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कठोप ििषद -

ििवयाम ृ त

ििव ाि नि


िवष य-सूच ी

पष

पवेि ३
ििवेिि ११
पथम अधयाय पथम वलली १८
पथम अधयाय िितीय वलली ४१
पथम अधयाय तत
ृ ीय वलली ७४
िितीय अधयाय पथम वलली ९२
िितीय अधयाय िितीय वलली १०९
िितीय अधयाय तत
ृ ीय वलली १२४
पवे ि

भारत की एक पमुख िविेषता उसकी अटू ट िचनति-परमपरा है ।


भारत के मिीिषयो िे बिहमुख
ु ी जीवि के पलोभिो एवं आकषण
ु ो से मि
को हटाकर, अनतमुख
ु ी पविृि को पशय िे कर तथा ततव-िजजासा से पेिरत
होकर,जीवि के चरम लकय पर गहि िचनत िकया। जीवि,जगत ् और
आतमा के रहसयो की खोज मे उनहोिे अिेक ििि
ु -पदितयो का सज
ृ ि
िकया। ‘ििि
ु ’ का अथ ु ‘िे खिा’ है , ि िक मात अिुमाि पर आधािरत
िवचार करिा। इसी कारण भारत मे ििि
ु धम ु एवं जिजीवि का अंग
बि गया, जब िक अनय िे िो मे वह वाििवलास के रप मे कुछ िचनतको
तक ही सीिमत रहा। वासतव मे , सतय का अनवेषण करिा धम ु का
पमुख लकण है ।
भारत की समसत वैििक एवं अवैििक ििि
ु -पदितयो के मूलसूत
परसपर जुडे हुए है और सबका लकय परम ततव की खोज तथा जीवि मे
ि ु:ख का ििराकरण एवं सथायी सुख-िािनत की सथापिा करिा रहा है ।
बाह रप मे िविभनि होते हुए भी उिमे लचस क एकता सपष है । सभी
अनत:करण की पिवतता को िवानवेषण के िलए महतवूपणु मािते है ।
संसार के पाचीितम जाि-गंथ वेि है तथा उपििषद उिके वैचािरक
ििखर है । वैििक ऋिषयो िे धमु(सतय) का साकातकार (अिुभव) िकया,

‘साक ातकृत - धमाु णो ऋषय ो बभूव ु :’ ऋिषयो िे मंतो के अनतिििुहत


सतय ् का ििि
ु ् (सपष अिुभव) िकया। ऋष यो मतदषा र:। वासतव मे
उपििषद ऋिषयो के अिुभव-जनय ् उिगारो के भणडार है , िजनहे मंतो के
रप मे पितिषत िकया गया है और वे मात िवचार अथवा मत िहीं है ।
उपििषि वेिो के जािभाग है तथा उिमे कमक
ु ाणड की उपेका की
गयी है । यदिप वेिो मे अिनतम सतय को एक ही घोिषत िकया गया,
उसको अिेक िाम िे ििये गये। उपििषिो िे उसे ‘बह’ (बडा) िाम िे
ििया। वेिो िे िजि पशो के उिर िहीं ििए, उपििषिो िे उिके भी उिर

१. उपििषिो के महतव एवं िवषयवसतु की पयाप


ु ् चचा ु हम ‘ईिावासय-ििवयामत
ृ ’ के
‘पवेि’ मे कर चक
ु े है तथा यहां उसकी पुिरावतृथत ् करिा अिावशयक है । सुधी पाठको से
हमारा अिुरोध है िक वे पष
ृ भूिम के रप मे उसे धयािपूवक
ु ् अवशय पढ ले।(हमारी योजिा के
अनतगत
ु पमुख उपििषिो की सरल टीकाओं के अितिरक’अषावकगीतारसामत
ृ ’का पणयि तथा
‘सूकम जगत ् मे पवेि : मि के उस ओर’ इतयािि की रचिा करिा भी है ।) सवामी
िववेकािनछ एवं शी अरिवनि की रचिाएं उपििषिो को समझिे के िलए अतयनत उपयोगी है ।
डॉ० राधाकृ षणि की रचिाएं भी भारतीय ििि
ु को समझिे मे अतयनत सहायक है ।

िे ििए। उपििषि परमातमा, जीवातमा सिृष आिि िवषयो का ििरपण


करते है , िकनतु एक अिितीय बह को अिनतम सिा के रप मे पितपािित
करते है । यह एक आशय ु है िक सभी उपििषद िभनि-िभनि पकार से
एक ही बह का ििवच
ु ि करते है तथा उपििषिो मे एक सपष तारतमय
है । बह का साकातकार ही जीवि का परम लकय है । पजाि बह है , मै

बह हूँ, वही तू है , यह आतमा बह है , ये चार महावाकय है । सब कुछ


२ ३ ४

बह ही है । बह सतय है , जाि है , अिनत है ।


५ ६

उपििषिो के रचिा-काल तथा उिकी संखया का ििणय


ु करिा
किठि है । पमुख उपििषद ियारह कहे गए है – ईि, केि, कठ, पश,
मुणडक् , माणडू कय ्,ऐतरे य, तैििरीय, शेताशतर, बह
ृ िारणयक तथा छानिोिय।
िककराचाय ु िे इि सब पर भाषय िलखे है , यदिप कुछ िविािो िे
शेताशतर उपििषि के भाषय को िककराचायु-पणीत िहीं मािा है ।
कौषीतकी तथा ििृसंहतािपिी उपििषिो को सिममिलत करिे पर पमुख
उपििषिो की संखया तेरह हो जाती है । अगिणत वेि-िाखाएं,बाहण-
गनथ,आरणयक और उपििषि िवलुप हो चुके है । हमे ऋिवेि के
िस,कृ षण यजुवि
े के बिीस, सामवेि के सोलह, अथवव
ु ेि के इकतीस
उपििषि उपलबध है । वेिो पर आधािरत बाहण-गनथो मे यजो की चचाु
है तथा उिसे समबद आरणयक है , जो अरणयो (विो) मे उपििष हुए।
पाय: बाहण-गनथो एवं आरणयको के सूकम िचनतपूण ु अंि उपििषि है ।
बाहण-गनथो और आरणयको को पधाित: कमक
ु ाणड कहा जाता है तथा
उपििषि जािकाणड है । उपििषि वैििक-वाडमय का िविीत है ।
उपििषिो मे पितपािित बह एक और अिितीय है । वह िै तरिहत
है । वह िितय ् और िाशत है , अचल है । बह ही िवश की एक मात सिा
है । उपििषिो मे ‘आतमा’ परमातमा अथवा बह का पयाय
ु वाची है । बह
िििवि
ु ेष अथवा ििगुण
ु है । उसे ििषेध िारा ििगुण
ु रप मे विणत
ु िकया
जाता है - िे ित िे ित (यह भी िहीं, यह भी िहीं)। बह बणि
ु सेपरे है ।
‘स ए ष ि ेित िे ित आ तम ा’ (बह
ृ ि० उप०, ४.४.२२)।

१. पजाि ं बह (ऐतरे य उप०, ३.१.३)


२. अहं बह िसम ( बह
ृ ि० उप०, १.४.१० )
३. ततवम िस (छानिोिय उप०, ६.१५ )
४. अयमातमा बह (माणडू कय उप०, २)
५. सवव खिलवि ं बह (छानिोिय उप०, ३.१४.१ )
६. सतय ं जाि ं अिनत ं बह (तैििरीय उप०, २.१ )

वेि पर आधािरत छह ििि


ु िास सोपािातमक् है । मीमांसा मे ईशर
की पितषा िहीं है , यदिप वह वेि पर ही आधािरत है । सांखय,योग, नयाय
और वैिेिषक सवतंत है ।वेिानत छह िासो के सापाि मे सवोपिर है ।
उपििषि ही वेिानत ् अथात
ु वेि का पितपाद अिनतम जाि-भाग है ।
उपििषिो मे वेिानत ्-ििि
ु सिनििहत है , अतएव िोिो पयाय
ु वाची हो गए
है । वेिानत ् का अथ ु है -वेिो का अनत ,धयेय, अथात
ु पितपाद अथवा
सारततव।
मिुषय मे अपिे भीतर गहरे पवेि एवं सूकम अिुभवो िारा िवश के
समसत रहसयो का उदाटि करिे की सामथय ु है । परबह परमातमा की

पचछनि ििक माया है । वेिानत के अिुसार मायारिहत बह ििगुण


ु अथवा
िविुद बह है तथा मायासिहत (अथवा मायोपािधिवििष) बह ही सगुण
बह, अपरबह अथवा ईशर है , जो सिृष की रचिा करता है , कमफ
ु ल िे ता
है और भको का उपासय है । वह अनतयाम
ु ी है । वासतव मे िोिो परबह
और अपरबह तिवत: एक ही है । पािणयो के िे ह मे रहिेवाला जीवातमा
भी वासतव मे माया से मुक होिे पर आतमा ही है । बह सतय है अथात

िितय, िाशत ततव है और जगत ् िमथया अथात
ु सवपिवत ् असत ् एवं
िशर है तथा जीवातमा अपिे िुद रप मे आतमा ही है । बह सतय ं
जगिनमथ या जीवो बहै व िा पर :। संसार की वयावहािरक सिा है ,
िकनतु ततव-िवचार से एक बह की ही वासतिवक सिा अथात
ु पारमािथक

सिा है । बह ही एक मात सतय अथात
ु िाशत ततव है ।
उपििषिो को िविेष महतव िे कर पकाि मे लािे का कायु
िककराचाय ु (६५५ ई० से ६८८ ई० अथवा ७८८ ई० से ८२० ई०) िे
िकया। िककराचाय ु िे पमुख ियाहर उपििषिो बहसूत (िजसमे उपििषिो
की सारगिभत
ु चचा ु की गई है ।) तथा भगवदीता पर अदत
ु भाषय िलखे
और सारे भारत मे अिै त-ििि
ु की पसथापिा की। िककराचाय ु िे बौद
आचायो को िासाथु मे युिकपूणु तको िारा परािजत

१. “ But if it seems strange to you that the old indian philosophers should have known
more about the soul than Greek or medieval or modren philosophers, let us remember
that however much the telescopes for observing the stars of heaven have been improved,
the observatories of the soul have remained much the same .” Max Muller : Three
lectures on the Vedanta Philosophy, London.
भारतीय िाििुिक आतमा के समबनध मे यूिािी,मधयकालीि अथवा आधिुिक िाििुिको
से अिधक जािते थे। िरूबीिो मे िकतिा भी सुधार हुआ हो, आतमा की वेधिाला तो वही
है ।

करके वैििक
संसकृ ित को पुिरजजीिवत िकया। सवामी िववेकािनि (१२ जिवरी
१८६३-४ जुलाई १९०२) िे भी वही काय ु िविे िो मे जाकर िकया। भारतीय
संसकृ ित को िवश-संसकृ ित के रप मे पितिषत करिे का अिभुत कायु
िककराचाय ु सवामी ियािनि और सवामी िववेकािनि िे तकु के आधार
पर िकया । किािचत बुिद की पखरता एवं मौिलकता लगभग २० वषु की
आयु से ४० वष ु तक सिविेष रहती है , यदिप पयाप
ु िपरपकवता लगभग
४० वषु से ५० वषु तक आ लेती है तथा तििनतर िचनत एवं अिभवयिक
की कमता बढती रहती है । तकु तथा अिुभव पर आधािरत जाि के
िाशत पकाि से पिरपूण ु होिे के कारण कालजयी उपििषिो की उपेका
होिा असंभव है , यदिप उिके सनिे ि को आतमसात ् करिे के िलए
आधयाितमक साधिा करिा िितानत आवशयक है ।
ताितवक दिष से यह सब वयक जगत बह ही है । संसार इिनदयो

के सतर पर जैसा िीखता है , वह सब कोरा भम िहीं है , माया (अथवा


पकृ ित) है तथा चेतिा अथवा जाि के सतर पर सवत
ु बह ही है । इिनदयो
के सतर पर यह जगत ् यथाथ ु है , आतमा के सतर पर यह मात माया है ,
असत ् है ।
िाशत केवल बह ् है । हम इिनदय-सतर के जाि से ही चेतिा-सतर
के जाि तक पहुंचते है । जाि सोपािातमक है । बह सत ् अथात
ु सतय का
भी सतय है । पिाथ ु और चेतिा मे मूलत: भेि िहीं है । वे परसपर

पिरवति
ु ीय है , यदिप अिुभव के सतरो पर वे िभनि-िभनि पतीत होते
है । यह जगत ् एक ही चेति-ततव से ओतपोत है । वही सवत
ु है , वही

इसका आधार है ।
उपििषिो की पमुख िविेषता सतय की साहसपूण ु खोज है तथा
उसमे ििभीकता,बौिदकता एवं तािकुकता का पुट है । संसार के िकसी भी
अनय जािगनथ मे ऐसी मीमांसा तथा गंभीर अनवेषण का ततव िहीं है ।
संवाि मे परसपर आिर-सममाि ििया जाता है तथा कहीं िवचार को
थोपा िहीं जाता। वा िे वािे जायते तत वब ोध : अथात
ु बौिदक सतर पर
संवार से तथय का ििणय
ु ् होता है । वयिकगत अिुभव एवं रहसयमय
आनतरिक अिुभूित पर बल ििया जाता है , कयोिक सवािुभव का
पमाण

१. बहै वे िं िवशिम िं विरषम। ् (मुणडक उप०, २.२.११)


इिं सव व यियम ् आत मा। ( बह
ृ ि० उप०, २.४.६ )।
२. सतय सय सतयम ् (बह
ृ ि० उप०, २.१.२: २.३.६)
३. तिोत ं च पोत ं च े ित (बह
ृ द ० उप०, ३.८.४)।

सवोपिर होता है । धम ु के ततवो पर भी पश िचनह लगाकर, िजजासा एवं


सनिे ह के समाधाि का ऐसा पयत कहीं अनयत िे खा िहीं जाता।
उपििषिो के रोचक संवािो मे सावभ
ु ौिमक सतयो का ििरपण िकया गया
है तथा वे िकसी भी पचिलत धम ु के अिुपालि मे बाधक िहीं हो सकते।
सतय के अनवेषको एवं अिुसनधाताओं के िलए उपििषि अमत
ृ मय िसद
होते है । उपििषि ििक अभय उनमुकता और आिनि का सनिे ि िे ते है ।
कठोपििषि का एक मंत गजि
ु करता है -उठो जागो शष
े पुरषो से बोध
पाप करो। ‘उिततष त जागत पापय वराि ् ििब ोधत ’ (कठ० उप०,
१.३.१४)। उपििषि ऐसे िवशधम ु के आधार है , जहां पेम और सिभाव घण
ृ ा
और िोषण का सथाि लेकर िािनत की सथापिा कर िे गे तथा जहां
आधयाितमक पकाि मे जीिा संभव हो सकेगा।
संसार के िकसी धमग
ु नथ अथवा ििि
ु -गनथ मे परमातमा का ऐसा
ताििवक वणि
ु उपलबध िहीं है , जैसा उपििषिो मे है । संसार मे केवल
उपििषि ही आतमा परमातमा जगत और जीवि के रहसयो की खोज मे
पूणत
ु : संलिि है । उिमे कुछ भी िववािासपि िहीं है तथा मात बहिवदा
की ही चचा ु है । बह और सिचचिािनि है । वह सत है िितय एवं िाशत
है तथा चैतनयसवरप पकािसवरप और आिनिसवरप है । वह अमत
ृ मय
है , अिनत और अििवच
ु िीय है । यदिप वह बुिदगाह िहीं है , तथािप िविुद
अनतरातमा मे उसकी ििवयािुभूित अवशय हो सकती है । उसकी पािप के
िलए कही जािा िहीं है तथा वह अपिे भीतर ही सुलभ है । वासतव मे
हमारा जीवातमा परमातमा का अंि है तथा अपिे िुद रप मे वह सवयं
परमातमा ही है । गुर कहता है -‘तत ् तवम ् अिस ’ और साधक
अिुभव करता है -‘अहं बह अिसम। ’ जीवि मे इससे बढकर अनय कोई
उपलिबध िहीं हो सकती।

१. इह च ेिव े िीथ सतयम िसत िे च ेिि हाव ेिी नम हती िवििष :।


भू तेष ु भूत ेष ु िव िचतय धीरा : पेतयासमाल लोकािम ृ ता भ विनत ।। (केि उप०, २.५)
-िजसिे इस मािव िे ह मे परबह को जाि िलया, वह कुिल है । यिि इस िे ह मे रहते हुए
परबह को िहीं जािा, वह घोर िविाि है । बुिदमाि लोग पािणमात मे परबह को
िे खकरइस लोक से जाते है , वे अमर हो जाते है ।
य वा एतिक ंर गािय ु िविि तवाऽस माललोका त ् पै ित स कृपणोऽथ।
य एतिक ंर गािग ु िव िितवाऽस माललो कात ् पै ित स बाह ण : ॥
ृ ० उप०, ३.८.१०)
(बह
-याजवलकय िे कहा-हे गािग ु जो इस संसार से बह को जािे िबिा ही जाता है , वह कृ पण
(अभागा) है । जो इसे जािकर जाता है , वह बाहण है ।

उपििषिो की चचाु करते हुए भगवदीता का उललेख करिा अतयनत


पासंिगक है । भगवदीता को भी उपििषि की संजा िी गई है । भगवदीता
का कठोपििषद के साथ घििष संबंध है । उसके अिेक सथल कठोपििषि
पर आधािरत है । यहां उसकी िवसतारपूवक
ु ् चचा ु करिा अिभीष है ।
संसार मे जब मािव सब पकार की संकीणत
ु ा,असिहषणुता और कटटरता
को तयागकर आधयाितमकता की ओर बढे गा और मािवमात मे ही िहीं
बिलक पिु-पिकयो, वक
ृ ो और समसत विसपितयो मे भी चैतनय-ततव का
ििि
ु करे गा, तब उपििषिो का अधयातम ् एक कलयाणकारी िई वयवसथा
का आधार बि जाएगा तथा मािव पेमपूण ु सह-अिसततव का पाठ सीख
सकेगा। भौितक सतर पर िवषमता कभी समाप िहीं हो सकती तथा
आधयाितमक सतर पर ही सचची समता और िािनत की सथापिा हो
सकती है । उपििषि वैििक मिीषा का एक आलोक-सतमभ है जो सारे
संसार को पकाि िे ता है ।
जो मिुषय समपूणु पािणयो को परमातमा मे ििरनतर िे खता है और
सब पािणयो मे परमातमा को िे खता है , वह िकसी से घण
ृ ा िहीं करता।
जब परमातमा को जाििे पर सब पाणी परमातमसवरप ही िीखते है , तब
एकतव को िे खिेवाले पुरष के िलए मोह और िोक िहीं रहते तथा वह
आिनि से पिरपूण ु हो जाता है । भौितक सतर पर ही रहिे से वयिक एवं

समा मे कभी सामय और िािनत की सथापिा िहीं हो सकती तथा


आधयाितमकता को पमुख एवं भौितकता को गौण मािकर और उिका
समुिचत समनवय होिे पर ही वयिक एवं समाज के जीवि मे िािनत और
सुख को पितिषत िकया जा सकता है ।
उपासिा की पदितयो की िभनिता को सवीकार करिे पर सबका
गनतवय एक ही परमातमा को माििे पर परसपर िववाि और संघषु
समाप हो सकते है । सब धमो का साधय एवं पापय वही एक है । मागु

अिेक है , लकय एक ही है ।

१. यसत ु सवा ु िण भ ू तानयातम नयेवाि ुपशयित।


सवु भू तेष ु चातमाि ं ततो ि िवज ुग ुपस ते ॥६ ॥
यिसमि ् सवा ु िण भू तानयातम ैवा भूिि जाित :।
तत को मोह : क: िोक एकतव मिुपश यत :।।७।। -ईिा० उप०
२. रचीिा ं वैिचतयाद ऋज ुकुिट लिािापथज ुषा ं
िृ णा मेको गमयसतवम िस पयसामण ु व इव। (ििवमिहमि सतोत)
-रिचयो के भेि के कारण सीधे, टे ढे आिि अिेक पथो पर चलते हुए मिुषयो का एक
तू ही लकय है , जैसे ििियो का लकय समुद होता है ।
ये यथा मा ं पपदनत े ता ंसतथ ै व भजामयह म।। -गीता,४.११
- जो परमातमा को जैसे भी भजता है , परमातमा उसे वैसे ही सवीकार लेता है

भारतीय धमो के सनिभु मे यह कहिा आवशयक पतीत होता है िक


चावाक
ु -ििि
ु जडततव के अितरिक चेतिततव को सवीकार िही करता,
िकनतु, जैि-ििि
ु और बौद-ििि ु चेतिततव (आतमततव) के अिसततव को
अपिे- अपिे ढं ग से सवीकार करते है , यदिप वे अवैििक है , और ‘िािसतको
वेिििनिक:’ के आधार पर उनहे िािसतक कहा जाता है । वे वेिो के िारा
पितपािित बह अथवा ईशर की मानयता को सवीकार िहीं करते। ऐसा
पतीत होता है िक उिके मूल पवकाओं (भगवाि ् महावीर और भगवाि ्
बुद) िे सवयं ईशर के अिसततव को अमानय िहीं िकया तथा यजो की
पिु-िहं सा आिि िोषो का ििषेध करिे मे उनहे ईशर-ततव की उपेका करिी
पडी। उनहोिे ‘वैिि की िहंस ा ि भवित ’ के कुपचार कर उिचत िवरोध
िकया। उिके परवती आचायो िे अपिी बुिद के अिुसार ििि
ु - पदितयो
और िासो की रचिा कर िी। कालानतर मे भेि बढते गये और समपिायो
का उिय हो गया। हमे पवतक
ु ो की जि-कलयाण की भविा को दिषगत
रखकर, उिके िारा चेतिततव की सवीकृ ित के आधार पर परसपर
समनवय एवं मौिलक एकता पर बल िे िा चािहए। िवघटिकारी िासाथर ्
के युग बीत चुके है । बुद की अिहं सा, करणा और मैती सिै व पासंिगक
रहे गी।
अिेक पाशातय िविािो का सपष मत है िक भारत के समसत धमो
के मूल उपििषिो से जुडे हुए है । यह सविुविित है िक िापिहावर,
डायसि,
मेकसमूलर , हकसले, िवल डु रानट आिि अगिणत पखयात िविािो िे
१ २

उपििषिो की मुककणठ से पिंसा की है । भारत के भिवषय की उजजवलता


तथ िवश-कलयाण की आिा उपििषिो पर आधािरत है । उिमे
सावभ
ु ौिमकता है तथा कहीं संकीणत
ु ा एवं कटटरता का पुट िहीं है । इस
तथय को जाि लेिे और उपििषिो के पकाि का पसार कर लेिे मे ही
कृ ताथत
ु ा है ।

1. “ It is surely astounding that such a system as the Vendanta should have been slowly
elaborated by the indefatigable and intrepid thinkers of India thousands of years ago, a system
that even now makes us feel giddy, as in mounting the last steps of the swaying spire of a
Gothic Cathedral. None of our philosophers, not expecting Heraclitus,Plato , Kant or Hegel
has ventured to erect such a spire never frightened by storms or lightthings. Stone after
regular succession after once the frist step has been made, after once it has been clearly seen
that in the beginning there can have been but one, as there will be but one in the end, Whether
We call it Atman or Brahman.” (Six Systems of Indian Philosophy-Max-Muller)

कठोपििषद मे अिेक सथलो पर अिेक पकार से मतृयु के भय को


तयागकर अथात
ु ् समसत भयो को तयागकर, अजेय एवं अभय होिे का
आहाि िकया गया है ।उिि षत ज ागत- उठो, जागो।
कठोपििषद का िियिमत पाठ ििशय ही कलयाण के माग ु को
पिसत कर िे ता है ।

यह आशयज
ु िक है िक यूरोप के महाि िचनतको िे ऐसा ििि
ु िहीं ििया ,जैसा भारत िे।
भारत के वेिानत का एक ही आधार है , एक ही ििखर है -आतमा अथवा बहि।्
2. “It is true that even across the Himalayan barrier, India has sent to us such questionable
gifts as grammar and logic,philosophy and fables,
hypnotism and chess, and above all, our numerals and our decimal system. But these are not
the assence of her spirit; they are trifels compared to what qe may learn from her in the
future.As invention , industry and trade bind the continents together,or as they fling us in to
conflict with Asia We shall study its civilisation more closely and shall absorb, even in
enmity, some of its ways and ahoughts. Perhaps, in return for conquest , arrogance and
spoliaton, India will teach us the tolerance and gentleness of the mature mnd, the quit content
of the unacquisitive soul, the calm of the understanding spirit, and a unifying, pacifying love
for all living things .” Will Durant : The Story of Civilisation
भारत िे िवश को एक अिभुत िवचार-कोि एवं जीवि-ििि ु ििया।
कठोपििषद के कुछ मंत, वयाखयासिहत, िविेष पठिीय एवं मििीय है -
१.१.२ , १.२.२ , १.२.९ , १.२.१२ , १.२.१३ , १.२.२० , १.२.२३ , १.२.२४ १.३.३४, १.३.१२ , १.३.१४ ,
२.१.१ , २.१.११ , २.१.१३ , २.१.१४ , २.१.१५ , २.२.१ , २.२.१२ , २.२.१३ , २.२.१५ २.३.१०-११ ,
२.३.१३ , २.३.१४-१५ , २.३.१६ , २.३.१७।

ििव ेिि
पतयेक युग की अपिी कुछ िविेषताएं और अपिी कुछ पहचाि होती
है । सवाधीिता पाप होिे उपरानत लगभग पांच ििको के कालखणड मे
भारत की अिेक केतो मे पगित हुई तथा समपूण ु समाज मे एक
सामािजक एवं राजिीितक चेतिा की लहर का आिवभाव
ु हुआ और िवश
मे भारत को एक सममािपूण ु सथाि भी पाप हुआ िकनतु िे ि िििाहीि
होकर अपिी सांसकृ ित मूलधारा से भटक गया तथा िवघटि एवं
अराजकताके कगार पर पहुंच गया। राजिीितक केत मे िवचारभषता
,मूलयहीिता,िसदानतहीिता,कुिटलता और चािरितक संकट का वातावरण
वयाप हो गया। मूलयो और िसदानतो का सथाि अवसरवाििता और
षडयंतो िे ले िलया। ‘सत यमेव जयते’ का उिघोष अथह
ु ीि हो गया।
राजिेताओं िारा पोिषत संरिकत एवं समािशत अपराधी ततवो िे िहं सा
और अपहरण की घटिाआं को सामानय बिा ििया तथा जिजीवि
असतवयसत हो गया और सारी वयवसथा लडखडा गई। इस कालखणड मे
मािो उलटी िगिती पारं भ होिे लगी।
सामािजक नयाय तथा सामािजक समरसिा के िए-िए लुभाविे मंत
िे िेवाले चतुर िेताओ िे सिा को पकडे रहिे के ऐसे िवभाजिकारी
समीकरण बिाए और ऐसी छलपूण ु रचिा की िक िजस समाज को
सवाधीिता संगाम के आतमबिलिािी िेताओं िे एकता और अखणडता के
सूत मे गिथत िकया था , उसमे धमु, समपिाय, जाित, भाषा और केत के
आधार पर िवषमता और िवघटि तीब हो गए। राषीय भाविा िवलुप होिे
लगी और परसपर घण
ृ ा एवं िविे ष िे सामािजक जीवि को िवषाक कर
ििया। सामािजक नयाय की अवण ु सवण ु आिि की िवभेिकारी पिरकलपिा
अमािवीय है तथा भारतीय संसकृ ित के पितकूल है । एक ओर कुछ
वयिकयो के पास धि-समपिि और िवलािसता की सामगी के अकलपिीय
अमबार लग गए तथा िस
ू री ओर गरीबी की रे खा से िीचे के चालीस
पितित से अिधक िीि-हीि जि की िि
ु ु िा मे कोई सुधार िहीं हुआ।
िगरो मे कूडे के गनिे ढे रो पर जहां एक ओर गौ,शाि,िूकर आिि भूखे
पिु भोजि की खोज करते है , वहां उिके पास ही अिेक बालक-
बािलकाएं तथा वद
ृ -वद
ृ ाएं भी गनिे और फटे चीथडो से िकसी पकार
ति को ढॉप
ँ े हुए, कागज पनिी आिि बटोरिे के िलए मािो अिभिप है ।
अगिणत वेरोजगार युवक अवसाि और आतमिलािि के कारण मतृयु-
आिलंगि के िलए िववि हो जाते है और अगिणत वेसहारा युवितयो की ,
अपिा ति और ईमाि वेचिे एवं अकलपिीय संतास को मूकवत ् भोगिे
की मािो िियित ही है । संवेििीलता और मािवीयता िबिकोिो से के
ऐसे िबि है ,िजिका भरपूर िर
ु पयोग होता है । तथा िजिका अथ ु लुप ् हो
गया है ।गरीबो के िए मसीहा तथा सामािजक नयाय के भाषणपटु पवका
यथाथ ु की भूिम से बहुत िरू है । हम इस सनिभ ु मे अिरूििी िरूििि
ु के
कामवासिा एवं िहं सा के उिेजक कायक
ु मो के िषुपभाव का उललेख िकए
िबिा िहीं रह सकते मीठा िवषपाि सामानय जिजीवि को िग
ु िुत की
ओर जे जा रहा है तथा कामुकता एवं िहं सा की घटिाओं मे बिृद हो रही
है । यह हमारे िितानत भौितकवािी एवं भोगवािी युग का यथाथ
ु ।
इस अनधकार और भटकाव के युग मे सवाधयाय ,िचनति और
िवचार का संकट सवािुधक िोचिीय है । गंभीर सािहतय ् क् ेे िलए रिच
और अवकाि ि होिा वयिक एवं समाज के िलए गहि िचनता का िवषय
है । उिाि सािहतय ् के सज
ृ ि तथा पठि-पाठि मे हास होता जा रहा है ।
वासतव मे िकसी समाज मे पगित की पहचाि उसकी िािरयो बचचो और
मूक पिु- पिकयो के पित वयवहार से , िीि जि के अभयूिय के िलए
ििका आिि की वयवसथा होिे से तथा उसके सािहतय के सतर से होती
है । यह भी एक तथय है िक राजिेताओं का िाियतव समग समाज के
उतथाि के पित होता है , ि िक कुछ िविेष बगो के पित ही। उिके
वयिकगत जीवि मे सािगी सचचाई और ईमाििारी होिे पर हीवे पभावी
हो सकते है । जब बडे िेता रोगो की िचिकतसा के िलए बार-बार िविे ि
जाते हो तथा सामानय जि को िचिकतसा-सुिवधा उपलबध ि होती हो ,
िेताओं के घरो मे िवलािसता हो तथा सामानय जि मातजीवि-रका के
िलए भी संघष ु करते हो ,िेताओं की रका के िलए िविेष सुरका-वयवसथा
हो तथा सामानय जि को अपराधी ििि-रात उतपीिडत करते हो , तो कया
वह सचचा लोकतंत हो सकता है ? एक ओर जहां जिसंखया के अिुपात
के अिुसार िासि मे भागीिारी और िौकिरयो मे वरीयता िी जाती हो,
वहां राषीयता का कया महतव है ? इस युग मे िेताओं का ऐसा आतंक है
तथा सामानयजि इतिे भीर हो गए है िक सतय को कहिा ही िहीं,सुििा
भी िश
ु ार हो गया है । ‘अिभवयिक की सवतंतता’ मात सारहीि िबि है ।
राजिेता कािूिो की तोड-
मरोड सिा को पकडे रहिे की दिष से कर िे ते है तथा साधारण
िागरिक बेबस हो गया है । यह लोकतंत का िर
ु पयोग है । जब भीड मे सब
अपिी अपिी सवाथप
ु ूित ु और सुरका का ही यत करते हो तो िििा कौि
िे गा ?
धम ु रका करता है तथा जिसमाज को परसपर जोडता है । इस युग
मे धम के केत मे धमग
ु ुरओं और पवचिो की मािो बाढ ही आ गयी है
बाढ मे सवचछ जल िहीं आता। िववेकी जि गंगा के पििूषत जल का
आचमि भी िहीं करते। इस अनधकार युग मे सवयंभू धमग
ु ुरओं की
पहचाि उिके तप साििवकता और अनत: पबोध एवं ििवयािुभूित से ि
होकर उिके वािजाल िे ि िविे ि मे फैले हुए िविल आशमो और ििषयो
एवं अिुयािययो की संखया से हो रही है । भारत मे वतम
ु ाि युग मे छद
अवतारो किलक भगवािो जगिगुरओं चमतकारी योिगयो एवं तथाकिथत
िसदपुरषो की संखया इतिी अिधक हो गई है िक उिकी गणिा करिा भी
संभव िहीं है । उिमे तप तेज सवाधयाय साधिा और अनत: पबोध का
िितानत अभाव है तथा उनहोिे वयवसािययो की भांित कुणडिलिी-जागरण
इतयािि के पपंच आेैर पचार का सहारा ले िलया है । वडे -बडे िेता और
उधोगपित उनहे महािता का पमाण पत ् िे िे ते है । उिमे से अिेक
अपराधो मे िलप हो रहे है । इसके अितिरक वाकपटु भिवषयवकाओं और
सममोहि मे कुिल तािनतको के धंधे भी पयाप
ु पिप रहे है । इस युग मे
धि तथा सिा को िकसी पकार पाप करिा तथा उनहे बलपूवक
ु ् पकडे
रहिा युगधम ु हो गय है तथा यही समसत भटकाव अिािनत और
अराजकता का पधाि कारण है । लोकतंत का अथु लूटतंत हो गया है ।
िकनतु साििवकता एवं आधयाितमकता की धारा कीण होिे पर भी
सिै व अकुणण रहती है । सचचे साधको िसदपुरषो औश सिगुरओं की
परमपरा कभी िवलुप िहीं होती। पपंचच और पाखणड से िरू रहकर, वे
पकाििीप को कभी बुझिे िहीं िे ते तथा उसे सिा पजविलत रखते है । वे
िकसी पर ििभरु िहीं होते तथा ििभय
ु रहते है । उिका ि कोई िसंहासि
(गदी) होता है , ि वे िकसी को उसे सौपकर जाते है । अपिे भीतर
आधयाितमक पकाि का अिुभव करिा तथा सहजभाव से उसका पसार
करिा ही उिका एक मात उदे शय होता है । वे संसार मे रहकर जल मे
कमल की भांित िििलप
ु रहते है ।
वासतव मे सतय ् ही धम ु होता है । सतय सवोपिर होता है तथा वह
िविवध धमो कीसीमा मे बांधा िही जा सकता। जो धमग
ु ुर संबाि को
तयागकर िरुागहकरते है । , वे सतय से िरू रहते है । जो धमग
ु ुर बलपूवक

यह कहते है िक केवल उिके धम ु के अिुयायी ही सवग ु के अिधकारी है ,
िेष िहीं, वे सतय
के िवरोधी है । एक ओर शष
े धमग
ु ुर मिुषय को परमातमा की ओर पवि

करते है तथा िस
ू री ओर वे लोक मे शष
े जीवि-यापि की कला िसखाते
है । धम ु का उदे शय एक ही होता है -परमातमा की पािप तथा सचचाई और
पेम से समाज मे साथक
ु जीवि-यापि की पेरणा िे िा। धमो के वे अंि,
जो परसपर घण
ृ ा और िहं सा (पिुबिल, िवधमी का िाि) कीििका िे ते हो ,
तयाजय है । िरुागह से गसत होिा तथा अपिी शष
े ता के िं भ के कारण
भेिभाव और घण
ृ ा िसखािा एक िोष है । परमातमा की पािप के अिेक
मागु होते है । तथा उपासिा पदितयां भी िभनि हो सकती है , ऐसा सवीकार
करिे पर ही सवध
ु मु-समभाव संभव हो सकता है । परसपर संवाि िारा
सह-अिसततव एवं िािनत का मागु पिसत हो सकता है ।
हमे यह भी समरण रखिा चािहए िक धम ु और िवजाि परसपर
िवरोधी िहीं है , बिलक परसपर पूरक है । िोिो का उदे शय सतय की खोज
करिा है , िकनतु िवजाि भौितक जगत की भौितक सीमाओं सेपरे िहीं
जा सकता तथा उिम धम ु भौितक जगत की सीमाओं को पार करके
सूकम जगत मे पवेि िारा सिृष के मूल रहसयो की खोज कर सकता है ।
धम ु एकांगी िहीं होता, उसमे समगता होती है , पिरपूणत
ु ा होती है ।सच तो
यह है िक जहां िवजाि की सीमा समाप हो जाती है , धम ु का केत पारं भ
होता है ।
धम ु का धयेय सतय की उपलिबध एवं अिुभूित करािा होता है । जो
आसथा सतय पर आधािरत िहीं होती, वह िोषपूण ु होती है । सतय की
खोज करिेवाले अथवा सतयििष पुरष किािप िरुागह िहीं करते। धमु
जोडता, तोडता िहीं है ।धािमक
ु वयिक आधयाितमक अथात
ु आतमा की ओर
अिभमुख होते है वे अिेकता मे एकता का अिुभव करते है तथा पेम
सहयोग एवं सेवा के आिि ु का अिुपालि भी करते है । वासतव मे कोई
भी धम ु घण
ृ ा एवं वैर की ििका िहीं िे ता, िकनतु कटटर पंथी लोग
संकीणत
ु ा के कारण घण
ृ ा और वैर का पचार करते है । पिवतता की आड
लेकर िकसी वयिक या वग ु को महाि गनथो तथा जाि से वंिचत िहीं
िकया जा सकता। सभी परमातमा तथा जाि की पािप के िलए समाि रप
से अिधकारी है ।
इस सनिभ ु मे यह पश महतवपूण ु है िक भारत की आधयाितमक एवं
सांसकृ ितक िवरासत कया है ? भारतीय संसकृ ित के मूलततव कया है ? मूल
की रका करिे से ही समपूण ु वक
ृ की तथा उसके अंगो (पुषपो, फलजै।
इतयािि) की सुरका होिा संभव होता है । अत: महतवपूण ु पश है िक वयिक
और समाज के कलयाण का मागु कैसे पिसत हो सकता है ।
काल का पवाह अिनत होता है तथा िवकास की पिकया भी अिनत
होती है । वयिकएंव समाज के िोष तथा अपराध और अजाि िवकास-
पिकया की गित को सिा के िलए अवरद िहीं कर सकते। पकृ ित एक
सूकम एवं ििवय सिा से संचािलत होिे के कारण, जात एवं अजात बलो
के िारा वयिकएवं समाज को एक उचचतर िििा मे मािो धकेलती रहती
है । पकृ ित असतय से सतय की ओर अंधकर से पकाि की ओर बरबस ले
जाती है । जलरािि के मधय मे िसथत भंवर मे फंसी हुई वसतु को , पीछे
से आिेवाला पबल पवाह बाहर ििकालकर आगे की ओर बढा िे ता है
िवकास-पिकया मे सथायी रप से पीछे की ओर जािा संभव िहीं होता।
लमबी िौड मे धावक पीछे िरू तक जाकर ही तीब गित से आगे की ओर
िौडता है । िविाि भी िवसज
ृ ि एवं िवकास का आधार होता है । घोर –
अंधकार पकाि की गित को किािप अपरद िही कर सकता। हम पुि :
उठिे और आगे बढिे के िलए ही िगरते है । हमारी संघषि
ु ीलता कभी
िवलुप िहीं होती। िवचारो का िवरोध एवं टकराहट भी शष
े िििा मे बढिे
के िलए आवशयक भूिमका बि जाते है । िवरोध के सवर भी अनतत:
समनवय एवं पगित की पिकया को तीव कर िे ते है । घण
ृ ा के मधय से पे
का सोत अनधकार के गटठर से पकाि की िकरण और ििरािा के तल
से आिा की जयोित पसफुिटत होते है । बुिदमाि मिुषय ् का कतवुय है
िक वह पकृ ित के ससाितवक बलो के साथ िववेकपूण ु संबद होकर तथा
अपिी सामथय ु के अिुसार यथासंभव योगिाि िे कर जीवि को कृ ताथु
कर ले
जो िववेकिील पुरष ऋिषयो के कालजयी ततव-िचनति की परमपरा
के साथ अनततम
ु िाता सथािपत कर लेता है और सनत ्-महातमाओं के
सनिे िो एवं मिीिषयो के मनतवयो से अवगत हो जाता है तथा लोक मे
जि-जीि को भी संबेिििील होकर जाि लेता है ,वह भारत की आतमा को
समझसकता है तथा वह िवश के कलया का माग ु पिसत करिे मे सकम
हो जाता है और उसका जीवि भी धनय हो जाता है ।

आधयितमक जाि एवं मीमांसा की दिष से उपििषद संसार के


सवोचच गनथ है । हमारा पकलप सभी पमुख उपििषिो के सरल,
सुबोध,बुिदगाह एवं िवजािसममत वयाखयातमक भाषयो की रचिा करिा
है । सुधीजि पचार-पसार मे यथाििक सहयोग िे कर पुणय के भागी हो
सकते है । (हमारे िबिाथु, अनवय और भावाथ ु सुिचिनतत एवं सुिििशत है
और हमारा अिेक सथािो पर अिेक वयाखयाताओं से मतैकय ् िहीं है ।
१. इसी उदे शय से एक भारतीय धमु,ििि
ु ,संसकृ ित िोध-संसथाि की सथापिा होिा आवशयक
है , जहां भारतीय मूल के धमो की पुिवयाख
ु या हो सके तथा उिकी एकता के सूतो की खोज हो
सके और संसार के सभी अनय धमो के साथ समनवय होिा भी संभव होसके, िजससे भारत के
पेम एंव िािनत के कलयाणकारी सनिे ि को िवश मे पसािरत िकया जा सके।

एक
वयाखयाता िे अंगेजी भाषा मे पवचि करते हुए कठोपििषद के कुछ मंतो
को पिकप ही कह ििया, जब िक पूजय िंककराचाय ु से लेकर िववेकािनि
आिि तक सबिे उनहे मानय िकया है । यह उपहसिीय ही है । हम आिा
करते है िक सुधी पाठक उिारतापूवक
ु पसतुत रचिा का सवागत करे गे।
ििव ाि नि
िवजय िगर, मेरठ, उ० प०-250 001
(फोि 0121-642041)
कठोप ििष द-ििवय ाम ृ त

िािनतप ाठ

ॐ सह िा वव तु। स ह ि ौ भुिकु। सह वी यव करव ाव है।


तेज िसव ि ाव धीत मसत ु। मा िव ििष ावह ै।
ॐ िा िनत : िािनत : िा िनत :

िबि ाथ ु : ॐ =परमातमा का पतीकातमक िाम ; िौ =हम िोिो


(गुर और ििषय) को ; सह = साथ-साथ ; भुिकु = पाले, पोिषत करे ; सह
=साथ-साथ ; वीयव = ििक को ; करवा वहै = पाप करे ; िौ = हम िोिो
को ; अवधीतम ् =पढी हुई िवदा ; तेज िसव =तेजोमयी ; असतु =हो ; मा
िव िि षा वहै = (हम िोिो) परसपर िे ष ि करे ।
अथु : हे परमातमि ् आप हम िोिो गुर और ििषय की साथ- साथ
रका करे , हम िोिो का पालि-पोषण करे , हम िोिो साथ-साथ ििक पाप
करे ,हमारी पाप की हुई िवदा तेजपि हो, हम परसपर िे ष ि करे , परसपर
सिेह करे । हे परमातमि ् ितिवध ताप की िािनत हो। आधयाितमक ताप
(मि के ि ु:ख) की, अिधभौितक ताप (िष
ु जि और िहं सक पािणयो से तथा
िघ
ु ट
ु िा आिि से पाप ि ु:ख) की िािनत हो। जा तव ा ििव ं
िा िनत मतय नतम े ित (शेत उप० ४.१४)। िािनत मनत - ॐ िरण ं
ित िव धत ाप हर णं ॐ ि ािनत : िािनत : िा िनत :।
कठोपििषद (अथवा कठोपििषि )उपििषद-पेिमयो का कणठहार है ।
यह कृ षण यजुवि
े की कठ िाखा के अनतग
ु त है । इसमे िो अधयाय है
तथा पतयेक अधयाय मे तीि वलली है । इस उपििषि मे ििचकेता और
यम का संवाि है , िजसमे यम िे परमातम-ततव का रोचक एवं िविि
वणि
ु िकया है । यह उपििषद कठ ऋिष के िाम से जुडा हुआ है । क=
बह ; ठ= ििषा ; कठ = बह मे ििषा उतपनि करिेवाला उपििषद।


पथम अधयाय

पथम वलली

कठोपििषद (काठकोपििषद) के पथम अधयाय की पथम वलली


उपाखयाि के रप मे यम-ििचकेता के गूढ आतमजाि-संवाि की मात
भूिमका है ।
महिष ु अरण (अथवा वाजशवा) के पुत आरिण (अथवा वाशवस ्)ही
गौतमवंिीय उदालक थे। आरिण उदालक िे िवशिजत यज िकया।
उदालक का पुत (वाजशवा का पौत) ििचकेता अतयनत बुिदमाि एवं
साितवक था।
ॐ अ िि ् ह वै वा जशवस : सवु वेिस ं िि ौ।
तसय ह ि िचकेता ि ाम पुत आस ॥ १॥
िबि ाथ ु : ॐ = सिचचिािनि परमातमा का िाम है , जो मंगलकारक
एवं अििषििवारक है ;ह वै =पिसद है िक ;उिि ् = यज के फल की
इचछावाले ; वा जशवस : =वाजशवा के पुत वाजशवस ् उदालक िे ;
सवु वेिस ं =(िवशिजत ् यज मे) सारा धि ;िि ौ =िे ििया ; तस य
ििचकेत ा ि ाम ह पुत : आस =उसका ििचकेता िाम से पिसद पुत था।
वच िाम ृ त : वाजशवस (् उदालक) िे यज के फल की कामिा रकते
हुए (िवशिजत यज मे) अपिा सब धि िाि िे ििया। उदालक का
ििचकेता िाम से खयात एक पुत था
वय ाख या : पाची काल मे यज करिा और ििकणा आिि मे िाि
िे िा एक पुणयकृ तय मािा जाता था। िवशिजत एक महाि यज था िजसमे
सारा धि िाि िे कर िरक हो जािा गौरवमय मािा जाता था। महिषु
उदालक िे िवशिजत यज िकया और सवस
ु व िाि करके िरक हो गये।
उिका एक पुत ििचकेता सब कुछ िे ख रहा था। अिधकांि ऋिषगण
गह
ृ सथ होते थे तथा विो मे रहते थे। पाय: गौएं ही उिकी धि-समपित
होती थी।
तं ह कुमार ं सनत ं ि िकण ासु ि ीय मा िसु श दा आ िवव े ि सो ऽमन यत
॥२ ॥
िबि ाथ ु : ििकण ासु िीयम ाि ासु =ििकणा के रप मे िे िे के िलए
गौओं को ले जाते समय मे ; कुमा रम ् सनत म ् =छोटा बालक होते हुए
भी ; तम ् ह शदा आिवव ेि =उस (ििचकेता) पर शदाभाव (पिवतभाव
,जाि-चेतिा) का आवेि हो गया। स: अमन यत = उसिे िवचार िकया।
वचिामत
ृ : िजस समय ििकणा के िलए गौओं को ले जाया जा रहा
था, तब छोटा बालक होते हुए भी उस ििचकेता मे शदाभाव (जाि-चेतिा,
साितवक-भाव) उतपनि हो गया तथा उसिे िचनति-मिि पारं भ कर
ििया।
ििचकेता मे शष
े जाि पाप करिे की पातता थी।
वय ाख या : पकृ ित िे मिुषय को िचनति मिि की ििक िी है , पिु
को िहीं। मिि करिे से ही वह मिुषय होता है , अनयथा मािव की
आकृ ित मे वह पिु ही होता है । िचनति के िारा ही मिुषय िे जाि-
िवजाि मे पगित की है तथा िचनति के िारा ही मिुषय उिचत-अिुिचत
धमु-अधम ु ,पुणय-पाप आिि का ििणय
ु करता है । िचनति के िारा ही
िववेक उतपनि होता है तथा वह समिृत कलपिा आिि का सिप
ु योग कर
सकता है । िचनति को सवसथ िििा िे िा शष
े पुरष का लकण होता है ।
पी तोिक ा जिधत ृ ण ा ि ुिधि ोह ा िि िर िनदय ा:।
अिन िा ि ाम ते ल ोक ासता ि ् स गचछित त ा िित ् ॥३॥
िबि ाथ ु : पीत ोि का: जो (अिनतम बार) जल पी चुकी है ; जिधतृ णा
: =जो ितिके (घास )खा चुकी है ;ि ुिधि ोह ा: =िजिका िध
ू (अिनतम बार
)िहुा जा चुका है ; िि िर िनद या: = िजिकी इिनदयां सिक िहीं रही है
,िििथल हो चकी है ; ता : िित ् = उनहे िे िेवाला ; अि नि ा िाम ते
लो का := आिनि-रिहत जो वे लोक है ; स ताि ् गचछित = वह उि
लोको को जाता है ।
वच िाम ृ त : (ऐसी गौएं) जो (अिनतम बार)जल पी चुकी है , जो घास
खा चुकी है ,िजिका िध
ू िहुा जा चुका है , जो मािोज इिनदयरिहत हो गयी
है , उिको िे िवाला उि लोको को पाप होता है , जो आिनििूनय है ।
वय ाख या : ििचकेता िे सोचा िक िाि मे िी जािेवाली अिधकािं
गौढं मरणासनि है , वे पािी पीिे मे तथा घास खािे मे भी असमथ ु है ,
और वे अब िध
ू िे िे अथवा कुछ लाभ िे िे मे भी असमथ ु है ,उिका िध

िहुा जा चुका है और वे अब िध
ू िे िे के योिय िहीं रहीं। िजि गौओं की
इिनदयां िििथल हो चुकी है , उिको िाि मे िे िवाला मिुषय पाप का भागी
होता है तथा उि लोको को पाप होता है , जो सब पकार से सुखो से िूनय
है । कुमर ििचकेता मे उिम उतकृ ष और ििकृ ष तथा सतय और असतय
का िववेक था, जो आधयाितमक साधिा के िलए महिवपूणु होता है ।
स ह ोवा च िप तरं त त कस मै म ां िा सयत ीित।
िित ीयं त ृ तीय ं त ं होव ाच मृ तयव े तव ा िि ाम ीित॥ ४॥
िबि ाथ ु : स ह िप तरं उ वा च =वह (यह सोचकर)िपता से बोला ;
तत (ता त)= हे िपय िपता ; मां कसमै िासय ित इित = मुझे िकसको
िे गे ? िित ीयं तृ त ीयं तं ह उव ाच = िस
ू री,तीसरी बार (कहिे पर) उससे
(िपता िे) कहा ; तवा म ृ तयव े िि ािम इित =तुझे मै मतृयु को िे ता हूं।
वच िाम ृ त : वह ( ििचकेता) ऐसा िवचार कर िपता से बोला-हे तात,
आप मुझे िकसको िे गे? िस
ू री,तीसरी बार (यी कहिे पर )उससे िपता िे
कहा-तुझे मै मतृयु को िे ता हूं।
वय ाख या : कुमार ििचकेता मे एक उिाि साितवक का उिय हो
गया था। उसिे िवचार िकय िक उपयोगी वसतु को िाि ि केवल ििरथक

है , बिलक कषपि लोक को पाप भी करा िे ता है । सवस
ु व िाि के अनतगत

तो पुत का िाि भी होिा चािहए। शदाभाव से पेिरत होकर ििचकेता िे
िपता से कहा –हे िपताजी, मै भी तो आपका धि हूं। आप मुझे िकसको
िे गे? उसके िो तीि बार िपता से ऐसा कहिे पर, आवेि मे आकर िपता िे
कहा-मै तुझे मतृयु को िे ता हूं।

बहू िाम ेिम प थमो बह ू िाम े िम म धयम :।


िकं िसवदमस य क तु वयं यन मय ाद क िरष यित ॥ ५॥
िबि ाथ ु : बहू िां पथ मो एिम = बहुत से (ििषयो )मे तो पथम
चलता आ रहा हूं ;बहू ि ां मधयम : एिम =बहुत से (ििषयो मे) मधयम
शण
े ी के अनतगत
ु चलता आ रहा हूं ;यमसय =यम का ; िकम ् िसवत ्
कतु वय ् = (यम का) कौि-सा काय ु हो सकता है ; यत ् अद = िजसे आज
;मय ा क िरष यित =(िपताजी) मेरे िारा (मुझे िे कर) करे गे।
वच िाम ृ त : (वयिकयो की तीि शिेणयां होती है -उिम,मधयम और
अधम अथवा पथम ,िितीय,और तत
ृ ीय) मै बहुत से (ििषयो एवं पुतो मे)
पथम शण
े ी मे आ रहा हूं ,बहुत से मे िितीय शण
े ी मे रहा हूं। यम का
कौि सा ऐसा कायु है , िजसे िपताजी मेरे िारा (मुझे िे कर)करे गे ?
वय ाख या : ििचकेता महिष ु उदालक का पुत एवं ििषय था। उसिे
सोचा-मै। बहुत की अपेका पथम शण
े ी मे तथा बहुत की अपेका िितीय
शण
े ी मे रहा हूं तथा कभी तत
ृ ीय शण
े ी मे िहीं रहा। यिि मै उिम और
मधयम कोिट मे िहीं रहा तो अधम भी िहीं रहा। िपताजी मुझे यमराज
को िे कर कौि सा काय ु पूरा करे गे, यमराज के कौिसे पयोजि को पूरा
करे गे ?
ििचकेता िे यह भी सोचा-किािचत ् िपता िे कोधावेि मे आकर
मुझे यमराज को सौपिे की बात कह िी है और वे अब ि ु:खी होकर
पशाताप कर रहे है अतएव मै उनहे िमतापूवक
ु सानतविा िंग
ू ा। यह
िवचार ििचकेता
की शष
े ता को पमािणत करता है तथा इं िगत करता है िक ििचकेता
बहजाि को पाप करिे का उिम अिधकारी है ,शदामय होिे के कारण
सतपात है ।
अिु पश य य था प ूव े प ित पश य तथ ापर े।
ससय िमव मतय ु : पचयते सस यिम वा जायत े प ुि : ॥६ ॥
िबि ाथ ु : पूव े यथा =पूवज
ु जैसे (थे) ; अिु पश य = उस पर िवचार
कीिजये ;अपरे (यथा) तथा पितप शय = (वतम
ु ाि काल मे)िस
ू रे (शष
े जि)
जैसे (है )उस पर भली पकार दिष डाले; मतय ु :=मरणधमा ु मिुषय
;ससयम ् इव =अिाज की भांित ; पचयते =पकता है ;ससयम ् इव पु ि :
अजायत े =अिाज की भांित ही पुि: उतपनि हो जाता है ।
वच िाम ृ त : (आपके) पूवज
ु ो िे िजस पकार का आचरण िकया है ,
उस पर िचनति कीिजये, उपर अथात
ु वतम
ु ाि मे भी(शष
े पुरष कैसा
आचरण करते है ) उसको भी भंलीभाित िे िखए। मरणधमा ु मिुषय अिाज
की भांित पकता है (वद
ृ होता और मतृयु को पाप होता है ), अिाज की
भांित िफर उतपनि हो जाता है ।
वय ाख या : ििचकेता िे अपिे िपता एवं गुर उदालक को पूवज
ु ो से
चली आती हुई शष
े आचरण की परमपरा पर दिषपात करिे का ििवेििि
िकय। शष
े पुरषो के आचरण मे पहले भी सतय का आगह था तथा वह
अब भी ऐसा ही है । मिुषय तो अिाज की भांित जनम लेता है ,जीणु-िीणु
होकर मतृयु को पाप हो जाता है अिाज की भांित पुि: जनम ले लेता है ।
जीवि अिितय ् होता है , मिुषय के सुख भी अिितय होते है , अत: कणभंगुर
सुखो के िलए सतय के आचरण का पिरतयजग ् करिा िववेकपूण ु िही
होता।
ििचकेता िे अपिे िपता एवं गुरसे अिुरोधपूवकु् कहा िक वह संिय
छोडकर सतयाचरण पर दढ रहे तथा सतय की रका के िलए उसे अपिे
वचिािुसार मतृयु (यमराज)के पास जािे की अिुमित िे िे । महिषु
उदालक िे उसकी सतयििषा से पभािवत होकर उसे यमराज के पास जािे
की अिुमित िे िी।
यमराज के भवि मे जाकर ििचकेता को जात हुआ िक वे कीं
बाहर गये है ।ििचकेता िे िबिा अनि-जल ही तीि ििि तक उिकी
पतीका की।यमराज के लौटिे पर उिकी पती िे उनहे ििचकेता के अनि-
जल िबिा ही उिकी पतीका करिे का समाचार ििया तथा उसका सममाि
करिे का परामिु ििया।
वै शा िर : पिव ितय ित िथ बाु हण ो ग ृ ह ाि ।्
तसय ै तां िा िनत कुव ु िनत हर वैवसव तोि कम ् ॥७ ॥
िबि ाथ ु : वैवसव त= हे सूयप
ु ुत यमराज ; वै शा िर : बाहण :
अित िथ : गृ ह ाि ्
पिवि ित =वैवािर (अििििे व) बाहण अितिथ के रप मे (गह
ृ सथ के) घरो
मे पवेि करते है (अथवा बाहण अितिथ अििि की भांित घर मे पवेि
करते है );तस य= उसकी ;एता म् = ऐसी (पािपकालि इतयािि के िारा );
िा िनत कुव ु िनत = िािनतकरते है ;उि कं ह र = जल ले जाइये।
वच िाम ृ त : हे यमराज,(साकात)अििििे व ही (तेजसवी) बाहण-
अितिथ के रप मे (गह
ृ सथ) के घरो मे पवेि करते है (अथवा बाहण –
अितिथ घर मे अििि की भांित पवेि करते है )। (उिम पुरष) उसकी ऐसी
िािनत करते है , आप जल ले जाइये।
वय ाख या: यमराज की पती ििचकेता के तेजिसवता को िे खकर
यमराज से कहा-सवयं अििििे व ही तेजसवी बाहण-अितिथ के रप मे
गह
ृ सथ जि के घरो मे जाते है (अथवा तेजसवी बाहण अििि की भांित
घर मे पवेि करते है )। उिम पुरष सवागत करके उिको आिर-सममाि
िे ते है तथा उनहे िानत करते है । अतएव आप पिपकालि के िलए जल
ले जाइये। आपके िारा सममाि एवं सेवा से ही वे पसनि होगे। ििचकेता
ििवय आभा से िे िीपयमाि था।
आिा प तीके सं गतं स ू ि ृ तां च इ षापूत े पुत पिूंश
सव ाु ि।्
एतद व ृ डके प ुरषस याल पमेध सो यस या िश ि ् वसित ब ाह णो
गृ हे ॥८ ॥
िबि ाथ ु : यसय गृ हे बाहण : अि शि ् वस ित = िजसके घर मे
बाहण िबिा भोजि िकये रहता है १ अल पमेध स: पुरषसय =(उस )
मनिबुिद पुरष की ; आिा पत ीके =आिा और पतीका (किलपत एवं
इिचछत सुखि फल );सं गतम ् = उिकी पूित ु से होिे वाले सुख (अथवा
सतसंग –लाभ); इष ापूत े च = और इष एवं आपूत ु िुभ कमो के फल ;
सव ाु ि ् पुतपि ू ि ् = सब पुत और पिु ; एतद वृ ड नके = इिको िष कर
िे ता है (अथवा यह सब िष हो जाता है )।
वच िाम ृ त : िजसके घर मे बाहण-अितिथ िबिा भोजि िकये हुए
रहता है ,(उस) मनिबुिद मिुषय की िािा पकार की आिा (संभािवत एवं
िििशत की आिा) और पतीका (असंभािवत एवं अिििशत की पतीका) ,
उिकी पूित ु से पाप ् होिेवाले सुख(अथवा सतसंग-लाभ) और सुनिर वाणी
के फल (अथवा धमु-संवाि-शवण) तथा यज िाि तथा कूप ििमाण
ु आिि
िुभ कमो एवं सब पुतो और पिुओं को बाहण का असतकार िष कर िे ता
है ।
वय ाख या : यमराज की पती िे यमराज से कहा िक तेजसवभ ् बहण
अितिथ को अपिे घर पर कष होिे से गह
ृ सथ पुरष के पुणय कीण हो
जाते है । ऐसे मनिबुिद गह
ृ सथ पुरष को अिेक सुखो (अथवा सतसंग-लाभ)
की पािप िहीं
होती। उसकी वाणी मे से सतय, सौनिय ु और माधुय ु (अथवा धमु-संवाि
शवण के लाभ) लुप हो जाते है तथा उसके यज िाि आिि इष कम ु और
कूप धमि
ु ाला आिि के ििमाण
ु रप आपूत ु कम ु अथात
ु सब िुभ कम ु भी
िष हो जाते है । अपिे घर पर धमातुमा तेजसवी एवं पूजय अितिथ का
असतकार पुतो एवं पिुओं को भी िविष कर िे ता है ।‘अित िथि े वो
भव ’-अितिथ को िे वतुलय मािकर उसका सतकार करिे की पाचीि
परमपरा है ।

अपिी पती के बचि सुिकर यमराज अिवलमब ििचकेता के गये


और उसकी समुिचत अचि
ु ा-पूजा की तथा इसके उपरानत ् यमराज-
ििचकेता का संवाि पारं भ हो गया।
यम-ििच केता -उपा खय ाि
अधयेता के मि मे अिेक िंकाएं उतपनि होती है । कया ििचकेता
यमलोक मे सिरीर चला गया ? वह तीि ििि तक यम की अिुपिसथित
मे यम-सिि मे कैसे रहा ? वासतव मे यह एक उपाखयाि है , िजसके
उपिे ि एवं पितपाद िवषय-वसतु का गहण करिा अभीष है । हम इसके
आलंकािरक रप को जयो का तयो अथवा यथाथम
ु य मािकर कथय को
गहण िहीं कर सकते। इसके वािचक अथ ु ि लेकर लाकिणक अथ ु लेिा
िववेकसममत है । आखयाियका-िैली का पयोजि उसके ततवाथ ु को
समझािा है ।
बह
ृ िारणयक उपििषद (अधयाय १, बाहण २, मंत १) मे कहा है िक
सिृष से पूव ु सब कुछ मतृयु से ही आवत
ृ था (मृ तयुि ैव ेिमा वृ तम ास ीत ् )।
यहां मतृयु का अथ ु बह, पलय है । पुि: (मंत १,२,७) कहा है ईशर के
संकलप को जाििेवाला उपासक मतृयु को जीत लेता है तथा मतृयु उसे
पकड िहीं सकती (पुिम ुृ तयुं जयित िैि ं मृ तयु रा पि ोित )। आगे (मंत
१,३,२८) कहा है -अस तो मा सद गम य ,तमस ो मा जयो ित गु म य,
मृ तय ोम ाु ऽम ृ तं गम य-
हे पभो, मुझे असत ् से सत ् तम से जयोित और मतृयु से अमत
ृ की
ओर ले चलो , मुझे अमत
ृ सवरप कर िो।
यम-ििचकेता का उपाखयाि ऋिवेि के िसवे मंडल मे कुछ िभनि
पकार से विणत
ु है । वहां ििचकेता िपता की इचछा से यम के समीप
जाता है । तैििरीय बाहण मे यह उपाखयाि कुछ िवकिसत रप मे विणत

------------------------------
१. अित िथि ेवो भव (तै० उप० १.११.२)

है , जहां ििचकेता को
यमराज तीि वरिाि िे ता है । कठोपििषद के उपाखयाि तथा तैििरीय
बाहण के उपाखयाि मे पयाप
ु समािता है । तैििरीय बाहण के उपाखयाि
मे यमराज मतृयु पर िवजय के िलए कुछ यजािि का उपाय कहता है ,
िकनतु कठोपििषद कमक
ु ाणड से ऊपर उठकर बहजाि की महिा को
पितिषत करता है । उपििषिो मे कमक
ु ाणड को जाि की अपेका अतयनत
ििकृ ष कहा गया है ।
यदिप यम-ििचकेता-संवाि ऋिवेि तथा तै० बाहण मे भी एक
किलपत उपाखयाि के रप मे ही है , कठोपििषद के ऋिष िे इसे एक
आलंकािरक िैली मे पसतुत करके इस कावयातमक सौिय ु का रोचक पुट
िे ििया है । कठोपििषद जैसे शष
े जाि-गनथ का समारं भ रोचक,हियगाही
एवं सुनिर होिा उसके अिुरप ् ही है । मतृयु के यथाथ ु को समझािे के
िलए साकात ् मतृयु के िे वता यमराज को यमाचाय ु के रप मे पसतुत
करिा कठोपििषद के पणेता का अिुपम िाटकीय कौिल है । यह
कलपिाििक के पयाग का भवय सवरप ् है ।
वैिक-सािहतय मे आचाय ु को ‘मतृयु’ के महतवपूण ु पि से अलंकृत
िकया गया है ।‘आच ायो म ृ तयु :।’आचायु मािो माता की भांित तीि ििि
और तीि रात गभ ु मे रखकर िीवि जनम िे ता है । ‘ििचकेता’ का अथु
‘ि जाििेवाला,िजजासु’ है तथा यमराज यमाचाय ु है , मतृयु के सदि आंखे
खोलिेवाले गुर।
मतृयु िववेकिाियिी गुर है । जीवि के यथाथ ु को जाििे के िलए
मतृयु के रहसय को समझिा अतयावशयक है कयोिक जीवि का
सवाभािवक अवसाि मतृयु के रप मे होता है । जीवि की पहे ली का
समाधाि मतृयु के रहसय का उिघाटि करिे मे सिनििहत है । जीवि
मािो मतृयु की धरोहर है तथा वह इसे चाहे जब िवलुप कर सकती है ।
सारे संसार को अपिे आतंक से पकिमपत कर िे िेवाले महापराकमी
मिुषय कणभर मे सिा के िलए ितरोिहत हो जाते है । जीवि और मतृयु
का रहसय अिनतकाल से िजजासा का िवषय बिा हुआ है । धमग
ु नथो िे
तथा मिीषीजि िे इसके अगिणत समाधाि पसतुत िकये है , तथािप रहसय
का उदाटि एक गंभीर समसया बिा हुआ है । जीवि का उदम कहां से
होता है ,जीवि कया है और मतृयु कया है ? जीवि और मतृयु का यथाथु
जाििे पर जीवि एक उललास तथा मतृयु एक उतसव हो जाते है । अजाि
के कारण मतृयु एक भयपि घटिा तथा मतृयु एक उतसव हो जाते है
अजाि के कारण मतृयु एक भयपि घटिा तथा जीवि ििरउदे शय भटकाव
पतीत होते है । साकात मतृयि
ृ े व (यमराज) से ही जीवि और मतृयु के
रहसय को जाििे से बढकर अनय कया उपाय हो सकता है ? िजजासु
ििचकेता यमराज का िरणागत, भयतसत वयिक िहीं है , बिलक पूजय ्
अितिथ है और सममािपूवक
ु ् उपिे ि गहण करता है । यह
बहजाि की मिहमा है , जो िाता और गह
ृ ीता िोिो को पिवत कर िे ता है ।
कठोपििषद के ऋिष का कलपिा-कौिल तथा ििकण िैली िोिो अिुपम
है ।
ित सो र ाती यु िव ातस ीग ुृ हे मे अ िश ि्
बह निित िथ िु मसय :।
िमसत े असत ु बह ि ् सविसत मे अस तु तस मा त ् पित ती ि ् बराि ्
वृ ण ीष व॥ ९॥
िबि ाथ ु : बहि ् =हे बाहण िे वता ;िमस य : अित िथ : =आप
िमसकार के योिय अितिथ है ; ते िम : असतु =आपको िमसकार हो ;
बह ि मे सविसत असत ु = हे बाहण िे वता ,मेरा िुभ हो ; यम ् ितस :
रात ी: मे गृ हे अि शि ् अवातस ी : =(आपिे) जो तीि रात मेरे घर मे
िबिा भोजि ही ििवस िकया ; तसमा त ् = अतएव ; पित ती ि ् वरा ि्
वृ ण ीष = पतयेक के िलए आप (कुल) तीि वर मांग ले
वच िाम ृ त : यमराज िे कहा, हे बाहण िे वता,आप वनििीय अितिथ
है । आपको मेरा िमसकार हो। हे बाहण िे वता, मेरा िुभ हो। आपिे जो
तीि राितयां मेरे घर मे िबिा भोजि ही ििवास िकया, इसिलए आप
मुझसे पतयेक के बिले एक अथात
ु तीि वर मांग ले।
वय ाख या : बहजाि का अिधकारी िजजासु सममाि के योिय ् होता
है । सममाि पाकर ही वह ििभीक भाव से संवाि कर सकता है । यमराज
ििचकेता को िमसकार करते है तथा उिचत सममाि िे कर अपिे कलयाण
की कामिा करते है ।वे अपिे घर मे तीिरात िबिा भोजि रहिे के िोष
का पिरमाजि
ु करिे के िलए ििचकेता से तीि वर मांगिे का पसताव
रखते है ।
िा नतस कल प: सुम िा य था स याि ीत मनय ु गौ तु म ो म ािभ
मृ त यो ।
तवतपस ृ षं म ािभ विेत पत ीत ए ततत या णां प थमं वर ं व ृ णे ॥
१०॥
िबि ाथ ु : मृ त यो =हे मतृयु िे व ;यथ ा गौतम : मा अिभ = िजस
पकार गौतम वंिीय उदालक मेरे पित ; िान तसंक लप : सुमि ा:
वी तम नयु : सया त ् = िानत संकलपवाले पसनििचत कोधरिहत हो जायं ;
तवत पस ृ षं मा पत ीत : अिभव िेत ् =आपके िारा भेजा जािे पर वे मुझ
पर िवशास करते हुए मेरे साथ पेमपूवक
ु बात करे ; एत त ् = यह ;
तय ाण ां प थमं वर ं व ृ णे = तीि मे पथम वर मांगता हूं।
वच िाम ृ त : हे मतृयुिेव , िजस पकार भी गौतमवंिीय (मेरे िपता)
उदालक मेरे पित िानत सकलपवाले (िचनतरिहत), पसनििचत और
कोधरिहत एवं खेिरिहत हो जायं , आपके िारा वापस भेजे जािे पर वे
मेरा िवशास करके मेरे साथ पेमपूवक
ु वाताल
ु ाप कर ले , (मै) यह तीि मे
से पथम वर मांगता हूं।
वय ाख या : ििचकेता िपता एवं गुर को अपिे आचरण से पसनि
करिे को पाथिमकता िे ता है । यह ििचकेता की शष
े ता का लकण है । वह
पथम वर मे
यही मांगता है िक वापस लौटिे पर िपता िचितािूनय ्,पसनििचत
कोधरिहत होकर उससे पूवव
ु त ् सिेह करे और संलाप करे । सुयोिय पुत
िपता के पिरतोष को महतव िे ता है ।
यथ ा पु रसत ाद भ िवत ा प ती त
औदा लिक रार िणम ु त पस ृ ष :।
सु खं र ाती : िियत ा वीतम नयुसत वां
िदिि वा नम ृ तयुम ुख ातपम ुकम ् ॥११ ॥
िबि ाथ ु : तवां मृ तयुम ु खा त ् पमुकम ् िदिि वा ि ् = तुझे मतृयु के
मुख से पमुक हुआ िे खिे पर ; मत पस ृ ष : आरिण : औदा लिक : = मेरे
िारा पेिरत , आरिण उदालक (तुमहारा िपता); यथ ा पुर सता द पतीत : =
पहले की भांित ही िवशास करके ; वी तम नयु : भिव ता =कोधरिहत एवं
ि ु:खरिहत हो जायगा ; रात ी :सु खम ् ििय ता = राितयो मे सुखपूवक

सोयेगा।
वच िाम ृ त : यमराज िे ििचकेता से कहा- तुझे मतृयु के मुख से
पमुक िे खिे पर मेरे िारा पेिरत उदालक (तुमहारा िपता) पूवव
ु त िवशास
करके कोध एवं ि ु:ख से रिहत हो जायगा, (जीवि भर) राितयो मे
सुखपूवक
ु ् सोयेगा।
वय ाख या : यमराज िे ििचकेता को उसकी इचछािुसार वरिाि
ििया िक उसके िपता उदालक उसके मतृयु के पमुक िे खकर कर पूवव
ु त
िवशास करे गे तथा कोध एवं िेक से रिहत होकर िेष जीवि मे राितयो
मे िििशनत होकर सोयेगे, कयोिक मैिे तुमहे मुक कर ििया है ।
यमिे व की कृ पा से ििचकेता मतृयु िारा पमुक हुआ। वासतव मे
वह यमराज के िै वी पसाि से मतृयुभय से िवमुक हो गया। यह ििचकेता
के बहजाि िारा मतृयु पर िवजय की पूवस
ु ूचिा भी है ।
सवग े ल ोक ि भय ं िकञ चिा िसत ि तत त वं ि ज रय ा
िबभ ेित।
उभे त ीत वाु िि ाय ािपप ासे िेक ाित गो म ोित े स वग ु लो के
॥१ २॥
िबि ाथ ु : सवगे लोक िकञ चि भयम ् ि अिसत = सवगल
ु ोक मे
िकिञचत ् भय िहीं है ; तत तवं ि = वहां आप(मतृयु) भी िहीं है ; जरय ा
ि िब भेित = कोई वद
ृ ावसथा से िहीं डरता ; सवग ु ल ोके = सवग ु लोक मे
(वहां के ििवासी ); अि िा यािपप ासे = भूख और पयास ; उभे ती तव ाु =
िोिो को पार करके ;िो काितग : =िोक (ि ु:ख) से िरू रहकर ; मो िते =
सुख भोगते है ।
वचि ामृ त : ििचकेता िे कहा-सवगल
ु ोक मे िकिञचनमात भी भय
िहीं है । वहां आप (मतृयुसवरप) भी िहीं है । वहां कोई जरा (वद
ृ ावसथा) से
िहीं डरता। सवगल
ु ोक के ििवासी भूख-पयास िोिो को पार करके िोक
(ि :ु ख) सेिरू रहकर सुख भोगते है ।
वय ाख या : ििचकेता िे सवगु का वणि
ु करते हुए कहा-सवगल
ु ोक मे
भय िहीं होता। वहां मतृयु भी िहीं होती। वहां वद
ृ ावसथा भी िहीं
होती वहां भूख-पयास भी िहीं होते। वहां के ििवासी ि ु:ख िहीं भोगते
तथा सुखपूवक
ु रहते है ।
वासतव मे सवग ु चेतिा कीएक उचचावसथा है , जब मिुषय भय और
िचनता से मुक रहता है तथा वद
ृ ावसथा और मतृयु से पार चला जाता है
और भूख-पयास भी िहीं सताते। यह मािवीय चेतिा के उचच सतर पर
आिनिभाव की एक अवसथा है ।
शेताशतर उपििषद (२.१२) मे कहा गया है -अभयास करते हुए जब
योगी का पांचो महाभूतो (िमटटी, जल,अििि, वायु और आकाि) पर
अिधकार हो जाता है , तब िरीर योगािििमय हो जाता है और हो जाता है
और योगी रोग,वद
ृ ावसथा और मतृयु का अितकमण कर लेता है । वह
इचछािुसार पाणतयाग करता है । ऐसा ही योगििि
ु (३.४.४४, ४५, ४६) मे
भी कहा गया है
ि तस य रोगो ि जरा ि मृ तयु : पापसय योगाििि मयं
िर ीरम ् (शेत० उप० २.१२)
आधयाितमक साधक िे हाधयास (मै िे ह हूं यह भाव) से मुक होकर
ही ‘अहं बहािसम’ की अिुभूित कर सकता है ।
स तवम ििि सव िय ु म धये िष मृ त यो पबू िह तवं शद धा िाय
महम।
सव गु लो का अमृ तत वं भज नत एतद िित ीये ि वृ णे वरेण ॥
१३॥
िबि ाथ ु : मृ त यो =हे मतृयुिेव ;स तवं सव िय ु म ् अििि ं अधयेिष
= वह आप सवगु-पािप के साधिरप अििि को जिते है ; तवं महम
शद धा िाय पबू िह =आप मुझ शदालु को (उस अििि को) बताये।
सव गु लो का: अमृ तत वं भज नते =सवगल
ु ोक के ििवासी अमरतव को पाप ्
होते है ; एतद िित ीयेि वर ेण व ृ णे =(मै) यह िस
ू रा वर मांगता हूं।
वच िाम ृ त : हे मतृयुिेव , वह आप सवगप
ु ािप की साधिरप अििि
को जािते है ।आप मुझ शदालु को उसे बता िे । सवगल
ु ोक के ििवासी
अतत
ृ भाव को पाप हो जाते है । मै यह िस
ू रा वर मांगता हूं।
वय ाख या : ििचकेता िे यमराज से सवग ु के सुखो की चचा ु करते
हुए कहा-वहां वद
ृ ावसथा ,रोग और मतृयु का भय िहीं है , भूख पयास का
कष भी िहीं है तथा वहां के ििवासी िोक को पार करके आिनि भोगते
है , िकनतु सवगप
ु ािप का साधिरप अििि-िवजाि कया है ? हे िे व, मै
शदालु होिे के कारण इस महतवपूण ु जाि को पाप करिे के िलए सतपात
हूं। कृ पया मुझे इसका उपिे ि करे । यह मै िस
ू रा वर मांगता हूं।
वासतव मे ििचकेता यह मात िजजासा-संतुिष के िलए पूछता है ।
सवगािुिि को जािकर वह इसे अिावशयक कह िे गा, कयोिक उसकी पधाि
रिच तत
ृ ीय वर िारा आतमजाि पाप करिे मे है । उपििषद कमक
ु ाणड को
जािपािप की अपेका तुचछ एवं ििमि घोिषत करते है । (मंत १४, १५, १६,
१७, १८ मे अििि-िवजाि की चचाु की गयी है ।)
प ते बवी िम ति ु मे िि वोध सव िय ु म ििि ं ििचकेत :
पजा िि ।्
अि नतलो कािपमथ ो पित षां िव िद तवमेत ं िि िहत ं गुह ाया म्
॥१ ४॥
िबि ाथ ु : ििच केत : = हे ििचकेता ; सव िय ु म ् अििि म ् पजािि ्
ते पबव ीिम = सवगप
ु ािप की साधिरप अििििवदा को भली पकार
जाििेवाला मै तुमहे इसे बता रहा हूं ;तत ् उ मे िि बोध = उसे भली
पकार मुझसे जाि लो ; तवं एतम ् =तुम इसे ;अि नतलो कािपम ् =
अिनतलोक की पािप करािेवाली ; पित षा म ् =उसकी आधाररपा ; अथो =
तथा ;गुह ाय ाम ् िि िह तम ् = बुिदरपी गुहा मे िसथत (अथवा रहसयमय
एवं गूझ ् ); िव िद =समझो।
वच िाम ृ त : हे ििचकेता सवगप
ु िा अििििवदा को जाििेवाला मै
तुमहारे िलए भलीभांित समझाता हूं। (तुम) इसे मुझसे जाि लो। तुम इस
िवदा को अिनलोक की पािप करािेवाली ,उसकी आधाररपा और गुहा मे
िसथत समझो।
वय ाख या : यमराज अििििवदा के जाता है और वे ििचकेता को
इसे यथाथ ु रप मे समझािे का आशासि िे ते है । यह िवदा अिनतलोक
को पाप करा िे ती है तथा हिय –गुहा मे ही सिनििहत रहता है । धमु सय
ततव ं िि िहत ं गु ह ाय ाम।्
उपििषद कमक
ु ाणड तथा सवग ु आिि को महतव िहीं िे ते तथा
अनत:करण की िुिद ही कमक
ु ाणड का उदे शय होता है । ततवजाि ही
सवोचच है ।
लो काििम ििि ं तम ु वा च तसम ै य ा इष का याव ती वाु य था व ा।
स च ािप तत पतय विदथ ोकम था सय मृ तयु : पु िरेवा ह तुष :॥१ ५॥
िबि ाथ ु : तम ् लो काििम ् अििि म ् तसम ै उव ाच = उस लोकािि
(सवगु-लोक की साधि-रपा) अििििवदा को उस (ििचकेता )को कह ििया ;
या वा याव ती : इष का : = (उसमे कुणडििमाण
ु आिि के िलए )जो-जो
अथवा िजतिी-िजतिी ईटे (आवशयक होती है ); वा यथा = अथवा िजस
पकार(उिका चयि हो; च स अिप तत ् यथोकम ् पतय वित ् =और उस
(ििचकेता)िे भी उसे जैसा कहा गया था, पुि: सुिा ििया ; अथ= इसके
बाि ; मृ तयु : अस य तु ष : = यमराज उस पर संतुष होकर ; पु ि : एव आह
= पुि: बोले।
वच िाम ृ त : उस लोकािि अििििवदा को उसे (ििचकेता को )कह
ििया।
(कुणडििमाण
ु इतयािि मे) जो–जो अथवा िजतिी-िजतिी ईटे (आवशयक
होती है ) अथवा िजस पकार (उिका चयि हो)। और उस (ििचकेता) िे भी
उसे जैसा कहा गया था, पुि: सुिा ििया। इसके बाि यमराज उस पर
संतुष होकर पुि: बोले।
वय ाख या : आचायर
ु प यमिे व िे सवगल
ु ोक की साधिरपा
अििििवदा की गोपिीयता कहकर ििचकेता को उसे समझा ििया। यमिे व
िे कुणडििमाण
ु आिि के िलए िजस आकर की और िजतिी ईटे आवशयक
होती है तथा उिका िजस पकार चयि होता है , यह सब समझा ििया।
ििचकेता कुिागबुिद था, अतएव उसिे जैसा सुिा था, वैसा ही सुिा ििया।
यमाचाय ु िे उसकी बुिद की िवलकणता से संतुष होकर उसे इसके
आगे भी कुछ समझाया।
तमब वी त प ीयम ाण ो म हा तम ा वर ं तव े हा द िि ािम भूय :।
तवै व िा मा भिव ता यम ििि : सृ कङ ां चे मा मिे करप ां गृ ह ाण ॥
१६ ॥
िबि ाथ ु : पीयमा ण: महा तमा तम ् अबव ीत ् =पसनि एवं पिरतुष
हुए महातमा यमराज उससे बोले ;अद तव इह भूय : वरम ् ििा िम =
अब (मै) तुमहे यहां पुि: (एक अितिरक)वर िे ता हूं ; अय म ् अििि : तव
एव िामा भिवत ा = यह अििि तुमहारे ही िाम से (पखयात) होगी ; च
इम ाम ् अिे कर पा म ् सृ कङ ाम ् गृ ह ाण = और इस अिेक रपो वाली (रतो
की )माला को सवीकार करो।
वच िाम ृ त : महातमा यमराज पसनि एवं पिरतुष होकर उससे
बोले-अब मै तुमहे यहां पुि: एक (अितिरक) वर िे ता हूं। यह अििि तुमहारे
ही िाम से िवखयात होगी। और इस अिेक रपोवाली माला को सवीकार
करो।
वय ाख या : यिि गुर ििषय के आचरण से पसनि हो जाता है तो
वह उसे अपिा सवस
ु व लुटा िे िा चाहता है । आचायर
ु प महातमा यमराज
िे परम पसनि एंव पिरतुष होकर ििचकेता को िबिाउसके मांगे हुए ही
एक अितिरक वर िे ििया िक वह िविेष अििि भिवषय मे ‘िािचकेत
अििि’ के िाम से पखयात होगी। अितपसनि यमराज िे ििचकेता को
एक ििवय माला (रतमाला) भी भेट कर िी।
ित णा िच केतिस िभर ेत य स िनध ं ितक मु कृत ् तरित ज नमम ृ तयू।
बह जज। ि े वमी डयं िव िित वा ििच ाययेमा ं ि ािित मतयन तमेित
॥१ ७॥
िबि ाथ ु : ितण ािचकेत : = िािचकेत अििि का तीि बार अिुषाि ्
करिेवाला ; ितिभ : सिनध म ् एतय =तीिो(ऋक् , साम, यजु:वेि) के साथ
समबनध
जोडकर अथवा माता,िपता,गुर से समबद होकर मा तृ मा ि ् िप तृ म ाि ्
आच ायु वा ि ् बू या त ् (ब०ृ उप० ४.१.२); ितक मु कृत = तीि कमो (यज िाि
तप) को करिेवाला मिुषय ;जन मम ृ तयु तरित = जनम और मतृयु को पार
कर लेता है , जनम और मतृयु के चक से ऊपर उठ जाता है ; बह जजम ्
=बह से उतपनि सिृष (अथवा अििििे व) के जाििे वाले ;’बहजज’ का
अथु अििि भी है , जैसे अििि को जातवेिा भी कहते है । ‘बहजज’ का एक
अथ ु सवज
ु भी है "बहण ो िह रणय गभ ाु त ् जात ो बह ज:, बह जश ास ौ
जशे ित बह जज : सवु जो िह अस ौ (िंकराचायु)।" ईडयम िे वम ् =
सतविीय अििििे व (अथवा ईशर) को ;िव िितव ा=जािकर ; ििच ायय =
इसका चयि करके इसको भली पकार समझकर िे खकर ; इमा म्
अत यन तम ् िािनतम ् एित = इस अतयनत िािनत को पाप ् हो जाता है ।
वच िाम ृ त :जो भी मिुषय इस िािचकेत अििि का तीि बर
अिुषाि ् करता है और तीिो (ऋक् , साम, यजु:वेिो) से समबद हो जाता है
तथा तीिो कमु(यज, िाि, तप) करता है , वह जनम-मतृयु को पार कर लेता
है । वह बहा से उतपनि उपासिीय अििििे व को जािकर और उसकी
अिुभुित करके परम िािनत को पाप कर लेता है ।
वय ाख या :यह मंत गूढ है तथा इसके अिेक अथ ु िकये गये है ।
िािचकेत अििि का तीि बार अिुषाि करिेवाला तथा तीि पमुख बेिो
(ऋक् , साम, यजु:) से समबद होिवाला पुरष यज िाि और तप करते
हुए जनम ् और मतृयु का अितकमण कर लेता है । बहा से उतपनि
अििििे व को जाििेवाला मिुषय उपासय अििि को (अििि-िवजाि को)
जािकर और उसे समझकर िै वीभाव (ििवयता)को पाप कर लेता है । वेिो
मे ‘अििि’ परमातमा का पतीक एवं सूचक है । वह बह का ही सवरप है ।
ित णा िच केतस यमेतिि िितव ा य ए वं िवि ां िशि ुत े ि ािच केतम।्
स मृ त यृ प ाि ाि ृ पु रत : पण ोद िोकाितग ो मो िते सवग ु ल ोके ॥
१८॥
िबि ाथ ु : एतत ् तयम ् = इि तीिो (ईटो के सवरप संखया और
चयि िविध)को ; िव िितव ा = जािकर ; ितण ािचकेत : = तीि बार
िािचकेत अििि का अिुषाि करिेवाला ; य एव म ् िव िा ि ् = जो भी इस
पकार जाििेवाला जािी पुरष : िािच केतम ् िच िुत े = िािचकेत अिििका
चयि करता है ; स मृ तयु पा िा ि ् पु रत : पणो द =वह मतृयु के पािो को
उपिे सामिे ही (अपिे जीविकाल मे ही )काटकर ;िो काितग : सवग ु ल ोके
मो िते = िोक को पार करके सवग ु लोक मे आिनि का अिुभव करता
है । (मृ तयुं ज यित मृ तयु ञज य:)
वच िाम ृ त : इि तीिो (ईटो के सवरप संखया और चयि-िविध) को
जािकर तीि बर िािचकेत अििि का अिुषाि करिेवाला जो भी िविाि
पुरष िािचकेत अििि का चयि करता है , वह (अपिे जीविकाल मे ही)
मतृयु के पािो को अपिे सामिे ही काटकर, िोक को पार कर , सवगल
ु ोक
मे आिनि का अिुभव करता है ।
वय ाख या : िािचकेत अििििवदा की मिहमा का कथि करते हुए
यमराज िे कहा िक जो भी इस िवदा का जाििेवाला िविाि इसका
अिुषाि करता है , वह अपिे जीविकाल मे ही मतृयु से मुक होकर
मतृयुञजय हो जाता है । वह िोक को पार कर, चेतिा की उचचावसथा मे
िसथत हो जाता है और िै वी आिनि को भोग लेता है । वह सवगु को पाप
कर लेता है । वासतव मे सारे लोक सूकम रप मे अपिे भीतर भी है ।
एष तेऽ ििि िु िचकेत : सव िय ो यम वृ ण ीथ ा ििती ये ि वर ेण।
एतम ििि ं त वै व प वक यिनत ज िाससत ृ ती यं वर ं ि िच केत ो वृ ष णी षव ॥
१९ ॥
िबि ाथ ु : ििच केत := हे ििचकेता ; एष ते सवि यु : अििि : = यह
तुमसे कही हुई सवग ु की साधिरपा अििििवदा है ; यम ् ििती येि वरेण
अव ृ ण ीथ ा: =िजसे तुमिे िस
ू रे वर से मांगा था ; एतम ् अिििम ् =इस
अिििको ;जि ास: =लोग ;तव एव पवक यिनत =तुमहारी ही (तुमहारे
िाम से ही) कहा करे गे ;ििचकेत = हे ििचकेता ; तृ ती यम ् वरम ्
वृ ण ीष व= तीसरा वर मांगो।
वच िाम ृ त : हे ििचकेता, यह तुमसे कही हुई सवगस
ु ाधिरपा
अििििवधा है , िजसे तुमिे िस
ू रे वर से मांगा था। इस अििि को लोग
तुमहारे िाम से कहा करे गे। हे ििचकेता,तीसरा वर मांगो।
वय ाख या : यमराज िे ििचकेता को यह कहकर सममाि ििय िक
भिवषय मे लोग इस अििि को ‘िािचकेत अििि’ कहे गे। तिप
ु रानत
यमराज िे िािचकेता को तीसरा वर मांगिे की अिुमित िी। ििचकेता के
तीि अभीिपसत वरो मे एक सोपािातमकता है । सबसे अिधक महतवपूणु
वर जािातमक है । आतमजाि ही उपििषिो का पयोजि एवं पितपाद है ।
येय ं प ेत े िव िच िकत सा मिु षयेऽसत ीतय ेके िा यमसत ीित च ैके।
एत ििदा मिु ििषसत वय ाहं वर ाणाम ेष
वर सत ृ त ीय : ॥२० ॥
िबि ाथ ु : पेत े मिुषय े या इयं िव िच िकतस ा = मत
ृ क मिुषय के
संबंध मे यह जो संिय है ;एके अयम ् अिसत इित = कोई तो (कहते
है ) यह आतमा (मतृयु के बाि) रहता है ; च एके ि अिसत इित = और
कोई (कहते है ) िहीं रहता है ; तवय ा अिु िि ष: अहम ् = आपके िारा
उपििष मै ; एतत ् िव दा म ् =इसे भली पकार जाि लूं ; एष वराण ाम ्
तृ त ीय : वर : = यह वरो मे तीसरा वर है ।
वच िाम ृ त : मत
ृ क मिुषय के संबंध मे यह जो संिय है िक कोई
कहते है िक यह आतमा(मतृयु के पशात) रहता है और कोई कहते है िक
िहीं रहता, आपसे उपिे ि पाकर मै इसे जाि लूं , यह वरो मे तीसरा वर
है ।
वय ाख या : िजजासापेिरत ििचकेता िपता की पिरतुिष का वर और
अििि िवजाि का वर पाप करिे पर आतमा का यथाथ ु सवरप ् समझािे
का तीसरा वर मांगता है । ििचकेता कहता है –हे यमराज,मत
ृ क वयिक के
संबंध मे कोई कहता है िक मतृयु के उपरानत उसके आतमा का अिसततव
रहता है और कोई कहता है िक िहीं रहता, कृ पया मुझे इसे समझा िे ।
यह ििचकेता का अभीष और शष
े वर है ।
तैििरीय बाहण मे ििचकेता िे तीसरे वर मे पुिमतुृयु ( जनम-मतृयु)
पर िवजय-पािप का साधि पूछा है । तृ ती यं वृ ण ीष वेित ।
पु िम ुृ तय ोमे ऽ पिच ितं ब ूिह ।
एक कुमार से ऐसे गूढ पश की आिा िहीं की जा सकती। अतएव
यमिे व िे ििचकेता के सचचा अिधकारी अथवा सुपात होिे की परीका ली।
यमिे व िे िे र तक उसे टालिे का पयत िकया, िकनतु यह संभव ि हो
सका। इससे संवाि मे रोचकता आ गयी है ।
िेव ै रत ािप िव िच िक ितसत ं प ुर ा ि िह सुव ेज ेयमण ुरे ष ध मु :।
अन यं वरं ििचकेतो वृ णी षव मा मो पर ोतसी रित मा सृ जैिम ्
॥२ १॥
िबि ाथ ु : ििच केत := हे ििचकेता ; अत पुर ा िेव ै : अिप
िव िच िक ितसत म ् =यहां (इस िवषय मे) पहले िे वताओं िारा भी सनिे ह
िकया गया ; िह एष: धम ु : अणु : =कयोिक यह िवषय अतयनत सूकम है ;
ि सुिवज ेयम ् = सरल पकार से जाििे के योिय िहीं है ; अनयम ् वरम ्
वृ ण ीष व = अनय वर मांग लो; मा मा उपर ोतस ी : मुझ पर िवाव मत
डालो ; एि म ् मा अित सृ ज = इस (आतमजाि-समबनधी वर )को मुझे
छोड िो।
वच िाम ृ त : हे ििचकेता, इस िवषय मे पहले भी िे वताओं िारा
सनिे ह िकया गया था ,कयोिक यह िवषय अतयनत ् सूकम है और सुगमता
से जाििे योिय ् िहीं है । तुम कोई अनय वर मांग लो। मुझ पर बोझ मत
डालो।इस आतमजाि संबंधी वर को मुझे छोड िो।
वय ाख या : अधयातमिवदा ििुवज
ु ेय है । अििििवदा आिि कमक
ु ाणड
के िवषयो को समझिा सरल है , िकनतु बहिवदा का उपिे ि करिा और
गहण करिा अतयनत किठि है । यमिे व िे ििचकेता से कहा-यह िवषय
तो अतयनत गूढ है तथा सुगम िहीं है । अत: तुम कोइर ् अनय वर मांग
लो और इस वर को मुझे ही छोड िो। वासतव मे यमिे व िे केवल
ििचकेता के औतसुकय को उदीप कर
रहे है और उसकी पातता की परीका ले रहे है , बिलक उसके मि मे
बहजाि की मिहमा को पितिषत भी कर रहे है ।
िेव ै रत ािप िव िच िक ितसत ं िक ल तव ं च म ृ त यो यत सुिव जेमम ात थ।
वक ा चास य तव ादग नय ो ि लभ यो िानय ो वरसत ुल य एतस य
किश त ् ॥२२ ॥
िबि ाथ ु : मृ त यो =हे यमराज ;तवम ् यत ् आतथ = आपिे जो
कहा ; अत िकल िेव ै : अिप िव िच िक ितसतम ् = इस िवषय मे वासतव
मे िे वताओं िारा भी संिय िकया गया ; च ि सु िवज े यम ् = और वह
सुिवजैय भी िहीं है ; च असय वक ा = और इसका वका ; तव ादक्
अन य: लभय : = आपके सि
ृ ि अनय कोई पाप िहीं हो सकता ; एतसय
तुलय : अन य: किश त ् वर: ि =इस (वर) के समाि अनय कोई वर िहीं
है ।
वच िाम ृ त : ििचकेता िे कहा-हे यमराज, आपिे जो कहा िक इस
िवषय मे वासतव मे िे वताओं िारा भी संिय िकया गया और वह (िवषय)
सुगम भी िहीं है । और, इसका उपिे षा आपके तुलय अनय कोई लभय
िहीं हो सकता। इस (वर) के समाि अनय कोई वर िहीं है ।
"वकुम हु सयि ेष ेण ििवय ा ह ात मिवभ ूतय : " (गीता,१०.१६)
वय ाख या : ििचकेता अपिी गहि उतसुकता तथा ििशय की दढता
का पिरचय िे ता है तथा यम िारा आगह
ृ ि करिे के परामि ु को
सवीकार िहीं करता। वह कहता है -हे यमराज, आपका कथि ठीक है िक
िे वता भी आतमततव के िवषय मे संियगसत है और ििणय
ु िहीं ले पाते,
िकनतु आप मतृयु के िे वता है और आपके समाि कोई अनय उपिे षा यह
ििशयपूवक
ु िहीं कह सकता िक मतृयु के उपरानत ् आतमा का अिसततव
रहता है अथवा िहीं। मेरे पश िारा यािचत वरिाि के तुलय महतवपूणु
अनय कुछ भी िहीं हो सकता। यह एक िविचत संयोग है िक आके सदि
इस िवषय का कोई अनय जाता िहीं है और अधयातमिवदा के वर के
समाि अनय कोई वर भी िहीं हो सकता।
ित ायु ष : पुतप ौत ाि ् वृ ण ीष व बह ू ि ् पिूि ् हिसत िहर णयमश ाि ।्
भूम ेम ु हि ाय तिं वृ ण ीष व सवयं च जीव िर िो या वििच छिस ॥
२३॥
िबि ाथ ु : िता युष : =ितायुवाले ; पुतप ौत ाि ् = बेटे पोतो को ;
बहू ि पिूि ् = बहुत से गौ आिि पिुओं को ; हिसत िह रण यम ् = हाथी
और िहरणय (सवगु)को ;अशाि व ृ णी षव =अशो को मांग लो ; भूम े : महत ्
आय तिम ् = भूिम के महाि ् िवसतार को ; वृ णी षव = मांग लो ; सवयम ्
च = तुम सवयं भी ; याव त ् िरि : इचछिस जीव = जीवि िरद ऋतुओं
(वषो तक इचछा करो, जीिवत रहो।
वच िाम ृ त : ितायु (िीघाय
ु ु )पुत-पौधो को , बहुत से (गौ आिि)
पिुओं को , हाथी-सुवणु को, अशो को मांग लो, भूिम के महाि ् िवसतार को
मांग लो , सवयं भी िजतिे िरद ऋतुओं (वषो) तक इचछा हो, जीिवत रहो।
वय ाख या : यमराज िे ििचकेता को एक कुमार के मि की अवसथा
के अिुरप धि-धानय मांग लेिे के िलए कहा। यमराज िे उसे
िीघाय
ु व
ु ाले बेटे-पोते, बहुत से गौ आिि पिु, गज, अश, भूिम के िविाल केत
,सवयंकी भी यथेचछा आयु पाप करिे का पलोभि ििया और समझाया
िक वह आतमिवदा को सीखिे के िलए उसे िववि ि करे ।
एत िुलय ं यिि मन यसे वर ं वृ ण ीष व िवि ं िच रज ीिव कां च।
मह ाभूभ ौ ििचकेतसत वमेिध कामा िां तवा कामभा जं करोिम॥
२४ ॥
िबि ाथ ु : ििच केता :हे ििचकेता ;यिि तव म ् एत त ् तुल यम ्
वर म ् मनयस े वृ ण ीष व =यिि तुम इस आतमजाि के समाि (िकसी
अनय) पर को मिते हो , मांग लो ; िव िं िच रजीिव का म ् = धि को और
अिनतकाल तक जीवियापि के साधिो को ;व महभूम ौ =और िविाल
भूिम पर ;एिध = फलो-फूलो,बढो, िासि करो ; तवा काम ाि ाम्
काम भा जम ् करोिम = तुमहे (समसत कामिाओं का उपभोग करिेवाला
बिा िे ता हूँ।
वच िाम ृ त : हे ििचकेता, यिि तुम इस आतमजाि के समाि
(िकसी अनय) वर को मांगते हो, मांग लो –धि, जीवियापि के साधिो को
और िविाल भूिम पर (अिधपित होकर) विृद करो, िासि करो। तुमहे
(समसत) कामिाओं का उपभोग करिेवाला बिा िे ता हूँ।
वय ाख या :यमराज ििचकेता के मि को पलुबध करिे के िलए
अिेक कामोपभोगो की गणिा करते है -अपार धि,जीवियापि के साधि,
िविाल भूिम पर िासि, अिनत कािाओं का भोगी। यमराज ििचकेता से
कहते है िक वह आतमजाि के समाि िकसी भी अनय वर को मांग ले ,
िजसे वह उपयुक समझता हो। वासतव मे यमाचाय ु ििचकेता के मि मे
आतमजाि के पित उसकी उतसुकता बढा रहे है और उसकी पातता को
परख भी रहे है ।
ये ये कामा ि ु लु भा मतय ु ल ोके सवाु ि ् काम ां श छनित :
पाथ ु यसव।
इम ा रामा : सर था : सतूय ाु ि हीदि ा लमभि ीय ा
मिुष यै :।
आिभम ु तप िािभ : पिर चारयस व ् ििच केतो मर णं मािुप ाक ी ॥
२५ ॥
िबि ाथ ु : ये ये काम ा : मतय ु ल ोके ि ु लु भ ा : (सिनत ) =जो-जो
भोग मिुषयलोक मे िल
ु भ
ु है ; सव ाु ि ् काम ाि ् छनित : पाथ ु यसव = उि
समपूण ु भोगो को इचछािुसार मांग लो ; सरथ ा: सतूया ु : इम ा: राम ा:
=रथोसिहत, तूयो (वादो, वाजो )सिहत, इि सवग ु की अपसराओं को ;
मिुष यै : ईदिा : ि िह लमभि ीय ा:
=मिुषयो िारा ऐसी िसयॉँ पापय िहीं है , मतप िा िभ : आिभ :
िप रचा रयसव = मेरे िारा पिि इिसे सेवा कराओ ;ििच केत := हे
ििचकेता ;मरणं मा अिुप ाकी:=मरण (के संबंध मे पश को) मत पूछो।
वच िाम ृ त : हे ििचकेता, जो-जो भोग मतृयुलोक मे िल
ु भ
ु है , उि
सबको इचछािुसार मांग लो-रथोसिहत, वादोसिहत इि अपसराओं को (मांग
लो), मिुषयो िारा ििशय ही ऐसी िसयां अलभय है । इिसे अपिी सेवा
कराओ,मतृयु के संबध
ं मे मत पूछो।
वय ाख या :यमाचायु अिेक पकार से ििचकेता के अिधकारी (सुपात)
होिे की परीका ले रहे है तथा मािवकिलपत संपूण ु भोगो का पलोभि
ििखा िे ते है । वे ििचकेता से कहते है िक वह सवग ु क अपसराओं को,
सवगीय रथो और वादो के सिहत ले जाए जो मतृयु लोक के मिुषयो के
िलए अलभय है तथा उिसे सेवा कराए,िकनतु आतमजाििवषयक पश ि
पूछे। िकनतु ििचकेता वैराियसमपनि और दढििशयी था। आतमततव के
सचचे िजजासु के िलए वैराियभाव तथा दढििशय होिा आवशयक होता है ,
अनयथा वह अपिी साधिा मे अिडग िहीं रह सकता।
शो भाव ा मत यु सय यिन तकै तत ् सवे िनदय ाण ां जरयिनत
तेज :।
अिप सवु म ् जीिवत मलप ेम ेव तवैव वाहा सत व िृ तय गी ते ॥
२६॥
िबि ाथ ु : अनतक =हे मतृयो ;शो भा वा := कल तक ही रहिेवाले
अथात
ु िशर,किणक,कणभंगुर ये भोग ;मत यु सय ् सवे िनदय ाणा म ् यत ्
तेज : एतत ् जरयिनत = मरणिील मिुषय की सब इिनदयो का जो तेज
(है ) उसे कीण कर िे ते है ; अिप सवु म ् जीिव तम ् अल पम ् एव = इसके
अितिरक समसत आयु अलप ही है ; तव वा हा: नत यग ीते तव एव =
आपके रथािि वाहि,सवगु के ितृय और संगीत आपके ही (पास) रहे ।
वच िाम ृ त : हे यमराज,(आपके िारा विणत
ु ) कल तक ही रहिेवाले
(एक ही ििि के, कणभंगुर) भोग मरणधमा ु मिुषय की सब इिनदयो के
तेज को कीण कर िे ते है । इसके अितिरक समसत आयु अलप ही है ।
आपके रथािि वाहि, सवगु के ितृय और संगीत आपके ही पास रहे ।
वय ाख या :ििचकेता िे आतमजाि की अपेका सांसािरक सुखभोगो
को तुचछ घोिषत कर ििया। भौितक सुखभोग इिनदयो की ििक को कीण
कर िे ते है तथा उिसे िािनत िहीं होती। इसके अितिरक मिुषय का
जीवि अलप और अिििशत है । अतएव िजस िववेकिील पुरष के िलए
सतय साधय है एवं पापय है , उसके िलए ये भौितक सुखभोग तयाजय है ।
ििचकेता यमिे व से कह िे ता है िक उसे ये िशर भोग-पिाथ ु पलुबध िहीं
करते तथा इनहे वह अपिे पास ही रखे।
ि िवि ेि तप ु णी यो मिुषय ो लपसय ामह े िव िमद ाक म चे त ्
तव ा।
जीिवष यामो याव िी िि षयिस तवं वर सतु मे वर णी य: स एव ॥
२७ ॥
िबि ाथ ु : मिुषय : िव िे ि तपु णी य: ि = मिुषय धि से कभी तप

िहीं हो सकता ;चेत ् = यिि, जब िक ;तवा अद ाकम =(हमिे) आपके ििि

पा िलये है ;िव िम ् लपसया महे = धि को (तो हम) पा ही लेगे ;तवम ्
या वद ईििष यिस = आप जब तक ईिि(िासि) करते रहे गे,
जीिवष याम := हम जीिवत ही रहे गे ;मे वरण ीय : वर : तु स एव = मेरे
मांगिे के योिय वर तो वह ही है ।
वच िाम ृ त : मिुषय धि से तप
ृ िहीं हो सकता। जब िक (हमिे)
आपके ििि
ु पा िलये है , धि तो हम पा ही लेगे। आप जब तक िासि
करते रहे गे, हम जीिवत भी रह सकेगे। मेरे मांगिे के योिय वर तो वह ही
है ।
वय ाख या :ििचकेता िे एक परम सतय का कथि िकया है िक
धि से मिुषय की आतयिनतक तिृप िही हो सकती। उसिे यमिे व को
सममाििे ते हुए कहा-जब िक हमिे आपके ििि
ु पाप कर िलए है , आपकी
कृ पा से धि तो हम पा ही लेगे तथा आप जब तक िासि करते रहे गे,
हम भी तब तक जीिवत रह सकेगे। अत: धि और िीघाय
ु ु की याचिा
करिा वयथु है ।
कठोपििषद का पहला उपिे ि ििचकेता के मुख से ििससत
ृ हुआ
है । "ि िवि ेि तपु ण ीय ो मिुषय :" को कणठसथ करके इसके सारततव
को गहण कर लेिा चिहए। मिुषय की आतयिनतक तिृप कभी धि-समपिि
से िहीं हो सकती। मिुषय धि से सुख-सुिवधा के साधिो को पापकर
सकता है , िकनतु आििक सुख को पाप ् िहीं कर सकता। मिुषय के जीवि
मे धि बहुत कुछ है , िकनतु सब कुछ िही है ।
इचछाओं की तिप भोग से िहीं होती,जैसे िक अििि की िािनत घत

डालिे से िहीं होती, बिलक वह अिधक उदीप हो जाती है ।
ि ज ातू काम : काम ाि ामुपभ ोगेि ि ाम यित ।
हिवष ा कृष णवतम े व भू य एवा िभ वधु ते ॥ (मिुसमिृत
२.९४)
भो गा ि भ ु का वयम ेव भ ु का : ुृ िर,
(भतह
वैराियितक)
अथात
ु भोग कभी भुक िहीं होते, हम भी भुक हो जाते है ।
‘िवष य म ोर ह िर ली नहेउ िया िा ’ (सुगीव की
उिक)
‘बुझ ै ि काम अगिि तुलसी क हुँ िव षय भो ग वह ु घी ते ’
कामाििि का िमि िववेकपूण ु सनतोष से ही होिा संभव होता है ।
‘िबि ु स ंत ोष ि काम िस ाह ी।’
हूवर कमेटी िारा पसतुत अमेिरका की अथस
ु ंबंधी युदोिर अनवेषण
िरपोटु
मे परमपरागत िसदानत का ही पितपािि िकया गया िक एक इचछा
को िानत करिे पर वह अनय इचछा को जनम िे िे ती है तथा इचछाओं
का कम कभी समाप िहीं होता।
“The survey has provaed conclusively what has been long held
theoretically to be true that wants are almost insatiable, that one want
makes way for another.” “Wants multiply.”
महातमा ईसा िे कहा था िक मिुषय एक साथ ही भगवाि ् तथा
धि को पेम िहीं कर सकता (“Ye cannot serve God and a mammon.”)
ऊँट के िलए सुई मे से गुजरिा धििक िारा परमातमा के राजय मे पवेि
करिे की अपेका सरल है । “For it is easier for a camel to go through a
needle’s eye than for a richman to enter into the kingdom of God.”
आदाितमक साधक के माग ु मे धि की तषृणा एवं धि का अिभमाि
बाधक है । उसे सािगी और संतोष से जीवि-यापि करिा चािहए।
धि की िलपसा मिुषय को पाप मे पवि
ृ कर िे ती है । धि का
पभाव धि के अभाव से अिधक िःुखिायक होता है । धि का लोभ मिुषय
को भटकाकर अिानत बिा िे ता है तथा धि की पचुरता को मिानध बिा
िे ती है । किक किक ते सौ गु िी माि कत ा अिध काय। वह खाये
बौ राय जग यह पा ये बौ राय (िबह ारी)। धि की पचुरता पायः मिुषय
को िवलािसता, िवुयस
ु ि, अपराध, िहं सा और अिािनत की ओर ले जाती है ।
वासतव मे धि मे िोष िहीं है , धि की िलपसा एवं आसिक मे िोष
होता है । मिुषय धि के सिप
ु योग से िीि िःुखी जि की सेवा आिि
लोक-कलयाण के काय ु कर सकता है । अतः हमे तयागपूवक
ु भोग करिा
चािहए। ईिावासय उपििषद मे इसी भाव को सूतातमक रप से कहा गया
है −ते ि तयकेि भु ज जी था मा गृ धः कसय िसवद धि म।् सनत कबीर
िे संतोषविृि की पिंसा मे कहा था−साँ ई इत िा िी िज ये , जामे कुटुम ब
समा य, मै भी भू खा िा मरँ सा धु ि भू खा जाय । पिरशम और
सचचाई से धि अिजत
ु करिा, जो भी पाप हो जाय उसमे सनतोष करिा
तथा उसका सिप
ु योग करिा िववेकसममत है । यद चछ ाल ाभस नतुष ो
(गीता, ४.२२)
यह एक तथय है िक मिुषय सब कुछ यहीं एकितत करता है और
सब कुछ यहीं छोडकर सहसा चला जाता है । यिि सब कुछ छूटिा है तो
हम उसे सवयं ही छोड िे अथात
ु ् उसके ममतव, सवािमतव और आसिक के
भाव को छोडकर भारयुक हो जाएँ। सब धि परमातमा का ही है । अतः
‘इ िं ि मम ’
(यह मेरा िहीं है ।) की भाविा को ििरोधाय ु करके धि का उपभोग
एवं सिप
ु योग करिा सब पकार से शष
े है ।
ििशय ही आतमजाि की अपेका धि अतयनत तुचछ है ।
बह
ृ िारणयक उपििषद मे मैतेयी िे याजवलकय ऋिष से पूछा−यिि यह धि
से समपनि सारी पथ
ृ वी मेरी हो जाये तो कया मै अमर हो सकती हूँ ?
याजवलकय िे कही−भोग−सामिगयो से समपनि मिुषयो का जैसा जीवि
होता है , वैसा ही तेरा जीवि भी हो जाएगा। धि से अमत
ृ तव की तो आिा
ही िहीं। ‘अम ृ त तवसय िा िा िसत िव िे ि।’ मैतेयी िे कहा−िजससे मै
अमत
ृ ा िहीं हो सकती, उसे लेकर कया करँगी? मुझे तो अमत
ृ तव का
साधि बतलाएं। ‘ये िा हं िाम ृ ता सया ं िकम हं ते ि कुय ाु म ् ? यिे व
भग वा नवेि तिे व मे बूिह ।’ जीवि का उदे शय तो अमत
ृ सवरप आतमा
को जािकर अमत
ृ तव पाप करिा है । उपििषिो मे अिेक सथलो पर
अमत
ृ तव की चचाु है । जीविकाल मे आतमततव को जािकर अमत
ृ तव पाप
करिा ही उिम धि है । यही मािव की सवोचच उपलिबध भी है ।
अजीयु ता मम ृ त ाि ामुप ेतय ज ीयु ि ् मत यु ः वकध ःस थः पजा िि ।्
अिभध याय ि ् वणु र ित पमो िा ििी घे ज ीिवत े को रमे त ॥२८ ॥
िबि ाथ ु ः जीयु ि ् मतय ु ः = जीण ु होिेवाला मरणधमा ु मिुषय;
अजीयु ता म ् अमृ त ाि ाम ् = वयोहाििरप जीणत
ु ा को पाप ि होिेवाले
अमत
ृ ो (िे वताओं, महातमाओं) की सिनििध मे, ििकतटता मे; उपेतय= पाप
होकर, पहुँचकर; पजा िि ् = आतमततव की मिहमा का जाििेवाला अथवा
उि (िे वताओं, महातमाओ) से पाप होिेवाले लाभ को जाििेवाला;
वक धःस थः =वकधः (कु=पथ
ृ वी, अनतिरक आिि से अधः, िीचे होिे के कारण
पथ
ृ वी वकधः कहलाती है −िंकराचायु) मे िसथत वकधःसथ, िीचे पथ
ृ वी पर
िसथत होकर; कः= कौि; वणु र ित पमो िा ि ् अिभध याय ि् =रप, रित और
भोगसुखो का धयाि करता हुआ (अथवा उिकी वयथत
ु ा पर िवचार करता
हुआ); अित िी घे जीिवत े रमेत =अितिीघ ु काल तक जीिवत रहिे मे रिच
लेगा। (इस शोक के अिेक अनवय और अथु िकए गए है ।
वच िाम ृ त ः जीण ु होिेवाला मरणधमा ु मिुषय, जीणत
ु ा को पाप ि
होिेवाले िे वताओं (अथवा महातमाओं) के समीप जाकर, आतमिवदा से
पिरिचत होकर, (अथवा महातमाओं से पाप होिेवाले लाभ को सोचकर)
पथ
ृ वी पर िसथत होिेवाला, कौि भौितक भोगो का समरण करता हुआ
(अथवा उिकी ििरथक
ु ता को समझता हुआ) अितिीघ ु जीवि मे सुख
मािेगा?
वय ाख याः ििचकेता कुमारावसथा मे ही बुिद की पिरपकवता एवं
िजजासा
की गहिता का पिरचय िे ता है । वह यमिे व से कहता है िक जीण ु हो
जािेवाला तथा मतृयु को पाप होिेवाला, मतृयुलोक मे रहिेवाला, कौि
मिुषय जीण ु ि होिेवाले अमत
ृ सवरप महातमाओं का संग पाकर भी
भौितक भोगो का िचनति करते हुए िीघक
ु ाल तक जीिवत रहिे मे रिच
लेगा? यमराज जैसे महातमा का सािनिधय पाकर भी भोगो का िचनति
करिे की मूखत
ु ा कौि िववेकिील मिुषय करे गा? मतृयुलोक मे रहिेवाले
मरणधमा ु मिुषय के िलए यमराज के सािनिधय मे आकर आतमजाि की
पािप से बढकर अनय कौि-सा सौभािय हो सकता है ? ििचकेता िे
आतमजाि के िलए आवशयक वैराियभाव को पििित
ु करके सवयं को
उपिे ि का सचचा अिधकारी िसद कर ििया। यह पिसद ही है िक िवषय-
वासिा और भौितक वसतुओं की तषृणा से गसत मिुषय आतमजाि की
साधिा िहीं कर सकता। ििचकेता सतय का गंभीर अिुसंधाता है तथा
संसार के सुखभोगो को तुचछ समझकर उिका पिरतयाग करिे पर दढ है ।
वह मात िीघज
ु ीवी िहीं, ििवयजीवी होिा चाहता है ।
यिसम िनिि ं िव िच िक तस िनत मृ त यो यतसा मप रा ये मह ित बूिह
िसत त।्
यो ऽयं वरो गूढमि ु पिव षो िानय ं तसमा नि िच केता वृ णी ते ॥
२९॥
िबि ाथ ु ः मृ तय ो=हे यमराज; यिसम ि ् इि म ् िव िच िक तस िनत =
िजस समय यह िविचिकतसा (सनिे ह, िववाि) होती है ; यत ् मह ित
सा मपर ाये = जो महाि ् परलोक-िवजाि मे है ; तत ् =उसे; िः बू िह =हमे
बता िो; यः अय म ् गूढम ् अिु पिव षः वरः = जो यह वर (अब) गूढ
रहसयमयता को पवेि कर गया है (अिधक रहसयपूण ु एवं महतवपूण ु हो
गया है ); तसमा त ् अनयम ् = इससे अितिरक अनय (वर) को; ििच केता ि
वृ ण ीते = ििचकेता िहीं माँगता।
(इस शोक के भी अिेक अनवय और अथु िकए गए है ।)
वच िाम ृ त ः हे यमराज, िजस िवषय मे सनिे ह होता है , जो महाि ्
परलोक-िवजाि मे है , उसे हमे कहो। जो यह (तत
ृ ीय) वह है , (अब) गूढ
रहसयमयता मे पवेि कर गया है (अिधक रहसयपूण ु हो गया है )। उसके
अितिरक अनय (वर को) ििचकेता िहीं माँगता।
वय ाख याः ििचकेता अपिे ििशय पर दढ है तथा कोई पलोभि
उसे िवचिलत िहीं कर सकता। यमराज जैसे उपिे षा के सािनिधय का
सविणम
ु अवसर पाप करके वह उसे खोिा िहीं चाहता। यमराज िे िजतिे
भी पलोभि पसतुत िकए, ििचकेता िे उि सबको तुचछ एवं हे य कह
ििया। आतमततव के जाि से बढकर अनय कुछ भी िहीं हो सकता।
ििचकेता का तत
ृ ीय वर गूढ है और गंभीर िववेचिा की अपेका करता है ।

पथम अ धयाय

िितीय वलली

अन यचछे यो ऽन यि ु तैव प ेयसत े उभे ि ाि ाभे पुरष ं िसि ीत ः।


तय ोः शे य आिि ािस य साधु भव ित हीयतेऽ था ु द उ पेय ो
वृ ण ीते ॥१ ॥
िबि ाथ ु ः श े यः = कलयाण का साधि; अनयत ् = अलग है , िस
ू रा है ;
उत = तथा; पेयः = िपय पतीत होिेवाले भोगो का साधि; अनयत ् एव =
अलग ही है , िस
ू रा ही है ; ते उभे = वे िोिो; िा िा अथे = िभनि अथो मे,
िभनि पयोजिो मे; पुरषम ् = पुरष को; िस िी तः = बाँधते है , अपिी ओर
आकृ ष करते है ; तय ोः = उि िोिो मे; शे य ः = कलयाण के साधि को;
आिि ािस य= गहण करिेवाले पुरष का; सा धु भवित = कलयाण (िुभ)
होता है ; उ यः = और जो; पेयः वृ णीत े = पेय को सवीकार करता है ;
अथाु त ् = अथु से, यथाथु से; हीयते = भष हो जाता है ।
वच िाम ृ त ः शय
े स ् अनय है , पेयस ् अनय है । ये िोिो पुरष को
िभनि-िभनि पयोजिो से आकिषत
ु करते है । उिमे शय
े स ् को गहण
करिेवाले पुरष का कलयाण होता है और जो पेयस ् का वरण करता है , वह
यथाथु से भष हो जाता है ।
सनिभ ु ः मनत १ तथा २ अतयनत महतवपूण ु है । यहां से बहिवदा
के उपिे ि का पारं भ हो रहा है ।
ििव या मृ त ः संसार मे मिुषय के िलए िो ही माग ु है −−एक
शय
े मागु, िस
ू रा पेयमाग।ु शय
े माग ु मिुषय के िलए सब पकार से
कलयाणकारी िसद होता है तथा पेयमाग ु मिुषय को संसार मे भटकाकर
उसे जीवि के मूल उदे शय से ही हटा िे ता है । शय
े माग ु आतमकलयाण का
मागु है तथा मिुषय को परमातमा की पािप की ओर उनमुख कर िे ता है ।
पेयमाग ु सांसािरक सुखभोग का माग ु है तथा अनत मे वह मिुषय के
सुख-िािनत को िविष कर िे ता है । ये िोिो ही मिुषय को अपिी ओर
आकिषत
ु करते है । मिुषय अपिे माग ु का चयि करिे और उसका
अिुसरण करिे मे सवतनत है ।
कठोपििषद के पथम अधयाय की पथम वलली मे इस उपििषद की
भूिमका है तथा यमिे व आचाय ु के रप मे ििचकेता की परीका लेकर
आशसत हो जाते है िक वह आतमजाि-पािप का सुपात है । ििचकेता
कमक
ु ाणड (यज आिि)
की सीमा को जािता है तथा वह असीम जाि की पािप के िलए सनिद
है । यमाचाय ु सवयं भी कमक
ु ाणड को आधयाितमक जाि की अपेका तुचछ
मािते है । इस िस
ू री वलली से जािोपिे ि का पारं भ होता है । बहिवदा का
उपिे ि उिम अिधकारी को ही ििया जा सकता है , अििधकारी को किािप
िहीं।
शे यश प ेयश मिु षयम ेतसत ौ समपर ीत य िव िवि िक धीरः ।
शे यो िह धीर ोऽिभ पेयस ो वृ ण ीते पेय ो मनिो योग केमाद
वृ ण ीते ॥२ ॥
िबि ाथ ु ः शे यश पेयश मिुषयम ् एतः =शय
े और पेय मिुषय को
पाप होते है , मिुषय के सामिे आते है ; धीरः = शष
े बुिदवाला पुरष; तौ =
उि पर; समप री तय = भली पकार िवचार करके; िव िव ििक = छािबीि
करता है , पथ
ृ क् -पथ
ृ क् समझता है ; धीरः= शष
े बुिदवाला पुरष; पेयस ः =
पेय की अपेका; शे यः िह अिभ वृ णीत े = शय
े को ही गहण करता है , शय

का ही वरण करता है ; मनि ः= मनि मिुषय; योगकेमा त् = सांसािरक योग
(अपाप की पािप) और केम (पाप की रका) से; पेयः वृ ण ीते = पेय का
वरण करता है ।
वच िाम ृ त ः शय
े और पेय (िोिो) मिुषय को पाप होते है ।
शष
े बुिदसमपनि पुरष िवचार करके उनहे पथ
ृ क् -पथ
ृ क् समझता है ।
शष
े बुिदवाला मिुषय पेय की अपेका शय
े को ही गहण करता है ।
मनिबुिदवाला मिुषय लौिकक योगकेम (की इचछा) से पेय का गहण
करता है ।
सनिभ ु ः इस मंत को कणठसथ कर लेिा चािहए। उपििषिो तथा
भगवद गीता मे अिेक सथािो पर धीरपुरष (िववेकिील पुरष) की पिंसा
की गयी है । धीर को जािी एवं िविाि भी कहा गया है ।
ििव या मृ त ः संसार मे मिुषय के सामिे जीवि के िो मागु होते है −
शय
े तथा पेय। शय
े मिुषय के िवकास का मागु है तथा पेय हास का मागु
है । शय
े से िरूगामी, सथायी, सकारातम एवं सारमय फल पाप होते है तथा
पेय से ततकाल कुछ किणक, लौिकक सुख पाप होते है । शय
े माग ु मिुषय
को िारीिरक सुखो एवं इिनदय-सुखो के आकषण
ु से िरू हटाकर तथा
आतमा की ओर उनमुख कर, उसे जीवि के उचचतर सतर पर िसथत कर
िे ता है । शय
े माग ु मिुषय को इिनदयो की िासता से ऊपर उठा िे ता है
तथा जीवि को पकािमय बिा िे ता है । पेयमाग ु मिुषय को भौितक
सुखभोगो मे ििमग कर उसे अनतहीि अनधकार मे धकेल िे ता है । मनि,
अिरूििी मिुषय भौितक सुखभोग के साधिो को पाप करिे (योग) तथा
उिकी सुरका करिे (केम) मे िचिनतत एवं वयग रहता है । िववेकिील पुरष
शय
े का तथा मनि पुरष पेय का वरण करते है । मिुषय अपिे माग ु का
चयि करिे मे सवतंत होता है । मिुषय सवयं ही अपिे भािय का ििमात
ु ा
होता है ।
मिुषय को संसार के िवषय-सागर को कुिलतापूवक
ु पार करके ही
परमािनि की पािप हो सकती है । बुिदमाि ् पुरष िववेक िारा इसे पार कर
लेता है , िकनतु मनिबुिद इसमे डू बकर िविष हो जाता है । बुिदमाि ् पुरष
अिवदा के केत मे िववेक िारा भोगािि की तिृप करके, िवदा के केत मे
पिवष होकर आतयिनतक तिृप करता है , अथात
ु ् िवषयसुख से ििवि
ृ होकर
परमािनि पािप की ओर उनमुख हो जाता है । बुिदमीि ् मिुषय को
गंभीरतापूवक
ु शय
े तथा पेय मागु पर गंभीरतापूवक
ु िचनति करके शय
े का
वरण तथा पेय का तयाग करिा चािहए। जैसे हं स िीर-कीर िववेक मे
ििपुण होता है तथा िीर को तयागकर कीर (ििुध) को गहण कर लेता है ,
उसी पकार धीर पुरष पेय को तयागकर शय
े का वरण कर लेता है ।
(इस मंत का गूढाथ ु समझिे के िलए भगवद गीता के अधयाय २
के शोक ६४, ६५ तथा अधयाय ३ के शोक ६, ७ के िे खिा चािहए।
योगकेम की चचाु गीता-९.२२ तथा तैिि० उप०-३.१० मे भी है )
स तवं िप याि ् िप यर पांश
काम ाि िभ धय ाय नि िच केतो ऽतय सा कीः ।
िैत ां सृ ड कां िवि मय ीम वा पो यसय ां मज जिनत बह वो
मिुष या ः ॥३ ॥
िबि ाथ ु ः ििचकेत ः = हे ििचकेता; स तवम ् =वह तुम हो; िप या ि्
च िप यर पा ि ् कामा ि् = िपय (पतीत होिेवाले) और िपय रपवाले भोगो
को; अिभध याय ि ् = सोच-समझकर; अतयस ाक ीः = छोड ििया; एता म्
िव िम यी म ् सृ ड का म ् = इस धिसमपििसवरप सड
ृ का (रतमाला एवं
बनधि अथवा मागु) को; ि अ वाप ः = पाप िहीं िकया; यसया म ् = िजसमे;
बह वः मिुष या ः मजज िनत = बहुत लोग फँस जाते है , मुिध हो जाते है ।
ृ का के अनय अथ ु माग ु तथा बनधि है । सड
(सड ृ का अथात
ु ् रतमाला, धि-
लोभ का मागु, धि का बनधि।)
वच िाम ृ त ः वह तू है (ऐसे तुम हो िक) िपय पतीत होिेवाले और
िपय रपवाले (समसत) भोगो को सोच-समझकर (तुमिे) छोड ििया, इस
बहुमूलय रतमाला को भी सवीकार िहीं िकया िजसमे (िजसके पलोभि मे)
अिधकांि लोग फँस जाते है ।
सनिभ ु ः गुर यमाचाय ु उपिे ि-गहण की पातता के परीकण मे
ििचकेता को पूणत
ु ः उिीणु िे खकर उसकी पिंसा करते है ।
ििव या मृ त ः ििकण-काय ु मे कुिल गुर ििषय की उपिे ि-गहण की
पातता की परीका लेते है तथा उसे उिम िवदा का अिधकारी िे खकर
उसका पोतसाहि करते है । यमाचाय ु ििचकेता से कहते है −ििचकेता, तुम
धनय हो। मैिे परीका करके सवयं को सनतुष कर िलया है िक तुम
आधयाितमक जाि पाप करिे के
िलए सचचे अिधकारी हो। तुम वैरािय और िववेक से संपनि हो।
िववेकिील वयिक िरूििी होता है तथा वह किणक सुखभोग के पलोभि
मे िहीं फँसता। तुमिे तो बहुमूलय रतमाला के उपहार को (एवं धि के
बनधि को) तुचछ मािकर ितरसकृ त कर ििया। सांसािरक सुखभोगो मे
िलप होिेवाला वयिक भले और बुरे को िववेचि िहीं करता तथा येिकेि
पकारे ण सुखभोगो के साधिरप धि को संगह
ृ ीत करिे मे जुटा रहता है ।
धिसंचय के िलए वह कुमाग ु का अिुसरण करिे मे िकंिचनमात भी
संकोच िहीं करता। पारं भ मे अनतरातमा की धविि उसे कुमागग
ु ामी होिे
से रोकती है , िकनतु वह पुिः पुिः उसकी उपेका कर िे ता है और उसकी
अिसुिी कर िे ता है तथा वह मनि हो जाती है जैसे अििि राख के ढे र
से िबिे पर तेज खो िे ती है । ििचकेता िे सवयं को परमातमततव के
शवण और गहण करिे के िलए सुयोिय अिधकारी पमािणत करके गुर
यमाचायु को सनतुष कर ििया।
ि ू रमेत े िव पर ीत िवष ूच ी अिवद ा या च िवद े ित ज ात ा।
िव दा भी िपसत ं ििचकेतस ं मनय े ि तव ा काम ा
बह वोऽल ोलु पनत ॥४ ॥
िबि ाथ ु ः या अिव दा = जो अिवदा; च िवद ा इित जात ा = और
िवदा िाम से जात है ; एते = ये िोिो ; ि ू रम ् िव पर ीते = अतयनत िवपरीत
(है ); िवष ूच ी = िभनि-िभनि फल िे िेवाली है , ििच केतसम ् िवद ा
अभ ीिपसत म ् मन ये = (मै) ििचकेता को िवदा की अभीपसा (अिभलाषा)
वाला मािता हूँ; तव ा = तुमहे ; बहव ः काम ाः ि अल ोलुपन त= बहुत से
भोग लोलुप (लुबध) ि कर सके।
वच िाम ृ त ः जो अिवदा और िवदा िाम से िवखयात है , ये (परसपर)
अतयनत िवपरीत है । (ये) िभनि-िभनि फल िे िेवाली है । मै तुम ििचकेता
को िवदा का अिभलाषी मािता हूँ, तुमहे बहुत से भोगो िे पलुबध िहीं
िकया।
सनिभ ु ः यमाचायु ििचकेता के परीका-पिरणाम से पसनि है ।
ििव या मृ त ः िवदा शय
े माग ु और अिवदा पेयमाग ु है तथा िोिो मागु
परसपर िवरद तथा िभनि-िभनि फल िे िेवाले है । गुर यमाचाय ु पात-
परीका मे ििचकेता को धिािि के पलोभि के मुक और जािपािप के
िलए आसथा मे अिवचल पाकर सनतुष हो गये। ििचकेता िे सवयं को
सवोचच अधयातमिवदा के अिधकारी के रप मे पमािणत कर ििया।
आतम-कलयाण के माग ु पर आरढ होिेवाला िववेकिील पुरष सावधाि
रहता है तथा पचुर भोगसामगी को िे खकर भी िवचिलत िहीं होता,
भटकता िहीं है । वह लकय पर अपिी दिष को िसथर रखता है । संसार की
भौितक सामगी का उिचत उपभोग करते हुए लकय की ओर बढते रहिा
िववेक है तथा उसके पलोभि मे फँसकर अपाप की पािप और पाप की
सुरका अथात
ु ् उसके योगकेम मे वयग और वयसत रहिा और सांसािरक
िचनता, भय एवं कलेि मे ही जीवि का कय कर िे िा अिववेक है ।
अिवद ाय ामनतर े व तु म ाि ः स वयं ध ीराः प िणडत ममनयम ाि ाः।
िनदमयम ाण ाः पिरय िनत मूढा अनधेि ैव िीय मा िा यथ ानध ाः
॥५ ॥
िबि ाथ ु ः अिवद ाय ाम ् अन तरे वतु म ाि ः = अिवदा के भीतर ही
रहते हुए; सवय ं धीरा ः पिणड तम ् मनयम ाि ाः = सवयं को धीर और
पिणडत माििेवाले; मूढ ाः = मूढ जि; िनदमयम ाण ाः = टे ढे-मेढे माग ु पर
चलते हुए, ठोकरे खाते हुए, भटकते हुए; पिर यिनत = घूमते रहते है , िसथर
िहीं होते; यथा− जैसे, अनधे ि एव िीय मा िा ः अन धाः = अनधे से ले
जाए हुए अनधे मिुषय।
वच िाम ृ त ः अिवदा के भीतर ही रहते हुए, सवयं को धीर, पिणडत
माििेवाले मूढजि, भटकते हुए चकवत ् घूमते रहते है , जैसे अनधे से ले
जाते हुए अनधे।
सनिभ ु ः अिवदा मे फँसे हुए मिुषय अधोगित को पाप होते है । यह
मंत मुणडक उपििषद (१.२.८) मे भी है ।
ििव या मृ त ः िवदा का अथ ु आधयाितमक पकाि को उतपनि
करिेवाला उिम जाि है तथा अिवदा का अथ ु अनधकार उतपनि
करिेवाला ििकृ ष जाि है । आधयाितमक दिष से मात भौितक उनिित एवं
भौितक सुखभोग-संबंधी जाि िवदा िहीं होता, वह ििकृ ष सतर कर जाि
होता है । िवदा मिुषय को भौितक बनधि (आकषण
ु ) से मुक करा िे ती है ।
बुिदमाि ् पुरष अिवदा से िवदा की ओर चला जाती है । शय
े माग ु िवदा का
माग ु है तथा पेयमाग ु अिवदा का माग ु है । भौितक सुखभोग को ही जीवि
का उदे शय माििेवाले भौितकतावािी (भोगवािी) मिुषय की ििकयो का
कय हो जाता है और उसके जीवि का सौनिय ु िविष हो जाता है । वह

जीवि मे उचच सतरो के लाभ से वंिचत रहता है और पिु-सतर पर


भोगरत रहिे के कारण उसका आनतिरक िवकास िहीं होता। भोगो की
इचछा मिुषय को भटकाकर अनत मे उसकी िग
ु िुत कर िे ती है । इिनदय-
——————————————————
१. पखयात वैजाििक आर० ए० िमलकि िे भौितक सुखभोग पर केिनदत भौितकवािी
जीवि-ििि
ु को बुिद की मनिता का ििखर कहा है तथा डािवि
ु के सहयोगी एवं
महाि ् िचनतक टी० एच० हकसले िे भी भौितकता की ििनिा की है । सवयं डािवि
ु िे
जीवि के अनत मे मात भौितकवाि के अिुसरण को जीवि-सौनिय ु के अिुभव से
वंिचत रहिा कहा है ।

सुखो की िासता ििकृ ष बनधि होती है । िजस पकार एक अनधे के िििे ि


पर चलिेवाले अनधे
वयिक भटकते हुए ठोकर खाते रहते है और लकय को पाप िहीं होते, उसी
पकार भोगो का अिुसरण करिेवाले मिुषय भी जीवि के उचचतर लकय
को पाप िहीं कर सकते। अंधी अंधा ठे िलया िोिो कूप पडनत।
ि स ाम पर ाय ः पित भा ित ब ालं पम ादनत ं िव िम ोहेि म ूढम।्
अयं लो को िािसत पर इित माि ी पुि ः पुि वु िम ापदत े
मे।। ६।।
िबि ाथ ु : िवि मो हे ि मूढम ् = धि के मोह से मोिहत; पम ादन तम ्
बा लम ् = पमाि करिेवाले अजािी को; सा मपर ाय ः= परलोक, लोकोिर-
अवसथा, मुिक; ि पित भा ित = िहीं सूझता; अयं लो क: = यह लोक (ही
सतय है ); पर ि अिसत = इससे परे (कुछ) िहीं है ; इित माि ी = ऐसा
माििेवाला, अिभमािी वयिक; पु िः पु िः = बार-बार; मे विम ् = मेरे वि
मे; आपदते = आ जाता है ।
वच िाम ृ त ः धि समपिि से मोिहत, पमािगसत अजािी को परलोक
(अथवा लोकोिर-अवसथा) िहीं सूझता। यह पतयक िीखिेवाला लोक (ही
सतय) है , इससे परे (अितिरक) कुछ िहीं है , ऐसा माििेवाला अिभमािी
मिुषय पुिः पुिः मेरे (यमराज के) वि मे आ जाता है ।
सनिभ ु ः भोगासक वयिक िरूििी िहीं होता।
ििव या मृ त ः संसार के पपंच मे फँसा हुआ मिुषय समझता है िक
यह पतयक िीखिेवाला लोक ही सब कुछ है तथा इससे परे कहीं कुछ
िहीं है । धि के मोह से मोिहत अजािी मिुषय की िरूदिष िहीं होती।
वह पमाि (गंभीर िचनति, सवाधयाय तथा यम-िियम आिि का पालि ि
करिा) के कारण इस जगतपपंच मे ऐसा फँसा रहता है िक उसे इससे
परे कुछ िहीं सूझता। वह सोचता है िक यह संसार ही सतय है और
इससे सुखभोगो से बढकर कुछ भी िहीं है । ऐसा माििेवाला मिुषय
अिभमािगसत होता है तथा िकसी के जािमय उपिे ि को िहीं सुिता।
वासतव मे मिुषय को आधयाितमक पबोध होिे पर लोकोिर-अवसथा
की पािप अपिे भीतर ही हो जाती है । मािव की चेतिा के अिेक सतर
होते है तथा चेतिा के िविभनि सतरो पर िविभनि पकार की
उचचावसथाओं की अिुभूित हो जाती है । सारा संसार सूकमरप से अपिे
भीतर ही है । मिुषय का आतमा िचिं ि अथवा परमातमा का ही अंि

--------------------------------------
१. िचिमेव िह संसारः ततपयतेि िोधयेत।् (मैतेयी उप०)
—िचि ही संसार है , उसका िोधि पयत से करिा चािहए।

होता है । िवमूढ वयिक भोगासक रहकर चेतिा के उचच सतरो के


अलौिकक आिनि से वंिचत
रह जाता है । वह पिुओं की भाँित ििमिसतरीय भोगो मे रत रहकर
जीवि के सौनिय ु का अिुभव िहीं कर पाता। मिुषय के भीतर भी वह
सब कुछ है , जो समसत बिहजग
ु त ् मे है ।
शवण ाय ािप बहु र िभ यो ि लकय ः शृण वनत ो ·िप बह वो यं ि
िव दु ः।
आश यो वक ा कुिलो ·सय लब धा ··शयो जा ता
कुि लाि ुिि षः।। ७।।
िबिा थु ः यः बहु िभ ः शवणा य अिप ि लभ यः = जो (आतमततव)
बहुतो को सििे के िलए भी िहीं िमलता; यम ् बह वः शृणवन तः अिप
ि िवद ु ः = िजसे बहुत से मिुषय सुिकर भी िहीं समझ पाते; अस य
वक ा = इसका वका; आश यु = आशयम
ु य (है )। लब धा कुिलः = (इसका)
गहण करिवाला कुिल (परम बुिदमाि ्); कुि लाि ुिि षः = कुिल (िजसे
उपलिबध हो गई है ) से अिुििष (िििकत); जा ता = (आतमततव का)
जाििेवाला; आश यु ः = आशयम
ु य (है )।
वचि ामृ तः = जो (आतमततव) बहुत से मिुषयो को सुििे के िलए भी
िहीं िमलता, िजसे बहुत से मिुषय सुिकर भी िहीं समझ पाते, इसका
कहिेवाला आशयम
ु य है , गहण करिेवाला परम बुिदमाि ् है , उससे िििकत
जाता पुरष आशयम
ु य है ।
सनिभ ु ः = आतमततव की गूढता का ििरपण िकया गया है ।
ििव या मृ त : आतमततव अतयनत गूढ एवं आशयप
ु ि है । इसको

सुििे मे भी रिच लेिेवाले िल


ु भ
ु होते है । पायः सभी मिुषय जगतपपंच
मे फँसे हुए रहते है तथा आतमकलयाण की चचा ु के िलए उिमे ि रिच
होती है और ि इसके िलए अवकाि (फुसत
ु ) ही होता है । आतमततव का
िवषय इतिा गंभीर है िक पायः मिुषय उसके िववेचि को सुिकर भी उसे
िहीं समझ पाते। इस गूढ आतमततव का वका महापुरष आशयम
ु य होता
है । उसकी जीवििैली असामानय होती है । मिुषय उसे िे खकर आशयु
करते है । आतमततव के िववेचि को समझिे और गहण करिेवाला मिुषय
भी एक िल
ु भ
ु महापुरष होता है । ऐसे जािमागी धीर (परम बुिदमाि ्) होते
है ।
----------------------------------------
१.आशयव
ु तपशयित किशिे िमाशयव
ु ििित तथव
ै चानयः।
आशियव
ु चचि
ै मनयः शण
ृ ोित शतुवापयेिं वेि ि चव
ै किशत।्। (गीता, २.२९)
—कोई आतमा को आशयु से िे खता है , कोई अनय आशयु से कहता है , कोई आशयच
ु िकत
होकर सुिता है और इसे सुिकर भी कोई समझता िहीं है ।

आतमततव को उपलबध करिेवाले िकसी महाजािी को गुर मािकर


उसकी
कृ पा से आतमततव का गहण करिेवाला पुरष भी आशय ु ही होता है ।

गूढ आतमततव का समथ ु वका और िजजासु शोता तो िल


ु भ
ु होते ही है ,
आतमजाि से मिणडत आतमििी एवं अिुभवी जािी गुर और जािी
ििषय भी िल
ु भ
ु होते है । ये सभी शष
े महापुरष आशयम
ु य एवं िल
ु भ
ु होते
है ।
ि िर ेणा वरेण पोक ए ष सुिवज ेय ो बह ु ध ा िच नत यमा िः ।
अि नयप ोके ग ित रत अम ीया ि ् हतक यु मणु पमा णा त।् । ८।।
िबि ाथ ु : अवर ेण िरेण पोकः = अवर (अलपज, तुचछ) मिुषय से
कहे जािे पर; बहु धा िचन तयम ाि ः = बहुत पकार से िचनति िकए जािे
पर (भी); एष = यह आतमा, यह आतमततव; ि सुिवज ेय : =सुिवजेय (भली
पकार से जाििे के योिय) िहीं है ; अिन यपोके = िकसी अनय आतमजािी
के िारा ि बताये जािे पर; अत = यहाँ, इस िवषय मे; गित ः ि अिसत
= पहुँच िहीं है ; िह = कयोिक, अणुपम ाण ात ् = अणु के पमाण से भी;
अण ीया ि् = छोटा अथात
ु ् अिधक सूकम; अतकय ु म ् = तकु या कलपिा से
भी परे ।
वच िाम ृ त : तुचछ बुिदवाले मिुषय से कहे जािे पर, बहुत पकार
से िचनति करिे पर भी, यह आतमततव समझ मे िहीं आता। िकसी
अनय जािी पुरष के िारा उपिे ि ि िकये जािे पर इस िवषय मे पवेि
िहीं होता, कयोिक यह (िवषय) अणुपमाण (सूकम) से भी अिधक सूकम है ,
तकु से परे है ।
सनिभ ु : इस मंत मे आतमततव की गूढता कही गई है ।
(इस मंत के अिेक अनवय और अथु िकए गए है )।
ििव या मृ त : एक सामानय बुिदवाले मिुषय से बहुत समझाये जािे
पर भी आतमततव गूढता के कारण समझ मे िहीं आ सकता, भले ही इस
पर बहुत पकार से िचनति भी कर िलया जाए। जब तक इसे िकसी ऐसे
------------------------------------
१. मिुषयाणा ं स हसेष ु क िशदत ित िसदय े।
यतता मिप िसदािा ं किश नमां व े िि ततवतः।। (गीता, ७.३)
—सहसो मे कोई एक िसदता के िलए यत करता है , यत करिेवाले िसदो मे
भी कोई एक परमातमा को ठीक पकार से जाि पाता है ।
िर सह स महुँ सुिह ु पुरार ी , कोउ एक होइ धमु ब तधारी।
धमु सी ल को िटक मह ँ कोई , िब षय िब मुख िबराग रत होई।
को िट िबरक म धय श ु ित कहई , समयक ि याि सक ृत कोउ लहई।
िया िवंत कोिट क म हँ कोऊ , जीविम ुक सकृत -जग सोऊ।
ितन ह स हस मह ुँ सब सुख खािी , ि ु लु भ बह लीि िबियािी।
(रामचिरतमािस, उिरकाणड)

जािी पुरष से ि समझाया जाए, जो इसे भली पकार से जाि चुका है


और सवयं इसका अिुभव कर चुका है , इसका गहण िहीं िकया जा
सकता। कारण यह है िक यह सूकम से अिधक सूकम है तथा तकु से परे
है ।
आतमततव ििुवज
ु ेय और िर
ु ह है । यह समसत सूकम ततवो से भी
अिधक सूकम है । पखर बुिदवाला मिुषय भी इसे बुिद िारा समझ िहीं
सकता। आतमततव बुिद एवं इिनदयो का िवषय िहीं है तथा गहि
आनतिरक अिुभूित का िवषय है ।
मिुषय की बुिद और उसकी तकुििक की एक सीमा होती है ।
मिुषय िकसी सूकमततव को बुिद िारा िहीं समझ सकता। परमातमा तो
सूकमाितसूकम है । मात बुिद का अवलमबि लेकर मिुषय बहजाि के केत
मे पवेि ही िहीं कर सकता। आतमािुभूितसंपनि महापुरष ही एक सचचे
िजजासु एवं शदालु अिधकारी (सतपात) को इसका गहण करा सकता है
तथा उसका मागु-िििे िि कर सकता है । जािी महातमा परमातमा तथा
अपिे आतमा की एकता की अिुभूित करके परमािनि की पािप कर लेता
है और तकुपूण ु िबिो को पीछे छोड िे ता है । साकातकार का सवािुभव ि
होिे पर मिुषय आतमततव का पितपािि िहीं कर सकता।
यथाथज
ु ािसंपनि महातमा ही अिधकारी पुरष को यथाथज
ु ाि का समयक्
गहण करा सकता है । आतमा अिुभवगमय है तथा आतमििी महापुरष
एक साधिसमपनि सुयोिय वयिक को आतमपकाि का अिुभव सहज ही
सुलभ कर िे ता है । आतमििी ततवजािी ही पवचि करिे मे समथ ु होता
है , कोई अनय साधारण वयिक िहीं।
िैष ा तकेण मित राप िे या पोका नयेि ैव सु जा िा य
पेष।
यां तवमा पः सत यध ृ ित बु ता िस तव ादक् िो भूय ान ििचकेत ः
पषा।। ९।।
िबि ाथ ु ः पेष = हे परमिपय; एषा मितः याम ् तवम ् आप ः =
यह मित, िजसे तुमिे पाप िकया है ; तकेण ि आपिेय ा = तकु से पाप
िहीं होती; अन ये ि पो का एव सु जा िा य = अनय के िारा कहे जािे पर
सुजाि (भली पकार जािपािप) के िलए; (भवित = होती है ); बत = वासतव
मे ही; ििच केतः सत यध ृ ित अिस ििचकेता, तुम सतयधिृत (शष

धैयव
ु ाला, सतय मे ििषावाला) हो; तवादक ् पषा िः भूय ात ् = तुमहारे जैसै
पश पूछिेवाले हमे िमले।
वच िाम ृ त : हे परमिपय, यह बुिद, िजसे तुमिे पाप िकया है , तकु
से पाप िहीं होती। अनय (िविाि ्) के िारा कहे जािे पर भली पकार
समझ मे आ सकती है । वासतव मे, ििचकेता, तुम सतयििष हो (अथवा
सचचे ििशयवाले हो)। तुमहारे सदि िजजासु हमे िमला करे ।
सनिभ ु : आतमजाि बुिद की तकुपूण ु युिकयो से पाप िहीं होता। 'िैष ा
तके ण म ितर ाप िे या ' को कणठसथ कर ले।
ििव या मृ त : यमाचाय ु कहते है िक मात तकु करते रहिे से ऐसी
ििमल
ु बुिद पाप िहीं होती, जो वैराियपूण ु हो तथा धि-समपिि एवं
सांसािरक वैभव के पलोभि से िवचिलत ि हो। ििमल
ु बुिद मिुषय को
बहिवदा का उिम अिधकारी बिा िे ती है । सांसािरक सुखभोग के आकषण

एवं मोह मे फँसी हुई बुिद मे एकागता एवं दढता िहीं होती।
आधयाितमक जाि अतयनत गूढ अथात
ु ् रहसयपूण ु होता है तथा सतयििष
मिुषय उचचसतरीय चेतिा मे िसथत होकर ही इसे पाप करिे का
अिधकारी हो सकता है । िविुद बुिद इसके िलए अपेिकत आवशयकता
होती है ।
मात तकु िारा आतमततव को िहीं समझा जा सकता है । तकु की
एक सीमा होती है तथा परमातमा तकात
ु ीत (तकु से परे ) है । परमातमा
अतकय ु है । वह सूकमाितसूकम है तथा तकुपूण ु युिकयो से ि उसके

अिसततव को पमािणत िकया जा सकता है , ि उसका गहण ही िकया जा


सकता है । तकु अपितष होता है अथात
ु ् मात तकु से ततव की पसथापिा
करिा संभव िहीं है ।

पायः तकु मे िबिो की भरमार होती है तथा केवल तकु का आधार


िजजासु को ततव के गहण से िरू कर िे ता है । परमातम-ततव तको से

परे है ।
वह अिुभव और आनतिरक अिुभूित से सहज सुलभ है । अिुमाि और
तकु पमाण के साधारण साधि है । आनतिरक अिुभूित शष
े पमाण होती
है । गहि आनतिरक अिुभूित को ििरोधायु करिा चािहए।

---------------------------
१. राम अतकय ु बुिद मि बािी , मत ह मार अस सुिह ु सयािी।
२. तको ·पितषः।
३. िबिजाल ं म हारणय ं िचिभ मणकारण म।्
अतः पयतात ् जातवय ं ततवज ै सततव मातमिः।। (िववेकचड
ू ामिण ६२)
—िङकराचायु कहते है िक गनथो का िबिजाल िचि को भटकािेवाला घिा जंगल होता
है । अतः मिुषय को सबसे िरू हटकर आतमततव को जाििे का पयत करिा
चािहए।
४. कालु जुंग कहता है िक हमे आनतिरक अिुभूित के महतव को सवीकार करिा चािहए।
कानट को Critique of Pure Reason के बाि Critique of Practical Reason िलखिा
पडा.

वासतव मे उिचत तकु ही मिुषय को तकात


ु ीत अवसथा की ओर ले
जाता है और अिुभव-पमाण की सवोचचता को िसद कर िे ता है ।
सूकमबुिद अथवा सूकम दिष होिे पर ही सूकम ततव का अिुभव होिा
संभव होता है ।

जाि ामयह ं िेव िध िर तय िित यं ि हध ुव ै ः प ापयत े िह धुव ं तत।्


तत ो मया िािच केत िशत ोम िनग रिि तयैद ु वयैः पाप वा ििसम
िि तयम।् ।१ ०।।
िबि ाथ ु : अहं जािािम = मै जािता हूँ; िे व िधः = धििििध,
कमफ
ु लरप पाप िििध; अिि तयम ् इित = अिितय है ; िह अधुव ैः =
कयोिक अधुव (िविाििील) वसतुओं से; तत ् धु वम ् = वह िितय ततव; िह
ि पापयत े = ििशय ही पाप िहीं हो सकता; ततः = अतएव, तथािप;
मय ा = मेरे िारा; अिितय ैः दवय ैः = अिितय पिाथो से; िािच केतः
अिििः िचत ः = िािचकेतिातमक अििि का चयि िकया गया; (और
उसके िारा) िित यम ् पापवा ि ् अिसम = मै िितय को पाप हो गया हूँ.
वच िाम ृ त : मै जािता हूँ िक धि अिितय है । ििशय ही अिितय
वसतुओं से िितय वसतु को पाप िहीं िकया जा सकता। तथािप मेरे िारा
अिितय पिाथो के िारा िािचकेत अििि का चयि िकया गया और
(उसके बाि) मै िितयपि को पाप है गया हूँ।
सनिभ ु : इस मंत के अिेक अथ ु िकये गये है । मैकसमूलर और
हम
ू आिि िे तो इसे ििचकेता की उिक कह ििया, जो अतयनत भानत है ।
'िि तयम ् पापवा ि ् अिसम ' का अथ ु यह भी िकया गया—मैिे मिुषयपि
की अपेका अिधक िितय िे वतवपि को पाप कर िलया। यह उिक
यम ाच ायु क ी ह ी है।
ििव या मृ त : िविाििील वसतुओं तथा धि के आकषण
ु एवं मोह
मे फँसकर मिुषय िितय ततव परमातमा की पािप से िवमुख हो जाता है ।
िाि आिि पुणयकमो के फलसवरप पाप सुख भी किणक अथवा िशर ही
होते है । उिसे भी आतमसाकातकार का लाभ संभव िहीं होता। यजािि के
फल भी अिितय, असथायी होते है ।
कमु के िो अथु होते है —साधारण कमु तथा यज आिि कमक
ु ाणड।
कतवुय-कम ु और कमक
ु ाणड का उदे शय िचििुिद होता है । िचििुिद होिे
पर, बुिद के ििमल
ु होिे पर, अपिे भीतर ही परमातमा का ििि
ु हो
जाता है , जैसे मेघ हटिे पर सूय ु का ििि
ु हो जाता है । परमातमा तो
हमारे भीतर ही ििरनतर पकािमाि है , िकनतु अहं कार,
१. सूक मया स ूक मि ििु भ ः। (कठ०, १.३.१२)

कामिा आिि िोषो के िरू होिे पर अथात


ु ् िचििुिद होिे पर परमातमा
का ििि
ु एवं उसकी अिुभूित हो जाते है । इस पकार ििषकाम भाव से
िकये हुए कमु एवं कमक
ु ाणड भगवतपािप के साधि हो जाते है ।

यमराज िे िशर पिाथो से िािचकेत अििि के चयि और यजािि


िकए िकनतु कतवुयभाविा से तथा ििषकाम (अिासक) होकर िकए।
पिरणामतः यमराज िे परमातमा को पाप कर िलया। मिुषय ििषकामभाव
से समपनि कतवुयकम ु िारा िचििुिद होिे पर परमातमा को पाप हो
जाता है । ििषकामभाव से अथवा अिासक होकर कम ु करिे पर वह
कलयाणकारक हो जाता है । भगवदाव मे िसथत होकर, अधयातमबुिद से,
अपिे कमो का समपण
ु करिे से, मिुषय मािो कम ु िारा भगवाि ् की
अचि
ु ा कर लेता है और उसका भगवाि ् के साथ योग हो जाता है ।

कामस या िपं जगत ः प ित षां क तोर िन तयमभ यसय प ारम।्


सय ोमम हि ु रग ायं पितष ां दषव ा धृ त या धीरो
ििचकेत ो ·तयस ाक ीः।। ११।।
िबि ाथ ु : ििच केत : = हे ििचकेता; कामस य आिपम ् = भोग-
िवलास की पािप को; जगत: पितष ाम ् = संसार की पितषा को, यि को;
कतो : अिन तयम ् =यज के फल की अिनतता को; अभयस य पारम ् =
ििभीकता की सीमा को; सतो ममह त् = सतुित के योिय और महाि ्;
उरग ाय म ् = वेिो मे िजसके गुण गाए गए है ; (अथवा, सतो मम ् = सतुित
एवं पिंसा को; महत ् उरग ाय म ् = महाि ् सतुितसिहत जयजयकार के
गाि को); पित षा म ् = िीघ ु काल तक िसथित, िसथर रहिे की िसथित;
दषटव ा = िे खकर, सोचकर; धृ तय ा = धिृत से धैय ु से; धीरः = जािी तुमिे;
अत यसा कीः = छोड ििया।
वचि ामृ त ् : हे ििचकेता, तुमिे भोग-ऐशय ु की पािप करािेवाले सवगु
को (अथवा भोग-ऐशय ु की पािप को), यज की अिनतता (अिनत फल) से
पाप सवग ु को (अथवा यज के अिनत फल को), ििभीकता की
पराकाषावाले सवगु को (अथवा ििभीकता की पराकाषा को), सतुित को
-------------------------------------------------

१. कमु णैव िह सं िस िदमा िसथत ा जिकाियः (गीता, ३.२०)—जिक आिि िे ििषकाम


कमु के माधयम से ही िसदता पाप की।
२ योिगिः कमु कुव ु िनत सङग तयकतवातमि ुदय े (गीता, ५.११)—योगी आसिक
तयागकर, ििषकाम होकर, अपिी िचििुिद के िलए कमु करते है ।
मि ःपसाि े , परमातमि िु िम ् (िववेकचड
ू ामिण)—मि के ििमल
ु होिे पर पमातमा का ििि

हो जाता है ।
मिय सवा ुिण कमा ुिण सं नयसयाधयातमच ेत सा (गीता, ३.३०)—भगवाि ् को सब कमो का
अपण
ु करके अधयातमभाव से कतवुयकमु करते रहे ।
सवक मु णा तमभयचय ु िस िदं िवनि ित मािव ः (गीता, १८.४६)—अपिे कमो िारा अचि
ु ा
करिे से मिुषय िसिद पाप कर लेता है ।

योिय एवं महाि ् और वेिो मे िजसका गुणगाि है ऐसे सवग ु को, िसथर
िसथितवाले सवग ु को (अथवा लोकपितषा को), धीर होकर, िवचार करके
छोड ििया है (तुमिे सवगु का मोह छोड ििया है )।

सनिभ ु : यमाचाय ु ििचकेता के वैराियभाव की पिंसा करके से बहिवदा


का उिम अिधकारी घोिषत करते है । (इस मंत के अिेक अथ ु िकए गए
है ।)
ििव या मृ त : अिधकांि मिुषय अपिे सारे जीविकाल मे
भोगैशय ु से पलुबध रहकर भोग-िवलास की सामगी के अजि
ु और संगह
मे वयसत और वयग रहते है । उिके िलए धि-पािप से बढकर कुछ िहीं
होता। पायः मिुषय तीि एषणाओं से गसत रहते है —पुतैषणा अथात
ु ् पुत
र पिरवार की संविृद की एषणा (कामिा), लोकैषणा अथात
ु ् लोक मे पूिजत
होिे की एषणा, सिा, यि और पितषा की एषणा तथा िविैषणा—धि तथा
भोगैशय ु की सामगी की एषणा। अिेक मिुषय अिनत फल िे िेवाले
अिनत यज करते है । अिेक मिुषय ििभय
ु ता की सीमा को पाप करिे
की कामिा करते है । अभय की सीमा के िलए वे सवगल
ु ोक की पािप की
कामिा करते है । सवगल
ु ोक अिनत सुखभोगो की चरम सीमा के रप मे
पखयात है तथा अिेक मिुषय सिा सुखमय रहिे की कामिा से पेिरत
होकर उसकी पािप के िलए तप, िाि और यज करते है । पायः मिुषय
अपिे सतुितगाि के िलए लालाियत रहते है तथा अपिी जयजयकार के
गाि की कामिा करते है । सभी लोक मे अपिी पितषा अथात
ु ् सममाि
तथा िीघक
ु ाल तक िसथर िसथित (आधार) की कामिा करते है । सवगु को
भी िीघ ु काल तक िसथित का आधार कहा जाता है । भाव यह है िक
पायः सभी मिुषय सिा सुख और सममाि-पािप की कामिा करते है ।
संसार के भौितक सुखभोगो की कामिा से गसत होिे के कारण मिुषय
जगतपपंच मे फँसा रहता है तथा अपिे भीतर ही संिसथत परमातमा की
ओर अिभमुख िहीं होता तथा परमािनि की अिुभूित िहीं कर पाता। यह
मिुषय का परम िभ
ु ािुय होता है िक वह कामिापूित ु की मग
ृ तषृणा मे
भटकते हुए अमूलय जीवि को िविष कर िे ता है । िववेकी पुरष किणक
एवं तुचछ िै िहक सुखो के कुचक मे िहीं फँसते तथा जीवि के उचचतर
उदे शयो की पािप के िलए उिका तयाग कर िे ते है ।
ििचकेता धीर है अथात
ु ् बहजाि के पित उसकी सचची ििषा है ।
उसमे अिमय िजजासा तथा असाधारण वैराियभाव है , जो बहिवदा-पािप
के िलए अतयावशयक होते है । उसिे सवग ु के वैभव को भी तुचछ समझ
िलया तथा अपिी पितषा एवं जयजयकार को भी महतवहीि एवं हे य माि
िलया। यमाचाय ु उसकी सतपातता िे खकर चिकत हो गए और उनहोिे
उसकी अिेक पकार से पिंसा की।
गुर-ििषय मे आनतिरक तारतमय सथािपत हो गया तथा
यमाचायु िे उपिे ि का पारं भ कर ििया।

तं ि ु िु िव गूढमि ुप िवष ं गु ह ािहत ं ग वहरेष ं


पु रा णम।्
अधया तमय ोग ािध गमेि िेव ं मत वा धीरो हषु िो कौ जहा ित ।।
१२।।
िबि ाथ ु : तम ् ि ु िु िु म ् = उस किठिता से जाििे के योिय;
गूढम ् =अपतयक, िछपे हुए; अिु पिव षम ् =भीतर पिवष, सवत
ु िवदमाि,
सववुयापी, सबके अनतयाम
ु ी; गु हा िहत म् = (हियरपी) गुहा मे िसथत;
गव हरे षम ् = गवहर मॆ ं रहिेवाला, गहरे पिे ि मे अथात
ु ् हियकमल मे
रहिेवाला, अथवा संसाररपी गवहर मे रहिेवाला; पु रा णम ् = सिाति,
पुराति; अधया तमय ोग अिध गमेि = अधयातमयोग (आतमजाि) की पािप
अथवा उसकी ओर गित होिे से, अनतमुख
ु ी विृि होिे से; िे वम ् =
ििवयगुणो से संपनि, दिुतमाि ्, परमातमा को; मत वा = मिि कर,
समझकर; धीर : = जािी, िविाि ्; हषु ि ोकौ जहाित = हष ु और िोक
(सुख-िःुख) को छोड िे ता है ।
वचि ामृ त : उस िि
ु ु ि ु (ििि
ु मे किठि, जाििे मे किठि), गूढ
(िछपे हुए, अदशय), सवत
ु िवदमाि (सववुयापी), बुिदरप गुहा मे िसथत,
हियरप गवहर मे (अथवा संसाररप गहि गवहर मे) रहिेवाले, सिाति िे व
(परमातमा) को अधयातमयोग की पािप के िारा, मिि कर (समझकर), धीर
पुरष हषु और िोक को छोड िे ता है ।
सनिभ ु : इस मंत से यमाचाय ु के उपिे ि का पारं भ होता है । मंत
१२, १३ अतयनत महतवपूणु है तथा परसपर जुडे हुए है ।
ििव या मृ त : पकृ ित िे िवकासकम मे सवोचच मिुषय को बुिद
पिाि कर िी, िजससे वह िचनति-मिि िारा पुणय और पाप, भले और
बुरे, सुनिर और बीभतस, सतय और असतय का भेि कर सके तथा संसार
मे िवषयभोगो के सागर को िववेकपूवक
ु पार करके और भौितक सुखभोगो
की कणभंगुरता एवं ििससाहस को िे खकर तथा अनतमुख
ु ी होकर अपिे
भीतर ही िसथत परमातमा की ििवयािुभूित पाप कर सकता है ।
ऐसे महापुरष, जो संसार के अिेकािेक आकषण
ु ो एवं पलोभिो से
मुक होकर आतमसाकातकार की राह पर चल पडते है , धीर पुरष कहलाते
है । उदालक ऋिष के पुत ििचकेता िे अलपायु मे ही भौितक सुखो एवं
वैभवो की ििससारता को िे ख िलया तथा वह उतकट िजजासा एवं पखर
वैराियभाव से समपनि होकर बहिवदा-पािप के िलए ततपर हो गया।
ििचकेता को बहिवदा का अिधकारी मािकर यमराज िे उसे 'धीर' कह
ििया।
बहिवदा तथा बह की अिुभूित के िार सबके िलए समाि रप से
खुले हुए है , िकनतु अिधकारी पुरष ही इस केत मे पवेि कर सकत है ।
इसके िलए
अिमय िजजासा, वैराियभाव तथा शदा की पमुख आवशयकता होती है
तथा िासीय जाि गौण होता है ।
परबह परमातमा िि
ु ु ि ु होता है अथात
ु ् उसका ििि
ु एवं अिुभव
अतयिधक किठि होता है । वह इिनियगोचर िहीं होता तथा वह बुिदगमय
भी िहीं होता। वह सूकमाितसूकम होिे के कारण गूढ तथा सवत

अिुपिवष है अथात
ु ् सववुयापक है ।
परमातमा मिुषय के भीतर हियरपी गुहा मे बसता है । वह गहरे

हिय के भीतर ही सूकम अनतराकाि मे अिधिषत है तथा वहाँ बह की


पािप का अिधषाि है । जािी िहर (सूकम अनतराकाि) मे ही परमातमा का
साकातकार करते है । वे धयाि मे िसथत होिे पर हियरपी गुहा मे पवेि

करके िहर मे परमातमा की जयोित का ििि


ु करते है ।
परमातमा सिाति अथात
ु ् अिािि, अिनत और िाशत है । उसे
अधयातमयोग से पाप िकया जािा संभव है अथात
ु ् अपिे भीतर ही उसका
अिुभव ही सकता है । इिनदयो का संचालि मि से, मि का संचालि बुिद
से और बुिद का संचालि आतमा से होता है । मिुषय अनतमुख
ु ी होिे पर
अपिे भीतर ही आतमा का साकातकार कर सकता है ।
परमातमा ििवय है , अलौिकक है , जयोित:सवरप है । धीर अथात
ु ् जािी
पुरष उसका मिि करते है तथा उसका धयाि करते है । परमातमा को
पाप होिेवाला महातमा चेतिा के सवोचच सतर पर िसथत रहता है तथा
वह िे ह, मि और बुिद के हषु-िोक अथात
ु ् सुख-ि :ु ख तथा पुणय-पाप के
िनि से ऊपर उठ जाता है । ऐसा महापुरष आिनिावसथा मे िसथत रहता

१. िििह तं गुहायाम ् (मु णडक उप० , ३.१.७)


िि िहत ं गुहायाम ् (तै० उप० , २.१.१), गुहाया ं िििह तो (शेत० उप० , ३.२० )
२. अिसमि ् बहप ुरे िहर ं पुणडरीक ं वेशम िहरो ·िसमि ् अनतराकाि ः तिसमि ्
यिन तः तद अन वेषवयम ् (छ० उप० , ८.१.१)
—इस बहपुर मे (िरीर के भीतर, हिय के अनिर) िसथत िहरिामक कमल जैसे सूकम
आकाि मे बह का (अथवा उसकी पािप का) अिधषाि है ।
हिि सव ु सय िविष तम ् (गीता , १३ .१७)
सवु सय चाह ं ह ििस िनि िवषो (गीता , १५.१५)
ईशर : सवु भूतािा ं हदेि े ·जुु ि ितषित (गीता १८ .६१ )
३. तिा िविाि ् पुणयपाप े िवध ू य (मु णडक उप० , ३.१.३)

है ।
एत चछत वा समप िरग ृ ह मतय ु ः प वृ ह धम यु मणुम ेतम ाप य।
स मोित े मोि िी यं िह लब धव ा िव वृ तं सद ििचकेतस ं
मनय े।।१३।।
िबि ाथ ु : मत यु : = मिुषय; एत त ् धमयु म ् शु त वा = इस धमम
ु य
(उपिे ि) को सुिकर; सम पिर गृ िह = भली पकार से धारण (गहण) करके;
पव ृ ह = भली पकार िवचार करके, िववेचिा करके; एतम ् अणुम ् आपय
= इस सूकम (आतमततव) को; आप य = जािकर; स: = वह; मोिि ीय म्
लब धव ा = आिनिसवरप परमातमा को पाकर; मो िते िह = ििशय ही
आिनिमिि हो जाता है ; ििच केतसम ् = (तुम) ििच केता के िल ए ;
िव वृ तम ् सद मनये =मै परमधाम (बहपुर) का िार खुला हुआ मािता
हूँ।
वच िाम ृ त : मरणधमा ु मिुषय इस धमम
ु य उपिे ि को सुिकर,
धारण कर (तथा) िववेचिा कर (तथा) इस सूकम आतमततव को जािकर
(इसका अिुभव कर लेता है ), वह आिनिसवरप परबह परमातमा को पाप
कर ििशय ही आिनिमिि हो जाता है । मै ििचकेता के (तुमहारे ) िलए
परमधाम का िार खुला हुआ मािता हूँ।
सनिभ ु : यमाचाय ु ििचकेता को बहिवदा का अिधकारी मािते है ।
"स म ोित े म ोि िी यं िह लब धव ा" को कणठसथ कर ले।
ििव या मृ त : बहिवदा का आधयाितमक उपिे ि मििीय होता है ।
कोई जािी एवं अिुभव महापुरष ही परमातमा-संबंधी उपिे ि करिे का
अिधकारी होता है । कुछ गनथो का अधययि करके, िबिा कुछ गहण िकये
हुए ही, उपिे ि करिा ििषपभावी होता है । िजस मिुषय िे सवयं अिुभव
िहीं िकया, वह िकसी िजजासु को सनतुष िहीं कर सकता। अिुभविूनय
जाि ििरथक
ु होता है ।
वही िजजासु आधयाितमक उपिे ि का लाभ उठा सकता है , िजसमे
उतसुकता, वैराियभाव, शदा तथा िविमता हो। आतमजाि गुढ तथा
रहसयमय होता है । मिुषय िे हाधयाय से छूटकर अथात
ु ् िे ह को आतमा से
पथ
ृ क् समझकर तथा िे ह के बनधि से मुक होकर, आतमा के िुद, बुद
और मुक सवरप मे िसथत होिे पर परमािनि का अिुभव कर लेता है ।
आतमा सूकमाितसूकम है तथा ििवय है । जड इिनदयाँ, मि और बुिद
उसका गहण िहीं कर सकती। सदर
ु से सूकम आतमततव का उपिे ि
सुिकर, उिम ििषय उस पर िचनति-मिि करके उसका गहण कर लेता
है । आधयाितमक साधिा का माग ु ही परमािनि-पािप का एकमात माग ु है
तथा बहिवदा ही मरणधमा ु मिुषय को अमतृव पिाि करिे मे सकम है ।
आिनि का सोत एवं ििधाि मिुषय के भीतर उसका आतमा ही है ।

१. यञजाता म िो भव ित सतबधो भवित आतमारामो भवित । (िारिस ू त , ६)

अन यत धमाु ि नयत ाध माु िनयत ासम ात कृत ाकृत ात।्


अन यत भूत ाच च भवय ाच च यि तप शयिस तिि।। १४ ।।
िबि ाथ ु : यत ् तत ् = िजस उस (परमातमा) को; धमाु त ् अनयत
अधम ाु त ् अनयत = धम ु से अतीत (परे ), अधम ु से भी अतीत; च = और;
अस मा त ् कृ ता कृ ता त ् अनयत = इस कृ त और अकृ त से िभनि, कायु
और कारण से भी िभनि, कृ त-िकया से संपनि, अकृ त-िकया से संपनि ि
हो; च भूत ात ् भवय ात ् अन यत =और भूत और भिवषयत ् अथवा भूत,
वतम
ु ाि और भिवषयत ् तीिो कालो से भी परे , िभनि अथवा पथ
ृ क् ;
पश यिस = आप जािते है ; तत ् वि = उसे कहे
वचि ामृ त : (ििचकेता िे कहा) आप िजस उस आतमततव को धमु
और अधम ु से परे और कृ त और अकृ त से िभनि, भूत और भिवषयत ् से
परे जािते है , उसे कहे ।
सनिभ ु : ििचकेता आतमततव को जाििा चाहता है , वह उसकी
मात भूिमका और अपिी पिंसा सुििा िहीं चाहता।
ििवय ाम ृ त : ििचकेता की उतसुकता आतमा के संबंध मे है तथा
उसे अपिी पिंसा सुििे मे रिच िहीं है । वह उस परमततव को जाििे मे
उतसुक और आतुर है जो ििससीम है । वह परमातमा, जो धमु और अधमु
अथवा पुणय और पाप से परे है तथा जो कायु और कारण के िसदानत से
भी परे है और तीिो कालो से परे अथात
ु ् ितकालाबािधत, अिािि और
अिनत है , ऐसा वह अदत
ु ततव कया है ? यह बह की िजजासा है ।

परबह परमातमा िितय, िुद, बुद और मुक है । वह इस दशयमाि जगत ् मे


सवत
ु वयापक होकर भी इससे परे है । बुिद िारा उसका गहण तथा वाणी
िारा उसका वणि
ु करिा संभव िहीं है ।
सवे वेिा यत ् पिम ाम ििनत त पांिस सव ाु िण च य द वि िनत।
यििच छन तो बह चयव च रिनत तिे पि ं स ंग हेण बवीम यो िमतय ेतत।् ।
१५।।
िबिा थु : सवे वेिा : यत ् पिम ् आमि िनत = सारे वेि िजस पि
का पितपािि करते है , िजस लकय की मिहमा का गाि करते है ; च
सव ाु िण तप ां िस यत ् वि िनत = और सारे तप िजसकी घोषणा करते है ,
वे िजसकी पािप के साधि है ; यत ् इचछनत : बह चय व चरिनत = िजसकी
इचछा करते हुए (साधकगण) बहचयु का पालि करते है ; तत ् पिम ्
ते
------------------------
—िजसे जािकर मि हो जाता है , सतबध हो जाता है , अपिे भीतर रमण करता है ।
मू कसवाििवत ् (िारिसूत, ५२)—गूँगे का गुड जैसा, अििवच
ु िीय सुख।
१.अथातो बहिज जासा (बहसूत, १.१.१)

संग हेण
बवी िम = उस पि को तुमहारे िलए संकेप से कहता हूँ; ओम ् इित एतत ्
= ओम ् ऐसा यह (अकर) है ।
वच िाम ृ त : सारे वेि िजस पि का पितपािि करते है और सारे तप
िजसकी घोषणा करते है , िजसकी इचछा करते हुए (साधकगण) बहचय ु का
पालि करते है , उस पि को तुमहारे िलए संकेप मे कहता हूँ, ओम ् ऐसा
यह अकर है ।
सनिभ ु : = ओम ् की मिहमा का गाि है ।
ििव या मृ त : यमाचायु ििचकेता से संकेप मे परमपि का कथि करते है ।
सब वेि िजस परमपि का पितपािि करते है और िजस पि की पािप के
िलए िािा पकार के कठोर तप िकए जाते है , वह पापय परमपि एक ही
है । उसकी पािप के िलए बहचयु का पालि िकया जाता है । बहचयु-पालि
का अथ ु बहपािप को लकय मािकर सवाधयाय और आधयाितमक साधिा
करिा है ।
वह परमपि ओम ् है । यह अकरबह तथा िबिबह है । यह एक अकऱ बह
का वाचक अथवा पतीत है । यह तीि मूल धविियो अ, उ, म ्, का संयोजि
है । िाम तथा िामी मे अभेि होता है तथा वे एक होते है , िाम से िामी
का उललेख होता है । ओम ् बह का िाम है , साकात ् बह ही है । ओम ् की
साधिा करिे से बह की पािप एवं अिुभूित संभव हो जाती है । ओम
पणव है । 'ॐ ततसत ् ' की मिहमा तथा 'ॐ' की मिहमा का गाि

भगवदीता मे भी िकया गया है । ओम ् का उचचारण करके यज-िाि-तप


आिि का पारं भ िकया जाता है । अिेक उपििषिो मे अिेक सथािो पर

ओम ् के अदत
ु पभाव की चचाु की गयी है । ओंकार परबह और अपरबह

-----------------------
१. तसय वाच क: पणव : (योगििि
ु , १.२७)—ॐ परमातमा का वाचक है ।
२. ॐ तत सिि ित ििि े िो बह णिस िव धः सम ृ तः ।
बाहणा सतेि वेिाश यजाश िविह ताः पुरा।। (गीता, १७.२३)
तस माि ेिम तयुिाहतय यजिाितपः िकयाः।
पवत ु नते िव धािोका : सततं बहवािििा म।् । (गीता, १७.२४)
३. ओिम तयेत िकर म ु दीथम ु पासीत।
ओिम ित िह उदय ित तसयोपवय ाखया िम।् । (छानिोिय उप०, १.१.१.)
—ॐ परबह का पतीक है । ॐ कहकर उदाि करता है । उदाता ॐ इस अकर से
पारं भ करके उदाि करता है । ॐकार उदीथ है । ॐ उदीथसंजक पकृ त अकर है । इससे
परमातमा की अपिचित (उपासिा) होती है । तेि ेय ं .…रसेि (छानिोिय उप०, १.१.९) इसकी
अचि
ु ा परमातमा की ही अचि
ु ा है ।

है । इसकी तीि माताओं की उपासिा


के पथ
ृ क् -पथ
ृ क् अिेक फल है । ॐ बह है , ॐ समसत जगत ् है । ॐ से

बह को पाप करता है ।

हिर: ॐ का उचचारण परमातमा का समरण है । ॐ का उचचारण


करके उपििषिो का पारं भ िकया जाता है ।


ॐ ऐसा यह अकर है अथात
ु ् अिविािी परमातमा है । यह समपूणु
जगत ् उसका ही उपवयाखयाि अथात
ु ् उसकी ही मिहमा का गाि है । जो
भूत, वतम
ु ाि, भिवषयत ् है , वह सब ओंकार है तथा ितकालातीत इसके
अितिरक कुछ भी िहीं है ।

धयाियोग मे ॐ को धिुष, आतमा को बाम मािकर तथा परबह


परमातमा को लकय मािकर वेधि करिे अथात
ु ् ॐ के सहारे से आतमा
को परमातमा मे ििमिि करिे का उपिे ि िकया गया है ।

यिि मिुषय अपिे जीवि मे ॐ का जप तथा उसकी उपासिा


करता है तथा अनतकाल मे एकाकर बह ॐ का जप करते हुए
पाणिवसजि
ु करता है , वह परमगित को पाप होता है ।

ओम ् की लयपूण ु (आरोह-अवरोह, सवरसंकमसिहत) धविि िंख-धविि
के सदि होती है तथा वह महािवसफोट की महाधविि की पितधविि है ,
िजससे सिृष का पारमभ हुआ था तथा उससे असाधय रोगो की सफल
िचिकतसा होिा संभव है । शीकृ षण के पाञचजनय िंखिाि की धविि मे

मेघो की गडगडाहट के समाि ऐसा अदत


ु कमपि था, जो ितु- के
महारिथयो के हियो को िविीण ु कर िे ता था। शीकृ षण की वंिी की
सपतारक धविि मे भी वही ििवय आकषण
ु था, िजसमे
विीकरण की

---------------------------
… …
१. परं चापर ं च बह यिोङकारः। स यदेकमात मिभ धयायीत स तेि ैव
संव ेिि तसत ूण ु मेव जगतयाम िभस ंपदत े। तम ृ चो मिुषयलोक मुपियनत े स तत
तप सा बह चयेण शदय ा समप निो मिह माि मिुभवित । (पशोपििषद, ५)

२. ओिम ित बह ओिम तीि ं सव ु म ् बहै वोपापोित । (तैिि० उप०, १.८)
३. हिरः ॐ बहवा िििो वि िनत (शेताशतर उप०, १.१)
४. ओिमत येतिकर िमि ं सवव तसयोपवयाख याि ं भूत ं भव त ् भिवषयत ् इित
सवु मोङकार एव।
यचचानयत ् ित कालातीत ं तिपयोङकार एव। (माणडू कय उप०, १)
५. पणवो धिुः िरो हातमा बह तललकयम ु चयत े।
अपमि ेि व ेदवय ं िरविन मयो भव े त।् । (मुणडक उप०, २.२.4)
६. ओिम तयेकाकर ं बह व याहरन मामि ुस मरि।् ।
यः पयाित तयजनि ेहं स य ाित परमा ं गित म।् । (गीता, ८.१३)
७. सिृष के आिि के जो भयंकर महािवसफोट हुआ, उसकी लयातमक अिुगूँज सिृष की
समसत गितमयता का आधार है तथा वह सिृष के अनत तक ििरनतर पवहमाि रहे गी। (हमिे
धयाियोग मे इसका रहसयमय अिुभव िकया तथा इसको गहण कर तथा संकेिनदत कर,
इसके अिेक सफल पयोग िकए। यह गवेषण का िवषय है ।)

अदत
ु कमता थी.
ओम ् का जप, धयाि और उसकी उपासिा ििससनिे ह बहपािप एवं
बहािनि की अिुभूित का उिम साधि है ।
एत देव ाक रं बह ए तदे वा करं पर म।्
एत देव ाक रं ज ात वा य ो यिि चछित तस य त त।् । १६।।
िबि ाथ ु : एतत ् अकरम ् एव िह बह = अकर ही तो (ििशयरप
से) बह है ; एतत ् अकरम ् एव िह पर म = यह अकर ही तो (ििशयरप
से) परबह है ; िह एत त ् एव अकरम ् जातव ा = इसीिलए इसी अकर को
जािकर; य: यत ् इचछित तस य तत ् =जो िजसकी इचछा करता है ,
उसको वही (िमल जाता है )।
वच िाम ृ त : यह अकर ही तो बह है , यह अकर ही परबह है ।
इसीिलए इसी अकर को जािकर जो िजसकी इचछा करता है , उसे वही
िमल जाता है ।
सनिभ ु : ॐ की मिहमा का गाि िकया गया है ।
ििव या मृ त : ॐ बह का वाचक अिविािी अकर है तथा बह ही
है । यह सोपािध बह और परबह (अथवा अपर बह और बह) िोिो का

दोतक है । ॐ की उपासिा और साधिा करके, इसके गूढ (रहसयपूणु)


सवरप को समझकर, मिुषय िसद पुरष हो जाता है तथा लौिकक
(भौितक) एवं पारलौिकक (आधयाितमक) संकलपो को पूित ु मे समथ ु हो
जाता है । इस महाि ् अकर का वणि
ु िवश के अिेक पचिलत धमो मे
अिेक पकार से िकया गया है ।

बह एक ही है , वह अिै त है । िकनतु िाििुिक दिष से अपरबह


और परबह िो रप है । मायारिहत, िुद बह को परबह तथा
मायासिहत
---------------------------------
१.िबि और अथ ु समपक
ृ होते है , पथ
ृ क् िहीं िकए जा सकते है । कािलिास कहते है
—"वागथा ु िवव संप ृ कौ " वाक् और अथ ु की भाँित संपक
ृ (पावत
ु ी और ििव)।"िगरा अथु
जल वीिच सम किहयत िभनि ि िभ नि " वाणी और अथ ु जल और वीिच (लहर) की
भाँित अिभनि (सीता और राम) यदिप िे खिे मे िभनि है । ॐ अपिे लकयभूत बह से िभनि
िहीं है तथा िोिो एक ही है ।
२. “In the beginning was the Word, and the Word was with God, and the Word was God."
(Bible, 1.1)
सनत जॉि िे कहा— 'पारं भ मे िबि था, वह िबि परमातमा के साथ था, और वह िबि
ही परमातमा था।' यही लौगोस (Logos) अथवा िबि है ।

बह को अपरबह कह ििया जाता है । ॐ से िोिो पिरलिकत होते है


एतिालमबिं शष
े मेतिालमबिं परम।्
एतिावमबिं जातवा बहलोके महीयते।। १७।।
िबिा थु : एत त ् शे ष म ् आलमब िम ् = यह शष
े आलमबि है ,
आशय, सहारा है ; एत त ् परम ् आलमब िम ् = यह सवोचच आलमबि है ;
एत त ् आलमब िम ् जा तव ा = इस आलमबि को जािकर; बहल ोके
मह ीय ते = बहलोक मे मिहमािनवत होता है ।
वच िाम ृ त : ॐकार ही शष
े आलमबि है , ॐकार सवोचच (अिनतम)
आलमबि अथवा आशय है । इस आलमबि को जािकर मिुषय बहलोक
मे मिहमामय होता है ।
सनिभ ु : ॐकार मिुषय का शष
े आलमबि है ।
ििव या मृ त : भारतीय मूल के समसत धमो मे ॐ को मङगलिाता
एवं अमङगलहता ु मािा जाता है । यह मिुषय की वाणी की सवाभािवक
एवं सहज मिहमामय िवसफोट है । यह िवश की सूकम एवं ििवय परमसिा
का वाचक अथवा पतीत है । वाचक और वाचय अथवा िाम और िामी
एक होते है । ॐकार भगवतपािप का माधयम अथवा सोपाि है । यह
मिुषय का शष
े आलमबि है । वासतव मे अपिे भीतर संिसथत परमातमा
ही मिुषय की अिनतम तथा सवोचच आलमबि (आशय, सहारा) है । पतीक
को माधयम माििे के कारण ॐ मिुषय का सथायी और शष
े आलमबि
है । संसार के सारे अवलमबि अिसथर और असथायी होते है । केवल
परमातमा का सहारा ही सचचा सहारा होता है । संसार कमभ
ु ूिम है तथा
मिुषय को पुरषाथ ु भी करिा चािहए, िकनतु दढ आलमबि तो परमातमा
और उसके िाम का ही होता है ।
ॐ की मिहमा को जािकर मिुषय बहलोक को पाप हो जाता है ।
सभी उपििषिो मे कहा गया है िक बह को जािकर मिुषय बहलोक का
अिधकारी हो जाता है अथात
ु ् बह को पाप हो जाता है । बह का उपासक

-----------------------------------
1. परं चापर ं च यिोङकार : (पश उप०, ५)—पर और अपरबह ओंकार है । अ उ म ् को
ईशर, जीव, पकृ ित, सतव, रज, तम, बहा, िवषणु, महे ि, तीि वेि (वेितयी), सथल
ू , सूकम,
कारणिरीर, कमु, भिक, जाि आिि के संयोजि का पतीक भी कहा गया है ।
२. जातवा अथवा िविितवा अथात
ु ् जाििे पर अथवा जाि होिे पर बह की पािप का उललेख
सभी उपििषिो मे अिेक पकार से िकया गया है । उसकी गणिा करिा अतयनत किठि है ।
वेिा हमेत ं प ुरष म हानत मािि तयवण व त मस : परसतात। ्
तमेव िव िितवा ितम ृ तयुम ेित िानय : पन था िवदत े अय िाय।। (यजुवि
े , ३१.१८, शेत०
उप०, ३.८)
— मिुषय परमातमा को जािकर मतृयु को पार कर लेता है ।
बहलोक का उललेख भी उपििषिो मे अिेक पकार से तथा अिेक अथो मे िकया गया है ।
उसकी िवसतत
ृ चचाु करिा भी अतयनत किठि है । बहलोक की पािप का अथु बह की पािप

बह के जयोितमय
ु सवरप को पाप होता है । ॐ पतीक है । पतीकोपासिा
लकय पािप का शष
े माधयम होती है ।
ि ज ायते िमयत े वा िवप िश नि ायं कुतिश नि बभूव किश त।्
अजो िि तय : िा शतो ऽयं प ुर ाण ो ि ह नयते ह नयमा िे ि रीरे।।
१८।।
िबि ाथ ु : िवप िश त ् = जािसवरप आतमा (आतमा परबह
परमातमा); ि जायते वा ि िमयत े = ि जनम लेता है और ि मरता
है ; अय म ् ि कुतिश त ् बभू त = यह ि तो िकसी से उतपनि हुआ है , ि
िकसी उपािाि कारण से उतपनि हुआ; (ि) किश त ् (बभूत ) = (ि) इससे
कोई उतपनि हुआ है । (अय म ् ि कुतिश त ् बभू त , किश त ् ि बभूत —
यह ि िकसी से, कहीं से, उतपनि हुआ, ि यह उतपनि हुआ। आतमा का
जनम िहीं हुआ, उसे िो पकार से कहा गया तथा यह भी एक अथ ु िकया
गया है ।) अयम ् = यह आतमा; अज: िि तय ; िाश त: पुर ाण : = अजनमा
(जनमरिहत), िितय, सिा एकरस रहिेवाला, सिाति (अिािि) है , (पुराति—
पुरािा होकर भी िया अथात
ु ् सिाति); िर ीरे हनय माि े ि हन यते =
िरीर को मार ििये जािे पर, िष हो जािे पर, इसकी हतया िहीं होती,
इसका िाि िहीं होता।
वच िाम ृ त : जािसवरप आतमा ि जनम लेता है और ि मतृयु को
पाप होता है । यह ि िकसी का काय ु है , ि िकसी का कारण है । यह
अजनमा, िितयस िाशत, पुराति है । िरीर के िष हो जािे पर इसका िाि
िहीं होता।

सनिभ ु : आतमा अजर-अमर है । आतमा िवकारी िहीं है , वह सिा


एकरस है ।
-------------------------------------------
करिा ही िववेकसममत है । लोकयत े पकाियत े इित लोक :। पकाि करिेवाला लोक
कहलाता
है । पकािित करिे के कारण बह सवयं भी बहलोक है ।
1 भगवदीता (२.२०) मे भी यह मंत है , िकनतु वहाँ कुछ िभनि है —
ि जायत े िमय ते वा क िािच त ् िायं भ ूतवा भिव ता वा ि भ ूय :।
अजो िितय : िाशतोऽय ं प ुराणो ि ह नयत े हनयमाि े िरीर े।।
'िवपिशत ्' का अथ ु िववेकिील पाणी माििे पर कहा गया है िक जािी पुरष जाि िारा जनम-
मरण से ऊपर उठ जाता है तथा वह आतमसवरप मे संिसथत हो जाता है । वह िरीर के िष
होिे पर भी िष िहीं होता। यह 'अहं बहा िसम ' की िसथित है । जािी मात दषा िहीं होता है ,
अहं कारिूनय। िकनतु 'िवपिशत ्' का अथु आतमा (बह) ही िकया जािा उिचत है (तै० उप०, २.१)

ििव या मृ त : आतमा ििवय एवं अमूत ु है । आतमा अज है , िितय और


िाशत है तथा अिािि है । िे ह मे िसथत आतमा परम सूकम एवं चैतनय
सवरप है तथा वह परमातमा का ििवय अंि होिे के कारण परमातमा ही
है । आतमा को परमातमा भी कहा जाता है । मिुषय के िे हिाि होिे पर
भी अजर-अमर आतमा िष िहीं होता। घट फूट जाता है तथा उसके
भीतर का आकाि (घटाकाि) वयापक आकाि (महाकाि) के साथ एक हो
जाता है ।

िाििुिक दिष से परबह मायारिहत, िुद चैतनयसवरप होता है तथा


ि उसका जनम होता है और ि वह िकसी को जनम िे ता है , िकनतु
अपरबह (ईशर) मायासिहत होता है तथा दिष की उतपिि करता है , उसका
संचालि करता है , संहार करता है और वही भको का उपासय होता है ।
इसी पकार, िे ह मे िसथत आतमा मायारिहत, िुद चैतनयसवरप ही होता है ,
िकनतु वही मायासिहत (माया से आवत
ृ ) होिे पर जीवातमा कहलाता है ।

वासतव मे िुद बह और मायासिहत बह एक ही है तथा िे ह मे िसथत


आतमा अथवा जीवातमा भी एक ही है । जीवो बहै व िा पर: अथात
ु ्
मिुषय का जीवातमा ततवत: आतमा अथवा बह ही है । िाििुिक दिष के
पािरभािषक भेि केवल कुछ िसदानतो को समझािे के िलए ही है तथा
वासतव मे कोई भेि िहीं है । बह एक ही है ।
हन ता चेनम नयत े हन तुं हत शेनम नयत े हत म।्
उभौ त ौ ि िव जा िीत ो िा यं हिनत ि ह नयते।। १ ९।।
िबि ाथ ु : चेत ् = यिि; हन ता हनतुं मन यते = मारिेवाला (सवयं को)
मारिे मे समथ ु मािता है ; चेत ् हत: हत म ् मनयत े = यिि मारा
जािेवाला सवयं को मारा गया मािता है ; तौ उभौ ि िव जाि ीत:= वे
िोिो िहीं जािते; अय म ् ि हिनत ि हनयत े = यह (आतमा) ि मारता
है , ि मारा जाता है ।

---------------------------

१. जल मे कुंभ कुंभ मे जल है , बाहर -भीतर पािी।


फूटा कुंभ जल जलिह समािा , यह त थ कथयौ ियािी।। (कबीर)
२. भू िम परत भा ढाबर पािी , िजिम जीविह माया लप टािी। — जैसे वषा ु का िुद
जल भूिम पर िगरिे से, िमदटी से िमलकर कुछ अिुद हो जाता है , ऐसे ही िुद आतमा माया
से आवत
ृ होकर जीवातमा का रप ले लेता है । जैसे अिुद जल को पुिः िुद िकया जा सकता
है , वैसे ही (तप िारा) जीवातमा के माया से मुक होिे पर वह िुद चत
ै नयसवरप आतमा ही
होता है । िोिो एक ही है ।

वच िाम ृ त : यिि कोई मारिेवाला सवयं को मारिे मे समथु मािता


है और यिि मारा जािेवाला सवयं को मारा गया मािता है , वे िोिो ही
(सतय को) िहीं जािते। यह आतमा ि मारता है , ि मार ििया जाता है ।
सनिभ ु : आतमा अिविािी है ।

ििव या मृ त : मिुषय का िे ह सथूल पंचततवो (िमटटी, जल, अििि,


वायु, आकाि) के संयोग से बिता है तथा वह पाणो के ििगम
ु ि होिे पर
िविष हो जाता है । आतमा मूल सवरप मे िितय, िुद, बुद और मुक है
तथा सूकमाितसूकम है । वह अजर-अमर है तथा उसका िविाि िहीं होता।
यिि कोई सवयं को िकसी के मारिे मे समथ ु समझता है और यिि मारा
जािेवाला सवयं को मारा गया हुआ मािता है तो वे िोिो अजािी ही है ।
यह आतमा एक िाशत ििवयततव है तथा इसका िविाि संभव िहीं है ।
आतमा चैतनयसवरप है । वह अिविािी, अजर और अमर है । जडततव
पिरवति
ु िील और िविाििील होता है , िकनतु चेतिततव पिरवति
ु रिहत
और िाशत होता है ।
मिुषय का िे ह मरणिील है , िकनतु यह साधिा िारा मोक का िार
खोल िे ता है । िे ह संरकणीय होता है , िकनतु मिुषय भोगैशय ु मे फँसकर
इसका िर
ु पयोग कर लेता है । िे ह का सिप
ु योग मिुषय को परमातमा की

पािप करा िे ता है ।
अण ोरण ीय ानम हतो म ही या िातम ास य ज नत ोिि ु िहत ो गु ह ाय ाम।्
तम कतु : पश यित वीति ोक ो
धातुपस ािा नम िहम ाि मा तमि :।। २०।।
िबि ाथ ु : असय जनतो : गुह ाय ाम ् िि िह तः आतम ा = इस जीवातमा के
(अथवा िे हधारी मिुषय के) हियरप गुहा मे िििहत आतमा (परमातमा);
अण ो: अण ीया ि ् महत : मही याि ् = अणु से सूकम, महाि ् से भी बडा
(है ); आतमि : तम ् मिह मा िम ् = आतमा (परमातमा) की उस मिहमा को,
उसके सवरप को; अकतु : = संकलपरिहत, कामिारिहत; धातुपस ािा त ् =
मि तथा इिनदयो के पसाि अथात
ु ् उिकी िुदता होिे से; (धाता —
िवधाता, भगवाि ्;
--------------------------
१.भगवदीता (२.१९) मे यही मंत इस पकार से है —
य एि ं व े िि ह नतार ं य शै िं म नयत े हतम।
उभौ तौ ि िव जािीतो िा यं ह िनत ि ह नयत े।।
If the red slayer thinks he slays
Or if the slain thinks he is slain,
They know not well the subtle ways
I Keep and pass and turn again (Brahma' poem by R. W. Emerson)
२.'सा धि ' धाम मोक कर िार ा'
िरीरमाद ं खल ु धम ु साधि म ् (कािलिास)—िरीर धमु का पथम साधि है ।

धातु : पस ािा त् — भगवाि ् की कृ पा से—यह अनय अथ ु भी िकया गया


है ।) पश यित —साकात ् िे ख लेता है , सवयं अिुभव कर लेता है ; वी ति ोक:
= समसत िःुखो से परे चला जाता है , परम सुखी हो जाता है । (अकतु :
वी ति ोक: धातुप साि ात ् पशयित —ििषकाम िोकरिहत होकर इिनदयो की
िुिद से अथवा भगवाि ् की कृ पा से िे ख लेता है , यह एक िभनि अनवय
तथा अनवयाथु है ।)
वच िाम ृ त : इस जीवातमा की हियरप गुहा मे िसथत आतमा
(परमातमा) अणु से भी छोटा, महाि ् से भी बडा है । परमातमा की उस
मिहमा को ििषकाम वयिक मि तथा इिनदयो की ििमल
ु ता होिे पर िे ख
लेता है और (समसत) िोक से पार हो जाता है ।
सनिभ ु : यह मंत उपििषद-पेिमयो को अतयनत िपय है । यह
शेताशतर उपििषद (३.२०) मे भी है । 'अण ोरण ीय ाि ् महत ो मह ीय ाि ् '
को कणठसथ कर ले।
ििव या मृ त : परमातमा संसार मे छोटे -से-छोटे कण से भी छोटा
तथा बडी-से-बडी वसतु से भी बडा (लघु से भी लघुतर, महाि ् से भी
महिर) है । वह सववुयापक है तथा सवत
ु समाया हुआ है । वह समसत सिा
का आधार है । उसके िबिा िकसी की सिा िहीं है । वह िवश की पतयेक
वसतु मे िवदमाि है ।
इिनदयो, मि और बुिद से युक तथा माया से आवत
ृ होकर मिुषय
का आतमा जीवातमा के रप मे मािो बद हो जाता है , िकनतु वह मुक
होकर, माया के आवरण से मुक होकर, अपिे मूल सवरप मे तो िुद, बुद,
मुक ही होता है । आतमा ही परमातमा है । बदावसथा मे आतमा को
जीवातमा कहा जाता है । यहाँ जीवातमा को जनतु कहा गया है । यदिप वह
परबह पुरषोिम के समीप ही िसथत रहता है , मायामोहवि वह उसे िे खता
िहीं है ।
जाि का उिय होिे पर, जाि के पकाि मे, जीवातमा अपिे िुद
चेतिसवरप को समझकर, परमातमा की मिहमा को जाि लेता है और
सिा के िलए सब
पकार के िोक अथात
ु ् सब पकार के ि ु:ख से मुक हो जाता है तथा
आिनिावसथा मे िसथत हो जाता है ।

१. उपििषिो तथा भगवदीता मे इतिे अिधक सथािो पर वीतिोक (िोकरिहत) होिे तथा
अकयसुख पािे की चचा ु है िक उिकी गणिा करिा किठि है । उपििषिो का उदे शय मिुषय
को भय, िचनता और िोक से मुक करके आिनिावसथा मे पसथािपत करिा है । वीतिो क
(मुणडक उप०, ३.१.२., शेत० उप०, २.१४ तथा ४.७)

मिुषय इिनदयो तथा मि के िवषयािुरक अथवा िवषयभोगरत होिे


पर अथात
ु ् इिनदयो और मि के ििूषत होिे पर, सतय का ििि
ु एवं
अिुभव िहीं कर पाता। इिनदयो तथा मि के िुद होिे पर अथात
ु ्
भोगौशय ु के आकषण
ु से मुक होिे पर, काम, कोध और लोभ के पभाव से
मुक होिे पर, मिुषय परमातमा की मिहमा को जाि सकता है तथा
परमातमा की कृ पा का पात हो जाता है । संसार के सुख कणभंगरु तथा
भटकािेवाले होते है , आधयाितमक सुख सथायी और सचचा होता है ।
आधयाितमक मिुषय अथात
ु ् अनतमुख
ु ी होकर परमातमा की ओर अिभमुख
होिेवाला मिुषय ही आिनि की पािप कर सकता है । परमातमा मिुषय के
हियकेत मे अिधिषत होिे के कारण समीप ही होता है , िकनतु
िवषयािुरागी मिुषय उसे िहीं िे खता तथा परमातमा की मिहमा को िहीं
जािता। परमातमा के सवरप को िे खकर अथात
ु ् समझकर मिुषय
वीतिोक हो जाता है ।

आस ीि ो ि ू रं व जित ि या िो य ाित सवु त :।


कसत ं मि ामि ं िेव ं मिनय ो ज ातुमह ित ु ।। २१।।
िबि ाथ ु : आसी ि: = बैठा हुआ; ि ूरम ् वजित = िरू पहुँच जाता है ;
िय ाि := सोता हुआ; सवु त : या ित = सब ओर चला जाता है ; तम्
मिा मिम ् िे वम ् = उस मि से युक होकर भी अमि (अिुनमि) िे व को;
मिनय : क: जातुम ् अिहु त = मुझसे अितिरक कौि जाििे मे समथु है ?
वच िाम ृ त : परमातमा बैठा हुआ भी िरू पहुँच जाता है , सोता हुआ
भी सब ओर चला जाता है , उस मि से मिािनवत ि होिेवाले िे व को,
मुझसे अितिरक कौि जाििे के योिय है ?
सनिभ ु : परमातमा के जाि का उिम अिधकारी होिा किठि है ।
ििव या मृ त : परमातमा की ििक अिचनतय है । उसका वणि
ु परसपर
िवरोधी गुणो से िकया जाता है । परमातमा ििुवज
ु ेय है । उसे बुिद के तको

से िहीं समझा जा सकता। परमातमा िितानत रहसयमय, ििवय सिा है


---------------------------------------------
१ 'पशयित ' (िे खता है , अथात ु ् साकात ् अिुभव करता है ) का पयोग उपििषिो मे अिेक सथािो
पर है । (मुणडक उप०, ३.२ शेत० उप०, ४.७)
आ पशयित पित पश यित परा पशयित पशयित ,
ििवम नतिर कमाद भूिम ं सवव त द ि ेिव पश या ित।। (अथव०
ु , ४.२०.१)
—हे ििव, तू िजसे िमल जाय, वह सब कुछ िरू-िरू तक िे ख लेता है । यह एक शष
े मंत है ।
अथवव
ु ेि के इस मंत के अिेक अथु िकए गए है ।
२.ईिावासय उपििषद के मंत ४,५ मे भी परमातमा को िवरोधी धमो से युक अथात
ु ् अिचनतय
कहा गया है ।

तथा उसका जाि अतयनत गूढ है । ििससनिे ह, आधयाितमक साधिा करिे


पर अपिे भीतर ही उसकी अिुभूित होती है । उसका अिुभव करिे पर
मिुषय आिनिमय हो जाता है तथा उस अिुभव का वणि
ु िबिो िारा
करिा संभव िहीं है । गनथो से पाप जाि पथ-पििि
ु कर सकता है तथा
अिुभव वयिक को सवयं ही करिा होता है । यातािचत मागि
ु िि
ु करा िे ते
है , िकनतु वे गनतवय तक िहीं पहुँचा सकते। ििशय ही, ऐसे महापुरष, जो
परमातमा का अिुभव कर चुके है , अतयनत सहायक हो सकते है ।
परमातमा मािो बैठा हुआ िरू पहुँच जाता है , सोता हुआ भी सब
ओर चला जाता है । वह आिनि के मि से पूण ु होकर भी मिोनमि िहीं
होता। सनतजि भी अकथय ििकयो से भरपूर होकर िानत और सम ही
रहते है । परसपर िवरोधी धमव
ु ाले परमातमा की मिहमा को जािी महातमा
ही समझ सकते है ।
यमाचाय ु ििरहं कार और ििरिभमाि होकर, सहज भाव से कहते है
िक उिसे िभनि अनय कोई परमातमा के सवरप और उसकी मिहमा को
िहीं जाि सकता, अथात
ु ् परमातमा के सवरप और उसकी मिहमा को िहीं
जाि सकता, अथात
ु ् परमातमा को जाििा और पाप होिा अतयनत किठि
है । परमातमा ििुवज
ु ेय है , िकनतु वह सूकम बुिदवाले जािी पुरषो के िलए
सुिवजेय है ।
अि रीरं ि रीरेष विवस थेष वव िसथत म।्
मह ान तं िवभ ुम ातम ािं मत वा धीर ो ि िो चित।। २२।।
िबि ाथ ु : अिव सथेष ु िरीर ेष ु = िसथर ि रहिेवाले अथात
ु ् िविशर
िरीरो मे; अिर ीरम ् = िरीररिहत; अविसथ तम ् = िसथत; महा नतम ्
िवभ ुम ् = (उस) महाि ् सववुयापक; आतमा िम ् = परमातमा को; मत वा =
मिि करके, जािकर; धीर: = िववेकिील पुरष, बुिदमाि ् पुरष; ि िो चित
= कोई िोक िहीं करता।
वच िाम ृ त : अिसथर िरीरो मे संिसथत (उस) महाि ् सववुयापक
परमातमा को जािकर धीर िोक िहीं करता।
सनिभ ु : वह सववुयापक परमातमा अपिे भीतर ही संिसथत है
ििव या मृ त : परमातमा से संचािलत एवं िियंितत पकृ ित िे मिुषय
को चेतिा-ििक एवं बुिद से संपनि करके उसे अपिे भीतर ही परमातमा
को खोजिे और पािे की कमता पिाि कर िी, िकनतु मिुषय बाह जगत ्
के भौितक आकषण
ु ो से पलुबध होिे के कारण अपिे भीतर झाँकिे और
परमातमा के अिसततव का अिुभव करिे मे पवि
ृ िहीं होता। परमातमा
िवभु अथात
ु ् सववुयापक है तथा िशर िरीरो मे संिसथत रहता है ।
बुिदमाि ् मिुषय उसे सूकम बुिद से जािकर उचचसतरीय आिनिावसथा
को पाप कर लेता है तथा सिा के िलए िोकमुक हो जाता है अथात
ु ् मोह
एवं िोक के पभाव से मुक हो जाता है ।

मिुषय के अिितय एवं िविशर िे ह मे जीवि के सोत एवं आधार


के रप मे घटघटवासी परमातमा सवयं िवराजमाि रहता है तथा उसे पाप
होिा जीवि की शष
े उपलिबध है ।
िा यम ातम ा पव चिेि लभ यो ि मेध या ि बहु िा शु तेि।
यमेव ैष व ृ णुत े त ेि लभ यसतसय ै ष आ तमा िव वृ णुत े ति ंू
सव ाम।् ।२३।।
िबि ाथ ु : अयम ् आतम ा ि पवच िेि ि मे धय ा ि बहु ि ा
शु तेि लभय : = आतमा ि पवचि से, ि मेधा (बुिद) से, ि बहुत शवण
करिे से पाप होता है ; यम ् एष : वृ णुत े तेि एव लभय : = िजसको यह
सवीकार कर लेता है उसके िारा ही पाप होता है ; एष : आतम ा = यह
आतमा; तसय सव ाम ् तिूम ् िव वृ णुत े = उसके िलए सव-सवरप को पकट
कर िे ता है ।
वच िाम ृ त : यह परबह परमातमा ि तो पवचि से, ि बुिद
से, ि बहुत शवण से ही पाप हो सकता है । यह िजसे सवीकार कर लेता
है , उसको ही पाप हो सकता है । यह परमातमा उसे अपिे सवरप को पकट
कर िे ता है ।

-----------------------------------------------
१. तत को मोह : क: िोक एकत वमि ुपशयत :। (ईिावासय उप०, ७) िािुिोिचतुमहु िस
(गीता, २.२५), िै वं िो िचत ुमह ु िस (२.२६), ि तवं िोिच तुम हु िस (२.२७, २.३०) 'िोक' का
वयापक अथु समसत िःुख, भय और िचनता है ।
२. ु ी इस मंत का अनवय और अथु इस पकार करते है —
िङकराचायज
िायमातमा पवचि ेिाि ेकव ेि सवीकरण ेि लभयो जेयो िािप मेधया
गन थाथ ु धारणिकतया। ि बहु िा शु तेि केवल ेि। केि तिहु लभय इचय ुचयत े — यमेव
सवात माि मेष साधको वृ णुत े पाथ ु यते तेि ैवातमिा विरता सवय मातमा लभयो जायत
एव िमतय े तत।् ििषकाम सयातमािम ् एव पाथ ु यत आत मिैवातमा लभयत इतयथ ु :।
कथं लभयत इतय ु चयत े — तसयातमका मसय ैष आत मा िवव ृ णु ते पकािय ित पारमािथ ु कीं
तिूं सवा ं सवकीया ं सवयाथात मयम ् इतयथ ु :। यह आतमा पवचि अथात
ु ् अिेक वेिो को
सवीकार करिे से पाप अथात
ु ् िविित होिे योिय िहीं है , ि मेधा अथात
ु ् गनथाथु-धारण की
ििक से ही जािा जा सकता है और ि केवल बहुत-सा शवण करिे से ही; तो िफर िकस
पकार पाप िकया जा सकता है , इस पर कहते है —यह साधक िजस अपिे आतमा का वरण—
पाथि
ु ा करता है , उस वरण करिेवाले आतमा िारा यह आतमा सवयं ही पाप िकया जाता है ,
अथात
ु ् उससे ही 'यह ऐसा है ' इस पकार जािा जाता है । तातपय ु यह है िक केवल आतमलाभ
के िलए ही पाथि
ु ा करिेवाले ििषकाम पुरष को आतमा के िारा ही आतमा की उपलिबध होती
है । िकस पकार वह उपलबध होता है , इस पर कहते है —उस आतमकामी के पित यह आतमा
अपिे पारमािथक
ु सवरप अथात ृ —पकािित कर िे ता है ।
ु ् अपिे याथातमय को िववत

सनिभ ु : यह मंत कठोपििषद के शष


े मंतो मे पिरगिणत होता है । यह
मुणडक उपििषद (३.२.३) मे भी है । इसे कणठसथ कर लेिा चािहए। इसकी
वयाखया अिेक पकार से की गयी है ।
ििव या मृ त : परमातमा मिुषय के भीतर ही पापय है । बाह साधि
उपयोगी तो होते है , िकनतु वे मिुषय को साधय तक िहीं पहुँचा सकते।
पवचि अथात
ु ् वेिािि का अधययि और िववेचिापूण ु वयाखयाि तथा
चचाु-पिरचचा ु करिा पयाप
ु िहीं होता। बुिद िारा परमातम-ततव को
जाििा संभव िहीं होता, कयोिक परमातमा मात बुिद का िवषय िहीं है ।
बौिदक तकु की एक सीमा होती है तथा परम सूकम ततव का गहण मात
कुिाग बुिद से भी िहीं हो सकता। तकुिील वयिक तकु-िवतकु के जाल
मे फँसकर उलझे रह जाते है और िकसी ििणय
ु एवं ििशय तक िहीं
पहुँच पाते। तीव बुिद होिे का अहं कार सतय की पािप के माग ु मे बाधक
हो जाता है । शत
ु अथात
ु ् िवििा से तथा जािगनथो के शवण से भी
सथायी लाभ िहीं होता।
परमातमा ही िजसे सवीकार कर लेता है , उसे परमातमा की पािप हो
जाती है । वासतव मे परमातमा सवयं ही सवयं को पकट करता है ।
परमातमा का ििि
ु एवं अिुभव परमातमा के पसाि से अथवा उसकी कृ पा
से ही होता है । िकनतु परमातमा िकसी भी उस महातमा के िलए सुलभ

हो जाता है , जो उसका अिधकारी अथवा सतपात हो जाता है । परमातमा को


जाििे के िलए तथा उसकी ििवयािुभूित पाप करिे के िलए उतकट
इचछा, अहं कारिूनयता, िचि की ििमल
ु ता तथा वैराियभाव मिुषय को
भगवतकृ पा का अिधकारी बिा िे ते है ।
सूय ु का पकाि तो हमारे िार तक सवयं ही आता है , िकनतु िार
खोलिे पर ही हम उसका ििि
ु कर सकते है । मि को ििमल
ु करिे पर
अथवा मि के िार खोल िे िे पर परमातमा का ििवय पकाि पकट हो
जाता है , जो मिुषय के हिय की गुहा मे ििगूढ रहता है तथा जीवि का
सोत एवं आधार होता है ।

१. सो जािइ ज े िह िेहु जिाई , जाित त ुम हिह तु महिह होइ जाई।


२. जाि ेि त ु ति जाि ं य ेषा ं िािि तमात मि :।
तेषा मािि तयवञजाि ं पका ियित ततपरम। ् । (गीता, ५.१६)
—अजाि का अनधकार ििवि
ृ होिे पर, जाि सूयु के सदि परमातमा को पकािित कर िे ता
है , परमातमा के सवरप का साकातकार करा िे ता है ।
(अिेक पवचिकिा ु मात मूलगनथो एवं वयाखयागनथो को पढकर, िबिा उनहे आतमसात ् िकए
हुए ही, रटकर पवचि करते है तथा पवचिो को मात लौिकक कामिापूित ु का साधि बिा लेते
है । आधयाितमक ततवो को गहण करके ही अिुभवी मिुषय सहज भाव से साथक
ु एवं सुनिर
पवचि कर सकता है ।)

शष
े पुरष पाथि
ु ा और धयाि के अभयास से मि को ििमल
ु कर
लेते है अथात
ु ् उसे राग, िे ष आिि िवकारो से मुक कर िे ते है तथा
सुरिल
ु भ
ु ििवयािुभूित पाप कर लेते है । हमारे अपिे भीतर ही आिनि का
सोत एवं अकय कोि है तथा वह सबके िलए सिा सुलभ है । मिुषय
अपिे माग ु एवं लकय का ििधारुण एवं वरण करिे मे सवतनत है । ििवय
पकाि की एक झलक पाकर ही मिुषय कृ तकृ तय हो जाता है , उसका
जीवि धनय हो जाता है । ििवयािुभूित होिे पर भय और भम ििवि
ृ हो
जाते है ।
सोदे शय मौिधारण, जप, िचनति और पाथि
ु ा िारा िचि की ििमल
ु ता
होिे पर मिुषय की चेतिा ऊधवम
ु ुखी हो जाती है तथा वह िवश की
िवराट चेतिा मे संिसथत हो जाता है । िबनि ु मे िसनधु की अिुभूित होिे
पर मिुषय को आतयिनतक तिृप हो जाती है तथा उसका जीवि कृ ताथु हो
जाता है ।
िा िव रतो ि ु श िरत ानि ाि ान तो ि ासम ािहत :।
िा िा नतमा िसो व ािप पज ािेि ैि मा पिुय ात ।् । २४।।
िबि ाथ ु : पजा िे ि अिप = सूकम बुिद से भी, आतमजाि से भी;
एि म ् = इसे (परमातमा को); ि ि ु श िरत ात ् अिव रत : आप िुय ात ् = ि
वह मिुषय पाप कर सकता है , जो कुितसत आचरण से (िषुकम ु से)
अिवरल अथात
ु ् ििवि
ृ ि हुआ हो; ि अि ानत : = ि अिानत मिुषय (पाप
कर सकता है ); ि असम ािह त: = ि वह पाप कर सकता है , जो
असमािहत अथात
ु ् एकाग ि हो, असंयत (असंयमी) हो; वा = और; ि
अि ानतम ाि स: = ि अिानत मिवाला ही (उसे पाप कर
सकता है ); आप िुय ात ् = पाप कर सकता है । (पजािेिैिमापिुयात ्—पजाि
से इसे पाप िकया जा सकता है , यह एक अनय अथु है ।)
वच िाम ृ त : इसे (परमातमा को) सूकम बुिद अथवा आतमजाि से
भी ि वह मिुषय पाप कर सकता है , जो िरुाचार से ििवि
ृ ि हुआ हो; ि
अिानत वयिक ही उसे पाप कर सकता है , जो असंयत हो और ि अिानत
मिवाला ही उसे पाप कर सकता है । (एक अनय अथ ु है िक पजाि से ही
परमातमा को पाप कर सकता है ।)
सनिभ ु : परमातमा की पािप के िलए उसका अिधकारी होिा
आवशयक है । िैितकता अधयातम-माग ु का पथम सोपाि है । अिैितक एवं
कुमागग
ु ामी सतपात िहीं होता। यह मंत अतयनत महतवपूणु है । वासतव मे
यह मंत पूवव
ु ती मंत २३ के साथ जुडा हुआ अथवा उसका पूरक है ।
ििव या मृ त :मिुषय िषुकम ु मे पवि
ृ रहकर कभी गहि िािनत का
अिुभव िहीं कर सकता और िजसका मि िानत िहीं है , वह ि सांसािरक
सुख का अिुभव कर सकता है और ि आधयाितमक आिनि का ही।
वासतव मे अिानत रहिेवाला वयिक जीवि मे कोई महतवपूण ु उपलिबध
िहीं कर सकता।
िजस मिुषय का मि भौितक सुखभोग की वासिा तथा सांसािरक
पिाथो की तषृणा से गसत रहता है , िजसका मि राग और िे ष मे फँसा
रहता है और भौितक आकषण
ु ो के बनधि मे रहता है , वह सिा अिानत
ही रहता है । अिािनत के माग ु पर चलकर मिुषय िािनत कैसे पाप कर
सकता है ?
वासतव मे मिुषय के मि और इिनदयो की चंचलता उसे िानत
िहीं रहिे िे ती। िजसका मि िानत और समािहत िहीं होता, वह िसथर
और एकाग भी िहीं हो सकता। ऐसा वयिक सांसािरक सुखभोगो को पाप
करके भी िःुखी रहता है ।
परमातमा मिुषय के भीतर हिय मे ही िवराजमाि रहता है , िकनतु
सिा सुलभ और समीप होिे पर भी वह िलभ
ु और िरू रहता है । मिुषय
समािहत और िानत होकर अपिे भीतर ही उसकी ििवयता का अिुभव
कर सकता है ।
िजस मिुषय का मि भोगासिक के कारण सतय के माग ु को
छोडकर िषुकमो मे पवि
ृ हो जाता है , वह तीथय
ु ाता, वत, िाि, पूजा-पाठ
आिि करके भी अिानत अथवा उिििि ही रहता है ।
िषुकम ु (अिैितक कमु) मिुषय के मि मे अपराध-बोध उतपनि कर
िे ते है तथा मिुषय अपिे भीतर अिानत और ि ु:खी रहिे लगता है । उसे
जीवि भारमय एवं िःुखमय पतीत होिे लगता है । चािरितक गुणो
(सचचाई, ईमाििारी) को छोडिे पर अनय सब उपलिबधयाँ (िवििा, धिाजि
ु ,
सिा और सममाि
के पिो पर आसीि होिा इतयािि) िवषमय अथात
ु ् अिािनतिपय िसद होते
है । चािरितक गुणो (िैितक मूलयो) की कीमत पर महाि ् सफलता अथवा
उपलिबध भी सचचा सुख िहीं िे सकती। रे त की िीवार किािप िसथर िहीं
रहती।
िषुकषो मे पवि
ृ रहिेवाला मिुषय केवल जाि के माधयम से ही
परमातमा को पाप िहीं कर सकता, कयोिक उसका मि अिेक पकार के
िवकारो, िोषो तथा िचनताओं से गसत रहता है और उसमे िािनत एवं
एकागता िहीं होते। वह अनतमुख
ु ी िहीं होता। िषुकम ु मे पवि
ृ , अिानत
मिुषय परमातमा को किािप पाप िहीं कर सकता। अिानत मिुषय

बहजाि का अिधकारी िहीं होता।



मिुषय को अपिे मि को िििा बिलकर, दढता से भी उि सभी
िषुकमो का तयाग कर िे िा चािहए, जो उसे परमातमा से िवमुख करते हो
और घोर अिािनत एवं ि ु:ख उतपनि करते हो। साधारण अिािनत तो
मािव-सवभाव का अंग है तथा केवल योगी ही सिा िानत रहते है , िकनतु
िषुकम ु मे रत मिुषय अतयिधक अिानत अथवा उिििि रहते है । िषुकमु
को तयागकर परमातमा की िरण मे जािे पर मिुषय परम िानत हो
जाता है । अिवचल िांित मे िसथत होकर मिुषय सतय का संििि
ु करता
है ।

आधयाितमक माग ु के पिथक को आचरण मे उतकृ ष रहिा चािहए


तथा िषुकमो से िवरत होकर, सचचे मि से भगवतपािप की िििा मे पवि

होिा चािहए, कयोिक िषुकमो मे रत रहकर वह पखरबुिद होते हुए भी तथा
आतमजाि पाप करके भी परमातमा का अिुभव किािप िहीं कर सकता।
आचारहीि को वेि भी पिवत िहीं कर सकते।

सचचे भाव से भगवाि ् की िरण मे जािे पर घोर पापी भी महातमा


हो जाता है ।

यसय बह च कतं च उभ े भ वत ओ िि ः।
मृ तयु यु सय ोपस े चिं क इत था वेि य त स ः।। २५ । ।
िबि ाथ ु : यसय = िजस (परमेशर) के; बह च कतम ् च उभे =
बह और कत िोिो अथात
ु ् बुिदबल और बाहुबल िोिो; ओि ि: भवत : =
पके हुए चावल अथात
ु ् भोजि हो जाते है ; मृ तयु : यसय उपस े चिम ्
= मतृयु

--------------------------------------
१. ि मा ं ि ु षकृितिो म ू ढा : पपदन ते िराधमा :। (गीता, ७.१५)
२. िापिा नताय िातवयम ् (शेत० उप०, ६.२२)
—अिानत वयिक को जाि िहीं िे िा चािहए।
३.आपूय ुमाणम चलप ितष ं स मुद मापः पिवि िनत यित।्
तितका मा य ं पिव ििनत सव े स िा िनतम ापिोित ि कामकामी।। (गीता, २.७०)
िवहाय कामानय : सवा ुनप ुमा ं शर ित िि ःसप ृ हः।
ििम ु मो ििरहङ कारः स िा िनतम िधगच छित।। (गीता, २.७१)
—कामिा के तयाग से िािनत पाप होती है ।
४.आचारहीि ं ि पु ि िनत वेिा :।
५. अिप च ेत ् सुि ु राचारो भ जते मामिनय भाक्
साध ु रेव स म नतवय : समयक ् वयविस तो िह स :।। (गीता, ९.३०)
सममुख होइ जीव मोिह जब हीं , जन म को िट अघ िास िहं तबही ं।
िजसका उपसेचि (भोजि के साथ खाये जािेवाले वयंजि, चटिी
इतयािि) (भवित — होता है ); स: यत इत था कः वेि = वह परमेशर जहाँ
(या कहाँ), जैसा (या कैसा), कौि जािता है ?
वच िाम ृ त : िजस परमातमा के िलए बुिदबल और बाहुबल िोिो
भोजि हो जाते है , मतृयु िजसका उपसेचि होता है , वह परमातमा जहाँ
कैसा है , कौि जािता है ?
सनिभ ु : परमातमा ििुवज
ु ेय है ।
ििव या मृ त : मिुषय िजि ििकयो को अतयिधक महतव िे ते है , वे
भी कालरप परमेशर के समक तुचछ है । बुिदबल और बाहुबल तथा उिसे
संपनि मिुषय काल के िलए मािो मात भोजि ही है । मतृयु िजसके
समरणमात से मिुषय पकिमपत हो जाते है , काल के िलए मात उपसेचि
है िजसे वयंजि के रप मे भोजि के साथ खाया जाता है । परमातमा

काल का भी काल है , महाकाल है तथा वह सवयं काल से अपभािवत


अकाल पुरष है । समपूण ु वयक जगत ् काल का एक गास ही है । जो
मिुषय बुिदबल अथवा बाहुबल पाकर मिोनमि एवं गिवत
ु हो जाते है , वे
मूढ जाते है । मूढ जि ऐसा वयवहार करते है मािो वे अमर है तथा वे
अनतमुख
ु ी होकर गंभीर िचनति िहीं करते।
िववेकीजि कुितसत आचरण को िवरत होकर तथा सांसािरक
सुखभोगो के आकषण
ु से मुक रहकर परमातमा को पाप हो जाते है तथा
मतृयु को पार कर लेते है ।

-----------------------
१.भूतािि काल ः पच तीित वाता ु — यिधिषर िे यक से कहा, काल पािणयो को खा जाता है ,
यही एक (पमुख) बात है ।
पथम अध याय

तृ तीय वल ली

ऋतं िपब नत ौ सुकृतसय ल ोके ग ुह ां पिवष ौ पर मे प राधे ।


छाय ातप ौ बहिव िो वि िनत पज चाििय ो ये च ितणा िचकेता ः
॥१ ॥
िबि ाथ ु ः सुकृतसय लोके = पुणयो (िुभकमो) के फलसवरप लोक
मे, मािविे ह मे; परमे पर ाधे = परम े (शष
े ) पर ाधे (हिय-पिे ि मे) परबह
के परमोचच ििवास (हिय) मे; गु हां पिव षौ = हियरपी गुहा मे पिवष,
िसथत; ऋतम ् िप बन तौ = सतय का पाि करिेवाले िो; छायात पौ (इव ) =
छाया और आतप (धूप) के सदि; बहिविः = बहवेिा; वििनत = कहते है ;
च ये = और जो; ित णा िच केता ः = तीि बार िािचकेत अििि का चयि
करिेवाले; पज चाििि (वि िनत ) = पजचाििि यज करिेवाले गह
ृ सथ (कहते
है )।
वच िाम ृ त ः सुकृत (िुभकमु) के फल का लोक मे (िे ह के भीतर)
आसवािि करिेवाले, शष
े सथल हियपिे ि, मे हिय की गुहा मे िसथत, ऋत
(सतय का) पाि करिेवाले िो (जीवातमा और परमातमा) छाया और आतप
(पकाि, धूप) के सदि रहते है −बहजािी ऐसा करते है और जो तीि बार
िािचकेत अििि का चयि करते है तथा पजचाििि यज करिेवाले
ु ाणडी) गह
(कमक ृ सथजि भी ऐसा ही कहते है ।
सनिभ ु ः परमातमा और जीवातमा का परसपर िितय संबंध कहा
गया है ।
ििव या मृ त ः परमातमा और जीवातमा ततवतः एक है , िकनतु उिमे
एक िभनिता है । िोिो मािविे ह के भीतर हियपिे ि मे िसथत रहते है
और ऋत का पाि करते है । वासतव मे जीवातमा कमफ
ु ल का भोग करता

है , परमातमा कोई भोग िहीं करता, िकनतु िोिो के समीप रहिे के कारण
छितनयाय से िोिो को कम ु के फल का पाि अथवा भोग करिेवाला कह
ििया गया। एक छतरी के िीचे िस
ू रे वयिक के आ जािे पर उसे भी
छतरीवाला कह ििया जाता है । जीवातमा भोका होता है , िकनतु ििरपािधक
परमातमा अथवा सोपािधक ईशर भी भोका िहीं होता।
लोक अथात
ु ् मिुषय के िे ह मे, हियगुहा मे बुिद का संसथाि है ।
बुिद मे पकािमाि आतमा (परमातमा) का बुिद मे ही पितिबमब जीवातमा
कहलाता है । आतमा िबमब है और ििमल
ु ततवबुिद मे उसका
पितिबमब
——————————————————
१. मुणडक उपििषद (३.१.१) मे इनहे िो पिकयो के रप मे कहा गया है । छानिोिय उप०
(६.३.२) मे िोिो के साथ रहिे का वणि
ु है ।

जीवातमा है । ये िोिो संसारी और असंसारी होिे के कारण छाया और


आतप (धूप, पकाि) के सदि साथ रहते है । आतप पूण ु पकाि है , िकनतु
ितगुणाितमका बुिद मे आकर वह मनि अथवा अलप हो जाता है तथा िुद
िहीं रहता। आतप (पकाि) िवभु (सववुयापक) है , छाया सीिमत है ।
जीवातमा मे आतमा तथा बुिद के गुणो का समनवय है । उसमे संकलप
और अहं कार होते है । बहवेिा सवािुभव के आधार पर ऐसा कहते है तथा

तीि बार िािचकेत अििि का चयि करिेवाले और गाहु पतय इतयािि


पजचाििि की उपासिा करिेवाले गह
ृ सथजि भी ऐसा ही कहते है ।
जीवातमा तथा परमातमा का अंि और अंिी के रप मे िितय संबंध
है । माया के आवरण से मुक होिे पर जीवातमा परमातमा ही होता है ।

यः सेत ु री जाि ािा मक रं ब ह यत पर म।्


अभ यं ितत ीषु तां प ारं िा िचकेत ं ि केम िह ॥२ ॥
िबि ाथ ु ः यः ईजाि ाि ाम ् सेत ुः = जो यज करिेवालो के िलए
सेतु है ; िा िचकेत ं (अििि म् ) = (उस) िािचकेत अििि को; (िािचकेत अििि
जािकाणड के भी अनतगत
ु है । इसका उदे शय जािाििि के पिीप करिा
होता है ।); पारम ् ित ती षु त ाम ् यत ् अभय म ् = पार अथात
ु ् संसार-सागर
को पार करिे की इचछावालो के िलए जो अभयपि है ; (तत ् ) अकरम ्
पर म ् बह = (उस) अिविािी परबह को; िके मिह = हम जाििे एवं पाप
करिे मे समथु हो।
वच िाम ृ त ः यमराज परमातमा से पाथि
ु ा करता है − हे परमातमि ्,
यज करिेवालो के िलए जो सेतु के सदि है , उस िािचकेत अििि के
(तथा) संसार को पार करिे की इचछावालो के िलए जो अभयपि है , उस
अिविािी बह को जाििे मे हम समथु हो।
सनिभ ु ः यमराज उपिे ि करते हुए जािपािप के िलए पाथि
ु ा का
सहारा लेते है ।
ििव या मृ त ः आधयाितमक साधिा मे पाथि
ु ा का अतयिधक महतव
है । पाथि
ु ा मिुषय को ििरहं कार करके िविम बिा िे ती है । िविमता
मिुषय को आधयाितमक उपलिबध का अिधकारी बिा िे ती है । अहं कार
अनधकार की भाँित चेतिा को आवत
ृ एवं िवकृ त कर िे ता है । पाथि
ु ा
परमबह परमातमा को पाप करिे का शष
े साधि है ।

—————————————————
१. सडक लपाह डकारस िनवतो यः (शेत० उप०, ३४, ५.८)
२. जीवो ब हौव िापरः − जीवातमा बह ही है , अनय िहीं है ।

समसत वेिो मे पाथि


ु ा के मंत पकीण ु है । वासतव मे सभी धमो मे
पाथि
ु ा को अितिय महतव ििया गया है । पाथि
ु ा मे िबिो की अपेका
भाव का महतव अिधक होता है । पाथि
ु ा परमातमा के पित भावपूणु
आतमसमपण
ु एवं अनतःकरण की पुकार होती है । पाथि
ु ा एक भावयोग है ,
जो मिुषय को परमातमा के साथ जोड िे ता है । जाि के साथ भिकभाव
होिा अतयनत आवशयक होता है । भिक िुषक जाि को रसमय बिा िे ती
है ।
यमाचायु पाथि
ु ा करते है −हे परमेशर, आप हमे ऐसी सामथयु िीिजए
िक हम उस िािचकेत अििि के रहसय के जािकर उसे संपनि कर सके,
जो यज करिेवालो के िलए िःुख-सागर से पार कर िे िे के िलए सेतु के
सदि है । हम उस अभयपि को पाप कर ले, जो अिविािी अकररप है ।
परबह पुरषोिम संसार-सागर को पार करिे की इचछावालो का एकमात
आशय तथा पापवय है । परमातमा को पाप करके मिुषय िितानत अभय
हो जाता है ।

आतम ािं र िथ िं िव िद ि रीर ं र थमे व त ु।


बु िदं तु स ार िथं िव िद मि ः प गहमे व च ॥३ ॥
इिनदय ािण हय ािाह ु िव ु षय ांसत ेष ु ग ोचरा ि।्
आतम े िनदय मि ोयकं भोकेत याह ु मु ि ीिष णः ॥ ४॥
िबि ाथ ु ः आतम ाि म ् = जीवातमा को; रिथि म ् िव िद = रथ का
सवामी समझो; तु = और; िर ीरम ् एव रथम ् = िरीर को ही रथ
(समझो); तु बु िदम ् सा रिथ म ् िव िद = और बुिद को सारिथ (रथ
चलािेवाला) समझो; च मिः एव पगहम ् = और मि को ही पगह (लगाम)।
मि ीिषण ः इिनद या िण हयाि ् आहु ः = मिीषीजि इिनदयो को
घोडे कहते है ; िवष या ि ् तेष ु गोच राि ् = िवषयो (भोग के पिाथो) को
उिके गोचर (िवचरिे का मागु) (कहते है ); आतम े िनदय मि ोयुक म्
(आतमा इिनदय मिः युकम ् ) = िरीर, इिनदय और मि से युक
(जीवातमा) को; भोक ा इित आहु ः = भोका है , ऐसा कहते है । (आतमा के
कई अथु होते है । यहाँ मंत ३ मे आतमा का अथु जीवातमा तथा मंत ४ मे
िरीर है । मंत ३ मे आतमा को िरीर के संचालक के रप मे जीवातमा
कहा गया है तथा

————————
१. समसत उपििषिो मे तथा भगवद गीता मे अगिणत सथलो पर अिेक पकार से कहा
गया है िक भगवाि ् की पािप से मिुषय िितानत अभय हो जाता है । उि सथलो का
उललेख करिा किठि है । अभय ं िह वै बह भवित (बह
ृ ० उप० ४.४.२५) अभय होिे
पर बह हो जाता है ।

मंत ४ मे जीवातमा के यंत िरीर को आतमा कहकर, िरीर, इिनदय,


मि सिहत जीवातमा की ही चचाु की गयी है ।
वच िाम ृ त ः जीवातमा को रथ का सवामी समझो और िरीर को ही
रथ समझो, बुिद को सारिथ समझो और मि को ही लगाम समझो।
मिीषीजि इिनदयो को घोडे कहते है , िवषयो को उिको गोचर (िवचरण
का मागु) कहते है । िरीर, इिनदय, मि से युक आतमा को (जीवातमा
को) भोका है , ऐसा कहते है ।
सनिभ ु ः मंत ३ और ४ परसपर जुडे हुए है । ये अतयनत महतवपूणु
है । मंत ३ से ९ तक रथ आिि के रपक से आतमा तथा जीवातमा के
सवरप को कहा गया है ।
शेताशर उपििषद (२.९) मे इसी रपक का उपयोग हुआ है ।
ििव या मृ त ः मिीषी जि िे मािव-जीवि को याता की संजा िी है ।
मिुषय एक अलप अविध तक पथ
ृ वी पर रहता है तथा अकसमात ् यहाँ से

सिा के िलए िबिा हो जाता है । िववेकिील पुरष अपिे जीवि को


आिनिमय बिा लेता है तथा िववेकहीि मिुषय इसे िःुखमय कर लेता
है ।
मिुषय के सामिे िो माग ु खुले होते है −एक शय
े मागु, िस
ू रा
पेयमाग।ु मिुषय माग ु का चयि करिे मे सवतंत होता है । मिुषय कमु
करिे मे सवतंत होता है तथा कम ु के फल का भोग करिे मे ईशरीय
िवधाि से िियंितत होिे के कारण परतंत होता है । जो जैसा बोता है ,
वैसा काटता है , यदिप मिुषय को इसका बोध िहीं होता। मूढ मिुषय

भगवाि ् और भािय को वयथु ही िोष िे ता है ।


धीर अथात
ु ् बुिदमाि ् पुरष शय
े और पेय पर िवचार करके, शय

(कलयाण) माग ु को शष
े समझकर उसका गहण कर लेता है तथा मनि
बुिदवाला मिुषय अपाप सांसािरक वसतुओं को पाप करिे मे और पाप
वसतुओं को सुरिकत रखिे मे जुटा रहता है तथा पेय अथात
ु ् भोगो के
माग ु का अिुसरण करता है । शय
े माग ु मिुषय को आिनि मे िसथत कर
िे ता है तथा पेयमागु को भटकाकर िःुख मे डु बो िे ता है ।
मिुषय का िरीर एक रथ के सदि है , िजसका सवामी जीवातमा
—————————————
१. भगवाि ् शीकृ षण अजुि
ु के रथ मे सारिथ बिकर रथ के पाँच घोडो को पगह (लगाम) िारा
चलाते है मािो वे पाँचो इिनदयो को अिुिासि मे रखकर जीवि-रथ को ही चलाते है ।
पलेटो िे भी जीवि-रथ के िलए इस रपक का पयोग िकया है । (Dialogues of Plato) बौद-
सािहतय मे भी रथ एवं चक की पिरकलपिा की गई है ।
२. कमु पधाि िव सव किर राख ा, जो जस करइ सो तस फल चाखा।

होता
है । चेति जीवातमा से िवयोग होिे पर िरीर ििशेष एवं जड हो
जाता है । मतृयु का अथ ु है िे ह से चेतिततव जीवातमा का िवयोग हो
जािा। जीवातमा िरीर मे िसथत रहकर बुिद, मि, इिनदयो तथा पाण के
िारा मिुषय को सचेष एवं सिकय रखता है । बुिद मािो सारिथ है और
मि पगह (लगाम) है । मि संकलप, िवकलप, इचछा करता है तथा बुिद मि
को िियंितत करती है । इिनदयाँ घोडो की भाँित िवषयो की ओर भागती है ।
िवषय इिनदयो के िवचरण का माग ु अथवा केत होते है । जीवातमा िे ह ,
बुिद, मि और इिनदयो के साथ जुडकर सुख-िःुख का भोग करता है ।
जीवातमा भोका होता है । वासतव मे बुिद ही मि और इिनदयो को
िियंितत कर शय
े अथवा पेय के माग ु पर चलाती है । यिि बुिदरपी
सारिथ असावधाि हो जाए तथा मि और इिनदयो को सवतंत छोड िे तो
वे जीवातमा को भटकाकर िःुखी बिा िे ते है ।
वासतव मे िे ह साधि है तथा साधय िहीं है । यह संसार मात
भोगभूिम िहीं है । मिुषय परमातमा का शष
े उपकरण बिकर ििषकाम
कम ु िारा परमातमा को पाप कर सकता है , िकनतु जब जीवातमा सवामी
होकर भी मि और इिनदयो का िास हो जाता है अथवा उिसे बद हो
जाता है , तब वह िःुख से गसत हो जाता है । यह इस शष
े रपक का
तातपयु है ।
यसत विव जा िव ाि ् भवतयय ुकेि म िसा सिा ।
तसय े िनदय ाण यवश या िि ि ु ष ाश ा इव स ार थे ः ॥ ५॥
यसत ु िव जा िव ाि ् भवित युकेि मिस ा सिा।
तसय े िनदय ािण वश यािि सि शा इ व स ारथेः ॥६ ॥
िबि ाथ ु ः यः सिा अिव जाि वा ि ् तु अयुकेि मिस ा भव ित =
जो सिा अिवजािवाि ् (अिववेकी बुिदवाला) और अयुक (अविीभूत, चंचल)
मिसिहत (मिवाला) होता है ; तस य इ िनदय ािण सार थे ः ि ु ष ाश ाः इव =
उसकी इिनदयाँ सारिथ के िष
ु घोडो की भाँित; अव शयािि = वि मे ि
रहिेवाली (हो जाती है ।)
तु यः सिा िवज ािव ाि ् युकेि मिस ा भवित = और जो सिा
िवजािवाि ् (िववेकिील बुिदवाला) युक (विीभूत) मिसिहत (मिवाला) होता
है ; तसय इिनदय ािण सा रथेः सिश ाः इव = उसकी इिनदयाँ सारिथ के
अचछे घोडो की भाँित; वशया िि = वि मे रहिेवाली (होती है )।
वच िाम ृ त ः जो सिा िववेकहीि बुिदवाला और अिियंितत मिवाला
होता है , उसकी इिनदयाँ सारिथ के िष
ु घोडो की भाँित वि मे िहीं रहतीं;
और जो सिा िववेकिील बुिदवाला, विीभूत मिवाला होता है , उसकी
इिनदयाँ सारिथ के अचछे घोडो की भाँित वि मे रहती है ।
सनिभ ु ः िोिो मंत परसपर जुडे है । बुिद और मि महतवपूण ु होते
है ।
ििव या मृ त ः रथ की उपििषिीय पिरकलपिा िारा मिुषय जीवि-
याता को साथक
ु एवं सुखमय बिा सकता है । मािव-िे ह मे जीवातमा, जो
परमातमा का ििवय अंि है तथा ततवतः (िुद रप मे) परमातमा ही है ,
जीवि-रथ के सवामी के रप मे संिसथत है । जीवि-रथ मािो चार चको
(पिहयो) पर चलता है और उिकी गित चतुििुक् िवकास-पिकया की सूचक
होती है । बुिद सारिथ के सदि है तथा वह उिचत-अिुिचत, भले-बुरे का
ििणय
ु करती है । मि पगह (लगाम) के तुलय है , जो इिनदयो को संचालि
करता है । इिनदयाँ अपिे िवषयो (भोिय पिाथो) के माग ु पर चलिे मे
आतुर रहती है । बुिद जीवातमा से पकाि लेकर मि को िियंितत कर
सकती है और मि इिनदयो को िियंतण मे रखकर, उनहे सवछं ि िवचरण
से रोक सकता है तथा उिम लकय की ओर ले जा सकता है । मिुषय
पेयमाग ु से िरू हटकर तथा शय
े माग ु पर चलकर अपिा तथा िस
ू रो का
कलयाण कर सकता है और शय
े माग ु से िरू हटकर तथा पेयमाग ु पर
चलकर अपिा तथा िस
ू रो का अिहत कर लेता है । मािव का िे ह एक
उिम उपकरण है तथा इसके उपयोग अथवा िर
ु पयोग का िाियतव मिुषय
की बुिद पर ही होता है । इसीिलए वेिो और उपििषिो मे परमातमा से
सद बुिद पाप करिे के िलए अगिणत पाथि
ु ाएँ की गयी है ।

यसत विव जा िव ाि ् भवतयम िसक ः सि ाऽि ुिच ः।


ि स तत पिमा पि ोित संस ारं च ािध गच छित ॥७ ॥
यसत ु िव जा िव ाि ् भवित समिस कः सि ासि ु िच ः।
स त ु ततपिम ाप िो ित यसम ाद भ ूयो ि ज ाय ते ॥ ८॥
िव जा िस ार िथ यु सतु म िः पग हव ाि ् िरः ।
सो ऽध वि ः प ारम ाप िो ित तिि षणो ः पर मं प िम ् ॥९ ॥
िबि ाथ ु ः यः तु सि ा अिवज ािव ाि ् अम िस कः अिु िचः
भव ित = जो
—————————————————
१. वैििक धमग
ु नथो की यह िविेषता है िक उिमे अिधकतः सदिद के िलए अगिणत
पाथि
ु ाएँ की गई है । उि पाथि
ु ाओं का संकलि करिा किठि है ।
वेिो के पखयात गायती मंत मे परमातमा से बुिद को पेिरत करिे की पाथि
ु ा की गयी है ।
ॐ अि िे ि य स ु पथा (यजु०, ४०.१६)
ॐ िवशािि िेव सिवत ुि ु िर तािि परास ुव , यद भदं तनि आसुव (यजु०, ३०.३)
ॐ यां मे धां िेवगणाः िपतर शोपासत े। तया मा मद मेधयाऽिि े मेधािवि ं कुर
(यजु०, ३२.१४)

भी सिा िववेकहीि, असंयतमि, अपिवत होता है ; स तत ् पिम ् ि


आप ोित च संसा रम ् अिध गचछित = वह उस परमपि को पाप िहीं
करता तथा संसारचक को ही पाप होता है ।
तु यः सिा िव जाि वा ि ् सम िसक ः िु िचः भव ित = और जो
िववेकिील संयतमि, पिवत होता है ; स तु तत ् पिम ् आपोित = वह तो
उस परमपि को पाप कर लेता है ; यसमा त ् भू यः ि जायते = जहाँ से
(वह) पुिः (लौटकर) उतपनि िहीं होता।
यः िरः = जो मिुषय; िवज ाि सा रिथ ः तु मिः पग हव ाि ् =
िववेकिील बुिदरप सारिथ से युक और मिरप पगहवाला (मिरप पगह
को वि मे रखिेवाला है ); सः अधवि ः पारम ् िवष णो ः तत ् परमं
पिम ् आप ोित = वह माग ु के पार िवषणु के उस (पिसद) परम पि को
पाप कर लेता है ।
वच िाम ृ त ः जो भी मिुषय सिा िववेकहीि, असंयतमि, अपिवत
होता है , वह उस परमपि को पाप िहीं करता तथा संसारचक को ही पाप
होता है । और जो िववेकिील, संयतमि, पिवत होता है , वह उस परमपि को
पाप कर लेता है , जहाँ से लौटकर, वह पुिः उतपनि िहीं होता।
जो मिुषय िववेकिील, बुिदरप सारिथ से युक और मिरप पगह
को वि मे रखिेवाला है , वह संसारमाग ु को पार करके िवषणु (सववुयापक
परबह पुरषोिम) के उस (पिसद) परम पि को पाप कर लेता है ।
सनिभ ु ः मंत ३ से ९ तक सात मंत जीविरथ के संबंध मे है तथा
मंत ७, ८, ९ परसपर जुडे हुए है ।
ििव या मृ त ः परबह परमातमा िे पतयेक मिुषय को उसकी
जीवियाता के िलए एक संपूणु साधिसंपनि िरीररथ पिाि िकया है तथा
वह सवयं पतयेक मिुषय के भीतर जीवातमा के रप मे संिसथत होकर उसे
गितिीलता एवं िकयािीलता की सामथय ु िे िे ता है । जीवातमा के रप मे,
सवयं परमातमा के िवराजमाि होिे के कारण मिुषय का सचेति िरीर
मािो परमातमा का मिनिर ही होता है । िरीर को धम ु और कम ु का
उपकरण मािकर उसको सवसथ एवं सुरिकत रखिा अतयनत आवशयक
होता है ।
चेतिा के िवकासकम मे बुिदसमपनि होकर, मिुषय सिृष का
िसरमौर हो गया। बुिद अथात
ु ् िचनति, मिि, समरण, कलपिा, तकु, ििणय

आिि ििकयो से युक होकर मिुषय िे सभयता और संसकृ ित को जनम िे
ििया तथा समाज को एक वयवसथा भी िे िी। िवकासकम मे चेतिा के
िवकास से ही बुिद का उिय होता है , िकनतु बुिद के समयक् िवकास एवं
सिप
ु योग से चेतिा-ििक का भी अभयुिय होता है ।
मािव-जीवि का पधाि लकय परमततव की िजजासा एवं परमततव
की खोज के िारा उसकी पािप करिा है । िववेकिील पुरष कमक
ु ेत मे
सिकय रहकर भी संसार के पार चले जाते है और सतय का संििि
ु कर
लेते है । मिुषय अपिे भीतर परम िानत रहकर ही सतय का संििि
ु कर
सकता है ।
जगत ्-पपंच मे फँसा हुआ वयिक सिै व अिानत रहता है तथा
अिेक सांसािरक उपलिबधयाँ होिे पर भी वह अिानत, िचनतागसत एवं
िःुखी ही रहता है । भौितक सुखभोग मिुषय को आतयिनतक तिृप एवं
अिवचल िािनत कभी िहीं िे सकते।
जो वयिक िववेकहीि होता है , उसकी बुिद अपिे भीतर ही
िवराजमाि परमातमा के ििवय तेज से पकाि, पेरणा एवं मागि
ु िि
ु ि लेिे
के कारण लकय से भटकती रहती है तथा सिा मोह एवं िोक से गसत
रहती है । बुिद के भटकिे पर उसका मि पर भी िियंतण िहीं रहता तथा
मि चंचल एवं अिसथर हो जाता है । चंचल मि इिनदयो को सवेचछाचारी
होिे से िहीं रोक पाता। इस पकार िववेकहीि बुिदवाले तथा असंयत
मिवाले मिुषय की जीविधारा ही ििूषत हो जाती है तथा वह संसारचक
मे अथात
ु ् राग-िे ष आिि मे फँसकर िविष हो जाता है ।
िववेकिील बुिदवाला मिुषय अपिे भीतर संिसथत परमातमा से
पकाि एवं पेरणा पाकर मि को संयत कर लेता है तथा इिनदयो को
िवषयािुगामी िहीं होिे िे ता। उसका जीवि पिवत हो जाता है तथा वह
संसारचक से मुक होकर परमपि को पाप कर लेता है ।
िववेकिील मिुषय जीविरथ के सारिथरप बुिद िारा मिरप पगह
को वि मे कर लेता है और वह संसार-सागर को पार करके परमातमा के
परमपि को अथात
ु ् परमातमा के सिचचिािनि सवरप को पाप कर लेता
है । उसका जीवि धनय हो जाता है ।
इिनदय ेभयः पर ा ह था ु अ थे भयश परं म िः।
मिससत ु पर ा बु िदब ु देरा तम ा म हा ि ् पर ः ॥१ ०॥
िबि ाथ ु ः इिनदय ेभ यः पर ाः ही अथा ु ः = इिनदयो से अथु
(िबिािि िवषय) अिधक बलवाि ् है ; च अथे भ यः मि ः परम ् = और अथो
से मि अिधक बलवाि ् है ; तु मिसः बुिद ः परा = और मि से भी
अिधक पबल बुिद है ; बुदेः = बुिद से; मह ाि ् आतम ा पर ः = महाि ्
जीवातमा सबसे अिधक बलवाि ् एवं शष
े है ।
वच िाम ृ त ः इिनदयो की अपेका उिके अथ ु (िवषय) अिधक बलवाि ्
है
और अथो की अपेका मि अिधक बलवाि ् है और मि से भी अिधक पबल
बुिद है । बुिद से महाि ् जीवातमा सबसे परे अथवा उतकृ ष है ।

सनिभ ु ः मिुषय के भीतर संिसथत जीवातमा सवोपिर है । (इस मंत


मे ‘महाि’् तथा ‘आतमा’ के अिेक अथु िकए गए है ।)
ििव या मृ त ः मािव-िे ह अपिे मे पूण ु होता है । मिुषय की इिनदयाँ
बलवती होती है , िकनतु उिकी आकषण
ु करिेवाले पिाथ ु उिकी अपेका
अिधक बलवाि ् होते है । इिनदयो तथा उिके िवषयो की अपेका मि
अिधक बलवाि ् और उचचतर होता है । यिि मि दढ हो तो वह इिनदयो
को सवचछनि अथवा उचछृंखल िहीं होिे िे ता। मि इिनदयो को िवषयो
की ओर आकृ ष िहीं होिे िे ता। िकनतु बुिद मि की अपेका अिधक पबल
होती है , कयोिक वह िवचारपूवक
ु ििणय
ु एवं ििशय करती है । बुिद से भी
परे अथात
ु ् अिधक उतकृ ष, बलवाि ् एवं शष
े जीवातमा होता है , जो जीवि-
रथ का सवामी होता है ।
वासतव मे मिुषय का जीवातमा अपिे मूलसवरप मे िुद, बुद, मुक
आतमा (परमातमा) ही है । जीवातमा की चेति सिा ही बुिद को पकािित
करती है और समपूणु िे ह तथा इिनदयो को सचेष एवं सिकय कर िे ती है ।
जीवातमा ही मािव-जीवि का आधार एवं सोत होता है ।
मह तः पर मवय कमवय का त ् पुर षः पर ः।
पुरष ान ि पर ं िक िजच तसा काष ा स ा प रा गितः ॥
११ ॥
िबि ाथ ु ः महत ः परम ् अवयकम ् = महाि ् (जीवातमा) से अिधक
बलवाि ् अवयक होता है ; अव यक ात ् परः पुर षः = अवयक से भी शष

परमपुरष है ; पुरषा त ् परम ् िक िजच त ् ि = परमपुरष से परे अथवा उचच
एवं शष
े कुछ भी िहीं होता। सा क ाषा = वह परमसीमा अथवा अविध है ;
सा प रा ग ित ः = वह परमगित है ।
वच िाम ृ त ः (उस) जीवातमा से अिधक बलवाि ् अवयक अथात
ु ्
परमातमा की माया-ििक होती है । अवयक से भी शष
े परमपुरष परमातमा
होता है । परमपुरष परमातमा से परे अथवा शष
े कुछ भी िहीं होता। वही
परमसीमा है । वही सवोचच, शष
े गित है ।
(इस मंत के भी अिेक अथु िकए गए है ।)
—————————————
१. भगवद गीता मे इस पकार है −
इिनदया िण पर ाणयाह ु िर िनद येभय ः पर ं मिः।
मि ससत ु परा ब ुिदयो ब ुदेः परतसत ु स ः ॥ (गीता, ३.४२)
मंत १० मे ‘आतमा’ का अथु जीवातमा है । (बहसूत, १.४.१−िाङकरभाषय के अिुसार)

सनिभ ु ः परबह पुरषोिम ही सवोचच है । उसे पाप होिा परमपि


की पािप है ।
ििव या मृ त ः मिुषय के िे ह मे संिसथत जीवातमा जीवि का आधार
एवं सोत होता है तथा अपिे िविुद सवरप मे जीवातमा बह ही होता है ।
बह ही सतय है तथा ताितवक दिष से जगत ् िमथया अथात
ु ् िशर है ।

जीवातमा के माया से आवत


ृ रहिे के कारण, भगंवाि ् की अवयक माया-
ििक जीवातमा से भी अिधक बलवती होती हा। िकनतु अवयक माया-ििक
से भी शष
े सवयं परमपुरष परमातमा ही है । परबह परमातमा अथवा
परमपुरष से बढकर अथवा उचचतर कुछ भी िहीं होता। परमातमा ही
सबकी सीमा है तथा वही परमगित है । परमातमा को पाप होिा ही

परमपि है , जो अतयनत िल
ु भ
ु होकर भी बुिद की ििमल
ु ता तथा मि की
सवचछता िारा अपिे भीतर ही सिा सुलभ है ।
उपििषिो की सपष घोषणा है िक परमातमा सवस
ु ुलभ है तथा मि
एवं बुिद की पिवतता िारा सबके िलए वह अपिे भीतर ही पापय है ।
एष सवे षु भूत ेष ु गूढ ोतम ा ि
पका िते।
दश यते त वग यय ा ब ुद या सूकम या सूकमि िि ु िभः ॥१ २॥
िबि ाथ ु ः एषः आतमा = यह आतमा (सबका आतमा परमपुरष);
सवे षु भूत ेष ु गू ढः = सब पािणयो मे (िसथत होकर भी) गूढ (िछपा
हुआ)
—— ——— ——— ——— ——— ——— ——— ——— ——— ——— —
१.बह सतय ं जगिनम थया जीवो बहौव िापरः अथात
ु ् बह सतय है , जीवातमा
परमातमाही है , अनय कुछ िहीं।
२.भगवदीता मे इसे ८.२०, २१.२२ मे सपष िकया है − −
परसत समाि ु भावोऽनयोऽव यकोऽवयकातसिातिः।
यः स सव े षु भ ू तेष ु िशयतस ु ि िविशयित ॥२० ॥
अवयकोऽकर इतय ुकस तमाह ु ः परमा ं गित म।्
यं पापय ि ििवत ु नते तदाम परम ं मम ॥२१ ॥
पुरष ः स परः पाथ ु भक तया लभयसत विनयया।
यसयानत ःस थािि भूतािि येि सव ु िम िं तत म ् ॥२२ ॥
−अवयक अथात
ु ् मूल पकृ ित से भी परे सिाति अवयक परमातमा है , जो िशर पिाथो के
िष होिे पर भी िष िहीं होता तथा िाशत है । वह सिाति अवयक परमातमा अकर अथात
ु ्
कभी करण (िविाि) ि होिेवाला ततव है तथा वही परमगित है , िजसे पाप होिे पर मिुषय
संसार मे िहीं लौटता। वह परमपुरष भिक से सुलभ है ।
यदिप सांखयििि
ु का अपिा सथाि है , तथािप वेिानत सांखय से िभनि है । वेिानत
िे सांखय-ििि
ु के कुछ अंि गहण िकए है , िकनतु वेिानत िे अिै त ततव (अिनतम सतय
केवल बह है ) को पुष िकया है , जब िक सांखय िे पुरष और पकृ ित िो ततवो का पितपािल
िकया। वेिानत िे मूल पकृ ित अथवा अवयक पकृ ित से परे परमअवयक, परमपुरष, परबह
परमातमा को पितिषत िकया है । ‘पुरष’ िवशरप तथा िुद चत
ै नयसवरप, बह है अथवा
सीिमत और असीम िोिो ही है । ‘पुरष एवेिं िवश म’् (मुणडक उप०, २.१.१०), आतमैवेिं
सवम
ु ् (छा० उप०, ७.२५.२)।

है ; ि पकाित े = पतयक िहीं होता; तु सूकमि िि ु िभः = िकनतु सूकम


दिषवाले पुरषो के िारा (ही) ; सूकम या अगयय ा बुद या = सूकम, तीकण
बुिद से; दश यते = िे खा जाता है ।
वच िाम ृ त ः यह आतमा (सबका आतमा, जो परमपुरष कहलाता है )
सब पािणयो मे िछपा हुआ रहता है , पतयक िहीं होता। सूकम दिषवाले
पुरषो के िारा सूकम, तीकण बुिद से (उसे) िे खा जाता है ।
सनिभ ु ः परमातमा पचछनि होिे पर भी हमारे िारा अपिे भीतर
ही िे खा जाता है । यह मंत पखयात है ।
ििव या मृ त ः िवश की परमसिा सूकमाितसूकम है । उसे सथूल दिष
से िे खिा संभव िहीं है । वह अतयनत गूढ है और पािणयो के भीतर रहते
हुए भी पकािित िहीं होता। आधयाितमक साधिा िारा अनतःकरण के

िुद हो जािे पर तथा आनतिरक दिष के सूकम और तीकण हो जािे पर


मिुषय को अपिे भीतर ही उस परम जयोित का संििि
ु हो जाता है । यह
मािव-जीवि की सवोचच एवं शष
े उपलिबध है । परबह का अिसततव है
यदिप उसका संििि
ु होिा किठि है ।
यच छे िाङ िसी प ाजस तदचछ ेजज ाि आ तमिि ।
जा िम ातम िि मह ित िि यच छे िदच छा नत आतम िि ॥१ ३॥
िबि ाथ ु ः पा जः = पकृ ष जािी पुरष, बुिदमाि ् मिुषय; वा क् = वाक् (वाणी
आिि इिनदयो को); मिस ी = मि मे (मििस मे िस को िीघु करिा वैििक
है ।) यचछेत ् = उपसंहार कर िे , ििरद कर िे , संयत कर िे ; तत ् = उस मि
को; जा िे आतम िि = जािसथल एवं पकािमय बुिद मे ; यचछेत ् =
ििरद कर िे , िवलीि कर िे , उपसंहार कर िे ; जाि म ् = जािसवरप बुिद
को; महित आतम िि = महत ् ततव अथात
ु ् समिष बुिद मे बहा
(िहरणयगभु, अपरबह) मे; िि यच छेत ् = ििरद कर िे , िवलीि कर िे ; तत ् =
उस (समिष बुिद) को; िान ते आतमिि = िानत, िििवक
ु ार, िुद, बुद
आतमा मे; यच छेत ् = िवलीि कर िे ।
वच िाम ृ त ः बुिदमीि पुरष वाणी आिि इिनदयो को मि मे ििरद
कर िे , उसे मि का पकािमय बुिद मे उपसंहार कर िे , जािमय बुिद को
समिष बुिद मे ििरद कर िे , उसे (भी) िानत आतमा मे िवलीि कर िे ।

——————————————
१. िाह ं पकाि ः सव ु सय योगमायासमाव ृ तः। (गीता, ७.२५)
अथात
ु ् योगमाया से समावत
ृ , िछपा हुआ, परमातमा सबके पतयक िहीं होता। Robert
Browning िे किवता Paracelsus मे कुछ इसी पकार से कहा है ।

सनिभ ु ः मंत ११ मे िजस परमगित को पाप करिे का िििे ि ििया


गया था, यहाँ उसे पाप करिे की साधिा की चचा ु की गयी है । इस मंत
मे जाि और धयाि का समनवय िकया गया है ।
ििव या मृ त ः भगवाि ् की पािप के िलए सोपािातमक साधिा को
महतवपूण ु कहा गया है । साधक आधयाितमक साधिा करते हुए परमपुरष

को पाप हो जाता है । वह िे हाधयास से (मै िरीर हूँ, मेरा यह िाम और


रप है , इस पकार मे िे ह और िै िहक िाते को ही सब कुछ माििे के भाव
से) मुक होकर ‘अहं बह ािसम’ (मै बह हूँ) की उचचावसथा मे िसथत हो
सकता है ।
सवप
ु थम साधक अपिी सब इिनदयो को मि के अधीि कर िे ता है
और िफर मि को बुिद िारा िियंितत और संयत कर िे ता है । वह बुिद
को परम िुद समिष बुिद मे (िजसे िहरणयगभ ु तथा पथम उतपनि बहा
अथवा अपरबह भी कहा जाता है ) ििमिि कर िे ता है और तििनतर बुिद
की सवचछ और िानत अवसथा (समिष बुिद) को अपिे भीतर िसथत
परमिानत परबह परमातमा मे ििमिि अथवा िवलीि कर िे ता है तथा
उसकी ििवयािुभूित पाप कर लेता है । वासतव मे मि, बुिद और अहं कार
के पार होिे का सिचचिािनिसवरप परमातमा सवयं को पकट कर िे ता है ,
जैसे धीरे -धीरे मेघ का आवरण हटिे पर सूयु सवयं को पतयक कर िे ता है
अथवा सहज ही पकट एवं पतयक हो जाता है ।
उिि षत जागत पाप य वर ािनि बोध त।
कु रसय धारा िि िित ा ि ुरतय या ि ुगव पथसतत कव यो वििनत
॥१ ४॥
िबि ाथ ु ः उििष त = (हे मिुषयो) उठो; जागत = जागो, सचेत हो जाओ;
वर ाि ् पापय = शष
े पुरषो को पाप करके, शष
े पुरषो के पास जाकर;
िि बो धत = जाि पाप करो, परमातमा को जािो; कव यः = ितकालििी,
जािी पुरष; तत ् पथ ः = उस पथ को, ततवजाि के माग ु को; कु रसय
िि िि ता ि ु र तयय ा धार ा (इव ) = छुरे की तीकण, लॉघ
ँ िे मे किठि,धारा
के (के सदि); ि ु गु म ् वि िनत = (इसी कारण इसे)घोर किठि कहते है ।
वच िाम ृ त : हे मिुषयो) उठो, जागो। शष
े (जािी) पुरषो को
पाप

—————————————
१. अधयात मयोग ािधगम ेि िेव ं मतवा (कठ० उप०, १.२.१२)।−िि
ु ु ि ु िे व को िुद बुिदयुक
साधक अधयातमयोग िारा समझता है ।

करके (शष
े पुरषो के पास जाकर) जाि पाप करो। परमजािीपुरष

(ततवजाि के)उस पथ को छुरे की तीकण (लांघिे मे किठि) धारा (के


समाि) िग
ु म
ु कहते है ।
सनिभ ु : यह मंत कठोपििषद के शष
े मंतो मे से एक है । यत तत
इसका पुि: पुि: उदरण ििया जाता है । इस पेरणापि मंत को कणठसथ कर
लेिा चािहए।
ििव या मृ त : गुरिे व यमाचाय ु समसत मिुषयो का उदोधि करते है ।
हे मिुषयो, अजाि के अनधकार मे पडे हुए कब तक ि ु:ख मे करण
कनिि करते रहोगे ? कलेि, भय और िचनता से गसत रहकर कब तक
असहाय होकर िािा पकार के संकटो को भोगते रहोगे ? तुम अमत
ृ पुत
हो। अपिे मूल ििवय सवरप को भूलिे के कारण भटक रहे हो। तुम
सिचचिािनिसवरप परमातमा के अंि हो, सवयं भी आिनिसवरप हो।
समसत कलेि, भय और िचनता को अजाि के कारण ओढे हुए हो।
उठो,जागो, सचेत हो जाओ। कणभर मे ि :ु ख के आवरण को उतार फेको।
यह िमथया है , मात भम है , अयथाथ ु है , कलपिापसूत है । हे मिुषयो, अपिे
ि ु:ख के िलए भगवाि और भािय को तथा अनय जि को िोष िे िे से
कया लाभ होगा ? मिुषय अपिे ि ु:ख के िलए सवयं ही उिरिायी होता है
तथा वह अपिे भािय और भिवषय का ििमाण
ु भी सवयं ही करता है ।
जीवि ही परमातमा की सबसे बडी िे ि है , िकनतु मिुषय अपिे
समय और ििकयो के िर
ु पयोग से उनहे ि केवल िष कर िे ता है , बिलक
उनहे भी ि :ु ख का कारण बिा लेता है ।
मािव-जीवि का लकय कया है और लकय-पािप का पथ कया है ?
लकय को भूलकर मिुषय भटक जाता है तथा िािनत के माग ु को छोडकर
अिािनतकी ओर चल पडता है ।
हे मिुषयो, तुम अमत
ृ पुत हो, सवयं अमत
ृ मय हो। तुम आिनि-पािप
के पूणु अिधकारी हो।
उठो, जागो। उि महापुरषो के पास जाओ, िजनहोिे शष
े पथ
पर
१. सवामी िववेकािनि िे इस मंत के आधार पर ही सनिे ि ििया था-Arise, awake and
stop not till the goal is reached. उनहोिे भगवदीता मे शीकृ षण के िारा अजुि
ु के उदोधि ‘िुदं
हिय िौब ु लयं तयकतवोिि ष परंतप ’ (गीता, २.३) को गीता का पितपाद कहा था। हे अजुि
ु ,
ििकृ ष माििसक िब
ु ल
ु ता को छोडकर उठ खडा हो-यह गीता उदोधि मािवमात के िलए है ।
तस माि ु ििष कौनत ेय युदाय क ृतिि शय : (गीता, २.३७)
िछतव ैि ं स ंिय ं य ोगमा ितषो ििष भारत (गीता, ४.४२)
तस मात ् तवं उ ििष (गीता, ११.३३)

चलकर परमततव को पाप िकया है । उिके पास सचची िजजासा और शदा


लेकर जाओं तथा उिसे मागि


ु िि
ु और पेरणा लेकर लकय की ओर चल
पडो तथा तब तक ि रको, जब तक लकय-पािप ि कर लो।
उस पथ पर चलिा ऐसा ही किठि है , जैसे तलवार की धार पर
चलिा। उसे लांघिा अतयनत किठि है । इसी कारण उस पथ को बुधजि
िग
ु म
ु कहते है ।
वासतव मे उस लकय और पथ को उपिे भीतर ही खोजिा और
पाप करिा है । अनतमुख
ु ी होकर जीवि के आिनिमय सोत की खोज
अपिे भीतर ही करिा चािहए। आिनि की खोज के िलए बिहजग
ु त् मे
भटकिे से समय और ििक का कय ही होगा।
बिहजग
ु त ् मे कम ु है तथा वयवहार है । जो मिुषय मि के िारा
इिनदयो कोवि मे कर लेता है तथा मि को बुिद एवं िववेक से िियंितत
कर लेता है , वह धनय है । वासतव मे , बुिद अपिे भीतर परमातमा के
पकाि से पकािित होकर परमातमा मे ही ििमिि हो जाती है और
ििवयहो जाती है ।
हे मिुषयो, परमिे व से पाथि
ु ा करो िक तुमहारी बुिद कुमाग ु से
हटकर सनमाग ु पर चलती रहे और परमातमा की पािप का उपकरण बि
जाय तथा तुमहारे जीवि मे अकय आिनि की पसथापिा हो जाए। भीतर
पकाि और आिनि की अिुभूित होिे पर, यह िवश परमातमा से पिरपूणु
और आिनिमय िसद हो जाएगा। वासतव मे िवश परमातमा से पिरपूणु
और आिनिपूणु ही है , िकनतु दिषिोष के कारण ि ु:खमय पतीत होता है ।
महापुरषो के पसाि से तथा भगवाि की कृ पा से बुिद पिवत और

पेमपूण ु हो जाती है , दिष िुद हो जाती है और सब कुछ आिनिमय हो


जाता है । उठो, जागो, अिुभवी महापुरषो के पास शदापूवक
ु जाओ और
लकय को पाप कर जीवि को कृ ताथ ु कर लो, कृ तकृ तय हो जाओ। िग
ु म

पथ सुगम हो जाएगा तथा लकय सुलक हो जाएगा।
भगवतपाप महापुरष अपिे अनत:करण मे जागरण की अवसथा मे
ही रहते है । जागरण ही तो जीवि है । जब जागे, तभी सबेरा।

१. तिििद प िणपात ेि पिरपश ेि स ेव या।


उपि ेकय िनत ते जा िं जािििसतवि ििु ि :॥ (गीता, ४.३४) अथात
ु भली पकार
अिभवािि, सेवा और ििषकपट पशो िारा जाि पाप करो। ततवििी उपिे ि करे गे।
२. ियि िोष जा कह ं जब होई , पीत बरि स िस कह ुं क ह सो ई।
जब सब मोहिििा मे सोते है , पजावाि ् उसमे जागता रहता है ।

जागते रहिेवाले महापुरष का ही वेि-ऋचाएं वरण करती है तथा उसका


गाि करती है ।

अि बिमसपि ु मरपमव ययं तथ ाऽरस ं िि तयम गन धव चच य त।्


अि ादिनत ं महत : परं धुव ं िि चाय य तनम ृ तयुम ुख ात ् पमु चयत े
॥१ ५॥
िबि ाथ ु : यत ् =जो ; अि बिम ् अस पि ु म ् , अरपम , अरसम ् च
अगन धवत ् (अिसत) = िबिरिहत, सपिरुिहत, रपरिहत, रसरिहत और
गनधरिहत (है ) ; तथ ा अव ययम ् िि तयम ् अिािि अिनतम ् =तथा
अिविािी, िितय, अिािि, अिनत (है ) ;महत : पर म ् =महितव (समिष बुिद
अथवा अवयक पकृ ित) से भी परे (है ) ; धु वम ् = धुव ततव है ; तत ्
िि चाच य = उस (परमातमा) को जािकर ; मृ तयुम ुख ात ् =मतृयु के मुख से
; पमु चयत े = मुक हो जाता है ।
वच िाम ृ त : जो िबिरिहत, सपिरुिहत, रपरिहत, रसरिहत और
गनधरिहत है तथा अिविािी, िितय, अिािि, अिनत है , (जो) महितव
(समिष बुिद अथवा पकृ ित) से भी परे अथात
ु उचच एवं सूकम है , जो धुव
ततव है , उस परबह को जािकर (मिुषय)मतृयु के मुख से मुकहो जाता है ।
सनिभ ु :पूवव
ु ती मंत १४ मे बह-पािप को िग
ु म
ु कहा है । िग
ु म
ु ता
का कारण बह की सूकमता है । पसतुत मंत मे परमातमा के सूकम सवरप
की िववेचिा है ।

१. या िििा सव ु भूतािा ं तसया ं जाग ितु संय मी।


यसया ं जाग ित भ ू तािि सा िि िा पशयतो म ुि े :॥(गीता, २.६९)
मो ह िि सा सब ु सोमिि हारा , िेखअ सपि अि ेक पकारा।
एिह जग जािम िि जागिह जोग ी, परमारथी पप ंच िवयोगी।
जाििय तबिह ं जीवि जग जागा , जब सब िवषय िव लास िवरागा।
उसे जागा हुआ समझो, जो िवषय-िवलास मे िवरक हो।
सु िखया सब संसार है , खाव ै और सोव ै। ि ु िखया िा स कबीर है जाग ै और
रौव ै॥
(आिनि के अशु बहाता है ।)
िींि ििसािी िीच की , उठो कबी रा जािग।
और रसाय ि छोड कर राम रसायि लािग ॥
२. यो जा गार तम ृ च : कामय नते , यो जा गार तमु सा मािनत गायिनत ।-
ऋिवेि,
५.४४.१४ " िािसत जागतो भयम ् " (बुद)-जागिे वाले को भय िहीं होता।
अब लौ िसािी , अब ि िस ैहौ।
रामकृपा भ वििसा िसरिी , जोग िफ िर ि डस ैहौ (िवियपितका)
हे भगवाि, अब तक तो जीवि का िाि िकया, अब इसका िाि िहीं करं गा।
भगवािकी कृ पा से संसाररपी राित (अजाि की राित) बीत गई है । अब जागिे पर
माया के िबछौिे को िहीं िबछाऊँगा।

ििव या मृ त : िवश की धारक एवं संचालक ििवय सिा अििवच


ु िीय
है । उसे िकसी पिरभाषा अथवा वणि
ु से सीिमत करिा संभव िहीं है ।
वासतव मे वह मिुषय की अलपबुिद से गाह िहीं है तथा उसे िबिो मे
बद िहीं िकया जा सकता। वह इिनदयो का िवषय िहीं है तथा इिनदयां
उसका गहण िहीं कर सकतीं। पांच जािेिनदयो के पांच िवषय है । शोत
का िवषय िबि है , तवक् का िवषय सपि ु है , चकु का िवषय रप है , रसिा
का िवषय रस है तथा घाण का िवषय गनध है । सांखय-ििि
ु के अिुसार
मूल पकृ ित से महितव (बुिदततव) उतपनि होता है तथा महत ् ततव से
अहं कार और अहं कार से मि, पांच जािेिनदय, पांच कमिेनदय और पांच
तनमाता अथवा सूकम महाभूत (िबि, सपिु, रप, रस, गनध) उतपनि होते
है । परमातमा िबिरिहत, सपिरुिहत, रपरिहत, रसरिहत और गनधरिहत है ।
वह अिविािी है तथा िितय ् (सिा रहिेवाला, िाशत), अिािि और अिनत
है । वह महत ् से परे अथवा अिधक सूकम और शष
े है । वह धुव अथात

कूटसथ (िसथर )सत ् ततव है । उस परमातमा को इिनदयो, मि और बुिद से
अगाह, अिविािी, िितय, अिािि, अिनत और धुव जािकर, मिुषयसांसािरक
िवषयो के आकषण
ु एवं अिवदा से मुक हो जाता है । ततवजािी अपिे

भीतर िििवक
ु लप ् अवसथा को पाप करके आतमा (परमातमा) के िििवक
ु लप
सवरप को जाि लेता है , उसकमे िसथत हो जाता है ।
अजािी मिुषय िशरिे ह के िविाि को अपिी मतृयु माि लेता है
तथा जािी पुरष िे हाधयास छोडकर (मै िे ह हूं, यह भाव तथा िे हासिक
छोडकर), िे हातीत (िे ह से परे ) हो जाता है तथा मतृयु के भय से मुक हो
जाता है ।मतृयु का भय िमथया है । मिुषय की ििक का िोषक एवं महाि ्
ितु भय ही है तथा मतृयु का भय तो भयराज है । शष
े पुरष मतृयु का
भय तयागकर शष
े कम ु करते है तथा शष
े आििो के िलए पाणो की
आहुित िे िे ते है । मतृयु के भय को तयागकर, मिुषय सभी भयो से मुक
हो जाता है तथा अजेय हो जाता है । मिुषय तो अमत
ृ पुत है , िकनतु मतृयु
के भय से कायर हो जाता है और शष
े आििो एवं जीवि-मूलयो की
अवहे िा कर िे ता है ।

१.हम ि मर ै , मिरह ै सं सारा , हम कु िम ला िजयावि हार ा -कबीर


बाणभटट िे अपिी जीविगाथा मे मिुषयो को या की आहुित बििे तथा माताओं, बहिो
बेिटयो और उिम चिरतवाले ललिाओं की रका के िलए यातिा सहिे तथा पाणो का बिलिाि
िे िे की पेरणा िी है ।

उठो, जागो। समसत भय तयागकर, अपिे अमत


ृ सवरप के अिुरप
आचरण करिे का संकलप लो। ििषकाम एवं ििभय
ु हो जाओ।

िा िचकेतम ु पा खय ािं म ृ तयुप ोकं स िा तिम।्


उक तवा श ु तव ा च मेध ाव ी बहल ोके म ही यते ॥१ ६॥
िबि ाथ ु : मे धा वी =बुिदमाि ् पुरष ; मृ तयुप ोकम ् =मतृयु के िे वता
से कहे हुए; िा िचकेतम ् सि ात िम ् अपाख या िम ् = ििचकेता के
सिाति उपाखयाि को ;उकतव ा च शु तवा =कहकर और सुिकर ;
बहल ोके म ही यते = बहलोक मे मिहमािनवत होता है ।
वच िाम ृ त :बुिदमाि पुरष मतृयु के िे वता से पोक ििचकेता-संबंधी
उपाखयाि को कहकर और सुिकर बहलोक मे मिहमािनवत होता है ।
सनिभ ु : यह ििचकेता-संबंधी उपाखयाि का माहातमय है ।
ििव या मृ त : िकसी शष
े उपिे ि अथवा उपाखयाि के पशात उसके
माहातमय को उसके पूरक के रप मे कहा जाता है ।
साकात ् मतृयु के िे वता यमराज िे सवयं ििचकेता-संबंधी उपाखयाि
को कहा है ।वासतव मे वह यमराज के रप मे यमाचायु का उपिे ि है ।
मतृयु पर अथात
ु मतृयु के भय पर आतमजाि िारा िवजय पाप
करािेवाला मािो मतृयु का िे वता सवयं यमराज ही यमाचाय ु गुर है ।
िववेकिाियिी गुर मतृयु ही मािो मतृयु के भय से मुिक का उपिे ि िे िे
मे सकम है ।
यह उपिे ि भी िया िहीं है तथा सिाति अथात
ु ् परमपरागत है ।
इसे कहिे और सुििेवाला मिुषय बहलोक मे मिहमािनवत हो जाता है ।
बह सवयं ही बहलोक है । बह मे पितिषत होिा मािो बहलोक मे

मिहमािनवत होिा अथवा गौरव पाप करिा है ।


य इ मं परम ं ग ुह ं श ावयेद बहस ं सिि।
पयत : शादका ले व ा तिा िन तय ाय कल पते।
तिा िन तया य कल पते ॥ १७ ॥
िबि ाथ ु : य: =जो ; पयत := िुद होकर ; इम म ् परम म ् गुहम ्
=इस परमगुह (रहसयमय पसंग) को ; बहस ंस िि =बह-चचाु की सभा मे;
१. तं व ेद ं पुरष ं व ेि यथा मा वो म ृ तयु : पिरवयथा इ ित (पश उप०, ६.६)
-जाििे योिय परमातमा को जाििा चािहए, िजससे हे मिुषयो, तुमहे मतृयु ि ु:खि िे सकेगी।
मतृयु से मत डरो।
भगवदीता मे मतृयु का भय तयाग िे िे का अिेकि: उपिे ि है ।
२.बहै व लोको बह लोक : (िंककराचायु)
बृ हतवात ् बह -बह
ृ त ् होिे से परमातमा बह कहलाता है ।

शाव येत ् =सुिाता है ;वा शादक ाले (शाव येत ् )= अथवा शादकाल मे
सुिाता है ; तत ् आिनत या य कल पते =वह अिनत होिे मे समथ ु होता
है । तत ् आि नतय ाय कल पते =वह अिनत होिे मे समथु होता है ।
वच िाम ृ त :जो मिुषय िुद होकर इस परमगुह पसंग को जािी
जि की सभा मे सुिाता है अथवा शादकाल मे सुिाता है , वह अिनत होिे
मे समथु हो जाता है , वह अिनत होिे मे समथु हो जाता है ।
सनिभ ु : कठोपििषद के पथम अधयाय के अनत मे माहातमय को
पुि: कहा गया है । मंत के अनत मे अिनतम िबिो की पुरिाविृि करिा
अधयाय की समािप का सूचक होता है ।
ििव या मृ त : बहिवदा का उपिे ि अमत
ृ मय होता है तथा इस िवदा
की चचा ु केवल िजजासु एवं शदामय साितवक पुरषो के मधय मे , िकसी
उिम समागम के अवसर पर ही करिी चािहए, बहजाि की चचा ु िुद
होकर ही की जािी चािहए। अिुद होकर अथवा अिुदता के वातावरण मे
इसकी चचाु करिा िििषद है ।
यम- ििचकेता उपाखयाि को कहिा एक पुणयकम ु है । पिवत
शादकाल मे इसके कथि एवं शवण का िविेष महतव होता है । इसके
कहिे का तो अिनत फल होता ही है , इसका कहिेवाला सवयं भी एतद
िारा अिनत को पाप हो जाता है अथात
ु अमर हो जाता है ।
यह अमत
ृ मय उपाखयाि परमगह
ृ (गोपिीय)है तथा केवल उिम अिधकारी
अथात
ु सतपात को ही इसका शवण करािा चािहए। अििधकारी वयिक

अथ ु का अिथ ु कर िे ते है तथा उिम िवदा को लांिछत एवं िििनित कर


िे ते है । अिधकारी पुरष ही उिम उपिे ि को गहण करते है ।

१. गुह ं (कठोप०, २.२.६)


शु तं म े गोपाय (तै० उप०, १.४)
गुह , गुहतम (गीता, ९.१,१५.२०,१८.६३,६४,६८,७५)
२. िवदा ह वै बाह णमाजगाम गोपा य मा िेव िधष ेऽ हम िसम । असूयकायाि ृ जवेऽयताय
ि मा बूय ा: वीय ु वती त था सयाम। ् (ििरक, २.१.४)
-िवदा िे पुकारकर कहा-अिािधकारी पुरष को मुझे मत िे िे िा, िजससे मै ििकिाली बिी रहूँ।
अिधकारी पुरष -गीता (१८.६७), मुणडक उप० (१.२.१२, ३.२.१०) इतयािि।
िा नतो िा नत उपरतिसत ित कु : समािह तो भ ू तवाऽऽतम नयेवातमाि ं पशयित
(सुबाल उप० , ९.१४)
अिधकारी तु ििता नतिि मु ल सवानत : साधि चपुषयसमप नि : पमा ता -वेिानतसार
िितीय अ धयाय

पथम वलली
पर ािञच खािि वयत ृ णत ् सवयंभ ूसतसम ात पर ाड पशयित
िा नतर ातम ि।्
किश दा र: पतय गा तमा िमै किा वृ िच कु रम ृ तत विम चछि ् ॥
१॥
िबि ाथ ु : सवयंभ ू : =सवयं पकट होिवाले परमेशर ; खािि
=समसत िारा को, इिनदयो को, (ख-िछद अथात
ु उिसे उपलिकत इिनदयां);
पर ािञच = बाहर जािेवाले, बिहमुख
ु ी ; तसमा त ् =इसीिलए ;(मिुषय :
पर ाडपश यित = (मिुषय) बाहर िे खता है ; अनतर ातम ि ् ि = अनतरातमा
को िहीं (िे खता) ; अम ृ ततवम ् इचछि ् किश त ् धीर: =अमत
ृ तव
(अमरपि) की इचछा करता हुआ कोई धीर (बुिदमाि ् पुरष); आवृ िच कु : =
अपिे चकु आिि इिनदयो को बाह िवषयो से लौटाकर, रोककर ;
पत यग ातम ा = पतयग ् (समपूण ु िवषयो को जाििेवाला) आतमा ;
पत यग ातम ाि म ् ऐकत ् = अनत:सथ आतमा को िे ख पाता है ।
वच िाम ृ त : सवयं पकट होिेवाले परमेशर िे समसत इिनदयो को
बाहर (िवषयो की ओर) जािेवाली बिाया है । इसीिलए (मिुषय) बाहर की
ओर िे खता है , अनतरातमा को िहीं िे खता। अमत
ृ तव की इचछा करिेवाला
कोई एक धीर अपिे चकु आिि इिनदयो को बाह िवषयो से लौटाकर
अनत:सथ आतमा को िे ख पाता है ।
सनिभ ु : यह कठोपििषद का सवािुधक पिसद मंत है ।
ििव या मृ त : मिुषय मूलत: ििवय है तथा उसका जीवातमा
आिनिसवरप परमातमा का अंि है । अंिी और अंि एक ही होते है , जैसे
जल और जलकण अथवा िसनधु और िबनि।ु परमातमा मिुषय के भीतर
ही हियकेत मे सूकम रप से िवराजमाि है । वही जीवि का सोत एवं
आधार है । मिुषय आिनिमय होिे का पूण ु अिधकारी है । िकनत ् वळ
डसकी अवहे लिा करके संसारचक मे फंसा रहता है तथा िख
ु ी रहता है ।
मिुषय की जािेिनदयां िे ह के ऐसे िछद अथवा िार है , जो बाहर
की ओर िे खते है । जािेिनदयां संसार के भोगपिाथो अथवा अपिे िवषयो

की ओर िौडती है तथा वे मि को भी बरबस उधर ही ले जाती है ।


िववेकिील मिुषय को बुिद अपिे भीतर ही संिसथत परमातमा से पकाि
एवं मागि
ु िि
ु लेकर मि को ििगह
ृ ीत कर लेती है और मि इिनदयो को
१. ‘इिनदय िार झर ोखा िाि ा’

वि मे कर लेता है ।

धीर पुरष अमत


ृ तव अथात
ु ििवय आिनि की इचछा से पेिरत होकर
जािेिनदयो को िवषयो से लौटाकर अथवा उनहे रोककर अपिे पतयग
आतमा को अथात
ु अपिे अनत:सथ आतमा को िे ख पाता है और
आिनिमिि हो जाता है । वह पेयमाग ु को छोडकर शय
े माग ु का अिुसरण
करता है । वह बुिद िारा भले और बुरे, उिचत और अिुिचत तथा िितय
और अिितय पर िवचार करता है तथा िववेक िारा ििणय
ु करके
कलयाणपि मागु का आशय ले लेता है तथा आिनि पाप कर लेता है ।
पर ाच: काम ाि िु यिनत ब ाल ासत े मृ तय ोय ु िनत िव तस य प ािम।्
अथ धीर ा अ मृ ततव ं िव िितव ा ध ुवम धुव ेिषव ह ि पा थु यनत े ।।
२।।
िबि ाथ ु : बाल ा: मूखज
ु ि; पराच : काम ाि ् अिुय िनत = बाह
भोगपिाथो का अिुसरण करते है ; ते =वे ; िव ततस य मृ तय ो: पा िम ्
यिनत = सवत
ु िवसतत
ृ मतृयु (िविाि) के बनधि को पाप हो जाते है ,
बनधि मे पडृ जाते है ; अथ =तथा, िकनतु ; धीरा: = िववेकिील पुरष;
धु वम ् अमृ त तवम ् िव िितव ा = धुव (िितय, िाशत) अमत
ृ तव (अमरपि,
आिनिपूणत
ु ा) को जािकर ; इह अधुव ेष ु ि पाथु य नते = यहां (इस
संसार मे) अिितय भोगो मे से (िकसी भोग की भी) पाथि
ु ा अथवा कामिा
िहीं करते।
वच िाम ृ त : अिववेकीजि बाह भोगो का अिुसरण करते है । वे
सवत
ु िवसतीण ु मतृयु के बनधि मे पड जाते है , िकनतु धीर पुरष धुव
अमत
ृ पि को जािकर इस जगत ् मे अधुव (अिितय, िशर) भोगो मेसे
िकसी को भी (भोग की) कामिा िहीं करते।
सनिभ ु : धीर पुरष परमातमा को जािकर भोगो मे िलप िहीं होते।
यह मंत पथम मंत का पूरक है ।
ििव या मृ त : अिववेकी मिुषय बिहमुख
ु इिनदयो एवं मि के विीभूत
रहकर बिहजग
ु त ् के भोगो की पािप मे ही पयतिील रहते है तथा वे राग-
िे ष से उतपनि िचनता और भय से गसत रहकर सिा अिानत एवं िख
ु ी
रहते है वे मािो सवत
ु िवसतीणु मतृयु के बनधि मे पड जाते है ।
िववेकी धीर पुरष अनतमुख
ु होकर तथा अपिे भीतर संिसथत ििवय
सिा को जािकर शष
े अमत
ृ पि की ही कामिा करते है वे िशर पिाथो
की ििससारता को समझकर उिके आकषण
ु मे िहीं फंसते।
धीर पुरष उचचतर जीवि की ओर अगसर रहिे मे अपिी कृ ताथत
ु ा
का अिुभव करते है तथा अलपबुिद मिुषय इिनदयो के िवषयो
का
1. हो बुिद जौ परम सयािी , ित नह ति िचतव ि अििह त जािी।

अिुसरण करते रहिे मे ििक का कय कर िे ते है और उचचतर जीवि के


आिनि से वंिचत रह जाते है ।
िववेकिील पुरष बाह जगत ् के िमथया आकषण
ु ो से पलुबध िहीं
होता तथा उसकी दिष लकय पर िसथर रहती है । वह भोगििी को
कुिलतापूवक
ु पार कर लेता है तथा उसमे ििमिि िहीं हो जाता। मात
िै िहक भोगो मे िलप रहिा बुिद िूनय पिु का लकण होता है ।
सूकमबुिदसमपनि पुरष िचनतििील होता है । वह भोगो के मधय मे रहकर
भी उिमे िलप िहीं होता तथा ििै: ििै: भोगविृि से ििवि
ृ होकर जीवि
के उचचतर सतरो की ओर बढता ही रहता है । वह अपिे भीतर ििवयभाव
को पाप करके कृ ताथ ु हो जाता है । लकय पर दिष िसथर रखिेवाला
मिुषय कभी भटकता िहीं है ।
ये ि रप ं रस ं ग नधं ि बिा नसपि ाव श म ै थुि ाि ।्
एतेि ैव िव जाि ाित िक मत प िर ििष यते।। एतद वै तत।् ।३।।
िबि ाथ ु :ये ि = िजससे ; िबि ाि ् सप िाु ि ् रपम ् रस म ् गन धम्
च मै थु िा ि ् =िबिो , सपिो, रप , रस, गनध और सी-पसंग को अथात

इिके सुखो को ;िव जाि ाित = जािता है , अिुभव करता है ; एतेि एव =
इसी से (इसी के पताप से) ही (जािता है ) ; अत िकम पिर िि षयत े =
कौि सा ऐसा पिाथ ु जो यहां (इस जगत मे) अवििष रह जाता है ।(िजसे
आतमा से िहीं जािा जा सकता है ) , (अथवा, आतमा को जािे पर कया
जाििा िेष रह जाता है ?) एतद व ै तत ् = यही तो वह है ।
वच िाम ृ त : (मिुषय) िजस (आतमा) से िबि, सपिु, रस, गनध और
सी-पसंग (के सुख को) जािता है , (वह) इसी (आतमा) से ही तो जािता है ।
इस जगत ् मे कौि सा पिाथ ु िेष रह जाता है (िजसे आतमा िहीं जािता
?) यही तो वह है (िजसे तुमिे पूछा है )।

सनिभ ु : इस मंत मे तथा आगामी मंतो मे ‘एतद वै तत’् कहा


गया है । इिमे परमातमा के अिेक वणि
ु है । ये सब मंत परसपर जुडे हुए
है । वासतव मे अधयाय २ की संपूण ु पथम वलली एक ही सूत मे गिनथत
है ।
ििव या मृ त : मिुषय के भीतर संिसथत आतमा (िजसे समीपता के
कारण और भीतर होिे के कारण पतयगातमा भी कहते है ) परमातमा का
१. ‘िक मत पिरििषय ते’ का अथ ु है - परमातमा को जाििे पर जगत ् मे कया िेष रहा जाता
है , अथात
ु जगत ् के अिधषाि परमातमा को जाििे पर कुछ जाििा िेष िहीं रहता। एत द
जेय ं िितयम ेवातमस ं सथं िात : परं वेिि तवय ं िह िक िञचत ् (शेत० उप०, १.१२) अथात
ु यह
परमातमा ही एक जेय है , जो हमारे भीतर संिसथत है । इससे बढकर जाििे योिय ततव कुछ
भी िहीं है -ऐसा अिेक उपििषिो मे कहा गया है ।
स वा अयमात मा बह (ब०ृ उप०, ४.४.५)

ही अंि है तथा अंिी और अंिु के िसनधु और िबनि ु के सदि एक होिे


के कारण, वह सवयं परमातमा ही है । उसके िे ह मे िवराजमाि होिे पर
िे ह, इिनदयाँ, मि और बुिद सिकय होते है तथा उसके ििगत
ु होिे पर िे ह
जड एवं िििषकय हो जाता है । मिुषय आतमा के िे ह मे संिसथत होिे के
कारण, इिनदयो के िवषय-गहण िारा िबि सुिता है , सपि ु का अिुभव
करता है , रप को िे खता है , रस का और गनध का अिुभव करता है ।
मिुषय आतमा के अिसततव के कारण जािेिनदयो और कमिेनदयो के सुख
को जािता है । इस आतमा से जगत ् मे कौि से पिाथ ु को जािा िहीं जा
सकता ? सभी कुछ आतमा से ही जािा जा सकता है । (अथवा परमातमा
को जाि लेिे पर जगत ् मे कया अनय जाििा िेष रह जाता है , कयोिक
वह जगत ् का अिधषाि है ?)
यमाचाय ु ििचकेता से कहते है —यही वह आतमा है , िजसे तुम
जाििा चाहते हो। सवप
ु थम जािेिनदयो की ििक के सोत के रप मे
समझो।
सवप िा नतं ज ागिरत ान तं च ोभौ ये िा िुप शयित।
मह ान तं िवभ ुम ातम ािं मत वा धीर ो ि िो चित।। ४।।
िबि ाथ ु : सवपि ान तम ् = सवपि के मधय मे (दशयो को); च =
और; जागिर ता नतम ् = जागत ्-अवसथा मे (दशयो को); (वैििक सािहतय मे
'अनत' का अथ ु अिनतम छोर िहीं, अवसथा है । बह
ृ ि० उप० मे भी
सवपिानत का यही अथ ु है )। उभौ = िोिो (िोिो के दशयो को); ये ि =
िजससे; अिुप शय ित = पुिः पुिः िे खता है ; महा नतम िवभ ुम ् आतमा िम ्
मतव ा = महाि ् सववुयापक आतमा को जािकर; िवभु एकिे िीय िहीं,
सववुयापी होता है , िे ि और काल से पिरचछनि िहीं होता है । धीर: ि
िो चित = धीर (बुिदमाि ् पुरष) िोक (भय, िचनता, कलेि) िहीं करता है ।
वच िाम ृ त : मिुषय सवपि के मधय मे, जागत-अवसथा मे, इि िोिो
अवसथाओं मे िजसके पताप से (दशयो को) िे खता है , (उस) महाि ् सववुयापी
आतमा (परमातमा) को जािकर धीर (बुिदमाि ् पुरष) िोक (िचनता आिि)
िहीं करता।
सनिभ ु : परमातमा को जािकर मिुषय िोक अथात
ु ् िःुख से मुक
हो जाता है ।
ििव या मृ त : परमातमा की सिा का अिुभव मिुषय को सवपि
और जागत -् अवसथा मे दशयो पर गहि िवचार के िारा हो सकता है ।
सुषुिप मे
तो जीवातमा

तथा मि एवं बुिद की लयावसथा होती है । सवपि और जागत-अवसथा मे


मिुषय अपिे भीतर संिसथत सचेति आतमा के कारण ही अिेक दशयो


को िे खता है । वासतव मे मिुषय के भीतर सािकरप मे िवराजमाि आतमा
सवश
ु ष
े एवं सववुयापी परमातमा ही है । उसे जािकर धीर (बुिदमाि ् पुरष,
जो आतमा पर दिष िसथर रखता है तथा जगतपपञच मे िहीं फँसता)
संसार के सुख और िःुख से मुक हो जाता है अथात
ु ् उिसे ऊपर उठ
जाता है । वह ििरनतर आिनिावसथा मे रहता है । वह िकसी पकार का
िोक (अथात
ु ् िःुख, भय और िचनता) िहीं करता।

बनधिमुक पुरष भोगासक िहीं होता तथा संसार के भौितक पपंच


मे िलप िहीं होता। वह अनतमुख
ु ी रहकर लकयसवरप आतमा पर दिष
िसथर रखता है तथा ििषकामभाव से अनतःपेरणा के अिुसार कम ु करता
है । वासतव मे कततुृव के अहं कार (मै किा ु हूँ, अहं कार) से मुक रहिेवाला
परम बुिदमाि ् पुरष कम ु करके भी ऐसा कुछ िहीं करता। उसका कमु
कमाभ
ु ास होता है , कम ु िहीं होता। अतएव वह पुणय-पाप, सुख-िःुख, हषु-
िोक के िनि से ऊपर उठ जाता है । यह ििवय जीवि होता है ।

य इ मं मध विं व ेि आत माि ं ज ीवम िनत कात।्


ईि ाि भूत भवयस य ि तत ो िव जु गुप सते।। एतद वै तत।् ।
५।।
िबि ाथ ु : य: = जो; मधविम ् = कमफ
ु लभोका; मधु अि म ् =
अमत
ृ भोगी का भोका); जीव म् = पाणािि के धारियता

(आिनि
(परमातमा) को; अिनत का त ् = उसके समीप मे रहिे से, समीप से, भली
पकार; भू तभवयस य ईि ािम ् = भूत, भिवषयत ् (और वतम
ु ाि) के िासक
के रप मे; इमम ् आत मा िम ् = इस परमातमा को; वेि = जािता है ; तत ः
ि िव जु गु पसत े = िफर, ऐसा जाििे के बाि भय, घण
ृ ा िहीं करता; एतद
वै त त ् = ििशय ही यह आतमततव है ।

---------------------------------------------
१. माणडू कय आिि अिेक उपििषिो मे जागत, सवपि और सुषुिप की िविि िववेचिा की गई
है ।
२. समसत उपििषिो तथा भगवदीता मे अिेक सथलो पर धीर के िलए 'वीतिोक ', 'ि
िो चित ', 'मा िुच :' आिि कहा गया है । उिकी गणिा करिा किठि है । 'धीर' िबि का
उपयोग भी अगिणत सथािो पर िकया गया है ।
३. तर ित िोकं आत मिव त ् (छा० उप०, ७.१.३)—आतमा को जाििेवाला िोक को पार कर
लेता है । अनय उपििषिो से भी इसे अिेक पकार से कहा गया है । केि उपििषद (१.२) मे भी
इसी भाव की िववेचिा है ।
४.'जीव' यहाँ जीवातमा का सूचक िहीं है , परमातमा का ही सूचक है , कयोिक परमातमा ही भूत,
भिवषय का िासक होता है । यहाँ पकरण भी आतमा (परमातमा) का ही है । (बहसूत, १.३.२४ का
िाङकरभाषय)

वच िाम ृ त : जो मिुषय मधवि ु लभोका, आिनिभोका,


(कमफ
अमत
ृ भोगी), पाणािि के धारियता जीव (जीवि के सोत परमातमा) को
समीप से (भली पकार) भूत, भिवषयत ् के िासि करिेवाले को, इस
परमातमा को, जाि लेता है , वह ऐसा जाििे के पशात ् भय, घण
ृ ा िहीं
करता। ििशय ही यही तो वह आतमततव है (िजसे तुम जाििा चाहते
हो)।
सनिभ ु : इस िर
ु ह मंत के अिेक अथ ु िकए गए है । इसमे आतमा
की चचाु कई पकार से की गयी है ।
ििव या मृ त : समपूण ु िवश को संचालक एवं धारक सिा एक
परमातमा ही है । मिुषय के िे ह के भीतर ििमल
ु बुिद मे उसके
पितिबिमबत रप को जीवातमा कहते है । परमातमा सवयं ही अमत
ृ भोगी
तथा कमफ
ु लिाता है तथा जीवातमा के रप मे वही कमफ
ु लभोगी है ।
अपिे मूल सवरप मे जीवातमा भी िुद, बुद परमातमा ही है ।
परमातमा मायोपािधसिहत ईशर के रप मे भूत, भिवषयत ् और
वतम
ु ाि का िासि करिेवाला है । जो अपिे भीतर ही अपिे समीप
रहिेवाले आतमा को भली पकार जाि लेता है , उसे भय िहीं रहता। अपिे
आतमा को भली पकार से जाििे पर मिुषय िकसी से भय िहीं मािता।
आतमा की सिा बुिद और मि के माधयम से िे ह और इिनदयो को सचेष
कर िे ती है । आतमा अपिे भीतर िसथत है और सिनिकट है ।
आतमा अमत
ृ भोगी है , जीवि का धारक है , सिा ही सिनिकट है और
भूत एवं भिवषयत ् का सवामी है तथा उसे जाििेवाला ि घण
ृ ा करता है
और ि भय मािता है ।
यही तो वह आतमा है , िजसे ििचकेता जाििा चाहता है ।
य: पू वव तप सो जात मद य: पूव ु म जा यत।
गु हां पिव शय ितष नतं यो भूत े िभवय ु पश यत।। एतद वै
तत।् । ६ ।।
िबि ाथ ु : य: = जो मिुषय; अदय: पू वु म ् अजाय त = (उसे) जो जल
से पूव ु पकट हुआ था; य: तपस : पू वु म ् जातम ् = जो तप से पूव ु पकट
हुआ था; गुह ाम ् पिव शय = हियरप गुहा मे पवेि करके; भूत े िभ : (सह )
ित षन तम ् = भूतो के साथ िसथत; वयप शय त = िे खता है ; एतद वै तत ्
= यह ही वह आतमा है ।
वच िाम ृ त : जो मिुषय सवप
ु थम तप से उतपनि िहरणयगभु
(बहा, समिष बुिद) की, जो िक जल आिि (भूतो) से पूवु उतपनि हुआ, भूतो
के सिहत हियरप गुहा मे संिसथत िे खता है , वही उसे िे खता है । यही तो
आतमा है ।

सनिभ ु : आतमा के यत तत को भी जािी पुरषो िारा िविभनि


वणि
ु हुए है , उि अिेक वणि
ु ो को इि मंतो मे कहा गया है िक यही
आतमा है । इस मंत के अनवय और अथु अिेक पकार से िकए गए है ।
ििव या मृ त : यमाचाय ु ििचकेता से कह रहे है िक जािी पुरषो िे
एक ही आतमा को अिेक पकार से समझाया है तथा उसे भानत िहीं
होिा चािहए, कयोिक वे एक ही आतमा के अिेक वणि
ु है । जो
िववेकिील पुरष है वह जािात है िक हियगुहा मे संिसथत आतमा एक ही
है , यदिप उसे समझािे के िलए वणि
ु है । अपिे तप अथात
ु ् संकलप से
सिृष के पारं भ मे परमातमा, जल आिि महाभूतो से भी पूव ु ही, िहरणयगभु
बहा के रप मे पकट हुआ, िजससे सिृष का उदव हुआ है । वह परमातमा
जो अपिे संकलप से िहरणयगभ ु के रप मे, पञचमहाभूतो से भी पूव,ु पकट
हुआ, पािणयो के हियरप गुहा मे इिनदय आिि भूतो (अनतःकरण) सिहत
पिवष हो गया। मि, बुिद, इिनदयाँ भी भूतो से ही बिी है ।

जो मिुषय अपिे आतमा को इस पकार से हिय-गुहा मे पिवष


जािता है , वही वासतव मे ठीक जािता है । सबके हिय मे िवराजमाि,
सबका अनतयाम
ु ी परमातमा एक ही है । यह अनतःपिवष आतमा ही तो है ,
िजसे ििचकेता जाििा चाहता है ।
या प ाणेि स ंभवत यिि िति ेव ता मयी ।
गु हां पिव शय ितष नती ं या भूत ेिभ वय ु जा यत।। एतद वै तत।् ।
७।।
िबि ाथ ु : या िेवत ाम यी अिि ित : (अि िा त ् अिि ित :) पाणेि
संभव ित = जो िे वतामयी अििित (खािेवाली ििक) पाणो के साथ उतपनि
होती है ; या भूित िभ : वय जाय त = जो पािणयो के सिहत उतपनि हुई है ;
गु हा म ् पिवश य ितष नत ीम ् = हियरपी गुहा मे पिवष होकर संिसथत को
(जो जािी जािता है , वही यथाथ ु जािता है ); एतद वै तत ् = यह ही वह
है (िजसे तुम जाििा चाहते हो)।
वच िाम ृ त : जो सवि
ु े वतामयी अििितिे वी पाणो के साथ उतपनि
होती है , जो पािणयो के सिहत उतपनि हुई, जो हियरपी गुहा मे पिवष
होकर िसथत रहती है , (उसे जो जािी पुरष िे खता है , वही यथाथ ु िे खता
है )। यह ही वह है (िजसे तुम जाििा चाहते हो)।
सनिभ ु : यहाँ अनय पकार से आतमततव का वणि
ु िकया जा रहा
है ।
----------------------------------------
१. आतमा के पिवष होिे के संबंध मे उपििषिो मे अिेक मंत है ।

इस मंत के अिेक अथ ु िकए गए है । 'अििित' की वयाखया अिेक


पकार से की गई है ।
ििव या मृ त : यमाचाय ु ििचकेता को पचिलत धारणाओं की
पुिवयाख
ु या करते हुए समझाते है िक अिेक पकार से विणत
ु सभी
ििकयाँ उसी एक परम सिा की दोतक है । अििित िे वताओं की माता
अथात
ु ् एक ििवय ििक के रप मे विणत
ु है । उसे आिितयो की माता

अथात
ु ् ििकसवरपा भी कहा गया है ।
सवि
ु े वसवरपा अथात
ु ् ििवय ििक पाणो से पकट होती है अथात
ु ्
िहरणयगभु से उतपनि होती है । िहरणयगभ ु (बहा) परमातमा की पथम सिृष
है , िजसे जीवातमाओं की समिष भी कहा गया है । अििित बुिद मे पिवष
होती है ।
मिुषय की जागत ् और सवपि-अवसथा मे बुिद सिकय रहती है तथा
बुिद के सिकय होिे पर भूख-पयास लगते है । अििित मािो िवषयो (िबि,
सपिु, रप, रस, गनध) का अिि (भकण, भोग गहण) करती है । सुषुिप मे
बुिद सिकय िहीं रहती तथा भूख-पयास िहीं रहते और िवषयो का भोग
(गहण) िहीं होता, हिय-गुहा मे िसथत बुिद मे रहिेवाली तथा पंचभूतो
ृ वी, जल, अििि, वायु, आकाि) के सिहत अथवा उिसे समिनवत होकर
(पथ
पकट होिेवाली अििितिामक ििक बह की ही पतीक है । बह हो तो
समपूणु ििकयो का केनद अथवा आिि सोत है ।
अििित परमातमा की ही एक अिचनतय ििक है तथा परमातमा से
िभनि िहीं है । परमातमा सवयं को अपिी परा ििक अििित के रप मे भी
पकट करता है । सब ििकयो का उदम परमातमा ही है । यही तो परमातमा
ही, िजसे ििचकेता िे पूछा है ।
अरण यो िि ु िहत ो ज ातवेिा गभु इ व स ुभ ृ तो ग िभ ु णी िभः ।
ििव े ििव े ई डय ो ज ाग ृ व िद हु िव षम िद मु िुषय ेिभ रििि ः।। ए तद व ै
तत।् ।८।।
िबि ाथ ु : जातवेि ाः अििि : = सवज
ु अििििे व; गिभ ु ण ीिभ :
सुभ ृ त : गभु : इव = गिभण
ु ी िसयो िारा उिम पकार से धारण िकये हुए
गभ ु की भाँित; अरण यो : िि िह त: = िो अरिणयो मे िििहत है ; जागृ व िद :
हिवष मिद : मिुष येिभ : ििव े ििव े ईड य: = जागत ् (सावधाि, सचेत) हवि
करिे योिय सामिगयो से मिुषयो िारा पितििि सतुित करिे के योिय है ;
एतद वै त त ् = यही है वह।
-----------------------------------
१. िे वताओं तथा ििवय पािणयो को अििितिनिि कहा जाता है । ििित राकसो और िै तयो की
माता का िाम है । राकस को िििततिय कहा जाता है ।

वचि ामृ त : (जो) सवज


ु गिभण
ु ी सी िारा भली पकार से सुरिकत गभु
की भाँित िो अरिणयो मे िििहत है , (वह) सावधाि रहकर यज करिेवाले
मिुषयो िारा पितििि सतुित करिे योिय (अििि) है , यही है वह।
सनिभ ु : अििि परमातमा का वाचक होिे के कारण उपासिीय है ।
ििव या मृ त : परमातमा िबि, सपिु, रप, रस, गनध से परे होिे के
कारण इिनियो से गाह िहीं है । वह िवराट चेतिा है , जो अदषस अगाह
और अिचनतय है तथा वह पिरभाषाओं से परे है । अिेक पतीको से उसका

संकेत ििया जाता है । अििि परमातमा की सचेति सिा की वाचक है ।


वह मि, पाण आिि मे अनतिििुहत रहकर ऊपर की ओर आरोहण करती
है । अििि की अिच ु (लौ, लपट) ऊधवग
ु ामी होती है तथा वह चेतिा के
ऊधवग
ु मि का पतीक होती है ।
यजो मे अििि िो अरिणयो (उिरारिण तथा अधरारिण, ऊपर की
अरिण तथा िीचे की अरिण) के मनथि से पजविलत होती है ।
अरिण के भीतर अििि ऐसे ही िछपी हुई तथा सुरिकत रहती है ,
जैसे िक गिभण
ु ी सी के उिर मे िििु िछपा हुआ तथा सुरिकत रहता है ।

अििि सावधाि रहकर यज करिेवाले मिुषयो के िलए अचि


ु ीय होती है ।
जो यजो की अििि है वह आतमजयोित की पतीक है । आतमजयोित ही तो
वह परमततव है , िजसे ििचकेता जाििा चाहता है ।
यत शोि ेित सूय ोऽसत ं यत च गचछित।
तं ि ेवा : सवे अिप ु त ास ति ु ि ातय ेित कश ि।। ए तद व ै त त।् ।
९।।
िबि ाथ ु : यत: च सू यु : उिे ित = जहाँ से सूय ु उिय होता है ; च
यत अस तम ् गचछित = तथा जहाँ असत भी होता है ; सवे िेव ा : तम्
अिप ु ता : = सब िे व उसे समिपत
ु है अथवा उसमे पितिषत है ; तत ् उ
कश ि ि अतयेित = उस परमातमा को ििशय ही कोई भी िहीं लाँघ
सकता है ; एतद वै त त ् = यही तो वह है ।
वच िाम ृ त : िजससे सूयु उिित होता है , िजसमे असत होता है , सब
िे व उसे अिपत
ु है । उस परमातमा को ििशय ही कोई भी िहीं लाँघ
सकता है । यही तो वह है ।

----------------------------------------
१. िेित िेित (बह ृ िारणयक उप०, ४.४.२२)
२.ितल ेष ु तैल ं िधिीव स िपु रापः सोत ःसवीरणीष ु चािििः (शेत उप०, १.१५)
—जैसे ितलो मे तेल, िही मे घी, सोतो मे जल, अरिणयो मे अििि िछपे हुए है , ऐसे ही
परमातमा हिय मे िछपा हुआ है ।

सनिभ ु ः यमाचाय ु ििचकेता को अिेक पकार से बता रहे है िक


परमातमा एक ही है , िजसे वह जाििा चाहता है ।
ििव या मृ त : परमातमा ही िवश की सवोचच सिा है । यह
जयोितषमाि ् महाि ् सूय ु उसी ििवय सिा के कारण उिित होता है , संचरण
करता है और असत होता है । वासतव मे सूयु परमातमा से ही उिित होता
है तथा उसी मे िवलीि होता है । सूयु, वायु, अििि आिि सभी परमातमा के

िासि मे िसथत रहते है ।


पिरपूण ु परमातमा का गहण अलपबुिद िारा िहीं हो सकता। वह
असीम और अिनत है तथा मिुषय की बुिद सीिमत और सानत है ।
सूकमबुिद से उसका गहण करिे और उसका वणि
ु करिे मे िविवधता
होिा सवाभािवक ही है ।
इिम ् इत थम ् (यह ऐसा ही है ) परमातमा के संबंध मे इस पकार
कोई भी िहीं कह सकता। िजसे उसकी जैसी भी अिभवयिक हुई हो अथवा
सवािुभव हुआ हो, वही उसके िलए अिनतम पमाण है । िववेकिील पुरष
वणि
ु की िविवधताओं के मूल मे एकता का ििि
ु करता है ।

यह सारा जगत ् उसी से पकट होता है तथा उसी मे लीि होता है ।


सूय ु भी उसी से उिित होकर उसी मे असत होता है । सारे िे व उसी मे
पितिषत है तथा वही उिका आधार है । वह सत ् है तथा िेष सब असत ्
अथात
ु ् िशर है ।
िवश की मूल एवं ताितवक चैतनय सिा एक ही है । परमातमा की
िविवध पकािमय, तेजोरप ििकयो के अिेक पतीकातमक िाम है । िे वो मे
परमातमा की ििक ओतपोत होती है । इसके अितिरक पाँच जािेिनदयो
की संचालक ििकयाँ भी िे वता कहलाती है । िेत का िे वता सूयु है ।
िवश की समसत ििकयो का आशय परमातमा ही है तथा कोई भी
परमातमा का उललंघि िहीं कर सकता। वह सवि
ु िकमाि ् परमातमा ही
तो ििचकेता का पूछा हुआ परमततव है , िजसका अिुभव और वणि
ु अिेक
पकार से िकया जाता है ।

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१. पशोपििषद मे पश ५ तथा ६ मे इसकी चचाु की गई है ।
केिोििषद (४.१) मे बह की ििक को िे वो की ििक का आधार एवं सोत कहा गया है ।
स यशाय ं प ुरष े यशासावा िितय े स एक ः (तै० उप०, २.८)—पुरष मे और सूयु मे एक ही
परमातमा है ।
आिितयो बह (छा० उप०, ३.१९.१)—सूयु मािो पतयक बह है ।
२. समनवय बह है — एकं स द िवपा बह ु धा वि िनत (ऋिवेि, १.१६४.४६)
—परमातमा एक ही है , उसके वणि
ु अिेक है ।
िेव एक : (अथव०
ु , १३.२.२६)

यिेव ेह तिम ुत य िमुत ति िनव ह।


मृ तय ोः स म ृ तयुम ाप ोित य इ ह िािे व प शयित।। १०।।
िबि ाथ ु : यत ् इह = जो परबह परमातमा यहाँ (है ); तत ् एव
अमुत = वही वहाँ (है ); यत ् अमुत = जो वहाँ (है ); तत ् अिु इह = वही
यहाँ (है ); स मृ तय ो: मृ तयुम ् आप िो ित = वह मतृयु से मतृयु को पाप
होता है ; य: इह िाि ा इव पशयित = जो यहां (परमातमा को) अिेक की
भाँित िे खता है ।
वच िाम ृ त : जो यहाँ (इस लोक मे) है , वही वहाँ (उस लोक मे) है ।
जो वहाँ (परलोक मे) है , वही यहाँ (इस लोक मे) है । जो परमातमा को
अिेक की भाँित िे खता है , वह मतृयु से मतृयु को पाप करता है ।
सनिभ ु : मंत १०, ११ परसपर जुडे हुए है । िािातव (अिेकता) िे खिा
अजाि है । िािातव के पष
ृ मे एक ही ततव है ।
ििव या मृ त : परमातमा एक ही है , िकनतु मि की चंचलता के
कारण तथा अिवदा अथात
ु ् अजाि के कारण वह िािा (अिेक) पतीत
होता है । सवपि मे भी िािातव का अिुभव होता है । गाढ ििदा (सुषुिप),
समािध तथा जाि की अवसथा मे िािातव िहीं रहता। सवत
ु वही एक
रहता है । कूटसथ (िसथर) बह मे िािातव िहीं है तथा मि मे िािातव है ।
दिषिोष होिे पर एक ही चनदमा अिेक पतीत होता है । अजाि की
ििविृि होिे पर, जाि मे िसथत होिे पर, बुिद सवीकार कर लेती है िक
सारे िवश मे इस िािातव के पष
ृ मे एक ही परमततव है । िवदा अथात
ु ्
जाि िारा अभयास (जो वसतु िहीं है तथा पतीत होती है ) का ििराकरण
हो जाता है तथा माया का आवरण हट जािे पर सवत
ु एक ही चैतनय
ततव की अिुभूित हो जाती है । सवत
ु एकतव है ।

सवि
ु िकमाि ्, सवर
ु प परबह ही सत ् है । वह यहाँ पथ
ृ वीलोक मे तथा
वहाँ अनय लोको मे है अथवा वहाँ और यहाँ भी है । वही अिखल बहाणड
मे वयाप है । यह समपूण ु जगत ् एक ही परमततव से पिरपूण ु है तथा वही
सबका आशय, आिि, मधय और अनत है ।
जो मिुषय इस जगत ् मे एक परमातमा को अिेक की भाँित िे खता
है , वह अजाि अनधकार मे ही भटकता रहता है ।
-----------------------------------------
१. एकीभाव ेि पशयिनत योिगिो बहवा िििः।
तवामिा िशतय िवशातमि ् ि योगी माम ुप ैषय ित।।
ु ुराण, १.९.८६)
(कमप
—बहजािी योगी इस जगत ् को तथा बहा-िवषणु-महे ि को एकीभाव से िे खते है । समसत
उपििषिो मे परमातमा के एकतव का पितपािि िकया गया है ।

मिस ैव ेिमा पवय ं िे ह ि ाि ािसत िकंच ि।


मृ तय ो: स म ृ तयुं ग चछित य इ ह ि ािेव प शयित ।। ११।।
िबि ाथ ु : मिसा एव = (िविुद एवं सूकम) मि से ही; इिम ्
आप वयम ् = यह परमातमततव पाप करिे योिय है ; इह िाि ा िकंच ि ि
अिसत = यहाँ जगत ् मे अिेक (िभनितव) कुछ भी िहीं है ; य: इह िाि ा
इव पश यित स: मृ तय ो: मृ तयुम ् गचछित = जो मिुषय यहां (इस जगत ्
मे) अिेक की भाँित िे खता है (मािता है ), वह मतृयु से मतृयु को पाप
होता है ।
वा चिा मृ त : परमातम-ततव का गहण (िविुद एवं सूकम) मि से ही
करिा चािहए। यहाँ (जगत ् मे) िभनितव है ही िहीं। जो मिुषय यहाँ
अिेक (िभनि-िभनि) की भाँित िे खता है , वह मतृयु से मतृयु को पाप होता
है ।
सनिभ ु : यह मंत अतयनत पिसद है । इसमे जाि-दिष की चचाु की
गयी है ।
ििव या मृ त : इस जगत ् मे िािातव के पष
ृ मे एकतव है । िभनिता
केवल बाह सतर पर है तथा आनतिरक सतर पर िहीं है । समुद की चंचल
तरं गो, फेि, बुिबुि आिि के िभनितव के पष
ृ मे अथवा उससे परे समग
समुद की एकता ही होती है । सथूल दिष होिे पर ही सूकम ततव का
संििि
ु संभव होता है । जािी सूकम दिष होिे पर ही सब कुछ िे ख
(समझ) लेता है ।

सारा जगत ् एक ही सूकम एवं ििवय ततव से पकट हुआ है तथा


वही इसमे ओतपोत है । जाि-दिष होिे पर मि अथात
ु ् बुिद जगत ् के पष

मे एक ही परबह का गहण हो जाता है । इस जगत ् मे परमातमा से

िभनि कुछ िहीं है । भेि केवल िाम और रप मे अथात


ु ् बाह सतर पर ही
है , जैसे सवणाभ
ु ूषणो मे एक ही सवणु िाम और रप के कारण िभनि-
िभनि पतीत होता है । जो जािी पुरष सिृष मे परमातमा के एकतव को

जाि लेता है , वह मतृयु से परे चला जाता है तथा अमरपि को पाप हो


जाता है ।

---------------------------------------
१. आ पशयित प ित पशयित परा पश यित पशयित ु , ४.२०.१)
(अथव०
२. बह
ृ िारणयक उपििषद (४.४.१९) मे भी लगभग यही मंत है , िकनतु वहां 'मिस ैव े िमापवय ं के
सथाि पर 'मिस ैवाि ुदषवय ं ' है तथा 'मृ तयुं गचछ ित ' के सथाि पर 'मृ तयुमापिोित ' है ।
३. स यथेमा िद : सयनि मािा : समुदायणा : समु दं पापय ासत ं गचछ िनत िभद ेत े तासा ं
िामरप े समु द इतय ेव ं पोचयत े। (पशोप०, ६.५)—ििियाँ समुद मे पिवष होकर एक समुद
ही हो जाती है तथा उिका िाम और रप का भेि िहीं रहता।

जािी पुरष िै त (मै और जगत ् िभनि है ) से परे जाकर


अपिे भीतर अिै त (मै और यह जगत ् बह ही है ) मे संिसथत हो जाता है ।
सब कुछ परबह परमातमा ही तो है । जड और चेति मे एक ही चैतनय
सिा ओतपोत है तथा वही सतय है ।
अङ गु षमा त: पुरषो म धय आतम िि ित षित ।
ईि ाि ो भूतभव यसय ि तत ो िवज ुग ुपसत े।। एतद वै तत।् ।
१२ ।।
िबि ाथ ु : अङगुषम ात ः पुर षः आतम िि मध ये ितष ित =
अङगुषमात (अँगूठे के पिरमाणवाला) पुरष िरीर के मधयभाग हियाकाि
मे िसथत है ; (आतम ािि = िे ह मे; यहाँ 'आतमा' का अथ ु िे ह है )
भूतभव यसय ईि ाि: = भूत और भिवषयत ् का िासि करिेवाला; तत : ि
िव जु गु पसत े = उसे जाि लेिे के पशात ् जुगुपसा (घण
ृ ा, िे ष, भय आिि)
िहीं करता; एतद वै त त ् = यह ही तो वह है ।
वच िाम ृ त : अङगुषमात पुरष िे ह के मधयभाग (हियाकाि) मे
िसथत रहता है । वह भूत और भिवषयत ् का िासि करिेवाला है । उसके
जािे लेिे पर मिुषय घण
ृ ा, भय, आिि िहीं करता। यह ही तो वह है ।
सनिभ ु : मंत १२, १३ परसपर जुडे हुए है ।
ििव या मृ त : यमाचाय ु आतमतव की वयाखया अिेक पकार से करते
है । मिुषय के भीतर ही अङगुष के पिरमाणवाला पुरष हियाकाि मे
िसथत रहता है । पुरष का अथ ु जयोित-सवरप आतमा (परमातमा) तथा
जीवातमा (हियकेत के भीतर बुिद मे आतमा का पितिबमब अथवा बुिद मे
पितिबिमबत आतमा) िोिो ही होते है । वासतव मे आतमा और जीवातमा
ततवत: एक ही होते है । पािणयो मे हिय कमल का आकार िभनि-िभनि
होता है तथा पुरष का पिरमाण भी हिय-कमल के अिुसार बडा अथवा
छोटा होता है । मिुषय का हिय-कमल अँगूठे के पिरमाणवाला होिे के
कारण जयोितःसवरप आतमा का पिरमाण भी अङगुषाकार ही होता है ।
परमातमा ही भूत, भिवषयत ् और वतम
ु ाि का अथवा काल का िासक होता
है ।

यदिप परमातमा समाि भाव से सवत


ु पिरपूणु होता है , तथािप हिय
केत उसका िविेष सथाि कहा जाता है । मिुषय हिय मे ही उसका
अिुभव करता है तथा योगी धयाि के समय हियकमल मे जयोितःसवरप
परमातमा का अिुभव करके आििनित होते है ।

------------------------------
१. ईशर : सवु भू तािा ं हदेि ेऽज ु ि ित षित (गीता, १८.६१)—हे अजुि
ु , ईशर पािणयो के
हिय मे रहता है । जीवातमा ईशर के अधीि होता है ।

परमातमा को जािकर जािी पुरष घण


ृ ा और भय िहीं करता। शष

पुरष घण
ृ ा और भय तयागकर ही कतवुयकमु करते है ।
यही तो वह परमातमा है , िजसे ििचकेता जाििा चाहता है ।
अङ गु षमा तः पुरष ो ज योित िरव ाधू मक ः।
ईि ाि ो भूतभव यसय स एव ाद स उ शः।। एतद वै तत।् ।
१३।।
िबि ाथ ु : अङगुषम ात : पुरष ो = अँगूठे के पिरमाणवाला पुरष;
अधूम क: जयोित : इव = धूमरिहत जयोित के तुलय है ; भूतभव यसय
ईि ाि : = भूत और भिवषय का िासक; स एव अद = वह ही आज है ; उ
स: श: = और वह ही कल (है ); एतद वै त त ् = यही है वह परमातमा।
वच िाम ृ त : अङगुषमात पुरष धूमरिहत जयोित की भाँित है । भूत
और भिवषयत ् का (अथात
ु ् काल का) िासक है । वह ही आज है और वह
ही कल है (अथात
ु ् सिा रहिेवाला, सिाति है )। यही है वह।
सनिभ ु : हियकमल मे परमातमा का अिुभव कैसा होता है ? यह
मंत धयाियोिगयो के िलए अतयनत महतवूपूणु है ।
ििव या मृ त : परमातमा परमपुरष है । वह सिाति एवं िितय है ।
वह कल भी था, आज भी है और कल भी होगा अथात
ु ् अपिरवति
ु ीय एवं
िाशत है । वह कूटसथ है । परमातमा चैतनयसवरप है , जयोितःसवरप है ।
िवश की परम चेतिा सवथ
ु ा ििवय है तथा योिगयो को उसका अिुभव
अपिे भीतर ही हियकमल मे होता है ।
परबह परमातमा के ििवय पकाि का पितिबमब हियकमल के
भीतर िसथत अनतःकरण (अथवा बुिद) मे जीवातमा के रप मे होता है ।
िजस पकार आकाि तो सवत
ु है , िकनतु उसका पितिबमब (छाया) सवचछ
जल मे होता है , उसी पकार परबह परमातमा के ििवय पकाि का आभास
(िचिाभयास) ििमल
ु बुिदततव मे होता है । जीवातमा को अनतःकरणिवििष

चैतनय कह सकते है । जीवातमा पिरिचछनि तथा परमातमा अपिरिचछनि


है । परमातमा सारे जगत ् को तथा जीवातमा अनतःकरणसिहत िे ह को
पकािित करता है । वासतव मे जीवातमा परमातमा का ही अंि है तथा
ततवत: िुद, बुद, िितय परमातमा ही है ।
भौितक जयोित धूमसिहत होती है , िकनतु ििवय जयोित धूमरिहत
अथात
ु ् िुभ होती है । आतमजयोित ििधूम
ु , ििवय एवं अखणड होती है तथा
जयोितयो की भी मूल जयोित होती है ।

१. आभा सा एव च (बहसूत, २.३.५०)


२. जयोितषा ं जयोितर ेकम ् (यजुवि
े , ३४.१)
जयोितषा ं जयोित : (मुणडक उप०, २.२.९)
आत मैव असय जयोित ः (ब०ृ उप०, ४.३.६)—आतमा ही पुरष की जयोित है ।

यमाचायु ििचकेता से कहते है िक यही वह परमातमा है िजसे वह


पूछ रहा है ।
यथ ोिकं ि ु गे वृ षं पवु तेष ु िव धाव ित।
एवं ध माु ि ् पृ थक् पश यंसत ािेव ािु िव धा वित।। १ ४।।
िबि ाथ ु : यथा ि ु गे वृ षम ् उिक म ् पवे तुष ु िव धाव ित = िजस
पकार िग
ु ु (उचच ििखर) पर बरसा हुआ जल पवत
ु ो मे इधर-उधर िौडता
है ; एव म ् धमाु ि ् = इसी पकार धमो को; (धमु-सवभाव) पृ थक् पशयि ् =
पथ
ृ क् िे खकर; ताि ् एव अ िु िव धाव ित = उनहीं के पीछे िौडता है ।
वच िाम ृ त : िजस पकार उचच ििखर पर बरसा हुआ जल पवत
ु ो मे
बह जाता है , उसी पकार िरीरभेिो अथवा सवभावो को पथ
ृ क् -पथ
ृ क्
िे खिेवाला मिुषय उनहीं का अिुसरण करता है ।
सनिभ ु : अिववेकी मिुषय लकयभष होकर भटकता ही रहता है ।
इस सुनिर मंत के अिेक अथु िकए गए है ।
ििव या मृ त : पवत
ु के उचच ििखर पर बरसा हुआ सवचछ जल
ििमि सथलो पर पहुँचकर यत तत िबखर जाता है तथा असवचछ हो जाता
है । िबखराव से ििक का कय हो जाता है । यह िसदानत जीवि के पतयेक
केत मे चिरताथ ु होता है । ििक का िबखराव मि के लकयभष होिे अथात
ु ्
लकय से भटक जािे के कारण होता है । जब मि की ििक लकय का
अिुसरण ि करिे के कारण एकाग िहीं होती, ििक का िबखराव और
हास पारं भ हो जाता है तथा कालानतर मे मिुषय िविष हो जाता है ।

आतमसंयम के अभयास से मि मे पसाि (पिवतता, पसनिता) आिे पर,


पसनििचि होिे पर, बुिद िीघ ही िसथर और िानत हो जाती है ।

जो मिुषय परमातमा मे िािातव िे खता है अथात


ु ् सारे जगत ् मे
ओतपोत एक ही ििवय सिा को िहीं िे खता तथा िभनि-िभनि पिाथो को
िे खकर जगत ् मे िािातव (िभनितव) को ही िे खता है , वह उसे िहीं जाि
सकता और मि की ििकयो का िबखराव और भटकाव होिे के कारण वह
परमातमा को पाप िहीं कर सकता। वह एक ही जल को अिेक धाराओं
मे िवभक िे खकर तथा जल के एकतव को ि िे खकर भिमत हो जाता है ।
संसार मे पािणयो और पिाथो की अिेकता के पष
ृ मे ििवय ततव की
एकता है । अिेकता के पीछे भागिेवाला मिुषय कभी एकतव का अिुभव
िहीं करता।

----------------------------------
१. बुिदिासातपणशय ित (गीता, २.६३)
२. पस निच ेतसो हाि ु बुिद : पयु वितष ते (गीता, २.६५)

िववेकिील पुरष संसार के िविभनि पिाथो और


पािणयो मे अिुसयूत एक ही चैतनयसवरप परमातमा का संििि
ु एवं
अिुभव करता है । िरीरो की िभनिता होिे पर भी पािणयो मे एक ही
अिभनि चैतनयततव संिसथत है । िरीरभेिो को ही महतव िे िेवाला मिुषय
िरीरभेि का अिुसरण करिेवालो की भाँित ही लकयभष हो जाता है । भेि
को ही महतव िे िेवाले लोग परसपर टकराते हुए िष हो जाते है । परमातमा
से उतपनि, िविभनि सवभाववाले, भले-बुरे, ऊँच-िीच आिि कोई पाणी उससे
पथ
ृ क् िहीं है । संसार के समसत भेि बाह है तथा उिके भीतर ििवय
चैतनय का एकतव है ।
उिम पुरष िकसी से घण
ृ ा और िे ष िहीं करता तथा लोककलयाण
एवं आतमकलयाण की दिष से, िववेकािुसार िभनि-िभनि पकार से
वयवहार करते हुए भी सबमे परमातमा का ििि
ु करता है । वह
सवभ
ु ूतिहतरत होता है । यही आधयाितमक विृि है तथा यही समििि
ु है ।
१ २

यथ ोिकं िुद ेि ुदम ािसकं ता दगेव भ वित ।


एवं म ुि े िव ु ज ाि त आ तमा भव ित गौतम।। १५।।
िबि ाथ ु : गौतम = हे गौतमवंिीय ििचकेता; यथ ा = िजस पकार;
िुद े आिस कमम िुदम ् उि कम ् = िुद (जल मे) बरसाया हुआ िुद
जल; तादक् एव = वैसा ही; भव ित = हो जाता है ; एव म ् = उसी पकार;
िव जाि त: मुि े ; = िववेकिील मुिि का; आतम ा भव ित = आतमा हो जाता
है ।
वच िाम ृ त : हे ििचकेता, िजस पकार िुद जल मे बरसा हुआ िुद
जल वैसा ही हो जाता है , उसी पकार जािी पुरष का आतमा हो जाता है ।
सनिभ ु : जािी पुरष िुद जीवि होिे पर आतमा और परमातमा के
योग का अिुभव करता है ।
ििव या मृ त : िुद अथात
ु ् ििमल
ु और सवचछ जीवि मिुषय को एक
अिोखा सुख िे ता है । यिि मिुषय सवचछ सथाि मे बैठकर, सवचछ
वस

---------------------------------
१. सवु भू तिह ते रता : (गीता, ५.२५)
२. अभयासयोग यु केि च ेतसा ि ानयगा िमिा (गीता, ८.८)
पिणडत ा: समि ििु ि : (गीता, ५.१८)
सवु त स मि िु ि : (गीता, ६.२९)
समोऽह ं सवु भू तेष ु (गीता, ९.२९)
समं सव े षु भ ू तेष ु ितष नतं परमेशरम ् (गीता, १३.२७)
समं पशयि ् िह सव ु त स मव िसथत मीशरम ् (गीता, १३.२८)

पहिकर, सवचछ वातावरण मे रहकर, सुखी हो सकता है तो अपिे


भीतर मि और बुिद के सवचछ होिे पर, उसका सुख ििससनिे ह अतयनत
गहि और सथायी हो सकता है ।
िववेकिील पुरष सवचछ िवचारो और सवचछ आचरण का अभयास
करके उनहे जीवि का अंग बिा लेता है तथा उसके िलए सवचछ जीवि
सहज हो जाता है । वह संसार मे िािा पकार के पलोभिो के मधय मे
भी ििमल
ु रहकर इसी पकार हँ सता-मुसकराता रहता है , जैसे जल के मधय
मे िसथत होकर भी, जल के मधय मे िसथत होकर भी, जल से ऊपर
रहिेवाला कमल पसनितापूवक
ु सुगिनध और सौनिय ु का चतुििु क् पसार
करता रहता है ।
मिुषय का आतमा तो िुद-बुद ही है , िकनतु मि और बुिद के िुद
होिे पर वह िुद आतमा का िुद परमातमा के साथ एकतव का अिुभव
कर सकता है , जैसे िुद जल मे बरसाया हुआ िुद जल उसके साथ एक
हो जाता है ।
िुद जल को िुद जल मे ही डाल िे िे पर वह िुद ही रहता है ,
िकनतु िुद जल को अिुद जल मे डाल िे तो वह भी अिुद हो जाता है ।
मूलत: जीवातमा िुद चैतनयसवरप है , िकनतु वह संसार के अिुद ततवो मे
िमलकर अिुद (मिलि) हो जाता है तथा अपिा तेज खो िे ता है ।
मिुषय अपिे मि और बुिद को ििमल
ु अथात
ु ् िवकारो से मुक
करके आतमा और परमातमा की एकता की ििवयािुभूित कर सकता है ।

इसे ही आतमैकतव-ििि
ु कहा जाता है , जो मािव-जीवि की सवोचच
उपलिबध है ।

Ÿ
---------------------------------------
१ जब लग मि िह िवकारा , तब लिग ििह ं छूटे संसारा।
जब मि िि मु ल किर जािा , तब ििम ु ल मा िह समािा।। (कबीर)
जो चािर स ुर िर म ु िि ओ ढी , ओिढ कै मै ली कीन ही चि िरया।
िास कबीर जति ते ओ ढी , जय ो की तयो धर िीन ही च ििरया।। (कबीर)
मि ऐसो िि मु ल भयो जस गंग ा को ि ीर।
पाछे -पाछ हिर च लै कह त कबीर -कबीर।।
िि मु ल मि जि सो मोिह पावा , मो िह कपट छल िछद ि भावा।
सनत हिय ज स िि मु ल बा री।
ि म िलिच ेत िस बीजपरोहः —मिलि िचि मे जाि का बीज पसफुिटत िहीं होता।

अधयाय िितीय
वलली िितीय

पु रमेक ाि ििा रम जसय ाव कचेतस :


अिुष ाय ि िो चित िवम ुिक श िवम ु चयत े।। एतद व ै त त।् ।
१।।
िबि ाथ ु : अवकचेतस : अजसय = िििवक
ु ार, सरल अजनमा
परमातमा का; एक ािििा रम ् पु रम ् = ियारह िारवाला पुर (है ); अिुष ाय
ि िोचित = (मिुषय) अिुषाि अथात
ु ् धयाि आिि साधिा करके िोक
(िःुख, भय और िचनता) िहीं करता। च = तथा; िवम ुक : िवम ुच यते =
िवमुक होकर िवमुक हो जाता है । एतद वै तत ् = यह ही तो वह
(परमातमा) है ।
वच िाम ृ त : अवकचेता ु ार, सरल), अज
(िििवक (जनमरिहत
परमातमा) का ियारह िारवाला (मिुषय-िे ह) ििवाससथाि है । परमातमा का
अिुषाि (भगवतपािप की धयाि आिि साधिा) करके मिुषय िवमुक रहकर
िवमुक हो जाता है । यह ही हो वह है ।
सनिभ ु : यह अतयनत पखयात मंत है । इसके अिेक अथु िकए गए
है । "िवम ुक श िवम ुच यते " उपििषिो का सारततव है । इसे कणठसथ कर
ले।
ििव या मृ त : मिुषय का िे ह परमातमा का शष
े मिनिर है । यह एक
समपूण ु लघु बहाणड है । िवश का संचालि परमातमा करता है तथा िे ह
का संचालि परमातमा का अंि जीवातमा करता है । परमातमा िवश को
पकािित करता है तथा जीवातमा मावि-िे ह को। जीवातमा अपिे िुद रप
मे परमातमा ही है । परमातमा िििवक
ु ार है तथा जीवातमा अिवदारपी
िवकार से गसत है । जीवातमा का िुद सवरप परमातमा ही है ।
मिुषय का िे ह परमातमा का एक अदत
ु सिि है , िजसमे ियारह िार
है । िववेकिील मिुषय िे ह-मिनिर मे िवराजमाि परमातमा की पािप की

साधिा िारा उसे पाप करके कृ तकृ तय हो जाता है । परमातमा की पािप


मािव-जीवि की सवोचच उपलिबध है । पिुयोिि के पाणी बुिद का िवकास

-------------------------------------
१. मािव-िे ह के िछद मािो इसके िार है — िो िेत, िो कणु, िो िािसकािछद, एक मुख, कपाल मे
बहरनध, िािभ, मल-तयाग की इिनदय, मूत-तयाग की इिनदय। बहरनध भी एक िार है — यतासौ
केिान तो िवव तु ते (तै० उप०, १.६)। महाि ् योगी बहरनध से पाण-िवसजि
ु करते है ।
भगवदीता (५.१३) मे िािभ और बहरनध को छोडकर िौ िार कहे गये है । शेत० उप० (३.१८)
मे भी िौ िार कहे गये है ।
भागवत पुराण (११.७.२२,२३) मे मािव-िे ह को भगवाि ् का िपय मिनिर कहा गया है ।
छानिोिय उप० (८.१.१) मे मािव-िे ह को बहपुर कहा गया है ।
अष चका िविारा ि ेवािा ं प ूरय ोधया (अथव०
ु , १०.२.३१)

ि होिे के कारण इससे वंिचत रहते है । मूढ मिुषय अपिे भीतर ही


पितिषत परमातमा से िवमुख होकर तथा िवश के भौितक
आकषण
ु ो मे
फँसे रहकर पिवत िे वमिनिर को भोगधाम एवं पापधाम बिा लेते है तथा
भय, िचनता और िोक से गसत रहकर िःुखी रहते है ।
मिुषय अजाि से मुक होकर तथा अपिे ििवय सवरप को जािकर,
िे ह के रहते हुए ही, पूणम
ु ुक अथात
ु ् जीवनमुक हो जाता है । वह अपिे
सवरप मे िसथत होकर मतृयु पर िवजय पाप कर लेता है अथात
ु ् मतृयु
का अितकमण कर िे ता है । वह अभय हो जाता है तथा कभी भय,
िचनता और िोक से गसत िहीं होता। पूण ु बनधिमुक होिा जीवि की
सवश
ु ष
े उपलिबध है ।
वासतव मे आतमा िुद, बुद और मुक तो ही ही तथा उसका ि
बनधि होता है और ि मोक होता। अिवदा अथवा अजाि िारा आरोिपत
िमथयाबनधि का भम िवदा अथवा जाि के िारा छूट जाता है तथा
मिुषय इस िे ह के रहते हुए ही मुक होिे की शष
े अवसथा (जीवनमुिक)
पाप कर लेता है । जाि िारा मिुषय का जीवातमा बदता के भम से मुक
मुकावसथा को पाप कर लेता है । जाि से सदःमुिक पाप हो जाती है ।
मिुषय सवसवरप ि जाििे के कारण बद और सवसवरप जाििे से मुक
हो जाता है ।
शष
े मिुषय अनतमुख
ु ी होकर, समसत सांसािरक िकयाकलाप करते
हुए ही, जल मे कमल की भाँित रहते हुए, अपिे भीतर संिसथत परमातमा
की ििवयािुभूित कर लेते है । धयाियोगी हियाकाि मे परमजयोित का
ििि
ु करके कृ ताथु हो जाते है । यह जाि और धयाि की मिहमा है ।
हंस ः ि ु िच षद वस ुर नत िर कस दो ता वे ििषि ित िथि ु रो णसत।्
िृ षद वरसद तसद वयोमसिब जा गोजा ऋत जा अिद जा ऋतं
बृ हत।् । २।।
िबि ाथ ु : िु िच षत ् = िविुद परमधाम मे, िुिच िीिप मे आसीि है ;
(िु चौ िी पौ सीि ित इित िु िच षत ् ); हंस : = सवयंपकाि पुरषोिम
परमातमा अथवा आिितय; अन तिर कसत ् वसु : = वासियता वसु, अनतिरक
को वयाप करिेवाला िे वता वसु है । िकनतु वायु भी अनतिरक मे िवचरण
करता है । (कुछ भाषयकारो िे वसु को एक िे वता के रप मे पथ
ृ क् विणत

िकया है तथा कुछ भाषयकारो िे वसु का अथ ु वयापक वायु कर ििया है ।
िोिो अथ ु ठीक है ।) वे ििषद होत ा = यजवेिी पर िसथत अििि तथा
अििि मे आहुित िे िेवाला 'होता' ('अििि वै होत ा' इित शु तेः। वेदा ं
पृ िथव यां सीि ित इित वे ििष त।् ) - होता अििि है तथा पथ
ृ वी वेिी है ।) ;
ि ु र ोणस त ् अित िथ : = घरो (िरुोण = घर) मे अितिथ के रप मे पधारते है ;
िृ षद वरसद = मिुषयो मे (पाणरप से) िसथत है तथा िे वो (जो मिुषयो
से शष
े है ) मे िवराजमाि, (वरस त ् = वरणीय शष
े पिाथो मे िवभूित के रप
मे िवराजमाि); ऋतसत ् = ऋत (सतय अथवा यज) मे उपिसथत;
वय ोमस त ् = आकाि मे वयाप; अबजा : = अप ् अथात
ु ् जल मे मतसय, िुिक
आिि के रप मे उतपनि ; ऋतज ा: = सतय अथवा सतकमो के फल के रप
मे पकट; अिदज ा: = पवत
ु ो मे िािा पकार से पकट (ििियाँ आिि); बृ हत ्
ऋतम ् = महाि ् सतय (बह) ही है ।
वच िाम ृ त : िुिच िीिप मे आसीि सवयंपकाि पुरषोिम परमातमा
(अथवा हं स) है । वह वासियता अथात
ु ् वसु िे वता है , अनतिरक मे वायु है ,
यजवेिी पर अििि तथा आहुित िे िेवाला होता है , घरो मे पधारिेवाला
अितिथ है , मिुषयो मे िसथत है तथा िे वो मे िवराजमाि है , ऋतु (सतय) मे
उपिसथत है , वयोम मे वयाप है , जल मे मतसय आिि के रप मे उतपनि है ,
पथ
ृ वी पर (चतुिवध
ु भूतगाम के रप मे) उतपनि है , सतकमो के फल के रप
मे पकट है , पवत
ु ो मे िािा पकार से (िि, ििियो आिि के रप मे) पकट
है , वही महाि ् सतय (अथवा बह) है ।
सनिभ ु : िवभूितयाँ पतीकातमक होती है ।
ििव या मृ त : िवश की समसत िवभूितयो (गिरमापूण ु भावो एवं
पिाथो) मे एक ही परमसिा की मिहमा पकट होती है ।

सवयंपकाि पुरषोिम (अथवा िे िीपयमाि आिितय के रप मे पकट)


के रप मे वही एक परबह है । वही अनतिरक मे वयाप रहिेवाला वसु
(िे वता) है तथा वही अनतिरक मे वायु है । यजवेिी पर िसथत पिवत अििि
तथा अििि मे आहुित िे िेवाला होता भी वही है । घरो मे अितिथिे व के
रप मे पधारिेवाला भी परबह ही है । वही मिुषयो तथा िे वो मे
िवराजमाि है । वही ऋतु (सतय अथवा यज) मे उपिसथत है । वही वयोम मे
वयाप है । वही जल मे मतसय, िुिक आिि के रप मे उतपनि होता है तथा
वही पथ
ृ वी पर पािणयो और पिाथो के िािा रपो मे पकट होता है । वह
सतय अथवा सतकम ु के फल के रप मे पकट होता है । वही पवत
ु ो से
जलधाराओं आिि के रप मे पकट होता है । वह महाि ् सतय है ,

-----------------------------------------
१. गीता (अधयाय १०) के िवभूितयोग मे इस मंत मे विणत
ु अिधकांि महतवपूण ु वसतुओं
और िै वी ििकयो की िविि चचाु है । किािचत ् िवभूितयोग इसी मंत का िवसतार है ।
सतय का भी सतय है । सवत
ु वही एक है ।
१ २

ऊध वव प ाणमुन ियतय पा िं प तय गसय ित।


मध ये व ाम िम ासी िं िव शेिे वा उप ासत े।। ३।।
िबि ाथ ु : पाणम ् ऊध वु म ् उन ियित = पाण को ऊपर की ओर
उठा िे ता है ; अप ािम ् पतयक् अस यित = अपाि वायु को िीचे की ओर
फेकता (ढकेलता) है ; मध ये = िरीर के मधयभाग हिय मे; आसी िम ् =
िसथत; वाम िम ् = सूकम, सवश
ु ष
े परमातमा को; िवश ेिेव ा उप ासत े =
(िवश े = सभी) सभी िे वता पूजते है ।
वच िाम ृ त : (जो) पाण को ऊपर की ओर उठा िे ता है , अपाि वायु
को िीचे की ओर ढकेलता है , िे ह के मधयभाग हिय मे सूकम रप से
आसीि है , (उस) सवश
ु ष
े परमातमा की सभी िे वता उपासिा करते है ।
सनिभ ु : िे ह मे इिनदयो को वायु को वही एक सिकय करता है ।
ििव या मृ त : िे ह मे वयाप परमातमा की चेतिा ििक से िे ह के
अङग, इिनदयाँ और वायु आिि सिकय होते है तथा संचािलत होते है ।
जीवि का आधार और सोत िे ह मे संिसथत परमातमा का ििवय अंिा
जीवातमा होता है , जो िे ह के मधय मे, हियकेत मे, िवराजमाि है । समसत
इिनदयो के िे व अथात
ु ् इिनदयो की ििकयाँ उसी की उपासिा करती है ,
उसी के अिुिासि मे रहकर कायु करती है ।
पाणििक एक है , िकनतु पथ
ृ क् -पथ
ृ क् रप से काय ु करिे के कारण
उसे पाँच कहा जाता है । पाण, अपाि, समाि, वयाि और उिाि को एक ही
मुखय पाण के िवभक रप कहा जाता है । पाणवायु मुख और िािसका िारा
िवचरण करता हुआ िेत और शोत मे िसथत रहता है ; अपािवायु िािभ से
िीचे मलिार और मूतेिनदय मे िसथत होकर मल-मूत का िवसजि
ु करता
है ; समािवायु िािभ मे िसथत होकर अनिािि के पाचि मे सहायता करके
उिके सारततव को िरीर के अङग-पतयङगो मे समाि रप से पहुँचा िे ता
है ; वयािवायु का बाह रप आकाि मे िवचरण करता है तथा इसका भीतरी
रप रक-संचालि मे और िािडयो को संचािरत करिे मे सहायक होता है ;
उिािवायु मे उषणतव होता है तथा यह िरीर मे ऊषमा को िसथर रखता
है ।

---------------------------------------------
१. सतय सय सतयम ् (ब०ृ उप०, २.१.२०)—बह सतय का भी सतय, परमसतय है ।
२.सवव खिलव िं बह ं (छानिोिय उप०, ३.१४.१)—सब कुछ बह ही है ।
३.पशोपििषद के पश ३ मे इसे िवसतार से कहा गया है । गीता (१५.८) मे कहा गया है िक
मुखय पाण उिाि को साथ लेकर िस
ू रे िरीर मे जाता है तथा वह समाि आिि अनय वायुओं
को भी, इिनदयो और मि के साथ, ले जाता है । इि सबका सवामी जीवातमा भी साथ ही जाता
है ।
पाणवायु, इिनदयो और मि को सिकय और संचािलत करिेवाली
चैतनय ििवय सिा की सभी िै वी ििकयाँ उपासिा करती है । परमातमा ही
िवश मे सवोचच सिा के रप मे सवत
ु संिसथत है ।
अस य िवस ंसम ािस य िर ीरस थसय िे िहि :।
िेह ाििम ु चयम ािस य िकमत पिर िि षयत े।। एत द वै तत।् ।
४।।
िबि ाथ ु : असय िरी रस थस य िवस ंसम ािस य िे िहि : = इस
िरीर मे िसथत, िरीर से चले जािेवाले, जीवातमा के; िेह ात ्
िवम ुच यमा िस य = िे ह से चले जािे पर; अत िकम ् पिर िि षयत े = यहाँ
इस िरीर मे कया िेष रहता है ? एतद वै त त ् = यह ही वह है ।
वच िाम ृ त : इस िरीर मे िसथत, िरीर से चले जािेवाले जीवातमा
के िे ह से ििकल जािे पर यहाँ इस िरीर मे कया िेष रहता है ? यह ही
वह (बह) है ।
सनिभ ु : बह िे ह मे जीवातमा के रप मे रहता है तथा िे ह का
संचालि करता है ।
ििव या मृ त : िकसी पाणी की मतृयु होिे पर कया होता है ?
मत
ृ िे ह के जयो के तयो रहिे पर भी मत
ृ क पाणी के िेत, शोत
आिि काय ु िहीं करते। िे ह से कया ततव ििगत
ु हो जाता है , िजसके
ििगम
ु ि से पाणी िििषकय एवं ििशेष हो जाता है ? यह एक महतवपूणु
िाििुिक पश है , िजसका उिर अिेक पकार से ििया जाता है ।
भौितकवािी लोग कहते है िक िजस पकार घडी अथवा कोई यंत
सहसा बनि हो जाता है , उसी पकार पाणी का िे ह भी जजरु होिे पर
सहसा काय ु करिा बनि कर िे ता है । िकनतु पुिः पश होता है िक उसे
िकसिे बिाया ? िकसिे िे ह-यंत का ििमाण
ु करके उसे सिकय िकया ?
भौितकवािी लोग कहते है िक पकृ ित िे उसका ििमाण
ु िकया था। पुिः
पश होता है िक पकृ ित तो जड है , उसिे सज
ृ ि कैसे िकया ? वासतव मे
अणु-परमाणुओं का संयोग करके उनहे सिकय करिेवाला एक सूकम
चैतनय ततव है , जो सवि
ु िकमाि ् है , िजसे बह अथवा परमातमा कहते है ।
वह समसत जगत ् मे ओतपोत है । वह अिािि और अिनत है । वह सत ् है
अथात
ु ् उसका अिसततव है ।
यह जगत ् और िे ह जड-चेति का एक अदत
ु सिममशण है । िजस
पकार जगत ् का आधार, आशय और संचालि करिेवाला परमातमा है , उसी
पकार िे ह का आधार, आशय और संचालि करिेवाला जीवातमा है ।
जीवातमा के िे ह से ििकल जािे पर िे ह जड एवं ििशेष हो जाता है तथा
िे ह के पञचततव (पथ
ृ वी, जल, अििि, वायु और आकाि) जगत ् के
पञचततवो मे िमल जाते है । ततवत: परमातमा और जीवातमा एक ही है ।
िे ह का सवामी जीवातमा होता है , िजसके मात सािनिधय से मि, बुिद और
इिनदयाँ सिकय होकर कायु करते है ।
यमाचायु कहते है िक िे ह मे रहिेवाले िजस चैतनय ततव के ििकल
जािे पर िे ह मत
ृ हो जाता है अथात
ु ् जड एवं ििशेष हो जाता है , वही तो
चैतनय सवरप बह है ।
ि प ाणेि िा पािेि मत यो ज ीवित क शि।
इतर े ण त ु जीव िनत य िसम निेत ावु पा िशत ौ।। ५ ।।
हन तं त इि ं प वक या िम गुह ं बह सि ात िम।्
यथ ा च म रणं प ापय आतम ा भव ित ग ौतम।। ६ ।।
िबि ाथ ु : कशि = कोई भी; मत यु : ि पाणेि ि अपािेि
जीव ित = मरणिील पाणी ि पाण से, ि अपाि से जीिवत रहता है ; तु =
िकनतु; यिसमि ् एतौ उपा िश तौ = िजसमे ये िोिो (वासतव मे पाँचो
पाणवायु) उपािशत है ; इतर े ण ज ीविनत = अनय से ही जीिवत रहते है ;
गौत म = हे गौतमवंिीय ििचकेता; गु हम ् सिा ति म् = (वह)
रहसयमय सिाति; बह = बह; च आतमा मरणम ् पा पय = और
जीवातमा मरण को पाप करक् ; यथा भवित = जैसे होता है ; इिम ् ते
हन त प वकया िम = यह तुमहे ििशय ही बताऊँगा।
वच िाम ृ त : कोई भी पाणी ि पाण से, ि अपाि से जीिवत रहता
है , िकनतु िजसमे ये िोिो (अथात
ु ् पाँचो पाणवायु) आिशत है , उस अनय से
ही (पाणी) जीिवत रहते है । हे गौतमवंिीय ििचकेता, (मै) उस गुह सिाति
बह का और मरिे का जीवातमा की जो अवसथा होती है , उसका अवशय
कथि करँगा।
सनिभ ु : यमाचायु ििचकेता को िे ह मे िसथत जीवातमा की मिहमा
बताकर बहततव के कथि का आशासि िे ते है ।
ििव या मृ त : मुखय पाण ही िविभनि कायो के अिुसार पाँच
वायुओं के रप
मे िवभक है िजिमे पाण और अपाि पमुख है । मिुषय के जीवि का
आधार पाण और अपाि से लिकत केवल पांच वायु (पाण अपाि ् वयाि
उिाि ्) ही िही है । शास पशास का जीवि धारण के िलए असाधारण
महतव है िकतु पाणी के जीवि का आधार उिसे िभनि उसका जीवातमा
होता है िजस पर पाण अपाि आिि पञचवायु रहते है । समसत इिनदयां
भी जीवातमा पर ही आिशत होती है । जीवातमा के होिे से ही जीवि होता
है । जीवातमा के रहिे से ही मि बुिद और इिनदयां अपिे कायु करते है ।
िे ह की मतृयु का िविुद चेतिा अथवा आतमा पर कोई पभाव िही
होता बह आतमा अथवा परमातमा िाशत िितय िुद और मुक है ।
यमाचाय ु बहततव के कथि का आशासि िे ते है । उतम गुर अिावशयक
आशासि िे कर िजजासु ििषय के धैयु को टू टिे िही िे ते।
यो िि मनय े प पध नते िर ीर तव ाय िे िहि ः।
सथ ाणु मनय ेऽ िुस ंय िनत य था कमु य थाश ु तम।् ।७।।
िबि ाथ ु ः यथ ाकम ु यथ ाशु तम ् = जैसा िकसीका कमु होता है जैसा
िजसका शवण होता है , िरी रतव ाय = िरीर धारण के िलए, अन ये िे िहि ः =
अिेक जीवातमा, योििं पपघनत े = योिियो को पाप होते है , अनये
सथ ाणु म ् अिुस ं यिनत = अिेक सथाणुभाव का अिुसरण करते है ।
वच िाम ृ त ः अपिे कम ु तथा ( शवण िकये हुए भाव) के अिुसार
अिेक जीवातमा जगम ् योिियो को पाप होते है अिेक सथावर हो जाते है ।
सनिभ ु ः मतृयु के पशात ् जीवातमा की अवसथा का वणि
ु है ।
ििव या मृ त ः परबह समसत अिसततवका आधार है तथा वह सवत

है । संसार मे िो पकार के पिाथ ु है अचेति ( जड सथावर, अचर एक ही
सथाि पर िसथर) तथा चेति ( चर जीिवत जगम ्) अचेति पिाथो मे
चेतिा पसुप रहती है तथा चेति पिाथो मे चेतिा जागत होती है । वक

सथावर होते है तथा उिमे चेतिा अिवकिसत अथवा िकंिचत ् जागत
अवसथा मे होती है ।
मतृयु के पशात मिुषय का जीवातमा अपिे कम ु अथवा शवण िारा
पाप भाव के अिुसार सथावर वक
ृ ो अथवा चेति पािणयो मे पवेि कर
लेता है । अंत मे जैसा मित वैसा गित होता है । चैतनयसवरप बह ही
जगत ् का एकमात आधार है ।

य ए ष सुपम ेष ु जागित ु क ामं क ामं प ुरष ो िि िम ु म ाण ः।


तिे व ि ुकं तद बह त िेव ाम ृ तमुच यते।
तिसमल लो काः िश ता ः सवे ति ु िा तय ोित कश ि।। एतद वै
तत।् । ८।।
िबि ाथ ु ः यः एष ः = जो यह काम म् = ( जीवो के कम ु के
अिुसार) भोगो का िि िम ु मा णः = ििमाण
ु करिेवाला, पुर षः = परमातमा जो
परमपुरष है , सुप ेष ु = ( सबके) सो जािे पर, ( पलयकाल मे भी) जागित ु =
जागता है , तत ् िुक म ् तत ् बह = वही िविुद अथवा िुभ जयोित सवरप
ततव है वही बह है , तत ् एंव अ मृ तम ् = वही अमत
ृ अिवि ाि ी उ चयत े =
कहा जाता है , तिसमि ् = उसीमे, सवे लोक ाः िश ता ः = सारे लोक
आिशत है , तत ् कश ि
--------------------------------------------
१ भागवत पुराण ( सकनध१०) मे यमलाजुि ु वक
ृ ो की तथा रामायण मे अहलया की जड पाषाण
से उदार को कथा पखयात है ।

उ= उसे कोई भी, ि अतयेित = अितकमण िही करता,एतद वै तत् =


यही तो वह है ।
वच िाम ृ त ः जो यह कामय भोगो का ििमाण
ु करिेवाला परमपुरष
है सबके सो जािे पर ( भी) जागता रहता है , वही िविुद ( िुभ जयोित
सवरप) ततव है वही बह है वही अिविािी कहा जाता है । उसीमे सब लोक
आशय पाते है उसका अितकमण कोई िही करता ( उससे बढकर कोई
िही है ।) यही तो वह है ( िजसे ििचकेता पूछ रहा है ।)
ििव या मृ त ः िवश का संचालि करिेवाली ििवय सता बह अथात
ु ्
परम महाि ् है । बह सिै व जागत रहता है तथा पािणयो के सोिे पर वह
जागत ही रहता है । पािणयो मे िे ह पाणािि के पसुप हो जािे पर चैतनय
ततव जागत ही रहता है । वह ििरं तर जागत है ।
मिुषयो के ििदा मे अचेत रहिे पर भी परमातमा पकृ ित के
माधयम से िवश मे िािा पकार के कामय पिाथो का ििमाण
ु करता रहता
है ।
परमातमा िविुद चैतनयसवरप सवपनि और सुषिप मे इि
अवसथाओ का मात साकी रहता है जैसे पकाििीप मिुषयो के भले और
बुरे कमो का मात साकी रहता है ।
जयोित सवरप परमातमा सबका पकािक है । उसके पकाि से ही
मि बुिद और इिनदयो सचेति होकर िकयािील होते है । यह तेजोमय है
िुभ है तथा अमत
ृ सवरप अथात
ु ् अिविािी एंव िितय है । समसत लोक
उस सवि
ु िकमाि ् परमातमा के आिशत रहते है । उस सवस
ु मथ ु सता का
अितकमण अथवा उललंघि कोई िही कर सकता। उससे बढकर अनय
कुछ भी िही है ।

यमाचाय ु ििचकेता को परमातमा का पितपािि अिेक पकार से करते हुए


पुिः पुिः कहते है िक यही तो वह बह है िजसे वह जाििा चाहता है ।
अििि यु थै क ो भ ु विं पिवष ो रपं रप ं प ितर पो बभ ू व।
एक सत था स वु भूता नत रा तमा रप ं रप ं पितरप ो ब िहश।। ९।।
वा यु यु थैक ो भुवि ं पिवष ो रपं रपं प ित रपो बभ ूव।
एक सत था सवु भूता नत रा तमा रपं रपं पितरप ो बिहश।।
१०।।
िबि ाथ ु ः यथा भुव िम ् पिवष ः एकः अििि ः रपम ् पितर पः
बभू व = िजस पकार सारे बहाणड मे पिवष एक ही अििि (तेज) िािा रपो
मे उिके पितरप अथवा अिुरप (समाि रपवाला जैसा) होता है , तथ ा =
उसी पकार, सवु भूत ानत रा तम ा= सब भूतो (पािणयो) का अनतरामा बहा,
एक ः रपम ् रपम ् पितर पः च बिहः = एक ( ही) िािा रपो मे उनही
के पितरप ( समाि रपवाला जैसा) है और उिके बाहर भी है ।
य़थ ा भु विम ् पिव षः एकः वायुः रपम ् रपम ् पित रप ः
बभू व = िजस पकार सारे बहाणड मे पिवष एक ही वायु िािा रपो मे
उिके पितरप (समाि रपवाला जैसा) होता है , तथा= उसी पकार ,
सवु भू ता नतर ात मा = सब पािणयो का अनतरातमा बह, एकः रपम ्
पितरप ः च बिहः = एक ही िािा रपो मे उनहीके पितरप
(समािरपवाला जैसा) है और उिके बाहर भी है ।
वच िाम ृ त ः िजस पकार सारे बहाणड मे पिवष एक ही अििि (
तेज) िािा रपो मे उिके पितरप मे उिके पितरप होता है उसी पकार
समसत पािणयो का अनतरातमा बह एक ही िािा रपो मे उनही के
पितरप होता है तथा उिके बाहर भी होता है । िजस पकार सारे बहाणड मे
पिवष एक ही वायु िािा रपो मे उिके पितरप होता है उसी पकार
समसत पािणयो का अनतरातमा बह एक ही िािा रपो मे उनहोिे पितरप
होता है और उिके बाहर भी होता है ।
सनिभ ु ः मंत ९,१० परसपर समबद है तथा िोिो मे अििि और
वायु के दषानत से बह की वयापकता तथा उसकी िििलप
ु ता कही गयी है ।
ििव या मृ त ः परमातमा अिितीय है । वह एक ही है । परमातमा की

सवु वयापकता को तथा िािा रपो मे उसके पकट होिे को अिेक दषानतो
से कहा जाता है । अििि सूकम एंव ििराकार रप से सारे बहाणड मे वयाप
है िकतु पजजविलत होिे पर साकार रप मे दिषगोचर होता है तथा उसके
ताप का अिुभव होता है । एक ही अििि अपिे आधारभूत वसतुओं के
आकार के अिुरप रपो मे ििखाई िे ता है । वह एक ही वसतुओ के

अिुरप अथात
ु ् तिाकार एंव तदप
ू पतीत होता है । इसी पकार समसत
पािणयो का अनतयाम
ु ी एक ही परमातमा िािा पािणयो के अिुरप िािा
रपो मे पकट होता है । परमातमा पािणयो के भीतर भी है और सवत
ु बाहर
भी है । यह परमातमा की मिहमा है । वह सवत
ु िवधमाि ् होकर भी अिलप
िििवक
ु ार और असंग है । आकाि से वायु वायु से अििि अििि से जल

१ अिेक उपििषिो मे पुिः पुिः पितपािित है िक परमातमा एक है । शेत०उप० मे अिेक मंतो


मे परमातमा के एक ही होिे की चचाु है ।
जयोितषा ं जयोितर ेकम ् ( यजुवि
े , ३.४.१)।
परमातमा के सब पािणयो और पिाथो मे अिुपिवष होिे की तैितिरय उप० इतयािि मे चचाु
है ।
२ रपं रपं पितरपो बभूव ( ब०ृ उप० २.५.१९)

और जल

पथ
ृ वी तथा अनय पिाथु उतपनि होते है । िजस पकार एक ही अििि सवत

पिवष अथात
ु ् वयाप है और अपिे आधार के अिुरप पतीत होता है उसी
पकार एक ही वायु सवत
ु पिवष अथात
ु ् वयाप है और अपिे आधार के
अिुरप तदप
ू अथवा तिाकार होकर पकट होता है ।
अििि और वायु की भाित परमातमा सभी पािणयो और पिाथो मे
अनतिििहु त होकर भी उिके अिुरप िािा पकार से पकट होता है । वह
सबके भीतर भी है और बाहर भी। परमातमा सवत
ु ओतपोत होकर भी
ििलप
े िििवक
ु ार और असंग है । यह परमातमा की अििवच
ु िीय मिहमा है ।
सूय ो य था सवु ल ोक सय चकु िु िल पयत े चाकुष ै बाु हाि ोषैः।
एक सत था स वु भूता नत रा तमा ि िल पयत े लो कि ुःखे ि ब ाहः।।
११।।
िबि ाथ ु ः यथा सवु ल ोकसय चकुः सू यु ः = िजस पकार समसत
लोक का चकु सूय ु ( पकािक सूयु) चाकु षै बाहि ोषै ः ि िल पयत े = (
मिुषयो के) िेतो से होिेवाले बाह िोषो से िलप िही होता, तथा = उसी
पकार, सवु भूत ानत रा तम ा एकः लोकि ु खेि ि िलपयत े = सब पािणयो
का अनतरातमा एक परमातमा लोक के िख
ु से िलप िही होता, बाह ाः =
वह सबसे परे है ।
वच िाम ृ त ः िजस पकार सारे लोक का पकािक सूय ु मिुषयो के
िेतो से होिे वाले बाहा िोषो से िलप िही होता उसी पकार समसत
पािणयो का अनतरातमा एक ( परमातमा) लोक के िख
ु ो से िलप िही होता।
वह तो सबसे परे है ।
सनिभ ु ः परमातमा ििलप
े है ।
ििव या मृ त ः िवश की अखणड चैतनय सता एक परबह परमातमा ही
है । सूकम िििवक
ु ार और ििलप
े है । िजस पकार िविाल वयोम मे एक
ही पकािक तेजीमय सूय ु है , जो मिुषयो के िेतिोष के कारण मिलि
अथवा िोषमय पतीत होिे पर उिके िेतिोष से िकसी पकाऱ भी पभािवत
एंव िलप िही होता, उसी पकार मिुषयो के बुिद आिि के िोष होिे पर भी
भीतर सिसथत जयोित सवरप परमातमा िोषमय िही हो जाता। परमातमा
मिुषयो के िुभािुभ कमो तथा उिसे उतपनि सुख िख
ु से िलप िही
होता। िविुद चैतनयसवरप परमातमा समपूण ु जगत ् मे ओत पोत होकर

भी उससे परे अथात


ु ् अिलप एंव असग रहता है ।

१ गीता मे यही भाव ५.१५ १३.३१ मे भी वयक िकया गया है । िडकराचायु िे इस मंत की
वयाखया मे िववतव
ु ाि का पुट िे ििया है ।

एक ो व िी सव ु भू ता नत रा तमा एकं रप ं बह ु ध ा य ः करोित।


तम ातमसथ ं य े ऽिुप शयिनत ध ीरासत े षां सुख ं िा शतं
िेतर े षा म।् । १२।।
िबि ाथ ु ः यः सवु भू ता नत रा तमा एकः = जो सब पािणयो का
अनतरातमा ( भीतर बसिेवाला) एक ( अिितीय) परमातमा, वि ी= सबको
िियिनतत करिेवाला, एक म ् रपम ् बहु ध ा करोित = एक रप को बहुत
पकार से कर लेता है ( बिा लेता है ), तम ् आतमस थम ् = उस अपिे भीतर
संिसथत को, ये धीराः अिु पश यिनत = जो जािी पुरष ििंरतर िे खते है ,
तेष ाम ् िाश तम ् सुख म् = उिका िाशत सुख( होता है ), इतेर षा म ् ि=
अनय का िही।
वच िाम ृ त ः जो सब पािणयो का अनतरातमा एक ( अिितीय)
परमातमा सबको वि मे रखिेवाला एक ( ही) रप को बहुत पकार से बिा
लेता है उसे अपिे भीतर संिसथत ( परमातमा) को जािी पुरष ििरं तर
िे खते है उिको अखणड सुख पाप होता है िस
ू रो को िही।
सनिभ ु ः यह मंत अतयनत महतवपूण ु है । मंत ९,१०,११,१२,१३ की
एक शख
ं ला है िजिमे एक ( अिदतीय) परमातमा का वणि
ु है । इि मंतो मे
परमातमा को सवभ
ु ूतानतरातमा कहा गया है । यह मंत शेताशतर उपििषद
के मंत ६.१२ के समाि है ।
ििव या मृ त ः परमातमा सिचचिािसवरप है । वह सत ् (सिा रहिेवाली)
ितकालाबािधत सता) है िचत (चैतनयसवरप) है और आिनि (आिनिसवरप)
है । वह समपूण ु जगत ् का आशय है । परमातमा जीवि का सोत है तथा
जीवि का आधार है । वह अिितीय है तथा सबको िियंतित करता है । वह
एक ही अपिे को अिेक रपो मे पकट कर िे ता है । वह परमातमा मिुषय

के भीतर हियाकाि मे ही सिसथत है तथा उसे खोजिे और पािे के िलए


कही अनयत िही जािा है । िववेकिील पुरष अनतमुख
ु ी होकर जाि और

धयाि से अपिे भीतर ही उसे िे खते है अथात


ु ् उसका साकात ् अिुभव
करते है । जो आतमििी जािी पुरष अपिे भीतर ििरनतर उससे
आनतिरक संबध बिाए रखते है उससे सफूत ु होकर कम ु करते है वे
ििरं तर ििभय
ु ता ििशनतता सुरका िांित और सुख पाप करते है । इसके
िवपरीत जो मूढ जि अपिे भीतर संिसथत परमातमा से िवमुख रहते है

१ एक एव िह भूतातमा भूते भूते वयविसथतः। एकधा बहुधा चव


ै दशयते जलचनदवत।्
( बहिबनि ु उपििषद १२) एक ही चनदमा जल मे बहुत पकार का पतीत होता है ।
२ कस तूरी कुण डल बस ै म ृ ग ढू ँढे बि मा िह ,
ऐसे घट घट र ाम है ि ु ििया ि ेख ै ि ािह।। ( कबीर )
घट िह खोजह ु भाई।

वे सिा भय िचतां आिडका अिांित और िख


ु से गसत रहते है । आतमिे व
का ििि
ु करिेवाले िितय सुखी रहते है ।
िि तय ो िित या िां च ेत िशेति िाम ेक ो बहू ि ां यो िवि धा ित काम ाि ।्
तम ामतमसथ ं य ेऽि ु पश यिनत ध ीरासत े षां िा िनत ः िा शती
िेतर े षा म।् ।१३।।
िबि ाथ ु ः यः िि तय ाि ाम ् िि तय ः चेत िा म ् चे ति ः =जो िितयो
का भी िितय चेतिो का भी चेति है , एक बहू िाम ् कामा ि ् िवि धा ित =
एक ही सबकी कामिाओ के पूण ु करता है अथवा जीवो के कमफ
ु लभागो
का िवधाि करता है , तम ् आत मसथम ् = उस आतमिसथत को, ये धीराः
अिुप शय िनत = जो जािी ििरं तर िे खते है , तेष ाम ् िा शत ी िा िनत ः
इतर े षा म ् ि = उिको अखणड िांित ( िमलती है ) िस
ू रो को िही।
वच िाम ृ त ः जो िितयो का भी िितय चेतिो का भी चेति है जो
एक ही जीवो के कमफ
ु लभोगो का िवधाि करता है , ( अथवा अिनत
कामिाओ को पूण ु करता है ।) उस आतमिसथत परमातमा को जो जािी
अपिे भीतर ही ििरं तर िे खते है उनही को अखणड िाित पाप होती है
िस
ू रो को िही।
सनिभ ु ः यह एक अनय पिसद मंत है । इसमे उचचकोिट का कावय
सौनिय ु है तथा जाि एंव भिक का सुंिर समनवय है । इस कणठसथ कर
लेिा चािहए। इसका पूवाद
ु ु शेत० उप० ६.१३ तथा उतरादु ६.१२ मे इसी
पकार है ।
ििव या मृ त ः धनय है वे िववेकी पुरष जो संसार के भोगो की
कणभंगरु ता और सारहीिता को िे खकर अनतमुख
ु ी हो जाते है तथा अपिे
भीतर िसथत ििवय
आतमिे व का साकात ् अिुभव करके कृ तकृ तय हो जाते है । संसार के भोगो
से आतयिनतक तिृप िही होती तथा उिके पलोभि मे फँसकर िुषय
अपिी िांित और ििक खो बैठता है । बिहजग
ु त ् के सुख मग
ृ षृणा की
भाितं मिुषय को भटकाते ही रहते है तथा मिुषय अंत मे थककर और
ििराि होकर पछताता ही रह जाता है । सता और धि के पलोभि से
गसत हो जाता है । सता और धि के पलोभि से गसत मिुषय सतपथ को
तयागकर कुकुम करिे लगता है तथा भय़ िचतां और कलेि से गसत हो
जाता है । यह भौितक पिाथो मे सुख और िांित िे िे की कमता िही िही
होती। यह एक धुव सतय है िक आतयिनतक सुख अथवा अखणड आिनि
सिै व अपिे भीतर से ही पाप होता है । अखणड आिनि का सोत परमातमा
अपिे भीतर ही िसथत है ।
परमातमा िितयो का भी िितय अथात
ु ् परमिितय और चेतिो का
भी िचंति अथात
ु ् परमचेति है । वह मिुषयो के कमफ
ु ल का िवधाि करता
है । सवि
ु िकमाि ् परमातमा ही कामिा पूित ु करिे मे समथ ु है । वासतव मे
परमातमा की पािप होिे पर संसार की कोई कामिा िेष िहीं रहती तथा
मिुषय आतमतप
ृ हो जाता है । िववेकिील पुरष अपिे भीतर ही (हियकेत
मे िसथत बुिद के भीतर ही) उस ििवय सता का साकातकार करते है और
अखमणड िांित पाप कर लेते है । वे अपिे भीतर िवराजमाि परमातमा की
ििवय सता से सफूत ु (अनय पेिरत) होकर कतवुयकम ु करते है । िकतुं जो
अजािी आतमिे व से िवमुख होकर जगतपपचं मे ही फंसे रहते है , वे भय
िचंता कलेि और िख
ु से गसत रहते है । ििशय ही आतमििी पुरष
आिनि पािप कर लेता है ।
तिेत ििित म नयनत े ऽिि िु शयं प रमं स ुखम।्
कथंत ु त ििज ाि ीयां िकम ् भा ित िव भा ित व ा।।१ ४।।
िबि ाथ ु ः तत ् अििि ु शयम ् परमम ् सु खम ् एत त ् इित
मन यनत े = वह अििवच
ु िीय परमसुख यह है ऐसा ( जािीजि) मािते है ,
तत ् कथम ् तु िवज ािीय म् = उसे कैसे भली पकार जािूं, िकमु = कया,
भा ित वा िवभ ाित = पकािित होता है या अिुभूत होता है ।
वच िाम ृ त ः ििचकेता िे मि मे कहा- यह अििवच
ु िीय सुख यह है
ऐसा ( जािीजि) मािते है । उसे कैसे भली पकार जािू? कया (ततव) सवतः
पकािित होता है कया वह अनय के िारा पकािित होता है ? (अथवा उसका
अिुभव कया होता है ?)
सनिभ ु ः ििचकेता की अििवच
ु िीय िांित के िवषय मे िजजासा
िेष है ।
ििव या मृ त ः ििचकेता िे जािीजि िारा परमिाित का वणि

धयािपूवक
ु सुिा, िकतुं उसके मि मे यह िजजासा िेष रह गई िक वह
सवयं उसे कैसे
जाि ले। कया ततव पकािित होता है तथा उसका अिुभव कैसा होता है ?
परमातमा का साकातकार कैसा होता है ? वह परमततव यही है , इसे िकस
पकार जािा जाए? अिििे शय कया है ? कया वह सवतः पकािित होता है

अथवा िकसी अनय के पकाि से पकािित होता है ? तथय कया है ? उसका


अिुभव कैसा होता है ? ििचकेता कुछ अिधक सपषीकरण चाहता है ।
अिुभाित कया है िवभाित कया है ?
ि त त स ू यो भा ित ि चन दता रकं ि ेमा िवध ुत ो भ ािनत
कुतो ऽयम ििि ः।
तमेव भा नतमि ुभा ित सवु तसय भा सा सवु िमि ं िवभ ाित।।१ ५।।
िबि ाथ ु ः तत ि सूय ु ः भाित ि चनदत ार कम् = वहां ि सूयु
पकािित होता है ि चनदमा और तारो का समूह, ि इम ाः िवध ुत ो
भा िनत = ि ये

१ गीता ( १२.३) अकरबह अिििे शय अवयक है ।

िवधुत ् ही पकािित होती है ( ि ये िबजिलयां चमकती है ), अयम ् अििि ः


कुतः = ( लौिकक) अििि कहां ( यह पजजविलत होिेवाला अििि कहा है
कैसे चमक सकता है ?) तम भाि तम ् एव सवु म ् अिुभ ाित = (अिु= पीछे
बाि मे) उसके पकािित होिे पर ही ( उससे पकाि लेकर बाि मे) सब
पकािित होता है । ( ये सब पकािित होते है ),तस य भा सा इिम ् सवु म ्
िव भा ित = उसीके पकाि से यह सब ( समपूण ु जगत ्) भी पकािित होता
है ।
वच िाम ृ त ः वहां ि सूयु पकािित होता है ि चनदमा और तारागण
ि ये िवधुत (िबजिलयां) पकािित होती है अििि (तो वहां) कैसे चमकेगा ?
उसके पकािित होिे के बाि ही सब पकािित होता है उसके पकाि से ही
यह सब कुछ पकािित होता है ।
सनिभ ु ः यह मंत अतयनतं महतपूण ु और पिसद है । इसे अवशय
कणठसथ कर लेिा चािहए। मुणडक उप० ( २.२..१०) तथा शेत० उप० (६.१४)
यह पूवव
ु ती मंत १४ के ‘भांित’ और ‘िवभाित’ की वयाखया है ।
ििव या मृ त ः परबह परमातमा पकािसवरप है । परमातमा एक सूकम
एवं ििवय पकाि है । परमातमा सवंयपकाि है । परमातमा के पकाि की
अपेका सूय ु चनद तारागण और िवधुत का पकाि तुचछ है । उस ििवय
पकाि की अपेका पथ
ृ वी पर पजजविलत होिेवाला यह अििि तो और भी
अिधक तुचछ है ।
सूकम ििवयलोक मे सूयु, चनद, तारागण, िवधुत और अििि के
पकाि का अिसितव ही िही है । आतमा की जयोित चेति एंव ििवय है
तथा सूयु आिि
की जयोित भौितक होिे के कारण जड है । सूय ु चनद आिि उसके पकाि
से ही िे िीपयमाि होते है । उसके पकाि से ही यह जड जगत ् पकािित है
अथात
ु ् उसके पभाव से ही अिसततवाि ् है तथा संचािलत होता है । (यह
‘अिुभाित’ और ‘िवभाित’ का अथ ु है ।) परमातमा जयोितयो की भी
जयोित अथवा समसत पकाि का मूल है ।
परमाणुओ के भीतर और उिके मूल मे ऊजा ु है तथा ऊजा ु के
भीतर और उसके मूल मे परमातमा को िचतििक है । परमातमा
चैतनयसवरप है । जड पिाथो मे चेिताििक पसुप है तथा वह वक
ृ ो आिि
विसपित मे अलप जागत है और चेति पािणयो मे िविेष जागत है ।
चेतिा ही सब कुछ है । चैतनयसवरप परमातमा ही जगत ् का आशय है ।
यह सब कुछ उसीमे उतपनि होता है उसीसे संचािलत होता है तथा उसीमे
िवलीि होता है ।
धयाियोग जाियोग का पूरक है उससे संबद है । धयाियोगी
परमातमा की ििवय जयोित का साकातकार अपिे भीतर करते है । आतमा

मे संिसथत पकाि ििवय है ।


सूयु चनद आिि के जड पकाि से उसे िही समझा जा सकता है ।

वह अिचनतय है तथा धयाि की उचचावसथा मे उस अधूम जयोित को


अिुभूित होती है । ििवय चकु से ही साकातकार होता है ।
३ ४

िवराट ििवय चेतिा मे संिसथत धयाियोगी का अंहकार ििवय हो


जाता है तथा उसकी अिुभूित होती है अहं बहािसम (मै बह हूँ)। अहं
बहािसम एक अिुभूित है मात िबि कहकर ऐसा माि लेिा हासयासपि
है । धनय है वे महापुरष जो अपिे भीतर सूकम आिनिलोक मे रहते है
और ििवय जयोित का ििि
ु करते है ।


१ धयाि ाव िसथत तिग तेि मि सा पशयिनत यं योिगिः।
योगी धयाि मे उसका ििि
ु करते है ।
२ गीता ( ११.१२) मे उस ििुिरुीकय महापकाि की चचाु है ।
३ जयोित िरवाध ूमकः ( कठ उप० २.१.१३)
४ ििवय ं ििा िम ते चक ुः ( गीता, ११.८)।

िितीय अ धयाय

तृ तीय वलली
ऊध वु मूल ोऽव ाक िाख ः ए षोऽ शत थः सि ात िः।
तिे व ि ुकं तद बह त िेव ाम ृ तमुच यते।
तिसम ँललो काः िशत ाः सव े ति ु िा तये ित कश ि।। ए तद व ै
तत।् । १ ।।
िबि ाथ ु ः ऊधव ु मूल ः= ऊधव ु ः ( ऊपर) मूलवाला, अवाकि ाख ः= िीचे
की ओर िाखावाला, एष ः सि ात िः अशतथ ः= यह सिाति अशतथ
(पीपल का वक
ृ ), तत ् एं व िु कम ् = वह ही िविुद ततव है । तत ् बह=
वह बह है , तत ् एव अम ृ तम ् उचयत े = वह ही अमत
ृ कहलाता है , सवे
लो काः तिसमि िशत ाः = सब लोक उसके आिशत है , कशि उ तत ् ि
अत ये ित = कोई भी उसका उललघंि िही कर सकता। एतद वै तत ् =
यही तो वह है ।
वच िाम ृ त ः ऊपर की ओर मूलवाला और िीचे की ओर िाखावाला
यह सिाति अशतथ वक
ृ है । वह िविुद तेजोमय ततव है वह बह है । वह
अमत
ृ कहा जाता है । समसत लोक उसमे आशय लेते है । (पितिषत है )।
कोई उसका उललंघि िही कर सकता है । यही वह है (िजसे तुम खोज रहे
हो)।
सनिभ ु ः यह एक पखयात मंत है । इसके अिेक अथ ु िकये गये है ।
िडकराचायु िे इसकी वयाखया अतयनत िवसतार से की है ।
ििव या मृ त ः यह संसार एक अशतथ वक
ृ के सदि है िकतुं इसका
मूल ऊपर की ओर तथा िाखाये िीचे की ओर है । यह सिाति है अथात
ु ्
अिाििकाल से चला आ रहा है िकतुं िितय (िाशत) िही है । यह
पिरवति
ु िील है । यह अवयय और अपिरिचछनि पतीत होते है हुए भी
ऐसा िही है । यह जड अथात
ु ् िािवाि ् ही है । यह चैतनय ततव से
संचािलत एंव गितिील होता है । अशतथ वक
ृ के रपक से संसार
आधयाितमक वयाखया की जाती है ।

१ श का अथु है आिेवाला कल। अशसथ की वयुतपित है श अथात


ु ् कल ऐसा ही िसथत ि
रहिेवाला है , ििरं तर पिरवति
ु िील तथा गितिील है । संसरती ित संसार गचछतीित जगत।्
गीता मे भी संसारवक
ृ का वणि
ु ( १५.१,२,३,४) िकया गया है ।
छानिोिय उप० (६.१२.१, २,३) सद बह से यह समसत िवश उतपनि हुआ, जैसे नयगोध (बट)
बीज से महावक
ृ होता है ।
ऋिवेि मे भी वक
ृ की चचा ु है , िजसकी िकरणो की जडे ऊपर है तथा िकरणे िीचे की ओर
पसािरत होती है ।
शेत० उप० (६.६) मे संसार-वक
ृ की चचाु है ।

संसार को वक
ृ कहिे का आिय यह है िक इसका छे िि हो सकता है ।

जािी पुरष वैरािय से इसका उचछे ि कर लेते है ।


संसारवक
ृ मे मूल अिधक महतवपूण ु है , कयोिक इसके मूल मे
परमातमा ही िसथत है , िजससे इसकी उतपिि होती है । मूल के ऊधव ु होिे

का भाव यह भी है िक वह महाि एवं पूजय है । मूल का जाि होिे पर


अथवा परमातमा का जाि होिे पर इसके रहसय का जाि हो जता है ।
परमातमा कारण है तथा संसार का काय ु िछपा हुआ रहता है । साितवक
गुण (सतव) के िवकास से मिुषय ऊधवत
ु ा की ओर पवि
ृ होता है तथा
राजस और तामस गुण (रज, तम) की विृद होिे से मिुषय अध: (िीचे की
ओर) िगरिे लगता है । भौितक वासिाएं मिुषय को पतिोनमुख कर िे ती
है ।
िजस पकार वक
ृ मे िाखाएं, पणु, फल आिि उसका िवसतार करते है ,
उसी पकार लोक, िािा पिाथ ु और पाणी संसार का िवसतार करते है ।
वासतव मे बह ही समपूण ु बहाणड का मूल अथात
ु ् कारण है और इसमे
ओतपोत है । बह ही बहाणड मे वयक है ।
परबह िविुद जयोित:सवरप है और उसे अमत
ृ अथात
ु अिविािी
एवं आिनिसवरप कहा जाता है । समपूण ु लोक उसके आिशत है । उस
सवि
ु िकमाि बह का कोई अितकमण िहीं कर सकता। यही तो वह है ,
िजसे ििचकेता जाििा चाहता है ।
यििि ं िकं च ज गत सवव प ाण ए जित िि : सृ तम।्
मह दयं व जमुदत ं य एत ििि ु रम ृ तासत े भव िनत।।२।।
िबि ाथ ु : िि : सृ तम ् = ििकला हुआ, उतपनि हुआ ; इिम ् यत ् िकं
च = यह जो कुछ भी ; सवु म ् जगत ् =सारा जगत ् है ; पाणे एजित =
पाण मे चेषा करता है ; एतत ् उदतम ् बजम महत ् भयय ् ये िवि ु : =
इस उठे हुए वज (के समाि) भयरप (ििकिाली) को जो जािते है ; ते
अम ृ ता : भविनत = वे अमत
ृ हो जाते है ।
वच िाम ृ त : (परमातमा से) ििकला हुआ यह जो कुि भी समपणु
जगत ् है , पाण(पाणरप परमेशर) मे चेषा करता है (गितिील होता है ) इस
उठे हुए वज के समाि महाि ् भयरप परमेशर को जािते है वे अमत
ृ हो
जाते है ।
सनिभ ु :परमातमा समसत गित का कारण है ।
य एत द िवि ुरम ृ त ासत े भविनत (कठोप० , २.३.९ तथा शेत०
उप० , ३.१ और ३.१०) मे भी है ।
१. वृ कश बशिात ् – िवचछे ि होिे से वक
ृ कहलाता है ।
२.िवषणो : परम ं पिम ् -इसका मूल िवषणु का परमपि है ।

ििव या मृ त : यह जगत परबह परमातमा से उतपनि होता है ।


परमातमा इस जगत ् का िििमिकारण तथा उपािािकारण है । परमातमा

समपूण ु जगत ् मे वयाप एवं ओतपोत है । जगत ् की गितिीलता (एजि


अथात
ु कतपि गमि चेषा) का आधार परमातमा ही है । जगत पाणसवरप
बह से पािभ
ु ूत
ु होकर गितिील होता है । परमातमा की पाणििक उसमे
पचछनि तथ उससे अिभनि है ।
परमातमा के भय अथात
ु कठोर अिुिासि से जगतचक चलात है ,
जैसे िकसी िासक के ऊपर उठाये हुए वज (िस) को िे खकर अिुचर
कमरुत होते है । परमातमा की पचछनि मायाििक अथवा पकृ ित का एक
कठोर िवधाि है , िजसे मिुषय अपिी अलपबुिद से िहीं जाि पाता तथा
िजसके िारा मिुषयो को उिके कमाि
ु ुसार सुख और ि :ु ख अथवा पुरसकार
और िणड पाप होते है । परमातमा की िवशवयवसथा के िियमो का
अितकमण िहीं हो सकता।

जो परमेशर के तेज और पताप को भली पकार समझ लेते है वे


जाियोग िारा अमत
ृ अथात
ु समसत भय से मुक तथा आिनिमय हो
जाते है ।
भय ािसय ाििि सतप ित भय ात ् तपित स ू यु :।
भय ाििनदश व ायुश मृ तयु धा ु व ित प ञचम :।।३।।
िबि ाथ ु : असय भया त ् अििि : तप ित =इसके भय से अििि
तपता है ; भया त ् सू यु तप ित = भय से सूय ु तपता है ; च भय ात ्
इन द: वायु : =और भय से इनद, वायु ; च पञचम : मृ तयु : धाव ित = और
पाँचवाँ मतृयुिेवता िौडता है अथात
ु कायु मे पवि
ृ होता है ।
वच िाम ृ त : इसके भय से अििि तपता है , इसके भय से सूयु
तपता है , इसके भय से इनद, वायु और पाँचवाँ मतृयुिेवता काय ु मे पवि

होते है ।
सनिभ ु : परमातमा के तेज का वणि
ु है । इस मंत से िमलता हुआ
मंत तै० उप० (२.८) मे भी है ।
ििव या मृ त :िवश की परम सिा एक परबह परमातमा ही है ।
परमातमा ही इस िवश का धारण, पोषण एवं संचालि करता है । उसके
सामथयु से इस िवश की वयवसथा होती है । उसके पताप से अििि मे
१. कुमभ के ििमाण
ु मे कुमभकार िििमिकारण तथा िमटटी उपािािकारण होती है । परमेशर
(मायासिहत बह) इस जगत का िििमिकारण तथा उपािािकारण िोिो ही है । मायारिहत ,
िविुद चत
ै नय बह कोई रचिा िहीं करता।
२. कमु पधाि िवसव किर राखा , जो जस करई सो तस फल जाखा।

िाहकता है तथा
सूय ु मे तेज है । इनद, वायु, आिि िे व उसकी ही िविभनि ििकयो के
पतीक है ।
मतृयु जो िवकराल पतीत होती है और पािणयो का पाण हरण करिे
के िलए मािो वयाध की भांित भागकर उिको कविलत कर िे ती है ,
परमातमा के कठोर िवधाि के कारण ही पवि
ृ होती है । मतृयु भी
परमातमा को ही एक िवभूित है , मािो परमातमा का एक रप है । जो

िववेकिील पुरष मतृयु के सवरप को जािकर उसके भय से भयभीत िहीं


होते तथा उसमे परमातमा का ििि
ु करते है , उिके िलए मतृयु एक
महोतसव हो जाती है । मतृयु एक िववेकपि गुर है ।िरीर का िविाि होता
है , आतमा तो अिविािी है । जो सवयं को चैतनयसवरप आतमा मािता है ,
उसे मतृयु का भय और िोक िहीं होते। जोएकाकर बह (ॐ) का समरण
करते हुए पाणिवसजि
ु करता है , वह परमगित को पाप कर लेता है ।

अजािी मतृयु से मतृयु को पाप करता रहता है । जड िे ह की मतृयु होिे


पर चैतनय आतमा िेष रह जाता है , जो अिविािी है । आतमजािी मतृयु


के भय का अितकमण कर िे ता है तथा समसत भयो से मुक होकर अभय


हो जाता है ।
इह च ेिि कद ब ोदं ु प ाक् िर ीरस य िवस स :।
तत : सगे षु ल ोकेष ु िर ीर तव ाय कल पते।। ४ ।।
िबि ाथ ु : चेत ् = यिि ; िरी सय िवस स: पाक् = िरीर के पति
(िविाि) से पूव ु ; इह = यहां इस िरीर मे ही ; बो दु म ् अिकत ् = जाििे
मे समथु हो सका ; तत : सगे षु लोकेष ु = अनयथा सगो (कलपो) मे लोको
मे ; िरी रतव ाय कल पते = िरीरभाव को पाप करिे मे ; िरीर-धारण
करिे मे िववि होता है ।
वच िाम ृ त : यिि िे ह छूटिे से पूवु, इस िे ह मे ही आतमसाकातकार
होिे मे समथु हो सका (तो ठीक है , सौभािय है ), अनयथा कलपो तक लोको
मे िरीरभाव को पाप करता रहे गा।
सनिभ ु : इस िे ह के रहते हुए ही आतमसाकातकार कर लेिा
चािहए। ‘सग’ु के अिेक अथु िकये गये है ।
ििव या मृ त : मािव-जीवि की सवोचच उपलिबध यह है िक मिुषय
जीविकाल मे ही, िे ह के छूटिे से पूवु, िवश की परम सिा का साकातकार
१. मृ तयु : सवु हर शाहम ् (गीता, १०.३४)
२. गीता (८.१३)
३. कठोपििषद (२.१.२, १०,११)
४. कठोपििषद (२.२.४)

कर ले तथा अपिे भीतर संिसथत िचनमय आतमा और परमातमा की


एकता की अिुभूित कर ले। अिेक ऋिषयो िे अिेक पकार से इसे जीवि
की कृ ताथत
ु ा कहा है । कोई पाणी अनय योिि मे ििवयता का ऐसा अिुभव
िहीं कर सकता िकनतु िवकास-पिकया के ििखर पर िसथत मिुषय इसी
जीवि मे अमत
ृ तव की पािप कर सकता है । यिि मिुषय-योिि पाप करके
वह मुकातमा होिे के परम लाभ से वंिचत रह जाता है तो महाि ् िवििष
है । बह की ििवयािुभूित होिा जीवि की साथक
ु ता है । यिि मिुषय

परमातमा की पािप िहीं करता तो वह िरीरभाव मे भटकता ही रहता है ।


बहवेिा बह को पाप कर लेता है ।

यथ ाऽऽिि े त थाऽ ऽतमिि य था स वपि े तथ ा िप तृ ल ोके।


यथ ापसु पर ीव िदि े तथ ा गन धवु लो के छायात पय ोिरव
बहल ोके।।५।।
िबि ाथ ु : यथा आिि े तथा आतम िि = जैसे िपण
ु मे, वैसे
अनत:करण मे ; यथा सवपि े तथ ा िपत ृ ल ोके = जैसे सवपि मे , वैसे
िपतल
ृ ोक मे ; यथा अप सु तथा गनधव ु लो के = जैसे जल मे, वैसे
गनधवल
ु ोक मे ; पिर िदि े इव = िीखता-सा है ; बहलो के छाया तप यो :
इव = बहलोक मे छाया और आतप(धूप) की भांित।
वच िाम ृ त : जैसे िपण
ु मे (पितिवमब िीखता है ), जैसे िुद अनत:
करण मे बह (ििि
ु होता है ), जैसे सवपि मे, वैसे िपतल
ृ ोक मे , जैसे जल
मे, वैसे गनधवल
ु ोक मे (परमातमा) िीखता-सा है । बहलोक मे िाया और
धूप की भांित (पथ
ृ क-पथ
ृ क िीखते है ।)
सनिभ ु : सथािभेि होिे पर भी परमातमा के अिुभवो मे एक
तारतमय है ।
कठोपििषद, मनत १.३ मे छाया-आतप की चचाु है ।
ििव या मृ त : परमातमा का ििि
ु मािव-िे ह के भीतर ही होिा
िितानत संभव है । िजस पकार िपण
ु मे पितिबमब सपष िीख जाता है ,
उसी पकार मिुषय के ििमल
ु अनत:करण मे भी परमातमा का ििि
ु संभव
हो जाता है । मिुषय का अनत:करण काम, कोध, लोभ, मि, मोह, राग, िे ष,
भय, िचनता, आिि िवकारो से आचछािित होिे पर वह परमातमा का ििि

अथात
ु उसका अिुभव िहीं कर सकता। िुद और ििमल
ु अनत:करण
परमातमा का साकातकार करिे मे समथु होता है ।
१. केि उपििषद (२.५) मे कहा है िक यिि मिुषय िरीर के रहते हुए परबह को जाि लेता है
तो धनय है , अनयथा महाि ् िविाि है । बह
ृ ० उप० , ८.१० तथा ४.४.१४ मे भी यही कहा गया
है ।
२. बह वेि बहै व भव ित (मुणडक उप० , ३.२.९)-बह को जािकर बह ही हो जाता है ।
बह िविापिो ित परम ् (तै० उप० , २.१.१)

िजस पकार सवपि मे कामिाओं के अिुसार अिेक पकार के


किलपत दशय ििखाई िे ते है , िजिमे कोई सामंजसय िहीं होता, उसी पकार
सकाम कमो से पाप िपतल
ृ ोक मे बह का अवयविसथत एवं असपष ििि

होता है । िजस पकार मिलि एवं चंचल जल मे पितिबमब सपष िहीं होता,
उसी पकार गनधवल
ु ोक मे बह का ििि
ु असपष होता है । बहलोक शष

लोक है , िजसमे आतमा और बह छाया और पकाि की भांित सपष िीख
जाते है । वक
ृ की छाया अनधकार िहीं होती तथा अलपपकाि होती है ।
आतमा और बह के एक होिे पर अलप और पूणु का भेि िहीं रहता।
मिुषय का िे ह भी एक लोक है तथा इसके भीतर बहसाकातकार के
अिेक सतर ही मािो अिेक लोक है । मिुषय का िचि भी एक संसार है ,
िजसमे मिुषय जनम,मरण, पुिज
ु नम, लोक-लोकानतरो का तथा बनधि और
मोक का अिुभव करता है । मिुषय अपिे भीतर ही चेतिा की अिेक

परतो मे अथवा चेतिा के िविभनि सतरो पर बह की आंििक अिुभूित


करता है तथा अनत मे बह के साथ तािातमय (तदप
ु ता, एकातमता, एकता)
होिे पर िोिो का अभेि हो जाता है । वह ‘अहं बहा िसम ’ (मै बह हूं) की
अििवच
ु िीय अवसथा अथवा पूणतुव की अवसथा है । बह ही बहलोक है ।
इिनदय ाण ां पृ थि भा वमुिय ासतम यौ च य त।्
पृ थगुतपदम ाि ाि ां मतव ा ध ीरो ि िो चित।।६।।
िबि ाथ ु : पृ थक् उत पदमा िा िाम ् इिनद या णां = पथ
ृ क
उतपनि हुई इिनदयो का ;यत ् पृ थक् भा वम ् = जो पथ
ृ क भाव (सवरप
सिा है ); च उिय ासतम यौ (भाव म ् )= और (उिका जो) उिय तथा असत
(लय) हो जािा (सवभाव है ) ; मत वा =( उसे)जािकर ; धीर: ि िोचित
=धीर पुरष िोक िहीं करता।
वच िाम ृ त : पथ
ृ क् -पथ
ृ क् भूतो से उतपनि इिनदयो के जो िविभनि
भाव (पथ
ृ क् सवरप )है तथा उिका जो उिय और असत होिा है , उसे
जािकर बुिदमाि पुरष िोक िही करता।
सनिभ ु : इिनदयां िािवाि ् है ।
ििव या मृ त : पािणयो की इिनदयां िविभनि भूतो से उतपनि होती है
तथा उिके पथ
ृ क् -पथ
ृ क् पयोजि होते है । इिनदयां अपिे-अपिे कारणो से
उतपनि होती है तथा वे आतमा से पथ
ृ क् होती है । उिका उिय होता है
तथा असत होता है िकनतु चेति आतमा सिै व एकरस एवं अपिरवत
ु ििील
है । बुिदमाि पुरष इिनदयोको आतमा से पथ
ृ क् तथा िािवाि ् जािकर
उिके संबंध मे िोकाकुल िहीं होते।

१. िचिम ेव िह संसार : ततपयत ेि िोधय ेत ् (मैतेयी उपििषद)

सांखय-ििि
ु के अिुसार मूल पकृ ित अवयक है तथा उसके तेईस
ततव वयक है । पुरष तथा पकृ ित और तेईस ततव िमलकर कुल पचचीस
ततव सिृष की रचिा के कारण है । पकृ ित से महत ् ततव, महत ् (बुिद) ततव
से अहं कार तथा अहं कार से मि, पांच जािेिनदयां और पांच सूकमभूत
(पांच तनमाता) उतपनि होते है । शोत (काि) , तवक् चकु, रसिा और घाण

(िािसका) पांच जािेिनदयां है तथा वाक् (वाणी) पािण पाि पायु (मलतयाग
की इिनदय) और उपसथ (मूततयाग की इिनदय) पांच कमिेनदयां है । पांच
सूकमभूत िबि, सपिु,रप, रस, गनध है तथा आकाि , वायु, तेज (अििि),
जल और पथ
ृ वी पांच सथूलभूत (महाभूत) है इिनदयो के पथ
ृ क् -पथ
ृ क्
िवषय है , जैसे शोत का िवषय िबि है तथा उिके पथ
ृ क् -पथ
ृ क् पयोजि
है , जैसे शोत का पयोजि सुििा है ।
मिुषय की जागत -् अवसथा मे मि तथा इिनदय सिकय रहते है ।
यह मािो उिका उिय है । मिुषय की सवपिावसथा मे मि सिकय रहता है
तथा इिनदयां िििषकय रहती है , यदिप सवपि मे इिनदयो की सिकयता
पतीत होती है । मिुषय की सुषुपावसथा मे मि तथा इिनदयां िििषकय
रहते है । यह मािो उिका असत होिा है । धीर अथात
ु बुिदमाि पुरष
िे ह,मि और इिनदयो को िितय चेति आतमा से पथ
ृ क् जािकर तथा
उिके कायक
ु लाप को अपिे सवरप से पथ
ृ क् जािकर िोक, भय और
िचनता से गसत िहीं होता। जाि तथा धयाि की उचचावसथा मे मिुषय

की अनतशेतिा मि और बुिद से भी परे जाकर मात साकी हो जाती है ।


इिनदय ेभय : परं मि ो मिस : सतवम ु िमम।्
सतव ाि िध मह ाि ातमा म हत ोऽव यकम ुिम म।् ।७।।
अव यक ािु प र: पुरष ो वय ाप कोऽ िलि ड एव च।
यं ज ातव ा म ु चयत े ज नतु रम ृ ततव ं च ग चछित।।८।।
िबि ाथ ु : इिनद येभय : मि: पर म ् =इिनदयो से मि शष
े ऊंचा और
सूकम (है ) ;मिस : सतवम ् उि मम ् = मि से बुिद उिम है ; सतव ात ्
मह ाि ् आतमा अिध = बुिद से महाि, आतमा (महत ् ततव, समिष बुिद
अथवा िहरणयगभु) ऊंचा है ; मह त: अव यकम ् उिमम ् = महाि ् आतमा
(महत ् ततव, समिष बुिद अथवा िहरणयगभु) से अवयक (पकृ ित) उिम है ।
१.ऐतरे य उपििषद (१.१.४, १.२.४,) मे इिनदयो की उतपिि का वणि
ु पकारानतर से िकया गया
है ।
२.तरित िोकमात मिव त ् (छा० उप० , ७.१.३)
उपििषिो तथा भगवदीता मे िोक, भय, िचनता आिि से मुक होिे का उपिे ि अिेक सथािो
पर तथा अिेक पकार से िकया गया है ।

तु अवयका त ् वयाप क: च अिल िड : एव पुरष : पर : = परनतु


(तथा) अवयक से (भी) वयापक और अिलिड (आकाररिहत )पुरष शष
े (है )
;यम ् जा तव ा जनतु : मुच यमे = िजसे जािकर जीवातमा मुक हो जाता है
; च अम ृ ततव म ् गचछित = और अमत
ृ सवरप को पाप हो जाता है ।
वच िाम ृ त : इिनदयो से मि शष
े अथवा सूकम है , मि से बुिद
उिम है , बुिद से महाि ् आतमा (समिष बुिद, महत ् ततव, अथवा
िहरणयगभु) उिम है , महाि ् (महत ् ततव)से अवयक उिम है । परनतु अवयक
से भी वयापक और आिलिड पुरष शष
े है , िजसे जािकर जीवातमा मुक हो
जाता है और अमत
ृ सवरप को पाप हो जाता है ।
सनिभ ु : सूकमता के आधार पर शष
े ता का कम विणत
ु है गीता
का शोक ३.४२ मंत ७ के समाि है । इि मंतो के अिेक अथ ु िकये गये
है ।
ििव या मृ त :मिुषय की इिनदयां सथूल िरीर की अपेका सूकम तथा
अिधक शष
े है । इिनदयां मि के विीभूत एवं अधीि रहती है , अत: मि
इिनदयो की अपेका अिधक सूकम और बलवाि है । जब मि मे ऊहापोह
होता है ,बुिद ििणय
ु करती है । बुिद मि से अिधक सूकम शष
े और ऊंची
है । वयिष बुिद (वयिक की बुिद) की अपेका समिष बुिद (महत ् ततव)
अिधक शष
े होती है । महत ् ततव की अपेका अवयक (पकृ ित)अिधक शष
े है ,
कयोिक महत ् ततव काय ु है तथा अवयक उसका कारण है । परनतु चैतनय
पुरष अवयक पकृ ित को संचािलत करता है और शष
े एवं सिाति ततव
है । पुरष वयापक होता है तथा उसका कोई िलंिड. (िचनह) अथवा आकार

िहीं होता। चैतनय पुरष ही बह है । उसे जाििे पर मिुषय का जीवातमा


ििबन
ु ध अथवा मुक हो जाता है । मिुषय अपिे चैतनय अमत
ृ सवरप को
जािकर धनय हो जाता है । बह को जािकर धीर पुरष बह ही हो जाता
है ।
ि स ंदि े ित षित र पसय ि च कुष ा प शयित कश िै िम।्
हिा मि ीष ा मिस ािभकल ृ पो य एतद िवि ुरम ृ त ासत े
भव िनत।। ९।।
िबि ाथ ु : असय रपम ् संदि े ि ित षित = इसका रप पतयक
िहीं ठहरता; कशि एिं चकुष ा ि पशयित = कोई इसे चकु से िहीं
िे ख पाता; मिस ा अिभ कल ृ प : हि ा मि ीष ा (दशयत े )= मि से िचनति
मे लाया हुआ (ििमल
ु )हिय से, (िविुद )बुिद से िे खा जाता है ; ये एतद
िव ि ु : ते अमृ त ा: भविनत = जो इसे जािते है , वे अमत
ृ सवरप हो जाते
है ।
वच िाम ृ त : इसका रप पतयक िहीं ठहरता। कोई इसे िेत से िहीं
िे ख पाता। इसे मि (मिि) के िारा गह
ृ ीत होिे पर, (ििमल
ु ) हिय िारा
१. गीता (८.२०) मे इसकी चचाु है ।

(िविुद) बुिद से (अथात


ु हिय मे िसथत बुिद के भीतर) िे खा जाता है ।
जो इसे जािते है वे अमत
ृ सवरप हो जाते है ।
सनिभ ु : मंत ९ से १५ तक सभी मंत परसपर जुडे है । मंत ९ का
पूवाद
ु ु शेत० उप० , ४.२० तथा उिरादु ४.१७ मे इसी पकार है ।
ििव या मृ त :परमातमा सूकमाितसूकम है तथा उसका सवरप
रहसयमय है । मिुषय की सथूल दिष परमातमा के सवरप का गहण िहीं
कर सकती। उसे चमु-चकुओं से िे ख पािा संभव िहीं है । उसकी
ििवयािुभूित अपिे भीतर ही होती है । जब मिुषयय मिि िारा दढता से
उसे गगहण कर लेता है , तब वह ििमल
ु हिय के भीतर िसथत िविुद
अथात
ु राग-िे षरिहत ििमल
ु बुिद मे परम जयोित का साकातकार कर लेता
है । परमातमा को जाि लेिे पर अथात
ु अपिे भीतर उसका अिुभव होिे
पर मिुषय अमत
ृ सवरप हो जाता है ।

यि ा प ञचा वितष नते ज ािा िि म िसा सह।


बु िदश ि िवच ेष ित ता माह ु : पर मां ग ित म।् ।१०।।
तां य ोगिमित मन यनत े िसथ रािमिनद यध ारण ाम।्
अप मिसतिा भव ित यो गो िह प भव ाप यय ौ।।११।।
िबि ाथ ु : यिा मिसा सह पञच जा िा िि अव ित षनते = जब
मि के सिहत पांचो जािेिनदयां भली पकार िसथत हो जाती है ; च बु िद :
ि िवच ेष ित = और बुिद चेषा िहीं करती ; ताम ् पर मा म ् गित म ् आहु :
= उसे परमगित कहते है ।
ता म ् िसथ रा म ् इिनदय धा रणा म ् योगम ् इित मनयत े = उस
िसथत इिनदयधारणा को ‘योग’ मािते है । िह तिा अपम ि: भव ित =
कयोिक तब पमािरिहत हो जाता है ; यो ग: पभव ाप यय ौ = योग उिय
और असत होिेवाला है ।
वच िाम ृ त : जब मि के सिहत पांचो जािेिनदयां भली पकार िसथर
हो जाती है और बुिद चेषा िहीं करती, उसे परमगित कहते है । उि
इिनदयो की िसथरधारणा को योग मािते है , कयोिक तब पमािरिहत हो
जाता है । योग उिय और असत होिेवाला है । (योग पभव और
अपययवाला है - इसका एक अनय अथ ु िकया गया है िक योग िुभ के
उिया और अिुभ के असतवाला है ।)
सनिभ ु : धयाियोग िारा परमातमा की पािप के िस
ू रे साधि का
वणि
ु िकया गया है । इि िोिो शोको को कणठसथ कर लेिा चािहए।

१. य एतद िव ि ु : अम ृ ता सते भव िनत (कठोप०, २.३.२ शेत० उप०, ३.१ , ३.१०) यही भाव
मुणडक उप० (३.१.८) मे वयक हुआ है ।

ििव या मृ त : परमातमा की पािप के िलए ततवजाि सवािुधक


महतवपूण ु है ।जाि िविा मुिक िहीं होती। यह जगत ् जीवि और उिका

संचालि एवं धारक परमातमा कया है ? परमातमा का सवरप कया है ? उसे


पाप करिे का कया माग ु है ? यह सब जाि के अनतगत
ु है । िकनतु मात
माििचत िे खिे और समझिे से गनतवय सथाि की पािप िहीं हो जाती।
आधयाितमक गनथो को मात पढिे और पढािे तथा चचाु करिे को वयसि
कहा गया है तथा जो मिि, अभयास और आचरण करता है , उसे िल
ु भ

ििवय पकाि सुलभ हो जाता है ।

संसार मे परमातमा ही दषवय, शोतवय मनतवय और ििििधयािसतवय


है , कयोिक परमातमा के जाििे पर कुछ जात हो जाता है । आतमजाि से

बढकर अनय कोई जाि िहीं है । अधयातमिवदा परा िवदा है ।


धयाियोग जाियोग का अंग अथवा पूरक ही है तथा उससे िभनि


िहीं है । धयाियोग की चचाु अिेक उपििषिो तथा गनथो मे की गई है ।

चैतनयसवरप आतमा ितगुणातीत एवं िे हातीत है । चैतनय आतमा के


िचतसवरप एवं आिनि-सवरप मे िसथत होिा मिुषय की पापवय
परमावसथा अथवा उचचावसथा है । यह चैतनय भी जागत-अवसथा है ,
िजसमे मिुषय िे ह, इिनदयो और मि का अितकमण करके संिसथत हो
सकता है । योगाििि मिुषय के िै िहक एवं माििसक िवकारो को िविष कर
िे ती है तथा मिुषय िििु नि, ििभय
ु और आिनिमय हो जाता है ।

१.ऋते जािानि म ु िक :।
२.पठक : पाठक शै व ये चानय े िास िचन तका :।
सवे वयसिििो म ूखा ु : य: िकयावाि ् स पिणड त:।।
-पढिे और पढािेवाले तथा अनय िास –चचाु करिेवाले वयसिी मूखु है । जो िकयावाि ् है , वह
पिणडत है ।
३. आत मा वा अरे दषवय : शो तवयो मनतवयो िििि धयािस तवयो मैत ेिय आतमिो वा
अरे
ििु िेि शवण ेि मतया िवजाि ेि इि ं सव व िव िित म।् (ब०ृ उप० २.४.५)
४. मुणडक उप० (१.१.५)
५. ‘धयै िच नतायाम’ ् ।
धयाियागे की चचा ु कठोप० (२.३.१०, ११), मुणडक उप० (२.२४ , ३.१८), शेत० उप० (१.३; १.१०
,१२,१४ तथा २.६ इतयािि) तथा भगवदीता मे है । महाभारत के अनतगत
ु मोकधमप
ु व ु मे भी
धयाि की चचाु है ।
पतजिल के योगििि
ु , घेरणड संिहता आिि मे धयाि की िवसतत
ृ चचा ु है । धयाि-पिकया पर
िविि चचाु "जीवि और सुख" के िितीय अधयाय मे है ।
६. ि तसय रोगो ि जरा ि मृ तयु : पापसय योगािििमय ं िरी रम ् (शेत० उप० ,
२.१२)

जाि एवं धयाि के अभयास से मिुषय को परमगित अथवा


परमिसथित पाप हो जाती है । धयाियोग की साधणिा करते हुए जब पांचो
जािेिनदय और मि िानत और िसथर हो जाते है तथा बुिद भी िानत एवं
चेषािूनय हो जाती है , उस अवसथा परमपि अथवा परमगित कहा जाता
है । ऐसी उचचावसथा अतयनत िल
ु भ
ु , िषुपापय एवं अििवच
ु िीय होती है ।
यह मािव-जीवि की शष
े एवं उचचतम उपलिबध होती है । इस आनतिरक
जागरण की अवसथा मे मिुषय ि केवल पूण ु िवशािनत का ही अिुभव
करता है , बिलक परमािनि की अिुभूित भी कर लेता है । इसे पगाढ ििदा

के सदि माि लेिा अिववेक है । मिुषय परमावसथा (समािध )मे आतमा


की ििवयािुभूित करके तप
ृ एंव धनय हो जाता है ।
धयाि की अवसथा मे मिुषय की पांचो जािेिनदयां अपिे िवषयो से
ििवि
ृ हो जाती है तथा मि भी संकलप-िवकलप आिि वयापार से ििवि

हो जाता है । तििनतर ििशयाितमका बुिद भी चेषािील िहीं रहती। धयाि
की पगाढ अवसथा ‘समािध’ हो जाती है ।
इिनदयो एवं मि की िसथर धारणा को योग कहा जाता है । इसमे
मिुषय पमािरिहत अथात
ु ् एकाग होकर आतमचैतनय मे संिसथत हो जाता
है तथा आिनिवषा ु एवं आिनिमगता का अदत
ु अिुभव करता है ।
परमातमा के साथ एकतवरप योग मे उिय और असत उतपिि और लय
होते है । अतएव योगी को अपमि अथात
ु ् सावधाि रहिा चािहए।

मिुषय जब तक इिनदयसुखभोग की तषृणा से मुक िहीं होता


अथात
ु ् भौितक आकषण
ु ो से मुक िहीं होता तथा राग-िे ष, भय और कोध
का तयाग िहीं करता, तब तक मि किािप िानत िहीं होता। अतएव
मिुषय को िववेक िारा मि की वासिाओं के िमि एवं संयम का
अभयास करिा चािहए।
जब मि इिनदयो की िासता से अथात
ु ् िवषयो के आकषण
ु से मुक
हो जाता है , तब वह भाररिहत और पारििी होकर ऊधवग
ु ामी हो जाता है
और आतमािभमुख होकर आतमा की ओर गितमाि ् हो जाता है , मािो वह
आतमा के गुरतवाकषण
ु से आकृ ष हो जाता है । ििमल
ु और सिक मि
आतमा का साकातकार करा िे ता है । वासतव मे मि का आतमचैतनय मे
१.समा िहतो भूतवा आतम नयेवातमाि ं पश यित (बह
ृ ० उप० , ४.४.२३)
-समािहत होकर ही अपिे आतमा को िे खता है ।
भगवदीता मे इिनदयो तथा मि के संयम तथा धयाि की पयाप
ु चचा ु है (६.२७, २८, ३६)
ृ ’ मे अिेक सथलो पर धयाि पर िवसतार से चचाु की गई है ।
‘गीता-रसामत
२.यही भाव भगवदीता (६.२६) मे कहा गया है । पािल मे अपमाि को अपपमाि कहते है ।

िवलय हो जाता है , िजसे मि की मतृयु भी कहते है तथा केवल


आतमचैतनय िेष रह जाता है । यह आिनिावसथा होती है ।
बुिदमाि ् पुरष मि और इिनदयो का िमि िहीं करता, बिलक
िववेक िारा उिका िमि करता है । बुिदमाि ् पुरष िचिविृियो का िोधि
करके उिका उिािीकरण कर िे ता है अथात
ु ् उिको उिम िििा पिाि कर
िे ता है । परमातमा से पाथि
ु ा करिा मि को पिवत करिे और उसे संबल
पिाि करिे के िलए आवशयक होता है ।
िै व व ाच ा ि मिस ा पा पुं ि कये ि चकु षा।
अस ती ित बु वतो ऽन यत क थं ति ु प लभयत े ॥ १२ ॥
िबि ाथ ु ः ि वाचा ि मिसा ि चकु षा एव पापुं िक यः = ि
वाणी से, ि मि से, ि चकु से ही पाप िकया जा सकता है ; तत ् अिसत
= वह है ; इित बुव तः अनयत कथम , उपलभयत े = ऐसा कहिेवाले के
(कथि के) अितिरक वह कैसे पाप हो सकता है ?
वच िामत ः वह ि वाणी से, ि मि से, ि चकु से ही पाप िकया
जा सकता है , ‘वह है ’ ऐसा कहिेवाले के (कथि के) अितिरक उसे अनय
िकस पकार पाप िकया जा सकता है ? (अथवा, ‘वह है ’ ऐसा कहिे के
अितिरक उसे अनय पकार से कैसे पाप िकया जा सकता है अथात
ु ् उस
िििवि
ु ेष को
िवशास करिे के अितिरक कहा ही िहीं जा सकता है । बस, वह है , इतिा
िवशास ही पयाप
ु है ।)
सनिभ ु ः परमातमा के अिसततव का पमाण कया है ?
ििव या मृ त ः समसत जाि-गनथ एक सवर से घोिषत करते है िक
परमातमा का गहण ि वाणी से, ि मि से और ि चकु से ही होिा संभव
है , तो िफर इसके अितिरक कया कोई अनय पमाण हो सकता है िक आप
पुरष अपिे जाि और अिुभव के आधार पर ऐसा कहते है ? यह एक ऐसा
िविचत पश है , िजसमे उसका उिर भी िििहत है । परमातमा परमसूकम
ततव है तथा उसका गहण वाणी, मि और चकु से होिा संभव िहीं है ,
तथािप परमातमा के अिसततव को आप पुरष अपिे िचनति और अिुभव
से आधार पर पमािणत करते है । आप पुरषो के आप वाकय ििससनिे ह
िवशसिीय िबिपमाण है ।
वयवसथा को िे खकर वयवसथापक, िियम को िे खकर िियामक तथा
रचिा को िे खकर रचियता का अिुमाि िकया जाता है , जैसे धूम को
िे खकर अििि का अिुमाि िकया जाता है । िकनतु इससे भी बढकर

सवािुभव का पमाम होता है । सारे संसार मे आप पुरषो िे गहि साधिा


और िचनति के आधार पर िवश मे एक सूकम, ििवय सिा की पिरकलपिा


की तथा अपिे भीतर उसकी सवािुभूित की। यदिप उस परम सिा के
वणि
ु िविभनि है तथा उसकी पािप के उपाय भी िविभनि है , तथािप सब
िचनतक मिीिषयो िे सिा के अिसततव को अपिे-अपिे ढं ग से मानय
िकया है । ििशय ही परमातमा की सूकम ििवय सिा मिुषय की बुिद की
सीमी से परे है ।
अस ती तयेव ोप लब धवयस ततवभ ावेि च ोभय ोः ।
अस ती तयेव ोप लब धसय त तवभ ाव ः पस ीिित ॥ १३॥
िबि ाथ ु ः अिसत = (वह) है ; इित एव उपल बध वयः = ऐसा
उपलबध करिा चािहए; (तिि ु ) ततवभ ावे ि (अिप उपल बध वय ः) = (इसके
पशात ्) ततवभाव से (भी उपलबध करिा चािहए); च उभय ोः = और इि
िोिो पकार से; अिसत इित एव उपलबध सय (पुरषसय ) = (वह) है , ऐसी
ििषावाले (पुरष के िलए); तत वभा वः पसी िित = ततवभाव (परमातमा का
ताितवक सवरप) पतयक हो जाता है ।
वच िाम ृ त ः वह (परमातमा) है , ऐसा हियंगम करिा चािहए।
तििनतर उसे ततवभाव से भी गहण कहिा चािहए और इि िोिो पकार
से, वह है − −ऐसी ििषावाले पुरष के िलए परमातमा का ताितवक
(वासतिवक) सवरप पतयक (अिुभवगमय) हो जाता है ।
सनिभ ु ः परमातमा के अिसततव एवं उसके गहण के संबंध मे यह
महतवपूणु मंत है । इसे कणठसथ कर लेिा चािहए।
ििव या मृ त ः परमातमा के अिसततव को सवीकार कहिेवाले मिुषयो
को आिसतक तथा असवीकार करिेवाले मिुषयो को िािसतक कहा जाता
है । परमातमा है , ऐसा तकु से पमािणत िहीं हो सकता। वह अिुभवगमय
है । जो परमातमा के अिसततव के सवीकार करते है , उिके िलए तकु की
आवशयकता िहीं है तथा जो उसके अिसततव को सवीकार िहीं करते,
उिके िलए सारे तकु वयथु है ।
समपूण ु जगत ् का संचालि एक रहसयमयी सूकम चैतनय सिा िारा
होता है , िजसे बह (महाि ्) कहा जाता है । वह इस जड जगत ् मे ओतपोत
अथवा वयाप है , जैसे ितल मे तैल अथवा घत
ृ वयाप रहता है । चेति ततव
अचेति (जड) पिाथो मे मािो पसुप रहता है । वह पिु-पिकयो मे कुछ
————————————
१.महाि ् िाििुिक एवं मिोवैजाििक काल ु युग
ं िे गहि आधयाितमक सवािुभूित को पमाण
कहा है ।
पतयक पमाण, अिुमाि पमाण और िबि पमाण से भी परे सवािुभूित पमाण है ।

जागत ् होता है । वह मिुषय मे िवकास-पिकया के कारण अतयिधक जागत ्


होता है । मिुषय मे चेतिा के िवकास के कारण चैतनय ततव को खोजिे

और उसके साथ तािातमय सथािपत करिे की कमता होती है ।


परमातमा है तथा उसे ततवभाव से उपलबध करिा चािहए−इि िोिो
भावो को हियंगम करिे पर, ‘वह अवशय है ’, इस पकार ििशय करके
परमातमा की सिा को उपलबध (सवीकृ त) करिेवाले सचचे िजजासु के िलए
परमातमा का ताितवक (वासतिवक िििवि
ु ेष) सवरप सवयं ही अपिे भीतर
पतयक हो जाता है । जैसे मेघो के हट जािे से सूय ु सवतः पतयक हो

जाता है , वैसे ही अिवदा (अजाि) के िरू हो जािे पर आतमा पतयक


(पकट) हो जाता है ।
चेतिा को सभी सवीकार करते है । चेतिा जीवि का लकण है । चेतिािूनय
पिाथु को जड कहा जाता है । चेतिा के सोत एवं केनद के रप मे आतमा
हमारे भीतर संिसथत होता है । जाि और धयाि के िारा चैतनयसवरप
आतमा की ििवय अिुभूित अपिे भीतर ही होती है । पािणयो का
अनतयाम
ु ी परमातमा और आतमा ततवतः एक ही है । आतमा ही परमातमा
है । एक ही चैतनयसवरप बह जगत ् का आशय है तथा सवत
ु वयाप है ।
चैतनयसवरप आतमा की ििवय अिुभूित जीवि की सवोचच
उपलिबध आतमा परमाणुओं के परसपर संघात का पितफल िहीं हो
सकता। वह तो उिके अिसततव एवं सिकयता का आधार है । वासतव मे
बह सवत
ु वयाप है तथा जड का सवतंत अिसततव िहीं है । समपूण ु जड
पिाथ ु का आधार बह अथात
ु ् महाि चैतनयसिा है । वह अिविािी है । वह
जड पिाथो की आनतिरक गितिीलता का कारण है तथा चेति पािणयो
की समपूण ु गितिविध के मूल मे संिसथत है । वह िविशर पिाथो मे
अिविशर ततव है ।
आप (शष
े , अिुभवी) पुरषो िे िचनति और अिुभव के आधार पर
उदोष िकया िक एक ििवय सिा है , िजसके अिेक पकार के वणि
ु िकये
जाते है , तथा अिेक िाम है । उसके साकातकार अथवा उसकी ििवयािुभूित
करिे का पारं भ इस दढ िवशास से होता है िक वह है और उसके ताितवक
सवरप की उपलिबध होिी चािहए। परमातमा सबके िलए सुलभ है ।
—————————————
१. बह
ृ िारणयक उपििषद (२.३.१) मे बह के मूिु और अमूिु रप की चचाु है ।
२. अिसत बह े ित चेत ् वेि (तै० उप०, २.६.१)
अिसत क िशत ् सवय ं िितयम ् (िववेकचड
ू ामिण, १२७)
−−कोई एक सवयंसफूतु िितय ततव है ।
अरपवि ेव िह ततपधािात ् (बहसूत, ३.२.१४)

परमातमा की पािप होिे पर मिुषय पुणय-पाप, सुख-िःुख, हषु-िोक, यि-


अपयि, लाभ-हािि आिि िनिो से परे जाकर पूणत
ु ा की अमत
ृ मय अवसथा
को पाप हो जाता है ।
यि ा सव े पम ुच यनत े क ामाये ऽसयहिि िश ता ः।
अथ मतय ोऽम ृ तो भवत यत ब ह समश ुत े ॥ १४ ॥
िबि ाथ ु ः यि ा अ सय हिि िश ता ः य े कामा ः सवे पम ु चय नते =
जब इसके हिय मे िसथत जो कामिाएँ है , (वे) सब छूट जाती है ; अथ =
तब; मत यु ः अम ृ तः भव ित = मरणधमा ु मिुषय अमत
ृ हो जाता है ; अत
= यहीं; बह समश ुत े = बह का रसासवािि कर लेता है ।
वच िाम ृ त ः जब इस (मिुषय) के हिय मे िसथत जो कामिाएँ है , वे
सब छूट जाती है , तब मरणधमा ु मिुषय अमत
ृ हो जाता है । यहीं बह का
रसासवािि कर लेता है ।
सनिभ ु ः यह मंत अतयनत महतवपूणु है ।
यह मंत बह
ृ िारणयक उपििषि (४.४.७) मे भी है । मंत १४, मंत १५
कणठसथ करिे के योिय है ।
ििव या मृ त ः मिुषय को संसार के मोहपपजच मे बाँधिेवाली उसके
हिय मे िसथत भौितक कामिाएँ होती है । जो मिुषय कामिाओं से गसत
है , वह बद है और सिा अिानत रहता है तथा जो मिुषय कामिाओ के
गसत िहीं होता, वह मुक है और िानत रहता है । भौितक कामिाएँ ही
अिािनत का मुखय कारण होती है । कामिागसत मिुषय सिा भटकता ही
रहता है । कामिाओं का अनत िहीं होता। एक कामिा िस
ू री कामिा को
उतपनि कर िे ती है ।
मिुषय भौितक पिाथो की आसिक के कारण उनहे पाप करिे की
कामिा करता है । यिि कामिा-पूित ु ि हो तो मि मे ििरािा, िलािि और
कोध उतपनि हो जाते है । कामय वसतु के पाप होिे पर मिुषय उसे सिा
अपिे वि मे रखिे की िचनता से तथा उसके छूट जािे के भय से गसत
रहिे लगता है ।

कामिाएँ मिुषय को ऐसे ही भटकाती रहती है , जैसे मग


ृ को
मरभूिम मे उसकी तषृणा भटकाती रहती है । कामिागसत मिुषय ि
जागत ् अवसथा मे िानत रहता है और ि ििदाकाल मे ही।

————————————
१. भौितक कामिाओं के तयाग का उपिे ि भगवदीता मे (२.५५, २.७०, २.७१ तथा अिेक
सथािो पर) िकया गया है ।
भगवदीता िे अिेक सथािो पर ििषकाम कमय
ु ोग का उपिे ि ििया है ।

भौितक िवषयो की आसिक मिुषय को बिहमुख


ु ी बिा िे ती है तथा
वह अनतमुख
ु ी होकर आतमा के ििवय सौनिय ु की ओर आकृ ष िहीं होता।
भौितक कामिाओं की पूित ु से मिुषय को आतयिनतक तिृप िहीं होती
तथा भोगवािी मिुषय को कभी चेतिा की उचचावसथा एवं पगाढ आिनि
का अिुभव िहीं होता। वासतव मे आसिक (भोगो मे फँसिा) ही बनधि
का मूल है । आसिक एवं भौितक कामिाएँ चेतिा को ििूषत और िब
ु ल

कर िे ती है ।
िववेकिील मिुषय कामिाओं का िमि िहीं करता। ििमत कामिा
कुणठा का रप ले लेती है तथा वह िािनत का हरण कर लेती है । अिानत
मिुषय को पचुर सुख-सामगी उपलबध होिे पर भी सुख का अिुभव िहीं
हो सकता। िववेकिील मिुषय इचछाओं को िियंितत रखता है तथा संयम,
सािगी और सनतोष एवं परोपकारविृि को महतव पिाि करता है । ििशय
ही धि मे िोष िहीं होता, बिलक धि के पलोभि मे िोष होता है । धि
को पलोभि से गिसत मिुषय अनयाय के मागु पर चल िे ता है तथा सवयं
अिानत रहकर िस
ू रो को भी अिानत कर िे ता है । िववेकिील मिुषय
कामिाओं का उिािीकरण
कर िे ता है अथात
ु ् उनहे उिम ििसा िे िे ता है । वह भय, िचनता, कोध और
िोक से मुक हो जाता है ।
भौितक कामिाओं का तयाग कर िे िे से मिुषय मािो बनधिमुक
होकर चेतिा के उचच सतर पर िसथत हो जाता है तथा मिुषय-िरीर रहते
हुए ही अमत
ृ सवरप हो जाता है । वह बह के परमािनि का रसासवािि
करके कृ ताथ ु हो जाता है । बह का रसासवािि बहसाकातकार का लकण
एवं पमाण है ।
यि ा सव े प िभदनत े हियसय े ह ग नथ यः।
अथ मतय ोऽम ृ तो भवतय ेता वद यिु िा सिम ् ॥१५ ॥
िबि ाथ ु ः यि ा हियस य सवे गनथ यः पिभद नते = जब हिय
की सब गिनथयाँ भली पकार से खुल जाती है ; अथ = तब; मत यु ः इह
अम ृ तः भवित = परणधमा ु मिुषय इसी िे ह मे अमत
ृ हो जाता है ; िह
एत ाव त ् अिु िा सिम ् = ििशय ही, इतिा ही अिुिासि (उपिे ि) है )
वच िाम ृ त ः जब हिय की समसत गिनथयाँ भली पकार से खुल
जाती है , तब मरणाधमा ु मिुषय इसी िे ह मे (इसी जीवि मे) अमत
ृ हो
जाता है (मतृयु को पार कर लेता है )। बस इतिा ही उपिे ि हा।
सनिभ ु ः यह मंत अतयनत महतवपूण ु है । इसे कणठसथ कर लेिा
चािहए।
ििव या मृ त ः मिुषय की समसत कामिाएँ कभी पूण ु िहीं हो सकती
है । अपूण ु अथवा अतप
ृ कामिाएँ मि मे कुणठाएँ (गिनथयाँ) उतपनि कर
िे ती है , िजसके कारण मिुषय िािनत का अिुभव िहीं कर सकता तथा
िचनता, भय और कोध से अिभभूत होकर िःुखी रहता है । वासतव मे
गिनथयाँ अिवदा से ही उतपनि होती है । उिम पुरष अपिी कामिाओं का
िमि िहीं करता, बिलक िववेक िारा उिका िमि कर िे ता है तथा उनहे
शष
े िििा पिाि कर िे ता है ।
अिमय भौितक कामिाओं की अतिृप के कारण उतपनि अिेक
गिनथयाँ मि की िािनत को िष कर िे ती है । िजस मिुषय का मि
अिेक गनथयो से मुक हो जाता है , वह परमातमा के ििवय रस का
आसवािि करके इसी जीवि मे अमत
ृ सवरप हो जाता है । आिनि की
परमोचच अवसथा पाप करिे के िलए यही एकमात सूत है ।
महातमा बुद िे चार आय ु सतयो का कथि िकया−(१) संसार िःुखो
से पिरपूण ु है । (२) िःुखो का कारण भी है । (३) िःुखो का अनत हो सकता
है । (४) िःुखो के अनत होिे का एक माग ु है − अषांिगक माग।ु िकनतु
समसत िःुख और सुख से परे आिनि की अमत
ृ मय सामय अवसथा
है , िजसकी पािप जाि और धयाि से अपिे भीतर ही हो सकती है तथा
िजसका उपिे ि उपििषिो मे है । (सु खि ु ः खे समे कृ तवा ला भा लाभ ौ
जय ाजयौ −गीता, २.३८) ििशय ही इससे बढकर कोई अिुिासि अथात
ु ्
अिनतम उपिे ि िहीं हो सकता।
यह मतृयु पर िवजय पाकर अमत
ृ सवरप होिे का माग ु है । मतृयु के
पशात ् कया होता है , आधयाितमक पुरष के िलए यह पश ही ििरथक
ु है ।
वह इसी िे ह मे गिनथयो से छूटकर जीवनमुिक पाप कर लेता है तथा बह
ही हो जाता है उपिे ि के अनत मे अिुिासि ििया जाता

है । यह

१.योऽकामो ििषकाम आपका म आत मकामो ि तसय पाणाः उतकाम िनत बहै व सि ्


बहापय े ित (ब०ृ उप०, ४.४.६)
−जो अकाम, ििषकाम, आपकाम और आतमकाम होता है , उसके पाणो का उतकमण िहीं होता।
वह बह ही रहकर बह को पाप हो जाता है ।
िभदत े हियग िनथः िछदन ते सव ु संिया ः।
कीयनत े जासय कमा ु िण त िसमि ् दषे परावर े॥ (मुणडक उप०, २.२.८)
−परमातमा को जाि लेिे एवं पाप होिे पर अिवदारप गिनथ खुल जाती है , सब संिय िमट
जाते है और समसत िुभ एवं अिुभ कम ु िष हो जाते है । अिवदा के कारण जीवातमा अपिे
मूल सवरप को भूलकर भौितक जगत ् के पलोभिो से गसत हो जाता है ।
छोरि ग ंिथ पाव जौ सोई , तब यह जीव कृता रथ होई।
छोरत गं िथ जािि खगरा या , िव घि अि ेक करइ तब माया॥
२. एत ििुिासिम ् (तै०, उप०, १.११.३)−बस, इतिा ही अिुिासि (उपिे ि का सार, अिनतम
आिे ि) है ।

यमाचाय ु िारा ििचकेता को ििया हुआ अिुिासि (उपिे ि का सार,


सिाति आिे ि) है ।
वा सत व मे क ठोपिि षद के अ धय ाय ि ो क ी अ िनतम (तीस री )
वलल ी यह ाँ समा प हुई। मंत १६ , १७ , १८ पु िश की भाँ ित जोड
ििय े गय े ह ै।
ितं च ै का च हि यसय ि ाडयस ता सां मूध ाु ि मिभ िि ःस ृ तै क ा।
तय ोधव ु म ाय निम ृ ततवम े ित िव षवङडन या उतक मणे भव िनत ॥
१६ ॥
िबि ाथ ु ः हियसय ितम ् च एका च िाड यः = हिय की सौ
और एक िािडयाँ (है ); ता सा म ् एका मूध ाु ि म ् अिभ िि ःस ृ त ा = उिमे से
एक मूधा ु (कपाल) की ओर ििकली हुई है ; तया ऊध वु म ् आय ि्
अम ृ ततव ं एित = उसके िारा ऊपर जाकर अमत
ृ भाव को पाप हो जाता
है ; अन याः उत कमण े िव षवङ भव िनत
= अनय (सौ) िािडयाँ मरणकाल मे (जीवातमा को) िािा योिियो मे जािे
के िलए हे तु होती है । (िवष वङ = िािा गितवाली)।
वच िाम ृ त ः हिय की सौ और एक िािडयाँ है । उिमे से एक
(सुषुमणा) मूधा ु की ओर ििकली हुई है । उसके िारा (आरोहण करते हुए)
ऊपर जाकर (मिुषय का जीवातमा) अमत
ृ भाव को पाप हो जाता है । अनय
(सौ) िािडयाँ मरण-काल मे िािा योिियो मे जािे के िलए हे तु होती है ।
सनिभ ु ः मरण के उपरानत पाणो के उतकमण की गित का वणि

है ।
ििव या मृ त ः मिुषय के हियकमल से एक सौ एक िािडयाँ
ििकलती है । इिमे से एक सुषुमणा िाडी (मेरिणड के समािानतर िाडी)
मिसतषक मे िसथत सहसिल कमल की ओर आरोहण करती है । सुषुमणा

िाडी जयोितमय
ु ी एवं चेतिामयी होती है , अनय िािडयाँ अनधकारमयी होती
है । मिसतषक के मधय मे चेतिा की िविेष सिकयता रहती है । िवजात
िििु के कपाल के मधय लघु िववर मे हिय की धडकि की गूँज सपषतः
सुिाई िे ती है । मतृयु मात हिय-गित के बनि होिे से िहीं होती, बिलक
मिसतषक मे िसथत चेतिाकेनद के समापि अथवा अवसाि से होती है ।
जीवातमा का ििवास हिय-कमल के भीतर िसथत िुद बुिद मे होता है ,
िकनतु उसी समपूण ु गितिविध का िविेष सथाि (कायाल
ु य) समपूणु
मिसतषक होता है ।
बहििष योगी अपिे जीविकाल मे जीवनमुक रहता है तथा अनत मे
उसके पाण मूधाु से ििकलते है , िकनतु सामानय जि के पाण अनय

——————————————
१. पश उप० (३.६, ७), छा० उप० (८.६.६) और बहृ० उप० (४.२.३) मे िािडयो की चचाु है ।

मागो से ििकलते है । मतृयु के समय बहििष योगी अपिे पाणो का तयाग


योग की उचचावसथा मे िसथत होकर करता है । उसे कैवलयमुिक अथवा
पूणम
ु ुिक पाप होती है । यह सदःमुिक (ततकालमुिक) होती है । बहििष
योगी पाणतयाग के पशात ् बह मे िवलीि हो जाता है । उसकी पाणििक

सुषुमणा के िारा कपाल के मधय मे िसथत िववर (बहरनध) से ििकलती है


और उसका पुिजन
ु म िहीं होता। िकसी अनय िाडी के िारा पाणो के
ििकलिे पर जीवातमा िविभनि योिियो को पाप होता है ।
अिडु .षम ात : पुरष ोऽ नत रा तमा सिा ज िाि ां हिय े स िनि िव ष :।
तं सव ाच छरीर ातपव ृ हेनम ु ञ जा ििव ेषी कां धैय े ण।
तं िव दा चछुकमम ृ तं िव दा चछुक मम ृ तिम ित।। १७।।
िबि ाथ ु :अिडु .षम ात : पुरष : अन तरा तमा सि ा जिाि ाम ् हिय े
सिनि िवष : =अिडु .षमात: पिरमाणवाला पुरष, जो सबका अनतरातमा है ,
सिा मिुषयो के हिय मे भली पकार पिवष (िसथत) है ; तम ् मु ञ जा त्
इष ीकाम ् इव सव ात ् िरीर ात ् धैय े ण पवृ हेत ् =उसे मूंज से सींक की
भांित अपिे िरीर से धैयस
ु िहत पथ
ृ क् करे (िे खे); िु कम ् अम ृ तम ् िवद ात ्
=िविुद अमत
ृ जािे ; िु कम ् अमृ तम ् िवद ात ् =िविुद अमत
ृ जािे ;
इित = उपसंहार हुआ।
वच िाम ृ त :अिडु .षमात: पुरष, जो सबका अनतरातमा है , सिा
मिुषयो के हिय मे भली पकार पिवष है । उसे मूंज से सींक की भांित
अपिे िरीर से धैयस
ु िहत पथ
ृ क् करे । उसे िविुद अमत
ृ जािे , उसे िविुद
अमत
ृ जािे।
सनिभ ु :िे ह मे िसथत चैतनय ततव को जाििे का िििे ि है ।
ििव या मृ त : एक ही चैतनयसिा समसत पािणयो मे संिसथत रहती
है । वही िबमबरप से आतमा और पितिबमबरप से जीवातमा है । हियकेत
मे संिसथत बुिद मे आतमा ही पितिबमबरप मे जीवातमा कहलाता है ।
बुिद के सतव , रज, तम, गुणो से मुक होिे पर जीवातमा िितय िुद, बुद
रप मे आतमा ही होता है । बदरप मे जीवातमा और मुकरप मे आतमा
अथवा पितिबमबरप मे जीवातमा और िबमबरप मे आतमा वासतव मे
मूलरप मे एक ही है । पुरष जीवातमा है और पुरष ही आतमा है ।
जािीजि पितिबमबरप जीवातमा के िववेजि िारा िबमबरप आतमा की ही
पसथापिा

——————————————
१. भगवदीता (८.२४, २५, २६, २७, २८) मे मतृयु के पशात ् जीवातमा की गित का वणि
ु है ।
कुणडिलिी ििक तथा कम-मुिक एवं सदःमुिक (कैवलयमुिक) की िविि वयाखया ‘गीता-
रसामत
ृ ’ मे की गई है ।

करते है । मूलसवरप मे िोिो एक ही है । जीवातमा बह ही है ।


मिुषय के हियकमल अथव हियकेत का आकार अिडु .ष के समाि


है । मिुषय के हियकेत मे िवराजमाि पुरष अिडु .षमात है । मिुषय ही

जीवातमा को जाि सकता है । अत: मिुषय के हियकेत मे िसथत जीवातमा


को अिडु .ष पिरमाणवाला कहा जाता है ।
परमातमा सबका अनतरातमा है तथा उसके हिय मे िवराजमाि है ।
परबह परमातमा िविुद चैतनयसवरप है तथा जड िे ह का संचालक है ।
मतृयुकाल मे चैतनयततव के बिहगम
ु ि होिे पर िे ह जड (चेतिािूनय) हो
जाता है । मिुषय का मूलसवरप सथूल िे ह िहीं है , बिलक िितय िुद बुद
आतमा है , िजससे पथ
ृ क् होिे िे ह जड हो जाता है ।
िविुद चैतनयसवरप आतमा अमत
ृ सवरप है । जािी पुरष चैतनय

आतमा को जड िे ह से पथ
ृ क् मािकर उसी पर मि और बुिद को एकाग
कर िे ता है । िजस पकार मूज
ं मे रहिेवाली सींक को मूंज से पथ
ृ क् कर
ििया जाता है , उसी पर िचि को एकाग कर िे ता है तथा आिनिमय हो
जाता है । चैतनय आतमा िुभ एवं तेजोमय है तथा अमत
ृ सवरप है ।

ततवजाि तथा धयाि की उचचावसथा मे साधकजि िरीर, मि, बुिद से


ऊपर उठकर इसका अिुभव कर लेते है ।
अिनतम वाकय की पुिराविृि करके उपििषद की समािप तथा
िसदानत की िििशतता की सूचिा िी जाती है । इस मंत का अनत होिे
पर कठोपििषद की पूणु समािप की घोषणा की गई है ।
मृ तयु पो कां ििचकेतो ऽथ लबध वा िवद ामे तां योगिव िधं च
कृ तसम।्
बह पा पो िवर जोऽभूििम ृ तयुर नय ोऽ पयेव ं यो िवि धय ातमम े व।।
१८।।
िबि ाथ ु : अथ =इसके पशात ; ििचकेत : ििचकेता ; मृ तयु पो का म्
एत ाम ् िव दाम ् च कृ तस म ् योग िव िधम ् लबध वा = मतृयु से पोक इस
िवदा को और समपूण ु योगिविध को पाप करके ; िवम ृ तयु : िवर ज:
बह पा प:

१. जीवो बह ै व िापर : -जीवातमा बह ही है । बहसूत मे इस संबंध मे अिेक सूत है । पञचििी


मे भी इिका ताितवक अभेि कहा गया है ।
२. अिडु .षमात पुरष -कठ० उप० (२.१.१२ , २.१.१३ , २.३.१७) तथा शेत० उप० (३.१३ , ५.८)।
अनय पािणयो मे हिय का आकार कहीं बडा तथा कहीं छोटा होता है ।
३.उपििषिो मे परमातमा को अमत
ृ सवरप कहा गया है । बह (परमातमा) का जाि होिे पर
मिुषय बह ही हो जाता है , जैसे अििि मे पिकप काष अििि हो जाता है ।
बह वेि बह ै व भवित (मुणडक उप० , ३.२.९)
४.यिि िेहं प ृ थक् कृतवा िच ित िव शामय ितषित ।
अधु िैव स ुखी िानत : बनध मुको भिवषय िस।। (अषावकगीता, १.४)
-यिि तू जाि िारा िे ह को पथ
ृ क् करके चत
ै नय आतमा मे िवशाम करके िसथत हो तो अभी
सुखी और िानत तथा बनधिमुक हो जायगा।

अभूत ् = मतृयु से रिहत, िवकारो से मुक, बह को पाप हो गया ;अन य:


अिप य: (इिम ् ) अधयातमम ् एवंिव त ् = अनय कोई भी (इस)
अधयातमिवदा को इस पकार से जाििेवाला है ; एव= ऐसा ही (हो जाता
है )।
वच िाम ृ त : इसके (सुििे के) पशात ् ििचकेता यम िारा पोक इस
िवदा
को और पूरी योगिविध को पाप करके मतृयुरिहत, िवकारमुक, बहपाप हो
गया। अनय कोई भी इस अधयातमिवदा को इस पकार से जाि लेता है ,
वह भी ऐसा ही हो जाता है ।
सनिभ ु : इस मंत मे माहातमय-वणि
ु है ।
ििव या मृ त :यमराज मतृयु के िे वता है । सवयं यमराज िे गुररप मे
ििचकेता को बहाजाि का सतपात मािकर बहिवदा का उपिे ि ििया।
सतपात को िी हुई िवदा फलीभूत होती है । मतृयुिवजेता यमाचाय ु िे
ििचकेता को बहजाि के अितिरक धयाि-पिकया का भी उपिे ि ििया।
धयाियोग जाियोग का पूरक होता है । िुभ जयोित:सवरप आतमा का
साकातकार धयाि की उचचावसथा मे ही संभव होता है ।
जाि तथा धयाि िारा िवकारमुक एंव ििमल
ु होिे पर ििचकेता बह
को पाप हो गया। बह को पाप पुरष जीवनमुक हो जाता है । ििचकेता िे
मतृयु और रोग का अितकमण कर िलया। बहज ही हो जाता है ।
१ २

बहजाि की अििि कमो को भसमसात ् कर िे ती है ।


बहजाि का पभाव ऐसा है िक कोई भी वयिक उसे पाप करके


अमत
ृ सवरप हो जाता है । वह ििशय ही अमत
ृ सवरप हो जाता है ।
कठोपििषद का ििवयामत
ृ यमाचाय ु का कलयाणकारी पसाि है ।
इसका शदापूवक
ु पारायण करिेवाला सौभाियिाली मिुषय आिनि को
पाप कर सकता है ।

िािनतप ाठ
ॐ स ह ि ाव वतु। सह ि ौ भ ुिकु। स ह व ीयव क रवाव है।
तेज िसव िा वधी तमसत ु। मा िव िि षा वहै।
ॐ िा िनत :! िािनत :!! िािनत :!!!

˜
१.ि तसय र ोगो ि जरा ि म ृ तयु : पापसय योगािििमय ं िरीरम। ् ( शेत० उप० , २.१२)
-िरीर क े योगािििमय होिे पर मिुषय रोग,वद
ृ ता और मतृयु से परे चला जाता है ।
२. बह वेि बह ैव भव ित (मुणडक उप०, ३.२.९)
३. जािििि : सवु कमा ुिण भ सम सात ् कुरत े त था (गीता, ४.३७)

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