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• अ ै त - साधना *

ारा : - द ड ःवामी मृगे ि सरःवती ।


आचाय शंकर का संदेश उनके समय म लोग के दय म जैसा भाव उ प न करता था , वैसा ह
आज भी करता है । इसका मूल कारण है क वह ह भारत क समम पर परा को अपने म
आ मसात ् करके हमारे सामने रखता है । आचाय शंकर क शैली यु संगत शैली है । ा त के
िलए भगवान ौी शंकराचाय जी अपने - " उपदे श - साहॐी " म इस संसार - चब का ूितपादन
करते हए
ु कहते ह : -
" अ ानं तःय मूलं ःया दितत ानिमंयते ।

ॄ व ाऽत आर धा ततो िनःौेयसं भवेत ् ।।


शर र के ूय अ ूय लगने से जो मुझे ःवयं ूय और अ ूय लगता है , वह ूवृित का कारण
बनता है । य द कसी ूकार से शर र के साथ मेरा स ब ध हट जाये और शर र को जो चीज ूय
और अ ूय लगे , वे मुझे ूभा वत न कर सक तो आगे राग - े ष नह होगा और " बया " नह
होगी । " इ ियःये ियःयाथ राग े षौ यव ःथतौ ।
तयोनवशमाग छे ौ ःय प रप थनौ ।।
मेरे नारायण । गीता म भगवान ् ने भी इसी िलए सारे संसार का मूल राग - े ष को ह बतलाया ।
अजुन ने कहा ' महाराज इस संसार को य द ूकृ ित ह चलाती है तो फर जीव का पु षाथ या है ?'
भगवान ् ने कहा क राग और े ष के वश म न आव , बस यह सारे शा का अ तम ता पय है ,
चरम लआय है । राग - े ष तभी िमट सकता है जब शर र के साथ हमारा स ब ध िमट सके । शर र
के साथ स ब ध िमटाने के िलए ह योगशा ूबृत हआ
ु । पर तु योगा यास के ारा जब हम
समािध को ूा होते ह , तब समािध के समय तो शर र का भान नह रह जाता , पर तु जैसे ह
यवहार करने लगते ह , वैसे ह शर र के साथ फर स ब ध आ जाता है । इसिलए बड़े - बड़े
योिगय के इितहास को जब दे खते ह तो एक तरफ समािध म लीन ह , दसर
ू तरफ अ य त बोध
करने वाले दे खे जाते ह । उसका मूल कारण यह है क समािध काल म शर र से अपने को अपने को
अलग जाने पर , समझने पर भी , जैसे ह यवहार भूमी म आते ह , वैसे ह फर शर र के साथ एक
हो जाते ह ।वेदा त वह ूकृ या बतलाता है जससे चाहे समािध म जाओ , चाहे यवहार भूमी म रहो
, आपको कभी भी शर र के साथ तादा य स ब ध नह होगा , तादा यबोध नह होगा , य क
शर र के साथ वाःत वक तादा य है नह । इसका तर का या है ? जीवन म हमेशा
सावधानीपूवक इन दो चीज को अलग - अलग दे खते रहना है क , मेरे नारायण ।मेरा ःव प या
है और शर रा द जस कसी चीज का अनुभव हो रहा है , उसका ःव प या है । सावधािनपूवक
हमेशा इसको स चते रहना है । म वह हँू जो जानने वाला है और जसको जान रहा हँू , उससे म
अलग हँू । अतः जब - जब सुख - दःख
ु , राग - े ष कसी भी चीज क ूतीित होवे ,तो , नारायण

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।अपने आप वचार कर क इसक ूतीित हो रह है , इसका अनुभव हो रहा है , और म वह हँू जो
इसका अनुभव कर रहा है ।अतः म इस अनुभव से अलग हँू । म अनुभव करने वाला हँू । जस चीज
का अनुभव हो रहा है , वह म नह हँू ।
भगवान ् ौी शंकराचाय जब ब चे ह थे , अभी गु के पास पढ़ रहे थे , तब िभ ा लेने के िलए कसी
कु टया म गये । वधवा ॄा णी थी उसने दे खा क अ य त तेजःवी बालक िभ ा लेने के िलए
आया हआ
ु है , पर तु उसके घर म कुछ नह था । बड़ गर ब थी । फर भी यथा स भव उसने
अपनी मट कय म जाकर दे खा ले कन कह कुछ िमला नह । बड़ दःखी
ु हो कर आई और कहने
लगी क " म दे ना तो चाहती हँू ले कन भगवान ् ने मुझे इस लायक नह बनाया क म तु हे कुछ दे
सकूँ ।" आचाय शंकर ने कहा " िभतर दे खो , कुछ न कुछ िमल ह जायेगा , जा करके ढँू ढो । अपने

उपर व ास करो , कुछ न कुछ िमलेगा ह ।" वह गई तो उसे एक सुखे आँवले का टकरा िमला
जसे वह लेकर के आ गई । आचाय शंकर ने उसको बड़े ूेम से खाया और साथ ह भगवती लआमी
जी से ूाथना क । उनका िच सवथा परमे र को सम पत था । लआमी जी तुर त ूकट हो गई ।
कहने लगी " तु हार या इ छा है ? " आचायपा बोले " इस वधवा का दय इतना अ छा है
और इसके घर म कुछ नह है , यह तो ठ क नह ।" लआमी जी कहने लगी " इसके कम ह ऐसे ह ,
म या क ँ । " आचायपा ने कहा " कम पछले जो भी रह हो , अभी तो इसने मुझे आँवले का

टकड़ा दया है । म कौन हँू यह आप जानती ह ह । अिततीो पु य या पाप तीन ण म भी फल दे ने
यो य हो जाता है यह शा म म बताया है । अतः ौ ापूवक मुझे आँवला दे ने का जो फल होवे ,
वह इसको िमल जाये । " नतीजा यह हआ
ु क लआमी जी ने उसके घड़ के अ दर सोने के अस फय
को भर दया , सोने के आँवल को भर दया । यह है आ म व ास । इसने मुझे यह दया है ,
इसका भाव शु है . इसक मुझको मदद करनी चा हए । यह व ास हो तो आदमी बैठ जाता है -
अगर इसका ूार इतना फूटा है तो म या कर सकता हँू ? यह आ म व ास क कमी है ।
महा माओ मे एक कथा ूिस है । कसी भ को नारद जी ने कहा " तुमको कुछ चा हए तो मांग
लो ।" उसने नारद जी से कह दया " मेर स तित नह है , स तित हो जाये । " नारद जी ने जाकर
भगवान से पूछा । भगवान ने कह दया " उसे सात ज म म भी स तित न होगी ।" नारद ने
आकर कह दया क " सात ज म म भी तु हार स तित न होगी ।" भ था इस िलए संतोष
करके रह गया । थोड़े दन म वहाँ से एक परमहं स महा मा िनकले । उनसे भी ऐसे ह बात हई
ु ।
उसने कहा " महाराज कुछ िमलना तो है नह ।" म मांग कर या क ँ ।" महा मा बोले , " नह ,
मांगो तो सह ।" भ ने कहा क नारद जी कह के गये ह क मुझे सात ज म म भी ब चे नह होने
है । ब चे क ह कमी है , और कोई कभी नह है । " महा मा ने कहा जा तेरे सात ब चे इसी ज म
म हो जायगे । " महा मा चले गये । धीरे - धीरे सात ब चे उ प न हो गये । नारद जी को इस बात
का पता चला तो वे बड़े नाराज हए
ु और भगवान ् से कहने लगे " आपने मुझे गलत य बतलाया ?
" भगवान ने उ र दया " तुमने तो यह पुछा था क इसके ूार म या है । महा मा ने तो ूार

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नह पुछा वर दे आये । तू भी य द दे आया होता तो तेर बात मुझे रखनी पड़ती । " इसी ूकार
आचाय शंकर ने उसी समय उसको दे दया । उनको ढ आ म व ास है क " म दँ ग
ू ा , तो िमलेगा
कैसे नह ? " साथ म यह भी बताया क जहाँ तक स भव हो सके य द कसी को आिथक
आवँयकता है तो उसके सामने यह न सुनाने लग जाये क अरे धन तो दःख
ू का कारण है । काहे के
िलए धन चाहता है ।उसक आवँयकता पूित करने के बाद फर उसको उपदे श द । यह है आ म
व ास ।

वहाँ से आचाय शंकर आगे चले । एक जगह पर उ ह ने विचऽ ँय दे खा । एक मेढ़क के उपर एक


सप छाया करके बैठा हआ
ु है । उसी समय उ ह ने िन य कया क यह प वऽ ःथल है । पता लगा
क " वभा डव मह ष " ने यहाँ पर तपःया क थी । ज होने ौी रामच ि जी को उ प न करने के
िलए य कराया था , वे ौृग
ं ी ऋ ष वभा डव मह ष के पुऽ थे । आचाय शंकर ने वह पर संक प
कया क अपना ूथम मठ यहाँ बनाऊँगा । यह आ म - श है । यह नह स च रहे ह क अभी तो
बहत
ु दे र है , अभी म या कर सकता हँू । यह भावना नह है । जीवन म सवऽ उनके अ दर जो यह
पूण आ म - व ास था , जसके साथ उ होने काय कया उसी का नतीजा था क सारे भारत को
इस आ म - श के सामने झुका सके । आ म - श को रोकने वाला जो अ ान है , उसको दरू
करना ज र है । अ ान का प या है ? लोक म दे खा गया है क सीिमत होने पर जो सदोष हो
सकता है वह असीम हो जाये तो िनद ष बन जाता है । घड़े म ब द आकाश म दगध
ु रह सकती है ,
सवऽ फैले आकाश म नह ।

छोटे तालाब का जल गंदा रह सकता है पर महान दय म बहता हआ


ु वह जल खुद - ब - खुद साफ
हो जाता है । जहाँ - जहा य या सीिमत वःतु सम म , यापकम िमल जाती है , वहाँ - वहाँ
शु का प शा कार ने बड़े सीधे ढ़ं ग से बतलाया । ऋ ष कहते ह " वायु " आपको नमःकार है
य क आप ू य दे वता है , परॄ परमा मा ह । य दे वता ह ? य परॄ परमा मा ह ?
ु ु है । कोई भी चीज कसी ने छु द तो आजकल क भाषा म "
संसार म सब चीज के अ दर छआछत
इनफै ट " हो जाती है । पुरानी भाषा म " ःपशाःपश " का दोष आ जाता है । अ न को कसी ने छु
िलया तो खाने लायक नह रहा । पानी को कसी ने छु दया तो पीने लायक नह रहा । पर तु एक
चीज के अशु का वचार कभी नह कया जाता है और वह है " वायु " । जो साँस म अभी ले रहा हँू
, वह पाँच िमनट पहले यहाँ से जाने वाले कसी और ने छोड़ है और वह हवा मेरे अ दर आ रह है ,
पर तु या उसके ःपशाःपश से मेरे अ दर कोई वकार आता है ? नह । य क यह वायु सम
से स ब ध है । वायु हमेशा सम स ब ध वाली रहती है । इसिलए उसम शु रहती है ।

आचाय शंकर ने बताया क अ ान या चीज है । हम अपने आप को केवल एक शर र के अ दर


रहने वाला बँधा हआ
ु पुतला समझ रहे ह । यह , मेरे नारायण । अ ान है । उसक जगह य द सब
ूा णय म रहने वाला " म " ह हँू इस बात को समझ ल तो अ ान दरू हो जायेगा और हमार

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अप र छ न श वकिसत हो जायेगी यानी आ म- श वकिसत हो जायेगी । इसके िलय
भगवान ौी शंकराचाय जी ने साधना का एक बम बनाया । बड़ा ह वै ािनक बम है ।

सबसे पहली साधना उ होने रखी " ववेक " । ववेक का मतलब है क या चीज स य है या
अस य है , या िन य है या अिन य है , या कत य है या अकत य है - मेरे नारायण । य
अलग - अलग कर समझगे । ू येक चीज म अपनी बु का ूयोग करगे , समझने का ूय
करगे । कसी चीज को िलखा है , केवल इतने माऽ से न मान । आचायपा शंकर से बड़ा कोई
वचारक नह हआ
ु और उनसे बड़ा कोई शा को सवथा ःवीकार करने वाला भी नह हआ
ु । वे
कहते है क म इसिलए वेद क ौुित को ःवीकार करता हँू , यो क वह सवथा यु संगत है ।
आचाय शंकर के एक िशंय " आचाय प पाद "ने कहा है क य द उनके म थ को दे ख तो
अनुमानतः म थ म आधा यु योग है और आधा शा का ूमाण है । जतना शा का ूमाण
दया है , उतनी ह उनको पु करने वाली यु याँ ह । जस ूकार से जब हम कहते ह क ' युटन '
या ' आइ साटाइन ' ने इस िस ा त को बतलाया तो हम आँख ब द करके नह मान रहे ह । उसका
ूयोग करके दे खने पर वह स य िस होता है , इसिलए मान रहे ह । आचाय शंकर कहते ह क
इसी ूकार " ौुित " क बात हम इसिलए मानते ह य क वह अनुभव और यु क कसौट पर
खर उतरती है । इसिलए नह मानते ह क वहाँ कुछ कह दया गया है , आचाय शंकर एक जगह
भांय म िलखते हए
ु वे कहते ह - " सैकड़ो वेद भी अगर कह द क आग ठ ड होती है तो आग ठ ड
नह हो सकती । " शा तो मेरे नारायण ापक है । हमको बतलाना है क स ची बात यह है और
उसको ूयोग एवं यु से िस करके जीवन म लाना है । अतः पहला साधन उ ह ने बतलाया - "
ववेक बु पूव वचार " । जब बु पूवक वचार हमारा ढ हो जाय और समझ ल क गलत या है
, तब अगला सोपान है , मेरे नारायण । " वैरा य " । ने कहा है क य द उनके म थ को दे ख तो
अनुमानतः म थ म आधा यु योग है और आधा शा का ूमाण है । जतना शा का ूमाण
दया है , उतनी ह उनको पु करने वाली यु याँ ह । जस ूकार से जब हम कहते ह क ' युटन '
या ' आइ साटाइन ' ने इस िस ा त को बतलाया तो हम आँख ब द करके नह मान रहे ह । उसका
ूयोग करके दे खने पर वह स य िस होता है , इसिलए मान रहे ह । आचाय शंकर कहते ह क
इसी ूकार " ौुित " क बात हम इसिलए मानते ह य क वह अनुभव और यु क कसौट पर
खर उतरती है । इसिलए नह मानते ह क वहाँ कुछ कह दया गया है , आचाय शंकर एक जगह
भांय म िलखते हए
ु वे कहते ह - " सैकड़ो वेद भी अगर कह द क आग ठ ड होती है तो आग ठ ड
नह हो सकती । " शा तो मेरे नारायण ापक है । हमको बतलाना है क स ची बात यह है और
उसको ूयोग एवं यु से िस करके जीवन म लाना है । अतः पहला साधन उ ह ने बतलाया - "
ववेक बु पूव वचार " । जब बु पूवक वचार हमारा ढ हो जाय और समझ ल क गलत या है
, तब अगला सोपान है , मेरे नारायण । " वैरा य " । गलत चीज को गलत समझते ह छोड़ने का

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साम य अपने अ दर पैदा होना चा हए । अभी बहत
ु सी बात म अकेले म हम कहते ह , " हाँ है तो
यह गलत , ले कन र ित - रवाज चला आया है , मान लेना चा हए , या हज है ? " कई वषय म
हम कसी बहाने से उसे ःवीकारते चलते ह जसे मानते गलत ह । जस चीज को हम स य मान ,
उसके उपर ःथर रहने का साहस होना चा हए । हो सकता है क हमने जो चीज समझी है , वह
गलत है पर तु जब तक हम उसको ठ क समझ रहे ह तब तो हम उसके उपर ःथर रहना पड़े गा ।
जस चीज को गलत समझा , उसको छोड़ने का साहस , यह दसरा
ू साधन " वैरा य " है ।

तब मन के अ दर शा त , इ िय का दमन , वषय के ूित उपरामता , िच क एकामता और


वाःत वक ौ ा उ प न होती है । ौ ा का मतलब , मेरे नारायण । कसी चीज को मान लेना नह
। जसको ठ क समझा है , उसके अनुसार जीवन को ढालने म लग जाय तभी कह सकते ह क उस
पर ौ ा है । हम छोट - छोट चीज को ढालने म लगे ह पर तु यह दलभ
ु जीवन हम िमला है ,
इसको ढालना है । जब इस ूकार क ौ ा हमारे अ दर पैदा हो जाती है तब अ त म परमा मा के
ूित तीो अिभलाषा आती है क " मुझे परमा मा क ूा ी चा हए , और कुछ नह ।" तब अ य
जतने साधन ह , उनको मनुंय छोड़ता जाता है । अभी तो हम न जाने कस - कस चीज को
साधन समझते है ! कह हम समझते ह क " मह " हमार मदद कर दगे । कभी हम समझते ह "
काल " हमार मदद कर दे गा । कह पर लोग तरह - तरह क " ताबीज " तरह - तरह के तां ऽक
ूयोग कर सोचते ह क इन से कुछ हो जायेगा । भगवान शंकराचाय जी कहते है - क यह सब
तु हारा ॅम है । " दे वॅा या भजित भवद यं जडजनः । " जस ूकार कोई आदमी सीप को
चाँद समझ बैठता है , उसी ूकार परमे र को छोड़ कर दसर
ू चीज को समझ लेता है क ये हमारे
साधन ह गे और हम मदद पहँु चा दगे । इस िलए मेरे नारायण । रोज - रोज नये - नये दे वता
भारतवष म उ प न हो रहे ह । नये - नये भगवान ् उ प न हो रहे ह । जस भूत - ूेत क पूजा का
"ौी गीता जी " म भगवान ् ने िनषेध कया है , उसे मनुंय के पतन का कारण , नीचे िगराने वाला
बताया है , वह भूत - ूेत क पूजा चार तरफ फैलती जा रह है । स चते ह क उसी से हमको कुछ
ूा हो जायेगा । जैसे कोई आँटे के घोल को समझ लेवे क यह दध
ू है , उसी ूकार मनुंय को
ॅा त होती है । सव सवश मान ् परमा मा को छोड़ कर कोई नह है जो कुछ कर सके
।इसिलए केवल उसके उपर भरोसा करना चा हये , बाक जतने साधन ह , उनको यथ जानना
चा हये । जब - जब कसी संःकृ ित ने परमा मा को , अपनी आ मश को छोड़ कर मह -
न ऽा द अ य संहार को ूधानता द है तब - तब उसका पतन हआ
ु है । मेरे नारायण । यह मीस ,
रोम , िमॐ आ द के इितहास के अबलोकन से ःप हो जाता है । अतएव आचाय शंकर ने कहा क
ौी महादे व से अ य को अपना सहारा मानने वाले सब जड़ जन ह । जो रात - दन हमारे मन को
दे ख रहा है , मन का सा ी है , वह दे वािधदे व महादे व है । उन सा ी क शरण ल , उसक सहायता
से काय कर तो कोई काय ऐसा नह जो न कर सक । जीव के अ दर परमा मा ौी दे वािधदे व

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महादे व ःथत है । मेरे नारायण । जैसे - जैसे हम अपने " य भाव " को छोड़कर " सम भाव "
क तरफ जायेग , वैसे - वैसे यह श वकिसत होती जायेगी और इस श के वकास से ह दे श ,
रा , धम सभी का उ ार स भव है ।

।।जय जय शंकर । कामको ट शंकर ।।

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