं डी की—
‘सेठ जी, तम्
ु हें अब अपने धन के घमींड ने अींधा कर ददया है, ककन्तु ककसी का घमींड इसी तरह सदा
नहीीं रह सकता। कभी न कभी लसर अवश्य नीचा होता है। अफसोस कक कि शाम को, जब तम
ु ने मेरे प्यारे
पनत को पकडवाया है, मैं वह ॉँ मौजूद न थी; नहीीं तो अपना और तुम्हारा रक्त एक कर दे ती। तुम धन के
मद में भि
ू े हुए हो। मैं उसी दम तुम्हारा नशा उतार दे ती! एक स्त्री के हाथों अपमाननत हो कर तुम कफर
ककसी को मह ु ददखाने िायक न रहते। अच्छा, इसका बदिा तम् ु हें ककसी न ककसी तरह जरुर लमि जायगा।
मेरा किेजा उस ददन ठीं डा होगा, जब तुम ननविंश हो जाओगे और तुम्हारे कुि का नाम लमट जायगा।
सेठ जी पर यह फटकार पडी तो वे क्रोध से आग हो गये। यद्यवप क्षुद्र हृदय मनष्ु य न थे, परीं तु क्रोध
के आवेग में सौजन्य का धचह्न भी शेष नहीीं रहता। यह ध्यान न रहा कक यह एक द:ु खखनी की क्रींदन-ध्वनन
है , एक सतायी हुई स्त्री की मानलसक दब
ु ि
म ता का ववचार है। उसकी धन-हीनता और वववशता पर उन्हें तननक
भी दया न आयी। मरे हुए को मारने का उपाय सोचने िगे।


सके तीसरे ददन सेठ धगरधारीिाि पज ू ा के आसन पर बैठे हुए थे, महरा ने आकर कहा—सरकार, कोई
स्त्री आप से लमिने आयी है । सेठ जी ने पछू ा—कौन स्त्री है ? महरा ने कहा—सरकार, मझ
ु े क्या मािम
ू ?
िेककन है कोई भिेमानस ु ! रे शमी साडी पहने हुए हाथ में सोने के कडे हैं। पैरों में टाट के स्िीपर हैं। बडे घर
की स्त्री जान पडती हैं।
यों साधारणत: सेठ जी पज
ू ा के समय ककसी से नहीीं लमिते थे। चाहे कैसा ही आवश्यक काम क्यों न
हो, ईश्वरोपासना में सामाक्जक बाधाओीं को घस
ु ने नहीीं दे ते थे। ककन्तु ऐसी दशा में जब कक ककसी बडे घर की
स्त्री लमिने के लिए आये, तो थोडी दे र के लिए पज
ू ा में वविम्ब करना ननींदनीय नहीीं कहा जा सकता, ऐसा
ववचार करके वे नौकर से बोिे—उन्हें बि
ु ा िाओीं
जब वह स्त्री आयी तो सेठ जी स्वागत के लिए उठ कर खडे हो गये। तत्पश्चात अत्यींत कोमि वचनों
के कारुखणक शब्दों से बोिे—माता, कह ॉँ से आना हुआ? और जब यह उत्तर लमिा कक वह अयोध्या से आयी
है , तो आपने उसे कफर से दीं डवत ककया और चीनी तथा लमश्री से भी अधधक मधरु और नवनीत से भी
अधधक धचकने शब्दों में कहा—अच्छा, आप श्री अयोध्या जी से आ रही हैं? उस नगरी का क्या कहना!
दे वताओीं की परु ी हैं। बडे भाग्य थे कक आपके दशमन हुए। यह ॉँ आपका आगमन कैसे हुआ? स्त्री ने उत्तर
ददया—घर तो मेरा यहीीं है । सेठ जी का मख ु पनु : मधरु ता का धचत्र बना। वे बोिे—अच्छा, तो मकान आपका
इसी शहर में है? तो आपने माया-जींजाि को त्याग ददया? यह तो मैं पहिे ही समझ गया था। ऐसी पववत्र
आत्माऍ ीं सींसार में बहुत थोडी हैं। ऐसी दे ववयों के दशमन दि
ु भ
म होते हैं। आपने मझ
ु े दशमन ददया, बडी कृपा की।
मैं इस योग्य नहीीं, जो आप-जैसी ववदवु षयों की कुछ सेवा कर सकू? ककींतु जो काम मेरे योग्य हो—जो कुछ

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मेरे ककए हो सकता हो—उसे करने के लिए मैं सब भ नत ॉँ से तैयार हू। यह ॉँ सेठ-साहूकारों ने मझ
ु े बहुत
बदनाम कर रखा है , मैं सबकी ऑ ींखों में खटकता हू। उसका कारण लसवा इसके और कुछ नहीीं कक जह ॉँ वे
िोग िाभ का ध्यान रखते हैं, वह ॉँ मैं भिाई पर रखता हू। यदद कोई बडी अवस्था का वद्
ृ ध मनष्ु य मझ ु से
कुछ कहने-सन
ु ने के लिए आता है, तो ववश्वास मानों, मझु से उसका वचन टािा नहीीं जाता। कुछ बढ़ ु ापे का
ववचार; कुछ उसके ददि टूट जाने का डर; कुछ यह ख्याि कक कहीीं यह ववश्वासघानतयों के फींदे में न फींस
जाय, मझ
ु े उसकी इच्छाओीं की पनू तम के लिए वववश कर दे ता है । मेरा यह लसद्धान्त है कक अच्छी जायदाद
और कम ब्याज। ककींतु इस प्रकार बातें आपके सामने करना व्यथम है । आप से तो घर का मामिा है। मेरे
योग्य जो कुछ काम हो, उसके लिए मैं लसर ऑ ींखों से तैयार हू।
वद्
ृ ध स्त्री—मेरा काम आप ही से हो सकता है।
सेठ जी—(प्रसन्न हो कर) बहुत अच्छा; आज्ञा दो।
स्त्री—मैं आपके सामने लभखाररन बन कर आयी हू। आपको छोडकर कोई मेरा सवाि परू ा नहीीं कर
सकता।
सेठ जी—कदहए, कदहए।
स्त्री—आप रामरक्षा को छोड दीक्जए।
सेठ जी के मख ु का रीं ग उतर गया। सारे हवाई ककिे जो अभी-अभी तैयार हुए थे, धगर पडे। वे बोिे—
उसने मेरी बहुत हानन की है । उसका घमींड तोड डािगा,
ू तब छोडूगा।
स्त्री—तो क्या कुछ मेरे बढ़
ु ापे का, मेरे हाथ फैिाने का, कुछ अपनी बडाई का ववचार न करोगे? बेटा,
ममता बरु ी होती है। सींसार से नाता टूट जाय; धन जाय; धमम जाय, ककींतु िडके का स्नेह हृदय से नहीीं
जाता। सींतोष सब कुछ कर सकता है। ककींतु बेटे का प्रेम म ॉँ के हृदय से नहीीं ननकि सकता। इस पर हाककम
का, राजा का, यह ॉँ तक कक ईश्वर का भी बस नहीीं है । तुम मझ ु पर तरस खाओ। मेरे िडके की जान छोड
दो, तुम्हें बडा यश लमिेगा। मैं जब तक जीऊगी, तुम्हें आशीवामद दे ती रहूगी।
सेठ जी का हृदय कुछ पसीजा। पत्थर की तह में पानी रहता है ; ककींतु तत्काि ही उन्हें लमसेस रामरक्षा
के पत्र का ध्यान आ गया। वे बोिे—मझ
ु े रामरक्षा से कोई उतनी शत्रत
ु ा नहीीं थी, यदद उन्होंने मझ
ु े न छे डा
होता, तो मैं न बोिता। आपके कहने से मैं अब भी उनका अपराध क्षमा कर सकता हू! परन्तु उसकी बीबी
साहबा ने जो पत्र मेरे पास भेजा है , उसे दे खकर शरीर में आग िग जाती है । ददखाउ आपको! रामरक्षा की म ॉँ
ने पत्र िे कर पढ़ा तो उनकी ऑ ींखों में ऑ ींसू भर आये। वे बोिीीं—बेटा, उस स्त्री ने मझ
ु े बहुत द:ु ख ददया है ।
उसने मझ ु े दे श से ननकाि ददया। उसका लमजाज और जबान उसके वश में नहीीं; ककींतु इस समय उसने जो
गवम ददखाया है ; उसका तम्
ु हें ख्याि नहीीं करना चादहए। तम
ु इसे भि
ु ा दो। तम्
ु हारा दे श-दे श में नाम है । यह
नेकी तुम्हारे नाक को और भी फैिा दे गी। मैं तुमसे प्रण करती हू कक सारा समाचार रामरक्षा से लिखवा कर
ककसी अच्छे समाचार-पत्र में छपवा दगी।
ू रामरक्षा मेरा कहना नहीीं टािेगा। तम्
ु हारे इस उपकार को वह कभी
न भि
ू ेगा। क्जस समय ये समाचार सींवादपत्रों में छपेंगे, उस समय हजारों मनष्ु यों को तुम्हारे दशमन की
अलभिाषा होगी। सरकार में तुम्हारी बडाई होगी और मैं सच्चे हृदय से कहती हू कक शीघ्र ही तुम्हें कोई न
कोई पदवी लमि जायगी। रामरक्षा की अगरे जों से बहुत लमत्रता है , वे उसकी बात कभी न टािेंगे।
सेठ जी के हृदय में गद
ु गद
ु ी पैदा हो गयी। यदद इस व्यवहार में वह पववत्र और माननीय स्थान प्राप्त
हो जाय—क्जसके लिए हजारों खचम ककये, हजारों डालिय ॉँ दीीं, हजारों अनन
ु य-ववनय कीीं, हजारों खश
ु ामदें कीीं,
खानसामों की खझडककय ॉँ सहीीं, बगिों के चक्कर िगाये—तो इस सफिता के लिए ऐसे कई हजार मैं खचम कर
ु े इस काम में रामरक्षा से बहुत कुछ सहायता लमि सकती है; ककींतु इन ववचारों को
सकता हू। नन:सींदेह मझ
प्रकट करने से क्या िाभ? उन्होंने कहा—माता, मझ
ु े नाम-नमदू की बहुत चाह नहीीं हैं। बडों ने कहा है—नेकी
कर दररयाीं में डाि। मझ
ु े तो आपकी बात का ख्याि है । पदवी लमिे तो िेने से इनकार नहीीं; न लमिे तो
तष्ृ णा नहीीं, परीं तु यह तो बताइए कक मेरे रुपयों का क्या प्रबींध होगा? आपको मािम
ू होगा कक मेरे दस हजार
रुपये आते हैं।
रामरक्षा की म ॉँ ने कहा—तुम्हारे रुपये की जमानत में करती हू। यह दे खों, बींगाि-बैंक की पास बक
ु है।
उसमें मेरा दस हजार रुपया जमा है। उस रुपये से तम ु रामरक्षा को कोई व्यवसाय करा दो। तम ु उस दकु ान
के मालिक रहोगे, रामरक्षा को उसका मैनेजर बना दे ना। जब तक तम्
ु हारे कहे पर चिे, ननभाना; नहीीं तो
दक
ू ान तुम्हारी है । मझु े उसमें से कुछ नहीीं चादहए। मेरी खोज-खबर िेनेवािा ईश्वर है । रामरक्षा अच्छी तरह
रहे , इससे अधधक मझ ु े और न चादहए। यह कहकर पास-बक ु सेठ जी को दे दी। म ॉँ के इस अथाह प्रेम ने

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सेठ जी को ववह्वि कर ददया। पानी उबि पडा, और पत्थर के नीचे ढक गया। ऐसे पववत्र दृश्य दे खने के
लिए जीवन में कम अवसर लमिते हैं। सेठ जी के हृदय में परोपकार की एक िहर-सी उठी; उनकी ऑ ींखें
ॉँ टूट जाता है; उसी प्रकार परोपकार की इस
डबडबा आयीीं। क्जस प्रकार पानी के बहाव से कभी-कभी ब ध
ॉँ को तोड ददया। वे पास-बक
उमींग ने स्वाथम और माया के ब ध ु वद्
ृ ध स्त्री को वापस दे कर बोिे—माता, यह
अपनी ककताब िो। मझ ु े अब अधधक िक्जजत न करो। यह दे खो, रामरक्षा का नाम बही से उडा दे ता हू। मझ
ु े
कुछ नहीीं चादहए, मैंने अपना सब कुछ पा लिया। आज तुम्हारा रामरक्षा तुम को लमि जायगा।
इस घटना के दो वषम उपराींत टाउनहाि में कफर एक बडा जिसा हुआ। बैंड बज रहा था, झींडडय ॉँ और
ध्वजाऍ ीं वाय-ु मींडि में िहरा रही थीीं। नगर के सभी माननीय परु
ु ष उपक्स्थत थे। िैंडो, कफटन और मोटरों से
सारा हाता भरा हुआ था। एकाएक मश्ु ती घोडों की एक कफटन ने हाते में प्रवेश ककया। सेठ धगरधारीिाि
बहुमल्
ू य वस्त्रों से सजे हुए उसमें से उतरे । उनके साथ एक फैशनेबि
ु नवयव
ु क अींग्रेजी सट
ू पहने मस्
ु कराता
हुआ उतरा। ये लमस्टर रामरक्षा थे। वे अब सेठ जी की एक खास दक ु ान का मैनेजर हैं। केवि मैनज
े र ही
नहीीं, ककींतु उन्हें मैंनेक्जींग प्रोप्राइटर समझना चादहए। ददल्िी-दरबार में सेठ जी को राबहादरु का पद लमिा है ।
आज डडक्स्रक्ट मैक्जस्रे ट ननयमानस
ु ार इसकी घोषणा करें गे और सधू चत करें गे कक नगर के माननीय परु
ु षों
की ओर से सेठ जी को धन्यवाद दे ने के लिए बैठक हुई है। सेठ जी की ओर से धन्यवाद का वक्तव्य
रामरक्षा करें गे। क्जि िोगों ने उनकी वक्तत
ृ ाऍ ीं सन
ु ी हैं, वे बहुत उत्सक
ु ता से उस अवसर की प्रतीक्षा कर रहे
हैं।
बैठक समाप्त होने पर सेठ जी रामरक्षा के साथ अपने भवन पर पहुचे, तो मािम
ू हुआ कक आज वही
ृ धा उनसे कफर लमिने आयी है । सेठ जी दौडकर रामरक्षा की म ॉँ के चरणों से लिपट गये। उनका हृदय
वद्
इस समय नदी की भ नत ॉँ उमडा हुआ था।
‘रामरक्षा ऐींड फ्रेडस’ नामक चीनी बनाने का कारखाना बहुत उन्ननत पर हैं। रामरक्षा अब भी उसी
ठाट-बाट से जीवन व्यतीत कर रहे हैं; ककींतु पादटम य ॉँ कम दे ते हैं और ददन-भर में तीन से अधधक सट
ू नहीीं
बदिते। वे अब उस पत्र को, जो उनकी स्त्री ने सेठ जी को लिखा था, सींसार की एक बहुत अमल्
ू य वस्तु
समझते हैं और लमसेज रामरक्षा को भी अब सेठ जी के नाम को लमटाने की अधधक चाह नहीीं है। क्योंकक
अभी हाि में जब िडका पैदा हुआ था, लमसेज रामरक्षा ने अपना सव
ु णम-कींकण धाय को उपहार ददया था मनों
ॉँ थी।
लमठाई ब टी
यह सब हो गया; ककींतु वह बात, जो अब होनी चादहए थी, न हुई। रामरक्षा की म ॉँ अब भी अयोध्या में
रहती हैं और अपनी पत्र
ु वधू की सरू त नहीीं दे खना चाहतीीं।

मंत्र

सीं
ध्या का समय था। डाक्टर चड्ढा गोल्फ खेिने के लिए तैयार हो रहे थे। मोटर द्वार के सामने खडी
थी कक दो कहार एक डोिी लिये आते ददखायी ददये। डोिी के पीछे एक बढ़
ू ा िाठी टे कता चिा आता
था। डोिी औषाधािय के सामने आकर रूक गयी। बढ़ ॉँ
ू े ने धीरे -धीरे आकर द्वार पर पडी हुई धचक से झ का।

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ऐसी साफ-सथु री जमीन पर पैर रखते हुए भय हो रहा था कक कोई घड
ु क न बैठे। डाक्टर साहब को खडे दे ख
कर भी उसे कुछ कहने का साहस न हुआ।
डाक्टर साहब ने धचक के अींदर से गरज कर कहा—कौन है? क्या चाहता है?
डाक्टर साहब ने हाथ जोडकर कहा— हुजूर बडा गरीब आदमी हू। मेरा िडका कई ददन से.......
डाक्टर साहब ने लसगार जिा कर कहा—कि सबेरे आओ, कि सबेरे, हम इस वक्त मरीजों को नहीीं
दे खते।
बढ़
ू े ने घट
ु ने टे क कर जमीन पर लसर रख ददया और बोिा—दहु ाई है सरकार की, िडका मर जायगा!
हुजूर, चार ददन से ऑ ींखें नहीीं.......
डाक्टर चड्ढा ने किाई पर नजर डािी। केवि दस लमनट समय और बाकी था। गोल्फ-क्स्टक खूटी से
उतारने हुए बोिे—कि सबेरे आओ, कि सबेरे; यह हमारे खेिने का समय है ।
बढ़
ू े ने पगडी उतार कर चौखट पर रख दी और रो कर बोिा—हूजरु , एक ननगाह दे ख िें। बस, एक
ननगाह! िडका हाथ से चिा जायगा हुजूर, सात िडकों में यही एक बच रहा है, हुजूर। हम दोनों आदमी रो-
रोकर मर जायेंग,े सरकार! आपकी बढ़ती होय, दीनबींध!ु
ऐसे उजडड दे हाती यह ॉँ प्राय: रोज आया करते थे। डाक्टर साहब उनके स्वभाव से खूब पररधचत थे।
कोई ककतना ही कुछ कहे ; पर वे अपनी ही रट िगाते जायगे। ककसी की सन
ु ेंगे नहीीं। धीरे से धचक उठाई और
बाहर ननकि कर मोटर की तरफ चिे। बढ़ ू ा यह कहता हुआ उनके पीछे दौडा—सरकार, बडा धरम होगा।
हुजूर, दया कीक्जए, बडा दीन-दख
ु ी हू; सींसार में कोई और नहीीं है, बाबू जी!
मगर डाक्टर साहब ने उसकी ओर मह
ु फेर कर दे खा तक नहीीं। मोटर पर बैठ कर बोिे—कि सबेरे
आना।
मोटर चिी गयी। बढ़ ॉँ ननश्चि खडा रहा। सींसार में ऐसे मनष्ु य भी
ू ा कई लमनट तक मनू तम की भ नत
होते हैं, जो अपने आमोद-प्रमोद के आगे ककसी की जान की भी परवाह नहीीं करते, शायद इसका उसे अब भी
ववश्वास न आता था। सभ्य सींसार इतना ननममम, इतना कठोर है , इसका ऐसा मममभेदी अनभ
ु व अब तक न
हुआ था। वह उन परु ाने जमाने की जीवों में था, जो िगी हुई आग को बझ
ु ाने, मद
ु े को कींधा दे न,े ककसी के
छप्पर को उठाने और ककसी किह को शाींत करने के लिए सदै व तैयार रहते थे। जब तक बढ़ ू े को मोटर
ददखायी दी, वह खडा टकटकी िागाये उस ओर ताकता रहा। शायद उसे अब भी डाक्टर साहब के िौट आने
की आशा थी। कफर उसने कहारों से डोिी उठाने को कहा। डोिी क्जधर से आयी थी, उधर ही चिी गयी।
ु ी थी। यह ॉँ से
चारों ओर से ननराश हो कर वह डाक्टर चड्ढा के पास आया था। इनकी बडी तारीफ सन
ननराश हो कर कफर वह ककसी दस
ू रे डाक्टर के पास न गया। ककस्मत ठोक िी!
उसी रात उसका हसता-खेिता सात साि का बािक अपनी बाि-िीिा समाप्त करके इस सींसार से
लसधार गया। बढ़ ॉँ
ू े म -बाप के जीवन का यही एक आधार था। इसी का मह
ु दे ख कर जीते थे। इस दीपक के
बझ
ु ते ही जीवन की अधेरी रात भ य-भॉँ ॉँ करने िगी। बढ़
य ु ापे की ववशाि ममता टूटे हुए हृदय से ननकि कर
अींधकार आत्तम-स्वर से रोने िगी।


ई साि गज
ु र गये। डाक्टर चडढा ने खूब यश और धन कमाया; िेककन इसके साथ ही अपने स्वास्थ्य
की रक्षा भी की, जो एक साधारण बात थी। यह उनके ननयलमत जीवन का आशीवाद था कक पचास वषम
की अवस्था में उनकी चस्
ु ती और फुती यव
ु कों को भी िक्जजत करती थी। उनके हरएक काम का समय
ननयत था, इस ननयम से वह जौ-भर भी न टिते थे। बहुधा िोग स्वास्थ्य के ननयमों का पािन उस समय
करते हैं, जब रोगी हो जाते हें । डाक्टर चड्ढा उपचार और सींयम का रहस्य खब
ू समझते थे। उनकी सींतान-
सींध्या भी इसी ननयम के अधीन थी। उनके केवि दो बच्चे हुए, एक िडका और एक िडकी। तीसरी सींतान
न हुई, इसीलिए श्रीमती चड्ढा भी अभी जवान मािम
ू होती थीीं। िडकी का तो वववाह हो चक
ु ा था। िडका
कािेज में पढ़ता था। वही माता-वपता के जीवन का आधार था। शीि और ववनय का पत
ु िा, बडा ही रलसक,
बडा ही उदार, ववद्यािय का गौरव, यव
ु क-समाज की शोभा। मख
ु मींडि से तेज की छटा-सी ननकिती थी।
आज उसकी बीसवीीं सािधगरह थी।
सींध्या का समय था। हरी-हरी घास पर कुलसमय ॉँ बबछी हुई थी। शहर के रईस और हुक्काम एक तरफ,
कािेज के छात्र दसू री तरफ बैठे भोजन कर रहे थे। बबजिी के प्रकाश से सारा मैदान जगमगा रहा था।

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आमोद-प्रमोद का सामान भी जमा था। छोटा-सा प्रहसन खेिने की तैयारी थी। प्रहसन स्वयीं कैिाशनाथ ने
लिखा था। वही मख् ॉँ इधर से
ु य एक्टर भी था। इस समय वह एक रे शमी कमीज पहने, नींगे लसर, नींगे प व,
उधर लमत्रों की आव भगत में िगा हुआ था। कोई पक ु ारता—कैिाश, जरा इधर आना; कोई उधर से
बि
ु ाता—कैिाश, क्या उधर ही रहोगे? सभी उसे छोडते थे, चहु िें करते थे, बेचारे को जरा दम मारने का
अवकाश न लमिता था। सहसा एक रमणी ने उसके पास आकर पछ ु हारे स पॉँ कह ॉँ हैं? जरा
ू ा—क्यों कैिाश, तम्
मझ
ु े ददखा दो।
कैिाश ने उससे हाथ लमिा कर कहा—मण ू ।ॉँ
ृ ालिनी, इस वक्त क्षमा करो, कि ददखा दग
मण
ृ ालिनी ने आग्रह ककया—जी नहीीं, तुम्हें ददखाना पडेगा, मै आज नहीीं मानने की। तुम रोज ‘कि-
कि’ करते हो।
मणृ ालिनी और कैिाश दोनों सहपाठी थे ओर एक-दस ॉँ के
ू रे के प्रेम में पगे हुए। कैिाश को स पों
पािने, खेिाने और नचाने का शौक था। तरह-तरह के स पॉँ पाि रखे थे। उनके स्वभाव और चररत्र की परीक्षा
ॉँ
करता रहता था। थोडे ददन हुए, उसने ववद्यािय में ‘स पों’ ॉँ को
पर एक माके का व्याख्यान ददया था। स पों
नचा कर ददखाया भी था! प्राखणशास्त्र के बडे-बडे पींडडत भी यह व्याख्यान सन
ु कर दीं ग रह गये थे! यह
ववद्या उसने एक बडे सपेरे से सीखी थी। सापों की जडी-बदू टय ॉँ जमा करने का उसे मरज था। इतना पता
भर लमि जाय कक ककसी व्यक्क्त के पास कोई अच्छी जडी है , कफर उसे चैन न आता था। उसे िेकर ही
छोडता था। यही व्यसन था। इस पर हजारों रूपये फूक चक
ु ा था। मण
ृ ालिनी कई बार आ चक
ु ी थी; पर कभी
ॉँ को दे खने के लिए इतनी उत्सक
स पों ु न हुई थी। कह नहीीं सकते, आज उसकी उत्सक
ु ता सचमचु जाग गयी
थी, या वह कैिाश पर उपने अधधकार का प्रदशमन करना चाहती थी; पर उसका आग्रह बेमौका था। उस कोठरी
में ककतनी भीड िग जायगी, भीड को दे ख कर स पॉँ ककतने चौकेंगें और रात के समय उन्हें छे डा जाना
ककतना बरु ा िगेगा, इन बातों का उसे जरा भी ध्यान न आया।
कैिाश ने कहा—नहीीं, कि जरूर ददखा दगा।
ू इस वक्त अच्छी तरह ददखा भी तो न सकूगा, कमरे में
नति रखने को भी जगह न लमिेगी।
एक महाशय ने छे ड कर कहा—ददखा क्यों नहीीं दे ते, जरा-सी बात के लिए इतना टाि-मटोि कर रहे
हो? लमस गोववींद, हधगमज न मानना। दे खें कैसे नहीीं ददखाते!
दस
ू रे महाशय ने और रद्दा चढ़ाया—लमस गोववींद इतनी सीधी और भोिी हैं, तभी आप इतना लमजाज
करते हैं; दस
ू रे सींद
ु री होती, तो इसी बात पर बबगड खडी होती।
तीसरे साहब ने मजाक उडाया—अजी बोिना छोड दे ती। भिा, कोई बात है ! इस पर आपका दावा है
कक मण
ृ ालिनी के लिए जान हाक्जर है ।
मण
ृ ालिनी ने दे खा कक ये शोहदे उसे रीं ग पर चढ़ा रहे हैं, तो बोिी—आप िोग मेरी वकाित न करें , मैं
खुद अपनी वकाित कर िगी। ू ॉँ का तमाशा नहीीं दे खना चाहती। चिो, छुट्टी हुई।
मैं इस वक्त स पों
इस पर लमत्रों ने ठट्टा िगाया। एक साहब बोिे—दे खना तो आप सब कुछ चाहें , पर ददखाये भी तो?
कैिाश को मण ृ ालिनी की झेंपी हुई सरू त को दे खकर मािम
ू हुआ कक इस वक्त उनका इनकार वास्तव
में उसे बरु ा िगा है । जयोंही प्रीनत-भोज समाप्त हुआ और गाना शरूु हुआ, उसने मण
ृ ालिनी और अन्य लमत्रों
ॉँ के दरबे के सामने िे जाकर महुअर बजाना शरू
को स पों ु ककया। कफर एक-एक खाना खोिकर एक-एक स पॉँ
को ननकािने िगा। वाह! क्या कमाि था! ऐसा जान पडता था कक वे कीडे उसकी एक-एक बात, उसके मन
का एक-एक भाव समझते हैं। ककसी को उठा लिया, ककसी को गरदन में डाि लिया, ककसी को हाथ में िपेट
लिया। मण
ृ ालिनी बार-बार मना करती कक इन्हें गदम न में न डािों, दरू ही से ददखा दो। बस, जरा नचा दो।
ॉँ को लिपटते दे ख कर उसकी जान ननकिी जाती थी। पछता रही थी कक मैंने व्यथम
कैिाश की गरदन में स पों
ही इनसे स पॉँ ददखाने को कहा; मगर कैिाश एक न सन
ु ता था। प्रेलमका के सम्मख
ु अपने सपम-किा-प्रदशमन
का ऐसा अवसर पाकर वह कब चक ॉँ तोड डािे होंगे।
ू ता! एक लमत्र ने टीका की—द त
ॉँ तोड डािना मदाररयों का काम है। ककसी के द त
कैिाश हसकर बोिा—द त ॉँ नहीीं तोड गये। कदहए तो
ददखा द?ू कह कर उसने एक कािे स पॉँ को पकड लिया और बोिा—‘मेरे पास इससे बडा और जहरीिा स पॉँ
दस
ू रा नहीीं है, अगर ककसी को काट िे, तो आदमी आनन-फानन में मर जाय। िहर भी न आये। इसके काटे
ॉँ ददखा द?’
पर मन्त्र नहीीं। इसके द त ू
मण
ृ ालिनी ने उसका हाथ पकडकर कहा—नहीीं-नहीीं, कैिाश, ईश्वर के लिए इसे छोड दो। तुम्हारे पैरों
पडती हू।

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इस पर एक-दस
ू रे लमत्र बोिे—मझ
ु े तो ववश्वास नहीीं आता, िेककन तम
ु कहते हो, तो मान िगा।

कैिाश ने स पॉँ की गरदन पकडकर कहा—नहीीं साहब, आप ऑ ींखों से दे ख कर माननए। द त
ॉँ तोडकर
वश में ककया, तो क्या। स पॉँ बडा समझदार होता हैं! अगर उसे ववश्वास हो जाय कक इस आदमी से मझ
ु े
कोई हानन न पहुचेगी, तो वह उसे हधगमज न काटे गा।
मणृ ालिनी ने जब दे खा कक कैिाश पर इस वक्त भत
ू सवार है, तो उसने यह तमाशा न करने के
ववचार से कहा—अच्छा भाई, अब यह ॉँ से चिो। दे खा, गाना शरू
ु हो गया है । आज मैं भी कोई चीज
सन
ु ाऊगी। यह कहते हुए उसने कैिाश का कींधा पकड कर चिने का इशारा ककया और कमरे से ननकि गयी;
मगर कैिाश ववरोधधयों का शींका-समाधान करके ही दम िेना चाहता था। उसने स पॉँ की गरदन पकड कर
ु िाि हो गया, दे ह की सारी नसें तन गयीीं। स पॉँ ने अब
जोर से दबायी, इतनी जोर से इबायी कक उसका मह
तक उसके हाथों ऐसा व्यवहार न दे खा था। उसकी समझ में न आता था कक यह मझ
ु से क्या चाहते हें । उसे
शायद भ्रम हुआ कक मझ
ु े मार डािना चाहते हैं, अतएव वह आत्मरक्षा के लिए तैयार हो गया।
कैिाश ने उसकी गदमन खूब दबा कर मह ु खोि ददया और उसके जहरीिे द त ॉँ ददखाते हुए बोिा—क्जन
सजजनों को शक हो, आकर दे ख िें। आया ववश्वास या अब भी कुछ शक है? लमत्रों ने आकर उसके द त ॉँ दे खें
और चककत हो गये। प्रत्यक्ष प्रमाण के सामने सन्दे ह को स्थान कह ।ॉँ लमत्रों का शींका-ननवारण करके कैिाश
ने स पॉँ की गदम न ढीिी कर दी और उसे जमीन पर रखना चाहा, पर वह कािा गेहूवन क्रोध से पागि हो रहा
था। गदम न नरम पडते ही उसने लसर उठा कर कैिाश की उगिी में जोर से काटा और वह ॉँ से भागा। कैिाश
की ऊगिी से टप-टप खून टपकने िगा। उसने जोर से उगिी दबा िी और उपने कमरे की तरफ दौडा। वह ॉँ
मेज की दराज में एक जडी रखी हुई थी, क्जसे पीस कर िगा दे ने से घतक ववष भी रफू हो जाता था। लमत्रों
में हिचि पड गई। बाहर महकफि में भी खबर हुई। डाक्टर साहब घबरा कर दौडे। फौरन उगिी की जड
ॉँ गयी और जडी पीसने के लिए दी गयी। डाक्टर साहब जडी के कायि न थे। वह उगिी का
कस कर ब धी
डसा भाग नश्तर से काट दे ना चाहते, मगर कैिाश को जडी पर पण
ू म ववश्वास था। मण
ृ ालिनी प्यानों पर बैठी
हुई थी। यह खबर सन ु ते ही दौडी, और कैिाश की उगिी से टपकते हुए खून को रूमाि से पोंछने िगी। जडी
पीसी जाने िगी; पर उसी एक लमनट में कैिाश की ऑ ींखें झपकने िगीीं, ओठों पर पीिापन दौडने िगा। यह ॉँ
तक कक वह खडा न रह सका। फशम पर बैठ गया। सारे मेहमान कमरे में जमा हो गए। कोई कुछ कहता
था। कोई कुछ। इतने में जडी पीसकर आ गयी। मण ृ ालिनी ने उगिी पर िेप ककया। एक लमनट और बीता।
कैिाश की ऑ ींखें बन्द हो गयीीं। वह िेट गया और हाथ से पींखा झिने का इशारा ककया। म ॉँ ने दौडकर
उसका लसर गोद में रख लिया और बबजिी का टे बि
ु -फैन िगा ददया।
डाक्टर साहब ने झक
ु कर पछ
ू ा कैिाश, कैसी तबीयत है ? कैिाश ने धीरे से हाथ उठा लिए; पर कुछ
बोि न सका। मण
ृ ालिनी ने करूण स्वर में कहा—क्या जडी कुछ असर न करें गी? डाक्टर साहब ने लसर पकड
कर कहा—क्या बतिाऊ, मैं इसकी बातों में आ गया। अब तो नश्तर से भी कुछ फायदा न होगा।
आध घींटे तक यही हाि रहा। कैिाश की दशा प्रनतक्षण बबगडती जाती थी। यह ॉँ तक कक उसकी ऑ ींखें
पथरा गयी, हाथ-प वॉँ ठीं डे पड गये, मख
ु की काींनत मलिन पड गयी, नाडी का कहीीं पता नहीीं। मौत के सारे
ृ ालिनी एक ओर लसर पीटने िगी; म ॉँ अिग पछाडे
िक्षण ददखायी दे ने िगे। घर में कुहराम मच गया। मण
खाने िगी। डाक्टर चड्ढा को लमत्रों ने पकड लिया, नहीीं तो वह नश्तर अपनी गदम न पर मार िेते।
एक महाशय बोिे—कोई मींत्र झाडने वािा लमिे, तो सम्भव है, अब भी जान बच जाय।
एक मस ु िमान सजजन ने इसका समथमन ककया—अरे साहब कि में पडी हुई िाशें क्जन्दा हो गयी हैं।
ऐसे-ऐसे बाकमाि पडे हुए हैं।
डाक्टर चड्ढा बोिे—मेरी अक्ि पर पत्थर पड गया था कक इसकी बातों में आ गया। नश्तर िगा दे ता,
तो यह नौबत ही क्यों आती। बार-बार समझाता रहा कक बेटा, स पॉँ न पािो, मगर कौन सन
ु ता था! बि
ु ाइए,
ककसी झाड-फूक करने वािे ही को बि
ु ाइए। मेरा सब कुछ िे िे, मैं अपनी सारी जायदाद उसके पैरों पर रख
दगा।
ू ॉँ कर घर से ननकि जाऊगा; मगर मेरा कैिाश, मेरा प्यारा कैिाश उठ बैठे। ईश्वर के लिए
िगोटी ब ध
ककसी को बि
ु वाइए।
एक महाशय का ककसी झाडने वािे से पररचय था। वह दौडकर उसे बि
ु ा िाये; मगर कैिाश की सरू त
दे खकर उसे मींत्र चिाने की दहम्मत न पडी। बोिा—अब क्या हो सकता है , सरकार? जो कुछ होना था, हो
चक
ु ा?

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अरे मखू ,म यह क्यों नही कहता कक जो कुछ न होना था, वह कह ॉँ हुआ? म -बाप
ॉँ ने बेटे का सेहरा कह ॉँ
दे खा? मण
ृ ालिनी का कामना-तरू क्या पल्िव और पष्ु प से रीं क्जत हो उठा? मन के वह स्वणम-स्वप्न क्जनसे
जीवन आनींद का स्रोत बना हुआ था, क्या परू े हो गये? जीवन के नत्ृ यमय ताररका-मींडडत सागर में आमोद की
बहार िट
ू ते हुए क्या उनकी नौका जिमग्न नहीीं हो गयी? जो न होना था, वह हो गया।
वही हरा-भरा मैदान था, वही सन ॉँ
ु हरी च दनी ॉँ प्रकृनत पर छायी हुई थी;
एक नन:शब्द सींगीत की भ नत
वही लमत्र-समाज था। वही मनोरीं जन के सामान थे। मगर जहा हास्य की ध्वनन थी, वह ॉँ करूण क्रन्दन और
अश्र-ु प्रवाह था।

श हर से कई मीि दरू एक छोट-से घर में एक बढ़


काट रहे थे। बढ़
ू ा और बदु ढ़या अगीठी के सामने बैठे जाडे की रात
ॉँ
ू ा नाररयि पीता था और बीच-बीच में ख सता था। बदु ढ़या दोनों घट
ु ननयों में लसर डािे
आग की ओर ताक रही थी। एक लमट्टी के तेि की कुप्पी ताक पर जि रही थी। घर में न चारपाई थी, न
बबछौना। एक ककनारे थोडी-सी पआ ु ि पडी हुई थी। इसी कोठरी में एक चल्
ू हा था। बदु ढ़या ददन-भर उपिे और
सखू ी िकडडय ॉँ बटोरती थी। बढ़
ू ा रस्सी बट कर बाजार में बेच आता था। यही उनकी जीववका थी। उन्हें न
ककसी ने रोते दे खा, न हसते। उनका सारा समय जीववत रहने में कट जाता था। मौत द्वार पर खडी थी, रोने
या हसने की कह ॉँ फुरसत! बदु ढ़या ने पछ
ू ा—कि के लिए सन तो है नहीीं, काम क्या करोंगे?
‘जा कर झगडू साह से दस सेर सन उधार िाऊगा?’
‘उसके पहिे के पैसे तो ददये ही नहीीं, और उधार कैसे दे गा?’
‘न दे गा न सही। घास तो कहीीं नहीीं गयी। दोपहर तक क्या दो आने की भी न काटूगा?’
इतने में एक आदमी ने द्वार पर आवाज दी—भगत, भगत, क्या सो गये? जरा ककवाड खोिो।
भगत ने उठकर ककवाड खोि ददये। एक आदमी ने अन्दर आकर कहा—कुछ सन
ु ा, डाक्टर चड्ढा बाबू
के िडके को स पॉँ ने काट लिया।
भगत ने चौंक कर कहा—चड्ढा बाबू के िडके को! वही चड्ढा बाबू हैं न, जो छावनी में बगिे में रहते
हैं?
ॉँ ॉँ वही। शहर में हल्िा मचा हुआ है। जाते हो तो जाओीं, आदमी बन जाओींगे।‘
‘ह -ह
बढ़
ू े ने कठोर भाव से लसर दहिा कर कहा—मैं नहीीं जाता! मेरी बिा जाय! वही चड्ढा है । खूब जानता
हू। भैया िेकर उन्हीीं के पास गया था। खेिने जा रहे थे। पैरों पर धगर पडा कक एक नजर दे ख िीक्जए; मगर
सीधे महु से बात तक न की। भगवान बैठे सन ु रहे थे। अब जान पडेगा कक बेटे का गम कैसा होता है । कई
िडके हैं।
‘नहीीं जी, यही तो एक िडका था। सन
ु ा है, सबने जवाब दे ददया है ।‘
‘भगवान बडा कारसाज है। उस बखत मेरी ऑ ींखें से ऑ ींसू ननकि पडे थे, पर उन्हें तननक भी दया न
आयी थी। मैं तो उनके द्वार पर होता, तो भी बात न पछ
ू ता।‘
‘तो न जाओगे? हमने जो सन
ु ा था, सो कह ददया।‘
‘अच्छा ककया—अच्छा ककया। किेजा ठीं डा हो गया, ऑ ींखें ठीं डी हो गयीीं। िडका भी ठीं डा हो गया होगा!
तुम जाओ। आज चैन की नीींद सोऊगा। (बदु ढ़या से) जरा तम्बाकू िे िे! एक धचिम और पीऊगा। अब
मािम ू होगा िािा को! सारी साहबी ननकि जायगी, हमारा क्या बबगडा। िडके के मर जाने से कुछ राज तो
नहीीं चिा गया? जह ॉँ छ: बच्चे गये थे, वह ॉँ एक और चिा गया, तम्
ु हारा तो राज सन
ु ा हो जायगा। उसी के
वास्ते सबका गिा दबा-दबा कर जोडा था न। अब क्या करोंगे? एक बार दे खने जाऊगा; पर कुछ ददन बाद
लमजाज का हाि पछ
ू ू गा।‘
आदमी चिा गया। भगत ने ककवाड बन्द कर लिये, तब धचिम पर तम्बाखू रख कर पीने िगा।
बदु ढ़या ने कहा—इतनी रात गए जाडे-पािे में कौन जायगा?
‘अरे , दोपहर ही होता तो मैं न जाता। सवारी दरवाजे पर िेने आती, तो भी न जाता। भि
ू नहीीं गया
हू। पन्ना की सरू त ऑ ींखों में कफर रही है। इस ननदम यी ने उसे एक नजर दे खा तक नहीीं। क्या मैं न जानता
था कक वह न बचेगा? खूब जानता था। चड्ढा भगवान नहीीं थे, कक उनके एक ननगाहदे ख िेने से अमत ृ बरस
जाता। नहीीं, खािी मन की दौड थी। अब ककसी ददन जाऊगा और कहूगा—क्यों साहब, कदहए, क्या रीं ग है?

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दनु नया बरु ा कहे गी, कहे ; कोई परवाह नहीीं। छोटे आदलमयों में तो सब ऐव हें । बडो में कोई ऐब नहीीं होता,
दे वता होते हैं।‘
भगत के लिए यह जीवन में पहिा अवसर था कक ऐसा समाचार पा कर वह बैठा रह गया हो। अस्सी
वषम के जीवन में ऐसा कभी न हुआ था कक स पॉँ की खबर पाकर वह दौड न गया हो। माघ-पस ू की अधेरी
रात, चैत-बैसाख की धप
ू और ि,ू सावन-भादों की चढ़ी हुई नदी और नािे, ककसी की उसने कभी परवाह न
की। वह तुरन्त घर से ननकि पडता था—नन:स्वाथम, ननष्काम! िेन-दे न का ववचार कभी ददि में आया नहीीं।
यह सा काम ही न था। जान का मल्
ू य कोन दे सकता है? यह एक पण्
ु य-कायम था। सैकडों ननराशों को उसके
मींत्रों ने जीवन-दान दे ददया था; पर आप वह घर से कदम नहीीं ननकाि सका। यह खबर सन
ु कर सोने जा
रहा है ।
बदु ढ़या ने कहा—तमाखू अगीठी के पास रखी हुई है । उसके भी आज ढाई पैसे हो गये। दे ती ही न थी।
बदु ढ़या यह कह कर िेटी। बढ़
ू े ने कुप्पी बझ
ु ायी, कुछ दे र खडा रहा, कफर बैठ गया। अन्त को िेट गया;
पर यह खबर उसके हृदय पर बोझे की भ नत ॉँ रखी हुई थी। उसे मािम ू हो रहा था, उसकी कोई चीज खो
गयी है, जैसे सारे कपडे गीिे हो गये है या पैरों में कीचड िगा हुआ है, जैसे कोई उसके मन में बैठा हुआ
उसे घर से लिकािने के लिए कुरे द रहा है । बदु ढ़या जरा दे र में खरामटे िेनी िगी। बढ़
ू े बातें करते-करते सोते
है और जरा-सा खटा होते ही जागते हैं। तब भगत उठा, अपनी िकडी उठा िी, और धीरे से ककवाड खोिे।
ू ा—कह ॉँ जाते हो?
बदु ढ़या ने पछ
‘कहीीं नहीीं, दे खता था कक ककतनी रात है ।‘
‘अभी बहुत रात है, सो जाओ।‘
‘नीींद, नहीीं आतीीं।’
‘नीींद काहे आवेगी? मन तो चडढा के घर पर िगा हुआ है ।‘
‘चडढा ने मेरे साथ कौन-सी नेकी कर दी है , जो वह ॉँ जाऊ? वह आ कर पैरों पडे, तो भी न जाऊ।‘
‘उठे तो तुम इसी इरादे से ही?’
ु े क टेॉँ बोये, उसके लिए फूि बोता कफरू।‘
‘नहीीं री, ऐसा पागि नहीीं हू कक जो मझ
बदु ढ़या कफर सो गयी। भगत ने ककवाड िगा ददए और कफर आकर बैठा। पर उसके मन की कुछ ऐसी
दशा थी, जो बाजे की आवाज कान में पडते ही उपदे श सन
ु ने वािों की होती हैं। ऑ ींखें चाहे उपेदेशक की ओर
हों; पर कान बाजे ही की ओर होते हैं। ददि में भी बापे की ध्वनन गजती
ू रहती हे । शमम के मारे जगह से
नहीीं उठता। ननदम यी प्रनतघात का भाव भगत के लिए उपदे शक था, पर हृदय उस अभागे यव
ु क की ओर था,
जो इस समय मर रहा था, क्जसके लिए एक-एक पि का वविम्ब घातक था।
उसने कफर ककवाड खोिे, इतने धीरे से कक बदु ढ़या को खबर भी न हुई। बाहर ननकि आया। उसी वक्त
ग वॉँ को चौकीदार गश्त िगा रहा था, बोिा—कैसे उठे भगत? आज तो बडी सरदी है ! कहीीं जा रहे हो क्या?
भगत ने कहा—नहीीं जी, जाऊगा कह !ॉँ दे खता था, अभी ककतनी रात है । भिा, के बजे होंगे।
चौकीदार बोिा—एक बजा होगा और क्या, अभी थाने से आ रहा था, तो डाक्टर चडढा बाबू के बॅगिे
पर बडी भड िगी हुई थी। उनके िडके का हाि तो तुमने सन ु ा होगा, कीडे ने छू लियाहै । चाहे मर भी गया
हो। तम
ु चिे जाओीं तो साइत बच जाय। सन
ु ा है, इस हजार तक दे ने को तैयार हैं।
भगत—मैं तो न जाऊ चाहे वह दस िाख भी दें । मझ
ु े दस हजार या दस िाखे िेकर करना क्या हैं?
कि मर जाऊगा, कफर कौन भोगनेवािा बैठा हुआ है ।
चौकीदार चिा गया। भगत ने आगे पैर बढ़ाया। जैसे नशे में आदमी की दे ह अपने काबू में नहीीं रहती,
पैर कहीीं रखता है , पडता कहीीं है , कहता कुछ हे , जबान से ननकिता कुछ है, वही हाि इस समय भगत का
था। मन में प्रनतकार था; पर कमम मन के अधीन न था। क्जसने कभी तिवार नहीीं चिायी, वह इरादा करने
ॉँ
पर भी तिवार नहीीं चिा सकता। उसके हाथ क पते हैं, उठते ही नहीीं।
भगत िाठी खट-खट करता िपका चिा जाता था। चेतना रोकती थी, पर उपचेतना ठे िती थी। सेवक
स्वामी पर हावी था।
आधी राह ननकि जाने के बाद सहसा भगत रूक गया। दहींसा ने कक्रया पर ववजय पायी—मै यों ही
इतनी दरू चिा आया। इस जाडे-पािे में मरने की मझ
ु े क्या पडी थी? आराम से सोया क्यों नहीीं? नीींद न
आती, न सही; दो-चार भजन ही गाता। व्यथम इतनी दरू दौडा आया। चडढा का िडका रहे या मरे , मेरी किा

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से। मेरे साथ उन्होंने ऐसा कौन-सा सिक
ू ककया था कक मै उनके लिए मरू? दनु नया में हजारों मरते हें , हजारों
जीते हें । मझ
ु े ककसी के मरने-जीने से मतिब!
मगर उपचेतन ने अब एक दस ू र रूप धारण ककया, जो दहींसा से बहुत कुछ लमिता-जि ु ता था—वह
झाड-फूक करने नहीीं जा रहा है; वह दे खेगा, कक िोग क्या कर रहे हें । डाक्टर साहब का रोना-पीटना दे खेगा,
ककस तरह लसर पीटते हें , ककस तरह पछाडे खाते है! वे िोग तो ववद्वान होते हैं, सबर कर जाते होंगे! दहींसा-
भाव को यों धीरज दे ता हुआ वह कफर आगे बढ़ा।
इतने में दो आदमी आते ददखायी ददये। दोनों बाते करते चिे आ रहे थे—चडढा बाबू का घर उजड
गया, वही तो एक िडका था। भगत के कान में यह आवाज पडी। उसकी चाि और भी तेज हो गयी। थकान
के मारे प वॉँ न उठते थे। लशरोभाग इतना बढ़ा जाता था, मानों अब मह
ु के बि धगर पडेगा। इस तरह वह
कोई दस लमनट चिा होगा कक डाक्टर साहब का बगिा नजर आया। बबजिी की बवत्तय ॉँ जि रही थीीं; मगर
सन्नाटा छाया हुआ था। रोने-पीटने के आवाज भी न आती थी। भगत का किेजा धक-धक करने िगा। कहीीं
मझ
ु े बहुत दे र तो नहीीं हो गयी? वह दौडने िगा। अपनी उम्र में वह इतना तेज कभी न दौडा था। बस, यही
मािम
ू होता था, मानो उसके पीछे मोत दौडी आ री है।

दो
बज गये थे। मेहमान ववदा हो गये। रोने वािों में केवि आकाश के तारे रह गये थे। और सभी रो-रो
कर थक गये थे। बडी उत्सक
ु ता के साथ िोग रह-रह आकाश की ओर दे खते थे कक ककसी तरह सदु ह
हो और िाश गींगा की गोद में दी जाय।
सहसा भगत ने द्वार पर पहुच कर आवाज दी। डाक्टर साहब समझे, कोई मरीज आया होगा। ककसी
और ददन उन्होंने उस आदमी को दत्ु कार ददया होता; मगर आज बाहर ननकि आये। दे खा एक बढ़
ू ा आदमी
खडा है—कमर झक ु भौहे तक सफेद हो गयी थीीं। िकडी के सहारे क पॉँ रहा था। बडी नम्रता
ु ी हुई, पोपिा मह,
से बोिे—क्या है भई, आज तो हमारे ऊपर ऐसी मस ु ीबत पड गयी है कक कुछ कहते नहीीं बनता, कफर कभी
आना। इधर एक महीना तक तो शायद मै ककसी भी मरीज को न दे ख सकूगा।
भगत ने कहा—सन ु ा हू बाबू जी, इसीलिए आया हू। भैया कह ॉँ है? जरा मझ
ु चक ु े ददखा दीक्जए।
भगवान बडा कारसाज है, मरु दे को भी क्जिा सकता है। कौन जाने, अब भी उसे दया आ जाय।
चडढा ने व्यधथत स्वर से कहा—चिो, दे ख िो; मगर तीन-चार घींटे हो गये। जो कुछ होना था, हो चक
ु ा।
बहुतेर झाडने-फकने वािे दे ख-दे ख कर चिे गये।
डाक्टर साहब को आशा तो क्या होती। ह ॉँ बढ
ू े पर दया आ गयी। अन्दर िे गये। भगत ने िाश को
एक लमनट तक दे खा। तब मस्
ु करा कर बोिा—अभी कुछ नहीीं बबगडा है, बाबू जी! यह नारायण चाहें गे, तो
आध घींटे में भैया उठ बैठेगे। आप नाहक ददि छोटा कर रहे है । जरा कहारों से कदहए, पानी तो भरें ।
कहारों ने पानी भर-भर कर कैिाश को नहिाना शरू
ु ककयाीं पाइप बन्द हो गया था। कहारों की सींख्या
अधधक न थी, इसलिए मेहमानों ने अहाते के बाहर के कुऍ ीं से पानी भर-भर कर कहानों को ददया, मण
ृ ालिनी
किासा लिए पानी िा रही थी। बढ़
ु ा भगत खडा मस्
ु करा-मस्
ु करा कर मींत्र पढ़ रहा था, मानो ववजय उसके
सामने खडी है । जब एक बार मींत्र समाप्त हो जाता, वब वह एक जडी कैिाश के लसर पर डािे गये और न-
जाने ककतनी बार भगत ने मींत्र फूका। आखखर जब उषा ने अपनी िाि-िाि ऑ ींखें खोिीीं तो केिाश की भी
ॉँ
िाि-िाि ऑ ींखें खुि गयी। एक क्षण में उसने अींगडाई िी और पानी पीने को म गा। डाक्टर चडढा ने दौड
कर नारायणी को गिे िगा लिया। नारायणी दौडकर भगत के पैरों पर धगर पडी और मणालिनी कैिाश के
सामने ऑ ींखों में ऑ ींस-ू भरे पछ
ू ने िगी—अब कैसी तबबयत है!
एक क्षण ् में चारों तरफ खबर फैि गयी। लमत्रगण मब
ु ारकवाद दे ने आने िगे। डाक्टर साहब बडे
श्रद्धा-भाव से हर एक के हसामने भगत का यश गाते कफरते थे। सभी िोग भगत के दशमनों के लिए उत्सक

हो उठे ; मगर अन्दर जा कर दे खा, तो भगत का कहीीं पता न था। नौकरों ने कहा—अभी तो यहीीं बैठे धचिम
पी रहे थे। हम िोग तमाखू दे ने िगे, तो नहीीं िी, अपने पास से तमाखू ननकाि कर भरी।
यह ॉँ तो भगत की चारों ओर तिाश होने िगी, और भगत िपका हुआ घर चिा जा रहा था कक बदु ढ़या
के उठने से पहिे पहुच जाऊ!
जब मेहमान िोग चिे गये, तो डाक्टर साहब ने नारायणी से कहा—बड
ु ढा न-जाने कहा चिा गया।
एक धचिम तमाखू का भी रवादार न हुआ।

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नारायणी—मैंने तो सोचा था, इसे कोई बडी रकम दगी।

चडढा—रात को तो मैंने नहीीं पहचाना, पर जरा साफ हो जाने पर पहचान गया। एक बार यह एक
मरीज को िेकर आया था। मझ
ु े अब याद आता हे कक मै खेिने जा रहा था और मरीज को दे खने से
इनकार कर ददया था। आप उस ददन की बात याद करके मझ
ु ें क्जतनी ग्िानन हो रही है , उसे प्रकट नहीीं कर
सकता। मैं उसे अब खोज ननकािगा
ू और उसके पेरों पर धगर कर अपना अपराध क्षमा कराऊगा। वह कुछ
िेगा नहीीं, यह जानता हू, उसका जन्म यश की वषाम करने ही के लिए हुआ है । उसकी सजजनता ने मझ
ु े ऐसा
आदशम ददखा ददया है , जो अब से जीवनपयमन्त मेरे सामने रहे गा।

प्रायजश्चत

द फ्तर में जरा दे र से आना अफसरों की शान है । क्जतना ही बडा अधधकारी होता है , उत्तरी ही दे र में
आता है; और उतने ही सबेरे जाता भी है । चपरासी की हाक्जरी चौबीसों घींटे की। वह छुट्टी पर भी नहीीं
जा सकता। अपना एवज दे ना पडता हे । खैर, जब बरे िी क्जिा-बोडम के हे ड क्िकम बाबू मदारीिाि ग्यारह बजे
दफ्तर आये, तब मानो दफ्तर नीींद से जाग उठा। चपरासी ने दौड कर पैरगाडी िी, अरदिी ने दौडकर कमरे
की धचक उठा दी और जमादार ने डाक की ककश्त मेज जर िा कर रख दी। मदारीिाि ने पहिा ही सरकारी
लिफाफा खोिा था कक उनका रीं ग फक हो गया। वे कई लमनट तक आश्चयामक्न्वत हाित में खडे रहे , मानो
सारी ज्ञानेक्न्द्रय ॉँ लशधथि हो गयी हों। उन पर बडे-बडे आघात हो चक
ु े थे; पर इतने बहदवास वे कभी न हुए
थे। बात यह थी कक बोडम के सेक्रेटरी की जो जगह एक महीने से खािी थी, सरकार ने सब ु ोधचन्द्र को वह
जगह दी थी और सब
ु ोधचन्द्र वह व्यक्क्त था, क्जसके नाम ही से मदारीिाि को घण
ृ ा थी। वह सब
ु ोधचन्द्र, जो
उनका सहपाठी था, क्जस जक दे ने को उन्होंने ककतनी ही चेष्टा की; पर कभरी सफि न हुए थे। वही सबु ोध
आज उनका अफसर होकर आ रहा था। सब ु ोध की इधर कई सािों से कोई खबर न थी। इतना मािम ू था
कक वह फौज में भरती हो गया था। मदारीिाि ने समझा—वहीीं मर गया होगा; पर आज वह मानों जी उठा
और सेक्रेटरी होकर आ रहा था। मदारीिाि को उसकी मातहती में काम करना पडेगा। इस अपमान से तो
मर जाना कहीीं अच्छा था। सब
ु ोध को स्कूि और कािेज की सारी बातें अवश्य ही याद होंगी। मदारीिाि ने
उसे कािेज से ननकिवा दे ने के लिए कई बार मींत्र चिाए, झठ
ू े आरोज ककये, बदनाम ककया। क्या सब
ु ोध सब
कुछ भि
ू गया होगा? नहीीं, कभी नहीीं। वह आते ही परु ानी कसर ननकािेगा। मदारी बाबू को अपनी प्राणरक्षा
का कोई उपाय न सझ
ू ता था।
मदारी और सब ु ोध के ग्रहों में ही ववरोध थाीं दोनों एक ही ददन, एक ही शािा में भरती हुए थे, और
पहिे ही ददन से ददि में ईष्याम और द्वेष की वह धचनगारी पड गयी, जो आज बीस वषम बीतने पर भी न
बझ
ु ी थी। सब
ु ोध का अपराध यही था कक वह मदारीिाि से हर एक बात में बढ़ा हुआ थाीं डी-डौि,

रीं ग-रूप, रीनत-व्यवहार, ववद्या-बद्


ु धध ये सारे मैदान उसके हाथ थे। मदारीिाि ने उसका यह अपराध कभी
क्षमा नहीीं ककयाीं सब ॉँ बना रहा। जब सब
ु ोध बीस वषम तक ननरन्तर उनके हृदय का क टा ु ोध डडग्री िेकर अपने
घर चिा गया और मदारी फेि होकर इस दफ्तर में नौकर हो गये, तब उनका धचत शाींत हुआ। ककन्तु जब
यह मािम
ू हुआ कक सब
ु ोध बसरे जा रहा है, जब तो मदारीिाि का चेहरा खखि उठा। उनके ददि से वह
ॉँ ननकि गयी। पर हा हतभाग्य! आज वह परु ाना नासरू शतगुण टीस और जिन के साथ खि
परु ानी फ स ु
गया। आज उनकी ककस्मत सब
ु ोध के हाथ में थी। ईश्वर इतना अन्यायी है ! ववधध इतना कठोर!
जब जरा धचत शाींत हुआ, तब मदारी ने दफ्तर के क्िको को सरकारी हुक्म सन ु ाते हुए कहा—अब आप
िोग जरा हाथ-प वॉँ सभाि कर रदहएगा। सब
ु ोधचन्द्र वे आदमी नहीीं हें , जो भि
ू ो को क्षम कर दें ?
एक क्िकम ने पछ
ू ा—क्या बहुत सख्त है।
मदारीिाि ने मस्ु करा कर कहा—वह तो आप िोगों को दो-चार ददन ही में मािम
ू हो जाएगा। मै
ु से ककसी की क्यों लशकायत करू? बस, चेतावनी दे दी कक जरा हाथ-प वॉँ सभाि कर रदहएगा।
अपने मह
आदमी योग्य है, पर बडा ही क्रोधी, बडा दम्भी। गुस्सा तो उसकी नाक पर रहता है। खुद हजारों हजम कर
जाय और डकार तक न िे; पर क्या मजाि कक कोइर मातहत एक कौडी भी हजम करने जाये। ऐसे आदमी
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से ईश्वर ही बचाये! में तो सोच राह हू कक छुट्टी िेकर घर चिा जाऊ। दोनों वक्त घर पर हाक्जरी बजानी
होगी। आप िोग आज से सरकार के नौकर नहीीं, सेक्रटरी साहब के नौकर हैं। कोई उनके िडके को पढ़ायेगा।
कोई बाजास से सौदा-सि
ु फ
ु िायेगा और कोई उन्हें अखबार सन
ु ायेगा। ओर चपरालसयों के तो शायद दफ्तर
में दशमन ही न हों।
इस प्रकार सारे दफ्तर को सब
ु ोधचन्द्र की तरफ से भडका कर मदारीिाि ने अपना किेजा ठीं डा ककया।


सके एक सप्ताह बाद सब
ु ोधचन्द्र गाडी से उतरे , तब स्टे शन पर दफ्तर के सब कममचाररयों को हाक्जर
पाया। सब उनका स्वागत करने आये थे। मदारीिाि को दे खते ही सब
ु ोध िपक कर उनके गिे से
लिपट गये और बोिे—तुम खूब लमिे भाई। यह ॉँ कैसे आये? ओह! आज एक यग ु के बाद भें ट हुई!
मदारीिाि बोिे—यह ॉँ क्जिा-बोडम के दफ्तर में हे ड क्िकम हू। आप तो कुशि से है?
सब
ु ोध—अजी, मेरी न पछ ीं
ू ो। बसरा, फ्राींस, लमश्र और न-जाने कह -कह ॉँ मारा-मारा कफरा। तम
ु दफ्तर में
हो, यह बहुत ही अच्छा हुआ। मेरी तो समझ ही मे न आता था कक कैसे काम चिेगा। मैं तो बबिकुि कोरा
हू; मगर जह ॉँ जाता हू, मेरा सौभाग्य ही मेरे साथ जाता है । बसरे में सभी अफसर खश
ू थे। फाींस में भी खूब
चैन ककये। दो साि में कोई पचीस हजार रूपये बना िाया और सब उडा ददया। त ॉँ से आकर कुछ ददनों को-
आपरे शन दफ्तर में मटरगश्त करता रहा। यह ॉँ आया तब तुम लमि गये। (क्िको को दे ख कर) ये िोग कौन
हैं?
मदारीिाि के हृदय में बनछीं या-सी चि रही थीीं। दष्ु ट पचीस हजार रूपये बसरे में कमा िाया! यह ॉँ
किम नघसते-नघसते मर गये और पाच सौ भी न जमा कर सके। बोिे—कममचारी हें । सिाम करने आये है।
सबोध ने उन सब िोगों से बारी-बारी से हाथ लमिाया और बोिा—आप िोगों ने व्यथम यह कष्ट
ककया। बहुत आभारी हू। मझ
ु े आशा हे कक आप सब सजजनों को मझ
ु से कोई लशकायत न होगी। मझ
ु े अपना
अफसर नहीीं, अपना भाई समखझए। आप सब िोग लमि कर इस तरह काम कीक्जए कक बोडम की नेकनामी हो
और मैं भी सख
ु रूम रहू। आपके हे ड क्िकम साहब तो मेरे परु ाने लमत्र और िगोदटया यार है ।
एक वाकचतरु क्िक्र ने कहा—हम सब हुजरू के ताबेदार हैं। यथाशक्क्त आपको असींतुष्ट न करें गे;
िेककनह आदमी ही है , अगर कोई भि ू हो भी जाय, तो हुजरू उसे क्षमा करें गे।
ु ोध ने नम्रता से कहा—यही मेरा लसद्धान्त है और हमेशा से यही लसद्धान्त रहा है। जह ॉँ रहा,
सब
मतहतों से लमत्रों का-सा बतामव ककया। हम और आज दोनों ही ककसी तीसरे के गुिाम हैं। कफर रोब कैसा और
अफसरी कैसी? ह ,ॉँ हमें नेकनीयत के साथ अपना कतमव्य पािन करना चादहए।
जब सब
ु ोध से ववदा होकर कममचारी िोग चिे, तब आपस में बातें होनी िगीीं—
‘आदमी तो अच्छा मािम
ू होता है ।‘
‘हे ड क्िकम के कहने से तो ऐसा मािम
ू होता था कक सबको कच्चा ही खा जायगा।‘
‘पहिे सभी ऐसे ही बातें करते है ।‘
ॉँ है।‘
‘ये ददखाने के द त

सबोध
ु प्रसन्नधचत है, इतना नम्र हे कक जो उससे एक बार लमिा हे, सदैव के लिए उसका लमत्र हो जाता
इतना
को आये एक महीना गजु र गया। बोडम के क्िकम, अरदिी, चपरासी सभी उसके बवामव से खुश हैं। वह

है । कठोर शब्द तो उनकी जबान पर आता ही नहीीं। इनकार को भी वह अवप्रय नहीीं होने दे ता; िेककन द्वेष
की ऑ ींखों में गण
ु ओर भी भयींकर हो जाता है । सब
ु ोध के ये सारे सदगण
ु मदारीिाि की ऑ ींखों में खटकते
रहते हें । उसके ववरूद्ध कोई न कोई गुप्त षडयींत्र रचते ही रहते हें । पहिे कममचाररयों को भडकाना चाहा,
सफि न हुए। बोडम के मेम्बरों को भडकाना चाहा, मह
ु की खायी। ठे केदारों को उभारने का बीडा उठाया,
िक्जजत होना पडा। वे चाहते थे कक भस
ु में आग िगा कर दरू से तमाशा दे खें। सबु ोध से यों हस कर
लमिते, यों धचकनी-चप
ु डी बातें करते, मानों उसके सच्चे लमत्र है , पर घात में िगे रहते। सब
ु ोध में सब गण
ु थे,
पर आदमी पहचानना न जानते थे। वे मदारीिाि को अब भी अपना दोस्त समझते हैं।
एक ददन मदारीिाि सेक्रटरी साहब के कमरे में गए तब कुसी खािी दे खी। वे ककसी काम से बाहर
चिे गए थे। उनकी मेज पर प च ॉँ हजार के नोट पलु िदों में बधे हुए रखे थे। बोडम के मदरसों के लिए कुछ
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िकडी के सामान बनवाये गये थे। उसी के दाम थे। ठे केदार वसि
ू ी के लिए बि
ु या गया थाीं आज ही सेक्रेटरी
ॉँ कर दे खा, सब
साहब ने चेक भेज कर खजाने से रूपये मॅगवाये थे। मदारीिाि ने बरामदे में झ क ु ोध का कहीीं
ॉँ
जता नहीीं। उनकी नीयत बदि गयी। दम ष्याम में िोभ का सक्म्मश्रण हो गया। क पते हुए हाथों से पलु िींदे
उठाये; पतिनू की दोनों जेबों में भर कर तुरन्त कमरे से ननकिे ओर चपरासी को पक ु ार कर बोिे—बाबू जी
भीतर है? चपरासी आप ठे केदार से कुछ वसि
ू करने की खुशी में फूिा हुआ थाीं सामने वािे तमोिी के दक
ू ान
से आकर बोिा—जी नहीीं, कचहरी में ककसी से बातें कर रहे है । अभी-अभी तो गये हैं।
मदारीिाि ने दफ्तर में आकर एक क्िकम से कहा—यह लमलसि िे जाकर सेक्रेटरी साहब को ददखाओ।
क्िकम लमलसि िेकर चिा गया। जरा दे र में िौट कर बोिा—सेक्रेटरी साहब कमरे में न थे। फाइि
मेज पर रख आया हू।
ु लसकोड कर कहा—कमरा छोड कर कह ॉँ चिे जाया करते हैं? ककसी ददन धोखा
मदारीिाि ने मह
उठायेंगे।
क्िकम ने कहा—उनके कमरे में दफ्तवािों के लसवा और जाता ही कौन है?
मदारीिाि ने तीव्र स्वर में कहा—तो क्या दफ्तरवािे सब के सब दे वता हैं? कब ककसकी नीयत बदि
जाय, कोई नहीीं कह सकता। मैंने छोटी-छोटी रकमों पर अच्छों-अच्छों की नीयतें बदिते दे खी हैं।इस वक्त
हम सभी साह हैं; िेककन अवसर पाकर शायद ही कोई चक
ू े । मनष्ु य की यही प्रकृनत है। आप जाकर उनके
कमरे के दोनों दरवाजे बन्द कर दीक्जए।
क्िकम ने टाि कर कहा—चपरासी तो दरवाजे पर बैठा हुआ है ।
मदारीिाि ने झझिा
ु कर कहा—आप से मै जो कहता हू, वह कीक्जए। कहने िगें , चपरासी बैठा हुआ
है । चपरासी कोई ऋवष है , मनु न है? चपरसी ही कुछ उडा दे , तो आप उसका क्या कर िेंगे? जमानत भी है तो
तीन सौ की। यह ॉँ एक-एक कागज िाखों का है ।
यह कह कर मदारीिाि खुद उठे और दफ्तर के द्वार दोनों तरफ से बन्द कर ददये। जब धचत ् शाींत
हुआ तब नोटों के पलु िींदे जेब से ननकाि कर एक आिमारी में कागजों के नीचे नछपा कर रख ददयें कफर
आकर अपने काम में व्यस्त हो गये।
सब
ु ोधचन्द्र कोई घींटे-भर में िौटे । तब उनके कमरे का द्वार बन्द था। दफ्तर में आकर मस्
ु कराते हुए
बोिे—मेरा कमरा ककसने बन्द कर ददया है , भाई क्या मेरी बेदखिी हो गयी?
मदारीिाि ने खडे होकर मद ृ ु नतरस्कार ददखाते हुए कहा—साहब, गस्
ु ताखी माफ हो, आप जब कभी
बाहर जाय, चाहे एक ही लमनट के लिए क्यों न हो, तब दरवाजा-बन्द कर ददया करें । आपकी मेज पर रूपये-
पैसे और सरकारी कागज-पत्र बबखरे पडे रहते हैं, न जाने ककस वक्त ककसकी नीयत बदि जाय। मैंने अभी
सन
ु ा कक आप कहीीं गये हैं, जब दरवाजे बन्द कर ददये।
सब
ु ोधचन्द्र द्वार खोि कर कमरे में गये ओर लसगार पीने िगें मेज पर नोट रखे हुए है , इसके खबर
ही न थी।
सहसा ठे केदार ने आकर सिाम ककयाीं सब ु ोध कुसी से उठ बैठे और बोिे—तुमने बहुत दे र कर दी,
तुम्हारा ही इन्तजार कर रहा था। दस ही बजे रूपये मगवा लिये थे। रसीद लिखवा िाये हो न?
ठे केदार—हुजरू रसीद लिखवा िाया हू।
सब ु ोध—तो अपने रूपये िे जाओ। तम् ु हारे काम से मैं बहुत खश
ु नहीीं हू। िकडी तम
ु ने अच्छी नहीीं
िगायी और काम में सफाई भी नहीीं हे । अगर ऐसा काम कफर करोंगे, तो ठे केदारों के रक्जस्टर से तम्ु हारा
नाम ननकाि ददया जायगा।
यह कह कर सब
ु ोध ने मेज पर ननगाह डािी, तब नोटों के पलु िींदे न थे। सोचा, शायद ककसी फाइि के
नीचे दब गये हों। कुरसी के समीप के सब कागज उिट-पि ु ट डािे; मगर नोटो का कहीीं पता नहीीं। ऐीं नोट
कह ॉँ गये! अभी तो यही मेने रख ददये थे। जा कह ॉँ सकते हें । कफर फाइिों को उिटने-पि
ु टने िगे। ददि में
जरा-जरा धडकन होने िगी। सारी मेज के कागज छान डािे, पलु िींदों का पता नहीीं। तब वे कुरसी पर बैठकर
इस आध घींटे में होने वािी घटनाओीं की मन में आिोचना करने िगे—चपरासी ने नोटों के पलु िींदे िाकर
मझ
ु े ददये, खब
ू याद है। भिा, यह भी भि
ू ने की बात है और इतनी जल्द! मैने नोटों को िेकर यहीीं मेज पर
रख ददया, धगना तक नहीीं। कफर वकीि साहब आ गये, परु ाने मि
ु ाकाती हैं। उनसे बातें करता जरा उस पेड
तक चिा गया। उन्होंने पान मगवाये, बस इतनी ही दे र हुम। जब गया हू तब पलु िींदे रखे हुए थे। खूब अच्छी
तरह याद है । तब ये नोट कह ॉँ गायब हो गये? मैंने ककसी सींदक
ू , दराज या आिमारी में नहीीं रखे। कफर गये

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तो कह ?ॉँ शायद दफ्तर में ककसी ने सावधानी के लिए उठा कर रख ददये हों, यही बात है । मैं व्यथम ही इतना
घबरा गया। नछ:!
तरु न्त दफ्तर में आकर मदारीिाि से बोिे—आपने मेरी मेज पर से नोट तो उठा कर नहीीं रख ददय?
मदारीिाि ने भौंचक्के होकर कहा—क्या आपकी मेज पर नोट रखे हुए थे? मझ ु े तो खबर ही नहीीं।
अभी पींडडत सोहनिाि एक फाइि िेकर गये थे, तब आपको कमरे में न दे खा। जब मझ ु े मािम
ू हुआ कक
आप ककसी से बातें करने चिे गये हैं, वब दरवाजे बन्द करा ददये। क्या कुछ नोट नहीीं लमि रहे है?
सब ॉँ हजार के है । अभी-अभी चेक भन
ु ोध ऑ ींखें फैिा कर बोिे—अरे साहब, परू े प च ु ाया है ।
मदारीिाि ने लसर पीट कर कहा—परू े पाच हजार! हा भगवान! आपने मेज पर खूब दे ख लिया है?
‘अजी पींद्रह लमनट से तिाश कर रहा हू।‘
‘चपरासी से पछ ू लिया कक कौन-कौन आया था?’
‘आइए, जरा आप िोग भी तिाश कीक्जए। मेरे तो होश उडे हुए है ।‘
सारा दफ्तर सेक्रेटरी साहब के कमरे की तिाशी िेने िगा। मेज, आिमाररय ,ॉँ सींदक
ू सब दे खे गये।
रक्जस्टरों के वकम उिट-पि
ु ट कर दें खे गये; मगर नोटों का कहीीं पता नहीीं। कोई उडा िे गया, अब इसमें कोइर
शबहा न था। सब ॉँ िी और कुसी पर बैठ गये। चेहरे का रीं ग फक हो गया। जर-सा मह
ु ोध ने एक िम्बी स स ु
ननकि आया। इस समय कोई उन्हे दे खत तो समझता कक महीनों से बीमार है ।
मदारीिाि ने सहानभ ु नू त ददखाते हुए कहा— गजब हो गया और क्या! आज तक कभी ऐसा अींधरे न
ु े यह ॉँ काम करते दस साि हो गये, कभी धेिे की चीज भी गायब न हुई। मैं आपको पहिे ददन
हुआ था। मझ
सावधान कर दे ना चाहता था कक रूपये-पैसे के ववषय में होलशयार रदहएगा; मगर शद
ु नी थी, ख्याि न रहा।
जरूर बाहर से कोई आदमी आया और नोट उडा कर गायब हो गया। चपरासी का यही अपराध है कक उसने
ककसी को कमरे में जोने ही क्यों ददया। वह िाख कसम खाये कक बाहर से कोई नहीीं आया; िेककन में इसे
मान नहीीं सकता। यह ॉँ से तो केवि पक्ण्डत सोहनिाि एक फाइि िेकर गये थे; मगर दरवाजे ही से झ क
ॉँ
कर चिे आये।
सोहनिाि ने सफाई दी—मैंने तो अन्दर कदम ही नहीीं रखा, साहब! अपने जवान बेटे की कसम खाता
हू, जो अन्दर कदम रखा भी हो।
मदारीिाि ने माथा लसकोडकर कहा—आप व्यथम में कसम क्यों खाते हैं। कोई आपसे कुछ कहता?
(सब
ु ोध के कान में )बैंक में कुछ रूपये हों तो ननकाि कर ठे केदार को दे लिये जाय, वरना बडी बदनामी होगी।
नक
ु सान तो हो ही गया, अब उसके साथ अपमान क्यों हो।
सब
ु ोध ने करूण-स्वर में कहा— बैंक में मक्ु श्कि से दो-चार सौ रूपये होंगे, भाईजान! रूपये होते तो क्या
धचन्ता थी। समझ िेता, जैसे पचीस हजार उड गये, वैसे ही तीस हजार भी उड गये। यह ॉँ तो कफन को भी
कौडी नहीीं।
उसी रात को सब
ु ोधचन्द्र ने आत्महत्या कर िी। इतने रूपयों का प्रबन्ध करना उनके लिए कदठन था।
मत्ृ यु के परदे के लसवा उन्हें अपनी वेदना, अपनी वववशता को नछपाने की और कोई आड न थी।

दू सरे ददन प्रात: चपरासी ने मदारीिाि के घर पहुच कर आवाज दीीं मदारी को रात-भर नीींद न आयी थी।
घबरा कर बाहर आय। चपरासी उन्हें दे खते ही बोिा—हुजरू ! बडा गजब हो गया, लसकट्टरी साहब ने रात
को गदम न पर छुरी फेर िी।
मदारीिाि की ऑ ींखे ऊपर चढ़ गयीीं, मह
ु फैि गया ओर सारी दे ह लसहर उठी, मानों उनका हाथ बबजिी
के तार पर पड गया हो।
‘छुरी फेर िी?’
‘जी ह ,ॉँ आज सबेरे मािम
ू हुआ। पलु िसवािे जमा हैं। आपाके बि
ु ाया है ।‘
‘िाश अभी पडी हुई हैं?
‘जी ह ,ॉँ अभी डाक्टरी होने वािी हैं।‘
‘बहुत से िोग जमा हैं?’
‘सब बडे-बड अफसर जमा हैं। हुजरू , िहास की ओर ताकते नहीीं बनता। कैसा भिामानष ु हीरा आदमी
था! सब िोग रो रहे हैं। छोडे-छोटे दो बच्चे हैं, एक सायानी िडकी हे ब्याहने िायक। बहू जी को िोग

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ककतना रोक रहे हैं, पर बार-बार दौड कर िहास के पास आ जाती हैं। कोई ऐसा नहीीं हे , जो रूमाि से ऑ ींखें
न पोछ रहा हो। अभी इतने ही ददन आये हुए, पर सबसे ककतना मेि-जोि हो गया था। रूपये की तो कभी
परवा ही नहीीं थी। ददि दररयाब था!’
मदारीिाि के लसर में चक्कर आने िगा। द्वारा की चौखट पकड कर अपने को सभाि न िेत,े तो
शायद धगर पडते। पछू ा—बहू जी बहुत रो रही थीीं?
‘कुछ न पनू छए, हुजूर। पेड की पवत्तय ॉँ झडी जाती हैं। ऑ ींख फूि गर गूिर हो गयी है।‘
‘ककतने िडके बतिाये तुमने?’
‘हुजूर, दो िडके हैं और एक िडकी।‘
‘नोटों के बारे में भी बातचीत हो रही होगी?’
‘जी ह ,ॉँ सब िोग यही कहते हें कक दफ्तर के ककसी आदमी का काम है। दारोगा जी तो सोहनिाि को
धगरफ्तार करना चाहते थे; पर साइत आपसे सिाइ िेकर करें गे। लसकट्टरी साहब तो लिख गए हैं कक मेरा
ककसी पर शक नहीीं है।‘
‘क्या सेक्रेटरी साहब कोई खत लिख कर छोड गये है ?’
‘ह ,ॉँ मािम
ू होता है, छुरी चिाते बखत याद आयी कक शब
ु हे में दफ्तर के सब िोग पकड लिए
जायेंगे। बस, किक्टर साहब के नाम धचट्ठी लिख दी।‘
‘धचट्ठी में मेरे बारे में भी कुछ लिखा है? तुम्हें यक क्या मािम
ू होगा?’
‘हुजूर, अब मैं क्या जान,ू मद
ु ा इतना सब िोग कहते थे कक आपकी बडी तारीफ लिखी है ।‘
मदारीिाि की स स ॉँ और तेज हो गयी। ऑ ींखें से ऑ ींसू की दो बडी-बडी बदे
ू धगर पडी। ऑ ींखें पोंछतें हुए
बोिे—वे ओर मैं एक साथ के पढ़े थे, नन्द!ू आठ-दस साि साथ रहा। साथ उठते-बैठते, साथ खाते, साथ
खेिते। बस, इसी तरह रहते थे, जैसे दो सगे भाई रहते हों। खत में मेरी क्या तरीफ लिखी है? मगर तुम्हें
क्या मािम
ू होगा?
‘आप तो चि ही रहे है , दे ख िीक्जएगा।‘
‘कफन का इन्ताजाम हो गया है ?’
‘नही हुजूर, काह न कक अभी िहास की डाक्टरी होगी। मद
ु ा अब जल्दी चलिए। ऐसा न हो, कोई दस
ू रा
आदमी बि
ु ाने आता हो।‘
‘हमारे दफ्तर के सब िोग आ गये होंगे?’
‘जी ह ;ॉँ इस मह
ु ल्िेवािे तो सभी थे।
‘मदारीिाि जब सब ु ोधचन्द्र के घर पहुचे, तब उन्हें ऐसा मािम ू हुआ कक सब िोग उनकी तरफ सींदेह
की ऑ ींखें से दे ख रहे हैं। पलु िस इींस्पेक्टर ने तरु न्त उन्हें बि
ु ा कर कहा—आप भी अपना बयान लिखा दें
और सबके बयान तो लिख चकु ा हू।‘
मदारीिाि ने ऐसी सावधानी से अपना बयान लिखाया कक पलु िस के अफसर भी दीं ग रह गये। उन्हें
मदारीिाि पर शब
ु हा होता था, पर इस बयान ने उसका अींकुर भी ननकाि डािा।
इसी वक्त सब ु ोध के दोनों बािक रोते हुए मदारीिाि के पास आये और कहा—चलिए, आपको अम्म ॉँ
ु ाती हैं। दोनों मदारीिाि से पररधचत थे। मदारीिाि यह ॉँ तो रोज ही आते थे; पर घर में कभी नहीीं गये
बि
थे। सब
ु ोध की स्त्री उनसे पदाम करती थी। यह बि
ु ावा सन
ु कर उनका ददि धडक उठा—कही इसका मझ
ु पर
शब
ु हा न हो। कहीीं सब
ु ोध ने मेरे ववषय में कोई सींदेह न प्रकट ककया हो। कुछ खझझकते और कुछ डरते हुए
भीतर गए, तब ववधवा का करुण-वविाप सन ु कर किेजा क पॉँ उठााा। इन्हें दे खते ही उस अबिा के ऑ ींसओ
ु ीं
का कोई दस
ू रा स्रोत खुि गया और िडकी तो दौड कर इनके पैरों से लिपट गई। दोनों िडको ने भी घेर
लिया। मदारीिाि को उन तीनों की ऑ ींखें में ऐसी अथाह वेदना, ऐसी ववदारक याचना भरी हुई मािम
ू हुई कक
वे उनकी ओर दे ख न सके। उनकी आत्मा अन्हें धधक्कारने िगी। क्जन बेचारों को उन पर इतना ववश्वास,
इतना भरोसा, इतनी अत्मीयता, इतना स्नेह था, उन्हीीं की गदमन पर उन्होंने छुरी फेरी! उन्हीीं के हाथों यह
भरा-परू ा पररवार धि
ू में लमि गया! इन असाहायों का अब क्या हाि होगा? िडकी का वववाह करना है ; कौन
करे गा? बच्चों के िािन-पािन का भार कौन उठाएगा? मदारीिाि को इतनी आत्मग्िानन हुई कक उनके मह ु
से तसल्िी का एक शब्द भी न ननकिा। उन्हें ऐसा जान पडा कक मेरे मखु में कालिख पत ु ी है , मेरा कद
कुछ छोटा हो गया है। उन्होंने क्जस वक्त नोट उडये थे, उन्हें गुमान भी न था कक उसका यह फि होगा। वे
केवि सब
ु ोध को क्जच करना चाहते थें उनका सवमनाश करने की इच्छा न थी।

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शोकातरु ववधवा ने लससकते हुए कहा। भैया जी, हम िोगों को वे मझधार में छोड गए। अगर मझु े
मािम
ू होता कक मन में यह बात ठान चक ु े हैं तो अपने पास जो कुछ था; वह सब उनके चरणों पर रख
दे ती। मझ
ु से तो वे यही कहते रहे कक कोई न कोई उपाय हो जायगा। आप ही के माफमत वे कोई महाजन
ठीक करना चाहते थे। आपके ऊपर उन्हें ककतना भरोसा था कक कह नहीीं सकती।
मदारीिाि को ऐसा मािम ू हुआ कक कोई उनके हृदय पर नश्तर चिा रहा है। उन्हें अपने कींठ में कोई
चीज फॅंसी हुई जान पडती थी।
रामेश्वरी ने कफर कहा—रात सोये, तब खूब हस रहे थे। रोज की तरह दध
ू वपया, बच्चो को प्यार
ककया, थोडीदे र हारमोननयम चाया और तब कुल्िा करके िेटे। कोई ऐसी बात न थी क्जससे िेश्मात्र भी सींदेह
होता। मझ
ु े धचक्न्तत दे खकर बोिे—तुम व्यथम घबराती हों बाबू मदारीिाि से मेरी परु ानी दोस्ती है । आखखर
वह ककस ददन काम आयेगी? मेरे साथ के खेिे हुए हैं। इन नगर में उनका सबसे पररचय है। रूपयों का
प्रबन्ध आसानी से हो जायगा। कफर न जाने कब मन में यह बात समायी। मैं नसीबों-जिी ऐसी सोयी कक
रात को लमनकी तक नहीीं। क्या जानती थी कक वे अपनी जान पर खेिे जाऍगेीं ?
मदारीिाि को सारा ववश्व ऑ ींखों में तैरता हुआ मािम
ू हुआ। उन्होंने बहुत जब्त ककया; मगर ऑ ींसओ
ु ीं
के प्रभाव को न रोक सके।
रामेश्वरी ने ऑ ींखे पोंछ कर कफर कहा—मैया जी, जो कुछ होना था, वह तो हो चक
ु ा; िेककन आप उस
दष्ु ट का पता जरूर िगाइए, क्जसने हमारा सवमनाश कर लिदया है । यह दफ्तर ही के ककसी आदमी का काम
है । वे तो दे वता थे। मझ
ु से यही कहते रहे कक मेरा ककसी पर सींदेह नहीीं है, पर है यह ककसी दफ्तरवािे का
ही काम। आप से केवि इतनी ववनती करती हू कक उस पापी को बच कर न जाने दीक्जएगा। पलु िसतािे
शायद कुछ ररश्वत िेकर उसे छोड दें । आपको दे ख कर उनका यह हौसिा न होगा। अब हमारे लसर पर
आपके लसवा कौन है । ककससे अपना द:ु ख कहें ? िाश की यह दग
ु नम त होनी भी लिखी थी।
मदारीिाि के मन में एक बार ऐसा उबाि उठा कक सब कुछ खोि दें । साफ कह दें , मै ही वह दष्ु ट,
वह अधम, वह पामर हू। ववधवा के पेरों पर धगर पडें और कहें , वही छुरी इस हत्यारे की गदम न पर फेर दो।
पर जबान न खुिी; इसी दशा में बैठे-बैठे उनके लसर में ऐसा चक्कर आया कक वे जमीन पर धगर पडे।
5

ती
सरे पहर िाश की परीक्षा समाप्त हुई। अथी जिाशय की ओर चिी। सारा दफ्तर, सारे हुक्काम और
हजारों आदमी साथ थे। दाह-सींस्कार िडको को करना चादहए था पर िडके नाबालिग थे। इसलिए
ववधवा चिने को तैयार हो रही थी कक मदारीिाि ने जाकर कहा—बहू जी, यह सींस्कार मझ ु े करने दो। तम ु
कक्रया पर बैठ जाओींगी, तो बच्चों को कौन सभािेगा। सब
ु ोध मेरे भाई थे। क्जींदगी में उनके साथ कुछ सिक ू
न कर सका, अब क्जींदगी के बाद मझ
ु े दोस्ती का कुछ हक अदा कर िेने दो। आखखर मेरा भी तो उन पर
कुछ हक था। रामेश्वरी ने रोकर कहा—आपको भगवान ने बडा उदार हृदय ददया है भैया जी, नहीीं तो मरने
पर कौन ककसको पछ ॉँ खडे रहते थे झठ
ू ता है । दफ्तर के ओर िोग जो आधी-आधी रात तक हाथ ब धे ू ी बात
पछ
ू ने न आये कक जरा ढाढ़स होता।
मदारीिाि ने दाह-सींस्कार ककया। तेरह ददन तक कक्रया पर बैठे रहे । तेरहवें ददन वपींडदान हुआ;
िहामणों ने भोजन ककया, लभखररयों को अन्न-दान ददया गया, लमत्रों की दावत हुई, और यह सब कुछ
मदारीिाि ने अपने खचम से ककया। रामेश्वरी ने बहुत कहा कक आपने क्जतना ककया उतना ही बहुत है। अब
मै आपको और जेरबार नहीीं करना चाहती। दोस्ती का हक इससे जयादा और कोई क्या अदा करे गा, मगर
मदारीिाि ने एक न सन
ु ी। सारे शहर में उनके यश की धम
ू मच गयीीं, लमत्र हो तो ऐसा हो।
सोिहवें ददन ववधवा ने मदारीिाि से कहा—भैया जी, आपने हमारे साथ जो उपकार और अनग्र
ु ह ककये
हें , उनसे हम मरते दम तक उऋण नहीीं हो सकते। आपने हमारी पीठ पर हाथ न रखा होता, तो न-जाने
हमारी क्या गनत होती। कहीीं रूख की भी छ हॉँ तो नहीीं थी। अब हमें घर जाने दीक्जए। वह ॉँ दे हात में खचम
भी कम होगा और कुछ खेती बारी का लसिलसिा भी कर िगी।
ू ककसी न ककसी तरह ववपवत्त के ददन कट ही
जायगे। इसी तरह हमारे ऊपर दया रखखएगा।
मदारीिाि ने पछ
ू ा—घर पर ककतनी जायदाद है ?
रामेश्वरी—जायदाद क्या है , एक कच्चा मकान है और दर-बारह बीघे की काश्तकारी है । पक्का मकान
बनवाना शरू
ु ककया था; मगर रूपये परू े न पडे। अभी अधरू ा पडा हुआ है । दस-बारह हजार खचम हो गये और
अभी छत पडने की नौबत नहीीं आयी।
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मदारीिाि—कुछ रूपये बैंक में जमा हें , या बस खेती ही का सहारा है ?
ववधवा—जमा तो एक पाई भी नहीीं हैं, भैया जी! उनके हाथ में रूपये रहने ही नहीीं पाते थे। बस, वही
खेती का सहारा है।
मदारी0—तो उन खेतों में इतनी पैदावार हो जायगी कक िगान भी अदा हो जाय ओर तुम िोगो की
गुजर-बसर भी हो?
रामेश्वरी—और कर ही क्या सकते हैं, भेया जी! ककसी न ककसी तरह क्जींदगी तो काटश्नी ही है । बच्चे
न होते तो मै जहर खा िेती।
मदारी0—और अभी बेटी का वववाह भी तो करना है।
ववधवा—उसके वववाह की अब कोइर धचींता नहीीं। ककसानों में ऐसे बहुत से लमि जायेंगे, जो बबना कुछ
लिये-ददये वववाह कर िेंगे।
मदारीिाि ने एक क्षण सोचकर कहा—अगर में कुछ सिाह द,ू तो उसे मानेंगी आप?
रामेश्वरी—भैया जी, आपकी सिाह न मानगी
ू तो ककसकी सिाह मानगी
ू और दस
ू रा है ही कौन?
मदारी0—तो आप उपने घर जाने के बदिे मेरे घर चलिए। जैसे मेरे बाि-बच्चे रहें गें, वैसे ही आप के
भी रहें गे। आपको कष्ट न होगा। ईश्वर ने चाहा तो कन्या का वववाह भी ककसी अच्छे कुि में हो जायगा।
ववधवा की ऑ ींखे सजि हो गयीीं। बोिी—मगर भैया जी, सोधचए.....मदारीिाि ने बात काट कर कहा—मैं कुछ
न सोचगा
ू और न कोई उज्र सन
ु गा।
ु क्या दो भाइयों के पररवार एक साथ नहीीं रहते? सब
ु ोध को मै अपना
भाई समझता था और हमेशा समझगा।

ववधवा का कोई उज्र न सन
ु ा गया। मदारीिाि सबको अपने साथ िे गये और आज दस साि से
उनका पािन कर रहे है । दोनों बच्चे कािेज में पढ़ते है और कन्या का एक प्रनतक्ष्ठत कुि में वववाह हो
गया हे । मदारीिाि और उनकी स्त्री तन-मन से रामेश्वरी की सेवा करते हैं और उनके इशारों पर चिते हैं।
मदारीिाि सेवा से अपने पाप का प्रायक्श्चत कर रहे हैं।

कप्तान िाहब

ज गत लसींह को स्कूि जान कुनैन खाने या मछिी का तेि पीने से कम अवप्रय न था। वह सैिानी,
आवारा, घम
ु क्कड यव
ु क थाीं कभी अमरूद के बागों की ओर ननकि जाता और अमरूदों के साथ मािी
की गालिय ॉँ बडे शौक से खाता। कभी दररया की सैर करता और मल्िाहों को डोंधगयों में बैठकर उस पार के
दे हातों में ननकि जाता। गालिय ॉँ खाने में उसे मजा आता था। गालिय ॉँ खाने का कोइर अवसर वह हाथ से न
जाने दे ता। सवार के घोडे के पीछे तािी बजाना, एक्को को पीछे से पकड कर अपनी ओर खीींचना, बढ
ू ों की
चाि की नकि करना, उसके मनोरीं जन के ववषय थे। आिसी काम तो नहीीं करता; पर दव्ु यमसनों का दास
होता है, और दव्ु यमसन धन के बबना परू े नहीीं होते। जगतलसींह को जब अवसर लमिता घर से रूपये उडा िे
जात। नकद न लमिे, तो बरतन और कपडे उठा िे जाने में भी उसे सींकोच न होता था। घर में शीलशय ॉँ और
बोतिें थीीं, वह सब उसने एक-एक करके गद
ु डी बाजार पहुचा दी। परु ाने ददनों की ककतनी चीजें घर में पडी
थीीं, उसके मारे एक भी न बची। इस किा में ऐसा दक्ष ओर ननपण ु था कक उसकी चतुराई और पटुता पर
आश्चयम होता था। एक बार बाहर ही बाहर, केवि काननमसों के सहारे अपने दो-मींक्जिा मकान की छत पर चढ़
गया और ऊपर ही से पीति की एक बडी थािी िेकर उतर आया। घर वािें को आहट तक न लमिी।
उसके वपता ठाकुर भक्तस लसहीं अपने कस्बे के डाकखाने के मींश ु ी थे। अफसरों ने उन्हें शहर का
ू करने पर ददया था; ककन्तु भक्तलसींह क्जन इरादों से यह ॉँ आये थे, उनमें से एक भी
डाकखाना बडी दौड-धप
ु त लमि जाते थे, वे सब यह ॉँ
परू ा न हुआ। उिटी हानन यह हुई कक दे हातो में जो भाजी-साग, उपिे-ईधन मफ्
बींद हो गये। यह ॉँ सबसे परु ाना घराव थाीं न ककसी को दबा सकते थे, न सता सकते थे। इस दरु वस्था में
जगतलसींह की हथिपककय ॉँ बहुत अखरतीीं। अन्होंने ककतनी ही बार उसे बडी ननदमयता से पीटा। जगतलसींह
भीमकाय होने पर भी चप
ु के में मार खा लिया करता थाीं अगर वह अपने वपता के हाथ पकड िेता, तो वह
हि भी न सकते; पर जगतलसींह इतना सीनाजोर न था। ह ,ॉँ मार-पीट, घड
ु की-धमकी ककसी का भी उस पर
असर न होता था।
ॉँ
जगतलसींह जयों ही घर में कदम रखता; चारों ओर से क व-क वॉँ मच जाती, म ॉँ दरु -दरु करके दौडती,
बहने गालिय ॉँ दे न िगती; मानो घर में कोई स डॉँ घस
ु आया हो। घर तािे उसकी सरू त से जिते थे। इन
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नतरस्कारों ने उसे ननिमजज बना ददया थाीं कष्टों के ज्ञान से वह ननद्मवन्द्व-सा हो गया था। जह ॉँ नीींद आ
जाती, वहीीं पड रहता; जो कुछ लमि जात, वही खा िेता।
जयों-जयों घर वािें को उसकी चोर-किा के गप्ु त साधनों का ज्ञान होता जाता था, वे उससे चौकन्ने
होते जाते थे। यह ॉँ तक कक एक बार परू े महीने-भर तक उसकी दाि न गिी। चरस वािे के कई रूपये ऊपर
ॉँ वािे ने धऑ
चढ़ गये। ग जे ु ींधार तकाजे करने शरू
ु ककय। हिवाई कडवी बातें सन
ु ाने िगा। बेचारे जगत को
ॉँ में रहता; पर घात न लमित थी। आखखर एक ददन बबल्िी
ननकिना मक्ु श्कि हो गया। रात-ददन ताक-झ क
के भागों छीींका टूटा। भक्तलसींह दोपहर को डाकखानें से चिे, जो एक बीमा-रक्जस्री जेब में डाि िी। कौन
जाने कोई हरकारा या डाककया शरारत कर जाय; ककींतु घर आये तो लिफाफे को अचकन की जेब से ननकािने
की सधु ध न रही। जगतलसींह तो ताक िगाये हुए था ही। पेसे के िोभ से जेब टटोिी, तो लिफाफा लमि गया।
उस पर कई आने के दटकट िगे थे। वह कई बार दटकट चरु ा कर आधे दामों पर बेच चक ु ा था। चट
लिफाफा उडा ददया। यदद उसे मािम
ू होता कक उसमें नोट हें , तो कदाधचत वह न छूता; िेककन जब उसने
लिफाफा फाड डािा और उसमें से नोट ननक पडे तो वह बडे सींकट में पड गया। वह फटा हुआ लिफाफा
गिा-फाड कर उसके दष्ु कृत्य को धधक्कारने िगा। उसकी दशा उस लशकारी की-सी हो गयी, जो धचडडयों का
लशकार करने जाय और अनजान में ककसी आदमी पर ननशाना मार दे । उसके मन में पश्चाताप था, िजजा
थी, द:ु ख था, पर उसे भि
ू का दीं ड सहने की शक्क्त न थी। उसने नोट लिफाफे में रख ददये और बाहर चिा
गया।
गरमी के ददन थे। दोपहर को सारा घर सो रहा था; पर जगत की ऑ ींखें में नीींद न थी। आज उसकी
ॉँ ददन के लिए उसे कहीीं
बरु ी तरह कींु दी होगी— इसमें सींदेह न था। उसका घर पर रहना ठीक नहीीं, दस-प च
खखसक जाना चादहए। तब तक िोगों का क्रोध शाींत हो जाता। िेककन कहीीं दरू गये बबना काम न चिेगा।
बस्ती में वह क्रोध ददन तक अज्ञातवास नहीीं कर सकता। कोई न कोई जरूर ही उसका पता दे गा ओर वह
पकड लिया जायगा। दरू जाने केक लिए कुछ न कुछ खचम तो पास होना ही चदहए। क्यों न वह लिफाफे में
से एक नोट ननकाि िे? यह तो मािम
ू ही हो जायगा कक उसी ने लिफाफा फाडा है, कफर एक नोट ननकि
िेने में क्या हानन है? दादा के पास रूपये तो हे ही, झक मार कर दे दें गे। यह सोचकर उसने दस रूपये का
एक नोट उडा लिया; मगर उसी वक्त उसके मन में एक नयी कल्पना का प्रादभ ु ामव हुआ। अगर ये सब रूपये
िेकर ककसी दस
ू रे शहर में कोई दक
ू ान खोि िे, तो बडा मजा हो। कफर एक-एक पैसे के लिए उसे क्यों ककसी
की चोरी करनी पडे! कुछ ददनों में वह बहुत-सा रूपया जमा करके घर आयेगा; तो िोग ककतने चककत हो
जायेंगे!
उसने लिफाफे को कफर ननकािा। उसमें कुि दो सौ रूपए के नोट थे। दो सौ में दध
ू की दक
ू ान खब

चि सकती है । आखखर मरु ारी की दक
ू ान में दो-चार कढ़ाव और दो-चार पीति के थािों के लसवा और क्या
है ? िेककन ककतने ठाट से रहता हे ! रूपयों की चरस उडा दे ता हे । एक-एक द वॉँ पर दस-दस रूपए रख दतेा है ,
नफा न होता, तो वह ठाट कह ॉँ से ननभाता? इस आननद-कल्पना में वह इतना मग्न हुआ कक उसका मन
उसके काबू से बाहर हो गया, जैसे प्रवाह में ककसी के प वॉँ उखड जायें ओर वह िहरों में बह जाय।
उसी ददन शाम को वह बम्बई चि ददया। दस
ू रे ही ददन मींश
ु ी भक्तलसींह पर गबन का मक
ु दमा दायर
हो गया।

ब म्बई के ककिे के मैदान में बैंड बज रहा था और राजपत


ू रे क्जमें ट के सजीिे सींद
ु र जवान कवायद कर
ॉँ सेना नायक
रहे थे, क्जस प्रकार हवा बादिों को नए-नए रूप में बनाती और बबगाडती है, उसी भ नत
ॉँ सेना नायक सैननकों को नए-नए रूप में बना
सैननकों को नए-नए रूप में बनाती और बबगाडती है, उसी भ नत
बबगाड रहा था।
जब कवायद खतम हो गयी, तो एक छरहरे डीि का यव
ु क नायक के सामने आकर खडा हो गया।
नायक ने पछ
ू ा—क्या नाम है ? सैननक ने फौजी सिाम करके कहा—जगतलसींह?
‘क्या चाहते हो।‘
‘फौज में भरती कर िीक्जए।‘
‘मरने से तो नहीीं डरते?’
‘बबिकुि नहीीं—राजपत
ू हू।‘

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‘बहुत कडी मेहनत करनी पडेगी।‘
‘इसका भी डर नहीीं।‘
‘अदन जाना पडेगा।‘
‘खुशी से जाऊगा।‘
कप्तान ने दे खा, बिा का हाक्जर-जवाब, मनचिा, दहम्मत का धनी जवान है , तुरींत फौज में भरती कर
लिया। तीसरे ददन रे क्जमें ट अदन को रवाना हुआ। मगर जयों-जयों जहाज आगे चिता था, जगत का ददि
पीछे रह जाता था। जब तक जमीन का ककनारा नजर आता रहा, वह जहाज के डेक पर खडा अनरु क्त नेत्रों
ॉँ िी और मह
से उसे दे खता रहा। जब वह भलू म-तट जि में वविीन हो गया तो उसने एक ठीं डी स स ु ढ पॉँ कर
ॉँ की दक
रोने िगा। आज जीवन में पहिी बर उसे वप्रयजानों की याद आयी। वह छोटा-सा कस्बा, वह ग जे ू ान,
वह सैर-सपाटे , वह सह
ु ू द-लमत्रों के जमघट ऑ ींखों में कफरने िगे। कौन जाने, कफर कभी उनसे भें ट होगी या
नहीीं। एक बार वह इतना बेचन
ै हुआ कक जी में आय, पानी में कूद पडे।

ज गतलसींह को अदन में रहते तीन महीने गज ॉँ


ु र गए। भ नत-भ ॉँ की नवीनताओीं ने कई ददन तक उसे
नत
मग्ु ध ककये रखा; िेककनह परु ाने सींस्कार कफर जाग्रत होने िगे। अब कभी-कभी उसे स्नेहमयी माता
की याद आने िगी, जो वपता के क्रोध, बहनों के धधक्कार और स्वजनों के नतरस्कार में भी उसकी रक्षा करती
थी। उसे वह ददन याद आया, जब एक बार वह बीमार पडा था। उसके बचने की कोई आशा न थी, पर न तो
वपता को उसकी कुछ धचन्ता थी, न बहनों को। केवि माता थी, जो रात की रात उसके लसरहाने बैठी अपनी
मधरु , स्नेहमयी बातों से उसकी पीडा शाींत करती रही थी। उन ददनों ककतनी बार उसने उस दे वी को नीव
राबत्र में रोते दे खा था। वह स्वयीं रोगों से जीझम हो रही थी; िेककन उसकी सेवा-शश्र
ु ष ू ा में वह अपनी व्यथा को
ऐसी भि
ू गयी थी, मानो उसे कोई कष्ट ही नहीीं। क्या उसे माता के दशमन कफर होंगे? वह इसी क्षोभ ओर
नेराश्य में समद्र
ु -तट पर चिा जाता और घण्टों अनींत जि-प्रवाह को दे खा करता। कई ददनों से उसे घर पर
एक पत्र भेजने की इच्छा हो रही थी, ककींतु िजजा और ग्िाननक कके कारण वह टािता जाता था। आखखर
ॉँ
एक ददन उससे न रहा गया। उसने पत्र लिखा और अपने अपराधों के लिए क्षमा म ग। पत्र आदद से अन्त
तक भक्क्त से भरा हुआ थाीं अींत में उसने इन शब्दों में अपनी माता को आश्वासन ददया था—माता जी, मैने
बडे-बडे उत्पात ककय हें , आप िेग मझु से तींग आ गयी थी, मै उन सारी भिू ों के लिए सच्चे हृदय से िक्जजत
हू और आपको ववश्वास ददिाता हू कक जीता रहा, तो कुछ न कुछ करके ददखाऊगा। तब कदाधचत आपको
मझु े अपना पत्र
ु कहने में सींकोच न होगा। मझ
ु े आशीवाद दीक्जए कक अपनी प्रनतज्ञा का पािन कर सकू।‘
यह पत्र लिखकर उसने डाकखाने में छोडा और उसी ददन से उत्तर की प्रतीक्षा करने िगा; ककींतु एक
महीना गज
ु र गया और कोई जवाब न आया। आसका जी घबडाने िगा। जवाब क्यों नहीीं आता—कहीीं माता
जी बीमार तो नहीीं हैं? शायद दादा ने क्रोध-वश जवाब न लिखा होगा? कोई और ववपवत्त तो नहीीं आ पडी?
कैम्प में एक वक्ष
ृ के नीचे कुछ लसपादहयों ने शालिग्राम की एक मनू तम रख छोडी थी। कुछ श्रद्धािू सैननक
रोज उस प्रनतमा पर जि चढ़ाया करते थे। जगतलसींह उनकी हसी उडाया करता; पर आप वह ववक्षक्षप्तों की
ॉँ प्रनतमा के सम्मख
भ नत ु जाकर बडी दे र तक मस्तक झक
ु ाये बेठा रहा। वह इसी ध्यानावस्था में बैठा था कक
ककसी ने उसका नाम िेकर पक
ु ार, यह दफ्तर का चपरासी था और उसके नाम की धचट्ठी िेकर आया थाीं
जगतलसींह ने पत्र हाथ में लिया, तो उसकी सारी दे ह क पॉँ उठी। ईश्वर की स्तनु त करके उसने लिफाफा खोिा
ओर पत्र पढ़ा। लिखा था—‘तम् ॉँ वषम की सजा हो गई। तम्
ु हारे दादा को गबन के अलभयोग में प च ु हारी माता
इस शोक में मरणासन्न है । छुट्टी लमिे, तो घर चिे आओ।‘
जगतलसींह ने उसी वक्त कप्तान के पास जाकर कह —‘हुजरू , मेरी म ॉँ बीमार है, मझ
ु े छुट्टी दे
दीक्जए।‘
कप्तान ने कठोर ऑ ींखों से दे खकर कहा—अभी छुट्टी नहीीं लमि सकती।
‘तो मेरा इस्तीफा िे िीक्जए।‘
‘अभी इस्तीफा नहीीं लिया जा सकता।‘
‘मै अब एक क्षण भी नहीीं रह सकता।‘
‘रहना पडेगा। तम
ु िोगों को बहुत जल्द िाभ पर जाना पडेगा।‘
‘िडाई नछड गयी! आह, तब मैं घर नहीीं जाऊगा? हम िोग कब तक यह ॉँ से जायेंगे?’

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‘बहुत जल्द, दो ही चार ददनों में ।‘

चा र वषम बीत गए। कैप्टन जगतलसींह का-सा योद्धा उस रे जीमें ट में नहीीं हैं। कदठन अवस्थाओीं में
उसका साहस और भी उत्तेक्जत हो जाता है । क्जस मदहम में सबकी दहम्मते जवाब दे जाती है , उसे
सर करना उसी का काम है । हल्िे और धावे में वह सदै व सबसे आगे रहता है, उसकी त्योररयों पर कभी मैि
नहीीं आता; उसके साथ ही वह इतना ववनम्र, इतना गींभीर, इतना प्रसन्नधचत है कक सारे अफसर ओर मातहत
उसकी बडाई करते हैं, उसका पन
ु जीतन-सा हो गया। उस पर अफसरों को इतना ववश्वास है कक अब वे प्रत्येक
ववषय में उससे परामशम करते हें । क्जससे पनू छए, वही वीर जगतलसींह की ववरूदाविी सन
ु ा दे गा—कैसे उसने
जममनों की मेगजीन में आग िगायी, कैसे अपने कप्तान को मशीनगनों की मार से ननकािा, कैसे अपने एक
मातहत लसपाही को कींधे पर िेकर ननि आया। ऐसा जान पडता है , उसे अपने प्राणों का मोह नही, मानो वह
काि को खोजता कफरता हो!
िेककन ननत्य राबत्र के समय, जब जगतलसींह को अवकाश लमिता है, वह अपनी छोिदारी में अकेिे
बैठकर घरवािों की याद कर लिया करता है —दो-चार ऑ ींसू की बदे अवश्य धगरा दे ता हे । वह प्रनतमास अपने
वेतन का बडा भाग घर भेज दे ता है , और ऐसा कोई सप्ताह नहीीं जाता जब कक वह माता को पत्र न लिखता
हो। सबसे बडी धचींता उसे अपने वपता की है , जो आज उसी के दष्ु कमो के कारण कारावास की यातना झेि
रहे हैं। हाय! वह कौन ददन होगा, जब कक वह उनके चरणों पर लसर रखकर अपना अपराध क्षमा करायेगा,
और वह उसके लसर पर हाथ रखकर आशीवाद दें गे?

स वा चार वषम बीत गए। सींध्या का समय है । नैनी जेि के द्वार पर भीड िगी हुई है । ककतने ही
कैददयों की लमयाद परू ी हो गयी है। उन्हें लिवा जाने के लिए उनके घरवािे आये हुए है ; ककन्तु बढ़
भक्तलसींह अपनी अधेरी कोठरी में लसर झक ु ाये उदास बैठा हुआ है । उसकी कमर झकु कर कमान हो गयी है।
ू ा

दे ह अक्स्थ-पींजर-मात्र रह गयी हे । ऐसा जान पडता हें , ककसी चतुर लशल्पी ने एक अकाि-पीडडत मनष्ु य की
मनू तम बनाकर रख दी है । उसकी भी मीयाद परू ी हो गयी है; िेककन उसके घर से कोई नहीीं आया। आये कौन?
आने वाि था ही कौन?
एक बढ़
ू ककन्तु हृष्ट-पष्ु ट कैदी ने आकर उसक कींधा दहिाया और बोिा—कहो भगत, कोई घर से
आया?
भक्तलसींह ने कींवपत कींठ-स्वर से कहा—घर पर है ही कौन?
‘घर तो चिोगे ही?’
‘मेरे घर कह ॉँ है?’
‘तो क्या यही पडे रहोंगे?’
‘अगर ये िोग ननकाि न दें गे, तो यहीीं पडा रहूगा।‘
आज चार साि के बाद भगतलसींह को अपने प्रताडडत, ननवामलसत पत्र
ु की याद आ रही थी। क्जसके
कारण जीतन का सवमनाश हो गया; आबरू लमट गयी; घर बरबाद हो गया, उसकी स्मनृ त भी असहय थी; ककन्तु
आज नैराश्य ओर द:ु ख के अथाह सागर में डूबते हुए उन्होंने उसी नतनके का सहार लियाीं न-जाने उस बेचारे
की क्या दख्शा हुई। िाख बरु ा है, तो भी अपना िडका हे । खानदान की ननशानी तो हे । मरूगा तो चार ऑ ींसू
तो बहायेगा; दो धचल्िू पानी तो दे गा। हाय! मैने उसके साथ कभी प्रेम का व्यवहार नहीीं ककयाीं जरा भी
शरारत करता, तो यमदत ॉँ उसकी गदम न पर सवार हो जाता। एक बार रसोई में बबना पैर धोये चिे
ू की भ नत
जाने के दीं ड में मेने उसे उिटा िटका ददया था। ककतनी बार केवि जोर से बोिने पर मैंने उस वमाचे
ु -सा रत्न पाकर मैंने उसका आदर न ककयाीं उसी का दीं ड है । जह ॉँ प्रेम का बन्धन लशधथि हो,
िगाये थे। पत्र
वह ॉँ पररवार की रक्षा कैसे हो सकती है?

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6

स बेरा हुआ। आशा की सय


सख
ू म ननकिा। आज उसकी रक्श्मय ॉँ ककतनी कोमि और मधरु थीीं, वायु ककतनी
ु द, आकाश ककतना मनोहर, वक्ष
ृ ककतने हरे -भरे , पक्षक्षयों का किरव ककतना मीठा! सारी प्रकृनत आश
के रीं ग में रीं गी हुई थी; पर भक्तलसींह के लिए चारों ओर धरे अींधकार था।
जेि का अफसर आया। कैदी एक पींक्क्त में खडे हुए। अफसर एक-एक का नाम िेकर ररहाई का
परवाना दे ने िगा। कैददयों के चेहरे आशा से प्रफुलित थे। क्जसका नाम आता, वह खुश-खुश अफसर के पास
जात, परवाना िेता, झक
ु कर सिाम करता और तब अपने ववपवत्तकाि के सींधगयों से गिे लमिकर बाहर
ु ा रहा था, कहीीं लमठाइय ॉँ ब टी
ननकि जाता। उसके घरवािे दौडकर उससे लिपट जाते। कोई पैसे िट ॉँ जा रही
थीीं, कहीीं जेि के कममचाररयों को इनाम ददया जा रहा था। आज नरक के पत
ु िे ववनम्रता के दे वता बने हुए
थे।
अन्त में भक्तलसींह का नाम आया। वह लसर झक
ु ाये आदहस्ता-आदहस्ता जेिर के पास गये और
उदासीन भाव से परवाना िेकर जेि के द्वार की ओर चिे, मानो सामने कोई समद्र
ु िहरें मार रहा है। द्वार
से बाहर ननकि कर वह जमीन पर बैठ गये। कह ॉँ जाय?
सहसा उन्होंने एक सैननक अफसर को घोडे पर सवार, जेि की ओर आते दे खा। उसकी दे ह पर खाकी
वरदी थी, लसर पर कारचोबी साफा। अजीब शान से घोडे पर बैठा हुआ था। उसके पीछे -पीछे एक कफटन आ
रही थी। जेि के लसपादहयों ने अफसर को दे खते ही बन्दक
ू ें सभािी और िाइन में खडे हाकर सिाम ककया।
भक्तसलसींह ने मन में कहा—एक भाग्यवान वह है , क्जसके लिए कफटन आ रही है ; ओर एक अभागा मै
हू, क्जसका कहीीं दठकाना नहीीं।
फौजी अफसर ने इधर-उधर दे खा और घोडे से उतर कर सीधे भक्तलसींह के सामने आकर खडा हो
गया।
भक्तलसींह ने उसे ध्यान से दे खा और तब चौंककर उठ खडे हुए और बोिे—अरे ! बेटा जगतलसींह!
जगतलसींह रोता हुआ उनके पैरों पर धगर पडा।

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इस्तीर्ा

द फ्तर का बाबू एक बेजबान जीव है । मजदरू ों को ऑ ींखें ददखाओ, तो वह त्योररय ॉँ बदि कर खडा हो
जायकाह। कुिी को एक डाट बताओीं, तो लसर से बोझ फेंक कर अपनी राह िेगा। ककसी लभखारी को
दत्ु कारों, तो वह तम् ु से की ननगहा से दे ख कर चिा जायेगा। यह ॉँ तक कक गधा भी कभी-कभी
ु हारी ओर गस्
तकिीफ पाकर दो िवत्तय ॉँ झडने िगता हे ; मगर बेचारे दफ्तर के बाबू को आप चाहे ऑ ींखे ददखायें, ड टॉँ
बतायें, दत्ु कारें या ठोकरें मारों, उसक ाेमाथे पर बि न आयेगा। उसे अपने ववकारों पर जो अधधपत्य होता हे ,
वह शायद ककसी सींयमी साधु में भी न हो। सींतोष का पत
ु िा, सि की मनू तम, सच्चा आज्ञाकारी, गरज उसमें
तमाम मानवी अच्छाइया मौजूद होती हें । खींडहर के भी एक ददन भग्य जाते हे दीवािी के ददन उस पर भी
रोशनी होती है, बरसात में उस पर हररयािी छाती हे , प्रकृनत की ददिचक्स्पयों में उसका भी दहस्सा है। मगर
इस गरीब बाबू के नसीब कभी नहीीं जागते। इसकी अधेरी तकदीर में रोशनी का जिावा कभी नहीीं ददखाई
दे ता। इसके पीिे चेहरे पर कभी मस्
ु कराहट की रोश्नी नजर नहीीं आती। इसके लिए सख
ू ा सावन हे , कभी हरा
भादों नहीीं। िािा फतहचींद ऐसे ही एक बेजबान जीव थे।
कहते हें , मनष्ु य पर उसके नाम का भी असर पडता है। फतहचींद की दशा में यह बात यथाथम लसद्ध
न हो सकी। यदद उन्हें ‘हारचींद’ कहा जाय तो कदाधचत यह अत्यक्ु क्त न होगी। दफ्तर में हार, क्जींदगी में
हार, लमत्रों में हार, जीतन में उनके लिए चारों ओर ननराशाऍ ीं ही थीीं। िडका एक भी नहीीं, िडककय ॉँ ती; भाई
एक भी नहीीं, भौजाइय ॉँ दो, ग ठ
ॉँ में कौडी नहीीं, मगर ददि में आया ओर मरु व्वत, सच्चा लमत्र एक भी नहीीं—
क्जससे लमत्रता हुई, उसने धोखा ददया, इस पर तींदरु स्ती भी अच्छी नहीीं—बत्तीस साि की अवस्था में बाि
खखचडी हो गये थे। ऑ ींखों में जयोंनत नहीीं, हाजमा चौपट, चेहरा पीिा, गाि धचपके, कमर झक
ु ी हुई, न ददि में
दहम्मत, न किेजे में ताकत। नौ बजे दफ्तर जाते और छ: बजे शाम को िौट कर घर आते। कफर घर से
बाहर ननकिने की दहम्मत न पडती। दनु नया में क्या होता है ; इसकी उन्हें बबिकुि खबर न थी। उनकी
दनु नया िोक-परिोक जो कुछ था, दफ्तर था। नौकरी की खैर मनाते और क्जींदगी के ददन परू े करते थे। न
धमम से वास्ता था, न दीन से नाता। न कोई मनोरीं जन था, न खेि। ताश खेिे हुए भी शायद एक मद्
ु दत
गुजर गयी थी।

जा जि गये थे। दफ्तर से आकर वह ककसी से कुछ न बोिते; चप


ॉँ बजे दफ्तर से िौटै तो धचराग
डो के ददन थे। आकाश पर कुछ-कुछ बादि थे। फतहचींद साढ़े प च
ु के से चारपाई पर िेट जाते और
पींद्रह-बीस लमनट तक बबना दहिे-डुिे पडे रहते तब कहीीं जाकर उनके मह
ु से आवाज ननकिती। आज भी
प्रनतददन की तरह वे चप
ु चाप पडे थे कक एक ही लमनट में बाहर से ककसी ने पक
ु ारा। छोटी िडकी ने जाकर
पछ
ू ा तो मािमू हुआ कक दफ्तर का चपरासी है । शारदा पनत के मह-हाथ
ु ॉँ
धाने के लिए िोटा-धगिास म ज
रही थी। बोिी—उससे कह दे , क्या काम है । अभी तो दफ्तर से आये ही हैं, और बिु ावा आ गया है?
चपरासी ने कहा है , अभी कफर बि
ु ा िाओ। कोई बडा जरूरी काम है ।
फतहचींद की खामोशी टूट गयी। उन्होंने लसर उठा कर पछ
ू ा—क्या बात है?
शारदा—कोई नहीीं दफ्तर का चपरासी है।
फतहचींद ने सहम कर कहा—दफ्तर का चपरासी! क्या साहब ने बि
ु ाया है?
शारदा—ह ,ॉँ कहता हे , साहब बि
ु ा रहे है। यह ॉँ कैसा साहब हे तुम्हारार जब दे खा, बि
ु ाया करता है? सबेरे
के गए-गए अभी मकान िौटे हो, कफर भी बि
ु ाया आ गया!
फतहचींद न सभि कर कहा—जरा सन
ु ि,ू ककसलिए बि
ु ाया है। मैंने सब काम खतम कर ददया था,
अभी आता हू।
शारदा—जरा जिपान तो करते जाओ, चपरासी से बातें करने िगोगे, तो तम्
ु हें अन्दर आने की याद भी
न रहें गी।

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यह कह कर वह एक प्यािी में थोडी-सी दािमोट ओर सेव िायी। फतहचींद उठ कर खडे हो गये,
ककन्तु खाने की चीजें दे ख करह चारपाई पर बैठ गये और प्यािी की ओर चाव से दे ख कर चारपाई पर बैठ
गये ओर प्यािी की ओर चाव से दे ख कर डरते हुए बोिे—िडककयों को दे ददया है न?
ॉँ ;ॉँ दे ददया है , तम
शारदा ने ऑ ींखे चढ़ाकर कहा—ह -ह ु तो खाओ।
इतने में छोटी में चपरासी ने कफर पक
ु ार—बाबू जी, हमें बडी दे र हो रही हैं।
शारदा—कह क्यों नहीीं दते कक इस वक्त न आयेंगें
फतहचन्द ने जल्दी-जल्दी दािमोट की दो-तीन फींककय ॉँ िगायी, एक धगिास पानी वपया ओर बाहर की
तरफ दौडे। शारदा पान बनाती ही रह गयी।
चपरासी ने कहा—बाबू जी! आपने बडी दे र कर दी। अब जरा िपक ाेचलिए, नहीीं तो जाते ही ड टॉँ
बतायेगा।
फतहचन्द ने दो कदम दौड कर कहा—चिेंगे तो भाई आदमी ही की तरह चाहे ड टॉँ िगायें या द त
ॉँ
ददखायें। हमसे दौडा नहीीं जाता। बगिे ही पर है न?
चपरासी—भिा, वह दफ्तर क्यों आने िगा। बादशाह हे कक ददल्िगी?
ॉँ
चपरासी तेज चिने का आदी था। बेचारे बाबू फतहचन्द धीरे -धीरे जाते थे। थोडी ही दरू चि कर ह फ
उठे । मगर मदम तो थे ही, यह कैसे कहते कक भाई जरा और धीरे चिो। दहम्मत करके कदम उठातें जाते थें
यह ॉँ तक कक ज घो
ॉँ में ददम होने िगा और आधा रास्ता खतम होते-होते पैरों ने उठने से इनकार कर ददया।
सारा
शरीर पसीने से तर हो गया। लसर में चक्कर आ गया। ऑ ींखों के सामने नततलिय ॉँ उडने िगीीं।
चपरासी ने ििकारा—जरा कदम बढ़ाय चिो, बाब!ू
फतहचन्द बडी मक्ु श्कि से बोिे—तुम जाओ, मैं आता हू।
वे सडक के ककनारे पटरी पर बैठ गये ओर लसर को दोनों हाथों से थाम कर दम मारने िगें चपरासी
ने इनकी यह दशा दे खी, तो आगे बढ़ा। फतहचन्द डरे कक यह शैतान जाकर न-जाने साहब से क्या कह दे , तो
ॉँ रहा था। इस
गजब ही हो जायगा। जमीन पर हाथ टे क कर उठे ओर कफर चिें मगर कमजोरी से शरीर ह फ
समय कोइर बच्चा भी उन्हें जमीन पर धगरा सकता थाीं बेचारे ककसी तरह धगरते-पडते साहब बगिें पर पहुचे।
साहब बगिे पर टहि रहे थे। बार-बार फाटक की तरफ दे खते थे और ककसी को अतो न दे ख कर मन में
झल्िाते थे।
चपरासी को दे खते ही ऑ ींखें ननकाि कर बोि—इतनी दे र कह ॉँ था?
चपरासी ने बरामदे की सीढ़ी पर खडे-खडे कहा—हुजरू ! जब वह आयें तब तो; मै दौडा चिा आ रहा हू।
साहब ने पेर पटक कर कहा—बाबू क्या बोिा?
चपरासी—आ रहे हे हुजूर, घींटा-भर में तो घर में से ननकिे।
ु हचन्द अहाते के तार के उीं दर से ननकि कर वह ॉँ आ पहुचे और साहब को लसर झक
इतने में पत ु कर
सिाम ककया।
साहब ने कडकर कहा—अब तक कह ॉँ था?
फतहचनद ने साहब का तमतमाया चेहरा दे खा, तो उनका खन
ू सख
ू गया। बोिे—हुजरू , अभी-अभी तो
दफ्तर से गया हू, जयों ही चपरासी ने आवाज दी, हाक्जर हुआ।
साहब—झठ ू बोिता है, झठ ू बोिता हे , हम घींटे-भर से खडा है ।
फतहचन्द—हुजूर, मे झठ
ू नहीीं बोिता। आने में क्जतनी दे र हो गयी होस, मगर घर से चिेन में मझ
ु े
बबल्कुि दे र नहीीं हुई।
साहब ने हाथ की छडी घम
ु ाकर कहा—चप
ु रह सअ
ू र, हम घण्टा-भर से खडा हे , अपना कान पकडो!
फतहचन्द ने खून की घट पीकर कहा—हुजूर मझु े दस साि काम करते हो गए, कभी.....।
साहब—चपु रह सअू र, हम कहता है कक अपना कान पकडो!
फतहचन्द—जब मैंने कोई कुसरू ककया हो?
साहब—चपरासी! इस सअ
ू र का कान पकडो।
चपरासी ने दबी जबान से कहा—हुजरू , यह भी मेरे अफसर है , मै इनका कान कैसे पकडू?
साहब—हम कहता है, इसका कान पकडो, नहीीं हम तुमको हीं टरों से मारे गा।

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चपरासी—हुजरू , मे याह नौकरी करने आया हू, मार खाने नहीीं। मैं भी इजजतदार आदमी हू। हुजरू ,
अपनी नौकरी िे िें! आप जो हुक्म दें , वह बजा िाने को हाक्जर हू, िेककन ककसी की इजजत नहीीं बबगाड
सकता। नौकरी तो चार ददन की है । चार ददन के लिए क्यों जमाने-भर से बबगाड करें ।
साहब अब क्रोध को न बदामश्त करसके। हीं टर िेकर दौडे। चपरासी ने दे खा, यह ॉँ खड रहने में खैररयत
नहीीं है, तो भाग खडा हुआ। फतहचन्द अभी तक चप
ु चाप खडे थे। चपरासी को न पाकर उनके पास आया
और उनके दोनों कान पकडकर दहिा ददया। बोिा—तुम सअ ू र गुस्ताखी करता है? जाकर आकफस से फाइि
िाओ।
फतहचन्द ने कान दहिाते हुए कहा—कौन-सा फाइि? तुम बहरा हे सन ॉँ
ु ता नहीीं? हम फाइि म गता है ।
फतहचन्द ने ककसी तरह ददिेर होकर कहा—आप कौन-सा फाइि म गते हें ?
साहब—वही फाइि जो हम मागता हे । वही फाइि िाओ। अभी िाओीं वेचारे फतहचन्द को अब ओर
कुछ पछ
ू ने की दहम्मत न हुई साहब बहादरू एक तो यों ही तेज-लमजाज थे, इस पर हुकूमत का घमींड ओर
सबसे बढ़कर शराब का नशा। हीं टर िेकर वपि पडते, तो बेचार क्या कर िेते? चप
ु के से दफ्तर की तरफ चि
पडे।
साहब ने कहा—दौड कर जाओ—दौडो।
फतहचनद ने कहा—हुजूर, मझु से दौडा नहीीं जाता।
साहब—ओ, तुम बहूत सस्ु त हो गया है । हम तुमको दौडना लसखायेगा। दौडो (पीछे से धक्का दे कर)
तुम अब भी नहीीं दौडेगा?
यह कह कर साहब हीं टर िेने चिे। फतहचन्द दफ्तर के बाबू होने पर भी मनष्ु य ही थे। यदद वह
बिवान होंते, तो उस बदमाश का खन
ू पी जाते। अगर उनके पास कोई हधथयार होता, तो उस पर परूर चिा
दे ते; िेककन उस हाित में तो मार खाना ही उनकी तकदीर में लिखा था। वे बेतहाश भागे और फाटक से
बाहर ननकि कर सडक पर आ गये।

फ तहचनद दफ्तर न गये। जाकर करते ही क्या? साहब ने फाइि का नाम तक न बताया। शायद नशा
में भि
ू गया। धीरे -धीरे घर की ओर चिे, मगर इस बेइजजती ने पैरों में बेडडया-सी डाि दी थीीं। माना
कक वह शारीररक बि में साहब से कम थे, उनके हाथ में कोई चीज भी न थी, िेककन क्या वह उसकी बातों
का जवाब न दे सकते थे? उनके पैरो में जत
ू े तो थे। क्या वह जत
ू े से काम न िे सकते थे? कफर क्यों उन्होंने
इतनी क्जल्ित बदामश्त की?
मगर इिाज की क्या था? यदद वह क्रोध में उन्हें गोिी मार दे ता, तो उसका क्या बबगडता। शायद एक-
दो महीने की सादी कैद हो जाती। सम्भव है , दो-चार सौ रूपये जुमामना हो जात। मगर इनका पररवार तो
लमट्टी में लमि जाता। सींसार में कौन था, जो इनके स्त्री-बच्चों की खबर िेता। वह ककसके दरवाजे हाथ
फैिाते? यदद उसके पास इतने रूपये होते, क्जसे उनके कुटुम्ब का पािन हो जाता, तो वह आज इतनी
क्जल्ित न सहते। या तो मर ही जाते, या उस शैतान को कुछ सबक ही दे दे त।े अपनी जान का उन्हें डर न
था। क्जन्दगी में ऐसा कौन सख
ु था, क्जसके लिए वह इस तरह डरते। ख्याि था लसफम पररवार के बरबाद हो
जाने का।
आज फतहचनद को अपनी शारीररक कमजोरी पर क्जतना द:ु ख हुआ, उतना और कभी न हुआ था।
अगर उन्होंने शरू
ु ही से तन्दरू
ु स्ती का ख्याि रखा होता, कुछ कसरत करते रहते, िकडी चिाना जानते होते,
तो क्या इस शैतान की इतनी दहम्मत होती कक वह उनका कान पकडता। उसकी ऑ ींखें ननकिा िेते। कम से
कम दन्हें घर से एक छुरी िेकर चिना था! ओर न होता, तो दो-चार हाथ जमाते ही—पीछे दे खा जाता, जेि
जाना ही तो होता या और कुछ?
वे जयों-जयों आगे बढ़ते थे, त्यों-त्यों उनकी तबीयत अपनी कायरता और बोदे पन पर औरभी झल्िाती
थीीं अगर वह उचक कर उसके दो-चार थप्पड िगा दे ते, तो क्या होता—यही न कक साहब के खानसामें, बैरे
सब उन पर वपि पडते ओर मारते-मारते बेदम कर दे त।े बाि-बच्चों के लसर पर जो कुछ पडती—पडती।
साहब को इतना तो मािम
ू हो जाता कक गरीब को बेगन
ु ाह जिीि करना आसान नही। आखखर आज मैं मर
जाऊ, तो क्या हो? तब कौन मेरे बच्चों का पािन करें गा? तब उनके लसर जो कुछ पडेगी, वह आज ही पड
जाती, तो क्या हजम था।

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इस अक्न्तम ववचार ने फतहचन्द के हृदय में इतना जोश भर ददया कक वह िौट पडे ओर साहब से
क्जल्ित का बदिा िेने के लिए दो-चार कदम चिे, मगर कफर खयाि आया, आखखर जो कुछ क्जल्ित होनी
थी; वह तो हो ही िी। कौन जाने, बगिे पर हो या क्िब चिा गया हो। उसी समय उन्हें शारदा की बेकसी
ओर बच्चों का बबना बाप के जाने का खयाि भी आ गया। कफर िौटे और घर चिे।

घ र में जाते ही शारदा ने पछ


ू ा—ककसलिए बि
ु ाया था, बडी दे र हो गयी?
फतहचन्द ने चारपाई पर िेटते हुए कहा—नशे की सनक थी, और क्या? शैतान ने मझ ु े गालिय ॉँ दी,
जिीि ककयाीं बसस, यहीीं रट िगाए हुए था कक दे र क्यों की? ननदम यी ने चपरासी से मेरा कान पकडने को
कहा।
शारदा ने गस्
ु से में आकर कहा—तम
ु ने एक जत
ू ा उतार कर ददया नहीीं सआ
ू र को?
फतहचन्द—चपरासी बहुत शरीफ है । उसने साफ कह ददया—हुजरू , मझ ु से यह काम न होगा। में ने भिे
आदलमयों की इजजत उतारने के लिए नौकरी नहीीं की थी। वह उसी वक्त सिाम करके चिा गया।
शारदा—यही बहादरु ी हे । तुमने उस साहब को क्यों नही फटकारा?
फतहचन्द—फटकारा क्यों नहीीं—में ने भी खूब सन
ु ायी। वह छडी िेकर दौडा—मेने भी जत
ू ा सभािा।
ु े छडडय ॉँ जमायीीं—मैंने भी कई जूते िगाये!
उसने मझ
शारदा ने खुश होकर कहा—सच? इतना-सा मह
ु हो गया होगा उसका!
फतहचन्द—चेहरे पर झाडू-सी कफरी हुई थी।
शारदा—बडा अच्छा ककया तुमने ओर मारना चादहए था। मे होती, तो बबना जान लिए न छोडती।
फतहचन्द—मार तो आया हू; िेककन अब खैररयत नहीीं है। दे खो, क्या नतीजा होता है ? नौकरी तो
जायगी ही, शायद सजा भी काटनी पडे।
शारदा—सजा क्यों काटनी पडेगी? क्या कोई इींसाफ करने वािा नहीीं है ? उसने क्यों गालिय ॉँ दीीं, क्यों छडी
जमायी?
फतहचन्द—उसने सामने मेरी कौन सन
ु ेगा? अदाित भी उसी की तरफ हो जायगी।
शारदा—हो जायगी, हो जाय; मगर दे ख िेना अब ककसी साहब की यह दहम्मत न होगी कक ककसी बाबू
को गालिय ॉँ दे बैठे। तुम्हे चादहए था कक जयोंही उसके मह
ु से गालिय ॉँ ननकिी, िपक कर एक जूता रसीदद
कर दे ते।
फतहचन्द—तो कफर इस वक्त क्जींदा िौट भी न सकता। जरूर मझ
ु े गोिी मार दे ता।
शारदा—दे खी जाती।
ु करा कर कहा—कफर तुम िोग कह ॉँ जाती?
फतहचन्द ने मस्
शारदा—जहा ईश्वर की मरजी होती। आदमी के लिए सबसे बडी चीज इजजत हे । इजजत गव ॉँ कर
बाि-बच्चों की परवररश नही की जाती। तम
ु उस शैतान को मार का आये होते तो मै करूर से फूिी नहीीं
समाती। मार खाकर उठते, तो शायद मै तम्
ु हारी सरू त से भी घण
ृ ा करती। यों जबान से चाहे कुछ न कहती,
मगर ददि से तुम्हारी इजजि जाती रहती। अब जो कुछ लसर पर आयेगी, खुशी से झेि िगी.....।
ू कह ॉँ जाते
हो, सन ु ो कह ॉँ जाते हो?
ु ो-सन
फतहचन्द दीवाने होकर जोश में घर से ननकि पडे। शारदा पक
ु ारती रह गयी। वह कफर साहब के
बगिे की तरफ जा रहे थे। डर से सहमे हुए नहीीं; बक्ल्क गरूर से गदम न उठाये हुए। पक्का इरादा उनके चेहरे
से झिक रहा था। उनके पैरों में वह कमजोरी, ऑ ींखें में वह बेकसी न थी। उनकी कायापिट सी हो गयी थी।
वह कमजोर बदन, पीिा मख
ु डा दब
ु ि
म बदनवािा, दफ्तर के बाबू की जगह अब मदामना चेहरा, दहम्मत भरा
हुआ, मजबतू गठा और जवान था। उन्होंने पहिे एक दोस्त के घर जाकर उसक डींडा लिया ओर अकडते हुए
साहब के बगिे पर जा पहुचे।
इस वक्त नौ बजे थे। साहब खाने की मेज पर थे। मगर फतहचन्द ने आज उनके मेज पर से उठ
जाने का दीं तजार न ककया, खानसामा कमरे से बाहर ननकिा और वह धचक उठा कर अींदर गए। कमरा प्रकाश
से जगमगा रहा थाीं जमीन पर ऐसी कािीन बबछी हुई थी; जेसी फतहचन्द की शादी में भी नहीीं बबछी होगी।

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साहब बहादरू ने उनकी तरफ क्रोधधत दृक्ष्ट से दे ख कर कहा—तम
ु क्यों आया? बाहर जाओीं, क्यों अन्दर चिा
आया?
फतहचन्द ने खडे-खडे डींडा सींभाि कर कहा—तम
ु ने मझ ॉँ था, वही फाइि िेकर
ु से अभी फाइि म गा
आया हू। खाना खा िो, तो ददखाऊ। तब तक में बैठा हू। इतमीनान से खाओ, शायद वह तुम्हारा आखखरी
खाना होगा। इसी कारण खब ू पेट भर खा िो।
साहब सन्नाटे में आ गये। फतहचन्द की तरफ डर और क्रोध की दृक्ष्ट से दे ख कर क पीं उठे ।
फतहचन्द के चेहरे पर पक्का इरादा झिक रहा था। साहब समझ गये, यह मनष्ु य इस समय मरने-मारने के
लिए तैयार होकर आयाहै । ताकत में फतहचन्द उनसे पासींग भी नहीीं था। िेककन यह ननश्चय था कक वह ईट
का जवाब पत्थर से नहीीं, बक्ल्क िोहे से दे ने को तैयार है । यदद पह फतहचन्द को बरु ा-भिा कहते है , तो क्या
आश्चयम है कक वह डींडा िेकर वपि पडे। हाथापाई करने में यद्यवप उन्हें जीतने में जरा भी सींदेह नहीीं था,
िेककन बैठे-बैठाये डींडे खाना भी तो कोई बद्
ु धधमानी नहीीं है । कुत्ते को आप डींडे से माररये, ठुकराइये, जो चाहे
कीक्जए; मगर उसी समय तक, जब तक वह गुरामता नहीीं। एक बार गरु ाम कर दौड पडे, तो कफर दे खे आप
दहम्मत कह ॉँ जाती हैं? यही हाि उस वक्त साहब बहादरु का थाीं जब तक यकीन था कक फतहचन्द घड
ु की,
गािी, हीं टर, ठाकर सब कुछ खामोशी से सह िेगा,. तब तक आप शेर थे; अब वह त्योररय ॉँ बदिे, डडा सभािे,
बबल्िी की तरह घात िगाये खडा है । जबान से कोई कडा शब्द ननकिा और उसने डडा चिाया। वह अधधक
से अधधक उसे बरखास्त कर सकते हैं। अगर मारते हैं, तो मार खाने का भी डर है । उस पर फौजदारी में
मक
ु दमा दायर हो जाने का सींदेशा—माना कक वह अपने प्रभाव और ताकत को जेि में डिवा दे गे; परन्तु
परे शानी और बदनामी से ककसी तरह न बच सकते थे। एक बद्
ु धधमान और दरू ीं देश आदमी की तरह उन्होंने
यह कहा—ओहो, हम समझ गया, आप हमसे नाराज हें । हमने क्या आपको कुछ कहा है? आप क्यों हमसे
नाराज हैं?
फतहचन्द ने तन करी कहा—तुमने अभी आध घींटा पहिे मेरे कान पकडे थे, और मझ
ु से सैकडो ऊि-
जिि
ू बातें कही थीीं। क्या इतनी जल्दी भि
ू गये?
साहब—मैने आपका कान पकडा, आ-हा-हा-हा-हा! क्या मजाक है ? क्या मैं पागि हू या दीवाना?
फतहचन्द—तो क्या मै झठ
ू बोि रहा हू? चपरासी गवाह है । आपके नौकर-चाकर भी दे ख रहे थे।
साहब—कब की बात है ?
फतहचन्द—अभी-अभी, कोई आधा घण्टा हुआ, आपने मझ
ु े बि
ु वाया था और बबना कारण मेरे कान
पकडे और धक्के ददये थे।
साहब—ओ बाबू जी, उस वक्त हम नशा में था। बेहरा ने हमको बहुत दे ददया था। हमको कुछ खबर
नहीीं, क्या हुआ माई गाड! हमको कुछ खबर नहीीं।
फतहचन्द—नशा में अगर तुमने गोिी मार दी होती, तो क्या मै मर न जाता? अगर तुम्हें नशा था
और नशा में सब कुछ मआ
ु फ हे , तो मै भी नशे मे हू। सन
ु ो मेरा फैसिा, या तो अपने कान पकडो कक कफर
कभी ककसी भिे आदमी के सींग ऐसा बतामव न करोगे, या मैं आकर तुम्हारे कान पकडूगा। समझ गये कक
नहीीं! इधर उधर दहिो नहीीं, तुमने जगह छोडी और मैनें डींडा चिाया। कफर खोपडी टूट जाय, तो मेरी खता
नहीीं। मैं जो कुछ कहता हू, वह करते चिो; पकडों कान!
साहब ने बनावटी हसी हसकर कहा—वेि बाबू जी, आप बहुत ददल्िगी करता है । अगर हमने आपको
बरु ा बात कहता है, तो हम आपसे माफी म गताॉँ हे ।
फतहचन्द—(डींडा तौिकर) नहीीं, कान पकडो!
साहब आसानी से इतनी क्जल्ित न सह सके। िपककर उठे और चाहा कक फतहचन्द के हाथ से
िकडी छीन िें; िेककन फतहचन्द गाकफि न थे। साहब मेज पर से उठने न पाये थे कक उन्होने डींडें का
भरपरू और तुिा हुआ हाथ चिाया। साहब तो नींगे लसर थे ही; चोट लसर पर पड गई। खोपडी भन्ना गयी।
एक लमनट तक लसर को पकडे रहने के बाद बोिे—हम तुमको बरखास्त कर दे गा।
फतहचन्द—इसकी मझ
ु े परवाह नहीीं, मगर आज मैं तुमसे बबना कान पकडाये नहीीं जाऊगा। कसान
पकडकर वादा करो कक कफर ककसी भिे आदमी के साथ ऐसा बेअदबी न करोगे, नहीीं तो मेरा दस
ू रा हाथ
पडना ही चाहता है !
यह कहकर फतहचन्द ने कफर डींडा उठाया। साहब को अभी तक पहिी चोट न भि
ू ी थी। अगर कहीीं
यह दस
ू रा हाथ पड गया, तो शायद खोपडी खुि जाये। कान पर हाथ रखकर बोिे—अब अप खुश हुआ?

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‘कफर तो कभी ककसी को गािी न दोगे?’
‘कभी नही।‘
‘अगर कफर कभी ऐसा ककया, तो समझ िेना, मैं कहीीं बहुत दरू नहीीं हू।‘
‘अब ककसी को गािी न दे गा।‘
‘अच्छी बात हे , अब मैं जाता हू, आप से मेरा इस्तीफा है। मैं कि इस्तीफा में यह लिखकर भेजगा
ू कक
ु े गालिय ॉँ दीीं, इसलिए मैं नौकरी नहीीं करना चाहता, समझ गये?
तुमने मझ
साहब—आप इस्तीफा क्यों दे ता है ? हम तो हम तो बरखास्त नहीीं करता।
फतहचन्द—अब तुम जैसे पाजी आदमी की मातहती नहीीं करूगा।
यह कहते हुए फतहचन्द कमरे से बाहर ननकिे और बडे इतमीनान से घर चिे। आज उन्हें सच्ची
ववजय की प्रसन्नता का अनभ
ु व हुआ। उन्हें ऐसी खश
ु ी कभी नहीीं प्राप्त हुई थी। यही उनके जीतन की पहिी
जीत थी।

अलग्योझा

भो
िा महतो ने पहिी स्त्री के मर जाने बाद दस
ू री सगाई की, तो उसके िडके रग्घू के लिए बरु े ददन
आ गए। रग्घू की उम्र उस समय केवि दस वषम की थी। चैने से ग वॉँ में गुल्िी-डींडा खेिता कफरता
था। म ॉँ के आते ही चक्की में जुतना पडा। पन्ना रुपवती स्त्री थी और रुप और गवम में चोिी-दामन का
नाता है । वह अपने हाथों से कोई काम न करती। गोबर रग्घू ननकािता, बैिों को सानी रग्घू दे ता। रग्घू ही
ॉँ
जूठे बरतन म जता। ॉँ
भोिा की ऑ ींखें कुछ ऐसी कफरीीं कक उसे रग्घू में सब बरु ाइय -ही-बरु ाइय ॉँ नजर आतीीं।
पन्ना की बातों को वह प्राचीन मयामदानस
ु ार ऑ ींखें बींद करके मान िेता था। रग्घू की लशकायतों की जरा
परवाह न करता। नतीजा यह हुआ कक रग्घू ने लशकायत करना ही छोड ददया। ककसके सामने रोए? बाप ही
नहीीं, सारा ग वॉँ उसका दश्ु मन था। बडा क्जद्दी िडका है, पन्ना को तो कुद समझता ही नहीीं: बेचारी उसका
दि
ु ार करती है, खखिाती-वपिाती हैं यह उसी का फि है। दस
ू री औरत होती, तो ननबाह न होता। वह तो कहा,
पन्ना इतनी सीधी-सादी है कक ननबाह होता जाता है । सबि की लशकायतें सब सन
ु ते हैं, ननबमि की फररयाद
ु ता! रग्घू का हृदय म ॉँ की ओर से ददन-ददन फटता जाता था। यहाीं तक कक आठ साठ
भी कोई नहीीं सन
गुजर गए और एक ददन भोिा के नाम भी मत्ृ यु का सन्दे श आ पहुचा।
पन्ना के चार बच्चे थे-तीन बेटे और एक बेटी। इतना बड खचम और कमानेवािा कोई नहीीं। रग्घू अब
क्यों बात पछ
ू ने िगा? यह मानी हुई बात थी। अपनी स्त्री िाएगा और अिग रहे गा। स्त्री आकर और भी
आग िगाएगी। पन्ना को चारों ओर अींधेरा ही ददखाई दे ता था: पर कुछ भी हो, वह रग्घू की आसरै त बनकर
घर में रहे गी। क्जस घर में उसने राज ककया, उसमें अब िौंडी न बनेगी। क्जस िौंडे को अपना गि
ु ाम समझा,
उसका मींह
ु न ताकेगी। वह सन्
ु दर थीीं, अवस्था अभी कुछ ऐसी जयादा न थी। जवानी अपनी परू ी बहार पर
थी। क्या वह कोई दस
ू रा घर नहीीं कर सकती? यहीीं न होगा, िोग हसेंगे। बिा से! उसकी बबरादरी में क्या
ऐसा होता नहीीं? िाह्मण, ठाकुर थोडी ही थी कक नाक कट जायगी। यह तो उन्ही ऊची जातों में होता है कक
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घर में चाहे जो कुछ करो, बाहर परदा ढका रहे । वह तो सींसार को ददखाकर दस
ू रा घर कर सकती है , कफर वह
रग्घू कक दबैि बनकर क्यों रहे ?
भोिा को मरे एक महीना गजु र चक ु ा था। सींध्या हो गई थी। पन्ना इसी धचन्ता में पड हुई थी कक
सहसा उसे ख्याि आया, िडके घर में नहीीं हैं। यह बैिों के िौटने की बेिा है, कहीीं कोई िडका उनके नीचे न
आ जाए। अब द्वार पर कौन है , जो उनकी दे खभाि करे गा? रग्घू को मेरे िडके फूटी ऑ ींखों नहीीं भाते। कभी
हसकर नहीीं बोिता। घर से बाहर ननकिी, तो दे खा, रग्घू सामने झोपडे में बैठा ऊख की गडेररया बना रहा है,
िडके उसे घेरे खडे हैं और छोटी िडकी उसकी गदम न में हाथ डािे उसकी पीठ पर सवार होने की चेष्टा कर
रही है। पन्ना को अपनी ऑ ींखों पर ववश्वास न आया। आज तो यह नई बात है । शायद दनु नया को ददखाता
है कक मैं अपने भाइयों को ककतना चाहता हू और मन में छुरी रखी हुई है। घात लमिे तो जान ही िे िे!
कािा स पॉँ है, कािा स प!
ॉँ कठोर स्वर में बोिी-तम
ु सबके सब वह ॉँ क्या करते हो? घर में आओ, स झ
ॉँ की
बेिा है, गोरु आते होंगे।
रग्घू ने ववनीत नेत्रों से दे खकर कहा—मैं तो हूीं ही काकी, डर ककस बात का है ?
बडा िडका केदार बोिा-काकी, रग्घू दादा ने हमारे लिए दो गाडडया बना दी हैं। यह दे ख, एक पर हम
ू री पर िछमन और झनु नय ।ॉँ दादा दोनों गाडडय ॉँ खीींचेंगे।
और खुन्नू बैठेंगे, दस
यह कहकर वह एक कोने से दो छोटी-छोटी गाडडय ॉँ ननकाि िाया। चार-चार पदहए िगे थे। बैठने के
लिए तख्ते और रोक के लिए दोनों तरफ बाजू थे।
ू ा-ये गाडडय ॉँ ककसने बनाई?
पन्ना ने आश्चयम से पछ
केदार ने धचढ़कर कहा-रग्घू दादा ने बनाई हैं, और ककसने! भगत के घर से बसि ॉँ
ू ा और रुखानी म ग
िाए और चटपट बना दीीं। खब
ू दौडती हैं काकी! बैठ खन्
ु नू मैं खीींच।ू
खुन्नू गाडी में बैठ गया। केदार खीींचने िगा। चर-चर शोर हुआ मानो गाडी भी इस खेि में िडकों के
साथ शरीक है ।
िछमन ने दस
ू री गाडी में बैठकर कहा-दादा, खीींचो।
रग्घू ने झनु नय ॉँ को भी गाडी में बबठा ददया और गाडी खीींचता हुआ दौडा। तीनों िडके तालिय ॉँ बजाने
िगे। पन्ना चककत नेत्रों से यह दृश्य दे ख रही थी और सोच रही थी कक य वही रग्घू है या कोई और।
थोडी दे र के बाद दोनों गाडडय ॉँ िौटीीं: िडके घर में जाकर इस यानयात्रा के अनभ
ु व बयान करने िगे।
ककतने खश
ु थे सब, मानों हवाई जहाज पर बैठ आये हों।
खन्
ु नू ने कहा-काकी सब पेड दौड रहे थे।
िछमन-और बनछय ॉँ कैसी भागीीं, सबकी सब दौडीीं!
केदार-काकी, रग्घू दादा दोनों गाडडय ॉँ एक साथ खीींच िे जाते हैं।
झनु नय ॉँ सबसे छोटी थी। उसकी व्यींजना-शक्क्त उछि-कूद और नेत्रों तक पररलमत थी-तालिय ॉँ बजा-
बजाकर नाच रही थी।
खुन्न-ू अब हमारे घर गाय भी आ जाएगी काकी! रग्घू दादा ने धगरधारी से कहा है कक हमें एक गाय
िा दो। धगरधारी बोिा, कि िाऊगा।
केदार-तीन सेर दध
ू दे ती है काकी! खब
ू दध
ू पीऍगेीं ।
इतने में रग्घू भी अींदर आ गया। पन्ना ने अवहे िना की दृक्ष्ट से दे खकर पछ
ू ा-क्यों रग्घू तम
ु ने
ॉँ है?
धगरधारी से कोई गाय म गी
रग्घू ने क्षमा-प्राथमना के भाव से कहा-ह ,ॉँ म गी
ॉँ तो है, कि िाएगा।
पन्ना-रुपये ककसके घर से आऍगेीं , यह भी सोचा है?
रग्घ-ू सब सोच लिया है काकी! मेरी यह मह ॉँ रुपये
ु र नहीीं है। इसके पच्चीस रुपये लमि रहे हैं, प च
बनछया के मज
ु ा दे दगा!
ू बस, गाय अपनी हो जाएगी।
पन्ना सन्नाटे में आ गई। अब उसका अववश्वासी मन भी रग्घू के प्रेम और सजजनता को अस्वीकार
न कर सका। बोिी-मह
ु र को क्यों बेचे दे ते हो? गाय की अभी कौन जल्दी है ? हाथ में पैसे हो जाऍ,ीं तो िे
िेना। सन
ू ा-सन
ू ा गिा अच्छा न िगेगा। इतने ददनों गाय नहीीं रही, तो क्या िडके नहीीं क्जए?
रग्घू दाशमननक भाव से बोिा-बच्चों के खाने-पीने के यही ददन हैं काकी! इस उम्र में न खाया, तो कफर
क्या खाऍगेीं । मह
ु र पहनना मझ
ु े अच्छा भी नही मािम
ू होता। िोग समझते होंगे कक बाप तो गया। इसे मह
ु र
पहनने की सझ
ू ी है ।

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भोिा महतो गाय की धचींता ही में चि बसे। न रुपये आए और न गाय लमिी। मजबरू थे। रग्घू ने
यह समस्या ककतनी सग
ु मता से हि कर दी। आज जीवन में पहिी बार पन्ना को रग्घू पर ववश्वास आया,
बोिी-जब गहना ही बेचना है , तो अपनी मह
ु र क्यों बेचोगे? मेरी हसि
ु ी िे िेना।
रग्घ-ू नहीीं काकी! वह तुम्हारे गिे में बहुत अच्छी िगती है । मदो को क्या, मह
ु र पहनें या न पहनें।
पन्ना-चि, मैं बढ़ ू ी हुई। अब हसि ु ी पहनकर क्या करना है। तू अभी िडका है, तेरा गिा अच्छा न
िगेगा?
रग्घू मस् ू ी हो गई? ग वॉँ में है कौन तुम्हारे बराबर?
ु कराकर बोिा—तुम अभी से कैसे बढ़
रग्घू की सरि आिोचना ने पन्ना को िक्जजत कर ददया। उसके रुखे-मरु छाए मख
ु पर प्रसन्नता की
िािी दौड गई।

पा
च साि गज ू रा ककसान ग वॉँ में न था। पन्ना
ु र गए। रग्घू का-सा मेहनती, ईमानदार, बात का धनी दस
की इच्छा के बबना कोई काम न करता। उसकी उम्र अब 23 साि की हो गई थी। पन्ना बार-बार
कहती, भइया, बहू को बबदा करा िाओ। कब तक नैह में पडी रहे गी? सब िोग मझ
ु ी को बदनाम करते हैं कक
यही बहू को नहीीं आने दे ती: मगर रग्घू टाि दे ता था। कहता कक अभी जल्दी क्या है ? उसे अपनी स्त्री के
रीं ग-ढीं ग का कुछ पररचय दस
ू रों से लमि चक
ु ा था। ऐसी औरत को घर में िाकर वह अपनी श नत ॉँ में बाधा
नहीीं डािना चाहता था।
आखखर एक ददन पन्ना ने क्जद करके कहा-तो तुम न िाओगे?
‘कह ददया कक अभी कोई जल्दी नहीीं।’
‘तम्
ु हारे लिए जल्दी न होगी, मेरे लिए तो जल्दी है । मैं आज आदमी भेजती हू।’
‘पछताओगी काकी, उसका लमजाज अच्छा नहीीं है ।’
ू ही नहीीं, तो क्या हवा से िडेगी? रोदटय ॉँ तो बना िेगी। मझ
‘तुम्हारी बिा से। जब मैं उससे बोिगी ु से
भीतर-बाहर का सारा काम नहीीं होता, मैं आज बि
ु ाए िेती हू।’
‘बि
ु ाना चाहती हो, बि
ु ा िो: मगर कफर यह न कहना कक यह मेहररया को ठीक नहीीं करता, उसका
गुिाम हो गया।’
‘न कहूगी, जाकर दो साडडया और लमठाई िे आ।’
तीसरे ददन मलु िया मैके से आ गई। दरवाजे पर नगाडे बजे, शहनाइयों की मधरु ध्वनन आकाश में
गजने
ू िगी। मह-ददखावे
ु की रस्म अदा हुई। वह इस मरुभलू म में ननममि जिधारा थी। गेहुऑ ीं रीं ग था, बडी-
बडी नोकीिी पिकें, कपोिों पर हल्की सख
ु ी, ऑ ींखों में प्रबि आकषमण। रग्घू उसे दे खते ही मींत्रमग्ु ध हो गया।
प्रात:काि पानी का घडा िेकर चिती, तब उसका गेहुऑ ीं रीं ग प्रभात की सनु हरी ककरणों से कुन्दन हो
जाता, मानों उषा अपनी सारी सगु ींध, सारा ववकास और उन्माद लिये मस्ु कराती चिी जाती हो।

मु लिया मैके से ही जिी-भन


ु ी आयी थी। मेरा शौहर छाती फाडकर काम करे , और पन्ना रानी बनी बैठी
रहे , उसके िडे रईसजादे बने घम
ू ें । मलु िया से यह बरदाश्त न होगा। वह ककसी की गुिामी न करे गी।
अपने िडके तो अपने होते ही नहीीं, भाई ककसके होते हैं? जब तक पर नहीीं ननकते हैं, रग्घू को घेरे हुए हैं।
जयों ही जरा सयाने हुए, पर झाडकर ननकि जाऍगेीं , बात भी न पछ
ू ें गे।
एक ददन उसने रग्घू से कहा—तम्
ु हें इस तरह गि
ु ामी करनी हो, तो करो, मझ
ु से न होगी।
रग्घ—
ू तो कफर क्या करु, तू ही बता? िडके तो अभी घर का काम करने िायक भी नहीीं हैं।
मलु िया—िडके रावत के हैं, कुछ तुम्हारे नहीीं हैं। यही पन्ना है , जो तुम्हें दाने-दाने को तरसाती थी।
सब सन
ु चकु ी हूीं। मैं िौंडी बनकर न रहूगी। रुपये-पैसे का मझ
ु े दहसाब नहीीं लमिता। न जाने तुम क्या िाते
हो और वह क्या करती है । तम ु समझते हो, रुपये घर ही में तो हैं: मगर दे ख िेना, तुम्हें जो एक फूटी कौडी
भी लमिे।
रग्घ—
ू रुपये-पैसे तेरे हाथ में दे ने िगू तो दनु नया कया कहे गी, यह तो सोच।
मलु िया—दनु नया जो चाहे , कहे । दनु नया के हाथों बबकी नहीीं हू। दे ख िेना, भ डॉँ िीपकर हाथ कािा ही
रहे गा। कफर तमु अपने भाइयों के लिए मरो, मै। क्यों मरु?
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रग्घ—
ू ने कुछ जवाब न ददया। उसे क्जस बात का भय था, वह इतनी जल्द लसर आ पडी। अब अगर
उसने बहुत तत्थो-थींभो ककया, तो साि-छ:महीने और काम चिेगा। बस, आगे यह डोंगा चिता नजर नहीीं
आता। बकरे की म ॉँ कब तक खैर मनाएगी?
एक ददन पन्ना ने महुए का सख ु ावन डािा। बरसाि शरु ु हो गई थी। बखार में अनाज गीिा हो रहा
था। मलु िया से बोिी-बहू, जरा दे खती रहना, मैं तािाब से नहा आऊ?
मलु िया ने िापरवाही से कहा-मझ
ु े नीींद आ रही है, तुम बैठकर दे खो। एक ददन न नहाओगी तो क्या
होगा?
पन्ना ने साडी उतारकर रख दी, नहाने न गयी। मलु िया का वार खािी गया।
कई ददन के बाद एक शाम को पन्ना धान रोपकर िौटी, अधेरा हो गया था। ददन-भर की भख
ू ी थी।
आशा थी, बहू ने रोटी बना रखी होगी: मगर दे खा तो यह ॉँ चल्
ू हा ठीं डा पडा हुआ था, और बच्चे मारे भख
ू के
तडप रहे थे। मलु िया से आदहस्ता से पछ
ू ा-आज अभी चल्
ू हा नहीीं जिा?
केदार ने कहा—आज दोपहर को भी चल्
ू हा नहीीं जिा काकी! भाभी ने कुछ बनाया ही नहीीं।
पन्ना—तो तुम िोगों ने खाया क्या?
केदार—कुछ नहीीं, रात की रोदटय ॉँ थीीं, खुन्नू और िछमन ने खायीीं। मैंने सत्तू खा लिया।
पन्ना—और बहू?
केदार—वह पडी सो रह है , कुछ नहीीं खाया।
पन्ना ने उसी वक्त चल्
ू हा जिाया और खाना बनाने बैठ गई। आटा गूधती थी और रोती थी। क्या
नसीब है? ददन-भर खेत में जिी, घर आई तो चल्
ू हे के सामने जिना पडा।
केदार का चौदहव ॉँ साि था। भाभी के रीं ग-ढीं ग दे खकर सारी क्स्थत समझ ् रहा था। बोिा—काकी, भाभी
अब तुम्हारे साथ रहना नहीीं चाहती।
पन्ना ने चौंककर पछ
ू ा—क्या कुछ कहती थी?
केदार—कहती कुछ नहीीं थी: मगर है उसके मन में यही बात। कफर तुम क्यों नहीीं उसे छोड दे तीीं? जैसे
चाहे रहे , हमारा भी भगवान ् है?
ॉँ से जीभ दबाकर कहा—चप
पन्ना ने द तों ु , मरे सामने ऐसी बात भि
ू कर भी न कहना। रग्घू तुम्हारा
भाई नहीीं, तुम्हारा बाप है । मलु िया से कभी बोिोगे तो समझ िेना, जहर खा िगी।

द शहरे का त्यौहार आया। इस ग वॉँ से कोस-भर एक परु वे में मेिा िगता था। ग वॉँ के सब िडके मेिा
दे खने चिे। पन्ना भी िडकों के साथ चिने को तैयार हुई: मगर पैसे कह ॉँ से आऍ?ीं कींु जी तो मलु िया के
पास थी।
रग्घू ने आकर मलु िया से कहा—िडके मेिे जा रहे हैं, सबों को दो-दो पैसे दे दो।
मलु िया ने त्योररय ॉँ चढ़ाकर कहा—पैसे घर में नहीीं हैं।
रग्घ—
ू अभी तो तेिहन बबका था, क्या इतनी जल्दी रुपये उठ गए?
मलु िया—ह ,ॉँ उठ गए?
ू कह ॉँ उठ गए? जरा सन
रग्घ— ु ,ू आज त्योहार के ददन िडके मेिा दे खने न जाऍगेीं ?
मलु िया—अपनी काकी से कहो, पैसे ननकािें, गाडकर क्या करें गी?
खटी
ू पर कींु जी हाथ पकड लिया और बोिी—कींु जी मझ
ु े दे दो, नहीीं तो ठीक न होगा। खाने-पहने को भी
चादहए, कागज-ककताब को भी चादहए, उस पर मेिा दे खने को भी चादहए। हमारी कमाई इसलिए नहीीं है कक
दस
ू रे खाऍ ीं और मछों
ू पर ताव दें ।
पन्ना ने रग्घू से कहा—भइया, पैसे क्या होंगे! िडके मेिा दे खने न जाऍगेीं ।
रग्घू ने खझडककर कहा—मेिा दे खने क्यों न जाऍगेीं ? सारा ग वॉँ जा रहा है । हमारे ही िडके न जाऍगेीं ?
यह कहकर रग्घू ने अपना हाथ छुडा लिया और पैसे ननकािकर िडकों को दे ददये: मगर कींु जी जब
मलु िया को दे ने िगा, तब उसने उसे आींगन में फेंक ददया और मह
ु िपेटकर िेट गई! िडके मेिा दे खने न
गए।

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इसके बाद दो ददन गज
ु र गए। मलु िया ने कुछ नहीीं खाया और पन्ना भी भख
ू ी रही रग्घू कभी इसे
मनाता, कभी उसे:पर न यह उठती, न वह। आखखर रग्घू ने है रान होकर मलु िया से पछ
ू ा—कुछ मह
ु से तो
कह, चाहती क्या है?
मलु िया ने धरती को सम्बोधधत करके कहा—मैं कुछ नहीीं चाहती, मझ
ु े मेरे घर पहुचा दो।
रग्घ—ू अच्छा उठ, बना-खा। पहुचा दगा।

मलु िया ने रग्घू की ओर ऑ ींखें उठाई। रग्घू उसकी सरू त दे खकर डर गया। वह माधय
ु ,म वह मोहकता,
ॉँ ननकि आए थे, ऑ ींखें फट गई थीीं और नथन
वह िावण्य गायब हो गया था। द त ु े फडक रहे थे। अींगारे की-
सी िाि ऑ ींखों से दे खकर बोिी—अच्छा, तो काकी ने यह सिाह दी है , यह मींत्र पढ़ाया है ? तो यह ॉँ ऐसी
कच्चे नहीीं हू। तुम दोनों की छाती पर मगू दिगी।
ू हो ककस फेर में ?
रग्घ—ू अच्छा, तो मग ू ही दि िेना। कुछ खा-पी िेगी, तभी तो मग
ू दि सकेगी।
मलु िया—अब तो तभी मह
ु में पानी डािगी,
ू जब घर अिग हो जाएगा। बहुत झेि चक
ु ी, अब नहीीं झेिा
जाता।
रग्घू सन्नाटे में आ गया। एक ददन तक उसके मह
ु से आवाज ही न ननकिी। अिग होने की उसने
स्वप्न में भी कल्पना न की थी। उसने ग वॉँ में दो-चार पररवारों को अिग होते दे खा था। वह खूब जानता
था, रोटी के साथ िोगों के हृदय भी अिग हो जाते हैं। अपने हमेशा के लिए गैर हो जाते हैं। कफर उनमें वही
नाता रह जाता है, जो ग वॉँ के आदलमयों में । रग्घू ने मन में ठान लिया था कक इस ववपवत्त को घर में न
आने दगा:
ू मगर होनहार के सामने उसकी एक न चिी। आह! मेरे मह
ु में कालिख िगेगी, दनु नया यही कहे गी
कक बाप के मर जाने पर दस साि भी एक में ननबाह न हो सका। कफर ककससे अिग हो जाऊ? क्जनको गोद
में खखिाया, क्जनको बच्चों की तरह पािा, क्जनके लिए तरह-तरह के कष्ठ झेि,े उन्हीीं से अिग हो जाऊ?
अपने प्यारों को घर से ननकाि बाहर करु? उसका गिा फस गया। क पते ॉँ हुए स्वर में बोिा—तू क्या चाहती
है कक मैं अपने भाइयों से अिग हो जाऊ? भिा सोच तो, कहीीं मह
ु ददखाने िायक रहूगा?
मलु िया—तो मेरा इन िोगों के साथ ननबाह न होगा।
रग्घ—
ू तो तू अिग हो जा। मझ
ु े अपने साथ क्यों घसीटती है?
मलु िया—तो मझ
ु े क्या तुम्हारे घर में लमठाई लमिती है? मेरे लिए क्या सींसार में जगह नहीीं है?
ू तेरी जैसी मजी, जह ॉँ चाहे रह। मैं अपने घर वािों से अिग नहीीं हो सकता। क्जस ददन इस घर
रग्घ—
में दो चल्
ू हें जिेंग,े उस ददन मेरे किेजे के दो टुकडे हो जाऍगेीं । मैं यह चोट नहीीं सह सकता। तझ
ु े जो
तकिीफ हो, वह मैं दरू कर सकता हू। माि-असबाब की मािककन तू है ही: अनाज-पानी तेरे ही हाथ है , अब
रह क्या गया है? अगर कुछ काम-धींधा करना नहीीं चाहती, मत कर। भगवान ने मझ
ु े समाई दी होती, तो मैं
तुझे नतनका तक उठाने न दे ता। तेरे यह सक
ु ु मार हाथ-पाींव मेहनत-मजदरू ी करने के लिए बनाए ही नहीीं गए
हैं: मगर क्या करु अपना कुछ बस ही नहीीं है । कफर भी तेरा जी कोई काम करने को न चाहे , मत कर: मगर
मझ
ु से अिग होने को न कह, तेरे पैरों पडता हू।
मलु िया ने लसर से अींचि खखसकाया और जरा समीप आकर बोिी—मैं काम करने से नहीीं डरती, न
बैठे-बैठे खाना चाहती हू: मगर मझु से ककसी की धौंस नहीीं सही जाती। तुम्हारी ही काकी घर का काम-काज
करती हैं, तो अपने लिए करती हैं, अपने बाि-बच्चों के लिए करती हैं। मझ
ु पर कुछ एहसान नहीीं करतीीं, कफर
मझ
ु पर धौंस क्यों जमाती हैं? उन्हें अपने बच्चे प्यारे होंगे, मझ
ु े तो तम्
ु हारा आसरा है । मैं अपनी ऑ ींखों से
यह नहीीं दे ख सकती कक सारा घर तो चैन करे , जरा-जरा-से बच्चे तो दध
ू पीऍ,ीं और क्जसके बि-बत
ू े पर
गहृ स्थी बनी हुई है, वह मट्ठे को तरसे। कोई उसका पछ
ू नेवािा न हो। जरा अपना मह
ींु तो दे खो, कैसी सरू त
ननकि आई है। औरों के तो चार बरस में अपने पट्ठे तैयार हो जाऍगेीं । तुम तो दस साि में खाट पर पड
ॉँ िगी,
जाओगे। बैठ जाओ, खडे क्यों हो? क्या मारकर भागोगे? मैं तुम्हें जबरदस्ती न ब ध ू या मािककन का
हुक्म नहीीं है? सच कहू, तुम बडे कठ-किेजी हो। मैं जानती, ऐसे ननमोदहए से पािा पडेगा, तो इस घर में भि

से न आती। आती भी तो मन न िगाती, मगर अब तो मन तम ु से िग गया। घर भी जाऊ, तो मन यह ॉँ ही
रहे गा और तुम जो हो, मेरी बात नहीीं पछ
ू ते।
मलु िया की ये रसीिी बातें रग्घू पर कोई असर न डाि सकीीं। वह उसी रुखाई से बोिा—मलु िया,
मझ
ु से यह न होगा। अिग होने का ध्यान करते ही मेरा मन न जाने कैसा हो जाता है। यह चोट मझ
ु से न
सही जाएगी।

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मलु िया ने पररहास करके कहा—तो चडू डय ॉँ पहनकर अन्दर बैठो न! िाओ मैं मछें
ू िगा िीं।ू मैं तो
समझती थी कक तमु में भी कुछ कि-बि है । अब दे खती हू, तो ननरे लमट्टी के िौंदे हो।
पन्ना दािान में खडी दोनों की बातचीत सनु नहीीं थी। अब उससे न रहा गया। सामने आकर रग्घू से
बोिी—जब वह अिग होने पर तुिी हुई है, कफर तुम क्यों उसे जबरदस्ती लमिाए रखना चाहते हो? तुम उसे
िेकर रहो, हमारे भगवान ् ने ननबाह ददया, तो अब क्या डर? अब तो भगवान ् की दया से तीनों िडके सयाने
हो गए हैं, अब कोई धचन्ता नहीीं।
रग्घू ने ऑ ींस-ू भरी ऑ ींखों से पन्ना को दे खकर कहा—काकी, तू भी पागि हो गई है क्या? जानती नहीीं,
दो रोदटय ॉँ होते ही दो मन हो जाते हैं।
पन्ना—जब वह मानती ही नहीीं, तब तुम क्या करोगे? भगवान ् की मरजी होगी, तो कोई क्या करे गा?
परािब्ध में क्जतने ददन एक साथ रहना लिखा था, उतने ददन रहे । अब उसकी यही मरजी है , तो यही सही।
तम
ु ने मेरे बाि-बच्चों के लिए जो कुछ ककया, वह भि
ू नहीीं सकती। तम
ु ने इनके लसर हाथ न रखा होता, तो
ॉँ
आज इनकी न जाने क्या गनत होती: न जाने ककसके द्वार पर ठोकरें खातें होते, न जाने कह -कह ॉँ भीख
ॉँ
म गते कफरते। तुम्हारा जस मरते दम तक गाऊगी। अगर मेरी खाि तुम्हारे जत
ू े बनाने के काम आते, तो
खुशी से दे द।ू चाहे तुमसे अिग हो जाऊ, पर क्जस घडी पक
ु ारोगे, कुत्ते की तरह दौडी आऊगी। यह भि
ू कर
भी न सोचना कक तम
ु से अिग होकर मैं तुम्हारा बरु ा चेतूगी। क्जस ददन तुम्हारा अनभि मेरे मन में आएगा,
उसी ददन ववष खाकर मर जाऊगी। भगवान ् करे , तुम दध
ू ों नहाओीं, पत
ू ों फिों! मरते दम तक यही असीस मेरे
रोऍ-रोऍ
ीं ीं से ननकिती रहे गी और अगर िडके भी अपने बाप के हैं। तो मरते दम तक तुम्हारा पोस मानेंगे।
यह कहकर पन्ना रोती हुई वह ॉँ से चिी गई। रग्घू वहीीं मनू तम की तरह बैठा रहा। आसमान की ओर
टकटकी िगी थी और ऑ ींखों से ऑ ींसू बह रहे थे।

प न्ना की बातें सन
ु कर मलु िया समझ गई कक अपने पौबारह हैं। चटपट उठी, घर में झाडू िगाई, चल्
जिाया और कुऍ ीं से पानी िाने चिी। उसकी टे क परू ी हो गई थी।
ग वॉँ में क्स्त्रयों के दो दि होते हैं—एक बहुओीं का, दस
ू हा

ू रा सासों का! बहुऍ ीं सिाह और सहानभ ु नू त के


लिए अपने दि में जाती हैं, सासें अपने में । दोनों की पींचायतें अिग होती हैं। मलु िया को कुऍ ीं पर दो-तीन
बहुऍ ीं लमि गई। एक से पछ ू ा—आज तो तम् ु हारी बदु ढ़या बहुत रो-धो रही थी।
मलु िया ने ववजय के गवम से कहा—इतने ददनों से घर की मािककन बनी हुई है, राज-पाट छोडते ककसे
अच्छा िगता है ? बहन, मैं उनका बरु ा नहीीं चाहती: िेककन एक आदमी की कमाई में कह ॉँ तक बरकत होगी।
मेरे भी तो यही खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने के ददन हैं। अभी उनके पीछे मरो, कफर बाि-बच्चे हो जाऍ,ीं उनके
पीछे मरो। सारी क्जन्दगी रोते ही कट जाएगी।
एक बहू-बदु ढ़या यही चाहती है कक यह सब जन्म-भर िौंडी बनी रहें । मोटा-झोटा खाएीं और पडी रहें ।
दस
ू री बहू—ककस भरोसे पर कोई मरे —अपने िडके तो बात नहीीं पछ ू ें पराए िडकों का क्या भरोसा?
कि इनके हाथ-पैर हो जायेंगे, कफर कौन पछ
ू ता है! अपनी-अपनी मेहररयों का मींह
ु दे खेंगे। पहिे ही से फटकार
दे ना अच्छा है , कफर तो कोई किक न होगा।
मलु िया पानी िेकर गयी, खाना बनाया और रग्घू से बोिी—जाओीं, नहा आओ, रोटी तैयार है ।
रग्घू ने मानों सन
ु ा ही नहीीं। लसर पर हाथ रखकर द्वार की तरफ ताकता रहा।
मलु िया—क्या कहती हू, कुछ सन ु ाई दे ता है, रोटी तैयार है , जाओीं नहा आओ।
रग्घ—ू सन
ु तो रहा हू, क्या बहरा हू? रोटी तैयार है तो जाकर खा िे। मझ ु े भख
ू नहीीं है ।
मलु िया ने कफर नहीीं कहा। जाकर चल् ु ा ददया, रोदटय ॉँ उठाकर छीींके पर रख दीीं और मह
ू हा बझ ॉँ
ु ढ ककर
िेट रही।
जरा दे र में पन्ना आकर बोिी—खाना तैयार है, नहा-धोकर खा िो! बहू भी भख
ू ी होगी।
रग्घू ने झझिाकर
ु कहा—काकी तू घर में रहने दे गी कक मह
ु में कालिख िगाकर कहीीं ननकि जाऊ?
खाना तो खाना ही है , आज न खाऊगा, कि खाऊगा, िेककन अभी मझ
ु से न खाया जाएगा। केदार क्या अभी
मदरसे से नहीीं आया?
पन्ना—अभी तो नीीं आया, आता ही होगा।

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पन्ना समझ गई कक जब तक वह खाना बनाकर िडकों को न खखिाएगी और खद
ु न खाएगी रग्घू न
खाएगा। इतना ही नहीीं, उसे रग्घू से िडाई करनी पडेगी, उसे जिी-कटी सन
ु ानी पडेगी। उसे यह ददखाना
पडेगा कक मैं ही उससे अिग होना चाहती हू नहीीं तो वह इसी धचन्ता में घि
ु -घि
ु कर प्राण दे दे गा। यह
सोचकर उसने अिग चल् ू हा जिाया और खाना बनाने िगी। इतने में केदार और खुन्नू मदरसे से आ गए।
पन्ना ने कहा—आओ बेटा, खा िो, रोटी तैयार है ।
केदार ने पछ
ू ा—भइया को भी बि
ु ा िू न?
पन्ना—तुम आकर खा िो। उसकी रोटी बहू ने अिग बनाई है।
खुन्न—
ू जाकर भइया से पछ
ू न आऊ?
पन्ना—जब उनका जी चाहे गा, खाऍगेीं । तू बैठकर खा: तुझे इन बातों से क्या मतिब? क्जसका जी
चाहे गा खाएगा, क्जसका जी न चाहे गा, न खाएगा। जब वह और उसकी बीवी अिग रहने पर ति
ु े हैं, तो कौन
मनाए?
केदार—तो क्यों अम्माजी, क्या हम अिग घर में रहें गे?
पन्ना—उनका जी चाहे , एक घर में रहें , जी चाहे ऑ ींगन में दीवार डाि िें।
ॉँ सामने फूस की झोंपडी थी, वहीीं खाट पर पडा रग्घू नाररयि पी रहा
खुन्नू ने दरवाजे पर आकर झ का,
था।
खुन्न—
ू भइया तो अभी नाररयि लिये बैठे हैं।
पन्ना—जब जी चाहे गा, खाऍगेीं ।
ॉँ नहीीं?
केदार—भइया ने भाभी को ड टा
मलु िया अपनी कोठरी में पडी सन ॉँ अब तम
ु रही थी। बाहर आकर बोिी—भइया ने तो नहीीं ड टा ु
ॉँ
आकर ड टों।
केदार के चेहरे पर रीं ग उड गया। कफर जबान न खोिी। तीनों िडकों ने खाना खाया और बाहर
ननकिे। िू चिने िगी थी। आम के बाग में ग वॉँ के िडके-िडककय ॉँ हवा से धगरे हुए आम चन
ु रहे थे।
केदार ने कहा—आज हम भी आम चन ु ने चिें, खूब आम धगर रहे हैं।
खुन्न—
ू दादा जो बैठे हैं?
िछमन—मैं न जाऊगा, दादा घड
ु केंगे।
केदार—वह तो अब अिग हो गए।
िक्षमन—तो अब हमको कोई मारे गा, तब भी दादा न बोिेंगे?
केदार—वाह, तब क्यों न बोिेंगे?
रग्घू ने तीनों िडकों को दरवाजे पर खडे दे खा: पर कुछ बोिा नहीीं। पहिे तो वह घर के बाहर
ननकिते ही उन्हें ड टॉँ बैठता था: पर आज वह मनू तम के समान ननश्चि बैठा रहा। अब िडकों को कुछ साहस
हुआ। कुछ दरू और आगे बढ़े । रग्घू अब भी न बोिा, कैसे बोिे? वह सोच रहा था, काकी ने िडकों को खखिा-
वपिा ददया, मझ
ु से पछ
ू ा तक नहीीं। क्या उसकी ऑ ींखों पर भी परदा पड गया है : अगर मैंने िडकों को पक
ु ारा
और वह न आयें तो? मैं उनकों मार-पीट तो न सकूगा। िू में सब मारे -मारे कफरें गे। कहीीं बीमार न पड जाऍ।ीं
उसका ददि मसोसकर रह जाता था, िेककन मह
ु से कुछ कह न सकता था। िडकों ने दे खा कक यह बबिकुि
नहीीं बोिते, तो ननभमय होकर चि पडे।
सहसा मलु िया ने आकर कहा—अब तो उठोगे कक अब भी नहीीं? क्जनके नाम पर फाका कर रहे हो,
उन्होंने मजे से िडकों को खखिाया और आप खाया, अब आराम से सो रही है । ‘मोर वपया बात न पछ
ू ें , मोर
सह ॉँ
ु ाधगन न व।’ एक बार भी तो मह
ु से न फूटा कक चिो भइया, खा िो।
रग्घू को इस समय ममामन्तक पीडा हो रह थी। मलु िया के इन कठोर शब्दों ने घाव पर नमक नछडक
ददया। द:ु खखत नेत्रों से दे खकर बोिा—तेरी जो मजी थी, वही तो हुआ। अब जा, ढोि बजा!
मलु िया—नहीीं, तुम्हारे लिए थािी परोसे बैठी है ।
रग्घ—
ू मझु े धचढ़ा मत। तेरे पीछे मैं भी बदनाम हो रहा हू। जब तू ककसी की होकर नहीीं रहना चाहती,
तो दस
ू रे को क्या गरज है, जो मेरी खश ु ामद करे ? जाकर काकी से पछ
ू , िडके आम चनु ने गए हैं, उन्हें पकड
िाऊ?
मलु िया अगूठा ददखाकर बोिी—यह जाता है । तुम्हें सौ बार गरज हो, जाकर पछ
ू ो।

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इतने में पन्ना भी भीतर से ननकि आयी। रग्घू ने पछ
ू ा—िडके बगीचे में चिे गए काकी, िू चि रही
है ।
पन्ना—अब उनका कौन पछ
ु त्तर है? बगीचे में जाऍ,ीं पेड पर चढ़ें , पानी में डूबें। मैं अकेिी क्या-क्या करु?
रग्घ—
ू जाकर पकड िाऊ?
पन्ना—जब तुम्हें अपने मन से नहीीं जाना है, तो कफर मैं जाने को क्यों कहू? तुम्हें रोकना होता , तो
रोक न दे त?े तुम्हारे सामने ही तो गए होंगे?
पन्ना की बात परू ी भी न हुई थी कक रग्घू ने नाररयि कोने में रख ददया और बाग की तरफ चिा।

र ग्घू िडकों को िेकर बाग से िौटा, तो दे खा मलु िया अभी तक झोंपडे में खडी है । बोिा—तू जाकर खा
क्यों नहीीं िेती? मझ
ु े तो इस बेिा भख
ू नहीीं है।
मलु िया ऐींठकर बोिी—ह ,ॉँ भख
ू क्यों िगेगी! भाइयों ने खाया, वह तम्
ु हारे पेट में पहुच ही गया होगा।
रग्घू ने द तॉँ पीसकर कहा—मझ ु े जिा मत मलु िया, नहीीं अच्छा न होगा। खाना कहीीं भागा नहीीं जाता।
एक बेिा न खाऊगा, तो मर न जाउगा! क्या तू समझती हैं, घर में आज कोई बात हो गई हैं? तूने घर में
चल्
ू हा नहीीं जिाया, मेरे किेजे में आग िगाई है । मझ
ु े घमींड था कक और चाहे कुछ हो जाए, पर मेरे घर में
फूट का रोग न आने पाएगा, पर तूने घमींड चरू कर ददया। परािब्ध की बात है ।
मलु िया नतनककर बोिी—सारा मोह-छोह तुम्हीीं को है कक और ककसी को है? मैं तो ककसी को तुम्हारी
तरह बबसरू ते नहीीं दे खती।
ॉँ खीींचकर कहा—मलु िया, घाव पर नोन न नछडक। तेरे ही कारन मेरी पीठ में धि
रग्घू ने ठीं डी स स ू
िग रही है। मझ ु े इस गहृ स्थी का मोह न होगा, तो ककसे होगा? मैंने ही तो इसे मर-मर जोडा। क्जनको गोद
ॉँ
में खेिाया, वहीीं अब मेरे पट्टीदार होंगे। क्जन बच्चों को मैं ड टता था, उन्हें आज कडी ऑ ींखों से भी नहीीं दे ख
सकता। मैं उनके भिे के लिए भी कोई बात करु, तो दनु नया यही कहे गी कक यह अपने भाइयों को िट
ू े िेता
है । जा मझ
ु े छोड दे , अभी मझ
ु से कुछ न खाया जाएगा।
मलु िया—मैं कसम रखा दगी,
ू नहीीं चप
ु के से चिे चिो।
रग्घ—
ू दे ख, अब भी कुछ नहीीं बबगडा है। अपना हठ छोड दे ।
मलु िया—हमारा ही िहू वपए, जो खाने न उठे ।
रग्घू ने कानों पर हाथ रखकर कहा—यह तूने क्या ककया मलु िया? मैं तो उठ ही रहा था। चि खा ि।ू
नहाने-धोने कौन जाए, िेककन इतनी कहे दे ता हू कक चाहे चार की जगह छ: रोदटय ॉँ खा जाऊ, चाहे तू मझ
ु े
घी के मटके ही में डुबा दे : पर यह दाग मेरे ददि से न लमटे गा।
मलु िया—दाग-साग सब लमट जाएगा। पहिे सबको ऐसा ही िगता है। दे खते नहीीं हो, उधर कैसी चैन
की वींशी बज रही है , वह तो मना ही रही थीीं कक ककसी तरह यह सब अिग हो जाऍ।ीं अब वह पहिे की-सी
ॉँ तो नहीीं है कक जो कुछ घर में आवे, सब गायब! अब क्यों हमारे साथ रहने िगीीं?
च दी
रग्घू ने आहत स्वर में कहा—इसी बात का तो मझ
ु े गम है। काकी ने मझ
ु े ऐसी आशा न थी।
रग्घू खाने बैठा, तो कौर ववष के घट-सा
ू िगता था। जान पडता था, रोदटय ॉँ भस
ू ी की हैं। दाि पानी-सी
िगती। पानी कींठ के नीचे न उतरता था, दध
ू की तरफ दे खा तक नहीीं। दो-चार ग्रास खाकर उठ आया, जैसे
ककसी वप्रयजन के श्राद्ध का भोजन हो।
रात का भोजन भी उसने इसी तरह ककया। भोजन क्या ककया, कसम परू ी की। रात-भर उसका धचत्त
उद्ववग्न रहा। एक अज्ञात शींका उसके मन पर छाई हुई थी, जेसे भोिा महतो द्वार पर बैठा रो रहा हो। वह
कई बार चौंककर उठा। ऐसा जान पडा, भोिा उसकी ओर नतरस्कार की आखों से दे ख रहा है ।
वह दोनों जून भोजन करता था: पर जैसे शत्रु के घर। भोिा की शोकमग्न मनू तम ऑ ींखों से न उतरती
थी। रात को उसे नीींद न आती। वह ग वॉँ में ननकिता, तो इस तरह मह
ु चरु ाए, लसर झक
ु ाए मानो गो-हत्या
की हो।

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पा
च साि गज
ु र गए। रग्घू अब दो िडकों का बाप था। आगन में दीवार खखींच गई थी, खेतों में मेडें डाि
ॉँ लिये गए थे। केदार की उम्र अब उन्नीस की हो गई थी। उसने पढ़ना
दी गई थीीं और बैि-बनछए ब ध
छोड ददया था और खेती का काम करता था। खन्
ु नू गाय चराता था। केवि िछमन अब तक मदरसे जाता
था। पन्ना और मलु िया दोनों एक-दस ू रे की सरू त से जिती थीीं। मलु िया के दोनों िडके बहुधा पन्ना ही के
पास रहते। वहीीं उन्हें उबटन मिती, वही काजि िगाती, वही गोद में लिये कफरती: मगर मलु िया के मह ींु से
अनग्र
ु ह का एक शब्द भी न ननकिता। न पन्ना ही इसकी इच्छुक थी। वह जो कुछ करती ननव्यामज भाव से
करती थी। उसके दो-दो िडके अब कमाऊ हो गए थे। िडकी खाना पका िेती थी। वह खुद ऊपर का काम-
काज कर िेती। इसके ववरुद्ध रग्घू अपने घर का अकेिा था, वह भी दब
ु ि
म , अशक्त और जवानी में बढ़
ू ा।
अभी आयु तीस वषम से अधधक न थी, िेककन बाि खखचडी हो गए थे। कमर भी झक ॉँ ने
ु चिी थी। ख सी
जीणम कर रखा था। दे खकर दया आती थी। और खेती पसीने की वस्तु है । खेती की जैसी सेवा होनी चादहए,
वह उससे न हो पाती। कफर अच्छी फसि कह ॉँ से आती? कुछ ऋण भी हो गया था। वह धचींता और भी मारे
डािती थी। चादहए तो यह था कक अब उसे कुछ आराम लमिता। इतने ददनों के ननरन्तर पररश्रम के बाद
लसर का बोझ कुछ हल्का होता, िेककन मलु िया की स्वाथमपरता और अदरू दलशमता ने िहराती हुई खेती उजाड
दी। अगर सब एक साथ रहते, तो वह अब तक पेन्शन पा जाता, मजे में द्वार पर बैठा हुआ नाररयि पीता।
भाई काम करते, वह सिाह दे ता। महतो बना कफरता। कहीीं ककसी के झगडे चक
ु ाता, कहीीं साध-ु सींतों की सेवा
करता: वह अवसर हाथ से ननकि गया। अब तो धचींता-भार ददन-ददन बढ़ता जाता था।
आखखर उसे धीमा-धीमा जवर रहने िगा। हृदय-शि
ू , धचींता, कडा पररश्रम और अभाव का यही परु स्कार
है । पहिे कुछ परवाह न की। समझा आप ही आप अच्छा हो जाएगा: मगर कमजोरी बढ़ने िगी, तो दवा की
कफक्र हुई। क्जसने जो बता ददया, खा लिया, डाक्टरों और वैद्यों के पास जाने की सामथ्यम कह ?ॉँ और सामथ्यम
भी होती, तो रुपये खचम कर दे ने के लसवा और नतीजा ही क्या था? जीणम जवर की औषधध आराम और
पक्ु ष्टकारक भोजन है। न वह बसींत-मािती का सेवन कर सकता था और न आराम से बैठकर बिबधमक
भोजन कर सकता था। कमजोरी बढ़ती ही गई।
पन्ना को अवसर लमिता, तो वह आकर उसे तसल्िी दे ती: िेककन उसके िडके अब रग्घू से बात भी
न करते थे। दवा-दारु तो क्या करतें , उसका और मजाक उडाते। भैया समझते थे कक हम िोगों से अिग
होकर सोने और ईट रख िेंगे। भाभी भी समझती थीीं, सोने से िद जाऊगी। अब दे खें कौन पछ
ू ता है? लससक-
लससककर न मरें तो कह दे ना। बहुत ‘हाय! हाय!’ भी अच्छी नहीीं होती। आदमी उतना काम करे , क्जतना हो
सके। यह नहीीं कक रुपये के लिए जान दे दे ।
पन्ना कहती—रग्घू बेचारे का कौन दोष है?
केदार कहता—चि, मैं खूब समझता हू। भैया की जगह मैं होता, तो डींडे से बात करता। मजाक थी कक
औरत यों क्जद करती। यह सब भैया की चाि थी। सब सधी-बधी बात थी।
आखखर एक ददन रग्घू का दटमदटमाता हुआ जीवन-दीपक बझ
ु गया। मौत ने सारी धचन्ताओीं का अींत
कर ददया।
अींत समय उसने केदार को बि
ु ाया था: पर केदार को ऊख में पानी दे ना था। डरा, कहीीं दवा के लिए न
भेज दें । बहाना बना ददया।

मु लिया का जीवन अींधकारमय हो गया। क्जस भलू म पर उसने मनसब


ू ों की दीवार खडी की थी, वह नीचे से
ॉँ
खखसक गई थी। क्जस खटेंू के बि पर वह उछि रही थी, वह उखड गया था। ग ववािों ने कहना शरु

ककया, ईश्वर ने कैसा तत्काि दीं ड ददया। बेचारी मारे िाज के अपने दोनों बच्चों को लिये रोया करती। ग वॉँ
में ककसी को मह
ु ददखाने का साहस न होता। प्रत्येक प्राणी उससे यह कहता हुआ मािम
ू होता था—‘मारे
घमण्ड के धरती पर प वॉँ न रखती थी: आखखर सजा लमि गई कक नहीीं !’ अब इस घर में कैसे ननवामह
होगा? वह ककसके सहारे रहे गी? ककसके बि पर खेती होगी? बेचारा रग्घू बीमार था। दब
ु ि
म था, पर जब तक
जीता रहा, अपना काम करता रहा। मारे कमजोरी के कभी-कभी लसर पकडकर बैठ जाता और जरा दम िेकर
कफर हाथ चिाने िगता था। सारी खेती तहस-नहस हो रही थी, उसे कौन सींभािेगा? अनाज की ड ठेंॉँ खलिहान
में पडी थीीं, ऊख अिग सख
ू रही थी। वह अकेिी क्या-क्या करे गी? कफर लसींचाई अकेिे आदमी का तो काम

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नहीीं। तीन-तीन मजदरू ों को कह ॉँ से िाए! ग वॉँ में मजदरू थे ही ककतने। आदलमयों के लिए खीींचा-तानी हो
रही थी। क्या करें , क्या न करे ।
इस तरह तेरह ददन बीत गए। कक्रया-कमम से छुट्टी लमिी। दस
ू रे ही ददन सवेरे मलु िया ने दोनों बािकों
को गोद में उठाया और अनाज म डनेॉँ चिी। खलिहान में पहुींचकर उसने एक को तो पेड के नीचे घास के
नमम बबस्तर पर सिु ा ददया और दस ॉँ
ू रे को वहीीं बैठाकर अनाज म डने ॉँ
िगी। बैिों को ह कती थी और रोती
थी। क्या इसीलिए भगवान ् ने उसको जन्म ददया था? दे खते-दे खते क्या वे क्या हो गया? इन्हीीं ददनों वपछिे
ॉँ गया था। वह रग्घू के लिए िोटे में शरबत और मटर की घघी
साि भी अनाज म डा ु िेकर आई थी। आज
कोई उसके आगे है , न पीछे : िेककन ककसी की िौंडी तो नहीीं हू! उसे अिग होने का अब भी पछतावा न था।
एकाएक छोटे बच्चे का रोना सन ु कर उसने उधर ताका, तो बडा िडका उसे चम ु कारकर कह रहा था—
बैया तप
ु रहो, तप
ु रहो। धीरे -धीरे उसके मींह
ु पर हाथ फेरता था और चप
ु कराने के लिए ववकि था। जब
बच्चा ककसी तरह न चपु न हुआ तो वह खदु उसके पास िेट गया और उसे छाती से िगाकर प्यार करने
िगा: मगर जब यह प्रयत्न भी सफि न हुआ, तो वह रोने िगा।
उसी समय पन्ना दौडी आयी और छोटे बािक को गोद में उठाकर प्यार करती हुई बोिी—िडकों को
मझ
ु े क्यों न दे आयी बहू? हाय! हाय! बेचारा धरती पर पडा िोट रहा है । जब मैं मर जाऊ तो जो चाहे
करना, अभी तो जीती हू, अिग हो जाने से बच्चे तो नहीीं अिग हो गए।
मलु िया ने कहा—तुम्हें भी तो छुट्टी नहीीं थी अम्म ,ॉँ क्या करती?
पन्ना—तो तुझे यह ॉँ आने की ऐसी क्या जल्दी थी? ड ठ
ॉँ म डॉँ न जाती। तीन-तीन िडके तो हैं, और
ॉँ
ककसी ददन काम आऍगेीं ? केदार तो कि ही म डने को कह रहा था: पर मैंने कहा, पहिे ऊख में पानी दे िो,
कफर आज म डना, मडाई तो दस ददन बाद भ हो सकती है, ऊख की लसींचाई न हुई तो सख ू जाएगी। कि से
पानी चढ़ा हुआ है, परसों तक खेत परु जाएगा। तब मडाई हो जाएगी। तुझे ववश्वास न आएगा, जब से भैया
मरे हैं, केदार को बडी धचींता हो गई है । ददन में सौ-सौ बार पछ
ू ता है, भाभी बहुत रोती तो नहीीं हैं? दे ख, िडके
ू े तो नहीीं हैं। कोई िडका रोता है, तो दौडा आता है , दे ख अम्म ,ॉँ क्या हुआ, बच्चा क्यों रोता है ? कि रोकर
भख
बोिा—अम्म ,ॉँ मैं जानता कक भैया इतनी जल्दी चिे जाऍगेीं , तो उनकी कुछ सेवा कर िेता। कह ॉँ जगाए-
जगाए उठता था, अब दे खती हो, पहर रात से उठकर काम में िग जाता है । खुन्नू कि जरा-सा बोिा, पहिे
ॉँ कक खन्
हम अपनी ऊख में पानी दे िेंगे, तब भैया की ऊख में दें गे। इस पर केदार ने ऐसा ड टा ु नू के मह
ु से
कफर बात न ननकिी। बोिा, कैसी तम्
ु हारी और कैसी हमारी ऊख? भैया ने क्जिा न लिया होता, तो आज या
ॉँ
तो मर गए होते या कहीीं भीख म गते होते। आज तम
ु बडे ऊखवािे बने हो! यह उन्हीीं का पन
ु -परताप है कक
आज भिे आदमी बने बैठे हो। परसों रोटी खाने को बि
ु ाने गई, तो मडैया में बैठा रो रहा था। पछ
ू ा, क्यों
रोता है? तो बोिा, अम्म ,ॉँ भैया इसी ‘अिग्योझ’ के दख
ु से मर गए, नहीीं अभी उनकी उलमर ही क्या थी! यह
उस वक्त न सझ
ू ा, नहीीं उनसे क्यों बबगाड करते?
यह कहकर पन्ना ने मलु िया की ओर सींकेतपण
ू म दृक्ष्ट से दे खकर कहा—तुम्हें वह अिग न रहने दे गा
बहू, कहता है, भैया हमारे लिए मर गए तो हम भी उनके बाि-बच्चों के लिए मर जाऍगेीं ।
मलु िया की आींखों से ऑ ींसू जारी थे। पन्ना की बातों में आज सच्ची वेदना, सच्ची सान्त्वना, सच्ची
धचन्ता भरी हुई थी। मलु िया का मन कभी उसकी ओर इतना आकवषमत न हुआ था। क्जनसे उसे व्यींग्य और
प्रनतकार का भय था, वे इतने दयाि,ु इतने शभ
ु ेच्छु हो गए थे।
आज पहिी बार उसे अपनी स्वाथमपरता पर िजजा आई। पहिी बार आत्मा ने अिग्योझे पर
धधक्कारा।
9

इ ॉँ साि गज
स घटना को हुए प च ु र गए। पन्ना आज बढ़
ू ी हो गई है । केदार घर का मालिक है । मलु िया
घर की मािककन है। खुन्नू और िछमन के वववाह हो चक ॉँ है। कहता
ु े हैं: मगर केदार अभी तक क्व रा
हैं— मैं वववाह न करुगा। कई जगहों से बातचीत हुई, कई सगाइय ॉँ आयीीं: पर उसे हामी न भरी। पन्ना ने
कम्पे िगाए, जाि फैिाए, पर व न फसा। कहता—औरतों से कौन सख ु ? मेहररया घर में आयी और आदमी
ॉँ
का लमजाज बदिा। कफर जो कुछ है, वह मेहररया है । म -बाप, भाई-बन्धु सब पराए हैं। जब भैया जैसे आदमी
का लमजाज बदि गया, तो कफर दस
ू रों की क्या धगनती? दो िडके भगवान ् के ददये हैं और क्या चादहए। बबना
ब्याह ककए दो बेटे लमि गए, इससे बढ़कर और क्या होगा? क्जसे अपना समझो, व अपना है : क्जसे गैर
समझो, वह गैर है।
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एक ददन पन्ना ने कहा—तेरा वींश कैसे चिेगा?
केदार—मेरा वींश तो चि रहा है । दोनों िडकों को अपना ही समझता हूीं।
पन्ना—समझने ही पर है , तो तू मलु िया को भी अपनी मेहररया समझता होगा?
केदार ने झेंपते हुए कहा—तुम तो गािी दे ती हो अम्म !ॉँ
पन्ना—गािी कैसी, तेरी भाभी ही तो है !
केदार—मेरे जेसे िट्ठ-गवार को वह क्यों पछ
ू ने िगी!
पन्ना—तू करने को कह, तो मैं उससे पछ
ू ू?
केदार—नहीीं मेरी अम्म ,ॉँ कहीीं रोने-गाने न िगे।
पन्ना—तेरा मन हो, तो मैं बातों-बातों में उसके मन की थाह ि?ू
केदार—मैं नहीीं जानता, जो चाहे कर।
पन्ना केदार के मन की बात समझ गई। िडके का ददि मलु िया पर आया हुआ है : पर सींकोच और
भय के मारे कुछ नहीीं कहता।
उसी ददन उसने मलु िया से कहा—क्या करु बहू, मन की िािसा मन में ही रह जाती है। केदार का घर
भी बस जाता, तो मैं ननक्श्चन्त हो जाती।
मलु िया—वह तो करने को ही नहीीं कहते।
पन्ना—कहता है, ऐसी औरत लमिे, जो घर में मेि से रहे , तो कर ि।ू
मलु िया—ऐसी औरत कह ॉँ लमिेगी? कहीीं ढूढ़ो।
पन्ना—मैंने तो ढूढ़ लिया है ।
मलु िया—सच, ककस ग वॉँ की है?
पन्ना—अभी न बताऊगी, मद ु ा यह जानती हू कक उससे केदार की सगाई हो जाए, तो घर बन जाए
और केदार की क्जन्दगी भी सफ
ु ि हो जाए। न जाने िडकी मानेगी कक नहीीं।
मलु िया—मानेगी क्यों नहीीं अम्म ,ॉँ ऐसा सन् ु ीि वर और कह ॉँ लमिा जाता है? उस जनम
ु दर कमाऊ, सश
का कोई साध-ु महात्मा है, नहीीं तो िडाई-झगडे के डर से कौन बबन ब्याहा रहता है। कह ॉँ रहती है, मैं जाकर
उसे मना िाऊगी।
पन्ना—तू चाहे , तो उसे मना िे। तेरे ही ऊपर है ।
मलु िया—मैं आज ही चिी जाऊगी, अम्मा, उसके पैरों पडकर मना िाऊगी।
पन्ना—बता द,ू वह तू ही है!
मलु िया िजाकर बोिी—तम ॉँ गािी दे ती हो।
ु तो अम्म जी,
पन्ना—गािी कैसी, दे वर ही तो है !
मलु िया—मझ
ु जैसी बदु ढ़या को वह क्यों पछ
ू ें गे?
ॉँ िगाए बैठा है । तेरे लसवा कोई और उसे भाती ही नहीीं। डर के मारे कहता
पन्ना—वह तुझी पर द त
नहीीं: पर उसके मन की बात मैं जानती हू।
ॉँ अरुण हो उठा। दस वषो में
वैधव्य के शौक से मरु झाया हुआ मलु िया का पीत वदन कमि की भ नत
जो कुछ खोया था, वह इसी एक क्षण में मानों ब्याज के साथ लमि गया। वही िवण्य, वही ववकास, वहीीं
आकषमण, वहीीं िोच।

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ईदगाह

र मजान के परू े तीस रोजों के बाद ईद आयी है । ककतना मनोहर, ककतना सह


ु ावना प्रभाव है । वक्ष
ृ ों पर
अजीब हररयािी है , खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब िालिमा है । आज का सय ू म
दे खो, ककतना प्यारा, ककतना शीति है , यानी सींसार को ईद की बधाई दे रहा है । ग वीं में ककतनी हिचि है ।
ईदगाह जाने की तैयाररय ॉँ हो रही हैं। ककसी के कुरते में बटन नहीीं है, पडोस के घर में सई
ु -धागा िेने दौडा
जा रहा है । ककसी के जूते कडे हो गए हैं, उनमें तेि डािने के लिए तेिी के घर पर भागा जाता है। जल्दी-
जल्दी बैिों को सानी-पानी दे दें । ईदगाह से िौटते-िौटते दोपहर हो जाएगी। तीन कोस का पेदि रास्ता, कफर
सैकडों आदलमयों से लमिना-भें टना, दोपहर के पहिे िोटना असम्भव है । िडके सबसे जयादा प्रसन्न हैं। ककसी
ने एक रोजा रखा है, वह भी दोपहर तक, ककसी ने वह भी नहीीं, िेककन ईदगाह जाने की खुशी उनके दहस्से
की चीज है। रोजे बडे-बढ़
ू ो के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद है। रोज ईद का नाम रटते थे, आज वह आ गई।
अब जल्दी पडी है कक िोग ईदगाह क्यों नहीीं चिते। इन्हें गह
ृ स्थी धचींताओीं से क्या प्रयोजन! सेवय
ै ों के लिए
दध
ू ओर शक्कर घर में है या नहीीं, इनकी बिा से, ये तो सेवय
े ाीं खाऍगेीं । वह क्या जानें कक अब्बाजान क्यों
बदहवास चौधरी कायमअिी के घर दौडे जा रहे हैं। उन्हें क्या खबर कक चौधरी ऑ ींखें बदि िें, तो यह सारी
ईद महु रम म हो जाए। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर काधन भरा हुआ है । बार-बार जेब से अपना खजाना
ननकािकर धगनते हैं और खश ु होकर कफर रख िेते हैं। महमद ू धगनता है, एक-दो, दस,-बारह, उसके पास बारह
पैसे हैं। मोहनलसन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पींद्रह पैसे हैं। इन्हीीं अनधगनती पैसों में अनधगनती चीजें
िाऍगेंीं — खखिौने, लमठाइयाीं, बबगुि, गें द और जाने क्या-क्या।
ॉँ साि का गरीब सरू त, दब
और सबसे जयादा प्रसन्न है हालमद। वह चार-प च ु िा-पतिा िडका, क्जसका
बाप गत वषम हैजे की भें ट हो गया और म ॉँ न जाने क्यों पीिी होती-होती एक ददन मर गई। ककसी को पता
क्या बीमारी है । कहती तो कौन सन
ु ने वािा था? ददि पर जो कुछ बीतती थी, वह ददि में ही सहती थी ओर
जब न सहा गया,. तो सींसार से ववदा हो गई। अब हालमद अपनी बढ़
ू ी दादी अमीना की गोद में सोता है और
उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बाजान रूपये कमाने गए हैं। बहुत-सी थैलिय ॉँ िेकर आऍगेीं । अम्मीजान
अल्िहा लमय ॉँ के घर से उसके लिए बडी अच्छी-अच्छी चीजें िाने गई हैं, इसलिए हालमद प्रसन्न है। आशा
तो बडी चीज है, और कफर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पवमत बना िेती हे । हालमद के प वीं में
जत
ू े नहीीं हैं, लसर परएक परु ानी-धरु ानी टोपी है, क्जसका गोटा कािा पड गया है , कफर भी वह प्रसन्न है । जब
उसके अब्बाजान थैलिय ॉँ और अम्मीजान ननयमतें िेकर आऍगी,
ीं तो वह ददि से अरमान ननकाि िेगा। तब
दे खेगा, मोहलसन, नरू े और सम्मी कह ॉँ से उतने पैसे ननकािेंगे।
अभाधगन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का ददन, उसके घर में दाना नहीीं! आज
आबबद होता, तो क्या इसी तरह ईद आती ओर चिी जाती! इस अन्धकार और ननराशा में वह डूबी जा रही
है । ककसने बि
ु ाया था इस ननगोडी ईद को? इस घर में उसका काम नहीीं, िेककन हालमद! उसे ककसी के मरने-
जीने के क्या मति? उसके अन्दर प्रकाश है , बाहर आशा। ववपवत्त अपना सारा दिबि िेकर आये, हालमद की
आनींद-भरी धचतबन उसका ववध्वसीं कर दे गी।
ु डरना नहीीं अम्म ,ॉँ मै सबसे पहिे आऊगा। बबल्कुि न
हालमद भीतर जाकर दादी से कहता है —तम
डरना।
अमीना का ददि कचोट रहा है। ग वॉँ के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं। हालमद का बाप
अमीना के लसवा और कौन है! उसे केसे अकेिे मेिे जाने दे ? उस भीड-भाड से बच्चा कहीीं खो जाए तो क्या
हो? नहीीं, अमीना उसे यों न जाने दे गी। नन्ही-सी जान! तीन कोस चिेगा कैसे? पैर में छािे पड जाऍगेीं । जत
ू े
भी तो नहीीं हैं। वह थोडी-थोडी दरू पर उसे गोद में िे िेती, िेककन यह ॉँ सेवय
ै ॉँ कोन पकाएगा? पैसे होते तो
िौटते-िोटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना िेती। यह ॉँ तो घींटों चीजें जमा करते िगें गे। म गे
ॉँ का ही
तो भरोसा ठहरा। उस ददन फहीमन के कपडे लसिे थे। आठ आने पेसे लमिे थे। उस उठन्नी को ईमान की
तरह बचाती चिी आती थी इसी ईद के लिए िेककन कि ग्वािन लसर पर सवार हो गई तो क्या करती?
हालमद के लिए कुछ नहीीं हे , तो दो पैसे का दध
ू तो चादहए ही। अब तो कुि दो आने पैसे बच रहे हैं। तीन
पैसे हालमद की जेब में , पाींच अमीना के बटुवें में । यही तो बबसात है और ईद का त्यौहार, अल्िा ही बेडा पर
िगाए। धोबन और नाइन ओर मेहतरानी और चडु डहाररन सभी तो आऍगी।
ीं सभी को सेवेय ॉँ चादहए और थोडा

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ककसी को ऑ ींखों नहीीं िगता। ककस-ककस सें मह
ु चरु ायेगी? और मह
ु क्यों चरु ाए? साि-भर का त्योंहार हैं।
क्जन्दगी खैररयत से रहें , उनकी तकदीर भी तो उसी के साथ है : बच्चे को खद
ु ा सिामत रखे, यें ददन भी कट
जाऍगेीं ।
ग वॉँ से मेिा चिा। ओर बच्चों के साथ हालमद भी जा रहा था। कभी सबके सब दौडकर आगे ननकि
जाते। कफर ककसी पेड के नीींचे खडे होकर साथ वािों का इींतजार करते। यह िोग क्यों इतना धीरे -धीरे चि
रहे हैं? हालमद के पैरो में तो जैसे पर िग गए हैं। वह कभी थक सकता है? शहर का दामन आ गया। सडक
के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं। पक्की चारदीवारी बनी हुई है । पेडो में आम और िीधचय ॉँ िगी हुई हैं।
कभी-कभी कोई िडका कींकडी उठाकर आम पर ननशान िगाता हे । मािी अींदर से गािी दे ता हुआ ननींिता है ।
ॉँ पर हैं। खूब हस रहे हैं। मािी को केसा उल्िू बनाया है।
िडके वहा से एक फि ग
बडी-बडी इमारतें आने िगीीं। यह अदाित है, यह कािेज है , यह क्िब घर है । इतने बडे कािेज में
ककतने िडके पढ़ते होंगे? सब िडके नहीीं हैं जी! बडे-बडे आदमी हैं, सच! उनकी बडी-बडी मछे
ू हैं। इतने बडे हो
गए, अभी तक पढ़ते जाते हैं। न जाने कब तक पढ़ें गे ओर क्या करें गे इतना पढ़कर! हालमद के मदरसे में दो-
तीन बडे-बडे िडके हें , बबल्कुि तीन कौडी के। रोज मार खाते हैं, काम से जी चरु ाने वािे। इस जगह भी उसी
ु ा है, यह ॉँ मद
तरह के िोग होंगे ओर क्या। क्िब-घर में जाद ू होता है। सन ु ो की खोपडडयाीं दौडती हैं। और
बडे-बडे तमाशे होते हें , पर ककसी कोअींदर नहीीं जाने दे त।े और वह ॉँ शाम को साहब िोग खेिते हैं। बडे-बडे
आदमी खेिते हें , मछो-दाढ़ी
ू वािे। और मेमें भी खेिती हैं, सच! हमारी अम्म ॉँ को यह दे दो, क्या नाम है, बैट,
तो उसे पकड ही न सके। घम
ु ाते ही िढ़
ु क जाऍ।ीं
महमद ॉँ
ू ने कहा—हमारी अम्मीजान का तो हाथ क पने िगे, अल्िा कसम।
ॉँ
मोहलसन बोि—चिों, मनों आटा पीस डािती हैं। जरा-सा बैट पकड िेगी, तो हाथ क पने िगें गे! सौकडों
ॉँ घडे तो तेरी भैंस पी जाती है । ककसी मेम को एक घडा पानी भरना पडे, तो
घडे पानी रोज ननकािती हैं। प च
ऑ ींखों तक अधेरी आ जाए।
महमद
ू —िेककन दौडतीीं तो नहीीं, उछि-कूद तो नहीीं सकतीीं।
मोहलसन—ह ,ॉँ उछि-कूद तो नहीीं सकतीीं; िेककन उस ददन मेरी गाय खुि गई थी और चौधरी के खेत
में जा पडी थी, अम्म ॉँ इतना तेज दौडी कक में उन्हें न पा सका, सच।
आगे चिे। हिवाइयों की दक ु हुई। आज खूब सजी हुई थीीं। इतनी लमठाइय ॉँ कौन खाता? दे खो
ु ानें शरू
न, एक-एक दक
ू ान पर मनों होंगी। सनु ा है , रात को क्जन्नात आकर खरीद िे जाते हैं। अब्बा कहते थें कक
आधी रात को एक आदमी हर दक
ू ान पर जाता है और क्जतना माि बचा होता है, वह ति
ु वा िेता है और
सचमच
ु के रूपये दे ता है, बबल्कुि ऐसे ही रूपये।
हालमद को यकीन न आया—ऐसे रूपये क्जन्नात को कह ॉँ से लमि जाऍगी?
ीं
मोहलसन ने कहा—क्जन्नात को रूपये की क्या कमी? क्जस खजाने में चाहें चिे जाऍ।ीं िोहे के दरवाजे
तक उन्हें नहीीं रोक सकते जनाब, आप हैं ककस फेर में ! हीरे -जवाहरात तक उनके पास रहते हैं। क्जससे खश

ॉँ लमनट में किकत्ता पहुच जाऍ।ीं
हो गए, उसे टोकरों जवाहरात दे ददए। अभी यहीीं बैठे हें , प च
हालमद ने कफर पछ ू ा—क्जन्नात बहुत बडे-बडे होते हैं?
मोहलसन—एक-एक लसर आसमान के बराबर होता है जी! जमीन पर खडा हो जाए तो उसका लसर
आसमान से जा िगे, मगर चाहे तो एक िोटे में घस
ु जाए।
हालमद—िोग उन्हें केसे खश
ु करते होंगे? कोई मझ
ु े यह मींतर बता दे तो एक क्जनन को खश
ु कर ि।ू
मोहलसन—अब यह तो न जानता, िेककन चौधरी साहब के काबू में बहुत-से क्जन्नात हैं। कोई चीज
चोरी जाए चौधरी साहब उसका पता िगा दें गे ओर चोर का नाम बता दे गें। जुमराती का बछवा उस ददन खो
गया था। तीन ददन है रान हुए, कहीीं न लमिा तब झख मारकर चौधरी के पास गए। चौधरी ने तुरन्त बता
ददया, मवेशीखाने में है और वहीीं लमिा। क्जन्नात आकर उन्हें सारे जहान की खबर दे जाते हैं।
अब उसकी समझ में आ गया कक चौधरी के पास क्यों इतना धन है और क्यों उनका इतना सम्मान
है ।
आगे चिे। यह पलु िस िाइन है। यहीीं सब काननसदटबबि कवायद करते हैं। रै टन! फाय फो! रात को
बेचारे घम ू कर पहरा दे ते हैं, नहीीं चोररय ॉँ हो जाऍ।ीं मोहलसन ने प्रनतवाद ककया—यह काननसदटबबि पहरा
ू -घम
दे ते हें ? तभी तुम बहुत जानते हों अजी हजरत, यह चोरी करते हैं। शहर के क्जतने चोर-डाकू हें , सब इनसे
मह ु ल्िे में जाकर ‘जागते रहो! जाते रहो!’ पक
ु ारते हें । तभी इन िोगों के पास इतने रूपये आते हें । मेरे मामू

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एक थाने में काननसदटबबि हें । बरस रूपया महीना पाते हें , िेककन पचास रूपये घर भेजते हें । अल्िा कसम!
ू ा था कक माम,ू आप इतने रूपये कह ॉँ से पाते हैं? हसकर कहने िगे—बेटा, अल्िाह दे ता है ।
मैंने एक बार पछ
कफर आप ही बोिे—हम िोग चाहें तो एक ददन में िाखों मार िाऍ।ीं हम तो इतना ही िेते हैं, क्जसमें अपनी
बदनामी न हो और नौकरी न चिी जाए।
हालमद ने पछ
ू ा—यह िोग चोरी करवाते हैं, तो कोई इन्हें पकडता नहीीं?
मोहलसन उसकी नादानी पर दया ददखाकर बोिा..अरे , पागि! इन्हें कौन पकडेगा! पकडने वािे तो यह
िोग खुद हैं, िेककन अल्िाह, इन्हें सजा भी खूब दे ता है । हराम का माि हराम में जाता है । थोडे ही ददन हुए,
मामू के घर में आग िग गई। सारी िेई-पजी ू जि गई। एक बरतन तक न बचा। कई ददन पेड के नीचे
सोए, अल्िा कसम, पेड के नीचे! कफरन जाने कह ॉँ से एक सौ कजम िाए तो बरतन-भ डेॉँ आए।
हालमद—एक सौ तो पचार से जयादा होते है ?
‘कह ॉँ पचास, कह ॉँ एक सौ। पचास एक थैिी-भर होता है। सौ तो दो थैलियों में भी न आऍ?ीं
अब बस्ती घनी होने िगी। ईइगाह जाने वािो की टोलिय ॉँ नजर आने िगी। एक से एक भडकीिे
ॉँ पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के ददिों में उमींग। ग्रामीणों
वस्त्र पहने हुए। कोई इक्के-त गे
का यह छोटा-सा दि अपनी ववपन्नता से बेखबर, सन्तोष ओर धैयम में मगन चिा जा रहा था। बच्चों के
लिए नगर की सभी चीजें अनोखी थीीं। क्जस चीज की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे से आनम की
आवाज होने पर भी न चेतते। हालमद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा।
सहसा ईदगाह नजर आई। ऊपर इमिी के घने वक्ष
ृ ों की छाया हे । नाचे पक्का फशम है , क्जस पर
जाजम दढछा हुआ है। और रोजेदारों की पींक्क्तय ॉँ एक के पीछे एक न जाने कह ॉँ वक चिी गई हैं, पक्की
जगत के नीचे तक, जह ॉँ जाजम भी नहीीं है । नए आने वािे आकर पीछे की कतार में खडे हो जाते हैं। आगे
जगह नहीीं हे । यह ॉँ कोई धन और पद नहीीं दे खता। इस्िाम की ननगाह में सब बराबर हें । इन ग्रामीणों ने भी
वजू ककया ओर वपछिी पींक्क्त में खडे हो गए। ककतना सन्
ु दर सींचािन है , ककतनी सन्
ु दर व्यवस्था! िाखों
लसर एक साथ लसजदे में झक
ु जाते हैं, कफर सबके सब एक साथ खडे हो जाते हैं, एक साथ झक
ु ते हें , और
एक साथ खडे हो जाते हैं, एक साथ खडे हो जाते हैं, एक साथ झक
ु ते हें , और एक साथ खडे हो जाते हैं, कई
बार यही कक्रया होती हे , जैसे बबजिी की िाखों बवत्तया एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बझ
ु जाऍ,ीं और
यही ग्रम चिता, रहे । ककतना अपव
ू म दृश्य था, क्जसकी सामदू हक कक्रयाऍ,ीं ववस्तार और अनींतता हृदय को
श्रद्धा, गवम और आत्मानींद से भर दे ती थीीं, मानों भ्रातत्ृ व का एक सत्र
ू इन समस्त आत्माओीं को एक िडी में
वपरोए हुए हैं।
2

न माज खत्म हो गई। िोग आपस में गिे लमि रहे हैं। तब लमठाई और खखिौने की दक
ू ान पर धावा
होता है । ग्रामीणों का यह दि इस ववषय में बािकों से कम उत्साही नहीीं है। यह दे खो, दहींडोिा हें एक
पैसा दे कर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मािम ू होगें , कभी जमीन पर धगरते हुए। यह चखी है ,
िकडी के हाथी, घोडे, ऊट, छडो में िटके हुए हैं। एक पेसा दे कर बैठ जाओीं और पच्चीस चक्करों का मजा
िो। महमद
ू और मोहलसन ओर नरू े ओर सम्मी इन घोडों ओर ऊटो पर बैठते हें । हालमद दरू खडा है। तीन ही
पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक नतहाई जरा-सा चक्कर खाने के लिए नहीीं दे सकता।
सब चखखमयों से उतरते हैं। अब खखिौने िेंगे। अधर दकू ानों की कतार िगी हुई है । तरह-तरह के
खखिौने हैं—लसपाही और गज
ु ररया, राज ओर वकी, लभश्ती और धोबबन और साध।ु वह! कत्ते सन्
ु दर खखिोने हैं।
अब बोिा ही चाहते हैं। महमद
ू लसपाही िेता हे , खाकी वदी और िाि पगडीवािा, कींधें पर बींदक
ू रखे हुए,
मािम
ू होता हे , अभी कवायद ककए चिा आ रहा है। मोहलसन को लभश्ती पसींद आया। कमर झक ु ी हुई है ,
ऊपर मशक रखे हुए हैं मशक का मह ु एक हाथ से पकडे हुए है। ककतना प्रसन्न है! शायद कोई गीत गा रहा
है । बस, मशक से पानी अडेिा ही चाहता है । नरू े को वकीि से प्रेम हे । कैसी ववद्वत्ता हे उसके मख
ु पर!
कािा चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घडी, सन
ु हरी जींजीर, एक हाथ में कानन
ू का
पौथा लिये हुए। मािम ू होता है, अभी ककसी अदाित से क्जरह या बहस ककए चिे आ रहे है। यह सब दो-दो
पैसे के खखिौने हैं। हालमद के पास कुि तीन पैसे हैं, इतने महगे खखिौन वह केसे िे? खखिौना कहीीं हाथ से
छूट पडे तो चरू -चरू हो जाए। जरा पानी पडे तो सारा रीं ग घि
ु जाए। ऐसे खखिौने िेकर वह क्या करे गा, ककस
काम के!
ॉँ
मोहलसन कहता है—मेरा लभश्ती रोज पानी दे जाएगा स झ-सबे रे
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महमद
ू —और मेरा लसपाही घर का पहरा दे गा कोई चोर आएगा, तो फौरन बींदक
ू से फैर कर दे गा।
नरू े —ओर मेरा वकीि खब
ू मक
ु दमा िडेगा।
सम्मी—ओर मेरी धोबबन रोज कपडे धोएगी।
हालमद खखिौनों की ननींदा करता है —लमट्टी ही के तो हैं, धगरे तो चकनाचरू हो जाऍ,ीं िेककन ििचाई हुई
ऑ ींखों से खखिौनों को दे ख रहा है और चाहता है कक जरा दे र के लिए उन्हें हाथ में िे सकता। उसके हाथ
अनायास ही िपकते हें , िेककन िडके इतने त्यागी नहीीं होते हें , ववशेषकर जब अभी नया शौक है । हालमद
ििचता रह जाता है ।
खखिौने के बाद लमठाइया आती हैं। ककसी ने रे वडडय ॉँ िी हें , ककसी ने गुिाबजामन
ु ककसी ने सोहन
हिवा। मजे से खा रहे हैं। हालमद बबरादरी से पथ
ृ क् है । अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों नहीीं कुछ िेकर
खाता? ििचाई ऑ ींखों से सबक ओर दे खता है ।
मोहलसन कहता है—हालमद रे वडी िे जा, ककतनी खश
ु बद
ू ार है !
हालमद को सदें ह हुआ, ये केवि क्रूर ववनोद हें मोहलसन इतना उदार नहीीं है, िेककन यह जानकर भी वह
उसके पास जाता है। मोहलसन दोने से एक रे वडी ननकािकर हालमद की ओर बढ़ाता है । हालमद हाथ फैिाता
है । मोहलसन रे वडी अपने मह ू नरू े ओर सम्मी खूब तालिय ॉँ बजा-बजाकर हसते हैं।
ु में रख िेता है । महमद
हालमद खखलसया जाता है ।
मोहलसन—अच्छा, अबकी जरूर दें गे हालमद, अल्िाह कसम, िे जा।
हालमद—रखे रहो। क्या मेरे पास पैसे नहीीं है ?
सम्मी—तीन ही पेसे तो हैं। तीन पैसे में क्या-क्या िोगें ?
महमद
ू —हमसे गि
ु ाबजामन
ु िे जाओ हालमद। मोहलमन बदमाश है ।
हालमद—लमठाई कौन बडी नेमत है। ककताब में इसकी ककतनी बरु ाइय ॉँ लिखी हैं।
मोहलसन—िेककन ददन मे कह रहे होगे कक लमिे तो खा िें। अपने पैसे क्यों नहीीं ननकािते?
महमद
ू —इस समझते हें , इसकी चािाकी। जब हमारे सारे पैसे खचम हो जाऍगेीं , तो हमें ििचा-ििचाकर
खाएगा।
लमठाइयों के बाद कुछ दक
ू ानें िोहे की चीजों की, कुछ धगिट और कुछ नकिी गहनों की। िडकों के
लिए यह ॉँ कोई आकषमण न था। वे सब आगे बढ़ जाते हैं, हालमद िोहे की दक
ु ान पररूक जात हे । कई धचमटे
रखे हुए थे। उसे ख्याि आया, दादी के पास धचमटा नहीीं है । तबे से रोदटय ॉँ उतारती हैं, तो हाथ जि जाता
है । अगर वह धचमटा िे जाकर दादी को दे दे तो वह ककतना प्रसन्न होगी! कफर उनकी ऊगलिय ॉँ कभी न
जिेंगी। घर में एक काम की चीज हो जाएगी। खखिौने से क्या फायदा? व्यथम में पैसे खराब होते हैं। जरा दे र
ही तो खुशी होती है । कफर तो खखिौने को कोई ऑ ींख उठाकर नहीीं दे खता। यह तो घर पहुचते-पहुचते टूट-फूट
बराबर हो जाऍगेीं । धचमटा ककतने काम की चीज है । रोदटय ॉँ तवे से उतार िो, चल्
ू हें में सेंक िो। कोई आग
ॉँ
म गने ू हे से आग ननकािकर उसे दे दो। अम्म ॉँ बेचारी को कह ॉँ फुरसत हे कक बाजार
आये तो चटपट चल्
आऍ ीं और इतने पैसे ही कह ॉँ लमिते हैं? रोज हाथ जिा िेती हैं।
हालमद के साथी आगे बढ़ गए हैं। सबीि पर सबके सब शबमत पी रहे हैं। दे खो, सब कतने िािची हैं।
इतनी लमठाइय ॉँ िीीं, मझ
ु े ककसी ने एक भी न दी। उस पर कहते है, मेरे साथ खेिो। मेरा यह काम करों। अब
ु सडेगा, फोडे-फुक्न्सय ीं
ू ू गा। खाऍ ीं लमठाइय ,ॉँ आप मह
अगर ककसी ने कोई काम करने को कहा, तो पछ
ननकिेंगी, आप ही जबान चटोरी हो जाएगी। तब घर से पैसे चरु ाऍगेीं और मार खाऍगेीं । ककताब में झठ
ू ी बातें
थोडे ही लिखी हें । मेरी जबान क्यों खराब होगी? अम्म ॉँ धचमटा दे खते ही दौडकर मेरे हाथ से िे िेंगी और
कहें गी—मेरा बच्चा अम्म ॉँ के लिए धचमटा िाया है। ककतना अच्छा िडका है। इन िोगों के खखिौने पर कौन
इन्हें दआ
ु ऍ ीं दे गा? बडों का दआ
ु ऍ ीं सीधे अल्िाह के दरबार में पहुचती हैं, और तुरींत सन
ु ी जाती हैं। में भी इनसे
लमजाज क्यों सहू? मैं गरीब सही, ककसी से कुछ म गने ॉँ तो नहीीं जाते। आखखर अब्बाजान कभीीं न कभी
आऍगेीं । अम्मा भी ऑ ींएगी ही। कफर इन िोगों से पछ
ू ू गा, ककतने खखिौने िोगे? एक-एक को टोकररयों खखिौने
द ू और ददखा हू कक दोस्तों के साथ इस तरह का सिक ू ककया जात है । यह नहीीं कक एक पैसे की रे वडडय ॉँ
िीीं, तो धचढ़ा-धचढ़ाकर खाने िगे। सबके सब हसेंगे कक हालमद ने धचमटा लिया है । हीं स!ें मेरी बिा से! उसने
दक
ु ानदार से पछ
ू ा—यह धचमटा ककतने का है ?
दक
ु ानदार ने उसकी ओर दे खा और कोई आदमी साथ न दे खकर कहा—तुम्हारे काम का नहीीं है जी!
‘बबकाऊ है कक नहीीं?’

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‘बबकाऊ क्यों नहीीं है ? और यह ॉँ क्यों िाद िाए हैं?’
तो बताते क्यों नहीीं, कै पैसे का है ?’
‘छ: पैसे िगें गे।‘
हालमद का ददि बैठ गया।
ॉँ पेसे िगें गे, िेना हो िो, नहीीं चिते बनो।‘
‘ठीक-ठीक प च
हालमद ने किेजा मजबत
ू करके कहा तीन पैसे िोगे?
यह कहता हुआ व आगे बढ़ गया कक दक ु ककय ॉँ न सन
ु ानदार की घड ु े। िेककन दक ु ककय ॉँ
ु ानदार ने घड
नहीीं दी। बि
ु ाकर धचमटा दे ददया। हालमद ने उसे इस तरह कींधे पर रखा, मानों बींदक ू है और शान से
अकडता हुआ सींधगयों के पास आया। जरा सन
ु ें, सबके सब क्या-क्या आिोचनाऍ ीं करते हैं!
मोहलसन ने हसकर कहा—यह धचमटा क्यों िाया पगिे, इसे क्या करे गा?
हालमद ने धचमटे को जमीन पर पटकर कहा—जरा अपना लभश्ती जमीन पर धगरा दो। सारी पसलिय ॉँ
चरू -चरू हो जाऍ ीं बचा की।
महमद
ू बोिा—तो यह धचमटा कोई खखिौना है ?
हालमद—खखिौना क्यों नही है! अभी कन्धे पर रखा, बींदक
ू हो गई। हाथ में िे लिया, फकीरों का धचमटा
हो गया। चाहू तो इससे मजीरे काकाम िे सकता हू। एक धचमटा जमा द,ू तो तुम िोगों के सारे खखिौनों की
जान ननकि जाए। तम् ीं नही कर सकतें मेरा
ु हारे खखिौने ककतना ही जोर िगाऍ,ीं मेरे धचमटे का बाि भी ब का
बहादरु शेर है धचमटा।
सम्मी ने खजरी िी थी। प्रभाववत होकर बोिा—मेरी खजरी से बदिोगे? दो आने की है ।
हालमद ने खजरी की ओर उपेक्षा से दे खा-मेरा धचमटा चाहे तो तम्
ु हारी खॅजरी का पेट फाड डािे। बस,
एक चमडे की खझल्िी िगा दी, ढब-ढब बोिने िगी। जरा-सा पानी िग जाए तो खत्म हो जाए। मेरा बहादरु
धचमटा आग में, पानी में , ऑ ींधी में, तूफान में बराबर डटा खडा रहे गा।
धचमटे ने सभी को मोदहत कर लिया, अब पैसे ककसके पास धरे हैं? कफर मेिे से दरू ननकि आए हें , नौ
कब के बज गए, धप
ू तेज हो रही है । घर पहुींचने की जल्दी हो रही हे । बाप से क्जद भी करें , तो धचमटा नहीीं
लमि सकता। हालमद है बडा चािाक। इसीलिए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे।
अब बािकों के दो दि हो गए हैं। मोहलसन, महमद, सम्मी और नरू े एक तरफ हैं, हालमद अकेिा दस
ू री
तरफ। शास्त्रथम हो रहा है । सम्मी तो ववधमी हा गया! दस
ू रे पक्ष से जा लमिा, िेककन मोहनन, महमद
ू और
नरू े भी हालमद से एक-एक, दो-दो साि बडे होने पर भी हालमद के आघातों से आतींककत हो उठे हैं। उसके
पास न्याय का बि है और नीनत की शक्क्त। एक ओर लमट्टी है , दस
ू री ओर िोहा, जो इस वक्त अपने को
फौिाद कह रहा है। वह अजेय है , घातक है । अगर कोई शेर आ जाए लमय ॉँ लभश्ती के छक्के छूट जाऍ,ीं जो
लमय ॉँ लसपाही लमट्टी की बींदक
ू छोडकर भागे, वकीि साहब की नानी मर जाए, चोगे में मींह
ु नछपाकर जमीन
पर िेट जाऍ।ीं मगर यह धचमटा, यह बहादरु , यह रूस्तमे-दहींद िपककर शेर की गरदन पर सवार हो जाएगा
और उसकी ऑ ींखे ननकाि िेगा।
मोहलसन ने एडी—चोटी का जारे िगाकर कहा—अच्छा, पानी तो नहीीं भर सकता?
हालमद ने धचमटे को सीधा खडा करके कहा—लभश्ती को एक डाींट बताएगा, तो दौडा हुआ पानी िाकर
उसके द्वार पर नछडकने िगेगा।
मोहलसन परास्त हो गया, पर महमद ू ने कुमक
ु पहुचाई—अगर बचा पकड जाऍ ीं तो अदािम में बॅध-े बधे
कफरें गे। तब तो वकीि साहब के पैरों पडेगे।
हालमद इस प्रबि तकम का जवाब न दे सका। उसने पछ
ू ा—हमें पकडने कौने आएगा?
नरू े ने अकडकर कहा—यह लसपाही बींदक
ू वािा।
हालमद ने मह
ु धचढ़ाकर कहा—यह बेचारे हम बहादरु रूस्तमे—दहींद को पकडेगें! अच्छा िाओ, अभी जरा
कुश्ती हो जाए। इसकी सरू त दे खकर दरू से भागें गे। पकडेगें क्या बेचारे !
मोहलसन को एक नई चोट सझ
ू गई—तुम्हारे धचमटे का मह
ु रोज आग में जिेगा।
उसने समझा था कक हालमद िाजवाब हो जाएगा, िेककन यह बात न हुई। हालमद ने तरु ीं त जवाब
ददया—आग में बहादरु ही कूदते हैं जनाब, तम्
ु हारे यह वकीि, लसपाही और लभश्ती िैडडयों की तरह घर में
घस
ु जाऍगेीं । आग में वह काम है, जो यह रूस्तमे-दहन्द ही कर सकता है।

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महमद
ू ने एक जोर िगाया—वकीि साहब कुरसी—मेज पर बैठेगे, तम्
ु हारा धचमटा तो बाबरचीखाने में
जमीन पर पडा रहने के लसवा और क्या कर सकता है?
इस तकम ने सम्मी औरनरू े को भी सजी कर ददया! ककतने दठकाने की बात कही हे पट्ठे ने! धचमटा
बावरचीखाने में पडा रहने के लसवा और क्या कर सकता है?
हालमद को कोई फडकता हुआ जवाब न सझ ॉँ
ू ा, तो उसने ध धिी शरू
ु की—मेरा धचमटा बावरचीखाने में
नही रहे गा। वकीि साहब कुसी पर बैठेगें , तो जाकर उन्हे जमीन पर पटक दे गा और उनका काननू उनके पेट
में डाि दे गा।
बात कुछ बनी नही। खाि गािी-गिौज थी, िेककन कानन
ू को पेट में डािनेवािी बात छा गई। ऐसी
छा गई कक तीनों सरू मा मह
ु ताकते रह गए मानो कोई धेिचा कानकौआ ककसी गींडव
े ािे कनकौए को काट
गया हो। कानन
ू मह
ु से बाहर ननकिने वािी चीज हे । उसको पेट के अन्दर डाि ददया जाना बेतक
ु ी-सी बात
होने पर भी कुछ नयापन रखती हे । हालमद ने मैदान मार लिया। उसका धचमटा रूस्तमे-दहन्द हे । अब इसमें
मोहलसन, महमद
ू नरू े , सम्मी ककसी को भी आपवत्त नहीीं हो सकती।
ववजेता को हारनेवािों से जो सत्कार लमिना स्वाभववक है , वह हालमद को भी लमि। औरों ने तीन-तीन,
चार-चार आने पैसे खचम ककए, पर कोई काम की चीज न िे सके। हालमद ने तीन पैसे में रीं ग जमा लिया।
सच ही तो है , खखिौनों का क्या भरोसा? टूट-फूट जाऍगी।
ीं हालमद का धचमटा तो बना रहे गा बरसों?
सींधध की शते तय होने िगीीं। मोहलसन ने कहा—जरा अपना धचमटा दो, हम भी दे खें। तुम हमार
लभश्ती िेकर दे खो।
महमद
ू और नरू े ने भी अपने-अपने खखिौने पेश ककए।
हालमद को इन शतो को मानने में कोई आपवत्त न थी। धचमटा बारी-बारी से सबके हाथ में गया, और
उनके खखिौने बारी-बारी से हालमद के हाथ में आए। ककतने खूबसरू त खखिौने हैं।
हालमद ने हारने वािों के ऑ ींसू पोंछे —मैं तुम्हे धचढ़ा रहा था, सच! यह धचमटा भिा, इन खखिौनों की
क्या बराबर करे गा, मािम
ू होता है, अब बोिे, अब बोिे।
िेककन मोहसनन की पाटी को इस ददिासे से सींतोष नहीीं होता। धचमटे का लसल्का खूब बैठ गया है ।
धचपका हुआ दटकट अब पानी से नहीीं छूट रहा है।
मोहलसन—िेककन इन खखिौनों के लिए कोई हमें दआ
ु तो न दे गा?
महमद
ू —दआ
ु को लिय कफरते हो। उल्टे मार न पडे। अम्माीं जरूर कहें गी कक मेिे में यही लमट्टी के
खखिौने लमिे?
हालमद को स्वीकार करना पडा कक खखिौनों को दे खकर ककसी की माीं इतनी खश
ु न होगी, क्जतनी दादी
धचमटे को दे खकर होंगी। तीन पैसों ही में तो उसे सब-कुछ करना था ओर उन पैसों के इस उपयों पर
पछतावे की बबल्कुि जरूरत न थी। कफर अब तो धचमटा रूस्तमें —दहन्द हे ओर सभी खखिौनों का बादशाह।
रास्ते में महमद
ू को भख
ू िगी। उसके बाप ने केिे खाने को ददयें। महमन
ू ने केवि हालमद को साझी
बनाया। उसके अन्य लमत्र मींह
ु ताकते रह गए। यह उस धचमटे का प्रसाद थाीं।

ग्या रह बजे ग वॉँ में हिचि मच गई। मेिेवािे आ गए। मोहलसन की छोटी बहन दौडकर लभश्ती
ु ी के जा उछिी, तो लमय ीं लभश्ती नीचे आ रहे और
उसके हाथ से छीन लिया और मारे खश
ु रोए। उसकी अम्म ॉँ यह शोर सन
सरु िोक लसधारे । इस पर भाई-बहन में मार-पीट हुई। दानों खब ु कर बबगडी
और दोनों को ऊपर से दो-दो च टेॉँ और िगाए।
लमय ॉँ नरू े के वकीि का अींत उनके प्रनतष्ठानक
ु ू ि इससे जयादा गौरवमय हुआ। वकीि जमीन पर या
ताक पर हो नहीीं बैठ सकता। उसकी मयामदा का ववचार तो करना ही होगा। दीवार में खदटयाू गाडी गई। उन
पर िकडी का एक पटरा रखा गया। पटरे पर कागज का कािीन बबदाया गया। वकीि साहब राजा भोज की
ु ककया। आदाितों में खर की टट्दटय ॉँ और बबजिी
भानत लसींहासन पर ववराजे। नरू े ने उन्हें पींखा झिना शरू
के पींखे रहते हें । क्या यह ॉँ मामि
ू ी पींखा भी न हो! कानन ॉँ
ू की गमी ददमाग पर चढ़ जाएगी कक नहीीं? ब स
कापींखा आया ओर नरू े हवा करने िगें मािम
ू नहीीं, पींखे की हवा से या पींखे की चोट से वकीि साहब
स्वगमिोक से मत्ृ यि
ु ोक में आ रहे और उनका माटी का चोिा माटी में लमि गया! कफर बडे जोर-शोर से
मातम हुआ और वकीि साहब की अक्स्थ घरू े पर डाि दी गई।

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ू का लसपाही। उसे चटपट ग वॉँ का पहरा दे ने का चाजम लमि गया, िेककन पलु िस का
अब रहा महमद
लसपाही कोई साधारण व्यक्क्त तो नहीीं, जो अपने पैरों चिें वह पािकी पर चिेगा। एक टोकरी आई, उसमें
कुछ िाि रीं ग के फटे -परु ाने धचथडे बबछाए गए क्जसमें लसपाही साहब आराम से िेटे। नरू े ने यह टोकरी
उठाई और अपने द्वार का चक्कर िगाने िगे। उनके दोनों छोटे भाई लसपाही की तरह ‘छोनेवािे, जागते
िहो’ पक
ु ारते चिते हें । मगर रात तो अधेरी होनी चादहए, नरू े को ठोकर िग जाती है । टोकरी उसके हाथ से
छूटकर धगर पडती है और लमय ॉँ लसपाही अपनी बन्दक ॉँ में
ू लिये जमीन पर आ जाते हैं और उनकी एक ट ग
ववकार आ जाता है।
महमद ू को आज ज्ञात हुआ कक वह अच्छा डाक्टर है। उसको ऐसा मरहम लमिा गया है क्जससे वह
ॉँ को आनन-फानन जोड सकता हे । केवि गूिर का दध
टूटी ट ग ू चादहए। गूिर का दध
ू आता है । टाग जावब
दे दे ती है। शल्य-कक्रया असफि हुई, तब उसकी दस ू री टाग भी तोड दी जाती है। अब कम-से-कम एक जगह
आराम से बैठ तो सकता है। एक ट ग ॉँ से तो न चि सकता था, न बैठ सकता था। अब वह लसपाही सींन्यासी
हो गया है । अपनी जगह पर बैठा-बैठा पहरा दे ता है। कभी-कभी दे वता भी बन जाता है । उसके लसर का
झािरदार साफा खरु च ददया गया है । अब उसका क्जतना रूपाींतर चाहों, कर सकते हो। कभी-कभी तो उससे
बाट का काम भी लिया जाता है।
अब लमय ॉँ हालमद का हाि सनु नए। अमीना उसकी आवाज सन
ु ते ही दौडी और उसे गोद में उठाकर
प्यार करने िगी। सहसा उसके हाथ में धचमटा दे खकर वह चौंकी।
‘यह धचमटा कह ीं था?’
‘मैंने मोि लिया है ।‘
‘कै पैसे में?
‘तीन पैसे ददये।‘
अमीना ने छाती पीट िी। यह कैसा बेसमझ िडका है कक दोपहर हुआ, कुछ खाया न वपया। िाया
क्या, धचमटा! ‘सारे मेिे में तुझे और कोई चीज न लमिी, जो यह िोहे का धचमटा उठा िाया?’
हालमद ने अपराधी-भाव से कहा—तुम्हारी उगलिय ॉँ तवे से जि जाती थीीं, इसलिए मैने इसे लिया।
बदु ढ़या का क्रोध तरु न्त स्नेह में बदि गया, और स्नेह भी वह नहीीं, जो प्रगल्भ होता हे और अपनी
सारी कसक शब्दों में बबखेर दे ता है । यह मक
ू स्नेह था, खूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ। बच्चे में
ककतना व्याग, ककतना सदभाव और ककतना वववेक है ! दस ू रों को खखिौने िेते और लमठाई खाते दे खकर
इसका मन ककतना ििचाया होगा? इतना जब्त इससे हुआ कैसे? वह ॉँ भी इसे अपनी बदु ढ़या दादी की याद
बनी रही। अमीना का मन गदगद हो गया।
और अब एक बडी ववधचत्र बात हुई। हालमद कें इस धचमटे से भी ववधचत्र। बच्चे हालमद ने बढ़
ू े हालमद
का पाटम खेिा था। बदु ढ़या अमीना बालिका अमीना बन गई। वह रोने िगी। दामन फैिाकर हालमद को दआ ु ऍ ीं
दे ती जाती थी और आसींू की बडी-बडी बींद
ू े धगराती जाती थी। हालमद इसका रहस्य क्या समझता!

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मााँ

आ ज बन्दी छूटकर घर आ रहा है । करुणा ने एक ददन पहिे ही घर िीप-पोत रखा था। इन तीन वषो
ॉँ रूपये जमा कर रखे थे, वह सब पनत के सत्कार और
में उसने कदठन तपस्या करके जो दस-प च
स्वागत की तैयाररयों में खचम कर ददए। पनत के लिए धोनतयों का नया जोडा िाई थी, नए कुरते बनवाए थे,
बच्चे के लिए नए कोट और टोपी की आयोजना की थी। बार-बार बच्चे को गिे िगाती ओर प्रसन्न होती।
अगर इस बच्चे ने सय ॉँ उदय होकर उसके अींधेरे जीवन को प्रदीप्त न कर ददया होता, तो कदाधचत ्
ू म की भ नत
ठोकरों ने उसके जीवन का अन्त कर ददया होता। पनत के कारावास-दण्ड के तीन ही महीने बाद इस बािक
का जन्म हुआ। उसी का महु दे ख-दे खकर करूणा ने यह तीन साि काट ददए थे। वह सोचती—जब मैं बािक
को उनके सामने िे जाऊगी, तो वह ककतने प्रसन्न होंगे! उसे दे खकर पहिे तो चककत हो जाऍगेीं , कफर गोद में
उठा िेंगे और कहें ग—
े करूणा, तुमने यह रत्न दे कर मझ
ु े ननहाि कर ददया। कैद के सारे कष्ट बािक की
तोतिी बातों में भि
ू जाऍगेीं , उनकी एक सरि, पववत्र, मोहक दृक्ष्ट दृदय की सारी व्यवस्थाओीं को धो डािेगी।
इस कल्पना का आन्नद िेकर वह फूिी न समाती थी।
वह सोच रही थी—आददत्य के साथ बहुत—से आदमी होंगे। क्जस समय वह द्वार पर पहुचेगे, जय—
जयकार’ की ध्वनन से आकाश गूज उठे गा। वह ककतना स्वगीय दृश्य होगा! उन आदलमयों के बैठने के लिए
करूणा ने एक फटा-सा टाट बबछा ददया था, कुछ पान बना ददए थे ओर बार-बार आशामय नेत्रों से द्वार की
ओर ताकती थी। पनत की वह सदृ
ु ढ़ उदार तेजपण
ू म मद्र
ु ा बार-बार ऑ ींखों में कफर जाती थी। उनकी वे बातें
बार-बार याद आती थीीं, जो चिते समय उनके मख
ु से ननकिती थी, उनका वह धैय,म वह आत्मबि, जो पलु िस
के प्रहारों के सामने भी अटि रहा था, वह मस्
ु कराहट जो उस समय भी उनके अधरों पर खेि रही थी; वह
आत्मलभमान, जो उस समय भी उनके मख
ु से टपक रहा था, क्या करूणा के हृदय से कभी ववस्मत
ृ हो
सकता था! उसका स्मरण आते ही करुणा के ननस्तेज मख
ु पर आत्मगौरव की िालिमा छा गई। यही वह
अविम्ब था, क्जसने इन तीन वषो की घोर यातनाओीं में भी उसके हृदय को आश्वासन ददया था। ककतनी ही
राते फाकों से गज
ु रीीं, बहुधा घर में दीपक जिने की नौबत भी न आती थी, पर दीनता के आसू कभी उसकी
ऑ ींखों से न धगरे । आज उन सारी ववपवत्तयों का अन्त हो जाएगा। पनत के प्रगाढ़ आलिींगन में वह सब कुछ
हसकर झेि िेगी। वह अनींत ननधध पाकर कफर उसे कोई अलभिाषा न रहे गी।
गगन-पथ का धचरगामी िपका हुआ ववश्राम की ओर चिा जाता था, जह ॉँ सींध्या ने सन
ु हरा फशम
सजाया था और उजजवि पष्ु पों की सेज बबछा रखी थी। उसी समय करूणा को एक आदमी िाठी टे कता
ॉँ
आता ददखाई ददया, मानो ककसी जीणम मनष्ु य की वेदना-ध्वनन हो। पग-पग पर रूककर ख सने िगता थी।
उसका लसर झकु ा हुआ था, करणा उसका चेहरा न दे ख सकती थी, िेककन चाि-ढाि से कोई बढ़
ू ा आदमी
मािम
ू होता था; पर एक क्षण में जब वह समीप आ गया, तो करूणा पहचान गई। वह उसका प्यारा पनत ही
था, ककन्तु शोक! उसकी सरू त ककतनी बदि गई थी। वह जवानी, वह तेज, वह चपिता, वह सग
ु ठन, सब
प्रस्थान कर चक ॉँ रह गया था। न कोई सींगी, न साथी, न यार, न दोस्त।
ु ा था। केवि हड्डडयों का एक ढ चा
करूणा उसे पहचानते ही बाहर ननकि आयी, पर आलिींगन की कामना हृदय में दबाकर रह गई। सारे मनसब
ू े
धि
ू में लमि गए। सारा मनोल्िास ऑ ींसओ
ु ीं के प्रवाह में बह गया, वविीन हो गया।
आददत्य ने घर में कदम रखते ही मस्
ु कराकर करूणा को दे खा। पर उस मस्
ु कान में वेदना का एक
सींसार भरा हुआ थाीं करूणा ऐसी लशधथि हो गई, मानो हृदय का स्पींदन रूक गया हो। वह फटी हुई आखों से
स्वामी की ओर टकटकी ब धे ॉँ खडी थी, मानो उसे अपनी ऑखों पर अब भी ववश्वास न आता हो। स्वागत या
द:ु ख का एक शब्द भी उसके महु से न ननकिा। बािक भी गोद में बैठा हुआ सहमी ऑखें से इस कींकाि
को दे ख रहा था और माता की गोद में धचपटा जाता था।
आखखर उसने कातर स्वर में कहा—यह तम्
ु हारी क्या दशा है? बबल्कुि पहचाने नहीीं जाते!
आददत्य ने उसकी धचन्ता को शाींत करने के लिए मस्
ु कराने की चेष्टा करके कहा—कुछ नहीीं, जरा
दब
ु िा हो गया हू। तम्
ु हारे हाथों का भोजन पाकर कफर स्वस्थ हो जाऊगा।
करूणा—छी! सख ू कर काटा हो गए। क्या वह ॉँ भरपेट भोजन नहीीं लमिात? तुम कहते थे, राजनैनतक
आदलमयों के साथ बडा अच्छा व्यवहार ककया जाता है और वह तुम्हारे साथी क्या हो गए जो तुम्हें आठों
पहर घेरे रहते थे और तुम्हारे पसीने की जगह खून बहाने को तैयार रहते थे?

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आददत्य की त्योररयों पर बि पड गए। बोिे—यह बडा ही कटु अनभ
ु व है करूणा! मझ
ु े न मािम
ू था
कक मेरे कैद होते ही िोग मेरी ओर से यों ऑ ींखें फेर िेंगे, कोई बात भी न पछ
ू े गा। राष्र के नाम पर
लमटनेवािों का यही परु स्कार है, यह मझ
ु े न मािम
ू था। जनता अपने सेवकों को बहुत जल्द भिू जाती है,
यह तो में जानता था, िेककन अपने सहयोगी ओर सहायक इतने बेवफा होते हैं, इसका मझ ु े यह पहिा ही
अनभु व हुआ। िेककन मझ
ु े ककसी से लशकायत नहीीं। सेवा स्वयीं अपना परु स्कार हैं। मेरी भि
ू थी कक मैं इसके
लिए यश और नाम चाहता था।
करूणा—तो क्या वहा भोजन भी न लमिता था?
आददत्य—यह न पछ
ू ो करूणा, बडी करूण कथा है। बस, यही गनीमत समझो कक जीता िौट आया।
तुम्हारे दशमन बदे थे, नहीीं कष्ट तो ऐसे-ऐसे उठाए कक अब तक मझ
ु े प्रस्थान कर जाना चादहए था। मैं जरा
िेटगा। खडा नहीीं रहा जाता। ददन-भर में इतनी दरू आया हू।
करूणा—चिकर कुछ खा िो, तो आराम से िेटो। (बािक को गोद में उठाकर) बाबज
ू ी हैं बेटा, तम्
ु हारे
बाबज
ू ी। इनकी गोद में जाओ, तुम्हे प्यार करें गे।
आददत्य ने ऑ ींस-ू भरी ऑ ींखों से बािक को दे खा और उनका एक-एक रोम उनका नतरस्कार करने िगा।
अपनी जीणम दशा पर उन्हें कभी इतना द:ु ख न हुआ था। ईश्वर की असीम दया से यदद उनकी दशा सींभि
जाती, तो वह कफर कभी राष्रीय आन्दोिन के समीप न जाते। इस फूि-से बच्चे को यों सींसार में िाकर
दररद्रता की आग में झोंकने का उन्हें क्या अधधकरा था? वह अब िक्ष्मी की उपासना करें गे और अपना क्षुद्र
जीवन बच्चे के िािन-पािन के लिए अवपतम कर दें गे। उन्हें इस समय ऐसा ज्ञात हुआ कक बािक उन्हें
उपेक्षा की दृक्ष्ट से दे ख रहा है , मानो कह रहा है—‘मेरे साथ आपने कौन-सा कत्तमव्य-पािन ककया?’ उनकी
सारी कामना, सारा प्यार बािक को हृदय से िगा दे ने के लिए अधीर हो उठा, पर हाथ फैि न सके। हाथों में
शक्क्त ही न थी।
करूणा बािक को लिये हुए उठी और थािी में कुछ भोजन ननकिकर िाई। आददत्य ने क्षुधापणू ,म नेत्रों
से थािी की ओर दे खा, मानो आज बहुत ददनों के बाद कोई खाने की चीज सामने आई हैं। जानता था कक
कई ददनों के उपवास के बाद और आरोग्य की इस गई-गुजरी दशा में उसे जबान को काबू में रखना चादहए
पर सि न कर सका, थािी पर टूट पडा और दे खते-दे खते थािी साफ कर दी। करूणा सशींक हो गई। उसने
दोबारा ककसी चीज के लिए न पछ
ू ा। थािी उठाकर चिी गई, पर उसका ददि कह रहा था-इतना तो कभी न
खाते थे।
करूणा बच्चे को कुछ खखिा रही थी, कक एकाएक कानों में आवाज आई—करूणा!
करूणा ने आकर पछ ू ा—क्या तम
ु ने मझ
ु े पक
ु ारा है?
आददत्य का चेहरा पीिा पड गया था और स स ीं जोर-जोर से चि रही थी। हाथों के सहारे वही टाट पर
िेट गए थे। करूणा उनकी यह हाित दे खकर घबर गई। बोिी—जाकर ककसी वैद्य को बि
ु ा िाऊ?
आददत्य ने हाथ के इशारे से उसे मना करके कहा—व्यथम है करूणा! अब तुमसे नछपाना व्यथम है, मझ
ु े
तपेददक हो गया हे । कई बार मरते-मरते बच गया हू। तुम िोगों के दशमन बदे थे, इसलिए प्राण न ननकिते
थे। दे खों वप्रये, रोओ मत।
करूणा ने लससककयों को दबाते हुए कहा—मैं वैद्य को िेकर अभी आती हू।
आददत्य ने कफर लसर दहिाया—नहीीं करूणा, केवि मेरे पास बैठी रहो। अब ककसी से कोई आशा नहीीं
है । डाक्टरों ने जवाब दे ददया है। मझु े तो यह आश्चयम है कक यह ॉँ पहुच कैसे गया। न जाने कौन दै वी शक्क्त
मझ ु े वह ॉँ से खीींच िाई। कदाधचत ् यह इस बझ ु ते हुए दीपक की अक्न्तम झिक थी। आह! मैंने तुम्हारे साथ
बडा अन्याय ककया। इसका मझ
ु े हमेशा द:ु ख रहे गा! मैं तुम्हें कोई आराम न दे सका। तुम्हारे लिए कुछ न
कर सका। केवि सोहाग का दाग िगाकर और एक बािक के पािन का भार छोडकर चिा जा रहा हूीं। आह!
करूणा ने हृदय को दृढ़ करके कहा—तुम्हें कहीीं ददम तो नहीीं है? आग बना िाऊ? कुछ बताते क्यों
नहीीं?
आददत्य ने करवट बदिकर कहा—कुछ करने की जरूरत नहीीं वप्रये! कहीीं ददम नहीीं। बस, ऐसा मािम

हो रहा हे कक ददि बैठा जाता है , जैसे पानी में डूबा जाता हू। जीवन की िीिा समाप्त हो रही हे । दीपक को
बझ
ु ते हुए दे ख रहा हू। कह नहीीं सकता, कब आवाज बन्द हो जाए। जो कुछ कहना है, वह कह डािना चाहता
हू, क्यों वह िािसा िे जाऊ। मेरे एक प्रश्न का जवाब दोगी, पछ
ू ू?

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करूणा के मन की सारी दब
ु ि
म ता, सारा शोक, सारी वेदना मानो िप्ु त हो गई और उनकी जगह उस
आत्मबि काउदय हुआ, जो मत्ृ यु पर हसता है और ववपवत्त के सापों से खेिता है । रत्नजदटत मखमिी म्यान
में जैसे तेज तिवार नछपी रहती है, जि के कोमि प्रवाह में जैसे असीम शक्क्त नछपी रहती है, वैसे ही रमणी
का कोमि हृदय साहस और धैयम को अपनी गोद में नछपाए रहता है। क्रोध जैसे तिवार को बाहर खीींच िेता
है , ववज्ञान जैसे जि-शक्क्त का उदघाटन कर िेता है , वैसे ही प्रेम रमणी के साहस और धैयम को प्रदीप्त कर
दे ता है ।
करूणा ने पनत के लसर पर हाथ रखते हुए कहा—पछ ू ते क्यों नहीीं प्यारे !
आददत्य ने करूणा के हाथों के कोमि स्पशम का अनभु व करते हुए कहा—तुम्हारे ववचार में मेरा जीवन
कैसा था? बधाई के योग्य? दे खो, तुमने मझ
ु से कभी पदाम नहीीं रखा। इस समय भी स्पष्ट कहना। तुम्हारे
ववचार में मझ
ु े अपने जीवन पर हसना चादहए या रोना चादहऍ?ीं
करूणा ने उल्िास के साथ कहा—यह प्रश्न क्यों करते हो वप्रयतम? क्या मैंने तम्
ु हारी उपेक्षा कभी की
हैं? तुम्हारा जीवन दे वताओीं का—सा जीवन था, नन:स्वाथम, ननलिमप्त और आदशम! ववघ्न-बाधाओीं से तींग आकर
मैंने तम्
ु हें ककतनी ही बार सींसार की ओर खीींचने की चेष्टा की है; पर उस समय भी मैं मन में जानती थी
कक मैं तुम्हें ऊचे आसन से धगरा रही हूीं। अगर तुम माया-मोह में फसे होते, तो कदाधचत ् मेरे मन को अधधक
सींतोष होता; िेककन मेरी आत्मा को वह गवम और उल्िास न होता, जो इस समय हो रहा है । मैं अगर ककसी
को बडे-से-बडा आशीवाद दे सकती हू, तो वह यही होगा कक उसका जीवन तुम्हारे जैसा हो।
यह कहते-कहते करूणा का आभाहीन मख ु मींडि जयोनतममय हो गया, मानो उसकी आत्मा ददव्य हो गई
हो। आददत्य ने सगवम नेत्रों से करूणा को दे खकर कहा बस, अब मझ
ु े सींतोष हो गया, करूणा, इस बच्चे की
ओर से मझ
ु े कोई शींका नहीीं है, मैं उसे इससे अधधक कुशि हाथों में नहीीं छोड सकता। मझ
ु े ववश्वास है कक
जीवन-भर यह ऊचा और पववत्र आदशम सदै व तुम्हारे सामने रहे गा। अब मैं मरने को तैयार हू।

सा त वषम बीत गए।


बािक प्रकाश अब दस साि का रूपवान, बलिष्ठ, प्रसन्नमख
ु कुमार था, बि का तेज, साहसी और
मनस्वी। भय तो उसे छू भी नहीीं गया था। करूणा का सींतप्त हृदय उसे दे खकर शीति हो जाता। सींसार
करूणा को अभाधगनी और दीन समझे। वह कभी भाग्य का रोना नहीीं रोती। उसने उन आभष
ू णों को बेच
डािा, जो पनत के जीवन में उसे प्राणों से वप्रय थे, और उस धन से कुछ गायें और भैंसे मोि िे िीीं। वह
कृषक की बेटी थी, और गो-पािन उसके लिए कोई नया व्यवसाय न था। इसी को उसने अपनी जीववका का
साधन बनाया। ववशद् ू कह ॉँ मयस्सर होता है? सब दध
ु ध दध ू हाथों-हाथ बबक जाता। करूणा को पहर रात से
पहर रात तक काम में िगा रहना पडता, पर वह प्रसन्न थी। उसके मख
ु पर ननराशा या दीनता की छाया
नहीीं, सींकल्प और साहस का तेज है। उसके एक-एक अींग से आत्मगौरव की जयोनत-सी ननकि रही है ; ऑ ींखों
में एक ददव्य प्रकाश है, गींभीर, अथाह और असीम। सारी वेदनाऍ ीं—वैधव्य का शोक और ववधध का ननममम
प्रहार—सब उस प्रकाश की गहराई में वविीन हो गया है।
प्रकाश पर वह जान दे ती है । उसका आनींद, उसकी अलभिाषा, उसका सींसार उसका स्वगम सब प्रकाश
पर न्यौछावर है; पर यह मजाि नहीीं कक प्रकाश कोई शरारत करे और करूणा ऑखें बींद कर िे। नहीीं, वह
उसके चररत्र की बडी कठोरता से दे ख-भाि करती है। वह प्रकाश की म ॉँ नहीीं, म -बाप
ॉँ दोनों हैं। उसके पत्र
ु -
स्नेह में माता की ममता के साथ वपता की कठोरता भी लमिी हुई है । पनत के अक्न्तम शब्द अभी तक
उसके कानों में गूज रहे हैं। वह आत्मोल्िास, जो उनके चेहरे पर झिकने िगा था, वह गवममय िािी, जो
उनकी ऑ ींखो में छा गई थी, अभी तक उसकी ऑखों में कफर रही है । ननरीं तर पनत-धचन्तन ने आददत्य को
उसकी ऑ ींखों में प्रत्यक्ष कर ददया है। वह सदै व उनकी उपक्स्थनत का अनभ
ु व ककया करती है। उसे ऐसा जान
पडता है कक आददत्य की आत्मा सदै व उसकी रक्षा करती रहती है । उसकी यही हाददम क अलभिाषा है कक
प्रकाश जवान होकर वपता का पथगामी हो।
ॉँ
सींध्या हो गई थी। एक लभखाररन द्वार पर आकर भीख म गने िगी। करूणा उस समय गउओीं को
पानी दे रही थी। प्रकाश बाहर खेि रहा था। बािक ही तो ठहरा! शरारत सझ
ू ी। घर में गया और कटोरे में
थोडा-सा भस
ू ा िेकर बाहर ननकिा। लभखाररन ने अबकी झेिी फैिा दी। प्रकाश ने भस
ू ा उसकी झोिी में डाि
ददया और जोर-जोर से तालिय ॉँ बजाता हुआ भागा।

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लभखाररन ने अक्ग्नमय नेत्रों से दे खकर कहा—वाह रे िाडिे! मझ ॉँ
ु से हसी करने चिा है ! यही म -बाप ने
लसखाया है ! तब तो खब
ू कुि का नाम जगाओगे!
करूणा उसकी बोिी सन
ु कर बाहर ननकि आयी और पछ
ू ा—क्या है माता? ककसे कह रही हो?
लभखाररन ने प्रकाश की तरफ इशारा करके कहा—वह तुम्हारा िडका है न। दे खो, कटोरे में भस
ू ा भरकर
मेरी झोिी में डाि गया है । चट
ु की-भर आटा था, वह भी लमट्टी में लमि गया। कोई इस तरह दखु खयों को
सताता है? सबके ददन एक-से नहीीं रहते! आदमी को घींमड न करना चादहए।
करूणा ने कठोर स्वर में पक
ु ारा—प्रकाश?
प्रकाश िक्जजत न हुआ। अलभमान से लसर उठाए हुए आया और बोिा—वह हमारे घर भीख क्यों
ॉँ
म गने आयी है? कुछ काम क्यों नहीीं करती?
करुणा ने उसे समझाने की चेष्टा करके कहा—शमम नहीीं आती, उल्टे और ऑ ींख ददखाते हो।
ॉँ
प्रकाश—शमम क्यों आए? यह क्यों रोज भीख म गने आती है? हमारे यह ॉँ क्या कोई चीज मफ्
ु त आती
है ?
करूणा—तुम्हें कुछ न दे ना था तो सीधे से कह दे त;े जाओ। तुमने यह शरारत क्यों की?
प्रकाश—उनकी आदत कैसे छूटती?
करूणा ने बबगडकर कहा—तुम अब वपटोंगे मेरे हाथों।
प्रकाश—वपटूगा क्यों? आप जबरदस्ती पीटें गी? दस
ू रे मल् ॉँ , तो कैद कर लिया
ु कों में अगर कोई भीख म गे
जाए। यह नहीीं कक उल्टे लभखमींगो को और शह दी जाए।
करूणा—जो अपींग है, वह कैसे काम करे ?
प्रकाश—तो जाकर डूब मरे , क्जन्दा क्यों रहती है?
करूणा ननरूत्तर हो गई। बदु ढ़या को तो उसने आटा-दाि दे कर ववदा ककया, ककन्तु प्रकाश का कुतकम
उसके हृदय में फोडे के समान टीसता रहा। उसने यह धष्ृ टता, यह अववनय कह ॉँ सीखी? रात को भी उसे बार-
बार यही ख्याि सताता रहा।
आधी रात के समीप एकाएक प्रकाश की नीींद टूटी। िािटे न जि रही है और करुणा बैठी रो रही है ।
उठ बैठा और बोिा—अम्म ,ॉँ अभी तुम सोई नहीीं?
करूणा ने मह
ु फेरकर कहा—नीींद नहीीं आई। तुम कैसे जग गए? प्यास तो नही िगी है ?
प्रकाश—नही अम्म ,ॉँ न जाने क्यों ऑ ींख खि
ु गई—मझ ु से आज बडा अपराध हुआ, अम्म ॉँ !
करूणा ने उसके मख
ु की ओर स्नेह के नेत्रों से दे खा।
प्रकाश—मैंने आज बदु ढ़या के साथ बडी नटखट की। मझ
ु े क्षमा करो, कफर कभी ऐसी शरारत न करूगा।
यह कहकर रोने िगा। करूणा ने स्नेहाद्रम होकर उसे गिे िगा लिया और उसके कपोिों का चम्
ु बन
करके बोिी—बेटा, मझ
ु े खुश करने के लिए यह कह रहे हो या तुम्हारे मन में सचमच
ु पछतावा हो रहा है?
प्रकाश ने लससकते हुए कहा—नहीीं, अम्म ,ॉँ मझ
ु े ददि से अफसोस हो रहा है। अबकी वह बदु ढ़या आएगी,
तो में उसे बहुत-से पैसे दगा।

करूणा का हृदय मतवािा हो गया। ऐसा जान पडा, आददत्य सामने खडे बच्चे को आशीवाद दे रहे हैं
और कह रहे हैं, करूणा, क्षोभ मत कर, प्रकाश अपने वपता का नाम रोशन करे गा। तेरी सींपण
ू म कामना परू ी हो
जाएगी।
3

िे ककन प्रकाश के कमम और वचन में मेि न था और ददनों के साथ उसके चररत्र का अींग प्रत्यक्ष होता
जाता था। जहीन था ही, ववश्वववद्यािय से उसे वजीफे लमिते थे, करूणा भी उसकी यथेष्ट सहायता
करती थी, कफर भी उसका खचम परू ा न पडता था। वह लमतव्ययता और सरि जीवन पर ववद्वत्ता से भरे हुए
व्याख्यान दे सकता था, पर उसका रहन-सहन फैशन के अींधभक्तों से जौ-भर घटकर न था। प्रदशमन की धन

उसे हमेशा सवार रहती थी। उसके मन और बद्
ु धध में ननरीं तर द्वन्द्व होता रहता था। मन जानत की ओर
था, बद्
ु धध अपनी ओर। बद्
ु धध मन को दबाए रहती थी। उसके सामने मन की एक न चिती थी। जानत-सेवा
ऊसर की खेती है , वह ॉँ बडे-से-बडा उपहार जो लमि सकता है , वह है गौरव और यश; पर वह भी स्थायी नहीीं,
इतना अक्स्थर कक क्षण में जीवन-भर की कमाई पर पानी कफर सकता है । अतएव उसका अन्त:करण
अननवायम वेग के साथ वविासमय जीवन की ओर झक
ु ता था। यहाीं तक कक धीरे -धीरे उसे त्याग और ननग्रह

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से घण ृ ा होने िगी। वह दरु वस्था और दररद्रता को हे य समझता था। उसके हृदय न था, भाव न थे, केवि
मक्स्तष्क था। मक्स्तष्क में ददम कह ?ॉँ वह ॉँ तो तकम हैं, मनसब
ू े हैं।
लसन्ध में बाढ़ आई। हजारों आदमी तबाह हो गए। ववद्यािय ने वह ॉँ एक सेवा सलमनत भेजी। प्रकाश
के मन में द्वींद्व होने िगा—जाऊ या न जाऊ? इतने ददनों अगर वह परीक्षा की तैयारी करे , तो प्रथम श्रेणी
में पास हो। चिते समय उसने बीमारी का बहाना कर ददया। करूणा ने लिखा, तुम लसन्ध न गये, इसका मझ
ु े
दख
ु है । तुम बीमार रहते हुए भी वहाीं जा सकते थे। सलमनत में धचककत्सक भी तो थे! प्रकाश ने पत्र का उत्तर
न ददया।
उडीसा में अकाि पडा। प्रजा मक्क्खयों की तरह मरने िगी। काींग्रेस ने पीडडतो के लिए एक लमशन
तैयार ककया। उन्हीीं ददनों ववद्याियों ने इनतहास के छात्रों को ऐनतहालसक खोज के लिए िींका भेजने का
ननश्चय ककया। करूणा ने प्रकाश को लिखा—तम
ु उडीसा जाओ। ककन्तु प्रकाश िींका जाने को िािानयत था।
वह कई ददन इसी दवु वधा में रहा। अींत को सीिोन ने उडीसा पर ववजय पाई। करुणा ने अबकी उसे कुछ न
लिखा। चप
ु चाप रोती रही।
सीिोन से िौटकर प्रकाश छुट्दटयों में घर गया। करुणा उससे खखींची-खखींची रहीीं। प्रकाश मन में
िक्जजत हुआ और सींकल्प ककया कक अबकी कोई अवसर आया, तो अम्म ॉँ को अवश्य प्रसन्न करूगा। यह
ननश्चय करके वह ववद्यािय िौटा। िेककन यहाीं आते ही कफर परीक्षा की कफक्र सवार हो गई। यह ॉँ तक कक
परीक्षा के ददन आ गए; मगर इम्तहान से फुरसत पाकर भी प्रकाश घर न गया। ववद्यािय के एक अध्यापक
काश्मीर सैर करने जा रहे थे। प्रकाश उन्हीीं के साथ काश्मीर चि खडा हुआ। जब परीक्षा-फि ननकिा और
प्रकाश प्रथम आया, तब उसे घर की याद आई! उसने तरु न्त करूणा को पत्र लिखा और अपने आने की
सच
ू ना दी। माता को प्रसन्न करने के लिए उसने दो-चार शब्द जानत-सेवा के ववषय में भी लिखे—अब मै
आपकी आज्ञा का पािन करने को तैयार हू। मैंने लशक्षा-सम्बन्धी कायम करने का ननश्चक ककया हैं इसी
ववचार से में ने वह ववलशष्ट स्थान प्राप्त ककया है । हमारे नेता भी तो ववद्याियों के आचायो ही का सम्मान
करते हें । अभी वक इन उपाधधयों के मोह से वे मक्ु त नहीीं हुए हे । हमारे नेता भी योग्यता, सदत्ु साह, िगन
का उतना सम्मान नहीीं करते, क्जतना उपाधधयों का! अब मेरी इजजत करें गे और क्जम्मेदारी को काम सौपें गें,
ॉँ भी न लमिता।
जो पहिे म गे
करूणा की आस कफर बधी।

वव
द्यािय खि ु ते ही प्रकाश के नाम रक्जस्रार का पत्र पहुचा। उन्होंने प्रकाश का इींग्िैंड जाकर
ववद्याभ्यास करने के लिए सरकारी वजीफे की मींजरू ी की सच
ू ना दी थी। प्रकाश पत्र हाथ में लिये हषम
के उन्माद में जाकर म ॉँ से बोिा—अम्म ,ॉँ मझ
ु े इींग्िैंड जाकर पढ़ने के लिए सरकारी वजीफा लमि गया।
करूणा ने उदासीन भाव से पछ
ू ा—तो तुम्हारा क्या इरादा है?
प्रकाश—मेरा इरादा? ऐसा अवसर पाकर भिा कौन छोडता है!
करूणा—तुम तो स्वयींसेवकों में भरती होने जा रहे थे?
प्रकाश—तो आप समझती हैं, स्वयींसेवक बन जाना ही जानत-सेवा है? मैं इींग्िैंड से आकर भी तो सेवा-
कायम कर सकता हू और अम्म ,ॉँ सच पछ
ू ो, तो एक मक्जस्रे ट अपने दे श का क्जतना उपकार कर सकता है ,
उतना एक हजार स्वयींसेवक लमिकर भी नहीीं कर सकते। मैं तो लसववि सववमस की परीक्षा में बैठूगा और
मझ
ु े ववश्वास है कक सफि हो जाऊगा।
करूणा ने चककत होकर पछ
ू ा-तो क्या तुम मक्जस्रे ट हो जाओगे?
प्रकाश—सेवा-भाव रखनेवािा एक मक्जस्रे ट काींग्रेस के एक हजार सभापनतयों से जयादा उपकार कर
ृ ाओीं पर तालिय ॉँ न बजेंगी, जनता
सकता है । अखबारों में उसकी िम्बी-िम्बी तारीफें न छपेंगी, उसकी वक्तत
उसके जुिस
ू की गाडी न खीींचग
े ी और न ववद्याियों के छात्र उसको अलभनींदन-पत्र दें गे; पर सच्ची सेवा
मक्जस्रे ट ही कर सकता है ।
करूणा ने आपवत्त के भाव से कहा—िेककन यही मक्जस्रे ट तो जानत के सेवकों को सजाऍ ीं दे ते हें , उन
पर गोलिय ॉँ चिाते हैं?
प्रकाश—अगर मक्जस्रे ट के हृदय में परोपकार का भाव है, तो वह नरमी से वही काम करता है , जो
ू रे गोलिय ॉँ चिाकर भी नहीीं कर सकते।
दस

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करूणा—मैं यह नहीीं मानगी।
ू सरकार अपने नौकरों को इतनी स्वाधीनता नहीीं दे ती। वह एक नीनत
बना दे ती है और हरएक सरकारी नौकर को उसका पािन करना पडता है। सरकार की पहिी नीनत यह है
कक वह ददन-ददन अधधक सींगदठत और दृढ़ हों। इसके लिए स्वाधीनता के भावों का दमन करना जरूरी है ;
अगर कोई मक्जस्रे ट इस नीनत के ववरूद्ध काम करता है , तो वह मक्जस्रे ट न रहे गा। वह दहन्दस्
ु तानी था,
क्जसने तुम्हारे बाबज
ू ी को जरा-सी बात पर तीन साि की सजा दे दी। इसी सजा ने उनके प्राण लिये बेटा,
मेरी इतनी बात मानो। सरकारी पदों पर न धगरो। मझ
ु े यह मींजरू है कक तुम मोटा खाकर और मोटा पहनकर
दे श की कुछ सेवा करो, इसके बदिे कक तम
ु हाककम बन जाओ और शान से जीवन बबताओ। यह समझ िो
कक क्जस ददन तुम हाककम की कुरसी पर बैठोगे, उस ददन से तम्
ु हारा ददमाग हाककमों का-सा हो जाएगा। तुम
यही चाहे गे कक अफसरों में तुम्हारी नेकनामी और तरक्की हो। एक गवारू लमसाि िो। िडकी जब तक मैके
ॉँ रहती है, वह अपने को उसी घर की समझती है , िेककन क्जस ददन ससरु ाि चिी जाती है, वह अपने
में क्व री
घर को दस ॉँ
ू रो का घर समझने िगती है । म -बाप, भाई-बींद सब वही रहते हैं, िेककन वह घर अपना नहीीं
रहता। यही दनु नया का दस्तूर है ।
प्रकाश ने खीझकर कहा—तो क्या आप यही चाहती हैं कक मैं क्जींदगी-भर चारों तरफ ठोकरें खाता
कफरू?
करुणा कठोर नेत्रों से दे खकर बोिी—अगर ठोकर खाकर आत्मा स्वाधीन रह सकती है , तो मैं कहूगी,
ठोकर खाना अच्छा है।
प्रकाश ने ननश्चयात्मक भाव से पछ
ू ा—तो आपकी यही इच्छा है ?
करूणा ने उसी स्वर में उत्तर ददया—ह ,ॉँ मेरी यही इच्छा है ।
प्रकाश ने कुछ जवाब न ददया। उठकर बाहर चिा गया और तरु न्त रक्जस्रार को इनकारी-पत्र लिख
भेजा; मगर उसी क्षण से मानों उसके लसर पर ववपवत्त ने आसन जमा लिया। ववरक्त और ववमन अपने कमरें
में पडा रहता, न कहीीं घम
ू ने जाता, न ककसी से लमिता। मह
ु िटकाए भीतर आता और कफर बाहर चिा जाता,
यह ॉँ तक महीना गज
ु र गया। न चेहरे पर वह िािी रही, न वह ओज; ऑ ींखें अनाथों के मख
ु की भानत याचना
से भरी हुई, ओठ हसना भि
ू गए, मानों उन इनकारी-पत्र के साथ उसकी सारी सजीवता, और चपिता, सारी
सरिता बबदा हो गई। करूणा उसके मनोभाव समझती थी और उसके शोक को भि ु ाने की चेष्टा करती थी,
पर रूठे दे वता प्रसन्न न होते थे।
आखखर एक ददन उसने प्रकाश से कहा—बेटा, अगर तम
ु ने वविायत जाने की ठान ही िी है , तो चिे
जाओ। मना न करूगी। मझ ु े खेद है कक मैंने तम्
ु हें रोका। अगर मैं जानती कक तम् ु हें इतना आघात पहुचेगा,
तो कभी न रोकती। मैंने तो केवि इस ववचार से रोका था कक तम् ु हें जानत-सेवा में मग्न दे खकर तम्
ु हारे
बाबज
ू ी की आत्मा प्रसन्न होगी। उन्होंने चिते समय यही वसीयत की थी।
प्रकाश ने रूखाई से जवाब ददया—अब क्या जाऊगा! इनकारी-खत लिख चक
ु ा। मेरे लिए कोई अब तक
बैठा थोडे ही होगा। कोई दस
ू रा िडका चन
ु लिया होगा और कफर करना ही क्या है ? जब आपकी मजी है कक
ॉँ
ग व-ग वॉँ की खाक छानता कफरू, तो वही सही।
करूणा का गवम चरू -चरू हो गया। इस अनम
ु नत से उसने बाधा का काम िेना चाहा था; पर सफि न
हुई। बोिी—अभी कोई न चन ु ा गया होगा। लिख दो, मैं जाने को तैयार हूीं।
प्रकाश ने झींझ
ु िाकर कहा—अब कुछ नहीीं हो सकता। िोग हसी उडाऍगेीं । मैंने तय कर लिया है कक
जीवन को आपकी इच्छा के अनक
ु ू ि बनाऊगा।
करूणा—तुमने अगर शद्
ु ध मन से यह इरादा ककया होता, तो यों न रहते। तुम मझ
ु से सत्याग्रह कर
रहे हो; अगर मन को दबाकर, मझ
ु े अपनी राह का काटा समझकर तुमने मेरी इच्छा परू ी भी की, तो क्या? मैं
तो जब जानती कक तुम्हारे मन में आप-ही-आप सेवा का भाव उत्पन्न होता। तुम आप ही रक्जस्रार साहब
को पत्र लिख दो।
प्रकाश—अब मैं नहीीं लिख सकता।
‘तो इसी शोक में तने बैठे रहोगे?’
‘िाचारी है ।‘
करूणा ने और कुछ न कहा। जरा दे र में प्रकाश ने दे खा कक वह कहीीं जा रही है ; मगर वह कुछ बोिा
नहीीं। करूणा के लिए बाहर आना-जाना कोई असाधारण बात न थी; िेककन जब सींध्या हो गई और करुणा न
आयी, तो प्रकाश को धचन्ता होने िगी। अम्मा कह ॉँ गयीीं? यह प्रश्न बार-बार उसके मन में उठने िगा।

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ॉँ
प्रकाश सारी रात द्वार पर बैठा रहा। भ नत-भ ॉँ की शींकाऍ ीं मन में उठने िगीीं। उसे अब याद आया,
नत
चिते समय करूणा ककतनी उदास थी; उसकी आींखे ककतनी िाि थी। यह बातें प्रकाश को उस समय क्यों न
नजर आई? वह क्यों स्वाथम में अींधा हो गया था?
ह ,ॉँ अब प्रकाश को याद आया—माता ने साफ-सथ
ु रे कपडे पहने थे। उनके हाथ में छतरी भी थी। तो
क्या वह कहीीं बहुत दरू गयी हैं? ककससे पछ
ू े ? अननष्ट के भय से प्रकाश रोने िगा।
श्रावण की अधेरी भयानक रात थी। आकाश में श्याम मेघमािाऍ,ीं भीषण स्वप्न की भ नत ॉँ छाई हुई थीीं।
प्रकाश रह-रहकार आकाश की ओर दे खता था, मानो करूणा उन्हीीं मेघमािाओीं में नछपी बैठी हे । उसने ननश्चय
ककया, सवेरा होते ही म ॉँ को खोजने चिगा
ू और अगर....
ककसी ने द्वार खटखटाया। प्रकाश ने दौडकर खोि, तो दे खा, करूणा खडी है। उसका मख
ु -मींडि इतना
खोया हुआ, इतना करूण था, जैसे आज ही उसका सोहाग उठ गया है , जैसे सींसार में अब उसके लिए कुछ
नहीीं रहा, जैसे वह नदी के ककनारे खडी अपनी िदी हुई नाव को डूबते दे ख रही है और कुछ कर नहीीं सकती।
प्रकाश ने अधीर होकर पछू ा—अम्म ॉँ कह ॉँ चिी गई थीीं? बहुत दे र िगाई?
करूणा ने भलू म की ओर ताकते हुए जवाब ददया—एक काम से गई थी। दे र हो गई।
यह कहते हुए उसने प्रकाश के सामने एक बींद लिफाफा फेंक ददया। प्रकाश ने उत्सक
ु होकर लिफाफा
उठा लिया। ऊपर ही ववद्यािय की मह
ु र थी। तुरन्त ही लिफाफा खोिकर पढ़ा। हिकी-सी िालिमा चेहरे पर
ू ा—यह तुम्हें कह ॉँ लमि गया अम्मा?
दौड गयी। पछ
करूणा—तुम्हारे रक्जस्रार के पास से िाई हू।
ु वह ॉँ चिी गई थी?’
‘क्या तम
‘और क्या करती।‘
‘कि तो गाडी का समय न था?’
‘मोटर िे िी थी।‘
प्रकाश एक क्षण तक मौन खडा रहा, कफर कींु दठत स्वर में बोिा—जब तुम्हारी इच्छा नहीीं है तो मझ
ु े
क्यों भेज रही हो?
करूणा ने ववरक्त भाव से कहा—इसलिए कक तुम्हारी जाने की इच्छा है । तुम्हारा यह मलिन वेश नहीीं
दे खा जाता। अपने जीवन के बीस वषम तुम्हारी दहतकामना पर अवपमत कर ददए; अब तुम्हारी महत्त्वाकाींक्षा की
हत्या नहीीं कर सकती। तम्
ु हारी यात्रा सफि हो, यही हमारी हाददमक अलभिाषा है ।
करूणा का कींठ रूध गया और कुछ न कह सकी।

प्र काश उसी ददन से यात्रा की तैयाररय ॉँ करने िगा। करूणा के पास जो कुछ था, वह सब खचम हो गया।
कुछ ऋण भी िेना पडा। नए सट
चीज की फरमाइश िेकर
ू बने, सट
ू केस लिए गए। प्रकाश अपनी धन
ु में मस्त था। कभी ककसी

आता, कभी ककसी चीज का।


करूणा इस एक सप्ताह में इतनी दब
ु ि
म हो गयी है, उसके बािों पर ककतनी सफेदी आ गयी है , चेहरे
पर ककतनी झरु रम य ॉँ पड गई हैं, यह उसे कुछ न नजर आता। उसकी ऑ ींखों में इींगिैंड के दृश्य समाये हुए थे।
महत्त्वाकाींक्षा ऑ ींखों पर परदा डाि दे ती है।
प्रस्थान का ददन आया। आज कई ददनों के बाद धप
ू ननकिी थी। करूणा स्वामी के परु ाने कपडों को
बाहर ननकाि रही थी। उनकी गाढ़े की चादरें , खद्दर के कुरते, पाजामें और लिहाफ अभी तक सन्दक
ू में
सींधचत थे। प्रनतवषम वे धप
ू में सख
ु ाये जाते और झाड-पोंछकर रख ददये जाते थे। करूणा ने आज कफर उन
ु ाकर रखने के लिए नहीीं गरीबों में ब टॉँ दे ने के लिए। वह आज पनत से नाराज
कपडो को ननकािा, मगर सख
है । वह िदु टया, डोर और घडी, जो आददत्य की धचरसींधगनी थीीं और क्जनकी बीस वषम से करूणा ने उपासना
की थी, आज ननकािकर ऑ ींगन में फेंक दी गई; वह झोिी जो बरसों आददत्य के कन्धों पर आरूढ़ रह चक
ु ी
थी, आप कूडे में डाि दी गई; वह धचत्र क्जसके सामने बीस वषम से करूणा लसर झक
ु ाती थी, आज वही
ननदम यता से भलू म पर डाि ददया गया। पनत का कोई स्मनृ त-धचन्ह वह अब अपने घर में नहीीं रखना चाहती।
उसका अन्त:करण शोक और ननराशा से ववदीणम हो गया है और पनत के लसवा वह ककस पर क्रोध उतारे ?
कौन उसका अपना हैं? वह ककससे अपनी व्यथा कहे ? ककसे अपनी छाती चीरकर ददखाए? वह होते तो क्या

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आप प्रकाश दासता की जींजीर गिे में डािकर फूिा न समाता? उसे कौन समझाए कक आददत्य भी इस
अवसर पर पछताने के लसवा और कुछ न कर सकते।
प्रकाश के लमत्रों ने आज उसे ववदाई का भोज ददया था। वह ॉँ से वह सींध्या समय कई लमत्रों के साथ
मोटर पर िौटा। सफर का सामान मोटर पर रख ददया गया, तब वह अन्दर आकर म ॉँ से बोिा—अम्मा,
जाता हू। बम्बई पहूचकर पत्र लिखूगा। तुम्हें मेरी कसम, रोना मत और मेरे खतों का जवाब बराबर दे ना।
जैसे ककसी िाश को बाहर ननकािते समय सम्बक्न्धयों का धैयम छूट जाता है, रूके हुए ऑ ींसू ननकि
पडते हैं और शोक की तरीं गें उठने िगती हैं, वही दशा करूणा की हुई। किेजे में एक हाहाकार हुआ, क्जसने
उसकी दब ु ि ू हुआ, प वॉँ पानी में कफसि गया है और वह
म आत्मा के एक-एक अणु को कींपा ददया। मािम
िहरों में बही जा रही है। उसके मख
ु से शोक या आशीवाद का एक शब्द भी न ननकिा। प्रकाश ने उसके
ॉँ खडी थी।
चरण छुए, अश्र-ू जि से माता के चरणों को पखारा, कफर बाहर चिा। करूणा पाषाण मनू तम की भ नत
सहसा ग्वािे ने आकर कहा—बहूजी, भइया चिे गए। बहुत रोते थे।
तब करूणा की समाधध टूटी। दे खा, सामने कोई नहीीं है । घर में मत्ृ यु का-सा सन्नाटा छाया हुआ है, और मानो
हृदय की गनत बन्द हो गई है ।
सहसा करूणा की दृक्ष्ट ऊपर उठ गई। उसने दे खा कक आददत्य अपनी गोद में प्रकाश की ननजीव दे ह
लिए खडे हो रहे हैं। करूणा पछाड खाकर धगर पडी।
6

क रूणा जीववत थी, पर सींसार से उसका कोई नाता न था। उसका छोटा-सा सींसार, क्जसे उसने अपनी
ॉँ अनन्त में वविीन हो गया था। क्जस प्रकाश को
कल्पनाओीं के हृदय में रचा था, स्वप्न की भ नत
सामने दे खकर वह जीवन की अधेरी रात में भी हृदय में आशाओीं की सम्पवत्त लिये जी रही थी, वह बझ
ु गया
और सम्पवत्त िट
ु गई। अब न कोई आश्रय था और न उसकी जरूरत। क्जन गउओीं को वह दोनों वक्त अपने
हाथों से दाना-चारा दे ती और सहिाती थी, वे अब खूटे पर बधी ननराश नेत्रों से द्वार की ओर ताकती रहती
थीीं। बछडो को गिे िगाकर पच
ु कारने वािा अब कोई न था, क्जसके लिए दध
ु दहु े , मट्
ु ठा ननकािे। खानेवािा
कौन था? करूणा ने अपने छोटे -से सींसार को अपने ही अींदर समेट लिया था।
ककन्तु एक ही सप्ताह में करूणा के जीवन ने कफर रीं ग बदिा। उसका छोटा-सा सींसार फैिते-फैिते
ॉँ रखा था, वह उखड गया। अब नौका
ववश्वव्यापी हो गया। क्जस िींगर ने नौका को तट से एक केन्द्र पर ब ध
सागर के अशेष ववस्तार में भ्रमण करे गी, चाहे वह उद्दाम तरीं गों के वक्ष में ही क्यों न वविीन हो जाए।
करूणा द्वार पर आ बैठती और मह
ु ल्िे-भर के िडकों को जमा करके दध
ू वपिाती। दोपहर तक
मक्खन ननकािती और वह मक्खन मह ॉँ
ु ल्िे के िडके खाते। कफर भ नत-भ ॉँ के पकवान बनाती और कुत्तों
नत
को खखिाती। अब यही उसका ननत्य का ननयम हो गया। धचडडय ,ॉँ कुत्ते, बबक्ल्िय ॉँ चीींटे-चीदटय ॉँ सब अपने हो
गए। प्रेम का वह द्वार अब ककसी के लिए बन्द न था। उस अींगुि-भर जगह में , जो प्रकाश के लिए भी
काफी न थी, अब समस्त सींसार समा गया था।
एक ददन प्रकाश का पत्र आया। करूणा ने उसे उठाकर फेंक ददया। कफर थोडी दे र के बाद उसे उठाकर
फाड डािा और धचडडयों को दाना चग
ु ाने िगी; मगर जब ननशा-योधगनी ने अपनी धन
ू ी जिायी और वेदनाऍ ीं
ॉँ
उससे वरदान म गने के लिए ववकि हो-होकर चिीीं, तो करूणा की मनोवेदना भी सजग हो उठी—प्रकाश का
पत्र पढ़ने के लिए उसका मन व्याकुि हो उठा। उसने सोचा, प्रकाश मेरा कौन है ? मेरा उससे क्य प्रयोजन? ह ,ॉँ
प्रकाश मेरा कौन है ? हा, प्रकाश मेरा कौन है ? हृदय ने उत्तर ददया, प्रकाश तेरा सवमस्व है , वह तेरे उस अमर प्रेम
की ननशानी है , क्जससे तू सदै व के लिए वींधचत हो गई। वह तेरे प्राण है , तेरे जीवन-दीपक का प्रकाश, तेरी
वींधचत कामनाओीं का माधय
ु ,म तेरे अश्रज
ू ि में ववहार करने वािा करने वािा हीं स। करूणा उस पत्र के टुकडों
को जमा करने िगी, माना उसके प्राण बबखर गये हों। एक-एक टुकडा उसे अपने खोये हुए प्रेम का एक
पदधचन्ह-सा मािम
ू होता था। जब सारे परु जे जमा हो गए, तो करूणा दीपक के सामने बैठकर उसे जोडने
िगी, जैसे कोई ववयोगी हृदय प्रेम के टूटे हुए तारों को जोड रहा हो। हाय री ममता! वह अभाधगन सारी रात
उन परु जों को जोडने में िगी रही। पत्र दोनों ओर लिखा था, इसलिए परु जों को ठीक स्थान पर रखना और
भी कदठन था। कोई शब्द, कोई वाक्य बीच में गायब हो जाता। उस एक टुकडे को वह कफर खोजने िगती।
सारी रात बीत गई, पर पत्र अभी तक अपण
ू म था।

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ददन चढ़ आया, मह ु ल्िे के िौंडे मक्खन और दध
ू की चाह में एकत्र हो गए, कुत्तों ओर बबक्ल्ियों का
आगमन हुआ, धचडडय ॉँ आ-आकर आींगन में फुदकने िगीीं, कोई ओखिी पर बैठी, कोई ति ु सी के चौतरे पर, पर
करूणा को लसर उठाने तक की फुरसत नहीीं।
दोपहर हुआ, करुणा ने लसर न उठाया। न भखू थीीं, न प्यास। कफर सींध्या हो गई। पर वह पत्र अभी
तक अधरू ा था। पत्र का आशय समझ में आ रहा था—प्रकाश का जहाज कहीीं-से-कहीीं जा रहा है । उसके हृदय
में कुछ उठा हुआ है । क्या उठा हुआ है, यह करुणा न सोच सकी? करूणा पत्र
ु की िेखनी से ननकिे हुए एक-
एक शब्द को पढ़ना और उसे हृदय पर अींककत कर िेना चाहती थी।
ॉँ
इस भ नत तीन ददन गज
ू र गए। सन्ध्या हो गई थी। तीन ददन की जागी ऑ ींखें जरा झपक गई।
करूणा ने दे खा, एक िम्बा-चौडा कमरा है, उसमें मेजें और कुलसमय ॉँ िगी हुई हैं, बीच में ऊचे मींच पर कोई
आदमी बैठा हुआ है। करूणा ने ध्यान से दे खा, प्रकाश था।
एक क्षण में एक कैदी उसके सामने िाया गया, उसके हाथ-प वॉँ में जींजीर थी, कमर झक
ु ी हुई, यह
आददत्य थे।
करूणा की आींखें खि
ु गई। ऑ ींसू बहने िगे। उसने पत्र के टुकडों को कफर समेट लिया और उसे
ु की के लसवा वह ॉँ कुछ न रहा, जो उसके हृदय में ववदीणम ककए
जिाकर राख कर डािा। राख की एक चट
डािती थी। इसी एक चट
ु की राख में उसका गडु डयोंवािा बचपन, उसका सींतप्त यौवन और उसका तष्ृ णामय
वैधव्य सब समा गया।
प्रात:काि िोगों ने दे खा, पक्षी वपींजडे में उड चक
ु ा था! आददत्य का धचत्र अब भी उसके शन्
ू य हृदय से
धचपटा हुआ था। भग्नहृदय पनत की स्नेह-स्मनृ त में ववश्राम कर रहा था और प्रकाश का जहाज योरप चिा
जा रहा था।

बेटोंिाली विधिा

पीं
डडत अयोध्यानाथ का दे हान्त हुआ तो सबने कहा, ईश्वर आदमी की ऐसी ही मौत दे । चार जवान बेटे
थे, एक िडकी। चारों िडकों के वववाह हो चक ॉँ थी। सम्पवत्त भी काफी छोडी थी।
ु े थे, केवि िडकी क्व री
एक पक्का मकान, दो बगीचे, कई हजार के गहने और बीस हजार नकद। ववधवा फूिमती को शोक तो हुआ
और कई ददन तक बेहाि पडी रही, िेककन जवान बेटों को सामने दे खकर उसे ढाढ़स हुआ। चारों िडके एक-
से-एक सश ु ीि, चारों बहुऍ ीं एक-से-एक बढ़कर आज्ञाकाररणी। जब वह रात को िेटती, तो चारों बारी-बारी से
उसके प वॉँ दबातीीं; वह स्नान करके उठती, तो उसकी साडी छ टती।
ॉँ सारा घर उसके इशारे पर चिता था। बडा
िडका कामता एक दफ्तर में 50 रू. पर नौकर था, छोटा उमानाथ डाक्टरी पास कर चक
ु ा था और कहीीं
औषधािय खोिने की कफक्र में था, तीसरा दयानाथ बी. ए. में फेि हो गया था और पबत्रकाओीं में िेख
लिखकर कुछ-न-कुछ कमा िेता था, चौथा सीतानाथ चारों में सबसे कुशाग्र बद्
ु धध और होनहार था और
अबकी साि बी. ए. प्रथम श्रेणी में पास करके एम. ए. की तैयारी में िगा हुआ था। ककसी िडके में वह
दव्ु यमसन, वह छै िापन, वह िट
ु ाऊपन न था, जो माता-वपता को जिाता और कुि-मयामदा को डुबाता है ।
फूिमती घर की मािककन थी। गोकक कींु क्जय ॉँ बडी बहू के पास रहती थीीं – बदु ढ़या में वह अधधकार-प्रेम न
था, जो वद्
ृ धजनों को कटु और किहशीि बना ददया करता है; ककन्तु उसकी इच्छा के बबना कोई बािक
लमठाई तक न मगा सकता था।
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सींध्या हो गई थी। पींडडत को मरे आज बारहवा ददन था। कि तेरहीीं हैं। िह्मभोज होगा। बबरादरी के
िोग ननमींबत्रत होंगे। उसी की तैयाररय ॉँ हो रही थीीं। फूिमती अपनी कोठरी में बैठी दे ख रही थी, पल्िेदार बोरे
में आटा िाकर रख रहे हैं। घी के दटन आ रहें हैं। शाक-भाजी के टोकरे , शक्कर की बोररय ,ॉँ दही के मटके
चिे आ रहें हैं। महापात्र के लिए दान की चीजें िाई गईं-बतमन, कपडे, पिींग, बबछावन, छाते, जूत,े छडडय ,ॉँ
िािटे नें आदद; ककन्तु फूिमती को कोई चीज नहीीं ददखाई गई। ननयमानस
ु ार ये सब सामान उसके पास आने
चादहए थे। वह प्रत्येक वस्तु को दे खती उसे पसींद करती, उसकी मात्रा में कमी-बेशी का फैसिा करती; तब इन
चीजों को भींडारे में रखा जाता। क्यों उसे ददखाने और उसकी राय िेने की जरूरत नहीीं समझी गई? अच्छा
ॉँ बोरों के लिए कहा था। घी भी प च
वह आटा तीन ही बोरा क्यों आया? उसने तो प च ॉँ ही कनस्तर है । उसने
तो दस कनस्तर मींगवाए थे। इसी तरह शाक-भाजी, शक्कर, दही आदद में भी कमी की गई होगी। ककसने
उसके हुक्म में हस्तक्षेप ककया? जब उसने एक बात तय कर दी, तब ककसे उसको घटाने-बढ़ाने का अधधकार
है ?
आज चािीस वषों से घर के प्रत्येक मामिे में फूिमती की बात सवममान्य थी। उसने सौ कहा तो सौ
खचम ककए गए, एक कहा तो एक। ककसी ने मीन-मेख न की। यह ॉँ तक कक पीं. अयोध्यानाथ भी उसकी इच्छा
के ववरूद्ध कुछ न करते थे; पर आज उसकी ऑ ींखों के सामने प्रत्यक्ष रूप से उसके हुक्म की उपेक्षा की जा
रही है ! इसे वह क्योंकर स्वीकार कर सकती?
कुछ दे र तक तो वह जब्त ककए बैठी रही; पर अींत में न रहा गया। स्वायत्त शासन उसका स्वभाव हो
ॉँ
गया था। वह क्रोध में भरी हुई आयी और कामतानाथ से बोिी-क्या आटा तीन ही बोरे िाये? मैंने तो प च
ॉँ ही दटन मगवाया! तम्
बोरों के लिए कहा था। और घी भी प च ु हें याद है, मैंने दस कनस्तर कहा था?
ककफायत को मैं बरु ा नहीीं समझती; िेककन क्जसने यह कुऑ ीं खोदा, उसी की आत्मा पानी को तरसे, यह
ककतनी िजजा की बात है!
कामतानाथ ने क्षमा-याचना न की, अपनी भि ू भी स्वीकार न की, िक्जजत भी नहीीं हुआ। एक लमनट
तो ववद्रोही भाव से खडा रहा, कफर बोिा-हम िोगों की सिाह तीन ही बोरों की हुई और तीन बोरे के लिए
ॉँ दटन घी काफी था। इसी दहसाब से और चीजें भी कम कर दी गई हैं।
पच
फूिमती उग्र होकर बोिी-ककसकी राय से आटा कम ककया गया?
‘हम िोगों की राय से।‘
‘तो मेरी राय कोई चीज नहीीं है ?’
‘है क्यों नहीीं; िेककन अपना हानन-िाभ तो हम समझते हैं?’
फूिमती हक्की-बक्की होकर उसका मह
ु ताकने िगी। इस वाक्य का आशय उसकी समझ में न आया।
अपना हानन-िाभ! अपने घर में हानन-िाभ की क्जम्मेदार वह आप है । दस
ू रों को, चाहे वे उसके पेट के जन्मे
पत्र
ु ही क्यों न हों, उसके कामों में हस्तक्षेप करने का क्या अधधकार? यह िौंडा तो इस दढठाई से जवाब दे
रहा है, मानो घर उसी का है , उसी ने मर-मरकर गह ृ स्थी जोडी है, मैं तो गैर हू! जरा इसकी हे कडी तो दे खो।
उसने तमतमाए हुए मख ु से कहा मेरे हानन-िाभ के क्जम्मेदार तुम नहीीं हो। मझ ु े अक्ख्तयार है, जो
ॉँ दटन घी और िाओ और आगे के लिए खबरदार,
उधचत समझ,ू वह करू। अभी जाकर दो बोरे आटा और प च
जो ककसी ने मेरी बात काटी।
अपने ववचार में उसने काफी तम्बीह कर दी थी। शायद इतनी कठोरता अनावश्यक थी। उसे अपनी
उग्रता पर खेद हुआ। िडके ही तो हैं, समझे होंगे कुछ ककफायत करनी चादहए। मझ
ु से इसलिए न पछ ू ा होगा
कक अम्मा तो खुद हरे क काम में ककफायत करती हैं। अगर इन्हें मािम
ू होता कक इस काम में मैं ककफायत
पसींद न करूगी, तो कभी इन्हें मेरी उपेक्षा करने का साहस न होता। यद्यवप कामतानाथ अब भी उसी जगह
खडा था और उसकी भावभींगी से ऐसा ज्ञात होता था कक इस आज्ञा का पािन करने के लिए वह बहुत
उत्सक
ु नहीीं, पर फूिमती ननक्श्चींत होकर अपनी कोठरी में चिी गयी। इतनी तम्बीह पर भी ककसी को अवज्ञा
करने की सामथ्यम हो सकती है , इसकी सींभावना का ध्यान भी उसे न आया।
पर जयों-जयों समय बीतने िगा, उस पर यह हकीकत खुिने िगी कक इस घर में अब उसकी वह
है लसयत नहीीं रही, जो दस-बारह ददन पहिे थी। सम्बींधधयों के यह ॉँ के नेवते में शक्कर, लमठाई, दही, अचार
आदद आ रहे थे। बडी बहू इन वस्तओ ु ीं को स्वालमनी-भाव से सभाि-सभािकर रख रही थी। कोई भी उससे
पछ
ू ने नहीीं आता। बबरादरी के िोग जो कुछ पछ ू ते हैं, कामतानाथ से या बडी बहू से। कामतानाथ कह ॉँ का
बडा इींतजामकार है, रात-ददन भींग वपये पडा रहता हैं ककसी तरह रो-धोकर दफ्तर चिा जाता है । उसमें भी

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महीने में पींद्रह नागों से कम नहीीं होते। वह तो कहो, साहब पींडडतजी का लिहाज करता है , नहीीं अब तक कभी
का ननकाि दे ता। और बडी बहू जैसी फूहड औरत भिा इन सब बातों को क्या समझेगी! अपने कपडे-ित्ते
तक तो जतन से रख नहीीं सकती, चिी है गहृ स्थी चिाने! भद होगी और क्या। सब लमिकर कुि की नाक
कटवाऍगेीं । वक्त पर कोई-न-कोई चीज कम हो जायेगी। इन कामों के लिए बडा अनभ
ु व चादहए। कोई चीज
तो इतनी बन जाएगी कक मारी-मारी कफरे गा। कोई चीज इतनी कम बनेगी कक ककसी पत्ति पर पहूचेगी, ककसी
पर नहीीं। आखखर इन सबों को हो क्या गया है! अच्छा, बहू नतजोरी क्यों खोि रही है ? वह मेरी आज्ञा के
बबना नतजोरी खोिनेवािी कौन होती है ? कींु जी उसके पास है अवश्य; िेककन जब तक मैं रूपये न ननकिवाऊ,
नतजोरी नहीीं खुिती। आज तो इस तरह खोि रही है, मानो मैं कुछ हू ही नहीीं। यह मझ
ु से न बदामश्त होगा!
वह झमककर उठी और बहू के पास जाकर कठोर स्वर में बोिी-नतजोरी क्यों खोिती हो बहू, मैंने तो
खोिने को नहीीं कहा?
बडी बहू ने ननस्सींकोच भाव से उत्तर ददया-बाजार से सामान आया है , तो दाम न ददया जाएगा।
‘कौन चीज ककस भाव में आई है और ककतनी आई है, यह मझ ु े कुछ नहीीं मािमू ! जब तक दहसाब-
ककताब न हो जाए, रूपये कैसे ददये जाऍ?’
ीं
‘दहसाब-ककताब सब हो गया है ।‘
‘ककसने ककया?’
‘अब मैं क्या जानू ककसने ककया? जाकर मरदों से पछ
ू ो! मझ
ु े हुक्म लमिा, रूपये िाकर दे दो, रूपये
लिये जाती हू!’
फूिमती खन
ू का घट
ू पीकर रह गई। इस वक्त बबगडने का अवसर न था। घर में मेहमान स्त्री-परू
ु ष
ॉँ तो िोग यही कहें गे कक इनके घर में पींडडतजी के मरते
भरे हुए थे। अगर इस वक्त उसने िडकों को ड टा,
ही फूट पड गई। ददि पर पत्थर रखकर कफर अपनी कोठरी में चिी गयी। जब मेहमान ववदा हो जायेंगे, तब
वह एक-एक की खबर िेगी। तब दे खेगी, कौन उसके सामने आता है और क्या कहता है । इनकी सारी चौकडी
भि
ु ा दे गी।
ककन्तु कोठरी के एकाींत में भी वह ननक्श्चन्त न बैठी थी। सारी पररक्स्थनत को धगद्घ दृक्ष्ट से दे ख रही
थी, कह ॉँ सत्कार का कौन-सा ननयम भींग होता है , कह ॉँ मयामदाओीं की उपेक्षा की जाती है । भोज आरम्भ हो
गया। सारी बबरादरी एक साथ पींगत में बैठा दी गई। ऑ ींगन में मक्ु श्कि से दो सौ आदमी बैठ सकते हैं। ये
ॉँ सौ आदमी इतनी-सी जगह में कैसे बैठ जायेंगे? क्या आदमी के ऊपर आदमी बबठाए जायेंगे? दो पींगतों
पच
में िोग बबठाए जाते तो क्या बरु ाई हो जाती? यही तो होता है कक बारह बजे की जगह भोज दो बजे समाप्त
होता; मगर यह ॉँ तो सबको सोने की जल्दी पडी हुई है । ककसी तरह यह बिा लसर से टिे और चैन से सोएीं!
िोग ककतने सटकर बैठे हुए हैं कक ककसी को दहिने की भी जगह नहीीं। पत्ति एक-पर-एक रखे हुए हैं।
ॉँ रहें हैं। मैदे की परू रया ठीं डी होकर धचमडी हो जाती हैं। इन्हें कौन
परू रयाीं ठीं डी हो गईं। िोग गरम-गरम म ग
खाएगा? रसोइए को कढ़ाव पर से न जाने क्यों उठा ददया गया? यही सब बातें नाक काटने की हैं।
सहसा शोर मचा, तरकाररयों में नमक नहीीं। बडी बहू जल्दी-जल्दी नमक पीसने िगी। फूिमती क्रोध
के मारे ओ चबा रही थी, पर इस अवसर पर मह ु न खोि सकती थी। बोरे -भर नमक वपसा और पत्तिों पर
डािा गया। इतने में कफर शोर मचा-पानी गरम है, ठीं डा पानी िाओ! ठीं डे पानी का कोई प्रबन्ध न था, बफम भी
न मगाई गई। आदमी बाजार दौडाया गया, मगर बाजार में इतनी रात गए बफम कह ?ॉँ आदमी खािी हाथ िौट
आया। मेहमानों को वही नि का गरम पानी पीना पडा। फूिमती का बस चिता, तो िडकों का मह
ु नोच
िेती। ऐसी छीछािेदर उसके घर में कभी न हुई थी। उस पर सब मालिक बनने के लिए मरते हैं। बफम जैसी
जरूरी चीज मगवाने की भी ककसी को सधु ध न थी! सधु ध कह ॉँ से रहे -जब ककसी को गप िडाने से फुसमत न
लमिे। मेहमान अपने ददि में क्या कहें गे कक चिे हैं बबरादरी को भोज दे ने और घर में बफम तक नहीीं!
अच्छा, कफर यह हिचि क्यों मच गई? अरे , िोग पींगत से उठे जा रहे हैं। क्या मामिा है?
फूिमती उदासीन न रह सकी। कोठरी से ननकिकर बरामदे में आयी और कामतानाथ से पछ
ू ा-क्या
बात हो गई िल्िा? िोग उठे क्यों जा रहे हैं? कामता ने कोई जवाब न ददया। वह ॉँ से खखसक गया। फूिमती
झझिाकर
ु रह गई। सहसा कहाररन लमि गई। फूिमती ने उससे भी यह प्रश्न ककया। मािम ू हुआ, ककसी के
शोरबे में मरी हुई चदु हया ननकि आई। फूिमती धचत्रलिखखत-सी वहीीं खडी रह गई। भीतर ऐसा उबाि उठा
कक दीवार से लसर टकरा िे! अभागे भोज का प्रबन्ध करने चिे थे। इस फूहडपन की कोई हद है , ककतने
आदलमयों का धमम सत्यानाश हो गया! कफर पींगत क्यों न उठ जाए? ऑ ींखों से दे खकर अपना धमम कौन

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गॅवाएगा? हा! सारा ककया-धरा लमट्टी में लमि गया। सैकडों रूपये पर पानी कफर गया! बदनामी हुई वह
अिग।
मेहमान उठ चक ु े थे। पत्तिों पर खाना जयों-का-त्यों पडा हुआ था। चारों िडके ऑ ींगन में िक्जजत खडे
थे। एक दसू रे को इिजाम दे रहा था। बडी बहू अपनी दे वराननयों पर बबगड रही थी। दे वराननय ॉँ सारा दोष
कुमद
ु के लसर डािती थी। कुमदु खडी रो रही थी। उसी वक्त फूिमती झल्िाई हुई आकर बोिी-मह ु में
कालिख िगी कक नहीीं या अभी कुछ कसर बाकी हैं? डूब मरो, सब-के-सब जाकर धचल्ि-ू भर पानी में ! शहर में
कहीीं मह
ु ददखाने िायक भी नहीीं रहे ।
ककसी िडके ने जवाब न ददया।
फूिमती और भी प्रचींड होकर बोिी-तुम िोगों को क्या? ककसी को शमम-हया तो है नहीीं। आत्मा तो
उनकी रो रही है, क्जन्होंने अपनी क्जन्दगी घर की मरजाद बनाने में खराब कर दी। उनकी पववत्र आत्मा को
तम
ु ने यों किींककत ककया? शहर में थड
ु ी-थड
ु ी हो रही है । अब कोई तम्
ु हारे द्वार पर पेशाब करने तो आएगा
नहीीं!
कामतानाथ कुछ दे र तक तो चप
ु चाप खडा सन
ु ता रहा। आखखर झींझ
ु िा कर बोिा-अच्छा, अब चप
ु रहो
अम्म ।ॉँ भि
ू हुई, हम सब मानते हैं, बडी भींयकर भि
ू हुई, िेककन अब क्या उसके लिए घर के प्राखणयों को
हिाि-कर डािोगी? सभी से भि ू ें होती हैं। आदमी पछताकर रह जाता है । ककसी की जान तो नहीीं मारी
जाती?
बडी बहू ने अपनी सफाई दी-हम क्या जानते थे कक बीबी (कुमद ु ) से इतना-सा काम भी न होगा। इन्हें
चादहए था कक दे खकर तरकारी कढ़ाव में डाितीीं। टोकरी उठाकर कढ़ाव मे डाि दी! हमारा क्या दोष!
ॉँ
कामतानाथ ने पत्नी को ड टा-इसमें न कुमद
ु का कसरू है, न तम्
ु हारा, न मेरा। सींयोग की बात है ।
बदनामी भाग में लिखी थी, वह हुई। इतने बडे भोज में एक-एक मट् ु ठी तरकारी कढ़ाव में नहीीं डािी जाती!
टोकरे -के-टोकरे उडेि ददए जाते हैं। कभी-कभी ऐसी दघ
ु ट
म ना होती है । पर इसमें कैसी जग-हसाई और कैसी
नक-कटाई। तुम खामखाह जिे पर नमक नछडकती हो!
फूिमती ने दाींत पीसकर कहा-शरमाते तो नहीीं, उिटे और बेहयाई की बातें करते हो।
कामतानाथ ने नन:सींकोच होकर कहा-शरमाऊ क्यों, ककसी की चोरी की हैं? चीनी में चीींटे और आटे में
घन
ु , यह नहीीं दे खे जाते। पहिे हमारी ननगाह न पडी, बस, यहीीं बात बबगड गई। नहीीं, चप
ु के से चदु हया
ननकािकर फेंक दे ते। ककसी को खबर भी न होती।
फूिमती ने चककत होकर कहा-क्या कहता है , मरी चदु हया खखिाकर सबका धमम बबगाड दे ता?
कामता हसकर बोिा-क्या परु ाने जमाने की बातें करती हो अम्म ।ॉँ इन बातों से धमम नहीीं जाता? यह
धमामत्मा िोग जो पत्ति पर से उठ गए हैं, इनमें से कौन है, जो भेड-बकरी का माींस न खाता हो? तािाब के
कछुए और घोंघे तक तो ककसी से बचते नहीीं। जरा-सी चदु हया में क्या रखा था!
फूिमती को ऐसा प्रतीत हुआ कक अब प्रिय आने में बहुत दे र नहीीं है । जब पढे -लिखे आदलमयों के
मन मे ऐसे अधालममक भाव आने िगे, तो कफर धमम की भगवान ही रक्षा करें । अपना-सा मींह ु िेकर चिी
गयी।

दो महीने गज
ु र गए हैं। रात का समय है । चारों भाई ददन के काम से छुट्टी पाकर कमरे में बैठे गप-
शप कर रहे हैं। बडी बहू भी षड्यींत्र में शरीक है। कुमद
ु के वववाह का प्रश्न नछडा हुआ है।
कामतानाथ ने मसनद पर टे क िगाते हुए कहा-दादा की बात दादा के साथ गई। पींडडत ववद्वान ् भी हैं
और कुिीन भी होंगे। िेककन जो आदमी अपनी ववद्या और कुिीनता को रूपयों पर बेच,े वह नीच है। ऐसे
नीच आदमी के िडके से हम कुमद ॉँ हजार तो दरू की बात है। उसे
ु का वववाह सेंत में भी न करें गे, प च
बताओ धता और ककसी दस ू रे वर की तिाश करो। हमारे पास कुि बीस हजार ही तो हैं। एक-एक के दहस्से
ॉँ
में प च-प ॉँ हजार आते हैं। प च
च ॉँ हजार दहे ज में दे दें , और प च
ॉँ हजार नेग-न्योछावर, बाजे-गाजे में उडा दें , तो
कफर हमारी बधधया ही बैठ जाएगी।
उमानाथ बोिे-मझ
ु े अपना औषधािय खोिने के लिए कम-से-कम पाच हजार की जरूरत है। मैं अपने
दहस्से में से एक पाई भी नहीीं दे सकता। कफर खि
ु ते ही आमदनी तो होगी नहीीं। कम-से-कम साि-भर घर
से खाना पडेगा।

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दयानाथ एक समाचार-पत्र दे ख रहे थे। ऑ ींखों से ऐनक उतारते हुए बोिे-मेरा ववचार भी एक पत्र
ॉँ हजार मेरे रहें गे तो कोई-
ननकािने का है । प्रेस और पत्र में कम-से-कम दस हजार का कैवपटि चादहए। प च
न-कोई साझेदार भी लमि जाएगा। पत्रों में िेख लिखकर मेरा ननवामह नहीीं हो सकता।
कामतानाथ ने लसर दहिाते हुए कहा—अजी, राम भजो, सेंत में कोई िेख छपता नहीीं, रूपये कौन दे ता
है ।
दयानाथ ने प्रनतवाद ककया—नहीीं, यह बात तो नहीीं है। मैं तो कहीीं भी बबना पेशगी परु स्कार लिये नहीीं
लिखता।
कामता ने जैसे अपने शब्द वापस लिये—तुम्हारी बात मैं नहीीं कहता भाई। तुम तो थोडा-बहुत मार
िेते हो, िेककन सबको तो नहीीं लमिता।
बडी बहू ने श्रद्घा भाव ने कहा—कन्या भग्यवान ् हो तो दररद्र घर में भी सख
ु ी रह सकती है । अभागी
हो, तो राजा के घर में भी रोएगी। यह सब नसीबों का खेि है ।
कामतानाथ ने स्त्री की ओर प्रशींसा-भाव से दे खा-कफर इसी साि हमें सीता का वववाह भी तो करना है ।
सीतानाथ सबसे छोटा था। लसर झक
ु ाए भाइयों की स्वाथम-भरी बातें सन
ु -सन
ु कर कुछ कहने के लिए
उताविा हो रहा था। अपना नाम सन
ु ते ही बोिा—मेरे वववाह की आप िोग धचन्ता न करें । मैं जब तक
ककसी धींधे में न िग जाऊगा, वववाह का नाम भी न िगा;
ू और सच पनू छए तो मैं वववाह करना ही नहीीं
चाहता। दे श को इस समय बािकों की जरूरत नहीीं, काम करने वािों की जरूरत है । मेरे दहस्से के रूपये आप
कुमद
ु के वववाह में खचम कर दें । सारी बातें तय हो जाने के बाद यह उधचत नहीीं है कक पींडडत मरु ारीिाि से
सम्बींध तोड लिया जाए।
उमा ने तीव्र स्वर में कहा—दस हजार कह ॉँ से आऍगेीं ?
सीता ने डरते हुए कहा—मैं तो अपने दहस्से के रूपये दे ने को कहता हू।
‘और शेष?’
‘मरु ारीिाि से कहा जाए कक दहे ज में कुछ कमी कर दें । वे इतने स्वाथामन्ध नहीीं हैं कक इस अवसर
पर कुछ बि खाने को तैयार न हो जाऍ,ीं अगर वह तीन हजार में सींतुष्ट हो जाएीं तो प च ॉँ हजार में वववाह
हो सकता है ।
उमा ने कामतानाथ से कहा—सन
ु ते हैं भाई साहब, इसकी बातें ।
दयानाथ बोि उठे -तो इसमें आप िोगों का क्या नक
ु सान है? मझ
ु े तो इस बात से खश
ु ी हो रही है कक
भिा, हममे कोई तो त्याग करने योग्य है । इन्हें तत्काि रूपये की जरूरत नहीीं है । सरकार से वजीफा पाते
ही हैं। पास होने पर कहीीं-न-कहीीं जगह लमि जाएगी। हम िोगों की हाित तो ऐसी नहीीं है।
कामतानाथ ने दरू दलशमता का पररचय ददया—नक
ु सान की एक ही कही। हममें से एक को कष्ट हो तो
क्या और िोग बैठे दे खेंग?े यह अभी िडके हैं, इन्हें क्या मािम
ू , समय पर एक रूपया एक िाख का काम
करता है। कौन जानता है , कि इन्हें वविायत जाकर पढ़ने के लिए सरकारी वजीफा लमि जाए या लसववि
ॉँ हजार िग जाएगे। तब ककसके सामने हाथ
सववमस में आ जाऍ।ीं उस वक्त सफर की तैयाररयों में चार-प च
फैिाते कफरें ग?े मैं यह नहीीं चाहता कक दहे ज के पीछे इनकी क्जन्दगी नष्ट हो जाए।
इस तकम ने सीतानाथ को भी तोड लिया। सकुचाता हुआ बोिा—ह ,ॉँ यदद ऐसा हुआ तो बेशक मझ
ु े
रूपये की जरूरत होगी।
‘क्या ऐसा होना असींभव है ?’
‘असभींव तो मैं नहीीं समझता; िेककन कदठन अवश्य है । वजीफे उन्हें लमिते हैं, क्जनके पास लसफाररशें
होती हैं, मझ
ु े कौन पछ
ू ता है।‘
‘कभी-कभी लसफाररशें धरी रह जाती हैं और बबना लसफाररश वािे बाजी मार िे जाते हैं।’
ु े यह ॉँ तक मींजूर है कक चाहे मैं वविायत न जाऊ; पर कुमद
‘तो आप जैसा उधचत समझें। मझ ु अच्छे
घर जाए।‘
कामतानाथ ने ननष्ठा—भाव से कहा—अच्छा घर दहे ज दे ने ही से नहीीं लमिता भैया! जैसा तुम्हारी
भाभी ने कहा, यह नसीबों का खेि है । मैं तो चाहता हू कक मरु ारीिाि को जवाब दे ददया जाए और कोई
ऐसा घर खोजा जाए, जो थोडे में राजी हो जाए। इस वववाह में मैं एक हजार से जयादा नहीीं खचम कर सकता।
पींडडत दीनदयाि कैसे हैं?
उमा ने प्रसन्न होकर कहा—बहुत अच्छे । एम.ए., बी.ए. न सही, यजमानों से अच्छी आमदनी है ।

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दयानाथ ने आपवत्त की—अम्म ॉँ से भी पछ
ू तो िेना चादहए।
कामतानाथ को इसकी कोई जरूरत न मािम ू हुई। बोिे-उनकी तो जैसे बद्ु धध ही भ्रष्ट हो गई। वही परु ाने
यग
ु की बातें ! मरु ारीिाि के नाम पर उधार खाए बैठी हैं। यह नहीीं समझतीीं कक वह जमाना नहीीं रहा। उनको
तो बस, कुमद
ु मरु ारी पींडडत के घर जाए, चाहे हम िोग तबाह हो जाऍ।ीं
उमा ने एक शींका उपक्स्थत की—अम्म ॉँ अपने सब गहने कुमद ु को दे दें गी, दे ख िीक्जएगा।
कामतानाथ का स्वाथम नीनत से ववद्रोह न कर सका। बोिे-गहनों पर उनका परू ा अधधकार है । यह
उनका स्त्रीधन है। क्जसे चाहें , दे सकती हैं।
उमा ने कहा—स्त्रीधन है तो क्या वह उसे िट
ु ा दें गी। आखखर वह भी तो दादा ही की कमाई है ।
‘ककसी की कमाई हो। स्त्रीधन पर उनका परू ा अधधकार है !’
ू ी गोरखधींधे हैं। बीस हजार में तो चार दहस्सेदार हों और दस हजार के गहने अम्म ॉँ के
‘यह कानन
पास रह जाऍ।ीं दे ख िेना, इन्हीीं के बि पर वह कुमद
ु का वववाह मरु ारी पींडडत के घर करें गी।‘
उमानाथ इतनी बडी रकम को इतनी आसानी से नहीीं छोड सकता। वह कपट-नीनत में कुशि है । कोई
कौशि रचकर माता से सारे गहने िे िेगा। उस वक्त तक कुमद
ु के वववाह की चचाम करके फूिमती को
भडकाना उधचत नहीीं। कामतानाथ ने लसर दहिाकर कहा—भाई, मैं इन चािों को पसींद नहीीं करता।
उमानाथ ने खखलसयाकर कहा—गहने दस हजार से कम के न होंगे।
कामता अववचलित स्वर में बोिे—ककतने ही के हों; मैं अनीनत में हाथ नहीीं डािना चाहता।
‘तो आप अिग बैदठए। हाीं, बीच में भाींजी न माररएगा।‘
‘मैं अिग रहूींगा।‘
‘और तम ु सीता?’
‘अिग रहूींगा।‘
िेककन जब दयानाथ से यही प्रश्न ककया गया, तो वह उमानाथ से सहयोग करने को तैयार हो गया।
दस हजार में ढ़ाई हजार तो उसके होंगे ही। इतनी बडी रकम के लिए यदद कुछ कौशि भी करना पडे तो
क्षम्य है ।

फू िमती रात को भोजन करके िेटी थी कक उमा और दया उसके पास जा कर बैठ गए। दोनों ऐसा मह
बनाए हुए थे, मानो कोई भरी ववपवत्त आ पडी है । फूिमती ने सशींक होकर पछ

ू ा—तुम दोनों घबडाए हुए
मािम
ू होते हो?
उमा ने लसर खजु िाते हुए कहा—समाचार-पत्रों में िेख लिखना बडे जोखखम का काम है अम्मा! ककतना
ही बचकर लिखो, िेककन कहीीं-न-कहीीं पकड हो ही जाती है । दयानाथ ने एक िेख लिखा था। उस पर प च ॉँ
ॉँ गई है । अगर कि तक जमा न कर दी गई, तो धगरफ्तार हो जाऍगेीं और दस साि
हजार की जमानत म गी
की सजा ठुक जाएगी।
फूिमती ने लसर पीटकर कहा—ऐसी बातें क्यों लिखते हो बेटा? जानते नहीीं हो, आजकि हमारे अददन
आए हुए हैं। जमानत ककसी तरह टि नहीीं सकती?
दयानाथ ने अपराधी—भाव से उत्तर ददया—मैंने तो अम्मा, ऐसी कोई बात नहीीं लिखी थी; िेककन
ककस्मत को क्या करू। हाककम क्जिा इतना कडा है कक जरा भी ररयायत नहीीं करता। मैंने क्जतनी दौंड-धप

हो सकती थी, वह सब कर िी।
‘तो तुमने कामता से रूपये का प्रबन्ध करने को नहीीं कहा?’
उमा ने मह
ु बनाया—उनका स्वभाव तो तम
ु जानती हो अम्मा, उन्हें रूपये प्राणों से प्यारे हैं। इन्हें चाहे
कािापानी ही हो जाए, वह एक पाई न दें गे।
दयानाथ ने समथमन ककया—मैंने तो उनसे इसका क्जक्र ही नहीीं ककया।
फूिमती ने चारपाई से उठते हुए कहा—चिो, मैं कहती हू, दे गा कैसे नहीीं? रूपये इसी ददन के लिए होते
हैं कक गाडकर रखने के लिए?
उमानाथ ने माता को रोककर कहा-नहीीं अम्मा, उनसे कुछ न कहो। रूपये तो न दें गे, उल्टे और हाय-
हाय मचाऍगेीं । उनको अपनी नौकरी की खैररयत मनानी है , इन्हें घर में रहने भी न दें गे। अफसरों में जाकर
खबर दे दें तो आश्चयम नहीीं।

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फूिमती ने िाचार होकर कहा—तो कफर जमानत का क्या प्रबन्ध करोगे? मेरे पास तो कुछ नहीीं है।
ह ,ॉँ मेरे गहने हैं, इन्हें िे जाओ, कहीीं धगरों रखकर जमानत दे दो। और आज से कान पकडो कक ककसी पत्र में
एक शब्द भी न लिखोगे।
दयानाथ कानों पर हाथ रखकर बोिा—यह तो नहीीं हो सकता अम्मा, कक तुम्हारे जेवर िेकर मैं अपनी
ॉँ साि की कैद ही तो होगी, झेि िगा।
जान बचाऊ। दस-प च ू यहीीं बैठा-बैठा क्या कर रहा हू!
फूिमती छाती पीटते हुए बोिी—कैसी बातें मह
ु से ननकािते हो बेटा, मेरे जीते-जी तम्हें कौन धगरफ्तार
कर सकता है! उसका मह
ु झि
ु स दीं ग
ू ी। गहने इसी ददन के लिए हैं या और ककसी ददन के लिए! जब तम्
ु हीीं
न रहोगे, तो गहने िेकर क्या आग में झोकूगीीं!
उसने वपटारी िाकर उसके सामने रख दी।
दया ने उमा की ओर जैसे फररयाद की ऑ ींखों से दे खा और बोिा—आपकी क्या राय है भाई साहब?
इसी मारे मैं कहता था, अम्मा को बताने की जरूरत नहीीं। जेि ही तो हो जाती या और कुछ?
उमा ने जैसे लसफाररश करते हुए कहा—यह कैसे हो सकता था कक इतनी बडी वारदात हो जाती और
अम्मा को खबर न होती। मझ ु से यह नहीीं हो सकता था कक सन
ु कर पेट में डाि िेता; मगर अब करना क्या
चादहए, यह मैं खुद ननणमय नहीीं कर सकता। न तो यही अच्छा िगता है कक तम
ु जेि जाओ और न यही
अच्छा िगता है कक अम्म ॉँ के गहने धगरों रखे जाऍ।ीं
फूिमती ने व्यधथत कींठ से पछ
ू ा—क्या तम
ु समझते हो, मझ
ु े गहने तुमसे जयादा प्यारे हैं? मैं तो प्राण
तक तुम्हारे ऊपर न्योछावर कर द,ू गहनों की बबसात ही क्या है।
दया ने दृढ़ता से कहा—अम्मा, तम्
ु हारे गहने तो न िगा,
ू चाहे मझ
ु पर कुछ ही क्यों न आ पडे। जब
आज तक तम्
ु हारी कुछ सेवा न कर सका, तो ककस मह
ु से तम्
ु हारे गहने उठा िे जाऊ? मझ
ु जैसे कपत
ू को
तो तुम्हारी कोख से जन्म ही न िेना चादहए था। सदा तुम्हें कष्ट ही दे ता रहा।
फूिमती ने भी उतनी ही दृढ़ता से कहा-अगर यों न िोगे, तो मैं खुद जाकर इन्हें धगरों रख दगी
ू और
खुद हाककम क्जिा के पास जाकर जमानत जमा कर आऊगी; अगर इच्छा हो तो यह परीक्षा भी िे िो। ऑ ींखें
बींद हो जाने के बाद क्या होगा, भगवान ् जानें, िेककन जब तक जीती हू तुम्हारी ओर कोई नतरछी आींखों से
दे ख नहीीं सकता।
उमानाथ ने मानो माता पर एहसान रखकर कहा—अब तो तुम्हारे लिए कोई रास्ता नहीीं रहा दयानाथ।
क्या हरज है, िे िो; मगर याद रखो, जयों ही हाथ में रूपये आ जाऍ,ीं गहने छुडाने पडेंगे। सच कहते हैं, मातत्ृ व
दीघम तपस्या है। माता के लसवाय इतना स्नेह और कौन कर सकता है ? हम बडे अभागे हैं कक माता के प्रनत
क्जतनी श्रद्घा रखनी चादहए, उसका शताींश भी नहीीं रखते।
दोनों ने जैसे बडे धममसींकट में पडकर गहनों की वपटारी सभािी और चिते बने। माता वात्सल्य-भरी
ऑ ींखों से उनकी ओर दे ख रही थी और उसकी सींपण
ू म आत्मा का आशीवामद जैसे उन्हें अपनी गोद में समेट
िेने के लिए व्याकुि हो रहा था। आज कई महीने के बाद उसके भग्न मात-ृ हृदय को अपना सवमस्व अपमण
करके जैसे आनन्द की ववभनू त लमिी। उसकी स्वालमनी कल्पना इसी त्याग के लिए, इसी आत्मसमपमण के
लिए जैसे कोई मागम ढूढ़ती रहती थी। अधधकार या िोभ या ममता की वह ॉँ गध तक न थी। त्याग ही
उसका आनन्द और त्याग ही उसका अधधकार है । आज अपना खोया हुआ अधधकार पाकर अपनी लसरजी हुई
प्रनतमा पर अपने
प्राणों की भें ट करके वह ननहाि हो गई।

ती ु र गये। म ॉँ के गहनों पर हाथ साफ करके चारों भाई उसकी ददिजोई करने िगे
न महीने और गज
थे। अपनी क्स्त्रयों को भी समझाते थे कक उसका ददि न दख
ु ाऍ।ीं अगर थोडे-से लशष्टाचार से उसकी
आत्मा को शाींनत लमिती है , तो इसमें क्या हानन है । चारों करते अपने मन की, पर माता से सिाह िे िेते या
ऐसा जाि फैिाते कक वह सरिा उनकी बातों में आ जाती और हरे क काम में सहमत हो जाती। बाग को
बेचना उसे बहुत बरु ा िगता था; िेककन चारों ने ऐसी माया रची कक वह उसे बेचते पर राजी हो गई, ककन्तु
ु के वववाह के ववषय में मतैक्य न हो सका। म ॉँ पीं. परु ारीिाि पर जमी हुई थी, िडके दीनदयाि पर
कुमद
अडे हुए थे। एक ददन आपस में किह हो गई।

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ॉँ
फूिमती ने कहा—म -बाप की कमाई में बेटी का दहस्सा भी है । तम्
ु हें सोिह हजार का एक बाग लमिा,
पच्चीस हजार का एक मकान। बीस हजार नकद में क्या प च ॉँ हजार भी कुमदु का दहस्सा नहीीं है?
कामता ने नम्रता से कहा—अम्म ,ॉँ कुमद
ु आपकी िडकी है, तो हमारी बहन है । आप दो-चार साि में
प्रस्थान कर जाऍगी;ीं पर हमार और उसका बहुत ददनों तक सम्बन्ध रहे गा। तब हम यथाशक्क्त कोई ऐसी
बात न करें ग,े क्जससे उसका अमींगि हो; िेककन दहस्से की बात कहती हो, तो कुमद
ु का दहस्सा कुछ नहीीं।
दादा जीववत थे, तब और बात थी। वह उसके वववाह में क्जतना चाहते, खचम करते। कोई उनका हाथ न पकड
सकता था; िेककन अब तो हमें एक-एक पैसे की ककफायत करनी पडेगी। जो काम हजार में हो जाए, उसके
ॉँ हजार खचम करना कह ॉँ की बद्
लिए प च ु धधमानी है?
उमानाथ से सध ॉँ हजार क्यों, दस हजार कदहए।
ु ारा—प च
ॉँ हजार खचम करने
कामता ने भवें लसकोडकर कहा—नहीीं, मैं पाच हजार ही कहूगा; एक वववाह में प च
की हमारी हैलसयत नहीीं है।
फूिमती ने क्जद पकडकर कहा—वववाह तो मरु ारीिाि के पत्र ॉँ हजार खचम हो, चाहे
ु से ही होगा, प च
दस हजार। मेरे पनत की कमाई है । मैंने मर-मरकर जोडा है । अपनी इच्छा से खचम करूगी। तुम्हीीं ने मेरी
कोख से नहीीं जन्म लिया है । कुमदु भी उसी कोख से आयी है। मेरी ऑ ींखों में तुम सब बराबर हो। मैं ककसी
ॉँ
से कुछ म गती नहीीं। तुम बैठे तमाशा दे खो, मैं सब—कुछ कर िगी।
ू बीस हजार में प चॉँ हजार कुमद
ु का है ।
कामतानाथ को अब कडवे सत्य की शरण िेने के लसवा और मागम न रहा। बोिा-अम्मा, तुम बरबस
बात बढ़ाती हो। क्जन रूपयों को तुम अपना समझती हो, वह तुम्हारे नहीीं हैं; तुम हमारी अनम
ु नत के बबना
उनमें से कुछ नहीीं खचम कर सकती।
फूिमती को जैसे सपम ने डस लिया—क्या कहा! कफर तो कहना! मैं अपने ही सींचे रूपये अपनी इच्छा
से नहीीं खचम कर सकती?
‘वह रूपये तुम्हारे नहीीं रहे , हमारे हो गए।‘
‘तुम्हारे होंगे; िेककन मेरे मरने के पीछे ।‘
‘नहीीं, दादा के मरते ही हमारे हो गए!’
उमानाथ ने बेहयाई से कहा—अम्मा, कानन
ू —कायदा तो जानतीीं नहीीं, नाहक उछिती हैं।
फूिमती क्रोध—ववहृि रोकर बोिी—भाड में जाए तुम्हारा कानन
ू । मैं ऐसे कानन
ू को नहीीं जानती।
तम्
ु हारे दादा ऐसे कोई धन्नासेठ नहीीं थे। मैंने ही पेट और तन काटकर यह गह ृ स्थी जोडी है , नहीीं आज बैठने
की छ हॉँ न लमिती! मेरे जीते-जी तम ु मेरे रूपये नहीीं छू सकते। मैंने तीन भाइयों के वववाह में दस-दस
हजार खचम ककए हैं। वही मैं कुमद
ु के वववाह में भी खचम करूगी।
कामतानाथ भी गमम पडा—आपको कुछ भी खचम करने का अधधकार नहीीं है ।
ॉँ
उमानाथ ने बडे भाई को ड टा—आप खामख्वाह अम्म ॉँ के मह
ु िगते हैं भाई साहब! मरु ारीिाि को पत्र
लिख दीक्जए कक तुम्हारे यह ॉँ कुमद
ु का वववाह न होगा। बस, छुट्टी हुई। कायदा-कानन
ू तो जानतीीं नहीीं, व्यथम
की बहस करती हैं।
फूिमती ने सींयलमत स्वर में कही—अच्छा, क्या कानन
ू है, जरा मैं भी सन
ु ।ू
उमा ने ननरीह भाव से कहा—कानन
ू यही है कक बाप के मरने के बाद जायदाद बेटों की हो जाती है ।
म ॉँ का हक केवि रोटी-कपडे का है ।
फूिमती ने तडपकर पछ
ू ा— ककसने यह कानन
ू बनाया है?
उमा शाींत क्स्थर स्वर में बोिा—हमारे ऋवषयों ने, महाराज मनु ने, और ककसने?
फूिमती एक क्षण अवाक् रहकर आहत कींठ से बोिी—तो इस घर में मैं तुम्हारे टुकडों पर पडी हुई
हू?
उमानाथ ने न्यायाधीश की ननमममता से कहा—तुम जैसा समझो।
फूिमती की सींपण
ू म आत्मा मानो इस वज्रपात से चीत्कार करने िगी। उसके मख ु से जिती हुई
ॉँ यह शब्द ननकि पडे—मैंने घर बनवाया, मैंने सींपवत्त जोडी, मैंने तुम्हें जन्म ददया, पािा
धचगाींररयों की भ नत
और आज मैं इस घर में गैर हू? मनु का यही कानन ू है? और तम
ु उसी कानन ू पर चिना चाहते हो? अच्छी
बात है । अपना घर-द्वार िो। मझ
ु े तम्
ु हारी आधश्रता बनकर रहता स्वीकार नहीीं। इससे कहीीं अच्छा है कक मर
जाऊ। वाह रे अींधेर! मैंने पेड िगाया और मैं ही उसकी छ हॉँ में खडी हो सकती; अगर यही कानन
ू है, तो
इसमें आग िग जाए।

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चारों यव
ु क पर माता के इस क्रोध और आींतक का कोई असर न हुआ। कानन
ू का फौिादी कवच
ॉँ का उन पर क्या असर हो सकता था?
उनकी रक्षा कर रहा था। इन क टों
जरा दे र में फूिमती उठकर चिी गयी। आज जीवन में पहिी बार उसका वात्सल्य मग्न मातत्ृ व
अलभशाप बनकर उसे धधक्कारने िगा। क्जस मातत्ृ व को उसने जीवन की ववभनू त समझा था, क्जसके चरणों
पर वह सदै व अपनी समस्त अलभिाषाओीं और कामनाओीं को अवपमत करके अपने को धन्य मानती थी, वही
मातत्ृ व आज उसे अक्ग्नकींु ड-सा जान पडा, क्जसमें उसका जीवन जिकर भस्म हो गया।
सींध्या हो गई थी। द्वार पर नीम का वक्ष
ृ लसर झक
ु ाए, ननस्तब्ध खडा था, मानो सींसार की गनत पर
ॉँ अपनी
क्षुब्ध हो रहा हो। अस्ताचि की ओर प्रकाश और जीवन का दे वता फूिवती के मातत्ृ व ही की भ नत
धचता में जि रहा था।

फू िमती अपने कमरे में जाकर िेटी, तो उसे मािम ू हुआ, उसकी कमर टूट गई है । पनत के मरते ही अपने
पेट के िडके उसके शत्रु हो जायेंगे, उसको स्वप्न में भी अनम
ु ान न था। क्जन िडकों को उसने अपना
ॉँ की
हृदय-रक्त वपिा-वपिाकर पािा, वही आज उसके हृदय पर यों आघात कर रहे हैं! अब वह घर उसे क टों
सेज हो रहा था। जह ॉँ उसकी कुछ कद्र नहीीं, कुछ धगनती नहीीं, वह ॉँ अनाथों की भाींनत पडी रोदटय ॉँ खाए, यह
उसकी अलभमानी प्रकृनत के लिए असह्य था।
पर उपाय ही क्या था? वह िडकों से अिग होकर रहे भी तो नाक ककसकी कटे गी! सींसार उसे थक
ू े तो
क्या, और िडकों को थक
ू े तो क्या; बदमानी तो उसी की है । दनु नया यही तो कहे गी कक चार जवान बेटों के
होते बदु ढ़या अिग पडी हुई मजरू ी करके पेट पाि रही है ! क्जन्हें उसने हमेशा नीच समझा, वही उस पर
हसेंगे। नहीीं, वह अपमान इस अनादर से कहीीं जयादा हृदयववदारक था। अब अपना और घर का परदा ढका
रखने में ही कुशि है। हा, अब उसे अपने को नई पररक्स्थनतयों के अनक
ु ू ि बनाना पडेगा। समय बदि गया
है । अब तक स्वालमनी बनकर रही, अब िौंडी बनकर रहना पडेगा। ईश्वर की यही इच्छा है । अपने बेटों की
बातें और िातें गैरों ककी बातों और िातों की अपेक्षा कफर भी गनीमत हैं।
ु ढ पेॉँ अपनी दशा पर रोती रही। सारी रात इसी आत्म-वेदना में कट गई। शरद्
वह बडी दे र तक मह
का प्रभाव डरता-डरता उषा की गोद से ननकिा, जैसे कोई कैदी नछपकर जेि से भाग आया हो। फूिमती
अपने ननयम के ववरूद्ध आज िडके ही उठी, रात-भर मे उसका मानलसक पररवतमन हो चक
ु ा था। सारा घर
सो रहा था और वह आींगन में झाडू िगा रही थी। रात-भर ओस में भीगी हुई उसकी पक्की जमीन उसके
ॉँ की तरह चभ
नींगे पैरों में क टों ु रही थी। पींडडतजी उसे कभी इतने सवेरे उठने न दे ते थे। शीत उसके लिए
बहुत हाननकारक था। पर अब वह ददन नहीीं रहे । प्रकृनत उस को भी समय के साथ बदि दे ने का प्रयत्न कर
रही थी। झाडू से फुरसत पाकर उसने आग जिायी और चावि-दाि की कींकडडय ॉँ चन ु ने िगी। कुछ दे र में
िडके जागे। बहुऍ ीं उठीीं। सभों ने बदु ढ़या को सदी से लसकुडे हुए काम करते दे खा; पर ककसी ने यह न कहा
कक अम्म ,ॉँ क्यों हिकान होती हो? शायद सब-के-सब बदु ढ़या के इस मान-मदम न पर प्रसन्न थे।
आज से फूिमती का यही ननयम हो गया कक जी तोडकर घर का काम करना और अींतरीं ग नीनत से
अिग रहना। उसके मख ु पर जो एक आत्मगौरव झिकता रहता था, उसकी जगह अब गहरी वेदना छायी हुई
नजर आती थी। जहाीं बबजिी जिती थी, वहाीं अब तेि का ददया दटमदटमा रहा था, क्जसे बझ
ु ा दे ने के लिए
हवा का एक हिका-सा झोंका काफी है ।
मरु ारीिाि को इनकारी-पत्र लिखने की बात पक्की हो चक
ु ी थी। दस
ू रे ददन पत्र लिख ददया गया।
दीनदयाि से कुमद
ु का वववाह ननक्श्चत हो गया। दीनदयाि की उम्र चािीस से कुछ अधधक थी, मयामदा में
भी कुछ हे ठे थे, पर रोटी-दाि से खुश थे। बबना ककसी ठहराव के वववाह करने पर राजी हो गए। नतधथ ननयत
हुई, बारात आयी, वववाह हुआ और कुमदु बबदा कर दी गई फूिमती के ददि पर क्या गुजर रही थी, इसे कौन
ॉँ ननकि गया हो। ऊचे कुि की
जान सकता है ; पर चारों भाई बहुत प्रसन्न थे, मानो उनके हृदय का क टा
कन्या, मह
ु कैसे खोिती? भाग्य में सख
ु भोगना लिखा होगा, सख
ु भोगेगी; दख
ु भोगना लिखा होगा, दख

झेिेगी। हरर-इच्छा बेकसों का अींनतम अविम्ब है । घरवािों ने क्जससे वववाह कर ददया, उसमें हजार ऐब हों,
तो भी वह उसका उपास्य, उसका स्वामी है । प्रनतरोध उसकी कल्पना से परे था।

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फूिमती ने ककसी काम मे दखि न ददया। कुमद ु को क्या ददया गया, मेहमानों का कैसा सत्कार ककया
गया, ककसके यह ॉँ से नेवते में क्या आया, ककसी बात से भी उसे सरोकार न था। उससे कोई सिाह भी िी
गई तो यही-बेटा, तम
ु िोग जो करते हो, अच्छा ही करते हो। मझ
ु से क्या पछ
ू ते हो!
जब कुमद ु म ॉँ के गिे लिपटकर रोने िगी, तो वह बेटी को
ु के लिए द्वार पर डोिी आ गई और कुमद
अपनी कोठरी में िे गयी और जो कुछ सौ पचास रूपये और दो-चार मामि
ू ी गहने उसके पास बच रहे थे,
बेटी की अींचि में डािकर बोिी—बेटी, मेरी तो मन की मन में रह गई, नहीीं तो क्या आज तुम्हारा वववाह
इस तरह होता और तुम इस तरह ववदा की जातीीं!
आज तक फूिमती ने अपने गहनों की बात ककसी से न कही थी। िडकों ने उसके साथ जो कपट-
व्यवहार ककया था, इसे चाहे अब तक न समझी हो, िेककन इतना जानती थी कक गहने कफर न लमिेंगे और
मनोमालिन्य बढ़ने के लसवा कुछ हाथ न िगेगा; िेककन इस अवसर पर उसे अपनी सफाई दे ने की जरूरत
मािम
ू हुई। कुमद
ु यह भाव मन मे िेकर जाए कक अम्माीं ने अपने गहने बहुओीं के लिए रख छोडे, इसे वह
ककसी तरह न सह सकती थी, इसलिए वह उसे अपनी कोठरी में िे गयी थी। िेककन कुमद ु को पहिे ही इस
कौशि की टोह लमि चक
ु ी थी; उसने गहने और रूपये ऑ ींचि से ननकािकर माता के चरणों में रख ददए और
बोिी-अम्मा, मेरे लिए तुम्हारा आशीवामद िाखों रूपयों के बराबर है । तुम इन चीजों को अपने पास रखो। न
जाने अभी तुम्हें ककन ववपवत्तयों को सामना करना पडे।
फूिमती कुछ कहना ही चाहती थी कक उमानाथ ने आकर कहा—क्या कर रही है कुमद
ु ? चि, जल्दी
कर। साइत टिी जाती है । वह िोग हाय-हाय कर रहे हैं, कफर तो दो-चार महीने में आएगी ही, जो कुछ िेना-
दे ना हो, िे िेना।
फूिमती के घाव पर जैसे मानो नमक पड गया। बोिी-मेरे पास अब क्या है भैया, जो इसे मैं दग
ू ी?
जाओ बेटी, भगवान ् तम्
ु हारा सोहाग अमर करें ।
कुमद
ु ववदा हो गई। फूिमती पछाड धगर पडी। जीवन की िािसा नष्ट हो गई।

ए क साि बीत गया।


फूिमती का कमरा घर में सब कमरों से बडा और हवादार था। कई महीनों से उसने बडी बहू के लिए
खािी कर ददया था और खुद एक छोटी-सी कोठरी में रहने िगी, जैसे कोई लभखाररन हो। बेटों और बहुओीं से
अब उसे जरा भी स्नेह न था, वह अब घर की िौंडी थी। घर के ककसी प्राणी, ककसी वस्तु, ककसी प्रसींग से उसे
प्रयोजन न था। वह केवि इसलिए जीती थी कक मौत न आती थी। सख
ु या द:ु ख का अब उसे िेशमात्र भी
ज्ञान न था।
उमानाथ का औषधािय खुिा, लमत्रों की दावत हुई, नाच-तमाशा हुआ। दयानाथ का प्रेस खुिा, कफर
जिसा हुआ। सीतानाथ को वजीफा लमिा और वविायत गया, कफर उत्सव हुआ। कामतानाथ के बडे िडके का
यज्ञोपवीत सींस्कार हुआ, कफर धमू -धाम हुई; िेककन फूिमती के मख
ु पर आनींद की छाया तक न आई!
कामताप्रसाद टाइफाइड में महीने-भर बीमार रहा और मरकर उठा। दयानाथ ने अबकी अपने पत्र का प्रचार
बढ़ाने के लिए वास्तव में एक आपवत्तजनक िेख लिखा और छ: महीने की सजा पायी। उमानाथ ने एक
फौजदारी के मामिे में ररश्वत िेकर गित ररपोटम लिखी और उसकी सनद छीन िी गई; पर फूिमती के
चेहरे पर रीं ज की परछाईं तक न पडी। उसके जीवन में अब कोई आशा, कोई ददिचस्पी, कोई धचन्ता न थी।
बस, पशओ
ु ीं की तरह काम करना और खाना, यही उसकी क्जन्दगी के दो काम थे। जानवर मारने से काम
करता है; पर खाता है मन से। फूिमती बेकहे काम करती थी; पर खाती थी ववष के कौर की तरह। महीनों
लसर में तेि न पडता, महीनों कपडे न धि
ु ते, कुछ परवाह नहीीं। चेतनाशन्
ू य हो गई थी।
सावन की झडी िगी हुई थी। मिेररया फैि रहा था। आकाश में मदटयािे बादि थे, जमीन पर
मदटयािा पानी। आद्रम वायु शीत-जवर और श्वास का ववतरणा करती कफरती थी। घर की महरी बीमार पड
ॉँ , पानी में भीग-भीगकर सारा काम ककया। कफर आग जिायी और
गई। फूिमती ने घर के सारे बरतन म जे
ू हे पर पतीलिय ॉँ चढ़ा दीीं। िडकों को समय पर भोजन लमिना चादहए। सहसा उसे याद आया, कामतानाथ
चल्
नि का पानी नहीीं पीते। उसी वषाम में गींगाजि िाने चिी।
कामतानाथ ने पिींग पर िेटे-िेटे कहा-रहने दो अम्मा, मैं पानी भर िाऊगा, आज महरी खब
ू बैठ रही।
फूिमती ने मदटयािे आकाश की ओर दे खकर कहा—तम
ु भीग जाओगे बेटा, सदी हो जायगी।

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कामतानाथ बोिे—तम
ु भी तो भीग रही हो। कहीीं बीमार न पड जाओ।
फूिमती ननममम भाव से बोिी—मैं बीमार न पडूगी। मझ
ु े भगवान ् ने अमर कर ददया है ।
उमानाथ भी वहीीं बैठा हुआ था। उसके औषधािय में कुछ आमदनी न होती थी, इसलिए बहुत धचक्न्तत
था। भाई-भवाज की महदे
ु खी करता रहता था। बोिा—जाने भी दो भैया! बहुत ददनों बहुओीं पर राज कर चकु ी
है , उसका प्रायक्श्चत्त तो करने दो।
गींगा बढ़ी हुई थी, जैसे समद्र
ु हो। क्षक्षनतज के सामने के कूि से लमिा हुआ था। ककनारों के वक्ष
ृ ों की
केवि फुनधगय ॉँ पानी के ऊपर रह गई थीीं। घाट ऊपर तक पानी में डूब गए थे। फूिमती किसा लिये नीचे
उतरी, पानी भरा और ऊपर जा रही थी कक प वॉँ कफसिा। सभि न सकी। पानी में धगर पडी। पि-भर हाथ-
पाव चिाये, कफर िहरें उसे नीचे खीींच िे गईं। ककनारे पर दो-चार पींडे धचल्िाए-‘अरे दौडो, बदु ढ़या डूबी जाती
है ।’ दो-चार आदमी दौडे भी िेककन फूिमती िहरों में समा गई थी, उन बि खाती हुई िहरों में, क्जन्हें
दे खकर ही हृदय क पॉँ उठता था।
एक ने पछ
ू ा—यह कौन बदु ढ़या थी?
‘अरे , वही पींडडत अयोध्यानाथ की ववधवा है।‘
‘अयोध्यानाथ तो बडे आदमी थे?’
‘ह ॉँ थे तो, पर इसके भाग्य में ठोकर खाना लिखा था।‘
‘उनके तो कई िडके बडे-बडे हैं और सब कमाते हैं?’
‘ह ,ॉँ सब हैं भाई; मगर भाग्य भी तो कोई वस्तु है!’

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बड़े भाई िाहब

मे रे भाई साहब मझ ॉँ साि बडे थे, िेककन तीन दरजे आगे। उन्होने भी उसी उम्र में पढना शरू
ु से प च ु
ककया था जब मैने शरू
ु ककया; िेककन तािीम जैसे महत्व के मामिे में वह जल्दीबाजी से काम िेना
पसींद न करते थे। इस भवन कक बनु नयाद खूब मजबत
ू डािना चाहते थे क्जस पर आिीशान महि बन सके।
एक साि का काम दो साि में करते थे। कभी-कभी तीन साि भी िग जाते थे। बनु नयाद ही पख्
ु ता न हो,
तो मकान कैसे पाएदार बने।
मैं छोटा था, वह बडे थे। मेरी उम्र नौ साि कक,वह चौदह साि के थे। उन्हें मेरी तम्बीह और
ननगरानी का परू ा जन्मलसद्ध अधधकार था। और मेरी शािीनता इसी में थी कक उनके हुक्म को कानन

समझ।ू
वह स्वभाव से बडे अघ्ययनशीि थे। हरदम ककताब खोिे बैठे रहते और शायद ददमाग को आराम दे ने
के लिए कभी कापी पर, कभी ककताब के हालशयों पर धचडडयों, कुत्तों, बक्ल्ियो की तस्वीरें बनाया करते थें।
कभी-कभी एक ही नाम या शब्द या वाक्य दस-बीस बार लिख डािते। कभी एक शेर को बार-बार सन्
ु दर
अक्षर से नकि करते। कभी ऐसी शब्द-रचना करते, क्जसमें न कोई अथम होता, न कोई सामींजस्य! मसिन
एक बार उनकी कापी पर मैने यह इबारत दे खी-स्पेशि, अमीना, भाइयों-भाइयों, दर-असि, भाई-भाई, राघेश्याम,
श्रीयत
ु राघेश्याम, एक घींटे तक—इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था। मैंने चेष्टा की कक इस
पहे िी का कोई अथम ननकाि;ू िेककन असफि रहा और उसने पछ ू ने का साहस न हुआ। वह नवी जमात में
थे, मैं पाचवी में । उनकक रचनाओ को समझना मेरे लिए छोटा मींह
ु बडी बात थी।
मेरा जी पढने में बबिकुि न िगता था। एक घींटा भी ककताब िेकर बैठना पहाड था। मौका पाते ही
होस्टि से ननकिकर मैदान में आ जाता और कभी कींकररयाीं उछािता, कभी कागज कक नततलिया उडाता,
और कहीीं कोई साथी लमि गया तो पछ
ू ना ही क्या कभी चारदीवारी पर चढकर नीचे कूद रहे है, कभी फाटक
पर वार, उसे आगे-पीछे चिाते हुए मोटरकार का आनींद उठा रहे है । िेककन कमरे में आते ही भाई साहब
का रौद्र रूप दे खकर प्राण सख
ू जाते। उनका पहिा सवाि होता-‘कहाीं थें?‘ हमेशा यही सवाि, इसी घ्वनन में
पछ
ू ा जाता था और इसका जवाब मेरे पास केवि मौन था। न जाने मींह
ु से यह बात क्यों न ननकिती कक
जरा बाहर खेि रहा था। मेरा मौन कह दे ता था कक मझ
ु े अपना अपराध स्वीकार है और भाई साहब के लिए
इसके लसवा और कोई इिाज न था कक रोष से लमिे हुए शब्दों में मेरा सत्कार करें ।
‘इस तरह अींग्रेजी पढोगे, तो क्जन्दगी-भर पढते रहोगे और एक हफम न आएगा। अगरे जी पढना कोई
हीं सी-खेि नही है कक जो चाहे पढ िे, नही, ऐरा-गैरा नत्थ-ू खैरा सभी अींगरे जी कक ववद्धान हो जाते। यहाीं रात-
ददन आींखे फोडनी पडती है और खून जिाना पडता है, जब कही यह ववधा आती है । और आती क्या है , हाीं,
कहने को आ जाती है । बडे-बडे ववद्धान भी शद्
ु ध अींगरे जी नही लिख सकते, बोिना तो दरु रहा। और मैं
कहता हूीं, तुम ककतने घोंघा हो कक मझु े दे खकर भी सबक नही िेते। मैं ककतनी मेहनत करता हूीं, तुम अपनी
आींखो दे खते हो, अगर नही दे खते, जो यह तम् ु हारी आींखो का कसरू है, तम्
ु हारी बद्
ु धध का कसरू है। इतने मेिे-
तमाशे होते है, मझ
ु े तम
ु ने कभी दे खने जाते दे खा है, रोज ही कक्रकेट और हाकी मैच होते हैं। मैं पास नही
फटकता। हमेशा पढता रहा हूीं, उस पर भी एक-एक दरजे में दो-दो, तीन-तीन साि पडा रहता हूीं कफर तमु
कैसे आशा करते हो कक तुम यों खेि-कुद में वक्त गींवाकर पास हो जाओगे? मझ
ु े तो दो-ही-तीन साि िगते
हैं, तुम उम्र-भर इसी दरजे में पडे सडते रहोगे। अगर तुम्हे इस तरह उम्र गींवानी है , तो बींहतर है, घर चिे
जाओ और मजे से गल्
ु िी-डींडा खेिो। दादा की गाढी कमाई के रूपये क्यो बरबाद करते हो?’
मैं यह िताड सन
ु कर आींसू बहाने िगता। जवाब ही क्या था। अपराध तो मैंने ककया, िताड कौन
सहे ? भाई साहब उपदे श कक किा में ननपण
ु थे। ऐसी-ऐसी िगती बातें कहते, ऐसे-ऐसे सक्ू क्त-बाण चिाते कक
मेरे क्जगर के टुकडे-टुकडे हो जाते और दहम्मत छूट जाती। इस तरह जान तोडकर मेहनत करने कक शक्क्त
मैं अपने में न पाता था और उस ननराशा मे जरा दे र के लिए मैं सोचने िगता-क्यों न घर चिा जाऊ। जो
काम मेरे बत
ू े के बाहर है, उसमे हाथ डािकर क्यो अपनी क्जन्दगी खराब करूीं। मझ
ु े अपना मख
ू म रहना मींजरू
था; िेककन उतनी मेहनत से मझ
ु े तो चक्कर आ जाता था। िेककन घींटे–दो घींटे बाद ननराशा के बादि फट
जाते और मैं इरादा करता कक आगे से खब
ू जी िगाकर पढूींगा। चटपट एक टाइम-टे बबि बना डािता। बबना
पहिे से नक्शा बनाए, बबना कोई क्स्कम तैयार ककए काम कैसे शरू
ु ीं करूीं? टाइम-टे बबि में , खेि-कूद कक मद

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बबिकुि उड जाती। प्रात:काि उठना, छ: बजे मींह
ु -हाथ धो, नाश्ता कर पढने बैठ जाना। छ: से आठ तक
अींग्रेजी, आठ से नौ तक दहसाब, नौ से साढे नौ तक इनतहास, कफर भोजन और स्कूि। साढे तीन बजे स्कूि
से वापस होकर आधा घींण्टा आराम, चार से पाींच तक भग
ू ोि, पाींच से छ: तक ग्रामर, आघा घींटा होस्टि के
सामने टहिना, साढे छ: से सात तक अींग्रेजी कम्पोजीशन, कफर भोजन करके आठ से नौ तक अनव
ु ाद, नौ से
दस तक दहन्दी, दस से ग्यारह तक ववववध ववषय, कफर ववश्राम।
मगर टाइम-टे बबि बना िेना एक बात है , उस पर अमि करना दस
ू री बात। पहिे ही ददन से उसकी
अवहे िना शरू
ु हो जाती। मैदान की वह सख
ु द हररयािी, हवा के वह हिके-हिके झोके, फुटबाि की उछि-
कूद, कबड्डी के वह दाींव-घात, वािी-बाि की वह तेजी और फुरती मझ
ु े अज्ञात और अननवामय रूप से खीच िे
जाती और वहाीं जाते ही मैं सब कुछ भि
ू जाता। वह जान-िेवा टाइम-टे बबि, वह आींखफोड पस्
ु तके ककसी कक
याद न रहती, और कफर भाई साहब को नसीहत और फजीहत का अवसर लमि जाता। मैं उनके साये से
भागता, उनकी आींखो से दरू रहने कक चेष्टा करता। कमरे मे इस तरह दबे पाींव आता कक उन्हे खबर न हो।
उनकक नजर मेरी ओर उठी और मेरे प्राण ननकिे। हमेशा लसर पर नींगी तिवार-सी िटकती मािम
ू होती।
कफर भी जैसे मौत और ववपक्त्त के बीच मे भी आदमी मोह और माया के बींधन में जकडा रहता है, मैं
फटकार और घड
ु ककयाीं खाकर भी खेि-कूद का नतरस्कार न कर सकता।
2

सा िाना इम्तहान हुआ। भाई साहब फेि हो गए, मैं पास हो गया और दरजे में प्रथम आया। मेरे और
उनके बीच केवि दो साि का अन्तर रह गया। जी में आया, भाई साहब को आडें हाथो ि—आपकी

वह घोर तपस्या कहा गई? मझु े दे खखए, मजे से खेिता भी रहा और दरजे में अव्वि भी हूीं। िेककन वह इतने
द:ु खी और उदास थे कक मझ
ु े उनसे ददल्िी हमददी हुई और उनके घाव पर नमक नछडकने का ववचार ही
िजजास्पद जान पडा। हाीं, अब मझ
ु े अपने ऊपर कुछ अलभमान हुआ और आत्मालभमान भी बढा भाई साहब
का वहरोब मझ
ु पर न रहा। आजादी से खेि–कूद में शरीक होने िगा। ददि मजबतू था। अगर उन्होने कफर
मेरी फजीहत की, तो साफ कह दगा—आपने
ू अपना खून जिाकर कौन-सा तीर मार लिया। मैं तो खेिते-
कूदते दरजे में अव्वि आ गया। जबावसेयह हे कडी जताने कासाहस न होने पर भी मेरे रीं ग-ढीं ग से साफ
जादहर होता था कक भाई साहब का वह आतींक अब मझ
ु पर नहीीं है । भाई साहब ने इसे भाप लिया-उनकी
ससहसत बद्
ु धध बडी तीव्र थी और एक ददन जब मै भोर का सारा समय गुल्िी-डींडे कक भें ट करके ठीक
भोजन के समय िौटा, तो भाई साइब ने मानो तिवार खीच िी और मझ ु पर टूट पडे-दे खता हूीं, इस साि
पास हो गए और दरजे में अव्वि आ गए, तो तम्
ु हे ददमाग हो गया है ; मगर भाईजान, घमींड तो बडे-बडे का
नही रहा, तम्
ु हारी क्या हस्ती है, इनतहास में रावण का हाि तो पढ़ा ही होगा। उसके चररत्र से तम
ु ने कौन-सा
उपदे श लिया? या यो ही पढ गए? महज इम्तहान पास कर िेना कोई चीज नही, असि चीज है बद्
ु धध का
ववकास। जो कुछ पढो, उसका अलभप्राय समझो। रावण भम
ू ींडि का स्वामी था। ऐसे राजो को चक्रवती कहते
है । आजकि अींगरे जो के राजय का ववस्तार बहुत बढा हुआ है, पर इन्हे चक्रवती नहीीं कह सकते। सींसार में
अनेको राष्र अगरे जों का आधधपत्य स्वीकार नहीीं करते। बबिकुि स्वाधीन हैं। रावण चक्रवती राजा था।
सींसार के सभी महीप उसे कर दे ते थे। बडे-बडे दे वता उसकी गि
ु ामी करते थे। आग और पानी के दे वता भी
उसके दास थे; मगर उसका अींत क् या हुआ, घमींड ने उसका नाम-ननशान तक लमटा ददया, कोई उसे एक
धचल्िू पानी दे नेवािा भी न बचा। आदमी जो कुकमम चाहे करें ; पर अलभमान न करे , इतराए नही। अलभमान
ककया और दीन-दनु नया से गया।
शैतान का हाि भी पढा ही होगा। उसे यह अनम ु ान हुआ था कक ईश्वर का उससे बढकर सच्चा भक्त
कोई है ही नहीीं। अन्त में यह हुआ कक स्वगम से नरक में ढकेि ददया गया। शाहे रूम ने भी एक बार अहीं कार
ककया था। भीख माींग-माींगकर मर गया। तुमने तो अभी केवि एक दरजा पास ककया है और अभी से
तुम्हारा लसर कफर गया, तब तो तुम आगे बढ चक
ु े । यह समझ िो कक तुम अपनी मेहनत से नही पास हुए,
अन्धे के हाथ बटे र िग गई। मगर बटे र केवि एक बार हाथ िग सकती है , बार-बार नहीीं। कभी-कभी
गुल्िी-डींडे में भी अींधा चोट ननशाना पड जाता है। उससे कोई सफि खखिाडी नहीीं हो जाता। सफि खखिाडी
वह है, क्जसका कोई ननशान खािी न जाए।
मेरे फेि होने पर न जाओ। मेरे दरजे में आओगे, तो दातो पसीना आयगा। जब अिजबरा और जामें री
के िोहे के चने चबाने पडेंगे और इींगलिस्तान का इनतहास पढ़ना पडेंगा! बादशाहों के नाम याद रखना
आसान नहीीं। आठ-आठ हे नरी को गज
ु रे है कौन-सा काींड ककस हे नरी के समय हुआ, क्या यह याद कर िेना
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आसान समझते हो? हे नरी सातवें की जगह हे नरी आठवाीं लिखा और सब नम्बर गायब! सफाचट। लसफम भी
न लमिगा, लसफर भी! हो ककस ख्याि में ! दरजनो तो जेम्स हुए हैं, दरजनो ववलियम, कोडडयों चाल्सम ददमाग
चक्कर खाने िगता है । आींधी रोग हो जाता है। इन अभागो को नाम भी न जड ु ते थे। एक ही नाम के पीछे
दोयम, तेयम, चहारम, पींचम नगाते चिे गए। मछ
ु से पछ
ू ते, तो दस िाख नाम बता दे ता।
और जामेरी तो बस खुदा की पनाह! अ ब ज की जगह अ ज ब लिख ददया और सारे नम्बर कट
गए। कोई इन ननदम यी मम
ु तदहनों से नहीीं पछ
ू ता कक आखखर अ ब ज और अ ज ब में क्या फकम है और
व्यथमकी बात के लिए क्यो छात्रो का खन
ू करते हो दाि-भात-रोटी खायी या भात-दाि-रोटी खायी, इसमें क्या
रखा है; मगर इन परीक्षको को क्या परवाह! वह तो वही दे खते है , जो पस्
ु तक में लिखा है । चाहते हैं कक
िडके अक्षर-अक्षर रट डािे। और इसी रटीं त का नाम लशक्षा रख छोडा है और आखखर इन बे-लसर-पैर की
बातो के पढ़ने से क्या फायदा?
इस रे खा पर वह िम्ब धगरा दो, तो आधार िम्ब से दग
ु ना होगा। पनू छए, इससे प्रयोजन? दग
ु ना नही,
चौगुना हो जाए, या आधा ही रहे , मेरी बिा से, िेककन परीक्षा में पास होना है, तो यह सब खुराफात याद
करनी पडेगी। कह ददया-‘समय की पाबींदी’ पर एक ननबन्ध लिखो, जो चार पन्नो से कम न हो। अब आप
कापी सामने खोिे, किम हाथ में लिये, उसके नाम को रोइए।
कौन नहीीं जानता कक समय की पाबन्दी बहुत अच्छी बात है। इससे आदमी के जीवन में सींयम आ
जाता है, दस
ू रो का उस पर स्नेह होने िगता है और उसके करोबार में उन्ननत होती है ; जरा-सी बात पर चार
पन्ने कैसे लिखें? जो बात एक वाक्य में कही जा सके, उसे चार पन्ने में लिखने की जरूरत? मैं तो इसे
दहमाकत समझता हूीं। यह तो समय की ककफायत नही, बक्ल्क उसका दरू ु पयोग है कक व्यथम में ककसी बात
को ठूींस ददया। हम चाहते है , आदमी को जो कुछ कहना हो, चटपट कह दे और अपनी राह िे। मगर नही,
आपको चार पन्ने रीं गने पडेंगे, चाहे जैसे लिखखए और पन्ने भी परू े फुल्सकेप आकार के। यह छात्रो पर
अत्याचार नहीीं तो और क्या है? अनथम तो यह है कक कहा जाता है , सींक्षेप में लिखो। समय की पाबन्दी पर
सींक्षेप
में एक ननबन्ध लिखो, जो चार पन्नो से कम न हो। ठीक! सींक्षेप में चार पन्ने हुए, नही शायद सौ-दो
सौ पन्ने लिखवाते। तेज भी दौडडए और धीरे -धीरे भी। है उल्टी बात या नही? बािक भी इतनी-सी बात
समझ सकता है , िेककन इन अध्यापको को इतनी तमीज भी नहीीं। उस पर दावा है कक हम अध्यापक है ।
मेरे दरजे में आओगे िािा, तो ये सारे पापड बेिने पडेंगे और तब आटे -दाि का भाव मािम
ू होगा। इस दरजे
में अव्वि आ गए हो, वो जमीन पर पाींव नहीीं रखते इसलिए मेरा कहना माननए। िाख फेि हो गया हू,
िेककन तम ु से बडा हूीं, सींसार का मझ
ु े तम
ु से जयादा अनभ
ु व है । जो कुछ कहता हूीं, उसे धगरह बाींधधए नही
पछताएगे।
स्कूि का समय ननकट था, नहीीं इश्वर जाने, यह उपदे श-मािा कब समाप्त होती। भोजन आज मझ
ु े
ननस्स्वाद-सा िग रहा था। जब पास होने पर यह नतरस्कार हो रहा है , तो फेि हो जाने पर तो शायद प्राण
ही िे लिए जाएीं। भाई साहब ने अपने दरजे की पढाई का जो भयींकर धचत्र खीचा था; उसने मझ
ु े भयभीत
कर ददया। कैसे स्कूि छोडकर घर नही भागा, यही ताजजुब है; िेककन इतने नतरस्कार पर भी पस्
ु तकों में मेरी
अरूधच जयो-कक-त्यों बनी रही। खेि-कूद का कोई अवसर हाथ से न जाने दे ता। पढ़ता भी था, मगर बहुत
कम। बस, इतना कक रोज का टास्क परू ा हो जाए और दरजे में जिीि न होना पडें। अपने ऊपर जो
ववश्वास पैदा हुआ था, वह कफर िप्ु त हो गया और कफर चोरो का-सा जीवन कटने िगा।

कफ
र सािाना इम्तहान हुआ, और कुछ ऐसा सींयोग हुआ कक मै क्ाफर पास हुआ और भाई साहब कफर
फेि हो गए। मैंने बहुत मेहनत न की पर न जाने, कैसे दरजे में अव्वि आ गया। मझ
ु े खुद अचरज
हुआ। भाई साहब ने प्राणाींतक पररश्रम ककया था। कोसम का एक-एक शब्द चाट गये थे; दस बजे रात तक
इधर, चार बजे भोर से उभर, छ: से साढे नौ तक स्कूि जाने के पहिे। मद्र
ु ा काींनतहीन हो गई थी, मगर बेचारे
फेि हो गए। मझ
ु े उन पर दया आती थी। नतीजा सन
ु ाया गया, तो वह रो पडे और मैं भी रोने िगा। अपने
पास होने वािी खुशी आधी हो गई। मैं भी फेि हो गया होता, तो भाई साहब को इतना द:ु ख न होता, िेककन
ववधध की बात कौन टािे?
मेरे और भाई साहब के बीच में अब केवि एक दरजे का अन्तर और रह गया। मेरे मन में एक
कुदटि भावना उदय हुई कक कही भाई साहब एक साि और फेि हो जाए, तो मै उनके बराबर हो जाऊीं,

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क्ाफर वह ककस आधार पर मेरी फजीहत कर सकेगे, िेककन मैंने इस कमीने ववचार को ददि से बिपव
ू क

ननकाि डािा। आखखर वह मझ
ु े मेरे दहत के ववचार से ही तो डाींटते हैं। मझ
ु े उस वक्त अवप्रय िगता है
अवश्य, मगर यह शायद उनके उपदे शों का ही असर हो कक मैं दनानद पास होता जाता हूीं और इतने अच्छे
नम्बरों से।
अबकी भाई साहब बहुत-कुछ नमम पड गए थे। कई बार मझु े डाींटने का अवसर पाकर भी उन्होंने धीरज
से काम लिया। शायद अब वह खुद समझने िगे थे कक मझ ु े डाींटने का अधधकार उन्हे नही रहा; या रहा तो
बहुत कम। मेरी स्वच्छीं दता भी बढी। मैं उनकक सदहष्णत ु ा का अनधु चत िाभ उठाने िगा। मझ ु े कुछ ऐसी
धारणा हुई कक मैं तो पास ही हो जाऊींगा, पढू या न पढूीं मेरी तकदीर बिवान ् है, इसलिए भाई साहब के डर
से जो थोडा-बहुत बढ लिया करता था, वह भी बींद हुआ। मझ
ु े कनकौए उडाने का नया शौक पैदा हो गया था
और अब सारा समय पतींगबाजी ही की भें ट होता था, क्ाफर भी मैं भाई साहब का अदब करता था, और
उनकी नजर बचाकर कनकौए उडाता था। माींझा दे ना, कन्ने बाींधना, पतींग टूनाममेंट की तैयाररयाीं आदद
समस्याए अब गुप्त रूप से हि की जाती थीीं। भाई साहब को यह सींदेह न करने दे ना चाहता था कक उनका
सम्मान और लिहाज मेरी नजरो से कम हो गया है ।
एक ददन सींध्या समय होस्टि से दरू मै एक कनकौआ िट
ू ने बींतहाशा दौडा जा रहा था। आींखे
आसमान की ओर थीीं और मन उस आकाशगामी पधथक की ओर, जो मींद गनत से झम
ू ता पतन की ओर
चिा जा रहा था, मानो कोई आत्मा स्वगम से ननकिकर ववरक्त मन से नए सींस्कार ग्रहण करने जा रही हो।
बािकों की एक परू ी सेना िग्गे और झडदार बाींस लिये उनका स्वागत करने को दौडी आ रही थी। ककसी
को अपने आगे-पीछे की खबर न थी। सभी मानो उस पतींग के साथ ही आकाश में उड रहे थे, जह ीं सब
कुछ समति है, न मोटरकारे है , न राम, न गाडडया।
सहसा भाई साहब से मेरी मठ
ु भेड हो गई, जो शायद बाजार से िौट रहे थे। उन्होने वही मेरा हाथ
पकड लिया और उग्रभाव से बोिे-इन बाजारी िौंडो के साथ धेिे के कनकौए के लिए दौडते तुम्हें शमम नही
आती? तुम्हें इसका भी कुछ लिहाज नहीीं कक अब नीची जमात में नहीीं हो, बक्ल्क आठवीीं जमात में आ गये
हो और मझ
ु से केवि एक दरजा नीचे हो। आखखर आदमी को कुछ तो अपनी पोजीशन का ख्याि करना
चादहए। एक जमाना था कक कक िोग आठवाीं दरजा पास करके नायब तहसीिदार हो जाते थे। मैं ककतने ही
लमडिधचयों को जानता हूीं, जो आज अव्वि दरजे के डडप्टी मक्जस्रे ट या सप ु ररटें डेंट है । ककतने ही आठवी
जमाअत वािे हमारे िीडर और समाचार-पत्रो के सम्पादक है। बडें-बडें ववद्धान उनकी मातहती में काम करते
है और तम
ु उसी आठवें दरजे में आकर बाजारी िौंडों के साथ कनकौए के लिए दौड रहे हो। मझ
ु े तम्
ु हारी
इस कमअकिी पर द:ु ख होता है । तम
ु जहीन हो, इसमें शक नही: िेककन वह जेहन ककस काम का, जो
हमारे आत्मगौरव की हत्या कर डािे? तुम अपने ददन में समझते होगे, मैं भाई साहब से महज एक दजाम
नीचे हूीं और अब उन्हे मझु को कुछ कहने का हक नही है; िेककन यह तुम्हारी गिती है। मैं तुमसे पाींच साि
बडा हूीं और चाहे आज तम ु मेरी ही जमाअत में आ जाओ–और परीक्षकों का यही हाि है , तो ननस्सींदेह अगिे
साि तुम मेरे समकक्ष हो जाओगे और शायद एक साि बाद तुम मझ
ु से आगे ननकि जाओ-िेककन मझ
ु में
और जो पाींच साि का अन्तर है, उसे तुम क्या, खुदा भी नही लमटा सकता। मैं तुमसे पाींच साि बडा हूीं और
हमेशा रहूींगा। मझ
ु े दनु नया का और क्जन्दगी का जो तजरबा है , तम
ु उसकी बराबरी नहीीं कर सकते, चाहे तम

एम. ए., डी. कफि. और डी. लिट. ही क्यो न हो जाओ। समझ ककताबें पढने से नहीीं आती है। हमारी अम्मा
ने कोई दरजा पास नही ककया, और दादा भी शायद पाींचवी जमाअत के आगे नही गये, िेककन हम दोनो
चाहे सारी दनु नया की ववधा पढ िे, अम्मा और दादा को हमें समझाने और सध
ु ारने का अधधकार हमेशा
रहे गा। केवि इसलिए नही कक वे हमारे जन्मदाता है, बबल्क इसलिए कक उन्हे दनु नया का हमसे जयादा
जतरबा है और रहे गा। अमेररका में ककस जरह कक राजय-व्यवस्था है और आठवे हे नरी ने ककतने वववाह ककये
और आकाश में ककतने नक्षत्र है , यह बाते चाहे उन्हे न मािम
ू हो, िेककन हजारों ऐसी आते है , क्जनका ज्ञान
उन्हे हमसे और तुमसे जयादा है।
दैव न करें , आज मैं बीमार हो आऊीं, तो तम्
ु हारे हाथ-पाींव फूि जाएगें । दादा को तार देने के लसवा तम्
ु हे
और कुछ न सझ
ू ेंगा; िेककन तम्
ु हारी जगह पर दादा हो, तो ककसी को तार न दें , न घबराएीं, न बदहवास हों।
पहिे खद
ु मरज पहचानकर इिाज करें गे, उसमें सफि न हुए, तो ककसी डाींक्टर को बि
ु ायेगें। बीमारी तो खैर
बडी चीज है। हम-तुम तो इतना भी नही जानते कक महीने-भर का महीने-भर कैसे चिे। जो कुछ दादा भेजते
है , उसे हम बीस-बाईस तक खमच कर डािते है और पैसे-पैसे को मोहताज हो जाते है । नाश्ता बींद हो जाता है ,

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धोबी और नाई से मह
ींु चरु ाने िगते है; िेककन क्जतना आज हम और तम
ु खमच कर रहे है, उसके आधे में
दादा ने अपनी उम्र का बडा भाग इजजत और नेकनामी के साथ ननभाया है और एक कुटुम्ब का पािन
ककया है, क्जसमे सब लमिाकर नौ आदमी थे। अपने हे डमास्टर साहब ही को दे खो। एम. ए. हैं कक नही, और
यहा के एम. ए. नही, आक्यफोडम के। एक हजार रूपये पाते है , िेककन उनके घर इींतजाम कौन करता है ?
उनकी बढ
ू ी माीं। हे डमास्टर साहब की डडग्री यहाीं बेकार हो गई। पहिे खुद घर का इींतजाम करते थे। खचम
परू ा न पडता था। करजदार रहते थे। जब से उनकी माताजी ने प्रबींध अपने हाथ मे िे लिया है , जैसे घर में
िक्ष्मी आ गई है । तो भाईजान, यह जरूर ददि से ननकाि डािो कक तुम मेरे समीप आ गये हो और अब
स्वतींत्र हो। मेरे दे खते तुम बेराह नही चि पाओगे। अगर तुम यों न मानोगे, तो मैं (थप्पड ददखाकर) इसका
प्रयोग भी कर सकता हूीं। मैं जानता हूीं, तम्
ु हें मेरी बातें जहर िग रही है ।
मैं उनकी इस नई यक्ु क्त से नतमस्तक हो गया। मझ ु े आज सचमच ु अपनी िघत
ु ा का अनभ
ु व हुआ
और भाई साहब के प्रनत मेरे तम में श्रद्धा उत्पन्न हुईं। मैंने सजि आींखों से कहा-हरधगज नही। आप जो
कुछ फरमा रहे है, वह बबिकुि सच है और आपको कहने का अधधकार है ।
भाई साहब ने मझ
ु े गिे िगा लिया और बाि-कनकाए उडान को मना नहीीं करता। मेरा जी भी
ििचाता है, िेककन क्या करू, खुद बेराह चिींू तो तुम्हारी रक्षा कैसे करू? यह कत्तमव्य भी तो मेरे लसर पर
है ।
सींयोग से उसी वक्त एक कटा हुआ कनकौआ हमारे ऊपर से गज ु रा। उसकी डोर िटक रही थी। िडकों
का एक गोि पीछे -पीछे दौडा चिा आता था। भाई साहब िींबे हैं ही, उछिकर उसकी डोर पकड िी और
बेतहाशा होटि की तरफ दौडे। मैं पीछे -पीछे दौड रहा था।

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शांतत

स्व गीय दे वनाथ मेरे अलभन्न लमत्रों में थे। आज भी जब उनकी याद आती है, तो वह रीं गरे लियाीं आींखों
में कफर जाती हैं, और कहीीं एकाींत में जाकर जरा रो िेता हूीं। हमारे दे र रो िेता हूीं। हमारे बीच में
दो-ढाई सौ मीि का अींतर था। मैं िखनऊ में था, वह ददल्िी में; िेककन ऐसा शायद ही कोई महीना जाता हो
कक हम आपस में न लमि पाते हों। वह स्वच्छन्द प्रकनत के ववनोदवप्रय, सहृदय, उदार और लमत्रों पर प्राण
दे नेवािा आदमी थे, क्जन्होंने अपने और पराए में कभी भेद नहीीं ककया। सींसार क्या है और यहाीं िौककक
व्यवहार का कैसा ननवामह होता है , यह उस व्यक्क्त ने कभी न जानने की चेष्टा की। उनकी जीवन में ऐसे
कई अवसर आए, जब उन्हें आगे के लिए होलशयार हो जाना चादहए था।
लमत्रों ने उनकी ननष्कपटता से अनधु चत िाभ उठाया, और कई बार उन्हें िक्जजत भी होना पडा; िेककन
उस भिे आदमी ने जीवन से कोई सबक िेने की कसम खा िी थी। उनके व्यवहार जयों के त्यों रहे — ‘जैसे
भोिानाथ क्जए, वैसे ही भोिानाथ मरे , क्जस दनु नया में वह रहते थे वह ननरािी दनु नया थी, क्जसमें सींदेह,
चािाकी और कपट के लिए स्थान न था— सब अपने थे, कोई गैर न था। मैंने बार-बार उन्हें सचेत करना
चाहा, पर इसका पररणाम आशा के ववरूद्ध हुआ। मझ ु े कभी-कभी धचींता होती थी कक उन्होंने इसे बींद न
ककया, तो नतीजा क्या होगा? िेककन ववडींबना यह थी कक उनकी स्त्री गोपा भी कुछ उसी साींचे में ढिी हुई
थी। हमारी दे ववयों में जो एक चातरु ी होती है, जो सदै व ऐसे उडाऊ परू
ु षों की असावधाननयों पर ‘िेक का
काम करती है , उससे वह वींधचत थी। यहाीं तक कक वस्त्राभष
ू ण में भी उसे ववशेष रूधच न थी। अतएव जब
मझ
ु े दे वनाथ के स्वगामरोहण का समाचार लमिा और मैं भागा हुआ ददल्िी गया, तो घर में बरतन भाींडे और
मकान के लसवा और कोई सींपनत न थी। और अभी उनकी उम्र ही क्या थी, जो सींचय की धचींता करते चािीस
भी तो परू े न हुए थे। यों तो िडपन उनके स्वभाव में ही था; िेककन इस उम्र में प्राय: सभी िोग कुछ
बेकफ्रक रहते हैं। पहिे एक िडकी हुई थी, इसके बाद दो िडके हुए। दोनों िडके तो बचपन में ही दगा दे
गए थे। िडकी बच रही थी, और यही इस नाटक का सबसे करूण दश्य था। क्जस तरह का इनका जीवन था
उसको दे खते इस छोटे से पररवार के लिए दो सौ रूपये महीने की जरूरत थी। दो-तीन साि में िडकी का
वववाह भी करना होगा। कैसे क्या होगा, मेरी बद्
ु धध कुछ काम न करती थी।
इस अवसर पर मझ ु े यह बहुमल्ू य अनभु व हुआ कक जो िोग सेवा भाव रखते हैं और जो स्वाथम-लसद्धध
को जीवन का िक्ष्य नहीीं बनाते, उनके पररवार को आड दे नेवािों की कमी नहीीं रहती। यह कोई ननयम नहीीं
है , क्योंकक मैंने ऐसे िोगों को भी दे खा है, क्जन्होंने जीवन में बहुतों के साथ अच्छे सिक
ू ककए; पर उनके पीछे
उनके बाि-बच्चे की ककसी ने बात तक न पछ ू ी। िेककन चाहे कुछ हो, दे वनाथ के लमत्रों ने प्रशींसनीय औदायम
से काम लिया और गोपा के ननवामह के लिए स्थाई धन जमा करने का प्रस्ताव ककया। दो-एक सजजन जो
रीं डुवे थे, उससे वववाह करने को तैयार थे, ककींतु गोपा ने भी उसी स्वालभमान का पररचय ददया, जो महारी
दे ववयों का जौहर है और इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर ददया। मकान बहुत बडा था। उसका एक भाग
ककराए पर उठा ददया। इस तरह उसको 50 रू महावार लमिने िगे। वह इतने में ही अपना ननवामह कर िेगी।
जो कुछ खचम था, वह सन्
ु नी की जात से था। गोपा के लिए तो जीवन में अब कोई अनरु ाग ही न था।

इ सके एक महीने बाद मझ


ु े कारोबार के लसिलसिे में ववदे श जाना पडा और वहाीं मेरे अनम
अधधक—दो साि-िग गए। गोपा के पत्र बराबर जाते रहते थे, क्जससे मािम
ु ान से कहीीं
ू होता था, वे आराम से हैं,
कोई धचींता की बात नहीीं है । मझ
ु े पीछे ज्ञात हुआ कक गोपा ने मझ
ु े भी गैर समझा और वास्तववक क्स्थनत
नछपाती रही।
ववदे श से िौटकर मैं सीधा ददल्िी पहुचा। द्वार पर पहुींचते ही मझ
ु े भी रोना आ गया। मत्ृ यु की
प्रनतध्वनन-सी छायी हुई थी। क्जस कमरे में लमत्रों के जमघट रहते थे उनके द्वार बींद थे, मकडडयों ने चारों
ओर जािे तान रखे थे। दे वनाथ के साथ वह श्री िप्ु त हो गई थी। पहिी नजर में मझ ु े तो ऐसा भ्रम हुआ
कक दे वनाथ द्वार पर खडे मेरी ओर दे खकर मस्
ु करा रहे हैं। मैं लमथ्यावादी नहीीं हूीं और आत्मा की दै दहकता
में मझ
ु े सींदेह है, िेककन उस वक्त एक बार मैं चौंक जरूर पडा हृदय में एक कम्पन-सा उठा; िेककन दस
ू री
नजर में प्रनतमा लमट चक
ु ी थी।
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द्वार खि
ु ा। गोपा के लसवा खोिनेवािा ही कौन था। मैंने उसे दे खकर ददि थाम लिया। उसे मेरे आने
की सच
ू ना थी और मेरे स्वागत की प्रनतक्षा में उसने नई साडी पहन िी थी और शायद बाि भी गींथ
ु ा लिए
थे; पर इन दो वषों के समय ने उस पर जो आघात ककए थे, उन्हें क्या करती? नाररयों के जीवन में यह वह
अवस्था है, जब रूप िावण्य अपने परू े ववकास पर होता है, जब उसमें अल्हडपन चींचिता और अलभमान की
जगह आकषमण, माधय
ु म और रलसकता आ जाती है; िेककन गोपा का यौवन बीत चक
ु ा था उसके मख
ु पर
झरु रम याीं और ववषाद की रे खाएीं अींककत थीीं, क्जन्हें उसकी प्रयत्नशीि प्रसन्नता भी न लमटा सकती थी। केशों
पर सफेदी दौड चिी थी और एक एक अींग बढ
ू ा हो रहा था।
मैंने करूण स्वर में पछ
ू ा क्या तुम बीमार थीीं गोपा।
गोपा ने आींसू पीकर कहा नहीीं तो, मझ
ु े कभी लसर ददम भी नहीीं हुआ। ‘तो तुम्हारी यह क्या दशा है?
बबल्कुि बढ
ू ी हो गई हो।’
‘तो जवानी िेकर करना ही क्या है? मेरी उम्र तो पैंतीस के ऊपर हो गई!
‘पैंतीस की उम्र तो बहुत नहीीं होती।’
‘हा उनके लिए जो बहुत ददन जीना चाहते है । मैं तो चाहती हूीं क्जतनी जल्द हो सके, जीवन का अींत
हो जाए। बस सन्ु न के ब्याह की धचींता है । इससे छुटटी पाऊ; मझ
ु े क्जन्दगी की परवाह न रहे गी।’
अब मािम
ू हुआ कक जो सजजन इस मकान में ककराएदार हुए थे, वह थोडे ददनों के बाद तबदीि होकर
चिे गए और तब से कोई दसू रा ककरायदार न आया। मेरे हृदय में बरछी-सी चभु गई। इतने ददनों इन
बेचारों का ननवामह कैसे हुआ, यह कल्पना ही द:ु खद थी।
मैंने ववरक्त मन से कहा—िेककन तमु ने मझु े सच
ू ना क्यों न दी? क्या मैं बबिकुि गैर हू?
गोपा ने िक्जजत होकर कहा नहीीं नहीीं यह बात नहीीं है । तम्
ु हें गैर समझगी
ू तो अपना ककसे समझगी?

मैंने समझा परदे श में तुम खुद अपने झमेिे में पडे होगे, तुम्हें क्यों सताऊ? ककसी न ककसी तरह ददन कट
ही गये। घर में और कुछ न था, तो थोडे—से गहने तो थे ही। अब सन
ु ीता के वववाह की धचींता है । पहिे मैंने
सोचा था, इस मकान को ननकाि दीं ग
ू ी, बीस-बाइस हजार लमि जाएगे। वववाह भी हो जाएगा और कुछ मेरे
लिए बचा भी रहे गा; िेककन बाद को मािम
ू हुआ कक मकान पहिे ही रे हन हो चकु ा है और सद
ू लमिाकर उस
पर बीस हजार हो गए हैं। महाजन ने इतनी ही दया क्या कम की, कक मझ ु े घर से ननकाि न ददया। इधर
से तो अब कोई आशा नहीीं है । बहुत हाथ पाींव जोडने पर सींभव है, महाजन से दो ढाई हजार लमि जाए।
इतने में क्या होगा? इसी कफक्र में घि
ु ी जा रही हूीं। िेककन मैं भी इतनी मतिबी हूीं, न तम्
ु हें हाथ मींह
ु धोने
को पानी ददया, न कुछ जिपान िायी और अपना दख ु डा िे बैठी। अब आप कपडे उताररए और आराम से
बैदठए। कुछ खाने को िाऊ, खा िीक्जए, तब बातें हों। घर पर तो सब कुशि है?
मैंने कहा—मैं तो सीधे बम्बई से यहाीं आ रहा हूीं। घर कहाीं गया।
गोपा ने मझु े नतरस्कार—भरी आींखों से दे खा, पर उस नतरस्कार की आड में घननष्ठ आत्मीयता बैठी
झाींक रही थी। मझ
ु े ऐसा जान पडा, उसके मख
ु की झरु रम या लमट गई हैं। पीछे मख
ु पर हल्की—सी िािी दौड
गई। उसने कहा—इसका फि यह होगा कक तुम्हारी दे वीजी तुम्हें कभी यहाीं न आने दें गी।
‘मैं ककसी का गुिाम नहीीं हूीं।’
‘ककसी को अपना गि ु ाम बनाने के लिए पहिे खद
ु भी उसका गि
ु ाम बनना पडता है ।’
शीतकाि की सींध्या दे खते ही दे खते दीपक जिाने िगी। सन्
ु नी िािटे न िेकर कमरे में आयी। दो
साि पहिे की अबोध और कृशतनु बालिका रूपवती यव
ु ती हो गई थी, क्जसकी हर एक धचतवन, हर एक बात
उसकी गौरवशीि प्रकनत का पता दे रही थी। क्जसे मैं गोद में उठाकर प्यार करता था, उसकी तरफ आज
आींखें न उठा सका और वह जो मेरे गिे से लिपटकर प्रसन्न होती थी, आज मेरे सामने खडी भी न रह
सकी। जैसे मझ ु से वस्तु नछपाना चाहती है , और जैसे मैं उस वस्तु को नछपाने का अवसर दे रहा हूीं।
मैंने पछ
ू ा—अब तुम ककस दरजे में पहुची सन् ु नी?
उसने लसर झक
ु ाए हुए जवाब ददया—दसवें में हूीं।
‘घर का भ कुछ काम-काज करती हो।
‘अम्मा जब करने भी दें ।’
गोपा बोिी—मैं नहीीं करने दे ती या खद
ु ककसी काम के नगीच नहीीं जाती?
सन्
ु नी मींह
ु फेरकर हीं सती हुई चिी गई। माीं की दि
ु ारी िडकी थी। क्जस ददन वह गहस्थी का काम
करती, उस ददन शायद गोपा रो रोकर आींखें फोड िेती। वह खद ु िडकी को कोई काम न करने दे ती थी, मगर

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सबसे लशकायत करती थी कक वह कोई काम नहीीं करती। यह लशकायत भी उसके प्यार का ही एक कररश्मा
था। हमारी मयामदा हमारे बाद भी जीववत रहती है ।
मैं तो भोजन करके िेटा, तो गोपा ने कफर सन्
ु नी के वववाह की तैयाररयों की चचाम छे ड दी। इसके लसवा
उसके पास और बात ही क्या थी। िडके तो बहुत लमिते हैं, िेककन कुछ है लसयत भी तो हो। िडकी को यह
सोचने का अवसर क्यों लमिे कक दादा होते हुए तो शायद मेरे लिए इससे अच्छा घर वर ढूींढते। कफर गोपा ने
डरते डरते िािा मदारीिाि के िडके का क्जक्र ककया।
मैंने चककत होकर उसकी तरफ दे खा। मदारीिाि पहिे इींजीननयर थे, अब पें शन पाते थे। िाखों रूपया
जमा कर लिए थे, पर अब तक उनके िोभ की भख
ू न बझ
ु ी थी। गोपा ने घर भी वह छाींटा, जहाीं उसकी
रसाई कदठन थी।
मैंने आपनत की—मदारीिाि तो बडा दज
ु न
म मनष
ु य
् है ।
गोपा ने दाींतों तिे जीभ दबाकर कहा—अरे नहीीं भैया, तम
ु ने उन्हें पहचाना न होगा। मेरे उपर बडे
दयािु हैं। कभी-कभी आकर कुशि— समाचार पछ ू जाते हैं। िडका ऐसा होनहार है कक मैं तुमसे क्या कहूीं।
कफर उनके यहाीं कमी ककस बात की है? यह ठीक है कक पहिे वह खबू ररश्वत िेते थे; िेककन यहाीं धमामत्मा
कौन है? कौन अवसर पाकर छोड दे ता है ? मदारीिाि ने तो यहाीं तक कह ददया कक वह मझ
ु से दहे ज नहीीं
चाहते, केवि कन्या चाहते हैं। सन्
ु नी उनके मन में बैठ गई है ।
मझ
ु े गोपा की सरिता पर दया आयी; िेककन मैंने सोचा क्यों इसके मन में ककसी के प्रनत अववश्वास
उत्पन्न करूीं। सींभव है मदारीिाि वह न रहे हों, धचत का भावनाएीं बदिती भी रहती हैं।
मैंने अधम सहमत होकर कहा—मगर यह तो सोचो, उनमें और तम
ु मे ककतना अींतर है। शायद अपना
सवमस्व अपमण करके भी उनका मींह
ु नीचा न कर सको।
िेककन गोपा के मन में बात जम गई थी। सन्
ु नी को वह ऐसे घर में चाहती थी, जहाीं वह रानी बरकर
रहे ।
दस
ू रे ददन प्रात: काि मैं मदारीिाि के पास गया और उनसे मेरी जो बातचीत हुई, उसने मझ
ु े मग्ु ध
कर ददया। ककसी समय वह िोभी रहे होंगे, इस समय तो मैंने उन्हें बहुत ही सहृदय उदार और ववनयशीि
पाया। बोिे भाई साहब, मैं दे वनाथ जी से पररधचत हूीं। आदलमयों में रत्न थे। उनकी िडकी मेरे घर आये, यह
मेरा सौभाग्य है । आप उनकी माीं से कह दें , मदारीिाि उनसे ककसी चीज की इच्छा नहीीं रखता। ईश्वर का
ददया हुआ मेरे घर में सब कुछ है, मैं उन्हें जेरबार नहीीं करना चाहता।

ये
चार महीने गोपा ने वववाह की तैयाररयों में काटे । मैं महीने में एक बार अवश्य उससे लमि आता था;
पर हर बार खखन्न होकर िौटता। गोपा ने अपनी कुि मयामदा का न जाने ककतना महान आदशम अपने
सामने रख लिया था। पगिी इस भ्रम में पडी हुई थी कक उसका उत्साह नगर में अपनी यादगार छोडता
जाएगा। यह न जानती थी कक यहाीं ऐसे तमाशे रोज होते हैं और आये ददन भि
ु ा ददए जाते हैं। शायद वह
सींसार से यह श्रेय िेना चाहती थी कक इस गई—बीती दशा में भी, िट
ु ा हुआ हाथी नौ िाख का है। पग-पग
पर उसे दे वनाथ की याद आती। वह होते तो यह काम यों न होता, यों होता, और तब रोती।
मदारीिाि सजजन हैं, यह सत्य है, िेककन गोपा का अपनी कन्या के प्रनत भी कुछ धमम है । कौन उसके
दस पाींच िडककयाीं बैठी हुई हैं। वह तो ददि खोिकर अरमान ननकािेगी! सन् ु नी के लिए उसने क्जतने गहने
और जोडे बनवाए थे, उन्हें दे खकर मझ ु े आश्चयम होता था। जब दे खो कुछ-न-कुछ सी रही है, कभी सन
ु ारों की
दक
ु ान पर बैठी हुई है , कभी मेहमानों के आदर-सत्कार का आयोजन कर रही है । मह
ु ल्िे में ऐसा बबरिा ही
कोई सम्पन्न मनष्ु य होगा, क्जससे उसने कुछ कजम न लिया हो। वह इसे कजम समझती थी, पर दे ने वािे दान
समझकर दे ते थे। सारा मह
ु ल्िा उसका सहायक था। सन्
ु नी अब मह
ु ल्िे की िडकी थी। गोपा की इजजत
सबकी इजजत है और गोपा के लिए तो नीींद और आराम हराम था। ददम से लसर फटा जा रहा है , आधी रात
हो गई मगर वह बैठी कुछ-न-कुछ सी रही है, या इस कोठी का धान उस कोठी कर रही है। ककतनी वात्सल्य
से भरी अकाींक्षा थी, जो कक दे खने वािों में श्रद्धा उत्पन्न कर दे ती थी।
अकेिी औरत और वह भी आधी जान की। क्या क्या करे । जो काम दस
ू रों पर छोड दे ती है, उसी में
कुछ न कुछ कसर रह जाती है, पर उसकी दहम्मत है कक ककसी तरह हार नहीीं मानती।

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वपछिी बार उसकी दशा दे खकर मझ
ु से रहा न गया। बोिा—गोपा दे वी, अगर मरना ही चाहती हो, तो
वववाह हो जाने के बाद मरो। मझ
ु े भय है कक तम
ु उसके पहिे ही न चि दो।
गोपा का मरु झाया हुआ मख ु प्रमदु दत हो उठा। बोिी उसकी धचींता न करो भैया ववधवा की आयु बहुत
ु ा नहीीं, र डीं मरे न खींडहर ढहे । िेककन मेरी कामना यही है कक सन्
िींबी होती है। तुमने सन ु नी का दठकाना
िगाकर मैं भी चि दीं ।ू अब और जीकर क्या करूींगी, सोचो। क्या करूीं, अगर ककसी तरह का ववघ्न पड गया
तो ककसकी बदनामी होगी। इन चार महीनों में मक्ु श्कि से घींटा भर सोती हूींगी। नीींद ही नहीीं आती, पर मेरा
धचत प्रसन्न है । मैं मरूीं या जीऊ मझ
ु े यह सींतोष तो होगा कक सन्
ु नी के लिए उसका बाप जो कर सकता था,
वह मैंने कर ददया। मदारीिाि ने अपन सजजनता ददखाय, तो मझ
ु े भी तो अपनी नाक रखनी है ।
एक दे वी ने आकर कहा बहन, जरा चिकर दे ख चाशनी ठीक हो गई है
या नहीीं। गोपा उसके साथ चाशनी की परीक्षा करने गयीीं और एक क्षण के बाद आकर बोिी जी चाहता है ,
लसर पीट िीं।ू तम
ु से जरा बात करने िगी, उधर चाशनी इतनी कडी हो गई कक िडडू दोंतों से िडेंगे। ककससे
क्या कहूीं।
मैने धचढ़कर कहा तम
ु व्यथम का झींझट कर रही हो। क्यों नहीीं ककसी हिवाई को बि
ु ाकर लमठाइयाीं का
ठे का दे दे ती। कफर तम्
ु हारे यहाीं मेहमान ही ककतने आएींगे, क्जनके लिए यह तूमार बाींध रही हो। दस पाींच की
लमठाई उनके लिए बहुत होगी।
गोपा ने व्यधथत नेत्रों से मेर ओर दे खा। मेर यह आिोचना उसे बरु िग। इन ददनों उसे बात बात पर
क्रोध आ जाता था। बोिी भैया, तुम ये बातें न समझोगे। तुम्हें न माीं बनने का अवसर लमिा, न पक्त्न बनने
का। सन्
ु नी के वपता का ककतना नाम था, ककतने आदमी उनके दम से जीते थे, क्या यह तम
ु नहीीं जानते, वह
पगडी मेरे ही लसर तो बींधी है। तम्
ु हें ववश्वास न आएगा नाक्स्तक जो ठहरे , पर मैं तो उन्हें सदै व अपने अींदर
बैठा पाती हूीं, जो कुछ कर रहे हैं वह कर रहे हैं। मैं मींदबद्
ु धध स्त्री भिा अकेिी क्या कर दे ती। वही मेरे
सहायक हैं वही मेरे प्रकाश है । यह समझ िो कक यह दे ह मेरी है पर इसके अींदर जो आत्मा है वह उनकी
है । जो कुछ हो रहा है उनके पण्
ु य आदे श से हो रहा है तुम उनके लमत्र हो। तुमने अपने सैकडों रूपये खचम
ककए और इतना हैरान हो रहे हो। मैं तो उनकी सहगालमनी हूीं, िोक में भी, परिोक में भी।
मैं अपना सा मह
ु िेकर रह गया।

जनभी,
ू उसे सींतोष न हुआ। आज सन्ु नी के वपता होते तो न जाने क्या करते। बराबर रोती रही।
में वववाह हो गया। गोपा ने बहुत कुछ ददया और अपनी है लसयत से बहुत जयादा ददया, िेककन कफर

जाडों में मैं कफर ददल्िी गया। मैंने समझा कक अब गोपा सख


ु ी होगी। िडकी का घर और वर दोनों
आदशम हैं। गोपा को इसके लसवा और क्या चादहए। िेककन सख
ु उसके भाग्य में ही न था।
अभी कपडे भी न उतारने पाया था कक उसने अपना दख
ु डा शरू
ु —कर ददया भैया, घर द्वार सब अच्छा
है , सास-ससरु भी अच्छे हैं, िेककन जमाई ननकम्मा ननकिा। सन्
ु नी बेचारी रो-रोकर ददन काट रही है । तुम उसे
दे खो, तो पहचान न सको। उसकी परछाई मात्र रह गई है । अभी कई ददन हुए, आयी हुई थी, उसकी दशा
दे खकर छाती फटती थी। जैसे जीवन में अपना पथ खो बैठी हो। न तन बदन की सध
ु है न कपडे-िते की।
मेरी सन्
ु नी की दग
ु त
म होगी, यह तो स्वप्न में भी न सोचा था। बबल्कुि गुम सम
ु हो गई है । ककतना पछ
ू ा
बेटी तम
ु से वह क्यों नहीीं बोिता ककस बात पर नाराज है, िेककन कुछ जवाब ही नहीीं दे ती। बस, आींखों से
आींसू बहते हैं, मेरी सन्
ु न कुएीं में धगर गई।
मैंने कहा तुमने उसके घर वािों से पता नहीीं िगाया।
‘िगाया क्यों नहीीं भैया, सब हाि मािम
ू हो गया। िौंडा चाहता है, मैं चाहे क्जस राह जाऊ, सन्
ु नी मेरी
परू ा करती रहे । सन्
ु नी भिा इसे क्यों सहने िगी? उसे तो तुम जानते हो, ककतनी अलभमानी है । वह उन
क्स्त्रयों में नहीीं है, जो पनत को दे वता समझती है और उसका दव्ु यमवहार सहती रहती है। उसने सदै व दि
ु ार
और प्यार पाया है । बाप भी उस पर जान दे ता था। मैं आींख की पत
ु िी समझती थी। पनत लमिा छै िा, जो
आधी आधी रात तक मारा मारा कफरता है। दोनों में क्या बात हुई यह कौन जान सकता है, िेककन दोनों में
कोई गाींठ पड गई है । न सन्
ु नी की परवाह करता है , न सन्
ु न उसकी परवाह करती है , मगर वह तो अपने
रीं ग में मस्त है, सन्
ु न प्राण ददये दे ती है। उसके लिए सन्
ु नी की जगह मन्
ु नी है, सन्
ु न के लिए उसकी अपेक्षा
है और रूदन है ।’

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मैंने कहा—िेककन तम
ु ने सन्
ु नी को समझाया नहीीं। उस िौंडे का क्या बबगडेगा? इसकी तो क्जन्दगी
खराब हो जाएगी।
गोपा की आींखों में आींसू भर आए, बोिी—भैया-ककस ददि से समझाऊ? सन्
ु नी को दे खकर तो मेर छाती
फटने िगती है। बस यही जी चाहता है कक इसे अपने किेजे में ऐसे रख ि,ींू कक इसे कोई कडी आींख से दे ख
भी न सके। सन्
ु नी फूहड होती, कटु भावषणी होती, आरामतिब होती, तो समझती भी। क्या यह समझाऊ कक
तेरा पनत गिी गिी मह
ु कािा करता कफरे , कफर भी तू उसकी पज
ू ा ककया कर? मैं तो खुद यह अपमान न
सह सकती। स्त्री परू
ु ष में वववाह की पहिी शतम यह है कक दोनों सोिहों आने एक-दस
ू रे के हो जाएीं। ऐसे
परू
ु ष तो कम हैं, जो स्त्री को जौ-भर ववचलित होते दे खकर शाींत रह सकें, पर ऐसी क्स्त्रयाीं बहुत हैं, जो पनत
को स्वच्छीं द समझती हैं। सन्
ु न उन क्स्त्रयों में नहीीं है । वह अगर आत्मसमपमण करती है तो आत्मसमपमण
चाहती भी है, और यदद पनत में यह बात न हुई, तो वह उसमें कोई सींपकम न रखेगी, चाहे उसका सारा जीवन
रोते कट जाए।
यह कहकर गोपा भीतर गई और एक लसींगारदान िाकर उसके अींदर के आभष ू ण ददखाती हुई बोिी
सन्
ु नी इसे अब की यहीीं छोड गई। इसीलिए आयी थी। ये वे गहने हैं जो मैंने न जाने ककतना कष्ट सहकर
बनवाए थे। इसके पीछे महीनों मारी मारी कफरी थी। यों कहो कक भीख माींगकर जमा ककये थे। सन्
ु नी अब
इसकी ओर आींख उठाकर भी नहीीं दे खती! पहने तो ककसके लिए? लसींगार करे तो ककस पर? पाींच सींदक
ू कपडों
के ददए थे। कपडे सीते-सीते मेरी आींखें फूट गई। यह सब कपडे उठाती िायी। इन चीजों से उसे घण
ृ ा हो गई
है । बस, किाई में दो चडू डयाीं और एक उजिी साडी; यही उसका लसींगार है ।
मैंने गोपा को साींत्वना दी—मैं जाकर केदारनाथ से लमिींग
ू ा। दे खींू तो, वह ककस रीं ग ढीं ग का आदमी है ।
गोपा ने हाथ जोडकर कहा—नहीीं भरे या, भि
ू कर भी न जाना; सन्
ु नी सन
ु ग
े ी तो प्राण ही दे दे गी।
अलभमान की पत
ु िी ही समझो उसे। रस्सी समझ िो, क्जसके जि जाने पर भी बि नहीीं जाते। क्जन पैरों से
उसे ठुकरा ददया है, उन्हें वह कभी न सहिाएगी। उसे अपना बनाकर कोई चाहे तो िौंडी बना िे, िेककन
शासन तो उसने मेरा न सहा, दस
ू रों का क्या सहे गी।
मैंने गोपा से उस वक्त कुछ न कहा, िेककन अवसर पाते ही िािा मदारीिाि से लमिा। मैं रहस्य का
पता िगाना चाहता था। सींयोग से वपता और पत्र
ु , दोंनों ही एक जगह पर लमि गए। मझ
ु े दे खते ही केदार ने
इस तरह झक
ु कर मेरे चरण छुए कक मैं उसकी शािीनता पर मग्ु ध हो गया। तुरींत भीतर गया और चाय,
मरु ब्बा और लमठाइयाीं िाया। इतना सौम्य, इतना सश
ु ीि, इतना ववनम्र यव
ु क मैंने न दे खा था। यह भावना ही
न हो सकती थी कक इसके भीतर और बाहर में कोई अींतर हो सकता है । जब तक रहा लसर झक
ु ाए बैठा
रहा। उच्छृींखिता तो उसे छू भी नहीीं गई थी।
जब केदार टे ननस खेिने गया, तो मैंने मदारीिाि से कहा केदार बाबू तो बहुत सच्चररत्र जान पडते हैं,
कफर स्त्री परू
ु ष में इतना मनोमालिन्य क्यों हो गया है ।
मदारीिाि ने एक क्षण ववचार करके कहा इसका कारण इसके लसवा और क्या बताऊ कक दोनों अपने
मा-बाप के िाडिे हैं, और प्यार िडकों को अपने मन का बना दे ता है। मेरा सारा जीवन सींघषम में कटा। अब
जाकर जरा शाींनत लमिी है । भोग-वविास का कभी अवसर ही न लमिा। ददन भर पररश्रम करता था, सींध्या
को पडकर सो जाता था। सवास्
् थ्य भी अच्छा न था, इसलिए बार-बार यह धचींता सवार रहती थी कक सींचय
कर ि।ींू ऐसा न हो कक मेरे पीछे बाि बच्चे भीख माींगते कफरे । नतीजा यह हुआ कक इन महाशय को मफ्
ु त
का धन लमिा। सनक सवार हो गई। शराब उडने िगी। कफर ड्रामा खेिने का शौक हुआ। धन की कमी थी
ही नहीीं, उस पर मा-बाप अकेिे बेटे। उनकी प्रसन्नता ही हमारे जीवन को स्वगम था। पढ़ना-लिखना तो दरू
रहा, वविास की इच्छा बढ़ती गई। रीं ग और गहरा हुआ, अपने जीवन का ड्रामा खेिने िगे। मैंने यह रीं ग दे खा
तो मझ ु े धचींता हुई। सोचा, ब्याह कर दीं ,ू ठीक हो जाएगा। गोपा दे वी का पैगाम आया, तो मैंने तुरींत स्वीकार
कर लिया। मैं सन्
ु नी को दे ख चक
ु ा था। सोचा, ऐसा रूपवती पत्नी पाकर इनका मन क्स्थर हो जाएगा, पर वह
भी िाडिी िडकी थी—हठीिी, अबोध, आदशमवाददनी। सदहष्णुता तो उसने सीखी ही न थी। समझौते का
जीवन में क्या मल्
ू य है , इसक उसे खबर ही नहीीं। िोहा िोहे से िड गया। वह अभन से पराक्जत करना
चाहती है या उपेक्षा से, यही रहस्य है। और साहब मैं तो बहू को ही अधधक दोषी समझता हूीं। िडके प्राय
मनचिे होते हैं। िडककयाीं स्वाभाव से ही सश
ु ीि होती हैं और अपनी क्जम्मेदारी समझती हैं। उसमें ये गण
ु हैं
नहीीं। डोंगा कैसे पार होगा ईश्वर ही जाने।

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सहसा सन्
ु नी अींदर से आ गई। बबल्कुि अपने धचत्र की रे खा सी, मानो मनोहर सींगीत की प्रनतध्वनन
हो। कींु दन तपकर भस्म हो गया था। लमटी हुई आशाओीं का इससे अच्छा धचत्र नहीीं हो सकता। उिाहना दे ती
हुई बोिी—आप जानें कब से बैठे हुए हैं, मझ
ु े खबर तक नहीीं और शायद आप बाहर ही बाहर चिे भी जाते?
मैंने आींसओ
ु ीं के वेग को रोकते हुए कहा नहीीं सन्
ु नी, यह कैसे हो सकता था तुम्हारे पास आ ही रहा
था कक तुम स्वयीं आ गई।
मदारीिाि कमरे के बाहर अपनी कार की सफाई करने िगे। शायद मझ
ु े सन्
ु नी से बात करने का
अवसर दे ना चाहते थे।
सन्
ु नी ने पछ
ू ा—अम्माीं तो अच्छी तरह हैं?
‘हाीं अच्छी हैं। तुमने अपनी यह क्या गत बना रखी है ।’
‘मैं अच्छी तरह से हूीं।’
‘यह बात क्या है? तमु िोगों में यह क्या अनबन है । गोपा दे वी प्राण ददये डािती हैं। तम
ु खद
ु मरने
की तैयारी कर रही हो। कुछ तो ववचार से काम िो।’
सन्
ु नी के माथे पर बि पड गए—आपने नाहक यह ववषय छे ड ददया चाचा जी! मैंने तो यह सोचकर
अपने मन को समझा लिया कक मैं अभाधगन हूीं। बस, उसका ननवारण मेरे बत ू े से बाहर है। मैं उस जीवन से
मत्ृ यु को कहीीं अच्छा समझती हूीं, जहाीं अपनी कदर न हो। मैं व्रत के बदिे में व्रत चाहती हूीं। जीवन का
कोई दस ू रा रूप मेरी समझ में नहीीं आता। इस ववषय में ककसी तरह का समझौता करना मेरे लिए असींभव
है । नतीजे मी मैं परवाह नहीीं करती।
‘िेककन...’
‘नहीीं चाचाजी, इस ववषय में अब कुछ न कदहए, नहीीं तो मैं चिी जाऊगी।’
‘आखखर सोचो तो...’
‘मैं सब सोच चक
ु ी और तय कर चक
ु ी। पशु को मनष्ु य बनाना मेरी शक्क्त से बाहर है ।’
इसके बाद मेरे लिए अपना मींह
ु बींद करने के लसवा और क्या रह गया था?
5

म ई का महीना था। मैं मींसरू गया हुआ था कक गोपा का तार पहुचा तुरींत आओ, जरूरी काम है । मैं
घबरा तो गया िेककन इतना ननक्श्चत था कक कोई दघ
गोपा मेरे सामने आकर खडी हो गई, ननस्पींद, मक
ु ट
म ना नहीीं हुई है । दस
ू , ननष्प्राण, जैसे तपेददक की रोगी हो।
ू रे ददन ददल्िी जा पहुचा।

‘मैंने पछ
ू ा कुशि तो है , मैं तो घबरा उठा।‘
‘उसने बझु ी हुई आींखों से दे खा और बोि सच।’
‘सन्
ु नी तो कुशि से है ।’
‘हाीं अच्छी तरह है ।’
‘और केदारनाथ?’
‘वह भी अच्छी तरह हैं।’
‘तो कफर माजरा क्या है?’
‘कुछ तो नहीीं।’
‘तम
ु ने तार ददया और कहती हो कुछ तो नहीीं।’
‘ददि तो घबरा रहा था, इससे तम्
ु हें बि
ु ा लिया। सन्
ु नी को ककसी तरह समझाकर यहाीं िाना है । मैं तो
सब कुछ करके हार गई।’
‘क्या इधर कोई नई बात हो गई।’
‘नयी तो नहीीं है , िेककन एक तरह में नयी ही समझो, केदार एक ऐक्रे स के साथ कहीीं भाग गया। एक
सप्ताह से उसका कहीीं पता नहीीं है । सन्
ु नी से कह गया है —जब तक तुम रहोगी घर में नहीीं आऊगा। सारा
घर सन्
ु नी का शत्रु हो रहा है, िेककन वह वहाीं से टिने का नाम नहीीं िेता। सन
ु ा है केदार अपने बाप के
दस्तखत बनाकर कई हजार रूपये बैंक से िे गया है।
‘तम
ु सन्
ु नी से लमिी थीीं?’
‘हाीं, तीन ददन से बराबर जा रही हूीं।’
‘वह नहीीं आना चाहती, तो रहने क्यों नहीीं दे ती।’
‘वहाीं घट
ु घट
ु कर मर जाएगी।’
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‘मैं उन्हीीं पैरों िािा मदारीिाि के घर चिा। हािाींकक मैं जानता था कक सन्
ु नी ककसी तरह न आएगी,
मगर वहाीं पहुचा तो दे खा कुहराम मचा हुआ है। मेरा किेजा धक से रह गया। वहाीं तो अथी सज रही थी।
मह
ु ल्िे के सैकडों आदमी जमा थे। घर में से ‘हाय! हाय!’ की क्रींदन-ध्वनन आ रही थी। यह सन्
ु नी का शव
था।
मदारीिाि मझ
ु े दे खते ही मझ
ु से उन्मत की भाींनत लिपट गए और बोिे:
‘भाई साहब, मैं तो िट
ु गया। िडका भी गया, बहू भी गयी, क्जन्दगी ही गारत हो गई।’
मािम
ू हुआ कक जब से केदार गायब हो गया था, सन् ु नी और भी जयादा उदास रहने िगी थी। उसने
उसी ददन अपनी चडू डयाीं तोड डािी थीीं और माींग का लसींदरू पोंछ डािा था। सास ने जब आपवत्त की, तो
उनको अपशब्द कहे । मदारीिाि ने समझाना चाहा तो उन्हें भी जिी-कटी सन
ु ायी। ऐसा अनम
ु ान होता था—
उन्माद हो गया है । िोगों ने उससे बोिना छोड ददया था। आज प्रात:काि यमन
ु ा स्नान करने गयी। अींधेरा
था, सारा घर सो रहा था, ककसी को नहीीं जगाया। जब ददन चढ़ गया और बहू घर में न लमिी, तो उसकी
तिाश होने िगी। दोपहर को पता िगा कक यमन ु ा गयी है। िोग उधर भागे। वहाीं उसकी िाश लमिी। पलु िस
आयी, शव की परीक्षा हुई। अब जाकर शव लमिा है। मैं किेजा थामकर बैठ गया। हाय, अभी थोडे ददन पहिे
जो सन्
ु दरी पािकी पर सवार होकर आयी थी, आज वह चार के कींधे पर जा रही है !
मैं अथी के साथ हो लिया और वहाीं से िौटा, तो रात के दस बज गये थे। मेरे पाींव काींप रहे थे।
मािम
ू नहीीं, यह खबर पाकर गोपा की क्या दशा होगी। प्राणाींत न हो जाए, मझ
ु े यही भय हो रहा था। सन्ु नी
उसकी प्राण थी। उसकी जीवन का केन्द्र थी। उस दखु खया के उद्यान में यही पौधा बच रहा था। उसे वह
हृदय रक्त से सीींच-सीींचकर पाि रही थी। उसके वसींत का सन
ु हरा स्वप्न ही उसका जीवन था उसमें कोपिें
ननकिेंगी, फूि खखिेंगे, फि िगें गे, धचडडया उसकी डािी पर बैठकर अपने सह
ु ाने राग गाएींगी, ककन्तु आज
ननष्ठुर ननयनत ने उस जीवन सत्र
ू को उखाडकर फेंक ददया। और अब उसके जीवन का कोई आधार न था।
वह बबन्द ु ही लमट गया था, क्जस पर जीवन की सारी रे खाए आकर एकत्र हो जाती थीीं।
ददि को दोनों हाथों से थामे, मैंने जींजीर खटखटायी। गोपा एक िािटे न लिए ननकिी। मैंने गोपा के
मख
ु पर एक नए आनींद की झिक दे खी।
मेरी शोक मद्र
ु ा दे खकर उसने मातव
ृ त ् प्रेम से मेरा हाथ पकड तिया और बोिी आज तो तुम्हारा सारा
ददन रोते ही कटा; अथी के साथ बहुत से आदमी रहे होंगे। मेरे जी में भी आया कक चिकर सन् ु नी के
अींनतम दशमन कर िीं।ू िेककन मैंने सोचा, जब सन्
ु न ही न रही, तो उसकी िाश में क्या रखा है ! न गयी।
मैं ववस्मय से गोपा का मह
ु दे खने िगा। तो इसे यह शोक-समाचार लमि चक
ु ा है । कफर भी वह शाींनत
और अववचि धैय!म बोिा अच्छा-ककया, न गयी रोना ही तो था।
‘हाीं, और क्या? रोयी यहाीं भी, िेककन तुमसे सचव कहती हूीं, ददि से नहीीं रोयी। न जाने कैसे आींसू
ननकि आए। मझ ु े तो सन्
ु नी की मौत से प्रसन्नता हुई। दखु खया अपनी मान मयामदा लिए सींसार से ववदा हो
गई, नहीीं तो न जाने क्या क्या दे खना पडता। इसलिए और भी प्रसन्न हूीं कक उसने अपनी आन ननभा दी।
स्त्री के जीवन में प्यार न लमिे तो उसका अींत हो जाना ही अच्छा। तुमने सन्
ु नी की मद्र
ु ा दे खी थी? िोग
कहते हैं, ऐसा जान पडता था—मस्
ु करा रही है । मेरी सन्
ु नी सचमच
ु दे वी थी। भैया, आदमी इसलिए थोडे ही
जीना चाहता है कक रोता रहे । जब मािम
ू हो गया कक जीवन में द:ु ख के लसवा कुछ नहीीं है, तो आदमी
जीकर क्या करे। ककसलिए क्जए? खाने और सोने और मर जाने के लिए? यह मैं नहीीं चाहती कक मझ
ु े सन्ु नी
की याद न आएगी और मैं उसे याद करके रोऊगी नहीीं। िेककन वह शोक के आींसू न होंगे। बहादरु बेटे की
माीं उसकी वीरगनत पर प्रसन्न होती है । सन्
ु नी की मौत मे क्या कुछ कम गौरव है ? मैं आींसू बहाकर उस
गौरव का अनादर कैसे करूीं? वह जानती है , और चाहे सारा सींसार उसकी ननींदा करे , उसकी माता सराहना ही
करे गी। उसकी आत्मा से यह आनींद भी छीन ि?ींू िेककन अब रात जयादा हो गई है । ऊपर जाकर सो रहो।
मैंने तुम्हारी चारपाई बबछा दी है , मगर दे खे, अकेिे पडे-पडे रोना नहीीं। सन्
ु नी ने वही ककया, जो उसे करना
चादहए था। उसके वपता होते, तो आज सन्
ु नी की प्रनतमा बनाकर पज
ू ते।’
मैं ऊपर जाकर िेटा, तो मेरे ददि का बोझ बहुत हल्का हो गया था, ककन्तु रह-रहकर यह सींदेह हो
जाता था कक गोपा की यह शाींनत उसकी अपार व्यथा का ही रूप तो नहीीं है ?

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नशा

ई श्वरी एक बडे जमीींदार का िडका था और मैं गरीब क्िकम था, क्जसके पास मेहनत-मजूरी के लसवा और
कोई जायदाद न थी। हम दोनों में परस्पर बहसें होती रहती थीीं। मैं जमीींदारी की बरु ाई करता, उन्हें
दहींसक पशु और खून चस
ू ने वािी जोंक और वक्ष
ृ ों की चोटी पर फूिने वािा बींझा कहता। वह जमीींदारों का
पक्ष िेता, पर स्वभावत: उसका पहिू कुछ कमजोर होता था, क्योंकक उसके पास जमीींदारों के अनक
ु ू ि कोई
दिीि न थी। वह कहता कक सभी मनष्ु य बराबर नहीीं हाते, छोटे -बडे हमेशा होते रहें गे। िचर दिीि थी।
ककसी मानष
ु ीय या नैनतक ननयम से इस व्यवस्था का औधचत्य लसद्ध करना कदठन था। मैं इस वाद-वववाद
की गमी-गमी में अक्सर तेज हो जाता और िगने वािी बात कह जाता, िेककन ईश्वरी हारकर भी मस्
ु कराता
रहता था मैंने उसे कभी गमम होते नहीीं दे खा। शायद इसका कारण यह था कक वह अपने पक्ष की कमजोरी
समझता था।
नौकरों से वह सीधे मींह
ु बात नहीीं करता था। अमीरों में जो एक बेददी और उद्दण्ता होती है , इसमें
उसे भी प्रचरु भाग लमिा था। नौकर ने बबस्तर िगाने में जरा भी दे र की, दध
ू जरूरत से जयादा गमम या ठीं डा
हुआ, साइककि अच्छी तरह साफ नहीीं हुई, तो वह आपे से बाहर हो जाता। सस्
ु ती या बदतमीजी उसे जरा भी
बरदाश्त न थी, पर दोस्तों से और ववशेषकर मझ
ु से उसका व्यवहार सौहादम और नम्रता से भरा हुआ होता था।
शायद उसकी जगह मैं होता, तो मझ
ु से भी वहीीं कठोरताएीं पैदा हो जातीीं, जो उसमें थीीं, क्योंकक मेरा िोकप्रेम
लसद्धाींतों पर नहीीं, ननजी दशाओीं पर दटका हुआ था, िेककन वह मेरी जगह होकर भी शायद अमीर ही रहता,
क्योंकक वह प्रकृनत से ही वविासी और ऐश्वयम-वप्रय था।
अबकी दशहरे की छुट्दटयों में मैंने ननश्चय ककया कक घर न जाऊींगा। मेरे पास ककराए के लिए रूपये
न थे और न घरवािों को तकिीफ दे ना चाहता था। मैं जानता हूीं, वे मझ
ु े जो कुछ दे ते हैं, वह उनकी है लसयत
से बहुत जयादा है, उसके साथ ही परीक्षा का ख्याि था। अभी बहुत कुछ पढना है, बोडडमग हाउस में भत ू की
तरह अकेिे पडे रहने को भी जी न चाहता था। इसलिए जब ईश्वरी ने मझ
ु े अपने घर का नेवता ददया, तो
मैं बबना आग्रह के राजी हो गया। ईश्वरी के साथ परीक्षा की तैयारी खूब हो जाएगी। वह अमीर होकर भी
मेहनती और जहीन है।
उसने उसके साथ ही कहा-िेककन भाई, एक बात का ख्याि रखना। वह ीं अगर जमीींदारों की ननींदा की,
तो मआ
ु लमिा बबगड. जाएगा और मेरे घरवािों को बरु ा िगेगा। वह िोग तो आसालमयों पर इसी दावे से
शासन करते हैं कक ईश्वर ने असालमयों को उनकी सेवा के लिए ही पैदा ककया है। असामी में कोई मौलिक
भेद नहीीं है, तो जमीींदारों का कहीीं पता न िगे।
मैंने कहा-तो क्या तुम समझते हो कक मैं वहाीं जाकर कुछ और हो जाऊींगा?
‘ह ,ीं मैं तो यही समझता हूीं।
‘तुम गित समझते हो।‘
ईश्वरी ने इसका कोई जवाब न ददया। कदाधचत ् उसने इस मआ
ु मिे को मरे वववेक पर छोड ददया।
और बहुत अच्छा ककया। अगर वह अपनी बात पर अडता, तो मैं भी क्जद पकड िेता।

से
कींड क्िास तो क्या, मैंनें कभी इींटर क्िास में भी सफर न ककया था। अब की सेकींड क्िास में सफर
का सौभाग्य प्राइ़ि हुआ। गाडी तो नौ बजे रात को आती थी, पर यात्रा के हषम में हम शाम को स्टे शन
जा पहुींच।े कुछ दे र इधर-उधर सैर करने के बाद ररफ्रेशमें ट-रूम में जाकर हम िोगों ने भेजन ककया। मेरी
वेश-भष
ू ा और रीं ग-ढीं ग से पारखी खानसामों को यह पहचानने में दे र न िगी कक मालिक कौन है और
वपछिग्गू कौन; िेककन न जाने क्यों मझ
ु े उनकी गुस्ताखी बरु ी िग रही थी। पैसे ईश्वरी की जेब से गए।
शायद मेरे वपता को जो वेतन लमिता है , उससे जयादा इन खानसामों को इनाम-इकराम में लमि जाता हो।
एक अठन्नी तो चिते समय ईश्वरी ही ने दी। कफर भी मैं उन सभों से उसी तत्परता और ववनय की अपेक्षा
करता था, क्जससे वे ईश्वरी की सेवा कर रहे थे। क्यों ईश्वरी के हुक्म पर सब-के-सब दौडते हैं, िेककन मैं
कोई चीज माींगता हूीं, तो उतना उत्साह नहीीं ददखाते! मझ
ु े भोजन में कुछ स्वाद न लमिा। यह भेद मेरे ध्यान
को सम्पण
ू म रूप से अपनी ओर खीींचे हुए था।
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गाडी आयी, हम दोनो सवार हुए। खानसामों ने ईश्वरी को सिाम ककया। मेरी ओर दे खा भी नहीीं।
ईश्वरी ने कहा—ककतने तमीजदार हैं ये सब? एक हमारे नौकर हैं कक कोई काम करने का ढीं ग नहीीं।
मैंने खट्टे मन से कहा—इसी तरह अगर तम
ु अपने नौकरों को भी आठ आने रोज इनाम ददया करो,
तो शायद इनसे जयादा तमीजदार हो जाएीं।
‘तो क्या तुम समझते हो, यह सब केवि इनाम के िािच से इतना अदब करते हैं।
‘जी नहीीं, कदावपत नहीीं! तमीज और अदब तो इनके रक्त में लमि गया है ।’
गाडी चिी। डाक थी। प्रयास से चिी तो प्रतापगढ जाकर रूकी। एक आदमी ने हमारा कमरा खोिा।
मैं तुरींत धचल्िा उठा, दस
ू रा दरजा है-सेकींड क्िास है ।
उस मस
ु ाकफर ने डडब्बे के अन्दर आकर मेरी ओर एक ववधचत्र उपेक्षा की दृक्ष्ट से दे खकर कहा—जी
हाीं, सेवक इतना समझता है , और बीच वािे बथमडे पर बैठ गया। मझ
ु े ककतनी िजजा आई, कह नहीीं सकता।
भोर होते-होते हम िोग मरु ादाबाद पहुींच।े स्टे शन पर कई आदमी हमारा स्वागत करने के लिए खडे
थे। पाींच बेगार। बेगारों ने हमारा िगेज उठाया। दोनों भद्र परूु ष पीछे -पीछे चिे। एक मस
ु िमान था ररयासत
अिी, दस
ू रा िाह्मण था रामहरख। दोनों ने मेरी ओर पररधचत नेत्रों से दे खा, मानो कह रहे हैं, तुम कौवे होकर
हीं स के साथ कैसे?
ररयासत अिी ने ईश्वरी से पछ
ू ा—यह बाबू साहब क्या आपके साथ पढ़ते हैं?
ईश्वरी ने जवाब ददया—ह ,ॉँ साथ पढ़ते भी हैं और साथ रहते भी हैं। यों कदहए कक आप ही की बदौित
मैं इिाहाबाद पडा हुआ हूीं, नहीीं कब का िखनऊ चिा आया होता। अब की मैं इन्हें घसीट िाया। इनके घर
से कई तार आ चक ु े थे, मगर मैंने इनकारी-जवाब ददिवा ददए। आखखरी तार तो अजेंट था, क्जसकी फीस चार
आने प्रनत शब्द है, पर यहाीं से उनका भी जवाब इनकारी ही था।
दोनों सजजनों ने मेरी ओर चककत नेत्रों से दे खा। आतींककत हो जाने की चेष्टा करते जान पडे।
ररयासत अिी ने अद्मधशींका के स्वर में कहा—िेककन आप बडे सादे लिबास में रहते हैं।
ईश्वरी ने शींका ननवारण की—महात्मा गाींधी के भक्त हैं साहब। खद्दर के लसवा कुछ पहने ही नहीीं।
परु ाने सारे कपडे जिा डािे। यों कहा कक राजा हैं। ढाई िाख सािाना की ररयासत है, पर आपकी सरू त दे खो
तो मािम
ू होता है, अभी अनाथािय से पकडकर आये हैं।
रामहरख बोिे—अमीरों का ऐसा स्वभाव बहुत कम दे खने में आता है । कोई भ पीं ही नहीीं सकता।
ररयासत अिी ने समथमन ककया—आपने महाराजा च गिी ॉँ को दे खा होता तो द तोंीं तिे उीं गिी दबाते।
एक गाढ़े की लमजमई और चमरौंधे जत
ू े पहने बाजारों में घम
ू ा करते थे। सन
ु ते हैं, एक बार बेगार में पकडे गए
थे और उन्हीीं ने दस िाख से कािेज खोि ददया।
मैं मन में कटा जा रहा था; पर न जाने क्या बात थी कक यह सफेद झठ
ू उस वक्त मझ
ु े हास्यास्पद
न जान पडा। उसके प्रत्येक वाक्य के साथ मानों मैं उस कक्ल्पत वैभव के समीपतर आता जाता था।
मैं शहसवार नहीीं हूीं। ह ,ॉँ िडकपन में कई बार िद्द ू घोडों पर सवार हुआ हूीं। यहाीं दे खा तो दो कि -ीं
रास घोडे हमारे लिए तैयार खडे थे। मेरी तो जान ही ननकि गई। सवार तो हुआ, पर बोदटय ीं क पीं रहीीं थीीं।
मैंने चेहरे पर लशकन न पडने ददया। घोडे को ईश्वरी के पीछे डाि ददया। खैररयत यह हुई कक ईश्वरी ने घोडे
को तेज न ककया, वरना शायद मैं हाथ-प रॉँ तड ु वाकर िौटता। सींभव है , ईश्वरी ने समझ लिया हो कक यह
ककतने पानी में है ।

ई श्वरी का घर क्या था, ककिा था। इमामबाडे का—सा फाटक, द्वार पर पहरे दार टहिता हुआ, नौकरों का
कोई लससाब नहीीं, एक हाथी बॅंधा हुआ। ईश्वरी ने अपने वपता, चाचा, ताऊ आदद सबसे मेरा पररचय कराया
ीं क्ाक कुछ न पनू छए। नौकर-चाकर ही नहीीं, घर के िोग भी
और उसी अनतश्योक्क्त के साथ। ऐसी हवा ब धी
मेरा सम्मान करने िगे। दे हात के जमीींदार, िाखों का मन
ु ाफा, मगर पलु िस कान्सटे बबि को अफसर समझने
वािे। कई महाशय तो मझु े हुजूर-हुजूर कहने िगे!
जब जरा एकान्त हुआ, तौ मैंने ईश्वरी से कहा—तम
ु बडे शैतान हो यार, मेरी लमट्टी क्यों पिीद कर
रहे हो?
ईश्वरी ने दृढ़ मस्
ु कान के साथ कहा—इन गधों के सामने यही चाि जरूरी थी, वरना सीधे मह
ु बोिते
भी नहीीं।
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जरा दे र के बाद नाई हमारे पाींव दबाने आया। कींु वर िोग स्टे शन से आये हैं, थक गए होंगे। ईश्वरी ने
मेरी ओर इशारा करके कहा—पहिे कींु वर साहब के पाींव दबा।
मैं चारपाई पर िेटा हुआ था। मेरे जीवन में ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कक ककसी ने मेरे पाींव दबाए
हों। मैं इसे अमीरों के चोचिे, रईसों का गधापन और बडे आदलमयों की मट ु मरदी और जाने क्या-क्या कहकर
ईश्वरी का पररहास ककया करता और आज मैं पोतडों का रईस बनने का स्वाींग भर रहा था।
इतने में दस बज गए। परु ानी सभ्यता के िोग थे। नयी रोशनी अभी केवि पहाड की चोटी तक पहुींच
पायी थी। अींदर से भोजन का बिु ावा आया। हम स्नान करने चिे। मैं हमें शा अपनी धोती खुद छाींट लिया
करता हू; मगर यह ॉँ मैंने ईश्वरी की ही भाींनत अपनी धोती भी छोड दी। अपने हाथों अपनी धोती छाींटते शमम
आ रही थी। अींदर भोजन करने चिे। होस्टि में जत ू े पहिे मेज पर जा डटते थे। यह ीं प वीं धोना आवश्यक
था। कहार पानी लिये खडा था। ईश्वरी ने प वीं बढ़ा ददए। कहार ने उसके प वीं धोए। मैंने भी प वीं बढ़ा ददए।
कहार ने मेरे प वीं भी धोए। मेरा वह ववचार न जाने कह ीं चिा गया था।
4

सो ू पढ़ें गे, पर यह ीं सारा ददन सैर-सपाटे में कट जाता था। कहीीं


चा था, वह ॉँ दे हात में एकाग्र होकर खब
नदी में बजरे पर सैर कर रहे हैं, कहीीं मनछियों या धचडडयों का लशकार खेि रहे हैं, कहीीं पहिवानों
की कुश्ती दे ख रहे हैं, कहीीं शतरीं ज पर जमें हैं। ईश्वरी खूब अींडे मगवाता और कमरे में ‘स्टोव’ पर आमिेट
बनते। नौकरों का एक जत्था हमेशा घेरे रहता। अपने ह थ-प ॉँ वॉँ दहिाने की कोई जरूरत नहीीं। केवि जबान
दहिा दे ना काफी है। नहाने बैठो तो आदमी नहिाने को हाक्जर, िेटो तो आदमी पींखा झिने को खडे।
महात्मा गाींधी का कींु वर चेिा मशहूर था। भीतर से बाहर तक मेरी धाक थी। नाश्ते में जरा भी दे र न
होने पाए, कहीीं कींु वर साहब नाराज न हो जाऍ;ीं बबछावन ठीक समय पर िग जाए, कींु वर साहब के सोने का
समय आ गया। मैं ईश्वरी से भी जयादा नाजक
ु ददमाग बन गया था या बनने पर मजबरू ककया गया था।
ईश्वरी अपने हाथ से बबस्तर बबछािे िेककन कींु वर मेहमान अपने हाथों कैसेट अपना बबछावन बबछा सकते हैं!
उनकी महानता में बट्टा िग जाएगा।
एक ददन सचमच ु यही बात हो गई। ईश्वरी घर में था। शायद अपनी माता से कुछ बातचीत करने में
दे र हो गई। यह ीं दस बज गए। मेरी ऑ ींखें नीींद से झपक रही थीीं, मगर बबस्तर कैसेट िगाऊीं? कींु वर जो
ठहरा। कोई साढ़े ग्यारह बजे महरा आया। बडा मींह
ु िगा नौकर था। घर के धींधों में मेरा बबस्तर िगाने की
उसे सधु ध ही न रही। अब जो याद आई, तो भागा हुआ आया। मैंने ऐसी ड टॉँ बताई कक उसने भी याद ककया
होगा।
ईश्वरी मेरी ड टॉँ सन
ु कर बाहर ननकि आया और बोिा—तम
ु ने बहुत अच्छा ककया। यह सब हरामखोर
इसी व्यवहार के योग्य हैं।
इसी तरह ईश्वरी एक ददन एक जगह दावत में गया हुआ था। शाम हो गई, मगर िैम्प मेज पर रखा
हुआ था। ददयासिाई भी थी, िेककन ईश्वरी खुद कभी िैम्प नहीीं जिाता था। कफर कींु वर साहब कैसे जिाऍ?ीं
मैं झींझ
ु िा रहा था। समाचार-पत्र आया रखा हुआ था। जी उधर िगा हुआ था, पर िैम्प नदारद। दै वयोग से
उसी वक्त मींश
ु ी ररयासत अिी आ ननकिे। मैं उन्हीीं पर उबि पडा, ऐसी फटकार बताई कक बेचारा उल्िू हो
गया— तुम िोगों को इतनी कफक्र भी नहीीं कक िैम्प तो जिवा दो! मािम
ू नहीीं, ऐसे कामचोर आदलमयों का
यह ीं कैसे गज
ु र होता है । मेरे यह ीं घींटे-भर ननवामह न हो। ररयासत अिी ने क पते
ॉँ हुए हाथों से िैम्प जिा
ददया।
वहा एक ठाकुर अक्सर आया करता था। कुछ मनचिा आदमी था, महात्मा गाींधी का परम भक्त। मझ
ु े
महात्माजी का चेिा समझकर मेरा बडा लिहाज करता था; पर मझ
ु से कुछ पछ
ू ते सींकोच करता था। एक ददन
मझ
ु े अकेिा दे खकर आया और हाथ बाींधकर बोिा—सरकार तो गाींधी बाबा के चेिे हैं न? िोग कहते हैं कक
यह सरु ाज हो जाएगा तो जमीींदार न रहें गे।
मैंने शान जमाई—जमीींदारों के रहने की जरूरत ही क्या है? यह िोग गरीबों का खन
ू चस
ू ने के लसवा
और क्या करते है?
ठाकुर ने वपर पछ ू ा—तो क्यों, सरकार, सब जमीींदारों की जमीन छीन िी जाएगी। मैंनें कहा-बहुत-से
िोग तो खश ु ी से दे दें गे। जो िोग खश ु ी से न दें गे, उनकी जमीन छीननी ही पडेगी। हम िोग तो तैयार बैठे
हुए हैं। जयों ही स्वराजय हुआ, अपने इिाके असालमयों के नाम दहबा कर दें गे।

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मैं कुरसी पर प वॉँ िटकाए बैठा था। ठाकुर मेरे प वॉँ दबाने िगा। कफर बोिा—आजकि जमीींदार िोग
बडा जि ु म
ु करते हैं सरकार! हमें भी हुजरू , अपने इिाके में थोडी-सी जमीन दे दें , तो चिकर वहीीं आपकी
सेवा में रहें ।
मैंने कहा—अभी तो मेरा कोई अक्ख्तयार नहीीं है भाई; िेककन जयों ही अक्ख्तयार लमिा, मैं सबसे पहिे
तुम्हें बि
ु ाऊींगा। तुम्हें मोटर-ड़्राइवरी लसखा कर अपना ड्राइवर बना िग
ींू ा।
ु ा, उस ददन ठाकुर ने खूब भींग पी और अपनी स्त्री को खूब पीटा और ग वीं महाजन से िडने पर
सन
तैयार हो गया।

छु ट्टी इस तरह तमाम हुई और हम कफर प्रयाग चिे। ग वॉँ के बहुत-से िोग हम िोगों को पहुींचाने आये।
ठाकुर तो हमारे साथ स्टे शन तक आया। मैनें भी अपना पाटम खब ू सफाई से खेिा और अपनी
कुबेरोधचत ववनय और दे वत्व की मह ु र हरे क हृदय पर िगा दी। जी तो चाहता था, हरे क नौकर को अच्छा
इनाम द,ू िेककन वह सामथ्यम कह ॉँ थी? वापसी दटकट था ही, केवि गाडी में बैठना था; पर गाडी गायी तो
ठसाठस भरी हुई। दग ू ा की छुट्दटय ीं भोगकर सभी िोग िौट रहे थे। सेकींड क्िास में नति रखने की
ु ामपज
जगह नहीीं। इींटरव्यू क्िास की हाित उससे भी बदतर। यह आखखरी गाडी थी। ककसी तरह रूक न सकते थे।
बडी मक्ु श्कि से तीसरे दरजे में जगह लमिी। हमारे ऐश्वयम ने वह ीं अपना रीं ग जमा लिया, मगर मझ
ु े उसमें
बैठना बरु ा िग रहा था। आये थे आराम से िेटे-िेटे, जा रहे थे लसकुडे हुए। पहिू बदिने की भी जगह न
थी।
कई आदमी पढ़े -लिखे भी थे! वे आपस में अींगरे जी राजय की तारीफ करते जा रहे थे। एक महाश्य
बोिे—ऐसा न्याय तो ककसी राजय
् में नहीीं दे खा। छोटे -बडे सब बराबर। राजा भी ककसी पर अन्याय करे , तो
अदाित उसकी गदम न दबा दे ती है ।
दस
ू रे सजजन ने समथमन ककया—अरे साहब, आप खुद बादशाह पर दावा कर सकते हैं। अदाित में
बादशाह पर डडग्री हो जाती है ।
एक आदमी, क्जसकी पीठ पर बडा गट्ठर बधा था, किकत्ते जा रहा था। कहीीं गठरी रखने की जगह
ॉँ हुए था। इससे बेचन
न लमिती थी। पीठ पर ब धे ै होकर बार-बार द्वार पर खडा हो जाता। मैं द्वार के पास
ही बैठा हुआ था। उसका बार-बार आकर मेरे मींह
ु को अपनी गठरी से रगडना मझ ु े बहुत बरु ा िग रहा था।
एक तो हवा यों ही कम थी, दस
ू रे उस गवार का आकर मेरे मींह
ु पर खडा हो जाना, मानो मेरा गिा दबाना
था। मैं कुछ दे र तक जब्त ककए बैठा रहा। एकाएक मझ
ु े क्रोध आ गया। मैंने उसे पकडकर पीछे ठे ि ददया
और दो तमाचे जोर-जोर से िगाए।
उसनें ऑ ींखें ननकािकर कहा—क्यों मारते हो बाबज
ू ी, हमने भी ककराया ददया है !
मैंने उठकर दो-तीन तमाचे और जड ददए।
गाडी में तफ
ू ान आ गया। चारों ओर से मझ
ु पर बौछार पडने िगी।
‘अगर इतने नाजक
ु लमजाज हो, तो अव्वि दजे में क्यों नहीीं बैठे।‘
‘कोई बडा आदमी होगा, तो अपने घर का होगा। मझ
ु े इस तरह मारते तो ददखा दे ता।’
ॉँ िेने खडा हो
‘क्या कसरू ककया था बेचारे ने। गाडी में सास िेने की जगह नहीीं, खखडकी पर जरा स स
गया, तो उस पर इतना क्रोध! अमीर होकर क्या आदमी अपनी इन्साननयत बबल्कुि खो दे ता है।
’यह भी अींगरे जी राज है , क्जसका आप बखान कर रहे थे।‘
एक ग्रामीण बोिा—दफ्तर म ीं घस
ु पावत नहीीं, उस पै इत्ता लमजाज।
ईश्वरी ने अींगरे जी मे कहा- What an idiot you are, Bir!
और मेरा नशा अब कुछ-कुछ उतरता हुआ मािम
ू होता था।

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