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ू ण संग्रह
डाउनलोड करें मुंशी प्रेमचुंद का सम्पूर्ण सुंग्रह पीडीऍफ़ में | इस सुंग्रह को में तीन या चार भागों में प्रस्तत करूँगा | यह दस
ू रा भाग है जिसमे उनकी कहाननयाुं
आपके सामने प्रस्तत कक िायेंगी |
पहले भाग में उनकी कहाननयाुं प्रस्तत की गयीुं थी तथा तीसरे भाग में उनके उपन्यास व िो भी साहहत्य मेरे पास उपलब्ध है सब कछ पीडीऍफ़ में उपलब्ध
कराया िाएगा |
मझगाुंव
प्रतापचन्र और कमलाचरर्
दख्दशा
मन का प्राबल्य
ववदषी वि
ृ रानी
माधवी
प्रेम का स्वप्न
ववदाई
मतवाली योगगनी
त्रिया – चररि
ममलाप
मनावन
अुंधेर
मसर्ण एक आवाि
आखिरी मुंजिल
आल्हा
नसीहतों का दफ्तर
रािहठ
नेकी
बाुंका िमीुंदार
अनाथ लड़की
कमो का र्ल
सभ्यता का रहस्य
समस्या
दो सखियाूँ
सोहाग का शव
आत्म सुंगीत
एक्ट्रे स
ईश्वरीय न्याय
ममता
मन्ि
प्रायजश्चत
कप्तान साहब
इस्तीफ़ा
अलग्योझा
ईदगाह
माूँ
शाुंनत
नशा
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मझगाव
‘वप्रयतम,
प्रेम पत्र आया। लसर पर चढ़ाकर नेत्रों से िगाया। ऐसे पत्र तुम न िख करो ! हृदय ववदीणम हो जाता
है । मैं लिखींू तो असींगत नहीीं। यह ॉँ धचत्त अनत व्याकुि हो रहा है । क्या सन
ु ती थी और क्या दे खती हैं ? टूटे -
फूटे फूस के झोंपडे, लमट्टी की दीवारें , घरों के सामने कूडे-करकट के बडे-बडे ढे र, कीचड में लिपटी हुई भैंसे,
दब
ु ि
म गायें, ये सब दृश्य दे खकर जी चाहता है कक कहीीं चिी जाऊीं। मनष्ु यों को दे खों, तो उनकी सोचनीय
दशा है। हड्डडय ॉँ ननकिी हुई है । वे ववपवत्त की मनू तमय ॉँ और दररद्रता के जीववत्र धचत्र हैं। ककसी के शरीर पर
एक बेफटा वस्त्र नहीीं है और कैसे भाग्यहीन कक रात-ददन पसीना बहाने पर भी कभी भरपेट रोदटय ॉँ नहीीं
लमितीीं। हमारे घर के वपछवाडे एक गड्ढा है । माधवी खेिती थी। प वॉँ कफसिा तो पानी में धगर पडी। यह ॉँ
ककम्वदन्ती है कक गड्ढे में चड
ु ि
ै नहाने आया करती है और वे अकारण यह चिनेवािों से छे ड-छाड ककया
करती है । इसी प्रकार द्वार पर एक पीपि का पेड है । वह भत
ू ों का आवास है । गड्ढे का तो भय नहीीं है ,
परन्तु इस पीपि का वास सारे -सारे ग वॉँ के हृदय पर ऐसा छाया हुआ है । कक सय ू ामस्त ही से मागम बन्द हो
जाता है । बािक और स्त्रीया तो उधर पैर ही नहीीं रखते! ह ,ॉँ अकेिे-दक
ु े िे परु
ु ष कभी-कभी चिे जाते हैं, पर पे
भी घबराये हुए। ये दो स्थान मानो उस ननकृष्ट जीवों के केन्द्र हैं। इनके अनतररक्त सैकडों भत
ू -चड
ु ि
ै लभन्न-
लभन्न स्थानों के ननवासी पाये जाते हैं। इन िोगों को चड
ु ि
ै ें दीख पडती हैं। िोगों ने इनके स्वभाव पहचान
ककये है। ककसी भत
ू के ववषय में कहा जाता है कक वह लसर पर चढ़ता है तो महीनों नहीीं उतरता और कोई
दो-एक पज
ू ा िेकर अिग हो जाता है । गाव वािों में इन ववषयों पर इस प्रकार वातामिाप होता है , मानों ये
प्रत्यक्ष घटना है । यहा तक सन
ु ा गया हैं कक चड
ु ि ॉँ
ै भोजन-पानी म गने भी आया करती हैं। उनकी साडडय ॉँ
प्राय: बगुिे के पींख की भानत उजजवि होती हैं और वे बातें कुछ-कुछ नाक से करती है। ह ,ॉँ गहनों को प्रचार
उनकी जानत में कम है । उन्ही स्त्रीयों पर उनके आक्रमणका भय रहता है, जो बनाव श्रींग
ृ ार ककये रीं गीन वस्त्र
पदहने, अकेिी उनकी दृक्ष्ट मे पड जायें। फूिों की बास उनको बहुत भाती है । सम्भव नहीीं कक कोई स्त्री या
बािक रात को अपने पास फूि रखकर सोये।
भत
ू ों के मान और प्रनतष्ठा का अनम
ु ान बडी चतरु ाई से ककया गया है । जोगी बाबा आधी रात को
कािी कमररया ओढ़े , खडाऊ पर सवार, ग वॉँ के चारों आर भ्रमण करते हैं और भि
ू े-भटके पधथकों को मागम
बताते है। साि-भर में एक बार उनकी पज
ू ा होती हैं। वह अब भत
ू ों में नहीीं वरन ् दे वताओीं में धगने जाते है।
वह ककसी भी आपवत्त को यथाशक्क्त ग वॉँ के भीतर पग नहीीं रखने दे ते। इनके ववरुद्व धोबी बाबा से ग व-
ॉँ
भर थरामता है । क्जस वक्ष
ु पर उसका वास है , उधर से यदद कोई दीपक जिने के पश्चात ् ननकि जाए, तो
उसके प्राणों की कुशिता नहीीं। उन्हें भगाने के लिए दो बोित मददरा काफी है। उनका पज
ु ारी मींगि के ददन
उस वक्ष
ृ तिे गाजा और चरस रख आता है। िािा साहब भी भत
ू बन बैठे हैं। यह महाशय मटवारी थे। उन्हीं
कई पींडडत असलमयों ने मार डािा था। उनकी पकड ऐसी गहरी है कक प्राण लिये बबना नहीीं छोडती। कोई
पटवारी यहा एक वषम से अधधक नहीीं जीता। ग वॉँ से थोडी दरू पर एक पेड है । उस पर मौिवी साहब ननवास
करते है। वह बेचारे ककसी को नहीीं छे डते। ह ,ॉँ वह
ृ स्पनत के ददन पज
ू ा न पहुचायी जाए, तो बच्चों को छे डते हैं।
कैसी मखू त
म ा है! कैसी लमथ्या भक्क्त है ! ये भावनाऍ ीं हृदय पर वज्रिीक हो गयी है । बािक बीमार हुआ
कक भत
ू की पज
ू ा होने िगी। खेत-खलिहान में भत
ू का भोग जहा दे खखये, भत ू दीखते हैं। यह ॉँ न दे वी
ू -ही-भत
ू ों का ही साम्राजय हैं। यमराज यह ॉँ चरण नहीीं रखते, भत
है , न दे वता। भत ू ही जीव-हरण करते हैं। इन भावों
का ककस प्रकार सध
ु ार हो ? ककमधधकम
तुम्हारी
ववरजन
मझगााँि
प्यारे ,
बहुत ददनों को पश्चात ् आपकी पेरम-पत्री प्राप्त हुई। क्या सचमच
ु पत्र लिखने का अवकाश नहीीं ? पत्र
क्या लिखा है , मानो बेगार टािी है । तुम्हारी तो यह आदत न थी। क्या वह ॉँ जाकर कुछ और हो गये ? तुम्हें
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यह ॉँ से गये दो मास से अधधक होते है । इस बीच मीं कई छोटी-बडी छुट्दटय ॉँ पडी, पर तम
ु न आये। तम
ु से
कर बाधकर कहती हू- होिी की छुट्टी में अवश्य आना। यदद अब की बार तरसाया तो मझ
ु े सदा उिाहना
रहे गा।
यह ॉँ आकर ऐसी प्रतीत होता है, मानो ककसी दस ू रे सींसार में आ गयी हू। रात को शयन कर रही थी
कक अचानक हा-हा, हू-हू का कोिाहि सन ु ायी ददया। चौंककर उठा बैठी! पछ ू ा तो ज्ञात हुआ कक िडके घर-घर
से उपिे और िकडी जमा कर रहे थे। होिी माता का यही आहार था। यह बेढींगा उपद्रव जहा पहुच गया,
ईंधन का ददवािा हो गया। ककसी की शक्क्त नही जो इस सेना को रोक सके। एक नम्बरदार की मडडया िोप
हो गयी। उसमीं दस-बारह बैि सग
ु मतापव
ू क
म बाधे जा सकते थे। होिी वािे कई ददन घात में थे। अवसर
पाकर उडा िे गये। एक कुरमी का झोंपडा उड गया। ककतने उपिे बेपता हो गये। िोग अपनी िकडडया घरों
में भर िेते हैं। िािाजी ने एक पेड ईंधन के लिए मोि लिया था। आज रात को वह भी होिी माता के पेट
में चिा गया। दो-तीि घरों को ककवाड उतर गये। पटवारी साहब द्वार पर सो रहे थे। उन्हें भलू म पर
ढकेिकर िोगे चारपाई िे भागे। चतदु दमक ईंधन की िट
ू मची है। जो वस्तु एक बार होिी माता के मख
ु में
चिी गयी, उसे िाना बडा भारी पाप है । पटवारी साहब ने बडी धमककयाीं दी। मैं जमाबन्दी बबगाड दगा,
ू खसरा
झठू ाकर दगा,
ू पर कुछ प्रभाव न हुआ! यहा की प्रथा ही है कक इन ददनों वािे जो वस्तु पा जायें, ननववमघ्न उठा
िे जायें। कौन ककसकी पक ु ार करे ? नवयव
ु क पत्र
ु अपने वपता की आींख बाकर अपनी ही वस्तु उठवा दे ता
है । यदद वह ऐसा न करे , तो अपने समाज मे अपमाननत समझाजा जाए।
खेत पक गये है ।, पर काटने में दो सप्ताह का वविम्ब है । मेरे द्वार पर से मीिों का दृश्य ददखाई
दे ता है । गेहू और जौ के सथ
ु रे खेतों के ककनारे -ककनारे कुसम
ु के अरुण और केसर-वणम पष्ु पों की पींक्क्त परम
सह ु ावनी िगती है । तोते चतदु दमक मडिाया करते हैं।
माधवी ने यहा कई सखखया बना रखी हैं। पडोस में एक अहीर रहता है । राधा नाम है । गत वषम माता-
वपता प्िेगे के ग्रास हो गये थे। गह
ृ स्थी का कुि भार उसी के लसर पर है । उसकी स्त्री तुिसा प्राय: हमारे
यहा आती हैं। नख से लशख तक सन्ु दरता भरी हुई है । इतनी भोिी हैकक जो चाहता है कक घण्टों बाते सन
ु ा
करु। माधवी ने इससे बदहनापा कर रखा है । कि उसकी गुडडयों का वववाह हैं। तिु सी की गडु डया है और
माधवी का गुड्डा। सन
ु ती हू, बेचारी बहुत ननधनम है। पर मैंने उसके मख
ु पर कभी उदासीनता नहीीं दे खी।
कहती थी कक उपिे बेचकर दो रुपये जमा कर लिये हैं। एक रुपया दायज दगी ू और एक रुपये में बरानतयों
का खाना-पीना होगा। गडु डयों के वस्त्राभष
ू ण का भार राधा के लसर हैं! कैसा सरि सींतोषमय जीवि है !
िो, अब ववदा होती हू। तम्
ु हारा समय ननरथमक बातो में नष्ट हुआ। क्षमा करना। तम् ु हें पत्र लिखने
बैठती हू, तो िेखनी रुकती ही नहीीं। अभी बहुतेरी बातें लिखने को पडी हैं। प्रतापचन्द्र से मेरी पािागन कह
दे ना।
तुम्हारी
ववरजन
(3)
मझगाव
प्यारे ,
तम्
ु हारी, प्रेम पबत्रका लमिी। छाती से िगायी। वाह! चोरी और महजोरी।
ु अपने न आने का दोष मेरे
लसर धरते हो ? मेरे मन से कोई पछ
ू े कक तम्
ु हारे दशनम की उसे ककतनी अलभिाषा प्रनतददन व्याकुिता के
रुप में पररणत होती है । कभी-कभी बेसध ु हो जाती हू। मेरी यह दशा थोडी ही ददनों से होने िगी है । क्जस
समय यहा से गये हो, मझ ु े ज्ञान न था कक वहा जाकर मेरी दिेि करोगे। खैर, तुम्हीीं सच और मैं ही झठ ू ।
मझ
ु े बडी प्रसन्नता हुई कक तुमने मरे दोनों पत्र पसन्द ककये। पर प्रतापचन्द्र को व्यथम ददखाये। वे पत्र बडी
असावधानी से लिखे गये है । सम्भव है कक अशद् ु ववया रह गयी हों। मझे ववश्वास नहीीं आता कक प्रताप ने
उन्हें मल्
ू यवान समझा हो। यदद वे मेरे पत्रों का इतना आदर करते हैं कक उनके सहार से हमारे ग्राम्य-जीवन
पर कोई रोचक ननबन्ध लिख सकें, तो मैं अपने को परम भाग्यवान ् समझती हू।
कि यहा दे वीजी की पज
ू ा थी। हि, चक्की, परु चल्
ू हे सब बन्द थे। दे वीजी की ऐसी ही आज्ञा है । उनकी
आज्ञा का उल्िघींन कौन करे ? हुक्का-पानी बन्द हो जाए। साि-भर मीं यही एक ददन है , क्जस गावािे भी
छुट्टी का समझते हैं। अन्यथा होिी-ददवािी भी प्रनत ददन के आवश्यक कामों को नहीीं रोक सकती। बकरा
चढा। हवन हुआ। सत्तू खखिाया गया। अब गाव के बच्चे-बच्चे को पण
ू म ववश्वास है कक प्िेग का आगमन यहा
मझगाव
मेरे प्राणधधक वप्रयतम,
परू े पन्द्रह ददन के पश्चात ् तुमने ववरजन की सधु ध िी। पत्र को बारम्बार पढ़ा। तुम्हारा पत्र रुिाये
बबना नहीीं मानता। मैं यों भी बहुत रोया करती हू। तुमको ककन-ककन बातों की सधु ध ददिाऊ? मेरा हृदय
ननबमि है कक जब कभी इन बातों की ओर ध्यान जाता है तो ववधचत्र दशा हो जाती है। गमी-सी िगती है ।
एक बडी व्यग्र करने वािी, बडी स्वाददष्ट, बहुत रुिानेवािी, बहुत दरु ाशापण
ू म वेदना उत्पन्न होती है । जानती हू
कक तुम नहीीं आ रहे और नहीीं आओगे; पर बार-बार जाकर खडी हो जाती हू कक आ तो नहीीं गये।
कि सायींकाि यहा एक धचत्ताकषमक प्रहसन दे खने में आया। यह धोबबयों का नाच था। पन्द्रह-बीस
मनष्ु यों का एक समद
ु ाय था। उसमे एक नवयव
ु क श्वेत पेशवाज पदहने, कमर में असींख्य घींदटया बाधे, पाव में
घघ
ु रु पदहने, लसर पर िाि टोपी रखे नाच रहा था। जब परु
ु ष नाचता था तो मअ
ृ ींग बजने िगती थी। ज्ञात
हुआ कक ये िोग होिी का परु स्कार मागने आये हैं। यह जानत परु स्कार खूब िेती है । आपके यहा कोई काम-
काज पडे उन्हें परु स्कार दीक्जये; और उनके यहा कोई काम-काज पडे, तो भी उन्हें पाररतोवषक लमिना चादहए।
ये िोग नाचते समय गीत नहीीं गाते। इनका गाना इनकी कववता है। पेशवाजवािा परु
ु ष मद
ृ ीं ग पर हाथ
रखकर एक ववरहा कहता है । दस
ू रा परु
ु ष सामने से आकर उसका प्रत्यत्त
ु र दे ता है और दोनों तत्क्षण वह
ववरहा रचते हैं। इस जानत में कववत्व-शक्क्त अत्यधधक है । इन ववरहों को ध्यान से सन ु ो तो उनमे बहुधा
उत्तम कववत्व भाव प्रकट ककये जाते हैं। पेशवाजवािे परु
ु षों ने प्रथम जो ववरहा कहा था, उसका यह अथम कक
ऐ धोबी के बच्चों! तम
ु ककसके द्वार पर आकर खडे हो? दस
ू रे ने उत्तर ददया-अब न अकबर शाह है न राजा
भोज, अब जो हैं हमारे मालिक हैं उन्हीीं से मागो। तीसरे ववरहा का अथम यह है कक याचकों की प्रनतष्ठा कम
होती है अतएव कुछ मत मागों, गा-बाजकर चिे चिो, दे नेवािा बबन मागे ही दे गा। घण्टे -भर से ये िोग ववरहे
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कहते रहे । तम्
ु हें प्रतनत न होगी, उनके मख
ु से ववरहे इस प्रकार बेधडक ननकिते थे कक आश्चयम प्रकट होता
था। स्यात इतनी सग
ु मता से वे बातें भी न कर सकते हों। यह जानत बडी वपयक्कड है । मददरा पानी की
भानत पीती है। वववाह में मददरा गौने में मददरा, पज
ू ा-पाठ में मददरा। परु स्कार मागें गे तो पीने के लिए।
धि
ु ाई मागें गे तो यह कहकर कक आज पीने के लिए पैसे नहीीं हैं। ववदा होते समय बेचू धोबी ने जो ववरहा
कहा था, वह काव्यािींकार से भरा हुआ है। तुम्हारा पररवार इस प्रकार बढ़े जैसे गींगा जी का जि। िडके
फूिे-फिें, जैसे आम का बौर। मािककन को सोहाग सदा बना रहे , जैसे दब ू की हररयािी। कैसी अनोखी
कववता है ।
तुम्हारी
ववरजन
(7)
मझगाव
प्यारे ,
एक सप्ताह तक चप ु रहने की क्षमा चाहती हू। मझ ु े इस सप्ताह में तननक भी अवकाश न लमिा।
माधवी बीमार हो गयी थी। पहिे तो कुनैन को कई पडु डया खखिायी गयीीं पर जब िाभ न हुआ और उसकी
दशा और भी बरु ी होने िगी तो, ददहिरू ाय वैद्य बि
ु ाये गये। कोई पचास वषम की आयू होगी। नींगे पाव लसर
पर एक पगडो बाधे, कन्धे पर अींगोछा रखे, हाथ में मोटा-सा सोटा लिये द्वार पर आकर बैठ गये। घर के
जमीींदार हैं, पर ककसी ने उनके शरीर मे लमजई तक नहीीं दे खी। उन्हें इतना अवकाश ही नहीीं कक अपने शरीर-
पािन की ओर ध्यान दे । इस मींडि में आठ-दस कोस तक के िोग उन पर ववश्वास करते हैं। न वे हकीम
को िाने, न डाक्टर को। उनके हकीम-डाक्टर जो कुछ हैं वे ददहिरू ाय है । सन्दे शा सन
ु ते ही आकर द्वार पर
बैठ गये। डाक्टरों की भानत नहीीं की प्रथम सवारी मागें गे- वह भी तेज क्जसमें उनका समय नष्ट न हो।
आपके घर ऐसे बैठे रहें ग,े मानों गूगें का गुड खा गये हैं। रोगी को दे खने जायेंगे तो इस प्रकार भागें गे मानो
कमरे की वायु में ववष भरा हुआ है । रोग पररचय और औषधध का उपचार केवि दो लमनट में समाप्त।
ददहिरू ाय डाक्टर नहीीं हैं- पर क्जतने मनष्ु यों को उनसे िाभ पहुचता हैं, उनकी सींख्या का अनम ु ान करना
कदठन है । वह सहानभ ु नू त की मनू तम है। उन्हें दे खते ही रे गी का आधा रोग दरू हो जाता है । उनकी औषधधया
ऐसी सग
ु म और साधारण होती हैं कक बबना पैसा-कौडी मनों बटोर िाइए। तीन ही ददन में माधवी चिने-
कफरने िगी। वस्तत
ु : उस वैद्य की औषधध में चमत्कार है ।
यहा इन ददनों मग
ु लिये ऊधम मचा रहे हैं। ये िोग जाडे में कपडे उधार दे दे ते हैं और चैत में दाम
वसि
ू करते हैं। उस समय कोई बहाना नहीीं सन
ु ते। गािी-गिौज मार-पीट सभी बातों पर उतरा आते हैं। दो-
तीन मनष्ु यों को बहुत मारा। राधा ने भी कुछ कपडे लिये थे। उनके द्वार पर जाक सब-के-सब गालिया दे ने
िगे। तुिसा ने भीतर से ककवाड बन्द कर ददये। जब इस प्रकार बस न चिा, तो एक मोहनी गाय को खटेू
से खोिकर खीींचते हुए िे चिा। इतने मीं राधा दरू से आता ददखाई ददया। आते ही आते उसने िाठी का वह
हाथ मारा कक एक मग ु लिये की किाई िटक पडी। तब तो मग ु लिये कुवपत हुए, पैंतरे बदिने िगे। राधा भी
जान पर खेन गया और तीन दष्ु टों को बेकार कर ददया। इतने काशी भर ने आकर एक मग
ु लिये की खबर
िी। ददहिरू ाय को मग
ु ालियों से धचढ़ है । सालभमान कहा करते हैं कक मैंने इनके इतने रुपये डुबा ददये इतनों
को वपटवा ददया कक क्जसका दहसाब नहीीं। यह कोिाहि सन ु ते ही वे भी पहुच गये। कफर तो सैकडो मनष्ु य
िादठया िे-िेकर दौड पडे। उन्होंने मग
ु लियों की भिी-भानत सेवा की। आशा है कक इधर आने का अब साहस
न होगा।
अब तो मइ का मास भी बीत गया। क्यों अभी छुट्टी नहीीं हुई ? रात-ददन तम्हारे आने की प्रतीक्षा
है । नगर में बीमारी कम हो गई है । हम िोग बह
ु त शीघ्र यह से चिे जायगे। शोक ! तुम इस गाव की सैर
न कर सकोगे।
तुम्हारी
ववरजन
प्रतापचन्द्र और कमलाचरण
द:ु ख-दशा
सौभाग्यवती स्त्री के लिए उसक पनत सींसार की सबसे प्यारी वस्तु होती है । वह उसी के लिए जीती
और मारती है । उसका हसना-बोिना उसी के प्रसन्न करने के लिए और उसका बनाव-श्रींग
ृ ार उसी को िभ
ु ाने
के लिए होता है । उसका सोहाग जीवन है और सोहाग का उठ जाना उसके जीवन का अन्त है।
कमिाचरण की अकाि-मत्ृ यु वज
ृ रानी के लिए मत्ृ यु से कम न थी। उसके जीवन की आशाए और
उमींगे सब लमट्टी मे लमि गयीीं। क्या-क्या अलभिाषाए थीीं और क्या हो गय? प्रनत-क्षण मत
ृ कमिाचरण का
धचत्र उसके नेत्रों में भ्रमण करता रहता। यदद थोडी दे र के लिए उसकी ऑखें झपक जातीीं, तो उसका स्वरुप
साक्षात नेत्रों कें सम्मख
ु आ जाता।
ककसी-ककसी समय में भौनतक त्रय-तापों को ककसी ववशेष व्यक्क्त या कुटुम्ब से प्रेम-सा हो जाता है ।
कमिा का शोक शान्त भी न हुआ था बाबू श्यामाचरण की बारी आयी। शाखा-भेदन से वक्ष ृ को मरु झाया
हुआ न दे खकर इस बार दद
ु े व ने मि
ू ही काट डािा। रामदीन पाडे बडा दीं भी मनष्ु य था। जब तक डडप्टी
साहब मझगाव में थे, दबका बैठा रहा, परन्तु जयोंही वे नगर को िौटे , उसी ददन से उसने उल्पात करना
आरम्भ ककया। सारा गाव–का-गाव उसका शत्रु था। क्जस दृक्ष्ट से मझगाव वािों ने होिी के ददन उसे दे खा,
वह दृक्ष्ट उसके हृदय में काटे की भानत खटक रही थी। क्जस मण्डि में माझगाव क्स्थत था, उसके थानेदार
साहब एक बडे घाघ और कुशि ररश्वती थे। सहस्रों की रकम पचा जायें, पर डकार तक न िें। अलभयोग
बनाने और प्रमाण गढ़ने में ऐसे अभ्यस्त थे कक बाट चिते मनष्ु य को फास िें और वह कफर ककसी के
छुडाये न छूटे । अधधकार वगम उसक हथकण्डों से ववज्ञ था, पर उनकी चतरु ाई और कायमदक्षता के आगे ककसी
का कुछ बस न चिता था। रामदीन थानेदार साहब से लमिा और अपने हृद्रोग की औषधध मागी। उसक एक
सप्ताह पश्चात ् मझगाव में डाका पड गया। एक महाजन नगर से आ रहा था। रात को नम्बरदार के यहा
ठहरा। डाकुओीं ने उसे िौटकर घर न जाने ददया। प्रात:काि थानेदार साहब तहकीकात करने आये और एक
ही रस्सी में सारे गाव को बाधकर िे गये।
दै वात ् मक
ु दमा बाबू श्यामाचारण की इजिास में पेश हुआ। उन्हें पहिे से सारा कच्चा-धचट्ठा ववददत
था और ये थानेदार साहब बहुत ददनों से उनकी आींखों पर चढ़े हुए थे। उन्होंने ऐसी बाि की खाि ननकािी
की थानेदार साहब की पोि खि
ु गयी। छ: मास तक अलभयोग चिा और धम
ू से चिा। सरकारी वकीिों ने
बडे-बडे उपाय ककये परन्तु घर के भेदी से क्या नछप सकता था? फि यह हुआ कक डडप्टी साहब ने सब
अलभयक्ु तों को बेदाग छोड ददया और उसी ददन सायींकाि को थानेदार साहब मअ
ु त्ति कर ददये गये।
जब डडप्टी साहब फैसिा सन
ु ाकर िौटे , एक दहतधचन्तक कममचारी ने कहा- हुजूर, थानेदार साहब से
सावधान रदहयेगा। आज बहुत झल्िाया हुआ था। पहिे भी दो-तीन अफसरों को धोखा दे चक ु ा है । आप पर
अवश्य वार करे गा। डडप्टी साहब ने सन
ु ा और मस्
ु कराकर उस मन
ु ष्य को धन्यवाद ददया; परन्तु अपनी रक्षा
के लिए कोई ववशेष यत्न न ककया। उन्हें इसमें अपनी भीरुता जान पडती थी। राधा अहीर बडा अनरु ोध
करता रहा कक मै। आपके सींग रहूगा, काशी भर भी बहुत पीछे पडा रहा ; परन्तु उन्होंने ककसी को सींग न
रखा। पदहिे ही की तरह अपना काम करते रहे ।
जालिम खा बात का धनी था, वह जीवन से हाथ धोकर बाबू श्यामाचरण के पीछे पड गया। एक ददन
वे सैर करके लशवपरु से कुछ रात गये िौट रहे थे पागिखाने के ननकट कुछ कफदटन का घोडा बबदकाीं गाडी
रुक गयी और पिभर में जालिम खा ने एक वक्ष ृ की आड से वपस्तौि चिायी। पडाके का शब्द हुआ और
बाबू श्यामाचरण के वक्षस्थि से गोिी पार हो गयी। पागिखाने के लसपाही दौडे। जालिम खा पकड लिय
गया, साइस ने उसे भागने न ददया था।
इस दघ
ु ट
म नाओीं ने उसके स्वभाव और व्यवहार में अकस्मात्र बडा भारी पररवतमन कर ददया। बात-बात
पर ववरजन से धचढ़ जाती और कटूक्क्त्तयों से उसे जिाती। उसे यह भ्रम हो गया कक ये सब आपावत्तया इसी
बहू की िायी हई है । यही अभाधगन जब से घर आयी, घर का सत्यानाश हो गया। इसका पौरा बहुत ननकृष्ट
है । कई बार उसने खि ु कर ववरजन से कह भी ददया कक-तम्
ु हारे धचकने रुप ने मझ
ु े ठग लिया। मैं क्या
जानती थी कक तुम्हारे चरण ऐसे अशभ
ु हैं ! ववरजन ये बातें सन
ु ती और किेजा थामकर रह जाती। जब
ददन ही बरु े आ गये, तो भिी बातें क्योंकर सन
ु ने में आयें। यह आठों पहर का ताप उसे द:ु ख के आींसू भी न
मन का प्राबल्य
मानव हृदय एक रहस्यमय वस्तु है । कभी तो वह िाखों की ओर ऑख उठाकर नहीीं दे खता और कभी
कौडडयों पर कफसि पडता है । कभी सैकडों ननदम षों की हत्या पर आह ‘तक’ नहीीं करता और कभी एक बच्चे
को दे खकर रो दे ता है। प्रतापचन्द्र और कमिाचरण में यद्यवप सहोदर भाइयों का-सा प्रेम था, तथावप कमिा
की आकक्स्मक मत्ृ यु का जो शोक चादहये वह न हुआ। सन ु कर वह चौंक अवश्य पडा और थोडी दे र के लिए
उदास भी हुआ, पर शोक जो ककसी सच्चे लमत्र की मत्ृ यु से होता है उसे न हुआ। ननस्सींदेह वह वववाह के पव
ू म
ही से ववरजन को अपनी समझता था तथावप इस ववचार में उसे पण ू म सफिता कभी प्राप्त न हुई। समय-
समय पर उसका ववचार इस पववत्र सम्बन्ध की सीमा का उल्िींघन कर जाता था। कमिाचरण से उसे स्वत:
कोई प्रेम न था। उसका जो कुछ आदर, मान और प्रेम वह करता था, कुछ तो इस ववचार से कक ववरजन
सन
ु कर प्रसन्न होगी और इस ववचार से कक सश
ु ीि की मत्ृ यु का प्रायक्श्चत इसी प्रकार हो सकता है । जब
ववरजन ससरु ाि चिी आयी, तो अवश्य कुछ ददनों प्रताप ने उसे अपने ध्यान में न आने ददया, परन्तु जब से
वह उसकी बीमारी का समाचार पाकर बनारस गया था और उसकी भें ट ने ववरजन पर सींजीवनी बट
ू ी का
काम ककया था, उसी ददन से प्रताप को ववश्वास हो गया था कक ववरजन के हृदय में कमिा ने वह स्थान
नहीीं पाया जो मेरे लिए ननयत था।
प्रताप ने ववरजन को परम करणापण
ू म शोक-पत्र लिखा पर पत्र लिख्ता जाता था और सोचता जाता था
कक इसका उस पर क्या प्रभाव होगा? सामान्यत: समवेदना प्रेम को प्रौढ़ करती है। क्या आश्चयम है जो यह
पत्र कुछ काम कर जाय? इसके अनतररक्त उसकी धालममक प्रवनृ त ने ववकृत रुप धारण करके उसके मन में
यह लमथ्या ववचार उत्पन्न ककया कक ईश्वर ने मेरे प्रेम की प्रनतष्ठा की और कमिाचरण को मेरे मागम से
हटा ददया, मानो यह आकाश से आदे श लमिा है कक अब मैं ववरजन से अपने प्रेम का परु स्कार ि।ू प्रताप यह
जो जानता था कक ववरजन से ककसी ऐसी बात की आशा करना, जो सदाचार और सभ्यता से बाि बराबर भी
हटी हुई हो, मख ू त
म ा है। परन्तु उसे ववश्वास था कक सदाचार और सतीत्व के सीमान्तगमत यदद मेरी कामनाए
परू ी हो सकें, तो ववरजन अधधक समय तक मेरे साथ ननदम यता नहीीं कर सकती।
एक मास तक ये ववचार उसे उद्ववग्न करते रहे । यहा तक कक उसके मन में ववरजन से एक बार
गप्ु त भें ट करने की प्रबि इच्छा भी उत्पन्न हुई। वह यह जानता था कक अभी ववरजन के हृदय पर
तात्कालिकघव है और यदद मेरी ककसी बात या ककसी व्यवहार से मेरे मन की दश्ु चेष्टा की गन्ध ननकिी, तो
मैं ववरजन की दृक्ष्ट से हमश के लिए धगर जाऊगा। परन्तु क्जस प्रकार कोई चोर रुपयों की रालश दे खकर
धैयम नहीीं रख सकता है , उसकी प्रकार प्रताप अपने मन को न रोक सका। मनष्ु य का प्रारब्ध बहुत कुछ
अवसर के हाथ से रहता है। अवसर उसे भिा नहीीं मानता है और बरु ा भी। जब तक कमिाचरण जीववत था,
प्रताप के मन में कभी इतना लसर उठाने को साहस न हुआ था। उसकी मत्ृ यु ने मानो उसे यह अवसर दे
ददया। यह स्वाथमपता का मद यहा तक बढ़ा कक एक ददन उसे ऐसाभस होने िगा, मानों ववरजन मझ ु े स्मरण
कर रही है। अपनी व्यग्रता से वह ववरजन का अनम
ु ान करे न िगा। बनारस जाने का इरादा पक्का हो गया।
दो बजे थे। राबत्र का समय था। भयावह सन्नाटा छाया हुआ था। ननद्रा ने सारे नगर पर एक घटाटोप
चादर फैिा रखी थी। कभी-कभी वक्ष ृ ों की सनसनाहट सन
ु ायी दे जाती थी। धआ ु ीं और वक्ष
ृ ों पर एक कािी
चद्दर की भानत लिपटा हुआ था और सडक पर िािटे नें धऍ ु ीं की कालिमा में ऐसी दृक्ष्ट गत होती थीीं जैसे
बादि में नछपे हुए तारे । प्रतापचन्द्र रे िगाडी पर से उतरा। उसका किेजा बाींसों उछि रहा था और हाथ-पाव
काप रहे थे। वह जीवन में पहिा ही अवसर था कक उसे पाप का अनभ ु व हुआ! शोक है कक हृदय की यह
दशा अधधक समय तक क्स्थर नहीीं रहती। वह दग
ु न्
म ध-मागम को परू ा कर िेती है । क्जस मनष्ु य ने कभी मददरा
नहीीं पी, उसे उसकी दग
ु न्
म ध से घण
ृ ा होती है । जब प्रथम बार पीता है, तो घण्टें उसका मख
ु कडवा रहता है
और वह आश्चयम करता है कक क्यों िोग ऐसी ववषैिी और कडवी वस्तु पर आसक्त हैं। पर थोडे ही ददनों में
उसकी घण
ृ ा दरू हो जाती है और वह भी िाि रस का दास बन जाता है। पाप का स्वाद मददरा से कहीीं
अधधक भींयकर होता है ।
प्रतापचन्द्र अींधेरे में धीरे -धीरे जा रहा था। उसके पाव पेग से नहीीं उठते थे क्योंकक पाप ने उनमें
बेडडया डाि दी थी। उस आहिाद का, जो ऐसे अवसर पर गनत को तीव्र कर दे ता है, उसके मख
ु पर कोई
िक्षण न था। वह चिते-चिते रुक जाता और कुछ सोचकर आगे बढ़ता था। प्रेत उसे पास के खड्डे में कैसा
लिये जाता है?
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प्रताप का लसर धम-धम कर रहा था और भय से उसकी वपींडलिया काप रही थीीं। सोचता-ववचारता
घण्टे भर में मन्
ु शी श्यामाचरण के ववशाि भवन के सामने जा पहुचा। आज अन्धकार में यह भवन बहुत ही
भयावह प्रतीत होता था, मानो पाप का वपशाच सामने खडा है । प्रताप दीवार की ओट में खडा हो गया, मानो
ककसी ने उसक पाव बाध ददये हैं। आध घण्टे तक वह यही सोचता रहा कक िौट चिू या भीतर जाऊ? यदद
ककसी ने दे ख लिया बडा ही अनथम होगा। ववरजन मझ
ु े दे खकर मन में क्या सोचेगी? कहीीं ऐसा न हो कक
मेरा यह व्यवहार मझ
ु े सदा के लिए उसकी द्क्ष्ट से धगरा दे । परन्तु इन सब सन्दे हों पर वपशाच का
आकषमण प्रबि हुआ। इक्न्द्रयों के वश में होकर मनष्ु य को भिे-बरु े का ध्यान नहीीं रह जाता। उसने धचत्त को
दृढ़ ककया। वह इस कायरता पर अपने को धधक्कार दे ने िगा, तदन्तर घर में पीछे की ओर जाकर वादटका
की चहारदीवारी से फाद गया। वादटका से घर जाने के लिए एक छोटा-सा द्वार था। दै वयेग से वह इस
समय खि ु ा हुआ था। प्रताप को यह शकुन-सा प्रतीत हुआ। परन्तु वस्तत
ु : यह अधमम का द्वार था। भीतर
जाते हुए प्रताप के हाथ थरामने िगे। हृदय इस वेग से धडकता था; मानो वह छाती से बाहर ननकि पडेगा।
उसका दम घट
ु रहा था। धमम ने अपना सारा बि िगा ददया। पर मन का प्रबि वेग न रुक सका। प्रताप
द्वार के भीतर प्रववष्ट हुआ। आींगन में तुिसी के चबत
ू रे के पास चोरों की भानत खडा सोचने िगा कक
ववरजन से क्योंकर भें ट होगी? घर के सब ककवाड बन्द है ? क्या ववरजन भी यहा से चिी गयी? अचानक
उसे एक बन्द दरवाजे की दरारों से प्रेकाश की झिक ददखाई दी। दबे पाव उसी दरार में ऑ ींखें िगाकर भीतर
का दृश्य दे खने िगा।
ववरजन एक सफेद साडी पहिे, बाि खोिे, हाथ में िेखनी लिये भलू म पर बैठी थी और दीवार की ओर
दे ख-दे खकर कागेज पर लिखती जाती थी, मानो कोई कवव ववचार के समद्र
ु से मोती ननकाि रहा है । िखनी
दातों तिे दबाती, कुछ सोचती और लिखती कफर थोडी दे र के पश्चात ् दीवार की ओर ताकने िगती। प्रताप
बहुत दे र तक श्वास रोके हुए यह ववधचत्र दृश्य दे खता रहा। मन उसे बार-बार ठोकर दे ता, पर यह धमम का
अक्न्तम गढ़ था। इस बार धमम का पराक्जत होना मानो हृदाम में वपशाच का स्थान पाना था। धमम ने इस
समय प्रताप को उस खड्डे में धगरने से बचा लिया, जहा से आमरण उसे ननकिने का सौभाग्य न होता।
वरन ् यह कहना उधचत होगा कक पाप के खड्डे से बचानेवािा इस समय धमम न था, वरन ् दष्ु पररणाम और
िजजा का भय ही था। ककसी-ककसी समय जब हमारे सदभाव पराक्जत हो जाते हैं, तब दष्ु पररणाम का भय
ही हमें कत्तमव्यच्यत
ु होने से बचा िेता है । ववरजन को पीिे बदन पर एक ऐसा तेज था, जो उसके हृदय की
स्वच्छता और ववचार की उच्चता का पररचय दे रहा था। उसके मख
ु मण्डि की उजजविता और दृक्ष्ट की
पववत्रता में वह अक्ग्न थी ; क्जसने प्रताप की दश्ु चेष्टाओीं को क्षणमात्र में भस्म कर ददया ! उसे ज्ञान हो गया
और अपने आक्त्मक पतन पर ऐसी िजजा उत्पन्न हुई कक वहीीं खडा रोने िगा।
इक्न्द्रयों ने क्जतने ननकृष्ट ववकार उसके हृदय में उत्पन्न कर ददये थे, वे सब इस दृश्य ने इस प्रकार
िोप कर ददये, जैसे उजािा अींधरे े को दरू कर दे ता है। इस समय उसे यह इच्छा हुई कक ववरजन के चरणों
पर धगरकर अपने अपराधों की क्षमा मागे। जैसे ककसी महात्मा सींन्यासी के सम्मखु जाकर हमारे धचत्त की
दशा हो जाती है , उसकी प्रकार प्रताप के हृदय में स्वत: प्रायक्श्चत के ववचार उत्पन्न हुए। वपशाच यहा तक
िाया, पर आगे न िे जा सका। वह उिटे पावों कफरा और ऐसी तीव्रता से वादटका में आया और चाहरदीवारी
से कूछा, मानो उसका कोई पीछा करता है ।
अरूणोदय का समय हो गया था, आकाश मे तारे खझिलमिा रहे थे और चक्की का घरु -घरु शब्द
कमणगोचर हो रहा था। प्रताप पाव दबाता, मनष्ु यों की ऑ ींखें बचाता गींगाजी की ओर चिा। अचानक उसने
लसर पर हाथ रखा तो टोपी का पता न था और जेब जेब में घडी ही ददखाई दी। उसका किेजा सन्न-से हो
गया। मह
ु ॅ से एक हृदय-वेधक आह ननकि पडी।
कभी-कभी जीवन में ऐसी घटनाए हो जाती है, जो क्षणमात्र में मनष्ु य का रुप पिट दे ती है। कभी
माता-वपता की एक नतरछी धचतवन पत्र ु को सय ु श के उच्च लशखर पर पहुचा दे ती है और कभी स्त्री की एक
लशक्षा पनत के ज्ञान-चक्षुओीं को खोि दे ती है। गवमशीि परुु ष अपने सगों की दृक्ष्टयों में अपमाननत होकर
सींसार का भार बनना नहीीं चाहते। मनष्ु य जीवन में ऐसे अवसर ईश्वरदत्त होते हैं। प्रतापचन्द्र के जीवन में
भी वह शभु अवसर था, जब वह सींकीणम गलियों में होता हुआ गींगा ककनारे आकर बैठा और शोक तथा
िजजा के अश्रु प्रवादहत करने िगा। मनोववकार की प्रेरणाओीं ने उसकी अधोगनत में कोई कसर उठा न रखी
थी परन्तु उसके लिए यह कठोर कृपािु गुरु की ताडना प्रमाखणत हुई। क्या यह अनभ
ु वलसद्व नहीीं है कक
ववष भी समयानस ु ार अमत
ृ का काम करता है ?
विदष
ु ी िज
ृ रानी
जब से मींश
ु ी सींजीवनिाि तीथम यात्रा को ननकिे और प्रतापचन्द्र प्रयाग चिा गया उस समय से
सव
ु ामा के जीवन में बडा अन्तर हो गया था। वह ठे के के कायम को उन्नत करने िगी। मींश
ु ी सींजीवनिाि के
समय में भी व्यापार में इतनी उन्ननत नहीीं हुई थी। सव ु ामा रात-रात भर बैठी ईंट-पत्थरों से माथा िडाया
करती और गारे -चन
ू े की धचींता में व्याकुि रहती। पाई-पाई का दहसाब समझती और कभी-कभी स्वयीं कुलियों
के कायम की दे खभाि करती। इन कायो में उसकी ऐसी प्रवनृ त हुई कक दान और व्रत से भी वह पहिे का-सा
प्रेम न रहा। प्रनतददन आय वद्
ृ वव होने पर भी सव
ु ामा ने व्यय ककसी प्रकार का न बढ़ाया। कौडी-कौडी दातो
से पकडती और यह सब इसलिए कक प्रतापचन्द्र धनवान हो जाए और अपने जीवन-पयमन्त सान्नद रहे ।
सव
ु ामा को अपने होनहार पत्र
ु पर अलभमान था। उसके जीवन की गनत दे खकर उसे ववश्वास हो गया
था कक मन में जो अलभिाषा रखकर मैंने पत्र
ु मागा था, वह अवश्य पण
ू म होगी। वह कािेज के वप्रींलसपि और
प्रोफेसरों से प्रताप का समाचार गप्ु त रीनत से लिया करती थी ओर उनकी सच
ू नाओीं का अध्ययन उसके लिए
एक रसेचक कहानी के तल्ु य था। ऐसी दशा में प्रयाग से प्रतापचन्द्र को िोप हो जाने का तार पहुचा मानों
उसके हुदय पर वज्र का धगरना था। सव
ु ामा एक ठण्डी सासे िे, मस्तक पर हाथ रख बैठ गयी। तीसरे ददन
प्रतापचन्द्र की पस्
ु त, कपडे और सामधग्रया भी आ पहुची, यह घाव पर नमक का नछडकाव था।
प्रेमवती के मरे का समाचार पाते ही प्राणनाथ पटना से और राधाचरण नैनीताि से चिे। उसके जीते-
जी आते तो भें ट हो जाती, मरने पर आये तो उसके शव को भी दे खने को सौभाग्य न हुआ। मत ृ क-सींस्कार
बडी धम
ू से ककया गया। दो सप्ताह गाव में बडी धम
ू -धाम रही। तत्पश्चात ् मरु ादाबाद चिे गये और प्राणनाथ
ने पटना जाने की तैयारी प्रारम्भ कर दी। उनकी इच्छा थी कक स्त्रीको प्रयाग पहुचाते हुए पटना जाय। पर
सेवती ने हठ ककया कक जब यहा तक आये हैं, तो ववरजन के पास भी अवश्य चिना चादहए नहीीं तो उसे
बडा द:ु ख होगा। समझेगी कक मझ
ु े असहाय जानकर इन िोगों ने भी त्याग ददया।
सेवती का इस उचाट भवन मे आना मानो पष्ु पों में सग
ु न्ध में आना था। सप्ताह भर के लिए सदु दन
का शभ ु ागमन हो गया। ववरजन बहुत प्रसन्न हुई और खूब रोयी। माधवी ने मन्
ु नू को अींक में िेकर बहुत
प्यार ककया।
प्रेमवती के चिे जाने पर ववरजन उस गह
ृ में अकेिी रह गई थी। केवि माधवी उसके पास थी। हृदय-
ताप और मानलसक द:ु ख ने उसका वह गुण प्रकट कर ददया, जा अब तक गप्ु त था। वह काव्य और पद्य-
रचना का अभ्यास करने िगी। कववता सच्ची भावनाओीं का धचत्र है और सच्ची भावनाए चाहे वे द:ु ख हों या
सख
ु की, उसी समय सम्पन्न होती हैं जब हम द:ु ख या सख
ु का अनभ
ु व करते हैं। ववरजन इन ददनों रात-
रात बैठी भाष में अपने मनोभावों के मोनतयों की मािा गथा
ू करती। उसका एक-एक शब्द करुणा और
वैराग्य से पररवण
ू म होता थाीं अन्य कववयों के मनों में लमत्रों की वहा-वाह और काव्य-प्रेनतयों के साधव
ु ाद से
उत्साह पैदा होता है , पर ववरजन अपनी द:ु ख कथा अपने ही मन को सन
ु ाती थी।
सेवती को आये दो- तीन ददन बीते थे। एक ददन ववरजन से कहा- मैं तुम्हें बहुधा ककसी ध्यान में
मग्न दे खती हू और कुछ लिखते भी पाती हू। मझ
ु े न बताओगी? ववरजन िक्जजत हो गयी। बहाना करने
िगी कक कुछ नहीीं, यों ही जी कुछ उदास रहता है । सेवती ने कहा-मैंन मानगी।
ू कफर वह ववरजनका बाक्स
उठा िायी, क्जसमें कववता के ददव्य मोती रखे हुए थे। वववश होकर ववरजन ने अपने नय पद्य सन
ु ाने शरु
ु
ककये। मख
ु से प्रथम पद्य का ननकिना था कक सेवती के रोए खडे हो गये और जब तक सारा पद्य समाप्त
न हुआ, वह तन्मय होकर सन
ु ती रही। प्राणनाथ की सींगनत ने उसे काव्य का रलसक बना ददया था। बार-बार
माधिी
जब से वजृ रानी का काव्य–चन्द्र उदय हुआ, तभी से उसके यहाीं सदै व मदहिाओीं का जमघट िगा
रहता था। नगर मे स्त्रीयों की कई सभाएीं थी उनके प्रबींध का सारा भार उसी को उठाना पडता था। उसके
अनतररक्त अन्य नगरों से भी बहुधा स्त्रीयों उससे भें ट करने को आती रहती थी जो तीथमयात्रा करने के लिए
काशी आता, वह ववरजन से अवरश्य लमिता। राज धममलसींह ने उसकी कववताओीं का सवािंग –सन् ु दर सींग्रह
प्रकालशत ककया था। उस सींग्रह ने उसके काव्य–चमत्कार का डींका, बजा ददया था। भारतवषम की कौन
कहे , यरू ोप और अमेररका के प्रनतक्ष्ठत कववयों ने उसे उनकी काव्य मनोहरता पर धन्यवाद ददया था।
भारतवषम में एकाध ही कोई रलसक मनष्ु य रहा होगा क्जसका पस्
ु तकािय उसकी पस्
ु तक से सश
ु ोलभत न
होगा। ववरजन की कववताओीं को प्रनतष्ठा करने वािों मे बािाजी का पद सबसे ऊींचा था। वे अपनी
प्रभावशालिनी वक्तत
ृ ाओीं औरिेखों में बहुधा उसी के वाक्यों का प्रमाण ददया करते थे। उन्होंने
‘सरस्वती’ में एक बार उसके सींग्रह की सववस्तार समािोचना भी लिखी थी।
एक ददन प्रात: काि ही सीता, चन्द्रकींु वरी ,रुकमणी और रानी ववरजन के घर आयीीं। चन्द्रा ने इन
लसत्र्यों को फींशम पर बबठाया और आदर सत्कार ककया। ववरजन वहाीं नहीीं थी क्योंकक उसने प्रभात का
समय काव्य धचन्तन के लिए ननयत कर लिया था। उस समय यह ककसी आवश्यक कायम के अनतररक्त ्
सखखयों से लमिती–जि
ु ती नहीीं थी। वादटका में एक रमणीक कींु ज था। गि
ु ाब की सगक्न्धत से सरु लभत वायु
चिती थी। वहीीं ववरजन एक लशिायन पर बैठी हुई काव्य–रचना ककया करती थी। वह काव्य रुपी समद्र ु
से क्जन मोनतयों को ननकािती, उन्हें माधवी िेखनी की मािा में वपरों लिया करती थी। आज बहुत ददनों के
बाद नगरवालसयों के अनरु ोध करने पर ववरजन ने बािाजी की काशी आने का ननमींत्रण दे ने के लिए िेखनी
को उठाया था। बनारस ही वह नगर था, क्जसका स्मरण कभी–कभी बािाजी को व्यग्र कर ददया करता था।
ककन्तु काशी वािों के ननरीं तर आग्रह करने पर भी उनहें काशी आने का अवकाश न लमिता था। वे लसींहि
और रीं गून तक गये, परन्तु उन्होनें काशी की ओर मख
ु न फेरा इस नगर को वे अपना परीक्षा भवन
समझते थे। इसलिए आज ववरजन उन्हें काशी आने का ननमींत्रण दे रही हैं। िोगें का ववचार आ जाता है ,
तो ववरजन का चन्द्रानन चमक उठता है , परन्तु इस समय जो ववकास और छटा इन दोनों पष्ु पों पर है, उसे
दे ख-दे खकर दरू से फूि िक्जजत हुए जाते हैं।
नौ बजते –बजते ववरजन घर में आयी। सेवती ने कहा– आज बडी दे र िगायी।
ववरजन – कुन्ती ने सय
ू म को बि
ु ाने के लिए ककतनी तपस्या की थी।
सीता – बािा जी बडे ननष्ठूर हैं। मैं तो ऐसे मनष्ु य से कभी न बोिीं।ू
रुकलमणी- क्जसने सींन्यास िे लिया, उसे घर–बार से क्या नाता?
चन्द्रकुवरर– यहाीं आयेगें तो मैं मख
ु पर कह दीं ग
ू ी कक महाशय, यह नखरे कहाीं सीखें ?
रुकमणी – महारानी। ऋवष-महात्माओीं का तो लशष्टाचार ककया करों क्जह्रवा क्या है कतरनी है ।
चन्द्रकुवरर– और क्या, कब तक सन्तोष करें जी। सब जगह जाते हैं, यहीीं आते पैर थकते हैं।
ववरजन– (मस्
ु कराकर) अब बहुत शीघ्र दशमन पाओगें । मझ
ु े ववश्वास है कक इस मास में वे अवश्य
आयेगें।
सीता– धन्य भाग्य कक दशमन लमिेगें। मैं तो जब उनका वत
ृ ाींत पढती हूीं यही जी चाहता हैं कक पाऊीं
तो चरण पकडकर घण्टों रोऊ।
रुकमणी – ईश्वर ने उनके हाथों में बडा यश ददया। दारानगर की रानी सादहबा मर चक
ु ी थी साींस टूट
रही थी कक बािाजी को सच ू ना हुई। झट आ पहुींचे और क्षण–मात्र में उठाकर बैठा ददया। हमारे मश
ींु ीजी
(पनत) उन ददनों वहीीं थें। कहते थे कक रानीजी ने कोश की कींु जी बािाजी के चरणों पर रख दी ओर कहा–
‘आप इसके स्वामी हैं’। बािाजी ने कहा–‘मझ
ु े धन की आवश्यक्ता नहीीं अपने राजय में तीन सौ गौशिाएीं
खि
ु वा दीक्जयें’। मख
ु से ननकिने की दे र थी। आज दारानगर में दध
ू की नदी बहती हैं। ऐसा महात्मा कौन
होगा।
चन्द्रकुवींरर – राजा नविखा का तपेददक उन्ही की बदू टयों से छूटा। सारे वैद्य डाक्टर जवाब दे चक
ु े
थे। जब बािाजी चिने िगें , तो महारानी जी ने नौ िाख का मोनतयों का हार उनके चरणों पर रख ददया।
बािाजी ने उसकी ओर दे खा तक नहीीं।
रानी – कैसे रुखे मनष्ु य हैं।
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रुकमणी - ह , और क्या, उन्हें उधचत था कक हार िे िेत–े नहीीं –नहीीं कण्ठ में डाि िेते।
ववरजन – नहीीं, िेकर रानी को पदहना दे ते। क्यों सखी?
रानी – हाीं मैं उस हार के लिए गि
ु ामी लिख दे ती।
चन्द्रकींु वरर – हमारे यह (पनत) तो भारत–सभा के सभ्य बैठे हैं ढाई सौ रुपये िाख यत्न करके रख
छोडे थे, उन्हें यह कहकर उठा िे गये कक घोडा िेंगें। क्या भारत–सभावािे बबना घोडे के नहीीं चिते?
रानी–कि ये िोग श्रेणी बाींधकर मेरे घर के सामने से जा रहे थे,बडे भिे मािम
ू होते थे।
इतने ही में सेवती नवीन समाचार–पत्र िे आयी।
ववरजन ने पछ
ू ा – कोई ताजा समाचार है ?
सेवती–हाीं, बािाजी माननकपरु आये हैं। एक अहीर ने अपनी पत्र
ु ् के वववाह का ननमींत्रण भेजा था। उस
पर प्रयाग से भारतसभा के सभ्यों दहत रात को चिकर माननकपरु पहुींच।े अहीरों ने बडे उत्साह और समारोह
के साथ उनका स्वागत ककया है और सबने लमिकर पाींच सौ गाएीं भें ट दी हैं बािाजी ने वधू को आशीवामरद
ददया ओर दल्
ु हे को हृदय से िगाया। पाींच अहीर भारत सभा के सदस्य ननयत हुए।
ववरजन-बडे अच्छे समाचार हैं। माधवी, इसे काट के रख िेना। और कुछ?
सेवती- पटना के पालसयों ने एक ठाकुदद्वारा बनवाया हैं वहा की भारतसभा ने बडी धम
ू धाम से उत्स्व
ककया।
ववरजन – पटना के िोग बडे उत्साह से कायम कर रहें हैं।
चन्द्रकुवरर– गडूररयाीं भी अब लसन्दरू िगायेंगी। पासी िोग ठाकुर द्वारे बनवायींगें ?
रुकमणी-क्यों, वे मनष्ु य नहीीं हैं ? ईश्वर ने उन्हें नहीीं बनाया। आप हीीं अपने स्वामी की पज
ू ा करना
जानती हैं ?
चन्द्रकुवरर- चिो, हटो, मझ
ु ें पालसयों से लमिाती हो। यह मझ
ु े अच्छा नहीीं िगता।
रुकलमणी – हा, तुम्हारा रीं ग गोरा है न? और वस्त्र-आभष
ू णों से सजी बहुत हो। बस इतना ही अन्तर है
कक और कुछ?
चन्द्रकुवरर- इतना ही अन्तर क्यों हैं? पत्ृ वी आकाश से लमिाती हो? यह मझ
ु े अच्छा नहीीं िगता। मझ
ु े
कछवाहों वींश में हू, कुछ खबर है?
रुक्क्मणी- हा, जानती हू और नहीीं जानती थी तो अब जान गयी। तुम्हारे ठाकुर साहब (पनत) ककसी
पासी से बढकर मल्ि –यद्
ु व करें गें? यह लसफम टे ढी पाग रखना जानते हैं? मैं जानती हूीं कक कोई छोटा –सा
पासी भी उन्हें काख –तिे दबा िेगा।
ववरजन - अच्छा अब इस वववाद को जाने तो। तम
ु दोनों जब आती हो, िडती हो आती हो।
सेवती- वपता और पत्र
ु का कैसा सींयोग हुआ है? ऐसा मािम ु होता हैं कक मींश
ु ी शलिग्राम ने प्रतापचन्द्र
ही के लिए सींन्यास लिया था। यह सब उन्हीीं कर लशक्षा का फि हैं।
रक्क्मणी – हाीं और क्या? मन्
ु शी शलिग्राम तो अब स्वामी िह्रमानन्द कहिाते हैं। प्रताप को दे खकर
पहचान गये होगें ।
सेवती – आनन्द से फूिे न समाये होगें ।
रुक्क्मणी-यह भी ईश्वर की प्रेरणा थी, नहीीं तो प्रतापचन्द्र मानसरोवर क्या करने जाते?
सेवती–ईश्वर की इच्छा के बबना कोई बात होती है ?
ववरजन–तम
ु िोग मेरे िािाजी को तो भि
ू ही गयी। ऋषीकेश में पहिे िािाजी ही से प्रतापचनद्र की
भें ट हुई थी। प्रताप उनके साथ साि-भर तक रहे । तब दोनों आदमी मानसरोवर की ओर चिे।
रुक्क्मणी–हाीं, प्राणनाथ के िेख में तो यह वत
ृ ान्त था। बािाजी तो यही कहते हैं कक मींश
ु ी सींजीवनिाि
से लमिने का सौभाग्य मझ
ु े प्राप्त न होता तो मैं भी माींगने–खानेवािे साधओ
ु ीं में ही होता।
चन्द्रकींु वरर-इतनी आत्मोन्ननत के लिए ववधाता ने पहिे ही से सब सामान कर ददये थे।
सेवती–तभी इतनी–सी अवस्था में भारत के सय ु म बने हुए हैं। अभी पचीसवें वषम में होगें ?
ववरजन – नहीीं, तीसवाीं वषम है । मझ
ु से साि भर के जेठे हैं।
रुक्क्मणी -मैंने तो उन्हें जब दे खा, उदास ही दे खा।
चन्द्रकींु वरर – उनके सारे जीवन की अलभिाषाओीं पर ओींस पड गयी। उदास क्यों न होंगी?
रुक्क्मणी – उन्होने तो दे वीजी से यही वरदान माींगा था।
चन्द्रकींु वरर – तो क्या जानत की सेवा गह
ृ स्थ बनकर नहीीं हो सकती?
प्रेम का स्िप्न
विदाई
दस
ू रे ददन बािाजी स्थान-स्थान से ननवत
ृ होकर राजा धममलसींह की प्रतीक्षा करने िगे। आज राजघाट
पर एक ववशाि गोशािा का लशिारोपण होने वािा था, नगर की हाट-बाट और वीधथया मस् ु काराती हुई जान
पडती थी। सडृक के दोनों पाश्वम में झण्डे और झखणया िहरा रही थीीं। गह
ृ द्वार फूिों की मािा पदहने स्वागत
के लिए तैयार थे, क्योंककआज उस स्वदे श-प्रेमी का शभ
ु गमन है, क्जसने अपना सवमस्व दे श के दहत बलिदान
कर ददया है।
हषम की दे वी अपनी सखी-सहे लियों के सींग टहि रही थी। वायु झम
ू ती थी। द:ु ख और ववषाद का कहीीं
नाम न था। ठौर-ठौर पर बधाइया बज रही थीीं। परु
ु ष सह
ु ावने वस्त्र पहने इठािते थे। स्त्रीया सोिह श्रींग
ृ ार
ककये मींगि-गीत गाती थी। बािक-मण्डिी केसररया साफा धारण ककये किोिें करती थीीं हर परु
ु ष-स्त्री के
मख
ु से प्रसन्नता झिक रही थी, क्योंकक आज एक सच्चे जानत-दहतैषी का शभ
ु गमन है क्जसेने अपना सवमस्व
जानत के दहत में भें ट कर ददया है ।
बािाजी अब अपने सह
ु दों के सींग राजघाट की ओर चिे तो सय
ू म भगवान ने पव
ू म ददशा से ननकिकर
उनका स्वागत ककया। उनका तेजस्वी मख
ु मण्डि जयों ही िोगों ने दे खा सहस्रो मख
ु ों से ‘भारत माता की
जय’ का घोर शब्द सन ु ायी ददया और वायम
ु ींडि को चीरता हुआ आकाश-लशखर तक जा पहुींवा। घण्टों और
शींखों की ध्वनन नननाददत हुई और उत्सव का सरस राग वायु में गजने
ू िगा। क्जस प्रकार दीपक को दे खते
ही पतींग उसे घेर िेते हैं उसी प्रकार बािाजी को दे खकर िोग बडी शीघ्रता से उनके चतदु दमक एकत्र हो गये।
भारत-सभा के सवा सौ सभ्यों ने आलभवादन ककया। उनकी सन्
ु दर वाददम या और मनचिे घोडों नेत्रों में खूब
जाते थे। इस सभा का एक-एक सभ्य जानत का सच्चा दहतैषी था और उसके उमींग-भरे शब्द िोगों के धचत्त
को उत्साह से पण
ू म कर दे ते थें सडक के दोनों ओर दशमकों की श्रेणी थी। बधाइया बज रही थीीं। पष्ु प और
मेवों की वक्ृ ष्ट हो रही थी। ठौर-ठौर नगर की ििनाए श्रींग
ृ ार ककये, स्वणम के थाि में कपरू , फूि और चन्दन
लिये आरती करती जाती थीीं। और दक
ू ाने नवागता वधू की भानत सस
ु क्जजत थीीं। सारा नगेर अपनी सजावट
से वादटका को िक्जजत करता था और क्जस प्रकार श्रावण मास में कािी घटाएीं उठती हैं और रह-रहकर वन
की गरज हृदय को कपा दे ती है और उसी प्रकार जनता की उमींगवद्मवक ध्वनन (भारत माता की जय) हृदय
में उत्साह और उत्तेजना उत्पन्न करती थी। जब बािाजी चौक में पहुचे तो उन्होंने एक अद्भत ु दृश्य दे खा।
बािक-वन्ृ द ऊदे रीं ग के िेसदार कोट पदहने, केसररया पगडी बाधे हाथों में सन्
ु दर छडडया लिये मागम पर खडे
थे। बािाजी को दे खते ही वे दस-दस की श्रेखणयों में हो गये एवीं अपने डण्डे बजाकर यह ओजस्वी गीत गाने
िगे:-
बािाजी तेरा आना मब
ु ारक होवे।
धनन-धनन भाग्य हैं इस नगरी के ; धनन-धनन भाग्य हमारे ।।
धनन-धनन इस नगरी के बासी जहा तब चरण पधारे ।
बािाजी तेरा आना मब
ु ारक होवे।।
कैसा धचत्ताकषमक दृश्य था। गीत यद्यवप साधारण था, परन्तु अनके और सधे हुए स्वरों ने लमिकर उसे
ऐसा मनोहर और प्रभावशािी बना ददया कक पाींव रुक गये। चतदु दमक सन्नाटा छा गया। सन्नाटे में यह राग
ऐसा सह
ु ावना प्रतीत होता था जैसे राबत्र के सन्नाटे में बि
ु बि
ु का चहकना। सारे दशमक धचत्त की भानत खडे
थे। दीन भारतवालसयों, तुमने ऐसे दृश्य कहा दे खे? इस समय जी भरकर दे ख िो। तुम वेश्याओीं के नत्ृ य-
वाद्य से सन्तुष्ट हो गये। वाराींगनाओीं की काम-िीिाए बहुत दे ख चकु े , खूब सैर सपाटे ककये ; परन्तु यह
सच्चा आनन्द और यह सख ु द उत्साह, जो इस समय तुम अनभ ु व कर रहे हो तुम्हें कभी और भी प्राप्त हुआ
था? मनमोहनी वेश्याओीं के सींगीत और सन् ु दररयों का काम-कौतुक तम्
ु हारी वैषनयक इच्छाओीं को उत्तेक्जत
करते है । ककन्तु तुम्हारे उत्साहों को और ननबमि बना दे ते हैं और ऐसे दृश्य तुम्हारे हृदयो में जातीयता और
जानत-अलभमान का सींचार करते हैं। यदद तम
ु ने अपने जीवन मे एक बार भी यह दृश्य दे खा है , तो उसका
पववत्र धचहन तम्
ु हारे हृदय से कभी नहीीं लमटे गा।
बािाजी का ददव्य मख
ु मींडि आक्त्मक आनन्द की जयोनत से प्रकालशत था और नेत्रों से जात्यालभमान
की ककरणें ननकि रही थीीं। क्जस प्रकार कृषक अपने िहिहाते हुए खेत को दे खकर आनन्दोन्मत्त हो जाता है ,
वही दशा इस समय बािाजी की थी। जब रागे बन्द हो गेया, तो उन्होंने कई डग आगे बढ़कर दो छोटे -छोटे
बच्चों को उठा कर अपने कींधों पर बैठा लिया और बोिे, ‘भारत-माता की जय!’
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इस प्रकार शनै: शनै िोग राजघाट पर एकत्र हुए। यहा गोशािा का एक गगनस्पशी ववशाि भवन
स्वागत के लिये खडा था। आगन में मखमि का बबछावन बबछा हुआ था। गह ृ द्वार और स्तींभ फूि-पवत्तयों
से ससु क्जजत खडे थे। भवन के भीतर एक सहस गायें बींधी हुई थीीं। बािाजी ने अपने हाथों से उनकी न दों ॉँ
में खिी-भस ू ा डािा। उन्हें प्यार से थपककय ॉँ दी। एक ववस्तत ृ गह ृ मे सींगमर का अष्टभज
ु कुण्ड बना हुआ
था। वह दध ू से पररवण ू म था। बािाजी ने एक चल् ु िू दध
ू िेकर नेत्रों से िगाया और पान ककया।
अभी आगन में िोग शाक्न्त से बैठने भी न पाये थे कई मनष्ु य दौडे हुए आये और बोि-पक्ण्डत बदिू
शास्त्री, सेठ उत्तमचन्द्र और िािा माखनिाि बाहर खडे कोिाहि मचा रहे हैं और कहते है । कक हमा को
बािाजी से दो-दो बाते कर िेने दो। बदिू शास्त्री काशी के ववख्यात पींक्ण्डत थे। सन्
ु दर चन्द्र-नतिक िगाते,
हरी बनात का अींगरखा पररधान करते औश्र बसन्ती पगडी बाधत थे। उत्तमचन्द्र और माखनिाि दोनों नगर
के धनी और िक्षाधीश मनष्ु ये थे। उपाधध के लिए सहस्रों व्यय करते और मख्
ु य पदाधधकाररयों का सम्मान
और सत्कार करना अपना प्रधान कत्तमव्य जानते थे। इन महापरु
ु षों का नगर के मनष्ु यों पर बडा दबवा था।
बदिू शास्त्री जब कभी शास्त्रीथम करते, तो नन:सींदेह प्रनतवादी की पराजय होती। ववशेषकर काशी के पण्डे और
प्राग्वाि तथा इसी पन्थ के अन्य धालमक्ग्झम तो उनके पसीने की जगह रुधधर बहाने का उद्यत रहते थे।
शास्त्री जी काशी मे दहन्द ू धमम के रक्षक और महान ् स्तम्भ प्रलसद्व थे। उत्मचन्द्र और माखनिाि भी
धालममक उत्साह की मनू तम थे। ये िोग बहुत ददनों से बािाजी से शास्त्राथम करने का अवसर ढूींढ रहे थे। आज
उनका मनोरथ परू ा हुआ। पींडों और प्राग्वािों का एक दि लिये आ पहुचे।
बािाजी ने इन महात्मा के आने का समाचार सन
ु ा तो बाहर ननकि आये। परन्तु यहा की दशा ववधचत्र
पायी। उभय पक्ष के िोग िादठया सभािे अगरखे की बाहें चढाये गथ
ु ने का उद्यत थे। शास्त्रीजी प्राग्वािों
ू ों की धक्जजय ॉँ उडा दो
को लभडने के लिये ििकार रहे थे और सेठजी उच्च स्वर से कह रहे थे कक इन शद्र
ॉँ
अलभयोग चिेगा तो दे खा जाएगा। तुम्हार बाि-ब का न होने पायेगा। माखनिाि साहब गिा फाड-फाडकर
धचल्िाते थे कक ननकि आये क्जसे कुछ अलभमान हो। प्रत्येक को सब्जबाग ददखा दगा।
ू बािाजी ने जब यह
रीं ग दे खा तो राजा धममलसींह से बोिे-आप बदिू शास्त्री को जाकर समझा दीक्जये कक वह इस दष्ु टता को
त्याग दें , अन्यथा दोनों पक्षवािों की हानन होगी और जगत में उपहास होगा सो अिग।
राजा साहब के नेत्रों से अक्ग्न बरस रही थी। बोिे- इस परु
ु ष से बातें करने में अपनी अप्रनतष्ठा
समझता हू। उसे प्राग्वािों के समह
ू ों का अलभमान है परन्तु मै। आज उसका सारा मद चण
ू म कर दे ता हू।
उनका अलभप्राय इसके अनतररक्त और कुछ नहीीं है कक वे आपके ऊपर वार करें । पर जब तक मै। और मरे
ॉँ पत्र
पच ु जीववत हैं तब तक कोई आपकी ओर कुदृक्ष्ट से नहीीं दे ख सकता। आपके एक सींकेत-मात्र की दे र
है । मैं पिक मारते उन्हें इस दष्ु टता का सवाद चखा दीं ग
ू ा।
बािाजी जान गये कक यह वीर उमींग में आ गया है। राजपत
ू जब उमींग में आता है तो उसे मरने-
मारने क अनतररक्त और कुछ नहीीं सझ
ू ता। बोिे-राजा साहब, आप दरू दशी होकर ऐसे वचन कहते है? यह
अवसर ऐसे वचनों का नहीीं है । आगे बढ़कर अपने आदलमयों को रोककये, नहीीं तो पररणाम बरु ा होगा।
बािािजी यह कहते-कहते अचानक रुक गये। समद्र
ु की तरीं गों का भानत िोग इधर-उधर से उमडते
चिे आते थे। हाथों में िादठया थी और नेत्रों में रुधधर की िािी, मख
ु मींडि क्रुद्व, भक
ृ ु टी कुदटि। दे खते-दे खते
यह जन-समद ु ाय प्राग्वािों के लसर पर पहुच गया। समय सक्न्नकट था कक िादठया लसर को चम
ु े कक बािाजी
ववद्यत
ु की भानत िपककर एक घोडे पर सवार हो गये और अनत उच्च स्वर में बोिे:
‘भाइयो ! क्या अींधेर है ? यदद मझ
ु े आपना लमत्र समझते हो तो झटपट हाथ नीचे कर िो और पैरों को
एक इींच भी आगे न बढ़ने दो। मझ
ु े अलभमान है कक तुम्हारे हृदयों में वीरोधचत क्रोध और उमींग तरीं धगत हो
रहे है। क्रोध एक पववत्र उद्वोग और पववत्र उत्साह है। परन्तु आत्म-सींवरण उससे भी अधधक पववत्र धमम है ।
इस समय अपने क्रोध को दृढ़ता से रोको। क्या तुम अपनी जानत के साथ कुि का कत्तमव्य पािन कर चक
ु े
कक इस प्रकार प्राण ववसजमन करने पर कदटबद्व हो क्या तुम दीपक िेकर भी कूप में धगरना चाहते हो? ये
उिोग तम्हारे स्वदे श बान्धव और तुम्हारे ही रुधधर हैं। उन्हें अपना शत्रु मत समझो। यदद वे मख
ू म हैं तो
उनकी मख
ू त
म ा का ननवारण करना तुम्हारा कतमव्य हैं। यदद वे तुम्हें अपशब्द कहें तो तुम बरु ा मत मानों।
यदद ये तम
ु से यद्
ु व करने को प्रस्तत
ु हो तम
ु नम्रता से स्वीकार कर तो और एक चतरु वैद्य की भाींनत
अपने ववचारहीन रोधगयों की औषधध करने में तल्िीन हो जाओ। मेरी इस आशा के प्रनतकूि यदद तम
ु में से
ककसी ने हाथ उठाया तो वह जानत का शत्रु होगा।
मतिाली योगगनी
माधवी प्रथम ही से मरु झायी हुई किी थी। ननराशा ने उसे खाक मे लमिा ददया। बीस वषम की
तपक्स्वनी योधगनी हो गयी। उस बेचारी का भी कैसा जीवन था कक या तो मन में कोई अलभिाषा ही उत्पन्न
न हुई, या हुई दद
ु ै व ने उसे कुसलु मत न होने ददया। उसका प्रेम एक अपार समद्र
ु था। उसमें ऐसी बाढ आयी
कक जीवन की आशाएीं और अलभिाषाएीं सब नष्ट हो गयीीं। उसने योधगनी के से वस्त्र ् पदहन लियें। वह
साींसररक बन्धनों से मक्
ु त हो गयी। सींसार इन्ही इच्छाओीं और आशाओीं का दस
ू रा नाम हैं। क्जसने उन्हें
नैराश्य–नद में प्रवादहत कर ददया, उसे सींसार में समझना भ्रम हैं।
इस प्रकार के मद से मतवािी योधगनी को एक स्थन पर शाींनत न लमिती थी। पष्ु प की सग
ु धधीं की
भाींनत दे श-दे श भ्रमण करती और प्रेम के शब्द सन
ु ाती कफरती थी। उसके प्रीत वणम पर गेरुए रीं ग का वस्त्र
परम शोभा दे ता था। इस प्रेम की मनू तम को दे खकर िोगों के नेत्रों से अश्रु टपक पडते थे। जब अपनी
वीणा बजाकर कोई गीत गाने िगती तो वन
ु ने वािों के धचत अनरु ाग में पग जाते थें उसका एक–एक शब्द
प्रेम–रस डूबा होता था।
मतवािी योधगनी को बािाजी के नाम से प्रेम था। वह अपने पदों में प्राय: उन्हीीं की कीनतम सन
ु ाती थी।
क्जस ददन से उसने योधगनी का वेष घारण ककया और िोक–िाज को प्रेम के लिए पररत्याग कर ददया उसी
ददन से उसकी क्जह्वा पर माता सरस्वती बैठ गयी। उसके सरस पदों को सन
ु ने के लिए िोग सैकडों कोस
चिे जाते थे। क्जस प्रकार मरु िी की ध्वनन सन
ु कर गोवपींयाीं घरों से वयाकुि होकर ननकि पडती थीीं उसी
प्रकार इस योधगनी की तान सन
ु ते ही श्रोताजनों का नद उमड पडता था। उसके पद सन
ु ना आनन्द के प्यािे
पीना था।
इस योधगनी को ककसी ने हीं सते या रोते नहीीं दे खा। उसे न ककसी बात पर हषम था, न ककसी बात का
ववषाद्। क्जस मन में कामनाएीं न हों, वह क्यों हीं से और क्यों रोये ? उसका मख
ु –मण्डि आनन्द की मनू तम
था। उस पर दृक्ष्ट पडते ही दशमक के नेत्र पववत्र ् आनन्द से पररपण
ू म हो जाते थे।
त्रत्रया-चररत्र
से ठ िगनदास जी के जीवन की बधगया फिहीन थी। कोई ऐसा मानवीय, आध्याक्त्मक या धचककत्सात्मक
प्रयत्न न था जो उन्होंने न ककया हो। यों शादी में एक पत्नीव्रत के कायि थे मगर जरुरत और
ॉँ शाददय ॉँ कीीं, यह ॉँ तक कक उम्र के चािीस साि गज
आग्रह से वववश होकर एक-दो नहीीं प च ु ए गए और अधेरे
घर में उजािा न हुआ। बेचारे बहुत रीं जीदा रहते। यह धन-सींपवत्त, यह ठाट-बाट, यह वैभव और यह ऐश्वयम
क्या होंगे। मेरे बाद इनका क्या होगा, कौन इनको भोगेगा। यह ख्याि बहुत अफसोसनाक था। आखखर यह
सिाह हुई कक ककसी िडके को गोद िेना चादहए। मगर यह मसिा पाररवाररक झगडों के कारण के सािों
तक स्थधगत रहा। जब सेठ जी ने दे खा कक बीववयों में अब तक बदस्तरू कशमकश हो रही है तो उन्होंने
नैनतक साहस से काम लिया और होनहार अनाथ िडके को गोद िे लिया। उसका नाम रखा गया मगनदास।
ॉँ
उसकी उम्र प च-छ: साि से जयादा न थी। बिा का जहीन और तमीजदार। मगर औरतें सब कुछ कर
ू रे के बच्चे को अपना नहीीं समझ सकतीीं। यह ॉँ तो प च
सकती हैं, दस ॉँ औरतों का साझा था। अगर एक उसे
प्यार करती तो बाकी चार औरतों का फज्र था कक उससे नफरत करें । ह ,ॉँ सेठ जी उसके साथ बबिकुि अपने
िडके की सी मह
ु ब्बत करते थे। पढ़ाने को मास्टर रक्खें, सवारी के लिए घोडे। रईसी ख्याि के आदमी थे।
राग-रीं ग का सामान भी मह
ु ै या था। गाना सीखने का िडके ने शौक ककया तो उसका भी इींतजाम हो गया।
गरज जब मगनदास जवानी पर पहुचा तो रईसाना ददिचाक्स्पयों में उसे कमाि हालसि था। उसका गाना
सन
ु कर उस्ताद िोग कानों पर हाथ रखते। शहसवार ऐसा कक दौडते हुए घोडे पर सवार हो जाता। डीि-डौि,
शक्ि सरू त में उसका-सा अिबेिा जवान ददल्िी में कम होगा। शादी का मसिा पेश हुआ। नागपरु के
करोडपनत सेठ मक्खनिाि बहुत िहराये हुए थे। उनकी िडकी से शादी हो गई। धमू धाम का क्जक्र ककया
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जाए तो ककस्सा ववयोग की रात से भी िम्बा हो जाए। मक्खनिाि का उसी शादी में दीवािा ननकि गया।
इस वक्त मगनदास से जयादा ईष्याम के योग्य आदमी और कौन होगा? उसकी क्जन्दगी की बहार उमींगों पर
भी और मरु ादों के फूि अपनी शबनमी ताजगी में खखि-खखिकर हुस्न और ताजगी का समा ददखा रहे थे।
मगर तकदीर की दे वी कुछ और ही सामान कर रही थी। वह सैर-सपाटे के इरादे से जापान गया हुआ था कक
ददल्िी से खबर आई कक ईश्वर ने तुम्हें एक भाई ददया है। मझ
ु े इतनी खुशी है कक जयादा असे तक क्जन्दा
न रह सकू। तुम बहुत जल्द िौट आओीं।
मगनदास के हाथ से तार का कागज छूट गया और सर में ऐसा चक्कर आया कक जैसे ककसी ऊचाई
से धगर पडा है ।
म गनदास का ककताबी ज्ञान बहुत कम था। मगर स्वभाव की सजजनता से वह खािी हाथ न था। हाथों
की उदारता ने, जो समद्
कायापिट से दख
ृ धध का वरदान है , हृदय को भी उदार बना ददया था। उसे घटनाओीं की इस
ु तो जरुर हुआ, आखखर इन्सान ही था, मगर उसने धीरज से काम लिया और एक आशा
और भय की लमिी-जि ु ी हाित में दे श को रवाना हुआ।
रात का वक्त था। जब अपने दरवाजे पर पहुचा तो नाच-गाने की महकफि सजी दे खी। उसके कदम
आगे न बढ़े िौट पडा और एक दक
ु ान के चबत
ू रे पर बैठकर सोचने िगा कक अब क्या करना चादहऐ। इतना
तो उसे यकीन था कक सेठ जी उसक साथ भी भिमनसी और मह
ु ब्बत से पेश आयेंगे बक्ल्क शायद अब और
भी कृपा करने िगें । सेठाननय ॉँ भी अब उसके साथ गैरों का-सा वतामव न करें गी। मम ु ककन है मझिी बहू जो
इस बच्चे की खशु नसीब म ॉँ थीीं, उससे दरू -दरू रहें मगर बाकी चारों सेठाननयों की तरफ से सेवा-सत्कार में
कोई शक नहीीं था। उनकी डाह से वह फायदा उठा सकता था। ताहम उसके स्वालभमान ने गवारा न ककया
कक क्जस घर में मालिक की हैलसयत से रहता था उसी घर में अब एक आधश्रत की है लसयत से क्जन्दगी
ु ालसब है, न मसिहत। मगर जाऊ कह ?ीं न
बसर करे । उसने फैसिा कर लिया कक सब यह ॉँ रहना न मन
कोई ऐसा फन सीखा, न कोई ऐसा इल्म हालसि ककया क्जससे रोजी कमाने की सरू त पैदा होती। रईसाना
ददिचक्स्पय ॉँ उसी वक्त तक कद्र की ननगाह से दे खी जाती हैं जब तक कक वे रईसों के आभष
ू ण रहें ।
जीववका बन कर वे सम्मान के पद से धगर जाती है। अपनी रोजी हालसि करना तो उसके लिए कोई ऐसा
मक्ु श्कि काम न था। ककसी सेठ-साहूकार के यह ॉँ मन
ु ीम बन सकता था, ककसी कारखाने की तरफ से एजेंट
हो सकता था, मगर उसके कन्धे पर एक भारी जुआ रक्खा हुआ था, उसे क्या करे । एक बडे सेठ की िडकी
क्जसने िाड-प्यार मे पररवररश पाई, उससे यह कींगािी की तकिीफें क्योंकर झेिी जाऍगीीं
ीं क्या मक्खनिाि
की िाडिी बेटी एक ऐसे आदमी के साथ रहना पसन्द करे गी क्जसे रात की रोटी का भी दठकाना नहीीं !
मगर इस कफक्र में अपनी जान क्यों खपाऊ। मैंने अपनी मजी से शादी नहीीं की मैं बराबर इनकार करता
रहा। सेठ जी ने जबदम स्ती मेरे पैरों में बेडी डािी है। अब वही इसके क्जम्मेदार हैं। मझ
ु से कोई वास्ता नहीीं।
िेककन जब उसने दब
ु ारा ठीं डे ददि से इस मसिे पर गौर ककया तो वचाव की कोई सरू त नजर न आई।
आखखकार उसने यह फैसिा ककया कक पहिे नागपरु चि,ू जरा उन महारानी के तौर-तरीके को दे ख,ू बाहर-ही-
ॉँ करू। उस वक्त तय करूगा कक मझ
बाहर उनके स्वभाव की, लमजाज की ज च ु े क्या करके चादहये। अगर
रईसी की बू उनके ददमाग से ननकि गई है और मेरे साथ रूखी रोदटय ॉँ खाना उन्हें मींजूर है , तो इससे
अच्छा कफर और क्या, िेककन अगर वह अमीरी ठाट-बाट के हाथों बबकी हुई हैं तो मेरे लिए रास्ता साफ है ।
कफर मैं हू और दनु नया का गम। ऐसी जगह जाऊ जह ॉँ ककसी पररधचत की सरू त सपने में भी न ददखाई दे ।
गरीबी की क्जल्ित नहीीं रहती, अगर अजनबबयों में क्जन्दगी बसरा की जाए। यह जानने-पहचानने वािों की
कनखखया और कनबनतय ॉँ हैं जो गरीबी को यन्त्रणा बना दे ती हैं। इस तरह ददि में क्जन्दगी का नक्शा
बनाकर मगनदास अपनी मदामना दहम्मत के भरोसे पर नागपरु की तरफ चिा, उस मल्िाह की तरह जो
ककश्ती और पाि के बगैर नदी की उमडती हुई िहरों में अपने को डाि दे ।
३
शा
मह
म के वक्त सेठ मक्खनिाि के सींद ु र बगीचे में सरू ज की पीिी ककरणें मरु झाये हुए फूिों से गिे
लमिकर ववदा हो रही थीीं। बाग के बीच में एक पक्का कुऑ ीं था और एक मौिलसरी का पेड। कुए के
ु पर अींधेरे की नीिी-सी नकाब थी, पेड के लसर पर रोशनी की सन
ु हरी चादर। इसी पेड में एक नौजवान
म
अपने दख
गनदास ननराश ववचारों में डूबा हुआ शहर से बाहर ननकि आया और एक सराय में ठहरा जो लसफम
इसलिए मशहूर थी, कक वह ॉँ शराब की एक दक
ु को भि
ु ाया करते थे। जो भि
ु ान थी। यह ॉँ आस-पास से मजदरू िोग आ-आकर
ु ाकफर यह ॉँ ठहरते, उन्हें होलशयारी और चौकसी का
ू े-भटके मस
ॉँ ही, एक पेड के नीचे चादर बबछाकर सो रहा और जब
व्यावहाररक पाठ लमि जाता था। मगनदास थका-म दा
सब
ु ह को नीींद खि
ु ी तो उसे ककसी पीर-औलिया के ज्ञान की सजीव दीक्षा का चमत्कार ददखाई पडा क्जसकी
पहिी मींक्जि वैराग्य है । उसकी छोटी-सी पोटिी, क्जसमें दो-एक कपडे और थोडा-सा रास्ते का खाना और
िदु टया-डोर बींधी हुई थी, गायब हो गई। उन कपडों को छोडकर जो उसके बदर पर थे अब उसके पास कुछ
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भी न था और भख
ू , जो कींगािी में और भी तेज हो जाती है, उसे बेचन
ै कर रही थी। मगर दृढ़ स्वभाव का
आदमी था, उसने ककस्मत का रोना रोया ककसी तरह गज
ु र करने की तदबीरें सोचने िगा। लिखने और
गखणत में उसे अच्छा अभ्यास था मगर इस है लसयत में उससे फायदा उठाना असम्भव था। उसने सींगीत का
बहुत अभ्यास ककया था। ककसी रलसक रईस के दरबार में उसकी क़द्र हो सकती थी। मगर उसके परु
ु षोधचत
अलभमान ने इस पेशे को अक्ख्यतार करने इजाजत न दी। ह ,ॉँ वह आिा दजे का घड
ु सवार था और यह फन
मजे में परू ी शान के साथ उसकी रोजी का साधन बन सकता था यह पक्का इरादा करके उसने दहम्मत से
कदम आगे बढ़ाये। ऊपर से दे खने पर यह बात यकीन के काबबि नही मािम
ू होती मगर वह अपना बोझ
हिका हो जाने से इस वक्त बहुत उदास नहीीं था। मदामना दहम्मत का आदमी ऐसी मस ु ीींबतों को उसी ननगाह
से दे खता है,क्जसमे एक होलशयार ववद्याथी परीक्षा के प्रश्नों को दे खता है उसे अपनी दहम्मत आजमाने का,
एक मक्ु श्कि से जझ
ू ने का मौका लमि जाता है उसकी दहम्मत अजनाने ही मजबत
ू हो जाती है । अकसर
ऐसे माके मदामना हौसिे के लिए प्रेरणा का काम दे ते हैं। मगनदास इस जोश़ से कदम बढ़ाता चिा जाता
था कक जैसे कायमाबी की मींक्जि सामने नजर आ रही है । मगर शायद वहा के घोडो ने शरारत और
बबगडैिपन से तौबा कर िी थी या वे स्वाभाववक रुप बहुत मजे मे धीमे- धीमे चिने वािे थे। वह क्जस
गाींव में जाता ननराशा को उकसाने वािा जवाब पाता आखखरकार शाम के वक्त जब सरू ज अपनी आखखरी
मींक्जि पर जा पहुचा था, उसकी कदठन मींक्जि तमाम हुई। नागरघाट के ठाकुर अटिलसहीं ने उसकी धचन्ता
मो समाप्त ककया।
यह एक बडा गाव था। पक्के मकान बहुत थे। मगर उनमें प्रेतात्माऍ ीं आबाद थीीं। कई साि पहिे
प्िेग ने आबादी के बडे दहस्से का इस क्षणभींगरु सींसार से उठाकर स्वगम में पहुच ददया था। इस वक्त प्िेग
के बचे-खच
ु े वे िोग गाींव के नौजवान और शौकीन जमीींदार साहब और हल्के के कारगज
ु ार ओर रोबीिे
थानेदार साहब थे। उनकी लमिी-जुिी कोलशशों से ग वॉँ मे सतयग
ु का राज था। धन दौित को िोग जान का
अजाब समझते थे ।उसे गुनाह की तरह छुपाते थे। घर-घर में रुपये रहते हुए िोग कजम िे-िेकर खाते
और फटे हािों रहते थे। इसी में ननबाह था । काजि की कोठरी थी, सफेद कपडे पहनना उन पर धब्बा
िगाना था। हुकूमत और जबर्म दस्ती का बाजार गमम था। अहीरों को यहा आजन के लिए भी दध ू न था।
थाने में दध
ू की नदी बहती थी। मवेशीखाने के मह
ु ररम र दध
ू की कुक्ल्िया करते थे। इसी अींधरे नगरी को
मगनदास ने अपना घर बनाया। ठाकुर साहब ने असाधारण उदारता से काम िेकर उसे रहने के लिए एक
माकन भी दे ददया। जो केवि बहुत व्यापक अथो में मकान कहा जा सकता था। इसी झोंपडी में वह एक
हफ्ते से क्जन्दगी के ददन काट रहा है । उसका चेहरा जदम है। और कपडे मैिे हो रहे है । मगर ऐसा मािम
ू
होता है कक उस अब इन बातों की अनभ
ु नू त ही नही रही। क्जन्दा है मगर क्जन्दगी रुखसत हो गई है ।
दहम्मत और हौसिा मक्ु श्कि को आसान कर सकते है ऑ ींधी और तफ
ु ान से बचा सकते हैं मगर चेहरे को
खखिा सकना उनके सामथ्यम से बाहर है टूटी हुई नाव पर बैठकरी मल्हार गाना दहम्मत काम नही दहमाकत
का काम है ।
एक रोज जब शाम के वक्त वह अींधरे मे खाट पर पडा हुआ था। एक औरत उसके दरवारजे पर
आकर भीख माींगने िगी। मगनदास का आवाज वपरधचत जान पडी। बहार आकर दे खा तो वही चम्पा मालिन
थी। कपडे तार–तार, मस
ु ीबत की रोती हुई तसबीर। बोिा-मालिन ? तम्
ु हारी यह क्या हाित है । मझ
ु े
पहचानती हो।?
मालिन ने चौंकरक दे खा और पहचान गई। रोकर बोिी –बेटा, अब बताओ मेरा कहा दठकाना िगे?
तम
ु ने मेरा बना बनाया घर उजाड ददया न उसे ददन तुमसे बात करती ने मझ
ु े पर यह बबपत पडती। बाई
ने तुम्हें बैठे दे ख लिया, बातें भी सन
ु ी सब
ु ह होते ही मझ
ु े बि
ु ाया और बरस पडी नाक कटवा िगी,
ू मींह
ु में
कालिख िगवा दगी,
ू चड
ु ि
ै , कुटनी, तू मेरी बात ककसी गैर आदमी से क्यों चिाये? तू दस
ू रों से मेरी चचाम
करे ? वह क्या तेरा दामाद था, जो तू उससे मेरा दख
ु डा रोती थी? जो कुछ मह
ींु मे आया बकती रही
मझु से भी न सहा गया। रानी रुठें गी अपना सह
ु ाग िेंगी! बोिी-बाई जी, मझ
ु से कसरू हुआ, िीक्जए अब जाती
हू छीींकते नाक कटती है तो मेरा ननबाह यहा न होगा। ईश्वर ने मींहु ददया हैं तो आहार भी दे गा चार घर
से मागगी
ू तो मेरे पेट को हो जाऐगा।। उस छोकरी ने मझ
ु े खडे खडे ननकिवा ददया। बताओ मैने तम
ु से
उसकी कौन सी लशकायत की थी? उसकी क्या चचाम की थी? मै तो उसका बखान कर रही थी। मगर बडे
आदलमयों का गुस्सा भी बडा होता है । अब बताओ मै ककसकी होकर रहू? आठ ददन इसी ददन तरह टुकडे
मागते हो गये है । एक भतीजी उन्हीीं के यहा िौंडडयों में नौकर थी, उसी ददन उसे भी ननकाि ददया।
ना गपरु इस ग व से बीस मीि की दरू ी पर था। चम्मा उसी ददन चिी गई और तीसरे ददन रम्भा के
साथ िौट आई। यह उसकी भतीजी का नाम था। उसक आने से झोंपडें में जान सी पड गई।
मगनदास के ददमाग में मालिन की िडकी की जो तस्वीर थी उसका रम्भा से कोई मेि न था वह सौंदयम
नाम की चीज का अनभ
ु वी जौहरी था मगर ऐसी सरू त क्जसपर जवानी की ऐसी मस्ती और ददि का चैन
छीन िेनेवािा ऐसा आकषमण हो उसने पहिे कभी नहीीं दे खा था। उसकी जवानी का च दॉँ अपनी सन
ु हरी और
गम्भीर शान के साथ चमक रहा था। सब
ु ह का वक्त था मगनदास दरवाजे पर पडा ठण्डी–ठण्डी हवा का
मजा उठा रहा था। रम्भा लसर पर घडा रक्खे पानी भरने को ननकिी मगनदास ने उसे दे खा और एक
िम्बी सास खीींचकर उठ बैठा। चेहरा-मोहरा बहुत ही मोहम। ताजे फूि की तरह खखिा हुआ चेहरा आींखों में
गम्भीर सरिता मगनदास को उसने भी दे खा। चेहरे पर िाज की िािी दौड गई। प्रेम ने पहिा वार
ककया।
मगनदास सोचने िगा-क्या तकदीर यहा कोई और गि
ु खखिाने वािी है! क्या ददि मझ
ु े यहाीं भी चैन
न िेने दे गा। रम्भा, तू यहा नाहक आयी, नाहक एक गरीब का खून तेरे सर पर होगा। मैं तो अब तेरे
हाथों बबक चक
ु ा, मगर क्या तू भी मेरी हो सकती है ? िेककन नहीीं, इतनी जल्दबाजी ठीक नहीीं ददि का
सौदा सोच-समझकर करना चादहए। तुमको अभी जब्त करना होगा। रम्भा सन्
ु दरी है मगर झठ
ू े मोती की
आब और ताब उसे सच्चा नहीीं बना सकती। तुम्हें क्या खबर कक उस भोिी िडकी के कान प्रेम के शब्द से
पररधचत नहीीं हो चक
ु े है ? कौन कह सकता है कक उसके सौन्दयम की वादटका पर ककसी फूि चन
ु नेवािे के
हाथ नही पड चक
ु े है? अगर कुछ ददनों की ददिबस्तगी के लिए कुछ चादहए तो तुम आजाद हो मगर यह
नाजक
ु मामिा है , जरा सम्हि के कदम रखना। पेशव
े र जातों मे ददखाई पडनेवािा सौन्दयम अकसर नैनतक
बन्धनों से मक्
ु त होता है ।
तीन महीने गज
ु र गये। मगनदास रम्भा को जयों जयों बारीक से बारीक ननगाहों से दे खता त्यों–त्यों
उस पर प्रेम का रीं ग गाढा होता जाता था। वह रोज उसे कुए से पानी ननकािते दे खता वह रोज घर
में झाडु दे ती, रोज खाना पकाती आह मगनदास को उन जवार की रोदटयाीं में मजा आता था, वह अच्छे से
अच्छे व्यींजनो में, भी न आया था। उसे अपनी कोठरी हमेशा साफ सध
ु री लमिती न जाने कौन उसके
बबस्तर बबछा दे ता। क्या यह रम्भा की कृपा थी? उसकी ननगाहें शमीिी थी उसने उसे कभी अपनी तरफ
चचींि आींखो स ताकते नही दे खा। आवाज कैसी मीठी उसकी हीं सी की आवाज कभी उसके कान में नही
आई। अगर मगनदास उसके प्रेम में मतवािा हो रहा था तो कोई ताजजब
ु की बात नही थी। उसकी भख
ू ी
ननगाहें बेचन
ै ी और िािसा में डुबी हुई हमेशा रम्भा को ढुढाीं करतीीं। वह जब ककसी गाव को जाता तो मीिों
तक उसकी क्जद्दी और बेताब ऑ ींखे मड ु –मड
ू कर झोंपडे के दरवाजे की तरफ आती। उसकी ख्यानत आस
पास फैि गई थी मगर उसके स्वभाव की मस
ु ीवत और उदारहृयता से अकसर िोग अनधु चत िाभ उठाते थे
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इन्साफपसन्द िोग तो स्वागत सत्कार से काम ननकाि िेते और जो िोग जयादा समझदार थे वे िगातार
तकाजों का इन्तजार करते चकींू क मगनदास इस फन को बबिकुि नहीीं जानता था। बावजद
ू ददन रात की
दौड धप
ू के गरीबी से उसका गिा न छुटता। जब वह रम्भा को चक्की पीसते हुए दे खता तो गेहू के साथ
उसका ददि भी वपस जाता था ।वह कुऍ ीं से पानी ननकािती तो उसका किेजा ननकि आता । जब वह पडोस
की औरत के कपडे सीती तो कपडो के साथ मगनदास का ददि नछद जाता। मगर कुछ बस था न काब।ू
मगनदास की हृदयभेदी दृक्ष्ट को इसमें तो कोई सींदेह नहीीं था कक उसके प्रेम का आकषमण बबिकुि
बेअसर नही है वनाम रम्भा की उन वफा से भरी हुई खानतरदररयों की तकु कैसा बबठाता वफा ही वह जाद ू है
रुप के गवम का लसर नीचा कर सकता है । मगर। प्रेलमका के ददि में बैठने का माद्दा उसमें बहुत कम था।
कोई दस ू रा मनचिा प्रेमी अब तक अपने वशीकरण में कामायाब हो चक ु ा होता िेककन मगनदास ने ददि
आशकक का पाया था और जबान माशक
ू की।
एक रोज शाम के वक्त चम्पा ककसी काम से बाजार गई हुई थी और मगनदास हमेशा की तरह
चारपाई पर पडा सपने दे ख रहा था। रम्भा अदभत
ू छटा के साथ आकर उसके समने खडी हो गई। उसका
भोिा चेहरा कमि की तरह खखिा हुआ था। और आखों से सहानभ ु नू त का भाव झिक रहा था। मगनदास ने
उसकी तरफ पहिे आश्चयम और कफर प्रेम की ननगाहों से दे खा और ददि पर जोर डािकर बोिा-आओीं
रम्भा, तुम्हें दे खने को बहुत ददन से आखें तरस रही थीीं।
रम्भा ने भोिेपन से कहा-मैं यहाीं न आती तो तमु मझ ु से कभी न बोिेते।
मगनदास का हौसिा बढा, बोिा-बबना मजी पाये तो कुत्ता भी नही आता।
रम्भा मस्
ु कराई, किी खखि गई–मै तो आप ही चिी आई।
मगनदास का किेजा उछि पडा। उसने दहम्मत करके रम्भा का हाथ पकड लिया और भावावेश से
क पती हुई आवाज मे बोिा–नहीीं रम्भा ऐसा नही है । यह मेरी महीनों की तपस्या का फि है ।
मगनदास ने बेताब होकर उसे गिे से िगा लिया। जब वह चिने िगी तो अपने प्रेमी की ओर प्रेम
भरी दृक्ष्ट से दे खकर बोिी–अब यह प्रीत हमको ननभानी होगी।
ू म दे वता के आगमन की तैयाररय ॉँ हो रही थी मगनदास की आखे खुिी
पौ फटने के वक्त जब सय
रम्भा आटा पीस रही थी। उस शाींवत्तपण
ू म सन्नाटे में चक्की की घम
ु र–घम
ु र बहुत सह
ु ानी मािम
ू होती थी और
उससे सरू लमिाकर आपने प्यारे ढीं ग से गाती थी।
झि
ु ननया मोरी पानी में धगरी
मैं जानींू वपया मौको मनैहैं
उिटी मनावन मोको पडी
झि
ु ननया मोरी पानी मे धगरी
साि भर गुजर गया। मगनदास की मह
ु ब्बत और रम्भा के सिीके न लमिकर उस वीरान झोंपडे को
कींु ज बाग बना ददया। अब वहाीं गायें थी। फूिों की क्याररया थीीं और कई दे हाती ढीं ग के मोढ़े थे। सख
ु –
सवु वधा की अनेक चीजे ददखाई पडती थी।
एक रोज सब
ु ह के वक्त मगनदास कही जाने के लिए तैयार हो रहा था कक एक सम्भ्राींत व्यक्क्त
अींग्रेजी पोशाक पहने उसे ढूढीं ता हुआ आ पहुींचा और उसे दे खते ही दौडकर गिे से लिपट गया। मगनदास
और वह दोनो एक साथ पढ़ा करते थे। वह अब वकीि हो गया। था। मगनदास ने भी अब पहचाना और
कुछ झेंपता और कुछ खझझकता उससे गिे लिपट गया। बडी दे र तक दोनों दोस्त बातें करते रहे । बातें क्या
थीीं घटनाओीं और सींयोगो की एक िम्बी कहानी थी। कई महीने हुए सेठ िगन का छोटा बच्चा चेचक की
नजर हो गया। सेठ जी ने दख ु क मारे आत्महत्या कर िी और अब मगनदास सारी जायदाद, कोठी इिाके
और मकानों का एकछत्र स्वामी था। सेठाननयों में आपसी झगडे हो रहे थे। कममचाररयों न गबन को अपना
ढीं ग बना रक्खा था। बडी सेठानी उसे बि
ु ाने के लिए खुद आने को तैयार थी, मगर वकीि साहब ने उन्हे
रोका था। जब मदनदास न मस् ु काराकर पछु ा–तुम्हों क्योंकर मािम
ू हुआ कक मै। यहा हू तो वकीि साहब ने
फरमाया-महीने भर से तुम्हारी टोह में हू। सेठ मक्निाि ने अता-पता बतिाया। तूम ददल्िी पहुचें और
मैंने अपना महीने भर का बबि पेश ककया।
रम्भा अधीर हो रही थी। कक यह कौन है और इनमे क्या बाते हो रही है ? दस बजते-बजते वकीि
साहब मगनदास से एक हफ्ते के अन्दर आने का वादा िेकर ववदा हुए उसी वक्त रम्भा आ पहुची और
पछ
ू ने िगी-यह कौन थे। इनका तुमसे क्या काम था?
सु बह हुई तो मगनदास उठा और रम्भा पकु ारने िगा। मगर रम्भा रात ही को अपनी चाची के
साथ वहाीं से कही चिी गयी मगनदास को उसे मकान के दरो दीवार पर एक हसरत-सी छायी हुई
तुम्हारी प्यारी
रम्भा
७
आदमी बन गया था। सागर घाट के उस कुछ ददनों के रहने से उसे ररआया की इन तकिीफो का
ननजी ज्ञान हो गया, था जो काररन्दों और मख्
ु तारो की सक्ख्तयों की बदौित उन्हे उठानी पडती है। उसने
उसे ररयासत केइन्तजाम में बहुत मदद दी और गो कममचारी दबी जबान से उसकी लशकायत करते थे।
और अपनी ककस्मतो और जमाने क उिट फेर को कोसने थे मगर ररआया खुशा थी। ह ,ॉँ जब वह सब धींधों
से फुरसत पाता तो एक भोिी भािी सरू तवािी िडकी उसके खयाि के पहिू में आ बैठती और थोडी दे र के
लिए सागर घाट का वह हरा भरा झोपडा और उसकी मक्स्तया ऑखें के सामने आ जातीीं। सारी बाते एक
सह
ु ाने सपने की तरह याद आ आकर उसके ददि को मसोसने िगती िेककन कभी कभी खूद बखुद-उसका
ख्याि इक्न्दरा की तरफ भी जा पहूचता गो उसके ददि मे रम्भा की वही जगह थी मगर ककसी तरह उसमे
इक्न्दरा के लिए भी एक कोना ननकि आया था। क्जन हािातो और आफतो ने उसे इक्न्दरा से बेजार कर
ददया था वह अब रुखसत हो गयी थीीं। अब उसे इक्न्दरा से कुछ हमददी हो गयी । अगर उसके लमजाज में
घमण्ड है , हुकूमत है तकल्िफू है शान है तो यह उसका कसरू नहीीं यह रईसजादो की आम कमजोररयाीं है
यही उनकी लशक्षा है । वे बबिकुि बेबस और मजबरू है । इन बदते हुए और सींतलु ित भावो के साथ जहाीं वह
बेचन
ै ी के साथ रम्भा की याद को ताजा ककया करता था वहा इक्न्दरा का स्वागत करने और उसे अपने ददि
में जगह दे ने के लिए तैयार था। वह ददन दरू नहीीं था जब उसे उस आजमाइश का सामना करना पडेगा।
उसके कई आत्मीय अमीराना शान-शौकत के साथ इक्न्दरा को ववदा कराने के लिए नागपरु गए हुए थे।
ममलाप
म गर नानकचन्द यह ॉँ से अकेिा न चिा। उसकी प्रेम की बातें आज सफि हो गयी थीीं। पडोस में बाबू
रामदास रहते थे। बेचारे सीधे-सादे आदमी थे, सब
ु ह दफ्तर जाते और शाम को आते और इस बीच
नानकचन्द अपने कोठे पर बैठा हुआ उनकी बेवा िडकी से मह ु ब्बत के इशारे ककया करता। यह ॉँ तक कक
अभागी िलिता उसके जाि में आ फॅंसी। भाग जाने के मींसब
ू े हुए।
आधी रात का वक्त था, िलिता एक साडी पहने अपनी चारपाई पर करवटें बदि रही थी। जेवरों को
उतारकर उसने एक सन्दक
ू चे में रख ददया था। उसके ददि में इस वक्त तरह-तरह के खयाि दौड रहे थे
और किेजा जोर-जोर से धडक रहा था। मगर चाहे और कुछ न हो, नानकचन्द की तरफ से उसे बेवफाई का
जरा भी गुमान न था। जवानी की सबसे बडी नेमत मह
ु ब्बत है और इस नेमत को पाकर िलिता अपने को
खुशनसीब समझ रही थी। रामदास बेसध ु सो रहे थे कक इतने में कुण्डी खटकी। िलिता चौंककर उठ खडी
ू चा उठा लियाीं एक बार इधर-उधर हसरत-भरी ननगाहों से दे खा और दबे प वॉँ
हुई। उसने जेवरों का सन्दक
चौंक-चौककर कदम उठाती दे हिीज में आयी और कुण्डी खोि दी। नानकचन्द ने उसे गिे से िगा लिया।
बग्घी तैयार थी, दोनों उस पर जा बैठे।
सब
ु ह को बाबू रामदास उठे , िलित न ददखायी दी। घबराये, सारा घर छान मारा कुछ पता न चिा।
बाहर की कुण्डी खुिी दे खी। बग्घी के ननशान नजर आये। सर पीटकर बैठ गये। मगर अपने ददि का द2दम
ककससे कहते। हसी और बदनामी का डर जबान पर मोहर हो गया। मशहूर ककया कक वह अपने नननहाि
ु ते ही भ पॉँ गये कक कश्मीर की सैर के कुछ और ही माने थे। धीरे -धीरे
और गयी मगर िािा ज्ञानचन्द सन
ु ल्िे में फैि गई। यह ॉँ तक कक बाबू रामदास ने शमम के मारे आत्महत्या कर िी।
यह बात सारे मह
मु हब्बत की सरगलममयाीं नतीजे की तरफ से बबिकुि बेखबर होती हैं। नानकचन्द क्जस वक्त बग्घी में
िलित के साथ बैठा तो उसे इसके लसवाय और कोई खयाि ने था कक एक यव
ु ती मेरे बगि में बैठी है,
क्जसके ददि का मैं मालिक हू। उसी धन
ु में वह मस्त थाीं बदनामी का डर, कानन
ू का खटका, जीववका के
साधन, उन समस्याओीं पर ववचार करने की उसे उस वक्त फुरसत न थी। ह ,ॉँ उसने कश्मीर का इरादा छोड
ददया। किकत्ते जा पहुचा। ककफायतशारी का सबक न पढ़ा था। जो कुछ जमा-जथा थी, दो महीनों में खचम हो
गयी। िलिता के गहनों पर नौबत आयी। िेककन नानकचन्द में इतनी शराफत बाकी थी। ददि मजबत ू करके
ु ब्बत को गालिय ॉँ दीीं और ववश्वास ददिाया कक अब आपके पैर चम
बाप को खत लिखा, मह ू ने के लिए जी
बेकरार है , कुछ खचम भेक्जए। िािा साहब ने खत पढ़ा, तसकीन हो गयी कक चिो क्जन्दा है खैररयत से है ।
धम
ू -धाम से सत्यनारायण की कथा सन
ु ी। रुपया रवाना कर ददया, िेककन जवाब में लिखा-खैर, जो कुछ
तम्
ु हारी ककस्मत में था वह हुआ। अभी इधर आने का इरादा मत करो। बहुत बदनाम हो रहे हो। तम् ु हारी
वजह से मझ ु े भी बबरादरी से नाता तोडना पडेगा। इस तफ
ू ान को उतर जाने दो। तम
ु हें खचम की तकिीफ न
होगी। मगर इस औरत की बाींह पकडी है तो उसका ननबाह करना, उसे अपनी ब्याहता स्त्री समझो।
नानकचन्द ददि पर से धचन्ता का बोझ उतर गया। बनारस से माहवार वजीफा लमिने िगा। इधर
िलिता की कोलशश ने भी कुछ ददि को खीींचा और गो शराब की ित न टूटी और हफ्ते में दो ददन जरूर
धथयेटर दे खने जाता, तो भी तबबयत में क्स्थरता और कुछ सींयम आ चिा था। इस तरह किकत्ते में उसने
तीन साि काटे । इसी बीच एक प्यारी िडकी के बाप बनने का सौभाग्य हुआ, क्जसका नाम उसने कमिा
रक्खा।
ती सरा साि गज ु रा था कक नानकचन्द के उस शाक्न्तमय जीवन में हिचि पैदा हुई। िािा ज्ञानचन्द
का पचासव ॉँ साि था जो दहन्दोस्तानी रईसों की प्राकृनतक आयु है । उनका स्वगमवास हो गया और
जयोंही यह खबर नानकचन्द को लमिी वह िलिता के पास जाकर चीखें मार-मारकर रोने िगा। क्जन्दगी के
नये-नये मसिे अब उसके सामने आए। इस तीन साि की सभिी हुई क्जन्दगी ने उसके ददि शोहदे पन और
नशेबाजी क खयाि बहुत कुछ दरू कर ददये थे। उसे अब यह कफक्र सवार हुई कक चिकर बनारस में अपनी
जायदाद का कुछ इन्तजाम करना चादहए, वनाम सारा कारोबार में अपनी जायदाद का कुछ इन्तजाम करना
ू में लमि जाएगा। िेककन िलिता को क्या करू। अगर इसे वह ॉँ लिये चिता
चादहए, वनाम सारा कारोबार धि
हू तो तीन साि की परु ानी घटनाएीं ताजी हो जायेगी और कफर एक हिचि पैदा होगी जो मझ ु े हूक्काम
और हमजोहिय ॉँ में जिीि कर दे गी। इसके अिावा उसे अब काननू ी औिाद की जरुरत भी नजर आने िगी
यह हो सकता था कक वह िलिता को अपनी ब्याहता स्त्री मशहूर कर दे ता िेककन इस आम खयाि को दरू
करना असम्भव था कक उसने उसे भगाया हैं िलिता से नानकचन्द को अब वह मह ु ब्बत न थी क्जसमें ददम
होता है और बेचन
ै ी होती है । वह अब एक साधारण पनत था जोगिे में पडे हुए ढोि को पीटना ही अपना
धमम समझता है, क्जसे बीबी की मह
ु ब्बत उसी वक्त याद आती है , जब वह बीमार होती है । और इसमे
अचरज की कोई बात नही है अगर क्जींदगीीं की नयी नयी उमींगों ने उसे उकसाना शरू
ु ककया। मसब
ू े पैदा
होने िेगे क्जनका दौित और बडे िोगों के मेि जोि से सबींध है मानव भावनाओीं की यही साधारण दशा
है । नानकचन्द अब मजबत
ू इराई के साथ सोचने िगा कक यहाीं से क्योंकर भागू। अगर िजाजत िेकर जाता
हूीं। तो दो चार ददन में सारा पदाम फाश हो जाएगा। अगर हीिा ककये जाता हू तो आज के तीसरे ददन
िलिता बनरस में मेरे सर पर सवार होगी कोई ऐसी तरकीब ननकािींू कक इन सम्भावनओीं से मक्ु क्त लमिे।
सोचते-सोचते उसे आखखर एक तदबीर सझ
ु ी। वह एक ददन शाम को दररया की सैर का बाहाना करके चिा
और रात को घर पर न अया। दस
ू रे ददन सब
ु ह को एक चौकीदार िलिता के पास आया और उसे थाने में िे
गया। िलिता है रान थी कक क्या माजरा है । ददि में तरह-तरह की दलु शचन्तायें पैदा हो रही थी वह ॉँ जाकर
जो कैकफयत दे खी तो दनू नया आींखों में अींधरी हो गई नानकचन्द के कपडे खून में तर-ब-तर पडे थे उसकी
वही सनु हरी घडी वही खूबसरू त छतरी, वही रे शमी साफा सब वहा मौजूद था। जेब मे उसके नाम के छपे हुए
काडम थे। कोई सींदेश न रहा कक नानकचन्द को ककसी ने कत्ि कर डािा दो तीन हफ्ते तक थाने में
तककीकातें होती रही और, आखखर कार खन
ू ी का पता चि गया पलु िस के अफसरा को बडे बडे इनाम
लमिे।इसको जासस
ू ी का एक बडा आश्चयम समझा गया। खन
ू ी नेप्रेम की प्रनतद्वन्द्ववता के जोश में यह
िा िा नानकचन्द की शादी एक रईस घराने में हुई और तब धीरे धीरे कफर वही परु ाने उठने बैठनेवािे
आने शरु
ु हुए कफर वही मजलिसे जमीीं और कफर वही सागर-ओ-मीना के दौर चिने िगे। सयींम
का कमजोर अहाता इन ववषय –वासना के बटमारो को न रोक सका। ह ,ॉँ अब इस पीने वपिाने मे कुछ
परदा रखा जाता है। और ऊपर से थोडी सी गम्भीरता बनाये रखी जाती है साि भर इसी बहार में गज
ु रा
नवेिी बहूघर में कुढ़ कुढ़कर मर गई। तपेददक ने उसका काम तमाम कर ददया। तब दस ू री शादी हुई। मगर
इस स्त्री में नानकचन्द की सौन्दयम प्रेमी आींखो के लिए लिए कोई आकषमण न था। इसका भी वही हाि
हुआ। कभी बबना रोये कौर मींह
ु में नही ददया। तीन साि में चि बसी। तब तीसरी शादी हुई। यह औरत
बहुत सन्
ु दर थी अचछी आभष ू णों से सस
ु क्जजत उसने नानकचन्द के ददि मे जगह कर िी एक बच्चा भी
पैदा हुआ था और नानकचन्द गाहमक्स्थ्क आनींदों से पररधचत होने िगा। दनु नया के नाते ररशते अपनी तरफ
खीींचने िगे मगर प्िेग के लिए ही सारे मींसब
ू े धि
ू में लमिा ददये। पनतप्राणा स्त्री मरी, तीन बरस का
प्यारा िडका हाथ से गया। और ददि पर ऐसा दाग छोड गया क्जसका कोई मरहम न था। उच्छश्रख
ीं ृ िता भी
चिी गई ऐयाशी का भी खात्मा हुआ। ददि पर रीं जोगम छागया और तबबयत सींसार से ववरक्त हो गयी।
6
जी
वन की दघु ट
म नाओीं में अकसर बडे महत्व के नैनतक पहिू नछपे हुआ करते है । इन सइमों ने
नानकचन्द के ददि में मरे हुए इन्सान को भी जगा ददया। जब वह ननराशा के यातनापण ू म
अकेिपन में पडा हुआ इन घटनाओीं को याद करता तो उसका ददि रोने िगता और ऐसा मािम ू होता कक
ईश्वर ने मझ
ु े मेरे पापों की सजा दी है धीरे धीरे यह ख्याि उसके ददि में मजबत
ू हो गया। ऊफ मैने उस
मासम
ू औरत पर कैसा जूल्म ककया कैसी बेरहमी की! यह उसी का दण्ड है। यह सोचते-सोचते िलिता की
मायस
ू तस्वीर उसकी आखों के सामने खडी हो जाती और प्यारी मख
ु डेवािी कमिा अपने मरे हूए सौतेि
भाई के साथ उसकी तरफ प्यार से दौडती हुई ददखाई दे ती। इस िम्बी अवधध में नानकचन्द को िलिता
की याद तो कई बार आयी थी मगर भोग वविास पीने वपिाने की उन कैकफयातो ने कभी उस खयाि को
जमने नहीीं ददया। एक धध
ु िा-सा सपना ददखाई ददया और बबखर गया। मािम
ू नहीदोनो मर गयी या क्जन्दा
है । अफसोस! ऐसी बेकसी की हाित में छोउ़कर मैंने उनकी सध
ु तक न िी। उस नेकनामी पर धधक्कार है
क्जसके लिए ऐसी ननदम यता की कीमत दे नी पडे। यह खयाि उसके ददि पर इस बरु ी तरह बैठा कक एक
रोज वह किकत्ता के लिए रवाना हो गया।
सबु ह का वक्त था। वह किकत्ते पहुचा और अपने उसी परु ाने घर को चिा। सारा शहर कुछ हो गया
था। बहुत तिाश के बाद उसे अपना परु ाना घर नजर आया। उसके ददि में जोर से धडकन होने िगी और
भावनाओीं में हिचि पैदा हो गयी। उसने एक पडोसी से पछ
ू ा-इस मकान में कौन रहता है ?
बढ़
ू ा बींगािी था, बोिा-हाम यह नहीीं कह सकता, कौन है कौन नहीीं है । इतना बडा मि
ु क
ु में कौन
ककसको जानता है ? ह ,ॉँ एक िडकी और उसका बढ़
ू ा म ,ॉँ दो औरत रहता है। ववधवा हैं, कपडे की लसिाई
करता है । जब से उसका आदमी मर गया, तब से यही काम करके अपना पेट पािता है ।
इतने में दरवाजा खि
ु ा और एक तेरह-चौदह साि की सन् ु दर िडकी ककताव लिये हुए बाहर ननकिी।
नानकचन्द पहचान गया कक यह कमिा है । उसकी ऑ ींखों में ऑ ींसू उमड आए, बेआक्ख्तयार जी चाहा कक उस
िडकी को छाती से िगा िे। कुबेर की दौित लमि गयी। आवाज को सम्हािकर बोिा-बेटी, जाकर अपनी
अम्म ॉँ से कह दो कक बनारस से एक आदमी आया है । िडकी अन्दर चिी गयी और थोडी दे र में िलिता
दरवाजे पर आयी। उसके चेहरे पर घघट
ू था और गो सौन्दयम की ताजगी न थी मगर आकषमण अब भी था।
ॉँ िी। पनतव्रत और धैयम और ननराशा की सजीव मनू तम सामने खडी
नानकचन्द ने उसे दे खा और एक ठीं डी स स
थी। उसने बहुत जोर िगाया, मगर जब्त न हो सका, बरबस रोने िगा। िलिता ने घींघ
ू ट की आउ़ से उसे
दे खा और आश्चयम के सागर में डूब गयी। वह धचत्र जो हृदय-पट पर अींककत था, और जो जीवन के
अल्पकालिक आनन्दों की याद ददिाता रहता था, जो सपनों में सामने आ-आकर कभी खश
ु ी के गीत सन
ु ाता
था और कभी रीं ज के तीर चभ
ु ाता था, इस वक्त सजीव, सचि सामने खडा था। िलिता पर ऐ बेहोशी छा
मनािन
द याशींकर को कौमी जिसों से बहुत ददिचस्पी थी। इस ददिचस्पी की बनु नयाद उसी जमाने में पडी जब
वह कानन ू की दरगाह के मज
ु ाववर थे और वह अक तक कायम थी। रुपयों की थैिी गायब हो गई थी
मगर कींधों में ददम मौजूद था। इस साि काींफ्रेंस का जिसा सतारा में होने वािा था। ननयत तारीख से एक
रोज पहिे बाबू साहब सतारा को रवाना हुए। सफर की तैयाररयों में इतने व्यस्त थे कक धगररजा से बातचीत
करने की भी फुसमत न लमिी थी। आनेवािी खलु शयों की उम्मीद उस क्षखणक ववयोग के खयाि के ऊपर भारी
थी।
कैसा शहर होगा! बडी तारीफ सन
ु ते हैं। दकन सौन्दयम और सींपदा की खान है । खब
ू सैर रहे गी। हजरत
तो इन ददि को खश
ु करनेवािे ख्यािों में मस्त थे और धगररजा ऑ ींखों में आींसू भरे अपने दरवाजे पर खडी
यह कैकफयि दे ख रही थी और ईश्वर से प्राथमना कर रही थी कक इन्हें खैररतय से िाना। वह खद
ु एक हफ्ता
कैसे काटे गी, यह ख्याि बहुत ही कष्ट दे नव
े ािा था।
धगररजा इन ववचारों में व्यस्त थी दयाशींकर सफर की तैयाररयों में । यह ॉँ तक कक सब तैयाररय ॉँ परू ी हो
गई। इक्का दरवाजे पर आ गया। बबसतर और रीं क उस पर रख ददये और तब ववदाई भें ट की बातें होने
िगीीं। दयाशींकर धगररजा के सामने आए और मस्ु कराकर बोिे-अब जाता हू।
धगररजा के किेजे में एक बछी-सी िगी। बरबस जी चाहा कक उनके सीने से लिपटकर रोऊ। ऑ ींसओ
ु ीं
की एक बाढ़-सी ऑ ींखें में आती हुई मािम
ू हुई मगर जब्त करके बोिी-जाने को कैसे कहू, क्या वक्त आ
गया?
इयाशींकर-ह ,ॉँ बक्ल्क दे र हो रही है ।
धगररजा-मींगि की शाम को गाडी से आओगे न?
दयाशींकर-जरूर, ककसी तरह नहीीं रूक सकता। तुम लसफम उसी ददन मेरा इींतजार करना।
धगररजा-ऐसा न हो भिू जाओ। सतारा बहुत अच्छा शहर है ।
दयाशींकर-(हसकर) वह स्वगम ही क्यों न हो, मींगि को यह ॉँ जरूर आ जाऊगा। ददि बराबर यहीीं रहे गा।
तुम जरा भी न घबराना।
यह कहकर धगररजा को गिे िगा लिया और मस्
ु कराते हुए बाहर ननकि आए। इक्का रवाना हो गया।
धगररजा पिींग पर बैठ गई और खब
ू रोयी। मगर इस ववयोग के दख ु , ऑ ींसओ
ु ीं की बाढ़, अकेिेपन के ददम
और तरह-तरह के भावों की भीड के साथ एक और ख्याि ददि में बैठा हुआ था क्जसे वह बार-बार हटाने की
कोलशश करती थी-क्या इनके पहिू में ददि नहीीं है! या है तो उस पर उन्हें परू ा-परू ा अधधकार है ? वह
मस्
ु कराहट जो ववदा होते वक्त दयाशींकर के चेहरे र िग रही थी, धगररजा की समझ में नहीीं आती थी।
बा बू दयाशींकर वादे के रोज के तीन ददन बाद मकान पर पहुचे। सतारा से धगररजा के लिए कई अनठ
तोहफे िाये थे। मगर उसने इन चीजों को कुछ इस तरह दे खा कक जैसे उनसे उसका जी भर गया
है । उसका चेहरा उतरा हुआ था और होंठ सख
ू े
ू े थे। दो ददन से उसने कुछ नहीीं खाया था। अगर चिते वक्त
दयाशींकर की आींख से आसू की चन्द बद ींू ें टपक पडी होतीीं या कम से कम चेहरा कुछ उदास और आवाज
कुछ भारी हो गयी होती तो शायद धगररजा उनसे न रूठती। आसओ
ु ीं की चन्द बदें
ू उसके ददि में इस खयाि
को तरो-ताजा रखतीीं कक उनके न आने का कारण चाहे ओर कुछ हो ननष्ठुरता हरधगज नहीीं है। शायद हाि
पछ
ू ने के लिए उसने तार ददया होता और अपने पनत को अपने सामने खैररयत से दे खकर वह बरबस उनके
सीने में जा धचमटती और दे वताओीं की कृतज्ञ होती। मगर आखों की वह बेमौका कींजस
ू ी और चेहरे की वह
शा म हुई। शहर की गलियों में मोनतये और बेिे की िपटें आने िगीीं। सडकों पर नछडकाव होने िगा
और लमट्टी की सोंधी खशु बू उडने िगी। धगररजा खाना पकाने जा रही थी कक इतने में उसके
दरवाजे पर इक्का आकर रूका और उसमें से एक औरत उतर पडी। उसके साथ एक महरी थी उसने ऊपर
आकर धगररजा से कहा—बहू जी, आपकी सखी आ रही हैं।
यह सखी पडोस में रहनेवािी अहिमद साहब की बीवी थीीं। अहिमद साहब बढ़
ू े आदमी थे। उनकी
पहिी शादी उस वक्त हुई थी, जब दधू के द तॉँ न टूटे थे। दस
ू री शादी सींयोग से उस जमाने में हुई जब मह ु
ॉँ भी बाकी न था। िोगों ने बहुत समझाया कक अब आप बढ़
में एक द त ू े हुए, शादी न कीक्जए, ईश्वर ने
िडके ददये हैं, बहुए हैं, आपको ककसी बात की तकिीफ नहीीं हो सकती। मगर अहिमद साहब खुद बढ् ु डे
और दनु नया दे खे हुए आदमी थे, इन शभु धचींतकों की सिाहों का जवाब व्यावहाररक उदाहरणों से ददया करते
थे—क्यों, क्या मौत को बढ़
ू ों से कोई दश्ु मनी है ? बढ़
ू े गरीब उसका क्या बबगाडते हैं? हम बाग में जाते हैं तो
मरु झाये हुए फूि नहीीं तोडते, हमारी आखें तरो-ताजा, हरे -भरे खूबसरू त फूिों पर पडती हैं। कभी-कभी गजरे
वगैरह बनाने के लिए कलिय ॉँ भी तोड िी जाती हैं। यही हाित मौत की है। क्या यमराज को इतनी समझ
भी नहीीं है। मैं दावे के साथ कह सकता हू कक जवान और बच्चे बढ़ ू ों से जयादा मरते हैं। मैं अभी जयों का
त्यो हू, मेरे तीन जवान भाई, प च ॉँ बहनें, बहनों के पनत, तीनों भावजें, चार बेटे, प च
ॉँ बेदटय ,ॉँ कई भतीजे,
ॉँ
सब मेरी आखों के सामने इस दनु नया से चि बसे। मौत सबको ननगि गई मगर मेरा बाि ब का न कर
सकी। यह गित, बबिकुि गित है कक बढ़
ू े आदमी जल्द मर जाते हैं। और असि बात तो यह है कक जबान
बीवी की जरूरत बढ़ ु ापे में ही होती है। बहुए मेरे सामने ननकिना चाहें और न ननकि सकती हैं, भावजें खुद
बढ़
ू ी हुईं, छोटे भाई की बीवी मेरी परछाईं भी नही दे ख सकती है , बहनें अपने-अपने घर हैं, िडके सीधे मह ींु
बात नहीीं करते। मैं ठहरा बढ़
ू ा, बीमार पडू तो पास कौन फटके, एक िोटा पानी कौन दे , दे खू ककसकी आख
से, जी कैसे बहिाऊ? क्या आत्महत्या कर ि।ू या कहीीं डूब मरू? इन दिीिों के मक
ु ाबबिे में ककसी की
जबान न खि
ु ती थी।
गरज इस नयी अहिमददन और धगररजा में कुछ बहनापा सा हो गया था, कभी-कभी उससे लमिने आ
जाया करती थी। अपने भाग्य पर सन्तोष करने वािी स्त्री थी, कभी लशकायत या रीं ज की एक बात जबान
अाँधेर
ना
दक
ू
ॉँ
गपींचमी आई। साठे के क्जन्दाददि नौजवानों ने रीं ग-बबरीं गे ज नघये
मदामना सदायें गजने
बनवाये। अखाडे में ढोि की
िगीीं। आसपास के पहिवान इकट्ठे हुए और अखाडे पर तम्बोलियों ने अपनी
ु ानें सजायीीं क्योंकक आज कुश्ती और दोस्ताना मक
ु ाबिे का ददन है । औरतों ने गोबर से अपने आगन िीपे
और गाती-बजाती कटोरों में दध
ू -चावि लिए नाग पज
ू ने चिीीं।
साठे और पाठे दो िगे हुए मौजे थे। दोनों गींगा के ककनारे । खेती में जयादा मशक्कत नहीीं करनी
पडती थी इसीलिए आपस में फौजदाररय ॉँ खब ू होती थीीं। आददकाि से उनके बीच होड चिी आती थी।
साठे वािों को यह घमण्ड था कक उन्होंने पाठे वािों को कभी लसर न उठाने ददया। उसी तरह पाठे वािे अपने
प्रनतद्वींद्ववयों को नीचा ददखिाना ही क्जन्दगी का सबसे बडा काम समझते थे। उनका इनतहास ववजयों की
कहाननयों से भरा हुआ था। पाठे के चरवाहे यह गीत गाते हुए चिते थे:
द स बजे रात का वक्त और सावन का महीना। आसमान पर कािी घटाए छाई थीीं। अींधेरे का यह हाि
था कक जैसे रोशनी का अक्स्तत्व ही नहीीं रहा। कभी-कभी बबजिी चमकती थी मगर अधेरे को और
जयादा अींधेरा करने के लिए। में ढकों की आवाजें क्जन्दगी का पता दे ती थीीं वनाम और चारों तरफ मौत थी।
खामोश, डरावने और गम्भीर साठे के झोंपडे और मकान इस अींधेरे में बहुत गौर से दे खने पर कािी-कािी
भेडों की तरह नजर आते थे। न बच्चे रोते थे, न औरतें गाती थीीं। पाववत्रात्मा बड्
ु ढे राम नाम न जपते थे।
मगर आबादी से बहुत दरू कई परु शोर नािों और ढाक के जींगिों से गज
ु रकर जवार और बाजरे के
खेत थे और उनकी में डों पर साठे के ककसान जगह-जगह मडैया डािे खेतों की रखवािी कर रहे थे। तिे
जमीन, ऊपर अींधरे ा, मीिों तक सन्नाटा छाया हुआ। कहीीं जींगिी सअ
ु रों के गोि, कहीीं नीिगायों के रे वड,
धचिम के लसवा कोई साथी नहीीं, आग के लसवा कोई मददगार नहीीं। जरा खटका हुआ और चौंके पडे। अींधेरा
भय का दस
ू रा नाम है, जब लमट्टी का एक ढे र, एक ठूठा पेड और घास का ढे र भी जानदार चीजें बन जाती
हैं। अींधेरा उनमें जान डाि दे ता है । िेककन यह मजबत
ू हाथोंवािे, मजबत
ू क्जगरवािे, मजबत
ू इरादे वािे
ककसान हैं कक यह सब सक्ख्तय । झेिते हैं ताकक अपने जयादा भाग्यशािी भाइयों के लिए भोग-वविास के
अचाकन उसे ककसी के प वॉँ की आहट मािम ू हुई। जैसे दहरन कुत्तों की आवाजों को कान िगाकर
सन
ु ता है उसी तरह गोपि ने भी कान िगाकर सन
ु ा। नीींद की औींघाई दरू हो गई। िट्ठ कींधे पर रक्खा और
मडैया से बाहर ननकि आया। चारों तरफ कालिमा छाई हुई थी और हिकी-हिकी बद
ींू ें पड रही थीीं। वह बाहर
ननकिा ही था कक उसके सर पर िाठी का भरपरू हाथ पडा। वह त्योराकर धगरा और रात भर वहीीं बेसध ु
पडा रहा। मािम
ू नहीीं उस पर ककतनी चोटें पडीीं। हमिा करनेवािों ने तो अपनी समझ में उसका काम
तमाम कर डािा। िेककन क्जन्दगी बाकी थी। यह पाठे के गैरतमन्द िोग थे क्जन्होंने अींधेरे की आड में
अपनी हार का बदिा लिया था।
गो
पाि जानत का अहीर था, न पढ़ा न लिखा, बबिकुि अक्खड। ददमागा रौशन ही नहीीं हुआ तो शरीर
का दीपक क्यों घि
ु ता। परू े छ: फुट का कद, गठा हुआ बदन, ििकान कर गाता तो सन
ु नेवािे मीि
भर पर बैठे हुए उसकी तानों का मजा िेते। गाने-बजाने का आलशक, होिी के ददनों में महीने भर तक गाता,
सावन में मल्हार और भजन तो रोज का शगि था। ननडर ऐसा कक भत ू और वपशाच के अक्स्तत्व पर उसे
ववद्वानों जैसे सींदेह थे। िेककन क्जस तरह शेर और चीते भी िाि िपटों से डरते हैं उसी तरह िाि पगडी
से उसकी रूह असाधारण बात थी िेककन उसका कुछ बस न था। लसपाही की वह डरावनी तस्वीर जो बचपन
में उसके ददि पर खीींची गई थी, पत्थर की िकीर बन गई थी। शरारतें गयीीं, बचपन गया, लमठाई की भख
ू
गई िेककन लसपाही की तस्वीर अभी तक कायम थी। आज उसके दरवाजे पर िाि पगडीवािों की एक फौज
जमा थी िेककन गोपाि जख्मों से चरू , ददम से बेचन
ै होने पर भी अपने मकान के अींधेरे कोने में नछपा हुआ
बैठा था। नम्बरदार और मखु खया, पटवारी और चौकीदार रोब खाये हुए ढीं ग से खडे दारोगा की खुशामद कर
रहे थे। कहीीं अहीर की फररयाद सन
ु ाई दे ती थी, कहीीं मोदी रोना-धोना, कहीीं तेिी की चीख-पक
ु ार, कहीीं
कमाई की आखों से िहू जारी। किवार खडा अपनी ककस्मत को रो रहा था। फोहश और गन्दी बातों की
गममबाजारी थी। दारोगा जी ननहायत कारगुजार अफसर थे, गालियों में बात करते थे। सब
ु ह को चारपाई से
उठते ही गालियों का वजीफा पढ़ते थे। मेहतर ने आकर फररयाद की-हुजरू , अण्डे नहीीं हैं, दारोगाजी हण्टर
िेकर दौडे औश्र उस गरीब का भरु कुस ननकाि ददया। सारे ग वॉँ में हिचि पडी हुई थी। काींलसटे बि और
चौकीदार रास्तों पर यों अकडते चिते थे गोया अपनी ससरु ाि में आये हैं। जब ग वॉँ के सारे आदमी आ गये
तो वारदात हुई और इस कम्बख्त गोिाि ने रपट तक न की।
ॉँ
मखु खया साहब बेंत की तरह क पते हुए बोिे-हुजूर, अब माफी दी जाय।
दारोगाजी ने गाजबनाक ननगाहों से उसकी तरफ दे खकर कहा-यह इसकी शरारत है। दनु नया जानती है
कक जुमम को छुपाना जुमम करने के बराबर है । मैं इस बदकाश को इसका मजा चखा दगा।
ू वह अपनी ताकत
के जोम में भि
ू ा हुआ है , और कोई बात नहीीं। िातों के भत
ू बातों से नहीीं मानते।
मखु खया साहब ने लसर झक ु ाकर कहा-हुजूर, अब माफी दी जाय।
दारोगाजी की त्योररय ॉँ चढ़ गयीीं और झींझु िाकर बोिे-अरे हजूर के बच्चे, कुछ सदठया तो नहीीं गया है।
अगर इसी तरह माफी दे नी होती तो मझ ु े क्या कुत्ते ने काटा था कक यह ॉँ तक दौडा आता। न कोई मामिा,
न ममािे की बात, बस माफी की रट िगा रक्खी है । मझु े जयादा फुरसत नहीीं है । नमाज पढ़ता हू, तब तक
तम
ु अपना सिाह मशववरा कर िो और मझ ु े हसी-खशु ी रुखसत करो वनाम गौसख ॉँ को जानते हो, उसका
ॉँ
मारा पानी भी नही म गता!
ॉँ वक्त की नमाज पढ़ते और तीसों रोजे रखते, ईदों में
दारोगा तकवे व तहारत के बडे पाबन्द थे प चों
ू धाम से कुबामननय ॉँ होतीीं। इससे अच्छा आचरण ककसी आदमी में और क्या हो सकता है !
धम
कफ
र सबु ह हुई िेककन गोपाि के दरवाजे पर आज िाि पगडडयों के बजाय िाि साडडयों का जमघट
था। गौरा आज दे वी की पज ू ा करने जाती थी और ग वॉँ की औरतें उसका साथ दे ने आई थीीं।
उसका घर सोंधी-सोंधी लमट्टी की खुशबू से महक रहा था जो खस और गुिाब से कम मोहक न थी। औरतें
सह
ु ाने गीत गा रही थीीं। बच्चे खुश हो-होकर दौडते थे। दे वी के चबत
ू रे पर उसने लमटटी का हाथी चढ़ाया।
ॉँ में सेंदरु डािा। दीवान साहब को बताशे और हिआ
सती की म ग ु खखिाया। हनम
ु ान जी को िड्डू से जयादा
प्रेम है , उन्हें िड्डू चढ़ाये तब गाती बजाती घर को आयी और सत्यनारायण की कथा की तैयाररय ॉँ होने िगीीं
ॉँ
। मालिन फूि के हार, केिे की शाखें और बन्दनवारें िायीीं। कुम्हार नये-नये ददये और ह डडया दे गया। बारी
हरे ढाक के पत्ति और दोने रख गया। कहार ने आकर मटकों में पानी भरा। बढ़ई ने आकर गोपाि और
गौरा के लिए दो नयी-नयी पीदढ़य ॉँ बनायीीं। नाइन ने ऑ ींगन िीपा और चौक बनायी। दरवाजे पर बन्दनवारें
बध गयीीं। ऑ ींगन में केिे की शाखें गड गयीीं। पक्ण्डत जी के लिए लसींहासन सज गया। आपस के कामों की
व्यवस्था खुद-ब-खुद अपने ननक्श्चत दायरे पर चिने िगी । यही व्यवस्था सींस्कृनत है क्जसने दे हात की
क्जन्दगी को आडम्बर की ओर से उदासीन बना रक्खा है । िेककन अफसोस है कक अब ऊच-नीच की
बेमतिब और बेहूदा कैदों ने इन आपसी कतमव्यों को सौहाद्रम सहयोग के पद से हटा कर उन पर अपमान
और नीचता का दागािगा ददया है।
शाम हुई। पक्ण्डत मोटे रामजी ने कन्धे पर झोिी डािी, हाथ में शींख लिया और खडाऊ पर खटपट
करते गोपाि के घर आ पहुचे। ऑ ींगन में टाट बबछा हुआ था। ग वॉँ के प्रनतक्ष्ठत िोग कथा सनु ने के लिए
आ बैठे। घण्टी बजी, शींख फींु का गया और कथा शरू
ु हुईं। गोपाि भी गाढ़े की चादर ओढ़े एक कोने में फींू का
गया और कथा शरू ु हुई। गोजाि भी गाढ़े की चादर ओढ़े एक कोने में दीवार के सहारे बैठा हुआ था।
मखु खया, नम्बरदार और पटवारी ने मारे हमददी के उससे कहा—सत्यनारायण क मदहमा थी कक तुम पर कोई
ऑ ींच न आई।
गोपाि ने अगडाई िेकर कहा—सत्यनारायण की मदहमा नहीीं, यह अींधरे है।
--जमाना, जि
ु ाई १९१३
मिर्त एक आिाज
सबहवािा
ु था। ठाकुर साहब अपनी बढ़ू ी ठकुराइन के साथ गींगाजी जाते थे इसलिए सारा घर उनकी परु शोर
का वक्त था। ठाकुर दशमनलसींह के घर में एक हीं गामा बरपा था। आज रात को चन्द्रग्रहण होने
तैयारी में िगा हुआ था। एक बहू उनका फटा हुआ कुताम ट क ॉँ रही थी, दसू री बहू उनकी पगडी लिए सोचती
थी, कक कैसे इसकी मरम्मत करूाीं दोनो िडककय ॉँ नाश्ता तैयार करने में तल्िीन थीीं। जो जयादा ददिचस्प
काम था और बच्चों ने अपनी आदत के अनस
ु ार एक कुहराम मचा रक्खा था क्योंकक हर एक आने-जाने के
मौके पर उनका रोने का जोश उमींग पर होत था। जाने के वक्त साथा जाने के लिए रोते, आने के वक्त
ॉँ
इसलिए रोते ककशरीनी का ब ट-बखरा मनोनकु ू ि नहीीं हुआ। बढ़ी ठकुराइन बच्चों को फुसिाती थी और बीच-
बीच में अपनी बहुओीं को समझाती थी-दे खों खबरदार ! जब तक उग्रह न हो जाय, घर से बाहर न
ननकिना। हलसया, छुरी ,कुल्हाडी , इन्हें हाथ से मत छुना। समझाये दे ती हू, मानना चाहे न मानना। तुम्हें
मेरी बात की परवाह है । मींह
ु में पानी की बींद
ू े न पडें। नारायण के घर ववपत पडी है । जो साध—
ु लभखारी
दरवाजे पर आ जाय उसे फेरना मत। बहुओीं ने सन ु ा और नहीीं सन
ु ा। वे मना रहीीं थीीं कक ककसी तरह यह
यह ॉँ से टिें। फागुन का महीना है , गाने को तरस गये। आज खूब गाना-बजाना होगा।
ठाकुर साहब थे तो बढ़ ू े , िेककन बढ़
ू ापे का असर ददि तक नहीीं पहुचा था। उन्हें इस बात का गवम था
कक कोई ग्रहण गींगा-स्नान के बगैर नहीीं छूटा। उनका ज्ञान आश्चयम जनक था। लसफम पत्रों को दे खकर महीनों
पहिे सय
ू -म ग्रहण और दस
ू रे पवो के ददन बता दे ते थे। इसलिए गाववािों की ननगाह में उनकी इजजत अगर
पक्ण्डतों से जयादा न थी तो कम भी न थी। जवानी में कुछ ददनों फौज में नौकरी भी की थी। उसकी गमी
अब तक बाकी थी, मजाि न थी कक कोई उनकी तरफ सीधी आख से दे ख सके। सम्मन िानेवािे एक
ॉँ ग वॉँ में भी नहीीं लमि
चपरासी को ऐसी व्यावहाररक चेतावनी दी थी क्जसका उदाहरण आस-पास के दस-प च
सकता। दहम्मत और हौसिे के कामों में अब भी आगे-आगे रहते थे ककसी काम को मक्ु श्कि बता दे ना,
उनकी दहम्मत को प्रेररत कर दे ना था। जह ॉँ सबकी जबानें बन्द हो जाए, वह ॉँ वे शेरों की तरह गरजते थे।
जब कभी ग वॉँ में दरोगा जी तशरीफ िाते तो ठाकुर साहब ही का ददि-गुदाम था कक उनसे आखें लमिाकर
आमने-सामने बात कर सकें। ज्ञान की बातों को िेकर नछडनेवािी बहसों के मैदान में भी उनके कारनामे
कुछ कम शानदार न थे। झगडा पक्ण्डत हमेशा उनसे मह ु नछपाया करते। गरज, ठाकुर साहब का स्वभावगत
ू हा बनने पर मजबरू कर दे ता था। ह ,ॉँ कमजोरी इतनी थी कक
गवम और आत्म-ववश्वास उन्हें हर बरात में दल्
अपना आल्हा भी आप ही गा िेते और मजे िे-िेकर क्योंकक रचना को रचनाकार ही खूब बयान करता है !
ज ब दोपहर होते-होते ठाकुराइन ग वॉँ से चिे तो सैंकडों आदमी उनके साथ थे और पक्की सडक पर
ॉँ िगा हुआ था कक जैसे कोई बाजार है। ऐसे-ऐसे बढ़
पहुचे, तो याबत्रयों का ऐसा त ता ु ें िादठय ॉँ टे कते
या डोलियों पर सवार चिे जाते थे क्जन्हें तकिीफ दे ने की यमराज ने भी कोई जरूरत न समझी थी। अन्धे
दस
ू रों की िकडी के सहारे कदम बढ़ाये आते थे। कुछ आदलमयों ने अपनी बढ़
ू ी माताओीं को पीठ पर िाद
लिया था। ककसी के सर पर कपडों की पोटिी, ककसी के कन्धे पर िोटा-डोर, ककसी के कन्धे पर कावर।
ू े कह ॉँ से िायें। मगर धालममक उत्साह का यह
ककतने ही आदलमयों ने पैरों पर चीथडे िपेट लिये थे, जत
वरदान था कक मन ककसी का मैिा न था। सबके चेहरे खखिे हुए, हसते-हसते बातें करते चिे जा रहे थें कुछ
औरतें गा रही थी:
च दॉँ सरू ज दन
ू ो िोक के मालिक
एक ददना उनहू पर बनती
हम जानी हमहीीं पर बनती
ऐसा मािम
ू होता था, यह आदलमयों की एक नदी थी, जो सैंकडों छोटे -छोटे नािों और धारों को िेती
हुई समद्र
ु से लमिने के लिए जा रही थी।
जब यह िोग गींगा के ककनारे पहुचे तो तीसरे पहर का वक्त था िेककन मीिों तक कहीीं नति रखने
की जगह न थी। इस शानदार दृश्य से ददिों पर ऐसा रोब और भक्क्त का ऐसा भाव छा जाता था कक
सू रज गींगा की गोद में जा बैठा था और म ॉँ प्रेम और गवम से मतवािी जोश में उमडी हुई रीं ग केसर को
शमामती और चमक में सोने की िजाती थी। चार तरफ एक रोबीिी खामोशी छायी थीीं उस सन्नाटे में
सींन्यासी की गमी और जोश से भरी हुई बातें गींगा की िहरों और गगनचम्
ु बी मींददरों में समा गयीीं। गींगा
एक गम्भीर म ॉँ की ननराशा के साथ हसी और दे वताओीं ने अफसोस से लसर झक ु ा लिया, मगर मह ु से कुछ
न बोिे।
सींन्यासी की जोशीिी पक
ु ार कफजाीं में जाकर गायब हो गई, मगर उस मजमे में ककसी आदमी के ददि
तक न पहुची। वह ॉँ कौम पर जान दे ने वािों की कमी न थी: स्टे जों पर कौमी तमाशे खेिनेवािे कािेजों के
होनहार नौजवान, कौम के नाम पर लमटनेवािे पत्रकार, कौमी सींस्थाओीं के मेम्बर, सेक्रेटरी और प्रेलसडेंट, राम
और कृष्ण के सामने लसर झक ु ानेवािे सेठ और साहूकार, कौमी कालिजों के ऊचे हौंसिोंवािे प्रोफेसर और
अखबारों में कौमी तरक्क्कयों की खबरें पढ़कर खश
ु होने वािे दफ्तरों के कममचारी हजारों की तादाद में मौजद
ू
थे। आखों पर सन
ु हरी ऐनकें िगाये, मोटे -मोटे वकीिों क एक परू ी फौज जमा थी। मगर सींन्यासी के उस
गमम भाषण से एक ददि भी न वपघिा क्योंकक वह पत्थर के ददि थे क्जसमें ददम और घि
ु ावट न थी,
क्जसमें सददच्छा थी मगर कायम-शक्क्त न थी, क्जसमें बच्चों की सी इच्छा थी मदो का–सा इरादा न था।
सारी मजलिस पर सन्नाटा छाया हुआ था। हर आदमी लसर झक ु ाये कफक्र में डूबा हुआ नजर आता
था। शलमिंदगी ककसी को सर उठाने न दे ती थी और आखें झेंप में मारे जमीन में गडी हुई थी। यह वही सर
हैं जो कौमी चचों पर उछि पडते थे, यह वही आखें हैं जो ककसी वक्त राष्रीय गौरव की िािी से भर जाती
थी। मगर कथनी और करनी में आदद और अन्त का अन्तर है। एक व्यक्क्त को भी खडे होने का साहस न
हुआ। कैंची की तरह चिनेवािी जबान भी ऐसे महान ् उत्तरदानयत्व के भय से बन्द हो गयीीं।
ठा कुर दशमनलसींह अपनी जगी पर बैठे हुए इस दृश्य को बहुत गौर और ददिचस्पी से दे ख रहे थे। वह
अपने मालममक ववश्वासो में चाहे कट्टर हो या न हों, िेककन साींस्कृनतक मामिों में वे कभी अगव
करने के दोषी नहीीं हुए थे। इस पेचीदा और डरावने रास्ते में उन्हें अपनी बद्
ु ाई
ु धध और वववेक पर भरोसा नहीीं
होता था। यह ीं तकम और यक्ु क्त को भी उनसे हार माननी पडती थी। इस मैदान में वह अपने घर की क्स्त्रयों
की इच्छा परू ी करने ही अपना कत्तमव्य समझते थे और चाहे उन्हें खुद ककसी मामिे में कुछ एतराज भी हो
िेककन यह औरतों का मामिा था और इसमें वे हस्तक्षेप नहीीं कर सकते थे क्योंकक इससे पररवार की
व्यवस्था में हिचि और गडबडी पैदा हो जाने की जबरदस्त आशींका रहती थी। अगर ककसी वक्त उनके कुछ
जोशीिे नौजवान दोस्त इस कमजोरी पर उन्हें आडे हाथों िेते तो वे बडी बद्
ु धधमत्ता से कहा करते थे—भाई,
यह औरतों के मामिे हैं, उनका जैसा ददि चाहता है, करती हैं, मैं बोिनेवािा कौन हू। गरज यह ॉँ उनकी
फौजी गमम-लमजाजी उनका साथ छोड दे ती थी। यह उनके लिए नतलिस्म की घाटी थी जह ॉँ होश-हवास बबगड
जाते थे और अन्धे अनक
ु रण का पैर बधी हुई गदम न पर सवार हो जाता था।
िेककन यह ििकार सन ु कर वे अपने को काबू में न रख सके। यही वह मौका था जब उनकी दहम्मतें
आसमान पर जा पहुचती थीीं। क्जस बीडे को कोई न उठाये उसे उठाना उनका काम था। वजमनाओीं से उनको
आक्त्मक प्रेम था। ऐसे मौके पर वे नतीजे और मसिहत से बगावत कर जाते थे और उनके इस हौसिे में
यश के िोभ को उतना दखि नहीीं था क्जतना उनके नैसधगमक स्वाभाव का। वनाम यह असम्भव था कक एक
ऐसे जिसे में जह ॉँ ज्ञान और सभ्यता की धम
ू -धाम थी, जह ॉँ सोने की ऐनकों से रोशनी और तरह-तरह के
पररधानों से दीप्त धचन्तन की ककरणें ननकि रही थीीं, जह ॉँ कपडे-ित्ते की नफासत से रोब और मोटापे से
इ तना सन
ु ना था कक दो हजार आखें अचम्भे से उसकी तरफ ताकने िगीीं। सभ
थी—गाढे की ढीिी लमजमई, घट
ु ानअल्िाह, क्या हुलिया
ु नों तक चढ़ी हुई धोती, सर पर एक भारी-सा उिझा हुआ साफा, कन्धे पर
चन
ु ौटी और तम्बाकू का वजनी बटुआ, मगर चेहरे से गम्भीरता और दृढ़ता स्पष्ट थी। गवम आखों के तींग घेरे
से बाहर ननकिा पडता था। उसके ददि में अब इस शानदार मजमे की इजजत बाकी न रही थी। वह परु ाने
वक्तों का आदमी था जो अगर पत्थर को पज
ू ता था तो उसी पत्थर से डरता भी था, क्जसके लिए एकादशी
का व्रत केवि स्वास्थ्य-रक्षा की एक यक्ु क्त और गींगा केवि स्वास्थ्यप्रद पानी की एक धारा न थी। उसके
ववश्वासों में जागनृ त न हो िेककन दवु वधा नहीीं थी। यानी कक उसकी कथनी और करनी में अन्तर न था और
न उसकी बनु नयाद कुछ अनक
ु रण और दे खादे खी पर थी मगर अधधकाींशत: भय पर, जो ज्ञान के आिोक के
बाद वनृ तयों के सींस्कार की सबसे बडी शक्क्त है । गेरुए बाने का आदर और भक्क्त करना इसके धमम और
ववश्वास का एक अींग था। सींन्यास में उसकी आत्मा को अपना अनच
ु र बनाने की एक सजीव शक्क्त नछपी
हुई थी और उस ताकत ने अपना असर ददखाया। िेककन मजमे की इस हैरत ने बहुत जल्द मजाक की सरू त
अक्ख्तयार की। मतिबभरी ननगाहें आपस में कहने िगीीं—आखखर गींवार ही तो ठहरा! दे हाती है, ऐसे भाषण
कभी काहे को सन
ु े होंगे, बस उबि पडा। उथिे गड्ढे में इतना पानी भी न समा सका! कौन नहीीं जानता कक
ऐसे भाषणों का उद्दे श्य मनोरीं जन होता है ! दस आदमी आये, इकट्ठे बैठ, कुछ सन
ु ा, कुछ गप-शप मारी
और अपने-अपने घर िौटे , न यह कक कौि-करार करने बैठे, अमि करने के लिए कसमें खाये!
ु क की रोशनी में इतना अींधरे ा है, वह ॉँ कभी
मगर ननराश सींन्यासी सो रहा था—अफसोस, क्जस मल्
रोशनी का उदय होना मक्ु श्कि नजर आता है । इस रोशनी पर, इस अींधेरी, मद
ु ाम और बेजान रोशनी पर मैं
जहाित को, अज्ञान को जयादा ऊची जगह दे ता हू। अज्ञान में सफाई है और दहम्मत है , उसके ददि और
जबान में पदाम नहीीं होता, न कथनी और करनी में ववरोध। क्या यह अफसोस की बात नहीीं है कक ज्ञान और
अज्ञान के आगे लसर झक
ु ाये? इस सारे मजमें में लसफम एक आदमी है, क्जसके पहिू में मदों का ददि है और
गो उसे बहुत सजग होने का दावा नहीीं िेककन मैं उसके अज्ञान पर ऐसी हजारों जागनृ तयों को कुबामन कर
सकता हू। तब वह प्िेटफामम से नीचे उतरे और दशमनलसींह को गिे से िगाकर कहा—ईश्वर तम् ु हें प्रनतज्ञा पर
कायम रखे।
--जमाना, अगस्त-लसतम्बर १९१३
आखखरी मंजजल
आ ह ? आज तीन साि गज
ु र गए, यही मकान है , यही बाग है , यही गींगा का ककनारा, यही सींगमरमर
का हौज। यही मैं हू और यही दरोदीवार। मगर इन चीजों से ददि पर कोई असर नहीीं होता। वह
नशा जो गींगा की सह
ु ानी और हवा के ददिकश झौंकों से ददि पर छा जाता था। उस नशे के लिए अब जी
तरस-जरस के रह जाता है । अब वह ददि नही रहा। वह यव
ु ती जो क्जींदगी का सहारा थी अब इस दनु नया में
नहीीं है।
मोदहनी ने बडा आकषमक रूप पाया था। उसके सौंदयम में एक आश्चयमजनक बात थी। उसे प्यार करना
मक्ु श्कि था, वह पज
ू ने के योग्य थी। उसके चेहरे पर हमेशा एक बडी िभ
ु ावनी आक्त्मकता की दीक्प्त रहती
थी। उसकी आींखे क्जनमें िाज और गींभीरता और पववत्रता का नशा था, प्रेम का स्रोत थी। उसकी एक-एक
धचतवन, एक-एक कक्रया एक-एक बात उसके ह्रदय की पववत्रता और सच्चाई का असर ददि पर पैदा करती
थी। जब वह अपनी शमीिी आींखों से मेरी ओर ताकती तो उसका आकषमण और असकी गमी मेरे ददि में
शा म का वक्त था, ददन और रात गिे लमि रहे थे। आसमान पर मतवािी घटायें छाई हुई थीीं और मैं
मोदहनी के साथ उसी हौज के ककनारे बैठा हुआ था। ठण्डी-ठण्डी बयार और मस्त घटायें हृदय के
ककसी कोने में सोते हुए प्रेम के भाव को जगा ददया करती हैं। वह मतवािापन जो उस वक्त हमारे ददिों पर
छाया हुआ था उस पर मैं हजारों होशमींददयों को कुबामन कर सकता हू। ऐसा मािम ू होता था कक उस मस्ती
के आिम में हमारे ददि बेताब होकर आींखों से टपक पडेंगे। आज मोदहनी की जबान भी सींयम की बेडडयों से
मक्
ु त हो गई थी और उसकी प्रेम में डूबी हुई बातों से मेरी आत्मा को जीवन लमि रहा था।
एकाएक मोदहनी ने चौंककर गींगा की तरफ दे खा। हमारे ददिों की तरह उस वक्त गींगा भी उमडी हुई
थी।
पानी की उस उद्ववग्न उठती-धगरती सतह पर एक ददया बहता हुआ चिा जाता था और और उसका
चमकता हुआ अक्स धथरकता और नाचता एक पच् ु छि तारे की तरह पानी को आिोककत कर रहा था। आह!
उस नन्ही-सी जान की क्या बबसात थी! कागज के चींद पज
ु े, बाींस की चींद तीलियाीं, लमट्टी का एक ददया कक
जैसे ककसी की अतप्ृ त िािसाओीं की समाधध थी क्जस पर ककसी दख
ु बटानेवािे ने तरस खाकर एक ददया
जिा ददया था मगर वह नन्हीीं-सी जान क्जसके अक्स्तत्व का कोई दठकाना न था, उस अथाह सागर में
उछिती हुई िहरों से टकराती, भवरों से दहिकोरें खाती, शोर करती हुई िहरों को रौंदती चिी जाती थी।
शायद जि दे ववयों ने उसकी ननबमिता पर तरस खाकर उसे अपने आींचिों में छुपा लिया था।
जब तक वह ददया खझिलमिाता और दटमदटमाता, हमददम िहरों से झकोरे िेता ददखाई ददया। मोदहनी
टकटकी िगाये खोयी-सी उसकी तरफ ताकती रही। जब वह आींख से ओझि हो गया तो वह बेचन
ै ी से उठ
खडी हुई और बोिी- मैं ककनारे पर जाकर उस ददये को दे खगी।
ू
क्जस तरह हिवाई की मनभावन पक ु ार सन
ु कर बच्चा घर से बाहर ननकि पडता है और चाव-भरी
आींखों से दे खता और अधीर आवाजों से पक
ु ारता उस नेमत के थाि की तरफ दौडता है , उसी जोश और चाव
के साथ मोदहनी नदी के ककनारे चिी।
बाग से नदी तक सीदढ़य ॉँ बनी हुई थीीं। हम दोनों तेजी के साथ नीचे उतरे और ककनारे पहुचते ही
मोदहनी ने खश
ु ी के मारे उछिकर जोर से कहा-अभी है! अभी है ! दे खो वह ननकि गया!
उ स ददये को दे खते हम बहुत दरू ननकि गए। मोदहनी ने यह राग अिापना शरू
मैं साजन से लमिन चिी
ु ककया:
कैसा तडपा दे ने वािा गीत था और कैसी ददम भरी रसीिी आवाज। प्रेम और आींसओु ीं में डूबी हुई।
मोहक गीत में कल्पनाओीं को जगाने की बडी शक्क्त होती है। वह मनष्ु य को भौनतक सींसार से उठाकर
कल्पनािोक में पहुचा दे ता है । मेरे मन की आींखों में उस वक्त नदी की परु शोर िहरें , नदी ककनारे की
ू ती हुई डालिय ,ॉँ सनसनाती हुई हवा सबने जैसे रूप धर लिया था और सब की सब तेजी से कदम उठाये
झम
चिी जाती थीीं, अपने साजन से लमिने के लिए। उत्कींठा और प्रेम से झम ू ती हुई ऐ यव
ु ती की धींध
ु िी सपने-
जैसी तस्वीर हवा में , िहरों में और पेडों के झरु मट
ु में चिी जाती ददखाई दे ती और कहती थी- साजन से
लमिने के लिए! इस गीत ने सारे दृश्य पर उत्कींठा का जाद ू फींू क ददया।
मैं साजन से लमिन चिी
साजन बसत कौन सी नगरी मैं बौरी ना जानू
ना मोहे आस लमिन की उससे ऐसी प्रीत भिी
मैं साजन से लमिन चिी
मोदहनी खामोश हुई तो चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था और उस सन्नाटे में एक बहुत मद्धधम,
रसीिा स्वक्प्नि-स्वर क्षक्षनतज के उस पार से या नदी के नीचे से या हवा के झोंकों के साथ आता हुआ मन
के कानों को सन ु ाई दे ता था।
मैं साजन से लमिन चिी
ु े खयाि न रहा कक कह ॉँ हू और कह ॉँ
मैं इस गीत से इतना प्रभाववत हुआ कक जरा दे र के लिए मझ
जा रहा हू। ददि और ददमाग में वही राग गजू रहा था। अचानक मोदहनी ने कहा-उस ददये को दे खो। मैंने
ददये की तरफ दे खा। उसकी रोशनी मींद हो गई थी और आयु की पींज
ू ी खत्म हो चिी थी। आखखर वह एक
बार जरा भभका और बझ
ु गया। क्जस तरह पानी की बद
ू नदी में धगरकर गायब हो जाती है, उसी तरह
अींधेरे के फैिाव में उस ददये की हस्ती गायब हो गई ! मोदहनी ने धीमे से कहा, अब नहीीं ददखाई दे ता! बझ
ु
आल्हा
आल्हा और ऊदि राजा परमािदे व पर जान कुबामन करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। रानी
मलिनहा ने उन्हें पािा, उनकी शाददयाीं कीीं, उन्हें गोद में खखिाया। नमक के हक के साथ-साथ इन एहसानों
ॉँ
और सम्बन्धों ने दोनों भाइयों को चन्दे ि राजा का ज ननसार रखवािा और राजा परमािदे व का वफादार
सेवक बना ददया था। उनकी वीरता के कारण आस-पास के सैकडों घमींडी राजा चन्दे िों के अधीन हो गये।
ू के च दॉँ से बढ़कर
महोबा राजय की सीमाए नदी की बाढ़ की तरह फैिने िगीीं और चन्दे िों की शक्क्त दज
परू नमासी का च दॉँ हो गई। यह दोनों वीर कभी चैन से न बैठते थे। रणक्षेत्र में अपने हाथ का जौहर ददखाने
की उन्हें धन
ु थी। सख
ु -सेज पर उन्हें नीींद न आती थी। और वह जमाना भी ऐसा ही बेचनै नयों से भरा हुआ
था। उस जमाने में चैन से बैठना दनु नया के परदे से लमट जाना था। बात-बात पर तिवाींरें चितीीं और खून
की नददय ॉँ बहती थीीं। यह ॉँ तक कक शाददया भी खूनी िडाइयों जैसी हो गई थीीं। िडकी पैदा हुई और शामत
आ गई। हजारों लसपादहयों, सरदारों और सम्बक्न्धयों की जानें दहे ज में दे नी पडती थीीं। आल्हा और ऊदि
उस परु शोर जमाने की यच्ची तस्वीरें हैं और गोकक ऐसी हाितों ओर जमाने के साथ जो नैनतक दब
ु ि
म ताए
और ववषमताए पाई जाती हैं, उनके असर से वह भी बचे हुए नहीीं हैं, मगर उनकी दब
ु ि
म ताए उनका कसरू
नहीीं बक्ल्क उनके जमाने का कसरू हैं।
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आ ल्हा का मामा मादहि एक कािे ददि का, मन में द्वेष पािने वािा आदमी था। इन दोनों भाइयों
का प्रताप और ऐश्वयम उसके हृदय में क टेॉँ की तरह खटका करता था। उसकी क्जन्दगी की सबसे
बडी आरजू यह थी कक उनके बडप्पन को ककसी तरह खाक में लमिा दे । इसी नेक काम के लिए उसने
अपनी क्जन्दगी न्यौछावर कर दी थी। सैंकडों वार ककये, सैंकडों बार आग िगायी, यह ॉँ तक कक आखखरकार
उसकी नशा पैदा करनेवािी मींत्रणाओीं ने राजा परमाि को मतवािा कर ददया। िोहा भी पानी से कट जाता
है ।
एक रोज राजा परमाि दरबार में अकेिे बैठे हुए थे कक मादहि आया। राजा ने उसे उदास दे खकर
पछ
ू ा, भइया, तुम्हारा चेहरा कुछ उतरा हुआ है । मादहि की आखों में आसू आ गये। मक्कार आदमी को
अपनी भावनाओीं पर जो अधधकार होता है वह ककसी बडे योगी के लिए भी कदठन है । उसका ददि रोता है
मगर होंठ हसते हैं, ददि खलु शयों के मजे िेता है मगर आखें रोती हैं, ददि डाह की आग से जिता है मगर
जबान से शहद और शक्कर की नददय ॉँ बहती हैं।
मादहि बोिा-महाराज, आपकी छाया में रहकर मझ
ु े दनु नया में अब ककसी चीज की इच्छा बाकी नहीीं
मगर क्जन िोगों को आपने धि ू से उठाकर आसमान पर पहुचा ददया और जो आपकी कृपा से आज बडे
प्रताप और ऐश्वयमवािे बन गये, उनकी कृतघ्रता और उपद्रव खडे करना मेरे लिए बडे द:ु ख का कारण हो रही
है ।
परमाि ने आश्चयम से पछ
ू ा- क्या मेरा नमक खानेवािों में ऐसे भी िोग हैं?
मादहि- महाराज, मैं कुछ नहीीं कह सकता। आपका हृदय कृपा का सागर है मगर उसमें एक खींख
ू ार
घडडयाि आ घस
ु ा है ।
-वह कौन है ?
-मैं।
राजा ने आश्चयामक्न्वत होकर कहा-तुम!
मदहि- ह ॉँ महाराज, वह अभागा व्यक्क्त मैं ही हू। मैं आज खदु अपनी फररयाद िेकर आपकी सेवा में
उपक्स्थत हुआ हू। अपने सम्बक्न्धयों के प्रनत मेरा जो कतमव्य है वह उस भक्क्त की तुिना में कुछ भी नहीीं
जो मझ
ु े आपके प्रनत है । आल्हा मेरे क्जगर का टुकडा है । उसका माींस मेरा माींस और उसका रक्त मेरा रक्त
है । मगर अपने शरीर में जो रोग पैदा हो जाता है उसे वववश होकर हकीम से कहना पडता है। आल्हा अपनी
दौित के नशे में चरू हो रहा है । उसके ददि में यह झठ
ू ा खयाि पैदा हो गया है कक मेरे ही बाहु-बि से यह
राजय कायम है।
राजा परमाि की आींखें िाि हो गयीीं, बोिा-आल्हा को मैंने हमेशा अपना िडका समझा है ।
मादहि- िडके से जयादा।
परमाि- वह अनाथ था, कोई उसका सींरक्षक न था। मैंने उसका पािन-पोषण ककया, उसे गोद में
खखिाया। मैंने उसे जागीरें दीीं, उसे अपनी फौज का लसपहसािार बनाया। उसकी शादी में मैंने बीस हजार
चन्दे ि सरू माओीं का खून बहा ददया। उसकी म ॉँ और मेरी मलिनहा वषों गिे लमिकर सोई हैं और आल्हा
क्या मेरे एहसानों को भि
ू सकता है ? मादहि, मझ
ु े तुम्हारी बात पर ववश्वास नहीीं आता।
मादहि का चेहरा पीिा पड गया। मगर सम्हिकर बोिा- महाराज, मेरी जबान से कभी झठ
ू बात नहीीं
ननकिी।
परमाह- मझ
ु े कैसे ववश्वास हो?
मदहि ने धीरे से राजा के कान में कुछ कह ददया।
आ ल्हा और ऊदि दोनों चौगान के खेि का अभ्यास कर रहे थे। िम्बे-चौडे मैदान में हजारों आदमी
इस तमाशे को दे ख रहे थे। गें द ककसी अभागे की तरह इधर-उधर ठोकरें खाता कफरता था। चोबदार
ने आकर कहा-महाराज ने याद फरमाया है।
आल्हा को सन्दे ह हुआ। महाराज ने आज बेवक्त क्यों याद ककया? खेि बन्द हो गया। गें द को ठोकरों से
छुट्टी लमिी। फौरन दरबार मे चौबदार के साथ हाक्जर हुआ और झक
ु कर आदाब बजा िाया।
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परमाि ने कहा- मैं तम ॉँ ?
ु से कुछ म ग ू दोगे?
आल्हा ने सादगी से जवाब ददया-फरमाइए।
परमाि-इनकार तो न करोगे?
आल्हा ने कनखखयों से मादहि की तरफ दे खा समझ गया कक इस वक्त कुछ न कुछ दाि में कािा
है । इसके चेहरे पर यह मस्
ु कराहट क्यों? गूिर में यह फूि क्यों िगे? क्या मेरी वफादारी का इम्तहान लिया
जा रहा है ? जोश से बोिा-महाराज, मैं आपकी जबान से ऐसे सवाि सन ु ने का आदी नहीीं हू। आप मेरे
सींरक्षक, मेरे पािनहार, मेरे राजा हैं। आपकी भवों के इशारे पर मैं आग में कूद सकता हू और मौत से िड
सकता हू। आपकी आज्ञा पाकर में असम्भव को सम्भव बना सकता हू आप मझ
ु से ऐसे सवाि न करें ।
परमाि- शाबाश, मझु े तुमसे ऐसी ही उम्मीद है ।
आल्हा-मझ
ु े क्या हुक्म लमिता है ?
परमाि- तम्
ु हारे पास नाहर घोडा है ?
आल्हा ने ‘जी ह ’ॉँ कहकर मादहि की तरफ भयानक गुस्से भरी हुई आखों से दे खा।
परमाि- अगर तुम्हें बरु ा न िगे तो उसे मेरी सवारी के लिए दे दो।
आल्हा कुछ जवाब न दे सका, सोचने िगा, मैंने अभी वादा ककया है कक इनकार न करूगा। मैंने बात
हारी है । मझ
ु े इनकार न करना चादहए। ननश्चय ही इस वक्त मेरी स्वालमभक्क्त की परीक्षा िी जा रही है।
मेरा इनकार इस समय बहुत बेमौका और खतरनाक है। इसका तो कुछ गम नहीीं। मगर मैं इनकार ककस
महु से करू, बेवफा न कहिाऊगा? मेरा और राजा का सम्बन्ध केवि स्वामी और सेवक का ही नहीीं है, मैं
उनकी गोद में खेिा हू। जब मेरे हाथ कमजोर थे, और प वॉँ में खडे होने का बत
ू ा न था, तब उन्होंने मेरे
जल्
ु म सहे हैं, क्या मैं इनकार कर सकता हू?
ववचारों की धारा मड
ु ी- माना कक राजा के एहसान मझ
ु पर अनधगनती हैं मेरे शरीर का एक-एक रोआ
उनके एहसानों के बोझ से दबा हुआ है मगर क्षबत्रय कभी अपनी सवारी का घोडा दस ू रे को नहीीं दे ता। यह
क्षबत्रयों का धमम नहीीं। मैं राजा का पािा हुआ और एहसानमन्द हू। मझु े अपने शरीर पर अधधकार है। उसे मैं
राजा पर न्यौछावर कर सकता हू। मगर राजपत ू ी धमम पर मेरा कोई अधधकार नहीीं है , उसे मैं नहीीं तोड
सकता। क्जन िोगों ने धमम के कच्चे धागे को िोहे की दीवार समझा है , उन्हीीं से राजपत
ू ों का नाम चमक
रहा है । क्या मैं हमेशा के लिए अपने ऊपर दाग िगाऊ? आह! मादहि ने इस वक्त मझ
ु े खूब जकड रखा है ।
सामने खींख
ू ार शेर है; पीछे गहरी खाई। या तो अपमान उठाऊ या कृतघ्न कहिाऊ। या तो राजपत ू ों के नाम
को डुबोऊ या बबामद हो ज ऊ। ॉँ खैर, जो ईश्वर की मजी, मझ
ु े कृतघ्न कहिाना स्वीकार है, मगर अपमाननत
होना स्वीकार नहीीं। बबामद हो जाना मींजरू है, मगर राजपत
ू ों के धमम में बट्टा िगाना मींजरू नहीीं।
आल्हा सर नीचा ककये इन्हीीं खयािों में गोते खा रहा था। यह उसके लिए परीक्षा की घडी थी क्जसमें
सफि हो जाने पर उसका भववष्य ननभमर था।
मगर मादहिा के लिए यह मौका उसके धीरज की कम परीक्षा िेने वािा न था।
वह ददन अब आ गया क्जसके इन्तजार में कभी आखें नहीीं थकीीं। खुलशयों की यह बाढ़ अब सींयम की
िोहे की दीवार को काटती जाती थी। लसद्ध योगी पर दब
ु ि
म मनष्ु य की ववजय होती जाती थी। एकाएक
परमाि ने आल्हा से बि
ु न्द आवाज में पछ
ू ा- ककस दननधा में हो? क्या नहीीं दे ना चाहते?
आल्हा ने राजा से आींखें लमिाकर कहा-जी नहीीं।
परमाि को तैश आ गया, कडककर बोिा-क्यों?
आल्हा ने अववचि मन से उत्तर ददया-यह राजपत
ू ों का धमम नहीीं है ।
परमाि-क्या मेरे एहसानों का यही बदिा है ? तुम जानते हो, पहिे तुम क्या थे और अब क्या हो?
आल्हा-जी ह ,ॉँ जानता हू।
परमाि- तुम्हें मैंने बनाया है और मैं ही बबगाड सकता हू।
आल्हा से अब सि न हो सका, उसकी आखें िाि हो गयीीं और त्योररयों पर बि पड गये। तेज िहजे
में बोिा- महाराज, आपने मेरे ऊपर जो एहसान ककए, उनका मैं हमेशा कृतज्ञ रहूगा। क्षबत्रय कभी एहसान
नहीीं भि
ू ता। मगर आपने मेरे ऊपर एहसान ककए हैं, तो मैंने भी जो तोडकर आपकी सेवा की है। लसफम
नौकरी और नामक का हक अदा करने का भाव मझ
ु में वह ननष्ठा और गमी नहीीं पैदा कर सकता क्जसका मैं
बार-बार पररचय दे चक
ु ा हू। मगर खैर, अब मझ
ु े ववश्वास हो गया कक इस दरबार में मेरा गज
ु र न होगा।
मेरा आखखरी सिाम कबि ू हो और अपनी नादानी से मैंने जो कुछ भि
ू की है वह माफ की जाए।
आ ल्हा की म ॉँ का नाम दे वि दे वी था। उसकी धगनती उन हौसिे वािी उच्च ववचार क्स्त्रयों में है
क्जन्होंने दहन्दोस्तान के वपछिे कारनामों को इतना स्पह
जबकक आपसी फूट और बैर की एक भयानक बाढ़ मल्
ृ णीय बना ददया है । उस अींधेरे यग
ु में भी
ु क में आ पहुची थी, दहन्दोस्तान में ऐसी ऐसी दे ववय ॉँ
पैदा हुई जो इनतहास के अींधेरे से अींधेरे पन्नों को भी जयोनतत कर सकती हैं। दे वि दे वी से सन ु ा कक
आल्हा ने अपनी आन को रखने के लिए क्या ककया तो उसकी आखों भर आए। उसने दोनों भाइयों को गिे
िगाकर कहा- बेटा ,तुमने वही ककया जो राजपत
ू ों का धमम था। मैं बडी भाग्यशालिनी हू कक तुम जैसे दो
बात की िाज रखने वािे बेटे पाये हैं ।
उसी रोज दोनों भाइयों महोबा से कूच कर ददया अपने साथ अपनी तिवार और घोडो के लसवा और
कुछ न लिया। माि –असबाब सब वहीीं छोड ददये लसपाही की दौित और इजजत सबक कुछ उसकी तिवार
है । क्जसके पास वीरता की सम्पनत है उसे दस
ू री ककसी सम्पनत की जरुरत नहीीं।
बरसात के ददन थे, नदी नािे उमडे हुए थे। इन्द्र की उदारताओीं से मािामाि होकर जमीन फूिी नहीीं
समाती थी । पेडो पर मोरों की रसीिी झनकारे सन ु ाई दे ती थीीं और खेतों में ननक्श्चन्तता की शराब से
मतवाि ककसान मल्हार की तानें अिाप रहे थे । पहाडडयों की घनी हररयावि पानी की दपमन –जैसी सतह
और जगींिी बेि बट
ू ों के बनाव सींवार से प्रकृनत पर एक यौवन बरस रहा था। मैदानों की ठीं डी-ठडीीं मस्त
हवा जींगिी फूिों की मीठी मीठी, सहु ानी, आत्मा को उल्िास दे नेवािी महक और खेतों की िहराती हुई रीं ग
बबरीं गी उपज ने ददिो में आरजओ
ु ीं का एक तफ ू ान उठा ददया था। ऐसे मब ु ारक मौसम में आल्हा ने महोबा
को आखखरी सिाम ककया । दोनों भाइयो की आखे रोते रोते िाि हो गयी थीीं क्योंकक आज उनसे उनका दे श
छूट रहा था । इन्हीीं गलियों में उन्होंने घट
ु ने के बि चिना सीखा था, इन्ही तािाबों में कागज की नावें
चिाई थीीं, यही जवानी की बेकफकक्रयों के मजे िट
ू े थे। इनसे अब हमेशा के लिए नाता टूटता था। दोनो भाई
आगे बढते जाते थे , मगर बहुत धीरे -धीरे । यह खयाि था कक शायद परमाि ने रुठनेवािों को मनाने के
लिए अपना कोई भरोसे का आदमी भेजा होगा। घोडो को सम्हािे हुए थे, मगर जब महोबे की पहाडडयो
का आखखरी ननशान ऑ ींखों से ओझि हो गया तो उम्मीद की आखखरी झिक भी गायब हो गयी। उन्होनें
क्जनका कोई दे श नथा एक ठीं डी साींस िी और घोडे बढा ददये। उनके ननवामसन का समाचार बहुत जल्द
चारों तरफ फैि गया। उनके लिए हर दरबार में जगह थीीं, चारों तरफ से राजाओ के सदे श आने िगे।
कन्नौज के राजा जयचन्द ने अपने राजकुमार को उनसे लमिने के लिए भेजा। सींदेशों से जो काम न ननकिा
वह इस मि
ु ाकात ने परू ा कर ददया। राजकुमार की खानतदाररया और आवभगत दोनों भाइयों को कन्नौज
खीींच िे नई। जयचन्द आींखें बबछाये बैठा था। आल्हा को अपना सेनापनत बना ददया।
आ ल्हा और ऊदि के चिे जाने के बाद महोबे में तरह-तरह के अींधेर शरु
था। मातहत राजाओीं ने बगावत का झण्डा बि
िोगों को वश में रख सके। ददल्िी के राज पथ्
ु हुए। परमाि कमजी शासक
ु न्द ककया। ऐसी कोई ताकत न रही जो उन झगडािू
ृ वीराज की कुछ सेना लसमता से एक सफि िडाई िडकर
वापस आ रही थी। महोबे में पडाव ककया। अक्खड लसपादहयों में तिवार चिते ककतनी दे र िगती है। चाहे
राजा परमाि के मि ु ाक्जयों की जयादती हो चाहे चौहान लसपादहयों की, तनीजा यह हुआ कक चन्दे िों और
चौहानों में अनबन हो गई। िडाई नछड गई। चौहान सींख्या में कम थे। चींदेिों ने आनतथ्य-सत्कार के ननयमों
को एक ककनारे रखकर चौहानों के खून से अपना किेजा ठीं डा ककया और यह न समझे कक मठ्
ु ठी भर
लसपादहयों के पीछे सारे दे श पर ववपवत्त आ जाएगी। बेगुनाहों को खून रीं ग िायेगा। पथ्
ृ वीराज को यह ददि
तोडने वािी खबर लमिी तो उसके गुस्से की कोई हद न रही। ऑ ींधी की तरह महोबे पर चढ़ दौडा और
लसरको, जो इिाका महोबे का एक मशहूर कस्बा था, तबाह करके महोबे की तरह बढ़ा। चन्दे िों ने भी फौज
खडी की। मगर पहिे ही मकु ाबबिे में उनके हौसिे पस्त हो गये। आल्हा-ऊदि के बगैर फौज बबन दल्ू हे की
बारात थी। सारी फौज नततर-बबतर हो गयी। दे श में तहिका मच गया। अब ककसी क्षण पथ्
ृ वीराज महोबे में
आ पहुचेगा, इस डर से िोगों के हाथ-प वॉँ फूि गये। परमाि अपने ककये पर बहुत पछताया। मगर अब
ज गना भाट आल्हा और ऊदि को कन्नौज से िाने के लिए रवाना हुआ। यह दोनों भाई राजकुवर
िाखन के साथ लशकार खेिने जा रहे थे कक जगना ने पहुचकर प्रणाम ककया। उसके चेहरे से परे शानी
ू ा—कवीश्वर, यह ॉँ कैसे भि
और खझझक बरस रही थी। आल्हा ने घबराकर पछ ू पडे? महोबे में तो खैररयत है?
हम गरीबों को क्योंकर याद ककया?
जगना की ऑ ींखों में ऑ ींसू भर जाए, बोिा—अगर खैररयत होती तो तम्
ु हारी शरण में क्यों आता।
मस
ु ीबत पडने पर ही दे वताओीं की याद आती है । महोबे पर इस वक्त इन्द्र का कोप छाया हुआ है । पथ् ृ वीराज
चौहान महोबे को घेरे पडा है। नरलसींह और वीरलसींह तिवारों की भें ट हो चक
ु े है। लसरकों सारा राख को ढे र हो
गया। चन्दे िों का राज वीरान हुआ जाता है । सारे दे श में कुहराम मचा हुआ है। बडी मक्ु श्किों से एक महीने
की मौहित िी गई है और मझ ु े राजा परमाि ने तुम्हारे पास भेजा है। इस मस ु ीबत के वक्त हमारा कोई
मददगार नहीीं है, कोई ऐसा नहीीं है जो हमारी ककम्मत बॅंधाये। जब से तुमने महोबे से नहीीं है , कोई ऐसा
नहीीं है जो हमारी दहम्मत बधाये। जब से तुमने महोबे से नाता तोडा है तब से राजा परमाि के होंठों पर
हसी नहीीं आई। क्जस परमाि को उदास दे खकर तुम बेचन
ै हो जाते थे उसी परमाि की ऑ ींखें महीनों से नीींद
को तरसती हैं। रानी मदहिना, क्जसकी गोद में तम
ु खेिे हो, रात-ददन तम्
ु हारी याद में रोती रहती है । वह
अपने झरोखें से कन्नैज की तरफ ऑ ींखें िगाये तम्
ु हारी राह दे खा करती है । ऐ बनाफि वींश के सपत
ू ो !
चन्दे िों की नाव अब डूब रही है। चन्दे िों का नाम अब लमटा जाता है । अब मौका है कक तुम तिवारे हाथ
में िो। अगर इस मौके पर तुमने डूबती हुई नाव को न सम्हािा तो तुम्हें हमेशा के लिए पछताना पडेगा
क्योंकक इस नाम के साथ तुम्हारा और तुम्हारे नामी बाप का नाम भी डूब जाएगा।
आल्हा ने रुखेपन से जवाब ददया—हमें इसकी अब कुछ परवाह नहीीं है । हमारा और हमारे बाप का
नाम तो उसी ददन डूब गया, जब हम बेकसरू महोबे से ननकाि ददए गए। महोबा लमट्टी में लमि जाय,
चन्दे िों को धचराग गि
ु हो जाय, अब हमें जरा भी परवाह नहीीं है । क्या हमारी सेवाओीं का यही परु स्कार था
जो हमको ददया गया? हमारे बाप ने महोबे पर अपने प्राण न्यौछावर कर ददये, हमने गोडों को हराया और
चन्दे िों को दे वगढ़ का मालिक बना ददया। हमने यादवों से िोहा लिया और कदठयार के मैदान में चन्दे िों
का झींडा गाड ददया। मैंने इन्ही हाथों से कछवाहों की बढ़ती हुई िहर को रोका। गया का मैदान हमीीं ने
दो नों भाई कन्नौज से चिे, दे वि भी साथ थी। जब वह रुठनेवािे अपनी मातभ ृ लू म में पहुचे तो सख
धानों में पानी पड गया, टूटी हुई दहम्मतें बींध गयीीं। एक िाख चन्दे ि इन वीरों की अगवानी करने के
ू ें
लिए खडे थे। बहुत ददनों के बाद वह अपनी मातभ ृ लू म से बबछुडे हुए इन दोनों भाइयों से लमिे। ऑ ींखों ने
खुशी के ऑ ींसू बहाए। राजा परमाि उनके आने की खबर पाते ही कीरत सागर तक पैदि आया। आल्हा और
ऊदि दौडकर उसके पाींव से लिपट गए। तीनों की आींखों से पानी बरसा और सारा मनमट
ु ाव धि
ु गया।
दश्ु मन सर पर खडा था, जयादा आनतथ्य-सत्कार का मौकर न था, वहीीं कीरत सागर के ककनारे दे श के
नेताओीं और दरबार के कममचाररयों की राय से आल्हा फौज का सेनापनत बनाया गया। वहीीं मरने-मारने के
लिए सौगन्धें खाई गई। वहीीं बहादरु ों ने कसमें खाई कक मैदान से हटें गे तो मरकर हटें गें। वहीीं िोग एक
दस
ू रे के गिे लमिे और अपनी ककस्मतों को फैसिा करने चिे। आज ककसी की ऑ ींखों में और चेहरे पर
उदासी के धचन्ह न थे, औरतें हॅं स-हस कर अपने प्यारों को ववदा करती थीीं, मदम हस-हसकर क्स्त्रयों से अिग
होते थे क्योंकक यह आखखरी बाजी है , इसे जीतना क्जन्दगी और हारना मौत है ।
उस जगह के पास जह ॉँ अब और कोई कस्बा आबाद है, दोनों फौजों को मक
ु ाबिा हुआ और अठारह
ददन तक मारकाट का बाजार गमम रहा। खूब घमासान िडाई हुई। पथ्
ृ वीराज खुद िडाई में शरीक था। दोनों
दि ददि खोिकर िडे। वीरों ने खब
ू अरमान ननकािे और दोनों तरफ की फौजें वहीीं कट मरीीं। तीन िाख
आदलमयों में लसफम तीन आदमी क्जन्दा बचे-एक पथ्
ृ वीराज, दस
ू रा चन्दा भाट तीसरा आल्हा। ऐसी भयानक
अटि और ननणामयक िडाई शायद ही ककसी दे श और ककसी यग
ु में हुई हो। दोनों ही हारे और दोनों ही
निीहतों का दफ्तर
बा बू अक्षयकुमार पटना के एक वकीि थे और बडे वकीिों में समझे जाते थे। यानी रायबहादरु ी के
करीब पहुच चक
ु े थे। जैसा कक अकसर बडे आदलमयों के बारे में मशहूर है , इन बाबू साब का
ॉँ
िडकपन भी बहुत गरीबी में बीता था। म -बाप अब अपने शैतान िडकों को ड टते ॉँ -ड पटते
ॉँ तो बाबू
अक्षयकुमार का नाम लमसाि के तौर पर पेश ककया जाता था—अक्षय बाबू को दे खों, आज दरवाजें पर हाथी
झम
ू ता है, कि पढ़ने को तेि नहीीं मयस्सर होता था, पआ
ु ि जिाकर उसकी ऑ ींच में पढ़ते, सडक की
िािटे नों की रोशनी में सबक याद करते। ववद्या इस तरह आती है । कोई-कोई कल्पनाशीि व्यक्क्त इस बात
के भी साक्षी थे कक उन्होंने अक्षय बाबू को जग
ु नू की रोशनी में पढ़ते दे खा है जग
ु नू की दमक या पआ
ु ि की
ऑ ींच में स्थायी प्रकाश हो सकता है, इसका फैसिा सन
ु नेवािों की अक्ि पर था। कहने का आशय यह है कक
अक्षयकुमार का बचपन का जमाना बहुत ईष्याम करने योग्य न था और न वकाित का जमाना खुशनसीबबयों
की वह बाढ़ अपने साथ िाया क्जसकी उम्मीद थी। बाढ़ का क़्िक्र ही क्या, बरसों तक अकाि की सरू त थीीं
ॉँ खडी
यह आशा कक लसयाह गाउन कामधेनु साबबत होगा और दलु िया की सारी नेमतें उसके सामने हाथ ब धे
रहे गी, झठ
ू ननकिी। कािा गाउन कािे नसीब को रोशन न कर सका। अच्छे ददनों के इन्तजार में बहुत ददन
गुजर गए और आखखरकार जब अच्छे ददन आये, जब गाडमन पादटम यों में शरीक होने की दावतें आने िगीीं,
जब वह आम जिसों में सभापनत की कुसी पर शोभायमान होने िगे तो जवानी बबदा हो चक
ु ी थी और बािों
को खखजाब की जरुरत महसस
ू होने िगी थी। खासकर इस कारण से कक सन्
ु दर और हसमख
ु हे मवती की
खानतरदारी जरुरी थी क्जसके शभ
ु आगमन ने बाबू अक्षयकुमार के जीवन की अक्न्तम आकाींक्षा को परू ा कर
ददया था।
2
क्ज
स तरह दानशीिता मनष्ु य की दग
ु ण
ुम ों को नछपा िेती है उसी तरह कृपणता उसके सद्गुणों पर पदाम
डाि दे ती है। कींजूस आदमी के दश्ु मन सब होते हैं, दोस्त कोई नहीीं होता। हर व्यक्क्त को उससे
नफरत होती है । वह गरीब ककसी को नक
ु सान नहीीं पहूचाता, आम तौर पर वह बहुत ही शाक्न्तवप्रय, गम्भीर,
सबसे लमिजुि कर रहनेवािा और स्वालभमानी व्यक्क्त होता हे मगर कींजस
ू ी कािा रीं ग है क्जस पर दसू रा
कोई रीं ग, चाहे ककतना ही चटख क्यों न हों, नहीीं चढ़ सकता। बाबू अक्षयकुमार भी कींजूस मशहूर थे, हाि ककॉँ
जैसा कायदा है , यह उपाधध उन्हें ईष्याम के दरबार से प्राप्त हुई थी। जो व्यक्क्त कींजस
ू कहा जाता हो, समझ
ॉँ
िो कक वह बहुत भाग्यशािी है और उससे डाह करने वािे बहुत हैं। अगर बाबू अक्षयकुमार कौडडयों को द त
से पकडते थे तो ककसी का क्या नक
ु सान था। अगर उनका मकान बहुत ठाट-बाट से नहीीं सजा हुआ था,
अगर उनके यह ॉँ मफ्
ु तखोर ऊघनेवािे नौकरों की फौज नहीीं थी, अगर वह दो घोडों की कफटन पर कचहरी
नहीीं जाते थे तो ककसी का क्या नक
ु सान था। उनकी क्जन्दगी का उसि
ू था कक कौडडयों की तुम कफक्र रखो,
रुपये अपनी कफक्र आप कर िेंगे। और इस सन
ु हरे उसि
ू का कठोरता से पािन करने का उन्हें परू ा अधधकार
था। इन्हीीं कौडडयों पर जवानी की बहारें और ददि की उमींगें न्यौछावर की थीीं। ऑ ींखों की रोशनी और सेहत
ॉँ से पकडते थे तो बहुत अच्छा करते थे, पिकों से
जैसी बडी नेमत इन्हीीं कौडडयों पर चढ़ाती थीीं। उन्हें द तों
उठाना चादहए था।
िेककन सन्
ु दर हसमख
ु हे मवती का स्वभाव इसके बबिकुि उिटा था। अपनी दस
ू री बहनों की तरह वह
भी सख
ु -सवु वधा पर जान दे ती थी और गो बाबू अक्षयकुमार ऐसे नादान और ऐसे रुखे-सख
ू े नहीीं थे कक
उसकी कद्र करने के काबबि कमजोररयों की कद्र न करते (नहीीं, वह लसींगार और सजावट की चीजों को
दे खकर कभी-कभी खश
ु होने की कोलशश भी करते थे) मगर कभी-कभी जब हे मवती उनकी नेक सिाहों ही
परवाह न करके सीमा से आगे बढ़ जाती थी तो उस ददन बाबू साहब को उसकी खानतर अपनी वकाित की
योग्यता का कुछ-न-कुछ दहस्सा जरुर खचम करना पडता था।
एक रोज जब अक्षयकुमार कचहरी से आये तो सन्
ु दर और हसमख
ु हे मवती ने एक रीं गीन लिफाफा
उनके हाथ में रख ददया। उन्होंने दे खा तो अन्दर एक बहुत नफीस गि ु ाबी रीं ग का ननमींत्रण था। हे मवती से
बोिे—इन िोगों को एक-न-एक खब्त सझ ू ता ही रहता हैं। मेरे खयाि में इस ड्रामैदटक परफारमें स की कोई
जरुरत न थीीं।
दू सरे ददन शाम को अक्षयकुमार हवाखोरी को ननकिे। आनन्द बाग उस वक्त जोबन पर था। ऊींचे-ऊींचे सरो
और अशोक की कतारों के बीच, िाि बजरी से सजी हुई सडक ऐसी खूबसरू त मािम ू होती थी कक जैसे
कमि के पत्तों में फूि खखिो हुआ है या नोकदार पिकों के बीच में िाि मतवािी आींखें जेब दे रही हैं। बाबू
अक्षयकुमार इस क्यारी पर हवा के हल्के-फुल्के ताजगी दे नेवािे झोंकों को मजा उठाते हुए एक सायेदार कींु ज
में जा बैठे। यह उनकी खास जगह थी। इस इनायतों की बस्ती में आकर थोडी दे र के लिए उनके ददि पर
फूिों के खखिेपन और पत्तों की हररयािी का बहुत ही नशीिा असर होता था। थोडी दे र के लिए उनका ददि
भी फूि की तरह खखि जाता था। यह ॉँ बैठे उन्हें थोडी दे र हुई थी कक उन्हें एक बढ़
ू ा आदमी अपनी तरफ
राजहठ
द शहरे के ददन थे, अचिगढ़ में उत्सव की तैयाररय ॉँ हो रही थीीं। दरबारे आम में राजय के मींबत्रयों के
स्थान पर अप्सराऍ ीं शोभायमान थीीं। धममशािों और सरायों में घोडे दहनदहना रहे थे। ररयासत के नौकर,
क्या छोटे , क्या बडे, रसद पहुचाने के बहाने से दरबाजे आम में जमे रहते थे। ककसी तरह हटाये न हटते थे।
दरबारे खास में पींडडत और पज ु ारी और महन्त िोग आसन जमाए पाठ करते हुए नजर आते थे। वह ॉँ ककसी
राजय के कममचारी की शकि न ददखायी दे ती थी। घी और पज ू ा की सामग्री न होने के कारण सबु ह की पज
ू ा
शाम को होती थी। रसद न लमिने की वजह से पींडडत िोग हवन के घी और मेवों के भोग के अक्ग्नकींु ड में
डािते थे। दरबारे आम में अींग्रेजी प्रबन्ध था और दरबारे खास में राजय का।
राजा दे वमि बडे हौसिेमन्द रईस थे। इस वावषमक आनन्दोत्सव में वह जी खोिकर रुपया खचम करते।
क्जन ददनों अकाि पडा, राजय के आधे आदमी भख
ू ों तडपकर मर गए। बख
ु ार, हैजा और प्िेग में हजारों
आदमी हर साि मत्ृ यु का ग्रास बन जाते थे। राजय ननधमन था इसलिए न वह ॉँ पाठशािाऍ ीं थीीं, न
धचककत्सािय, न सडकें। बरसात में रननवास दिदि हो जाता और अधेरी रातों में सरे शाम से घरों के दरवाजे
बन्द हो जाते। अधेरी सडकों पर चिना जान जोखखम था। यह सब और इनसे भी जयादा कष्टप्रद बातें
स्वीकार थीीं मगर यह कदठन था, असम्भव था कक दग
ु ाम दे वी का वावषमक आनन्दोत्सव न हो। इससे राजय की
शान बट्टा िगने का भय था। राजय लमट जाए, महिों की ईटें बबक जाऍ ीं मगर यह उत्सव जरुर हो। आस
पास के राजे-रईस आमींबत्रत होते, उनके शालमयानों से मीिों तक सींगमरमर का एक शहर बस जाता, हफ्तों
तक खब
ू चहि-पहि धम
ू -धाम रहती। इसी की बदौित अचिगढ़ का नाम अटिगढ़ हो गया था।
म गर कींु वर इन्दरमि को राजा साहब की इन मस्ताना कारम वाइयों में बबिकुि आस्था न थी। वह प्रकृनत
से एक बहुत गम्भीर और सीधासादा नवयव ु क था। यों गजब का ददिेर, मौत के सामने भी ताि
ठोंककर उतर पडे मगर उसकी बहादरु ी खून की प्यास से पाक थी। उसके वार बबना पर की धचडडयों या
बेजबान जानवरों पर नहीीं होते थे। उसकी तिवार कमजोरों पर नहीीं उठती थी। गरीबों की दहमायत, अनाथों
की लसफाररशें, ननधमनों की सहायता और भाग्य के मारे हुओीं के घाव की मरहम-पट्टी इन कामों से उसकी
आत्मा को सख ु लमिता था। दो साि हुए वह इींदौर कािेज से ऊची लशक्षा पाकर िौटा था और तब से उसका
यह जोश असाधारण रुप में बढ़ा हुआ था, इतना कक वह साधरण समझदारी की सीमाओीं को ि च ॉँ गया था,
चौबीस साि का िम्बा-तडींगा हैकि जवान, धन ऐश्वयम के बीच पिा हुआ, क्जसे धचन्ताओीं की कभी हवा तक
न िगी, अगर रुिाया तो हसी ने। वह ऐसा नेक हो, उसके मदामना चेहरे पर धचन्ति को पीिापन और
झरु रम य ॉँ नजर आयें यह एक असाधारण बात थी। उत्सव का शभ ु ददन पास आ पहुचा था, लसफम चार ददन
बाकी थे। उत्सव का प्रबन्ध परू ा हो चक
ु ा था, लसफम अगर कसर थी तो कहीीं-कहीीं दोबारा नजर डाि िेने की।
तीसरे पहर का वक्त था, राजा साहब रननवास में बैठे हुए कुछ चन ु ी हुई अप्सराओीं का गाना सन
ु रहे थे।
उनकी सरु ीिी तानों से जो खुशी हो रही थी; उससे कहीीं जयादा खुशी यह सोचकर हो रही थी कक यह तराने
पोलिदटकि एजेण्ट को भडका दें गे। वह ऑ ींखें बन्द करके सन
ु ेगा और खश
ु ी के मारे उछि-उछि पडेगा।
इस ववचार से जो प्रसन्नता होती थी वह तानसेन की तानों में भी नहीीं हो सकती थी। आह, उसकी
जबान से अनजाने ही, ‘वाह-वाह’ ननकि पडेगी। अजब नहीीं कक उठकर मझ
ु से हाथ लमिाये और मेरे चन
ु ाव
की तारीफ करें इतने में कींु वर इींदरमि बहुत सादा कपडे पहने सेवा में उपक्स्थत हुए और सर झक
ु ाकर
अलभवादन ककया। राजा साहब की ऑ ींखें शमम से झक ु गई, मगर कुवर साहब का इस समय आना अच्छा
नहीीं िगा। गानेवालियों को वह ॉँ से उठ जाने का इशारा ककया।
कींु वर इन्दरमि बोिे—महाराज, क्या मेरी बबनती पर बबिकुि ध्यान न ददया जायेगा?
राजा साहब की गद्दी के उत्तराधधकारी राजकुमार की इजजत करते थे और मह
ु ब्बत तो कुदरती बात
थी, तो भी उन्हें यह बेमौका हठ पसन्द न आता था। वह इतने सींकीणम बद्
ु धध न थे कक कींु वर साहब की नेक
सिाहों की कद्र न करें । इससे ननश्चय ही राजय पर बोझ बढ़ता जाता था ओर ररआया पर बहुत जल्
ु म करना
पडता था। मैं अींधा नहीीं हू कक ऐसी मोटी-मोटी बातें न समझ सकू। मगर अच्छी बातें भी मौका-महि
दे खकर की जाती हैं। आखखरकार नाम और यश, इजजत और आबरु भी कोई चीज है ? ररयासत में सींगमरमर
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की सडकें बनवा द,ू गिी-गिी मदरसे खोि द,ू घर-घर कुऍ ीं खोदवा द,ू दवाओीं की नहरे जारी कर द ू मगर
दशहरे की धम
ू -धाम से ररयासत की जो इजजत और नाम है वह इन बातों से कभी हालसि नहीीं हो सकता।
यह हो सकता है कक धीरे -धीरे यह खचम घटा द ू मगर एकबारगी ऐसा करना न तो उधचत है और न सम्भव।
जवाब ददया—आखखर तुम क्या चाहते हो? क्या दशहरा बबिकुि बन्द कर द?ू
इन्दरमि ने राजा साहब के तेवर बदिे हुए दे खे, तो आदरपव ू क
म बोिे—मैंने कभी दशहरे के उत्सव के
खखिाफ मींह
ु से एक शब्द नहीीं ननकािा, यह हमारा जातीय पवम है , यह ववजय का शभ ु ददन है, आज के ददन
खुलशय ॉँ मनाना हमारा जाती कतमव्य है । मझ
ु े लसफम इन अप्सराओीं से आपवत्त है , नाच-गाने से इस ददन की
गम्भीरता और महत्ता डूब जाती है।
राजा साहब ने व्यींग्य के स्वर में कहा—तम्
ु हारा मतिब है कक रो-रोकर जशन मनाऍ,ीं मातम करें ।
इन्दरमि ने तीखें होकर कहा—यह न्याय के लसद्धान्तों के खखिाफ बात है कक हम तो उत्सव मनाऍ,ीं
और हजारों आदमी उसकी बदौित मातम करें । बीस हजार मजदरू एक महीने से मफ्
ु त में काम कर रहे है ,
क्या उनके घरों में खुलशय ॉँ मनाई जा रही हैं? जो पसीना बहायें वह रोदटयों को तरसें और क्जन्होंने
हरामकारी को अपना पेशा बना लिया है , वह हमारी महकफिों की शोभा बनें। मैं अपनी ऑ ींखों से यह अन्याय
और अत्याचार नहीीं दे ख सकता। मैं इस पाप-कमम में योग नहीीं दे सकता। इससे तो यही अच्छा है कक मींह
ु
नछपाकर कहीीं ननकि जाऊ। ऐसे राज में रहना, मैं अपने उसि ू ों के खखिाफ और शममनाम समझता हू।
इन्दरमि ने तैश में यह धष्ृ टतापण
ू म बातें कीीं। मगर वपता के प्रेम को जगाने की कोलशश ने राजहठ के
सोए हुए कािे दे व को जगा ददया। राजा साहब गुस्से से भरी हुई ऑ ींखों से दे खकर बोिे—ह ,ॉँ मैं भी यही
ठीक समझता हू। तम ु अपने उसिू ों के पक्के हो तो मैं भी अपनी धनु का परू ा हू।
इन्दरमि ने मस्
ु कराकर राजा साहब को सिाम ककया। उसका मस् ु कराना घाव पर नमक हो गया। राजकुमार
की ऑ ींखों में कुछ बदें
ू शायद मरहम का काम दे तीीं।
३
रा नी भानकींु वर के चिे जाने के बाद राजा दे वमि कफर अपने कमरे में आ बैठे, मगर धचक्न्तत और मन
बबिकुि बझ
ु ा हुआ, मद
ु े के समान। रानी की सख्त बातों से ददि के सबसे नाजकु दहस्सों में टीस और
जिन हो रही थी। पहिे तो वह अपने ऊपर झींझ ु िाए कक मैंने उसकी बातों को क्यों इतने धीरज से सन ु ा
मगर जब गुस्से की आग धीमी हुई और ददमाग का सन्तुिन कफर असिी हाित पर आया तो उन घटनाओीं
पर अपने मन में ववचार करने िगे। न्यायवप्रय स्वभाव के िोंगों के लिए क्रोध एक चेतावनी होती है , क्जससे
ीं
उन्हें अपने कथन और आचार की अच्छाई और बरु ाई को ज चने और आगे के लिए सावधान हो जाने का
मौका लमिता हैं। इस कडवी दवा से अकसर अनभ
ु व को शक्क्त सींकट को व्यापकता और धचन्तन को
सजगता प्राप्त होती है । राजा सोचने िगे—बेशक ररयासत के अन्दरुनी हािात के लिहाज से यह सब नाच-
रीं ग बेमौका है। बेशक वह ररआया के साथ अपना फजम नहीीं अदा कर रहे थे। वह इन खचो और इस नैनतक
धब्बे को लमटाने के लिए तैयार थे, मगर इस तरह कक नक्
ु ताचीनी करने वािी ऑ ींखें उसमें कुछ और मतिब
न ननकाि सकें। ररयासत की शान कायम रहे । इतना इन्दरमि से उन्होंने साफ कह ददया था कक अगर
इतने पर भी अपनी क्जद से बाज नहीीं आता तो उसकी दढठाई है । हर एक मम
ु ककन पहिू से गौर करने पर
राजा साहब के इस फैसिे में जरा भी फेर फार न हुआ। कींु वर का यों गायब हो जाना जरुर धचन्ता की बात
है और ररयासत के लिए उसके खतरनाक नतीजे हो सकते हैं मगर वह अपने आप को इन नतीजों की
क्जम्मदाररयों से बबिकुि बरी समझते थे। वह यह मानते थे कक इन्दरमि के चिे जाने के बाद उनका यह
महकफिें जमाना बेमौका और दस ू रों को भडकानेवािा था मगर इसका कींु वर के आखखरी फैसिे पर क्या असर
पड सकता है? कींु वर ऐसा नाद ,ॉँ नातजुबक े ार और बजु ददि तो नहीीं है कक आत्महत्या कर िें, ह ,ॉँ वह दो-चार
ददन इधर-उधर आवारा घम
ू ेगा और अगर ईश्वर ने कुछ भी वववेक उसे ददया तो वह दख
ु ी और िक्जजत
होकर जरुर चिा आएगा। मैं खुद उसे ढूढ़ ननकािगा।
ू वह ऐसा कठोर नहीीं है कक अपने बढ़
ू े बाप की मजबरू ी
पर कुछ भी ध्यान न दे ।
इन्दरमि से फाररग होकर राजा साहब का ध्यान रानी की तरफ पहुचा और जब उसकी आग की तरह
दहकती हुई बाते याद आयीीं तो गस्
ु से से बदन में पसीना आ गया और वह बेताब होकर उठकर टहिनें िगे।
बेशक, मैं उसके साथ बेरहमी से पेश आया। म ॉँ को अपनी औिाद ईमान से भी जयादा प्यारी होती है और
मिर्त एक आिाज
सबहवािा
ु था। ठाकुर साहब अपनी बढ़ू ी ठकुराइन के साथ गींगाजी जाते थे इसलिए सारा घर उनकी परु शोर
का वक्त था। ठाकुर दशमनलसींह के घर में एक हीं गामा बरपा था। आज रात को चन्द्रग्रहण होने
तैयारी में िगा हुआ था। एक बहू उनका फटा हुआ कुताम ट क ॉँ रही थी, दसू री बहू उनकी पगडी लिए सोचती
थी, कक कैसे इसकी मरम्मत करूाीं दोनो िडककय ॉँ नाश्ता तैयार करने में तल्िीन थीीं। जो जयादा ददिचस्प
काम था और बच्चों ने अपनी आदत के अनस
ु ार एक कुहराम मचा रक्खा था क्योंकक हर एक आने-जाने के
मौके पर उनका रोने का जोश उमींग पर होत था। जाने के वक्त साथा जाने के लिए रोते, आने के वक्त
ॉँ
इसलिए रोते ककशरीनी का ब ट-बखरा मनोनकु ू ि नहीीं हुआ। बढ़ी ठकुराइन बच्चों को फुसिाती थी और बीच-
बीच में अपनी बहुओीं को समझाती थी-दे खों खबरदार ! जब तक उग्रह न हो जाय, घर से बाहर न
ननकिना। हलसया, छुरी ,कुल्हाडी , इन्हें हाथ से मत छुना। समझाये दे ती हू, मानना चाहे न मानना। तुम्हें
मेरी बात की परवाह है । मींह
ु में पानी की बींद
ू े न पडें। नारायण के घर ववपत पडी है । जो साध—
ु लभखारी
दरवाजे पर आ जाय उसे फेरना मत। बहुओीं ने सन ु ा और नहीीं सन
ु ा। वे मना रहीीं थीीं कक ककसी तरह यह
यह ॉँ से टिें। फागन
ु का महीना है , गाने को तरस गये। आज खब ू गाना-बजाना होगा।
ठाकुर साहब थे तो बढ़ ू े , िेककन बढ़
ू ापे का असर ददि तक नहीीं पहुचा था। उन्हें इस बात का गवम था
कक कोई ग्रहण गींगा-स्नान के बगैर नहीीं छूटा। उनका ज्ञान आश्चयम जनक था। लसफम पत्रों को दे खकर महीनों
पहिे सय
ू -म ग्रहण और दस
ू रे पवो के ददन बता दे ते थे। इसलिए गाववािों की ननगाह में उनकी इजजत अगर
पक्ण्डतों से जयादा न थी तो कम भी न थी। जवानी में कुछ ददनों फौज में नौकरी भी की थी। उसकी गमी
अब तक बाकी थी, मजाि न थी कक कोई उनकी तरफ सीधी आख से दे ख सके। सम्मन िानेवािे एक
ॉँ ग वॉँ में भी नहीीं लमि
चपरासी को ऐसी व्यावहाररक चेतावनी दी थी क्जसका उदाहरण आस-पास के दस-प च
सकता। दहम्मत और हौसिे के कामों में अब भी आगे-आगे रहते थे ककसी काम को मक्ु श्कि बता दे ना,
उनकी दहम्मत को प्रेररत कर दे ना था। जह ॉँ सबकी जबानें बन्द हो जाए, वह ॉँ वे शेरों की तरह गरजते थे।
जब कभी ग वॉँ में दरोगा जी तशरीफ िाते तो ठाकुर साहब ही का ददि-गुदाम था कक उनसे आखें लमिाकर
आमने-सामने बात कर सकें। ज्ञान की बातों को िेकर नछडनेवािी बहसों के मैदान में भी उनके कारनामे
कुछ कम शानदार न थे। झगडा पक्ण्डत हमेशा उनसे मह ु नछपाया करते। गरज, ठाकुर साहब का स्वभावगत
ू हा बनने पर मजबरू कर दे ता था। ह ,ॉँ कमजोरी इतनी थी कक
गवम और आत्म-ववश्वास उन्हें हर बरात में दल्
अपना आल्हा भी आप ही गा िेते और मजे िे-िेकर क्योंकक रचना को रचनाकार ही खूब बयान करता है !
ऐसा मािम
ू होता था, यह आदलमयों की एक नदी थी, जो सैंकडों छोटे -छोटे नािों और धारों को िेती
हुई समद्र
ु से लमिने के लिए जा रही थी।
जब यह िोग गींगा के ककनारे पहुचे तो तीसरे पहर का वक्त था िेककन मीिों तक कहीीं नति रखने
की जगह न थी। इस शानदार दृश्य से ददिों पर ऐसा रोब और भक्क्त का ऐसा भाव छा जाता था कक
बरबस ‘गींगा माता की जय’ की सदायें बि
ु न्द हो जाती थीीं। िोगों के ववश्वास उसी नदी की तरह उमडे हुए
थे और वह नदी! वह िहराता हुआ नीिा मैदान! वह प्यासों की प्यास बझ ु ानेवािी! वह ननराशों की आशा!
वह वरदानों की दे वी! वह पववत्रता का स्त्रोत! वह मट्
ु ठी भर खाक को आश्रय दे नेवीिी गींगा हसती-
मस्
ु कराती थी और उछिती थी। क्या इसलिए कक आज वह अपनी चौतरफा इजजत पर फूिी न समाती थी
या इसलिए कक वह उछि-उछिकर अपने प्रेलमयों के गिे लमिना चाहती थी जो उसके दशमनों के लिए मींक्जि
ॉँ े
तय करके आये थे! और उसके पररधान की प्रशींसा ककस जबान से हो, क्जस सरू ज से चमकते हुए तारे ट क
थे और क्जसके ककनारों को उसकी ककरणों ने रीं ग-बबरीं गे, सन्
ु दर और गनतशीि फूिों से सजाया था।
अभी ग्रहण िगने में धण्टे की दे र थी। िोग इधर-उधर टहि रहे थे। कहीीं मदाररयों के खेि थे, कहीीं
चरू नवािे की िच्छे दार बातों के चमत्कार। कुछ िोग मेढ़ों की कुश्ती दे खने के लिए जमा थे। ठाकुर साहब
भी अपने कुछ भक्तों के साथ सैर को ननकिे। उनकी दहम्मत ने गवारा न ककया कक इन बाजारू
ददिचक्स्पयों में शरीक हों। यकायक उन्हें एक बडा-सा शालमयाना तना हुआ नजर आया, जह ॉँ जयादातर पढ़े -
लिखे िोगों की भीड थी। ठाकुर साहब ने अपने साधथयों को एक ककनारे खडा कर ददया और खद ु गवम से
ताकते हुए फशम पर जा बैठे क्योंकक उन्हें ववश्वास था कक यह ॉँ उन पर दे हानतयों की ईष्याम--दृक्ष्ट पडेगी और
सम्भव है कुछ ऐसी बारीक बातें भी मािम ू हो जाय तो उनके भक्तों को उनकी सवमज्ञता का ववश्वास ददिाने
में काम दे सकें।
यह एक नैनतक अनष्ु ठान था। दो-ढाई हजार आदमी बैठे हुए एक मधरु भाषी वक्ता का भाषणसन ु रहे
थे। फैशनेबि
ु िोग जयादातर अगिी पींक्क्त में बैठे हुए थे क्जन्हें कनबनतयों का इससे अच्छा मौका नहीीं लमि
सकता था। ककतने ही अच्छे कपडे पहने हुए िोग इसलिए दख ु ी नजर आते थे कक उनकी बगि में ननम्न
श्रेणी के िोग बैठे हुए थे। भाषण ददिचस्त मािम
ू पडता था। वजन जयादा था और चटखारे कम, इसलिए
तालिय ॉँ नहीीं बजती थी।
३
सू रज गींगा की गोद में जा बैठा था और म ॉँ प्रेम और गवम से मतवािी जोश में उमडी हुई रीं ग केसर को
शमामती और चमक में सोने की िजाती थी। चार तरफ एक रोबीिी खामोशी छायी थीीं उस सन्नाटे में
सींन्यासी की गमी और जोश से भरी हुई बातें गींगा की िहरों और गगनचम्
ु बी मींददरों में समा गयीीं। गींगा
एक गम्भीर म ॉँ की ननराशा के साथ हसी और दे वताओीं ने अफसोस से लसर झक ु ा लिया, मगर मह ु से कुछ
न बोिे।
सींन्यासी की जोशीिी पक
ु ार कफजाीं में जाकर गायब हो गई, मगर उस मजमे में ककसी आदमी के ददि
तक न पहुची। वह ॉँ कौम पर जान दे ने वािों की कमी न थी: स्टे जों पर कौमी तमाशे खेिनेवािे कािेजों के
होनहार नौजवान, कौम के नाम पर लमटनेवािे पत्रकार, कौमी सींस्थाओीं के मेम्बर, सेक्रेटरी और प्रेलसडेंट, राम
और कृष्ण के सामने लसर झक ु ानेवािे सेठ और साहूकार, कौमी कालिजों के ऊचे हौंसिोंवािे प्रोफेसर और
अखबारों में कौमी तरक्क्कयों की खबरें पढ़कर खुश होने वािे दफ्तरों के कममचारी हजारों की तादाद में मौजद
ू
थे। आखों पर सन
ु हरी ऐनकें िगाये, मोटे -मोटे वकीिों क एक परू ी फौज जमा थी। मगर सींन्यासी के उस
गमम भाषण से एक ददि भी न वपघिा क्योंकक वह पत्थर के ददि थे क्जसमें ददम और घि
ु ावट न थी,
क्जसमें सददच्छा थी मगर कायम-शक्क्त न थी, क्जसमें बच्चों की सी इच्छा थी मदो का–सा इरादा न था।
सारी मजलिस पर सन्नाटा छाया हुआ था। हर आदमी लसर झक ु ाये कफक्र में डूबा हुआ नजर आता
था। शलमिंदगी ककसी को सर उठाने न दे ती थी और आखें झेंप में मारे जमीन में गडी हुई थी। यह वही सर
हैं जो कौमी चचों पर उछि पडते थे, यह वही आखें हैं जो ककसी वक्त राष्रीय गौरव की िािी से भर जाती
थी। मगर कथनी और करनी में आदद और अन्त का अन्तर है। एक व्यक्क्त को भी खडे होने का साहस न
हुआ। कैंची की तरह चिनेवािी जबान भी ऐसे महान ् उत्तरदानयत्व के भय से बन्द हो गयीीं।
ठा कुर दशमनलसींह अपनी जगी पर बैठे हुए इस दृश्य को बहुत गौर और ददिचस्पी से दे ख रहे थे। वह
अपने मालममक ववश्वासो में चाहे कट्टर हो या न हों, िेककन साींस्कृनतक मामिों में वे कभी अगव
ु ाई
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करने के दोषी नहीीं हुए थे। इस पेचीदा और डरावने रास्ते में उन्हें अपनी बद्
ु धध और वववेक पर भरोसा नहीीं
होता था। यह ीं तकम और यक्ु क्त को भी उनसे हार माननी पडती थी। इस मैदान में वह अपने घर की क्स्त्रयों
की इच्छा परू ी करने ही अपना कत्तमव्य समझते थे और चाहे उन्हें खद
ु ककसी मामिे में कुछ एतराज भी हो
िेककन यह औरतों का मामिा था और इसमें वे हस्तक्षेप नहीीं कर सकते थे क्योंकक इससे पररवार की
व्यवस्था में हिचि और गडबडी पैदा हो जाने की जबरदस्त आशींका रहती थी। अगर ककसी वक्त उनके कुछ
जोशीिे नौजवान दोस्त इस कमजोरी पर उन्हें आडे हाथों िेते तो वे बडी बद्
ु धधमत्ता से कहा करते थे—भाई,
यह औरतों के मामिे हैं, उनका जैसा ददि चाहता है, करती हैं, मैं बोिनेवािा कौन हू। गरज यह ॉँ उनकी
फौजी गमम-लमजाजी उनका साथ छोड दे ती थी। यह उनके लिए नतलिस्म की घाटी थी जह ॉँ होश-हवास बबगड
जाते थे और अन्धे अनक
ु रण का पैर बधी हुई गदम न पर सवार हो जाता था।
िेककन यह ििकार सन ु कर वे अपने को काबू में न रख सके। यही वह मौका था जब उनकी दहम्मतें
आसमान पर जा पहुचती थीीं। क्जस बीडे को कोई न उठाये उसे उठाना उनका काम था। वजमनाओीं से उनको
आक्त्मक प्रेम था। ऐसे मौके पर वे नतीजे और मसिहत से बगावत कर जाते थे और उनके इस हौसिे में
यश के िोभ को उतना दखि नहीीं था क्जतना उनके नैसधगमक स्वाभाव का। वनाम यह असम्भव था कक एक
ऐसे जिसे में जह ॉँ ज्ञान और सभ्यता की धम
ू -धाम थी, जह ॉँ सोने की ऐनकों से रोशनी और तरह-तरह के
पररधानों से दीप्त धचन्तन की ककरणें ननकि रही थीीं, जह ॉँ कपडे-ित्ते की नफासत से रोब और मोटापे से
प्रनतष्ठा की झिक आती थी, वह ॉँ एक दे हाती ककसान को जबान खोिने का हौसिा होता। ठाकुर ने इस
दृश्य को गौर और ददिचस्पी से दे खा। उसके पहिू में गुदगुदी-सी हुई। क्जन्दाददिी का जोश रगों में दौडा।
वह अपनी जगह से उठा और मदामना िहजे में ििकारकर बोिा-मैं यह प्रनतज्ञा करता हू और मरते दम तक
उस पर कायम रहूगा।
६
इ तना सन
ु ना था कक दो हजार आखें अचम्भे से उसकी तरफ ताकने िगीीं। सभ
थी—गाढे की ढीिी लमजमई, घट
ु ानअल्िाह, क्या हुलिया
ु नों तक चढ़ी हुई धोती, सर पर एक भारी-सा उिझा हुआ साफा, कन्धे पर
चन
ु ौटी और तम्बाकू का वजनी बटुआ, मगर चेहरे से गम्भीरता और दृढ़ता स्पष्ट थी। गवम आखों के तींग घेरे
से बाहर ननकिा पडता था। उसके ददि में अब इस शानदार मजमे की इजजत बाकी न रही थी। वह परु ाने
वक्तों का आदमी था जो अगर पत्थर को पज
ू ता था तो उसी पत्थर से डरता भी था, क्जसके लिए एकादशी
का व्रत केवि स्वास्थ्य-रक्षा की एक यक्ु क्त और गींगा केवि स्वास्थ्यप्रद पानी की एक धारा न थी। उसके
ववश्वासों में जागनृ त न हो िेककन दवु वधा नहीीं थी। यानी कक उसकी कथनी और करनी में अन्तर न था और
न उसकी बनु नयाद कुछ अनक
ु रण और दे खादे खी पर थी मगर अधधकाींशत: भय पर, जो ज्ञान के आिोक के
बाद वनृ तयों के सींस्कार की सबसे बडी शक्क्त है । गेरुए बाने का आदर और भक्क्त करना इसके धमम और
ववश्वास का एक अींग था। सींन्यास में उसकी आत्मा को अपना अनच
ु र बनाने की एक सजीव शक्क्त नछपी
हुई थी और उस ताकत ने अपना असर ददखाया। िेककन मजमे की इस हैरत ने बहुत जल्द मजाक की सरू त
अक्ख्तयार की। मतिबभरी ननगाहें आपस में कहने िगीीं—आखखर गींवार ही तो ठहरा! दे हाती है, ऐसे भाषण
कभी काहे को सन
ु े होंगे, बस उबि पडा। उथिे गड्ढे में इतना पानी भी न समा सका! कौन नहीीं जानता कक
ऐसे भाषणों का उद्दे श्य मनोरीं जन होता है ! दस आदमी आये, इकट्ठे बैठ, कुछ सन
ु ा, कुछ गप-शप मारी
और अपने-अपने घर िौटे , न यह कक कौि-करार करने बैठे, अमि करने के लिए कसमें खाये!
ु क की रोशनी में इतना अींधरे ा है, वह ॉँ कभी
मगर ननराश सींन्यासी सो रहा था—अफसोस, क्जस मल्
रोशनी का उदय होना मक्ु श्कि नजर आता है । इस रोशनी पर, इस अींधेरी, मद
ु ाम और बेजान रोशनी पर मैं
जहाित को, अज्ञान को जयादा ऊची जगह दे ता हू। अज्ञान में सफाई है और दहम्मत है , उसके ददि और
जबान में पदाम नहीीं होता, न कथनी और करनी में ववरोध। क्या यह अफसोस की बात नहीीं है कक ज्ञान और
अज्ञान के आगे लसर झक
ु ाये? इस सारे मजमें में लसफम एक आदमी है, क्जसके पहिू में मदों का ददि है और
गो उसे बहुत सजग होने का दावा नहीीं िेककन मैं उसके अज्ञान पर ऐसी हजारों जागनृ तयों को कुबामन कर
सकता हू। तब वह प्िेटफामम से नीचे उतरे और दशमनलसींह को गिे से िगाकर कहा—ईश्वर तुम्हें प्रनतज्ञा पर
कायम रखे।
--जमाना, अगस्त-लसतम्बर १९१३
नेकी
सा वन का महीना था। रे वती रानी ने पाींव में मेहींदी रचायी, माींग-चोटी सींवारी और तब अपनी बढ़
सास ने जाकर बोिी—अम्माीं जी, आज भी मेिा दे खने जाऊगी।
ू ी
बी
स साि गज
ु र गए। पक्ण्डत धचन्तामखण का कारोबार रोज ब रोज बढ़ता गया। इस बीच में उसकी माीं
ने सातों यात्राएीं कीीं और मरीीं तो ठाकुरद्वारा तैयार हुआ। रे वती बहू से सास बनी, िेन-दे न, बही-
खाता हीरामखण के साथ में आया हीरामखण अब एक हष्ट-पष्ु ट िम्बा-तगडा नौजवान था। बहुत अच्छे
स्वभाव का, नेक। कभी-कभी बाप से नछपाकर गरीब असालमयों को यों ही कजम दे ददया करता। धचन्तामखण
ने कई बार इस अपराध के लिए बेटे को ऑ ींखें ददखाई थीीं और अिग कर दे ने की धमकी दी थी। हीरामखण
ने एक बार एक सींस्कृत पाठशािा के लिए पचास रुपया चन्दा ददया। पक्ण्डत जी उस पर ऐसे क्रुद्ध हुए कक
दो ददन तक खाना नहीीं खाया । ऐसे अवप्रय प्रसींग आये ददन होते रहते थे, इन्हीीं कारणों से हीरामखण की
तबीयत बाप से कुछ खखींची रहती थीीं। मगर उसकी या सारी शरारतें हमेशा रे वती की साक्जश से हुआ करती
थीीं। जब कस्बे की गरीब ववधवायें या जमीींदार के सताये हुए असालमयों की औरतें रे वती के पास आकर
हीरामखण को आींचि फैिा—फैिाकर दआ
ु एीं दे ने िगती तो उसे ऐसा मािम
ू होता कक मझ
ु से जयादा भाग्यवान
और मेरे बेटे से जयादा नेक आदमी दनु नया में कोई न होगा। तब उसे बरबस वह ददन याद आ जाता तब
हीरामखण कीरत सागर में डूब गया था और उस आदमी की तस्वीर उसकी आखों के सामने खडी हो जाती
क्जसने उसके िाि को डूबने से बचाया था। उसके ददि की गहराई से दआ
ु ननकिती और ऐसा जी चाहता
कक उसे दे ख पाती तो उसके पाींव पर धगर पडती। उसे अब पक्का ववश्वास हो गया था कक वह मनष्ु य न था
बक्ल्क कोई दे वता था। वह अब उसी खटोिे पर बैठी हुई, क्जस पर उसकी सास बैठती थी, अपने दोनों पोतों
को खखिाया करती थी।
आज हीरामखण की सत्ताईसवीीं सािधगरह थी। रे वती के लिए यह ददन साि के ददनों में सबसे अधधक
शभ
ु था। आज उसका दया का हाथ खब
ू उदारता ददखिाता था और यही एक अनधु चत खचम था क्जसमें
पक्ण्डत धचन्तामखण भी शरीक हो जाते थे। आज के ददन वह बहुत खश
ु होती और बहुत रोती और आज
अपने गुमनाम भिाई करनेवािे के लिए उसके ददि से जो दआ
ु ए ननकितीीं वह ददि और ददमाग की अच्छी
से अच्छी भावनाओीं में रीं गी होती थीीं। उसी ददन की बदौित तो आज मझ
ु े यह ददन और यह सख
ु दे खना
नसीब हुआ है!
३
ए क ददन हीरामखण ने आकर रे वती से कहा—अम्माीं, श्रीपरु नीिाम पर चढ़ा हुआ है , कहो तो मैं भी दाम
िगाऊीं।
रे वती—सोिहो आना है ?
हीरामखण—सोिहो आना। अच्छा गाींव है । न बडा न छोटा। यह ॉँ से दस कोस है । बीस हजार तक बोिी
चढ़ चक
ु ी है। सौ-दौ सौ में खत्म हो जायगी।
रे वती-अपने दादा से तो पछ
ू ो
हीरामखण—उनके साथ दो घींटे तक माथापच्ची करने की ककसे फुरसत है।
हीरामखण अब घर का मालिक हो गया था और धचन्तामखण की एक न चिने पाती। वह गरीब अब
ऐनक िगाये एक गद्दे पर बैठे अपना वक्त खाींसने में खचम करते थे।
दस
ू रे ददन हीरामखण के नाम पर श्रीपरु खत्म हो गया। महाजन से जमीींदार हुए अपने मन ु ीम और दो
चपरालसयों को िेकर गाींव की सैर करने चिे। श्रीपरु वािों को खबर हुई। नयें जमीींदार का पहिा आगमन था।
घर-घर नजराने दे ने की तैयाररय ॉँ होने िगीीं। पाींचतें ददन शाम के वक्त हीरामखण गाींव में दाखखि हुए। दही
और चावि का नतिक िगाया गया और तीन सौ असामी पहर रात तक हाथ बाींधे हुए उनकी सेवा में खडे
रहे । सवेरे मख्
ु तारे आम ने असालमयों का पररचय कराना शरू
ु ककया। जो असामी जमीींदार के सामने आता वह
अपनी बबसात के मत
ु ाबबक एक या दो रुपये उनके पाींव पर रख दे ता । दोपहर होते-होते पाींच सौ रुपयों का
ढे र िगा हुआ था।
हीरामखण को पहिी बार जमीींदारी का मजा लमिा, पहिी बार धन और बि का नशा महसस ू हुआ।
सब नशों से जयादा तेज, जयादा घातक धन का नशा है । जब असालमयों की फेहररस्त खतम हो गयी तो
मख्
ु तार से बोिे—और कोई असामी तो बाकी नहीीं है ?
मख्
ु तार—हाीं महाराज, अभी एक असामी और है , तखत लसींह।
हीरामखण—वह क्यों नहीीं आया ?
मख्
ु तार—जरा मस्त है ।
हीरामखण—मैं उसकी मस्ती उतार दगा।
ू जरा कोई उसे बि
ु ा िाये।
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थोडी दे र में एक बढ़
ू ा आदमी िाठी टे कता हुआ आया और दण्डवत ् करके जमीन पर बैठ गया, न
नजर न ननयाज। उसकी यह गस् ु ताखी दे खकर हीरामखण को बख
ु ार चढ़ आया। कडककर बोिे—अभी ककसी
जमीींदार से पािा नही पडा हैं। एक-एक की हे कडी भि
ु ा दगा!
ू
तखत लसींह ने हीरामखण की तरफ गौर से दे खकर जवाब ददया—मेरे सामने बीस जमीींदार आये और
चिे गये। मगर कभी ककसी ने इस तरह घड
ु की नहीीं दी।
यह कहकर उसने िाठी उठाई और अपने घर चिा आया।
बढ़
ू ी ठकुराइन ने पछ
ू ा—दे खा जमीींदार को कैसे आदमी है ?
तखत लसींह—अच्छे आदमी हैं। मैं उन्हें पहचान गया।
ठकुराइन—क्या तुमसे पहिे की मि
ु ाकात है ।
तखत लसींह—मेरी उनकी बीस बरस की जान-पदहचान है, गडु डयों के मेिेविी बात याद है न?
उस ददन से तखत लसींह कफर हीरामखण के पास न आया।
छ: महीने के बाद रे वती को भी श्रीपरु दे खने का शौक हुआ। वह और उसकी बहू और बच्चे सब श्रीपरु
आये। ग वॉँ की सब औरतें उससे लमिने आयीीं। उनमें बढ़ ू ी ठकुराइन भी थी। उसकी बातचीत,
सिीका और तमीज दे खकर रे वती दीं ग रह गयी। जब वह चिने िगी तो रे वती ने कहा—ठकुराइन, कभी-
कभी आया करना, तम
ु से लमिकर तबबयत बहुत खुश हुई।
इस तरह दोनों औरतों में धीरे -धीरे मेि हो गया। यहा तो यह कैकफयत थी और हीरामखण अपने
मख्
ु तारे आम के बहकाते में आकर तखत लसींह को बेदखि करने की तरकीबें सोच रहा था।
जेठ की परू नमासी आयी। हीरामखण की सािधगरह की तैयाररय ॉँ होने िगीीं। रे वती चिनी में मैदा छान
रही थी कक बढ़ ु कराकर कहा—ठकुराइन, हमारे यह ॉँ कि तम्
ू ी ठकुराइन आयी। रे वती ने मस् ु हारा न्योता है ।
ॉँ है ?
ठकुराइन-तुम्हारा न्योता लसर-आखों पर। कौन-सी बरसग ठ
रे वती उनतीसवीीं।
ठकुराइन—नरायन करे अभी ऐसे-ऐसे सौ ददन तुम्हें और दे खने नसीब हो।
रे वती—ठकुराइन, तुम्हारी जबान मब
ु ारक हो। बडे-बडे जन्तर-मन्तर ककये हैं तब तुम िोगों की दआ
ु से
यह ददन दे खना नसीब हुआ है । यह तो सातवें ही साि में थे कक इसकी जान के िािे पड गये। गुडडयों का
मेिा दे खने गयी थी। यह पानी में धगर पडे। बारे , एक महात्मा ने इसकी जान बचायी । इनकी जान उन्हीीं
की दी हुई हैं बहुत तिाश करवाया। उनका पता न चिा। हर बरसग ठ ॉँ पर उनके नाम से सौ रुपये ननकाि
रखती हू। दो हजार से कुछ ऊपर हो गये हैं। बच्चे की नीयत है कक उनके नाम से श्रीपरु में एक मींददर
बनवा दें । सच मानो ठकुराइन, एक बार उनके दशमन हो जाते तो जीवन सफि हो जाता, जी की हवस
ननकाि िेत।े
रे वती जब खामोश हुई तो ठकुराइन की आखों से आसू जारी थे।
दस ू रे ददन एक तरफ हीरामखण की सािधगरह का उत्सव था और दसू री तरफ तखत लसींह के खेत
नीिाम हो रहे थे।
ठकुराइन बोिी—मैं रे वती रानी के पास जाकर दहु ाई मचाती हू।
तखत लसींह ने जवाब ददया—मेरे जीते-जी नहीीं।
अ साढ़ का महीना आया। मेघराज ने अपनी प्राणदायी उदारता ददखायी। श्रीपरु के ककसान अपने-अपने
खेत जोतने चिे। तखतलसींह की िािसा भरी आखें उनके साथ-साथ जातीीं, यह ॉँ तक कक जमीन उन्हें
अपने दामन में नछपा िेती।
तखत लसींह के पास एक गाय थी। वह अब ददन के ददन उसे चराया करता। उसकी क्जन्दगी का अब
यही एक सहारा था। उसके उपिे और दध
ू बेचकर गज
ु र-बसर करता। कभी-कभी फाके करने पड जाते। यह
सब मस
ु ीबतें उसने झेंिीीं मगर अपनी कींगािी का रोना रोने केलिए एक ददन भी हीरामखण के पास न गया।
हीरामखण ने उसे नीचा ददखाना चाहा था मगर खुद उसे ही नीचा दे खना पडा, जीतने पर भी उसे हार हुई,
परु ाने िोहे को अपने नीच हठ की आच से न झक
ु ा सका।
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एक ददन रे वती ने कहा—बेटा, तम
ु ने गरीब को सताया, अच्छा न ककया।
हीरामखण ने तेज होकर जवाब ददया—वह गरीब नहीीं है । उसका घमण्ड मैं तोड दगा।
ू
दौित के नशे में मतवािा जमीींदार वह चीज तोडने की कफक्र में था जो कहीीं थी ही नहीीं। जैसे
नासमझ बच्चा अपनी परछाईं से िडने िगता है।
सा ि भर तखतलसींह ने जयों-त्यों करके काटा। कफर बरसात आयी। उसका घर छाया न गया था। कई
ददन तक मस ू िाधर में ह बरसा तो मकान का एक दहस्सा धगर पडा। गाय वह ॉँ बधी हुई थी, दबकर
मर गयीीं तखतलसींह को भी सख्त चोट आयी। उसी ददन से बख ु ार आना शरूु हुआ। दवा –दारू कौन करता,
रोजी का सहारा था वह भी टूटा। जालिम बेददम मस ु ीबत ने कुचि डािा। सारा मकान पानी से भरा हुआ, घर
में अनाज का एक दाना नहीीं, अींधेरे में पडा हुआ कराह रहा था कक रे वती उसके घर गयी। तखतलसींह ने
आखें खोिीीं और पछ
ू ा—कौन है ?
ठकुराइन—रे वती रानी हैं।
तखतलसींह—मेरे धन्यभाग, मझ
ु पर बडी दया की ।
रे वती ने िक्जजत होकर कहा—ठकुराइन, ईश्वर जानता है, मैं अपने बेटे से है रान हू। तुम्हें जो
तकिीफ हो मझ ु से कहो। तुम्हारे ऊपर ऐसी आफत पड गयी और हमसे खबर तक न की?
यह कहकर रे वती ने रुपयों की एक छोटी-सी पोटिी ठकुराइन के सामने रख दी।
रुपयों की झनकार सन
ु कर तखतलसींह उठ बैठा और बोिा—रानी, हम इसके भख
ू े नहीीं है । मरते दम
गन
ु ाहगार न करो
दसू रे ददन हीरामखण भी अपने मस
ु ादहबों को लिये उधर से जा ननकिा। धगरा हुआ मकान दे खकर
मस्
ु कराया। उसके ददि ने कहा, आखखर मैंने उसका घमण्ड तोड ददया। मकान के अन्दर जाकर बोिा—ठाकुर,
अब क्या हाि है ?
ठाकुर ने धीरे से कहा—सब ईश्वर की दया है , आप कैसे भि
ू पडे?
ू री बार हार खानी पडी। उसकी यह आरजू कक तखतलसींह मेरे प वॉँ को आखों से चम
हीरामखण को दस ू ,े
अब भी परू ी न हुई। उसी रात को वह गरीब, आजाद, ईमानदार और बेगरज ठाकुर इस दनु नया से ववदा हो
गया।
बू ढ़ी ठकुराइन अब दनु नया में अकेिी थी। कोई उसके गम का शरीक और उसके मरने पर आसू बहानेवािा
न था। कींगािी ने गम की आच और तेज कर दी थीीं जरूरत की चीजें मौत के घाव को चाहे न भर सकें
मगर मरहम का काम जरूर करती है ।
रोटी की धचन्ता बरु ी बिा है। ठकुराइन अब खेत और चरागाह से गोबर चन
ु िाती और उपिे बनाकर
ॉँ
बेचती । उसे िाठी टे कते हुए खेतों को जाते और गोबर का टोकरा लसर पर रखकर बोझ में ह फते हुए आते
दे खना बहुत ही ददम नाक था। यहा तक कक हीरामखण को भी उस पर तरस आ गया। एक ददन उन्होंने आटा,
दाि, चावि, थालियों में रखकर उसके पास भेजा। रे वती खद
ु िेकर गयी। मगर बढ़
ू ी ठकुराइन आखों में आसू
ू ता है और हाथ-प वॉँ चिते हैं, मझ
भरकर बोिा—रे वती, जब तक आखों से सझ ु े और मरनेवािे को गुनाहगार
न करो।
उस ददन से हीरामखण को कफर उसके साथ अमिी हमददी ददखिाने का साहस न हुआ।
एक ददन रे वती ने ठकुराइन से उपिे मोि लिये। ग वॉँ मे पैसे के तीस उपिे बबकते थे। उसने चाहा
कक इससे बीस ही उपिे ि।ू उस ददन से ठकुराइन ने उसके यह ॉँ उपिे िाना बन्द कर ददया।
ऐसी दे ववय ॉँ दनु नया में ककतनी है! क्या वह इतना न जानती थी कक एक गुप्त रहस्य जबान पर िाकर
मैं अपनी इन तकिीफों का खात्मा कर सकती हू! मगर कफर वह एहसान का बदिा न हो जाएगा! मसि
मशहूर है नेकी कर और दररया में डाि। शायद उसके ददि में कभी यह ख्याि ही नहीीं आया कक मैंने रे वती
पर कोई एहसान ककया।
यह वजादार, आन पर मरनेवािी औरत पनत के मरने के बाद तीन साि तक क्जन्दा रही। यह जमाना
उसने क्जस तकिीफ से काटा उसे याद करके रोंगटे खडे हो जाते हैं। कई-कई ददन ननराहार बीत जाते। कभी
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गोबर न लमिता, कभी कोई उपिे चरु ा िे जाता। ईश्वर की मजी! ककसी की घर भरा हुआ है, खानेवाि नहीीं।
कोई यो रो-रोकर क्जन्दगी काटता है ।
बदु ढ़या ने यह सब दख
ु झेिा मगर ककसी के सामने हाथ नहीीं फैिाया।
बााँका जमींदार
ठा कुर प्रद्यम्
ु न लसींह एक प्रनतक्ष्ठत वकीि थे और अपने हौसिे और दहम्मत के लिए सारे शहर में
मश्हूर। उनके दोस्त अकसर कहा करते कक अदाित की इजिास में उनके मदामना कमाि जयादा
साफ तरीके पर जादहर हुआ करते हैं। इसी की बरकत थी कक बाबजूद इसके कक उन्हें शायद ही कभी ककसी
मामिे में सख
ु रू
म ई हालसि होती थी, उनके मव
ु क्क्किों की भक्क्त-भावना में जरा भर भी फकम नहीीं आता था।
इन्साफ की कुसी पर बैठनेवािे बडे िोगों की ननडर आजादी पर ककसी प्रकार का सन्दे ह करना पाप ही क्यों
न हो, मगर शहर के जानकार िोग ऐिाननया कहते थे कक ठाकुर साहब जब ककसी मामिे में क्जद पकड
िेते हैं तो उनका बदिा हुआ तेवर और तमतमाया हुआ चेहरा इन्साफ को भी अपने वश में कर िेता है ।
एक से जयादा मौकों पर उनके जीवट और क्जगर ने वे चमत्कार कर ददखाये थे जह ॉँ कक इन्साफ और
कानन
ू के जवाब दे ददया। इसके साथ ही ठाकुर साहब मदामना गुणों के सच्चे जौहरी थे। अगर मव
ु क्क्कि को
कुश्ती में कुछ पैठ हो तो यह जरूरी नहीीं था कक वह उनकी सेवाए प्राप्त करने के लिए रुपया-पैसा दे ।
इसीलिए उनके यह ॉँ शहर के पहिवानों और फेकैतों का हमेशा जमघट रहता था और यही वह जबदमस्त
प्रभावशािी और व्यावहाररक कानन
ू ी बारीकी थी क्जसकी काट करने में इन्साफ को भी आगा-पीछा सोचना
ु घर की ड्योदढ़य ॉँ बहुत ऊची थी
पडता। वे गवम और सच्चे गवम की ददि से कदर करते थे। उनके बेतकल्िफ
वह ॉँ झक
ु ने की जरुरत न थी। इन्सान खब
ू लसर उठाकर जा सकता था। यह एक ववश्वस्त कहानी है कक एक
बार उन्होंने ककसी मक
ु दमें को बावजद
ू बहुत ववनती और आग्रह के हाथ में िेने से इनकार ककया। मव
ु क्क्कि
कोई अक्खड दे हाती था। उसने जब आरज-ू लमन्नत से काम ननकिते न दे खा तो दहम्मत से काम लिया।
वकीि साहब कुसी से नीचे धगर पडे और बबफरे हुए दे हाती को सीने से िगा लिया।
इ स मौजे के िोग बेहद सरदश और झगडािू थे, क्जन्हें इस बात का गवम था कक कभी कोई जमीींदार उन्हें
बस में नहीीं कर सका। िेककन जब उन्होंने अपनी बागडोर प्रद्यम्
ु न लसींह के हाथों में जाते दे खी तो
चौकडडय ॉँ भि
ू गये, एक बदिगाम घोडे की तरह सवार को कनखखयों से दे खा, कनौनतय ॉँ खडी कीीं, कुछ
दहनदहनाये और तब गदम नें झक
ु ा दीीं। समझ गये कक यह क्जगर का मजबत
ू आसन का पक्का शहसवार है।
असाढ़ का महीना था। ककसान गहने और बतमन बेच-बेचकर बैिों की तिाश में दर-ब-दर कफरते थे।
ॉँ की बढ़
ग वों ू ी बननयाइन नवेिी दिु हन बनी हुई थी और फाका करने वािा कुम्हार बरात का दल् ू हा था
मजदरू मौके के बादशाह बने हुए थे। टपकती हुई छतें उनकी कृपादृक्ष्ट की राह दे ख रही थी। घास से ढके
हुए खेत उनके ममतापण ू म हाथों के मह
ु ताज। क्जसे चाहते थे बसाते थे, क्जस चाहते थे उजाडते थे। आम और
जामनु के पेडों पर आठों पहर ननशानेबाज मनचिे िडकों का धावा रहता था। बढ़ ू े गदम नों में झोलिय ॉँ िटकाये
पहर रात से टपके की खोज में घम
ू ते नजर आते थे जो बढ़
ु ापे के बावजूद भोजन और जाप से जयादा
ददिचस्प और म़िेदार काम था। नािे परु शोर, नददय ॉँ अथाह, चारों तरफ हररयािी और खुशहािी। इन्हीीं
ददनों ठाकुर साहब मौत की तरह, क्जसके आने की पहिे से कोई सचू ना नहीीं होती, ग वॉँ में आये। एक सजी
हुई बरात थी, हाथी और घोडे, और साज-सामान, िठै तों का एक ररसािा-सा था। ग वॉँ ने यह तूमतडाक और
आन-बान दे खी तो रहे -सहे होश उड गये। घोडे खेतों में ऐींडने िगे और गींड
ु े गलियों में । शाम के वक्त ठाकुर
साहब ने अपने असालमयों को बि
ु ाया और बि
ु न्द आवाज में बोिे—मैंने सन
ु ा है कक तम
ु िोग सरकश हो और
मेरी सरकशी का हाि तम
ु को मािम
ू ही है । अब ईंट और पत्थर का सामना है। बोिो क्या मींजरू है ?
एक बढ़ ॉँ
ू े ककसान ने बेद के पेड की तरह क पते हुए जवाब ददया—सरकार, आप हमारे राजा हैं। हम
आपसे ऐींठकर कह ॉँ जायेंगे।
ठाकुर साहब तेवर बदिकर बोिे—तो तुम िोग सब के सब कि सब ु ह तक तीन साि का पेशगी
ु िो कक मैं हुक्म को दहु राना नहीीं जानता वनाम मैं ग वॉँ में
िगान दाखखि कर दो और खूब ध्यान दे कर सन
हि चिवा दगा
ू और घरों को खेत बना दगा।
ू
सारे ग वॉँ में कोहराम मच गया। तीन साि का पेशगी िगान और इतनी जल्दी जट
ु ाना असम्भव था।
रात इसी है स-बैस में कटी। अभी तक आरज-ू लमन्नत के बबजिी जैसे असर की उम्मीद बाकी थी। सब
ु ह बडी
इन्तजार के बाद आई तो प्रिय बनकर आई। एक तरफ तो जोर जबदम स्ती और अन्याय-अत्याचार का बाजार
गमम था, दस
ू री तरफ रोती हुई आखों, सदम आहों और चीख-पकु ार का, क्जन्हें सनु नेवािा कोई न था। गरीब
ककसान अपनी-अपनी पोटलिय ॉँ िादे , बेकस अन्दाज से ताकते, ऑ ींखें में याचना भरे बीवी-बच्चों को साथ
लिये रोते-बबिखते ककसी अज्ञात दे श को चिे जाते थे। शाम हुई तो ग वॉँ उजड गया।
४
य ह खबर बहुत जल्द चारों तरफ फैि गयी। िोगों को ठाकुर साहब के इन्सान होने पर सन्दे ह होने
िगा। ग वॉँ वीरान पडा हुआ था। कौन उसे आबाद करे । ककसके बच्चे उसकी गलियों में खेिें। ककसकी
औरतें कुओीं पर पानी भरें । राह चिते मस
ु ाकफर तबाही का यह दृश्य आखों से दे खते और अफसोस करते।
नहीीं मािम
ू उन वीराने दे श में पडे हुए गरीबों पर क्या गज
ु री। आह, जो मेहनत की कमाई खाते थे और सर
उठाकर चिते थे, अब दस ू रों की गिु ामी कर रहे हैं।
इस तरह परू ा साि गुजर गया। तब ग वॉँ के नसीब जागे। जमीन उपजाऊ थी। मकान मौजूद। धीरे -
धीरे जुल्म की यह दास्तान फीकी पड गयी। मनचिे ककसानों की िोभ-दृक्ष्ट उस पर पडने िगी। बिा से
जमीींदार जालिम हैं, बेरहम हैं, सक्ख्तय ॉँ करता है , हम उसे मना िेंगे। तीन साि की पेशगी िगान का क्या
क्जक्र वह जैसे खुश होगा, खुश करें गे। उसकी गालियों को दआ
ु समझेंगे, उसके जूते अपने सर-आखों पर
रक्खेंगे। वह राजा हैं, हम उनके चाकर हैं। क्जन्दगी की कशमकश और िडाई में आत्मसम्मान को ननबाहना
ू रा अषाढ़ आया तो वह ग वॉँ कफर बगीचा बना हुआ था। बच्चे कफर अपने दरवाजों
कैसा मक्ु श्कि काम है! दस
पर घरौंदे बनाने िगे, मदों के बि
ु न्द आवाज के गाने खेतों में सन
ु ाई ददये व औरतों के सह
ु ाने गीत चक्क्कयों
पर। क्जन्दगी के मोहक दृश्य ददखाईं दे ने िगे।
ब हुत ददनों तक यह घटना आस-पास के मनचिे ककस्सागोयों के लिए ददिचक्स्पयों का खजाना बनी
रही। एक साहब ने उस पर अपनी किम। भी चिायी। बेचारे ठाकुर साहब ऐसे बदनाम हुए कक घर से
ननकिना मक्ु श्कि हो गया। बहुत कोलशश की ग वॉँ आबाद हो जाय िेककन ककसकी जान भारी थी कक इस
अींधेर नगरी में कदम रखता जह ॉँ मोटापे की सजा फ सी
ॉँ थी। कुछ मजदरू -पेशा िोग ककस्मत का जुआ
खेिने आये मगर कुछ महीनों से जयादा न जम सके। उजडा हुआ ग वॉँ खोया हुआ एतबार है जो बहुत
मक्ु श्कि से जमता है। आखखर जब कोई बस न चिा तो ठाकुर साहब ने मजबरू होकर आराजी माफ करने
का काम आम ऐिान कर ददया िेककन इस ररयासत से रही-सही साख भी खो दी। इस तरह तीन साि गुजर
जाने के बाद एक रोज वह ॉँ बींजारों का काकफिा आया। शाम हो गयी थी और परू ब तरफ से अींधेरे की िहर
बढ़ती चिी आती थी। बींजारों ने दे खा तो सारा ग वॉँ वीरान पडा हुआ है ।, जह ॉँ आदलमयों के घरों में धगद्ध
और गीदड रहते थे। इस नतलिस्म का भेद समझ में न आया। मकान मौजूद हैं, जमीन उपजाऊ है, हररयािी
से िहराते हुए खेत हैं और इन्सान का नाम नहीीं! कोई और ग वॉँ पास न था वहीीं पडाव डाि ददया। जब
सब ु ककया और काकफिा ग वॉँ से
ु ह हुई, बैिों के गिों की घींदटयों ने कफर अपना रजत-सींगीत अिापना शरू
कुछ दरू ननकि गया तो एक चरवाहे ने जोर-जबदम स्ती की यह िम्बी कहानी उन्हें सन
ु ायी। दनु नया भर में
घम
ू ते कफरने ने उन्हें मक्ु श्किों का आदी बना ददया था। आपस में कुद मशववरा ककया और फैसिा हो गया।
ठाकुर साहब की ड्योढ़ी पर जा पहुचे और नजराने दाखखि कर ददये। ग वॉँ कफर आबाद हुआ।
यह बींजारे बिा के चीमड, िोहे की-सी दहम्मत और इरादे के िोग थे क्जनके आते ही ग वॉँ में िक्ष्मी
का राज हो गया। कफर घरों में से धए
ु ीं के बादि उठे , कोल्हाडों ने कफर धए
ु ओर भाप की चादरें पहनीीं,
तुिसी के चबत
ू रे पर कफर से धचराग जिे। रात को रीं गीन तबबयत नौजवानों की अिापें सन
ु ायी दे ने िगीीं।
ॉँ रु ी की
चरागाहों में कफर मवेलशयों के गल्िे ददखाई ददये और ककसी पेड के नीचे बैठे हुए चरवाहे की ब स
मद्धधम और रसीिी आवाज ददम और असर में डूबी हुई इस प्राकृनतक दृश्य में जाद ू का आकषमण पैदा करने
िगी।
भादों का महीना था। कपास के फूिों की सख
ु म और सफेद धचकनाई, नति की ऊदी बहार और सन का
शोख पीिापन अपने रूप का जिवा ददखाता था। ककसानों की मडैया और छप्परों पर भी फि-फूि की रीं गीनी
गा
ववािों ने उनके शभु ागमन का समाचार सनु ा, सिाम को हाक्जर हुए। वकीि साहब ने उन्हें अच्छे -
अच्छे कपडे पहने, स्वालभमान के साथ कदम लमिाते हुए दे खा। उनसे बहुत मस्
ु कराकर लमिे। फसि
का हाि-चाि पछ
ू ा। बढ़
ू े हरदास ने एक ऐसे िहजे में क्जससे परू ी क्जम्मेदारी और चौधरापे की शान टपकती
थी, जवाब ददया—हुजरू के कदमों की बरकत से सब चैन है । ककसी तरह की तकिीफ नहीीं आपकी दी हुई
नेमत खाते हैं और आपका जस गाते हैं। हमारे राजा और सरकार जो कुछ हैं, आप हैं और आपके लिए जान
तक हाक्जर है ।
ठाकुर साहब ने तेबर बदिकर कहा—मैं अपनी खुशामद सन
ु ने का आदी नहीीं हू।
बढ़
ू े हरदास के माथे पर बि पडे, अलभमान को चोट िगी। बोिा—मझु े भी खुशामद करने की आदत
नहीीं है।
ठाकुर साहब ने ऐींठकर जवाब ददया—तुम्हें रईसों से बात करने की तमीज नहीीं। ताकत की तरह
तम्
ु हारी अक्ि भी बढ़
ु ापे की भें ट चढ़ गई।
हरदास ने अपने साधथयों की तरफ दे खा। गस्ु से की गमी से सब की आख फैिी हुई और धीरज की
सदी से माथे लसकुडे हुए थे। बोिा—हम आपकी रै यत हैं िेककन हमको अपनी आबरू प्यारी है और चाहे आप
जमीींदार को अपना लसर दे दें आबरू नहीीं दे सकते।
हरदास के कई मनचिे साधथयों ने बि
ु न्द आवाज में ताईद की—आबरू जान के पीछे है ।
ठाकुर साहब के गुस्से की आग भडक उठी और चेहरा िाि हो गया, और जोर से बोिे—तुम िोग
जबान सम्हािकर बातें करो वनाम क्जस तरह गिे में झोलिय ॉँ िटकाये आये थे उसी तरह ननकाि ददये
जाओगे। मैं प्रद्यम्
ु न लसींह हू, क्जसने तुम जैसे ककतने ही हे कडों को इसी जगह कुचिवा डािा है। यह कहकर
उन्होंने अपने ररसािे के सरदार अजन ुम लसींह को बि
ु ाकर कहा—ठाकुर, अब इन चीदटयों के पर ननकि आये हैं,
कि शाम तक इन िोगों से मेरा ग वॉँ साफ हो जाए।
ु सा अब धचनगारी बनकर आखों से ननकि रहा था। बोिा—हमने इस ग वॉँ को
हरदास खडा हो गया। गस्
छोडने के लिए नहीीं बसाया है। जब तक क्जयेंगे इसी ग वॉँ में रहें गे, यहीीं पैदा होंगे और यहीीं मरें गे। आप बडे
आदमी हैं और बडों की समझ भी बडी होती है । हम िोग अक्खड गींवार हैं। नाहक गरीबों की जान के पीछ
मत पडडए। खून-खराबा हो जायेगा। िेककन आपको यही मींजूर है तो हमारी तरफ से आपके लसपादहयों को
चन
ु ौती है, जब चाहे ददि के अरमान ननकाि िें।
इतना कहकर ठाकुर साहब को सिाम ककया और चि ददया। उसके साथी गवम के साथ अकडते हुए
चिे। अजुन
म लसींह ने उनके तेवर दे खे। समझ गया कक यह िोहे के चने हैं िेककन शोहदों का सरदार था, कुछ
अपने नाम की िाज थी। दस
ू रे ददन शाम के वक्त जब रात और ददन में मठ
ु भेड हो रही थी, इन दोनों
जमातों का सामना हुआ। कफर वह धौि-धप्पा हुआ कक जमीन थराम गयी। जबानों ने मींह ु के अन्दर वह माके
ददखाये कक सरू ज डर के मारे पक्श्छम में जा नछपा। तब िादठयों ने लसर उठाया िेककन इससे पहिे कक वह
डाक्टर साहब की दआ
ु और शकु क्रये की मस्
ु तहक हों अजन
ुम लसींह ने समझदारी से काम लिया। ताहम उनके
चन्द आदलमयों के लिए गुड और हल्दी पीने का सामान हो चक
ु ा था।
वकीि साहब ने अपनी फौज की यह बरु ी हाितें दे खीीं, ककसी के कपडे फटे हुए, ककसी के क्जस्म पर
ॉँ -ह फते
गदम जमी हुई, कोई ह फते ॉँ बेदम (खून बहुत कम नजर आया क्योंकक यह एक अनमोि चीज है और
इसे डींडों की मार से बचा लिया गया) तो उन्होंने अजन ॉँ
ुम लसींह की पीठ ठोकी और उसकी बहादरु ी और ज बाजी
की खबू तारीफ की। रात को उनके सामने िड्डू और इमरनतयों की ऐसी वषाम हुई कक यह सब गदम -गबु ार धि
ु
गया। सब ू कर भी इस ग वॉँ का
ु ह को इस ररसािे ने ठीं डे-ठीं डे घर की राह िी और कसम खा गए कक अब भि
रूख न करें गे।
अनाथ लड़की
से
ठ परु
ु षोत्तमदास पन
ू ा की सरस्वती पाठशािा का मआ
ु यना करने के बाद बाहर ननकिे तो एक िडकी ने
दौडकर उनका दामन पकड लिया। सेठ जी रुक गये और मह
ु ब्बत से उसकी तरफ दे खकर पछ
ू ा—क्या
नाम है ?
िडकी ने जवाब ददया—रोदहणी।
सेठ जी ने उसे गोद में उठा लिया और बोिे—तुम्हें कुछ इनाम लमिा?
िडकी ने उनकी तरफ बच्चों जैसी गींभीरता से दे खकर कहा—तम
ु चिे जाते हो, मझ
ु े रोना आता है,
मझ
ु े भी साथ िेते चिो।
सेठजी ने हसकर कहा—मझ
ु े बडी दरू जाना है , तुम कैसे चािोगी?
रोदहणी ने प्यार से उनकी गदम न में हाथ डाि ददये और बोिी—जह ॉँ तुम जाओगे वहीीं मैं भी चिगी।
ू मैं
तुम्हारी बेटी हूगी।
मदरसे के अफसर ने आगे बढ़कर कहा—इसका बाप साि भर हुआ नही रहा। म ॉँ कपडे सीती है , बडी
मक्ु श्कि से गज
ु र होती है।
सेठ जी के स्वभाव में करुणा बहुत थी। यह सन
ु कर उनकी आखें भर आयीीं। उस भोिी प्राथमना में वह
ददम था जो पत्थर-से ददि को वपघिा सकता है । बेकसी और यतीमी को इससे जयादा ददम नाक ढीं ग से जादहर
ु ककन था। उन्होंने सोचा—इस नन्हें -से ददि में न जाने क्या अरमान होंगे। और िडककय ॉँ अपने
कना नामम
खखिौने ददखाकर कहती होंगी, यह मेरे बाप ने ददया है । वह अपने बाप के साथ मदरसे आती होंगी, उसके
साथ मेिों में जाती होंगी और उनकी ददिचक्स्पयों का क्जक्र करती होंगी। यह सब बातें सन
ु -सन
ु कर इस
भोिी िडकी को भी ख्वादहश होती होगी कक मेरे बाप होता। म ॉँ की मह
ु ब्बत में गहराई और आक्त्मकता होती
है क्जसे बच्चे समझ नहीीं सकते। बाप की मह
ु ब्बत में खुशी और चाव होता है क्जसे बच्चे खूब समझते हैं।
सेठ जी ने रोदहणी को प्यार से गिे िगा लिया और बोिे—अच्छा, मैं तुम्हें अपनी बेटी बनाऊगा।
िेककन खूब जी िगाकर पढ़ना। अब छुट्टी का वक्त आ गया है , मेरे साथ आओ, तुम्हारे घर पहुचा द।ू
यह कहकर उन्होंने रोदहणी को अपनी मोटरकार में बबठा लिया। रोदहणी ने बडे इत्मीनान और गवम से
अपनी सहे लियों की तरफ दे खा। उसकी बडी-बडी आखें खश ॉँ
ु ी से चमक रही थीीं और चेहरा च दनी रात की
तरह खखिा हुआ था।
२
से ठ ने रोदहणी को बाजार की खूब सैर करायी और कुछ उसकी पसन्द से, कुछ अपनी पसन्द से बहुत-
सी चीजें खरीदीीं, यह ॉँ तक कक रोदहणी बातें करते-करते कुछ थक-सी गयी और खामोश हो गई। उसने
इतनी चीजें दे खीीं और इतनी बातें सन
ु ीीं कक उसका जी भर गया। शाम होते-होते रोदहणी के घर पहुचे और
मोटरकार से उतरकर रोदहणी को अब कुछ आराम लमिा। दरवाजा बन्द था। उसकी म ॉँ ककसी ग्राहक के घर
कपडे दे ने गयी थी। रोदहणी ने अपने तोहफों को उिटना-पिटना शरू
ु ककया—खूबसरू त रबड के खखिौने, चीनी
की गडु डया जरा दबाने से च-च
ू ू करने िगतीीं और रोदहणी यह प्यारा सींगीत सन
ु कर फूिी न समाती थी।
रे शमी कपडे और रीं ग-बबरीं गी साडडयों की कई बण्डि थे िेककन मखमिी बट
ू े की गि
ु काररयों ने उसे खब
ू
िभ
ु ाया था। उसे उन चीजों के पाने की क्जतनी खुशी थी, उससे जयादा उन्हें अपनी सहे लियों को ददखाने की
बेचन ु दरी के जूते अच्छे सही िेककन उनमें ऐसे फूि कह ॉँ हैं। ऐसी गुडडया उसने कभी दे खी भी न
ै ी थी। सन्
होंगी। इन खयािों से उसके ददि में उमींग भर आयी और वह अपनी मोदहनी आवाज में एक गीत गाने
िगी। सेठ जी दरवाजे पर खडे इन पववत्र दृश्य का हाददम क आनन्द उठा रहे थे। इतने में रोदहणी की म ॉँ
रुक्क्मणी कपडों की एक पोटिी लिये हुए आती ददखायी दी। रोदहणी ने खुशी से पागि होकर एक छि ग ॉँ
भरी और उसके पैरों से लिपट गयी। रुक्क्मणी का चेहरा पीिा था, आखों में हसरत और बेकसी नछपी हुई
थी, गप्ु त धचींता का सजीव धचत्र मािम
ू होती थी, क्जसके लिए क्जींदगी में कोई सहारा नहीीं।
मगर रोदहणी को जब उसने गोद में उठाकर प्यार से चम
ू ा मो जरा दे र के लिए उसकी ऑ ींखों में
उन्मीद और क्जींदगी की झिक ददखायी दी। मरु झाया हुआ फूि खखि गया। बोिी—आज तू इतनी दे र तक
कह ॉँ रही, मैं तुझे ढूढ़ने पाठशािा गयी थी।
से ठ जी के बडे बेटे नरोत्तमदास कई साि तक अमेररका और जममनी की यनु नवलसमदटयों की खाक छानने
के बाद इींजीननयररींग ववभाग में कमाि हालसि करके वापस आए थे। अमेररका के सबसे प्रनतक्ष्ठत
कािेज में उन्होंने सम्मान का पद प्राप्त ककया था। अमेररका के अखबार एक दहन्दोस्तानी नौजवान की इस
शानदार कामयाबी पर चककत थे। उन्हीीं का स्वागत करने के लिए बम्बई में एक बडा जिसा ककया गया था।
इस उत्सव में शरीक होने के लिए िोग दरू -दरू से आए थे। सरस्वती पाठशािा को भी ननमींत्रण लमिा और
रोदहणी को सेठानी जी ने ववशेष रूप से आमींबत्रत ककया। पाठशािा में हफ्तों तैयाररय ॉँ हुई। रोदहणी को एक
दम के लिए भी चैन न था। यह पहिा मौका था कक उसने अपने लिए बहुत अच्छे -अच्छे कपडे बनवाये।
ु ाव में वह लमठास थी, काट-छ टॉँ में वह फबन क्जससे उसकी सन्
रीं गों के चन ु दरता चमक उठी। सेठानी
कौशल्या दे वी उसे िेने के लिए रे िवे स्टे शन पर मौजूद थीीं। रोदहणी गाडी से उतरते ही उनके पैरों की तरफ
झक
ु ी िेककन उन्होंने उसे छाती से िगा लिया और इस तरह प्यार ककया कक जैसे वह उनकी बेटी है । वह
उसे बार-बार दे खती थीीं और आखों से गवम और प्रेम टपक पडता था।
इस जिसे के लिए ठीक समन्
ु दर के ककनारे एक हरे -भरे सह
ु ाने मैदान में एक िम्बा-चौडा शालमयाना
िगाया गया था। एक तरफ आदलमयों का समद्र
ु उमडा हुआ था दस
ू री तरफ समद्र
ु की िहरें उमड रही थीीं,
गोया वह भी इस खश
ु ी में शरीक थीीं।
जब उपक्स्थत िोगों ने रोदहणी बाई के आने की खबर सन
ु ी तो हजारों आदमी उसे दे खने के लिए खडे
हो गए। यही तो वह िडकी है। क्जसने अबकी शास्त्री की परीक्षा पास की है। जरा उसके दशमन करने चादहये।
अब भी इस दे श की क्स्त्रयों में ऐसे रतन मौजद
ू हैं। भोिे-भािे दे शप्रेलमयों में इस तरह की बातें होने िगीीं।
शहर की कई प्रनतक्ष्ठत मदहिाओीं ने आकर रोदहणी को गिे िगाया और आपस में उसके सौन्दयम और उसके
कपडों की चचाम होने िगी।
आखखर लमस्टर परु ॉँ वह बडा लशष्ट और गम्भीर उत्सव था िेककन उस
ु षोत्तमदास तशरीफ िाए। हाि कक
वक्त दशमन की उत्कींठा पागिपन की हद तक जा पहुची थी। एक भगदड-सी मच गई। कुलसमयों की कतारे
गडबड हो गईं। कोई कुसी पर खडा हुआ, कोई उसके हत्थों पर। कुछ मनचिे िोगों ने शालमयाने की रक्स्सय ॉँ
पकडीीं और उन पर जा िटके कई लमनट तक यही तफ ू ान मचा रहा। कहीीं कुलसमयाीं टूटीीं, कहीीं कुलसमय ॉँ उिटीीं,
कोई ककसी के ऊपर धगरा, कोई नीचे। जयादा तेज िोगों में धौि-धप्पा होने िगा।
तब बीन की सह ु ानी आवाजें आने िगीीं। रोदहणी ने अपनी मण्डिी के साथ दे शप्रेम में डूबा हुआ गीत
शरू
ु ककया। सारे उपक्स्थत िोग बबिकुि शान्त थे और उस समय वह सरु ीिा राग, उसकी कोमिता और
स्वच्छता, उसकी प्रभावशािी मधरु ता, उसकी उत्साह भरी वाणी ददिों पर वह नशा-सा पैदा कर रही थी
क्जससे प्रेम की िहरें उठती हैं, जो ददि से बरु ाइयों को लमटाता है और उससे क्जन्दगी की हमेशा याद रहने
वािी यादगारें पैदा हो जाती हैं। गीत बन्द होने पर तारीफ की एक आवाज न आई। वहीीं ताने कानों में अब
तक गज
ू रही थीीं।
गाने के बाद ववलभन्न सींस्थाओीं की तरफ से अलभनन्दन पेश हुए और तब नरोत्तमदास िोगों को
धन्यवाद दे ने के लिए खडे हुए। िेककन उनके भाषाण से िोगों को थोडी ननराशा हुई। यों दोस्तो की मण्डिी
में उनकी वक्तत ृ ा के आवेग और प्रवाह की कोई सीमा न थी िेककन सावमजननक सभा के सामने खडे होते ही
शब्द और ववचार दोनों ही उनसे बेवफाई कर जाते थे। उन्होंने बडी-बडी मक्ु श्कि से धन्यवाद के कुछ शब्द
कहे और तब अपनी योग्यता की िक्जजत स्वीकृनत के साथ अपनी जगह पर आ बैठे। ककतने ही िोग उनकी
योग्यता पर ज्ञाननयों की तरह लसर दहिाने िगे।
अब जिसा खत्म होने का वक्त आया। वह रे शमी हार जो सरस्वती पाठशािा की ओर से भेजा गया
था, मेज पर रखा हुआ था। उसे हीरो के गिे में कौन डािे? प्रेलसडेण्ट ने मदहिाओीं की पींक्क्त की ओर नजर
दौडाई। चन
ु ने वािी आख रोदहणी पर पडी और ठहर गई। उसकी छाती धडकने िगी। िेककन उत्सव के
सभापनत के आदे श का पािन आवश्यक था। वह सर झक ु ाये हुए मेज के पास आयी और क पते ॉँ हाथों से
हार को उठा लिया। एक क्षण के लिए दोनों की आखें लमिीीं और रोदहणी ने नरोत्तमदास के गिे में हार डाि
ददया।
रु क्क्मणी को अब रोदहणी की शादी की कफक्र पैदा हुई। पडोस की औरतों में इसकी चचाम होने िगी थी।
िडकी इतनी सयानी हो गयी है , अब क्या बढ़
ु ापे में ब्याह होगा? कई जगह से बात आयी, उनमें कुछ
बडे प्रनतक्ष्ठत घराने थे। िेककन जब रुक्क्मणी उन पैमानों को सेठजी के पास भेजती तो वे यही जवाब दे ते
कक मैं खदु कफक्र में हू। रुक्क्मणी को उनकी यह टाि-मटोि बरु ी मािम
ू होती थी।
रोदहणी को बम्बई से िौटे महीना भर हो चक ु ा था। एक ददन वह पाठशािा से िौटी तो उसे अम्मा
की चारपाई पर एक खत पडा हुआ लमिा। रोदहणी पढ़ने िगी, लिखा था—बहन, जब से मैंने तम् ु हारी िडकी
को बम्बई में दे खा है, मैं उस पर रीझ गई हू। अब उसके बगैर मझ
ु े चैन नहीीं है । क्या मेरा ऐसा भाग्य होगा
कक वह मेरी बहू बन सके? मैं गरीब हू िेककन मैंने सेठ जी को राजी कर लिया है । तुम भी मेरी यह ववनती
कबिू करो। मैं तुम्हारी िडकी को चाहे फूिों की सेज पर न सि
ु ा सकू, िेककन इस घर का एक-एक आदमी
उसे आखों की पत ु िी बनाकर रखेगा। अब रहा िडका। म ॉँ के मह ु से िडके का बखान कुछ अच्छा नहीीं
मािम ू होता। िेककन यह कह सकती हू कक परमात्मा ने यह जोडी अपनी हाथों बनायी है । सरू त में , स्वभाव
में , ववद्या में , हर दृक्ष्ट से वह रोदहणी के योग्य है । तम
ु जैसे चाहे अपना इत्मीनान कर सकती हो। जवाब
जल्द दे ना और जयादा क्या लिख।ू नीचे थोडे-से शब्दों में सेठजी ने उस पैगाम की लसफाररश की थी।
रोदहणी गािों पर हाथ रखकर सोचने िगी। नरोत्तमदास की तस्वीर उसकी आखों के सामने आ खडी
हुई। उनकी वह प्रेम की बातें , क्जनका लसिलसिा बम्बई से पन
ू ा तक नहीीं टूटा था, कानों में गींज
ू ने िगीीं।
उसने एक ठण्डी स स ॉँ िी और उदास होकर चारपाई पर िेट गई।
स रस्वती पाठशािा में एक बार कफर सजावट और सफाई के दृश्य ददखाई दे रहे हैं। आज रोदहणी की
शादी का शभ
ु ददन। शाम का वक्त, बसन्त का सह
ु ाना मौसम। पाठशािा के दारो-दीवार मस्
ु करा रहे हैं
और हरा-भरा बगीचा फूिा नहीीं समाता।
चन्द्रमा अपनी बारात िेकर परू ब की तरफ से ननकिा। उसी वक्त मींगिाचरण का सह
ु ाना राग उस
ॉँ
रूपहिी च दनी और हल्के-हल्के हवा के झोकों में िहरें मारने िगा। दल्
ू हा आया, उसे दे खते ही िोग है रत में
आ गए। यह नरोत्तमदास थे।
ू हा मण्डप के नीचे गया। रोदहणी की म ॉँ अपने को रोक न सकी, उसी वक्त जाकर सेठ जी के पैर
दल्
पर धगर पडी। रोदहणी की आखों से प्रेम और आन्दद के आसू बहने िगे।
मण्डप के नीचे हवन-कुण्ड बना था। हवन शरू ु हुआ, खुशबू की िपेटें हवा में उठीीं और सारा मैदान
महक गया। िोगों के ददिो-ददमाग में ताजगी की उमींग पैदा हुई।
कफर सींस्कार की बारी आई। दल् ू हा और दल्
ु हन ने आपस में हमददी; क्जम्मेदारी और वफादारी के
पववत्र शब्द अपनी जबानों से कहे । वववाह की वह मब
ु ारक जींजीर गिे में पडी क्जसमें वजन है , सख्ती है ,
कमों का र्ल
मझेअध्ययन
ु हमेशा आदलमयों के परखने की सनक रही है और अनभ ु व के आधार पर कह सकता हू कक यह
क्जतना मनोरीं जक, लशक्षाप्रद और उदधाटनों से भरा हुआ है, उतना शायद और कोई अध्ययन
न होगा। िेककन अपने दोस्त िािा साईंदयाि से बहुत असे तक दोस्ती और बेतकल्िफ ु ी के सम्बन्ध रहने
पर भी मझु े उनकी थाह न लमिी। मझ ु े ऐसे दब
ु ि
म शरीर में ज्ञाननयों की-सी शाक्न्त और सींतोष दे खकर
आश्चयम होता था जो एक़ नाजक
ु पौधे की तरह मस
ु ीबतों के झोंकों में भी अचि और अटि रहता था। जयों
वह बहुत ही मामि ू ी दरजे का आदमी था क्जसमें मानव कमजोररयों की कमी न थी। वह वादे बहुत करता
था िेककन उन्हें परू ा करने की जरूरत नहीीं समझता था। वह लमथ्याभाषी न हो िेककन सच्चा भी न था।
बेमरु ौवत न हो िेककन उसकी मरु ौवत नछपी रहती थी। उसे अपने कत्तमव्य पर पाबन्द रखने के लिए दबाव
ओर ननगरानी की जरुरत थी, ककफायतशारी के उसि
ू ों से बेखबर, मेहनत से जी चरु ाने वािा, उसि
ू ों का
कमजोर, एक ढीिा-ढािा मामि
ू ी आदमी था। िेककन जब कोई मस
ु ीबत लसर पर आ पडती तो उसके ददि में
साहस और दृढ़ता की वह जबदम स्त ताकत पैदा हो जाती थी क्जसे शहीदों का गुण कह सकते हैं। उसके पास
न दौित थी न धालममक ववश्वास, जो ईश्वर पर भरोसा करने और उसकी इच्छाओीं के आगे लसर झक
ु ा दे ने
का स्त्रोत है । एक छोटी-सी कपडे की दक
ु ान के लसवाय कोई जीववका न थी। ऐसी हाितों में उसकी दहम्मत
और दृढ़ता का सोता कह ॉँ नछपा हुआ है , वह ॉँ तक मेरी अन्वेषण-दृक्ष्ट नहीीं पहुचती थी।
बा प के मरते ही मस
ु ीबतों ने उस पर छापा मारा कुछ थोडा-सा कजम ववरासत में लमिा क्जसमें बराबर
बढ़ते रहने की आश्चयमजनक शक्क्त नछपी हुई थी। बेचारे ने अभी बरसी से छुटकारा नहीीं पाया था
कक महाजन ने नालिश की और अदाित के नतिस्मी अहाते में पहुचते ही यह छोटी-सी हस्ती इस तरह फूिी
क्जस तरह मशक फिती है। डडग्री हुई। जो कुछ जमा-जथा थी; बतमन-भ डेंॉँ , ह डी-तवा,
ॉँ उसके गहरे पेट में
समा गये। मकान भी न बचा। बेचारे मस
ु ीबतों के मारे साईंदयाि का अब कहीीं दठकाना न था। कौडी-कौडी
को मह
ु ताज, न कहीीं घर, न बार। कई-कई ददन फाके से गज
ु र जाते। अपनी तो खैर उन्हें जरा भी कफक्र न
थी िेककन बीवी थी, दो-तीन बच्चे थे, उनके लिए तो कोई-न-कोई कफक्र करनी पडती थी। कुनबे का साथ
और यह बेसरोसामानी, बडा ददम नाक दृश्य था। शहर से बाहर एक पेड की छ हॉँ में यह आदमी अपनी
मस
ु ीबत के ददन काट रहा था। सारे ददन बाजारों की खाक छानता। आह, मैंने एक बार उस रे िवे स्टे शन पर
दे खा। उसके लसर पर एक भारी बोझ था। उसका नाजग ु , सख
ु -सवु वधा में पिा हुआ शरीर, पसीना-पसीना हो
रहा था। पैर मक्ु श्कि से उठते थे। दम फूि रहा था िेककन चेहरे से मदामना दहम्मत और मजबत ू इरादे की
रोशनी टपकती थी। चेहरे से पण
ू म सींतोष झिक रहा था। उसके चेहरे पर ऐसा इत्मीनान था कक जैसे यही
उसका बाप-दादों का पेशा है। मैं हैरत से उसका मींह
ु ताकता रह गया। दख
ु में हमददी ददखिाने की दहम्मत
न हुई। कई महीने तक यही कैकफयत रही। आखखरकार उसकी दहम्मत और सहनशक्क्त उसे इस कदठन
दग
ु म
म घाटी से बाहर ननकि िायी।
३
थो
डे ही ददनों के बाद मस
ु ीबतों ने कफर उस पर हमिा ककया। ईश्वर ऐसा ददन दश्ु मन को भी न
ददखिाये। मैं एक महीने के लिए बम्बई चिा गया था, वह ॉँ से िौटकर उससे लमिने गया। आह,
वह दृश्य याद करके आज भी रोंगटे खडे हो जाते हैं। ओर ददि डर से क पॉँ उठता है । सब
ु ह का वक्त था।
ु अन्दर चिा गया, मगर वह ॉँ साईंदयाि का वह
मैंने दरवाजे पर आवाज दी और हमेशा की तरह बेतकल्िफ
हसमख
ु चेहरा, क्जस पर मदामना दहम्मत की ताजगी झिकती थी, नजर न आया। मैं एक महीने के बाद
उनके घर जाऊ और वह आखों से रोते िेककन होंठों से हसते दौडकर मेरे गिे लिपट न जाय! जरूर कोई
आफत है। उसकी बीवी लसर झक
ु ाये आयी और मझ
ु े उसके कमरे में िे गयी। मेरा ददि बैठ गया। साईंदयाि
एक चारपाई पर मैि-े कुचैिे कपडे िपेटे, आखें बन्द ककये, पडा ददम से कराह रहा था। क्जस्म और बबछौने पर
मक्क्खयों के गच्
ु छे बैठे हुए थे। आहट पाते ही उसने मेरी तरफ दे खा। मेरे क्जगर के टुकडे हो गये। हड्डडयों
ॉँ रह गया था। दब
का ढ चा ु ि
म ता की इससे जयादा सच्ची और करुणा तस्वीर नहीीं हो सकती। उसकी बीवी ने
िे
ककन साईंदयाि का यह तपक्स्वयों जैसा धैयम और ईश्वरे च्छा पर भरोसा अपनी आखों से दे खने पर भी
मेरे ददि में सींदेह बाकी थे। मम
ु ककन है , जब तक चोट ताजी है सि का बाध कायम रहे । िेककन
उसकी बनु नयादें दहि गयी हैं, उसमें दरारें पड गई हैं। वह अब जयादा दे र तक दख
ु और शोक की जहरों का
मक
ु ाबिा नहीीं कर सकता।
क्या सींसार की कोई दघ
ु ट
म ना इतनी हृदयद्रावक, इतनी ननममम, इतनी कठोर हो सकता है! सींतोष और
दृढ़ता और धैयम और ईश्वर पर भरोसा यह सब उस आधी के समान घास-फूस से जयादा नहीीं। धालममक
ववश्वास तो क्या, अध्यात्म तक उसके सामने लसर झक
ु ा दे ता है । उसके झोंके आस्था और ननष्ठा की जडें
दहिा दे ते हैं।
िेककन मेरा अनम
ु ान गित ननकिा। साईंदयाि ने धीरज को हाथ से न जाने ददया। वह बदस्तूर
क्जन्दगी के कामों में िग गया। दोस्तों की मि
ु ाकातें और नदी के ककनारे की सैर और तफरीह और मेिों की
चहि-पहि, इन ददिचक्स्पयों में उसके ददि को खीींचने की ताकत अब भी बाकी थी। मैं उसकी एक-एक
कक्रया को, एक-एक बात को गौर से दे खता और पढ़ता। मैंने दोस्ती के ननयम-कायदों को भि
ु ाकर उसे उस
इ स शोक पण
ू म घटना के कई ददन बाद जबकक दख
को गये। शाम का वक्त था। नदी कहीीं सन
ु ी ददि सम्हिने िगा, एक रोज हम दोनों नदी की सैर
ु हरी, कहीीं नीिी, कहीीं कािी, ककसी थके हुए मस
ु ाकफर की
तरह धीरे -धीरे बह रही थी। हम दरू जाकर एक टीिे पर बैठ गये िेककन बातचीत करने को जी न चाहता
था। नदी के मौन प्रवाह ने हमको भी अपने ववचारों में डुबो ददया। नदी की िहरें ववचारों की िहरों को पैदा
कर दे ती हैं। मझ
ु े ऐसा मािमू हुआ कक प्यारी चन्द्रमख
ु ी िहरों की गोद में बैठी मस्
ु करा रही है। मैं चौंक पडा
ओर अपने आसओ ु ीं को नछपाने के लिए नदी में मींहु धोने िगा। साईंदयाि ने कहा—भाईसाहब, ददि को
मजबत
ू करो। इस तरह कुढ़ोगे तो जरूर बीमार हो जाओगे।
मैंने जवाब ददया—ईश्वर ने क्जतना सींयम तम्
ु हें ददया है, उसमें से थोडा-सा मझ
ु े भी दे दो, मेरे ददि में
इतनी ताकत कह ।ॉँ
साईंदयाि मस्
ु कराकर मेरी तरफ ताकने िगे।
मैंने उसी लसिलसिे में कहा—ककताबों में तो दृढ़ता और सींतोष की बहुत-सी कहाननय ॉँ पढ़ी हैं मगर सच
मानों कक तम ु जैसा दृढ़, कदठनाइयों में सीधा खडा रहने वािा आदमी आज तक मेरी नजर से नहीीं गज ु रा।
तुम जानते हो कक मझ
ु े मानव स्वभाव के अध्ययन का हमेशा से शौक है िेककन मेरे अनभ
ु व में तुम अपनी
तरह के अकेिे आदमी हो। मैं यह न मानगा
ू कक तुम्हारे ददि में ददम और घि
ु ावट नहीीं है । उसे मैं अपनी
आखों से दे ख चकु ा हू। कफर इस ज्ञाननयों जैसे सींतोष और शाक्न्त का रहस्य तुमने कह ॉँ नछपा रक्खा है?
तुम्हें इस समय यह रहस्य मझ ु से कहना पडेगा।
साईंदयाि कुछ सोच-ववचार में पड गया और जमीन की तरफ ताकते हुए बोिा—यह कोई रहस्य नहीीं,
मेरे कमों का फि है ।
यह वाक्य मैंने चौथी बार उसकी जबान से सन
ु ा और बोिा—क्जन, कमों का फि ऐसा शक्क्तदायक है,
उन कमों की मझ
ु े भी कुछ दीक्षा दो। मैं ऐसे फिों से क्यों वींधचत रहू।
साईंदयाि ने व्याथापण
ू म स्वर में कहा—ईश्वर न करे कक तुम ऐसा कमम करो और तम्
ु हारी क्जन्दगी पर
उसका कािा दाग िगे। मैंने जो कुछ ककया है, व मझ
ु े ऐसा िजजाजनक और ऐसा घखृ णत मािम
ू होता है
कक उसकी मझु े जो कुछ सजा लमिे, मैं उसे खुशी के साथ झेिने को तैयार हू। आह! मैंने एक ऐसे पववत्र
खानदान को, जह ॉँ मेरा ववश्वास और मेरी प्रनतष्ठा थी, अपनी वासनाओीं की गन्दगी में लिथेडा और एक ऐसे
पववत्र हृदय को क्जसमें मह
ु ब्बत का ददम था, जो सौन्दयम-वादटका की एक अनोखी-नयी खखिी हुई किी थी,
और सच्चाई थी, उस पववत्र हृदय में मैंने पाप और ववश्वासघात का बीज हमेशा के लिएबो ददया। यह पाप है
जो मझ
ु से हुआ है और उसका पल्िा उन मस ु ीबतों से बहुत भारी है जो मेरे ऊपर अब तक पडी हैं या आगे
चिकर पडेंगी। कोई सजा, कोई दख
ु , कोई क्षनत उसका प्रायक्श्चत नहीीं कर सकती।
िभ्यता का रहस्य
यों
तो मेरी समझ में दनु नया की एक हजार एक बातें नहीीं आती—जैसे िोग प्रात:काि उठते ही बािों
पर छुरा क्यों चिाते हैं ? क्या अब परु
ु षों में भी इतनी नजाकत आ गयी है कक बािों का बोझ उनसे
नहीीं सभिता ? एक साथ ही सभी पढ़े -लिखे आदलमयों की आखें क्यों इतनी कमजोर हो गयी है ? ददमाग की
कमजोरी ही इसका कारण है या और कुछ? िोग खखताबों के पीछे क्यों इतने है रान होते हैं ? इत्यादद—िेककन
इस समय मझ
ु े इन बातों से मतिब नहीीं। मेरे मन में एक नया प्रश्न उठ रहा है और उसका जवाब मझ
ु े
कोई नहीीं दे ता। प्रश्न यह है कक सभ्य कौन है और असभ्य कौन ? सभ्यता के िक्षण क्या हैं ? सरसरी नजर
से दे खखए, तो इससे जयादा आसान और कोई सवाि ही न होगा। बच्चा-बच्चा इसका समाधान कर सकता है ।
िेककन जरा गौर से दे खखए, तो प्रश्न इतना आसान नहीीं जान पडता। अगर कोट-पतिन
ू पहनना, टाई-है ट
कािर िगाना, मेज पर बैठकर खाना खाना, ददन में तेरह बार कोको या चाय पीना और लसगार पीते हुए
चिना सभ्यता है, तो उन गोरों को भी सभ्य कहना पडेगा, जो सडक पर बैठकर शाम को कभी-कभी टहिते
नजर आते हैं; शराब के नशे से आखें सख
ु ,म पैर िडखडाते हुए, रास्ता चिनेवािों को अनायास छे डने की धन
ु !
क्या उन गोरों को सभ्य कहा जा सकता है ? कभी नहीीं। तो यह लसद्ध हुआ कक सभ्यता कोई और ही चीज
है , उसका दे ह से इतना सम्बन्ध नहीीं है क्जतना मन से।
2
मे
रे इने-धगने लमत्रों में एक राय रतनककशोर भी हैं। आप बहुत ही सहृदय, बहुत ही उदार, बहुत लशक्षक्षत
और एक बडे ओहदे दार हैं। बहुत अच्छा वेतन पाने पर भी उनकी आमदनी खचम के लिए काफी नहीीं
होती। एक चौथाई वेतन तो बगिे ही की भें ट हो जाती है। इसलिए आप बहुधा धचींनतत रहते हैं। ररश्वत तो
नहीीं िेत—
े कम-से-कम मैं नहीीं जानता, हािाकक कहने वािे कहते हैं—िेककन इतना जानता हू कक वह भत्ता
बढ़ाने के लिए दौरे पर बहुत रहते हैं, यहा तक कक इसके लिए हर साि बजट की ककसी दस ू रे मद से रुपये
ननकािने पडते हैं। उनके अफसर कहते हैं, इतने दौरे क्यों करते हो, तो जवाब दे ते हैं, इस क्जिे का काम ही
द मडी के पास कुि छ: बबस्वे जमीन थी। पर इतने ही प्राखणयों का खचम भी था। उसके दो िडके, दो
िडककया और स्त्री, सब खेती में िगे रहते थे, कफर भी पेट की रोदटया नहीीं मयस्सर होती थीीं। इतनी
जमीन क्या सोना उगि दे ती ! अगर सब-के-सब घर से ननकि मजदरू ी करने िगते, तो आराम से रह सकते
थे; िेककन मौरूसी ककसान मजदरू कहिाने का अपमान न सह सकता था। इस बदनामी से बचने के लिए दो
बैि बाध रखे थे ! उसके वेतन का बडा भाग बैिों के दाने-चारे ही में उड जाता था। ये सारी तकिीफें मींजरू
थीीं, पर खेती छोडकर मजदरू बन जाना मींजूर न था। ककसान की जो प्रनतष्ठा है, वह कहीीं मजदरू की हो
सकती है, चाहे वह रुपया रोज ही क्यों न कमाये ? ककसानी के साथ मजदरू ी करना इतने अपमान की बात
नहीीं, द्वार पर बधे हुए बैि हुए बैि उसकी मान-रक्षा ककया करते हैं, पर बैिों को बेचकर कफर कहा मह
ु
ददखिाने की जगह रह सकती है !
एक ददन राय साहब उसे सरदी से कापते दे खकर बोिे—कपडे क्यों नहीीं बनवाता ? काप क्यों रहा है ?
दमडी—सरकार, पेट की रोटी तो परू ा ही नहीीं पडती, कपडे कहा से बनवाऊ ?
राय साहब—बैिों को बेच क्यों नहीीं डािता ? सैकडों बार समझा चक
ु ा, िेककन न-जाने क्यों इतनी
मोटी-सी बात तेरी समझ में नहीीं आती।
दमडी—सरकार, बबरादरी में कहीीं मह
ु ददखाने िायक न रहूगा। िडकी की सगाई न हो पायेगी, टाट
बाहर कर ददया जाऊगा।
राय साहब—इन्हीीं दहमाकतों से तुम िोगों की यह दग
ु नम त हो रही है। ऐसे आदलमयों पर दया करना भी
पाप है । (मेरी तरफ कफर कर) क्यों मींश
ु ीजी, इस पागिपन का भी कोई इिाज है ? जाडों मर रहे हैं, पर
दरवाजे पर बैि जरूर बाधेंगे।
मैंने कहा—जनाब, यह तो अपनी-अपनी समझ है ।
राय साहब—ऐसी समझ को दरू से सिाम कीक्जए। मेरे यह ीं कई पश्ु तों से जन्माष्टमी का उत्सव
मनाया जाता था। कई हजार रुपयों पर पानी कफर जाता था। गाना होता था; दावतें होती थीीं, ररश्तेदारों को
िमस्या
मे
रे दफ्तर में चार चपरासी हैं। उनमें एक का नाम गरीब है । वह बहुत ही सीधा, बडा आज्ञाकारी, अपने
काम में चौकस रहने वािा, घड ु ककया खाकर चप
ु रह जानेवािा यथा नाम तथा गुण वािा मनष्ु य
है ।मझ
ु े इस दफ्तर में साि-भर होते हैं, मगर मैंने उसे एक ददन के लिए भी गैरहाक्जर नहीीं पाया। मैं उसे 9
बजे दफ्तर में अपनी फटी दरी पर बैठे हुए दे खने का ऐसा आदी हो गया हू कक मानो वह भी उसी इमारत
का कोई अींग है । इतना सरि है कक ककसी की बात टािना नहीीं जाना। एक मसु िमान है । उससे सारा दफ्तर
डरता है, मािम
ू नहीीं क्यों ? मझ
ु े तो इसका कारण लसवाय उसकी बडी-बडी बातों के और कुछ नहीीं मािम
ू
होता। उसके कथनानस
ु ार उसके चचेरे भाई रामपरु ररयासत में काजी हैं, फूफा टोंक की ररयासत में कोतवाि
हैं। उसे सवमसम्मनत ने ‘काजी-साहे ब’ की उपाधध दे रखी है । शेष दो महाशय जानत के िाह्मण हैं। उनके
आशीवामदों का मल्
ू य उनके काम से कहीीं अधधक है। ये तीनों कामचोर, गुस्ताख और आिसी हैं। कोई छोटा-
सा काम करने को भी कदहए तो बबना नाक-भौं लसकोडे नहीीं करते। क्िकों को तो कुछ समझते ही नहीीं !
केवि बडे बाबू से कुछ दबते हैं, यद्यवप कभी-कभी उनसे झगड बैठते हैं। मगर इन सब दग ु ण
ुम ों के होते हुए
भी दफ्तर में ककसी की लमट्टी इतनी खराब नही है, क्जतनी बेचारे गरीब की। तरक्की का अवसर आया है , तो
ये तीनों मार िे जाते हैं, गरीब को कोई पछ
ू ता भी नहीीं। और सब दस-दस पाते हैं, वह अभी छ: ही में पडा
हुआ है । सब
ु ह से शाम तक उसके पैर एक क्षण के लिए भी नहीीं दटकते—यहा तक कक तीनों चपरासी उस
पर हुकूमत जताते हैं और ऊपर की आमदनी में तो उस बेचारे का कोई भाग ही नहीीं। नतस पर भी दफ्तर
के सब कममचारी—दफ्तरी से िेकर बाबू तक सब—उससे धचढ़ते हैं। उसकी ककतनी ही बार लशकायतें हो चक
ु ी
हैं, ककतनी ही बार जम
ु ामना हो चकु ा है और डाट-डपट तो ननत्य ही हुआ करती है । इसका रहस्य कुछ मेरी
समझ में न आता था। हा, मझ ु े उस पर दया अवश्य आती थी, और आपने व्यवहार से मैं यह ददखाना चाहता
था कक मेरी दृक्ष्ट में उसका आदर चपरालसयों से कम नहीीं। यहा तक कक कई बार मैं उसके पीछे अन्य
कममचाररयों से िड भी चक
ु ा हू।
2
ए क ददन बडे बाबू ने गरीब से अपनी मेज साफ करने को कहा। वह तरु न्त मेज साफ करने िगा।
दै वयोग से झाडन का झटका िगा, तो दावात उिट गयी और रोशनाई मेज पर फैि गयी। बडे बाबू यह
दे खते ही जामे से बाहर हो गये। उसके कान पकडकर खूब ऐींठे और भारतवषम की सभी प्रचलित भाषाओीं से
दव
ु च
म न चन
ु -चन
ु कर उसे सन
ु ाने िगे। बेचारा गरीब आखों में आसू भरे चप
ु चाप मनू तमवत ् खडा सन
ु ता था, मानो
उसने कोई हत्या कर डािी हो। मझ
ु े बाबू का जरा-सी बात पर इतना भयींकर रौद्र रूप धारण करना बरु ा
मािम ू हुआ। यदद ककसी दस ू रे चपरासी ने इससे भी बडा कोई अपराध ककया होता, तो भी उस पर इतना
वज्र-प्रहार न होता। मैंने अींग्रज
े ी में कहा—बाबू साहब, आप यह अन्याय कर रहे हैं। उसने जान-बझ
ू कर तो
रोशनाई धगराया नहीीं। इसका इतना कडा दण्ड अनौधचत्य की पराकाष्ठा है।
बाबज
ू ी ने नम्रता से कहा—आप इसे जानते नहीीं, बडा दष्ु ट है ।
‘मैं तो उसकी कोई दष्ु टता नहीीं दे खता।’
‘आप अभी उसे जानते नहीीं, एक ही पाजी है । इसके घर दो हिों की खेती होती है , हजारों का िेन-दे न
करता है; कई भैंसे िगती हैं। इन्हीीं बातों का इसे घमण्ड है।’
‘घर की ऐसी दशा होती, तो आपके यहा चपरासधगरी क्यों करता?’
‘ववश्वास माननए, बडा पोढ़ा आदमी है और बिा का मक्खीचस
ू ।’
‘यदद ऐसा ही हो, तो भी कोई अपराध नहीीं है ।’
‘अजी, अभी आप इन बातों को नहीीं जानते। कुछ ददन और रदहए तो आपको स्वयीं मािम
ू हो जाएगा
कक यह ककतना कमीना आदमी है ?’
एक दस
ू रे महाशय बोि उठे —भाई साहब, इसके घर मनों दध
ू -दही होता है, मनों मटर, जुवार, चने होते
हैं, िेककन इसकी कभी इतनी दहम्मत न हुई कक कभी थोडा-सा दफ्तरवािों को भी दे दो। यहा इन चीजों को
तरसकर रह जाते हैं। तो कफर क्यों न जी जिे ? और यह सब कुछ इसी नौकरी के बदौित हुआ है । नहीीं तो
पहिे इसके घर में भन
ू ी भाग न थी।
तीन
दो िखखयााँ
1
िखनऊ
1-7-25
प्यारी बहन,
जब से यहा आयी हू, तुम्हारी याद सताती रहती है । काश! तुम कुछ ददनों के लिए यहा चिी आतीीं, तो
ककतनी बहार रहती। मैं तम्
ु हें अपने ववनोद से लमिाती। क्या यह सम्भव नहीीं है ? तम्
ु हारे माता-वपता क्या
तम्
ु हें इतनी आजादी भी न दें गे ? मझ
ु े तो आश्चयम यही है कक बेडडया पहनकर तम
ु कैसे रह सकती हो! मैं तो
इस तरह घण्टे -भर भी नहीीं रह सकती। ईश्वर को धन्यवाद दे ती हू कक मेरे वपताजी परु ानी िकीर पीटने
वािों में नहीीं। वह उन नवीन आदशों के भक्त हैं, क्जन्होंने नारी-जीवन को स्वगम बना ददया है । नहीीं तो मैं
कहीीं की न रहती।
ववनोद हाि ही में इींग्िैंड से डी0 कफि0 होकर िौटे हैं और जीवन-यात्रा आरम्भ करने के पहिे एक
बार सींसार-यात्रा करना चाहते हैं। योरप का अधधकाींश भाग तो वह दे ख चक
ु े हैं, पर अमेररका, आस्रे लिया और
एलशया की सैर ककये बबना उन्हें चैन नहीीं। मध्य एलशया और चीन का तो यह ववशेष रूप से अध्ययन करना
चाहते हैं। योरोवपयन यात्री क्जन बातों की मीमाींसा न कर सके, उन्हीीं पर प्रकाश डािना इनका ध्येय है । सच
कहती हू, चन्दा, ऐसा साहसी, ऐसा ननभीक, ऐसा आदशमवादी परु
ु ष मैंने कभी नहीीं दे खा था। मैं तो उनकी बातें
सन
ु कर चककत हो जाती हू। ऐसा कोई ववषय नहीीं है, क्जसका उन्हें परू ा ज्ञान न हो, क्जसकी वह आिोचना न
कर सकते हो; और यह केवि ककताबी आिोचना नहीीं होती, उसमें मौलिकता और नवीनता होती है ।
स्ववन्त्रता के तो वह अनन्य उपासक हैं। ऐसे परु
ु ष की पत्नी बनकर ऐसी कौन-सी स्त्री है , जो अपने सौभाग्य
पर गवम न करे । बहन, तुमसे क्या कहू कक प्रात:काि उन्हें अपने बगिे की ओर आते दे खकर मेरे धचत्त की
क्या दशा हो जाती है। यह उन पर न्योछावर होने के लिए ववकि हो जाता है। यह मेरी आत्मा में बस गये
हैं। अपने परु
ु ष की मैंने मन में जो कल्पना की थी, उसमें और उनमें बाि बराबर भी अन्तर नहीीं। मझ
ु े रात-
ददन यही भय िगा रहता है कक कहीीं मझ
ु में उन्हें कोई त्रदु ट न लमि जाय। क्जन ववषयों से उन्हें रुधच है ,
उनका अध्ययन आधी रात तक बैठी ककया करती हू। ऐसा पररश्रम मैंने कभी न ककया था। आईने-कींघी से
मझ
ु े कभी उतना प्रेम न था, सभ
ु ावषतों को मैंने कभी इतने चाव से कण्ठ न ककया था। अगर इतना सब
कुछ करने पर भी मैं उनका हृदय न पा सकी, तो बहन, मेरा जीवन नष्ट हो जायेगा, मेरा हृदय फट जायेगा
और सींसार मेरे लिए सन
ू ा हो जायेगा।
कदाधचत ् प्रेम के साथ ही मन में ईष्याम का भाव भी उदय हो जाता है। उन्हें मेरे बगिे की ओर जाते
हुए दे ख जब मेरी पडोलसन कुसम
ु अपने बरामदे में आकर खडी हो जाती है, तो मेरा ऐसा जी चाहता है कक
उसकी आखें जयोनतहीन हो जाय। कि तो अनथम ही हो गया। ववनोद ने उसे दे खते ही है ट उतार िी और
मस्
ु कराए। वह कुिटा भी खीसें ननकािने िगी। ईश्वर सारी ववपवत्तया दे , पर लमथ्यालभमान न दे । चड
ु ि
ै ों की-
सी तो आपकी सरू त है, पर अपने को अप्सरा समझती हैं। आप कववता करती हैं और कई पबत्रकाओीं में
उनकी कववताए छप भी गई हैं। बस, आप जमीन पर पाव नहीीं रखतीीं। सच कहती हू, थोडी दे र के लिए
ववनोद पर से मेरी श्रद्धा उठ गयी। ऐसा आवेश होता था कक चिकर कुसम
ु का मह
ु नोच ि।ू खैररयत हुई
कक दोनों में बातचित न हुई, पर ववनोद आकर बैठे तो आध घण्टे तक मैं उनसे न बोि सकी, जैसे उनके
शब्दों में वह जाद ू ही न था, वाणी में वह रस ही न था। तब से अब तक मेरे धचत्त की व्यग्रता शान्त नहीीं
हुई। रात-भर मझ
ु े नीींद नहीीं आयी, वही दृश्य आखों के सामने बार-बार आता था। कुसम
ु को िक्जजत करने
के लिए ककतने मसब ू े बाध चक ु ी हू। अगर यह भय न होता कक ववनोद मझ ु े ओछी और हिकी समझेंगे, तो
मैं उनसे अपने मनोभावों को स्पष्ट कह दे ती। मैं सम्पण
ू त
म : उनकी होकर उन्हें सम्पण
ू त
म : अपना बनाना
चाहती हू। मझु े ववश्वास है कक सींसार का सबसे रूपवान ् यवु क मेरे सामने आ जाय, तो मैं उसे आख उठाकर
न दे खगी।
ू ववनोद के मन में मेरे प्रनत यह भाव क्यों नहीीं है ।
चन्दा, प्यारी बहन; एक सप्ताह के लिए आ जा। तुझसे लमिने के लिए मन अधीर हो रहा है । मझ
ु े इस
समय तेरी सिाह और सहानभ
ु नू त की बडी जरूरत है। यह मेरे जीवन का सबसे नाजक
ु समय है । इन्हीीं दस-
पाच ददनों में या तो पारस हो जाऊगी या लमट्टी। िो सात बज गए और अभी बाि तक नहीीं बनाये। ववनोद
गोरखपरु
5-7-25
वप्रय पद्मा,
भिा एक यग
ु के बाद तम्
ु हें मेरी सधु ध तो आई। मैंने तो समझा था, शायद तम
ु ने परिोक-यात्रा कर
िी। यह उस ननष्ठुरता का दीं ड ही है, जो कुसम
ु तम्
ु हें दे रही है । 15 एवप्रि को कािेज बन्द हुआ और एक
जुिाई को आप खत लिखती हैं—परू े ढाई महीने बाद, वह भी कुसम ु की कृपा से। क्जस कुसम
ु को तम
ु कोस
रही हो, उसे मैं आशीवामद दे रही हू। वह दारुण द:ु ख की भानत तुम्हारे रास्ते में न आ खडी होती, तो तुम्हें
क्यों मेरी याद आती ? खैर, ववनोद की तम ु ने जो तसवीर खीींची, वह बहुत ही आकषमक है और मैं ईश्वर से
मना रही हू, वह ददन जल्द आए कक मैं उनसे बहनोई के नाते लमि सकू। मगर दे खना, कहीीं लसववि मैरेज न
कर बैठना। वववाह दहन्द-ू पद्धनत के अनस
ु ार ही हो। ह , तुम्हें अक्ख्त्यर है जो सैकडों बेहूदा और व्यथम के
कपडे हैं, उन्हें ननकाि डािो। एक सच्चे, ववद्वान पक्ण्डत को अवश्य बि
ु ाना, इसलिए नहीीं कक वह तुमसे बात-
बात पर टके ननकिवाये, बक्ल्क इसलिए कक वह दे खता रहे कक वह सब कुछ शास्त्र-ववधध से हो रहा है , या
नहीीं।
अच्छा, अब मझ
ु से पछ
ू ो कक इतने ददनों क्यों चप्ु पी साधे बैठी रही। मेरे ही खानदान में इन ढाई
महीनों में , पाच शाददय ॉँ हुई। बारातों का ताता िगा रहा। ऐसा शायद ही कोई ददन गया हो कक एक सौ
महमानों से कम रहे हों और जब बारात आ जाती थी, तब तो उनकी सींख्या पाच-पाच सौ तक पहुच जाती
थी। ये पाचों िडककया मझ ु से छोटी हैं और मेरा बस चिता तो अभी तीन-चार साि तक न बोिती, िेककन
मेरी सन
ु ता कौन है और ववचार करने पर मझ
ु े भी ऐसा मािम
ू होता है कक माता-वपता का िडककयों के
वववाह के लिए जल्दी करना कुछ अनधु चत नहीीं है । क्जन्दगी का कोई दठकाना नहीीं। अगर माता-वपता अकाि
मर जाय, तो िडकी का वववाह कौन करे । भाइयों का क्या भरोसा। अगर वपता ने काफी दौित छोडी है तो
कोई बात नहीीं; िेककन जैसा साधारणत: होता है , वपता ऋण का भार छोड गये, तो बहन भाइयों पर भार हो
जाती है । यह भी अन्य ककतने ही दहन्द-ू रस्मों की भानत आधथमक समस्या है , और जब तक हमारी आधथमक
दशा न सध
ु रे गी, यह रस्म भी न लमटे गी।
अब मेरे बलिदान की बारी है । आज के पींद्रहवें ददन यह घर मेरे लिए ववदे श हो जायगा। दो-चार महीने
के लिए आऊगी, तो मेहमान की तरह। मेरे ववनोद बनारसी हैं, अभी कानन
ू पढ़ रहे हैं। उनके वपता नामी
वकीि हैं। सनु ती हू, कई गाव हैं, कई मकान हैं, अच्छी मयामदा है । मैंने अभी तक वर को नहीीं दे खा। वपताजी
ने मझ
ु से पछ
ु वाया था कक इच्छा हो, तो वर को बि ु ा द।ू पर मैंने कह ददया, कोई जरूरत नहीीं। कौन घर में
बहू बने। है तकदीर ही का सौदा। न वपताजी ही ककसी के मन में पैठ सकते हैं, न मैं ही। अगर दो-एक बार
दे ख ही िेती, नहीीं मि
ु ाकात ही कर िेती तो क्या हम दोनों एक-दस
ू रे को परख िेते ? यह ककसी तरह सींभव
नहीीं। जयादा-से-जयादा हम एक-दस
ू रे का रीं ग-रूप दे ख सकते हैं। इस ववषय में मझ
ु े ववश्वास है कक वपताजी
मझ
ु से कम सींयत नहीीं हैं। मेरे दोनों बडे बहनोई सौंदयम के पत
ु िे न हों पर कोई रमणी उनसे घण
ृ ा नहीीं कर
सकती। मेरी बहनें उनके साथ आनन्द से जीवन बबता रही हैं। कफर वपताजी मेरे ही साथ क्यों अन्याय
करें गे। यह मैं मानती हू कक हमारे समाज में कुछ िोगों का वैवादहक जीवन सख ु कर नहीीं है , िेककन सींसार में
ऐसा कौन समाज है , क्जसमें दख ु ी पररवार न हों। और कफर हमेशा परु ु षों ही का दोष तो नहीीं होता, बहुधा
क्स्त्रय ॉँ ही ववष का गाठ होती हैं। मैं तो वववाह को सेवा और त्याग का व्रत समझती हू और इसी भाव से
उसका अलभवादन करती हू। हा, मैं तुम्हें ववनोद से छीनना तो नहीीं चाहती िेककन अगर 20 जुिाई तक तुम
दो ददन के लिए आ सको, तो मझ
ु े क्जिा िो। जयों-जयों इस व्रत का ददन ननकट आ रहा है , मझ
ु े एक अज्ञात
शींका हो रही है; मगर तम
ु खद
ु बीमार हो, मेरी दवा क्या करोगी—जरूर आना बहन !
तम्
ु हारी,
मींसरू ी
5-8-25
प्यारी चन्दा,
सैंकडों बातें लिखनी हैं, ककस क्रम से शरू
ु करू, समझ में नहीीं आता। सबसे पहिे तुम्हारे वववाह के शभ
ु
अवसर पर न पहुच सकने के लिए क्षमा चाहती हू। मैं आने का ननश्चय कर चक
ु ी थी, मैं और प्यारी चींदा के
स्वयींवर में न जाऊ: मगर उसके ठीक तीन ददन पहिे ववनोद ने अपना आत्मसमपमण करके मझ ु े ऐसा मग्ु ध
कर ददया कक कफर मझु े ककसी की सधु ध न रही। आह! वे प्रेम के अन्तस्ति से ननकिे हुए उष्ण, आवेशमय
और कींवपत शब्द अभी तक कानों में गज ू रहे हैं। मैं खडी थी, और ववनोद मेरे सामने घट
ु ने टे के हुए प्रेरणा,
ववनय और आग्रह के पत ु िे बने बैठे थे। ऐसा अवसर जीवन में एक ही बार आता है , केवि एक बार, मगर
उसकी मधरु स्मनृ त ककसी स्वगम-सींगीत की भाती जीवन के तार-तार में व्याप्त रहता है । तुम उस आनन्द का
अनभ
ु व कर सकोगी—मैं रोने िगी, कह नहीीं सकती, मन में क्या-क्या भाव आये; पर मेरी आखों से आसओ
ु ीं
की धारा बहने िगी। कदाधचत ् यही आनन्द की चरम सीमा है । मैं कुछ-कुछ ननराश हो चिी थी। तीन-चार
ददन से ववनोद को आते-जाते कुसम
ु से बातें करते दे खती थी, कुसम
ु ननत नए आभष
ू णों से सजी रहती थी
और क्या कहू, एक ददन ववनोद ने कुसम ु की एक कववता मझ ु े सन
ु ायी और एक-एक शब्द पर लसर धन ु ते
रहे । मैं मानननी तो हू ही; सोचा,जब यह उस चड ु ि
ै पर िट्टू हो रहे हें , तो मझ
ु े क्या गरज पडी है कक इनके
लिए अपना लसर खपाऊ। दस ू रे ददन वह सबेरे आये, तो मैंने कहिा ददया, तबीयत अच्छी नहीीं है । जब उन्होंने
मझ
ु से लमिने के लिए आग्रह ककया, तब वववश होकर मझ
ु े कमरे में आना पडा। मन में ननश्चय करके आयी
थी—साफ कह दीं ग ू ी अब आप न आया कीक्जए। मैं आपके योग्य नहीीं हू, मैं कवव नहीीं, ववदष
ु ी नहीीं, सभ
ु ावषणी
नहीीं....एक परू ी स्पीच मन में उमड रही थी, पर कमरे में आई और ववनोद के सतष्ृ ण नेत्र दे खे, प्रबि उत्कींठा
में कापते हुए होंठ—बहन, उस आवेश का धचत्रण नहीीं कर सकती। ववनोद ने मझ ु े बैठने भी न ददया। मेरे
सामने घटु नों के बि फशम पर बैठ गये और उनके आतरु उन्मत्त शब्द मेरे हृदय को तरीं धगत करने िगे।
एक सप्ताह तैयाररयों में कट गया। पापा ओर मामा फूिे न समाते थे।
और सबसे प्रसन्न थी कुसम
ु ! यही कुसम
ु क्जसकी सरू त से मझ
ु े घण
ृ ा थी ! अब मझ
ु े ज्ञात हुआ कक
मैंने उस पर सन्दे ह करके उसके साथ घोर अन्याय ककया। उसका हृदय ननष्कपट है , उसमें न ईष्याम है , न
तष्ृ णा, सेवा ही उसके जीवन का मि
ू तत्व है । मैं नहीीं समझती कक उसके बबना ये सात ददन कैसे कटते। मैं
कुछ खोई-खोई सी जान पडती थी। कुसम
ु पर मैंने अपना सारा भार छोड ददया था। आभष
ू णों के चन
ु ाव और
सजाव, वस्त्रों के रीं ग और काट-छाट के ववषय में उसकी सरु
ु धच वविक्षण है। आठवें ददन जब उसने मझ
ु े
दि
ु दहन बनाया, तो मैं अपना रूप दे खकर चककत रह गई। मैंने अपने को कभी ऐसी सन्
ु दरी न समझा था।
गवम से मेरी आखों में नशा-सा छा गया।
उसी ददन सींध्या-समय ववनोद और में दो लभन्न जि-धाराओीं की भानत सींगम पर लमिकर अलभन्न हो
गये। ववहार-यात्रा की तैयारी पहिे ही से हो चक
ु ी थी, प्रात:काि हम मींसरू ी के लिए रवाना हो गये। कुसम
ु
हमें पहुचाने के लिए स्टे शन तक आई और ववदा होते समय बहुत रोयी। उसे साथ िे चिना चाहती थी, पर
न जाने क्यों वह राजी न हुई।
मींसरू ी रमणीक है, इसमें सन्दे ह नहीीं। श्यामवणम मेघ-मािाए पहाडडयों पर ववश्राम कर रही हैं, शीति
पवन आशा-तरीं गों की भानत धचत्त का रीं जन कर रहा है , पर मझ
ु े ऐसा ववश्वास है कक ववनोद के साथ मैं ककसी
ननजमन वन में भी इतने ही सख
ु से रहती। उन्हें पाकर अब मझ
ु े ककसी वस्तु की िािसा नहीीं। बहन, तुम इस
आनन्दमय जीवन की शायद कल्पना भी न कर सकोगी। सब ु ह हुई, नाश्ता आया, हम दोनों ने नाश्ता ककया;
डाडी तैयार है, नौ बजते-बजते सैर करने ननकि गए। ककसी जि-प्रपात के ककनारे जा बैठे। वहा जि-प्रवाह
का मधरु सींगीत सन
ु रहे हैं। या ककसी लशिा-खींड पर बैठे मेघों की व्योम-क्रीडा दे ख रहे हैं। ग्यारह बजते-
बजते िौटै । भोजन ककया। मैं प्यानो पर जा बैठी। ववनोद को सींगीत से प्रेम है। खद
ु बहुत अच्छा गाते हैं
और मैं गाने िगती हू, तब तो वह झम ू ने ही िगते हैं। तीसरे पहर हम एक घींटे के लिए ववश्राम करके
खेिने या कोई खेि दे खने चिे जाते हैं। रात को भोजन करने के बाद धथयेटर दे खते हैं और वहा से िौट
कर शयन करते हैं। न सास की घड
ु ककया हैं न ननदों की कानाफूसी, न जेठाननयों के ताने। पर इस सख
ु में
गोरखपरु
1-9-25
प्यारी पद्मा,
तुम्हारा पत्र पढ़कर धचत्त को बडी शाींनत लमिी। तुम्हारे न आने ही से मैं समझ गई थी कक ववनोद बाबू
तुम्हें हर िे गए, मगर यह न समझी थी कक तुम मींसरू ी पहुच गयी। अब उस आमोद-प्रमोद में भिा गरीब
चन्दा क्यों याद आने िगी। अब मेरी समझ में आ रहा है कक वववाह के लिए नए और परु ाने आदशम में क्या
अन्तर है । तुमने अपनी पसन्द से काम लिया, सख
ु ी हो। मैं िोक-िाज की दासी बनी रही, नसीबों को रो रही
हू।
अच्छा, अब मेरी बीती सन
ु ो। दान-दहे ज के टीं टे से तो मझ
ु े कुछ मतिब है नहीीं। वपताजी ने बडा ही
उदार-हृदय पाया है। खब
ू ददि खोिकर ददया होगा। मगर द्वार पर बारात आते ही मेरी अक्ग्न-परीक्षा शरू
ु हो
गयी। ककतनी उत्कण्ठा थी—वह-दशमन की, पर दे खू कैसे। कुि की नाक न कट जाएगी। द्वार पर बारात
आयी। सारा जमाना वर को घेरे हुए था। मैंने सोचा—छत पर से दे खू। छत पर गयी, पर वहा से भी कुछ न
ददखाई ददया। हा, इस अपराध के लिए अम्माजी की घड ु ककया सन
ु नी पडीीं। मेरी जो बात इन िोगों को अच्छी
नहीीं िगती, उसका दोष मेरी लशक्षा के माथे मढ़ा जाता है। वपताजी बेचारे मेरे साथ बडी सहानभ
ु नू त रखते हैं।
मगर ककस-ककस का मह
ु पकडें। द्वारचार तो यों गज
ु रा और भावरों की तैयाररया होने िगी। जनवासे से
गहनों और कपडों का थाि आया। बहन ! सारा घर—स्त्री-परु
ु ष—सब उस पर कुछ इस तरह टूटे , मानो इन
िोगों ने कभी कुछ दे खा ही नहीीं। कोई कहता है, कींठा तो िाये ही नहीीं; कोई हार के नाम को रोता है!
अम्माजी तो सचमच
ु रोने िगी, मानो मैं डुबा दी गयी। वर-पक्षवािों की ददि खोिकर ननींदा होने िगी। मगर
मैंने गहनों की तरफ आख उठाकर भी नहीीं दे खा। हा, जब कोई वर के ववषय में कोई बात करता था, तो मैं
तन्मय होकर सन ु ने िगती था। मािम ू हुआ—दब ु िे-पतिे आदमी हैं। रीं ग साविा है, आखें बडी-बडी हैं, हसमख
ु
हैं। इन सच
ू नाओीं से दशनोत्कींठा और भी प्रबि होती थी। भावरों का मह ु ू तम जयों-जयों समीप आता था, मेरा
धचत्त व्यग्र होता जाता था। अब तक यद्यवप मैंने उनकी झिक भी न दे खी थी, पर मझ
ु े उनके प्रनत एक
अभत
ू पव
ू म प्रेम का अनभ
ु व हो रहा था। इस वक्त यदद मझ
ु े मािम
ू हो जाता कक उनके दश्ु मनों को कुछ हो
गया है, तो मैं बाविी हो जाती। अभी तक मेरा उनसे साक्षात ् नहीीं हुआ हैं, मैंने उनकी बोिी तक नहीीं सन
ु ी
है , िेककन सींसार का सबसे रूपवान ् परु
ु ष भी, मेरे धचत्त को आकवषमत नहीीं कर सकता। अब वही मेरे सवमस्व
हैं।
आधी रात के बाद भावरें हुईं। सामने हवन-कुण्ड था, दोनों ओर ववप्रगण बैठे हुए थे, दीपक जि रहा
था, कुि दे वता की मनू तम रखी हुई थीीं। वेद मींत्र का पाठ हो रहा था। उस समय मझ ु े ऐसा मािम
ू हुआ कक
सचमच ु दे वता ववराजमान हैं। अक्ग्न, वाय,ु दीपक, नक्षत्र सभी मझ ु े उस समय दे वत्व की जयोनत से प्रदीप्त
जान पडते थे। मझ
ु े पहिी बार आध्याक्त्मक ववकास का पररचय लमिा। मैंने जब अक्ग्न के सामने मस्तक
झक
ु ाया, तो यह कोरी रस्म की पाबींदी न थी, मैं अक्ग्नदे व को अपने सम्मख
ु मनू तमवान ्, स्वगीय आभा से
तेजोमय दे ख रही थी। आखखर भावरें भी समाप्त हो गई; पर
पनतदे व के दशमन न हुए।
अब अक्न्तम आशा यह थी कक प्रात:काि जब पनतदे व किेवा के लिए बि ु ाये जायगे, उस समय
दे खगी।
ू तब उनके लसर पर मौर न होगा, सखखयों के साथ मैं भी जा बैठूगी और खब
ू जी भरकर दे खगी।
ू पर
क्या मािम
ू था कक ववधध कुछ और ही कुचक्र रच रहा है। प्रात:काि दे खती हू, तो जनवासे के खेमे उखड रहे
तुम्हारी,
चन्दा
5
मींसरू ी
20-9-25
प्यारी चन्दा,
मैंने तुम्हारा खत पाने के दस
ू रे ही ददन काशी खत लिख ददया था। उसका जवाब भी लमि गया।
शायद बाबज
ू ी ने तुम्हें खत लिखा हो। कुछ परु ाने खयाि के आदमी हैं। मेरी तो उनसे एक ददन भी न
ननभती। हा, तुमसे ननभ जायगी। यदद मेरे पनत ने मेरे साथ यह बतामव ककया होता—अकारण मझ
ु से रूठे
होते—तो मैं क्जन्दगी-भर उनकी सरू त न दे खती। अगर कभी आते भी, तो कुत्तों की तरह दत्ु कार दे ती। परु
ु ष
पर सबसे बडा अधधकार उसकी स्त्री का है । माता-वपता को खश
ु रखने के लिए वह स्त्री का नतरस्कार नहीीं
कर सकता। तुम्हारे ससरु ािवािों ने बडा घखृ णत व्यवहार ककया। परु ाने खयािवािों का गजब का किेजा है ,
जो ऐसी बातें सहते हैं। दे खा उस प्रथा का फि, क्जसकी तारीफ करते तम्
ु हारी जबान नहीीं थकती। वह दीवार
सड गई। टीपटाप करने से काम न चिेगा। उसकी जगह नये लसरे से दीवार बनाने की जरूरत है ।
अच्छा, अब कुछ मेरी भी कथा सन
ु िो। मझ
ु े ऐसा सींदेह हो रहा है कक ववनोद ने मेरे साथ दगा की
है । इनकी आधथमक दशा वैसी नहीीं, जैसी मैंने समझी थी। केवि मझ
ु े ठगने के लिए इन्होंने सारा स्वाग भरा
था। मोटर मागे की थी, बगिे का ककराया अभी तक नहीीं ददया गया, फरननचर ककराये के थे। यह सच है कक
इन्होंने प्रत्यक्ष रूप से मझ
ु े धोखा नहीीं ददया। कभी अपनी दौित की डीींग नहीीं मारी, िेककन ऐसा रहन-सहन
बना िेना, क्जससे दस
ू रों को अनम
ु ान हो कक यह कोई बडे धनी आदमी हैं, एक प्रकार का धोखा ही है। यह
स्वाग इसीलिए भरा गया था कक कोई लशकार फस जाय। अब दे खती हू कक ववनोद मझ ु से अपनी असिी
हाित को नछपाने का प्रयत्न ककया करते हैं। अपने खत मझ
ु े नहीीं दे खने दे त,े कोई लमिने आता है , तो चौंक
पडते हैं और घबरायी हुई आवाज में बेरा से पछ ू ते हैं, कौन है ? तम
ु जानती हो, मैं धन की िौंडी नहीीं। मैं
केवि ववशद्ु ध हृदय चाहती हू। क्जसमें परु
ु षाथम है, प्रनतभा है, वह आज नहीीं तो कि अवश्य ही धनवान ् होकर
गोरखपरु
25-9-25
प्यारी पद्मा,
कि तम्ु हारा खत लमिा, आज जवाब लिख रही हू। एक तम ु हो कक महीनों रटाती हो। इस ववषय में
तुम्हें मझ
ु से उपदे श िेना चादहए। ववनोद बाबू पर तुम व्यथम ही आक्षेप िगा रही हो। तम
ु ने क्यों पहिे ही
उनकी आधथमक दशा की जाच-पडताि नहीीं की ? बस, एक सन्
ु दर, रलसक, लशष्ट, वाणी-मधरु यव
ु क दे खा और
फूि उठीीं ? अब भी तुम्हारा ही दोष है । तम
ु अपने व्यवहार से, रहन-सहन से लसद्ध कर दो कक तुममें गींभीर
अींश भी हैं, कफर दे खू कक ववनोद बाबू कैसे तुमसे परदा रखते हैं। और बहन, यह तो मानवी स्वभाव है । सभी
चाहते हैं कक िोग हमें सींपन्न समझें। इस स्वाग को अींत तक ननभाने की चेष्टा की जाती है और जो इस
काम में सफि हो जाता है, उसी का जीवन सफि समझा जाता है। क्जस यग
ु में धन ही सवमप्रधान हो,
मयामदा, कीनतम, यश—यहा तक कक ववद्या भी धन से खरीदी जा सके, उस यग
ु में स्वाग भरना एक िाक्जमी
बात हो जाती है । अधधकार योग्यता का मह
ु ताकते हैं ! यही समझ िो कक इन दोनों में फूि और फि का
सींबींध है । योग्यता का फूि िगा और अधधकार का फि आया।
इन ज्ञानोपदे श के बाद अब तुम्हें हाददमक धन्यवाद दे ती हू। तम
ु ने पनतदे व के नाम जो पत्र लिखा था,
उसका बहुत अच्छा असर हुआ। उसके पाचवें ही ददन स्वामी का कृपापात्र मझ ु े लमिा। बहन, वह खत पाकर
मझ
ु े ककतनी खुशी हुई, इसका तुम अनम
ु ान कर सकती हो। मािम
ू होता था, अींधे को आखें लमि गयी हैं।
कभी कोठे पर जाती थी, कभी नीचे आती थी। सारे में खिबिी पड गयी। तम् ु हें वह पत्र अत्यन्त
ननराशाजनक जान पडता, मेरे लिए वह सींजीवन-मींत्र था, आशादीपक था। प्राणेश ने बारानतयों की उद्दीं डता पर
खेद प्रकट ककया था, पर बडों के सामने वह जबान कैसे खोि सकते थे। कफर जनानतयों ने भी, बारानतयों का
जैसा आदर-सत्कार करना चादहए था, वैसा नहीीं ककया। अन्त में लिखा था—‘वप्रये, तम्
ु हारे दशमनों की ककतनी
उत्कींठा है, लिख नहीीं सकता। तम्
ु हारी कक्ल्पत मनू तम ननत आखों के सामने रहती है । पर कुि-मयामदा का
7
ददल्िी
15-12-25
प्यारी बहन,
ॉँ
तुझसे बार-बार क्षमा म गती हू, पैरों पडती हू। मेरे पत्र न लिखने का कारण आिस्य न था, सैर-सपाटे
की धन
ु न थी। रोज सोचती थी कक आज लिखगी, ू पर कोई-न-कोई ऐसा काम आ पडता था, कोई ऐसी बात
हो जाती थी; कोई ऐसी बाधा आ खडी होती थी कक धचत्त अशाींत हो जाता था और मह
ु िपेट कर पड रहती
थी। तम
ु मझ
ु े अब दे खो तोशायद पदहचान न सको। मींसरू ी से ददल्िी आये एक महीना हो गया। यहा
ववनोद को तीन सौ रुपये की एक जगह लमि गयी है । यह सारा महीना बाजार की खाक छानने में कटा।
ववनोद ने मझ
ु े परू ी स्वाधीनता दे रखी है । मैं जो चाहू, करू, उनसे कोई मतिब नहीीं। वह मेरे मेहमान हैं।
गह
ृ स्थी का सारा बोझ मझ ु पर डािकर वह ननक्श्चींत हो गए हैं। ऐसा बेकफक्रा मैंने आदमी ही नहीीं दे खा।
हाक्जरी की परवाह है , न डडनर की, बि
ु ाया तो आ गए, नहीीं तो बैठे हैं। नौकरों से कुछ बोिने की तो मानो
इन्होंने कसम ही खा िी है । उन्हें डाटू तो मैं, रखू तो मैं, ननकािू तो मैं, उनसे कोई मतिब ही नहीीं। मैं
चाहती हू, वह मेरे प्रबन्ध की आिोचना करें , ऐब ननकािें; मैं चाहती हू जब मैं बाजार से कोई चीज िाऊ, तो
वह बतावें मैं जट गई या जीत आई; मैं चहती हू महीने के खचम का बजट बनाते समय मेरे और उनके बीच
में खब
ू बहस हो, पर इन अरमानों में से एक भी परू ा नहीीं होता। मैं नहीीं समझती, इस तरह कोई स्त्री कहा
तक गह
ृ -प्रबन्ध में सफि हो सकती है। ववनोद के इस सम्पण
ू म आत्म-समपमण ने मेरी ननज की जरूरतों के
लिए कोई गींज
ु ाइश ही नहीीं रखी। अपने शौक की चीजें खुद खरीदकर िाते बरु ा मािम
ू होता है , कम-से-कम
मझु से नहीीं हो सकमा। मैं जानती हू, मैं अपने लिए कोई चीज िाऊ, तो वह नाराज न होंगे। नहीीं, मझ ु े
ववश्वास है, खुश होंगे; िेककन मेरा जी चाहता है , मेरे शौक लसींगार की चीजें वह खुद िा कर दें । उनसे िेने में
जो आनन्द है, वह खद
ु जाकर िाने में नहीीं। वपताजी अब भी मझ
ु े सौ रुपया महीना दे ते हैं और उन रुपयों
को मैं अपनी जरूरतों पर खचम कर सकती हू। पर न जाने क्यों मझ
ु े भय होता है कक कहीीं ववनोदद समझें, मैं
उनके रुपये खचम ककये डािती हू। जो आदमी ककसी बात पर नाराज नहीीं हो सकता, वह ककसी बात पर खुश
भी नहीीं हो सकता। मेरी समझ में ही नहीीं आता, वह ककस बात से खश
ु और ककस बात से नाराज होते हैं।
बस, मेरी दशा उस आदमी की-सी है, जो बबना रास्ता जाने इधर-उधर भटकता कफरे । तम्
ु हें याद होगा, हम
दोनों कोई गखणत का प्रश्न िगाने के बाद ककतनी उत्सक
ु ता से उसका जवाब दे खती थी; जब हमारा जवाब
ककताब के जवाब से लमि जाता था, तो हमें ककतना हाददम क आनन्द लमिता था। मेहनत सफि हुईं, इसका
ववश्वास हो जाता था। क्जन गखणत की पस्
ु तकों में प्रश्नों के उत्तर न लिखे होते थे, उसके प्रश्न हि करने की
हमारी इच्छा ही न होती थी। सोचते थे, मेहनत अकारथ जायगी। मैं रोज प्रश्न हि करती हू, पर नहीीं जानती
कक जवाब ठीक ननकिा, या गित। सोचो, मेरे धचत्त की क्या दशा होगी।
एक हफ्ता होता है, िखनऊ की लमस ररग से भें ट हो गई। वह िेडी डाक्टर हैं और मेरे घर बहुत
आती-जाती हैं। ककसी का लसर भी धमका और लमस ररग बिु ायी गयीीं। पापा जब मेडडकि कािेज में प्रोफेसर
थे, तो उन्होंने इन लमस ररग को पढ़ाया था। उसका एहसान वह अब भी मानती हैं। यहा उन्हें दे खकर भोजन
का ननमींत्रण न दे ना अलशष्टता की हद होती। लमस ररग ने दावत मींजरू कर िी। उस ददन मझ
ु े क्जतनी
कदठनाई हुई, वह बयान नहीीं कर सकती। मैंने कभी अगरे जों के साथ टे बि
ु पर नहीीं खाया। उनमें भोजन के
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क्या लशष्टाचार हैं, इसका मझ
ु े बबिकुि ज्ञान नहीीं। मैंने समझा था, ववनोद मझ
ु े सारी बातें बता दें गे। वह
बरसों अगरे जों के साथ इींग्िैंड रह चक
ु े हैं। मैंने उन्हें लमस ररग के आने की सच
ू ना भी दे दी। पर उस भिे
आदमी ने मानो सन
ु ा ही नहीीं। मैंने भी ननश्चय ककया, मैं तम
ु से कुछ न पछ
ू ू गी, यही न होगा कक लमस ररग
हसेंगी। बिा से। अपने ऊपर बार-बार झझिाती
ु थी कक कहा लमस ररग को बि
ु ा बैठी। पडोस के बगिों में
कई हमी-जैसे पररवार रहते हैं। उनसे सिाह िे सकती थी। पर यही सींकोच होता था कक ये िोग मझ
ु े
गवाररन समझेंगे। अपनी इस वववशता पर थोडी दे र तक आसू भी बहाती रही। आखखर ननराश होकर अपनी
बद्
ु धध से काम लिया। दसू रे ददन लमस ररग आयीीं। हम दोनों भी मेज पर बैठे। दावत शरू
ु हुई। मैं दे खती थी
कक ववनोद बार-बार झेंपते थे और लमस ररग बार-बार नाक लसकोडती थीीं, क्जससे प्रकट हो रहा था कक
लशष्टाचार की मयामदा भींग हो रही है । मैं शमम के मारे मरी जाती थी। ककसी भानत ववपवत्त लसर सके टिी।
तब मैंने कान पकडे कक अब ककसी अगरे ज की दावत न करूगी। उस ददन से दे ख रही हू, ववनोद मझ ु से कुछ
खखींचे हुए हैं। मैं भी नहीीं बोि रही हू। वह शायद समझते हैं कक मैंने उनकी भद्द करा दी। मैं समझ रही हू।
कक उन्होंने मझ
ु े िक्जजत िक्जजत ककया। सच कहती हू, चन्दा, गह
ृ स्थी के इन झींझटों में मझ
ु े अब ककसी से
हसने बोिने का अवसर नहीीं लमिता। इधर महीनों से कोई नयी पस् ु तक नहीीं पढ़ सकी। ववनोद की
ववनोदशीिता भी न जाने कहा चिी गयी। अब वह लसनेमा या धथएटर का नाम भी नहीीं िेत।े हा , मैं चिू तो
वह तैयार हो जायेंगे। मैं चाहती हू, प्रस्ताव उनकी ओर से हो, मैं उसका अनम ु ोदन करू। शायद वह पदहिे की
आदतें छोड रहे हैं। मैं तपस्या का सींकल्प उनके मख ु पर अींककत पाती हू। ऐसा जान पडता है , अपने में गह ृ -
सींचािन की शक्क्त न पाकर उन्होंने सारा भार मझ ु पर डाि ददया है । मींसरू ी में वह घर के सींचािक थे। दो-
ढाई महीने में पन्द्रह सौ खचम ककये। कहा से िाये, यह में अब तक नहीीं जानती। पास तो शायद ही कुछ रहा
हो। सींभव है ककसी लमत्र से िे लिया हो। तीन सौ रुपये महीने की आमदनी में धथएटर और लसनेमा का
क्जक्र ही क्या ! पचास रुपये तो मकान ही के ननकि जाते हैं। मैं इस जींजाि से तींग आ गयी हू। जी चाहता
है , ववनोद से कह द ू कक मेरे चिाये यह ठे िा न चिेगा। आप तो दो-ढाई घींटा यनू नवलसमटी में काम करके
ददन-भर चैन करें , खूब टे ननस खेिें, खूब उपन्यास पढ़ें , खूब सोयें और मैं सब
ु ह से आधी रात तक घर के
झींझटों में मरा करू। कई बार छे डने का इरादा ककया, ददि में ठानकर उनके पास गयी भी, िेककन उनका
सामीप्य मेरे सारे सींयम, सारी ग्िानन, सारी ववरक्क्त को हर िेता है । उनका ववकलसत मख
ु मींडि, उनके
अनरु क्त नेत्र, उनके कोमि शब्द मझ
ु पर मोदहनी मींत्र-सा डाि दे ते हैं। उनके एक आलिींगन में मेरी सारी
वेदना वविीन हो जाती है। बहुत अच्छा होता, अगर यह इतने रूपवान ्, इतने मधरु भाषी, इतने सौम्य न होते।
तब कदाधचत ् मैं इनसे झगड बैठती, अपनी कदठनाइया कह सकती। इस दशा में तो इन्होंने मझ ु े जैसे भेड
बना लिया है। मगर माया को तोडने का मौका तिाश कर रही हू। एक तरह से मैं अपना आत्म-सम्मान खो
बैठी हू। मैं क्यों हर एक बात में ककसी की अप्रसन्नता से डरती रहती हू ? मझ ु में क्यों यह भाव नहीीं आता
कक जो कुछ मैं कर रही हू, वह ठीक है । मैं इतनी मख ु ापेक्षा क्यों करती हू ? इस मनोववृ त्त पर मझ
ु े ववजय
पाना है, चाहे जो कुछ हो। अब इस वक्त ववदा होती हू। अपने यहा के समाचार लिखना, जी िगा है ।
तुम्हारी,
पद्मा
8
काशी
25-12-25
प्यारी पद्मा,
तुम्हारा पत्र पढ़कर मझ ु े कुछ द:ु ख हुआ, कुछ हसी आयी, कुछ क्रोध आया। तुम क्या चाहती हो, यह
तुम्हें खुद नहीीं मािम ू । तुमने आदशम पनत पाया है, व्यथम की शींकाओीं से मन को अशाींत न करो। तम ु
स्वाधीनता चाहती थीीं, वह तुम्हें लमि गयी। दो आदलमयों के लिए तीन सौ रुपये कम नहीीं होते। उस पर
अभी तुम्हारे पापा भी सौ रुपये ददये जाते हैं। अब और क्या करना चादहए? मझ
ु े भय होता है कक तुम्हारा
धचत्त कुछ अव्यवक्स्थत हो गया है। मेरे पास तुम्हारे लिए सहानभ
ु नू त का एक शब्द भी नहीीं।
मैं पन्द्रह तारीख को काशी आ गयी। स्वामी स्वयीं मझ
ु े ववदा कराने गये थे। घर से चिते समय बहुत
रोई। पहिे मैं समझती थी कक िडककया झठ ू -मठ
ू रोया करती हैं। कफर मेरे लिए तो माता-वपता का ववयोग
कोई नई बात न थी। गमी, दशहरा और बडे ददन की छुट्दटयों के बाद छ: सािों से इस ववयोग का अनभ
ु व
तुम्हारी,
चन्दा
9
ददल्िी
1-2-26
प्यारी बहन,
तम्
ु हारे प्रथम लमिन की कुतह
ू िमय कथा पढ़कर, धचत्त प्रसन्न हो गया। मझ
ु े तम्
ु हारे ऊपर हसद हो
रहा है। में ने समझा था, तम्
ु हें मझ
ु पर हसद होगा, पर कक्रया उिटी हो गयी, तम्
ु हें चारों ओर हररयािी ही
नजर आती है, मैं क्जधर नजर डािती हू, सख
ू े रे त और नग्न टीिों के लसवा और कुछ नहीीं। खैर ! अब कुछ
मेरा वत्त
ृ ान्त सन
ु ो—
“अब क्जगर थामकर बैठो, मेरी बारी आयी।”
ववनोद की अववचलित दशमननकता अब असह्य हो गयी है । कुछ ववधचत्र जीव हैं, घर में आग िगे, पत्थर
पडे इनकी बिा से। इन्हें मझ
ु पर जरा भी दया नहीीं आती। मैं सब
ु ह से शाम तक घर के झींझटों में कुढ़ा
करू, इन्हें कुछ परवाह नहीीं। ऐसा सहानभ
ु नू त से खािी आदमी कभी नहीीं दे खा था। इन्हें तो ककसी जींगि में
तपस्या करनी चादहए थी। अभी तो खैर दो ही प्राणी हैं, िेककन कहीीं बाि-बच्चे हो गये तब तो मैं बे-मौत मर
जाऊगी। ईश्वर न करे , वह दारुण ववपवत्त मेरे लसर पडे।
चन्दा, मझु े अब ददि से िगी हुई है कक ककसी भानत इनकी वह समाधध भींग कर द।ू मगर कोई उपाय
सफि नहीीं होता, कोई चाि ठीक नहीीं पडती। एक ददन मैंने उनके कमरे के िींप का बल्व तोड ददया। कमरा
अधेरा पडा रहा। आप सैर करके आये, तो कमरा अधेरा दे खा। मझ
ु से पछ
ू ा, मैंने कह ददया बल्ब टूट गया।
बस, आपने भोजन ककया और मेरे कमरे में आकर िेट रहे । पत्रों और उपन्यासों की ओर दे खा तक नहीीं, न-
जाने वह उत्सक
ु ता कहा वविीन हो गयी। ददन-भर गज
ु र गया, आपको बल्व िगवाने की कोई कफक्र नहीीं।
आखखर, मझ
ु ी को बाजार से िाना पडा।
एक ददन मैंने झझिाकर
ु रसोइये को ननकाि ददया। सोचा जब िािा रात-भर भख
ू े सोयेंगे, तब आखें
खि
ु ेंगी। मगर इस भिे आदमी ने कुछ पछ
ू ा तक नहीीं। चाय न लमिी, कुछ परवाह नहीीं। ठीक दस बजे
आपने कपडे पहने, एक बार रसोई की ओर जाकर दे खा, सन्नाटा था। बस, कािेज चि ददये। एक आदमी
पछ
ू ता है, महाराज कहा गया, क्यों गया; अब क्या इन्तजाम होगा, कौन खाना पकायेगा, कम-से-कम इतना तो
मझ
ु से कह सकते थे कक तुम अगर नहीीं पका सकती, तो बाजार ही से कुछ खाना मगवा िो। जब वह चिे
गए, तो मझ ु े बडा पश्चात्ताप हुआ। रायि होटि से खाना मगवाया और बैरे के हाथ कािेज भेज ददया। पर
खुद भखू ी ही रही। ददन-भर भख ू के मारे बरु ा हाि था। लसर में ददम होने िगा। आप कािेज से आए और
मझ
ु े पडे दे खा तो ऐसे परे शान हुए मानो मझ ु े बत्रदोष है । उसी वक्त एक डाक्टर बि
ु ा भेजा। डाक्टर आये,
आखें दे खी, जबान दे खी, हरारत दे खी, िगाने की दवा अिग दी, पीने की अिग, आदमी दवा िेने गया। िौटा
तो बारह रुपये का बबि भी था। मझ
ु े इन सारी बातों पर ऐसा क्रोध आ रहा था कक कहा भागकर चिी
जाऊ। उस पर आप आराम-कुसी डािकर मेरी चारपाई के पास बैठ गए और एक-एक पि पर पछ
ू ने िगे
कैसा जी है ?
ददम कुछ कम हुआ ? यहा मारे भख ू के आतें कुिकुिा रही थी। दवा हाथ से छुई तक नहीीं।
आखखर झख मारकर मैंने कफर बैरे से खाना मींगवाया। कफर चाि उिटी पडी। मैं डरी कक कहीीं सबेरे कफर यह
महाशय डाक्टर को न बि
ु ा बैठैं, इसलिए सबेरा होते ही हारकर कफर घर के काम-धन्धे में िगी। उसी वक्त
एक दस
ू रा महाराज बि
ु वाया। अपने परु ाने महाराज को बेकसरू ननकािकर दण्डस्वरूप एक काठ के उल्िू को
रखना पडा, जो मामि
ू ी चपानतया भी नहीीं पका सकता। उस ददन से एक नयी बिा गिे पडी। दोनों वक्त दो
घींटे इस महाराज को लसखाने में िग जाते हैं। इसे अपनी पाक-किा का ऐसा घमण्ड है कक मैं चाहे क्जतना
बकू, पर करता अपने ही मन की है । उस पर बीच-बीच में मस्
ु कराने िगता है, मानो कहता हो कक ‘तम
ु इन
बातों को क्या जानो, चप
ु चाप बैठी दे ख्ती जाव।’ जिाने चिी थी ववनोद को और खद
ु जि गयी। रुपये खचम
10
काशी
5-1-26
बहन,
तुम्हारा पत्र पढ़कर मझ ु े ऐसा मािम
ू हुआ कक कोई उपन्यास पढ़कर उठी हूीं। अगर तुम उपन्यास
लिखों, तो मझ ु ें ववश्वास है , उसकी धम ू मच जाय। तम
ु आप उसकी नानयका बन जाना। तुम ऐसी-ऐसी बातें
कह ॉँ सीख गयी, मझ
ु ें तो यही आश्चयम है । उस बींगािी के साथ तुम अकेिी कैसी बैठी बातें करती रहीीं, मेरी
तो समझ नहीीं आता। मैं तो कभी न कर सकती। तम
ु ववनोद को जिाना चाहती हो, उनके धचत्त को अशाींत
करना चाहती हो। उस गरीब के साथ तम
ु ककतना भयींकर अन्याय कर रही हो ! तम
ु यह क्यों समझती हो
कक ववनोद तम्
ु हारी उपेक्षा कर रहे हैं, अपने ववचारों में इतने मग्न है कक उनकी रुधच ही नहीीं रही। सींभव है ,
वह कोई दाशमननक तत्व खोज रहें हो, कोई थीलसस लिख रहीीं हो, ककसी पस्
ु तक की रचना कर रहे हों। कौन
कह सकता है ? तुम जैसी रुपवती स्त्री पाकर यदद कोई मनष्ु य धचक्न्तत रहे , तो समझ िो कक उसके ददि
पर कोई बडा बोझ हैं। उनको तुम्हारी सहानभ
ु नू त की जरुरत है, तुम उनका बोझ हिका कर सकती हों।
िेककन तुम उिटे उन्हीीं को दोष दे ती हों। मेरी समझ में नही आता कक तुम एक ददन क्यों ववनोद से ददि
खोिकर बातें नहीीं कर िेती, सींदेह को क्जतनी जल्द हो सकें, ददि से ननकाि डािना चादहए। सींदेह वह चोट
है , क्जसका उपच जल्द न हो, तो नासरू पड जाता है और कफर अच्छा नहीीं होता। क्यों दो-चार ददनों के लिए
यह ॉँ नहीीं चिी आतीीं ? तम
ु शायद कहो, तू ही क्यों नहीीं चिी आती। िेककन मै स्वतन्त्र नही हू, बबना सास-
ससरु से पछ ू े कोई काम नहीीं कर सकती। तम्
ु हें तो कोई बींधन नहीीं है ।
बहन, आजकि मेरा जीवन हषम और शोक का ववधचत्र लमश्रण हो रहा हैं। अकेिी होती हू, तो रोती हूीं,
आनन्द आ जाते है तो हॅं सती हू। जी चाहता है, वह हरदम मेरे सामने बैठे रहते। िेककन रात के बारह बजे
ीं कक कोई बच्चे को
के पहिे उनके दशमन नहीीं होते। एक ददन दोपहर को आ गयें, तो सासजी ने ऐसा ड टा
क्या ड टेीं गा। मझ
ु ें ऐसा भय हो रहा है कक सासजी को मझ
ु से धचढ़ हैं। बहन, मैं उन्हें भरसक प्रसन्न रखने
की चेष्टा करती हू। जो काम कभी न ककये थे, वह उनके लिए करती हू, उनके स्नान के लिए पानी गमम
करती हू, उनकी पज ॉँ
ू ा के लिए चौकी बबछाती हू। वह स्नान कर िेती हैं, तो उनकी धोती छ टती हू, वह िेटती
हैं तो उनके पैर दबाती हू; जब वह सो जाती है तो उन्हें पींखा झिती हू। वह मेरी माता हैं, उन्ही के गभम से
वह रत्न उत्पन्न हुआ है जो मेरा प्राणधार है । मै उनकी कुछ सेवा कर सकू, इससे बढकर मेरे लिए सौभाग्य
की और क्या बात होगी। मैं केवि इतना ही चाहती हू कक वह मझ ु से हसकर बोिे, मगर न जाने क्यों वह
ु े कोसने ददया करती हैं। मैं जानती हू, दोष मेरा ही हैं। ह ,ॉँ मझ
बात-बात पर मझ ु े मािम
ू नहीीं, वह क्या हैं।
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अगर मेरा यही अपराध है कक मैं अपनी दोनों नन्दों से रुपवती क्यों हू, पढ़ी-लिखी क्यों हू, आन्नद मझु ें
इतना क्यों चाहते हैं, तो बहन, यह मेरे बस की बात नही। मेरे प्रनत सासजी को भ्रम होता होगा कक मैं ही
आन्नद को भरमा रहीीं हू। शायद वह पछताती है कक क्यों मझ
ु ें बहू बनाया ! उन्हे भय होता है कक कहीीं मैं
उनके बैटे को उनसे छीन न ि।ू दो-एक बार मझु े जादग
ू रनी कही चक ु ी हैं। दोनों ननदें अकारण ही मझ
ु से
जिती रहती है । बडी ननदजी तो अभी किोर हैं, उनका जिना मेरी समझ में नही आता। मैं उनकी जगह
होती,तो अपनी भावज से कुछ सीखने की, कुछ पढ़ने की कोलशश करती, उनके चरण धो-धोकर पीती, पर इस
छोकरी को मेरा अपमान करने ही में आन्नद आता हैं। मैं जानती हू, थोडे ददनों में दोनों ननदें िक्जजत
होंगी। ह ,ॉँ अभी वे मझ
ु से बबचकती हैं। मैं अपनी तरफ से तो उन्हें अप्रसन्न होने को कोई अवसर नहीीं दे ती।
मगर रुप को क्या करु। क्या जानती थी कक एक ददन इस रुप के कारण मैं अपराधधनी ठहरायी
जाऊगी। मैं सच कहती हू बहन, यहा मैने लसगाींर करना एक तरह से छोड ही ददया हैं। मैिी-कुचैिी बनी बेठी
रहती हू। इस भय से कक कोई मेरे पढ़ने-लिखने पर नाक न लसकोडे, पस्ु तकों को हाथ नहीीं िगाती। घर से
पस् ॉँ िायी थी। उसमें कोई पस्
ु तकों का एक गटठर ब ध ु तकें बडी सन्
ु दर हैं। उन्हें पढ़ने के लिए बार-बार जी
चाहता हैं, मगर छरती हू कक कोई ताना न दे बैठे। दोनों ननदें मझ ु ें दे खती रहती हैं कक यह क्या करती हैं,
कैसे बैठती है, कैसे बोिती है , मानो दो-दो जासस
ू मेरे पीछे िगा ददए गए हों। इन दोनों मदहिाओीं को मेरी
बदगोई में क्यों इतना मजा आता हैं, नही कह सकती। शायद आजकि उन्हे लसवा दस
ू रा काम ही नहीीं।
गुस्सा तो ऐसा आता हैं कक एक बार खझढ़क द,ू िेककन मन को समझाकर रोक िेती हू। यह दशा बहुत ददनों
नहीीं रहे गी। एक नए आदमी से कुछ दहचक होना स्वाभाववक ही है , ववशेषकर जब वह नया आदमी लशक्षा
और ववचार व्यवहार में हमसे अिग हो। मझ
ु ी को अगर ककसी फ्रेंच िेडी के साथ रहना पडे, तो शायद मे भी
उसकी हरएक बात को आिोचना और कुतह ू ि की दृक्ष्ट से दे खने िग।ू यह काशीवासी िोग पज
ू ा-पाठ बहुत
करते है । सासजी तो रोज गींगा-स्नान करने जाती हैं। बडी ननद भी उनके साथ जाती है। मैने कभी पज ू ा
नहीीं की। याद है, हम और तुम पज
ू ा करने वािों को ककतना बनाया करती थी। अगर मै पज
ू ा करने वािों का
चररत्र कुछ उन्नत पाती, तो शायद अब तक मै भी पज ू ा करती होती। िेककन मझ ु े तो कभी ऐसा अनभ
ु व
ू ा करने वालिय ॉँ भी उसी तरह दस
प्राप्त नहीीं हुआ, पज ू रों की ननन्दा करती हैं, उसी तरह आपस में िडती-
झगडती हैं, जैसे वे जो कभी पज
ू ा नहीीं करतीीं। खैर, अब मझ
ु े धीरे -धीरे पज
ू ा से श्रद्धा होती जा रही हैं। मेरे
दददया ससरु जी ने एक छोटा-सा ठाकुरद्वारा बनवा ददया था। वह मेरे घर के सामने ही हैं। मैं अक्सर
सासजी के साथ वह ॉँ जाती हू और अब यह कहने में मझ
ु े कोई सींकोच नहीीं कक उन ववशाि मनू तमयों के दशमन
से मझ
ु े अपने अतस्ति में एक जयोनत का अनभ
ु व होता है। क्जतनी अश्रद्धा से मैं राम और कृष्ण के
जीवन की आिोचना ककया करती थी, वह बहुत कुछ लमट चक ु ी हैं।
िेककन रुपवती होने का दण्ड यहीीं तक बस नहीीं है । ननदें अगर मेरे रुप कों दे खकर जिती हैं, तो यह
स्वाभाववक हैं। द:ु खी तो इस बात का है कक यह दण्ड मझ
ु े उस तरफ से भी लमि रहा है , क्जधर से इसकी
कोई सींभावना न होनी चादहए—मेरे आनन्द बाबू ु े इसका दण्ड दे रहे है । ह ,ॉँ उनकी दण्डनीनत एक
भी मझ
ननरािे ही ढग की हैं। वह मेरे पास ननत्य ही कोई-न-कोई सौगात िाते रहते है । वह क्जतनी दे र मेरे पास
रहते है । उनके मन में यह सींदेह होता रहता है कक मझ
ु े उनका रहना अच्छा नहीीं िगता। वह समझते है कक
मैं उनसे जो प्रेम करती हू, यह केवि ददखावा है , कोशि है ।। वह मेरे सामने कुछ ऐसे दबे-दबायें, लसमटे -
लसमटायें रहते है कक मैं मारे िजजा के मर जाती हू। उन्हें मझ
ु से कुछ कहते हुए ऐसा सींकोच होता है , मानो
वह कोई अनाधधकार चेष्टा कर रहे हों। जैसे मैिे-कुचैिे कपडे पहने हुए कोई आदमी उजजवि वस्त्र पहनने
वािों से दरू ही रहना चाहता है, वही दशा इनकी है । वह शायद समझते हैं कक ककसी रुपवती स्त्री को रूपहीन
परु
ु ष से प्रेम हो ही नहीीं सकता। शायद वह ददि में पछतातें है कक क्यों इससे वववाह ककया। शायद उन्हें
अपने ऊपर ग्िानन होती है। वह मझ ु े कभी रोते दे ख िेते है, तो समझते है । मैं अपने भाग्य को रों रही हू,
कोई पत्र लिखते दे खते हैं, तो समझते है, मैं उनकी रुपहीनता ही का रोना रो रही हू। क्या कहू बहन, यह
सौन्दयम मेरी जान का गाहक हो गया। आनन्द के मन से शींका को ननकािने और उन्हें अपनी ओर से
आश्वासन दे ने के लिए मझ
ु े ऐसी-ऐसी बातें करनी पडती हैं, ऐसे-ऐसे आचरण करने पडते हैं, क्जन पर मझ
ु े
घण
ृ ा होती हैं। अगर पहिे से यह दशा जानती, तो िह्मा से कहती कक मझ
ु े कुरूपा ही बनाना। बडे असमींजस
में पडी हू! अगर सासजी की सेवा नहीीं करती, बडी ननदजी का मन नहीीं रखती, तो उनकी ऑ ींखों से धगरती
हू। अगर आनन्द बाबू को ननराश करती हू, तो कदाधचत ् मझु से ववरक्त ही हो जाय। मै तुमसे अपने हृदय की
बात कहती हू। बहन, तुमसे क्या पदाम रखना है; मझ
ु े आनन्द बाबू से उतना प्रेम है, जो ककसी स्त्री को परू
ु ष
बहन, क्षमा करना; कि पत्र लिखने का अवसर नहीीं लमिा। रात एक ऐसी बात हो गयी, क्जससे धचत्त
अशान्त उठा। बडी मक्ु श्किों से यह थोडा-सा समय ननकाि सकी हू। मैने अभी तक आनन्द से घर के ककसी
प्राणी की लशकायत नहीीं की थी। अगर सासजी ने कोई बात की दी या ननदजी ने कोई ताना दे ददया; तो
इसे उनके कानों तक क्यों पहुचाऊ। इसके लसवा कक गह ृ -किह उत्पन्न हो, इससे और क्या हाथ आयेगा।
इन्हीीं जरा-जरा सी बातों को न पेट में डािने से घर बबगडते हैं। आपस में वैमनस्य बढ़ता हैं। मगर सींयोग
की बात, कि अनायास ही मेरे मींह
ु से एक बात ननकि गयी क्जसके लिये मै अब भी अपने को कोस रहीीं हू,
और ईश्वर से मनाती हू कक वह आगे न बढ़े । बात यह हुई कक कि आन्नद बाबू बहुत दे र करके मेरे पास
आये। मैं उनके इन्तार में बैठी एक पस्
ु तक पढ़ रही थी। सहसा सासजी ने आकर पछ
ू ा—क्या अभी तक
बबजिी जि रही है? क्या वह रात-भर न आयें, तो तुम रात-भर बबजिी जिाती रहोगी?
मैनें उसी वक्त बत्ती ठण्डी कर दी। आनन्द बाबू थोडी ही दे र मे आयें, तो कमरा अधेरा पडा था न-
जाने उस वक्त मेरी मनत ककतनी मन्द हो गयी थी। अगर मैने उनकी आहट पाते ही बत्ती जिा दी होती, तो
कुछ न होता, मगर मैं अधेरे में पडी रहीीं। उन्होनें पछ
ू ा—क्या सो गयीीं? यह अधेरा क्यों पडा हुआ है?
हाय! इस वक्त भी यदद मैने कह ददया होता कक मैने अभी बती गुि कर दी तो बात बन जाती। मगर
मेरे मह
ु से ननकिा—‘साींसजी का हुक्म हुआ कक बत्ती गुि कर दो, गुि कर दी। तम
ु रात-भर न आओ, तो
क्या रातभर बत्ती जिती रहें ?’
‘तो अब तो जिा दो। मै रोशनी के सामने से आ रहा हू। मझ
ु े तो कुछ सझ
ू ता ही नहीीं।’
‘मैने अब बटन को हाथ से छूने की कसम खा िी है। जब जरूरत पडगी; तो मोम की बत्ती जिा लिया
करूगी। कौन मफ् ु ककय ॉँ सहें ।’
ु त में घड
आन्नद ने बबजिी का बटन दबाते हुए कहा—‘और मैने कसम खा िी कक रात-भर बत्ती जिेगी, चाहे
ककसी को बरु ा िगे या भिा। सब कुछ दे खता हू, अन्धा नहीीं हू। दसू री बहू आकर इतनी सेवा करे गी तो
दे खूगा; तुम नसीब की खोटी हो कक ऐसे प्राखणयों के पािे पडी। ककसी दसू री सास की तुम इतनी खखदमत
करतीीं, तो वह तुम्हें पान की तरह फेरती, तुम्हें हाथों पर लिए रहती, मगर यह ॉँ चाहे प्राण ही दे दे , ककसी के
मह
ु से सीधी बात न ननकिेगी।’
मझ
ु े अपनी भि
ू साफ मािम
ू हो गयी। उनका क्रोध शान्त करने के इरादे से बोिी—गिती भी तो मेरी
ॉँ ने गुि करने को कहा, तो क्या बरु ा कहा ?
ही थी कक व्यथम आधी रात तक बत्ती जिायें बैठी रही। अम्म जी
मझ
ु े समझाना, अच्छी सीख दे ना, उनका धमम हैं। मेरा धमम यही है कक यथाशक्क्त उनकी सेवा करू और उनकी
लशक्षा को धगरह बाध।ू
आन्नद एक क्षण द्वार की ओर ताकते रहे । कफर बोिे—मझ
ु े मािम
ू हो रहा है कक इस घर में मेरा
अब गज ु र न होगा। तुम नहीीं कहतीीं, मगर मै सब कुछ सन
ु ता रहता हू। सब समझता हू। तुम्हें मेरे पापों का
प्रायक्श्चत करना पड रहा हैं। मै कि अम्म जी ॉँ से साफ-साफ कह दगा—‘अगर
ू आपका यही व्यवहार है , तो
आप अपना घर िीक्जए, मै अपने लिए कोई दस
ू री राह ननकाि िगा।’
ू
मैंने हाथ जोडकर धगडधगडाते हुए कहा—नहीीं-नहीीं। कहीीं ऐसा गजब भी न करना। मेरे मह
ु में आग
िगे, कह ॉँ से कहा बत्ती का क्जकर कर बैठी। मैं तम्
ु हारे चरण छूकर कहती हू, मझ
ु े न सासजी से कोई
तुम्हारी,
चन्दा
11
ददल्िी
5-2-26
प्यारी चन्दा,
क्या लिख,ू मझ
ु पर तो ववपवत्त का पहाड टूट पडा! हाय, वह चिे गए। मेरे ववनोद का तीन ददन से
पता नहीीं—ननमोही चिा गया, मझ
ु े छोडकर बबना कुछ कहे -सन
ु े चिा गया—अभी तक रोयी नहीीं। जो िोग
पछू ने आते हैं, उनसे बहाना कर दे ती हू कक—दो-चार ददन में आयेंगे, एक काम से काशी गये हैं। मगर जब
रोऊगी तो यह शरीर उन ऑ ींसओ ु ीं में डूब जायेगा। प्राण उसी मे ववसक्जमत हो जायगे। छलियें ने मझ
ु से कुछ
भी नहीीं कहा, रोज की तरह उठा, भोजन ककया, ववद्यािय गया; ननयत समय पर िौटा, रोज की तरह
मस
ु कराकर मेरे पास आया। हम दोनों ने जिपान ककया, कफर वह दै ननक पत्र पढ़ने िगा, मैं टे ननस खेिने
चिी गयी। इधर कुछ ददनो से उन्हें टे ननस से कुछ प्रेम न रहा था, मैं अकेिी ही जाती। िौटी, तो रोज ही की
तरह उन्हें बरामदे में टहिते और लसगार पीते दे खा। मझ
ु े दे खते ही वह रोज की तरह मेरा ओवरकोट िाये
और मेरे ऊपर डाि ददया। बरामदे से नीचे उतरकर खि
ु े मैदान मे हम टहिने िगे। मगर वह जयादा बोिे
नहीीं, ककसी ववचार में डूबे रहें । जब ओस अधधक पडने िगी, तो हम दोनों कफर अन्दर चिे आयें। उसी वक्त
वह बींगािी मदहिा आ गयी, क्जनसे मैने वीणा सीखना शरू
ु ककया है । ववनोद भी मेरे साथ ही बैठे रहे ।
सींगीत उन्हें ककतना वप्रय है, यह तुम्हें लिख चक
ु ी हू। कोई नयी बात नहीीं हुई। मदहिा के चिे जाने के बाद
हमने साथ-ही-साथ भोजन नयका कफर मै अपने कमरे में िेटने आयी। वह रोज की तरह अपने कमरे मे
लिखने-पढ़ने चिे गयें! मैं जल्द ही सो गयी, िेककन बेखबर पडी रहू, उनकी आहट पाते ही आप-ही-आप
ऑ ींखे खुि गयीीं। मैने दे खा, वह अपना हरा शाि ओढ़े खडे थें। मैने उनकी ओर हाथ बढ़ाकर कहा—आओीं, खडे
क्यों हो, और कफर सो गयी। बस, प्यारी बहन! वही ववनोद के अींनतम दशमन थे। कह नहीीं सकती, वह पींिग
पर िेटे या नहीीं। इन ऑखों में न-जाने कौन-सी महाननद्रा समायी हुई थी। प्रात: उठी तो ववनोद को न पाया।
मैं उनसे पहिे उठती हू, वह पडे सोते रहते हैं। पर आज वह पिींग पर न थें। शाि भी न था। मैने समझा,
शायद अपने कमरे में चिे गये हों। स्नान-गह
ृ में चिी गयी। आध घींटें मे बाहर आयी, कफर भी वह न
तुम्हारी,
पद्मा
12
तुम्हारी
चन्दा
13
ददल्िी
20-2-26
More Hindi Books Advertise 141
Here More Premchand Books
More Hindi Books Advertise Here More Premchand Books
प्यारी बहन,
तम्
ु हारा पत्र पढ़कर मझ
ु े तम्
ु हारे ऊपर दया आयी। तम
ु मझ
ु े ककतना ही बरु ा कहो, पर मैं अपनी यह
दग
ु नम त ककसी तरह न सह सकती, ककसी तरह नहीीं। मैंने या तो अपने प्राण ही दे ददये होते, या कफर उस सास
का मह
ु न दे खती। तुम्हारा सीधापन, तुम्हारी सहनशीिता, तम्
ु हारी सास-भक्क्त तम्
ु हें मब
ु ारक हो। मैं तो
तुरन्त आनन्द के साथ चिी जाती और चाहे भीख ही क्यों न मागनी पडती उस घर में कदम न रखती।
मझ
ु े तुम्हारे ऊपर दया ही नहीीं आती, क्रोध भी आता है , इसलिए कक तुममें स्वालभमान नहीीं है । तुम-जैसी
क्स्त्रयों ने ही सासों और परू ु में जाय ऐसा घर—जह ॉँ अपनी
ु षों का लमजाज आसमान चढ़ा ददया है । ‘जहन्नम
इजजत नहीीं।’ मैं पनत-प्रेम भी इन दामों न ि।ू तुम्हें उन्नीसवी सदी में जन्म िेना चादहए था। उस वक्त
तुम्हारे गुणों की प्रशींसा होती। इस स्वाधीनता और नारी-स्वत्व के नवयग
ु में तुम केवि प्राचीन इनतहास हो।
यह सीता और दमयन्ती का यग ु नहीीं। परू
ु षों ने बहुत ददनों तक राजय ककया। अब स्त्री-जानत का राजय
होगा। मगर अब तम्
ु हें अधधक न कोसगी।
ू
अब मेरा हाि सन
ु ो। मैंने सोचा था, पत्रों में अपनी बीमारी का समाचार छपवा दगी।
ू िेककन कफर
ॉँ िग जायेगा। कोई लमजाज पछ
ख्याि आया; यह समाचार छपते ही लमत्रों का त ता ू ने आयेगा। कोई दे खने
आयेगा। कफर मैं कोई रानी तो हू नहीीं, क्जसकी बबमारी का बि ु ेदटन रोजाना छापा जाय। न जाने िोगों के
ददि में कैसे-कैसे ववचार उत्पन्न हों। यह सोचकर मैंने पत्र में छपवाने का ववचार छोड ददया। ददन-भर मेरे
धचत्त की क्या दशा रही, लिख नहीीं सकती। कभी मन में आता, जहर खा ि,ू कभी सोचती, कहीीं उड जाऊीं।
ॉँ
ववनोद के सम्बन्ध में भ नत-भ ॉँ की शींकाऍ ीं होने िगीीं। अब मझ
नत ु े ऐसी ककतनी ही बातें याद आने िगीीं, जब
मैंने ववनोद के प्रनत उदासीनता का भाव ददखाया था। मैं उनसे सब कुछ िेना चाहती थी; दे ना कुछ न चाहती
थी। मैं चाहती थी कक वह आठों पहर भ्रमर की भ नत ॉँ मझ ॉँ मझ
ु पर मडराते रहें , पतींग की भ नत ु े घेरे रहें ।
उन्हें ककताबो और पत्रों में मग्न बैठे दे खकर मझ
ु े झझिाहट
ु होने िगती थी। मेरा अधधकाींश समय अपने ही
बनाव-लसींगार में कटता था, उनके ववषय में मझ
ु े कोई धचन्ता ही न होती थी। अब मझ
ु े मािम
ू हुआ कक सेवा
का महत्व रूप से कहीीं अधधक है। रूप मन को मग्ु ध कर सकता है, पर आत्मा को आनन्द पहुचाने वािी
कोई दस
ू री ही वस्तु है ।
इस तरह एक हफ्ता गज
ु र गया। मैं प्रात:काि मैके जाने की तैयाररया कर रही थी—यह घर फाडे
खाता था—कक सहसा डाककये ने मझ ॉँ
ु े एक पत्र िाकर ददया। मेरा हृदय धक-धक करने िगा। मैंने क पते हुए
हाथों से पत्र लिया, पर लसरनामे पर ववनोद की पररधचत हस्तलिवप न थी, लिवप ककसी स्त्री की थी, इसमें
सन्दे ह न था, पर मैं उससे सवमथा अपररधचत थी। मैंने तरु न्त पत्र खोिा और नीचे की तरफ दे खा तो चौंक
पडी—वह कुसम ु का पत्र था। मैंने एक ही सास में सारा पत्र पढ़ लिया। लिखा था—‘बहन, ववनोद बाबू तीन
ददन यह ॉँ रहकर बम्बई चिे गये। शायद वविायत जाना चाहते हैं। तीन-चार ददन बम्बई रहें गे। मैंने बहुत
चाहा तकक उन्हें ददल्िी वापस कर द,ू पर वह ककसी तरह न राजी हुए। तुम उन्हें नीचे लिखे पते से तार दे
दो। मैंने उनसे यह पता पछ
ू लिया था। उन्होंने मझ
ु े ताकीद कर दी थी कक इस पते को गुप्त रखना, िेककन
तुमसे क्या परदा। तमु तुरन्त तार दे दो, शायद रूक जायॅ। वह बात क्या हुई ! मझ
ु से ववनोद ने तो बहुत
पछ
ू ने पर भी नहीीं बताया, पर वह द:ु खी बहुत थे। ऐसे आदमी को भी तुम अपना न बना सकी, इसका मझ ु े
आश्चयम है; पर मझ
ु े इसकी पहिे ही शींका थी। रूप और गवम में दीपक और प्रकाश का सम्बन्ध है। गवम रूप
का प्रकाश है ।’…
मैंने पत्र रख ददया और उसी वक्त ववनोद के नाम तार भेज ददया कक बहुत बीमार हू, तरु न्त आओ।
मझ
ु े आशा थी कक ववनोद तार द्वारा जवाब दें गे, िेककन सारा ददन गुजर गया और कोई जवाब न आया।
बगिे के सामने से कोई साइककि ननकिती, तो मैं तरु न्त उसकी ओर ताकने िगती थीीं कक शायद तार का
चपरासी हो। रात को भी मैं तार का इन्तजार करती रही। तब मैंने अपने मन को इस ववचार से शाींत ककया
कक ववनोद आ रहे हैं, इसलिए तार भेजने की जरूरत न समझी।
अब मेरे मन में कफर शकाए उठने िगी। ववनोद कुसम
ु के पास क्यों गये, कहीीं कुसम
ु से उन्हें प्रेम तो
नहीीं हैं? कहीीं उसी प्रेम के कारण तो वह मझ
ु से ववरक्त नहीीं हो गये? कुसम
ु कोई कौशि तो नहीीं कर रही हैं?
उसे ववनोद को अपने घर ठहराने का अधधकार ही क्या था? इस ववचार से मेरा मन बहुत क्षुब्ध हो उठा।
कुसम
ु पर क्रोध आने िगा। अवश्य दोनों में बहुत ददनों से पत्र-व्यवहार होता रहा होगा। मैंने कफर कुसम
ु का
पत्र पढ़ा और अबकी उसके प्रत्येक शब्द में मेरे लिए कुछ सोचने की सामग्री रखी हुई थी। ननश्चय ककया कक
कुसम ु को एक पत्र लिखकर खूब कोस।ू आधा पत्र लिख भी डािा, पर उसे फाड डािा। उसी वक्त ववनोद को
िोहाग का शि
दद न गुजरने िगे। उसी तरह, जैसे बीमारी के ददन कटते हैं—ददन पहाड रात कािी बिा। रात-भर
मनाते गज
ु रती थी कक ककसी तरह भोर होता, तो मनाने िगती कक जल्दी शाम हो। मैके गयी कक
वह ॉँ जी बहिेगा। दस-प च
ॉँ ददन पररवतमन का कुछ असर हुआ, कफर उनसे भी बरु ी दशा हुई, भाग कर ससरु ाि
चिी आयी। रोगी करवट बदिकर आराम का अनभ ु व करता है ।
ॉँ
पहिे प च-छह महीनों तक तो केशव के पत्र पींद्रहवें ददन बराबर लमिते रहे । उसमें ववयोग के द:ु ख
कम, नये-नये दृश्यों का वणमन अधधक होता था। पर सभ
ु द्रा सींतुष्ट थी। पत्र लिखती, तो ववरह-व्यथा के लसवा
उसे कुछ सझ
ू ता ही न था। कभी-कभी जब जी बेचन
ै हो जाता, तो पछताती कक व्यथम जाने ददया। कहीीं एक
ददन मर जाऊ, तो उनके दशमन भी न हों।
िेककन छठे महीने से पत्रों में भी वविम्ब होने िगा। कई महीने तक तो महीने में एक पत्र आता रहा,
कफर वह भी बींद हो गया। सभ
ु द्रा के चार-छह पत्र पहुच जाते, तो एक पत्र आ जाता; वह भी बेददिी से लिखा
हुआ—काम की अधधकता और समय के अभाव के रोने से भरा हुआ। एक वाक्य भी ऐसा नहीीं, क्जससे हृदय
को शाींनत हो, जो टपकते हुए ददि पर मरहम रखे। हा ! आदद से अन्त तक ‘वप्रये’ शब्द का नाम नहीीं।
सभ
ु द्रा अधीर हो उठी। उसने योरप-यात्रा का ननश्यच कर लिया। वह सारे कष्ट सह िेगी, लसर पर जो कुछ
पडेगी सह िेगी; केशव को आखों से दे खती रहे गी। वह इस बात को उनसे गप्ु त रखेगी, उनकी कदठनाइयों को
और न बढ़ायेगी, उनसे बोिेगी भी नहीीं ! केवि उन्हें कभी-कभी ऑ ींख भर कर दे ख िेगी। यही उसकी शाींनत
के लिए काफी होगा। उसे क्या मािम
ू था कक उसका केशव उसका नहीीं रहा। वह अब एक दस
ू री ही कालमनी
के प्रेम का लभखारी है।
सभ
ु द्रा कई ददनों तक इस प्रस्ताव को मन में रखे हुए सेती रही। उसे ककसी प्रकार की शींका न होती
थी। समाचार-पत्रों के पढ़ते रहने से उसे समद्र
ु ी यात्रा का हाि मािम
ू होता रहता था। एक ददन उसने अपने
सास-ससरु के सामने अपना ननश्चय प्रकट ककया। उन िोगों ने बहुत समझाया; रोकने की बहुत चेष्टा की;
िेककन सभु द्रा ने अपना हठ न छोडा। आखखर जब िोगों ने दे खा कक यह ककसी तरह नहीीं मानती, तो राजी
िीं
दन के उस दहस्से में, जह ॉँ इस समद्
ृ धध के समय में भी दररद्रता का राजय हैं, ऊपर के एक छोटे से
ु द्रा एक कुसी पर बैठी है। उसे यह ॉँ आये आज एक महीना हो गया है । यात्रा के पहिे
कमरे में सभ
उसके मन मे क्जतनी शींकाए थी, सभी शान्त होती जा रही है । बम्बई-बींदर में जहाज पर जगह पाने का प्रश्न
ॉँ
बडी आसानी से हि हो गया। वह अकेिी औरत न थी जो योरोप जा रही हो। प च-छह क्स्त्रय ॉँ और भी उसी
जहाज से जा रही थीीं। सभ ु द्रा को न जगह लमिने में कोई कदठनाई हुई, न मागम में । यह ॉँ पहुचकर और
क्स्त्रयों से सींग छूट गया। कोई ककसी ववद्यािय में चिी गयी; दो-तीन अपने पनतयों के पास चिीीं गयीीं, जो
यह ॉँ पहिे आ गये थे। सभ
ु द्रा ने इस मह
ु ल्िे में एक कमरा िे लिया। जीववका का प्रश्न भी उसके लिए बहुत
कदठन न रहा। क्जन मदहिाओीं के साथ वह आयी थी, उनमे कई उच्च- अधधकाररयों की पक्त्नय ॉँ थी। कई
अच्छे -अच्छे अगरे ज घरनों से उनका पररचय था। सभ
ु द्रा को दो मदहिाओीं को भारतीय सींगीत और दहन्दी-
भाषा लसखाने का काम लमि गया। शेष समय मे वह कई भारतीय मदहिाओीं के कपडे सीने का काम कर
िेती है । केशव का ननवास-स्थान यह ॉँ से ननकट है, इसीलिए सभ
ु द्रा ने इस मह
ु ल्िे को पींसद ककया है। कि
केशव उसे ददखायी ददया था। ओह ! उन्हें ‘बस’ से उतरते दे खकर उसका धचत्त ककतना आतरु हो उठा था।
बस यही मन में आता था कक दौडकर उनके गिे से लिपट जाय और पछ ु यह ॉँ आते ही बदि
ू े —क्यों जी, तम
गए। याद है, तुमने चिते समय क्या-क्या वादा ककये थे? उसने बडी मक्ु श्कि से अपने को रोका था। तब से
इस वक्त तक उसे मानो नशा-सा छाया हुआ है, वह उनके इतने समीप है ! चाहे रोज उन्हें दे ख सकती है,
ु सकती है; ह ,ॉँ स्पशम तक कर सकती है । अब यह उससे भाग कर कह ॉँ जायेगें? उनके पत्रों की
उनकी बातें सन
अब उसे क्या धचन्ता है । कुछ ददनों के बाद सम्भव है वह उनसे होटि के नौकरों से जो चाहे , पछ
ू सकती है ।
सींध्या हो गयी थी। धऍ
ु ीं में बबजिी की िािटनें रोती ऑ ींखें की भानत जयोनतहीन-सी हो रही थीीं। गिी
में स्त्री-परु
ु ष सैर करने जा रहे थे। सभ
ु द्रा सोचने िगी—इन िोगों को आमोद से ककतना प्रेम है , मानो ककसी
को धचन्ता ही नहीीं, मानो सभी सम्पन्न है , जब ही ये िोग इतने एकाग्र होकर सब काम कर सकते है । क्जस
समय जो काम करने है जी-जान से करते हैं। खेिने की उमींग है, तो काम करने की भी उमींग है और एक
हम हैं कक न हसते है , न रोते हैं, मौन बने बैठे रहते हैं। स्फूनतम का कहीीं नाम नहीीं, काम तो सारे ददन करते
हैं, भोजन करने की फुरसत भी नहीीं लमिती, पर वास्तव में चौथाई समय भी काम में नही िगते। केवि
काम करने का बहाना करते हैं। मािम
ू होता है, जानत प्राण-शन्
ू य हो गयी हैं।
सहसा उसने केशव को जाते दे खा। ह ,ॉँ केशव ही था। कुसी से उठकर बरामदे में चिी आयी। प्रबि
इच्छा हुई कक जाकर उनके गिे से लिपट जाय। उसने अगर अपराध ककया है, तो उन्हीीं के कारण तो। यदद
वह बराबर पत्र लिखते जाते, तो वह क्यों आती?
िेककन केशव के साथ यह यव ु ती कौन है? अरे ! केशव उसका हाथ पकडे हुए है । दोनों मस्
ु करा-मस्
ु करा
कर बातें करते चिे जाते हैं। यह यवु ती कौन है?
सभ
ु द्रा ने ध्यान से दे खा। यव ॉँ
ु ती का रीं ग स विा था। वह भारतीय बालिका थी। उसका पहनावा
भारतीय था। इससे जयादा सभ
ु द्रा को और कुछ न ददखायी ददया। उसने तुरींत जत
ू े पहने, द्वार बन्द ककया
और एक क्षण में गिी में आ पहुची। केशव अब ददखायी न दे ता था, पर वह क्जधर गया था, उधर ही वह
बडी तेजी से िपकी चिी जाती थी। यह यवु ती कौन है? वह उन दोनों की बातें सन
ु ना चाहती थी, उस यव
ु ती
को दे खना चाहती थी उसके प वॉँ इतनी तेज से उठ रहे थे मानो दौड रही हो। पर इतनी जल्दी दोनो कह ॉँ
अदृश्य हो गये? अब तक उसे उन िोगों के समीप पहुच जाना चादहए था। शायद दोनों ककसी ‘बस’ पर जा
बैठे।
सु भ्रदा ददन-भर यव
ु ती का इन्तजार करती रही। कभी बरामदे में आकर इधर-उधर ननगाह दौडाती, कभी
सडक पर दे खती, पर उसका कहीीं पता न था। मन में झझिाती
ु थी कक उसने क्यों उसी वक्त सारा
वत
ृ ाींत न कह सन
ु ाया।
ू था। उस मकान और गिी का नम्बर तक याद था, जह ॉँ से वह उसे पत्र
केशव का पता उसे मािम
लिखा करता था। जयों-जयों ददन ढिने िगा और यव
ु ती के आने में वविम्ब होने िगा, उसके मन में एक
तरीं गी-सी उठने िगी कक जाकर केशव को फटकारे , उसका सारा नशा उतार दे , कहे —तुम इतने भींयकर दहींसक
हो, इतने महान धत
ू म हो, यह मझ ू न था। तुम यही ववद्या सीखने यह ॉँ आये थे। तुम्हारे पाींडडत्य की
ु े मािम
यही फि है ! तुम एक अबिा को क्जसने तुम्हारे ऊपर अपना सवमस्व अपमण कर ददया, यों छि सकते हो।
तुममें क्या मनष्ु यता नाम को भी नहीीं रह गयी? आखखर तम
ु ने मेरे लिए क्या सोचा है । मैं सारी क्जींदगी
तुम्हारे नाम को रोती रहू ! िेककन अलभमान हर बार उसके पैरों को रोक िेता। नहीीं, क्जसने उसके साथ ऐसा
कपट ककया है, उसका इतना अपमान ककया है , उसके पास वह न जायगी। वह उसे दे खकर अपने ऑ ींसओ ु ीं को
रोक सकेगी या नहीीं, इसमें उसे सींदेह था, और केशव के सामने वह रोना नहीीं चाहती थी। अगर केशव उससे
घण
ृ ा करता है, तो वह भी केशव से घण ु ती न आयी। बवत्तय ॉँ भी जिीीं, पर
ृ ा करे गी। सींध्या भी हो गयी, पर यव
उसका पता नहीीं।
एकाएक उसे अपने कमरे के द्वार पर ककसी के आने की आहट मािम ू हुई। वह कूदकर बाहर ननकि
आई। यव
ु ती कपडों का एक पलु िींदा लिए सामने खडी थी। सभ
ु द्रा को दे खते ही बोिी—क्षमा करना, मझ
ु े आने
में दे र हो गयी। बात यह है कक केशव को ककसी बडे जरूरी काम से जममनी जाना है । वह ॉँ उन्हें एक महीने
से जयादा िग जायगा। वह चाहते हैं कक मैं भी उनके साथ चि।ू मझ
ु से उन्हें अपनी थीलसस लिखने में बडी
सहायता लमिेगी। बलिमन के पस्
ु तकाियों को छानना पडेगा। मैंने भी स्वीकार कर लिया है । केशव की इच्छा
है कक जममनी जाने के पहिे हमारा वववाह हो जाय। कि सींध्या समय सींस्कार हो जायगा। अब ये कपडे मझ
ु े
आप जममनी से िौटने पर दीक्जएगा। वववाह के अवसर पर हम मामि
ू ी कपडे पहन िें गे। और क्या करती?
इसके लसवा कोई उपाय न था, केशव का जममन जाना अननवायम है।
सभ
ु द्रा ने कपडो को मेज पर रख कर कहा—आपको धोखा ददया गया है ।
यव
ु ती ने घबरा कर पछ
ू ा—धोखा? कैसा धोखा? मैं बबिकुि नहीीं समझती। तुम्हारा मतिब क्या है?
सभु द्रा ने सींकोच के आवरण को हटाने की चेष्टा करते हुए कहा—केशव तुम्हें धोखा दे कर तुमसे
वववाह करना चाहता है ।
‘केशव ऐसा आदमी नहीीं है , जो ककसी को धोखा दे । क्या तुम केशव को जानती हो?
‘केशव ने तम
ु से अपने ववषय में सब-कुछ कह ददया है?’
‘सब-कुछ।’
‘मेरा तो यही ववचार है कक उन्होंने एक बात भी नहीीं नछपाई?’
‘तुम्हे मािम
ू है कक उसका वववाह हो चक
ु ा है?’
यव
ु ती की मख ु -जयोनत कुछ मलिन पड गयी, उसकी गदम न िजजा से झक
ु गयी। अटक-अटक कर
बोिी—ह ,ॉँ उन्होंने मझ .....
ु से यह बात कही थी।
सभु द्रा परास्त हो गयी। घण
ृ ा-सच
ू क नेत्रों से दे खती हुई बोिी—यह जानते हुए भी तम
ु केशव से वववाह
करने पर तैयार हो।
यव
ु ती ने अलभमान से दे खकर कहा—तम
ु ने केशव को दे खा है?
‘नहीीं, मैंने उन्हें कभी नहीीं दे खा।’
‘कफर, तम
ु उन्हें कैसे जानती हो?’
सदहक
ु रही थी! केशव के लिए वह अपने प्राणों का कोई मल्ू य नहीीं समझी थी। वही केशव उसे पैरों से
भद्रा ककतना ही चाहती थी कक समस्या पर शाींतधचत्त होकर ववचार करे , पर हृदय में मानों जवािा-सी
ठुकरा रहा है । यह आघात इतना आकक्स्मक, इतना कठोर था कक उसकी चेतना की सारी कोमिता मक्ू च्छम त
हो गयी ! उसके एक-एक अणु प्रनतकार के लिए तडपने िगा। अगर यही समस्या इसके ववपरीत होती, तो
क्या सभ
ु द्रा की गरदन पर छुरी न कफर गयी होती? केशव उसके खून का प्यासा न हो जाता? क्या परू
ु ष हो
जाने से ही सभी बाते क्षम्य और स्त्री हो जाने से सभी बातें अक्षम्य हो जाती है? नहीीं, इस ननणमय को सभ
ु द्रा
की ववद्रोही आत्मा इस समय स्वीकार नहीीं कर सकती। उसे नाररयों के ऊींचे आदशो की परवाह नहीीं है । उन
क्स्त्रयों में आत्मालभमान न होगा? वे परू
ु षों के पैरों की जनू तया बनकर रहने ही में अपना सौभाग्य समझती
होंगी। सभ
ु द्रा इतनी आत्मलभमान-शन्
ू य नहीीं है । वह अपने जीते-जी यह नहीीं दे ख सकती थी कक उसका पनत
उसके जीवन की सवमनाश करके चैन की बींशी बजाये। दनु नया उसे हत्याररनी, वपशाधचनी कहे गी, कहे —उसको
परवाह नहीीं। रह-रहकर उसके मन में भयींकर प्रेरणा होती थी कक इसी समय उसके पास चिी जाय, और
इसके पदहिे कक वह उस यव
ु ती के प्रेम का आन्नद उठाये, उसके जीवन का अन्त कर दे । वह केशव की
ननष्ठुरता को याद करके अपने मन को उत्तेक्जत करती थी। अपने को धधक्कार-धधक्कार कर नारी सि
ु भ
शींकाओीं को दरू करती थी। क्या वह इतनी दब
ु ि
म है? क्या उसमें इतना साहस भी नहीीं है? इस वक्त यदद
कोई दष्ु ट उसके कमरे में घस
ु आए और उसके सतीत्व का अपहरण करना चाहे , तो क्या वह उसका प्रनतकार
न करे गी? आखखर आत्म-रक्षा ही के लिए तो उसने यह वपस्तौि िे रखी है । केशव ने उसके सत्य का
सीं
ध्या का समय था। आयम-मींददर के ऑ ींगन में वर और वधू इष्ट-लमत्रों के साथ बैठे हुए थे। वववाह का
सींस्कार हो रहा था। उसी समय सभ
ु द्रा पहुची और बदामदे में आकर एक खम्भें की आड में इस भ नत ॉँ
खडी हो गई कक केशव का मह
ु उसके सामने था। उसकी ऑ ींखें में वह दृश्य खखींच गया, जब आज से तीन
ॉँ
साि पहिे उसने इसी भ नत केशव को मींडप में बैठे हुए आड से दे खा था। तब उसका हृदय ककतना
उछवालसत हो रहा था। अींतस्ति में गद
ु गुदी-सी हो रही थी, ककतना अपार अनरु ाग था, ककतनी असीम
ॉँ सख
अलभिाषाऍ ीं थीीं, मानों जीवन-प्रभात का उदय हो रहा हो। जीवन मधरु सींगीत की भ नत ु द था, भववष्य
ॉँ सन्
उषा-स्वप्न की भ नत ु द्रा को ऐसा भ्रम हुआ, मानों यह केशव नहीीं है। ह ,ॉँ
ु दर। क्या यह वही केशव है? सभ
यह वह केशव नहीीं था। यह उसी रूप और उसी नाम का कोई दस ू रा मनष्ु य था। अब उसकी मस्
ु कुराहट में ,
उनके नेत्रों में, उसके शब्दों में, उसके हृदय को आकवषमत करने वािी कोई वस्तु न थी। उसे दे खकर वह उसी
ॉँ नन:स्पींद, ननश्चि खडी है , मानों कोई अपररधचत व्यक्क्त हो। अब तक केशव का-सा रूपवान, तेजस्वी,
भ नत
सौम्य, शीिवान, परू
ु ष सींसार में न था; पर अब सभ ु द्रा को ऐसा जान पडा कक वह ॉँ बैठे हुए यव
ु कों में और
उसमें कोई अन्तर नहीीं है । वह ईष्यामक्ग्न, क्जसमें वह जिी जा रही थी, वह दहींसा-कल्पना, जो उसे वह ॉँ तक
िायी थी, मानो एगदम शाींत हो गयी। ववररक्त दहींसा से भी अधधक दहींसात्मक होती है —सभ
ु द्रा की दहींसा-
कल्पना में एक प्रकार का ममत्व था—उसका केशव, उसका प्राणवल्िभ, उसका जीवन-सवमस्व और ककसी का
नहीीं हो सकता। पर अब वह ममत्व नहीीं है । वह उसका नहीीं है , उसे अब परवा नहीीं, उस पर ककसका
अधधकार होता है ।
वववाह-सींस्कार समाप्त हो गया, लमत्रों ने बधाइय ॉँ दीीं, सहे लियों ने मींगिगान ककया, कफर िोग मेजों पर
जा बैठे, दावत होने िगी, रात के बारह बज गये; पर सभ ॉँ खडी रही, मानो कोई
ु द्रा वहीीं पाषाण-मनू तम की भ नत
ववधचत्र स्वप्न दे ख रही हो। ह ,ॉँ जैसे कोई बस्ती उजड गई हो, जैसे कोई सींगीत बन्द हो गया हो, जैसे कोई
दीपक बझ
ु गया है ।
जब िोग मींददर से ननकिे, तो वह भी ननकिे, तो वह भी ननकि आयी; पर उसे कोई मागम न सझ
ू ता
था। पररधचत सडकें उसे भि
ू ी हुई-सी जान पडने िगीीं। सारा सींसार ही बदि गया था। वह सारी रात सडकों
पर भटकती कफरी। घर का कहीीं पता नहीीं। सारी दक
ु ानें बन्द हो गयीीं, सडकों पर सन्नाटा छा गया, कफर भी
ॉँ उसे जीवन-पथ में भी भटकना पडेगा?
वह अपना घर ढूढती हुई चिी जा रही थी। हाय! क्या इसी भ नत
सहसा एक पलु िसमैन ने पक ु कह ॉँ जा रही हो?
ु ारा—मैडम, तम
सभ
ु द्रा ने दठठक कर कहा—कहीीं नहीीं।
ु हारा स्थान कह ॉँ है ?’
‘तम्
‘मेरा स्थान?’
‘ह ,ॉँ तुम्हारा स्थान कह ॉँ है? मैं तुम्हें बडी दे र से इधर-उधर भटकते दे ख रहा हू। ककस स्रीट में रहती
हो?
सभ
ु द्रा को उस स्रीट का नाम तक न याद था।
‘तुम्हें अपने स्रीट का नाम तक याद नहीीं?’
‘भि
ू गयी, याद नहीीं आता।‘
सहसा उसकी दृक्ष्ट सामने के एक साइन बोडम की तरफ उठी, ओह! यही तो उसकी स्रीट है । उसने
लसर उठाकर इधर-उधर दे खा। सामने ही उसका डेरा था। और इसी गिी में, अपने ही घर के सामने, न-जाने
ककतनी दे र से वह चक्कर िगा रही थी।
अ भी प्रात:काि ही था कक यव
ु ती सभ
ु द्रा के कमरे में पहुची। वह उसके कपडे सी रही थी। उसका सारा
तन-मन कपडों में िगा हुआ था। कोई यव ु ती इतनी एकाग्रधचत होकर अपना श्रग
होगी। न-जाने उससे कौन-सा परु स्कार िेना चाहती थी। उसे यव
ु ती के आने की खबर न हुई।
ीं ृ ार भी न करती
यव
ु ती ने पछ
ू ा—तुम कि मींददर में नहीीं आयीीं?
सभ
ु द्रा ने लसर उठाकर दे खा, तो ऐसा जान पडा, मानो ककसी कवव की कोमि कल्पना मनू तममयी हो गयी
है । उसकी उप छवव अननींद्य थी। प्रेम की ववभनू त रोम-रोम से प्रदलशमत हो रही थी। सभ
ु द्रा दौडकर उसके गिे
से लिपट गई, जैसे उसकी छोटी बहन आ गयी हो, और बोिी — ह ,ॉँ गयी तो थी।
‘मैंने तुम्हें नहीीं दे खा।‘
‘ह ,ीं मैं अिग थी।‘
‘केशव को दे खा?’
‘ह ॉँ दे खा।‘
‘धीरे से क्यों बोिी? मैंने कुछ झठ
ू कहा था?
सभ
ु द्रा ने सहृदयता से मस्
ु कराकर कहा — मैंने तुम्हारी ऑ ींखों से नहीीं, अपनी ऑ ींखों से दे खा। मझे तो
वह तुम्हारे योग्य नहीीं जींच।े तुम्हें ठग लिया।
यव
ु ती खखिखखिाकर हसी और बोिी—वह ! मैं समझती हू, मैंने उन्हें ठगा है ।
एक बार वस्त्राभष
ू णों से सजकर अपनी छवव आईने में दे खी तो मािम
ू हो जायेगा।
‘तब क्या मैं कुछ और हो जाऊगी।‘
ॉँ
‘अपने कमरे से फशम, तसवीरें , ह डडय ,ॉँ गमिे आदद ननकाि कर दे ख िो, कमरे की शोभा वही रहती है!’
यव ू ण कह ॉँ से िाऊ। न-जाने अभी ककतने
ु ती ने लसर दहिा कर कहा—ठीक कहती हो। िेककन आभष
ददनों में बनने की नौबत आये।
‘मैं तुम्हें अपने गहने पहना दगी।‘
ू
‘तुम्हारे पास गहने हैं?’
‘बहुत। दे खो, मैं अभी िाकर तुम्हें पहनाती हू।‘
यवु ती ने महु से तो बहुत ‘नहीीं-नहीीं’ ककया, पर मन में प्रसन्न हो रही थी। सभ
ु द्रा ने अपने सारे गहने
पहना ददये। अपने पास एक छल्िा भी न रखा। यव
ु ती को यह नया अनभ
ु व था। उसे इस रूप में ननकिते
शमम तो आती थी; पर उसका रूप चमक उठा था। इसमें सींदेह न था। उसने आईने में अपनी सरू त दे खी तो
उसकी सरू त जगमगा उठी, मानो ककसी ववयोधगनी को अपने वप्रयतम का सींवाद लमिा हो। मन में गद
ु गद
ु ी
होने िगी। वह इतनी रूपवती है , उसे उसकी कल्पना भी न थी।
कहीीं केशव इस रूप में उसे दे ख िेत;े वह आकाींक्षा उसके मन में उदय हुई, पर कहे कैसे। कुछ दे र में
बाद िजजा से लसर झकु ा कर बोिी—केशव मझ ु े इस रूप में दे ख कर बहुत हसेगें।
सभ
ु द्रा —हसेगें नहीीं, बिैया िेंगे, ऑ ींखें खुि जायेगी। तुम आज इसी रूप में उसके पास जाना।
यव
ु ती ने चककत होकर कहा —सच! आप इसकी अनम
ु नत दे ती हैं!
सभ
ु द्रा ने कहा—बडे हषम से।
‘तम्
ु हें सींदेह न होगा?’
‘बबल्कुि नहीीं।‘
‘और जो मैं दो-चार ददन पहने रहू?’
‘तुम दो-चार महीने पहने रहो। आखखर, पडे ही तो है !’
‘तुम भी मेरे साथ चिो।‘
‘नहीीं, मझ
ु े अवकाश नहीीं है।‘
‘अच्छा, िो मेरे घर का पता नोट कर िो।‘
‘ह ,ॉँ लिख दो, शायद कभी आऊ।‘
ु ती वह ॉँ से चिी गयी। सभ
एक क्षण में यव ॉँ प्रसन्न-मख
ु द्रा अपनी खखडकी पर उसे इस भ नत ु खडी दे ख
रही थी, मानो उसकी छोटी बहन हो, ईष्याम या द्वेष का िेश भी उसके मन में न था।
‘असबाव ककसके लिए छोड जाती? ह ,ॉँ एक छोटा-सा पैकेट अपनी एक सहे िी के लिए छोड गयी हैं। उस
पर लमसेज केशव लिखा हुआ है। मझ
ु से कहा था कक यदद वह आ भी जाय, तो उन्हें दे दे ना, नहीीं तो डाक से
भेज दे ना।’
केशव को अपना हृदय इस तरह बैठता हुआ मािम
ू हुआ जैसे सय ॉँ
ू म का अस्त होना। एक गहरी स स
िेकर बोिा—
‘आप मझ
ु े वह पैकेट ददखा सकती हैं? केशव मेरा ही नाम है।’
मािककन ने मस्
ु करा कर कहा—लमसेज केशव को कोई आपवत्त तो न होगी?
‘तो कफर मैं उन्हें बि
ु ा िाऊ?’
‘ह ,ॉँ उधचत तो यही है !’
‘बहुत दरू जाना पडेगा!’
केशव कुछ दठठकता हुआ जीने की ओर चिा, तो मािककन ने कफर कहा—मैं समझती हू, आप इसे
लिये ही जाइये, व्यथम आपको क्यों दौडाऊ। मगर कि मेरे पास एक रसीद भेज दीक्जएगा। शायद उसकी
जरुरत पडे!
यह कहते हुए उसने एक छोटा-सा पैकेट िाकर केशव को दे ददया। केशव पैकेट िेकर इस तरह भागा,
मानों कोई चोर भागा जा रहा हो। इस पैकेट में क्या है, यह जानने के लिए उसका हृदय व्याकुि हो रहा था।
इसे इतना वविम्ब असह्य था कक अपने स्थान पर जाकर उसे खोिे। समीप ही एक पाकम था। वह ॉँ जाकर
उसने बबजिी के प्रकाश में उस पैकेट को खोिा डािा। उस समय उसके हाथ क पॉँ रहे थे और हृदय इतने
वेग से धडक रहा था, मानों ककसी बींधु की बीमारी के समाचार के बाद लमिा हो।
पैकेट का खुिना था कक केशव की ऑ ींखों से ऑ ींसओ
ु ीं की झडी िग गयी। उसमें एक पीिे रीं ग की साडी
थी, एक छोटी-सी सेंदरु की डडबबया और एक केशव का फोटा-धचत्र के साथ ही एक लिफाफा भी था। केशव ने
उसे खोि कर पढ़ा। उसमें लिखा था—
‘बहन मैं जाती हू। यह मेरे सोहाग का शव है । इसे टे म्स नदी में ववसक्जमत कर दे ना। तम्
ु हीीं िोगों के
हाथों यह सींस्कार भी हो जाय, तो अच्छा।
तुम्हारी,
सभ
ु द्रा
केशव ममामहत-सा पत्र हाथ में लिये वहीीं घास पर िेट गया और फूट-फूट कर रोने िगा।
आत्म-िंगीत
आ धी रात थी। नदी का ककनारा था। आकाश के तारे क्स्थर थे और नदी में उनका प्रनतबबम्ब िहरों के
साथ चींचि। एक स्वगीय सींगीत की मनोहर और जीवनदानयनी, प्राण-पोवषणी घ्वननय ॉँ इस ननस्तब्ध
और तमोमय दृश्य पर इस प्रकाश छा रही थी, जैसे हृदय पर आशाऍ ीं छायी रहती हैं, या मख
ु मींडि पर शोक।
रानी मनोरमा ने आज गुरु-दीक्षा िी थी। ददन-भर दान और व्रत में व्यस्त रहने के बाद मीठी नीींद की
ु ीीं और ये मनोहर ध्वननय ॉँ कानों में पहुची। वह व्याकुि हो
गोद में सो रही थी। अकस्मात ् उसकी ऑ ींखें खि
गयी—जैसे दीपक को दे खकर पतींग; वह अधीर हो उठी, जैसे ख डॉँ की गींध पाकर चीींटी। वह उठी और
द्वारपािों एवीं चौकीदारों की दृक्ष्टय ॉँ बचाती हुई राजमहि से बाहर ननकि आयी—जैसे वेदनापण
ू म क्रन्दन
सनु कर ऑ ींखों से ऑ ींसू ननकि जाते हैं।
सररता-तट पर कटीिी झाडडया थीीं। ऊचे कगारे थे। भयानक जींतु थे। और उनकी डरावनी आवाजें! शव
थे और उनसे भी अधधक भयींकर उनकी कल्पना। मनोरमा कोमिता और सक
ु ु मारता की मनू तम थी। परीं तु उस
मधरु सींगीत का आकषमण उसे तन्मयता की अवस्था में खीींचे लिया जाता था। उसे आपदाओीं का ध्यान न
था।
वह घींटों चिती रही, यह ॉँ तक कक मागम में नदी ने उसका गनतरोध ककया।
म नोरमा ने वववश होकर इधर-उधर दृक्ष्ट दौडायी। ककनारे पर एक नौका ददखाई दी। ननकट जाकर
ॉँ
ॉँ मैं उस पार जाऊगी, इस मनोहर राग ने मझ
बोिी—म झी,
म झी—रात
ु े व्याकुि कर ददया है ।
को नाव नहीीं खोि सकता। हवा तेज है और िहरें डरावनी। जान-जोखखम हैं
मनोरमा—मैं रानी मनोरमा हू। नाव खोि दे , महम
ु ॉँ मजदरू ी दगी।
गी ू
ॉँ
म झी—तब तो नाव ककसी तरह नहीीं खोि सकता। राननयों का इस में ननबाह नहीीं।
मनोरमा—चौधरी, तेरे प वॉँ पडती हू। शीघ्र नाव खोि दे । मेरे प्राण खखींचे चिे जाते हैं।
ॉँ
म झी—क्या इनाम लमिेगा?
ॉँ ।
मनोरमा—जो तू म गे
ॉँ
‘म झी—आप ॉँ
ही कह दें , गवार क्या जान,ू कक राननयों से क्या चीज म गनी चादहए। कहीीं कोई ऐसी
ॉँ बैठू, जो आपकी प्रनतष्ठा के ववरुद्ध हो?
चीज न म ग
मनोरमा—मेरा यह हार अत्यन्त मल्ू यवान है । मैं इसे खेवे में दे ती हू। मनोरमा ने गिे से हार
ननकािा, उसकी चमक से म झी का मख ु -मींडि प्रकालशत हो गया—वह कठोर, और कािा मख ु , क्जस पर
झरु रम य ॉँ पडी थी।
अचानक मनोरमा को ऐसा प्रतीत हुआ, मानों सींगीत की ध्वनन और ननकट हो गयी हो। कदाधचत कोई
पण
ू म ज्ञानी परु
ु ष आत्मानींद के आवेश में उस सररता-तट पर बैठा हुआ उस ननस्तब्ध ननशा को सींगीत-पण
ू म
कर रहा है । रानी का हृदय उछिने िगा। आह ! ककतना मनोमग्ु धकर राग था ! उसने अधीर होकर कहा—
ॉँ अब दे र न कर, नाव खोि, मैं एक क्षण भी धीरज नहीीं रख सकती।
म झी,
ॉँ
म झी—इस हार हो िेकर मैं क्या करुगा?
मनोरमा—सच्चे मोती हैं।
ॉँ
म झी—यह ॉँ
और भी ववपवत्त हैं म खझन गिे में पहन कर पडोलसयों को ददखायेगी, वह सब डाह से
जिेंगी, उसे गालिय ॉँ दें गी। कोई चोर दे खेगा, तो उसकी छाती पर स पॉँ िोटने िगेगा। मेरी सन
ु सान झोपडी पर
ददन-दहाडे डाका पड जायगा। िोग चोरी का अपराध िगायेंगे। नहीीं, मझ
ु े यह हार न चादहए।
ॉँ वही दगी।
मनोरमा—तो जो कुछ तू म ग, ू िेककन दे र न कर। मझ
ु े अब धैयम नहीीं है। प्रतीक्षा करने की
तननक भी शक्क्त नहीीं हैं। इन राग की एक-एक तान मेरी आत्मा को तडपा दे ती है ।
ॉँ
म झी—इससे भी अच्दी कोई चीज दीक्जए।
मनोरमा—अरे ननदम यी! तू मझ
ु े बातों में िगाये रखना चाहता हैं मैं जो दे ती है, वह िेता नहीीं, स्वयीं कुछ
ॉँ
म गता नही। तुझे क्या मािम
ू मेरे हृदय की इस समय क्या दशा हो रही है । मैं इस आक्त्मक पदाथम पर
अपना सवमस्व न्यौछावर कर सकती हू।
एक्ट्रे ि
रीं
गमींच का परदा धगर गया। तारा दे वी ने शकींु तिा का पाटम खेिकर दशमकों को मग्ु ध कर ददया था। क्जस
वक्त वह शकींु तिा के रुप में राजा दष्ु यन्त के सम्मख
ु खडी ग्िानन, वेदना, और नतरस्कार से उत्तेक्जत
भावों को आग्नेय शब्दों में प्रकट कर रही थी, दशमक-वन्ृ द लशष्टता के ननयमों की उपेक्षा करके मींच की ओर
ॉँ दौड पडे थे और तारादे वी का यशोगान करने िगे थे। ककतने ही तो स्टे ज पर चढ़ गये
उन्मत्तों की भ नत
और तारादे वी के चरणों पर धगर पडे। सारा स्टे ज फूिों से पट गया, आभष
ू णें की वषाम होने िगी। यदद उसी
ॉँ
क्षण मेनका का ववमान नीचे आ कर उसे उडा न िे जाता, तो कदाधचत उस धक्कम-धक्के में दस-प च
आदलमयों की जान पर बन जाती। मैनज
े र ने तुरन्त आकर दशमकों को गण
ु -ग्राहकता का धन्यवाद ददया और
वादा भी ककया कक दसू रे ददन कफर वही तमाशा होगा। तब िोगों का मोहान्माद शाींत हुआ। मगर एक यव ु क
उस वक्त भी मींच पर खडा रहा। िम्बे कद का था, तेजस्वी मद्र
ु ा, कुन्दन का-सा दे वताओीं का-सा स्वरुप, गठी
हुई दे ह, मख
ु से एक जयोनत-सी प्रस्फुदटत हो रही थी। कोई राजकुमार मािम
ू होता था।
जब सारे दशमकगण बाहर ननकि गये, उसने मैनेजर से पछ ू ा—क्या तारादे वी से एक क्षण के लिए लमि
सकता हू?
मैनेजर ने उपेक्षा के भाव से कहा—हमारे यह ॉँ ऐसा ननयम नहीीं है ।
यव
ु क ने कफर पछ
ू ा—क्या आप मेरा कोई पत्र उसके पास भेज सकते हैं?
मैनेजर ने उसी उपेक्षा के भाव से कहा—जी नहीीं। क्षमा कीक्जएगा। यह हमारे ननयमों के ववरुद्ध है ।
यव
ु क ने और कुछ न कहा, ननराश होकर स्टे ज के नीचे उतर पडा और बाहर जाना ही चाहता था कक
मैनेजर ने पछ
ू ा—जरा ठहर जाइये, आपका काडम?
यव
ु क ने जेब से कागज का एक टुकडा ननकि कर कुछ लिखा और दे ददया। मैनेजर ने पज
ु े को उडती
हुई ननगाह से दे खा—कींु वर ननममिकान्त चौधरी ओ. बी. ई.। मैनेजर की कठोर मद्र
ु ा कोमि हो गयी। कींु वर
ननममिकान्त—शहर के सबसे बडे रईस और ताल्िक ु े दार, सादहत्य के उजजवि रत्न, सींगीत के लसद्धहस्त
आचायम, उच्च-कोदट के ववद्वान, आठ-दस िाख सािाना के नफेदार, क्जनके दान से दे श की ककतनी ही
सींस्थाऍ ीं चिती थीीं—इस समय एक क्षुद्र प्राथी के रुप में खडे थे। मैनज
े र अपने उपेक्षा-भाव पर िक्जजत हो
गया। ववनम्र शब्दों में बोिा—क्षमा कीक्जएगा, मझ
ु से बडा अपराध हुआ। मैं अभी तारादे वी के पास हुजरू का
काडम लिए जाता हू।
ॉँ बजे
कींु वर साहब ने उससे रुकने का इशारा करके कहा—नहीीं, अब रहने ही दीक्जए, मैं कि प च
आऊगा। इस वक्त तारादे वी को कष्ट होगा। यह उनके ववश्राम का समय है।
मैनेजर—मझ
ु े ववश्वास है कक वह आपकी खानतर इतना कष्ट सहषम सह िेंगी, मैं एक लमनट में आता
हू।
ककन्तु कींु वर साहब अपना पररचय दे ने के बाद अपनी आतरु ता पर सींयम का परदा डािने के लिए
वववश थे। मैनेजर को सजजनता का धन्यवाद ददया। और कि आने का वादा करके चिे गये।
ता रा एक साफ-सथु रे और सजे हुए कमरे में मेज के सामने ककसी ववचार में मग्न बैठी थी। रात का
वह दृश्य उसकी ऑ ींखों के सामने नाच रहा था। ऐसे ददन जीवन में क्या बार-बार आते हैं? ककतने
मनष्ु य उसके दशमनों के लिए ववकि हो रहे हैं? बस, एक-दस
ू रे पर फाट पडते थे। ककतनों को उसने पैरों से
ठुकरा ददया था—ह ,ॉँ ठुकरा ददया था। मगर उस समह
ू में केवि एक ददव्यमनू तम अववचलित रुप से खडी थी।
उसकी ऑ ींखों में ककतना गम्भीर अनरु ाग था, ककतना दृढ़ सींकल्प ! ऐसा जान पडता था मानों दोनों नेत्र उसके
हृदय में चभ
ु े जा रहे हों। आज कफर उस परु
ु ष के दशमन होंगे या नहीीं, कौन जानता है । िेककन यदद आज
उनके दशमन हुए, तो तारा उनसे एक बार बातचीत ककये बबना न जाने दे गी।
यह सोचते हुए उसने आईने की ओर दे खा, कमि का फूि-सा खखिा था, कौन कह सकता था कक वह
नव-ववकलसत पष्ु प तैंतीस बसींतों की बहार दे ख चक
ु ा है । वह काींनत, वह कोमिता, वह चपिता, वह माधय
ु म
ककसी नवयौवना को िक्जजत कर सकता था। तारा एक बार कफर हृदय में प्रेम दीपक जिा बैठी। आज से
कु वर साहब आ रहे होंगे। तारा आईने के सामने बैठी है और दाई उसका श्रग
जमाने में एक ववद्या है । पहिे पररपाटी के अनस
ीं ृ ार कर रही है । श्रींग
ु ार ही श्रींग
ृ ार भी इस
ृ ार ककया जाता था। कववयों, धचत्रकारों और
रलसकों ने श्रींग ॉँ दी थी। ऑ ींखों के लिए काजि िाजमी था, हाथों के लिए में हदी, पाव के
ृ ार की मयामदा-सी ब ध
लिए महावर। एक-एक अींग एक-एक आभष
ू ण के लिए ननददमष्ट था। आज वह पररपाटी नहीीं रही। आज
प्रत्येक रमणी अपनी सरु
ु धच सब
ु द्
ु वव और तुिनात्मक भाव से श्रींग
ृ ार करती है । उसका सौंदयम ककस उपाय से
आकषमकता की सीमा पर पहुच सकता है, यही उसका आदशम होता हैं तारा इस किा में ननपण ु थी। वह
पन्द्रह साि से इस कम्पनी में थी और यह समस्त जीवन उसने परु
ु षों के हृदय से खेिने ही में व्यतीत
ककया था। ककस धचवतन से, ककस मस्
ु कान से, ककस अगडाई से, ककस तरह केशों के बबखेर दे ने से ददिों का
कत्िेआम हो जाता है ; इस किा में कौन उससे बढ़ कर हो सकता था! आज उसने चन
ु -चन
ु कर आजमाये
हुए तीर तरकस से ननकािे, और जब अपने अस्त्रों से सज कर वह दीवानखाने में आयी, तो जान पडा मानों
सींसार का सारा माधय
ु म उसकी बिाऍ ीं िे रहा है । वह मेज के पास खडी होकर कुवर साहब का काडम दे ख रही
थी, उसके कान मोटर की आवाज की ओर िगे हुए थे। वह चाहती थी कक कुवर साहब इसी वक्त आ जाऍ ीं
ए क महीना गज
ु र गया, कुवर साहब ददन में कई-कई बार आते। उन्हें एक क्षण का ववयोग भी असह्य
था। कभी दोनों बजरे पर दररया की सैर करते, कभी हरी-हरी घास पर पाकों में बैठे बातें करते, कभी
ॉँ
गाना-बजाना होता, ननत्य नये प्रोग्राम बनते थे। सारे शहर में मशहूर था कक ताराबाई ने कुवर साहब को फ स
लिया और दोनों हाथों से सम्पवत्त िट ू रही है । पर तारा के लिए कुवर साहब का प्रेम ही एक ऐसी सम्पवत्त
थी, क्जसके सामने दनु नया-भर की दौित दे य थी। उन्हें अपने सामने दे खकर उसे ककसी वस्तु की इच्छा न
होती थी।
मगर एक महीने तक इस प्रेम के बाजार में घम
ू ने पर भी तारा को वह वस्तु न लमिी, क्जसके लिए
उसकी आत्मा िोिप
ु हो रही थी। वह कुवर साहब से प्रेम की, अपार और अतुि प्रेम की, सच्चे और ननष्कपट
प्रेम की बातें रोज सन
ु ती थी, पर उसमें ‘वववाह’ का शब्द न आने पाता था, मानो प्यासे को बाजार में पानी
छोडकर और सब कुछ लमिता हो। ऐसे प्यासे को पानी के लसवा और ककस चीज से तक्ृ प्त हो सकती है ?
प्यास बझ
ु ाने के बाद, सम्भव है, और चीजों की तरफ उसकी रुधच हो, पर प्यासे के लिए तो पानी सबसे
मल्
ू यवान पदाथम है। वह जानती थी कक कुवर साहब उसके इशारे पर प्राण तक दे दें गे, िेककन वववाह की बात
क्यों उनकी जबान से नहीीं लमिती? क्या इस ववष्य का कोई पत्र लिख कर अपना आशय कह दे ना सम्भव
था? कफर क्या वह उसको केवि ववनोद की वस्तु बना कर रखना चाहते हैं? यह अपमान उससे न सहा
जाएगा। कुवर के एक इशारे पर वह आग में कूद सकती थी, पर यह अपमान उसके लिए असह्य था। ककसी
शौकीन रईस के साथ वह इससे कुछ ददन पहिे शायद एक-दो महीने रह जाती और उसे नोच-खसोट कर
अपनी राह िेती। ककन्तु प्रेम का बदिा प्रेम है, कुवर साहब के साथ वह यह ननिमजज जीवन न व्यतीत कर
सकती थी।
ॉँ उन्हें ताराबाई के पींजे से छुडाना
उधर कुवर साहब के भाई बन्द भी गाकफि न थे, वे ककसी भ नत
चाहते थे। कहीीं कींु वर साहब का वववाह ठीक कर दे ना ही एक ऐसा उपाय था, क्जससे सफि होने की आशा
थी और यही उन िोगों ने ककया। उन्हें यह भय तो न था कक कींु वर साहब इस ऐक्रे स से वववाह करें गे। ह ,ॉँ
ए क क्षण के बाद तारा ने कहा—मैं तो ननराश हो चिी थी। आपने बढ़ी िम्बी परीक्षा िी।
वव
वाह का एक ददन और बाकी है । तारा को चारों ओर से बधाइय ॉँ लमि रही हैं। धथएटर के सभी स्त्री-
परु
ु षों ने अपनी सामथ्यम के अनस
ु ार उसे अच्छे -अच्छे उपहार ददये हैं, कुवर साहब ने भी आभष
ू णों से
ॉँ
सजा हुआ एक लसींगारदान भें ट ककया हैं, उनके दो-चार अींतरीं ग लमत्रों ने भ नत-भ ॉँ के सौगात भेजे हैं; पर
नत
तारा के सन्
ु दर मख
ु पर हषम की रे खा भी नहीीं नजर आती। वह क्षुब्ध और उदास है । उसके मन में चार ददनों
से ननरीं तर यही प्रश्न उठ रहा है —क्या कुवर के साथ ववश्वासघात करें ? क्जस प्रेम के दे वता ने उसके लिए
अपने कुि-मयामदा को नतिाींजलि दे दी, अपने बींधज
ु नों से नाता तोडा, क्जसका हृदय दहमकण के समान
ननष्किींक है, पवमत के समान ववशाि, उसी से कपट करे ! नहीीं, वह इतनी नीचता नहीीं कर सकती , अपने
जीवन में उसने ककतने ही यव
ु कों से प्रेम का अलभनय ककया था, ककतने ही प्रेम के मतवािों को वह सब्ज
बाग ददखा चकु ी थी, पर कभी उसके मन में ऐसी दवु वधा न हुई थी, कभी उसके हृदय ने उसका नतरस्कार न
ककया था। क्या इसका कारण इसके लसवा कुछ और था कक ऐसा अनरु ाग उसे और कहीीं न लमिा था।
यह पत्र लिखकर तारा ने मेज पर रख ददया, मोनतयों का हार गिे में डािा और बाहर ननकि आयी।
धथएटर हाि से सींगीत की ध्वनन आ रही थी। एक क्षण के लिए उसके पैर बध गये। पन्द्रह वषो का परु ाना
सम्बन्ध आज टूट रहा था। सहसा उसने मैनेजर को आते दे खा। उसका किेजा धक से हो गया। वह बडी
तेजी से िपककर दीवार की आड में खडी हो गयी। जयों ही मैनेजर ननकि गया, वह हाते के बाहर आयी
और कुछ दरू गलियों में चिने के बाद उसने गींगा का रास्ता पकडा।
गींगा-तट पर सन्नाटा छाया हुआ था। दस-प च ॉँ साध-ु बैरागी धनू नयों के सामने िेटे थे। दस-प च
ॉँ यात्री
ॉँ रें गती चिी जाती थी। एक छोटी-सी
कम्बि जमीन पर बबछाये सो रहे थे। गींगा ककसी ववशाि सपम की भ नत
नौका ककनारे पर िगी हुई थी। मल्िाहा नौका में बैठा हुआ था।
तारा ने मल्िाहा को पक ॉँ उस पार नाव िे चिेगा?
ु ारा—ओ म झी,
ॉँ ने जवाब ददया—इतनी रात गये नाव न जाई।
म झी
मगर दन ु कर उसे ड डॉँ उठाया और नाव को खोिता हुआ बोिा—सरकार, उस
ू ी मजदरू ी की बात सन
पार कह ॉँ जैहैं?
‘उस पार एक ग वॉँ में जाना है।’
‘मद
ु ा इतनी रात गये कौनों सवारी-लसकारी न लमिी।’
‘कोई हजम नहीीं, तुम मझे उस पर पहुचा दो।’
ॉँ ने नाव खोि दी। तारा उस पार जा बैठी और नौका मींद गनत से चिने िगी, मानों जीव स्वप्न-
म झी
साम्राजय में ववचर रहा हो।
ॉँ पथ्
इसी समय एकादशी का च द, ृ वी से उस पार, अपनी उजजवि नौका खेता हुआ ननकिा और व्योम-
सागर को पार करने िगा।
ईश्िरीय न्द्याय
मींु
ॉँ
शी सत्यनारायणिाि खखलसयाये हुए मकान पहुचे। िडके ने लमठाई म गी। उसे पीटा। स्त्री पर इसलिए
बरस पडे कक उसने क्यों िडके को उनके पास जाने ददया। अपनी वद् ृ धा माता को ड टॉँ कर कहा—
ॉँ घर आऊ
तुमसे इतना भी नहीीं हो सकता कक जरा िडके को बहिाओ? एक तो मैं ददन-भर का थका-म दा
और कफर िडके को खेिाऊ? मझ
ु े दनु नया में न और कोई काम है, न धींधा। इस तरह घर में बावैिा मचा कर
बाहर आये, सोचने िगे—मझ ु से बडी भि
ू हुई। मैं कैसा मख
ू म हू। और इतने ददन तक सारे कागज-पत्र अपने
हाथ में थे। चाहता, कर सकता था, पर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहा। आज लसर पर आ पडी, तो सझ ू ी। मैं
चाहता तो बही-खाते सब नये बना सकता था, क्जसमें इस ग वॉँ का और रुपये का क्जक्र ही न होता, पर मेरी
मखू त
म ा के कारण घर में आयी हुई िक्ष्मी रुठी जाती हैं। मझ
ु े क्या मािम
ू था कक वह चड
ु ि
ै मझ
ु से इस तरह
पेश आयेगी, कागजों में हाथ तक न िगाने दे गी।
इसी उधेडबन
ु में मींश
ु ी जी एकाएक उछि पडे। एक उपाय सझ
ू गया—क्यों न कायमकत्तामओीं को लमिा
ि?ू यद्यवप मेरी सख्ती के कारण वे सब मझ
ु से नाराज थे और इस समय सीधे बात भी न करें गे, तथावप
ु ठी में न आ जाय। ह ,ॉँ इसमें रुपये पानी की तरह बहाना पडेगा,
उनमें ऐसा कोई भी नहीीं, जो प्रिोभन से मठ्
पर इतना रुपया आयेगा कह ॉँ से? हाय दभ
ु ामग्य? दो-चार ददन पहिे चेत गया होता, तो कोई कदठनाई न पडती।
क्या जानता था कक वह डाइन इस तरह वज्र-प्रहार करे गी। बस, अब एक ही उपाय है । ककसी तरह कागजात
गुम कर द।ू बडी जोखखम का काम है, पर करना ही पडेगा।
दष्ु कामनाओीं के सामने एक बार लसर झक
ु ाने पर कफर सभिना कदठन हो जाता है । पाप के अथाह
दिदि में जह ॉँ एक बार पडे कक कफर प्रनतक्षण नीचे ही चिे जाते हैं। मींश
ु ी सत्यनारायण-सा ववचारशीि
मनष्ु य इस समय इस कफक्र में था कक कैसे सेंध िगा पाऊ!
मींश
ु ी जी ने सोचा—क्या सेंध िगाना आसान है? इसके वास्ते ककतनी चतुरता, ककतना साहब, ककतनी
बद्
ु वव, ककतनी वीरता चादहए! कौन कहता है कक चोरी करना आसान काम है ? मैं जो कहीीं पकडा गया, तो
मरने के लसवा और कोई मागम न रहे गा।
बहुत सोचने-ववचारने पर भी मींशु ी जी को अपने ऊपर ऐसा दस्
ु साहस कर सकने का ववश्वास न हो
सका। ह ,ॉँ इसमें सग
ु म एक दस
ू री तदबीर नजर आयी—क्यों न दफ्तर में आग िगा द?ू एक बोति लमट्टी का
तेि और ददयासिाई की जरुरत हैं ककसी बदमाश को लमिा ि,ू मगर यह क्या मािम
ू कक वही उसी कमरे में
रखी है या नहीीं। चड
ु ि
ै ने उसे जरुर अपने पास रख लिया होगा। नहीीं; आग िगाना गुनाह बेिजजत होगा।
बहुत दे र मींश
ु ी जी करवटें बदिते रहे । नये-नये मनसब
ू े सोचते; पर कफर अपने ही तको से काट दे ते।
वषामकाि में बादिों की नयी-नयी सरू तें बनती और कफर हवा के वेग से बबगड जाती हैं; वही दशा इस समय
उनके मनसब
ू ों की हो रही थी।
पर इस मानलसक अशाींनत में भी एक ववचार पण
ू रु
म प से क्स्थर था—ककसी तरह इन कागजात को अपने
हाथ में िाना चादहए। काम कदठन है—माना! पर दहम्मत न थी, तो रार क्यों मोि िी? क्या तीस हजार की
जायदाद दाि-भात का कौर है ?—चाहे क्जस तरह हो, चोर बने बबना काम नहीीं चि सकता। आखखर जो िोग
रा त के दस बज गये। मींश
द्वार पर थोडा-सा पआ
ु ी सत्यनाराण कींु क्जयों का एक गच्
ु छा कमर में दबाये घर से बाहर ननकिे।
ु ि रखा हुआ था। उसे दे खते ही वे चौंक पडे। मारे डर के छाती धडकने िगी।
जान पडा कक कोई नछपा बैठा है । कदम रुक गये। पआ
ु ि की तरफ ध्यान से दे खा। उसमें बबिकुि हरकत न
ॉँ आगे बडे और मन को समझाने िगे—मैं कैसा बौखि हू
हुई! तब दहम्मत ब धी,
अपने द्वार पर ककसका डर और सडक पर भी मझ ु े ककसका डर है? मैं अपनी राह जाता हू। कोई मेरी
तरफ नतरछी ऑ ींख से नहीीं दे ख सकता। ह ,ॉँ जब मझ
ु े सेंध िगाते दे ख िे—नहीीं, पकड िे तब अिबत्ते डरने
की बात है । नतस पर भी बचाव की यक्ु क्त ननकि सकती है ।
अकस्मात उन्होंने भानक
ु ु वरर के एक चपरासी को आते हुए दे खा। किेजा धडक उठा। िपक कर एक
ु गये। बडी दे र तक वह ॉँ खडे रहे । जब वह लसपाही ऑ ींखों से ओझि हो गया, तब कफर
अधेरी गिी में घस
सडक पर आये। वह लसपाही आज सब ु ाम था, उसे उन्होंने ककतनी ही बार गालिय ॉँ दी थीीं,
ु ह तक इनका गि
िातें मारी थीीं, पर आज उसे दे खकर उनके प्राण सख
ू गये।
उन्होंने कफर तकम की शरण िी। मैं मानों भींग खाकर आया हू। इस चपरासी से इतना डरा मानो कक
वह मझ ु े दे ख िेता, पर मेरा कर क्या सकता था? हजारों आदमी रास्ता चि रहे हैं। उन्हीीं में मैं भी एक हू।
क्या वह अींतयाममी है ? सबके हृदय का हाि जानता है ? मझु े दे खकर वह अदब से सिाम करता और वह ॉँ का
कुछ हाि भी कहता; पर मैं उससे ऐसा डरा कक सरू त तक न ददखायी। इस तरह मन को समझा कर वे आगे
बढ़े । सच है, पाप के पींजों में फसा हुआ मन पतझड का पत्ता है, जो हवा के जरा-से झोंके से धगर पडता है।
मींश
ु ी जी बाजार पहुचे। अधधकतर दक ु ी थीीं। उनमें स डॉँ और गायें बैठी हुई जग
ू ानें बींद हो चक ु ािी कर
रही थी। केवि हिवाइयों की दक
ू ानें खि ॉँ िगाते कफरते थे। सब
ु ी थी और कहीीं-कहीीं गजरे वािे हार की ह क
हिवाई मींश
ु ी जी को पहचानते थे, अतएव मींश
ु ी जी ने लसर झक
ु ा लिया। कुछ चाि बदिी और िपकते हुए
चिे। एकाएक उन्हें एक बग्घी आती ददखायी दी। यह सेठ बल्िभदास सवकीि की बग्घी थी। इसमें बैठकर
हजारों बार सेठ जी के साथ कचहरी गये थे, पर आज वह बग्घी कािदे व के समान भयींकर मािम ू हुई।
फौरन एक खािी दक ू ान पर चढ़ गये। वह ॉँ ववश्राम करने वािे स डॉँ ने समझा, वे मझ
ु े पदच्यत
ु करने आये हैं!
माथा झक
ु ाये फींु कारता हुआ उठ बैठा; पर इसी बीच में बग्घी ननकि गयी और मींश
ु ी जी की जान में जान
आयी। अबकी उन्होंने तकम का आश्रय न लिया। समझ गये कक इस समय इससे कोई िाभ नहीीं , खैररयत
यह हुई कक वकीि ने दे खा नहीीं। यह एक घाघ हैं। मेरे चेहरे से ताड जाता।
कुछ ववद्वानों का कथन है कक मनष्ु य की स्वाभाववक प्रववृ त्त पाप की ओर होती है, पर यह कोरा
अनम
ु ान ही अनम
ु ान है , अनभ
ु व-लसद्ध बात नहीीं। सच बात तो यह है कक मनष्ु य स्वभावत: पाप-भीरु होता है
और हम प्रत्यक्ष दे ख रहे हैं कक पाप से उसे कैसी घण
ृ ा होती है ।
एक फिािंग आगे चि कर मींश
ु ी जी को एक गिी लमिी। वह भानक
ु ु वरर के घर का एक रास्ता था।
धधिी-सी
ु िािटे न जि रही थी। जैसा मश
ींु ी जी ने अनम
ु ान ककया था, पहरे दार का पता न था। अस्तबि में
चमारों के यह ॉँ नाच हो रहा था। कई चमाररनें बनाव-लसींगार करके नाच रही थीीं। चमार मद
ृ ीं ग बजा-बजा कर
गाते थे—
‘नाहीीं घरे श्याम, घेरर आये बदरा।
सोवत रहे उ, सपन एक दे खेउ, रामा।
खलु ि गयी नीींद, ढरक गये कजरा।
नाहीीं घरे श्याम, घेरर आये बदरा।’
ींु ी जी दबे-प वॉँ िािटे न के पास गए और क्जस तरह बबल्िी
दोनों पहरे दार वही तमाशा दे ख रहे थे। मश
चह
ू े पर झपटती है, उसी तरह उन्होंने झपट कर िािटे न को बझ
ु ा ददया। एक पडाव परू ा हो गया, पर वे उस
कायम को क्जतना दष्ु कर समझते थे, उतना न जान पडा। हृदय कुछ मजबत
ू हुआ। दफ्तर के बरामदे में पहुचे
और खूब कान िगाकर आहट िी। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। केवि चमारों का कोिाहि सन ु ायी
ींु ी जी के ददि में धडकन थी, पर लसर धमधम कर रहा था; हाथ-प वॉँ क पॉँ रहे थे,
दे ता था। इस समय मश
ॉँ बडे वेग से चि रही थी। शरीर का एक-एक रोम ऑ ींख और कान बना हुआ था। वे सजीवता की मनू तम
सस
मींु
शी सतयनाराणिाि के घर में दो क्स्त्रय ॉँ थीीं—माता और पत्नी। वे दोनों अलशक्षक्षता थीीं। नतस पर भी
मींश
ु ी जी को गींगा में डूब मरने या कहीीं भाग जाने की जरुरत न होती थी ! न वे ब डी पहनती थी, न
मोजे-जूत,े न हारमोननयम पर गा सकती थी। यह ॉँ तक कक उन्हें साबन
ु िगाना भी न आता था। हे यरवपन,
िच
ु ज
े , जाकेट आदद परमावश्यक चीजों का तो नाम ही नहीीं सन ु ा था। बहू में आत्म-सम्मान जरा भी नहीीं था;
न सास में आत्म-गौरव का जोश। बहू अब तक सास की घड ु ककय ॉँ भीगी बबल्िी की तरह सह िेती थी—हा
मख ू े ! सास को बच्चे के नहिाने-धि ु ाने, यह ॉँ तक कक घर में झाडू दे ने से भी घण ृ ा न थी, हा ज्ञानाींधे! बहू
स्त्री क्या थी, लमट्टी का िोंदा थी। एक पैसे की जरुरत होती तो सास से म गती। ॉँ साराींश यह कक दोनों
क्स्त्रय ॉँ अपने अधधकारों से बेखबर, अींधकार में पडी हुई पशव ु त ् जीवन व्यतीत करती थीीं। ऐसी फूहड थी कक
रोदटयाीं भी अपने हाथों से बना िेती थी। कींजस ू ी के मारे दािमोट, समोसे कभी बाजार से न मगातीीं। आगरे
वािे की दक
ू ान की चीजें खायी होती तो उनका मजा जानतीीं। बदु ढ़या खस
ू ट दवा-दरपन भी जानती थी। बैठी-
बैठी घास-पात कूटा करती।
ु ी जी ने म ॉँ के पास जाकर कहा—अम्म ॉँ ! अब क्या होगा? भानक
मींश ु ु वरर ने मझ
ु े जवाब दे ददया।
माता ने घबरा कर पछ
ू ा—जवाब दे ददया?
ु ी—ह ,ॉँ बबिकुि बेकसरू !
मींश
माता—क्या बात हुई? भानक
ु ु वरर का लमजाज तो ऐसा न था।
ु ी—बात कुछ न थी। मैंने अपने नाम से जो ग वॉँ लिया था, उसे मैंने अपने अधधकार में कर लिया।
मींश
कि मझ ु से और उनसे साफ-साफ बातें हुई। मैंने कह ददया कक ग वॉँ मेरा है । मैंने अपने नाम से लिया है,
उसमें तम्
ु हारा कोई इजारा नहीीं। बस, बबगड गयीीं, जो मह
ु में आया, बकती रहीीं। उसी वक्त मझ
ु े ननकाि ददया
और धमका कर कहा—मैं तुमसे िड कर अपना ग वॉँ िे िगी।
ू अब आज ही उनकी तरफ से मेरे ऊपर
ु दमा दायर होगा; मगर इससे होता क्या है ? ग वॉँ मेरा है । उस पर मेरा कब्जा है । एक नहीीं, हजार मक
मक ु दमें
चिाएीं, डडगरी मेरी होगी?
माता ने बहू की तरफ ममािंतक दृक्ष्ट से दे खा और बोिी—क्यों भैया? वह ग वॉँ लिया तो था तुमने
उन्हीीं के रुपये से और उन्हीीं के वास्ते?
स त्यनाराण को अब अपनी जीत में कोई सन्दे ह न था। वादी पक्ष के गवाह भी उखड गये थे और बहस
भी सबत
ू से खािी थी। अब इनकी धगनती भी जमीींदारों में होगी और सम्भव है, यह कुछ ददनों में
रईस कहिाने िगें गे। पर ककसी न ककसी कारण से अब शहर के गणमान्य परु
ु षों से ऑ ींखें लमिाते शमामते थे।
उन्हें दे खते ही उनका लसर नीचा हो जाता था। वह मन में डरते थे कक वे िोग कहीीं इस ववषय पर कुछ
पछ
ू -ताछ न कर बैठें। वह बाजार में ननकिते तो दक
ू ानदारों में कुछ कानाफूसी होने िगती और िोग उन्हें
नतरछी दृक्ष्ट से दे खने िगते। अब तक िोग उन्हें वववेकशीि और सच्चररत्र मनष्ु य समझते, शहर के धनी-
मानी उन्हें इजजत की ननगाह से दे खते और उनका बडा आदर करते थे। यद्यवप मींश
ु ी जी को अब तक
इनसे टे ढ़ी-नतरछी सन
ु ने का सींयोग न पडा था, तथावप उनका मन कहता था कक सच्ची बात ककसी से नछपी
नहीीं है । चाहे अदाित से उनकी जीत हो जाय, पर उनकी साख अब जाती रही। अब उन्हें िोग स्वाथी, कपटी
और दगाबाज समझेंगे। दस
ू रों की बात तो अिग रही, स्वयीं उनके घरवािे उनकी उपेक्षा करते थे। बढ़
ू ी माता
ने तीन ददन से मह
ु में पानी नहीीं डािा! स्त्री बार-बार हाथ जोड कर कहती थी कक अपने प्यारे बािकों पर
दया करो। बरु े काम का फि कभी अच्छा नहीीं होता! नहीीं तो पहिे मझ
ु ी को ववष खखिा दो।
ु ाया जानेवािा था, प्रात:काि एक कींु जडडन तरकाररय ॉँ िेकर आयी और मींलु शयाइन
क्जस ददन फैसिा सन
से बोिी—
‘बहू जी! हमने बाजार में एक बात सन
ु ी है । बरु ा न मानों तो कहू? क्जसको दे खो, उसके मह
ु से यही
बात ननकिती है कक िािा बाबू ने जािसाजी से पींडडताइन का कोई हिका िे लिया। हमें तो इस पर यकीन
नहीीं आता। िािा बाबू ने न सभािा होता, तो अब तक पींडडताइन का कहीीं पता न िगता। एक अींगुि जमीन
न बचती। इन्हीीं में एक सरदार था कक सबको सभाि लिया। तो क्या अब उन्हीीं के साथ बदी करें गे? अरे बहू!
कोई कुछ साथ िाया है कक िे जायगा? यही नेक-बदी रह जाती है । बरु े का फि बरु ा होता है । आदमी न
दे खे, पर अल्िाह सब कुछ दे खता है ।’
बहू जी पर घडों पानी पड गया। जी चाहता था कक धरती फट जाती, तो उसमें समा जाती। क्स्त्रय ॉँ
स्वभावत: िजजावती होती हैं। उनमें आत्मालभमान की मात्रा अधधक होती है। ननन्दा-अपमान उनसे सहन
नहीीं हो सकता है। लसर झकु ाये हुए बोिी—बआ
ु ! मैं इन बातों को क्या जान?ू मैंने तो आज ही तम्
ु हारे मह
ु से
ु ी है । कौन-सी तरकाररय ॉँ हैं?
सन
मींश
ु ी सत्यनारायण अपने कमरे में िेटे हुए कींु जडडन की बातें सन
ु रहे थे, उसके चिे जाने के बाद
आकर स्त्री से पछ
ू ने िगे—यह शैतान की खािा क्या कह रही थी।
स्त्री ने पनत की ओर से मींह
ु फेर लिया और जमीन की ओर ताकते हुए बोिी—क्या तुमने नहीीं सन ु ा?
तुम्हारा गुन-गान कर रही थी। तुम्हारे पीछे दे खो, ककस-ककसके मह
ु से ये बातें सन
ु नी पडती हैं और ककस-
ककससे मह
ु नछपाना पडता है ।
मींश
ु ी जी अपने कमरे में िौट आये। स्त्री को कुछ उत्तर नहीीं ददया। आत्मा िजजा से परास्त हो गयी।
जो मनष्ु य सदै व सवम-सम्माननत रहा हो; जो सदा आत्मालभमान से लसर उठा कर चिता रहा हो, क्जसकी
सक
ु ृ नत की सारे शहर में चचाम होती हो, वह कभी सवमथा िजजाशन्
ू य नहीीं हो सकता; िजजा कुपथ की सबसे
बडी शत्रु है। कुवासनाओीं के भ्रम में पड कर मींश
ु ी जी ने समझा था, मैं इस काम को ऐसी गप्ु त-रीनत से परू ा
कर िे जाऊगा कक ककसी को कानों-कान खबर न होगी, पर उनका यह मनोरथ लसद्ध न हुआ। बाधाऍ ीं आ
खडी हुई। उनके हटाने में उन्हें बडे दस्
ु साहस से काम िेना पडा; पर यह भी उन्होंने िजजा से बचने के
ननलमत्त ककया। क्जसमें यह कोई न कहे कक अपनी स्वालमनी को धोखा ददया। इतना यत्न करने पर भी ननींदा
से न बच सके। बाजार का सौदा बेचनेवालिय ॉँ भी अब अपमान करतीीं हैं। कुवासनाओीं से दबी हुई िजजा-
शक्क्त इस कडी चोट को सहन न कर सकी। मींश ु ी जी सोचने िगे, अब मझु े धन-सम्पवत्त लमि जायगी,
ऐश्वयमवान ् हो जाऊगा, परन्तु ननन्दा से मेरा पीछा न छूटे गा। अदाित का फैसिा मझ
ु े िोक-ननन्दा से न बचा
सकेगा। ऐश्वयम का फि क्या है ?—मान और मयामदा। उससे हाथ धो बैठा, तो ऐश्वयम को िेकर क्या करुगा?
ममता
बा बू रामरक्षादास ददल्िी के एक ऐश्वयमशािी खत्री थे, बहुत ही ठाठ-बाट से रहनेवािे। बडे-बडे अमीर
उनके यह ॉँ ननत्य आते-आते थे। वे आयें हुओीं का आदर-सत्कार ऐसे अच्छे ढीं ग से करते थे कक इस
बात की धम
ू सारे मह
ु ल्िे में थी। ननत्य उनके दरवाजे पर ककसी न ककसी बहाने से इष्ट-लमत्र एकत्र हो जाते,
टे ननस खेिते, ताश उडता, हारमोननयम के मधरु स्वरों से जी बहिाते, चाय-पानी से हृदय प्रफुक्ल्ित करते,
अधधक और क्या चादहए? जानत की ऐसी अमल्
ू य सेवा कोई छोटी बात नहीीं है। नीची जानतयों के सध
ु ार के
लिये ददल्िी में एक सोसायटी थी। बाबू साहब उसके सेक्रेटरी थे, और इस कायम को असाधारण उत्साह से पण
ू म
करते थे। जब उनका बढ़ ू ा कहार बीमार हुआ और कक्रक्श्चयन लमशन के डाक्टरों ने उसकी सश्र
ु ष ु ा की, जब
उसकी ववधवा स्त्री ने ननवामह की कोई आशा न दे ख कर कक्रक्श्चयन-समाज का आश्रय लिया, तब इन दोनों
अवसरों पर बाबू साहब ने शोक के रे जल्यश
ू न्स पास ककये। सींसार जानता है कक सेक्रेटरी का काम सभाऍ ीं
करना और रे जल्यश
ू न बनाना है। इससे अधधक वह कुछ नहीीं कर सकता।
लमस्टर रामरक्षा का जातीय उत्साह यही तक सीमाबद्ध न था। वे सामाक्जक कुप्रथाओीं तथा अींध-
ववश्वास के प्रबि शत्रु थे। होिी के ददनों में जब कक मह
ु ल्िे में चमार और कहार शराब से मतवािे होकर
फाग गाते और डफ बजाते हुए ननकिते, तो उन्हें , बडा शोक होता। जानत की इस मख
ू त
म ा पर उनकी ऑ ींखों में
ऑ ींसू भर आते और वे प्रात: इस कुरीनत का ननवारण अपने हीं टर से ककया करते। उनके हीं टर में जानत-
दहतैवषता की उमींग उनकी वक्तत
ृ ा से भी अधधक थी। यह उन्हीीं के प्रशींसनीय प्रयत्न थे, क्जन्होंने मख्
ु य होिी
के ददन ददल्िी में हिचि मचा दी, फाग गाने के अपराध में हजारों आदमी पलु िस के पींजे में आ गये।
सैकडों घरों में मख्
ु य होिी के ददन मह
ु रम म का-सा शोक फैि गया। इधर उनके दरवाजे पर हजारों परु
ु ष-
क्स्त्रय ॉँ अपना दख
ु डा रो रही थीीं। उधर बाबू साहब के दहतैषी लमत्रगण अपने उदारशीि लमत्र के सद्व्यवहार
की प्रशींसा करते। बाबू साहब ददन-भर में इतने रीं ग बदिते थे कक उस पर ‘पेररस’ की पररयों को भी ईष्याम
ु ानें थीीं; ककींतु बाबू साहब को इतना अवकाश न था कक
हो सकती थी। कई बैंकों में उनके दहस्से थे। कई दक
उनकी कुछ दे खभाि करते। अनतधथ-सत्कार एक पववत्र धमम है । ये सच्ची दे शदहतैवषता की उमींग से कहा
करते थे—अनतधथ-सत्कार आददकाि से भारतवषम के ननवालसयों का एक प्रधान और सराहनीय गुण है ।
अभ्यागतों का आदर-सम्मान करनें में हम अद्ववतीय हैं। हम इससे सींसार में मनष्ु य कहिाने योग्य हैं। हम
सब कुछ खो बैठे हैं, ककन्तु क्जस ददन हममें यह गण
ु शेष न रहे गा; वह ददन दहींद-ू जानत के लिए िजजा,
अपमान और मत्ृ यु का ददन होगा।
लमस्टर रामरक्षा जातीय आवश्यकताओीं से भी बेपरवाह न थे। वे सामाक्जक और राजनीनतक कायो में
पण म पेण योग दे ते थे। यह ॉँ तक कक प्रनतवषम दो, बक्ल्क कभी-कभी तीन वक्तत
ू रु ृ ाऍ ीं अवश्य तैयार कर िेते।
भाषणों की भाषा अत्यींत उपयक्
ु त, ओजस्वी और सवािंग सींद
ु र होती थी। उपक्स्थत जन और इष्टलमत्र उनके
ू क शब्दों की ध्वनन प्रकट करते, तालिय ॉँ बजाते, यह ॉँ तक कक बाबू साहब को
एक-एक शब्द पर प्रशींसासच
व्याख्यान का क्रम क्स्थर रखना कदठन हो जाता। व्याख्यान समाप्त होने पर उनके लमत्र उन्हें गोद में उठा
िेते और आश्चयमचककत होकर कहते—तेरी भाषा में जाद ू है ! साराींश यह कक बाबू साहब के यह जातीय प्रेम
और उद्योग केवि बनावटी, सहायता-शन्
ू य तथ फैशनेबबि था। यदद उन्होंने ककसी सदद्
ु योग में भाग लिया
था, तो वह सक्म्मलित कुटुम्ब का ववरोध था। अपने वपता के पश्चात वे अपनी ववधवा म ॉँ से अिग हो गए
थे। इस जातीय सेवा में उनकी स्त्री ववशेष सहायक थी। ववधवा म ॉँ अपने बेटे और बहू के साथ नहीीं रह
सकती थी। इससे बहू की सवाधीनता में ववघ्न पडने से मन दब
ु ि
म और मक्स्तष्क शक्क्तहीन हो जाता है । बहू
को जिाना और कुढ़ाना सास की आदत है । इसलिए बाबू रामरक्षा अपनी म ॉँ से अिग हो गये थे। इसमें
सींदेह नहीीं कक उन्होंने मात-ृ ऋण का ववचार करके दस हजार रुपये अपनी म ॉँ के नाम जमा कर ददये थे, कक
उसके ब्याज से उनका ननवामह होता रहे ; ककींतु बेटे के इस उत्तम आचरण पर म ॉँ का ददि ऐसा टूटा कक वह
ददल्िी छोडकर अयोध्या जा रहीीं। तब से वहीीं रहती हैं। बाबू साहब कभी-कभी लमसेज रामरक्षा से नछपकर
उससे लमिने अयोध्या जाया करते थे, ककींतु वह ददल्िी आने का कभी नाम न िेतीीं। ह ,ॉँ यदद कुशि-क्षेम की
धचट्ठी पहुचने में कुछ दे र हो जाती, तो वववश होकर समाचार पछ
ू दे ती थीीं।
रो
गी को जब जीने की आशा नहीीं रहती, तो औषधध छोड दे ता है । लमस्टर रामरक्षा जब इस गुत्थी को न
सि ु िपेट कर सो रहे । शाम को एकाएक उठ कर सेठ जी के यह ॉँ
ु झा सके, तो चादर तान िी और मह
पहुचे और कुछ असावधानी से बोिे—महाशय, मैं आपका दहसाब नहीीं कर सकता।
सेठ जी घबरा कर बोिे—क्यों?
रामरक्षा—इसलिए कक मैं इस समय दररद्र-ननहीं ग हू। मेरे पास एक कौडी भी नहीीं है। आप का रुपया
जैसे चाहें वसि
ू कर िें।
सेठ—यह आप कैसी बातें कहते हैं?
रामरक्षा—बहुत सच्ची।
सेठ—दक ु ानें नहीीं हैं?
रामरक्षा—दक
ु ानें आप मफ्
ु त िो जाइए।
सेठ—बैंक के दहस्से?
रामरक्षा—वह कब के उड गये।
सेठ—जब यह हाि था, तो आपको उधचत नहीीं था कक मेरे गिे पर छुरी फेरते?
रामरक्षा—(अलभमान) मैं आपके यह ॉँ उपदे श सन
ु ने के लिए नहीीं आया हू।
यह कह कर लमस्टर रामरक्षा वह ॉँ से चि ददए। सेठ जी ने तरु न्त नालिश कर दी। बीस हजार मि
ू ,
ॉँ हजार ब्याज। डडगरी हो गयी। मकान नीिाम पर चढ़ा। पन्द्रह हजार की जायदाद प च
पच ॉँ हजार में ननकि
गयी। दस हजार की मोटर चार हजार में बबकी। सारी सम्पवत्त उड जाने पर कुि लमिा कर सोिह हजार से
अधधक रमक न खडी हो सकी। सारी गह
ृ स्थी नष्ट हो गयी, तब भी दस हजार के ऋणी रह गये। मान-बडाई,
धन-दौित सभी लमट्टी में लमि गये। बहुत तेज दौडने वािा मनष्ु य प्राय: मह
ु के बि धगर पडता है।
से
ठ धगरधारीिाि इस अन्योक्क्तपणू म भाषण का हाि सन ु कर क्रोध से आग हो गए। मैं बेईमान हू!
ब्याज का धन खानेवािा हू! ववषयी हू! कुशि हुई, जो तुमने मेरा नाम नहीीं लिया; ककींतु अब भी तुम
मेरे हाथ में हो। मैं अब भी तम्
ु हें क्जस तरह चाहू, नचा सकता हू। खश ु ामददयों ने आग पर तेि डािा। इधर
रामरक्षा अपने काम में तत्पर रहे । यह ॉँ तक कक ‘वोदटींग-डे’ आ पहुचा। लमस्टर रामरक्षा को उद्योग में बहुत
कुछ सफिता प्राप्त हुई थी। आज वे बहुत प्रसन्न थे। आज धगरधारीिाि को नीचा ददखाऊगा, आज उसको
जान पडेगा कक धन सींसार के सभी पदाथो को इकट्ठा नहीीं कर सकता। क्जस समय फैजुिरहमान के वोट
अधधक ननकिेंगे और मैं तालिय ॉँ बजाऊगा, उस समय धगरधारीिाि का चेहरा दे खने योग्य होगा, मह
ु का रीं ग
बदि जायगा, हवाइय ॉँ उडने िगेगी, ऑ ींखें न लमिा सकेगा। शायद, कफर मझ
ु े मह
ु न ददखा सके। इन्हीीं ववचारों
में मग्न रामरक्षा शाम को टाउनहाि में पहुचे। उपक्स्थत जनों ने बडी उमींग के साथ उनका स्वागत ककया।
थोडी दे र के बाद ‘वोदटींग’ आरम्भ हुआ। मेम्बरी लमिने की आशा रखनेवािे महानभ ु ाव अपने-अपने भाग्य का
अींनतम फि सन
ु ने के लिए आतुर हो रहे थे। छह बजे चेयरमैन ने फैसिा सन
ु ाया। सेठ जी की हार हो गयी।
फैजि
ु रहमान ने मैदान मार लिया। रामरक्षा ने हषम के आवेग में टोपी हवा में उछाि दी और स्वयीं भी कई
बार उछि पडे। महु ल्िेवािों को अचम्भा हुआ। च दनी चौक से सेठ जी को हटाना मेरु को स्थान से उखाडना
था। सेठ जी के चेहरे से रामरक्षा को क्जतनी आशाऍ ीं थीीं, वे सब परू ी हो गयीीं। उनका रीं ग फीका पड गया था।
खेद और िजजा की मनू तम बने हुए थे। एक वकीि साहब ने उनसे सहानभ ु नू त प्रकट करते हुए कहा—सेठ जी,
ु े आपकी हार का बहुत बडा शोक है । मैं जानता कक खुशी के बदिे रीं ज होगा, तो कभी यह ॉँ न आता। मैं
मझ
तो केवि आपके ख्याि से यह ॉँ आया था। सेठ जी ने बहुत रोकना चाहा, परीं तु ऑ ींखों में ऑ ींसू डबडबा ही
गये। वे नन:स्पह
ृ बनाने का व्यथम प्रयत्न करके बोिे—वकीि साहब, मझ
ु े इसकी कुछ धचींता नहीीं, कौन
ररयासत ननकि गयी? व्यथम उिझन, धचींता तथा झींझट रहती थी, चिो, अच्छा हुआ। गिा छूटा। अपने काम
में हरज होता था। सत्य कहता हू, मझ
ु े तो हृदय से प्रसन्नता ही हुई। यह काम तो बेकाम वािों के लिए है,
घर न बैठे रहे , यही बेगार की। मेरी मख
ू त
म ा थी कक मैं इतने ददनों तक ऑ ींखें बींद ककये बैठा रहा। परीं तु सेठ
जी की मख
ु ाकृनत ने इन ववचारों का प्रमाण न ददया। मख
ु मींडि हृदय का दपमण है, इसका ननश्चय अिबत्ता हो
गया।
ककींतु बाबू रामरक्षा बहुत दे र तक इस आनन्द का मजा न िट ू ने पाये और न सेठ जी को बदिा िेने
के लिए बहुत दे र तक प्रतीक्षा करनी पडी। सभा ववसक्जमत होते ही जब बाबू रामरक्षा सफिता की उमींग में
ऐींठतें , मोंछ पर ताव दे ते और चारों ओर गवम की दृक्ष्ट डािते हुए बाहर आये, तो दीवानी की तीन लसपादहयों
ने आगे बढ़ कर उन्हें धगरफ्तारी का वारीं ट ददखा ददया। अबकी बाबू रामरक्षा के चेहरे का रीं ग उतर जाने की,
और सेठ जी के इस मनोवाींनछत दृश्य से आनन्द उठाने की बारी थी। धगरधारीिाि ने आनन्द की उमींग में
तालिय ॉँ तो न बजायीीं, परीं तु मस्
ु करा कर मह
ु फेर लिया। रीं ग में भींग पड गया।
आज इस ववषय के उपिक्ष्य में मींश ु ी फैजि
ु रहमान ने पहिे ही से एक बडे समारोह के साथ गाडमन
पाटी की तैयाररय ीं की थीीं। लमस्टर रामरक्षा इसके प्रबींधकत्ताम थे। आज की ‘आफ्टर डडनर’ स्पीच उन्होंने बडे
पररश्रम से तैयार की थी; ककींतु इस वारीं ट ने सारी कामनाओीं का सत्यानाश कर ददया। यों तो बाबू साहब के
लमत्रों में ऐसा कोई भी न था, जो दस हजार रुपये जमानत दे दे ता; अदा कर दे ने का तो क्जक्र ही कया; ककींतु
कदाधचत ऐसा होता भी तो सेठ जी अपने को भाग्यहीन समझते। दस हजार रुपये और म्यनु नस्पैलिटी की
प्रनतक्ष्ठत मेम्बरी खोकर इन्हें इस समय यह हषम हुआ था।
लमस्टर रामरक्षा के घर पर जयोंही यह खबर पहुची, कुहराम मच गया। उनकी स्त्री पछाड खा कर
पथ्
ृ वी पर धगर पडी। जब कुछ होश में आयी तो रोने िगी। और रोने से छुट्टी लमिी तो उसने धगरधारीिाि
इ
सके तीसरे ददन सेठ धगरधारीिाि पज ू ा के आसन पर बैठे हुए थे, महरा ने आकर कहा—सरकार, कोई
स्त्री आप से लमिने आयी है । सेठ जी ने पछू ा—कौन स्त्री है ? महरा ने कहा—सरकार, मझ
ु े क्या मािम
ू ?
िेककन है कोई भिेमानस ु ! रे शमी साडी पहने हुए हाथ में सोने के कडे हैं। पैरों में टाट के स्िीपर हैं। बडे घर
की स्त्री जान पडती हैं।
यों साधारणत: सेठ जी पज
ू ा के समय ककसी से नहीीं लमिते थे। चाहे कैसा ही आवश्यक काम क्यों न
हो, ईश्वरोपासना में सामाक्जक बाधाओीं को घस
ु ने नहीीं दे ते थे। ककन्तु ऐसी दशा में जब कक ककसी बडे घर की
स्त्री लमिने के लिए आये, तो थोडी दे र के लिए पज
ू ा में वविम्ब करना ननींदनीय नहीीं कहा जा सकता, ऐसा
ववचार करके वे नौकर से बोिे—उन्हें बि
ु ा िाओीं
जब वह स्त्री आयी तो सेठ जी स्वागत के लिए उठ कर खडे हो गये। तत्पश्चात अत्यींत कोमि वचनों
के कारुखणक शब्दों से बोिे—माता, कह ॉँ से आना हुआ? और जब यह उत्तर लमिा कक वह अयोध्या से आयी
है , तो आपने उसे कफर से दीं डवत ककया और चीनी तथा लमश्री से भी अधधक मधरु और नवनीत से भी
अधधक धचकने शब्दों में कहा—अच्छा, आप श्री अयोध्या जी से आ रही हैं? उस नगरी का क्या कहना!
दे वताओीं की परु ी हैं। बडे भाग्य थे कक आपके दशमन हुए। यह ॉँ आपका आगमन कैसे हुआ? स्त्री ने उत्तर
ददया—घर तो मेरा यहीीं है । सेठ जी का मख ु पनु : मधरु ता का धचत्र बना। वे बोिे—अच्छा, तो मकान आपका
इसी शहर में है? तो आपने माया-जींजाि को त्याग ददया? यह तो मैं पहिे ही समझ गया था। ऐसी पववत्र
आत्माऍ ीं सींसार में बहुत थोडी हैं। ऐसी दे ववयों के दशमन दि
ु भ
म होते हैं। आपने मझ
ु े दशमन ददया, बडी कृपा की।
मैं इस योग्य नहीीं, जो आप-जैसी ववदवु षयों की कुछ सेवा कर सकू? ककींतु जो काम मेरे योग्य हो—जो कुछ
मंत्र
सीं
ध्या का समय था। डाक्टर चड्ढा गोल्फ खेिने के लिए तैयार हो रहे थे। मोटर द्वार के सामने खडी
थी कक दो कहार एक डोिी लिये आते ददखायी ददये। डोिी के पीछे एक बढ़
ू ा िाठी टे कता चिा आता
था। डोिी औषाधािय के सामने आकर रूक गयी। बढ़ ॉँ
ू े ने धीरे -धीरे आकर द्वार पर पडी हुई धचक से झ का।
क
ई साि गज
ु र गये। डाक्टर चडढा ने खूब यश और धन कमाया; िेककन इसके साथ ही अपने स्वास्थ्य
की रक्षा भी की, जो एक साधारण बात थी। यह उनके ननयलमत जीवन का आशीवाद था कक पचास वषम
की अवस्था में उनकी चस्
ु ती और फुती यव
ु कों को भी िक्जजत करती थी। उनके हरएक काम का समय
ननयत था, इस ननयम से वह जौ-भर भी न टिते थे। बहुधा िोग स्वास्थ्य के ननयमों का पािन उस समय
करते हैं, जब रोगी हो जाते हें । डाक्टर चड्ढा उपचार और सींयम का रहस्य खब
ू समझते थे। उनकी सींतान-
सींध्या भी इसी ननयम के अधीन थी। उनके केवि दो बच्चे हुए, एक िडका और एक िडकी। तीसरी सींतान
न हुई, इसीलिए श्रीमती चड्ढा भी अभी जवान मािम
ू होती थीीं। िडकी का तो वववाह हो चक
ु ा था। िडका
कािेज में पढ़ता था। वही माता-वपता के जीवन का आधार था। शीि और ववनय का पत
ु िा, बडा ही रलसक,
बडा ही उदार, ववद्यािय का गौरव, यव
ु क-समाज की शोभा। मख
ु मींडि से तेज की छटा-सी ननकिती थी।
आज उसकी बीसवीीं सािधगरह थी।
सींध्या का समय था। हरी-हरी घास पर कुलसमय ॉँ बबछी हुई थी। शहर के रईस और हुक्काम एक तरफ,
कािेज के छात्र दसू री तरफ बैठे भोजन कर रहे थे। बबजिी के प्रकाश से सारा मैदान जगमगा रहा था।
दो
बज गये थे। मेहमान ववदा हो गये। रोने वािों में केवि आकाश के तारे रह गये थे। और सभी रो-रो
कर थक गये थे। बडी उत्सक
ु ता के साथ िोग रह-रह आकाश की ओर दे खते थे कक ककसी तरह सदु ह
हो और िाश गींगा की गोद में दी जाय।
सहसा भगत ने द्वार पर पहुच कर आवाज दी। डाक्टर साहब समझे, कोई मरीज आया होगा। ककसी
और ददन उन्होंने उस आदमी को दत्ु कार ददया होता; मगर आज बाहर ननकि आये। दे खा एक बढ़
ू ा आदमी
खडा है—कमर झक ु भौहे तक सफेद हो गयी थीीं। िकडी के सहारे क पॉँ रहा था। बडी नम्रता
ु ी हुई, पोपिा मह,
से बोिे—क्या है भई, आज तो हमारे ऊपर ऐसी मस ु ीबत पड गयी है कक कुछ कहते नहीीं बनता, कफर कभी
आना। इधर एक महीना तक तो शायद मै ककसी भी मरीज को न दे ख सकूगा।
भगत ने कहा—सन ु ा हू बाबू जी, इसीलिए आया हू। भैया कह ॉँ है? जरा मझ
ु चक ु े ददखा दीक्जए।
भगवान बडा कारसाज है, मरु दे को भी क्जिा सकता है। कौन जाने, अब भी उसे दया आ जाय।
चडढा ने व्यधथत स्वर से कहा—चिो, दे ख िो; मगर तीन-चार घींटे हो गये। जो कुछ होना था, हो चक
ु ा।
बहुतेर झाडने-फकने वािे दे ख-दे ख कर चिे गये।
डाक्टर साहब को आशा तो क्या होती। ह ॉँ बढ
ू े पर दया आ गयी। अन्दर िे गये। भगत ने िाश को
एक लमनट तक दे खा। तब मस्
ु करा कर बोिा—अभी कुछ नहीीं बबगडा है, बाबू जी! यह नारायण चाहें गे, तो
आध घींटे में भैया उठ बैठेगे। आप नाहक ददि छोटा कर रहे है । जरा कहारों से कदहए, पानी तो भरें ।
कहारों ने पानी भर-भर कर कैिाश को नहिाना शरू
ु ककयाीं पाइप बन्द हो गया था। कहारों की सींख्या
अधधक न थी, इसलिए मेहमानों ने अहाते के बाहर के कुऍ ीं से पानी भर-भर कर कहानों को ददया, मण
ृ ालिनी
किासा लिए पानी िा रही थी। बढ़
ु ा भगत खडा मस्
ु करा-मस्
ु करा कर मींत्र पढ़ रहा था, मानो ववजय उसके
सामने खडी है । जब एक बार मींत्र समाप्त हो जाता, वब वह एक जडी कैिाश के लसर पर डािे गये और न-
जाने ककतनी बार भगत ने मींत्र फूका। आखखर जब उषा ने अपनी िाि-िाि ऑ ींखें खोिीीं तो केिाश की भी
ॉँ
िाि-िाि ऑ ींखें खुि गयी। एक क्षण में उसने अींगडाई िी और पानी पीने को म गा। डाक्टर चडढा ने दौड
कर नारायणी को गिे िगा लिया। नारायणी दौडकर भगत के पैरों पर धगर पडी और मणालिनी कैिाश के
सामने ऑ ींखों में ऑ ींस-ू भरे पछ
ू ने िगी—अब कैसी तबबयत है!
एक क्षण ् में चारों तरफ खबर फैि गयी। लमत्रगण मब
ु ारकवाद दे ने आने िगे। डाक्टर साहब बडे
श्रद्धा-भाव से हर एक के हसामने भगत का यश गाते कफरते थे। सभी िोग भगत के दशमनों के लिए उत्सक
ु
हो उठे ; मगर अन्दर जा कर दे खा, तो भगत का कहीीं पता न था। नौकरों ने कहा—अभी तो यहीीं बैठे धचिम
पी रहे थे। हम िोग तमाखू दे ने िगे, तो नहीीं िी, अपने पास से तमाखू ननकाि कर भरी।
यह ॉँ तो भगत की चारों ओर तिाश होने िगी, और भगत िपका हुआ घर चिा जा रहा था कक बदु ढ़या
के उठने से पहिे पहुच जाऊ!
जब मेहमान िोग चिे गये, तो डाक्टर साहब ने नारायणी से कहा—बड
ु ढा न-जाने कहा चिा गया।
एक धचिम तमाखू का भी रवादार न हुआ।
प्रायजश्चत
द फ्तर में जरा दे र से आना अफसरों की शान है । क्जतना ही बडा अधधकारी होता है , उत्तरी ही दे र में
आता है; और उतने ही सबेरे जाता भी है । चपरासी की हाक्जरी चौबीसों घींटे की। वह छुट्टी पर भी नहीीं
जा सकता। अपना एवज दे ना पडता हे । खैर, जब बरे िी क्जिा-बोडम के हे ड क्िकम बाबू मदारीिाि ग्यारह बजे
दफ्तर आये, तब मानो दफ्तर नीींद से जाग उठा। चपरासी ने दौड कर पैरगाडी िी, अरदिी ने दौडकर कमरे
की धचक उठा दी और जमादार ने डाक की ककश्त मेज जर िा कर रख दी। मदारीिाि ने पहिा ही सरकारी
लिफाफा खोिा था कक उनका रीं ग फक हो गया। वे कई लमनट तक आश्चयामक्न्वत हाित में खडे रहे , मानो
सारी ज्ञानेक्न्द्रय ॉँ लशधथि हो गयी हों। उन पर बडे-बडे आघात हो चक
ु े थे; पर इतने बहदवास वे कभी न हुए
थे। बात यह थी कक बोडम के सेक्रेटरी की जो जगह एक महीने से खािी थी, सरकार ने सब ु ोधचन्द्र को वह
जगह दी थी और सब
ु ोधचन्द्र वह व्यक्क्त था, क्जसके नाम ही से मदारीिाि को घण
ृ ा थी। वह सब
ु ोधचन्द्र, जो
उनका सहपाठी था, क्जस जक दे ने को उन्होंने ककतनी ही चेष्टा की; पर कभरी सफि न हुए थे। वही सबु ोध
आज उनका अफसर होकर आ रहा था। सब ु ोध की इधर कई सािों से कोई खबर न थी। इतना मािम ू था
कक वह फौज में भरती हो गया था। मदारीिाि ने समझा—वहीीं मर गया होगा; पर आज वह मानों जी उठा
और सेक्रेटरी होकर आ रहा था। मदारीिाि को उसकी मातहती में काम करना पडेगा। इस अपमान से तो
मर जाना कहीीं अच्छा था। सब
ु ोध को स्कूि और कािेज की सारी बातें अवश्य ही याद होंगी। मदारीिाि ने
उसे कािेज से ननकिवा दे ने के लिए कई बार मींत्र चिाए, झठ
ू े आरोज ककये, बदनाम ककया। क्या सब
ु ोध सब
कुछ भि
ू गया होगा? नहीीं, कभी नहीीं। वह आते ही परु ानी कसर ननकािेगा। मदारी बाबू को अपनी प्राणरक्षा
का कोई उपाय न सझ
ू ता था।
मदारी और सब ु ोध के ग्रहों में ही ववरोध थाीं दोनों एक ही ददन, एक ही शािा में भरती हुए थे, और
पहिे ही ददन से ददि में ईष्याम और द्वेष की वह धचनगारी पड गयी, जो आज बीस वषम बीतने पर भी न
बझ
ु ी थी। सब
ु ोध का अपराध यही था कक वह मदारीिाि से हर एक बात में बढ़ा हुआ थाीं डी-डौि,
इ
सके एक सप्ताह बाद सब
ु ोधचन्द्र गाडी से उतरे , तब स्टे शन पर दफ्तर के सब कममचाररयों को हाक्जर
पाया। सब उनका स्वागत करने आये थे। मदारीिाि को दे खते ही सब
ु ोध िपक कर उनके गिे से
लिपट गये और बोिे—तुम खूब लमिे भाई। यह ॉँ कैसे आये? ओह! आज एक यग ु के बाद भें ट हुई!
मदारीिाि बोिे—यह ॉँ क्जिा-बोडम के दफ्तर में हे ड क्िकम हू। आप तो कुशि से है?
सब
ु ोध—अजी, मेरी न पछ ीं
ू ो। बसरा, फ्राींस, लमश्र और न-जाने कह -कह ॉँ मारा-मारा कफरा। तम
ु दफ्तर में
हो, यह बहुत ही अच्छा हुआ। मेरी तो समझ ही मे न आता था कक कैसे काम चिेगा। मैं तो बबिकुि कोरा
हू; मगर जह ॉँ जाता हू, मेरा सौभाग्य ही मेरे साथ जाता है । बसरे में सभी अफसर खश
ू थे। फाींस में भी खूब
चैन ककये। दो साि में कोई पचीस हजार रूपये बना िाया और सब उडा ददया। त ॉँ से आकर कुछ ददनों को-
आपरे शन दफ्तर में मटरगश्त करता रहा। यह ॉँ आया तब तुम लमि गये। (क्िको को दे ख कर) ये िोग कौन
हैं?
मदारीिाि के हृदय में बनछीं या-सी चि रही थीीं। दष्ु ट पचीस हजार रूपये बसरे में कमा िाया! यह ॉँ
किम नघसते-नघसते मर गये और पाच सौ भी न जमा कर सके। बोिे—कममचारी हें । सिाम करने आये है।
सबोध ने उन सब िोगों से बारी-बारी से हाथ लमिाया और बोिा—आप िोगों ने व्यथम यह कष्ट
ककया। बहुत आभारी हू। मझ
ु े आशा हे कक आप सब सजजनों को मझ
ु से कोई लशकायत न होगी। मझ
ु े अपना
अफसर नहीीं, अपना भाई समखझए। आप सब िोग लमि कर इस तरह काम कीक्जए कक बोडम की नेकनामी हो
और मैं भी सख
ु रूम रहू। आपके हे ड क्िकम साहब तो मेरे परु ाने लमत्र और िगोदटया यार है ।
एक वाकचतरु क्िक्र ने कहा—हम सब हुजरू के ताबेदार हैं। यथाशक्क्त आपको असींतुष्ट न करें गे;
िेककनह आदमी ही है , अगर कोई भि ू हो भी जाय, तो हुजरू उसे क्षमा करें गे।
ु ोध ने नम्रता से कहा—यही मेरा लसद्धान्त है और हमेशा से यही लसद्धान्त रहा है। जह ॉँ रहा,
सब
मतहतों से लमत्रों का-सा बतामव ककया। हम और आज दोनों ही ककसी तीसरे के गुिाम हैं। कफर रोब कैसा और
अफसरी कैसी? ह ,ॉँ हमें नेकनीयत के साथ अपना कतमव्य पािन करना चादहए।
जब सब
ु ोध से ववदा होकर कममचारी िोग चिे, तब आपस में बातें होनी िगीीं—
‘आदमी तो अच्छा मािम
ू होता है ।‘
‘हे ड क्िकम के कहने से तो ऐसा मािम
ू होता था कक सबको कच्चा ही खा जायगा।‘
‘पहिे सभी ऐसे ही बातें करते है ।‘
ॉँ है।‘
‘ये ददखाने के द त
सबोध
ु प्रसन्नधचत है, इतना नम्र हे कक जो उससे एक बार लमिा हे, सदैव के लिए उसका लमत्र हो जाता
इतना
को आये एक महीना गजु र गया। बोडम के क्िकम, अरदिी, चपरासी सभी उसके बवामव से खुश हैं। वह
है । कठोर शब्द तो उनकी जबान पर आता ही नहीीं। इनकार को भी वह अवप्रय नहीीं होने दे ता; िेककन द्वेष
की ऑ ींखों में गण
ु ओर भी भयींकर हो जाता है । सब
ु ोध के ये सारे सदगण
ु मदारीिाि की ऑ ींखों में खटकते
रहते हें । उसके ववरूद्ध कोई न कोई गुप्त षडयींत्र रचते ही रहते हें । पहिे कममचाररयों को भडकाना चाहा,
सफि न हुए। बोडम के मेम्बरों को भडकाना चाहा, मह
ु की खायी। ठे केदारों को उभारने का बीडा उठाया,
िक्जजत होना पडा। वे चाहते थे कक भस
ु में आग िगा कर दरू से तमाशा दे खें। सबु ोध से यों हस कर
लमिते, यों धचकनी-चप
ु डी बातें करते, मानों उसके सच्चे लमत्र है , पर घात में िगे रहते। सब
ु ोध में सब गण
ु थे,
पर आदमी पहचानना न जानते थे। वे मदारीिाि को अब भी अपना दोस्त समझते हैं।
एक ददन मदारीिाि सेक्रटरी साहब के कमरे में गए तब कुसी खािी दे खी। वे ककसी काम से बाहर
चिे गए थे। उनकी मेज पर प च ॉँ हजार के नोट पलु िदों में बधे हुए रखे थे। बोडम के मदरसों के लिए कुछ
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िकडी के सामान बनवाये गये थे। उसी के दाम थे। ठे केदार वसि
ू ी के लिए बि
ु या गया थाीं आज ही सेक्रेटरी
ॉँ कर दे खा, सब
साहब ने चेक भेज कर खजाने से रूपये मॅगवाये थे। मदारीिाि ने बरामदे में झ क ु ोध का कहीीं
ॉँ
जता नहीीं। उनकी नीयत बदि गयी। दम ष्याम में िोभ का सक्म्मश्रण हो गया। क पते हुए हाथों से पलु िींदे
उठाये; पतिनू की दोनों जेबों में भर कर तुरन्त कमरे से ननकिे ओर चपरासी को पक ु ार कर बोिे—बाबू जी
भीतर है? चपरासी आप ठे केदार से कुछ वसि
ू करने की खुशी में फूिा हुआ थाीं सामने वािे तमोिी के दक
ू ान
से आकर बोिा—जी नहीीं, कचहरी में ककसी से बातें कर रहे है । अभी-अभी तो गये हैं।
मदारीिाि ने दफ्तर में आकर एक क्िकम से कहा—यह लमलसि िे जाकर सेक्रेटरी साहब को ददखाओ।
क्िकम लमलसि िेकर चिा गया। जरा दे र में िौट कर बोिा—सेक्रेटरी साहब कमरे में न थे। फाइि
मेज पर रख आया हू।
ु लसकोड कर कहा—कमरा छोड कर कह ॉँ चिे जाया करते हैं? ककसी ददन धोखा
मदारीिाि ने मह
उठायेंगे।
क्िकम ने कहा—उनके कमरे में दफ्तवािों के लसवा और जाता ही कौन है?
मदारीिाि ने तीव्र स्वर में कहा—तो क्या दफ्तरवािे सब के सब दे वता हैं? कब ककसकी नीयत बदि
जाय, कोई नहीीं कह सकता। मैंने छोटी-छोटी रकमों पर अच्छों-अच्छों की नीयतें बदिते दे खी हैं।इस वक्त
हम सभी साह हैं; िेककन अवसर पाकर शायद ही कोई चक
ू े । मनष्ु य की यही प्रकृनत है। आप जाकर उनके
कमरे के दोनों दरवाजे बन्द कर दीक्जए।
क्िकम ने टाि कर कहा—चपरासी तो दरवाजे पर बैठा हुआ है ।
मदारीिाि ने झझिा
ु कर कहा—आप से मै जो कहता हू, वह कीक्जए। कहने िगें , चपरासी बैठा हुआ
है । चपरासी कोई ऋवष है , मनु न है? चपरसी ही कुछ उडा दे , तो आप उसका क्या कर िेंगे? जमानत भी है तो
तीन सौ की। यह ॉँ एक-एक कागज िाखों का है ।
यह कह कर मदारीिाि खुद उठे और दफ्तर के द्वार दोनों तरफ से बन्द कर ददये। जब धचत ् शाींत
हुआ तब नोटों के पलु िींदे जेब से ननकाि कर एक आिमारी में कागजों के नीचे नछपा कर रख ददयें कफर
आकर अपने काम में व्यस्त हो गये।
सब
ु ोधचन्द्र कोई घींटे-भर में िौटे । तब उनके कमरे का द्वार बन्द था। दफ्तर में आकर मस्
ु कराते हुए
बोिे—मेरा कमरा ककसने बन्द कर ददया है , भाई क्या मेरी बेदखिी हो गयी?
मदारीिाि ने खडे होकर मद ृ ु नतरस्कार ददखाते हुए कहा—साहब, गस्
ु ताखी माफ हो, आप जब कभी
बाहर जाय, चाहे एक ही लमनट के लिए क्यों न हो, तब दरवाजा-बन्द कर ददया करें । आपकी मेज पर रूपये-
पैसे और सरकारी कागज-पत्र बबखरे पडे रहते हैं, न जाने ककस वक्त ककसकी नीयत बदि जाय। मैंने अभी
सन
ु ा कक आप कहीीं गये हैं, जब दरवाजे बन्द कर ददये।
सब
ु ोधचन्द्र द्वार खोि कर कमरे में गये ओर लसगार पीने िगें मेज पर नोट रखे हुए है , इसके खबर
ही न थी।
सहसा ठे केदार ने आकर सिाम ककयाीं सब ु ोध कुसी से उठ बैठे और बोिे—तुमने बहुत दे र कर दी,
तुम्हारा ही इन्तजार कर रहा था। दस ही बजे रूपये मगवा लिये थे। रसीद लिखवा िाये हो न?
ठे केदार—हुजरू रसीद लिखवा िाया हू।
सब ु ोध—तो अपने रूपये िे जाओ। तम् ु हारे काम से मैं बहुत खश
ु नहीीं हू। िकडी तम
ु ने अच्छी नहीीं
िगायी और काम में सफाई भी नहीीं हे । अगर ऐसा काम कफर करोंगे, तो ठे केदारों के रक्जस्टर से तम्ु हारा
नाम ननकाि ददया जायगा।
यह कह कर सब
ु ोध ने मेज पर ननगाह डािी, तब नोटों के पलु िींदे न थे। सोचा, शायद ककसी फाइि के
नीचे दब गये हों। कुरसी के समीप के सब कागज उिट-पि ु ट डािे; मगर नोटो का कहीीं पता नहीीं। ऐीं नोट
कह ॉँ गये! अभी तो यही मेने रख ददये थे। जा कह ॉँ सकते हें । कफर फाइिों को उिटने-पि
ु टने िगे। ददि में
जरा-जरा धडकन होने िगी। सारी मेज के कागज छान डािे, पलु िींदों का पता नहीीं। तब वे कुरसी पर बैठकर
इस आध घींटे में होने वािी घटनाओीं की मन में आिोचना करने िगे—चपरासी ने नोटों के पलु िींदे िाकर
मझ
ु े ददये, खब
ू याद है। भिा, यह भी भि
ू ने की बात है और इतनी जल्द! मैने नोटों को िेकर यहीीं मेज पर
रख ददया, धगना तक नहीीं। कफर वकीि साहब आ गये, परु ाने मि
ु ाकाती हैं। उनसे बातें करता जरा उस पेड
तक चिा गया। उन्होंने पान मगवाये, बस इतनी ही दे र हुम। जब गया हू तब पलु िींदे रखे हुए थे। खूब अच्छी
तरह याद है । तब ये नोट कह ॉँ गायब हो गये? मैंने ककसी सींदक
ू , दराज या आिमारी में नहीीं रखे। कफर गये
दू सरे ददन प्रात: चपरासी ने मदारीिाि के घर पहुच कर आवाज दीीं मदारी को रात-भर नीींद न आयी थी।
घबरा कर बाहर आय। चपरासी उन्हें दे खते ही बोिा—हुजरू ! बडा गजब हो गया, लसकट्टरी साहब ने रात
को गदम न पर छुरी फेर िी।
मदारीिाि की ऑ ींखे ऊपर चढ़ गयीीं, मह
ु फैि गया ओर सारी दे ह लसहर उठी, मानों उनका हाथ बबजिी
के तार पर पड गया हो।
‘छुरी फेर िी?’
‘जी ह ,ॉँ आज सबेरे मािम
ू हुआ। पलु िसवािे जमा हैं। आपाके बि
ु ाया है ।‘
‘िाश अभी पडी हुई हैं?
‘जी ह ,ॉँ अभी डाक्टरी होने वािी हैं।‘
‘बहुत से िोग जमा हैं?’
‘सब बडे-बड अफसर जमा हैं। हुजरू , िहास की ओर ताकते नहीीं बनता। कैसा भिामानष ु हीरा आदमी
था! सब िोग रो रहे हैं। छोडे-छोटे दो बच्चे हैं, एक सायानी िडकी हे ब्याहने िायक। बहू जी को िोग
ती
सरे पहर िाश की परीक्षा समाप्त हुई। अथी जिाशय की ओर चिी। सारा दफ्तर, सारे हुक्काम और
हजारों आदमी साथ थे। दाह-सींस्कार िडको को करना चादहए था पर िडके नाबालिग थे। इसलिए
ववधवा चिने को तैयार हो रही थी कक मदारीिाि ने जाकर कहा—बहू जी, यह सींस्कार मझ ु े करने दो। तम ु
कक्रया पर बैठ जाओींगी, तो बच्चों को कौन सभािेगा। सब
ु ोध मेरे भाई थे। क्जींदगी में उनके साथ कुछ सिक ू
न कर सका, अब क्जींदगी के बाद मझ
ु े दोस्ती का कुछ हक अदा कर िेने दो। आखखर मेरा भी तो उन पर
कुछ हक था। रामेश्वरी ने रोकर कहा—आपको भगवान ने बडा उदार हृदय ददया है भैया जी, नहीीं तो मरने
पर कौन ककसको पछ ॉँ खडे रहते थे झठ
ू ता है । दफ्तर के ओर िोग जो आधी-आधी रात तक हाथ ब धे ू ी बात
पछ
ू ने न आये कक जरा ढाढ़स होता।
मदारीिाि ने दाह-सींस्कार ककया। तेरह ददन तक कक्रया पर बैठे रहे । तेरहवें ददन वपींडदान हुआ;
िहामणों ने भोजन ककया, लभखररयों को अन्न-दान ददया गया, लमत्रों की दावत हुई, और यह सब कुछ
मदारीिाि ने अपने खचम से ककया। रामेश्वरी ने बहुत कहा कक आपने क्जतना ककया उतना ही बहुत है। अब
मै आपको और जेरबार नहीीं करना चाहती। दोस्ती का हक इससे जयादा और कोई क्या अदा करे गा, मगर
मदारीिाि ने एक न सन
ु ी। सारे शहर में उनके यश की धम
ू मच गयीीं, लमत्र हो तो ऐसा हो।
सोिहवें ददन ववधवा ने मदारीिाि से कहा—भैया जी, आपने हमारे साथ जो उपकार और अनग्र
ु ह ककये
हें , उनसे हम मरते दम तक उऋण नहीीं हो सकते। आपने हमारी पीठ पर हाथ न रखा होता, तो न-जाने
हमारी क्या गनत होती। कहीीं रूख की भी छ हॉँ तो नहीीं थी। अब हमें घर जाने दीक्जए। वह ॉँ दे हात में खचम
भी कम होगा और कुछ खेती बारी का लसिलसिा भी कर िगी।
ू ककसी न ककसी तरह ववपवत्त के ददन कट ही
जायगे। इसी तरह हमारे ऊपर दया रखखएगा।
मदारीिाि ने पछ
ू ा—घर पर ककतनी जायदाद है ?
रामेश्वरी—जायदाद क्या है , एक कच्चा मकान है और दर-बारह बीघे की काश्तकारी है । पक्का मकान
बनवाना शरू
ु ककया था; मगर रूपये परू े न पडे। अभी अधरू ा पडा हुआ है । दस-बारह हजार खचम हो गये और
अभी छत पडने की नौबत नहीीं आयी।
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मदारीिाि—कुछ रूपये बैंक में जमा हें , या बस खेती ही का सहारा है ?
ववधवा—जमा तो एक पाई भी नहीीं हैं, भैया जी! उनके हाथ में रूपये रहने ही नहीीं पाते थे। बस, वही
खेती का सहारा है।
मदारी0—तो उन खेतों में इतनी पैदावार हो जायगी कक िगान भी अदा हो जाय ओर तुम िोगो की
गुजर-बसर भी हो?
रामेश्वरी—और कर ही क्या सकते हैं, भेया जी! ककसी न ककसी तरह क्जींदगी तो काटश्नी ही है । बच्चे
न होते तो मै जहर खा िेती।
मदारी0—और अभी बेटी का वववाह भी तो करना है।
ववधवा—उसके वववाह की अब कोइर धचींता नहीीं। ककसानों में ऐसे बहुत से लमि जायेंगे, जो बबना कुछ
लिये-ददये वववाह कर िेंगे।
मदारीिाि ने एक क्षण सोचकर कहा—अगर में कुछ सिाह द,ू तो उसे मानेंगी आप?
रामेश्वरी—भैया जी, आपकी सिाह न मानगी
ू तो ककसकी सिाह मानगी
ू और दस
ू रा है ही कौन?
मदारी0—तो आप उपने घर जाने के बदिे मेरे घर चलिए। जैसे मेरे बाि-बच्चे रहें गें, वैसे ही आप के
भी रहें गे। आपको कष्ट न होगा। ईश्वर ने चाहा तो कन्या का वववाह भी ककसी अच्छे कुि में हो जायगा।
ववधवा की ऑ ींखे सजि हो गयीीं। बोिी—मगर भैया जी, सोधचए.....मदारीिाि ने बात काट कर कहा—मैं कुछ
न सोचगा
ू और न कोई उज्र सन
ु गा।
ु क्या दो भाइयों के पररवार एक साथ नहीीं रहते? सब
ु ोध को मै अपना
भाई समझता था और हमेशा समझगा।
ू
ववधवा का कोई उज्र न सन
ु ा गया। मदारीिाि सबको अपने साथ िे गये और आज दस साि से
उनका पािन कर रहे है । दोनों बच्चे कािेज में पढ़ते है और कन्या का एक प्रनतक्ष्ठत कुि में वववाह हो
गया हे । मदारीिाि और उनकी स्त्री तन-मन से रामेश्वरी की सेवा करते हैं और उनके इशारों पर चिते हैं।
मदारीिाि सेवा से अपने पाप का प्रायक्श्चत कर रहे हैं।
कप्तान िाहब
ज गत लसींह को स्कूि जान कुनैन खाने या मछिी का तेि पीने से कम अवप्रय न था। वह सैिानी,
आवारा, घम
ु क्कड यव
ु क थाीं कभी अमरूद के बागों की ओर ननकि जाता और अमरूदों के साथ मािी
की गालिय ॉँ बडे शौक से खाता। कभी दररया की सैर करता और मल्िाहों को डोंधगयों में बैठकर उस पार के
दे हातों में ननकि जाता। गालिय ॉँ खाने में उसे मजा आता था। गालिय ॉँ खाने का कोइर अवसर वह हाथ से न
जाने दे ता। सवार के घोडे के पीछे तािी बजाना, एक्को को पीछे से पकड कर अपनी ओर खीींचना, बढ
ू ों की
चाि की नकि करना, उसके मनोरीं जन के ववषय थे। आिसी काम तो नहीीं करता; पर दव्ु यमसनों का दास
होता है, और दव्ु यमसन धन के बबना परू े नहीीं होते। जगतलसींह को जब अवसर लमिता घर से रूपये उडा िे
जात। नकद न लमिे, तो बरतन और कपडे उठा िे जाने में भी उसे सींकोच न होता था। घर में शीलशय ॉँ और
बोतिें थीीं, वह सब उसने एक-एक करके गद
ु डी बाजार पहुचा दी। परु ाने ददनों की ककतनी चीजें घर में पडी
थीीं, उसके मारे एक भी न बची। इस किा में ऐसा दक्ष ओर ननपण ु था कक उसकी चतुराई और पटुता पर
आश्चयम होता था। एक बार बाहर ही बाहर, केवि काननमसों के सहारे अपने दो-मींक्जिा मकान की छत पर चढ़
गया और ऊपर ही से पीति की एक बडी थािी िेकर उतर आया। घर वािें को आहट तक न लमिी।
उसके वपता ठाकुर भक्तस लसहीं अपने कस्बे के डाकखाने के मींश ु ी थे। अफसरों ने उन्हें शहर का
ू करने पर ददया था; ककन्तु भक्तलसींह क्जन इरादों से यह ॉँ आये थे, उनमें से एक भी
डाकखाना बडी दौड-धप
ु त लमि जाते थे, वे सब यह ॉँ
परू ा न हुआ। उिटी हानन यह हुई कक दे हातो में जो भाजी-साग, उपिे-ईधन मफ्
बींद हो गये। यह ॉँ सबसे परु ाना घराव थाीं न ककसी को दबा सकते थे, न सता सकते थे। इस दरु वस्था में
जगतलसींह की हथिपककय ॉँ बहुत अखरतीीं। अन्होंने ककतनी ही बार उसे बडी ननदमयता से पीटा। जगतलसींह
भीमकाय होने पर भी चप
ु के में मार खा लिया करता थाीं अगर वह अपने वपता के हाथ पकड िेता, तो वह
हि भी न सकते; पर जगतलसींह इतना सीनाजोर न था। ह ,ॉँ मार-पीट, घड
ु की-धमकी ककसी का भी उस पर
असर न होता था।
ॉँ
जगतलसींह जयों ही घर में कदम रखता; चारों ओर से क व-क वॉँ मच जाती, म ॉँ दरु -दरु करके दौडती,
बहने गालिय ॉँ दे न िगती; मानो घर में कोई स डॉँ घस
ु आया हो। घर तािे उसकी सरू त से जिते थे। इन
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नतरस्कारों ने उसे ननिमजज बना ददया थाीं कष्टों के ज्ञान से वह ननद्मवन्द्व-सा हो गया था। जह ॉँ नीींद आ
जाती, वहीीं पड रहता; जो कुछ लमि जात, वही खा िेता।
जयों-जयों घर वािें को उसकी चोर-किा के गप्ु त साधनों का ज्ञान होता जाता था, वे उससे चौकन्ने
होते जाते थे। यह ॉँ तक कक एक बार परू े महीने-भर तक उसकी दाि न गिी। चरस वािे के कई रूपये ऊपर
ॉँ वािे ने धऑ
चढ़ गये। ग जे ु ींधार तकाजे करने शरू
ु ककय। हिवाई कडवी बातें सन
ु ाने िगा। बेचारे जगत को
ॉँ में रहता; पर घात न लमित थी। आखखर एक ददन बबल्िी
ननकिना मक्ु श्कि हो गया। रात-ददन ताक-झ क
के भागों छीींका टूटा। भक्तलसींह दोपहर को डाकखानें से चिे, जो एक बीमा-रक्जस्री जेब में डाि िी। कौन
जाने कोई हरकारा या डाककया शरारत कर जाय; ककींतु घर आये तो लिफाफे को अचकन की जेब से ननकािने
की सधु ध न रही। जगतलसींह तो ताक िगाये हुए था ही। पेसे के िोभ से जेब टटोिी, तो लिफाफा लमि गया।
उस पर कई आने के दटकट िगे थे। वह कई बार दटकट चरु ा कर आधे दामों पर बेच चक ु ा था। चट
लिफाफा उडा ददया। यदद उसे मािम
ू होता कक उसमें नोट हें , तो कदाधचत वह न छूता; िेककन जब उसने
लिफाफा फाड डािा और उसमें से नोट ननक पडे तो वह बडे सींकट में पड गया। वह फटा हुआ लिफाफा
गिा-फाड कर उसके दष्ु कृत्य को धधक्कारने िगा। उसकी दशा उस लशकारी की-सी हो गयी, जो धचडडयों का
लशकार करने जाय और अनजान में ककसी आदमी पर ननशाना मार दे । उसके मन में पश्चाताप था, िजजा
थी, द:ु ख था, पर उसे भि
ू का दीं ड सहने की शक्क्त न थी। उसने नोट लिफाफे में रख ददये और बाहर चिा
गया।
गरमी के ददन थे। दोपहर को सारा घर सो रहा था; पर जगत की ऑ ींखें में नीींद न थी। आज उसकी
ॉँ ददन के लिए उसे कहीीं
बरु ी तरह कींु दी होगी— इसमें सींदेह न था। उसका घर पर रहना ठीक नहीीं, दस-प च
खखसक जाना चादहए। तब तक िोगों का क्रोध शाींत हो जाता। िेककन कहीीं दरू गये बबना काम न चिेगा।
बस्ती में वह क्रोध ददन तक अज्ञातवास नहीीं कर सकता। कोई न कोई जरूर ही उसका पता दे गा ओर वह
पकड लिया जायगा। दरू जाने केक लिए कुछ न कुछ खचम तो पास होना ही चदहए। क्यों न वह लिफाफे में
से एक नोट ननकाि िे? यह तो मािम
ू ही हो जायगा कक उसी ने लिफाफा फाडा है, कफर एक नोट ननकि
िेने में क्या हानन है? दादा के पास रूपये तो हे ही, झक मार कर दे दें गे। यह सोचकर उसने दस रूपये का
एक नोट उडा लिया; मगर उसी वक्त उसके मन में एक नयी कल्पना का प्रादभ ु ामव हुआ। अगर ये सब रूपये
िेकर ककसी दस
ू रे शहर में कोई दक
ू ान खोि िे, तो बडा मजा हो। कफर एक-एक पैसे के लिए उसे क्यों ककसी
की चोरी करनी पडे! कुछ ददनों में वह बहुत-सा रूपया जमा करके घर आयेगा; तो िोग ककतने चककत हो
जायेंगे!
उसने लिफाफे को कफर ननकािा। उसमें कुि दो सौ रूपए के नोट थे। दो सौ में दध
ू की दक
ू ान खब
ू
चि सकती है । आखखर मरु ारी की दक
ू ान में दो-चार कढ़ाव और दो-चार पीति के थािों के लसवा और क्या
है ? िेककन ककतने ठाट से रहता हे ! रूपयों की चरस उडा दे ता हे । एक-एक द वॉँ पर दस-दस रूपए रख दतेा है ,
नफा न होता, तो वह ठाट कह ॉँ से ननभाता? इस आननद-कल्पना में वह इतना मग्न हुआ कक उसका मन
उसके काबू से बाहर हो गया, जैसे प्रवाह में ककसी के प वॉँ उखड जायें ओर वह िहरों में बह जाय।
उसी ददन शाम को वह बम्बई चि ददया। दस
ू रे ही ददन मींश
ु ी भक्तलसींह पर गबन का मक
ु दमा दायर
हो गया।
चा र वषम बीत गए। कैप्टन जगतलसींह का-सा योद्धा उस रे जीमें ट में नहीीं हैं। कदठन अवस्थाओीं में
उसका साहस और भी उत्तेक्जत हो जाता है । क्जस मदहम में सबकी दहम्मते जवाब दे जाती है , उसे
सर करना उसी का काम है । हल्िे और धावे में वह सदै व सबसे आगे रहता है, उसकी त्योररयों पर कभी मैि
नहीीं आता; उसके साथ ही वह इतना ववनम्र, इतना गींभीर, इतना प्रसन्नधचत है कक सारे अफसर ओर मातहत
उसकी बडाई करते हैं, उसका पन
ु जीतन-सा हो गया। उस पर अफसरों को इतना ववश्वास है कक अब वे प्रत्येक
ववषय में उससे परामशम करते हें । क्जससे पनू छए, वही वीर जगतलसींह की ववरूदाविी सन
ु ा दे गा—कैसे उसने
जममनों की मेगजीन में आग िगायी, कैसे अपने कप्तान को मशीनगनों की मार से ननकािा, कैसे अपने एक
मातहत लसपाही को कींधे पर िेकर ननि आया। ऐसा जान पडता है , उसे अपने प्राणों का मोह नही, मानो वह
काि को खोजता कफरता हो!
िेककन ननत्य राबत्र के समय, जब जगतलसींह को अवकाश लमिता है, वह अपनी छोिदारी में अकेिे
बैठकर घरवािों की याद कर लिया करता है —दो-चार ऑ ींसू की बदे अवश्य धगरा दे ता हे । वह प्रनतमास अपने
वेतन का बडा भाग घर भेज दे ता है , और ऐसा कोई सप्ताह नहीीं जाता जब कक वह माता को पत्र न लिखता
हो। सबसे बडी धचींता उसे अपने वपता की है , जो आज उसी के दष्ु कमो के कारण कारावास की यातना झेि
रहे हैं। हाय! वह कौन ददन होगा, जब कक वह उनके चरणों पर लसर रखकर अपना अपराध क्षमा करायेगा,
और वह उसके लसर पर हाथ रखकर आशीवाद दें गे?
स वा चार वषम बीत गए। सींध्या का समय है । नैनी जेि के द्वार पर भीड िगी हुई है । ककतने ही
कैददयों की लमयाद परू ी हो गयी है। उन्हें लिवा जाने के लिए उनके घरवािे आये हुए है ; ककन्तु बढ़
भक्तलसींह अपनी अधेरी कोठरी में लसर झक ु ाये उदास बैठा हुआ है । उसकी कमर झकु कर कमान हो गयी है।
ू ा
दे ह अक्स्थ-पींजर-मात्र रह गयी हे । ऐसा जान पडता हें , ककसी चतुर लशल्पी ने एक अकाि-पीडडत मनष्ु य की
मनू तम बनाकर रख दी है । उसकी भी मीयाद परू ी हो गयी है; िेककन उसके घर से कोई नहीीं आया। आये कौन?
आने वाि था ही कौन?
एक बढ़
ू ककन्तु हृष्ट-पष्ु ट कैदी ने आकर उसक कींधा दहिाया और बोिा—कहो भगत, कोई घर से
आया?
भक्तलसींह ने कींवपत कींठ-स्वर से कहा—घर पर है ही कौन?
‘घर तो चिोगे ही?’
‘मेरे घर कह ॉँ है?’
‘तो क्या यही पडे रहोंगे?’
‘अगर ये िोग ननकाि न दें गे, तो यहीीं पडा रहूगा।‘
आज चार साि के बाद भगतलसींह को अपने प्रताडडत, ननवामलसत पत्र
ु की याद आ रही थी। क्जसके
कारण जीतन का सवमनाश हो गया; आबरू लमट गयी; घर बरबाद हो गया, उसकी स्मनृ त भी असहय थी; ककन्तु
आज नैराश्य ओर द:ु ख के अथाह सागर में डूबते हुए उन्होंने उसी नतनके का सहार लियाीं न-जाने उस बेचारे
की क्या दख्शा हुई। िाख बरु ा है, तो भी अपना िडका हे । खानदान की ननशानी तो हे । मरूगा तो चार ऑ ींसू
तो बहायेगा; दो धचल्िू पानी तो दे गा। हाय! मैने उसके साथ कभी प्रेम का व्यवहार नहीीं ककयाीं जरा भी
शरारत करता, तो यमदत ॉँ उसकी गदम न पर सवार हो जाता। एक बार रसोई में बबना पैर धोये चिे
ू की भ नत
जाने के दीं ड में मेने उसे उिटा िटका ददया था। ककतनी बार केवि जोर से बोिने पर मैंने उस वमाचे
ु -सा रत्न पाकर मैंने उसका आदर न ककयाीं उसी का दीं ड है । जह ॉँ प्रेम का बन्धन लशधथि हो,
िगाये थे। पत्र
वह ॉँ पररवार की रक्षा कैसे हो सकती है?
इस्तीर्ा
द फ्तर का बाबू एक बेजबान जीव है । मजदरू ों को ऑ ींखें ददखाओ, तो वह त्योररय ॉँ बदि कर खडा हो
जायकाह। कुिी को एक डाट बताओीं, तो लसर से बोझ फेंक कर अपनी राह िेगा। ककसी लभखारी को
दत्ु कारों, तो वह तम् ु से की ननगहा से दे ख कर चिा जायेगा। यह ॉँ तक कक गधा भी कभी-कभी
ु हारी ओर गस्
तकिीफ पाकर दो िवत्तय ॉँ झडने िगता हे ; मगर बेचारे दफ्तर के बाबू को आप चाहे ऑ ींखे ददखायें, ड टॉँ
बतायें, दत्ु कारें या ठोकरें मारों, उसक ाेमाथे पर बि न आयेगा। उसे अपने ववकारों पर जो अधधपत्य होता हे ,
वह शायद ककसी सींयमी साधु में भी न हो। सींतोष का पत
ु िा, सि की मनू तम, सच्चा आज्ञाकारी, गरज उसमें
तमाम मानवी अच्छाइया मौजूद होती हें । खींडहर के भी एक ददन भग्य जाते हे दीवािी के ददन उस पर भी
रोशनी होती है, बरसात में उस पर हररयािी छाती हे , प्रकृनत की ददिचक्स्पयों में उसका भी दहस्सा है। मगर
इस गरीब बाबू के नसीब कभी नहीीं जागते। इसकी अधेरी तकदीर में रोशनी का जिावा कभी नहीीं ददखाई
दे ता। इसके पीिे चेहरे पर कभी मस्
ु कराहट की रोश्नी नजर नहीीं आती। इसके लिए सख
ू ा सावन हे , कभी हरा
भादों नहीीं। िािा फतहचींद ऐसे ही एक बेजबान जीव थे।
कहते हें , मनष्ु य पर उसके नाम का भी असर पडता है। फतहचींद की दशा में यह बात यथाथम लसद्ध
न हो सकी। यदद उन्हें ‘हारचींद’ कहा जाय तो कदाधचत यह अत्यक्ु क्त न होगी। दफ्तर में हार, क्जींदगी में
हार, लमत्रों में हार, जीतन में उनके लिए चारों ओर ननराशाऍ ीं ही थीीं। िडका एक भी नहीीं, िडककय ॉँ ती; भाई
एक भी नहीीं, भौजाइय ॉँ दो, ग ठ
ॉँ में कौडी नहीीं, मगर ददि में आया ओर मरु व्वत, सच्चा लमत्र एक भी नहीीं—
क्जससे लमत्रता हुई, उसने धोखा ददया, इस पर तींदरु स्ती भी अच्छी नहीीं—बत्तीस साि की अवस्था में बाि
खखचडी हो गये थे। ऑ ींखों में जयोंनत नहीीं, हाजमा चौपट, चेहरा पीिा, गाि धचपके, कमर झक
ु ी हुई, न ददि में
दहम्मत, न किेजे में ताकत। नौ बजे दफ्तर जाते और छ: बजे शाम को िौट कर घर आते। कफर घर से
बाहर ननकिने की दहम्मत न पडती। दनु नया में क्या होता है ; इसकी उन्हें बबिकुि खबर न थी। उनकी
दनु नया िोक-परिोक जो कुछ था, दफ्तर था। नौकरी की खैर मनाते और क्जींदगी के ददन परू े करते थे। न
धमम से वास्ता था, न दीन से नाता। न कोई मनोरीं जन था, न खेि। ताश खेिे हुए भी शायद एक मद्
ु दत
गुजर गयी थी।
फ तहचनद दफ्तर न गये। जाकर करते ही क्या? साहब ने फाइि का नाम तक न बताया। शायद नशा
में भि
ू गया। धीरे -धीरे घर की ओर चिे, मगर इस बेइजजती ने पैरों में बेडडया-सी डाि दी थीीं। माना
कक वह शारीररक बि में साहब से कम थे, उनके हाथ में कोई चीज भी न थी, िेककन क्या वह उसकी बातों
का जवाब न दे सकते थे? उनके पैरो में जत
ू े तो थे। क्या वह जत
ू े से काम न िे सकते थे? कफर क्यों उन्होंने
इतनी क्जल्ित बदामश्त की?
मगर इिाज की क्या था? यदद वह क्रोध में उन्हें गोिी मार दे ता, तो उसका क्या बबगडता। शायद एक-
दो महीने की सादी कैद हो जाती। सम्भव है , दो-चार सौ रूपये जुमामना हो जात। मगर इनका पररवार तो
लमट्टी में लमि जाता। सींसार में कौन था, जो इनके स्त्री-बच्चों की खबर िेता। वह ककसके दरवाजे हाथ
फैिाते? यदद उसके पास इतने रूपये होते, क्जसे उनके कुटुम्ब का पािन हो जाता, तो वह आज इतनी
क्जल्ित न सहते। या तो मर ही जाते, या उस शैतान को कुछ सबक ही दे दे त।े अपनी जान का उन्हें डर न
था। क्जन्दगी में ऐसा कौन सख
ु था, क्जसके लिए वह इस तरह डरते। ख्याि था लसफम पररवार के बरबाद हो
जाने का।
आज फतहचनद को अपनी शारीररक कमजोरी पर क्जतना द:ु ख हुआ, उतना और कभी न हुआ था।
अगर उन्होंने शरू
ु ही से तन्दरू
ु स्ती का ख्याि रखा होता, कुछ कसरत करते रहते, िकडी चिाना जानते होते,
तो क्या इस शैतान की इतनी दहम्मत होती कक वह उनका कान पकडता। उसकी ऑ ींखें ननकिा िेते। कम से
कम दन्हें घर से एक छुरी िेकर चिना था! ओर न होता, तो दो-चार हाथ जमाते ही—पीछे दे खा जाता, जेि
जाना ही तो होता या और कुछ?
वे जयों-जयों आगे बढ़ते थे, त्यों-त्यों उनकी तबीयत अपनी कायरता और बोदे पन पर औरभी झल्िाती
थीीं अगर वह उचक कर उसके दो-चार थप्पड िगा दे ते, तो क्या होता—यही न कक साहब के खानसामें, बैरे
सब उन पर वपि पडते ओर मारते-मारते बेदम कर दे त।े बाि-बच्चों के लसर पर जो कुछ पडती—पडती।
साहब को इतना तो मािम
ू हो जाता कक गरीब को बेगन
ु ाह जिीि करना आसान नही। आखखर आज मैं मर
जाऊ, तो क्या हो? तब कौन मेरे बच्चों का पािन करें गा? तब उनके लसर जो कुछ पडेगी, वह आज ही पड
जाती, तो क्या हजम था।
अलग्योझा
भो
िा महतो ने पहिी स्त्री के मर जाने बाद दस
ू री सगाई की, तो उसके िडके रग्घू के लिए बरु े ददन
आ गए। रग्घू की उम्र उस समय केवि दस वषम की थी। चैने से ग वॉँ में गुल्िी-डींडा खेिता कफरता
था। म ॉँ के आते ही चक्की में जुतना पडा। पन्ना रुपवती स्त्री थी और रुप और गवम में चोिी-दामन का
नाता है । वह अपने हाथों से कोई काम न करती। गोबर रग्घू ननकािता, बैिों को सानी रग्घू दे ता। रग्घू ही
ॉँ
जूठे बरतन म जता। ॉँ
भोिा की ऑ ींखें कुछ ऐसी कफरीीं कक उसे रग्घू में सब बरु ाइय -ही-बरु ाइय ॉँ नजर आतीीं।
पन्ना की बातों को वह प्राचीन मयामदानस
ु ार ऑ ींखें बींद करके मान िेता था। रग्घू की लशकायतों की जरा
परवाह न करता। नतीजा यह हुआ कक रग्घू ने लशकायत करना ही छोड ददया। ककसके सामने रोए? बाप ही
नहीीं, सारा ग वॉँ उसका दश्ु मन था। बडा क्जद्दी िडका है, पन्ना को तो कुद समझता ही नहीीं: बेचारी उसका
दि
ु ार करती है, खखिाती-वपिाती हैं यह उसी का फि है। दस
ू री औरत होती, तो ननबाह न होता। वह तो कहा,
पन्ना इतनी सीधी-सादी है कक ननबाह होता जाता है । सबि की लशकायतें सब सन
ु ते हैं, ननबमि की फररयाद
ु ता! रग्घू का हृदय म ॉँ की ओर से ददन-ददन फटता जाता था। यहाीं तक कक आठ साठ
भी कोई नहीीं सन
गुजर गए और एक ददन भोिा के नाम भी मत्ृ यु का सन्दे श आ पहुचा।
पन्ना के चार बच्चे थे-तीन बेटे और एक बेटी। इतना बड खचम और कमानेवािा कोई नहीीं। रग्घू अब
क्यों बात पछ
ू ने िगा? यह मानी हुई बात थी। अपनी स्त्री िाएगा और अिग रहे गा। स्त्री आकर और भी
आग िगाएगी। पन्ना को चारों ओर अींधेरा ही ददखाई दे ता था: पर कुछ भी हो, वह रग्घू की आसरै त बनकर
घर में रहे गी। क्जस घर में उसने राज ककया, उसमें अब िौंडी न बनेगी। क्जस िौंडे को अपना गि
ु ाम समझा,
उसका मींह
ु न ताकेगी। वह सन्
ु दर थीीं, अवस्था अभी कुछ ऐसी जयादा न थी। जवानी अपनी परू ी बहार पर
थी। क्या वह कोई दस
ू रा घर नहीीं कर सकती? यहीीं न होगा, िोग हसेंगे। बिा से! उसकी बबरादरी में क्या
ऐसा होता नहीीं? िाह्मण, ठाकुर थोडी ही थी कक नाक कट जायगी। यह तो उन्ही ऊची जातों में होता है कक
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घर में चाहे जो कुछ करो, बाहर परदा ढका रहे । वह तो सींसार को ददखाकर दस
ू रा घर कर सकती है , कफर वह
रग्घू कक दबैि बनकर क्यों रहे ?
भोिा को मरे एक महीना गजु र चक ु ा था। सींध्या हो गई थी। पन्ना इसी धचन्ता में पड हुई थी कक
सहसा उसे ख्याि आया, िडके घर में नहीीं हैं। यह बैिों के िौटने की बेिा है, कहीीं कोई िडका उनके नीचे न
आ जाए। अब द्वार पर कौन है , जो उनकी दे खभाि करे गा? रग्घू को मेरे िडके फूटी ऑ ींखों नहीीं भाते। कभी
हसकर नहीीं बोिता। घर से बाहर ननकिी, तो दे खा, रग्घू सामने झोपडे में बैठा ऊख की गडेररया बना रहा है,
िडके उसे घेरे खडे हैं और छोटी िडकी उसकी गदम न में हाथ डािे उसकी पीठ पर सवार होने की चेष्टा कर
रही है। पन्ना को अपनी ऑ ींखों पर ववश्वास न आया। आज तो यह नई बात है । शायद दनु नया को ददखाता
है कक मैं अपने भाइयों को ककतना चाहता हू और मन में छुरी रखी हुई है। घात लमिे तो जान ही िे िे!
कािा स पॉँ है, कािा स प!
ॉँ कठोर स्वर में बोिी-तम
ु सबके सब वह ॉँ क्या करते हो? घर में आओ, स झ
ॉँ की
बेिा है, गोरु आते होंगे।
रग्घू ने ववनीत नेत्रों से दे खकर कहा—मैं तो हूीं ही काकी, डर ककस बात का है ?
बडा िडका केदार बोिा-काकी, रग्घू दादा ने हमारे लिए दो गाडडया बना दी हैं। यह दे ख, एक पर हम
ू री पर िछमन और झनु नय ।ॉँ दादा दोनों गाडडय ॉँ खीींचेंगे।
और खुन्नू बैठेंगे, दस
यह कहकर वह एक कोने से दो छोटी-छोटी गाडडय ॉँ ननकाि िाया। चार-चार पदहए िगे थे। बैठने के
लिए तख्ते और रोक के लिए दोनों तरफ बाजू थे।
ू ा-ये गाडडय ॉँ ककसने बनाई?
पन्ना ने आश्चयम से पछ
केदार ने धचढ़कर कहा-रग्घू दादा ने बनाई हैं, और ककसने! भगत के घर से बसि ॉँ
ू ा और रुखानी म ग
िाए और चटपट बना दीीं। खब
ू दौडती हैं काकी! बैठ खन्
ु नू मैं खीींच।ू
खुन्नू गाडी में बैठ गया। केदार खीींचने िगा। चर-चर शोर हुआ मानो गाडी भी इस खेि में िडकों के
साथ शरीक है ।
िछमन ने दस
ू री गाडी में बैठकर कहा-दादा, खीींचो।
रग्घू ने झनु नय ॉँ को भी गाडी में बबठा ददया और गाडी खीींचता हुआ दौडा। तीनों िडके तालिय ॉँ बजाने
िगे। पन्ना चककत नेत्रों से यह दृश्य दे ख रही थी और सोच रही थी कक य वही रग्घू है या कोई और।
थोडी दे र के बाद दोनों गाडडय ॉँ िौटीीं: िडके घर में जाकर इस यानयात्रा के अनभ
ु व बयान करने िगे।
ककतने खश
ु थे सब, मानों हवाई जहाज पर बैठ आये हों।
खन्
ु नू ने कहा-काकी सब पेड दौड रहे थे।
िछमन-और बनछय ॉँ कैसी भागीीं, सबकी सब दौडीीं!
केदार-काकी, रग्घू दादा दोनों गाडडय ॉँ एक साथ खीींच िे जाते हैं।
झनु नय ॉँ सबसे छोटी थी। उसकी व्यींजना-शक्क्त उछि-कूद और नेत्रों तक पररलमत थी-तालिय ॉँ बजा-
बजाकर नाच रही थी।
खुन्न-ू अब हमारे घर गाय भी आ जाएगी काकी! रग्घू दादा ने धगरधारी से कहा है कक हमें एक गाय
िा दो। धगरधारी बोिा, कि िाऊगा।
केदार-तीन सेर दध
ू दे ती है काकी! खब
ू दध
ू पीऍगेीं ।
इतने में रग्घू भी अींदर आ गया। पन्ना ने अवहे िना की दृक्ष्ट से दे खकर पछ
ू ा-क्यों रग्घू तम
ु ने
ॉँ है?
धगरधारी से कोई गाय म गी
रग्घू ने क्षमा-प्राथमना के भाव से कहा-ह ,ॉँ म गी
ॉँ तो है, कि िाएगा।
पन्ना-रुपये ककसके घर से आऍगेीं , यह भी सोचा है?
रग्घ-ू सब सोच लिया है काकी! मेरी यह मह ॉँ रुपये
ु र नहीीं है। इसके पच्चीस रुपये लमि रहे हैं, प च
बनछया के मज
ु ा दे दगा!
ू बस, गाय अपनी हो जाएगी।
पन्ना सन्नाटे में आ गई। अब उसका अववश्वासी मन भी रग्घू के प्रेम और सजजनता को अस्वीकार
न कर सका। बोिी-मह
ु र को क्यों बेचे दे ते हो? गाय की अभी कौन जल्दी है ? हाथ में पैसे हो जाऍ,ीं तो िे
िेना। सन
ू ा-सन
ू ा गिा अच्छा न िगेगा। इतने ददनों गाय नहीीं रही, तो क्या िडके नहीीं क्जए?
रग्घू दाशमननक भाव से बोिा-बच्चों के खाने-पीने के यही ददन हैं काकी! इस उम्र में न खाया, तो कफर
क्या खाऍगेीं । मह
ु र पहनना मझ
ु े अच्छा भी नही मािम
ू होता। िोग समझते होंगे कक बाप तो गया। इसे मह
ु र
पहनने की सझ
ू ी है ।
पा
च साि गज ू रा ककसान ग वॉँ में न था। पन्ना
ु र गए। रग्घू का-सा मेहनती, ईमानदार, बात का धनी दस
की इच्छा के बबना कोई काम न करता। उसकी उम्र अब 23 साि की हो गई थी। पन्ना बार-बार
कहती, भइया, बहू को बबदा करा िाओ। कब तक नैह में पडी रहे गी? सब िोग मझ
ु ी को बदनाम करते हैं कक
यही बहू को नहीीं आने दे ती: मगर रग्घू टाि दे ता था। कहता कक अभी जल्दी क्या है ? उसे अपनी स्त्री के
रीं ग-ढीं ग का कुछ पररचय दस
ू रों से लमि चक
ु ा था। ऐसी औरत को घर में िाकर वह अपनी श नत ॉँ में बाधा
नहीीं डािना चाहता था।
आखखर एक ददन पन्ना ने क्जद करके कहा-तो तुम न िाओगे?
‘कह ददया कक अभी कोई जल्दी नहीीं।’
‘तम्
ु हारे लिए जल्दी न होगी, मेरे लिए तो जल्दी है । मैं आज आदमी भेजती हू।’
‘पछताओगी काकी, उसका लमजाज अच्छा नहीीं है ।’
ू ही नहीीं, तो क्या हवा से िडेगी? रोदटय ॉँ तो बना िेगी। मझ
‘तुम्हारी बिा से। जब मैं उससे बोिगी ु से
भीतर-बाहर का सारा काम नहीीं होता, मैं आज बि
ु ाए िेती हू।’
‘बि
ु ाना चाहती हो, बि
ु ा िो: मगर कफर यह न कहना कक यह मेहररया को ठीक नहीीं करता, उसका
गुिाम हो गया।’
‘न कहूगी, जाकर दो साडडया और लमठाई िे आ।’
तीसरे ददन मलु िया मैके से आ गई। दरवाजे पर नगाडे बजे, शहनाइयों की मधरु ध्वनन आकाश में
गजने
ू िगी। मह-ददखावे
ु की रस्म अदा हुई। वह इस मरुभलू म में ननममि जिधारा थी। गेहुऑ ीं रीं ग था, बडी-
बडी नोकीिी पिकें, कपोिों पर हल्की सख
ु ी, ऑ ींखों में प्रबि आकषमण। रग्घू उसे दे खते ही मींत्रमग्ु ध हो गया।
प्रात:काि पानी का घडा िेकर चिती, तब उसका गेहुऑ ीं रीं ग प्रभात की सनु हरी ककरणों से कुन्दन हो
जाता, मानों उषा अपनी सारी सगु ींध, सारा ववकास और उन्माद लिये मस्ु कराती चिी जाती हो।
द शहरे का त्यौहार आया। इस ग वॉँ से कोस-भर एक परु वे में मेिा िगता था। ग वॉँ के सब िडके मेिा
दे खने चिे। पन्ना भी िडकों के साथ चिने को तैयार हुई: मगर पैसे कह ॉँ से आऍ?ीं कींु जी तो मलु िया के
पास थी।
रग्घू ने आकर मलु िया से कहा—िडके मेिे जा रहे हैं, सबों को दो-दो पैसे दे दो।
मलु िया ने त्योररय ॉँ चढ़ाकर कहा—पैसे घर में नहीीं हैं।
रग्घ—
ू अभी तो तेिहन बबका था, क्या इतनी जल्दी रुपये उठ गए?
मलु िया—ह ,ॉँ उठ गए?
ू कह ॉँ उठ गए? जरा सन
रग्घ— ु ,ू आज त्योहार के ददन िडके मेिा दे खने न जाऍगेीं ?
मलु िया—अपनी काकी से कहो, पैसे ननकािें, गाडकर क्या करें गी?
खटी
ू पर कींु जी हाथ पकड लिया और बोिी—कींु जी मझ
ु े दे दो, नहीीं तो ठीक न होगा। खाने-पहने को भी
चादहए, कागज-ककताब को भी चादहए, उस पर मेिा दे खने को भी चादहए। हमारी कमाई इसलिए नहीीं है कक
दस
ू रे खाऍ ीं और मछों
ू पर ताव दें ।
पन्ना ने रग्घू से कहा—भइया, पैसे क्या होंगे! िडके मेिा दे खने न जाऍगेीं ।
रग्घू ने खझडककर कहा—मेिा दे खने क्यों न जाऍगेीं ? सारा ग वॉँ जा रहा है । हमारे ही िडके न जाऍगेीं ?
यह कहकर रग्घू ने अपना हाथ छुडा लिया और पैसे ननकािकर िडकों को दे ददये: मगर कींु जी जब
मलु िया को दे ने िगा, तब उसने उसे आींगन में फेंक ददया और मह
ु िपेटकर िेट गई! िडके मेिा दे खने न
गए।
प न्ना की बातें सन
ु कर मलु िया समझ गई कक अपने पौबारह हैं। चटपट उठी, घर में झाडू िगाई, चल्
जिाया और कुऍ ीं से पानी िाने चिी। उसकी टे क परू ी हो गई थी।
ग वॉँ में क्स्त्रयों के दो दि होते हैं—एक बहुओीं का, दस
ू हा
र ग्घू िडकों को िेकर बाग से िौटा, तो दे खा मलु िया अभी तक झोंपडे में खडी है । बोिा—तू जाकर खा
क्यों नहीीं िेती? मझ
ु े तो इस बेिा भख
ू नहीीं है।
मलु िया ऐींठकर बोिी—ह ,ॉँ भख
ू क्यों िगेगी! भाइयों ने खाया, वह तम्
ु हारे पेट में पहुच ही गया होगा।
रग्घू ने द तॉँ पीसकर कहा—मझ ु े जिा मत मलु िया, नहीीं अच्छा न होगा। खाना कहीीं भागा नहीीं जाता।
एक बेिा न खाऊगा, तो मर न जाउगा! क्या तू समझती हैं, घर में आज कोई बात हो गई हैं? तूने घर में
चल्
ू हा नहीीं जिाया, मेरे किेजे में आग िगाई है । मझ
ु े घमींड था कक और चाहे कुछ हो जाए, पर मेरे घर में
फूट का रोग न आने पाएगा, पर तूने घमींड चरू कर ददया। परािब्ध की बात है ।
मलु िया नतनककर बोिी—सारा मोह-छोह तुम्हीीं को है कक और ककसी को है? मैं तो ककसी को तुम्हारी
तरह बबसरू ते नहीीं दे खती।
ॉँ खीींचकर कहा—मलु िया, घाव पर नोन न नछडक। तेरे ही कारन मेरी पीठ में धि
रग्घू ने ठीं डी स स ू
िग रही है। मझ ु े इस गहृ स्थी का मोह न होगा, तो ककसे होगा? मैंने ही तो इसे मर-मर जोडा। क्जनको गोद
ॉँ
में खेिाया, वहीीं अब मेरे पट्टीदार होंगे। क्जन बच्चों को मैं ड टता था, उन्हें आज कडी ऑ ींखों से भी नहीीं दे ख
सकता। मैं उनके भिे के लिए भी कोई बात करु, तो दनु नया यही कहे गी कक यह अपने भाइयों को िट
ू े िेता
है । जा मझ
ु े छोड दे , अभी मझ
ु से कुछ न खाया जाएगा।
मलु िया—मैं कसम रखा दगी,
ू नहीीं चप
ु के से चिे चिो।
रग्घ—
ू दे ख, अब भी कुछ नहीीं बबगडा है। अपना हठ छोड दे ।
मलु िया—हमारा ही िहू वपए, जो खाने न उठे ।
रग्घू ने कानों पर हाथ रखकर कहा—यह तूने क्या ककया मलु िया? मैं तो उठ ही रहा था। चि खा ि।ू
नहाने-धोने कौन जाए, िेककन इतनी कहे दे ता हू कक चाहे चार की जगह छ: रोदटय ॉँ खा जाऊ, चाहे तू मझ
ु े
घी के मटके ही में डुबा दे : पर यह दाग मेरे ददि से न लमटे गा।
मलु िया—दाग-साग सब लमट जाएगा। पहिे सबको ऐसा ही िगता है। दे खते नहीीं हो, उधर कैसी चैन
की वींशी बज रही है , वह तो मना ही रही थीीं कक ककसी तरह यह सब अिग हो जाऍ।ीं अब वह पहिे की-सी
ॉँ तो नहीीं है कक जो कुछ घर में आवे, सब गायब! अब क्यों हमारे साथ रहने िगीीं?
च दी
रग्घू ने आहत स्वर में कहा—इसी बात का तो मझ
ु े गम है। काकी ने मझ
ु े ऐसी आशा न थी।
रग्घू खाने बैठा, तो कौर ववष के घट-सा
ू िगता था। जान पडता था, रोदटय ॉँ भस
ू ी की हैं। दाि पानी-सी
िगती। पानी कींठ के नीचे न उतरता था, दध
ू की तरफ दे खा तक नहीीं। दो-चार ग्रास खाकर उठ आया, जैसे
ककसी वप्रयजन के श्राद्ध का भोजन हो।
रात का भोजन भी उसने इसी तरह ककया। भोजन क्या ककया, कसम परू ी की। रात-भर उसका धचत्त
उद्ववग्न रहा। एक अज्ञात शींका उसके मन पर छाई हुई थी, जेसे भोिा महतो द्वार पर बैठा रो रहा हो। वह
कई बार चौंककर उठा। ऐसा जान पडा, भोिा उसकी ओर नतरस्कार की आखों से दे ख रहा है ।
वह दोनों जून भोजन करता था: पर जैसे शत्रु के घर। भोिा की शोकमग्न मनू तम ऑ ींखों से न उतरती
थी। रात को उसे नीींद न आती। वह ग वॉँ में ननकिता, तो इस तरह मह
ु चरु ाए, लसर झक
ु ाए मानो गो-हत्या
की हो।
पा
च साि गज
ु र गए। रग्घू अब दो िडकों का बाप था। आगन में दीवार खखींच गई थी, खेतों में मेडें डाि
ॉँ लिये गए थे। केदार की उम्र अब उन्नीस की हो गई थी। उसने पढ़ना
दी गई थीीं और बैि-बनछए ब ध
छोड ददया था और खेती का काम करता था। खन्
ु नू गाय चराता था। केवि िछमन अब तक मदरसे जाता
था। पन्ना और मलु िया दोनों एक-दस ू रे की सरू त से जिती थीीं। मलु िया के दोनों िडके बहुधा पन्ना ही के
पास रहते। वहीीं उन्हें उबटन मिती, वही काजि िगाती, वही गोद में लिये कफरती: मगर मलु िया के मह ींु से
अनग्र
ु ह का एक शब्द भी न ननकिता। न पन्ना ही इसकी इच्छुक थी। वह जो कुछ करती ननव्यामज भाव से
करती थी। उसके दो-दो िडके अब कमाऊ हो गए थे। िडकी खाना पका िेती थी। वह खुद ऊपर का काम-
काज कर िेती। इसके ववरुद्ध रग्घू अपने घर का अकेिा था, वह भी दब
ु ि
म , अशक्त और जवानी में बढ़
ू ा।
अभी आयु तीस वषम से अधधक न थी, िेककन बाि खखचडी हो गए थे। कमर भी झक ॉँ ने
ु चिी थी। ख सी
जीणम कर रखा था। दे खकर दया आती थी। और खेती पसीने की वस्तु है । खेती की जैसी सेवा होनी चादहए,
वह उससे न हो पाती। कफर अच्छी फसि कह ॉँ से आती? कुछ ऋण भी हो गया था। वह धचींता और भी मारे
डािती थी। चादहए तो यह था कक अब उसे कुछ आराम लमिता। इतने ददनों के ननरन्तर पररश्रम के बाद
लसर का बोझ कुछ हल्का होता, िेककन मलु िया की स्वाथमपरता और अदरू दलशमता ने िहराती हुई खेती उजाड
दी। अगर सब एक साथ रहते, तो वह अब तक पेन्शन पा जाता, मजे में द्वार पर बैठा हुआ नाररयि पीता।
भाई काम करते, वह सिाह दे ता। महतो बना कफरता। कहीीं ककसी के झगडे चक
ु ाता, कहीीं साध-ु सींतों की सेवा
करता: वह अवसर हाथ से ननकि गया। अब तो धचींता-भार ददन-ददन बढ़ता जाता था।
आखखर उसे धीमा-धीमा जवर रहने िगा। हृदय-शि
ू , धचींता, कडा पररश्रम और अभाव का यही परु स्कार
है । पहिे कुछ परवाह न की। समझा आप ही आप अच्छा हो जाएगा: मगर कमजोरी बढ़ने िगी, तो दवा की
कफक्र हुई। क्जसने जो बता ददया, खा लिया, डाक्टरों और वैद्यों के पास जाने की सामथ्यम कह ?ॉँ और सामथ्यम
भी होती, तो रुपये खचम कर दे ने के लसवा और नतीजा ही क्या था? जीणम जवर की औषधध आराम और
पक्ु ष्टकारक भोजन है। न वह बसींत-मािती का सेवन कर सकता था और न आराम से बैठकर बिबधमक
भोजन कर सकता था। कमजोरी बढ़ती ही गई।
पन्ना को अवसर लमिता, तो वह आकर उसे तसल्िी दे ती: िेककन उसके िडके अब रग्घू से बात भी
न करते थे। दवा-दारु तो क्या करतें , उसका और मजाक उडाते। भैया समझते थे कक हम िोगों से अिग
होकर सोने और ईट रख िेंगे। भाभी भी समझती थीीं, सोने से िद जाऊगी। अब दे खें कौन पछ
ू ता है? लससक-
लससककर न मरें तो कह दे ना। बहुत ‘हाय! हाय!’ भी अच्छी नहीीं होती। आदमी उतना काम करे , क्जतना हो
सके। यह नहीीं कक रुपये के लिए जान दे दे ।
पन्ना कहती—रग्घू बेचारे का कौन दोष है?
केदार कहता—चि, मैं खूब समझता हू। भैया की जगह मैं होता, तो डींडे से बात करता। मजाक थी कक
औरत यों क्जद करती। यह सब भैया की चाि थी। सब सधी-बधी बात थी।
आखखर एक ददन रग्घू का दटमदटमाता हुआ जीवन-दीपक बझ
ु गया। मौत ने सारी धचन्ताओीं का अींत
कर ददया।
अींत समय उसने केदार को बि
ु ाया था: पर केदार को ऊख में पानी दे ना था। डरा, कहीीं दवा के लिए न
भेज दें । बहाना बना ददया।
इ ॉँ साि गज
स घटना को हुए प च ु र गए। पन्ना आज बढ़
ू ी हो गई है । केदार घर का मालिक है । मलु िया
घर की मािककन है। खुन्नू और िछमन के वववाह हो चक ॉँ है। कहता
ु े हैं: मगर केदार अभी तक क्व रा
हैं— मैं वववाह न करुगा। कई जगहों से बातचीत हुई, कई सगाइय ॉँ आयीीं: पर उसे हामी न भरी। पन्ना ने
कम्पे िगाए, जाि फैिाए, पर व न फसा। कहता—औरतों से कौन सख ु ? मेहररया घर में आयी और आदमी
ॉँ
का लमजाज बदिा। कफर जो कुछ है, वह मेहररया है । म -बाप, भाई-बन्धु सब पराए हैं। जब भैया जैसे आदमी
का लमजाज बदि गया, तो कफर दस
ू रों की क्या धगनती? दो िडके भगवान ् के ददये हैं और क्या चादहए। बबना
ब्याह ककए दो बेटे लमि गए, इससे बढ़कर और क्या होगा? क्जसे अपना समझो, व अपना है : क्जसे गैर
समझो, वह गैर है।
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एक ददन पन्ना ने कहा—तेरा वींश कैसे चिेगा?
केदार—मेरा वींश तो चि रहा है । दोनों िडकों को अपना ही समझता हूीं।
पन्ना—समझने ही पर है , तो तू मलु िया को भी अपनी मेहररया समझता होगा?
केदार ने झेंपते हुए कहा—तुम तो गािी दे ती हो अम्म !ॉँ
पन्ना—गािी कैसी, तेरी भाभी ही तो है !
केदार—मेरे जेसे िट्ठ-गवार को वह क्यों पछ
ू ने िगी!
पन्ना—तू करने को कह, तो मैं उससे पछ
ू ू?
केदार—नहीीं मेरी अम्म ,ॉँ कहीीं रोने-गाने न िगे।
पन्ना—तेरा मन हो, तो मैं बातों-बातों में उसके मन की थाह ि?ू
केदार—मैं नहीीं जानता, जो चाहे कर।
पन्ना केदार के मन की बात समझ गई। िडके का ददि मलु िया पर आया हुआ है : पर सींकोच और
भय के मारे कुछ नहीीं कहता।
उसी ददन उसने मलु िया से कहा—क्या करु बहू, मन की िािसा मन में ही रह जाती है। केदार का घर
भी बस जाता, तो मैं ननक्श्चन्त हो जाती।
मलु िया—वह तो करने को ही नहीीं कहते।
पन्ना—कहता है, ऐसी औरत लमिे, जो घर में मेि से रहे , तो कर ि।ू
मलु िया—ऐसी औरत कह ॉँ लमिेगी? कहीीं ढूढ़ो।
पन्ना—मैंने तो ढूढ़ लिया है ।
मलु िया—सच, ककस ग वॉँ की है?
पन्ना—अभी न बताऊगी, मद ु ा यह जानती हू कक उससे केदार की सगाई हो जाए, तो घर बन जाए
और केदार की क्जन्दगी भी सफ
ु ि हो जाए। न जाने िडकी मानेगी कक नहीीं।
मलु िया—मानेगी क्यों नहीीं अम्म ,ॉँ ऐसा सन् ु ीि वर और कह ॉँ लमिा जाता है? उस जनम
ु दर कमाऊ, सश
का कोई साध-ु महात्मा है, नहीीं तो िडाई-झगडे के डर से कौन बबन ब्याहा रहता है। कह ॉँ रहती है, मैं जाकर
उसे मना िाऊगी।
पन्ना—तू चाहे , तो उसे मना िे। तेरे ही ऊपर है ।
मलु िया—मैं आज ही चिी जाऊगी, अम्मा, उसके पैरों पडकर मना िाऊगी।
पन्ना—बता द,ू वह तू ही है!
मलु िया िजाकर बोिी—तम ॉँ गािी दे ती हो।
ु तो अम्म जी,
पन्ना—गािी कैसी, दे वर ही तो है !
मलु िया—मझ
ु जैसी बदु ढ़या को वह क्यों पछ
ू ें गे?
ॉँ िगाए बैठा है । तेरे लसवा कोई और उसे भाती ही नहीीं। डर के मारे कहता
पन्ना—वह तुझी पर द त
नहीीं: पर उसके मन की बात मैं जानती हू।
ॉँ अरुण हो उठा। दस वषो में
वैधव्य के शौक से मरु झाया हुआ मलु िया का पीत वदन कमि की भ नत
जो कुछ खोया था, वह इसी एक क्षण में मानों ब्याज के साथ लमि गया। वही िवण्य, वही ववकास, वहीीं
आकषमण, वहीीं िोच।
ईदगाह
न माज खत्म हो गई। िोग आपस में गिे लमि रहे हैं। तब लमठाई और खखिौने की दक
ू ान पर धावा
होता है । ग्रामीणों का यह दि इस ववषय में बािकों से कम उत्साही नहीीं है। यह दे खो, दहींडोिा हें एक
पैसा दे कर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मािम ू होगें , कभी जमीन पर धगरते हुए। यह चखी है ,
िकडी के हाथी, घोडे, ऊट, छडो में िटके हुए हैं। एक पेसा दे कर बैठ जाओीं और पच्चीस चक्करों का मजा
िो। महमद
ू और मोहलसन ओर नरू े ओर सम्मी इन घोडों ओर ऊटो पर बैठते हें । हालमद दरू खडा है। तीन ही
पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक नतहाई जरा-सा चक्कर खाने के लिए नहीीं दे सकता।
सब चखखमयों से उतरते हैं। अब खखिौने िेंगे। अधर दकू ानों की कतार िगी हुई है । तरह-तरह के
खखिौने हैं—लसपाही और गज
ु ररया, राज ओर वकी, लभश्ती और धोबबन और साध।ु वह! कत्ते सन्
ु दर खखिोने हैं।
अब बोिा ही चाहते हैं। महमद
ू लसपाही िेता हे , खाकी वदी और िाि पगडीवािा, कींधें पर बींदक
ू रखे हुए,
मािम
ू होता हे , अभी कवायद ककए चिा आ रहा है। मोहलसन को लभश्ती पसींद आया। कमर झक ु ी हुई है ,
ऊपर मशक रखे हुए हैं मशक का मह ु एक हाथ से पकडे हुए है। ककतना प्रसन्न है! शायद कोई गीत गा रहा
है । बस, मशक से पानी अडेिा ही चाहता है । नरू े को वकीि से प्रेम हे । कैसी ववद्वत्ता हे उसके मख
ु पर!
कािा चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घडी, सन
ु हरी जींजीर, एक हाथ में कानन
ू का
पौथा लिये हुए। मािम ू होता है, अभी ककसी अदाित से क्जरह या बहस ककए चिे आ रहे है। यह सब दो-दो
पैसे के खखिौने हैं। हालमद के पास कुि तीन पैसे हैं, इतने महगे खखिौन वह केसे िे? खखिौना कहीीं हाथ से
छूट पडे तो चरू -चरू हो जाए। जरा पानी पडे तो सारा रीं ग घि
ु जाए। ऐसे खखिौने िेकर वह क्या करे गा, ककस
काम के!
ॉँ
मोहलसन कहता है—मेरा लभश्ती रोज पानी दे जाएगा स झ-सबे रे
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महमद
ू —और मेरा लसपाही घर का पहरा दे गा कोई चोर आएगा, तो फौरन बींदक
ू से फैर कर दे गा।
नरू े —ओर मेरा वकीि खब
ू मक
ु दमा िडेगा।
सम्मी—ओर मेरी धोबबन रोज कपडे धोएगी।
हालमद खखिौनों की ननींदा करता है —लमट्टी ही के तो हैं, धगरे तो चकनाचरू हो जाऍ,ीं िेककन ििचाई हुई
ऑ ींखों से खखिौनों को दे ख रहा है और चाहता है कक जरा दे र के लिए उन्हें हाथ में िे सकता। उसके हाथ
अनायास ही िपकते हें , िेककन िडके इतने त्यागी नहीीं होते हें , ववशेषकर जब अभी नया शौक है । हालमद
ििचता रह जाता है ।
खखिौने के बाद लमठाइया आती हैं। ककसी ने रे वडडय ॉँ िी हें , ककसी ने गुिाबजामन
ु ककसी ने सोहन
हिवा। मजे से खा रहे हैं। हालमद बबरादरी से पथ
ृ क् है । अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों नहीीं कुछ िेकर
खाता? ििचाई ऑ ींखों से सबक ओर दे खता है ।
मोहलसन कहता है—हालमद रे वडी िे जा, ककतनी खश
ु बद
ू ार है !
हालमद को सदें ह हुआ, ये केवि क्रूर ववनोद हें मोहलसन इतना उदार नहीीं है, िेककन यह जानकर भी वह
उसके पास जाता है। मोहलसन दोने से एक रे वडी ननकािकर हालमद की ओर बढ़ाता है । हालमद हाथ फैिाता
है । मोहलसन रे वडी अपने मह ू नरू े ओर सम्मी खूब तालिय ॉँ बजा-बजाकर हसते हैं।
ु में रख िेता है । महमद
हालमद खखलसया जाता है ।
मोहलसन—अच्छा, अबकी जरूर दें गे हालमद, अल्िाह कसम, िे जा।
हालमद—रखे रहो। क्या मेरे पास पैसे नहीीं है ?
सम्मी—तीन ही पेसे तो हैं। तीन पैसे में क्या-क्या िोगें ?
महमद
ू —हमसे गि
ु ाबजामन
ु िे जाओ हालमद। मोहलमन बदमाश है ।
हालमद—लमठाई कौन बडी नेमत है। ककताब में इसकी ककतनी बरु ाइय ॉँ लिखी हैं।
मोहलसन—िेककन ददन मे कह रहे होगे कक लमिे तो खा िें। अपने पैसे क्यों नहीीं ननकािते?
महमद
ू —इस समझते हें , इसकी चािाकी। जब हमारे सारे पैसे खचम हो जाऍगेीं , तो हमें ििचा-ििचाकर
खाएगा।
लमठाइयों के बाद कुछ दक
ू ानें िोहे की चीजों की, कुछ धगिट और कुछ नकिी गहनों की। िडकों के
लिए यह ॉँ कोई आकषमण न था। वे सब आगे बढ़ जाते हैं, हालमद िोहे की दक
ु ान पररूक जात हे । कई धचमटे
रखे हुए थे। उसे ख्याि आया, दादी के पास धचमटा नहीीं है । तबे से रोदटय ॉँ उतारती हैं, तो हाथ जि जाता
है । अगर वह धचमटा िे जाकर दादी को दे दे तो वह ककतना प्रसन्न होगी! कफर उनकी ऊगलिय ॉँ कभी न
जिेंगी। घर में एक काम की चीज हो जाएगी। खखिौने से क्या फायदा? व्यथम में पैसे खराब होते हैं। जरा दे र
ही तो खुशी होती है । कफर तो खखिौने को कोई ऑ ींख उठाकर नहीीं दे खता। यह तो घर पहुचते-पहुचते टूट-फूट
बराबर हो जाऍगेीं । धचमटा ककतने काम की चीज है । रोदटय ॉँ तवे से उतार िो, चल्
ू हें में सेंक िो। कोई आग
ॉँ
म गने ू हे से आग ननकािकर उसे दे दो। अम्म ॉँ बेचारी को कह ॉँ फुरसत हे कक बाजार
आये तो चटपट चल्
आऍ ीं और इतने पैसे ही कह ॉँ लमिते हैं? रोज हाथ जिा िेती हैं।
हालमद के साथी आगे बढ़ गए हैं। सबीि पर सबके सब शबमत पी रहे हैं। दे खो, सब कतने िािची हैं।
इतनी लमठाइय ॉँ िीीं, मझ
ु े ककसी ने एक भी न दी। उस पर कहते है, मेरे साथ खेिो। मेरा यह काम करों। अब
ु सडेगा, फोडे-फुक्न्सय ीं
ू ू गा। खाऍ ीं लमठाइय ,ॉँ आप मह
अगर ककसी ने कोई काम करने को कहा, तो पछ
ननकिेंगी, आप ही जबान चटोरी हो जाएगी। तब घर से पैसे चरु ाऍगेीं और मार खाऍगेीं । ककताब में झठ
ू ी बातें
थोडे ही लिखी हें । मेरी जबान क्यों खराब होगी? अम्म ॉँ धचमटा दे खते ही दौडकर मेरे हाथ से िे िेंगी और
कहें गी—मेरा बच्चा अम्म ॉँ के लिए धचमटा िाया है। ककतना अच्छा िडका है। इन िोगों के खखिौने पर कौन
इन्हें दआ
ु ऍ ीं दे गा? बडों का दआ
ु ऍ ीं सीधे अल्िाह के दरबार में पहुचती हैं, और तुरींत सन
ु ी जाती हैं। में भी इनसे
लमजाज क्यों सहू? मैं गरीब सही, ककसी से कुछ म गने ॉँ तो नहीीं जाते। आखखर अब्बाजान कभीीं न कभी
आऍगेीं । अम्मा भी ऑ ींएगी ही। कफर इन िोगों से पछ
ू ू गा, ककतने खखिौने िोगे? एक-एक को टोकररयों खखिौने
द ू और ददखा हू कक दोस्तों के साथ इस तरह का सिक ू ककया जात है । यह नहीीं कक एक पैसे की रे वडडय ॉँ
िीीं, तो धचढ़ा-धचढ़ाकर खाने िगे। सबके सब हसेंगे कक हालमद ने धचमटा लिया है । हीं स!ें मेरी बिा से! उसने
दक
ु ानदार से पछ
ू ा—यह धचमटा ककतने का है ?
दक
ु ानदार ने उसकी ओर दे खा और कोई आदमी साथ न दे खकर कहा—तुम्हारे काम का नहीीं है जी!
‘बबकाऊ है कक नहीीं?’
ग्या रह बजे ग वॉँ में हिचि मच गई। मेिेवािे आ गए। मोहलसन की छोटी बहन दौडकर लभश्ती
ु ी के जा उछिी, तो लमय ीं लभश्ती नीचे आ रहे और
उसके हाथ से छीन लिया और मारे खश
ु रोए। उसकी अम्म ॉँ यह शोर सन
सरु िोक लसधारे । इस पर भाई-बहन में मार-पीट हुई। दानों खब ु कर बबगडी
और दोनों को ऊपर से दो-दो च टेॉँ और िगाए।
लमय ॉँ नरू े के वकीि का अींत उनके प्रनतष्ठानक
ु ू ि इससे जयादा गौरवमय हुआ। वकीि जमीन पर या
ताक पर हो नहीीं बैठ सकता। उसकी मयामदा का ववचार तो करना ही होगा। दीवार में खदटयाू गाडी गई। उन
पर िकडी का एक पटरा रखा गया। पटरे पर कागज का कािीन बबदाया गया। वकीि साहब राजा भोज की
ु ककया। आदाितों में खर की टट्दटय ॉँ और बबजिी
भानत लसींहासन पर ववराजे। नरू े ने उन्हें पींखा झिना शरू
के पींखे रहते हें । क्या यह ॉँ मामि
ू ी पींखा भी न हो! कानन ॉँ
ू की गमी ददमाग पर चढ़ जाएगी कक नहीीं? ब स
कापींखा आया ओर नरू े हवा करने िगें मािम
ू नहीीं, पींखे की हवा से या पींखे की चोट से वकीि साहब
स्वगमिोक से मत्ृ यि
ु ोक में आ रहे और उनका माटी का चोिा माटी में लमि गया! कफर बडे जोर-शोर से
मातम हुआ और वकीि साहब की अक्स्थ घरू े पर डाि दी गई।
मााँ
आ ज बन्दी छूटकर घर आ रहा है । करुणा ने एक ददन पहिे ही घर िीप-पोत रखा था। इन तीन वषो
ॉँ रूपये जमा कर रखे थे, वह सब पनत के सत्कार और
में उसने कदठन तपस्या करके जो दस-प च
स्वागत की तैयाररयों में खचम कर ददए। पनत के लिए धोनतयों का नया जोडा िाई थी, नए कुरते बनवाए थे,
बच्चे के लिए नए कोट और टोपी की आयोजना की थी। बार-बार बच्चे को गिे िगाती ओर प्रसन्न होती।
अगर इस बच्चे ने सय ॉँ उदय होकर उसके अींधेरे जीवन को प्रदीप्त न कर ददया होता, तो कदाधचत ्
ू म की भ नत
ठोकरों ने उसके जीवन का अन्त कर ददया होता। पनत के कारावास-दण्ड के तीन ही महीने बाद इस बािक
का जन्म हुआ। उसी का महु दे ख-दे खकर करूणा ने यह तीन साि काट ददए थे। वह सोचती—जब मैं बािक
को उनके सामने िे जाऊगी, तो वह ककतने प्रसन्न होंगे! उसे दे खकर पहिे तो चककत हो जाऍगेीं , कफर गोद में
उठा िेंगे और कहें ग—
े करूणा, तुमने यह रत्न दे कर मझ
ु े ननहाि कर ददया। कैद के सारे कष्ट बािक की
तोतिी बातों में भि
ू जाऍगेीं , उनकी एक सरि, पववत्र, मोहक दृक्ष्ट दृदय की सारी व्यवस्थाओीं को धो डािेगी।
इस कल्पना का आन्नद िेकर वह फूिी न समाती थी।
वह सोच रही थी—आददत्य के साथ बहुत—से आदमी होंगे। क्जस समय वह द्वार पर पहुचेगे, जय—
जयकार’ की ध्वनन से आकाश गूज उठे गा। वह ककतना स्वगीय दृश्य होगा! उन आदलमयों के बैठने के लिए
करूणा ने एक फटा-सा टाट बबछा ददया था, कुछ पान बना ददए थे ओर बार-बार आशामय नेत्रों से द्वार की
ओर ताकती थी। पनत की वह सदृ
ु ढ़ उदार तेजपण
ू म मद्र
ु ा बार-बार ऑ ींखों में कफर जाती थी। उनकी वे बातें
बार-बार याद आती थीीं, जो चिते समय उनके मख
ु से ननकिती थी, उनका वह धैय,म वह आत्मबि, जो पलु िस
के प्रहारों के सामने भी अटि रहा था, वह मस्
ु कराहट जो उस समय भी उनके अधरों पर खेि रही थी; वह
आत्मलभमान, जो उस समय भी उनके मख
ु से टपक रहा था, क्या करूणा के हृदय से कभी ववस्मत
ृ हो
सकता था! उसका स्मरण आते ही करुणा के ननस्तेज मख
ु पर आत्मगौरव की िालिमा छा गई। यही वह
अविम्ब था, क्जसने इन तीन वषो की घोर यातनाओीं में भी उसके हृदय को आश्वासन ददया था। ककतनी ही
राते फाकों से गज
ु रीीं, बहुधा घर में दीपक जिने की नौबत भी न आती थी, पर दीनता के आसू कभी उसकी
ऑ ींखों से न धगरे । आज उन सारी ववपवत्तयों का अन्त हो जाएगा। पनत के प्रगाढ़ आलिींगन में वह सब कुछ
हसकर झेि िेगी। वह अनींत ननधध पाकर कफर उसे कोई अलभिाषा न रहे गी।
गगन-पथ का धचरगामी िपका हुआ ववश्राम की ओर चिा जाता था, जह ॉँ सींध्या ने सन
ु हरा फशम
सजाया था और उजजवि पष्ु पों की सेज बबछा रखी थी। उसी समय करूणा को एक आदमी िाठी टे कता
ॉँ
आता ददखाई ददया, मानो ककसी जीणम मनष्ु य की वेदना-ध्वनन हो। पग-पग पर रूककर ख सने िगता थी।
उसका लसर झकु ा हुआ था, करणा उसका चेहरा न दे ख सकती थी, िेककन चाि-ढाि से कोई बढ़
ू ा आदमी
मािम
ू होता था; पर एक क्षण में जब वह समीप आ गया, तो करूणा पहचान गई। वह उसका प्यारा पनत ही
था, ककन्तु शोक! उसकी सरू त ककतनी बदि गई थी। वह जवानी, वह तेज, वह चपिता, वह सग
ु ठन, सब
प्रस्थान कर चक ॉँ रह गया था। न कोई सींगी, न साथी, न यार, न दोस्त।
ु ा था। केवि हड्डडयों का एक ढ चा
करूणा उसे पहचानते ही बाहर ननकि आयी, पर आलिींगन की कामना हृदय में दबाकर रह गई। सारे मनसब
ू े
धि
ू में लमि गए। सारा मनोल्िास ऑ ींसओ
ु ीं के प्रवाह में बह गया, वविीन हो गया।
आददत्य ने घर में कदम रखते ही मस्
ु कराकर करूणा को दे खा। पर उस मस्
ु कान में वेदना का एक
सींसार भरा हुआ थाीं करूणा ऐसी लशधथि हो गई, मानो हृदय का स्पींदन रूक गया हो। वह फटी हुई आखों से
स्वामी की ओर टकटकी ब धे ॉँ खडी थी, मानो उसे अपनी ऑखों पर अब भी ववश्वास न आता हो। स्वागत या
द:ु ख का एक शब्द भी उसके महु से न ननकिा। बािक भी गोद में बैठा हुआ सहमी ऑखें से इस कींकाि
को दे ख रहा था और माता की गोद में धचपटा जाता था।
आखखर उसने कातर स्वर में कहा—यह तम्
ु हारी क्या दशा है? बबल्कुि पहचाने नहीीं जाते!
आददत्य ने उसकी धचन्ता को शाींत करने के लिए मस्
ु कराने की चेष्टा करके कहा—कुछ नहीीं, जरा
दब
ु िा हो गया हू। तम्
ु हारे हाथों का भोजन पाकर कफर स्वस्थ हो जाऊगा।
करूणा—छी! सख ू कर काटा हो गए। क्या वह ॉँ भरपेट भोजन नहीीं लमिात? तुम कहते थे, राजनैनतक
आदलमयों के साथ बडा अच्छा व्यवहार ककया जाता है और वह तुम्हारे साथी क्या हो गए जो तुम्हें आठों
पहर घेरे रहते थे और तुम्हारे पसीने की जगह खून बहाने को तैयार रहते थे?
िे ककन प्रकाश के कमम और वचन में मेि न था और ददनों के साथ उसके चररत्र का अींग प्रत्यक्ष होता
जाता था। जहीन था ही, ववश्वववद्यािय से उसे वजीफे लमिते थे, करूणा भी उसकी यथेष्ट सहायता
करती थी, कफर भी उसका खचम परू ा न पडता था। वह लमतव्ययता और सरि जीवन पर ववद्वत्ता से भरे हुए
व्याख्यान दे सकता था, पर उसका रहन-सहन फैशन के अींधभक्तों से जौ-भर घटकर न था। प्रदशमन की धन
ु
उसे हमेशा सवार रहती थी। उसके मन और बद्
ु धध में ननरीं तर द्वन्द्व होता रहता था। मन जानत की ओर
था, बद्
ु धध अपनी ओर। बद्
ु धध मन को दबाए रहती थी। उसके सामने मन की एक न चिती थी। जानत-सेवा
ऊसर की खेती है , वह ॉँ बडे-से-बडा उपहार जो लमि सकता है , वह है गौरव और यश; पर वह भी स्थायी नहीीं,
इतना अक्स्थर कक क्षण में जीवन-भर की कमाई पर पानी कफर सकता है । अतएव उसका अन्त:करण
अननवायम वेग के साथ वविासमय जीवन की ओर झक
ु ता था। यहाीं तक कक धीरे -धीरे उसे त्याग और ननग्रह
वव
द्यािय खि ु ते ही प्रकाश के नाम रक्जस्रार का पत्र पहुचा। उन्होंने प्रकाश का इींग्िैंड जाकर
ववद्याभ्यास करने के लिए सरकारी वजीफे की मींजरू ी की सच
ू ना दी थी। प्रकाश पत्र हाथ में लिये हषम
के उन्माद में जाकर म ॉँ से बोिा—अम्म ,ॉँ मझ
ु े इींग्िैंड जाकर पढ़ने के लिए सरकारी वजीफा लमि गया।
करूणा ने उदासीन भाव से पछ
ू ा—तो तुम्हारा क्या इरादा है?
प्रकाश—मेरा इरादा? ऐसा अवसर पाकर भिा कौन छोडता है!
करूणा—तुम तो स्वयींसेवकों में भरती होने जा रहे थे?
प्रकाश—तो आप समझती हैं, स्वयींसेवक बन जाना ही जानत-सेवा है? मैं इींग्िैंड से आकर भी तो सेवा-
कायम कर सकता हू और अम्म ,ॉँ सच पछ
ू ो, तो एक मक्जस्रे ट अपने दे श का क्जतना उपकार कर सकता है ,
उतना एक हजार स्वयींसेवक लमिकर भी नहीीं कर सकते। मैं तो लसववि सववमस की परीक्षा में बैठूगा और
मझ
ु े ववश्वास है कक सफि हो जाऊगा।
करूणा ने चककत होकर पछ
ू ा-तो क्या तुम मक्जस्रे ट हो जाओगे?
प्रकाश—सेवा-भाव रखनेवािा एक मक्जस्रे ट काींग्रेस के एक हजार सभापनतयों से जयादा उपकार कर
ृ ाओीं पर तालिय ॉँ न बजेंगी, जनता
सकता है । अखबारों में उसकी िम्बी-िम्बी तारीफें न छपेंगी, उसकी वक्तत
उसके जुिस
ू की गाडी न खीींचग
े ी और न ववद्याियों के छात्र उसको अलभनींदन-पत्र दें गे; पर सच्ची सेवा
मक्जस्रे ट ही कर सकता है ।
करूणा ने आपवत्त के भाव से कहा—िेककन यही मक्जस्रे ट तो जानत के सेवकों को सजाऍ ीं दे ते हें , उन
पर गोलिय ॉँ चिाते हैं?
प्रकाश—अगर मक्जस्रे ट के हृदय में परोपकार का भाव है, तो वह नरमी से वही काम करता है , जो
ू रे गोलिय ॉँ चिाकर भी नहीीं कर सकते।
दस
प्र काश उसी ददन से यात्रा की तैयाररय ॉँ करने िगा। करूणा के पास जो कुछ था, वह सब खचम हो गया।
कुछ ऋण भी िेना पडा। नए सट
चीज की फरमाइश िेकर
ू बने, सट
ू केस लिए गए। प्रकाश अपनी धन
ु में मस्त था। कभी ककसी
क रूणा जीववत थी, पर सींसार से उसका कोई नाता न था। उसका छोटा-सा सींसार, क्जसे उसने अपनी
ॉँ अनन्त में वविीन हो गया था। क्जस प्रकाश को
कल्पनाओीं के हृदय में रचा था, स्वप्न की भ नत
सामने दे खकर वह जीवन की अधेरी रात में भी हृदय में आशाओीं की सम्पवत्त लिये जी रही थी, वह बझ
ु गया
और सम्पवत्त िट
ु गई। अब न कोई आश्रय था और न उसकी जरूरत। क्जन गउओीं को वह दोनों वक्त अपने
हाथों से दाना-चारा दे ती और सहिाती थी, वे अब खूटे पर बधी ननराश नेत्रों से द्वार की ओर ताकती रहती
थीीं। बछडो को गिे िगाकर पच
ु कारने वािा अब कोई न था, क्जसके लिए दध
ु दहु े , मट्
ु ठा ननकािे। खानेवािा
कौन था? करूणा ने अपने छोटे -से सींसार को अपने ही अींदर समेट लिया था।
ककन्तु एक ही सप्ताह में करूणा के जीवन ने कफर रीं ग बदिा। उसका छोटा-सा सींसार फैिते-फैिते
ॉँ रखा था, वह उखड गया। अब नौका
ववश्वव्यापी हो गया। क्जस िींगर ने नौका को तट से एक केन्द्र पर ब ध
सागर के अशेष ववस्तार में भ्रमण करे गी, चाहे वह उद्दाम तरीं गों के वक्ष में ही क्यों न वविीन हो जाए।
करूणा द्वार पर आ बैठती और मह
ु ल्िे-भर के िडकों को जमा करके दध
ू वपिाती। दोपहर तक
मक्खन ननकािती और वह मक्खन मह ॉँ
ु ल्िे के िडके खाते। कफर भ नत-भ ॉँ के पकवान बनाती और कुत्तों
नत
को खखिाती। अब यही उसका ननत्य का ननयम हो गया। धचडडय ,ॉँ कुत्ते, बबक्ल्िय ॉँ चीींटे-चीदटय ॉँ सब अपने हो
गए। प्रेम का वह द्वार अब ककसी के लिए बन्द न था। उस अींगुि-भर जगह में , जो प्रकाश के लिए भी
काफी न थी, अब समस्त सींसार समा गया था।
एक ददन प्रकाश का पत्र आया। करूणा ने उसे उठाकर फेंक ददया। कफर थोडी दे र के बाद उसे उठाकर
फाड डािा और धचडडयों को दाना चग
ु ाने िगी; मगर जब ननशा-योधगनी ने अपनी धन
ू ी जिायी और वेदनाऍ ीं
ॉँ
उससे वरदान म गने के लिए ववकि हो-होकर चिीीं, तो करूणा की मनोवेदना भी सजग हो उठी—प्रकाश का
पत्र पढ़ने के लिए उसका मन व्याकुि हो उठा। उसने सोचा, प्रकाश मेरा कौन है ? मेरा उससे क्य प्रयोजन? ह ,ॉँ
प्रकाश मेरा कौन है ? हा, प्रकाश मेरा कौन है ? हृदय ने उत्तर ददया, प्रकाश तेरा सवमस्व है , वह तेरे उस अमर प्रेम
की ननशानी है , क्जससे तू सदै व के लिए वींधचत हो गई। वह तेरे प्राण है , तेरे जीवन-दीपक का प्रकाश, तेरी
वींधचत कामनाओीं का माधय
ु ,म तेरे अश्रज
ू ि में ववहार करने वािा करने वािा हीं स। करूणा उस पत्र के टुकडों
को जमा करने िगी, माना उसके प्राण बबखर गये हों। एक-एक टुकडा उसे अपने खोये हुए प्रेम का एक
पदधचन्ह-सा मािम
ू होता था। जब सारे परु जे जमा हो गए, तो करूणा दीपक के सामने बैठकर उसे जोडने
िगी, जैसे कोई ववयोगी हृदय प्रेम के टूटे हुए तारों को जोड रहा हो। हाय री ममता! वह अभाधगन सारी रात
उन परु जों को जोडने में िगी रही। पत्र दोनों ओर लिखा था, इसलिए परु जों को ठीक स्थान पर रखना और
भी कदठन था। कोई शब्द, कोई वाक्य बीच में गायब हो जाता। उस एक टुकडे को वह कफर खोजने िगती।
सारी रात बीत गई, पर पत्र अभी तक अपण
ू म था।
बेटोंिाली विधिा
पीं
डडत अयोध्यानाथ का दे हान्त हुआ तो सबने कहा, ईश्वर आदमी की ऐसी ही मौत दे । चार जवान बेटे
थे, एक िडकी। चारों िडकों के वववाह हो चक ॉँ थी। सम्पवत्त भी काफी छोडी थी।
ु े थे, केवि िडकी क्व री
एक पक्का मकान, दो बगीचे, कई हजार के गहने और बीस हजार नकद। ववधवा फूिमती को शोक तो हुआ
और कई ददन तक बेहाि पडी रही, िेककन जवान बेटों को सामने दे खकर उसे ढाढ़स हुआ। चारों िडके एक-
से-एक सश ु ीि, चारों बहुऍ ीं एक-से-एक बढ़कर आज्ञाकाररणी। जब वह रात को िेटती, तो चारों बारी-बारी से
उसके प वॉँ दबातीीं; वह स्नान करके उठती, तो उसकी साडी छ टती।
ॉँ सारा घर उसके इशारे पर चिता था। बडा
िडका कामता एक दफ्तर में 50 रू. पर नौकर था, छोटा उमानाथ डाक्टरी पास कर चक
ु ा था और कहीीं
औषधािय खोिने की कफक्र में था, तीसरा दयानाथ बी. ए. में फेि हो गया था और पबत्रकाओीं में िेख
लिखकर कुछ-न-कुछ कमा िेता था, चौथा सीतानाथ चारों में सबसे कुशाग्र बद्
ु धध और होनहार था और
अबकी साि बी. ए. प्रथम श्रेणी में पास करके एम. ए. की तैयारी में िगा हुआ था। ककसी िडके में वह
दव्ु यमसन, वह छै िापन, वह िट
ु ाऊपन न था, जो माता-वपता को जिाता और कुि-मयामदा को डुबाता है ।
फूिमती घर की मािककन थी। गोकक कींु क्जय ॉँ बडी बहू के पास रहती थीीं – बदु ढ़या में वह अधधकार-प्रेम न
था, जो वद्
ृ धजनों को कटु और किहशीि बना ददया करता है; ककन्तु उसकी इच्छा के बबना कोई बािक
लमठाई तक न मगा सकता था।
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सींध्या हो गई थी। पींडडत को मरे आज बारहवा ददन था। कि तेरहीीं हैं। िह्मभोज होगा। बबरादरी के
िोग ननमींबत्रत होंगे। उसी की तैयाररय ॉँ हो रही थीीं। फूिमती अपनी कोठरी में बैठी दे ख रही थी, पल्िेदार बोरे
में आटा िाकर रख रहे हैं। घी के दटन आ रहें हैं। शाक-भाजी के टोकरे , शक्कर की बोररय ,ॉँ दही के मटके
चिे आ रहें हैं। महापात्र के लिए दान की चीजें िाई गईं-बतमन, कपडे, पिींग, बबछावन, छाते, जूत,े छडडय ,ॉँ
िािटे नें आदद; ककन्तु फूिमती को कोई चीज नहीीं ददखाई गई। ननयमानस
ु ार ये सब सामान उसके पास आने
चादहए थे। वह प्रत्येक वस्तु को दे खती उसे पसींद करती, उसकी मात्रा में कमी-बेशी का फैसिा करती; तब इन
चीजों को भींडारे में रखा जाता। क्यों उसे ददखाने और उसकी राय िेने की जरूरत नहीीं समझी गई? अच्छा
ॉँ बोरों के लिए कहा था। घी भी प च
वह आटा तीन ही बोरा क्यों आया? उसने तो प च ॉँ ही कनस्तर है । उसने
तो दस कनस्तर मींगवाए थे। इसी तरह शाक-भाजी, शक्कर, दही आदद में भी कमी की गई होगी। ककसने
उसके हुक्म में हस्तक्षेप ककया? जब उसने एक बात तय कर दी, तब ककसे उसको घटाने-बढ़ाने का अधधकार
है ?
आज चािीस वषों से घर के प्रत्येक मामिे में फूिमती की बात सवममान्य थी। उसने सौ कहा तो सौ
खचम ककए गए, एक कहा तो एक। ककसी ने मीन-मेख न की। यह ॉँ तक कक पीं. अयोध्यानाथ भी उसकी इच्छा
के ववरूद्ध कुछ न करते थे; पर आज उसकी ऑ ींखों के सामने प्रत्यक्ष रूप से उसके हुक्म की उपेक्षा की जा
रही है ! इसे वह क्योंकर स्वीकार कर सकती?
कुछ दे र तक तो वह जब्त ककए बैठी रही; पर अींत में न रहा गया। स्वायत्त शासन उसका स्वभाव हो
ॉँ
गया था। वह क्रोध में भरी हुई आयी और कामतानाथ से बोिी-क्या आटा तीन ही बोरे िाये? मैंने तो प च
ॉँ ही दटन मगवाया! तम्
बोरों के लिए कहा था। और घी भी प च ु हें याद है, मैंने दस कनस्तर कहा था?
ककफायत को मैं बरु ा नहीीं समझती; िेककन क्जसने यह कुऑ ीं खोदा, उसी की आत्मा पानी को तरसे, यह
ककतनी िजजा की बात है!
कामतानाथ ने क्षमा-याचना न की, अपनी भि ू भी स्वीकार न की, िक्जजत भी नहीीं हुआ। एक लमनट
तो ववद्रोही भाव से खडा रहा, कफर बोिा-हम िोगों की सिाह तीन ही बोरों की हुई और तीन बोरे के लिए
ॉँ दटन घी काफी था। इसी दहसाब से और चीजें भी कम कर दी गई हैं।
पच
फूिमती उग्र होकर बोिी-ककसकी राय से आटा कम ककया गया?
‘हम िोगों की राय से।‘
‘तो मेरी राय कोई चीज नहीीं है ?’
‘है क्यों नहीीं; िेककन अपना हानन-िाभ तो हम समझते हैं?’
फूिमती हक्की-बक्की होकर उसका मह
ु ताकने िगी। इस वाक्य का आशय उसकी समझ में न आया।
अपना हानन-िाभ! अपने घर में हानन-िाभ की क्जम्मेदार वह आप है । दस
ू रों को, चाहे वे उसके पेट के जन्मे
पत्र
ु ही क्यों न हों, उसके कामों में हस्तक्षेप करने का क्या अधधकार? यह िौंडा तो इस दढठाई से जवाब दे
रहा है, मानो घर उसी का है , उसी ने मर-मरकर गह ृ स्थी जोडी है, मैं तो गैर हू! जरा इसकी हे कडी तो दे खो।
उसने तमतमाए हुए मख ु से कहा मेरे हानन-िाभ के क्जम्मेदार तुम नहीीं हो। मझ ु े अक्ख्तयार है, जो
ॉँ दटन घी और िाओ और आगे के लिए खबरदार,
उधचत समझ,ू वह करू। अभी जाकर दो बोरे आटा और प च
जो ककसी ने मेरी बात काटी।
अपने ववचार में उसने काफी तम्बीह कर दी थी। शायद इतनी कठोरता अनावश्यक थी। उसे अपनी
उग्रता पर खेद हुआ। िडके ही तो हैं, समझे होंगे कुछ ककफायत करनी चादहए। मझ
ु से इसलिए न पछ ू ा होगा
कक अम्मा तो खुद हरे क काम में ककफायत करती हैं। अगर इन्हें मािम
ू होता कक इस काम में मैं ककफायत
पसींद न करूगी, तो कभी इन्हें मेरी उपेक्षा करने का साहस न होता। यद्यवप कामतानाथ अब भी उसी जगह
खडा था और उसकी भावभींगी से ऐसा ज्ञात होता था कक इस आज्ञा का पािन करने के लिए वह बहुत
उत्सक
ु नहीीं, पर फूिमती ननक्श्चींत होकर अपनी कोठरी में चिी गयी। इतनी तम्बीह पर भी ककसी को अवज्ञा
करने की सामथ्यम हो सकती है , इसकी सींभावना का ध्यान भी उसे न आया।
पर जयों-जयों समय बीतने िगा, उस पर यह हकीकत खुिने िगी कक इस घर में अब उसकी वह
है लसयत नहीीं रही, जो दस-बारह ददन पहिे थी। सम्बींधधयों के यह ॉँ के नेवते में शक्कर, लमठाई, दही, अचार
आदद आ रहे थे। बडी बहू इन वस्तओ ु ीं को स्वालमनी-भाव से सभाि-सभािकर रख रही थी। कोई भी उससे
पछ
ू ने नहीीं आता। बबरादरी के िोग जो कुछ पछ ू ते हैं, कामतानाथ से या बडी बहू से। कामतानाथ कह ॉँ का
बडा इींतजामकार है, रात-ददन भींग वपये पडा रहता हैं ककसी तरह रो-धोकर दफ्तर चिा जाता है । उसमें भी
दो महीने गज
ु र गए हैं। रात का समय है । चारों भाई ददन के काम से छुट्टी पाकर कमरे में बैठे गप-
शप कर रहे हैं। बडी बहू भी षड्यींत्र में शरीक है। कुमद
ु के वववाह का प्रश्न नछडा हुआ है।
कामतानाथ ने मसनद पर टे क िगाते हुए कहा-दादा की बात दादा के साथ गई। पींडडत ववद्वान ् भी हैं
और कुिीन भी होंगे। िेककन जो आदमी अपनी ववद्या और कुिीनता को रूपयों पर बेच,े वह नीच है। ऐसे
नीच आदमी के िडके से हम कुमद ॉँ हजार तो दरू की बात है। उसे
ु का वववाह सेंत में भी न करें गे, प च
बताओ धता और ककसी दस ू रे वर की तिाश करो। हमारे पास कुि बीस हजार ही तो हैं। एक-एक के दहस्से
ॉँ
में प च-प ॉँ हजार आते हैं। प च
च ॉँ हजार दहे ज में दे दें , और प च
ॉँ हजार नेग-न्योछावर, बाजे-गाजे में उडा दें , तो
कफर हमारी बधधया ही बैठ जाएगी।
उमानाथ बोिे-मझ
ु े अपना औषधािय खोिने के लिए कम-से-कम पाच हजार की जरूरत है। मैं अपने
दहस्से में से एक पाई भी नहीीं दे सकता। कफर खि
ु ते ही आमदनी तो होगी नहीीं। कम-से-कम साि-भर घर
से खाना पडेगा।
फू िमती रात को भोजन करके िेटी थी कक उमा और दया उसके पास जा कर बैठ गए। दोनों ऐसा मह
बनाए हुए थे, मानो कोई भरी ववपवत्त आ पडी है । फूिमती ने सशींक होकर पछ
ु
ू ा—तुम दोनों घबडाए हुए
मािम
ू होते हो?
उमा ने लसर खजु िाते हुए कहा—समाचार-पत्रों में िेख लिखना बडे जोखखम का काम है अम्मा! ककतना
ही बचकर लिखो, िेककन कहीीं-न-कहीीं पकड हो ही जाती है । दयानाथ ने एक िेख लिखा था। उस पर प च ॉँ
ॉँ गई है । अगर कि तक जमा न कर दी गई, तो धगरफ्तार हो जाऍगेीं और दस साि
हजार की जमानत म गी
की सजा ठुक जाएगी।
फूिमती ने लसर पीटकर कहा—ऐसी बातें क्यों लिखते हो बेटा? जानते नहीीं हो, आजकि हमारे अददन
आए हुए हैं। जमानत ककसी तरह टि नहीीं सकती?
दयानाथ ने अपराधी—भाव से उत्तर ददया—मैंने तो अम्मा, ऐसी कोई बात नहीीं लिखी थी; िेककन
ककस्मत को क्या करू। हाककम क्जिा इतना कडा है कक जरा भी ररयायत नहीीं करता। मैंने क्जतनी दौंड-धप
ू
हो सकती थी, वह सब कर िी।
‘तो तुमने कामता से रूपये का प्रबन्ध करने को नहीीं कहा?’
उमा ने मह
ु बनाया—उनका स्वभाव तो तम
ु जानती हो अम्मा, उन्हें रूपये प्राणों से प्यारे हैं। इन्हें चाहे
कािापानी ही हो जाए, वह एक पाई न दें गे।
दयानाथ ने समथमन ककया—मैंने तो उनसे इसका क्जक्र ही नहीीं ककया।
फूिमती ने चारपाई से उठते हुए कहा—चिो, मैं कहती हू, दे गा कैसे नहीीं? रूपये इसी ददन के लिए होते
हैं कक गाडकर रखने के लिए?
उमानाथ ने माता को रोककर कहा-नहीीं अम्मा, उनसे कुछ न कहो। रूपये तो न दें गे, उल्टे और हाय-
हाय मचाऍगेीं । उनको अपनी नौकरी की खैररयत मनानी है , इन्हें घर में रहने भी न दें गे। अफसरों में जाकर
खबर दे दें तो आश्चयम नहीीं।
ती ु र गये। म ॉँ के गहनों पर हाथ साफ करके चारों भाई उसकी ददिजोई करने िगे
न महीने और गज
थे। अपनी क्स्त्रयों को भी समझाते थे कक उसका ददि न दख
ु ाऍ।ीं अगर थोडे-से लशष्टाचार से उसकी
आत्मा को शाींनत लमिती है , तो इसमें क्या हानन है । चारों करते अपने मन की, पर माता से सिाह िे िेते या
ऐसा जाि फैिाते कक वह सरिा उनकी बातों में आ जाती और हरे क काम में सहमत हो जाती। बाग को
बेचना उसे बहुत बरु ा िगता था; िेककन चारों ने ऐसी माया रची कक वह उसे बेचते पर राजी हो गई, ककन्तु
ु के वववाह के ववषय में मतैक्य न हो सका। म ॉँ पीं. परु ारीिाि पर जमी हुई थी, िडके दीनदयाि पर
कुमद
अडे हुए थे। एक ददन आपस में किह हो गई।
फू िमती अपने कमरे में जाकर िेटी, तो उसे मािम ू हुआ, उसकी कमर टूट गई है । पनत के मरते ही अपने
पेट के िडके उसके शत्रु हो जायेंगे, उसको स्वप्न में भी अनम
ु ान न था। क्जन िडकों को उसने अपना
ॉँ की
हृदय-रक्त वपिा-वपिाकर पािा, वही आज उसके हृदय पर यों आघात कर रहे हैं! अब वह घर उसे क टों
सेज हो रहा था। जह ॉँ उसकी कुछ कद्र नहीीं, कुछ धगनती नहीीं, वह ॉँ अनाथों की भाींनत पडी रोदटय ॉँ खाए, यह
उसकी अलभमानी प्रकृनत के लिए असह्य था।
पर उपाय ही क्या था? वह िडकों से अिग होकर रहे भी तो नाक ककसकी कटे गी! सींसार उसे थक
ू े तो
क्या, और िडकों को थक
ू े तो क्या; बदमानी तो उसी की है । दनु नया यही तो कहे गी कक चार जवान बेटों के
होते बदु ढ़या अिग पडी हुई मजरू ी करके पेट पाि रही है ! क्जन्हें उसने हमेशा नीच समझा, वही उस पर
हसेंगे। नहीीं, वह अपमान इस अनादर से कहीीं जयादा हृदयववदारक था। अब अपना और घर का परदा ढका
रखने में ही कुशि है। हा, अब उसे अपने को नई पररक्स्थनतयों के अनक
ु ू ि बनाना पडेगा। समय बदि गया
है । अब तक स्वालमनी बनकर रही, अब िौंडी बनकर रहना पडेगा। ईश्वर की यही इच्छा है । अपने बेटों की
बातें और िातें गैरों ककी बातों और िातों की अपेक्षा कफर भी गनीमत हैं।
ु ढ पेॉँ अपनी दशा पर रोती रही। सारी रात इसी आत्म-वेदना में कट गई। शरद्
वह बडी दे र तक मह
का प्रभाव डरता-डरता उषा की गोद से ननकिा, जैसे कोई कैदी नछपकर जेि से भाग आया हो। फूिमती
अपने ननयम के ववरूद्ध आज िडके ही उठी, रात-भर मे उसका मानलसक पररवतमन हो चक
ु ा था। सारा घर
सो रहा था और वह आींगन में झाडू िगा रही थी। रात-भर ओस में भीगी हुई उसकी पक्की जमीन उसके
ॉँ की तरह चभ
नींगे पैरों में क टों ु रही थी। पींडडतजी उसे कभी इतने सवेरे उठने न दे ते थे। शीत उसके लिए
बहुत हाननकारक था। पर अब वह ददन नहीीं रहे । प्रकृनत उस को भी समय के साथ बदि दे ने का प्रयत्न कर
रही थी। झाडू से फुरसत पाकर उसने आग जिायी और चावि-दाि की कींकडडय ॉँ चन ु ने िगी। कुछ दे र में
िडके जागे। बहुऍ ीं उठीीं। सभों ने बदु ढ़या को सदी से लसकुडे हुए काम करते दे खा; पर ककसी ने यह न कहा
कक अम्म ,ॉँ क्यों हिकान होती हो? शायद सब-के-सब बदु ढ़या के इस मान-मदम न पर प्रसन्न थे।
आज से फूिमती का यही ननयम हो गया कक जी तोडकर घर का काम करना और अींतरीं ग नीनत से
अिग रहना। उसके मख ु पर जो एक आत्मगौरव झिकता रहता था, उसकी जगह अब गहरी वेदना छायी हुई
नजर आती थी। जहाीं बबजिी जिती थी, वहाीं अब तेि का ददया दटमदटमा रहा था, क्जसे बझ
ु ा दे ने के लिए
हवा का एक हिका-सा झोंका काफी है ।
मरु ारीिाि को इनकारी-पत्र लिखने की बात पक्की हो चक
ु ी थी। दस
ू रे ददन पत्र लिख ददया गया।
दीनदयाि से कुमद
ु का वववाह ननक्श्चत हो गया। दीनदयाि की उम्र चािीस से कुछ अधधक थी, मयामदा में
भी कुछ हे ठे थे, पर रोटी-दाि से खुश थे। बबना ककसी ठहराव के वववाह करने पर राजी हो गए। नतधथ ननयत
हुई, बारात आयी, वववाह हुआ और कुमदु बबदा कर दी गई फूिमती के ददि पर क्या गुजर रही थी, इसे कौन
ॉँ ननकि गया हो। ऊचे कुि की
जान सकता है ; पर चारों भाई बहुत प्रसन्न थे, मानो उनके हृदय का क टा
कन्या, मह
ु कैसे खोिती? भाग्य में सख
ु भोगना लिखा होगा, सख
ु भोगेगी; दख
ु भोगना लिखा होगा, दख
ु
झेिेगी। हरर-इच्छा बेकसों का अींनतम अविम्ब है । घरवािों ने क्जससे वववाह कर ददया, उसमें हजार ऐब हों,
तो भी वह उसका उपास्य, उसका स्वामी है । प्रनतरोध उसकी कल्पना से परे था।
मे रे भाई साहब मझ ॉँ साि बडे थे, िेककन तीन दरजे आगे। उन्होने भी उसी उम्र में पढना शरू
ु से प च ु
ककया था जब मैने शरू
ु ककया; िेककन तािीम जैसे महत्व के मामिे में वह जल्दीबाजी से काम िेना
पसींद न करते थे। इस भवन कक बनु नयाद खूब मजबत
ू डािना चाहते थे क्जस पर आिीशान महि बन सके।
एक साि का काम दो साि में करते थे। कभी-कभी तीन साि भी िग जाते थे। बनु नयाद ही पख्
ु ता न हो,
तो मकान कैसे पाएदार बने।
मैं छोटा था, वह बडे थे। मेरी उम्र नौ साि कक,वह चौदह साि के थे। उन्हें मेरी तम्बीह और
ननगरानी का परू ा जन्मलसद्ध अधधकार था। और मेरी शािीनता इसी में थी कक उनके हुक्म को कानन
ू
समझ।ू
वह स्वभाव से बडे अघ्ययनशीि थे। हरदम ककताब खोिे बैठे रहते और शायद ददमाग को आराम दे ने
के लिए कभी कापी पर, कभी ककताब के हालशयों पर धचडडयों, कुत्तों, बक्ल्ियो की तस्वीरें बनाया करते थें।
कभी-कभी एक ही नाम या शब्द या वाक्य दस-बीस बार लिख डािते। कभी एक शेर को बार-बार सन्
ु दर
अक्षर से नकि करते। कभी ऐसी शब्द-रचना करते, क्जसमें न कोई अथम होता, न कोई सामींजस्य! मसिन
एक बार उनकी कापी पर मैने यह इबारत दे खी-स्पेशि, अमीना, भाइयों-भाइयों, दर-असि, भाई-भाई, राघेश्याम,
श्रीयत
ु राघेश्याम, एक घींटे तक—इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था। मैंने चेष्टा की कक इस
पहे िी का कोई अथम ननकाि;ू िेककन असफि रहा और उसने पछ ू ने का साहस न हुआ। वह नवी जमात में
थे, मैं पाचवी में । उनकक रचनाओ को समझना मेरे लिए छोटा मींह
ु बडी बात थी।
मेरा जी पढने में बबिकुि न िगता था। एक घींटा भी ककताब िेकर बैठना पहाड था। मौका पाते ही
होस्टि से ननकिकर मैदान में आ जाता और कभी कींकररयाीं उछािता, कभी कागज कक नततलिया उडाता,
और कहीीं कोई साथी लमि गया तो पछ
ू ना ही क्या कभी चारदीवारी पर चढकर नीचे कूद रहे है, कभी फाटक
पर वार, उसे आगे-पीछे चिाते हुए मोटरकार का आनींद उठा रहे है । िेककन कमरे में आते ही भाई साहब
का रौद्र रूप दे खकर प्राण सख
ू जाते। उनका पहिा सवाि होता-‘कहाीं थें?‘ हमेशा यही सवाि, इसी घ्वनन में
पछ
ू ा जाता था और इसका जवाब मेरे पास केवि मौन था। न जाने मींह
ु से यह बात क्यों न ननकिती कक
जरा बाहर खेि रहा था। मेरा मौन कह दे ता था कक मझ
ु े अपना अपराध स्वीकार है और भाई साहब के लिए
इसके लसवा और कोई इिाज न था कक रोष से लमिे हुए शब्दों में मेरा सत्कार करें ।
‘इस तरह अींग्रेजी पढोगे, तो क्जन्दगी-भर पढते रहोगे और एक हफम न आएगा। अगरे जी पढना कोई
हीं सी-खेि नही है कक जो चाहे पढ िे, नही, ऐरा-गैरा नत्थ-ू खैरा सभी अींगरे जी कक ववद्धान हो जाते। यहाीं रात-
ददन आींखे फोडनी पडती है और खून जिाना पडता है, जब कही यह ववधा आती है । और आती क्या है , हाीं,
कहने को आ जाती है । बडे-बडे ववद्धान भी शद्
ु ध अींगरे जी नही लिख सकते, बोिना तो दरु रहा। और मैं
कहता हूीं, तुम ककतने घोंघा हो कक मझु े दे खकर भी सबक नही िेते। मैं ककतनी मेहनत करता हूीं, तुम अपनी
आींखो दे खते हो, अगर नही दे खते, जो यह तम् ु हारी आींखो का कसरू है, तम्
ु हारी बद्
ु धध का कसरू है। इतने मेिे-
तमाशे होते है, मझ
ु े तम
ु ने कभी दे खने जाते दे खा है, रोज ही कक्रकेट और हाकी मैच होते हैं। मैं पास नही
फटकता। हमेशा पढता रहा हूीं, उस पर भी एक-एक दरजे में दो-दो, तीन-तीन साि पडा रहता हूीं कफर तमु
कैसे आशा करते हो कक तुम यों खेि-कुद में वक्त गींवाकर पास हो जाओगे? मझ
ु े तो दो-ही-तीन साि िगते
हैं, तुम उम्र-भर इसी दरजे में पडे सडते रहोगे। अगर तुम्हे इस तरह उम्र गींवानी है , तो बींहतर है, घर चिे
जाओ और मजे से गल्
ु िी-डींडा खेिो। दादा की गाढी कमाई के रूपये क्यो बरबाद करते हो?’
मैं यह िताड सन
ु कर आींसू बहाने िगता। जवाब ही क्या था। अपराध तो मैंने ककया, िताड कौन
सहे ? भाई साहब उपदे श कक किा में ननपण
ु थे। ऐसी-ऐसी िगती बातें कहते, ऐसे-ऐसे सक्ू क्त-बाण चिाते कक
मेरे क्जगर के टुकडे-टुकडे हो जाते और दहम्मत छूट जाती। इस तरह जान तोडकर मेहनत करने कक शक्क्त
मैं अपने में न पाता था और उस ननराशा मे जरा दे र के लिए मैं सोचने िगता-क्यों न घर चिा जाऊ। जो
काम मेरे बत
ू े के बाहर है, उसमे हाथ डािकर क्यो अपनी क्जन्दगी खराब करूीं। मझ
ु े अपना मख
ू म रहना मींजरू
था; िेककन उतनी मेहनत से मझ
ु े तो चक्कर आ जाता था। िेककन घींटे–दो घींटे बाद ननराशा के बादि फट
जाते और मैं इरादा करता कक आगे से खब
ू जी िगाकर पढूींगा। चटपट एक टाइम-टे बबि बना डािता। बबना
पहिे से नक्शा बनाए, बबना कोई क्स्कम तैयार ककए काम कैसे शरू
ु ीं करूीं? टाइम-टे बबि में , खेि-कूद कक मद
सा िाना इम्तहान हुआ। भाई साहब फेि हो गए, मैं पास हो गया और दरजे में प्रथम आया। मेरे और
उनके बीच केवि दो साि का अन्तर रह गया। जी में आया, भाई साहब को आडें हाथो ि—आपकी
ू
वह घोर तपस्या कहा गई? मझु े दे खखए, मजे से खेिता भी रहा और दरजे में अव्वि भी हूीं। िेककन वह इतने
द:ु खी और उदास थे कक मझ
ु े उनसे ददल्िी हमददी हुई और उनके घाव पर नमक नछडकने का ववचार ही
िजजास्पद जान पडा। हाीं, अब मझ
ु े अपने ऊपर कुछ अलभमान हुआ और आत्मालभमान भी बढा भाई साहब
का वहरोब मझ
ु पर न रहा। आजादी से खेि–कूद में शरीक होने िगा। ददि मजबतू था। अगर उन्होने कफर
मेरी फजीहत की, तो साफ कह दगा—आपने
ू अपना खून जिाकर कौन-सा तीर मार लिया। मैं तो खेिते-
कूदते दरजे में अव्वि आ गया। जबावसेयह हे कडी जताने कासाहस न होने पर भी मेरे रीं ग-ढीं ग से साफ
जादहर होता था कक भाई साहब का वह आतींक अब मझ
ु पर नहीीं है । भाई साहब ने इसे भाप लिया-उनकी
ससहसत बद्
ु धध बडी तीव्र थी और एक ददन जब मै भोर का सारा समय गुल्िी-डींडे कक भें ट करके ठीक
भोजन के समय िौटा, तो भाई साइब ने मानो तिवार खीच िी और मझ ु पर टूट पडे-दे खता हूीं, इस साि
पास हो गए और दरजे में अव्वि आ गए, तो तम्
ु हे ददमाग हो गया है ; मगर भाईजान, घमींड तो बडे-बडे का
नही रहा, तम्
ु हारी क्या हस्ती है, इनतहास में रावण का हाि तो पढ़ा ही होगा। उसके चररत्र से तम
ु ने कौन-सा
उपदे श लिया? या यो ही पढ गए? महज इम्तहान पास कर िेना कोई चीज नही, असि चीज है बद्
ु धध का
ववकास। जो कुछ पढो, उसका अलभप्राय समझो। रावण भम
ू ींडि का स्वामी था। ऐसे राजो को चक्रवती कहते
है । आजकि अींगरे जो के राजय का ववस्तार बहुत बढा हुआ है, पर इन्हे चक्रवती नहीीं कह सकते। सींसार में
अनेको राष्र अगरे जों का आधधपत्य स्वीकार नहीीं करते। बबिकुि स्वाधीन हैं। रावण चक्रवती राजा था।
सींसार के सभी महीप उसे कर दे ते थे। बडे-बडे दे वता उसकी गि
ु ामी करते थे। आग और पानी के दे वता भी
उसके दास थे; मगर उसका अींत क् या हुआ, घमींड ने उसका नाम-ननशान तक लमटा ददया, कोई उसे एक
धचल्िू पानी दे नेवािा भी न बचा। आदमी जो कुकमम चाहे करें ; पर अलभमान न करे , इतराए नही। अलभमान
ककया और दीन-दनु नया से गया।
शैतान का हाि भी पढा ही होगा। उसे यह अनम ु ान हुआ था कक ईश्वर का उससे बढकर सच्चा भक्त
कोई है ही नहीीं। अन्त में यह हुआ कक स्वगम से नरक में ढकेि ददया गया। शाहे रूम ने भी एक बार अहीं कार
ककया था। भीख माींग-माींगकर मर गया। तुमने तो अभी केवि एक दरजा पास ककया है और अभी से
तुम्हारा लसर कफर गया, तब तो तुम आगे बढ चक
ु े । यह समझ िो कक तुम अपनी मेहनत से नही पास हुए,
अन्धे के हाथ बटे र िग गई। मगर बटे र केवि एक बार हाथ िग सकती है , बार-बार नहीीं। कभी-कभी
गुल्िी-डींडे में भी अींधा चोट ननशाना पड जाता है। उससे कोई सफि खखिाडी नहीीं हो जाता। सफि खखिाडी
वह है, क्जसका कोई ननशान खािी न जाए।
मेरे फेि होने पर न जाओ। मेरे दरजे में आओगे, तो दातो पसीना आयगा। जब अिजबरा और जामें री
के िोहे के चने चबाने पडेंगे और इींगलिस्तान का इनतहास पढ़ना पडेंगा! बादशाहों के नाम याद रखना
आसान नहीीं। आठ-आठ हे नरी को गज
ु रे है कौन-सा काींड ककस हे नरी के समय हुआ, क्या यह याद कर िेना
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आसान समझते हो? हे नरी सातवें की जगह हे नरी आठवाीं लिखा और सब नम्बर गायब! सफाचट। लसफम भी
न लमिगा, लसफर भी! हो ककस ख्याि में ! दरजनो तो जेम्स हुए हैं, दरजनो ववलियम, कोडडयों चाल्सम ददमाग
चक्कर खाने िगता है । आींधी रोग हो जाता है। इन अभागो को नाम भी न जड ु ते थे। एक ही नाम के पीछे
दोयम, तेयम, चहारम, पींचम नगाते चिे गए। मछ
ु से पछ
ू ते, तो दस िाख नाम बता दे ता।
और जामेरी तो बस खुदा की पनाह! अ ब ज की जगह अ ज ब लिख ददया और सारे नम्बर कट
गए। कोई इन ननदम यी मम
ु तदहनों से नहीीं पछ
ू ता कक आखखर अ ब ज और अ ज ब में क्या फकम है और
व्यथमकी बात के लिए क्यो छात्रो का खन
ू करते हो दाि-भात-रोटी खायी या भात-दाि-रोटी खायी, इसमें क्या
रखा है; मगर इन परीक्षको को क्या परवाह! वह तो वही दे खते है , जो पस्
ु तक में लिखा है । चाहते हैं कक
िडके अक्षर-अक्षर रट डािे। और इसी रटीं त का नाम लशक्षा रख छोडा है और आखखर इन बे-लसर-पैर की
बातो के पढ़ने से क्या फायदा?
इस रे खा पर वह िम्ब धगरा दो, तो आधार िम्ब से दग
ु ना होगा। पनू छए, इससे प्रयोजन? दग
ु ना नही,
चौगुना हो जाए, या आधा ही रहे , मेरी बिा से, िेककन परीक्षा में पास होना है, तो यह सब खुराफात याद
करनी पडेगी। कह ददया-‘समय की पाबींदी’ पर एक ननबन्ध लिखो, जो चार पन्नो से कम न हो। अब आप
कापी सामने खोिे, किम हाथ में लिये, उसके नाम को रोइए।
कौन नहीीं जानता कक समय की पाबन्दी बहुत अच्छी बात है। इससे आदमी के जीवन में सींयम आ
जाता है, दस
ू रो का उस पर स्नेह होने िगता है और उसके करोबार में उन्ननत होती है ; जरा-सी बात पर चार
पन्ने कैसे लिखें? जो बात एक वाक्य में कही जा सके, उसे चार पन्ने में लिखने की जरूरत? मैं तो इसे
दहमाकत समझता हूीं। यह तो समय की ककफायत नही, बक्ल्क उसका दरू ु पयोग है कक व्यथम में ककसी बात
को ठूींस ददया। हम चाहते है , आदमी को जो कुछ कहना हो, चटपट कह दे और अपनी राह िे। मगर नही,
आपको चार पन्ने रीं गने पडेंगे, चाहे जैसे लिखखए और पन्ने भी परू े फुल्सकेप आकार के। यह छात्रो पर
अत्याचार नहीीं तो और क्या है? अनथम तो यह है कक कहा जाता है , सींक्षेप में लिखो। समय की पाबन्दी पर
सींक्षेप
में एक ननबन्ध लिखो, जो चार पन्नो से कम न हो। ठीक! सींक्षेप में चार पन्ने हुए, नही शायद सौ-दो
सौ पन्ने लिखवाते। तेज भी दौडडए और धीरे -धीरे भी। है उल्टी बात या नही? बािक भी इतनी-सी बात
समझ सकता है , िेककन इन अध्यापको को इतनी तमीज भी नहीीं। उस पर दावा है कक हम अध्यापक है ।
मेरे दरजे में आओगे िािा, तो ये सारे पापड बेिने पडेंगे और तब आटे -दाि का भाव मािम
ू होगा। इस दरजे
में अव्वि आ गए हो, वो जमीन पर पाींव नहीीं रखते इसलिए मेरा कहना माननए। िाख फेि हो गया हू,
िेककन तम ु से बडा हूीं, सींसार का मझ
ु े तम
ु से जयादा अनभ
ु व है । जो कुछ कहता हूीं, उसे धगरह बाींधधए नही
पछताएगे।
स्कूि का समय ननकट था, नहीीं इश्वर जाने, यह उपदे श-मािा कब समाप्त होती। भोजन आज मझ
ु े
ननस्स्वाद-सा िग रहा था। जब पास होने पर यह नतरस्कार हो रहा है , तो फेि हो जाने पर तो शायद प्राण
ही िे लिए जाएीं। भाई साहब ने अपने दरजे की पढाई का जो भयींकर धचत्र खीचा था; उसने मझ
ु े भयभीत
कर ददया। कैसे स्कूि छोडकर घर नही भागा, यही ताजजुब है; िेककन इतने नतरस्कार पर भी पस्
ु तकों में मेरी
अरूधच जयो-कक-त्यों बनी रही। खेि-कूद का कोई अवसर हाथ से न जाने दे ता। पढ़ता भी था, मगर बहुत
कम। बस, इतना कक रोज का टास्क परू ा हो जाए और दरजे में जिीि न होना पडें। अपने ऊपर जो
ववश्वास पैदा हुआ था, वह कफर िप्ु त हो गया और कफर चोरो का-सा जीवन कटने िगा।
कफ
र सािाना इम्तहान हुआ, और कुछ ऐसा सींयोग हुआ कक मै क्ाफर पास हुआ और भाई साहब कफर
फेि हो गए। मैंने बहुत मेहनत न की पर न जाने, कैसे दरजे में अव्वि आ गया। मझ
ु े खुद अचरज
हुआ। भाई साहब ने प्राणाींतक पररश्रम ककया था। कोसम का एक-एक शब्द चाट गये थे; दस बजे रात तक
इधर, चार बजे भोर से उभर, छ: से साढे नौ तक स्कूि जाने के पहिे। मद्र
ु ा काींनतहीन हो गई थी, मगर बेचारे
फेि हो गए। मझ
ु े उन पर दया आती थी। नतीजा सन
ु ाया गया, तो वह रो पडे और मैं भी रोने िगा। अपने
पास होने वािी खुशी आधी हो गई। मैं भी फेि हो गया होता, तो भाई साहब को इतना द:ु ख न होता, िेककन
ववधध की बात कौन टािे?
मेरे और भाई साहब के बीच में अब केवि एक दरजे का अन्तर और रह गया। मेरे मन में एक
कुदटि भावना उदय हुई कक कही भाई साहब एक साि और फेि हो जाए, तो मै उनके बराबर हो जाऊीं,
शांतत
स्व गीय दे वनाथ मेरे अलभन्न लमत्रों में थे। आज भी जब उनकी याद आती है, तो वह रीं गरे लियाीं आींखों
में कफर जाती हैं, और कहीीं एकाींत में जाकर जरा रो िेता हूीं। हमारे दे र रो िेता हूीं। हमारे बीच में
दो-ढाई सौ मीि का अींतर था। मैं िखनऊ में था, वह ददल्िी में; िेककन ऐसा शायद ही कोई महीना जाता हो
कक हम आपस में न लमि पाते हों। वह स्वच्छन्द प्रकनत के ववनोदवप्रय, सहृदय, उदार और लमत्रों पर प्राण
दे नेवािा आदमी थे, क्जन्होंने अपने और पराए में कभी भेद नहीीं ककया। सींसार क्या है और यहाीं िौककक
व्यवहार का कैसा ननवामह होता है , यह उस व्यक्क्त ने कभी न जानने की चेष्टा की। उनकी जीवन में ऐसे
कई अवसर आए, जब उन्हें आगे के लिए होलशयार हो जाना चादहए था।
लमत्रों ने उनकी ननष्कपटता से अनधु चत िाभ उठाया, और कई बार उन्हें िक्जजत भी होना पडा; िेककन
उस भिे आदमी ने जीवन से कोई सबक िेने की कसम खा िी थी। उनके व्यवहार जयों के त्यों रहे — ‘जैसे
भोिानाथ क्जए, वैसे ही भोिानाथ मरे , क्जस दनु नया में वह रहते थे वह ननरािी दनु नया थी, क्जसमें सींदेह,
चािाकी और कपट के लिए स्थान न था— सब अपने थे, कोई गैर न था। मैंने बार-बार उन्हें सचेत करना
चाहा, पर इसका पररणाम आशा के ववरूद्ध हुआ। मझ ु े कभी-कभी धचींता होती थी कक उन्होंने इसे बींद न
ककया, तो नतीजा क्या होगा? िेककन ववडींबना यह थी कक उनकी स्त्री गोपा भी कुछ उसी साींचे में ढिी हुई
थी। हमारी दे ववयों में जो एक चातरु ी होती है, जो सदै व ऐसे उडाऊ परू
ु षों की असावधाननयों पर ‘िेक का
काम करती है , उससे वह वींधचत थी। यहाीं तक कक वस्त्राभष
ू ण में भी उसे ववशेष रूधच न थी। अतएव जब
मझ
ु े दे वनाथ के स्वगामरोहण का समाचार लमिा और मैं भागा हुआ ददल्िी गया, तो घर में बरतन भाींडे और
मकान के लसवा और कोई सींपनत न थी। और अभी उनकी उम्र ही क्या थी, जो सींचय की धचींता करते चािीस
भी तो परू े न हुए थे। यों तो िडपन उनके स्वभाव में ही था; िेककन इस उम्र में प्राय: सभी िोग कुछ
बेकफ्रक रहते हैं। पहिे एक िडकी हुई थी, इसके बाद दो िडके हुए। दोनों िडके तो बचपन में ही दगा दे
गए थे। िडकी बच रही थी, और यही इस नाटक का सबसे करूण दश्य था। क्जस तरह का इनका जीवन था
उसको दे खते इस छोटे से पररवार के लिए दो सौ रूपये महीने की जरूरत थी। दो-तीन साि में िडकी का
वववाह भी करना होगा। कैसे क्या होगा, मेरी बद्
ु धध कुछ काम न करती थी।
इस अवसर पर मझ ु े यह बहुमल्ू य अनभु व हुआ कक जो िोग सेवा भाव रखते हैं और जो स्वाथम-लसद्धध
को जीवन का िक्ष्य नहीीं बनाते, उनके पररवार को आड दे नेवािों की कमी नहीीं रहती। यह कोई ननयम नहीीं
है , क्योंकक मैंने ऐसे िोगों को भी दे खा है, क्जन्होंने जीवन में बहुतों के साथ अच्छे सिक
ू ककए; पर उनके पीछे
उनके बाि-बच्चे की ककसी ने बात तक न पछ ू ी। िेककन चाहे कुछ हो, दे वनाथ के लमत्रों ने प्रशींसनीय औदायम
से काम लिया और गोपा के ननवामह के लिए स्थाई धन जमा करने का प्रस्ताव ककया। दो-एक सजजन जो
रीं डुवे थे, उससे वववाह करने को तैयार थे, ककींतु गोपा ने भी उसी स्वालभमान का पररचय ददया, जो महारी
दे ववयों का जौहर है और इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर ददया। मकान बहुत बडा था। उसका एक भाग
ककराए पर उठा ददया। इस तरह उसको 50 रू महावार लमिने िगे। वह इतने में ही अपना ननवामह कर िेगी।
जो कुछ खचम था, वह सन्
ु नी की जात से था। गोपा के लिए तो जीवन में अब कोई अनरु ाग ही न था।
ये
चार महीने गोपा ने वववाह की तैयाररयों में काटे । मैं महीने में एक बार अवश्य उससे लमि आता था;
पर हर बार खखन्न होकर िौटता। गोपा ने अपनी कुि मयामदा का न जाने ककतना महान आदशम अपने
सामने रख लिया था। पगिी इस भ्रम में पडी हुई थी कक उसका उत्साह नगर में अपनी यादगार छोडता
जाएगा। यह न जानती थी कक यहाीं ऐसे तमाशे रोज होते हैं और आये ददन भि
ु ा ददए जाते हैं। शायद वह
सींसार से यह श्रेय िेना चाहती थी कक इस गई—बीती दशा में भी, िट
ु ा हुआ हाथी नौ िाख का है। पग-पग
पर उसे दे वनाथ की याद आती। वह होते तो यह काम यों न होता, यों होता, और तब रोती।
मदारीिाि सजजन हैं, यह सत्य है, िेककन गोपा का अपनी कन्या के प्रनत भी कुछ धमम है । कौन उसके
दस पाींच िडककयाीं बैठी हुई हैं। वह तो ददि खोिकर अरमान ननकािेगी! सन् ु नी के लिए उसने क्जतने गहने
और जोडे बनवाए थे, उन्हें दे खकर मझ ु े आश्चयम होता था। जब दे खो कुछ-न-कुछ सी रही है, कभी सन
ु ारों की
दक
ु ान पर बैठी हुई है , कभी मेहमानों के आदर-सत्कार का आयोजन कर रही है । मह
ु ल्िे में ऐसा बबरिा ही
कोई सम्पन्न मनष्ु य होगा, क्जससे उसने कुछ कजम न लिया हो। वह इसे कजम समझती थी, पर दे ने वािे दान
समझकर दे ते थे। सारा मह
ु ल्िा उसका सहायक था। सन्
ु नी अब मह
ु ल्िे की िडकी थी। गोपा की इजजत
सबकी इजजत है और गोपा के लिए तो नीींद और आराम हराम था। ददम से लसर फटा जा रहा है , आधी रात
हो गई मगर वह बैठी कुछ-न-कुछ सी रही है, या इस कोठी का धान उस कोठी कर रही है। ककतनी वात्सल्य
से भरी अकाींक्षा थी, जो कक दे खने वािों में श्रद्धा उत्पन्न कर दे ती थी।
अकेिी औरत और वह भी आधी जान की। क्या क्या करे । जो काम दस
ू रों पर छोड दे ती है, उसी में
कुछ न कुछ कसर रह जाती है, पर उसकी दहम्मत है कक ककसी तरह हार नहीीं मानती।
जनभी,
ू उसे सींतोष न हुआ। आज सन्ु नी के वपता होते तो न जाने क्या करते। बराबर रोती रही।
में वववाह हो गया। गोपा ने बहुत कुछ ददया और अपनी है लसयत से बहुत जयादा ददया, िेककन कफर
म ई का महीना था। मैं मींसरू गया हुआ था कक गोपा का तार पहुचा तुरींत आओ, जरूरी काम है । मैं
घबरा तो गया िेककन इतना ननक्श्चत था कक कोई दघ
गोपा मेरे सामने आकर खडी हो गई, ननस्पींद, मक
ु ट
म ना नहीीं हुई है । दस
ू , ननष्प्राण, जैसे तपेददक की रोगी हो।
ू रे ददन ददल्िी जा पहुचा।
‘मैंने पछ
ू ा कुशि तो है , मैं तो घबरा उठा।‘
‘उसने बझु ी हुई आींखों से दे खा और बोि सच।’
‘सन्
ु नी तो कुशि से है ।’
‘हाीं अच्छी तरह है ।’
‘और केदारनाथ?’
‘वह भी अच्छी तरह हैं।’
‘तो कफर माजरा क्या है?’
‘कुछ तो नहीीं।’
‘तम
ु ने तार ददया और कहती हो कुछ तो नहीीं।’
‘ददि तो घबरा रहा था, इससे तम्
ु हें बि
ु ा लिया। सन्
ु नी को ककसी तरह समझाकर यहाीं िाना है । मैं तो
सब कुछ करके हार गई।’
‘क्या इधर कोई नई बात हो गई।’
‘नयी तो नहीीं है , िेककन एक तरह में नयी ही समझो, केदार एक ऐक्रे स के साथ कहीीं भाग गया। एक
सप्ताह से उसका कहीीं पता नहीीं है । सन्
ु नी से कह गया है —जब तक तुम रहोगी घर में नहीीं आऊगा। सारा
घर सन्
ु नी का शत्रु हो रहा है, िेककन वह वहाीं से टिने का नाम नहीीं िेता। सन
ु ा है केदार अपने बाप के
दस्तखत बनाकर कई हजार रूपये बैंक से िे गया है।
‘तम
ु सन्
ु नी से लमिी थीीं?’
‘हाीं, तीन ददन से बराबर जा रही हूीं।’
‘वह नहीीं आना चाहती, तो रहने क्यों नहीीं दे ती।’
‘वहाीं घट
ु घट
ु कर मर जाएगी।’
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‘मैं उन्हीीं पैरों िािा मदारीिाि के घर चिा। हािाींकक मैं जानता था कक सन्
ु नी ककसी तरह न आएगी,
मगर वहाीं पहुचा तो दे खा कुहराम मचा हुआ है। मेरा किेजा धक से रह गया। वहाीं तो अथी सज रही थी।
मह
ु ल्िे के सैकडों आदमी जमा थे। घर में से ‘हाय! हाय!’ की क्रींदन-ध्वनन आ रही थी। यह सन्
ु नी का शव
था।
मदारीिाि मझ
ु े दे खते ही मझ
ु से उन्मत की भाींनत लिपट गए और बोिे:
‘भाई साहब, मैं तो िट
ु गया। िडका भी गया, बहू भी गयी, क्जन्दगी ही गारत हो गई।’
मािम
ू हुआ कक जब से केदार गायब हो गया था, सन् ु नी और भी जयादा उदास रहने िगी थी। उसने
उसी ददन अपनी चडू डयाीं तोड डािी थीीं और माींग का लसींदरू पोंछ डािा था। सास ने जब आपवत्त की, तो
उनको अपशब्द कहे । मदारीिाि ने समझाना चाहा तो उन्हें भी जिी-कटी सन
ु ायी। ऐसा अनम
ु ान होता था—
उन्माद हो गया है । िोगों ने उससे बोिना छोड ददया था। आज प्रात:काि यमन
ु ा स्नान करने गयी। अींधेरा
था, सारा घर सो रहा था, ककसी को नहीीं जगाया। जब ददन चढ़ गया और बहू घर में न लमिी, तो उसकी
तिाश होने िगी। दोपहर को पता िगा कक यमन ु ा गयी है। िोग उधर भागे। वहाीं उसकी िाश लमिी। पलु िस
आयी, शव की परीक्षा हुई। अब जाकर शव लमिा है। मैं किेजा थामकर बैठ गया। हाय, अभी थोडे ददन पहिे
जो सन्
ु दरी पािकी पर सवार होकर आयी थी, आज वह चार के कींधे पर जा रही है !
मैं अथी के साथ हो लिया और वहाीं से िौटा, तो रात के दस बज गये थे। मेरे पाींव काींप रहे थे।
मािम
ू नहीीं, यह खबर पाकर गोपा की क्या दशा होगी। प्राणाींत न हो जाए, मझ
ु े यही भय हो रहा था। सन्ु नी
उसकी प्राण थी। उसकी जीवन का केन्द्र थी। उस दखु खया के उद्यान में यही पौधा बच रहा था। उसे वह
हृदय रक्त से सीींच-सीींचकर पाि रही थी। उसके वसींत का सन
ु हरा स्वप्न ही उसका जीवन था उसमें कोपिें
ननकिेंगी, फूि खखिेंगे, फि िगें गे, धचडडया उसकी डािी पर बैठकर अपने सह
ु ाने राग गाएींगी, ककन्तु आज
ननष्ठुर ननयनत ने उस जीवन सत्र
ू को उखाडकर फेंक ददया। और अब उसके जीवन का कोई आधार न था।
वह बबन्द ु ही लमट गया था, क्जस पर जीवन की सारी रे खाए आकर एकत्र हो जाती थीीं।
ददि को दोनों हाथों से थामे, मैंने जींजीर खटखटायी। गोपा एक िािटे न लिए ननकिी। मैंने गोपा के
मख
ु पर एक नए आनींद की झिक दे खी।
मेरी शोक मद्र
ु ा दे खकर उसने मातव
ृ त ् प्रेम से मेरा हाथ पकड तिया और बोिी आज तो तुम्हारा सारा
ददन रोते ही कटा; अथी के साथ बहुत से आदमी रहे होंगे। मेरे जी में भी आया कक चिकर सन् ु नी के
अींनतम दशमन कर िीं।ू िेककन मैंने सोचा, जब सन्
ु न ही न रही, तो उसकी िाश में क्या रखा है ! न गयी।
मैं ववस्मय से गोपा का मह
ु दे खने िगा। तो इसे यह शोक-समाचार लमि चक
ु ा है । कफर भी वह शाींनत
और अववचि धैय!म बोिा अच्छा-ककया, न गयी रोना ही तो था।
‘हाीं, और क्या? रोयी यहाीं भी, िेककन तुमसे सचव कहती हूीं, ददि से नहीीं रोयी। न जाने कैसे आींसू
ननकि आए। मझ ु े तो सन्
ु नी की मौत से प्रसन्नता हुई। दखु खया अपनी मान मयामदा लिए सींसार से ववदा हो
गई, नहीीं तो न जाने क्या क्या दे खना पडता। इसलिए और भी प्रसन्न हूीं कक उसने अपनी आन ननभा दी।
स्त्री के जीवन में प्यार न लमिे तो उसका अींत हो जाना ही अच्छा। तुमने सन्
ु नी की मद्र
ु ा दे खी थी? िोग
कहते हैं, ऐसा जान पडता था—मस्
ु करा रही है । मेरी सन्
ु नी सचमच
ु दे वी थी। भैया, आदमी इसलिए थोडे ही
जीना चाहता है कक रोता रहे । जब मािम
ू हो गया कक जीवन में द:ु ख के लसवा कुछ नहीीं है, तो आदमी
जीकर क्या करे। ककसलिए क्जए? खाने और सोने और मर जाने के लिए? यह मैं नहीीं चाहती कक मझ
ु े सन्ु नी
की याद न आएगी और मैं उसे याद करके रोऊगी नहीीं। िेककन वह शोक के आींसू न होंगे। बहादरु बेटे की
माीं उसकी वीरगनत पर प्रसन्न होती है । सन्
ु नी की मौत मे क्या कुछ कम गौरव है ? मैं आींसू बहाकर उस
गौरव का अनादर कैसे करूीं? वह जानती है , और चाहे सारा सींसार उसकी ननींदा करे , उसकी माता सराहना ही
करे गी। उसकी आत्मा से यह आनींद भी छीन ि?ींू िेककन अब रात जयादा हो गई है । ऊपर जाकर सो रहो।
मैंने तुम्हारी चारपाई बबछा दी है , मगर दे खे, अकेिे पडे-पडे रोना नहीीं। सन्
ु नी ने वही ककया, जो उसे करना
चादहए था। उसके वपता होते, तो आज सन्
ु नी की प्रनतमा बनाकर पज
ू ते।’
मैं ऊपर जाकर िेटा, तो मेरे ददि का बोझ बहुत हल्का हो गया था, ककन्तु रह-रहकर यह सींदेह हो
जाता था कक गोपा की यह शाींनत उसकी अपार व्यथा का ही रूप तो नहीीं है ?
नशा
ई श्वरी एक बडे जमीींदार का िडका था और मैं गरीब क्िकम था, क्जसके पास मेहनत-मजूरी के लसवा और
कोई जायदाद न थी। हम दोनों में परस्पर बहसें होती रहती थीीं। मैं जमीींदारी की बरु ाई करता, उन्हें
दहींसक पशु और खून चस
ू ने वािी जोंक और वक्ष
ृ ों की चोटी पर फूिने वािा बींझा कहता। वह जमीींदारों का
पक्ष िेता, पर स्वभावत: उसका पहिू कुछ कमजोर होता था, क्योंकक उसके पास जमीींदारों के अनक
ु ू ि कोई
दिीि न थी। वह कहता कक सभी मनष्ु य बराबर नहीीं हाते, छोटे -बडे हमेशा होते रहें गे। िचर दिीि थी।
ककसी मानष
ु ीय या नैनतक ननयम से इस व्यवस्था का औधचत्य लसद्ध करना कदठन था। मैं इस वाद-वववाद
की गमी-गमी में अक्सर तेज हो जाता और िगने वािी बात कह जाता, िेककन ईश्वरी हारकर भी मस्
ु कराता
रहता था मैंने उसे कभी गमम होते नहीीं दे खा। शायद इसका कारण यह था कक वह अपने पक्ष की कमजोरी
समझता था।
नौकरों से वह सीधे मींह
ु बात नहीीं करता था। अमीरों में जो एक बेददी और उद्दण्ता होती है , इसमें
उसे भी प्रचरु भाग लमिा था। नौकर ने बबस्तर िगाने में जरा भी दे र की, दध
ू जरूरत से जयादा गमम या ठीं डा
हुआ, साइककि अच्छी तरह साफ नहीीं हुई, तो वह आपे से बाहर हो जाता। सस्
ु ती या बदतमीजी उसे जरा भी
बरदाश्त न थी, पर दोस्तों से और ववशेषकर मझ
ु से उसका व्यवहार सौहादम और नम्रता से भरा हुआ होता था।
शायद उसकी जगह मैं होता, तो मझ
ु से भी वहीीं कठोरताएीं पैदा हो जातीीं, जो उसमें थीीं, क्योंकक मेरा िोकप्रेम
लसद्धाींतों पर नहीीं, ननजी दशाओीं पर दटका हुआ था, िेककन वह मेरी जगह होकर भी शायद अमीर ही रहता,
क्योंकक वह प्रकृनत से ही वविासी और ऐश्वयम-वप्रय था।
अबकी दशहरे की छुट्दटयों में मैंने ननश्चय ककया कक घर न जाऊींगा। मेरे पास ककराए के लिए रूपये
न थे और न घरवािों को तकिीफ दे ना चाहता था। मैं जानता हूीं, वे मझ
ु े जो कुछ दे ते हैं, वह उनकी है लसयत
से बहुत जयादा है, उसके साथ ही परीक्षा का ख्याि था। अभी बहुत कुछ पढना है, बोडडमग हाउस में भत ू की
तरह अकेिे पडे रहने को भी जी न चाहता था। इसलिए जब ईश्वरी ने मझ
ु े अपने घर का नेवता ददया, तो
मैं बबना आग्रह के राजी हो गया। ईश्वरी के साथ परीक्षा की तैयारी खूब हो जाएगी। वह अमीर होकर भी
मेहनती और जहीन है।
उसने उसके साथ ही कहा-िेककन भाई, एक बात का ख्याि रखना। वह ीं अगर जमीींदारों की ननींदा की,
तो मआ
ु लमिा बबगड. जाएगा और मेरे घरवािों को बरु ा िगेगा। वह िोग तो आसालमयों पर इसी दावे से
शासन करते हैं कक ईश्वर ने असालमयों को उनकी सेवा के लिए ही पैदा ककया है। असामी में कोई मौलिक
भेद नहीीं है, तो जमीींदारों का कहीीं पता न िगे।
मैंने कहा-तो क्या तुम समझते हो कक मैं वहाीं जाकर कुछ और हो जाऊींगा?
‘ह ,ीं मैं तो यही समझता हूीं।
‘तुम गित समझते हो।‘
ईश्वरी ने इसका कोई जवाब न ददया। कदाधचत ् उसने इस मआ
ु मिे को मरे वववेक पर छोड ददया।
और बहुत अच्छा ककया। अगर वह अपनी बात पर अडता, तो मैं भी क्जद पकड िेता।
से
कींड क्िास तो क्या, मैंनें कभी इींटर क्िास में भी सफर न ककया था। अब की सेकींड क्िास में सफर
का सौभाग्य प्राइ़ि हुआ। गाडी तो नौ बजे रात को आती थी, पर यात्रा के हषम में हम शाम को स्टे शन
जा पहुींच।े कुछ दे र इधर-उधर सैर करने के बाद ररफ्रेशमें ट-रूम में जाकर हम िोगों ने भेजन ककया। मेरी
वेश-भष
ू ा और रीं ग-ढीं ग से पारखी खानसामों को यह पहचानने में दे र न िगी कक मालिक कौन है और
वपछिग्गू कौन; िेककन न जाने क्यों मझ
ु े उनकी गुस्ताखी बरु ी िग रही थी। पैसे ईश्वरी की जेब से गए।
शायद मेरे वपता को जो वेतन लमिता है , उससे जयादा इन खानसामों को इनाम-इकराम में लमि जाता हो।
एक अठन्नी तो चिते समय ईश्वरी ही ने दी। कफर भी मैं उन सभों से उसी तत्परता और ववनय की अपेक्षा
करता था, क्जससे वे ईश्वरी की सेवा कर रहे थे। क्यों ईश्वरी के हुक्म पर सब-के-सब दौडते हैं, िेककन मैं
कोई चीज माींगता हूीं, तो उतना उत्साह नहीीं ददखाते! मझ
ु े भोजन में कुछ स्वाद न लमिा। यह भेद मेरे ध्यान
को सम्पण
ू म रूप से अपनी ओर खीींचे हुए था।
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गाडी आयी, हम दोनो सवार हुए। खानसामों ने ईश्वरी को सिाम ककया। मेरी ओर दे खा भी नहीीं।
ईश्वरी ने कहा—ककतने तमीजदार हैं ये सब? एक हमारे नौकर हैं कक कोई काम करने का ढीं ग नहीीं।
मैंने खट्टे मन से कहा—इसी तरह अगर तम
ु अपने नौकरों को भी आठ आने रोज इनाम ददया करो,
तो शायद इनसे जयादा तमीजदार हो जाएीं।
‘तो क्या तुम समझते हो, यह सब केवि इनाम के िािच से इतना अदब करते हैं।
‘जी नहीीं, कदावपत नहीीं! तमीज और अदब तो इनके रक्त में लमि गया है ।’
गाडी चिी। डाक थी। प्रयास से चिी तो प्रतापगढ जाकर रूकी। एक आदमी ने हमारा कमरा खोिा।
मैं तुरींत धचल्िा उठा, दस
ू रा दरजा है-सेकींड क्िास है ।
उस मस
ु ाकफर ने डडब्बे के अन्दर आकर मेरी ओर एक ववधचत्र उपेक्षा की दृक्ष्ट से दे खकर कहा—जी
हाीं, सेवक इतना समझता है , और बीच वािे बथमडे पर बैठ गया। मझ
ु े ककतनी िजजा आई, कह नहीीं सकता।
भोर होते-होते हम िोग मरु ादाबाद पहुींच।े स्टे शन पर कई आदमी हमारा स्वागत करने के लिए खडे
थे। पाींच बेगार। बेगारों ने हमारा िगेज उठाया। दोनों भद्र परूु ष पीछे -पीछे चिे। एक मस
ु िमान था ररयासत
अिी, दस
ू रा िाह्मण था रामहरख। दोनों ने मेरी ओर पररधचत नेत्रों से दे खा, मानो कह रहे हैं, तुम कौवे होकर
हीं स के साथ कैसे?
ररयासत अिी ने ईश्वरी से पछ
ू ा—यह बाबू साहब क्या आपके साथ पढ़ते हैं?
ईश्वरी ने जवाब ददया—ह ,ॉँ साथ पढ़ते भी हैं और साथ रहते भी हैं। यों कदहए कक आप ही की बदौित
मैं इिाहाबाद पडा हुआ हूीं, नहीीं कब का िखनऊ चिा आया होता। अब की मैं इन्हें घसीट िाया। इनके घर
से कई तार आ चक ु े थे, मगर मैंने इनकारी-जवाब ददिवा ददए। आखखरी तार तो अजेंट था, क्जसकी फीस चार
आने प्रनत शब्द है, पर यहाीं से उनका भी जवाब इनकारी ही था।
दोनों सजजनों ने मेरी ओर चककत नेत्रों से दे खा। आतींककत हो जाने की चेष्टा करते जान पडे।
ररयासत अिी ने अद्मधशींका के स्वर में कहा—िेककन आप बडे सादे लिबास में रहते हैं।
ईश्वरी ने शींका ननवारण की—महात्मा गाींधी के भक्त हैं साहब। खद्दर के लसवा कुछ पहने ही नहीीं।
परु ाने सारे कपडे जिा डािे। यों कहा कक राजा हैं। ढाई िाख सािाना की ररयासत है, पर आपकी सरू त दे खो
तो मािम
ू होता है, अभी अनाथािय से पकडकर आये हैं।
रामहरख बोिे—अमीरों का ऐसा स्वभाव बहुत कम दे खने में आता है । कोई भ पीं ही नहीीं सकता।
ररयासत अिी ने समथमन ककया—आपने महाराजा च गिी ॉँ को दे खा होता तो द तोंीं तिे उीं गिी दबाते।
एक गाढ़े की लमजमई और चमरौंधे जत
ू े पहने बाजारों में घम
ू ा करते थे। सन
ु ते हैं, एक बार बेगार में पकडे गए
थे और उन्हीीं ने दस िाख से कािेज खोि ददया।
मैं मन में कटा जा रहा था; पर न जाने क्या बात थी कक यह सफेद झठ
ू उस वक्त मझ
ु े हास्यास्पद
न जान पडा। उसके प्रत्येक वाक्य के साथ मानों मैं उस कक्ल्पत वैभव के समीपतर आता जाता था।
मैं शहसवार नहीीं हूीं। ह ,ॉँ िडकपन में कई बार िद्द ू घोडों पर सवार हुआ हूीं। यहाीं दे खा तो दो कि -ीं
रास घोडे हमारे लिए तैयार खडे थे। मेरी तो जान ही ननकि गई। सवार तो हुआ, पर बोदटय ीं क पीं रहीीं थीीं।
मैंने चेहरे पर लशकन न पडने ददया। घोडे को ईश्वरी के पीछे डाि ददया। खैररयत यह हुई कक ईश्वरी ने घोडे
को तेज न ककया, वरना शायद मैं हाथ-प रॉँ तड ु वाकर िौटता। सींभव है , ईश्वरी ने समझ लिया हो कक यह
ककतने पानी में है ।
ई श्वरी का घर क्या था, ककिा था। इमामबाडे का—सा फाटक, द्वार पर पहरे दार टहिता हुआ, नौकरों का
कोई लससाब नहीीं, एक हाथी बॅंधा हुआ। ईश्वरी ने अपने वपता, चाचा, ताऊ आदद सबसे मेरा पररचय कराया
ीं क्ाक कुछ न पनू छए। नौकर-चाकर ही नहीीं, घर के िोग भी
और उसी अनतश्योक्क्त के साथ। ऐसी हवा ब धी
मेरा सम्मान करने िगे। दे हात के जमीींदार, िाखों का मन
ु ाफा, मगर पलु िस कान्सटे बबि को अफसर समझने
वािे। कई महाशय तो मझु े हुजूर-हुजूर कहने िगे!
जब जरा एकान्त हुआ, तौ मैंने ईश्वरी से कहा—तम
ु बडे शैतान हो यार, मेरी लमट्टी क्यों पिीद कर
रहे हो?
ईश्वरी ने दृढ़ मस्
ु कान के साथ कहा—इन गधों के सामने यही चाि जरूरी थी, वरना सीधे मह
ु बोिते
भी नहीीं।
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जरा दे र के बाद नाई हमारे पाींव दबाने आया। कींु वर िोग स्टे शन से आये हैं, थक गए होंगे। ईश्वरी ने
मेरी ओर इशारा करके कहा—पहिे कींु वर साहब के पाींव दबा।
मैं चारपाई पर िेटा हुआ था। मेरे जीवन में ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कक ककसी ने मेरे पाींव दबाए
हों। मैं इसे अमीरों के चोचिे, रईसों का गधापन और बडे आदलमयों की मट ु मरदी और जाने क्या-क्या कहकर
ईश्वरी का पररहास ककया करता और आज मैं पोतडों का रईस बनने का स्वाींग भर रहा था।
इतने में दस बज गए। परु ानी सभ्यता के िोग थे। नयी रोशनी अभी केवि पहाड की चोटी तक पहुींच
पायी थी। अींदर से भोजन का बिु ावा आया। हम स्नान करने चिे। मैं हमें शा अपनी धोती खुद छाींट लिया
करता हू; मगर यह ॉँ मैंने ईश्वरी की ही भाींनत अपनी धोती भी छोड दी। अपने हाथों अपनी धोती छाींटते शमम
आ रही थी। अींदर भोजन करने चिे। होस्टि में जत ू े पहिे मेज पर जा डटते थे। यह ीं प वीं धोना आवश्यक
था। कहार पानी लिये खडा था। ईश्वरी ने प वीं बढ़ा ददए। कहार ने उसके प वीं धोए। मैंने भी प वीं बढ़ा ददए।
कहार ने मेरे प वीं भी धोए। मेरा वह ववचार न जाने कह ीं चिा गया था।
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छु ट्टी इस तरह तमाम हुई और हम कफर प्रयाग चिे। ग वॉँ के बहुत-से िोग हम िोगों को पहुींचाने आये।
ठाकुर तो हमारे साथ स्टे शन तक आया। मैनें भी अपना पाटम खब ू सफाई से खेिा और अपनी
कुबेरोधचत ववनय और दे वत्व की मह ु र हरे क हृदय पर िगा दी। जी तो चाहता था, हरे क नौकर को अच्छा
इनाम द,ू िेककन वह सामथ्यम कह ॉँ थी? वापसी दटकट था ही, केवि गाडी में बैठना था; पर गाडी गायी तो
ठसाठस भरी हुई। दग ू ा की छुट्दटय ीं भोगकर सभी िोग िौट रहे थे। सेकींड क्िास में नति रखने की
ु ामपज
जगह नहीीं। इींटरव्यू क्िास की हाित उससे भी बदतर। यह आखखरी गाडी थी। ककसी तरह रूक न सकते थे।
बडी मक्ु श्कि से तीसरे दरजे में जगह लमिी। हमारे ऐश्वयम ने वह ीं अपना रीं ग जमा लिया, मगर मझ
ु े उसमें
बैठना बरु ा िग रहा था। आये थे आराम से िेटे-िेटे, जा रहे थे लसकुडे हुए। पहिू बदिने की भी जगह न
थी।
कई आदमी पढ़े -लिखे भी थे! वे आपस में अींगरे जी राजय की तारीफ करते जा रहे थे। एक महाश्य
बोिे—ऐसा न्याय तो ककसी राजय
् में नहीीं दे खा। छोटे -बडे सब बराबर। राजा भी ककसी पर अन्याय करे , तो
अदाित उसकी गदम न दबा दे ती है ।
दस
ू रे सजजन ने समथमन ककया—अरे साहब, आप खुद बादशाह पर दावा कर सकते हैं। अदाित में
बादशाह पर डडग्री हो जाती है ।
एक आदमी, क्जसकी पीठ पर बडा गट्ठर बधा था, किकत्ते जा रहा था। कहीीं गठरी रखने की जगह
ॉँ हुए था। इससे बेचन
न लमिती थी। पीठ पर ब धे ै होकर बार-बार द्वार पर खडा हो जाता। मैं द्वार के पास
ही बैठा हुआ था। उसका बार-बार आकर मेरे मींह
ु को अपनी गठरी से रगडना मझ ु े बहुत बरु ा िग रहा था।
एक तो हवा यों ही कम थी, दस
ू रे उस गवार का आकर मेरे मींह
ु पर खडा हो जाना, मानो मेरा गिा दबाना
था। मैं कुछ दे र तक जब्त ककए बैठा रहा। एकाएक मझ
ु े क्रोध आ गया। मैंने उसे पकडकर पीछे ठे ि ददया
और दो तमाचे जोर-जोर से िगाए।
उसनें ऑ ींखें ननकािकर कहा—क्यों मारते हो बाबज
ू ी, हमने भी ककराया ददया है !
मैंने उठकर दो-तीन तमाचे और जड ददए।
गाडी में तफ
ू ान आ गया। चारों ओर से मझ
ु पर बौछार पडने िगी।
‘अगर इतने नाजक
ु लमजाज हो, तो अव्वि दजे में क्यों नहीीं बैठे।‘
‘कोई बडा आदमी होगा, तो अपने घर का होगा। मझ
ु े इस तरह मारते तो ददखा दे ता।’
ॉँ िेने खडा हो
‘क्या कसरू ककया था बेचारे ने। गाडी में सास िेने की जगह नहीीं, खखडकी पर जरा स स
गया, तो उस पर इतना क्रोध! अमीर होकर क्या आदमी अपनी इन्साननयत बबल्कुि खो दे ता है।
’यह भी अींगरे जी राज है , क्जसका आप बखान कर रहे थे।‘
एक ग्रामीण बोिा—दफ्तर म ीं घस
ु पावत नहीीं, उस पै इत्ता लमजाज।
ईश्वरी ने अींगरे जी मे कहा- What an idiot you are, Bir!
और मेरा नशा अब कुछ-कुछ उतरता हुआ मािम
ू होता था।