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बु झा के मुझ में मुझे बे -करााँ बनाता है

वो इक अमल जो शरर को धु आाँ बनाता है

न जाने ककतनी अजीयत से खुद गु जरता है

ये जख़्म तब कही ीं जा कर कनशाीं बनाता है

मैं वो शजर भी कहााँ जो उलझ के सू रज से

मुसाकिरोीं के कलए साएबााँ बनाता है

तू आसमााँ से कोई बादलोीं की छत ले आ

बरहना शाख पे क्या आकशयााँ बनाता है

अजब नसीब सदफ़ का के उस के सीने में

गोहर न होना उसे राइगााँ बनाता है

फ़कत़ मैं रीं ग ही भरने का काम करता हाँ

ये नक़्श तो कोई ददद -ए-कनहााँ बनाता है

न सोच ‘शाद’ कशकस्ता-परोीं के बारे में

यही खयाल-सफ़र को कगरााँ बनाता है

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