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ििवयाम ृ त
ििव ाि नि
िवष य-सूच ी
पष
ृ
पवेि ३
ििवेिि ११
पथम अधयाय पथम वलली १८
पथम अधयाय िितीय वलली ४१
पथम अधयाय तत
ृ ीय वलली ७४
िितीय अधयाय पथम वलली ९२
िितीय अधयाय िितीय वलली १०९
िितीय अधयाय तत
ृ ीय वलली १२४
पवे ि
१. “ But if it seems strange to you that the old indian philosophers should have known
more about the soul than Greek or medieval or modren philosophers, let us remember
that however much the telescopes for observing the stars of heaven have been improved,
the observatories of the soul have remained much the same .” Max Muller : Three
lectures on the Vedanta Philosophy, London.
भारतीय िाििुिक आतमा के समबनध मे यूिािी,मधयकालीि अथवा आधिुिक िाििुिको
से अिधक जािते थे। िरूबीिो मे िकतिा भी सुधार हुआ हो, आतमा की वेधिाला तो वही
है ।
करके वैििक
संसकृ ित को पुिरजजीिवत िकया। सवामी िववेकािनि (१२ जिवरी
१८६३-४ जुलाई १९०२) िे भी वही काय ु िविे िो मे जाकर िकया। भारतीय
संसकृ ित को िवश-संसकृ ित के रप मे पितिषत करिे का अिभुत कायु
िककराचाय ु सवामी ियािनि और सवामी िववेकािनि िे तकु के आधार
पर िकया । किािचत बुिद की पखरता एवं मौिलकता लगभग २० वषु की
आयु से ४० वष ु तक सिविेष रहती है , यदिप पयाप
ु िपरपकवता लगभग
४० वषु से ५० वषु तक आ लेती है तथा तििनतर िचनत एवं अिभवयिक
की कमता बढती रहती है । तकु तथा अिुभव पर आधािरत जाि के
िाशत पकाि से पिरपूण ु होिे के कारण कालजयी उपििषिो की उपेका
होिा असंभव है , यदिप उिके सनिे ि को आतमसात ् करिे के िलए
आधयाितमक साधिा करिा िितानत आवशयक है ।
ताितवक दिष से यह सब वयक जगत बह ही है । संसार इिनदयो
१
पिरवति
ु ीय है , यदिप अिुभव के सतरो पर वे िभनि-िभनि पतीत होते
है । यह जगत ् एक ही चेति-ततव से ओतपोत है । वही सवत
ु है , वही
३
इसका आधार है ।
उपििषिो की पमुख िविेषता सतय की साहसपूण ु खोज है तथा
उसमे ििभीकता,बौिदकता एवं तािकुकता का पुट है । संसार के िकसी भी
अनय जािगनथ मे ऐसी मीमांसा तथा गंभीर अनवेषण का ततव िहीं है ।
संवाि मे परसपर आिर-सममाि ििया जाता है तथा कहीं िवचार को
थोपा िहीं जाता। वा िे वािे जायते तत वब ोध : अथात
ु बौिदक सतर पर
संवार से तथय का ििणय
ु ् होता है । वयिकगत अिुभव एवं रहसयमय
आनतरिक अिुभूित पर बल ििया जाता है , कयोिक सवािुभव का
पमाण
अिेक है , लकय एक ही है ।
1. “ It is surely astounding that such a system as the Vendanta should have been slowly
elaborated by the indefatigable and intrepid thinkers of India thousands of years ago, a system
that even now makes us feel giddy, as in mounting the last steps of the swaying spire of a
Gothic Cathedral. None of our philosophers, not expecting Heraclitus,Plato , Kant or Hegel
has ventured to erect such a spire never frightened by storms or lightthings. Stone after
regular succession after once the frist step has been made, after once it has been clearly seen
that in the beginning there can have been but one, as there will be but one in the end, Whether
We call it Atman or Brahman.” (Six Systems of Indian Philosophy-Max-Muller)
यह आशयज
ु िक है िक यूरोप के महाि िचनतको िे ऐसा ििि
ु िहीं ििया ,जैसा भारत िे।
भारत के वेिानत का एक ही आधार है , एक ही ििखर है -आतमा अथवा बहि।्
2. “It is true that even across the Himalayan barrier, India has sent to us such questionable
gifts as grammar and logic,philosophy and fables,
hypnotism and chess, and above all, our numerals and our decimal system. But these are not
the assence of her spirit; they are trifels compared to what qe may learn from her in the
future.As invention , industry and trade bind the continents together,or as they fling us in to
conflict with Asia We shall study its civilisation more closely and shall absorb, even in
enmity, some of its ways and ahoughts. Perhaps, in return for conquest , arrogance and
spoliaton, India will teach us the tolerance and gentleness of the mature mnd, the quit content
of the unacquisitive soul, the calm of the understanding spirit, and a unifying, pacifying love
for all living things .” Will Durant : The Story of Civilisation
भारत िे िवश को एक अिभुत िवचार-कोि एवं जीवि-ििि ु ििया।
कठोपििषद के कुछ मंत, वयाखयासिहत, िविेष पठिीय एवं मििीय है -
१.१.२ , १.२.२ , १.२.९ , १.२.१२ , १.२.१३ , १.२.२० , १.२.२३ , १.२.२४ १.३.३४, १.३.१२ , १.३.१४ ,
२.१.१ , २.१.११ , २.१.१३ , २.१.१४ , २.१.१५ , २.२.१ , २.२.१२ , २.२.१३ , २.२.१५ २.३.१०-११ ,
२.३.१३ , २.३.१४-१५ , २.३.१६ , २.३.१७।
ििव ेिि
पतयेक युग की अपिी कुछ िविेषताएं और अपिी कुछ पहचाि होती
है । सवाधीिता पाप होिे उपरानत लगभग पांच ििको के कालखणड मे
भारत की अिेक केतो मे पगित हुई तथा समपूण ु समाज मे एक
सामािजक एवं राजिीितक चेतिा की लहर का आिवभाव
ु हुआ और िवश
मे भारत को एक सममािपूण ु सथाि भी पाप हुआ िकनतु िे ि िििाहीि
होकर अपिी सांसकृ ित मूलधारा से भटक गया तथा िवघटि एवं
अराजकताके कगार पर पहुंच गया। राजिीितक केत मे िवचारभषता
,मूलयहीिता,िसदानतहीिता,कुिटलता और चािरितक संकट का वातावरण
वयाप हो गया। मूलयो और िसदानतो का सथाि अवसरवाििता और
षडयंतो िे ले िलया। ‘सत यमेव जयते’ का उिघोष अथह
ु ीि हो गया।
राजिेताओं िारा पोिषत संरिकत एवं समािशत अपराधी ततवो िे िहं सा
और अपहरण की घटिाआं को सामानय बिा ििया तथा जिजीवि
असतवयसत हो गया और सारी वयवसथा लडखडा गई। इस कालखणड मे
मािो उलटी िगिती पारं भ होिे लगी।
सामािजक नयाय तथा सामािजक समरसिा के िए-िए लुभाविे मंत
िे िेवाले चतुर िेताओ िे सिा को पकडे रहिे के ऐसे िवभाजिकारी
समीकरण बिाए और ऐसी छलपूण ु रचिा की िक िजस समाज को
सवाधीिता संगाम के आतमबिलिािी िेताओं िे एकता और अखणडता के
सूत मे गिथत िकया था , उसमे धमु, समपिाय, जाित, भाषा और केत के
आधार पर िवषमता और िवघटि तीब हो गए। राषीय भाविा िवलुप होिे
लगी और परसपर घण
ृ ा एवं िविे ष िे सामािजक जीवि को िवषाक कर
ििया। सामािजक नयाय की अवण ु सवण ु आिि की िवभेिकारी पिरकलपिा
अमािवीय है तथा भारतीय संसकृ ित के पितकूल है । एक ओर कुछ
वयिकयो के पास धि-समपिि और िवलािसता की सामगी के अकलपिीय
अमबार लग गए तथा िस
ू री ओर गरीबी की रे खा से िीचे के चालीस
पितित से अिधक िीि-हीि जि की िि
ु ु िा मे कोई सुधार िहीं हुआ।
िगरो मे कूडे के गनिे ढे रो पर जहां एक ओर गौ,शाि,िूकर आिि भूखे
पिु भोजि की खोज करते है , वहां उिके पास ही अिेक बालक-
बािलकाएं तथा वद
ृ -वद
ृ ाएं भी गनिे और फटे चीथडो से िकसी पकार
ति को ढॉप
ँ े हुए, कागज पनिी आिि बटोरिे के िलए मािो अिभिप है ।
अगिणत वेरोजगार युवक अवसाि और आतमिलािि के कारण मतृयु-
आिलंगि के िलए िववि हो जाते है और अगिणत वेसहारा युवितयो की ,
अपिा ति और ईमाि वेचिे एवं अकलपिीय संतास को मूकवत ् भोगिे
की मािो िियित ही है । संवेििीलता और मािवीयता िबिकोिो से के
ऐसे िबि है ,िजिका भरपूर िर
ु पयोग होता है । तथा िजिका अथ ु लुप ् हो
गया है ।गरीबो के िए मसीहा तथा सामािजक नयाय के भाषणपटु पवका
यथाथ ु की भूिम से बहुत िरू है । हम इस सनिभ ु मे अिरूििी िरूििि
ु के
कामवासिा एवं िहं सा के उिेजक कायक
ु मो के िषुपभाव का उललेख िकए
िबिा िहीं रह सकते मीठा िवषपाि सामानय जिजीवि को िग
ु िुत की
ओर जे जा रहा है तथा कामुकता एवं िहं सा की घटिाओं मे बिृद हो रही
है । यह हमारे िितानत भौितकवािी एवं भोगवािी युग का यथाथ
ु ।
इस अनधकार और भटकाव के युग मे सवाधयाय ,िचनति और
िवचार का संकट सवािुधक िोचिीय है । गंभीर सािहतय ् क् ेे िलए रिच
और अवकाि ि होिा वयिक एवं समाज के िलए गहि िचनता का िवषय
है । उिाि सािहतय ् के सज
ृ ि तथा पठि-पाठि मे हास होता जा रहा है ।
वासतव मे िकसी समाज मे पगित की पहचाि उसकी िािरयो बचचो और
मूक पिु- पिकयो के पित वयवहार से , िीि जि के अभयूिय के िलए
ििका आिि की वयवसथा होिे से तथा उसके सािहतय के सतर से होती
है । यह भी एक तथय है िक राजिेताओं का िाियतव समग समाज के
उतथाि के पित होता है , ि िक कुछ िविेष बगो के पित ही। उिके
वयिकगत जीवि मे सािगी सचचाई और ईमाििारी होिे पर हीवे पभावी
हो सकते है । जब बडे िेता रोगो की िचिकतसा के िलए बार-बार िविे ि
जाते हो तथा सामानय जि को िचिकतसा-सुिवधा उपलबध ि होती हो ,
िेताओं के घरो मे िवलािसता हो तथा सामानय जि मातजीवि-रका के
िलए भी संघष ु करते हो ,िेताओं की रका के िलए िविेष सुरका-वयवसथा
हो तथा सामानय जि को अपराधी ििि-रात उतपीिडत करते हो , तो कया
वह सचचा लोकतंत हो सकता है ? एक ओर जहां जिसंखया के अिुपात
के अिुसार िासि मे भागीिारी और िौकिरयो मे वरीयता िी जाती हो,
वहां राषीयता का कया महतव है ? इस युग मे िेताओं का ऐसा आतंक है
तथा सामानयजि इतिे भीर हो गए है िक सतय को कहिा ही िहीं,सुििा
भी िश
ु ार हो गया है । ‘अिभवयिक की सवतंतता’ मात सारहीि िबि है ।
राजिेता कािूिो की तोड-
मरोड सिा को पकडे रहिे की दिष से कर िे ते है तथा साधारण
िागरिक बेबस हो गया है । यह लोकतंत का िर
ु पयोग है । जब भीड मे सब
अपिी अपिी सवाथप
ु ूित ु और सुरका का ही यत करते हो तो िििा कौि
िे गा ?
धम ु रका करता है तथा जिसमाज को परसपर जोडता है । इस युग
मे धम के केत मे धमग
ु ुरओं और पवचिो की मािो बाढ ही आ गयी है
बाढ मे सवचछ जल िहीं आता। िववेकी जि गंगा के पििूषत जल का
आचमि भी िहीं करते। इस अनधकार युग मे सवयंभू धमग
ु ुरओं की
पहचाि उिके तप साििवकता और अनत: पबोध एवं ििवयािुभूित से ि
होकर उिके वािजाल िे ि िविे ि मे फैले हुए िविल आशमो और ििषयो
एवं अिुयािययो की संखया से हो रही है । भारत मे वतम
ु ाि युग मे छद
अवतारो किलक भगवािो जगिगुरओं चमतकारी योिगयो एवं तथाकिथत
िसदपुरषो की संखया इतिी अिधक हो गई है िक उिकी गणिा करिा भी
संभव िहीं है । उिमे तप तेज सवाधयाय साधिा और अनत: पबोध का
िितानत अभाव है तथा उनहोिे वयवसािययो की भांित कुणडिलिी-जागरण
इतयािि के पपंच आेैर पचार का सहारा ले िलया है । वडे -बडे िेता और
उधोगपित उनहे महािता का पमाण पत ् िे िे ते है । उिमे से अिेक
अपराधो मे िलप हो रहे है । इसके अितिरक वाकपटु भिवषयवकाओं और
सममोहि मे कुिल तािनतको के धंधे भी पयाप
ु पिप रहे है । इस युग मे
धि तथा सिा को िकसी पकार पाप करिा तथा उनहे बलपूवक
ु ् पकडे
रहिा युगधम ु हो गय है तथा यही समसत भटकाव अिािनत और
अराजकता का पधाि कारण है । लोकतंत का अथु लूटतंत हो गया है ।
िकनतु साििवकता एवं आधयाितमकता की धारा कीण होिे पर भी
सिै व अकुणण रहती है । सचचे साधको िसदपुरषो औश सिगुरओं की
परमपरा कभी िवलुप िहीं होती। पपंचच और पाखणड से िरू रहकर, वे
पकाििीप को कभी बुझिे िहीं िे ते तथा उसे सिा पजविलत रखते है । वे
िकसी पर ििभरु िहीं होते तथा ििभय
ु रहते है । उिका ि कोई िसंहासि
(गदी) होता है , ि वे िकसी को उसे सौपकर जाते है । अपिे भीतर
आधयाितमक पकाि का अिुभव करिा तथा सहजभाव से उसका पसार
करिा ही उिका एक मात उदे शय होता है । वे संसार मे रहकर जल मे
कमल की भांित िििलप
ु रहते है ।
वासतव मे सतय ् ही धम ु होता है । सतय सवोपिर होता है तथा वह
िविवध धमो कीसीमा मे बांधा िही जा सकता। जो धमग
ु ुर संबाि को
तयागकर िरुागहकरते है । , वे सतय से िरू रहते है । जो धमग
ु ुर बलपूवक
ु
यह कहते है िक केवल उिके धम ु के अिुयायी ही सवग ु के अिधकारी है ,
िेष िहीं, वे सतय
के िवरोधी है । एक ओर शष
े धमग
ु ुर मिुषय को परमातमा की ओर पवि
ृ
करते है तथा िस
ू री ओर वे लोक मे शष
े जीवि-यापि की कला िसखाते
है । धम ु का उदे शय एक ही होता है -परमातमा की पािप तथा सचचाई और
पेम से समाज मे साथक
ु जीवि-यापि की पेरणा िे िा। धमो के वे अंि,
जो परसपर घण
ृ ा और िहं सा (पिुबिल, िवधमी का िाि) कीििका िे ते हो ,
तयाजय है । िरुागह से गसत होिा तथा अपिी शष
े ता के िं भ के कारण
भेिभाव और घण
ृ ा िसखािा एक िोष है । परमातमा की पािप के अिेक
मागु होते है । तथा उपासिा पदितयां भी िभनि हो सकती है , ऐसा सवीकार
करिे पर ही सवध
ु मु-समभाव संभव हो सकता है । परसपर संवाि िारा
सह-अिसततव एवं िािनत का मागु पिसत हो सकता है ।
हमे यह भी समरण रखिा चािहए िक धम ु और िवजाि परसपर
िवरोधी िहीं है , बिलक परसपर पूरक है । िोिो का उदे शय सतय की खोज
करिा है , िकनतु िवजाि भौितक जगत की भौितक सीमाओं सेपरे िहीं
जा सकता तथा उिम धम ु भौितक जगत की सीमाओं को पार करके
सूकम जगत मे पवेि िारा सिृष के मूल रहसयो की खोज कर सकता है ।
धम ु एकांगी िहीं होता, उसमे समगता होती है , पिरपूणत
ु ा होती है ।सच तो
यह है िक जहां िवजाि की सीमा समाप हो जाती है , धम ु का केत पारं भ
होता है ।
धम ु का धयेय सतय की उपलिबध एवं अिुभूित करािा होता है । जो
आसथा सतय पर आधािरत िहीं होती, वह िोषपूण ु होती है । सतय की
खोज करिेवाले अथवा सतयििष पुरष किािप िरुागह िहीं करते। धमु
जोडता, तोडता िहीं है ।धािमक
ु वयिक आधयाितमक अथात
ु आतमा की ओर
अिभमुख होते है वे अिेकता मे एकता का अिुभव करते है तथा पेम
सहयोग एवं सेवा के आिि ु का अिुपालि भी करते है । वासतव मे कोई
भी धम ु घण
ृ ा एवं वैर की ििका िहीं िे ता, िकनतु कटटर पंथी लोग
संकीणत
ु ा के कारण घण
ृ ा और वैर का पचार करते है । पिवतता की आड
लेकर िकसी वयिक या वग ु को महाि गनथो तथा जाि से वंिचत िहीं
िकया जा सकता। सभी परमातमा तथा जाि की पािप के िलए समाि रप
से अिधकारी है ।
इस सनिभ ु मे यह पश महतवपूण ु है िक भारत की आधयाितमक एवं
सांसकृ ितक िवरासत कया है ? भारतीय संसकृ ित के मूलततव कया है ? मूल
की रका करिे से ही समपूण ु वक
ृ की तथा उसके अंगो (पुषपो, फलजै।
इतयािि) की सुरका होिा संभव होता है । अत: महतवपूण ु पश है िक वयिक
और समाज के कलयाण का मागु कैसे पिसत हो सकता है ।
काल का पवाह अिनत होता है तथा िवकास की पिकया भी अिनत
होती है । वयिकएंव समाज के िोष तथा अपराध और अजाि िवकास-
पिकया की गित को सिा के िलए अवरद िहीं कर सकते। पकृ ित एक
सूकम एवं ििवय सिा से संचािलत होिे के कारण, जात एवं अजात बलो
के िारा वयिकएवं समाज को एक उचचतर िििा मे मािो धकेलती रहती
है । पकृ ित असतय से सतय की ओर अंधकर से पकाि की ओर बरबस ले
जाती है । जलरािि के मधय मे िसथत भंवर मे फंसी हुई वसतु को , पीछे
से आिेवाला पबल पवाह बाहर ििकालकर आगे की ओर बढा िे ता है
िवकास-पिकया मे सथायी रप से पीछे की ओर जािा संभव िहीं होता।
लमबी िौड मे धावक पीछे िरू तक जाकर ही तीब गित से आगे की ओर
िौडता है । िविाि भी िवसज
ृ ि एवं िवकास का आधार होता है । घोर –
अंधकार पकाि की गित को किािप अपरद िही कर सकता। हम पुि :
उठिे और आगे बढिे के िलए ही िगरते है । हमारी संघषि
ु ीलता कभी
िवलुप िहीं होती। िवचारो का िवरोध एवं टकराहट भी शष
े िििा मे बढिे
के िलए आवशयक भूिमका बि जाते है । िवरोध के सवर भी अनतत:
समनवय एवं पगित की पिकया को तीव कर िे ते है । घण
ृ ा के मधय से पे
का सोत अनधकार के गटठर से पकाि की िकरण और ििरािा के तल
से आिा की जयोित पसफुिटत होते है । बुिदमाि मिुषय ् का कतवुय है
िक वह पकृ ित के ससाितवक बलो के साथ िववेकपूण ु संबद होकर तथा
अपिी सामथय ु के अिुसार यथासंभव योगिाि िे कर जीवि को कृ ताथु
कर ले
जो िववेकिील पुरष ऋिषयो के कालजयी ततव-िचनति की परमपरा
के साथ अनततम
ु िाता सथािपत कर लेता है और सनत ्-महातमाओं के
सनिे िो एवं मिीिषयो के मनतवयो से अवगत हो जाता है तथा लोक मे
जि-जीि को भी संबेिििील होकर जाि लेता है ,वह भारत की आतमा को
समझसकता है तथा वह िवश के कलया का माग ु पिसत करिे मे सकम
हो जाता है और उसका जीवि भी धनय हो जाता है ।
१
एक
वयाखयाता िे अंगेजी भाषा मे पवचि करते हुए कठोपििषद के कुछ मंतो
को पिकप ही कह ििया, जब िक पूजय िंककराचाय ु से लेकर िववेकािनि
आिि तक सबिे उनहे मानय िकया है । यह उपहसिीय ही है । हम आिा
करते है िक सुधी पाठक उिारतापूवक
ु पसतुत रचिा का सवागत करे गे।
ििव ाि नि
िवजय िगर, मेरठ, उ० प०-250 001
(फोि 0121-642041)
कठोप ििष द-ििवय ाम ृ त
िािनतप ाठ
पथम अधयाय
पथम वलली
------------------------------
१. अित िथि ेवो भव (तै० उप० १.११.२)
है , जहां ििचकेता को
यमराज तीि वरिाि िे ता है । कठोपििषद के उपाखयाि तथा तैििरीय
बाहण के उपाखयाि मे पयाप
ु समािता है । तैििरीय बाहण के उपाखयाि
मे यमराज मतृयु पर िवजय के िलए कुछ यजािि का उपाय कहता है ,
िकनतु कठोपििषद कमक
ु ाणड से ऊपर उठकर बहजाि की महिा को
पितिषत करता है । उपििषिो मे कमक
ु ाणड को जाि की अपेका अतयनत
ििकृ ष कहा गया है ।
यदिप यम-ििचकेता-संवाि ऋिवेि तथा तै० बाहण मे भी एक
किलपत उपाखयाि के रप मे ही है , कठोपििषद के ऋिष िे इसे एक
आलंकािरक िैली मे पसतुत करके इस कावयातमक सौिय ु का रोचक पुट
िे ििया है । कठोपििषद जैसे शष
े जाि-गनथ का समारं भ रोचक,हियगाही
एवं सुनिर होिा उसके अिुरप ् ही है । मतृयु के यथाथ ु को समझािे के
िलए साकात ् मतृयु के िे वता यमराज को यमाचाय ु के रप मे पसतुत
करिा कठोपििषद के पणेता का अिुपम िाटकीय कौिल है । यह
कलपिाििक के पयाग का भवय सवरप ् है ।
वैिक-सािहतय मे आचाय ु को ‘मतृयु’ के महतवपूण ु पि से अलंकृत
िकया गया है ।‘आच ायो म ृ तयु :।’आचायु मािो माता की भांित तीि ििि
और तीि रात गभ ु मे रखकर िीवि जनम िे ता है । ‘ििचकेता’ का अथु
‘ि जाििेवाला,िजजासु’ है तथा यमराज यमाचाय ु है , मतृयु के सदि आंखे
खोलिेवाले गुर।
मतृयु िववेकिाियिी गुर है । जीवि के यथाथ ु को जाििे के िलए
मतृयु के रहसय को समझिा अतयावशयक है कयोिक जीवि का
सवाभािवक अवसाि मतृयु के रप मे होता है । जीवि की पहे ली का
समाधाि मतृयु के रहसय का उिघाटि करिे मे सिनििहत है । जीवि
मािो मतृयु की धरोहर है तथा वह इसे चाहे जब िवलुप कर सकती है ।
सारे संसार को अपिे आतंक से पकिमपत कर िे िेवाले महापराकमी
मिुषय कणभर मे सिा के िलए ितरोिहत हो जाते है । जीवि और मतृयु
का रहसय अिनतकाल से िजजासा का िवषय बिा हुआ है । धमग
ु नथो िे
तथा मिीषीजि िे इसके अगिणत समाधाि पसतुत िकये है , तथािप रहसय
का उदाटि एक गंभीर समसया बिा हुआ है । जीवि का उदम कहां से
होता है ,जीवि कया है और मतृयु कया है ? जीवि और मतृयु का यथाथु
जाििे पर जीवि एक उललास तथा मतृयु एक उतसव हो जाते है । अजाि
के कारण मतृयु एक भयपि घटिा तथा मतृयु एक उतसव हो जाते है
अजाि के कारण मतृयु एक भयपि घटिा तथा जीवि ििरउदे शय भटकाव
पतीत होते है । साकात मतृयि
ृ े व (यमराज) से ही जीवि और मतृयु के
रहसय को जाििे से बढकर अनय कया उपाय हो सकता है ? िजजासु
ििचकेता यमराज का िरणागत, भयतसत वयिक िहीं है , बिलक पूजय ्
अितिथ है और सममािपूवक
ु ् उपिे ि गहण करता है । यह
बहजाि की मिहमा है , जो िाता और गह
ृ ीता िोिो को पिवत कर िे ता है ।
कठोपििषद के ऋिष का कलपिा-कौिल तथा ििकण िैली िोिो अिुपम
है ।
ित सो र ाती यु िव ातस ीग ुृ हे मे अ िश ि्
बह निित िथ िु मसय :।
िमसत े असत ु बह ि ् सविसत मे अस तु तस मा त ् पित ती ि ् बराि ्
वृ ण ीष व॥ ९॥
िबि ाथ ु : बहि ् =हे बाहण िे वता ;िमस य : अित िथ : =आप
िमसकार के योिय अितिथ है ; ते िम : असतु =आपको िमसकार हो ;
बह ि मे सविसत असत ु = हे बाहण िे वता ,मेरा िुभ हो ; यम ् ितस :
रात ी: मे गृ हे अि शि ् अवातस ी : =(आपिे) जो तीि रात मेरे घर मे
िबिा भोजि ही ििवस िकया ; तसमा त ् = अतएव ; पित ती ि ् वरा ि्
वृ ण ीष = पतयेक के िलए आप (कुल) तीि वर मांग ले
वच िाम ृ त : यमराज िे कहा, हे बाहण िे वता,आप वनििीय अितिथ
है । आपको मेरा िमसकार हो। हे बाहण िे वता, मेरा िुभ हो। आपिे जो
तीि राितयां मेरे घर मे िबिा भोजि ही ििवास िकया, इसिलए आप
मुझसे पतयेक के बिले एक अथात
ु तीि वर मांग ले।
वय ाख या : बहजाि का अिधकारी िजजासु सममाि के योिय ् होता
है । सममाि पाकर ही वह ििभीक भाव से संवाि कर सकता है । यमराज
ििचकेता को िमसकार करते है तथा उिचत सममाि िे कर अपिे कलयाण
की कामिा करते है ।वे अपिे घर मे तीिरात िबिा भोजि रहिे के िोष
का पिरमाजि
ु करिे के िलए ििचकेता से तीि वर मांगिे का पसताव
रखते है ।
िा नतस कल प: सुम िा य था स याि ीत मनय ु गौ तु म ो म ािभ
मृ त यो ।
तवतपस ृ षं म ािभ विेत पत ीत ए ततत या णां प थमं वर ं व ृ णे ॥
१०॥
िबि ाथ ु : मृ त यो =हे मतृयु िे व ;यथ ा गौतम : मा अिभ = िजस
पकार गौतम वंिीय उदालक मेरे पित ; िान तसंक लप : सुमि ा:
वी तम नयु : सया त ् = िानत संकलपवाले पसनििचत कोधरिहत हो जायं ;
तवत पस ृ षं मा पत ीत : अिभव िेत ् =आपके िारा भेजा जािे पर वे मुझ
पर िवशास करते हुए मेरे साथ पेमपूवक
ु बात करे ; एत त ् = यह ;
तय ाण ां प थमं वर ं व ृ णे = तीि मे पथम वर मांगता हूं।
वच िाम ृ त : हे मतृयुिेव , िजस पकार भी गौतमवंिीय (मेरे िपता)
उदालक मेरे पित िानत सकलपवाले (िचनतरिहत), पसनििचत और
कोधरिहत एवं खेिरिहत हो जायं , आपके िारा वापस भेजे जािे पर वे
मेरा िवशास करके मेरे साथ पेमपूवक
ु वाताल
ु ाप कर ले , (मै) यह तीि मे
से पथम वर मांगता हूं।
वय ाख या : ििचकेता िपता एवं गुर को अपिे आचरण से पसनि
करिे को पाथिमकता िे ता है । यह ििचकेता की शष
े ता का लकण है । वह
पथम वर मे
यही मांगता है िक वापस लौटिे पर िपता िचितािूनय ्,पसनििचत
कोधरिहत होकर उससे पूवव
ु त ् सिेह करे और संलाप करे । सुयोिय पुत
िपता के पिरतोष को महतव िे ता है ।
यथ ा पु रसत ाद भ िवत ा प ती त
औदा लिक रार िणम ु त पस ृ ष :।
सु खं र ाती : िियत ा वीतम नयुसत वां
िदिि वा नम ृ तयुम ुख ातपम ुकम ् ॥११ ॥
िबि ाथ ु : तवां मृ तयुम ु खा त ् पमुकम ् िदिि वा ि ् = तुझे मतृयु के
मुख से पमुक हुआ िे खिे पर ; मत पस ृ ष : आरिण : औदा लिक : = मेरे
िारा पेिरत , आरिण उदालक (तुमहारा िपता); यथ ा पुर सता द पतीत : =
पहले की भांित ही िवशास करके ; वी तम नयु : भिव ता =कोधरिहत एवं
ि ु:खरिहत हो जायगा ; रात ी :सु खम ् ििय ता = राितयो मे सुखपूवक
ु
सोयेगा।
वच िाम ृ त : यमराज िे ििचकेता से कहा- तुझे मतृयु के मुख से
पमुक िे खिे पर मेरे िारा पेिरत उदालक (तुमहारा िपता) पूवव
ु त िवशास
करके कोध एवं ि ु:ख से रिहत हो जायगा, (जीवि भर) राितयो मे
सुखपूवक
ु ् सोयेगा।
वय ाख या : यमराज िे ििचकेता को उसकी इचछािुसार वरिाि
ििया िक उसके िपता उदालक उसके मतृयु के पमुक िे खकर कर पूवव
ु त
िवशास करे गे तथा कोध एवं िेक से रिहत होकर िेष जीवि मे राितयो
मे िििशनत होकर सोयेगे, कयोिक मैिे तुमहे मुक कर ििया है ।
यमिे व की कृ पा से ििचकेता मतृयु िारा पमुक हुआ। वासतव मे
वह यमराज के िै वी पसाि से मतृयुभय से िवमुक हो गया। यह ििचकेता
के बहजाि िारा मतृयु पर िवजय की पूवस
ु ूचिा भी है ।
सवग े ल ोक ि भय ं िकञ चिा िसत ि तत त वं ि ज रय ा
िबभ ेित।
उभे त ीत वाु िि ाय ािपप ासे िेक ाित गो म ोित े स वग ु लो के
॥१ २॥
िबि ाथ ु : सवगे लोक िकञ चि भयम ् ि अिसत = सवगल
ु ोक मे
िकिञचत ् भय िहीं है ; तत तवं ि = वहां आप(मतृयु) भी िहीं है ; जरय ा
ि िब भेित = कोई वद
ृ ावसथा से िहीं डरता ; सवग ु ल ोके = सवग ु लोक मे
(वहां के ििवासी ); अि िा यािपप ासे = भूख और पयास ; उभे ती तव ाु =
िोिो को पार करके ;िो काितग : =िोक (ि ु:ख) से िरू रहकर ; मो िते =
सुख भोगते है ।
वचि ामृ त : ििचकेता िे कहा-सवगल
ु ोक मे िकिञचनमात भी भय
िहीं है । वहां आप (मतृयुसवरप) भी िहीं है । वहां कोई जरा (वद
ृ ावसथा) से
िहीं डरता। सवगल
ु ोक के ििवासी भूख-पयास िोिो को पार करके िोक
(ि :ु ख) सेिरू रहकर सुख भोगते है ।
वय ाख या : ििचकेता िे सवगु का वणि
ु करते हुए कहा-सवगल
ु ोक मे
भय िहीं होता। वहां मतृयु भी िहीं होती। वहां वद
ृ ावसथा भी िहीं
होती वहां भूख-पयास भी िहीं होते। वहां के ििवासी ि ु:ख िहीं भोगते
तथा सुखपूवक
ु रहते है ।
वासतव मे सवग ु चेतिा कीएक उचचावसथा है , जब मिुषय भय और
िचनता से मुक रहता है तथा वद
ृ ावसथा और मतृयु से पार चला जाता है
और भूख-पयास भी िहीं सताते। यह मािवीय चेतिा के उचच सतर पर
आिनिभाव की एक अवसथा है ।
शेताशतर उपििषद (२.१२) मे कहा गया है -अभयास करते हुए जब
योगी का पांचो महाभूतो (िमटटी, जल,अििि, वायु और आकाि) पर
अिधकार हो जाता है , तब िरीर योगािििमय हो जाता है और हो जाता है
और योगी रोग,वद
ृ ावसथा और मतृयु का अितकमण कर लेता है । वह
इचछािुसार पाणतयाग करता है । ऐसा ही योगििि
ु (३.४.४४, ४५, ४६) मे
भी कहा गया है
ि तस य रोगो ि जरा ि मृ तयु : पापसय योगाििि मयं
िर ीरम ् (शेत० उप० २.१२)
आधयाितमक साधक िे हाधयास (मै िे ह हूं यह भाव) से मुक होकर
ही ‘अहं बहािसम’ की अिुभूित कर सकता है ।
स तवम ििि सव िय ु म धये िष मृ त यो पबू िह तवं शद धा िाय
महम।
सव गु लो का अमृ तत वं भज नत एतद िित ीये ि वृ णे वरेण ॥
१३॥
िबि ाथ ु : मृ त यो =हे मतृयुिेव ;स तवं सव िय ु म ् अििि ं अधयेिष
= वह आप सवगु-पािप के साधिरप अििि को जिते है ; तवं महम
शद धा िाय पबू िह =आप मुझ शदालु को (उस अििि को) बताये।
सव गु लो का: अमृ तत वं भज नते =सवगल
ु ोक के ििवासी अमरतव को पाप ्
होते है ; एतद िित ीयेि वर ेण व ृ णे =(मै) यह िस
ू रा वर मांगता हूं।
वच िाम ृ त : हे मतृयुिेव , वह आप सवगप
ु ािप की साधिरप अििि
को जािते है ।आप मुझ शदालु को उसे बता िे । सवगल
ु ोक के ििवासी
अतत
ृ भाव को पाप हो जाते है । मै यह िस
ू रा वर मांगता हूं।
वय ाख या : ििचकेता िे यमराज से सवग ु के सुखो की चचा ु करते
हुए कहा-वहां वद
ृ ावसथा ,रोग और मतृयु का भय िहीं है , भूख पयास का
कष भी िहीं है तथा वहां के ििवासी िोक को पार करके आिनि भोगते
है , िकनतु सवगप
ु ािप का साधिरप अििि-िवजाि कया है ? हे िे व, मै
शदालु होिे के कारण इस महतवपूण ु जाि को पाप करिे के िलए सतपात
हूं। कृ पया मुझे इसका उपिे ि करे । यह मै िस
ू रा वर मांगता हूं।
वासतव मे ििचकेता यह मात िजजासा-संतुिष के िलए पूछता है ।
सवगािुिि को जािकर वह इसे अिावशयक कह िे गा, कयोिक उसकी पधाि
रिच तत
ृ ीय वर िारा आतमजाि पाप करिे मे है । उपििषद कमक
ु ाणड को
जािपािप की अपेका तुचछ एवं ििमि घोिषत करते है । (मंत १४, १५, १६,
१७, १८ मे अििि-िवजाि की चचाु की गयी है ।)
प ते बवी िम ति ु मे िि वोध सव िय ु म ििि ं ििचकेत :
पजा िि ।्
अि नतलो कािपमथ ो पित षां िव िद तवमेत ं िि िहत ं गुह ाया म्
॥१ ४॥
िबि ाथ ु : ििच केत : = हे ििचकेता ; सव िय ु म ् अििि म ् पजािि ्
ते पबव ीिम = सवगप
ु ािप की साधिरप अििििवदा को भली पकार
जाििेवाला मै तुमहे इसे बता रहा हूं ;तत ् उ मे िि बोध = उसे भली
पकार मुझसे जाि लो ; तवं एतम ् =तुम इसे ;अि नतलो कािपम ् =
अिनतलोक की पािप करािेवाली ; पित षा म ् =उसकी आधाररपा ; अथो =
तथा ;गुह ाय ाम ् िि िह तम ् = बुिदरपी गुहा मे िसथत (अथवा रहसयमय
एवं गूझ ् ); िव िद =समझो।
वच िाम ृ त : हे ििचकेता सवगप
ु िा अििििवदा को जाििेवाला मै
तुमहारे िलए भलीभांित समझाता हूं। (तुम) इसे मुझसे जाि लो। तुम इस
िवदा को अिनलोक की पािप करािेवाली ,उसकी आधाररपा और गुहा मे
िसथत समझो।
वय ाख या : यमराज अििििवदा के जाता है और वे ििचकेता को
इसे यथाथ ु रप मे समझािे का आशासि िे ते है । यह िवदा अिनतलोक
को पाप करा िे ती है तथा हिय –गुहा मे ही सिनििहत रहता है । धमु सय
ततव ं िि िहत ं गु ह ाय ाम।्
उपििषद कमक
ु ाणड तथा सवग ु आिि को महतव िहीं िे ते तथा
अनत:करण की िुिद ही कमक
ु ाणड का उदे शय होता है । ततवजाि ही
सवोचच है ।
लो काििम ििि ं तम ु वा च तसम ै य ा इष का याव ती वाु य था व ा।
स च ािप तत पतय विदथ ोकम था सय मृ तयु : पु िरेवा ह तुष :॥१ ५॥
िबि ाथ ु : तम ् लो काििम ् अििि म ् तसम ै उव ाच = उस लोकािि
(सवगु-लोक की साधि-रपा) अििििवदा को उस (ििचकेता )को कह ििया ;
या वा याव ती : इष का : = (उसमे कुणडििमाण
ु आिि के िलए )जो-जो
अथवा िजतिी-िजतिी ईटे (आवशयक होती है ); वा यथा = अथवा िजस
पकार(उिका चयि हो; च स अिप तत ् यथोकम ् पतय वित ् =और उस
(ििचकेता)िे भी उसे जैसा कहा गया था, पुि: सुिा ििया ; अथ= इसके
बाि ; मृ तयु : अस य तु ष : = यमराज उस पर संतुष होकर ; पु ि : एव आह
= पुि: बोले।
वच िाम ृ त : उस लोकािि अििििवदा को उसे (ििचकेता को )कह
ििया।
(कुणडििमाण
ु इतयािि मे) जो–जो अथवा िजतिी-िजतिी ईटे (आवशयक
होती है ) अथवा िजस पकार (उिका चयि हो)। और उस (ििचकेता) िे भी
उसे जैसा कहा गया था, पुि: सुिा ििया। इसके बाि यमराज उस पर
संतुष होकर पुि: बोले।
वय ाख या : आचायर
ु प यमिे व िे सवगल
ु ोक की साधिरपा
अििििवदा की गोपिीयता कहकर ििचकेता को उसे समझा ििया। यमिे व
िे कुणडििमाण
ु आिि के िलए िजस आकर की और िजतिी ईटे आवशयक
होती है तथा उिका िजस पकार चयि होता है , यह सब समझा ििया।
ििचकेता कुिागबुिद था, अतएव उसिे जैसा सुिा था, वैसा ही सुिा ििया।
यमाचाय ु िे उसकी बुिद की िवलकणता से संतुष होकर उसे इसके
आगे भी कुछ समझाया।
तमब वी त प ीयम ाण ो म हा तम ा वर ं तव े हा द िि ािम भूय :।
तवै व िा मा भिव ता यम ििि : सृ कङ ां चे मा मिे करप ां गृ ह ाण ॥
१६ ॥
िबि ाथ ु : पीयमा ण: महा तमा तम ् अबव ीत ् =पसनि एवं पिरतुष
हुए महातमा यमराज उससे बोले ;अद तव इह भूय : वरम ् ििा िम =
अब (मै) तुमहे यहां पुि: (एक अितिरक)वर िे ता हूं ; अय म ् अििि : तव
एव िामा भिवत ा = यह अििि तुमहारे ही िाम से (पखयात) होगी ; च
इम ाम ् अिे कर पा म ् सृ कङ ाम ् गृ ह ाण = और इस अिेक रपो वाली (रतो
की )माला को सवीकार करो।
वच िाम ृ त : महातमा यमराज पसनि एवं पिरतुष होकर उससे
बोले-अब मै तुमहे यहां पुि: एक (अितिरक) वर िे ता हूं। यह अििि तुमहारे
ही िाम से िवखयात होगी। और इस अिेक रपोवाली माला को सवीकार
करो।
वय ाख या : यिि गुर ििषय के आचरण से पसनि हो जाता है तो
वह उसे अपिा सवस
ु व लुटा िे िा चाहता है । आचायर
ु प महातमा यमराज
िे परम पसनि एंव पिरतुष होकर ििचकेता को िबिाउसके मांगे हुए ही
एक अितिरक वर िे ििया िक वह िविेष अििि भिवषय मे ‘िािचकेत
अििि’ के िाम से पखयात होगी। अितपसनि यमराज िे ििचकेता को
एक ििवय माला (रतमाला) भी भेट कर िी।
ित णा िच केतिस िभर ेत य स िनध ं ितक मु कृत ् तरित ज नमम ृ तयू।
बह जज। ि े वमी डयं िव िित वा ििच ाययेमा ं ि ािित मतयन तमेित
॥१ ७॥
िबि ाथ ु : ितण ािचकेत : = िािचकेत अििि का तीि बार अिुषाि ्
करिेवाला ; ितिभ : सिनध म ् एतय =तीिो(ऋक् , साम, यजु:वेि) के साथ
समबनध
जोडकर अथवा माता,िपता,गुर से समबद होकर मा तृ मा ि ् िप तृ म ाि ्
आच ायु वा ि ् बू या त ् (ब०ृ उप० ४.१.२); ितक मु कृत = तीि कमो (यज िाि
तप) को करिेवाला मिुषय ;जन मम ृ तयु तरित = जनम और मतृयु को पार
कर लेता है , जनम और मतृयु के चक से ऊपर उठ जाता है ; बह जजम ्
=बह से उतपनि सिृष (अथवा अििििे व) के जाििे वाले ;’बहजज’ का
अथु अििि भी है , जैसे अििि को जातवेिा भी कहते है । ‘बहजज’ का एक
अथ ु सवज
ु भी है "बहण ो िह रणय गभ ाु त ् जात ो बह ज:, बह जश ास ौ
जशे ित बह जज : सवु जो िह अस ौ (िंकराचायु)।" ईडयम िे वम ् =
सतविीय अििििे व (अथवा ईशर) को ;िव िितव ा=जािकर ; ििच ायय =
इसका चयि करके इसको भली पकार समझकर िे खकर ; इमा म्
अत यन तम ् िािनतम ् एित = इस अतयनत िािनत को पाप ् हो जाता है ।
वच िाम ृ त :जो भी मिुषय इस िािचकेत अििि का तीि बर
अिुषाि ् करता है और तीिो (ऋक् , साम, यजु:वेिो) से समबद हो जाता है
तथा तीिो कमु(यज, िाि, तप) करता है , वह जनम-मतृयु को पार कर लेता
है । वह बहा से उतपनि उपासिीय अििििे व को जािकर और उसकी
अिुभुित करके परम िािनत को पाप कर लेता है ।
वय ाख या :यह मंत गूढ है तथा इसके अिेक अथ ु िकये गये है ।
िािचकेत अििि का तीि बार अिुषाि करिेवाला तथा तीि पमुख बेिो
(ऋक् , साम, यजु:) से समबद होिवाला पुरष यज िाि और तप करते
हुए जनम ् और मतृयु का अितकमण कर लेता है । बहा से उतपनि
अििििे व को जाििेवाला मिुषय उपासय अििि को (अििि-िवजाि को)
जािकर और उसे समझकर िै वीभाव (ििवयता)को पाप कर लेता है । वेिो
मे ‘अििि’ परमातमा का पतीक एवं सूचक है । वह बह का ही सवरप है ।
ित णा िच केतस यमेतिि िितव ा य ए वं िवि ां िशि ुत े ि ािच केतम।्
स मृ त यृ प ाि ाि ृ पु रत : पण ोद िोकाितग ो मो िते सवग ु ल ोके ॥
१८॥
िबि ाथ ु : एतत ् तयम ् = इि तीिो (ईटो के सवरप संखया और
चयि िविध)को ; िव िितव ा = जािकर ; ितण ािचकेत : = तीि बार
िािचकेत अििि का अिुषाि करिेवाला ; य एव म ् िव िा ि ् = जो भी इस
पकार जाििेवाला जािी पुरष : िािच केतम ् िच िुत े = िािचकेत अिििका
चयि करता है ; स मृ तयु पा िा ि ् पु रत : पणो द =वह मतृयु के पािो को
उपिे सामिे ही (अपिे जीविकाल मे ही )काटकर ;िो काितग : सवग ु ल ोके
मो िते = िोक को पार करके सवग ु लोक मे आिनि का अिुभव करता
है । (मृ तयुं ज यित मृ तयु ञज य:)
वच िाम ृ त : इि तीिो (ईटो के सवरप संखया और चयि-िविध) को
जािकर तीि बर िािचकेत अििि का अिुषाि करिेवाला जो भी िविाि
पुरष िािचकेत अििि का चयि करता है , वह (अपिे जीविकाल मे ही)
मतृयु के पािो को अपिे सामिे ही काटकर, िोक को पार कर , सवगल
ु ोक
मे आिनि का अिुभव करता है ।
वय ाख या : िािचकेत अििििवदा की मिहमा का कथि करते हुए
यमराज िे कहा िक जो भी इस िवदा का जाििेवाला िविाि इसका
अिुषाि करता है , वह अपिे जीविकाल मे ही मतृयु से मुक होकर
मतृयुञजय हो जाता है । वह िोक को पार कर, चेतिा की उचचावसथा मे
िसथत हो जाता है और िै वी आिनि को भोग लेता है । वह सवगु को पाप
कर लेता है । वासतव मे सारे लोक सूकम रप मे अपिे भीतर भी है ।
एष तेऽ ििि िु िचकेत : सव िय ो यम वृ ण ीथ ा ििती ये ि वर ेण।
एतम ििि ं त वै व प वक यिनत ज िाससत ृ ती यं वर ं ि िच केत ो वृ ष णी षव ॥
१९ ॥
िबि ाथ ु : ििच केत := हे ििचकेता ; एष ते सवि यु : अििि : = यह
तुमसे कही हुई सवग ु की साधिरपा अििििवदा है ; यम ् ििती येि वरेण
अव ृ ण ीथ ा: =िजसे तुमिे िस
ू रे वर से मांगा था ; एतम ् अिििम ् =इस
अिििको ;जि ास: =लोग ;तव एव पवक यिनत =तुमहारी ही (तुमहारे
िाम से ही) कहा करे गे ;ििचकेत = हे ििचकेता ; तृ ती यम ् वरम ्
वृ ण ीष व= तीसरा वर मांगो।
वच िाम ृ त : हे ििचकेता, यह तुमसे कही हुई सवगस
ु ाधिरपा
अििििवधा है , िजसे तुमिे िस
ू रे वर से मांगा था। इस अििि को लोग
तुमहारे िाम से कहा करे गे। हे ििचकेता,तीसरा वर मांगो।
वय ाख या : यमराज िे ििचकेता को यह कहकर सममाि ििय िक
भिवषय मे लोग इस अििि को ‘िािचकेत अििि’ कहे गे। तिप
ु रानत
यमराज िे िािचकेता को तीसरा वर मांगिे की अिुमित िी। ििचकेता के
तीि अभीिपसत वरो मे एक सोपािातमकता है । सबसे अिधक महतवपूणु
वर जािातमक है । आतमजाि ही उपििषिो का पयोजि एवं पितपाद है ।
येय ं प ेत े िव िच िकत सा मिु षयेऽसत ीतय ेके िा यमसत ीित च ैके।
एत ििदा मिु ििषसत वय ाहं वर ाणाम ेष
वर सत ृ त ीय : ॥२० ॥
िबि ाथ ु : पेत े मिुषय े या इयं िव िच िकतस ा = मत
ृ क मिुषय के
संबंध मे यह जो संिय है ;एके अयम ् अिसत इित = कोई तो (कहते
है ) यह आतमा (मतृयु के बाि) रहता है ; च एके ि अिसत इित = और
कोई (कहते है ) िहीं रहता है ; तवय ा अिु िि ष: अहम ् = आपके िारा
उपििष मै ; एतत ् िव दा म ् =इसे भली पकार जाि लूं ; एष वराण ाम ्
तृ त ीय : वर : = यह वरो मे तीसरा वर है ।
वच िाम ृ त : मत
ृ क मिुषय के संबंध मे यह जो संिय है िक कोई
कहते है िक यह आतमा(मतृयु के पशात) रहता है और कोई कहते है िक
िहीं रहता, आपसे उपिे ि पाकर मै इसे जाि लूं , यह वरो मे तीसरा वर
है ।
वय ाख या : िजजासापेिरत ििचकेता िपता की पिरतुिष का वर और
अििि िवजाि का वर पाप करिे पर आतमा का यथाथ ु सवरप ् समझािे
का तीसरा वर मांगता है । ििचकेता कहता है –हे यमराज,मत
ृ क वयिक के
संबंध मे कोई कहता है िक मतृयु के उपरानत उसके आतमा का अिसततव
रहता है और कोई कहता है िक िहीं रहता, कृ पया मुझे इसे समझा िे ।
यह ििचकेता का अभीष और शष
े वर है ।
तैििरीय बाहण मे ििचकेता िे तीसरे वर मे पुिमतुृयु ( जनम-मतृयु)
पर िवजय-पािप का साधि पूछा है । तृ ती यं वृ ण ीष वेित ।
पु िम ुृ तय ोमे ऽ पिच ितं ब ूिह ।
एक कुमार से ऐसे गूढ पश की आिा िहीं की जा सकती। अतएव
यमिे व िे ििचकेता के सचचा अिधकारी अथवा सुपात होिे की परीका ली।
यमिे व िे िे र तक उसे टालिे का पयत िकया, िकनतु यह संभव ि हो
सका। इससे संवाि मे रोचकता आ गयी है ।
िेव ै रत ािप िव िच िक ितसत ं प ुर ा ि िह सुव ेज ेयमण ुरे ष ध मु :।
अन यं वरं ििचकेतो वृ णी षव मा मो पर ोतसी रित मा सृ जैिम ्
॥२ १॥
िबि ाथ ु : ििच केत := हे ििचकेता ; अत पुर ा िेव ै : अिप
िव िच िक ितसत म ् =यहां (इस िवषय मे) पहले िे वताओं िारा भी सनिे ह
िकया गया ; िह एष: धम ु : अणु : =कयोिक यह िवषय अतयनत सूकम है ;
ि सुिवज ेयम ् = सरल पकार से जाििे के योिय िहीं है ; अनयम ् वरम ्
वृ ण ीष व = अनय वर मांग लो; मा मा उपर ोतस ी : मुझ पर िवाव मत
डालो ; एि म ् मा अित सृ ज = इस (आतमजाि-समबनधी वर )को मुझे
छोड िो।
वच िाम ृ त : हे ििचकेता, इस िवषय मे पहले भी िे वताओं िारा
सनिे ह िकया गया था ,कयोिक यह िवषय अतयनत ् सूकम है और सुगमता
से जाििे योिय ् िहीं है । तुम कोई अनय वर मांग लो। मुझ पर बोझ मत
डालो।इस आतमजाि संबंधी वर को मुझे छोड िो।
वय ाख या : अधयातमिवदा ििुवज
ु ेय है । अििििवदा आिि कमक
ु ाणड
के िवषयो को समझिा सरल है , िकनतु बहिवदा का उपिे ि करिा और
गहण करिा अतयनत किठि है । यमिे व िे ििचकेता से कहा-यह िवषय
तो अतयनत गूढ है तथा सुगम िहीं है । अत: तुम कोइर ् अनय वर मांग
लो और इस वर को मुझे ही छोड िो। वासतव मे यमिे व िे केवल
ििचकेता के औतसुकय को उदीप कर
रहे है और उसकी पातता की परीका ले रहे है , बिलक उसके मि मे
बहजाि की मिहमा को पितिषत भी कर रहे है ।
िेव ै रत ािप िव िच िक ितसत ं िक ल तव ं च म ृ त यो यत सुिव जेमम ात थ।
वक ा चास य तव ादग नय ो ि लभ यो िानय ो वरसत ुल य एतस य
किश त ् ॥२२ ॥
िबि ाथ ु : मृ त यो =हे यमराज ;तवम ् यत ् आतथ = आपिे जो
कहा ; अत िकल िेव ै : अिप िव िच िक ितसतम ् = इस िवषय मे वासतव
मे िे वताओं िारा भी संिय िकया गया ; च ि सु िवज े यम ् = और वह
सुिवजैय भी िहीं है ; च असय वक ा = और इसका वका ; तव ादक्
अन य: लभय : = आपके सि
ृ ि अनय कोई पाप िहीं हो सकता ; एतसय
तुलय : अन य: किश त ् वर: ि =इस (वर) के समाि अनय कोई वर िहीं
है ।
वच िाम ृ त : ििचकेता िे कहा-हे यमराज, आपिे जो कहा िक इस
िवषय मे वासतव मे िे वताओं िारा भी संिय िकया गया और वह (िवषय)
सुगम भी िहीं है । और, इसका उपिे षा आपके तुलय अनय कोई लभय
िहीं हो सकता। इस (वर) के समाि अनय कोई वर िहीं है ।
"वकुम हु सयि ेष ेण ििवय ा ह ात मिवभ ूतय : " (गीता,१०.१६)
वय ाख या : ििचकेता अपिी गहि उतसुकता तथा ििशय की दढता
का पिरचय िे ता है तथा यम िारा आगह
ृ ि करिे के परामि ु को
सवीकार िहीं करता। वह कहता है -हे यमराज, आपका कथि ठीक है िक
िे वता भी आतमततव के िवषय मे संियगसत है और ििणय
ु िहीं ले पाते,
िकनतु आप मतृयु के िे वता है और आपके समाि कोई अनय उपिे षा यह
ििशयपूवक
ु िहीं कह सकता िक मतृयु के उपरानत ् आतमा का अिसततव
रहता है अथवा िहीं। मेरे पश िारा यािचत वरिाि के तुलय महतवपूणु
अनय कुछ भी िहीं हो सकता। यह एक िविचत संयोग है िक आके सदि
इस िवषय का कोई अनय जाता िहीं है और अधयातमिवदा के वर के
समाि अनय कोई वर भी िहीं हो सकता।
ित ायु ष : पुतप ौत ाि ् वृ ण ीष व बह ू ि ् पिूि ् हिसत िहर णयमश ाि ।्
भूम ेम ु हि ाय तिं वृ ण ीष व सवयं च जीव िर िो या वििच छिस ॥
२३॥
िबि ाथ ु : िता युष : =ितायुवाले ; पुतप ौत ाि ् = बेटे पोतो को ;
बहू ि पिूि ् = बहुत से गौ आिि पिुओं को ; हिसत िह रण यम ् = हाथी
और िहरणय (सवगु)को ;अशाि व ृ णी षव =अशो को मांग लो ; भूम े : महत ्
आय तिम ् = भूिम के महाि ् िवसतार को ; वृ णी षव = मांग लो ; सवयम ्
च = तुम सवयं भी ; याव त ् िरि : इचछिस जीव = जीवि िरद ऋतुओं
(वषो तक इचछा करो, जीिवत रहो।
वच िाम ृ त : ितायु (िीघाय
ु ु )पुत-पौधो को , बहुत से (गौ आिि)
पिुओं को , हाथी-सुवणु को, अशो को मांग लो, भूिम के महाि ् िवसतार को
मांग लो , सवयं भी िजतिे िरद ऋतुओं (वषो) तक इचछा हो, जीिवत रहो।
वय ाख या : यमराज िे ििचकेता को एक कुमार के मि की अवसथा
के अिुरप धि-धानय मांग लेिे के िलए कहा। यमराज िे उसे
िीघाय
ु व
ु ाले बेटे-पोते, बहुत से गौ आिि पिु, गज, अश, भूिम के िविाल केत
,सवयंकी भी यथेचछा आयु पाप करिे का पलोभि ििया और समझाया
िक वह आतमिवदा को सीखिे के िलए उसे िववि ि करे ।
एत िुलय ं यिि मन यसे वर ं वृ ण ीष व िवि ं िच रज ीिव कां च।
मह ाभूभ ौ ििचकेतसत वमेिध कामा िां तवा कामभा जं करोिम॥
२४ ॥
िबि ाथ ु : ििच केता :हे ििचकेता ;यिि तव म ् एत त ् तुल यम ्
वर म ् मनयस े वृ ण ीष व =यिि तुम इस आतमजाि के समाि (िकसी
अनय) पर को मिते हो , मांग लो ; िव िं िच रजीिव का म ् = धि को और
अिनतकाल तक जीवियापि के साधिो को ;व महभूम ौ =और िविाल
भूिम पर ;एिध = फलो-फूलो,बढो, िासि करो ; तवा काम ाि ाम्
काम भा जम ् करोिम = तुमहे (समसत कामिाओं का उपभोग करिेवाला
बिा िे ता हूँ।
वच िाम ृ त : हे ििचकेता, यिि तुम इस आतमजाि के समाि
(िकसी अनय) वर को मांगते हो, मांग लो –धि, जीवियापि के साधिो को
और िविाल भूिम पर (अिधपित होकर) विृद करो, िासि करो। तुमहे
(समसत) कामिाओं का उपभोग करिेवाला बिा िे ता हूँ।
वय ाख या :यमराज ििचकेता के मि को पलुबध करिे के िलए
अिेक कामोपभोगो की गणिा करते है -अपार धि,जीवियापि के साधि,
िविाल भूिम पर िासि, अिनत कािाओं का भोगी। यमराज ििचकेता से
कहते है िक वह आतमजाि के समाि िकसी भी अनय वर को मांग ले ,
िजसे वह उपयुक समझता हो। वासतव मे यमाचाय ु ििचकेता के मि मे
आतमजाि के पित उसकी उतसुकता बढा रहे है और उसकी पातता को
परख भी रहे है ।
ये ये कामा ि ु लु भा मतय ु ल ोके सवाु ि ् काम ां श छनित :
पाथ ु यसव।
इम ा रामा : सर था : सतूय ाु ि हीदि ा लमभि ीय ा
मिुष यै :।
आिभम ु तप िािभ : पिर चारयस व ् ििच केतो मर णं मािुप ाक ी ॥
२५ ॥
िबि ाथ ु : ये ये काम ा : मतय ु ल ोके ि ु लु भ ा : (सिनत ) =जो-जो
भोग मिुषयलोक मे िल
ु भ
ु है ; सव ाु ि ् काम ाि ् छनित : पाथ ु यसव = उि
समपूण ु भोगो को इचछािुसार मांग लो ; सरथ ा: सतूया ु : इम ा: राम ा:
=रथोसिहत, तूयो (वादो, वाजो )सिहत, इि सवग ु की अपसराओं को ;
मिुष यै : ईदिा : ि िह लमभि ीय ा:
=मिुषयो िारा ऐसी िसयॉँ पापय िहीं है , मतप िा िभ : आिभ :
िप रचा रयसव = मेरे िारा पिि इिसे सेवा कराओ ;ििच केत := हे
ििचकेता ;मरणं मा अिुप ाकी:=मरण (के संबंध मे पश को) मत पूछो।
वच िाम ृ त : हे ििचकेता, जो-जो भोग मतृयुलोक मे िल
ु भ
ु है , उि
सबको इचछािुसार मांग लो-रथोसिहत, वादोसिहत इि अपसराओं को (मांग
लो), मिुषयो िारा ििशय ही ऐसी िसयां अलभय है । इिसे अपिी सेवा
कराओ,मतृयु के संबध
ं मे मत पूछो।
वय ाख या :यमाचायु अिेक पकार से ििचकेता के अिधकारी (सुपात)
होिे की परीका ले रहे है तथा मािवकिलपत संपूण ु भोगो का पलोभि
ििखा िे ते है । वे ििचकेता से कहते है िक वह सवग ु क अपसराओं को,
सवगीय रथो और वादो के सिहत ले जाए जो मतृयु लोक के मिुषयो के
िलए अलभय है तथा उिसे सेवा कराए,िकनतु आतमजाििवषयक पश ि
पूछे। िकनतु ििचकेता वैराियसमपनि और दढििशयी था। आतमततव के
सचचे िजजासु के िलए वैराियभाव तथा दढििशय होिा आवशयक होता है ,
अनयथा वह अपिी साधिा मे अिडग िहीं रह सकता।
शो भाव ा मत यु सय यिन तकै तत ् सवे िनदय ाण ां जरयिनत
तेज :।
अिप सवु म ् जीिवत मलप ेम ेव तवैव वाहा सत व िृ तय गी ते ॥
२६॥
िबि ाथ ु : अनतक =हे मतृयो ;शो भा वा := कल तक ही रहिेवाले
अथात
ु िशर,किणक,कणभंगुर ये भोग ;मत यु सय ् सवे िनदय ाणा म ् यत ्
तेज : एतत ् जरयिनत = मरणिील मिुषय की सब इिनदयो का जो तेज
(है ) उसे कीण कर िे ते है ; अिप सवु म ् जीिव तम ् अल पम ् एव = इसके
अितिरक समसत आयु अलप ही है ; तव वा हा: नत यग ीते तव एव =
आपके रथािि वाहि,सवगु के ितृय और संगीत आपके ही (पास) रहे ।
वच िाम ृ त : हे यमराज,(आपके िारा विणत
ु ) कल तक ही रहिेवाले
(एक ही ििि के, कणभंगुर) भोग मरणधमा ु मिुषय की सब इिनदयो के
तेज को कीण कर िे ते है । इसके अितिरक समसत आयु अलप ही है ।
आपके रथािि वाहि, सवगु के ितृय और संगीत आपके ही पास रहे ।
वय ाख या :ििचकेता िे आतमजाि की अपेका सांसािरक सुखभोगो
को तुचछ घोिषत कर ििया। भौितक सुखभोग इिनदयो की ििक को कीण
कर िे ते है तथा उिसे िािनत िहीं होती। इसके अितिरक मिुषय का
जीवि अलप और अिििशत है । अतएव िजस िववेकिील पुरष के िलए
सतय साधय है एवं पापय है , उसके िलए ये भौितक सुखभोग तयाजय है ।
ििचकेता यमिे व से कह िे ता है िक उसे ये िशर भोग-पिाथ ु पलुबध िहीं
करते तथा इनहे वह अपिे पास ही रखे।
ि िवि ेि तप ु णी यो मिुषय ो लपसय ामह े िव िमद ाक म चे त ्
तव ा।
जीिवष यामो याव िी िि षयिस तवं वर सतु मे वर णी य: स एव ॥
२७ ॥
िबि ाथ ु : मिुषय : िव िे ि तपु णी य: ि = मिुषय धि से कभी तप
ृ
िहीं हो सकता ;चेत ् = यिि, जब िक ;तवा अद ाकम =(हमिे) आपके ििि
ु
पा िलये है ;िव िम ् लपसया महे = धि को (तो हम) पा ही लेगे ;तवम ्
या वद ईििष यिस = आप जब तक ईिि(िासि) करते रहे गे,
जीिवष याम := हम जीिवत ही रहे गे ;मे वरण ीय : वर : तु स एव = मेरे
मांगिे के योिय वर तो वह ही है ।
वच िाम ृ त : मिुषय धि से तप
ृ िहीं हो सकता। जब िक (हमिे)
आपके ििि
ु पा िलये है , धि तो हम पा ही लेगे। आप जब तक िासि
करते रहे गे, हम जीिवत भी रह सकेगे। मेरे मांगिे के योिय वर तो वह ही
है ।
वय ाख या :ििचकेता िे एक परम सतय का कथि िकया है िक
धि से मिुषय की आतयिनतक तिृप िही हो सकती। उसिे यमिे व को
सममाििे ते हुए कहा-जब िक हमिे आपके ििि
ु पाप कर िलए है , आपकी
कृ पा से धि तो हम पा ही लेगे तथा आप जब तक िासि करते रहे गे,
हम भी तब तक जीिवत रह सकेगे। अत: धि और िीघाय
ु ु की याचिा
करिा वयथु है ।
कठोपििषद का पहला उपिे ि ििचकेता के मुख से ििससत
ृ हुआ
है । "ि िवि ेि तपु ण ीय ो मिुषय :" को कणठसथ करके इसके सारततव
को गहण कर लेिा चिहए। मिुषय की आतयिनतक तिृप कभी धि-समपिि
से िहीं हो सकती। मिुषय धि से सुख-सुिवधा के साधिो को पापकर
सकता है , िकनतु आििक सुख को पाप ् िहीं कर सकता। मिुषय के जीवि
मे धि बहुत कुछ है , िकनतु सब कुछ िही है ।
इचछाओं की तिप भोग से िहीं होती,जैसे िक अििि की िािनत घत
ृ
डालिे से िहीं होती, बिलक वह अिधक उदीप हो जाती है ।
ि ज ातू काम : काम ाि ामुपभ ोगेि ि ाम यित ।
हिवष ा कृष णवतम े व भू य एवा िभ वधु ते ॥ (मिुसमिृत
२.९४)
भो गा ि भ ु का वयम ेव भ ु का : ुृ िर,
(भतह
वैराियितक)
अथात
ु भोग कभी भुक िहीं होते, हम भी भुक हो जाते है ।
‘िवष य म ोर ह िर ली नहेउ िया िा ’ (सुगीव की
उिक)
‘बुझ ै ि काम अगिि तुलसी क हुँ िव षय भो ग वह ु घी ते ’
कामाििि का िमि िववेकपूण ु सनतोष से ही होिा संभव होता है ।
‘िबि ु स ंत ोष ि काम िस ाह ी।’
हूवर कमेटी िारा पसतुत अमेिरका की अथस
ु ंबंधी युदोिर अनवेषण
िरपोटु
मे परमपरागत िसदानत का ही पितपािि िकया गया िक एक इचछा
को िानत करिे पर वह अनय इचछा को जनम िे िे ती है तथा इचछाओं
का कम कभी समाप िहीं होता।
“The survey has provaed conclusively what has been long held
theoretically to be true that wants are almost insatiable, that one want
makes way for another.” “Wants multiply.”
महातमा ईसा िे कहा था िक मिुषय एक साथ ही भगवाि ् तथा
धि को पेम िहीं कर सकता (“Ye cannot serve God and a mammon.”)
ऊँट के िलए सुई मे से गुजरिा धििक िारा परमातमा के राजय मे पवेि
करिे की अपेका सरल है । “For it is easier for a camel to go through a
needle’s eye than for a richman to enter into the kingdom of God.”
आदाितमक साधक के माग ु मे धि की तषृणा एवं धि का अिभमाि
बाधक है । उसे सािगी और संतोष से जीवि-यापि करिा चािहए।
धि की िलपसा मिुषय को पाप मे पवि
ृ कर िे ती है । धि का
पभाव धि के अभाव से अिधक िःुखिायक होता है । धि का लोभ मिुषय
को भटकाकर अिानत बिा िे ता है तथा धि की पचुरता को मिानध बिा
िे ती है । किक किक ते सौ गु िी माि कत ा अिध काय। वह खाये
बौ राय जग यह पा ये बौ राय (िबह ारी)। धि की पचुरता पायः मिुषय
को िवलािसता, िवुयस
ु ि, अपराध, िहं सा और अिािनत की ओर ले जाती है ।
वासतव मे धि मे िोष िहीं है , धि की िलपसा एवं आसिक मे िोष
होता है । मिुषय धि के सिप
ु योग से िीि िःुखी जि की सेवा आिि
लोक-कलयाण के काय ु कर सकता है । अतः हमे तयागपूवक
ु भोग करिा
चािहए। ईिावासय उपििषद मे इसी भाव को सूतातमक रप से कहा गया
है −ते ि तयकेि भु ज जी था मा गृ धः कसय िसवद धि म।् सनत कबीर
िे संतोषविृि की पिंसा मे कहा था−साँ ई इत िा िी िज ये , जामे कुटुम ब
समा य, मै भी भू खा िा मरँ सा धु ि भू खा जाय । पिरशम और
सचचाई से धि अिजत
ु करिा, जो भी पाप हो जाय उसमे सनतोष करिा
तथा उसका सिप
ु योग करिा िववेकसममत है । यद चछ ाल ाभस नतुष ो
(गीता, ४.२२)
यह एक तथय है िक मिुषय सब कुछ यहीं एकितत करता है और
सब कुछ यहीं छोडकर सहसा चला जाता है । यिि सब कुछ छूटिा है तो
हम उसे सवयं ही छोड िे अथात
ु ् उसके ममतव, सवािमतव और आसिक के
भाव को छोडकर भारयुक हो जाएँ। सब धि परमातमा का ही है । अतः
‘इ िं ि मम ’
(यह मेरा िहीं है ।) की भाविा को ििरोधाय ु करके धि का उपभोग
एवं सिप
ु योग करिा सब पकार से शष
े है ।
ििशय ही आतमजाि की अपेका धि अतयनत तुचछ है ।
बह
ृ िारणयक उपििषद मे मैतेयी िे याजवलकय ऋिष से पूछा−यिि यह धि
से समपनि सारी पथ
ृ वी मेरी हो जाये तो कया मै अमर हो सकती हूँ ?
याजवलकय िे कही−भोग−सामिगयो से समपनि मिुषयो का जैसा जीवि
होता है , वैसा ही तेरा जीवि भी हो जाएगा। धि से अमत
ृ तव की तो आिा
ही िहीं। ‘अम ृ त तवसय िा िा िसत िव िे ि।’ मैतेयी िे कहा−िजससे मै
अमत
ृ ा िहीं हो सकती, उसे लेकर कया करँगी? मुझे तो अमत
ृ तव का
साधि बतलाएं। ‘ये िा हं िाम ृ ता सया ं िकम हं ते ि कुय ाु म ् ? यिे व
भग वा नवेि तिे व मे बूिह ।’ जीवि का उदे शय तो अमत
ृ सवरप आतमा
को जािकर अमत
ृ तव पाप करिा है । उपििषिो मे अिेक सथलो पर
अमत
ृ तव की चचाु है । जीविकाल मे आतमततव को जािकर अमत
ृ तव पाप
करिा ही उिम धि है । यही मािव की सवोचच उपलिबध भी है ।
अजीयु ता मम ृ त ाि ामुप ेतय ज ीयु ि ् मत यु ः वकध ःस थः पजा िि ।्
अिभध याय ि ् वणु र ित पमो िा ििी घे ज ीिवत े को रमे त ॥२८ ॥
िबि ाथ ु ः जीयु ि ् मतय ु ः = जीण ु होिेवाला मरणधमा ु मिुषय;
अजीयु ता म ् अमृ त ाि ाम ् = वयोहाििरप जीणत
ु ा को पाप ि होिेवाले
अमत
ृ ो (िे वताओं, महातमाओं) की सिनििध मे, ििकतटता मे; उपेतय= पाप
होकर, पहुँचकर; पजा िि ् = आतमततव की मिहमा का जाििेवाला अथवा
उि (िे वताओं, महातमाओ) से पाप होिेवाले लाभ को जाििेवाला;
वक धःस थः =वकधः (कु=पथ
ृ वी, अनतिरक आिि से अधः, िीचे होिे के कारण
पथ
ृ वी वकधः कहलाती है −िंकराचायु) मे िसथत वकधःसथ, िीचे पथ
ृ वी पर
िसथत होकर; कः= कौि; वणु र ित पमो िा ि ् अिभध याय ि् =रप, रित और
भोगसुखो का धयाि करता हुआ (अथवा उिकी वयथत
ु ा पर िवचार करता
हुआ); अित िी घे जीिवत े रमेत =अितिीघ ु काल तक जीिवत रहिे मे रिच
लेगा। (इस शोक के अिेक अनवय और अथु िकए गए है ।
वच िाम ृ त ः जीण ु होिेवाला मरणधमा ु मिुषय, जीणत
ु ा को पाप ि
होिेवाले िे वताओं (अथवा महातमाओं) के समीप जाकर, आतमिवदा से
पिरिचत होकर, (अथवा महातमाओं से पाप होिेवाले लाभ को सोचकर)
पथ
ृ वी पर िसथत होिेवाला, कौि भौितक भोगो का समरण करता हुआ
(अथवा उिकी ििरथक
ु ता को समझता हुआ) अितिीघ ु जीवि मे सुख
मािेगा?
वय ाख याः ििचकेता कुमारावसथा मे ही बुिद की पिरपकवता एवं
िजजासा
की गहिता का पिरचय िे ता है । वह यमिे व से कहता है िक जीण ु हो
जािेवाला तथा मतृयु को पाप होिेवाला, मतृयुलोक मे रहिेवाला, कौि
मिुषय जीण ु ि होिेवाले अमत
ृ सवरप महातमाओं का संग पाकर भी
भौितक भोगो का िचनति करते हुए िीघक
ु ाल तक जीिवत रहिे मे रिच
लेगा? यमराज जैसे महातमा का सािनिधय पाकर भी भोगो का िचनति
करिे की मूखत
ु ा कौि िववेकिील मिुषय करे गा? मतृयुलोक मे रहिेवाले
मरणधमा ु मिुषय के िलए यमराज के सािनिधय मे आकर आतमजाि की
पािप से बढकर अनय कौि-सा सौभािय हो सकता है ? ििचकेता िे
आतमजाि के िलए आवशयक वैराियभाव को पििित
ु करके सवयं को
उपिे ि का सचचा अिधकारी िसद कर ििया। यह पिसद ही है िक िवषय-
वासिा और भौितक वसतुओं की तषृणा से गसत मिुषय आतमजाि की
साधिा िहीं कर सकता। ििचकेता सतय का गंभीर अिुसंधाता है तथा
संसार के सुखभोगो को तुचछ समझकर उिका पिरतयाग करिे पर दढ है ।
वह मात िीघज
ु ीवी िहीं, ििवयजीवी होिा चाहता है ।
यिसम िनिि ं िव िच िक तस िनत मृ त यो यतसा मप रा ये मह ित बूिह
िसत त।्
यो ऽयं वरो गूढमि ु पिव षो िानय ं तसमा नि िच केता वृ णी ते ॥
२९॥
िबि ाथ ु ः मृ तय ो=हे यमराज; यिसम ि ् इि म ् िव िच िक तस िनत =
िजस समय यह िविचिकतसा (सनिे ह, िववाि) होती है ; यत ् मह ित
सा मपर ाये = जो महाि ् परलोक-िवजाि मे है ; तत ् =उसे; िः बू िह =हमे
बता िो; यः अय म ् गूढम ् अिु पिव षः वरः = जो यह वर (अब) गूढ
रहसयमयता को पवेि कर गया है (अिधक रहसयपूण ु एवं महतवपूण ु हो
गया है ); तसमा त ् अनयम ् = इससे अितिरक अनय (वर) को; ििच केता ि
वृ ण ीते = ििचकेता िहीं माँगता।
(इस शोक के भी अिेक अनवय और अथु िकए गए है ।)
वच िाम ृ त ः हे यमराज, िजस िवषय मे सनिे ह होता है , जो महाि ्
परलोक-िवजाि मे है , उसे हमे कहो। जो यह (तत
ृ ीय) वह है , (अब) गूढ
रहसयमयता मे पवेि कर गया है (अिधक रहसयपूण ु हो गया है )। उसके
अितिरक अनय (वर को) ििचकेता िहीं माँगता।
वय ाख याः ििचकेता अपिे ििशय पर दढ है तथा कोई पलोभि
उसे िवचिलत िहीं कर सकता। यमराज जैसे उपिे षा के सािनिधय का
सविणम
ु अवसर पाप करके वह उसे खोिा िहीं चाहता। यमराज िे िजतिे
भी पलोभि पसतुत िकए, ििचकेता िे उि सबको तुचछ एवं हे य कह
ििया। आतमततव के जाि से बढकर अनय कुछ भी िहीं हो सकता।
ििचकेता का तत
ृ ीय वर गूढ है और गंभीर िववेचिा की अपेका करता है ।
पथम अ धयाय
िितीय वलली
--------------------------------------
१. िचिमेव िह संसारः ततपयतेि िोधयेत।् (मैतेयी उप०)
—िचि ही संसार है , उसका िोधि पयत से करिा चािहए।
परे है ।
वह अिुभव और आनतिरक अिुभूित से सहज सुलभ है । अिुमाि और
तकु पमाण के साधारण साधि है । आनतिरक अिुभूित शष
े पमाण होती
है । गहि आनतिरक अिुभूित को ििरोधायु करिा चािहए।
४
---------------------------
१. राम अतकय ु बुिद मि बािी , मत ह मार अस सुिह ु सयािी।
२. तको ·पितषः।
३. िबिजाल ं म हारणय ं िचिभ मणकारण म।्
अतः पयतात ् जातवय ं ततवज ै सततव मातमिः।। (िववेकचड
ू ामिण ६२)
—िङकराचायु कहते है िक गनथो का िबिजाल िचि को भटकािेवाला घिा जंगल होता
है । अतः मिुषय को सबसे िरू हटकर आतमततव को जाििे का पयत करिा
चािहए।
४. कालु जुंग कहता है िक हमे आनतिरक अिुभूित के महतव को सवीकार करिा चािहए।
कानट को Critique of Pure Reason के बाि Critique of Practical Reason िलखिा
पडा.
योिय एवं महाि ् और वेिो मे िजसका गुणगाि है ऐसे सवग ु को, िसथर
िसथितवाले सवग ु को (अथवा लोकपितषा को), धीर होकर, िवचार करके
छोड ििया है (तुमिे सवगु का मोह छोड ििया है )।
है ।
एत चछत वा समप िरग ृ ह मतय ु ः प वृ ह धम यु मणुम ेतम ाप य।
स मोित े मोि िी यं िह लब धव ा िव वृ तं सद ििचकेतस ं
मनय े।।१३।।
िबि ाथ ु : मत यु : = मिुषय; एत त ् धमयु म ् शु त वा = इस धमम
ु य
(उपिे ि) को सुिकर; सम पिर गृ िह = भली पकार से धारण (गहण) करके;
पव ृ ह = भली पकार िवचार करके, िववेचिा करके; एतम ् अणुम ् आपय
= इस सूकम (आतमततव) को; आप य = जािकर; स: = वह; मोिि ीय म्
लब धव ा = आिनिसवरप परमातमा को पाकर; मो िते िह = ििशय ही
आिनिमिि हो जाता है ; ििच केतसम ् = (तुम) ििच केता के िल ए ;
िव वृ तम ् सद मनये =मै परमधाम (बहपुर) का िार खुला हुआ मािता
हूँ।
वच िाम ृ त : मरणधमा ु मिुषय इस धमम
ु य उपिे ि को सुिकर,
धारण कर (तथा) िववेचिा कर (तथा) इस सूकम आतमततव को जािकर
(इसका अिुभव कर लेता है ), वह आिनिसवरप परबह परमातमा को पाप
कर ििशय ही आिनिमिि हो जाता है । मै ििचकेता के (तुमहारे ) िलए
परमधाम का िार खुला हुआ मािता हूँ।
सनिभ ु : यमाचाय ु ििचकेता को बहिवदा का अिधकारी मािते है ।
"स म ोित े म ोि िी यं िह लब धव ा" को कणठसथ कर ले।
ििव या मृ त : बहिवदा का आधयाितमक उपिे ि मििीय होता है ।
कोई जािी एवं अिुभव महापुरष ही परमातमा-संबंधी उपिे ि करिे का
अिधकारी होता है । कुछ गनथो का अधययि करके, िबिा कुछ गहण िकये
हुए ही, उपिे ि करिा ििषपभावी होता है । िजस मिुषय िे सवयं अिुभव
िहीं िकया, वह िकसी िजजासु को सनतुष िहीं कर सकता। अिुभविूनय
जाि ििरथक
ु होता है ।
वही िजजासु आधयाितमक उपिे ि का लाभ उठा सकता है , िजसमे
उतसुकता, वैराियभाव, शदा तथा िविमता हो। आतमजाि गुढ तथा
रहसयमय होता है । मिुषय िे हाधयाय से छूटकर अथात
ु ् िे ह को आतमा से
पथ
ृ क् समझकर तथा िे ह के बनधि से मुक होकर, आतमा के िुद, बुद
और मुक सवरप मे िसथत होिे पर परमािनि का अिुभव कर लेता है ।
आतमा सूकमाितसूकम है तथा ििवय है । जड इिनदयाँ, मि और बुिद
उसका गहण िहीं कर सकती। सदर
ु से सूकम आतमततव का उपिे ि
सुिकर, उिम ििषय उस पर िचनति-मिि करके उसका गहण कर लेता
है । आधयाितमक साधिा का माग ु ही परमािनि-पािप का एकमात माग ु है
तथा बहिवदा ही मरणधमा ु मिुषय को अमतृव पिाि करिे मे सकम है ।
आिनि का सोत एवं ििधाि मिुषय के भीतर उसका आतमा ही है ।
१
संग हेण
बवी िम = उस पि को तुमहारे िलए संकेप से कहता हूँ; ओम ् इित एतत ्
= ओम ् ऐसा यह (अकर) है ।
वच िाम ृ त : सारे वेि िजस पि का पितपािि करते है और सारे तप
िजसकी घोषणा करते है , िजसकी इचछा करते हुए (साधकगण) बहचय ु का
पालि करते है , उस पि को तुमहारे िलए संकेप मे कहता हूँ, ओम ् ऐसा
यह अकर है ।
सनिभ ु : = ओम ् की मिहमा का गाि है ।
ििव या मृ त : यमाचायु ििचकेता से संकेप मे परमपि का कथि करते है ।
सब वेि िजस परमपि का पितपािि करते है और िजस पि की पािप के
िलए िािा पकार के कठोर तप िकए जाते है , वह पापय परमपि एक ही
है । उसकी पािप के िलए बहचयु का पालि िकया जाता है । बहचयु-पालि
का अथ ु बहपािप को लकय मािकर सवाधयाय और आधयाितमक साधिा
करिा है ।
वह परमपि ओम ् है । यह अकरबह तथा िबिबह है । यह एक अकऱ बह
का वाचक अथवा पतीत है । यह तीि मूल धविियो अ, उ, म ्, का संयोजि
है । िाम तथा िामी मे अभेि होता है तथा वे एक होते है , िाम से िामी
का उललेख होता है । ओम ् बह का िाम है , साकात ् बह ही है । ओम ् की
साधिा करिे से बह की पािप एवं अिुभूित संभव हो जाती है । ओम
पणव है । 'ॐ ततसत ् ' की मिहमा तथा 'ॐ' की मिहमा का गाि
१
ओम ् के अदत
ु पभाव की चचाु की गयी है । ओंकार परबह और अपरबह
३
-----------------------
१. तसय वाच क: पणव : (योगििि
ु , १.२७)—ॐ परमातमा का वाचक है ।
२. ॐ तत सिि ित ििि े िो बह णिस िव धः सम ृ तः ।
बाहणा सतेि वेिाश यजाश िविह ताः पुरा।। (गीता, १७.२३)
तस माि ेिम तयुिाहतय यजिाितपः िकयाः।
पवत ु नते िव धािोका : सततं बहवािििा म।् । (गीता, १७.२४)
३. ओिम तयेत िकर म ु दीथम ु पासीत।
ओिम ित िह उदय ित तसयोपवय ाखया िम।् । (छानिोिय उप०, १.१.१.)
—ॐ परबह का पतीक है । ॐ कहकर उदाि करता है । उदाता ॐ इस अकर से
पारं भ करके उदाि करता है । ॐकार उदीथ है । ॐ उदीथसंजक पकृ त अकर है । इससे
परमातमा की अपिचित (उपासिा) होती है । तेि ेय ं .…रसेि (छानिोिय उप०, १.१.९) इसकी
अचि
ु ा परमातमा की ही अचि
ु ा है ।
बह को पाप करता है ।
२
---------------------------
… …
१. परं चापर ं च बह यिोङकारः। स यदेकमात मिभ धयायीत स तेि ैव
संव ेिि तसत ूण ु मेव जगतयाम िभस ंपदत े। तम ृ चो मिुषयलोक मुपियनत े स तत
तप सा बह चयेण शदय ा समप निो मिह माि मिुभवित । (पशोपििषद, ५)
…
२. ओिम ित बह ओिम तीि ं सव ु म ् बहै वोपापोित । (तैिि० उप०, १.८)
३. हिरः ॐ बहवा िििो वि िनत (शेताशतर उप०, १.१)
४. ओिमत येतिकर िमि ं सवव तसयोपवयाख याि ं भूत ं भव त ् भिवषयत ् इित
सवु मोङकार एव।
यचचानयत ् ित कालातीत ं तिपयोङकार एव। (माणडू कय उप०, १)
५. पणवो धिुः िरो हातमा बह तललकयम ु चयत े।
अपमि ेि व ेदवय ं िरविन मयो भव े त।् । (मुणडक उप०, २.२.4)
६. ओिम तयेकाकर ं बह व याहरन मामि ुस मरि।् ।
यः पयाित तयजनि ेहं स य ाित परमा ं गित म।् । (गीता, ८.१३)
७. सिृष के आिि के जो भयंकर महािवसफोट हुआ, उसकी लयातमक अिुगूँज सिृष की
समसत गितमयता का आधार है तथा वह सिृष के अनत तक ििरनतर पवहमाि रहे गी। (हमिे
धयाियोग मे इसका रहसयमय अिुभव िकया तथा इसको गहण कर तथा संकेिनदत कर,
इसके अिेक सफल पयोग िकए। यह गवेषण का िवषय है ।)
अदत
ु कमता थी.
ओम ् का जप, धयाि और उसकी उपासिा ििससनिे ह बहपािप एवं
बहािनि की अिुभूित का उिम साधि है ।
एत देव ाक रं बह ए तदे वा करं पर म।्
एत देव ाक रं ज ात वा य ो यिि चछित तस य त त।् । १६।।
िबि ाथ ु : एतत ् अकरम ् एव िह बह = अकर ही तो (ििशयरप
से) बह है ; एतत ् अकरम ् एव िह पर म = यह अकर ही तो (ििशयरप
से) परबह है ; िह एत त ् एव अकरम ् जातव ा = इसीिलए इसी अकर को
जािकर; य: यत ् इचछित तस य तत ् =जो िजसकी इचछा करता है ,
उसको वही (िमल जाता है )।
वच िाम ृ त : यह अकर ही तो बह है , यह अकर ही परबह है ।
इसीिलए इसी अकर को जािकर जो िजसकी इचछा करता है , उसे वही
िमल जाता है ।
सनिभ ु : ॐ की मिहमा का गाि िकया गया है ।
ििव या मृ त : ॐ बह का वाचक अिविािी अकर है तथा बह ही
है । यह सोपािध बह और परबह (अथवा अपर बह और बह) िोिो का
१
एतिालमबिं शष
े मेतिालमबिं परम।्
एतिावमबिं जातवा बहलोके महीयते।। १७।।
िबिा थु : एत त ् शे ष म ् आलमब िम ् = यह शष
े आलमबि है ,
आशय, सहारा है ; एत त ् परम ् आलमब िम ् = यह सवोचच आलमबि है ;
एत त ् आलमब िम ् जा तव ा = इस आलमबि को जािकर; बहल ोके
मह ीय ते = बहलोक मे मिहमािनवत होता है ।
वच िाम ृ त : ॐकार ही शष
े आलमबि है , ॐकार सवोचच (अिनतम)
आलमबि अथवा आशय है । इस आलमबि को जािकर मिुषय बहलोक
मे मिहमामय होता है ।
सनिभ ु : ॐकार मिुषय का शष
े आलमबि है ।
ििव या मृ त : भारतीय मूल के समसत धमो मे ॐ को मङगलिाता
एवं अमङगलहता ु मािा जाता है । यह मिुषय की वाणी की सवाभािवक
एवं सहज मिहमामय िवसफोट है । यह िवश की सूकम एवं ििवय परमसिा
का वाचक अथवा पतीत है । वाचक और वाचय अथवा िाम और िामी
एक होते है । ॐकार भगवतपािप का माधयम अथवा सोपाि है । यह
मिुषय का शष
े आलमबि है । वासतव मे अपिे भीतर संिसथत परमातमा
ही मिुषय की अिनतम तथा सवोचच आलमबि (आशय, सहारा) है । पतीक
को माधयम माििे के कारण ॐ मिुषय का सथायी और शष
े आलमबि
है । संसार के सारे अवलमबि अिसथर और असथायी होते है । केवल
परमातमा का सहारा ही सचचा सहारा होता है । संसार कमभ
ु ूिम है तथा
मिुषय को पुरषाथ ु भी करिा चािहए, िकनतु दढ आलमबि तो परमातमा
और उसके िाम का ही होता है ।
ॐ की मिहमा को जािकर मिुषय बहलोक को पाप हो जाता है ।
सभी उपििषिो मे कहा गया है िक बह को जािकर मिुषय बहलोक का
अिधकारी हो जाता है अथात
ु ् बह को पाप हो जाता है । बह का उपासक
२
-----------------------------------
1. परं चापर ं च यिोङकार : (पश उप०, ५)—पर और अपरबह ओंकार है । अ उ म ् को
ईशर, जीव, पकृ ित, सतव, रज, तम, बहा, िवषणु, महे ि, तीि वेि (वेितयी), सथल
ू , सूकम,
कारणिरीर, कमु, भिक, जाि आिि के संयोजि का पतीक भी कहा गया है ।
२. जातवा अथवा िविितवा अथात
ु ् जाििे पर अथवा जाि होिे पर बह की पािप का उललेख
सभी उपििषिो मे अिेक पकार से िकया गया है । उसकी गणिा करिा अतयनत किठि है ।
वेिा हमेत ं प ुरष म हानत मािि तयवण व त मस : परसतात। ्
तमेव िव िितवा ितम ृ तयुम ेित िानय : पन था िवदत े अय िाय।। (यजुवि
े , ३१.१८, शेत०
उप०, ३.८)
— मिुषय परमातमा को जािकर मतृयु को पार कर लेता है ।
बहलोक का उललेख भी उपििषिो मे अिेक पकार से तथा अिेक अथो मे िकया गया है ।
उसकी िवसतत
ृ चचाु करिा भी अतयनत किठि है । बहलोक की पािप का अथु बह की पािप
बह के जयोितमय
ु सवरप को पाप होता है । ॐ पतीक है । पतीकोपासिा
लकय पािप का शष
े माधयम होती है ।
ि ज ायते िमयत े वा िवप िश नि ायं कुतिश नि बभूव किश त।्
अजो िि तय : िा शतो ऽयं प ुर ाण ो ि ह नयते ह नयमा िे ि रीरे।।
१८।।
िबि ाथ ु : िवप िश त ् = जािसवरप आतमा (आतमा परबह
परमातमा); ि जायते वा ि िमयत े = ि जनम लेता है और ि मरता
है ; अय म ् ि कुतिश त ् बभू त = यह ि तो िकसी से उतपनि हुआ है , ि
िकसी उपािाि कारण से उतपनि हुआ; (ि) किश त ् (बभूत ) = (ि) इससे
कोई उतपनि हुआ है । (अय म ् ि कुतिश त ् बभू त , किश त ् ि बभूत —
यह ि िकसी से, कहीं से, उतपनि हुआ, ि यह उतपनि हुआ। आतमा का
जनम िहीं हुआ, उसे िो पकार से कहा गया तथा यह भी एक अथ ु िकया
गया है ।) अयम ् = यह आतमा; अज: िि तय ; िाश त: पुर ाण : = अजनमा
(जनमरिहत), िितय, सिा एकरस रहिेवाला, सिाति (अिािि) है , (पुराति—
पुरािा होकर भी िया अथात
ु ् सिाति); िर ीरे हनय माि े ि हन यते =
िरीर को मार ििये जािे पर, िष हो जािे पर, इसकी हतया िहीं होती,
इसका िाि िहीं होता।
वच िाम ृ त : जािसवरप आतमा ि जनम लेता है और ि मतृयु को
पाप होता है । यह ि िकसी का काय ु है , ि िकसी का कारण है । यह
अजनमा, िितयस िाशत, पुराति है । िरीर के िष हो जािे पर इसका िाि
िहीं होता।
१
---------------------------
पािप करा िे ता है ।
अण ोरण ीय ानम हतो म ही या िातम ास य ज नत ोिि ु िहत ो गु ह ाय ाम।्
तम कतु : पश यित वीति ोक ो
धातुपस ािा नम िहम ाि मा तमि :।। २०।।
िबि ाथ ु : असय जनतो : गुह ाय ाम ् िि िह तः आतम ा = इस जीवातमा के
(अथवा िे हधारी मिुषय के) हियरप गुहा मे िििहत आतमा (परमातमा);
अण ो: अण ीया ि ् महत : मही याि ् = अणु से सूकम, महाि ् से भी बडा
(है ); आतमि : तम ् मिह मा िम ् = आतमा (परमातमा) की उस मिहमा को,
उसके सवरप को; अकतु : = संकलपरिहत, कामिारिहत; धातुपस ािा त ् =
मि तथा इिनदयो के पसाि अथात
ु ् उिकी िुदता होिे से; (धाता —
िवधाता, भगवाि ्;
--------------------------
१.भगवदीता (२.१९) मे यही मंत इस पकार से है —
य एि ं व े िि ह नतार ं य शै िं म नयत े हतम।
उभौ तौ ि िव जािीतो िा यं ह िनत ि ह नयत े।।
If the red slayer thinks he slays
Or if the slain thinks he is slain,
They know not well the subtle ways
I Keep and pass and turn again (Brahma' poem by R. W. Emerson)
२.'सा धि ' धाम मोक कर िार ा'
िरीरमाद ं खल ु धम ु साधि म ् (कािलिास)—िरीर धमु का पथम साधि है ।
१. उपििषिो तथा भगवदीता मे इतिे अिधक सथािो पर वीतिोक (िोकरिहत) होिे तथा
अकयसुख पािे की चचा ु है िक उिकी गणिा करिा किठि है । उपििषिो का उदे शय मिुषय
को भय, िचनता और िोक से मुक करके आिनिावसथा मे पसथािपत करिा है । वीतिो क
(मुणडक उप०, ३.१.२., शेत० उप०, २.१४ तथा ४.७)
-----------------------------------------------
१. तत को मोह : क: िोक एकत वमि ुपशयत :। (ईिावासय उप०, ७) िािुिोिचतुमहु िस
(गीता, २.२५), िै वं िो िचत ुमह ु िस (२.२६), ि तवं िोिच तुम हु िस (२.२७, २.३०) 'िोक' का
वयापक अथु समसत िःुख, भय और िचनता है ।
२. ु ी इस मंत का अनवय और अथु इस पकार करते है —
िङकराचायज
िायमातमा पवचि ेिाि ेकव ेि सवीकरण ेि लभयो जेयो िािप मेधया
गन थाथ ु धारणिकतया। ि बहु िा शु तेि केवल ेि। केि तिहु लभय इचय ुचयत े — यमेव
सवात माि मेष साधको वृ णुत े पाथ ु यते तेि ैवातमिा विरता सवय मातमा लभयो जायत
एव िमतय े तत।् ििषकाम सयातमािम ् एव पाथ ु यत आत मिैवातमा लभयत इतयथ ु :।
कथं लभयत इतय ु चयत े — तसयातमका मसय ैष आत मा िवव ृ णु ते पकािय ित पारमािथ ु कीं
तिूं सवा ं सवकीया ं सवयाथात मयम ् इतयथ ु :। यह आतमा पवचि अथात
ु ् अिेक वेिो को
सवीकार करिे से पाप अथात
ु ् िविित होिे योिय िहीं है , ि मेधा अथात
ु ् गनथाथु-धारण की
ििक से ही जािा जा सकता है और ि केवल बहुत-सा शवण करिे से ही; तो िफर िकस
पकार पाप िकया जा सकता है , इस पर कहते है —यह साधक िजस अपिे आतमा का वरण—
पाथि
ु ा करता है , उस वरण करिेवाले आतमा िारा यह आतमा सवयं ही पाप िकया जाता है ,
अथात
ु ् उससे ही 'यह ऐसा है ' इस पकार जािा जाता है । तातपय ु यह है िक केवल आतमलाभ
के िलए ही पाथि
ु ा करिेवाले ििषकाम पुरष को आतमा के िारा ही आतमा की उपलिबध होती
है । िकस पकार वह उपलबध होता है , इस पर कहते है —उस आतमकामी के पित यह आतमा
अपिे पारमािथक
ु सवरप अथात ृ —पकािित कर िे ता है ।
ु ् अपिे याथातमय को िववत
शष
े पुरष पाथि
ु ा और धयाि के अभयास से मि को ििमल
ु कर
लेते है अथात
ु ् उसे राग, िे ष आिि िवकारो से मुक कर िे ते है तथा
सुरिल
ु भ
ु ििवयािुभूित पाप कर लेते है । हमारे अपिे भीतर ही आिनि का
सोत एवं अकय कोि है तथा वह सबके िलए सिा सुलभ है । मिुषय
अपिे माग ु एवं लकय का ििधारुण एवं वरण करिे मे सवतनत है । ििवय
पकाि की एक झलक पाकर ही मिुषय कृ तकृ तय हो जाता है , उसका
जीवि धनय हो जाता है । ििवयािुभूित होिे पर भय और भम ििवि
ृ हो
जाते है ।
सोदे शय मौिधारण, जप, िचनति और पाथि
ु ा िारा िचि की ििमल
ु ता
होिे पर मिुषय की चेतिा ऊधवम
ु ुखी हो जाती है तथा वह िवश की
िवराट चेतिा मे संिसथत हो जाता है । िबनि ु मे िसनधु की अिुभूित होिे
पर मिुषय को आतयिनतक तिृप हो जाती है तथा उसका जीवि कृ ताथु हो
जाता है ।
िा िव रतो ि ु श िरत ानि ाि ान तो ि ासम ािहत :।
िा िा नतमा िसो व ािप पज ािेि ैि मा पिुय ात ।् । २४।।
िबि ाथ ु : पजा िे ि अिप = सूकम बुिद से भी, आतमजाि से भी;
एि म ् = इसे (परमातमा को); ि ि ु श िरत ात ् अिव रत : आप िुय ात ् = ि
वह मिुषय पाप कर सकता है , जो कुितसत आचरण से (िषुकम ु से)
अिवरल अथात
ु ् ििवि
ृ ि हुआ हो; ि अि ानत : = ि अिानत मिुषय (पाप
कर सकता है ); ि असम ािह त: = ि वह पाप कर सकता है , जो
असमािहत अथात
ु ् एकाग ि हो, असंयत (असंयमी) हो; वा = और; ि
अि ानतम ाि स: = ि अिानत मिवाला ही (उसे पाप कर
सकता है ); आप िुय ात ् = पाप कर सकता है । (पजािेिैिमापिुयात ्—पजाि
से इसे पाप िकया जा सकता है , यह एक अनय अथु है ।)
वच िाम ृ त : इसे (परमातमा को) सूकम बुिद अथवा आतमजाि से
भी ि वह मिुषय पाप कर सकता है , जो िरुाचार से ििवि
ृ ि हुआ हो; ि
अिानत वयिक ही उसे पाप कर सकता है , जो असंयत हो और ि अिानत
मिवाला ही उसे पाप कर सकता है । (एक अनय अथ ु है िक पजाि से ही
परमातमा को पाप कर सकता है ।)
सनिभ ु : परमातमा की पािप के िलए उसका अिधकारी होिा
आवशयक है । िैितकता अधयातम-माग ु का पथम सोपाि है । अिैितक एवं
कुमागग
ु ामी सतपात िहीं होता। यह मंत अतयनत महतवपूणु है । वासतव मे
यह मंत पूवव
ु ती मंत २३ के साथ जुडा हुआ अथवा उसका पूरक है ।
ििव या मृ त :मिुषय िषुकम ु मे पवि
ृ रहकर कभी गहि िािनत का
अिुभव िहीं कर सकता और िजसका मि िानत िहीं है , वह ि सांसािरक
सुख का अिुभव कर सकता है और ि आधयाितमक आिनि का ही।
वासतव मे अिानत रहिेवाला वयिक जीवि मे कोई महतवपूण ु उपलिबध
िहीं कर सकता।
िजस मिुषय का मि भौितक सुखभोग की वासिा तथा सांसािरक
पिाथो की तषृणा से गसत रहता है , िजसका मि राग और िे ष मे फँसा
रहता है और भौितक आकषण
ु ो के बनधि मे रहता है , वह सिा अिानत
ही रहता है । अिािनत के माग ु पर चलकर मिुषय िािनत कैसे पाप कर
सकता है ?
वासतव मे मिुषय के मि और इिनदयो की चंचलता उसे िानत
िहीं रहिे िे ती। िजसका मि िानत और समािहत िहीं होता, वह िसथर
और एकाग भी िहीं हो सकता। ऐसा वयिक सांसािरक सुखभोगो को पाप
करके भी िःुखी रहता है ।
परमातमा मिुषय के भीतर हिय मे ही िवराजमाि रहता है , िकनतु
सिा सुलभ और समीप होिे पर भी वह िलभ
ु और िरू रहता है । मिुषय
समािहत और िानत होकर अपिे भीतर ही उसकी ििवयता का अिुभव
कर सकता है ।
िजस मिुषय का मि भोगासिक के कारण सतय के माग ु को
छोडकर िषुकमो मे पवि
ृ हो जाता है , वह तीथय
ु ाता, वत, िाि, पूजा-पाठ
आिि करके भी अिानत अथवा उिििि ही रहता है ।
िषुकम ु (अिैितक कमु) मिुषय के मि मे अपराध-बोध उतपनि कर
िे ते है तथा मिुषय अपिे भीतर अिानत और ि ु:खी रहिे लगता है । उसे
जीवि भारमय एवं िःुखमय पतीत होिे लगता है । चािरितक गुणो
(सचचाई, ईमाििारी) को छोडिे पर अनय सब उपलिबधयाँ (िवििा, धिाजि
ु ,
सिा और सममाि
के पिो पर आसीि होिा इतयािि) िवषमय अथात
ु ् अिािनतिपय िसद होते
है । चािरितक गुणो (िैितक मूलयो) की कीमत पर महाि ् सफलता अथवा
उपलिबध भी सचचा सुख िहीं िे सकती। रे त की िीवार किािप िसथर िहीं
रहती।
िषुकषो मे पवि
ृ रहिेवाला मिुषय केवल जाि के माधयम से ही
परमातमा को पाप िहीं कर सकता, कयोिक उसका मि अिेक पकार के
िवकारो, िोषो तथा िचनताओं से गसत रहता है और उसमे िािनत एवं
एकागता िहीं होते। वह अनतमुख
ु ी िहीं होता। िषुकम ु मे पवि
ृ , अिानत
मिुषय परमातमा को किािप पाप िहीं कर सकता। अिानत मिुषय
१
यसय बह च कतं च उभ े भ वत ओ िि ः।
मृ तयु यु सय ोपस े चिं क इत था वेि य त स ः।। २५ । ।
िबि ाथ ु : यसय = िजस (परमेशर) के; बह च कतम ् च उभे =
बह और कत िोिो अथात
ु ् बुिदबल और बाहुबल िोिो; ओि ि: भवत : =
पके हुए चावल अथात
ु ् भोजि हो जाते है ; मृ तयु : यसय उपस े चिम ्
= मतृयु
--------------------------------------
१. ि मा ं ि ु षकृितिो म ू ढा : पपदन ते िराधमा :। (गीता, ७.१५)
२. िापिा नताय िातवयम ् (शेत० उप०, ६.२२)
—अिानत वयिक को जाि िहीं िे िा चािहए।
३.आपूय ुमाणम चलप ितष ं स मुद मापः पिवि िनत यित।्
तितका मा य ं पिव ििनत सव े स िा िनतम ापिोित ि कामकामी।। (गीता, २.७०)
िवहाय कामानय : सवा ुनप ुमा ं शर ित िि ःसप ृ हः।
ििम ु मो ििरहङ कारः स िा िनतम िधगच छित।। (गीता, २.७१)
—कामिा के तयाग से िािनत पाप होती है ।
४.आचारहीि ं ि पु ि िनत वेिा :।
५. अिप च ेत ् सुि ु राचारो भ जते मामिनय भाक्
साध ु रेव स म नतवय : समयक ् वयविस तो िह स :।। (गीता, ९.३०)
सममुख होइ जीव मोिह जब हीं , जन म को िट अघ िास िहं तबही ं।
िजसका उपसेचि (भोजि के साथ खाये जािेवाले वयंजि, चटिी
इतयािि) (भवित — होता है ); स: यत इत था कः वेि = वह परमेशर जहाँ
(या कहाँ), जैसा (या कैसा), कौि जािता है ?
वच िाम ृ त : िजस परमातमा के िलए बुिदबल और बाहुबल िोिो
भोजि हो जाते है , मतृयु िजसका उपसेचि होता है , वह परमातमा जहाँ
कैसा है , कौि जािता है ?
सनिभ ु : परमातमा ििुवज
ु ेय है ।
ििव या मृ त : मिुषय िजि ििकयो को अतयिधक महतव िे ते है , वे
भी कालरप परमेशर के समक तुचछ है । बुिदबल और बाहुबल तथा उिसे
संपनि मिुषय काल के िलए मािो मात भोजि ही है । मतृयु िजसके
समरणमात से मिुषय पकिमपत हो जाते है , काल के िलए मात उपसेचि
है िजसे वयंजि के रप मे भोजि के साथ खाया जाता है । परमातमा
१
-----------------------
१.भूतािि काल ः पच तीित वाता ु — यिधिषर िे यक से कहा, काल पािणयो को खा जाता है ,
यही एक (पमुख) बात है ।
पथम अध याय
तृ तीय वल ली
है , परमातमा कोई भोग िहीं करता, िकनतु िोिो के समीप रहिे के कारण
छितनयाय से िोिो को कम ु के फल का पाि अथवा भोग करिेवाला कह
ििया गया। एक छतरी के िीचे िस
ू रे वयिक के आ जािे पर उसे भी
छतरीवाला कह ििया जाता है । जीवातमा भोका होता है , िकनतु ििरपािधक
परमातमा अथवा सोपािधक ईशर भी भोका िहीं होता।
लोक अथात
ु ् मिुषय के िे ह मे, हियगुहा मे बुिद का संसथाि है ।
बुिद मे पकािमाि आतमा (परमातमा) का बुिद मे ही पितिबमब जीवातमा
कहलाता है । आतमा िबमब है और ििमल
ु ततवबुिद मे उसका
पितिबमब
——————————————————
१. मुणडक उपििषद (३.१.१) मे इनहे िो पिकयो के रप मे कहा गया है । छानिोिय उप०
(६.३.२) मे िोिो के साथ रहिे का वणि
ु है ।
—————————————————
१. सडक लपाह डकारस िनवतो यः (शेत० उप०, ३४, ५.८)
२. जीवो ब हौव िापरः − जीवातमा बह ही है , अनय िहीं है ।
————————
१. समसत उपििषिो मे तथा भगवद गीता मे अगिणत सथलो पर अिेक पकार से कहा
गया है िक भगवाि ् की पािप से मिुषय िितानत अभय हो जाता है । उि सथलो का
उललेख करिा किठि है । अभय ं िह वै बह भवित (बह
ृ ० उप० ४.४.२५) अभय होिे
पर बह हो जाता है ।
होता
है । चेति जीवातमा से िवयोग होिे पर िरीर ििशेष एवं जड हो
जाता है । मतृयु का अथ ु है िे ह से चेतिततव जीवातमा का िवयोग हो
जािा। जीवातमा िरीर मे िसथत रहकर बुिद, मि, इिनदयो तथा पाण के
िारा मिुषय को सचेष एवं सिकय रखता है । बुिद मािो सारिथ है और
मि पगह (लगाम) है । मि संकलप, िवकलप, इचछा करता है तथा बुिद मि
को िियंितत करती है । इिनदयाँ घोडो की भाँित िवषयो की ओर भागती है ।
िवषय इिनदयो के िवचरण का माग ु अथवा केत होते है । जीवातमा िे ह ,
बुिद, मि और इिनदयो के साथ जुडकर सुख-िःुख का भोग करता है ।
जीवातमा भोका होता है । वासतव मे बुिद ही मि और इिनदयो को
िियंितत कर शय
े अथवा पेय के माग ु पर चलाती है । यिि बुिदरपी
सारिथ असावधाि हो जाए तथा मि और इिनदयो को सवतंत छोड िे तो
वे जीवातमा को भटकाकर िःुखी बिा िे ते है ।
वासतव मे िे ह साधि है तथा साधय िहीं है । यह संसार मात
भोगभूिम िहीं है । मिुषय परमातमा का शष
े उपकरण बिकर ििषकाम
कम ु िारा परमातमा को पाप कर सकता है , िकनतु जब जीवातमा सवामी
होकर भी मि और इिनदयो का िास हो जाता है अथवा उिसे बद हो
जाता है , तब वह िःुख से गसत हो जाता है । यह इस शष
े रपक का
तातपयु है ।
यसत विव जा िव ाि ् भवतयय ुकेि म िसा सिा ।
तसय े िनदय ाण यवश या िि ि ु ष ाश ा इव स ार थे ः ॥ ५॥
यसत ु िव जा िव ाि ् भवित युकेि मिस ा सिा।
तसय े िनदय ािण वश यािि सि शा इ व स ारथेः ॥६ ॥
िबि ाथ ु ः यः सिा अिव जाि वा ि ् तु अयुकेि मिस ा भव ित =
जो सिा अिवजािवाि ् (अिववेकी बुिदवाला) और अयुक (अविीभूत, चंचल)
मिसिहत (मिवाला) होता है ; तस य इ िनदय ािण सार थे ः ि ु ष ाश ाः इव =
उसकी इिनदयाँ सारिथ के िष
ु घोडो की भाँित; अव शयािि = वि मे ि
रहिेवाली (हो जाती है ।)
तु यः सिा िवज ािव ाि ् युकेि मिस ा भवित = और जो सिा
िवजािवाि ् (िववेकिील बुिदवाला) युक (विीभूत) मिसिहत (मिवाला) होता
है ; तसय इिनदय ािण सा रथेः सिश ाः इव = उसकी इिनदयाँ सारिथ के
अचछे घोडो की भाँित; वशया िि = वि मे रहिेवाली (होती है )।
वच िाम ृ त ः जो सिा िववेकहीि बुिदवाला और अिियंितत मिवाला
होता है , उसकी इिनदयाँ सारिथ के िष
ु घोडो की भाँित वि मे िहीं रहतीं;
और जो सिा िववेकिील बुिदवाला, विीभूत मिवाला होता है , उसकी
इिनदयाँ सारिथ के अचछे घोडो की भाँित वि मे रहती है ।
सनिभ ु ः िोिो मंत परसपर जुडे है । बुिद और मि महतवपूण ु होते
है ।
ििव या मृ त ः रथ की उपििषिीय पिरकलपिा िारा मिुषय जीवि-
याता को साथक
ु एवं सुखमय बिा सकता है । मािव-िे ह मे जीवातमा, जो
परमातमा का ििवय अंि है तथा ततवतः (िुद रप मे) परमातमा ही है ,
जीवि-रथ के सवामी के रप मे संिसथत है । जीवि-रथ मािो चार चको
(पिहयो) पर चलता है और उिकी गित चतुििुक् िवकास-पिकया की सूचक
होती है । बुिद सारिथ के सदि है तथा वह उिचत-अिुिचत, भले-बुरे का
ििणय
ु करती है । मि पगह (लगाम) के तुलय है , जो इिनदयो को संचालि
करता है । इिनदयाँ अपिे िवषयो (भोिय पिाथो) के माग ु पर चलिे मे
आतुर रहती है । बुिद जीवातमा से पकाि लेकर मि को िियंितत कर
सकती है और मि इिनदयो को िियंतण मे रखकर, उनहे सवछं ि िवचरण
से रोक सकता है तथा उिम लकय की ओर ले जा सकता है । मिुषय
पेयमाग ु से िरू हटकर तथा शय
े माग ु पर चलकर अपिा तथा िस
ू रो का
कलयाण कर सकता है और शय
े माग ु से िरू हटकर तथा पेयमाग ु पर
चलकर अपिा तथा िस
ू रो का अिहत कर लेता है । मािव का िे ह एक
उिम उपकरण है तथा इसके उपयोग अथवा िर
ु पयोग का िाियतव मिुषय
की बुिद पर ही होता है । इसीिलए वेिो और उपििषिो मे परमातमा से
सद बुिद पाप करिे के िलए अगिणत पाथि
ु ाएँ की गयी है ।
१
परमपि है , जो अतयनत िल
ु भ
ु होकर भी बुिद की ििमल
ु ता तथा मि की
सवचछता िारा अपिे भीतर ही सिा सुलभ है ।
उपििषिो की सपष घोषणा है िक परमातमा सवस
ु ुलभ है तथा मि
एवं बुिद की पिवतता िारा सबके िलए वह अपिे भीतर ही पापय है ।
एष सवे षु भूत ेष ु गूढ ोतम ा ि
पका िते।
दश यते त वग यय ा ब ुद या सूकम या सूकमि िि ु िभः ॥१ २॥
िबि ाथ ु ः एषः आतमा = यह आतमा (सबका आतमा परमपुरष);
सवे षु भूत ेष ु गू ढः = सब पािणयो मे (िसथत होकर भी) गूढ (िछपा
हुआ)
—— ——— ——— ——— ——— ——— ——— ——— ——— ——— —
१.बह सतय ं जगिनम थया जीवो बहौव िापरः अथात
ु ् बह सतय है , जीवातमा
परमातमाही है , अनय कुछ िहीं।
२.भगवदीता मे इसे ८.२०, २१.२२ मे सपष िकया है − −
परसत समाि ु भावोऽनयोऽव यकोऽवयकातसिातिः।
यः स सव े षु भ ू तेष ु िशयतस ु ि िविशयित ॥२० ॥
अवयकोऽकर इतय ुकस तमाह ु ः परमा ं गित म।्
यं पापय ि ििवत ु नते तदाम परम ं मम ॥२१ ॥
पुरष ः स परः पाथ ु भक तया लभयसत विनयया।
यसयानत ःस थािि भूतािि येि सव ु िम िं तत म ् ॥२२ ॥
−अवयक अथात
ु ् मूल पकृ ित से भी परे सिाति अवयक परमातमा है , जो िशर पिाथो के
िष होिे पर भी िष िहीं होता तथा िाशत है । वह सिाति अवयक परमातमा अकर अथात
ु ्
कभी करण (िविाि) ि होिेवाला ततव है तथा वही परमगित है , िजसे पाप होिे पर मिुषय
संसार मे िहीं लौटता। वह परमपुरष भिक से सुलभ है ।
यदिप सांखयििि
ु का अपिा सथाि है , तथािप वेिानत सांखय से िभनि है । वेिानत
िे सांखय-ििि
ु के कुछ अंि गहण िकए है , िकनतु वेिानत िे अिै त ततव (अिनतम सतय
केवल बह है ) को पुष िकया है , जब िक सांखय िे पुरष और पकृ ित िो ततवो का पितपािल
िकया। वेिानत िे मूल पकृ ित अथवा अवयक पकृ ित से परे परमअवयक, परमपुरष, परबह
परमातमा को पितिषत िकया है । ‘पुरष’ िवशरप तथा िुद चत
ै नयसवरप, बह है अथवा
सीिमत और असीम िोिो ही है । ‘पुरष एवेिं िवश म’् (मुणडक उप०, २.१.१०), आतमैवेिं
सवम
ु ् (छा० उप०, ७.२५.२)।
——————————————
१. िाह ं पकाि ः सव ु सय योगमायासमाव ृ तः। (गीता, ७.२५)
अथात
ु ् योगमाया से समावत
ृ , िछपा हुआ, परमातमा सबके पतयक िहीं होता। Robert
Browning िे किवता Paracelsus मे कुछ इसी पकार से कहा है ।
—————————————
१. अधयात मयोग ािधगम ेि िेव ं मतवा (कठ० उप०, १.२.१२)।−िि
ु ु ि ु िे व को िुद बुिदयुक
साधक अधयातमयोग िारा समझता है ।
करके (शष
े पुरषो के पास जाकर) जाि पाप करो। परमजािीपुरष
१
भीतर िििवक
ु लप ् अवसथा को पाप करके आतमा (परमातमा) के िििवक
ु लप
सवरप को जाि लेता है , उसकमे िसथत हो जाता है ।
अजािी मिुषय िशरिे ह के िविाि को अपिी मतृयु माि लेता है
तथा जािी पुरष िे हाधयास छोडकर (मै िे ह हूं, यह भाव तथा िे हासिक
छोडकर), िे हातीत (िे ह से परे ) हो जाता है तथा मतृयु के भय से मुक हो
जाता है ।मतृयु का भय िमथया है । मिुषय की ििक का िोषक एवं महाि ्
ितु भय ही है तथा मतृयु का भय तो भयराज है । शष
े पुरष मतृयु का
भय तयागकर शष
े कम ु करते है तथा शष
े आििो के िलए पाणो की
आहुित िे िे ते है । मतृयु के भय को तयागकर, मिुषय सभी भयो से मुक
हो जाता है तथा अजेय हो जाता है । मिुषय तो अमत
ृ पुत है , िकनतु मतृयु
के भय से कायर हो जाता है और शष
े आििो एवं जीवि-मूलयो की
अवहे िा कर िे ता है ।
शाव येत ् =सुिाता है ;वा शादक ाले (शाव येत ् )= अथवा शादकाल मे
सुिाता है ; तत ् आिनत या य कल पते =वह अिनत होिे मे समथ ु होता
है । तत ् आि नतय ाय कल पते =वह अिनत होिे मे समथु होता है ।
वच िाम ृ त :जो मिुषय िुद होकर इस परमगुह पसंग को जािी
जि की सभा मे सुिाता है अथवा शादकाल मे सुिाता है , वह अिनत होिे
मे समथु हो जाता है , वह अिनत होिे मे समथु हो जाता है ।
सनिभ ु : कठोपििषद के पथम अधयाय के अनत मे माहातमय को
पुि: कहा गया है । मंत के अनत मे अिनतम िबिो की पुरिाविृि करिा
अधयाय की समािप का सूचक होता है ।
ििव या मृ त : बहिवदा का उपिे ि अमत
ृ मय होता है तथा इस िवदा
की चचा ु केवल िजजासु एवं शदामय साितवक पुरषो के मधय मे , िकसी
उिम समागम के अवसर पर ही करिी चािहए, बहजाि की चचा ु िुद
होकर ही की जािी चािहए। अिुद होकर अथवा अिुदता के वातावरण मे
इसकी चचाु करिा िििषद है ।
यम- ििचकेता उपाखयाि को कहिा एक पुणयकम ु है । पिवत
शादकाल मे इसके कथि एवं शवण का िविेष महतव होता है । इसके
कहिे का तो अिनत फल होता ही है , इसका कहिेवाला सवयं भी एतद
िारा अिनत को पाप हो जाता है अथात
ु अमर हो जाता है ।
यह अमत
ृ मय उपाखयाि परमगह
ृ (गोपिीय)है तथा केवल उिम अिधकारी
अथात
ु सतपात को ही इसका शवण करािा चािहए। अििधकारी वयिक
१
पथम वलली
पर ािञच खािि वयत ृ णत ् सवयंभ ूसतसम ात पर ाड पशयित
िा नतर ातम ि।्
किश दा र: पतय गा तमा िमै किा वृ िच कु रम ृ तत विम चछि ् ॥
१॥
िबि ाथ ु : सवयंभ ू : =सवयं पकट होिवाले परमेशर ; खािि
=समसत िारा को, इिनदयो को, (ख-िछद अथात
ु उिसे उपलिकत इिनदयां);
पर ािञच = बाहर जािेवाले, बिहमुख
ु ी ; तसमा त ् =इसीिलए ;(मिुषय :
पर ाडपश यित = (मिुषय) बाहर िे खता है ; अनतर ातम ि ् ि = अनतरातमा
को िहीं (िे खता) ; अम ृ ततवम ् इचछि ् किश त ् धीर: =अमत
ृ तव
(अमरपि) की इचछा करता हुआ कोई धीर (बुिदमाि ् पुरष); आवृ िच कु : =
अपिे चकु आिि इिनदयो को बाह िवषयो से लौटाकर, रोककर ;
पत यग ातम ा = पतयग ् (समपूण ु िवषयो को जाििेवाला) आतमा ;
पत यग ातम ाि म ् ऐकत ् = अनत:सथ आतमा को िे ख पाता है ।
वच िाम ृ त : सवयं पकट होिेवाले परमेशर िे समसत इिनदयो को
बाहर (िवषयो की ओर) जािेवाली बिाया है । इसीिलए (मिुषय) बाहर की
ओर िे खता है , अनतरातमा को िहीं िे खता। अमत
ृ तव की इचछा करिेवाला
कोई एक धीर अपिे चकु आिि इिनदयो को बाह िवषयो से लौटाकर
अनत:सथ आतमा को िे ख पाता है ।
सनिभ ु : यह कठोपििषद का सवािुधक पिसद मंत है ।
ििव या मृ त : मिुषय मूलत: ििवय है तथा उसका जीवातमा
आिनिसवरप परमातमा का अंि है । अंिी और अंि एक ही होते है , जैसे
जल और जलकण अथवा िसनधु और िबनि।ु परमातमा मिुषय के भीतर
ही हियकेत मे सूकम रप से िवराजमाि है । वही जीवि का सोत एवं
आधार है । मिुषय आिनिमय होिे का पूण ु अिधकारी है । िकनत ् वळ
डसकी अवहे लिा करके संसारचक मे फंसा रहता है तथा िख
ु ी रहता है ।
मिुषय की जािेिनदयां िे ह के ऐसे िछद अथवा िार है , जो बाहर
की ओर िे खते है । जािेिनदयां संसार के भोगपिाथो अथवा अपिे िवषयो
१
वि मे कर लेता है ।
१
---------------------------------------------
१. माणडू कय आिि अिेक उपििषिो मे जागत, सवपि और सुषुिप की िविि िववेचिा की गई
है ।
२. समसत उपििषिो तथा भगवदीता मे अिेक सथलो पर धीर के िलए 'वीतिोक ', 'ि
िो चित ', 'मा िुच :' आिि कहा गया है । उिकी गणिा करिा किठि है । 'धीर' िबि का
उपयोग भी अगिणत सथािो पर िकया गया है ।
३. तर ित िोकं आत मिव त ् (छा० उप०, ७.१.३)—आतमा को जाििेवाला िोक को पार कर
लेता है । अनय उपििषिो से भी इसे अिेक पकार से कहा गया है । केि उपििषद (१.२) मे भी
इसी भाव की िववेचिा है ।
४.'जीव' यहाँ जीवातमा का सूचक िहीं है , परमातमा का ही सूचक है , कयोिक परमातमा ही भूत,
भिवषय का िासक होता है । यहाँ पकरण भी आतमा (परमातमा) का ही है । (बहसूत, १.३.२४ का
िाङकरभाषय)
अथात
ु ् ििकसवरपा भी कहा गया है ।
सवि
ु े वसवरपा अथात
ु ् ििवय ििक पाणो से पकट होती है अथात
ु ्
िहरणयगभु से उतपनि होती है । िहरणयगभ ु (बहा) परमातमा की पथम सिृष
है , िजसे जीवातमाओं की समिष भी कहा गया है । अििित बुिद मे पिवष
होती है ।
मिुषय की जागत ् और सवपि-अवसथा मे बुिद सिकय रहती है तथा
बुिद के सिकय होिे पर भूख-पयास लगते है । अििित मािो िवषयो (िबि,
सपिु, रप, रस, गनध) का अिि (भकण, भोग गहण) करती है । सुषुिप मे
बुिद सिकय िहीं रहती तथा भूख-पयास िहीं रहते और िवषयो का भोग
(गहण) िहीं होता, हिय-गुहा मे िसथत बुिद मे रहिेवाली तथा पंचभूतो
ृ वी, जल, अििि, वायु, आकाि) के सिहत अथवा उिसे समिनवत होकर
(पथ
पकट होिेवाली अििितिामक ििक बह की ही पतीक है । बह हो तो
समपूणु ििकयो का केनद अथवा आिि सोत है ।
अििित परमातमा की ही एक अिचनतय ििक है तथा परमातमा से
िभनि िहीं है । परमातमा सवयं को अपिी परा ििक अििित के रप मे भी
पकट करता है । सब ििकयो का उदम परमातमा ही है । यही तो परमातमा
ही, िजसे ििचकेता िे पूछा है ।
अरण यो िि ु िहत ो ज ातवेिा गभु इ व स ुभ ृ तो ग िभ ु णी िभः ।
ििव े ििव े ई डय ो ज ाग ृ व िद हु िव षम िद मु िुषय ेिभ रििि ः।। ए तद व ै
तत।् ।८।।
िबि ाथ ु : जातवेि ाः अििि : = सवज
ु अििििे व; गिभ ु ण ीिभ :
सुभ ृ त : गभु : इव = गिभण
ु ी िसयो िारा उिम पकार से धारण िकये हुए
गभ ु की भाँित; अरण यो : िि िह त: = िो अरिणयो मे िििहत है ; जागृ व िद :
हिवष मिद : मिुष येिभ : ििव े ििव े ईड य: = जागत ् (सावधाि, सचेत) हवि
करिे योिय सामिगयो से मिुषयो िारा पितििि सतुित करिे के योिय है ;
एतद वै त त ् = यही है वह।
-----------------------------------
१. िे वताओं तथा ििवय पािणयो को अििितिनिि कहा जाता है । ििित राकसो और िै तयो की
माता का िाम है । राकस को िििततिय कहा जाता है ।
----------------------------------------
१. िेित िेित (बह ृ िारणयक उप०, ४.४.२२)
२.ितल ेष ु तैल ं िधिीव स िपु रापः सोत ःसवीरणीष ु चािििः (शेत उप०, १.१५)
—जैसे ितलो मे तेल, िही मे घी, सोतो मे जल, अरिणयो मे अििि िछपे हुए है , ऐसे ही
परमातमा हिय मे िछपा हुआ है ।
--------------------------------------------
१. पशोपििषद मे पश ५ तथा ६ मे इसकी चचाु की गई है ।
केिोििषद (४.१) मे बह की ििक को िे वो की ििक का आधार एवं सोत कहा गया है ।
स यशाय ं प ुरष े यशासावा िितय े स एक ः (तै० उप०, २.८)—पुरष मे और सूयु मे एक ही
परमातमा है ।
आिितयो बह (छा० उप०, ३.१९.१)—सूयु मािो पतयक बह है ।
२. समनवय बह है — एकं स द िवपा बह ु धा वि िनत (ऋिवेि, १.१६४.४६)
—परमातमा एक ही है , उसके वणि
ु अिेक है ।
िेव एक : (अथव०
ु , १३.२.२६)
सवि
ु िकमाि ्, सवर
ु प परबह ही सत ् है । वह यहाँ पथ
ृ वीलोक मे तथा
वहाँ अनय लोको मे है अथवा वहाँ और यहाँ भी है । वही अिखल बहाणड
मे वयाप है । यह समपूण ु जगत ् एक ही परमततव से पिरपूण ु है तथा वही
सबका आशय, आिि, मधय और अनत है ।
जो मिुषय इस जगत ् मे एक परमातमा को अिेक की भाँित िे खता
है , वह अजाि अनधकार मे ही भटकता रहता है ।
-----------------------------------------
१. एकीभाव ेि पशयिनत योिगिो बहवा िििः।
तवामिा िशतय िवशातमि ् ि योगी माम ुप ैषय ित।।
ु ुराण, १.९.८६)
(कमप
—बहजािी योगी इस जगत ् को तथा बहा-िवषणु-महे ि को एकीभाव से िे खते है । समसत
उपििषिो मे परमातमा के एकतव का पितपािि िकया गया है ।
---------------------------------------
१. आ पशयित प ित पशयित परा पश यित पशयित ु , ४.२०.१)
(अथव०
२. बह
ृ िारणयक उपििषद (४.४.१९) मे भी लगभग यही मंत है , िकनतु वहां 'मिस ैव े िमापवय ं के
सथाि पर 'मिस ैवाि ुदषवय ं ' है तथा 'मृ तयुं गचछ ित ' के सथाि पर 'मृ तयुमापिोित ' है ।
३. स यथेमा िद : सयनि मािा : समुदायणा : समु दं पापय ासत ं गचछ िनत िभद ेत े तासा ं
िामरप े समु द इतय ेव ं पोचयत े। (पशोप०, ६.५)—ििियाँ समुद मे पिवष होकर एक समुद
ही हो जाती है तथा उिका िाम और रप का भेि िहीं रहता।
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१. ईशर : सवु भू तािा ं हदेि ेऽज ु ि ित षित (गीता, १८.६१)—हे अजुि
ु , ईशर पािणयो के
हिय मे रहता है । जीवातमा ईशर के अधीि होता है ।
----------------------------------
१. बुिदिासातपणशय ित (गीता, २.६३)
२. पस निच ेतसो हाि ु बुिद : पयु वितष ते (गीता, २.६५)
---------------------------------
१. सवु भू तिह ते रता : (गीता, ५.२५)
२. अभयासयोग यु केि च ेतसा ि ानयगा िमिा (गीता, ८.८)
पिणडत ा: समि ििु ि : (गीता, ५.१८)
सवु त स मि िु ि : (गीता, ६.२९)
समोऽह ं सवु भू तेष ु (गीता, ९.२९)
समं सव े षु भ ू तेष ु ितष नतं परमेशरम ् (गीता, १३.२७)
समं पशयि ् िह सव ु त स मव िसथत मीशरम ् (गीता, १३.२८)
इसे ही आतमैकतव-ििि
ु कहा जाता है , जो मािव-जीवि की सवोचच
उपलिबध है ।
Ÿ
---------------------------------------
१ जब लग मि िह िवकारा , तब लिग ििह ं छूटे संसारा।
जब मि िि मु ल किर जािा , तब ििम ु ल मा िह समािा।। (कबीर)
जो चािर स ुर िर म ु िि ओ ढी , ओिढ कै मै ली कीन ही चि िरया।
िास कबीर जति ते ओ ढी , जय ो की तयो धर िीन ही च ििरया।। (कबीर)
मि ऐसो िि मु ल भयो जस गंग ा को ि ीर।
पाछे -पाछ हिर च लै कह त कबीर -कबीर।।
िि मु ल मि जि सो मोिह पावा , मो िह कपट छल िछद ि भावा।
सनत हिय ज स िि मु ल बा री।
ि म िलिच ेत िस बीजपरोहः —मिलि िचि मे जाि का बीज पसफुिटत िहीं होता।
अधयाय िितीय
वलली िितीय
-------------------------------------
१. मािव-िे ह के िछद मािो इसके िार है — िो िेत, िो कणु, िो िािसकािछद, एक मुख, कपाल मे
बहरनध, िािभ, मल-तयाग की इिनदय, मूत-तयाग की इिनदय। बहरनध भी एक िार है — यतासौ
केिान तो िवव तु ते (तै० उप०, १.६)। महाि ् योगी बहरनध से पाण-िवसजि
ु करते है ।
भगवदीता (५.१३) मे िािभ और बहरनध को छोडकर िौ िार कहे गये है । शेत० उप० (३.१८)
मे भी िौ िार कहे गये है ।
भागवत पुराण (११.७.२२,२३) मे मािव-िे ह को भगवाि ् का िपय मिनिर कहा गया है ।
छानिोिय उप० (८.१.१) मे मािव-िे ह को बहपुर कहा गया है ।
अष चका िविारा ि ेवािा ं प ूरय ोधया (अथव०
ु , १०.२.३१)
-----------------------------------------
१. गीता (अधयाय १०) के िवभूितयोग मे इस मंत मे विणत
ु अिधकांि महतवपूण ु वसतुओं
और िै वी ििकयो की िविि चचाु है । किािचत ् िवभूितयोग इसी मंत का िवसतार है ।
सतय का भी सतय है । सवत
ु वही एक है ।
१ २
---------------------------------------------
१. सतय सय सतयम ् (ब०ृ उप०, २.१.२०)—बह सतय का भी सतय, परमसतय है ।
२.सवव खिलव िं बह ं (छानिोिय उप०, ३.१४.१)—सब कुछ बह ही है ।
३.पशोपििषद के पश ३ मे इसे िवसतार से कहा गया है । गीता (१५.८) मे कहा गया है िक
मुखय पाण उिाि को साथ लेकर िस
ू रे िरीर मे जाता है तथा वह समाि आिि अनय वायुओं
को भी, इिनदयो और मि के साथ, ले जाता है । इि सबका सवामी जीवातमा भी साथ ही जाता
है ।
पाणवायु, इिनदयो और मि को सिकय और संचािलत करिेवाली
चैतनय ििवय सिा की सभी िै वी ििकयाँ उपासिा करती है । परमातमा ही
िवश मे सवोचच सिा के रप मे सवत
ु संिसथत है ।
अस य िवस ंसम ािस य िर ीरस थसय िे िहि :।
िेह ाििम ु चयम ािस य िकमत पिर िि षयत े।। एत द वै तत।् ।
४।।
िबि ाथ ु : असय िरी रस थस य िवस ंसम ािस य िे िहि : = इस
िरीर मे िसथत, िरीर से चले जािेवाले, जीवातमा के; िेह ात ्
िवम ुच यमा िस य = िे ह से चले जािे पर; अत िकम ् पिर िि षयत े = यहाँ
इस िरीर मे कया िेष रहता है ? एतद वै त त ् = यह ही वह है ।
वच िाम ृ त : इस िरीर मे िसथत, िरीर से चले जािेवाले जीवातमा
के िे ह से ििकल जािे पर यहाँ इस िरीर मे कया िेष रहता है ? यह ही
वह (बह) है ।
सनिभ ु : बह िे ह मे जीवातमा के रप मे रहता है तथा िे ह का
संचालि करता है ।
ििव या मृ त : िकसी पाणी की मतृयु होिे पर कया होता है ?
मत
ृ िे ह के जयो के तयो रहिे पर भी मत
ृ क पाणी के िेत, शोत
आिि काय ु िहीं करते। िे ह से कया ततव ििगत
ु हो जाता है , िजसके
ििगम
ु ि से पाणी िििषकय एवं ििशेष हो जाता है ? यह एक महतवपूणु
िाििुिक पश है , िजसका उिर अिेक पकार से ििया जाता है ।
भौितकवािी लोग कहते है िक िजस पकार घडी अथवा कोई यंत
सहसा बनि हो जाता है , उसी पकार पाणी का िे ह भी जजरु होिे पर
सहसा काय ु करिा बनि कर िे ता है । िकनतु पुिः पश होता है िक उसे
िकसिे बिाया ? िकसिे िे ह-यंत का ििमाण
ु करके उसे सिकय िकया ?
भौितकवािी लोग कहते है िक पकृ ित िे उसका ििमाण
ु िकया था। पुिः
पश होता है िक पकृ ित तो जड है , उसिे सज
ृ ि कैसे िकया ? वासतव मे
अणु-परमाणुओं का संयोग करके उनहे सिकय करिेवाला एक सूकम
चैतनय ततव है , जो सवि
ु िकमाि ् है , िजसे बह अथवा परमातमा कहते है ।
वह समसत जगत ् मे ओतपोत है । वह अिािि और अिनत है । वह सत ् है
अथात
ु ् उसका अिसततव है ।
यह जगत ् और िे ह जड-चेति का एक अदत
ु सिममशण है । िजस
पकार जगत ् का आधार, आशय और संचालि करिेवाला परमातमा है , उसी
पकार िे ह का आधार, आशय और संचालि करिेवाला जीवातमा है ।
जीवातमा के िे ह से ििकल जािे पर िे ह जड एवं ििशेष हो जाता है तथा
िे ह के पञचततव (पथ
ृ वी, जल, अििि, वायु और आकाि) जगत ् के
पञचततवो मे िमल जाते है । ततवत: परमातमा और जीवातमा एक ही है ।
िे ह का सवामी जीवातमा होता है , िजसके मात सािनिधय से मि, बुिद और
इिनदयाँ सिकय होकर कायु करते है ।
यमाचायु कहते है िक िे ह मे रहिेवाले िजस चैतनय ततव के ििकल
जािे पर िे ह मत
ृ हो जाता है अथात
ु ् जड एवं ििशेष हो जाता है , वही तो
चैतनय सवरप बह है ।
ि प ाणेि िा पािेि मत यो ज ीवित क शि।
इतर े ण त ु जीव िनत य िसम निेत ावु पा िशत ौ।। ५ ।।
हन तं त इि ं प वक या िम गुह ं बह सि ात िम।्
यथ ा च म रणं प ापय आतम ा भव ित ग ौतम।। ६ ।।
िबि ाथ ु : कशि = कोई भी; मत यु : ि पाणेि ि अपािेि
जीव ित = मरणिील पाणी ि पाण से, ि अपाि से जीिवत रहता है ; तु =
िकनतु; यिसमि ् एतौ उपा िश तौ = िजसमे ये िोिो (वासतव मे पाँचो
पाणवायु) उपािशत है ; इतर े ण ज ीविनत = अनय से ही जीिवत रहते है ;
गौत म = हे गौतमवंिीय ििचकेता; गु हम ् सिा ति म् = (वह)
रहसयमय सिाति; बह = बह; च आतमा मरणम ् पा पय = और
जीवातमा मरण को पाप करक् ; यथा भवित = जैसे होता है ; इिम ् ते
हन त प वकया िम = यह तुमहे ििशय ही बताऊँगा।
वच िाम ृ त : कोई भी पाणी ि पाण से, ि अपाि से जीिवत रहता
है , िकनतु िजसमे ये िोिो (अथात
ु ् पाँचो पाणवायु) आिशत है , उस अनय से
ही (पाणी) जीिवत रहते है । हे गौतमवंिीय ििचकेता, (मै) उस गुह सिाति
बह का और मरिे का जीवातमा की जो अवसथा होती है , उसका अवशय
कथि करँगा।
सनिभ ु : यमाचायु ििचकेता को िे ह मे िसथत जीवातमा की मिहमा
बताकर बहततव के कथि का आशासि िे ते है ।
ििव या मृ त : मुखय पाण ही िविभनि कायो के अिुसार पाँच
वायुओं के रप
मे िवभक है िजिमे पाण और अपाि पमुख है । मिुषय के जीवि का
आधार पाण और अपाि से लिकत केवल पांच वायु (पाण अपाि ् वयाि
उिाि ्) ही िही है । शास पशास का जीवि धारण के िलए असाधारण
महतव है िकतु पाणी के जीवि का आधार उिसे िभनि उसका जीवातमा
होता है िजस पर पाण अपाि आिि पञचवायु रहते है । समसत इिनदयां
भी जीवातमा पर ही आिशत होती है । जीवातमा के होिे से ही जीवि होता
है । जीवातमा के रहिे से ही मि बुिद और इिनदयां अपिे कायु करते है ।
िे ह की मतृयु का िविुद चेतिा अथवा आतमा पर कोई पभाव िही
होता बह आतमा अथवा परमातमा िाशत िितय िुद और मुक है ।
यमाचाय ु बहततव के कथि का आशासि िे ते है । उतम गुर अिावशयक
आशासि िे कर िजजासु ििषय के धैयु को टू टिे िही िे ते।
यो िि मनय े प पध नते िर ीर तव ाय िे िहि ः।
सथ ाणु मनय ेऽ िुस ंय िनत य था कमु य थाश ु तम।् ।७।।
िबि ाथ ु ः यथ ाकम ु यथ ाशु तम ् = जैसा िकसीका कमु होता है जैसा
िजसका शवण होता है , िरी रतव ाय = िरीर धारण के िलए, अन ये िे िहि ः =
अिेक जीवातमा, योििं पपघनत े = योिियो को पाप होते है , अनये
सथ ाणु म ् अिुस ं यिनत = अिेक सथाणुभाव का अिुसरण करते है ।
वच िाम ृ त ः अपिे कम ु तथा ( शवण िकये हुए भाव) के अिुसार
अिेक जीवातमा जगम ् योिियो को पाप होते है अिेक सथावर हो जाते है ।
सनिभ ु ः मतृयु के पशात ् जीवातमा की अवसथा का वणि
ु है ।
ििव या मृ त ः परबह समसत अिसततवका आधार है तथा वह सवत
ु
है । संसार मे िो पकार के पिाथ ु है अचेति ( जड सथावर, अचर एक ही
सथाि पर िसथर) तथा चेति ( चर जीिवत जगम ्) अचेति पिाथो मे
चेतिा पसुप रहती है तथा चेति पिाथो मे चेतिा जागत होती है । वक
ृ
सथावर होते है तथा उिमे चेतिा अिवकिसत अथवा िकंिचत ् जागत
अवसथा मे होती है ।
मतृयु के पशात मिुषय का जीवातमा अपिे कम ु अथवा शवण िारा
पाप भाव के अिुसार सथावर वक
ृ ो अथवा चेति पािणयो मे पवेि कर
लेता है । अंत मे जैसा मित वैसा गित होता है । चैतनयसवरप बह ही
जगत ् का एकमात आधार है ।
१
सवु वयापकता को तथा िािा रपो मे उसके पकट होिे को अिेक दषानतो
से कहा जाता है । अििि सूकम एंव ििराकार रप से सारे बहाणड मे वयाप
है िकतु पजजविलत होिे पर साकार रप मे दिषगोचर होता है तथा उसके
ताप का अिुभव होता है । एक ही अििि अपिे आधारभूत वसतुओं के
आकार के अिुरप रपो मे ििखाई िे ता है । वह एक ही वसतुओ के
२
अिुरप अथात
ु ् तिाकार एंव तदप
ू पतीत होता है । इसी पकार समसत
पािणयो का अनतयाम
ु ी एक ही परमातमा िािा पािणयो के अिुरप िािा
रपो मे पकट होता है । परमातमा पािणयो के भीतर भी है और सवत
ु बाहर
भी है । यह परमातमा की मिहमा है । वह सवत
ु िवधमाि ् होकर भी अिलप
िििवक
ु ार और असंग है । आकाि से वायु वायु से अििि अििि से जल
और जल
पथ
ृ वी तथा अनय पिाथु उतपनि होते है । िजस पकार एक ही अििि सवत
ु
पिवष अथात
ु ् वयाप है और अपिे आधार के अिुरप पतीत होता है उसी
पकार एक ही वायु सवत
ु पिवष अथात
ु ् वयाप है और अपिे आधार के
अिुरप तदप
ू अथवा तिाकार होकर पकट होता है ।
अििि और वायु की भाित परमातमा सभी पािणयो और पिाथो मे
अनतिििहु त होकर भी उिके अिुरप िािा पकार से पकट होता है । वह
सबके भीतर भी है और बाहर भी। परमातमा सवत
ु ओतपोत होकर भी
ििलप
े िििवक
ु ार और असंग है । यह परमातमा की अििवच
ु िीय मिहमा है ।
सूय ो य था सवु ल ोक सय चकु िु िल पयत े चाकुष ै बाु हाि ोषैः।
एक सत था स वु भूता नत रा तमा ि िल पयत े लो कि ुःखे ि ब ाहः।।
११।।
िबि ाथ ु ः यथा सवु ल ोकसय चकुः सू यु ः = िजस पकार समसत
लोक का चकु सूय ु ( पकािक सूयु) चाकु षै बाहि ोषै ः ि िल पयत े = (
मिुषयो के) िेतो से होिेवाले बाह िोषो से िलप िही होता, तथा = उसी
पकार, सवु भूत ानत रा तम ा एकः लोकि ु खेि ि िलपयत े = सब पािणयो
का अनतरातमा एक परमातमा लोक के िख
ु से िलप िही होता, बाह ाः =
वह सबसे परे है ।
वच िाम ृ त ः िजस पकार सारे लोक का पकािक सूय ु मिुषयो के
िेतो से होिे वाले बाहा िोषो से िलप िही होता उसी पकार समसत
पािणयो का अनतरातमा एक ( परमातमा) लोक के िख
ु ो से िलप िही होता।
वह तो सबसे परे है ।
सनिभ ु ः परमातमा ििलप
े है ।
ििव या मृ त ः िवश की अखणड चैतनय सता एक परबह परमातमा ही
है । सूकम िििवक
ु ार और ििलप
े है । िजस पकार िविाल वयोम मे एक
ही पकािक तेजीमय सूय ु है , जो मिुषयो के िेतिोष के कारण मिलि
अथवा िोषमय पतीत होिे पर उिके िेतिोष से िकसी पकाऱ भी पभािवत
एंव िलप िही होता, उसी पकार मिुषयो के बुिद आिि के िोष होिे पर भी
भीतर सिसथत जयोित सवरप परमातमा िोषमय िही हो जाता। परमातमा
मिुषयो के िुभािुभ कमो तथा उिसे उतपनि सुख िख
ु से िलप िही
होता। िविुद चैतनयसवरप परमातमा समपूण ु जगत ् मे ओत पोत होकर
१
१ गीता मे यही भाव ५.१५ १३.३१ मे भी वयक िकया गया है । िडकराचायु िे इस मंत की
वयाखया मे िववतव
ु ाि का पुट िे ििया है ।
●
१ धयाि ाव िसथत तिग तेि मि सा पशयिनत यं योिगिः।
योगी धयाि मे उसका ििि
ु करते है ।
२ गीता ( ११.१२) मे उस ििुिरुीकय महापकाि की चचाु है ।
३ जयोित िरवाध ूमकः ( कठ उप० २.१.१३)
४ ििवय ं ििा िम ते चक ुः ( गीता, ११.८)।
िितीय अ धयाय
तृ तीय वलली
ऊध वु मूल ोऽव ाक िाख ः ए षोऽ शत थः सि ात िः।
तिे व ि ुकं तद बह त िेव ाम ृ तमुच यते।
तिसम ँललो काः िशत ाः सव े ति ु िा तये ित कश ि।। ए तद व ै
तत।् । १ ।।
िबि ाथ ु ः ऊधव ु मूल ः= ऊधव ु ः ( ऊपर) मूलवाला, अवाकि ाख ः= िीचे
की ओर िाखावाला, एष ः सि ात िः अशतथ ः= यह सिाति अशतथ
(पीपल का वक
ृ ), तत ् एं व िु कम ् = वह ही िविुद ततव है । तत ् बह=
वह बह है , तत ् एव अम ृ तम ् उचयत े = वह ही अमत
ृ कहलाता है , सवे
लो काः तिसमि िशत ाः = सब लोक उसके आिशत है , कशि उ तत ् ि
अत ये ित = कोई भी उसका उललघंि िही कर सकता। एतद वै तत ् =
यही तो वह है ।
वच िाम ृ त ः ऊपर की ओर मूलवाला और िीचे की ओर िाखावाला
यह सिाति अशतथ वक
ृ है । वह िविुद तेजोमय ततव है वह बह है । वह
अमत
ृ कहा जाता है । समसत लोक उसमे आशय लेते है । (पितिषत है )।
कोई उसका उललंघि िही कर सकता है । यही वह है (िजसे तुम खोज रहे
हो)।
सनिभ ु ः यह एक पखयात मंत है । इसके अिेक अथ ु िकये गये है ।
िडकराचायु िे इसकी वयाखया अतयनत िवसतार से की है ।
ििव या मृ त ः यह संसार एक अशतथ वक
ृ के सदि है िकतुं इसका
मूल ऊपर की ओर तथा िाखाये िीचे की ओर है । यह सिाति है अथात
ु ्
अिाििकाल से चला आ रहा है िकतुं िितय (िाशत) िही है । यह
पिरवति
ु िील है । यह अवयय और अपिरिचछनि पतीत होते है हुए भी
ऐसा िही है । यह जड अथात
ु ् िािवाि ् ही है । यह चैतनय ततव से
संचािलत एंव गितिील होता है । अशतथ वक
ृ के रपक से संसार
आधयाितमक वयाखया की जाती है ।
१
संसार को वक
ृ कहिे का आिय यह है िक इसका छे िि हो सकता है ।
१
िाहकता है तथा
सूय ु मे तेज है । इनद, वायु, आिि िे व उसकी ही िविभनि ििकयो के
पतीक है ।
मतृयु जो िवकराल पतीत होती है और पािणयो का पाण हरण करिे
के िलए मािो वयाध की भांित भागकर उिको कविलत कर िे ती है ,
परमातमा के कठोर िवधाि के कारण ही पवि
ृ होती है । मतृयु भी
परमातमा को ही एक िवभूित है , मािो परमातमा का एक रप है । जो
१
सांखय-ििि
ु के अिुसार मूल पकृ ित अवयक है तथा उसके तेईस
ततव वयक है । पुरष तथा पकृ ित और तेईस ततव िमलकर कुल पचचीस
ततव सिृष की रचिा के कारण है । पकृ ित से महत ् ततव, महत ् (बुिद) ततव
से अहं कार तथा अहं कार से मि, पांच जािेिनदयां और पांच सूकमभूत
(पांच तनमाता) उतपनि होते है । शोत (काि) , तवक् चकु, रसिा और घाण
१
(िािसका) पांच जािेिनदयां है तथा वाक् (वाणी) पािण पाि पायु (मलतयाग
की इिनदय) और उपसथ (मूततयाग की इिनदय) पांच कमिेनदयां है । पांच
सूकमभूत िबि, सपिु,रप, रस, गनध है तथा आकाि , वायु, तेज (अििि),
जल और पथ
ृ वी पांच सथूलभूत (महाभूत) है इिनदयो के पथ
ृ क् -पथ
ृ क्
िवषय है , जैसे शोत का िवषय िबि है तथा उिके पथ
ृ क् -पथ
ृ क् पयोजि
है , जैसे शोत का पयोजि सुििा है ।
मिुषय की जागत -् अवसथा मे मि तथा इिनदय सिकय रहते है ।
यह मािो उिका उिय है । मिुषय की सवपिावसथा मे मि सिकय रहता है
तथा इिनदयां िििषकय रहती है , यदिप सवपि मे इिनदयो की सिकयता
पतीत होती है । मिुषय की सुषुपावसथा मे मि तथा इिनदयां िििषकय
रहते है । यह मािो उिका असत होिा है । धीर अथात
ु बुिदमाि पुरष
िे ह,मि और इिनदयो को िितय चेति आतमा से पथ
ृ क् जािकर तथा
उिके कायक
ु लाप को अपिे सवरप से पथ
ृ क् जािकर िोक, भय और
िचनता से गसत िहीं होता। जाि तथा धयाि की उचचावसथा मे मिुषय
२
१. य एतद िव ि ु : अम ृ ता सते भव िनत (कठोप०, २.३.२ शेत० उप०, ३.१ , ३.१०) यही भाव
मुणडक उप० (३.१.८) मे वयक हुआ है ।
१.ऋते जािानि म ु िक :।
२.पठक : पाठक शै व ये चानय े िास िचन तका :।
सवे वयसिििो म ूखा ु : य: िकयावाि ् स पिणड त:।।
-पढिे और पढािेवाले तथा अनय िास –चचाु करिेवाले वयसिी मूखु है । जो िकयावाि ् है , वह
पिणडत है ।
३. आत मा वा अरे दषवय : शो तवयो मनतवयो िििि धयािस तवयो मैत ेिय आतमिो वा
अरे
ििु िेि शवण ेि मतया िवजाि ेि इि ं सव व िव िित म।् (ब०ृ उप० २.४.५)
४. मुणडक उप० (१.१.५)
५. ‘धयै िच नतायाम’ ् ।
धयाियागे की चचा ु कठोप० (२.३.१०, ११), मुणडक उप० (२.२४ , ३.१८), शेत० उप० (१.३; १.१०
,१२,१४ तथा २.६ इतयािि) तथा भगवदीता मे है । महाभारत के अनतगत
ु मोकधमप
ु व ु मे भी
धयाि की चचाु है ।
पतजिल के योगििि
ु , घेरणड संिहता आिि मे धयाि की िवसतत
ृ चचा ु है । धयाि-पिकया पर
िविि चचाु "जीवि और सुख" के िितीय अधयाय मे है ।
६. ि तसय रोगो ि जरा ि मृ तयु : पापसय योगािििमय ं िरी रम ् (शेत० उप० ,
२.१२)
————————————
१. भौितक कामिाओं के तयाग का उपिे ि भगवदीता मे (२.५५, २.७०, २.७१ तथा अिेक
सथािो पर) िकया गया है ।
भगवदीता िे अिेक सथािो पर ििषकाम कमय
ु ोग का उपिे ि ििया है ।
है । यह
२
िाडी जयोितमय
ु ी एवं चेतिामयी होती है , अनय िािडयाँ अनधकारमयी होती
है । मिसतषक के मधय मे चेतिा की िविेष सिकयता रहती है । िवजात
िििु के कपाल के मधय लघु िववर मे हिय की धडकि की गूँज सपषतः
सुिाई िे ती है । मतृयु मात हिय-गित के बनि होिे से िहीं होती, बिलक
मिसतषक मे िसथत चेतिाकेनद के समापि अथवा अवसाि से होती है ।
जीवातमा का ििवास हिय-कमल के भीतर िसथत िुद बुिद मे होता है ,
िकनतु उसी समपूण ु गितिविध का िविेष सथाि (कायाल
ु य) समपूणु
मिसतषक होता है ।
बहििष योगी अपिे जीविकाल मे जीवनमुक रहता है तथा अनत मे
उसके पाण मूधाु से ििकलते है , िकनतु सामानय जि के पाण अनय
——————————————
१. पश उप० (३.६, ७), छा० उप० (८.६.६) और बहृ० उप० (४.२.३) मे िािडयो की चचाु है ।
——————————————
१. भगवदीता (८.२४, २५, २६, २७, २८) मे मतृयु के पशात ् जीवातमा की गित का वणि
ु है ।
कुणडिलिी ििक तथा कम-मुिक एवं सदःमुिक (कैवलयमुिक) की िविि वयाखया ‘गीता-
रसामत
ृ ’ मे की गई है ।
आतमा को जड िे ह से पथ
ृ क् मािकर उसी पर मि और बुिद को एकाग
कर िे ता है । िजस पकार मूज
ं मे रहिेवाली सींक को मूंज से पथ
ृ क् कर
ििया जाता है , उसी पर िचि को एकाग कर िे ता है तथा आिनिमय हो
जाता है । चैतनय आतमा िुभ एवं तेजोमय है तथा अमत
ृ सवरप है ।
४
िािनतप ाठ
ॐ स ह ि ाव वतु। सह ि ौ भ ुिकु। स ह व ीयव क रवाव है।
तेज िसव िा वधी तमसत ु। मा िव िि षा वहै।
ॐ िा िनत :! िािनत :!! िािनत :!!!
˜
१.ि तसय र ोगो ि जरा ि म ृ तयु : पापसय योगािििमय ं िरीरम। ् ( शेत० उप० , २.१२)
-िरीर क े योगािििमय होिे पर मिुषय रोग,वद
ृ ता और मतृयु से परे चला जाता है ।
२. बह वेि बह ैव भव ित (मुणडक उप०, ३.२.९)
३. जािििि : सवु कमा ुिण भ सम सात ् कुरत े त था (गीता, ४.३७)