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यह दोनों प्रयोग ऄभी तक गिु रहे है तथा वसफभ वसिो के मध्य आनका प्रचिन रहा है. ऄतः आन
ववधानों को ऄपना कर अप सब को पणू भ िाभ की प्रावि करे यही अशा सह एक बार वफर से
अप सब की सफिता के विए सदगरुु चरणों में प्राथभना है.
- (BEEJATAMAK TANTRA-
CHITRAA TARA AATMSATH PRAYOG)
सम्पूणण कालशक्ति प्रतीक है गक्तत की,गक्तत क्तजसमे ऄभ्युदय है,क्तिस्तार है और क्तिनाश भी| आसे
समझना आतना सहज नहीं है,कारण मात्र आतना है की,क्तबना ककसी सही मागणदशणन के ये काल
ऄथाणत ऄन्धकार हमें खुद में समेत लेता है और तब यकद हमारी ज्ञान आक्तन्ियााँ चैतन्य नहीं रही
तो ऄभ्युदय या ईद्भि की खोज में सबसे पहले हमारा सामना संहार पक्ष से हो जाता है और
ऐसे में हमारा सम्पूणण ऄक्तस्तत्ि ही समाप्त हो जाता है.
ऄभी थोड़े कदन पहले ही हम सब कइ गुरु भाइ-बहन पिन पािन कामाख्या धाम की ज्ञान
यात्रा पर गए थे, और ईस यात्रा में हमने तंत्र के क्तिक्तभन्न पक्षों को समझा था,ऐसे ही एक कदन
सुबह सुबह मुझे अररफ जी के साथ (क्तजन्हें मैं अदर से मास्टर कहती हाँ) महोग्रातारा पीठ पर
जाने का मौका क्तमला था,ईन्होंने मुझे बताया था की पूणण चैतन्य ५ तारा पीठों में से मात्र यही
महा ईग्र तारा का पीठ है और सदगुरुदेि के क्तनदेशन में मुझे यहााँ बहुत िर्षों तक साधना कर मााँ
के क्तिक्तभन्न रूपों को जानने का ऄिसर प्राप्त हुअ है,और प्राप्त हुए हैं कु छ खट्टे मीठे फल भी | मााँ
की क्तिराटता का क्तिस्तार यहााँ से होता हुअ समग्र सृक्ति को पल्लक्तित और पुक्तपपत करता
है,महाक्तिद्या का ऄथण होता है –ऄक्तत ईच्च ज्ञान क्तजसे मात्र अत्मानुभूक्तत के द्वारा ही ऄनुभि
ककया जा सकता है ,क्तजसकी प्राक्तप्त अत्मा के प्रकाश के द्वारा ही की जाती है,और याद रखने
योग्य तथ्य ये है की यकद अपकी अत्मा का प्रकाश जरा सा भी मक्तलन रहा तो ऐसी ऄिस्था में
भ्रम िश अप भटक भी सकते हैं और अपको ईस पराज्ञान की प्राक्तप्त कदाक्तप नहीं होगी. यकद
अपको महाक्तिद्या को समझना है तो अपको ईसके िणण रहस्य को भी समझना होगा |जहााँ
महाकाली कृ पण रूप में दर्शशत हैं िही भगिती तारा ईज्जिल हैं और भगिती श्री क्तिद्या रि
िणीय है,ऄथाणत क्तत्रगुणात्मक रहस्यों ऄथाणत तम,रज और सत् को समझने के क्तलए ही क्रम से
भगिती काली,तारा और क्तत्रपुर सुंदरी को रखा गया है.आस ज्ञान को दशणन से नहीं समझा जा
सकता है ऄक्तपतु एकमात्र साधना के द्वारा ही आन्हें अत्मसात ककया जा सकता है और आनके
रहस्यों को जाना जा सकता है.
भगिती तारा क्तमश्र मत के ऄंतगणत अती हैं और ये साकद क्तिद्या कहलाती है ऄथाणत “स” िणण के
ऄंतगणत अती हैं भगिती तारा प्रतीक हैं शब्दशक्ति की,ऄथाणत साधक को यकद िाक् क्तसक्ति की
प्राक्तप्त करनी हो या अगम तंत्र के ममण को अत्मसात करना हो तो आनकी साधना से ही ईस
रहस्य कक्ष में प्रिेश ककया जा सकता है.भगिती तारा के हहदू क्तसिांत में ६ प्रकार ईद्धृत है,और
ये सभी ६ प्रकार की शब्दशक्ति प्रदान करते हैं.
याद रक्तखये की प्रकृ क्तत का प्रत्येक तत्ि कफर िो चाहे सजीि हो या क्तनजीि,चेतन हो ऄचेतन,
एक क्तिशेर्ष प्रकार के स्पंदन से युि है, और आन स्पंदनों का स्त्रोत ईस तत्ि क्तिशेर्ष में व्याप्त ध्िक्तन
होती हैं |और गूढता आसमें क्तनक्तहत है की यकद मनुपय ककसी ऐसी प्रकक्रया या पिक्तत को समझ ले
क्तजससे ईस शब्द जो की ईस तत्ि में क्तनक्तहत है और ईस शब्द की ध्िक्तन को सुन ले तब ईस तत्ि
के ऄक्तस्तत्ि रहस्य को सहज ही समझा जा सकता है कयूंकक शब्द ऄक्षय होते हैं क्तजन्हें कभी भी
ककसी भी पररक्तस्थक्तत में नि नहीं ककया जा सकता है,ये ऄनंत काल से ब्रह्माण्ड में गुंजररत हैं,हााँ
ये कही महत मंद हैं,कही माध्यम और कही ऄक्तत तीव्र,और आसकी गक्तत प्रकाश से कही ज्यादा है
ऄतः आन शब्दों का अश्रय लेकर ईस तत्ि,जीि की ईत्पक्ति,क्तिस्तार और क्तिनाश तीनों ऄिस्था
को समझा जा सकता है,ऄथाणत ईसका भूत,ितणमान और भक्तिपय तीनों भली भांक्तत ज्ञात ककया
जा सकता है | महाक्तिद्या साधना ऄपने अप में ऄत्यंत गूढता क्तलए हुए होती हैं, सपयाण क्तिधान,
सम्बंक्तधत भैरि और गणपक्तत प्रयोग,बीज क्तसक्ति के बाद ही मूल साधना करके पूणण क्तसक्ति प्राप्त
की जा सकती है, और महाक्तिद्याओं में भगिती तारा साधना तो जीिन का िरदान और
सौभाग्य है | ये दुभाणग्य नाश, दररिता क्तनिारण के साथ साथ ऄपार ऐश्वयण की प्राक्तप्त तो
करिाती ही हैं,साथ ही साथ पूणण शब्द शक्ति पर भी अपका ऄक्तधकार करिा देती हैं ,तब ऐसे में
काल ज्ञान भी ऄछू ता नहीं रह पाता है,परा,पश्यक्तन्त और िैखरी तीनो ही िाणी की गूढता को
समझने की और ये ऄक्तनिायण साधना है |
तब ईन्होंने बताया की यकद आसी तारा पीठ पर क्तचत्रा तारा का एक क्तिशेर्ष क्रम एक क्तिशेर्ष
प्रकार से मात्र १० क्तमनट भी कर क्तलया जाये तो कान ईन ध्िक्तनयों और तंत्रों के श्लोक को श्रिण
करने लगते हैं जो भगिती महोग्रातारा और क्तचत्रा तारा से सम्बंक्तधत हैं |मैंने ईस कक्रया को
संपन्न ककया और थोड़े समय में ही मंद मंद ध्िक्तन का गुंजरन तीव्र होता चला गया और जो गभण
गृह शांत था ऄचानक िहााँ ध्िक्तनयों का स्िर तीव्र होता चला गया, थोड़ी देर बाद मैंने अाँख
खोल कर मास्टर से पूछा की ये जो ध्िक्तन सुनाइ दे रही थी आनमे एक मन्त्र बार बार गुंजररत हो
रहा था,भला कयों|
हााँ मुझे ज्ञात है,यही प्रश्न जब मैंने सदगुरुदेि से पूछा था तो ईन्होंने बताया था की िो मंत्र
भगिती क्तचत्रा तारा का है,और सभी प्रकार की तारा साधनाओं में ये मंत्र एक क्तिशेर्षता क्तलए
हुए है. प्रत्येक महाक्तिद्या के प्रकट और गुप्त रूपों में से एक रूप ऐसा भी होता है जो की िास्ति
में ईस महाक्तिद्या को साधक से अत्म एकाकार करा देता है, और ये तथ्य सभी महाक्तिद्याओं के
क्तलए प्रयुि होते हैं,भगिती तारा क्तचत्रा रूप में प्रत्येक पदाथण में ध्िक्तनशक्ति के रूप में क्तिद्यमान
रहती हैं,और भगिती क्तचत्रा तारा का मंत्र िास्ति में भगिती तारा के ब्रह्मांडीय रूप से साधक
का सायुज्यीकरण करिाता है|ऄथाणत एक सेतु का क्तनमाणण करता है| क्तजसके द्वारा साधक और
साध्य का योग होता है,तब आि और साधक में कोइ भेद नहीं होता है ऄक्तपतु दोनों एक हो जाते
हैं|
हम सभी ऄपने ऄपने साधना कक्ष में महाक्तिद्याओं के या महाशक्तियों के यंत्रों को स्थाक्तपत
करते हैं और ईनसे सम्बंक्तधत साधना प्रारं भ कर देते हैं और कु छ समय बाद कहते हैं की कोइ
लाभ दृक्तिगोचर नहीं हो रहा है,और कोइ ऄनुभूक्तत नहीं हो रही है,कया कक्रया गलत थी ?
नहीं कक्रया गलत नहीं थी ऄक्तपतु हमने गुरु से पूणण कक्रया की प्राक्तप्त ही नहीं की,तब ऐसे में
सफलता कै से क्तमलेगी,याद रक्तखये यन्त्र ईस शक्ति का ज्याक्तमतीय रूप होता है क्तजसमे िो शक्ति
क्तनिास करती है और िो भी क्तनकित रूप में और जब तक ईस शक्ति की चेतना का साधक की
चेतना से योग नहीं होता है,तब तक क्तसक्ति तो दूर ऄनुभूक्ततयााँ भी नहीं होती हैं,हााँ कभी कभी
काल का प्रिाह आतना प्रभािकारी हो जाता है या प्रारब्ध आतना बलिान होता है की साधक को
ये सब कक्रया करने की अिशयकता नहीं होती है.परन्तु ऄन्य ऄिस्थाओं में तो पूणण कक्रया
अिश्यक होती ही है.
भगिती तारा की चेतना को स्ियं की चेतना से कै से योग कककया जा सकता है मात्र ईसी गुप्त
तथ्य को मैं यहााँ पर रख रही हाँ. याद रक्तखये आि की चेतनाशक्ति को सरलता से साधक की
चेतना के साथ योग करिाने में चेतना मंत्र की महत्िपूणण भूक्तमका होती है,ऄब चेतना मंत्र परन्तु
कै सा? तो आसका ईिर है िो चेतना मंत्र जो गुरु के प्राणों से ईद्धृत हो और ईनकी चेतना से
साधक को चैतन्य करता हो. हमें “गुरु प्राणश्चेतना मंत्र” के रूप में ऐसा मंत्र प्राप्त है, जब भी
अपको भगिती तारा की साधना करनी हो ईसके पहले मात्र अपको आतना ही करना है की
यकद मूल साधना २१ कदनों की है तो अप ईसे २८ कदन की मान लीक्तजए और प्रारं भ के ७ कदनों
में गुरु द्वारा ईपदेक्तशत साधनात्मक क्तनयमों का पालन करते हुए यन्त्र को सामने रख कर प्रारं भ
के सभी क्रम (जो की सभी ऄन्य साधनाओं में ककये जाते हैं जैसे,गुरु पूजन,गणपक्तत पूजन,धुप-
दीप,नैिेद्य अकद ) संपन्न करने के बाद भगिती तारा के यन्त्र के सामने ५१ बार “गुरु
प्राणश्चेतना मंत्र” का जप करे और जप काल में दाक्तहने हाथ में यन्त्र को मुट्ठी बांध कर ह्रदय से
स्पशण कराये रखे,आसके बाद “भगिती क्तचत्रा तारा मन्त्र” जो की “भगिती तारा अत्म एकाकार
मन्त्र” भी है का जप ३१ माला पारद माला से ककया जाये,आस मंत्र के मध्य अपके बाये हाथ में
भगिती तारा का यन्त्र होना चाक्तहए और अप ईस हाथ की बंधी हुयी मुट्ठी को ऄपने ह्रदय के
पास रखेंगे.
भगिती क्तचत्रा तारा मंत्र-
“ऐं ह्रीं श्रीं”
“AING HREENG SHREEM”
जप के बाद पुनः दाक्तहने हाथ की मुट्ठी में यन्त्र रख कर ह्रदय के पास रखे और ५१ बार “गुरु
प्राणश्चेतना मंत्र” का जप करे ,ये क्रम ७ कदनों तक करना है और आसके बाद अप मूल साधना
करके देक्तखये,प्रभाि अपके सामने होगा|
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महाक्तिद्याओ का तंत्र मे कया स्थान है यह कोइ कहने की अिश्यकता नहीं है. यह महाक्तिद्याए
ऄक्तत शक्ति सम््पन मानी जाती है जो की ब्रम्हांड की गक्तत की संचाक्तलका है. और आन महाक्तिद्या
मे देिी तारा का नाम तो साधको के मध्य प्रचक्तलत है. देिी की साधना ईपासना अकद काल से
क्तिक्तिध रूप मे क्तिक्तिध महाक्तसिो के द्वारा होती अइ है. देिी की शक्ति का ऄनुमान लगाना
ऄसंभि ही है, नाना रूप से सदैि ही साधको का कल्याण करती रहती है. आनकी कइ साधना
पद्दक्ततया प्रचक्तलत है. क्तजसमे दक्तक्षण तथा िाम दोनों ही पक्ष मे बराबर से देिी की साधना का
प्रचलन रहा है. देिी का मुख्य रूप है महातारा. महातारा के क्तिखंक्तडत रूप से ही देिी के ऄलग
ऄलग रूप की साधना का प्रचलन हुअ. क्तजसमे नीला, एकजटा, चतुभुणजा जेसे ऄनेक रूप
साधको के मध्य प्रचक्तलत है. िही बौि तंत्र मे भी आनके क्तिक्तिध रूप प्रचक्तलत है जहा आन्हें डोल्मा
के नाम से जाना जाता है. तथा आनकी एक और गूढ़ पिक्तत महाक्तचना स्िरुप मे की जाती है.
महाक्तचना की अधार पध्धक्तत ही क्तचनाचार कहा गया है क्तजस पिक्तत का ज्ञान िक्तसष्ठ ने भगिन
तथागत से क्ततब्बत मे जा कर क्तलया था. आसके ऄलािा भी भगिती के कइ भेद ईनके गुणों के
धारण करने से हो रहे ईनके तत्ि पररितणन से ककये गए है जेसे की स्िेत तारा, हीरक तारा, रि
तारा आस प्रकार भी २१ भेद है. देिी की साधना कइ ऄथो मे महत्िपूणण है, ककसी भी प्रकार की
क्तसक्ति साधको को देने की सामथ्यणता देिी तारा रखती ही है लेककन ज्यादातर साधक धन सबंधी
समस्या की मुक्ति के क्तलए देिी की ईपासना करते है. देिी के कइ रूप ऄपने अप मे गुढ़ रहे है.
ऐसा ही एक रूप है क्तत्रनयना. क्तत्रनयना का ऄथण है क्ततन नेत्र को धारण करने िाली. यह क्तत्र नेत्र
प्रतीक है सूयण चंि तथा ऄक्ति का. यह क्तत्र शक्ति कक्रया ज्ञान आच्छा का भी घोतक है तथा देिी के
मूल क्ततन तत्ि सत्, रजस् तथा तमस को भी दशाणता है. साथ ही साथ यह क्तत्रदेिी का भी प्रतीक
क्तचन्ह है जो की महासरस्िती, महालक्ष्मी तथा महाकाली है. आसके ऄलािा ये क्ततन प्रकार के
काल को ऄपने ऄंदर समाये हुए है तथा काल पर आनकी पकड़ है ये भी दशाणता है. देिी क्तत्रनयना
का रूप ऄपने अप मे आतना गुढ़ है की शब्द कम पड़ जाए ऄक्तभव्यक्ति के क्तलए. देिी की साधना
से मनोकामना पूर्शत होती है, काल पर प्रभुत्ि के कारण साधको को काल क्रम से अने िाली
बाधाओ को दूर करती है तथा िही ईनके नेत्र के सूयण तथा चंि प्रभाि से व्यक्ति का अतंररक
तथा बाह्य व्यक्तित्ि क्तनखर ईठाता है. आस साधना को सम््पन करने के क्तलए साधक रक्तििार की
राक्तत्र १० बजे के बाद यह साधना शुरू करे . साधक भगिती तारा के यन्त्र क्तचत्र के सामने यह
साधना करे तो ज्यादा ऄच्छा है. िस्त्र असान िगेरा गुलाबी या स्िेत रहे. कदशा ईिर
आसके बाद साधक क्तनम्न मंत्र की २१ माला जाप मोती माला या स्फरटक माला से करे
ॐ स्त्रीं त्रिनयना त्रित्रधिं देत्रि नमः
यह क्रम २१ कदन तक रहे. साधक की मनोकामना की पूर्शत के क्तलए भी यह साधना श्रेष्ठ है.
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पारद ववग्रहों की ऄद्भुतता ईनकी ईपयोवगता न के बि अधाव्त्मक रूप से बवल्क भौवतक जीवन मे
भी ऄब हम सभी बखबू ी जानते हैं . और यह भी ऄच्छी तरहसे समझते हैं की ऄगर सच मे जीवन की
ईस ऄद्रतीय ईचाइया की स्पशभ करना हैं तो वबना पारद के यह संभव ही नही ..ऄगर वसफभ संठू रख कर
वैद्य बने रहना हैं तो कोइ बात नही ..पर जब बात परम हूँस स्वामी वनवखिेश्वरानंद जी के वशष्य की
हो तो ...तब कै से हम सभी दसू रे नम्बर पर संतष्ठु हो जाये .
पर हर बार एक नया ववग्रह ...???
ऐसा आसविए की पहिी बात तो यह हैं की यह कोइ व्यवासवयकता वािी बात नही भिे की कइ
कइ के वदमाग मे यह बात अये.. आसे ऐसे समझे ...सदगरुु देव जी ने पहिे गरू ु मंत्र वदया वफर जब
हमारा एक स्तर अया तो हमें कोइ आसके साथ दसू रा मंत्र वदया और आसके बाद जब हमारी कुछ ओर
प्रगवत हो गयी तब ..कोइ वसि ववद्या ..वफर महाववद्या साधनाए दी ..वफर आनसे भी अगे कृ त्या
साधना जैसी साधना और वफर आससे भी अगे ब्रम्हाडं भेदन जैसी ..वफर आससे भी अगे ... की
साधनाए तो क्या यह व्यावसावयकता हैं ..??ऐसा ववचार िाना ऄपनी ऄल्प बवु ि का ही पररचायक
हैं ..ज्यो ज्यों स्तर बढ़ता गया त्यों त्यों ईच्च स्तरीय ज्ञान के दरवाजे हमारे विए खि ु ते गए
...पहिे पात्रता थी ही नही आसविए बताया गया ही नही ऄन्यथा सभी सवोच्च साधना ही पहिे
करते ..और दसू री बात यह भी हैं की ऄगर क्रम से अप अगे नही बढते तो ......अप मे वह ईच्चता
अती भी नही की अप एक ऄपने तातकाविक स्तर से ईच्चता वािी साधना भिे ही पा िे
पर...... ईसे सफिता पवू भक कर पाए ..और न अत्मसात कर ही पायें .
ऄगर हम याद करें तो पायेंगे की सदगरुु देव जी ने एक ऄवद्रतीय पारद ववग्रह की बात कहीं ..और ईस
बारे मे वसफभ एक िेख वदया था .बाद मे ईन्होंने हमारी ईत्साह हीनता देख कर ईन्होंने मौन साध
विया ..पर बाजार के तथाकवथतो ने ईससे बाजार भर वदया ..वह था ऄत्यंत ईच्च कोविस्थ
‚पारदीय महाकािी ‚ वजसके ईन्होंने दो भेद भी बताये ..शमशान कािी और बैजन्तीय कािी .और
आनके वनमाभण मे अने वािी एक ऄद्भुत तथ्य की ऄगर थोडा सा भी प्रवक्रया मे खासकर प्राण
प्रवतष्ठा ,वसवि दात्री और चैतन्यीकरण मे तो जब िविता सह्त्त्रनाम का पाठ वकया जा रहा हो ईस
समय मतिब वनमाभण काि मे ....... यह ववग्रह स्वयं ही िूि िूि जाता हैं . पर अप बाजार मे देखें
हजारो की तादाद मे पारदीय कािी ववग्रह हैं ..मतिब सभी ईनके बनाने वािे वकतने ईच्च कोवि के
.....??
पर यह तो छि हैं ..... पारद सस्ं कार के नाम पर एक वनम्न कोवि का मजाक और ऄपना वसफभ
स्वाथभ वसवि ..
माूँ भगवती कािी ..महाववद्या मे प्रथम पज्ू य ..और अद्या हैं .... पर आस कारण ऄन्य सभी स्वरूपों की
ईपेक्षा नही की जा सकती हैं .न ही ईनका महत्ब कम .. क्योंवक मि ू रूपमे माूँ तो एक ही हैं .यूँू कहा
जाता हैं की भगवती कािी और भगवती तारा मि ू रूप से एक हैं और बस ईनमे ईनके रंग का ही
ऄंतर हैं ..पर यह तो गोपनीय बाते छुपाने का एक रूप हुअ की कोइ भगवती तारा के सत्य स्वरुप
के बारे मे ईतना न जाने ..
भगवती तारा का एक नाम ‚ ताररणी ‚ भी हैं तो वकस बात से तारने वािी यह प्रश्न का ववषय हैं ??.
क्या म्रत्यु ही तारने का एक माध्यम हैं ??? या ..पर ऐसा नही हैं ..जीवन की वजस भी वाधा से अप
परे शां हैं या जो भी अपके अध्यवत्मक मागभ मे वाधा हैं, ईन सब से अपको पार कराने वािी ऄगर
कोइ महाशवि हैं वह के बि और के बि भगवती तारा ही हैं ऄन्य कोइ भी नही ...
ऄल्पज्ञानी साधक को ज्ञान ववज्ञानं की न्यनू ता से पार करा कर ..ईच्च कोवि का प्रज्ञा परुु ष
..के बि भगवती तारा ही करा सकती हैं .
जीवन मे अवथभक दररद्रता ,घर पररवार मे धन की न्यनू ता ...को भगवती तारा ही तार कर
ईच्चता दे सकती हैं
काव्य शवि मे वनपणु ता ,ईच्च कोवि के ववद्रानो द्रारा ह्रदय से अपका सम्मान और अपके
ज्ञान के सयू भ का चहं ओर प्रकाश ..भगवती तारा के माध्यम से ..
काम भाव पर पणू भ ववजय ...जो की एक ऄवनवायभ स्थवत हैं ,जब तक आस ऄवस्था से व्यवि
उपर नही ईठ सकता ..तंत्र जगत मे ईसका प्रवेश संभव ही नही हैं .भिे ही ईसने कइ कइ वसवियाूँ
ऄवजभत कर रखी ही ..और यह कइ कइ तरीके से संभव हो सकता हैं योग मागभ से ..तंत्र मागभ से
..और योग तांवत्रक मागभ से भी ..वही ऄनेको सम्प्रदाय मे कइ कइ साधनाए हैं पर ..मि ू सभी मे
जब तक भगवती तारा की .........ईस भाव से तारने वािी भगवती तारा ही हैं .जो कोइ ऄन्य
महाववद्या नही कर सकती है .
ऄगर नीि सरस्स्वती रूप देखें तो भिा ऄब क्या और संभावनाए शेष रहती हैं .क्योंवक
ववद्या को वसफभ काव्य शवि या बहुत ऄच्छा विखने तक ही नही ..क्योंवक ऄगर अपको अप द्रारा
पढ़े गए ग्रन्थ हमेशा याद नही हैं तो क्या ऄथभ हैं जीवन मे बात तो यह हैं की अप जब चाहे वजस
ववषय पर चाहे ..बोि या विख सकें ईसका ईिरण िगातार धाराप्रवाह दे सकें ......ऄद्भुत मेधा
शवि की साधना मे मि ू रूप मे भगवती तारा ही हैं भिे ही हम समझे या न समझे .
क्या भगवती तारा वसफभ और वसफभ ...एक महाववद्या हैं ..क्या ईन्हें ऐसा मानना ईवचत हैं?
बवल्क ऐसा नही हैं ...सारा बौि तंत्र की मि ू शवि ..मि ू अराध्या शवि ..या ऐसे कहें की वजस पर
विका हैं वह भगवती तारा ही हो हैं .. ईनके वहां पर भगवती तारा के २१ स्वरुप माने गए हैं और
... हर रूप के बारे मे विखना मानो एक परू ा तंत्र शास्त्र को ही ऄनावृत करना हैं ...
और पारद तारा के ववग्रह के बारे मे तो कोइ कहना भी नही चाहता ...सामान्य रूप से कोइ ईल्िेख भी
नही करे गा और कोइ भी सक्षम गरू ु आस बारे मे वसफभ ऄपने सवाभवधक योनय वशष्य वशष्याओ को
छोडकर ऄन्य वकसी ..से आस बारे मे बात ही नही करे गा या बात ही बदि देगा ..क्योंवक ..जो सारी
नन्ु ताओ को तार कर अपको सयू भवत बना सकने मे सक्षम हो वह कोइ ..साधारण बात तो नही हैं ..
हमारा सारा जीवन सयू व पर ाअधाररत हैं और यह सारा िवश्व भी ....यह का गया हैं की सारा
िवमव काल के ाअधीन हैं ...भगवान श्री कृष्र्ण कहते हैं की ...यह काल भी सयू व के ाअधीन हैं
.ाईसके वर्ीभूत हैं ..और ाआतने परम तेजमवी और सभी प्रािर्णयों के ाअत्मा के प्रतीक भगवान
सूयव की ाअधार भूता कोाइ र्िक्त और कोाइ नही बिकक यही भगवती तारा ही हैं.
और भगवती के आस ववग्रह की बात ही कुछ ओर हैं ..वसफभ आसी ववग्रह मे भगवान वशव जो भगवती के
आस स्वरुप के भैरव हैं ..वजन्हें ऄक्षोभ्य कहा जाता हैं स्वयं माूँ की जिाओ मे ववराजमान हैं ..
और ..एक बहुत ही ऄद्भुत बात की व्यवि वजस प्रकार का ध्यान करता हैं ईसके सामने ईसी प्रकार
का ववग्रह होना चावहये ..अप ्मशान कािी की ईपासना करते हो और अपके पास वैजन्तीय
कािी का ववग्रह हो तो भिा सफिता कै से वमिेगी भिे ही मि ू रूप मे अशार शवि एक ही हो ...
ठीक आसी तरह अिीढ़ और प्रत्यािीढ़ शब्द के ऄथभ मे हैं .
अज जो भी हमें भगवती तारा की जो वचत्र वमिता हैं ऄगर ईसमे .ईनका ईनका कौन सा पैर अगे
वनकिा हैं आस पर ..शायद ही साधक ध्यान देते हैं ..साधक ईच्चारण तो प्रत्यािीढ़ शब्द का ध्यान
मे कर रहे हैं और ईनके सामने अिीढ़ वस्थवत वािा वचत्र हैं तो भिा सफिता कै से ?? यह तथ्य आस
साधना के बहुत िबं े समय से िगे साधक भी नही जानते हैं ..ऄवनवभनय हैं ...यह ऄिग बात हैं की
ईनके श्रम को देख कर सदगरुु देव की कृ पा से ....ईन्हें पररणाम भी वमिे पर ......क्योंिक तिां जगत
कोाइ माने या न माने की बात नही करता हैं वह तो एक सटीक प्रििया हैं की ाऄगर ाअपने
सही ढांग से जैसा कहा गया हैं ाऄगर ाईसी मनोभाव से साधना की सारे प्रमािर्णक ाईपकरर्णों
के द्रारा तो सफलता कै से नही िमलेगी ...हााँ यह बात ाऄवश्य ध्यान मे रखे की ..ाऄगर एक भी
तथ्य रह जाता हैं तो सफलता प्रािि ओर सांदेह होना मवाभािवक हैं ? और वमि भी नही सकती
..हाूँ सदगरुु देव कृ पा की बात तो सवोपरर हैं .वह क्या नही संभव कर सकती पर मैं ऄभी बात वसफभ
प्रवक्रया की कर रहा हूँ .
और जब बात अये पारदीय सह्त्त्रावन्वता तारा की तो .....शायद की कोइ जो आस ववषय के जान कर
और ऄवत योनय साधक हैं .... यह कह सके की हाूँ मेरे पास यह पारदीय सहव्न्वता भगवती तारा ववग्रह
हैं .
पर मुझे ाआस िवग्रह की कोाइ ाअवश्यकता ही नही .मैंने तो ाआस साधना मे िसिि पायी हैं ..??
ये सब तथ्य हीन बाते हैं ...पर साक्षात् अद्या शवि स्वरूपा भगवती तारा के वकसी एक ववशेष
स्वरुप के वकसी एक ऄत्यंत सामान्य से शवि के ऄंश की साधना कर ईसमे सफि होने से .... व्यवि
वसि नही हो जाता हैं ..वह भिे ही हवा मे ईड़ता वफरे ..क्योंवक भगवती ऄनत स्वरूपा हैं और ईनके
ऄनन्त स्वरूपों की साधना कहाूँ सभं व हैं और चविए मान भी िीवजए की यह हो भी गया ..तो
अपने वसफभ साधना की ईसमे वसवि पायी ......भिा कभी ..ईस ऄवस्था को अत्मसात कर पाए
जो ..की सवोच्च ऄवस्था हैं ???.
और एक ऐसा ववग्रह जो सहत्रवन्वता मतिब हजार स्वरुप की शवि रखे ..तो ईसे तो ईसकी मवहमा
और ईसके प्रभाव को िेखनी बि वकया ही नही जा सकता हैं . पर ऐसा िवग्रह प्राि होना ..ाआसे
िसफव भाग्य ही नही कहा जा सकता हैं .क्योंिक यह तो बहुत छोटा सा र्ब्द हो जायेगा .ाआसके
िलए ..कोाइ नया र्ब्द ही गढना पडेगा ..क्योंिक .ज्ञान ..िवज्ञानां , काव्य र्िक्त ,मानवीय
किमयों से मुिक्त , जीवन की ाईच्चता ,और ाऄनेको मनो िवकारों से मुक्तता .. तो सहजता से
सभ ां व हैं .
एक और बहुत ही ववशेष तथ्य हैं वजसका ईल्िेख एक बार पहिे भी हमने वकया हैं की ..बहुत कम
साधको को यह ज्ञात होगा की भगवती बल्गामख ु ी की साधना करने वािे को माूँ भोग भी प्रदान
करती हैं .यह तो स्वपन मे सोचा भी नही जा सकता हैं .क्योंवक भगवती बल्गामख ु ी की साधना मे
आतने कड़े वनयम जो हैं .
ठीक आसी तरह भगवती तारा ऄपने साधको को ..वन्छि स्नेह या प्रेम भी प्रदान करती हैं .और हम
सभी अज यह भिी भांवत जानते हैं वक सदगरुु देव जी ने कइ कइ बार यह समझाया की ब्रह् पर
विखना असान हैं पर प्रेम/स्नेह पर तो विखा ही नही जा सकता हैं .अज जो भी वस्तवथ हैं वह
देवहक वस्थवत के बारे मे..हैं ..देवहक अकषभण को ही प्रेम मान विया जाता हैं पर ..सच मे जो
अवत्मक प्रेम हैं..स्नेह हैं वह तो भगवती की कृ पा से ही संभव हैं और ऐसा भगवती के आस स्वरुप की
साधना के साधक के साथ होता हैं.ईन्हें यह भगवती प्रदान करती हैं .क्योंवक वबना वन्छि प्रेम का
ऄनभु व वकये वबना ईच्चस्थ साधना मे वसवि कहाूँ संभव हैं और भिे ही प्रेमी प्रेवमका के माध्यम से
ही ऄवधकतर प्रेम को समझया गया हैं पर .यह तो एक प्रकार हो गया .प्रेम को बािं ना सा हो गया
..वास्तव मे वन्छि प्रेम ..सदगरुु देव वशष्य वशष्याओ के मध्य , वपता पत्रु ी , वपता पत्रु के मध्य, वमत्रो
के मध्य , वकसी के भी मध्य हो सकता हैं .क्योंवक वन्छिता को को वकसी बंधन मे बांधना कहाूँ
संभव हैं.और आस वन्छि स्नेह को भगवती तारा साधक एक जीवन मे भर देती हैं .
भगवती तारा माूँ के नाम मे से कुछ नाम स्वत ही ईनकी महत्वता का पररचय देते हैं ..जैसे ..
परमेश्वरी ...जो आश्वर से भी अगे की स्थवत हैं .(जैसे ब्रहम से अगे की स्थवत पार ब्रहम हैं )
महािक्ष्मी ..अवद शवि वजनसे सम्पणू भ ववश्व गवतमान हैं
पण्ु या ..समस्त पण्ु य की ऄवधस्ठाथी
भव ताररणी..भव सागर मतिब समस्त संसाररक मायाजाि से मि ु करने वािी ..वनमभिात्व प्रदान करने
वािी
महामाया ....माया को भी जो ऄपनी माया मे रखती हैं वह अद्या ..
भैरवी ....समस्त नारी जाती की अधार भतू ा परमोच्च स्वरूपा
श्री ववद्या ..समस्त तंत्रों के वसरमौर की अधार भतू ा
किा ..१६ किा ही नही बवल्क समस्त ६४ किाओ कीअधार भतू ा
वक्रया ...वबना वक्रया के कोइ भी साधना कहाूँ संभव हैं ...आनके वबना कोइ भी वक्रया संभव नही ..तो
समस्त वक्रयाओ ं की अधारभतू ा हैं ..
....
भगवती तारा की साधना करने वािा ..खासकर ऐसे परम दि ु भभ पारदी य सह्त्त्रावन्वता तारा के ववग्रह
के सामने साधना करते रहने से स्वत ही व्यवि की ईन्नवत ... पशभु ाव से ईठकर वीर भाव और वीर
भाव से ईठकर वदव्य भाव मे बनने िगती हैं ..पशु भाव मतिब जो हम ऄष्ट पाश मे िज्जा ,घृणा ,
शोक ..अवद मे फसें हुये हैं ..से ऄगर वदव्य भाव मतिब ..जहाूँ सारा ववस्व मे वदव्यता ही..... न
के बि ऄनभु व बवल्क साक्षात होती हैं..और ऐसी ऄवस्था के साधक के दशभन करने मे देवता भी ऄपने
को धन्य ऄनभु व करते हैं .
क्योंवक भगवती तारा की साधना तो ..वचनाचार माध्यम से ही संभव हैं .और यह ऄवस्था ..परम दि ु भभ
हैं ..आसके नाम पर जो भी कुवत्सक िोगों की वक्रयाए ..तंत्र के नाम पर होती हैं ..ईनका क्या कहें पर
....एक ओर जहाूँ सदगरुु देव की परम अशीवाभद स्वरुप यह ववग्रह जो की वसफभ भगवती तारा ववग्रह
ही नही बवल्क सह्त्त्रवन्वता तारा ववग्रह हैं और जहाूँ सदगरुु देव के परम अशीवाभद स्वरुप .. आस
ववग्रह ..जो की बौि तंत्र के ऄवत ईच्च अचायों के भी मध्य गोपनीय रहा हैं ईसका प्राि हो जाना
..और वजससे स्वत ही यह ऄवस्था अ जाना की साधक वीर भाव ही नही बवल्क वदव्य भाव मे
स्वत ही धीरे धीरे अ जाए ....भिा यह सौभानय तो देवताओ ं को भी दि ु भभ हैं ..और आसससे जो भी
तंत्र जगत या साधना जगत मे आतनी ईच्चता प्राि करना ..सहज हो जाए .
हमने वबदं ु साधना मे स्त्री सहयोगी की ऄवनवायभता पर ऄत्यतं ववस्तार से चचाभ की पर ......पशु भाव
और ऄनेको आवन्द्रय िोिपु िोगों के कारण ..जो तंत्र जगतकी समाज मे जो वनदं नीय ऄवस्था बनी
..आसको देख कर ही सदगरुु देव ..ने ऄत्यंत करूणा वश ...वबंदु रे तस गवु िका के बारे मे हमको ऄवगत
कराया की वकस तरह ..बाह्य ईपादानो से भी कइ कइ गणु ा जयादा सरि तम तरीका पारद के माध्यम
से हो सकता हैं वजसमे कोइ भी स्त्री सहयोगी की वकसी भी प्रकार से अव्यकता नही होती और सौम्य
सावत्वक रूप से घर पर ही यह साधना की जा सकती हैं ...और आस तरह ..तंत्र के नाम पर जो
व्यवभचार मचा हुअ हैं ..जो घृणास्पद वक्रयाए जो .सामावजक नैवतक वनयमों का मखोि ईड़ा गया हैं
वह ..ऄब नही हो .और अप सभी ने वकतने ईत्साह से ईस गवु िका को प्राि वकया ...यह तो बेहद
प्रशंनीय हैं .
ऄगर अपने .वहमािय के योवगयों की गिु वसवियों का ऄध्धयन वकया हैं तो ईसमे स्पस्ि विखा हैं
की जो व्यवि ्यामा साधना को ईत्तीणभ कर िेता हैं ईसके बाद ही सही तरीके से तंत्र जगत मे ईसका
प्रवेश होता हैं ..मतिब हमने जो सोचा हैं ईससे तो तंत्र कहीं कहीं और ईच्चता पर हैं ..
पर क्या यह वक्रयाए आतनी असान हैं ..???संभव नही हैं .
ाअज स्त्री परुु ष दोनों के मानिसक, र्ारीररक ,और भावनात्मक सयां म का जो भयांकर
पराभव या ाऄविनती हो रही हैं ,,ाईसे भले ही देर् काल और पररिमितयाां का पररर्णाम कह
कर बच जाए ..पर ..ाआस सांयम हीनता, ..चाररििक पतन ...की ाऄवमिा मे ..ाईच्च तांि मे प्रवेर्
सभव ही नही हैं ..चाहे ाअप ..िकतने भी नारे लगाते रहे ..ाअप मवयां ाऄपनी मानिसक ाऄवमिा
जानते हैं .
सदगरुु देव का आस धारा पर भौवतक रूप से अकर .आतना श्रम करना ..को भिा अज तक कौन पहचान
सका हैं ..कौन ईसका मल्ू य अंक सका हैं .वकसे अज परवाह हैं वक ..ईनके कायों को समझ कर ...कायभ
कर सकें ..पर ईन्होंने वसफभ कहा ही नही कर वदखाया भी हैं .वह जानते हैं की अज की पररवस्थवत मे
कै से एक साधक ..पशु भाव से ..वदव्य भाव तक की यात्रा कर सकें ...और ईनके गहन पररश्रम और
.प्रबितम साधनात्मक पररश्रम का फि हैं यह पारदीय सह्त्त्रवन्वता भगवती तारा ववग्रह ..जो की
ऄनेको ईन प्रवक्रयाओ ं द्रारा गंवु फत है. जो वसिाश्रम मे भी दि ु भभ हैं .
सदगरुु देव सदैव से ववद्रोही रहे हैं ईन्होंने कइ कइ बार यह कहा भी .... की ऄनेको बार वसिाश्रम के
महयोवगयों ने भी ईनसे प्राथभना की प्रभु जो ज्ञान ..जो आतने ईच्चतम ववग्रह हैं जो हमें भी नही प्राि हो
पाते वह अप आतने सहजता से सरिता से आन गृहस्थ वशष्य वशष्याओ को क्यों दे देते हैं .जबवक ये
ना पात्रता रखते हैं न ही आस ज्ञान के िायक हैं .न ही मल्ू य समझते हैं ..तब ये क्यों ....और ये ही क्यों
अपकी आतने स्नेह का िाभ ईठाते हैं ..और सदगरुु देव मस्ु कुराते हुये कहते हैं की यह सही हैं की तमु
सभी सन्याशी वशष्य मेरे सवभ वप्रय हो पर ये गृहस्थ ..आतने कवठनाइ से बंधे हुये हैं और आनके चेहरे पर
एक मस्ु कान िाने के विए भी ..मझु े चाहे वकतना भी ऄथक श्रम करना पड़े मैं करूूँगा क्योंवक ये मेरे ही
ऄश ं हैं, मेरे प्राण हैं,मेरी अत्मा हैं ..ऄगर ये मेरे वबना नही रह सकते तो भिा मैं आनके वबना कै से
...आसविए ववगत जीवनोंकी ऄपेक्षा आस जीवन मे मैंने आनका हाथ पकड़ा हैं और आस जीवन मे ही
आनको पणू भता देनी हैं ,
वमत्रो अपने कइ कइ बार स्वत ही पड़ा होगा की सदगरुु देव मंत्र तंत्र यन्त्र ववज्ञानं पवत्रका मे आस
साधना के बारे विखा की स्वणभ नगरी िंका के ऄवधपवत रावण और देवताओ ं के कोषाध्यक्ष कुबेर
को यह सम्पन्नता भगवती तारा की कृ पा से ही प्राि हुयी हैं .
जो भी आस प्रकार के ववग्रह प्राि कर ईसके सामने यवद परू े वववध ववधान के साथ स्वणभ प्रदायक तारा
मंत्र का परू ा ऄनष्ठु ान करे तो सदगरुु देव जी की कृ पा से रोज ईसे स्वणभ मद्रु ् याए प्राि भी हो सकती
हैं .क्योंवक यह जीवन मे सफिता और सम्पन्नता की देवी हैं .
साथ ही साथ पारद ववज्ञानं मे वजनकी रूवच हैं ईन्हें तो यह प्राि करना ही चवहये ..क्योंवक देह वाद तो
तभी व्यवि सफि हो सकता हैं जबवक वह िोह वाद ऄथाभत पारे के माध्यम से ...स्व.....वनमाभण मे
सफि हो ...ऄगर धातु मे पररवतभन नही कर सकते हैं तो भिा ऄमल्ू य मानव देह मे सीधे प्रयोग करना
वकतना ईवचत हैं .आसविए .पारद ववज्ञानी भगवती तारा की ईपासना वकसी न वकसी रूप मे करते ही हैं
,यह तथ्य बहुत कम को ज्ञाता हैं आस कारण आस की ईपेक्षा करने के करण भी ऄनेको को पारद तंत्र
ववज्ञानं मे ऄसफिता वमिती हैं .
और वमत्रो ऄब हमें आतना दि ु भभ पारदीय सहत्रववता भगवती तारा ववग्रह अज हमें सहज होने जा
रहा हैं .और ऐसा करने मे वकतना श्रम और साधनात्मक तपस्या हमारे सन्याशी भाइ बवहनों की िग रही
हैं .वह शब्दों मे विखा नही जा सकता .
और बस स्थावपत करना हैं .और कोइ भी साधना .जो भगवती तारा की अपको मािमू हो ..या कोइ भी
मंत्र जोभगवती तारा का हो अपको ऄच्छा िगता हो ..या बस ..माूँ के स्वरुप को जो परू े मनोभाव
से वनहार भी सके ..ईनकी ऄवस्था .स्वत ही वदव्यभाव की बन् ने िगती हैं .और जो साधना करें गे
..ईनके तो भानय और सौभानय की क्या कहें ..
सदगरुु देव कहते हैं की भगवती तारा की साधनाऔर वकसी को ऐसा ववग्रह प्राि हो जाए तो .. कोइ भी
तारा साधना आस ववग्रह के सामने की जाए ....वनश्चय ही व्यवि दसू रों की प्रभाववत करने वािी शवि
व्यवि प्राि करता हैं ही ,ईनकी वाणी मे ऐसा प्रभाव हो जाता हैं की वह परू ी दवु नया को वश मे करने
की सामथ्यभ रखता हैं .मक़ु दमे जएु घडु दौड़ सभी मे वह ववजय प्राि करने िगता हैं .पत्रु पौत्र होते हैं
,घर मे आतना धन अने हैं की व्यवि वविासी जीवन सम्पन्न होने िगता हैं सारे शत्रु दास ईसके नौकर
की भांती वश मे हो जाते हैं .पाररवाररक ऊण दरू हो कर घर मे सख ु शातं ी हो जावत हैं .
घर मे स्थायी िक्ष्मी वनवास करने िगती हैं .और समस्त प्रकार की वसवियों की प्रावि होने से वह पणू भ
यश धन मान पद प्रवतष्ठा प्राि करने मे सफि हो जाता हैं .
ऄब और वकतना आस परम दि ु भभ ववग्रह के बारे मे विख जाए ...जो बवु ि सम्पन्न हैं ..जो काि और
समय की ईपयोवगता समझते हैं ईनके विए आशारा भी बहुत हैं ..
तो जो भी आस ववग्रह को प्राि करना चाहे ..वह nikhilalchemy2@yahoo.com पर सपं कभ कर
सकता हैं .
Mahavidya Kali and Tara have been called one and the
same at many places. But this fact is only to make
normal sadhak understand. But those who are the
connoisseurs of Tantra, they pretty well know that
despite their basic form Aadya Shakti being same , still
there are many differences between these two forms.
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यकद भाग्यािाशान्न्नाथ ! तारा क्तिद्या प्रलभ्यते |
आच्छा क्तसक्तिभाणित
े स्य कक मोक्षिक्तसिये ||
यकद भाग्यािशाद्वातस ! कोरट जन्म तपोबलात |
लभेत तारकां क्तिद्या सा भिेत कल्प पादप ||
भैरवी भैरव से कहती हैं ..की हे नाथ यवद सौभानय से तारा ववद्या /तारा ववग्रह यवद कहीं से
प्राि हो जाए तो ईसे आच्छा वसवि स्वत प्राि हो जाती हैं ,तब वफर ऄष्ट वसवि और मोक्ष की
क्या कथा हैं ?वह तो ‚यं यं वचन्त्तते कामं तं तं प्रा्नोवत वनवश्चत”ं के ऄनसु ार सवभ शवि
सम्पन्न हो जाता हैं, हे वत्स यवद देवात करोड़ों जन्म के तपोबि से तारा ववद्या /तारा ववग्रह
प्राि हो जाए तो वह परुु ष कल्पवक्ष
ृ के सामान सफि हो जाता हैं.
पारद तो ऄपने अप मे सवभश्रेष्ठ धातु हैं और आसकी वजतनी प्रशंशा की जाए ईतना ही कम
हैं. व्यवि के शरीर मे ईसका सत्व ऄंश सवभश्रष्ठे पदाथभ होता हैं ,तो आसी बात से कल्पना की
जा सकती हैं की तत्रं के अद्य गरू ु का यह सत्व ऄश ं हैं तो वह क्या स्थान रखता होगा. और
अज के समय मे ऄष्ट सस्ं काररत पारद प्राि होना तो क्या, ऐसा व्यवि वमिना ही एक तो
दि
ु भभ हैं ईस पर जो सवभ ववश्व की वहत की वचंता करता हो और ईसमे से भी ऐसे का जो
पारद ववज्ञानं मे रूवच रखे और ईसमे सभी कोइ ववरिा होगा होगा जो शास्त्रीय रूप से भी
एक दो सस्ं कार कर पाने मे सफि हो ,पर कोइ ऄत्यतं वबरिा ही आस प्रकार के ऄष्ट सक ं ार
सम्पन्न्कर आस प्रकार का ऄवत दि ु भभ ववग्रह बना सकने मे सक्षम होगा .जब ऄष्ट संकाररत
पारे से वनवमभत ववग्रह की बात ईठे तो ..वफर वाणी मौन हो कर ईस ववग्रह की और वह स्वयम
ईस साधक के भानय को देखती हैं की आसने ऐसा क्या वकया हैं की आसके यहाूँ आस प्रकार का
ववग्रह जा रहा हैं ऐसे ववग्रह वसफभ एक साधक के विए नही बवल्क ईसके पीढ़ी दर पीढ़ी सभी
वंशजो का सौभानय बन् जाते हैं . और आस कवि काि मे यवद ऐसा तारा ववग्रह प्राि हो वह
ही सवोत्तम हैं .
वाराणसी के सवभश्रेष्ठ तंत्र साधक श्री ऄरुण कुमार शमाभ जी की कृवतयों का वजन्होंने ने भी
ऄध्ययन वकया होगा वह भी आस बात से सहमत होगा की भगवती तारा के महा पीठ से ही
ईनकी तंत्र साधना यात्रा प्रारंभ हुयी ईनके पररवार मे कइ कइ पीढयों से भगवती तारा ही
कुिाराध्या रही हैं ,और ईनकी रचनाओ ं मे ईनके ज्ञान की ईद्रात्ता मे भगवती का स्पष्ट ऄनग्रु ह
देख जा सकता हैं और ऄनभु व वकया भी जा सकता हैं. और ईनकी िेखनी और ईनका
ऄद्भुत तंत्र ज्ञान का जो कुछ ऄंश स्वरुप, जो ईनकी िेखनी से वनकिा हैं वह ही ऄपने अप
मे ऄवप्रतम हैं .और ईन्होंने स्वयम कइ कइ बार भगवती तारा के ऄनग्रु ह की बात कही हैं.
और यह कोइ सयं ोग की बात नही हैं, बवल्क एक वनवश्चतता हैं .
महाववद्यासु सवाभसु किौ वसविरनमु त्ता |
सवभ ववद्यामयी देवी कािी वसविनभमु त्ता ||
काविका तारका ववद्या सवाभम्नायैर नमस्कृतां |
तयोरजन मात्रेण वसि : साक्षात् सदावशव||
कवियगु मे सभी महाववद्याओ से ईत्तम वसवि वमिती हैं, तथावप कवि काि मे सवभ
ववद्यामयी देवी कह के कािी, तारा को ही सवोत्तम वसवि बताइ गयी हैं .काविका और
ताररका नाम की ये दो ववद्याये सवभ शास्त्रों से प्रशंवशत और ऄनमु ोवदत हैं,और ईनके पजू न
साधना मात्र से सदावशव प्रसन्न हो जाते हैं,
जहाूँ पारद हैं वहां साक्षात् वशव तो हैं ही और पारद और तारा का यह ऄद्भुत सामंजस्य तो
देवताओ ं के विए भी दि ु भभ हैं जो आस पारदीय तारा के ववग्रह मे हैं.ऄनेक साधक, जो
महाववद्या के अराधक हैं और ईनके घर मे वशवविंग हैं,और वे साधक तो सौभानय शािी हैं
वजनके यहाूँ पारद वशवविंग हैं ,पर यह ऄत्यंत हो गोपनीय तथ्य हैं की वजसका ऄनेको
साधको को भान तक नही हैं की पहिे महादेवी की पजू ा की जाती हैं तत्पश्चात वशव पजू ा
ऄन्यथा महादेवी और भगवान वशव ईस पजू ा को स्वीकार नही करते हैं .
कहा गया हैं
महाववद्यां पवू जयत्वा वशवपजू ां समाचरे त |
ऄन्यथा करणादेवी ! न् पजू ाफिमा्नयु ात|| (विगं ाचभन चवन्द्रका )
महाववद्या कािी और तारा को कइ कइ जगह एक ही कहा गया हैं पर वह तो एक सामान्य
साधक को समझाने की बात हैं पर जो तत्रं ममभनय हैं वह भिी भांती जानते हैं की मि
ू रूपा
अद्या शवि के एक ही होने के ईपरान्त भी बहुत भेद हैं आस दो स्वरूपों मे .
यह कोइ सयं ोग नही हैं की भगवती कािी कृष्ण स्वरुप मे और तारा नीि स्वरूपा हैं , जहाूँ
कािा रंग ब्रम्म्हांड की समस्त ऊणात्मक ईजाभ का प्रतीक हैं तो नीिा रंग सम्पणू भ अकाश
तत्व जो सवभ व्यापी हैं, ईसका प्रतीक हैं .जहाूँ कािा रंग भयावहता दृवष्टगत करता हैं वही
नीिा रंग नीि वणभ मनोरम हैं .
एक ओर भगवती काविका हैं जो साधक को मोक्ष प्रदावयनी हैं,वासना से मि ु करती हैं,वही ूँ
भगवती तारा जीवन के सवोच्चता प्रेममयता, स्नेह्यता से ऄपने साधक को अ्िाववत
करती हैं ,ईनके साधक का जीवन ऄद्भुत स्नेह से भरा परू ा होगा, भगवती ऄपने साधक एक
जीवन मे वनश्चि स्नेह और प्रेम का संचार करती ही हैं ऄब यह वकसी भी स्वरुप मे हो .भाइ
बवहन , वपता पत्रु ी या ऄन्य कोइ भी स्वरुप मे हो .पर होगा सवभ वन्छिता से .
सयू भ पत्रु यमराज भगवती कािी के नाम से ही भी भय से कांपते हैं ,वही भगवती तारा तो
सयू भ की शवि हैं ईनके प्रकाश से सारा ववश्व जीववत और गवतशीि होता हैं.जहाूँ भगवती
कािी सम्पणू भ रावत्र का सञ्चािन करती हैं वही भगवती तारा सारे वदन का सञ्चािन ऄपने
हाथ मे िेती हैं .
भगवती कािी कृपाण विए हुये हैं ,जो आस बातका प्रतीक हैंवक वे ऄज्ञान को नष्ट करती हैं
और जहाूँ ईसके हस्त मे मडंु हैं वह आस बात का प्रतीक हैं की सारे शरीर का सार, मैंने मडंु
विया हैं ऄतः व्यथभ की सब बाते छोडो .वही ूँ भगवती तारा कृपाण के साथ कैं ची भी धारण
वकये हुये हैं, कैं ची का वववेचन तो वपछिे भाग मे हो ही चक
ु ा हैं औत वे झठू े ऄंहकार को
नष्ट करती हैं न् की साधक के अत्मावभमान को .क्योंवक वबना स्ववभमान के मानव जीवन
पशवु त या कें चएु वत हो जायेगा.
कािी अद्य हैं जो की शन्ू य का प्रतीक हैं, वजनको पररभावषत ही नही वकया जा सकता हैं
और यहाूँ एक सक्ष्ू म भेद यह हैं की यवद अद्य को शन्ू य माने तो वफर चाहे सहं ार क्रम से
वगने या सवृ ष्ट क्रम से दोनों से वगनने पर भगवतो तारा नवमी कहिाती हैं और आसी कारण
नवमी वतवथ से भगवती तारा का ववशेष योग होता हैं .क्योंवक ९ का ऄंक पणू भता का प्रतीक
हैं जीवन मे सव कुछ पाने और ईपभोग का प्रतीक हैं सवभ दृष्टी से यि
ु होने का और जीवन
मे ईत्साह, ओज, ईमंगता सभी का प्रतीक हैं .
कहाूँ भी गया हैं की
पञ्च शन्ू ये वस्थता तारा ,सवाभन्ते कविका वस्थता ||
ऄथाभत पांचवे शन्ू य तक मतिब पांचो महाभतू तक/ पञ्च तत्व तक भगवती तारा हैं वे भी
सत्वगणु ावन्वता हैं,और ईनसे भी जो परे सत्ता हैं वह कािी हैं. कािी जहाूँ के वल्य दावयनी
हैं,वही ूँ तारा सत्वगणु ावन्वता और तत्व ववद्या प्रदावयनी हैं.
तीन प्रकार के भाव तत्रं साधना मे मे बताये गए हैं,पशु भाव , वीर भाव और वदव्य भाव.
आसका ऄथभ तो बहुत व्यापक हैं पर जो मि ू बात समझने िायक हैं, वह हैं की पशु भाव
वजसमे हर सामान्य साधक रहता हैं और कइ कइ बार तो वसवि पाए व्यवि भी आसी भाव
वािे हो सकते हैं, जो की ऄष्ट पाशो से बंधे हो .
जो वनयमो मे,मान्यताओ ं मे, ईच्च नीच मे, जावत भेद मे,अचार ववचार मे बंधा हो,
वजसमे िज्जा और घणृ ा जैसे पाश से जो जीवन अच्छावदत हो, वह भिे ही चाहे वकस भी
देव शवि की ईपासना करें या प्रदशभन करें या ईसमे वकसी कारणवस वसवि भी पा िे पर
वह जीवन वास्तव मे पशवु त हैं ,और पशु भाव आसी बात का द्योतक हैं.
जो आस ऄवस्था से उपर ईठ जाता हैं और यह तो वसफभ और वसफभ सदगरुु देव कृपा से सभं व
है, ऄन्यथा ऄपने अप को ईच्च बताने वािे कइ कइ हैं ,जो कहते कुछ हैं और वजनका
अंतररक जीवन परू ी तरह से ऄष्ट पाशों से बंधा होता हैं .यहाूँ तक की वजन ऄनेको ने तंत्र
के नाम पर आस परम मागभ को ऄत्यावधक क्षवत पहुचं ाइ हैं या अज भी यह कायभ कर रहे हैं ...
ऐसे ऄनेको ..साधक वास्तव मे पशु भाव के ही रहे हैं .
और जो सवोच्च भाव हैं ‚वदव्य भाव ‚ जो की के बि और के बि सदगरुु देव कृपा से ही
सभं व हैं , जब सदगरुु देव यह वनवश्चत कर िे ते हैं यह मानस बना िेते हैं की आस साधक को
वदव्यता दे ही देनी हैं ,यहाूँ ध्यान रहे वसवि देनी की बात नही बवल्क वसवियों को अत्मसात
कर ईससे भी ईच्च स्थान की बात हैं ,वहाूँ सदगरुु देव की कृपा किाक्ष साधक के विए वदव्य
भाव का मागभ प्रसस्त कर देता हैं , वह स्वयम ऄनभु व करता हैं की यह सारा जगत वसफभ और
वसफभ सदगरुु देव रूपी परम तत्व ही तो हैं और ईनसे ऄिग कुछ भी नही .और यह तो बहुत ही
कवठन हैं पर जब सदगरुु देव ही ठान िे, तब भिा क्या कवठन होगा और आसी तथ्य का एक
प्रमाण का एक स्वरुप भगवती तारा हैं ,वे ही सदगरुु देव की परम करूणा का एक ऄंश हैं .और
ईनका पारद का ववग्रह प्राि होना आस बात का पररचायक हैं की साधक को वकस स्थान पर
ऄब सदगरुु देव देखना चाहते हैं या ईन्होने ऄब ऄपना मानस बना विया ऄब बस थोडा सा
और श्रम भर साधक को करना शेष रह जाता हैं .
क्योंवक भगवती तारा की साधना ऄगर सही ऄथो मे देख जाए .वनष्पक्ष भाव से तो
के वि और के बि वदव्य भाव का व्यवि ही कर सकता हैं या वजसे भगवती स्वयम चनु कर
ऄपनी साधना के विए मागभ प्रसस्त कर दें.
स्नानावद मानस : शौचौ मानस : प्रवरो जप |
पजू नम मानसं वदव्यम मानसं तपाभणावदकम ||
आस साधना के विए साधक या वदव्य भाव के साधक के विए सभी काि शभु हैं, ऄशभु
काि नाम का कुछ नही हैं, वदवा , रावत्र, संध्या या महावनशा की अराधना मे कोइ ऄंतर नही
हैं,आसमें शवु ि ऄशवु ि की कोइ ऄपेक्षा नही हैं.स्नान वकये हुये या वबना स्नान वकये हुये का
कोइ ऄतं र नही हैं.भोजन वकये हुये या न वकये हुये का कोइ कोइ ऄतं र नही.
आस भाव के साधक को और भव सागर मे डूबना नही पडता हैं.
और यह सब सभं व कहाूँ ,वह भी असानी से ... धीरे धीरे हो सकता हैं तो वह एक मात्र
ऐसे भगवती तारा के पारदीय ववग्रह स्थापन से जो स्वत ही ऄपनी करुणामयता से ऄपने
साधक को ऐसे ईच्चस्तर पर िा देती हैं .यह और कोइ देव या देवी नही कर सकते हैं .यहं पर
एक साधक रुक कर सोचें की आससे ,आस वदव्य भाव की ऄवस्था से ईच्च क्या हो सकता हैं
जहाूँ मात्र अनंद और अनंद का ही साम्राज्य हो .
वही ूँ मानव जीवन अज वजस तरह से भौवतक धन के पीछे दौड़ रहा हैं वह तो यगु का एक
गणु हैं पर ईससे भी तो एक सामान्य क्या ईच्च साधक भी ऄपना महंु नही मोड सकता हैं यह
कहने से तो काम नही चिता की मझु े धन की कोइ िािसा नही हैं .वबना भौवतक धन के
सब शन्ू य सा हो जाता हैं ,और भगवती तो प्रबि धन यहां पर भौवतक धन से ही मेरा
मतिब है, प्रदावयनी हैं .ऄनेको ऐसे साधक हैं वजन्होंने आस महाववद्या की थोड़ी सी या ऄल्प
भी साधना की हैं और ईन्हें ऄचानक भौवतक िाभ कहीं वकसी अकवस्मक धन िाभ के
रूप मे, तो वकसी को प्रमोशन के रूप मे, तो वकसी को वकसी व्यापाररक सौदे के रूप मे
हुअ ही हैं .जब सामन्य रूप से मंत्र जप या स्त्रोत की आस महाववद्या भगवती तारा की आतनी
महत्वता हैं तब ऄगर ईनके पारदीय स्वरूप जो की सहत्रावन्वता देह तारा के रूप मे हैं ईसके
स्थापन के बाद की क्या वस्थवत होगी ऄगर साधक साधना पथ पर सतत गवतशीि रहे तो .
स्वयम सदगरुु देव जी ने कहा हैं की आस साधना से पवू भ ईनके साथ जब सैकड़ों वशष्य रहते
थे तब ईनको रोज के भोजन अवद का प्रबध कै से हो वह भी वचवं तत रहे और यह
स्वाभववक ही है गरू ु ही तो माूँ होता है. और एक माूँ ऄपने बच्चे को अहार अवद देने
मे कै से कोइ कृपणता कर सकती हैं ?ऄगर करती हैं तो वफर वह माूँ कहाूँ....
और ईन्होंने जब यह तारा साधना करने गए तब ईन्हें जो गरू ु वमिे ईन्होंने कहाूँ वक
पहिे ६ महीने मेरी सेवा करनी होगी और जब मैं सेवा से संतष्ठु हो जाउंगा तब ही यह
साधना प्रदान करूूँगा .सदगरुु देव जी के वनवेदन पर की अपके सतं ष्ठु होने का क्या भरोषा
कहीं अप वकसी भी छोिी सी बात पर नाराज़ हो गए तो ..मेरे तो ६ महीने की मेहनत ?
तो ईन गरू ु देव ने कहा की ऄगर वबस्वास नही हैं तो वापस चिे जा .मैंने नही बि
ु ाया हैं
तझु े .जो वशष्य सश
ं य करता हैं वह नष्ट हो जाता हैं .सश
ं यात्मा ववन्यवत
सदगरुु देव कहते हैं वक ईन्होंने रुक कर सेवा की, वह तारा साधना की और ईसके बाद से
ईन्हें कभी भी वकसी भी प्रकार का अभाव नही रहा न ईनको न ईनके साथ गवतशीि रहें
वािे वशष्यों को, सभी ईत्तम से ईत्तम भोजन करते और साधन मय रहते .क्योंवक सदगरुु देव
का बहुत स्पस्ि भाव रहा हैं और ईन्होने कहाूँ भी कइ कइ जगह हैं की जो गरू
ु तमु से ही धन
की याचना करता हैं वह भी तरह तरह से ..वह तम्ु हे दे भी क्या सकता हैं . जो खदु एक
याचक हो वह तम्ु हे प्रदान भी क्या करे गा .
और जब पारदीय सहत्रावन्वता तारा के ववग्रह से सामने यवद कोइ साधक साधना करे गा तब
ईसकी ऄवस्था क्या होगी ,ईसका वकतने धनधान्य से पररपणू भ होगा वह तो कल्पना के परे
हैं.पर यह भी वनवश्चत हैंवक आस तरह का ववग्रह, हर वकसीके भानय मे नही के बि, कुछ ही
भानयशािी होंगे जोइ यह पा पाएंगे.प्रकृवत की ऄपनी ही एक िीिा हैं वह कब वकसी
को,आतने असानी से कमभ फिो से मि ु होने दे सकती हैं .
ऄब यह तो सौभानय हैं आस प्रकार के ऄवत दि
ु भभ पारद सह्त्त्रवन्वता तारा ववग्रह का पाना और
ऄपने नाम को और ऄपने अप को ऐसे ईच्च स्तर के विए तैयार करने का आतना दि ु भभ
सरि और सहज ऄवसर को समझ पाने का ...
So with the help of Parad, such idol by the name of Parad Sahatraanivata has come in front of
us. It makes all these procedure possible in peaceful way and there are no arbitrary procedures
in name of Tantra, no violation of moral and societal rules and no disturbance in materialistic
and personal life of sadhak. This is affection of our Praanadhar Sadgurudev that if he has
made up his mind, then it is final. Universe does not have enough capability to stop that
activity.
Today is the time to get this amazing idol and give meaning to life and not to lose this
invaluable opportunity. And such idols are not available in market, though it is being done. In
its name, some lead idol is given and sadhak unknowingly considers it as authentic one. Here
sadhak has to use his brains because one right decision taken at right time has ability to
transform your whole life provided person stays firm on his decision.
Otherwise we are all aware of our current state that sadhaks fluctuate between resolution,
alternatives, this procedure and that procedure. In such troublesome and doubtful times if
such idol is available, then it is more than enough. The one who has to give one speed and
direction to his sadhna, he will continuously do sadhna. He will never be lazy and will not
leave everything on Sadgurudev. Definitely one state comes when he devotes everything to
Sadgurudev but for attaining that particular stage some activity needs to be done and this
Parad Sahatraanivata idol will make that activity easy and simple.
Shiv Shakti BinaDevi !YoDhaaryetMoodadhi |
Na Yogi Syann Bhogi Syaat kalp KotiShatairapi ||
The fool who involves himself in other dharnaas without Shiva and Shakti, he neither
becomes Yogi nor Bhogi even in hundred kalpas (a day of brahma consisting of 4320,000,000
year of mortals).
Such idol is capable of providing you abundant wealth, taking sadhak to higher level of
knowledge, providing you those hidden secrets of Tantra and taking sadhak forward on this
path. Then what is left to think“
Many sadhaks wants to do shamshaan sadhna and achieve competence in it.It is very
fortunate that one of the forms of Bhagwati Tara is Shamshaan Tara. If sadhak desires then
she also brings sadhak to necessary emotional platform otherwise entering into these sadhna
will be like playing with your life and making mockery of supreme Tantra procedures. First
emotional platform needs to be created then at appropriate time Sadgurudev automatically, if
he feels sadhak is capable, will move sadhak forward on the path. Otherwise if sadhak has in
its mind to do something wrong in the name of those procedures then sadhak can try its level
best, it is not possible to imbibe those highest level secrets.
And if such type of Parad Idol of Bhagwati Tara is attained then automatically this emotional
platform starts getting created and Bhagwati herself moves sadhak on path which is beneficial
for him, which is in accordance with his sanskars, by which he can amplify his own purpose
of life and pride of Sadgurudev.
Now only your decision is left““““..
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नावस्त तंत्र सम शास्त्रं,न भि के श्वात परः |
न योगी शंकारद ज्ञानी, न देवी वनिया परा ||
तंत्र के समान श्रेष्ठ कोइ भी शास्त्र नही हैं ,के शव की ति
ु ना मे कोइ भी भि श्रेष्ठ नही हैं .
शकं र की ऄपेक्षा कोइ भी श्रेष्ठ योगी ज्ञानी नही हैं और नीि सरस्वती की ऄपेक्षा कोइ भी श्रेष्ठ
देवता नही हैं .
भगवती तारा के ऄनेको स्वरुप हैं , वे कहीं पर ईग्रतारा के नाम से तो, कहीं एकजिा के नाम
से, तो कहीं नीि सरस्वती के नाम से जानी जाती हैं,और ईनके सहस्त्रनाम मे ईनके सभी
नाम का ऄपना ऄपना एक गह्य ु ऄथभ तो सदैव से ही हैं.साधक गण मख्ु यता तारा देवी की
साधना या तो धन िाभ और वह भी प्रचरु ता से पाने के विए करते हैं और यह भी तो सभं व
करने ईन्ही का एक सामान्य सा गणु हैं .पर एक रूप वजस को बहुत सामान्य सा समझ विया
जाता हैं वह हैं ईनका नीिसरस्स्वती स्वरुप हैं.क्योंवक अज धन की कहीं ज्यादा
अव्यकता हैं और ज्ञान की वकसे???
तत्रं साधक यह जानकर अश्चयभ चवकत हो जायेंगे की एक ओर यह स्वरुप जहाूँ ववद्या और
वह भी सम्पणू तभ ा के साथ, को देने मे सक्षम हैं, वही आस ‚नीि सरस्वती स्वरुप‛ से ऄनेको
तांवत्रक साधनाए,घोर से घोरतम और ववकितम भी संभव हैं ,यहाूँ तक ही शमशान साधना
से िेकर शव साधना तक क्योंवक ज्ञान को हमेशा एक रूप मे या एकांगी ही नही देखा
जाना चावहए . अज जो ज्ञान शब्द का जो ऄथभ या प्रतीक हैं वह तो वास्तव मे पढ़ी पढाइ
यारिी रिाइ ववद्या हैं जबवक शास्त्रों मे स्पस्ि हैं की जो स्व ऄनभु व यि ु हो, जो जीवन का
सही ऄथभ और अत्मानभु व और ऄपने वास्तववक स्वरुप से व्यवि का स्व पररचय करा दे,ईसे
अत्मािीन करा दें , वही ज्ञान हैं .
और ज्ञान की ऄनेको श्रेवणयाूँ हैं और कोइ भी ज्ञान, यहाूँ तक की वजन व्यविगत गोपनीय
ववषय पर बात करना ईवचत नही कहा जा सकता हैं. ईन पक्ष भी ज्ञान अवखर ज्ञान ही तो हैं,
और एक श्रेष्ठ परुु ष यह जानता है की ज्ञान मे कोइ कमी नही बवल्क ईस ज्ञान को वकस तरह
वह व्यवि ऄपने वहत मे, देश वहत मे, समाज वहत मे और आससे भी अगे की सम्पणू भ
चराचर के वहत मे कै से प्रयोवगत करता हैं ..ऄतं र आस बात का हैं .
तत्वज्ञानात परं नावस्त नावस्त देव : सदवशवात |
नावस्त भावस्तु मध्यास्थान्न्स्ती नीिा सम् पदम ||
ज्ञान से श्रेष्ठ कोइ तत्व नही हैं,सदावशव से श्रेष्ठ कोइ देवता नही हैं.मध्यस्थ (सषु म्ु ना )से श्रेष्ठ
कोइ भाव नही हैं, और नीि सरस्स्वती से श्रेष्ठ कोइ पद नही हैं.
तो आस स्वरुप की,आस ज्ञानमय ववग्रह की कोइ न कोइ ववशेषता तो हैं ही और यह स्वरूप परू े
पणू भता के साथ आस पारद सह्त्त्रावन्वता देह तारा ववग्रह मे हैं.
जब ज्ञान ही नही होगा तो
कै से एक साधक ऄपने जीवन को समझेगा ?
ईसके जीवन का िक्ष्य क्या हैं ?
ईसे कै से ऄपने जीवन को एक ऄथभ देना हैं ?
कै से ऄपनी वशष्यता को सही ऄथो मे साकार करना हैं?
जीवन मे क्या अनंदमयता हैं ?
क्या वात्सल्यमयता हैं ?
और कै से वह भोग को समझेगा ?
और भोग मे प्रवतृ होकर भी ऄतं र मन से ऄछूता कै से रह पायेगा ?.
क्योंवक सारी वक्रयाए सारी साधनाए ईस ज्ञान के विए ही तो हैं वजसे योगी, महायोगी,
देवता और सभी पाना चाहते हैं.वजस सवोच्च ज्ञान के बाद कोइ भी और आच्छा शेष नही
रहती, न ही कोइ संकल्प, न ही कोइ ववकल्प जहाूँ अत्मा ऄपने अप को ऄपने सत्य
स्वरुप को जान िेती हैं और िगातार ऄनभु व करती रहती हैं, और यह सारा ज्ञान जो
ऄधं कार मे जन्मो से पड़ा हैं,वजस पर जन्मो जन्मो के पाप, ऄज्ञानता,ववगत कमो की काविख
के कारण यह ज्ञान सश ु िु ऄवस्था मे पड़ा हुअ था,और यह तो भगवती की दया दृष्टी से ही
संभव हैं की व्यवि ऄपने अप को जान पाए , ऄपने सत्य स्वरुप से पररवचत हो सके . यह तो
भगवती तारा की कृपा से ही तो संभव हैं .
वबना शवि साधना के कै से ईस ईच्च ऄवस्था को या आस ईच्च ज्ञान ऄवस्था को पाया जा
सकता हैं,साक्षात् वकया जा सकता हैं .
श्रणु ु देवव ! रहस्यं मे परं तत्व वदावम ते |
यस्या:मात्रेण भवु िं मवु िं ववन्दवत ||
ऄनेन ध्यान मात्रेण भवु ि मवु िंच ववन्दवत |
ऄनेन ध्यान मात्रेण साधकस्य मवतभभवेत ||
भैरव कहते हैं की ... ‚हे देवी वजनके स्मरण मात्र से साधक भोग और मोक्ष पाता हैं, मैं
ईस गोपनीय परम तत्व को तमु से कहता हूँ ,श्रवण करो. आसके ध्यान मात्र से साधक को भोग
और मोक्ष की प्रावि होती हैं और साथ मे साधक आसके ध्यान मात्र से ज्ञानवान, मवतवान हो
जाता हैं |‛
साधक स्वयम यहाूँ एक पि रुक कर सोचे भाि और वकस साधना मे , और वकस देव मे
आतनी शवि हैं जो यह ऄसंभव को भी सभं व बना सकने मे समथभ हैं .
ववशेषतः कवियगु े नराणां भवु ि मवु िद्म |
नीि तत्रं महातत्रं सवभ तन्त्रोत्तमोतम् तत्रं ||
तस्य ईपासकस्चैव ब्रम्हाववष्णवु शवादय: |
चंद्रसयु ाभश्च वरुण : कुबेरोंवननस्तथा परः ||
दवु ाभशाश्च वावशस्ठाश्च दत्तात्रेयो बहृ स्पवत :|
बहना वकवम होत्तें सवे देवा ईपासका ||
कवियगु मे ववशेषतः नीि रूपा तारा महाववद्या ही एक मात्र हैं, जो मानव समहू को भवु ि
मवु ि प्रदान करने वािी हैं. यह तत्रं ही एक महातत्रं हैं. और सवोत्तम तन्त्रो से भी श्रेष्ठतम तत्रं
हैं .ब्रम्हा, ववष्ण,ु वशव, चद्रं , सयू भ, वरुण, कुबेर, ऄवनन, प्रभवृ त, देवगण और
दवु ाभसा,ववशष्ठ,दत्तात्रेय, बहृ स्पवतऔर समस्त ऊवष गण आसके ऄथाभत भगवती तारा ईपासक हैं
और ऄवधक क्या कहा जाए,एक प्रकार से समस्त देव शवि ही आसके ईपासक हैं .
यह तारा महाववद्या और ऐसे ववग्रह को प्राि करना बहुत ही भानय या सौभानय या परम भानय
ही कहा जा सकता हैं, यूँू तो अज गिी गिी मे आस ववद्या का ज्ञान कराने वािे बैठे हैं पर
ईनके स्व जीवन मे क्या आसकी कोइ ईपिवब्ध वदखती हैं. जो आसके ईपासक बने बैठे हैं,
ईनके शब्द शवि और वाक् चातयु भ को ही देख िे . सदगरुु देव स्पस्ि कहते रहे की पोवथन
पढ के ज्ञान देने वािा भी गरू ु ही हैं और वह भी प्रणम्य हैं पर श्रेष्ठ गरू
ु तो वह होता हैं,
वजसे कोइ पोथी की अव्यकता ही न हो,वजसने अवखन देखी की वस्थवत स्व ऄनभु व की
हो, वह जहाूँ चाहे, जैसा चाहे, वजस ग्रन्थ को चाहे, वैसा कह सके , ईिरण दे सके , वह होता
हैं एक ‚सदगरुु देव‛ ऄन्यथा ऄब तो आस नाम का भी मानो मखौि सा बनने िगा हैं पर
सत्य बहुत देर छुपता ही नही हैं .
एक क्षण को रुक कर सोचे, वजसे पणू भता के साथ भगवान अजं नेय या हनमु ान वसि हैं,
वजसने ईन्हें पणू भता के साथ अत्मसात वकया हैं और वह स्वयम ही बि हीन हो तो कै से
संभव हैं यह ...??
भगवती तारा के साधना मे एक बहुत ही ध्यान रखें वािी तथ्य है ईन की, जब तक ईनके
भैरव की साधना या पजू न न वकया जाए ईनकी साधना पणू भ नही होती हैं और ईनके भैरव हैं
ऄक्षौभ्य , जो ईनकी जिाओ मे ही वनवावसत रहते हैं, और यह तथ्य तो हर ईस साधक को
जानना ही चावहए जो वकसी भी महाववद्या की साधना मे िगा हुअ हैं,हाूँ आस तथ्य को वसफभ
एक जगह छोड़ा जा सकता हैं वह ईसे, वजसे सीधे सदगरुु देव ने ही वसफभ महाववद्या मंत्र के
विए स्वत वनदेवशत वकया हो ऄन्यथा आस वनयम से वकसी को छूि नही .
और अज कै से सभं व हैं ईन तन्त्रो की वक्रयाओ ं को करना ?
वजसके विए न तो समाज, न ही स्वास्थ्य, न ही नैवतक वनयम और न ही काननू ी वनयम
ऄनमु वत देंगे ?.
तब क्या वह सारी वक्रयाए मजाक बन् गयी हैं या ईनके नाम पर कुवत्सक अचरण करने
वािों की भीड़ सामने अ गयी हैं. तत्रं वक्रयाओ ं का मानो माखौि सा ईडाया जाने िगा हैं
तो आन्ही बातों को ध्यान मे रखते हुये सदगरुु देव जी ने ऄनेको बार पारद का सहयोग िे कर
नवीनतम रचना की वे ऄच्छी तरह से समझते रहे हैं की अज के साधको मे न तो ईतनी
ईच्चता हैं, न ही ईतना समपपभण सभं व हैं,और अज की पीढ़ी मे चाररवत्रक हास और पतन
की तो कोइ सीमा ही नही ,न ही वह शारीररक बि और तेज ईनमे हैं . तो क्या आन्हें पीछे छोड़
वदया जाए .??.पर सदगरुु देव ऐसा कब कर सकते रहे ..‛ाईन्होंने तो बारम्बार बोला की ाआस
बार तुमने नही, मैंने तुम्हारा हाि िमा हैं और तुम्हे ाईस पूर्णवता तक ले कर जााउाँगा
ही यही ाईनका वचन रहा ‚.
तो पारद के संयोग से ऐसा ववग्रह जो अज पारद सह्त्त्रवन्वता देह तारा के नाम से हमारे
सामने अया हैं वह आन्ही वक्रयाओ ं को सौम्यता के साथ संपन्न करा देता हैं, जहाूँ तंत्र के
नाम पर ,न कोइ मनमानी वक्रया, न नैवतक, सामावजक वनयमों का ईल्िघन , न ही साधक के
भौवतक और व्यविगत जीवन मे वकसी भी प्रकार का ववक्षेप. यही तो हमारे प्राणाधार
सदगरुु देव की करुणा हैं की जब ईन्होने ऄपना मानस बना विया तो बना विया वफर ब्रम्हांड
मे सामथ्यभ नही की ईनकी वक्रया को रोक सकें .
अज यह ऄद्भुत ववग्रह को प्राि कर ऄपने जीबन को एक ऄथभ देने का और आस देव दि ु भभ
ऄवसर को न चक ु ने का समय हैं .और ऐसे ववग्रह कोइ बाज़ार मे थोक के भाव मे तो वमिते
नही हैं हिावक अज यही हो रहा हैं आनके नाम पर कोइ भी शीशा या िेड का कोइ भी
ववग्रह थमा वदया जाए और साधक ऄपने मे ही डूबा रहे .यहाूँ पर साधक को ऄपने वववेक
से वनणभय िेना होता है, क्योंवक एक सही और समय पर विया गए वनणभय परू े जीवन को
बदि सकने की सामथ्यभ रखता हैं ऄगर व्यवि ऄपने वनणभय पर से वडगे न .
ऄन्यथा अज हमारी वस्थवत जो हैं वह सभी कोइ ज्ञात हैं की साधक वगभ सक ं ल्प, ववकल्प
और आस प्रवक्रया और ईस प्रवक्रया के मध्य झि ू ता ही रहता हैं .और ऐसे कष्टकारी ववभ्रम्
कारी समय मे ऄगर ऐसा ववग्रह प्राि हो तो, यही ही काफी हैं ,और वजसे ऄपनी साधना
को एक गवत, एक वदशा तीवभता से देना हैं वह तो सदैव साधनामय होगा ही वह कदावप
अिसी या सदगरुु देव पर सब कुछ छोड़ कर नही चिेगा ,हाूँ एक ऄवस्था अती हैं
ऐसी,जहाूँ सब कुछ सदगरुु देव मय हो जाता हैं पर ईस ऄवस्था िाने के विए भी तो कुछ
करना शेष होगा और यह पारद ववग्रह जो सह्त्स्त्रावन्वता तारा के नाम से हैं आसी वक्रया को
तो सरि और सहज बना देता हैं .
वशव शवि वबना देवी ! यो धायेत मढ़ू वध |
न योगी स्यान्न भोगी स्यात कल्प कोवि शतैरवप ||
वशव और शवि के वबना जो मढ़ू , ऄन्य धारणाओ ं मे प्रवतृ होता हैं वह सैकड़ों कल्पों मे न तो
योगी होता हैं, न ही भोगी .
जहाूँ एक ओर ऐसा ववग्रह जो धन धन्य को पणू भता से ईपिब्ध कराने मे ,ज्ञान की ईच्च
सीमा तक साधक को पंहुचा सकने मे,जीवन और तंत्र की ईन गोपनीय रहस्यों को प्राि कराने
मे समथभ हैं या साधक को ऄग्रसर करा सकने मे समथभ हैं तब क्या और क्या सोचना शेष हैं.
ऄनेको साधक शमशान साधना मे जाने की या ईसमे दक्षता हावसि करने की सोचते हैं
और यह भी वकतने सौभानय की बात हैं की भगवती तारा एक रूप ्मशान तारा हैं जी
साधक की यवद आच्छा हैं तो ईसके विए अव्यक वह भाव भवू म भी स्वत तैयार कर ही देती
हैं ऄन्यथा आन साधनाओ मे प्रवेश करना वसफभ ऄपने जीवन से वखिवाड या ईन ईद्दात
तत्रं वक्रयाओ ं का मजाक ईड़ाना ही कहा जायेगा ,पहिे भाव भवू म तो बने वफर ईपयि ु समय
पर सदगरुु देव स्वत ही, यवद ईन्हें िगता हैं की वह साधक योनय हैं तो अगे आस मागभ पर बढ़ा
देंगे .ऄन्यथा साधक के मन मे ईन वक्रयाओ ं के नाम पर यवद कुछ ओर ऄनवु चत करने का हैं
तो साधक वकतना भी कोवशश करिे संभव ही नही हैं ऐसे ईच्चतम रहस्यों को हस्तगत
करना .
और यवद आस प्रकार के भगवती तारा का पारदीय ववग्रह प्राि हो जाए ,तो स्वत ही वह
भावभवू म बनने िगती हैं और साधक को ईस मागभ पर भगवती स्वयं ही बढ़ा देती हैं जो
ईसके विए वहतकर हो , जो ईसके संस्कार मे हो, वजसके माध्यम से ऄपने जीवन के हेतु
को और ऄपने सदगरुु देव के गौरव को प्रववधभत कर सकें ..
ऄब अपको वनणभय िेना ही शेष हैं..
र रखे और मन में शुि भाि बनाये रखे, यही हचतन बना रहे की भगिान गणपक्तत की कृ पा से
पररक्तस्थक्ततया ऄनुकूल हो कर सुख एिं सौभाग्य की िृक्ति हो रही हैं, आस भािभूक्तम पर भगिान
गणपक्तत क्तिशेर्ष प्रसन्न होते हैं.
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