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रामचिरतमानस - 1- बालकांड

गोःवामी तुलसीदास
िवरिचत

रामचिरतमानस
बालकाण्ड

Sant Tulsidas’s

Rāmcharitmānas
Bāl Kānd

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रामचिरतमानस - 2- बालकांड

RAMCHARITMANAS: AN INTRODUCTION

Ramayana, considered part of Hindu Smriti, was written originally in Sanskrit by


Sage Valmiki (3000 BC). Contained in 24,000 verses, this epic narrates Lord Ram of
Ayodhya and his ayan (journey of life). Over a passage of time, Ramayana did not remain
confined to just being a grand epic, it became a powerful symbol of India's social and
cultural fabric. For centuries, its characters represented ideal role models - Ram as an ideal
man, ideal husband, ideal son and a responsible ruler; Sita as an ideal wife, ideal daughter
and Laxman as an ideal brother. Even today, the characters of Ramayana including Ravana
(the enemy of the story) are fundamental to the grandeur cultural consciousness of India.
Long after Valmiki wrote Ramayana, Goswami Tulsidas (born 16th century) wrote
Ramcharitamanas in his native language. With the passage of time, Tulsi's Ramcharitmanas,
also known as Tulsi-krita Ramayana, became better known among Hindus in upper India
than perhaps the Bible among the rustic population in England. As with the Bible and
Shakespeare, Tulsi Ramayana’s phrases have passed into the common speech. Not only are
his sayings proverbial: his doctrine actually forms the most powerful religious influence in
present-day Hinduism; and, though he founded no school and was never known as a Guru
or master, he is everywhere accepted as an authoritative guide in religion and conduct of
life.
Tulsi’s Ramayana is a novel presentation of the great theme of Valmiki, but is in no
sense a mere translation of the Sanskrit epic. It consists of seven books or chapters namely
Bal Kand, Ayodhya Kand, Aranya Kand, Kiskindha Kand, Sundar Kand, Lanka Kand and
Uttar Kand containing tales of King Dasaratha's court, the birth and boyhood of Rama and
his brethren, his marriage with Sita - daughter of Janaka, his voluntary exile, the result of
Kaikeyi's guile and Dasaratha's rash vow, the dwelling together of Rama and Sita in the
great central Indian forest, her abduction by Ravana, the expedition to Lanka and the
overthrow of the ravisher, and the life at Ayodhya after the return of the reunited pair.
Ramcharitmanas is written in pure Avadhi or Eastern Hindi, in stanzas called chaupais,
broken by 'dohas' or couplets, with an occasional sortha and chhand.
Here, you will find the text of Bal Kand, 1st chapter of Ramcharitmanas.

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रामचिरतमानस - 3- बालकांड

ौीगणेशाय नमः

ौीरामचिरतमानस ूथम सोपान

बालकाण्ड

ोक
वणानामथसंघानां रसानां छन्दसामिप ।
म गलानां च क ारौ वन्दे वाणीिवनायकौ ॥१॥
भवानीश करौ वन्दे ौ ािव ास िपणौ ।
या यां िवना न पँय न्त िस ाःःवान्तःःथमी रम ् ॥२॥
वन्दे बोधमयं िन यं गु ं श कर िपणम ् ।
यमािौतो िह वबोऽिप चन्िः सवऽ वन् ते ॥३॥
सीताराम गुणमाम पुण्यारण्य िवहािरणौ ।
वन्दे िवशु िव ानौ कबी र कपी रौ ॥४॥
उ व ःथितसंहारकािरणीं लेशहािरणीम ् ।
सवौेयःकर ं सीतां नतोऽहं रामव लभाम ् ॥५॥
यन्मायावशवित िव म खलं ॄ ािददे वासुरा
य स वादमृषैव भाित सकलं र जौ यथाहे ॅमः ।
य पाद लवमेकमेव िह भवा भोधे ःततीषावतां
वन्दे ऽहं तमशेषकारणपरं रामा यमीशं हिरम ् ॥६॥
नानापुराण िनगमागम स मतं य
रामायणे िनगिदतं विचदन्यतोऽिप ।
ःवान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषा िनबन्धमितम जुलमातनोित ॥७॥

सोरठा
जो सुिमरत िसिध होइ गन नायक किरबर बदन ।
करउ अनुमह सोइ बुि रािस सुभ गुन सदन ॥१॥
मूक होइ बाचाल पंगु चढइ िगिरबर गहन ।
जासु कृ पाँ सो दयाल िवउ सकल किल मल दहन ॥२॥
नील सरो ह ःयाम त न अ न बािरज नयन ।
करउ सो मम उर धाम सदा छ रसागर सयन ॥३॥
कुंद इं द ु सम दे ह उमा रमन क ना अयन ।
जािह दन पर नेह करउ कृ पा मदन मयन ॥४॥
बंदउ गु पद कंज कृ पा िसंधु नर प हिर ।

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रामचिरतमानस - 4- बालकांड

महामोह तम पुंज जासु बचन रिब कर िनकर ॥५॥

बंदउ गु पद पदम
ु परागा । सु िच सुबास सरस अनुरागा ॥
अिमय मूिरमय चूरन चा । समन सकल भव ज पिरवा ॥१॥
सुकृित संभु तन िबमल िबभूती । मंजुल मंगल मोद ूसूती ॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी । िकएँ ितलक गुन गन बस करनी ॥२॥
ौीगुर पद नख मिन गन जोती । सुिमरत िद य ििृ िहयँ होती ॥
दलन मोह तम सो सूकासू । बड़े भाग उर आवइ जासू ॥३॥
उघरिहं िबमल िबलोचन ह के । िमटिहं दोष दख
ु भव रजनी के ॥
सूझिहं राम चिरत मिन मािनक । गुपुत ूगट जहँ जो जेिह खािनक ॥४॥

दोहरा
जथा सुअंजन अं ज ग साधक िस सुजान ।
कौतुक दे खत सैल बन भूतल भूिर िनधान ॥१॥

गु पद रज मृद ु मंजुल अंजन । नयन अिमअ ग दोष िबभंजन ॥


तेिहं किर िबमल िबबेक िबलोचन । बरनउँ राम चिरत भव मोचन ॥१॥
बंदउँ ूथम मह सुर चरना । मोह जिनत संसय सब हरना ॥
सुजन समाज सकल गुन खानी । करउँ ूनाम सूेम सुबानी ॥२॥
साधु चिरत सुभ चिरत कपासू । िनरस िबसद गुनमय फल जासू ॥
जो सिह दख
ु परिछि दरावा
ु । बंदनीय जेिहं जग जस पावा ॥३॥
मुद मंगलमय संत समाजू । जो जग जंगम तीरथराजू ॥
राम भि जहँ सुरसिर धारा । सरसइ ॄ िबचार ूचारा ॥४॥
िबिध िनषेधमय किल मल हरनी । करम कथा रिबनंदिन बरनी ॥
हिर हर कथा िबराजित बेनी । सुनत सकल मुद मंगल दे नी ॥५॥
बटु िबःवास अचल िनज धरमा । तीरथराज समाज सुकरमा ॥
सबिहं सुलभ सब िदन सब दे सा । सेवत सादर समन कलेसा ॥६॥
अकथ अलौिकक तीरथराऊ । दे इ स फल ूगट ूभाऊ ॥७॥

दोहरा
सुिन समुझिहं जन मुिदत मन म जिहं अित अनुराग ।
लहिहं चािर फल अछत तनु साधु समाज ूयाग ॥२॥

म जन फल पे खअ ततकाला । काक होिहं िपक बकउ मराला ॥


सुिन आचरज करै जिन कोई । सतसंगित मिहमा निहं गोई ॥१॥

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रामचिरतमानस - 5- बालकांड

बालमीक नारद घटजोनी । िनज िनज मुखिन कह िनज होनी ॥


जलचर थलचर नभचर नाना । जे जड़ चेतन जीव जहाना ॥२॥
मित क रित गित भूित भलाई । जब जेिहं जतन जहाँ जेिहं पाई ॥
सो जानब सतसंग ूभाऊ । लोकहँु बेद न आन उपाऊ ॥३॥
िबनु सतसंग िबबेक न होई । राम कृ पा िबनु सुलभ न सोई ॥
सतसंगत मुद मंगल मूला । सोइ फल िसिध सब साधन फूला ॥४॥
सठ सुधरिहं सतसंगित पाई । पारस परस कुधात सुहाई ॥
िबिध बस सुजन कुसंगत परह ं । फिन मिन सम िनज गुन अनुसरह ं ॥५॥
िबिध हिर हर किब कोिबद बानी । कहत साधु मिहमा सकुचानी ॥
सो मो सन किह जात न कैस । साक बिनक मिन गुन गन जैस ॥६॥

दोहरा
बंदउँ संत समान िचत िहत अनिहत निहं कोइ ।
अंजिल गत सुभ सुमन जिम सम सुगंध कर दोइ ॥३(क)॥
संत सरल िचत जगत िहत जािन सुभाउ सनेहु ।
बालिबनय सुिन किर कृ पा राम चरन रित दे हु ॥३(ख)॥

बहिर
ु बंिद खल गन सितभाएँ । जे िबनु काज दािहनेहु बाएँ ॥
पर िहत हािन लाभ जन्ह केर । उजर हरष िबषाद बसेर ॥१॥
हिर हर जस राकेस राहु से । पर अकाज भट सहसबाहु से ॥
जे पर दोष लखिहं सहसाखी । पर िहत घृत जन्ह के मन माखी ॥२॥
तेज कृ सानु रोष मिहषेसा । अघ अवगुन धन धनी धनेसा ॥
उदय केत सम िहत सबह के । कुंभकरन सम सोवत नीके ॥३॥
पर अकाजु लिग तनु पिरहरह ं । जिम िहम उपल कृ षी दिल गरह ं ॥
बंदउँ खल जस सेष सरोषा । सहस बदन बरनइ पर दोषा ॥४॥
पुिन ूनवउँ पृथुराज समाना । पर अघ सुनइ सहस दस काना ॥
बहिर
ु सब सम िबनवउँ तेह । संतत सुरानीक िहत जेह ॥५॥
बचन बळ जेिह सदा िपआरा । सहस नयन पर दोष िनहारा ॥६॥

दोहरा
उदासीन अिर मीत िहत सुनत जरिहं खल र ित ।
जािन पािन जुग जोिर जन िबनती करइ सूीित ॥४॥

म अपनी िदिस क न्ह िनहोरा । ितन्ह िनज ओर न लाउब भोरा ॥


बायस पिलअिहं अित अनुरागा । होिहं िनरािमष कबहँु िक कागा ॥१॥

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रामचिरतमानस - 6- बालकांड

बंदउँ संत अस जन चरना । दखूद


ु उभय बीच कछु बरना ॥
िबछुरत एक ूान हिर लेह ं । िमलत एक दख
ु दा न दे ह ं ॥२॥
उपजिहं एक संग जग माह ं । जलज जक जिम गुन िबलगाह ं ॥
सुधा सुरा सम साधू असाधू । जनक एक जग जलिध अगाधू ॥३॥
भल अनभल िनज िनज करतूती । लहत सुजस अपलोक िबभूती ॥
सुधा सुधाकर सुरसिर साधू । गरल अनल किलमल सिर याधू ॥४॥
गुन अवगुन जानत सब कोई । जो जेिह भाव नीक तेिह सोई ॥५॥

दोहरा
भलो भलाइिह पै लहइ लहइ िनचाइिह नीचु ।
सुधा सरािहअ अमरताँ गरल सरािहअ मीचु ॥५॥

खल अघ अगुन साधू गुन गाहा । उभय अपार उदिध अवगाहा ॥


तेिह त कछु गुन दोष बखाने । संमह याग न िबनु पिहचाने ॥१॥
भलेउ पोच सब िबिध उपजाए । गिन गुन दोष बेद िबलगाए ॥
कहिहं बेद इितहास पुराना । िबिध ूपंचु गुन अवगुन साना ॥२॥
दख
ु सुख पाप पुन्य िदन राती । साधु असाधु सुजाित कुजाती ॥
दानव दे व ऊँच अ नीचू । अिमअ सुजीवनु माहु मीचू ॥३॥
माया ॄ जीव जगद सा । ल छ अल छ रं क अवनीसा ॥
कासी मग सुरसिर बमनासा । म मारव मिहदे व गवासा ॥४॥
सरग नरक अनुराग िबरागा । िनगमागम गुन दोष िबभागा ॥५॥

दोहरा
जड़ चेतन गुन दोषमय िबःव क न्ह करतार ।
संत हं स गुन गहिहं पय पिरहिर बािर िबकार ॥६॥

अस िबबेक जब दे इ िबधाता । तब तज दोष गुनिहं मनु राता ॥


काल सुभाउ करम बिरआई । भलेउ ूकृ ित बस चुकइ भलाई ॥१॥
सो सुधािर हिरजन जिम लेह ं । दिल दख
ु दोष िबमल जसु दे ह ं ॥
खलउ करिहं भल पाइ सुसंगू । िमटइ न मिलन सुभाउ अभंगू ॥२॥
लख सुबेष जग बंचक जेऊ । बेष ूताप पू जअिहं तेऊ ॥
उधरिहं अंत न होइ िनबाहू । कालनेिम जिम रावन राहू ॥३॥
िकएहँु कुबेष साधु सनमानू । जिम जग जामवंत हनुमानू ॥
हािन कुसंग सुसंगित लाहू । लोकहँु बेद िबिदत सब काहू ॥४॥
गगन चढ़इ रज पवन ूसंगा । क चिहं िमलइ नीच जल संगा ॥
साधु असाधु सदन सुक सार ं । सुिमरिहं राम दे िहं गिन गार ॥५॥

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रामचिरतमानस - 7- बालकांड

धूम कुसंगित कािरख होई । िल खअ पुरान मंजु मिस सोई ॥


सोइ जल अनल अिनल संघाता । होइ जलद जग जीवन दाता ॥६॥

दोहरा
मह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग ।
होिह कुबःतु सुबःतु जग लखिहं सुल छन लोग ॥७(क)॥
सम ूकास तम पाख दहँु ु नाम भेद िबिध क न्ह ।
सिस सोषक पोषक समु झ जग जस अपजस द न्ह ॥७(ख)॥
जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जािन ।
बंदउँ सब के पद कमल सदा जोिर जुग पािन ॥७(ग)॥
दे व दनुज नर नाग खग ूेत िपतर गंधब ।
बंदउँ िकंनर रजिनचर कृ पा करहु अब सब ॥७(घ)॥

आकर चािर लाख चौरासी । जाित जीव जल थल नभ बासी ॥


सीय राममय सब जग जानी । करउँ ूनाम जोिर जुग पानी ॥१॥
जािन कृ पाकर िकंकर मोहू । सब िमिल करहु छािड़ छल छोहू ॥
िनज बुिध बल भरोस मोिह नाह ं । तात िबनय करउँ सब पाह ॥२॥
करन चहउँ रघुपित गुन गाहा । लघु मित मोिर चिरत अवगाहा ॥
सूझ न एकउ अंग उपाऊ । मन मित रं क मनोरथ राऊ ॥३॥
मित अित नीच ऊँिच िच आछ । चिहअ अिमअ जग जुरइ न छाछ ॥
छिमहिहं स जन मोिर िढठाई । सुिनहिहं बालबचन मन लाई ॥४॥
जौ बालक कह तोतिर बाता । सुनिहं मुिदत मन िपतु अ माता ॥
हँ िसहिह कूर कुिटल कुिबचार । जे पर दषन
ू भूषनधार ॥५॥
िनज किवत केिह लाग न नीका । सरस होउ अथवा अित फ का ॥
जे पर भिनित सुनत हरषाह । ते बर पु ष बहत
ु जग नाह ं ॥६॥
जग बहु नर सर सिर सम भाई । जे िनज बािढ़ बढ़िहं जल पाई ॥
स जन सकृ त िसंधु सम कोई । दे ख पूर िबधु बाढ़इ जोई ॥७॥

दोहरा
भाग छोट अिभलाषु बड़ करउँ एक िबःवास ।
पैहिहं सुख सुिन सुजन सब खल करहिहं उपहास ॥८॥

खल पिरहास होइ िहत मोरा । काक कहिहं कलकंठ कठोरा ॥


हं सिह बक दादरु चातकह । हँ सिहं मिलन खल िबमल बतकह ॥१॥
किबत रिसक न राम पद नेहू । ितन्ह कहँ सुखद हास रस एहू ॥
भाषा भिनित भोिर मित मोर । हँ िसबे जोग हँ स निहं खोर ॥२॥

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रामचिरतमानस - 8- बालकांड

ूभु पद ूीित न सामु झ नीक । ितन्हिह कथा सुिन लागिह फक ॥


हिर हर पद रित मित न कुतरक । ितन्ह कहँु मधुर कथा रघुवर क ॥३॥
राम भगित भूिषत जयँ जानी । सुिनहिहं सुजन सरािह सुबानी ॥
किब न होउँ निहं बचन ूबीनू । सकल कला सब िब ा ह नू ॥४॥
आखर अरथ अलंकृित नाना । छं द ूबंध अनेक िबधाना ॥
भाव भेद रस भेद अपारा । किबत दोष गुन िबिबध ूकारा ॥५॥
किबत िबबेक एक निहं मोर । स य कहउँ िल ख कागद कोरे ॥६॥

दोहरा
भिनित मोिर सब गुन रिहत िबःव िबिदत गुन एक ।
सो िबचािर सुिनहिहं सुमित जन्ह क िबमल िबवेक ॥९॥

एिह महँ रघुपित नाम उदारा । अित पावन पुरान ौुित सारा ॥
मंगल भवन अमंगल हार । उमा सिहत जेिह जपत पुरार ॥१॥
भिनित िबिचऽ सुकिब कृ त जोऊ । राम नाम िबनु सोह न सोऊ ॥
िबधुबदनी सब भाँित सँवार । सोन न बसन िबना बर नार ॥२॥
सब गुन रिहत कुकिब कृ त बानी । राम नाम जस अंिकत जानी ॥
सादर कहिहं सुनिहं बुध ताह । मधुकर सिरस संत गुनमाह ॥३॥
जदिप किबत रस एकउ नाह । राम ूताप ूकट एिह माह ं ॥
सोइ भरोस मोर मन आवा । केिहं न सुसंग बड पनु पावा ॥४॥
धूमउ तजइ सहज क आई । अग ूसंग सुगंध बसाई ॥
भिनित भदे स बःतु भिल बरनी । राम कथा जग मंगल करनी ॥५॥

छं द
मंगल करिन किल मल हरिन तुलसी कथा रघुनाथ क ॥
गित कूर किबता सिरत क य सिरत पावन पाथ क ॥
ूभु सुजस संगित भिनित भिल होइिह सुजन मन भावनी ॥
भव अंग भूित मसान क सुिमरत सुहाविन पावनी ॥

दोहरा
िूय लािगिह अित सबिह मम भिनित राम जस संग ।
दा िबचा िक करइ कोउ बंिदअ मलय ूसंग ॥१०(क)॥
ःयाम सुरिभ पय िबसद अित गुनद करिहं सब पान ।
िगरा मा य िसय राम जस गाविहं सुनिहं सुजान ॥१०(ख)॥

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रामचिरतमानस - 9- बालकांड

मिन मािनक मुकुता छिब जैसी । अिह िगिर गज िसर सोह न तैसी ॥
नृप िकर ट त नी तनु पाई । लहिहं सकल सोभा अिधकाई ॥१॥
तैसेिहं सुकिब किबत बुध कहह ं । उपजिहं अनत अनत छिब लहह ं ॥
भगित हे तु िबिध भवन िबहाई । सुिमरत सारद आवित धाई ॥२॥
राम चिरत सर िबनु अन्हवाएँ । सो ौम जाइ न कोिट उपाएँ ॥
किब कोिबद अस हृदयँ िबचार । गाविहं हिर जस किल मल हार ॥३॥
क न्ह ूाकृ त जन गुन गाना । िसर धुिन िगरा लगत पिछताना ॥
हृदय िसंधु मित सीप समाना । ःवाित सारदा कहिहं सुजाना ॥४॥
ज बरषइ बर बािर िबचा । होिहं किबत मुकुतामिन चा ॥५॥

दोहरा
जुगुित बेिध पुिन पोिहअिहं रामचिरत बर ताग ।
पिहरिहं स जन िबमल उर सोभा अित अनुराग ॥११॥

जे जनमे किलकाल कराला । करतब बायस बेष मराला ॥


चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े । कपट कलेवर किल मल भाँड़ ॥१॥
बंचक भगत कहाइ राम के । िकंकर कंचन कोह काम के ॥
ितन्ह महँ ूथम रे ख जग मोर । धींग धरम वज धंधक धोर ॥२॥
ज अपने अवगुन सब कहऊँ । बाढ़इ कथा पार निहं लहऊँ ॥
ताते म अित अलप बखाने । थोरे महँु जािनहिहं सयाने ॥३॥
समु झ िबिबिध िबिध िबनती मोर । कोउ न कथा सुिन दे इिह खोर ॥
एतेहु पर किरहिहं जे असंका । मोिह ते अिधक ते जड़ मित रं का ॥४॥
किब न होउँ निहं चतुर कहावउँ । मित अनु प राम गुन गावउँ ॥
कहँ रघुपित के चिरत अपारा । कहँ मित मोिर िनरत संसारा ॥५॥
जेिहं मा त िगिर मे उड़ाह ं । कहहु तूल केिह लेखे माह ं ॥
समुझत अिमत राम ूभुताई । करत कथा मन अित कदराई ॥६॥

दोहरा
सारद सेस महे स िबिध आगम िनगम पुरान ।
नेित नेित किह जासु गुन करिहं िनरं तर गान ॥१२॥

सब जानत ूभु ूभुता सोई । तदिप कह िबनु रहा न कोई ॥


तहाँ बेद अस कारन राखा । भजन ूभाउ भाँित बहु भाषा ॥१॥
एक अनीह अ प अनामा । अज स चदानंद पर धामा ॥
यापक िबःव प भगवाना । तेिहं धिर दे ह चिरत कृ त नाना ॥२॥

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रामचिरतमानस - 10 - बालकांड

सो केवल भगतन िहत लागी । परम कृ पाल ूनत अनुरागी ॥


जेिह जन पर ममता अित छोहू । जेिहं क ना किर क न्ह न कोहू ॥३॥
गई बहोर गर ब नेवाजू । सरल सबल सािहब रघुराजू ॥
बुध बरनिहं हिर जस अस जानी । करिह पुनीत सुफल िनज बानी ॥४॥
तेिहं बल म रघुपित गुन गाथा । किहहउँ नाइ राम पद माथा ॥
मुिनन्ह ूथम हिर क रित गाई । तेिहं मग चलत सुगम मोिह भाई ॥५॥

दोहरा
अित अपार जे सिरत बर ज नृप सेतु करािहं ।
चिढ िपपीिलकउ परम लघु िबनु ौम पारिह जािहं ॥१३॥

एिह ूकार बल मनिह दे खाई । किरहउँ रघुपित कथा सुहाई ॥


यास आिद किब पुंगव नाना । जन्ह सादर हिर सुजस बखाना ॥१॥
चरन कमल बंदउँ ितन्ह केरे । पुरवहँु सकल मनोरथ मेरे ॥
किल के किबन्ह करउँ परनामा । जन्ह बरने रघुपित गुन मामा ॥२॥
जे ूाकृ त किब परम सयाने । भाषाँ जन्ह हिर चिरत बखाने ॥
भए जे अहिहं जे होइहिहं आग । ूनवउँ सबिहं कपट सब याग ॥३॥
होहु ूसन्न दे हु बरदानू । साधु समाज भिनित सनमानू ॥
जो ूबंध बुध निहं आदरह ं । सो ौम बािद बाल किब करह ं ॥४॥
क रित भिनित भूित भिल सोई । सुरसिर सम सब कहँ िहत होई ॥
राम सुक रित भिनित भदे सा । असमंजस अस मोिह अँदेसा ॥५॥
तु हर कृ पा सुलभ सोउ मोरे । िसअिन सुहाविन टाट पटोरे ॥६॥

दोहरा
सरल किबत क रित िबमल सोइ आदरिहं सुजान ।
सहज बयर िबसराइ िरपु जो सुिन करिहं बखान ॥१४(क)॥
सो न होइ िबनु िबमल मित मोिह मित बल अित थोर ।
करहु कृ पा हिर जस कहउँ पुिन पुिन करउँ िनहोर ॥१४(ख)॥
किब कोिबद रघुबर चिरत मानस मंजु मराल ।
बाल िबनय सुिन सु िच लख मोपर होहु कृ पाल ॥१४(ग)॥

सोरठा
बंदउँ मुिन पद कंजु रामायन जेिहं िनरमयउ ।
सखर सुकोमल मंजु दोष रिहत दषन
ू सिहत ॥१४(घ)॥
बंदउँ चािरउ बेद भव बािरिध बोिहत सिरस ।
जन्हिह न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर िबसद जसु ॥१४(ङ)॥

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रामचिरतमानस - 11 - बालकांड

बंदउँ िबिध पद रे नु भव सागर जेिह क न्ह जहँ ।


संत सुधा सिस धेनु ूगटे खल िबष बा नी ॥१४(च)॥

दोहरा
िबबुध िबू बुध मह चरन बंिद कहउँ कर जोिर ।
होइ ूसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोिर ॥१४(छ)॥

पुिन बंदउँ सारद सुरसिरता । जुगल पुनीत मनोहर चिरता ॥


म जन पान पाप हर एका । कहत सुनत एक हर अिबबेका ॥१॥
गुर िपतु मातु महे स भवानी । ूनवउँ द नबंधु िदन दानी ॥
सेवक ःवािम सखा िसय पी के । िहत िन पिध सब िबिध तुलसीके ॥२॥
किल िबलोिक जग िहत हर िगिरजा । साबर मंऽ जाल जन्ह िसिरजा ॥
अनिमल आखर अरथ न जापू । ूगट ूभाउ महे स ूतापू ॥३॥
सो उमेस मोिह पर अनुकूला । किरिहं कथा मुद मंगल मूला ॥
सुिमिर िसवा िसव पाइ पसाऊ । बरनउँ रामचिरत िचत चाऊ ॥४॥
भिनित मोिर िसव कृ पाँ िबभाती । सिस समाज िमिल मनहँु सुराती ॥
जे एिह कथिह सनेह समेता । किहहिहं सुिनहिहं समु झ सचेता ॥५॥
होइहिहं राम चरन अनुरागी । किल मल रिहत सुमंगल भागी ॥६॥

दोहरा
सपनेहुँ साचेहुँ मोिह पर ज हर गौिर पसाउ ।
तौ फुर होउ जो कहे उँ सब भाषा भिनित ूभाउ ॥१५॥

बंदउँ अवध पुर अित पाविन । सरजू सिर किल कलुष नसाविन ॥
ूनवउँ पुर नर नािर बहोर । ममता जन्ह पर ूभुिह न थोर ॥१॥
िसय िनंदक अघ ओघ नसाए । लोक िबसोक बनाइ बसाए ॥
बंदउँ कौस या िदिस ूाची । क रित जासु सकल जग माची ॥२॥
ूगटे उ जहँ रघुपित सिस चा । िबःव सुखद खल कमल तुसा ॥
दसरथ राउ सिहत सब रानी । सुकृत सुमंगल मूरित मानी ॥३॥
करउँ ूनाम करम मन बानी । करहु कृ पा सुत सेवक जानी ॥
जन्हिह िबरिच बड़ भयउ िबधाता । मिहमा अविध राम िपतु माता ॥४॥

सोरठा
बंदउँ अवध भुआल स य ूेम जेिह राम पद ।
िबछुरत द नदयाल िूय तनु तृन इव पिरहरे उ ॥१६॥

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रामचिरतमानस - 12 - बालकांड

ूनवउँ पिरजन सिहत िबदे हू । जािह राम पद गूढ़ सनेहू ॥


जोग भोग महँ राखेउ गोई । राम िबलोकत ूगटे उ सोई ॥१॥
ूनवउँ ूथम भरत के चरना । जासु नेम ॄत जाइ न बरना ॥
राम चरन पंकज मन जासू । लुबुध मधुप इव तजइ न पासू ॥२॥
बंदउँ लिछमन पद जलजाता । सीतल सुभग भगत सुख दाता ॥
रघुपित क रित िबमल पताका । दं ड समान भयउ जस जाका ॥३॥
सेष सह सीस जग कारन । जो अवतरे उ भूिम भय टारन ॥
सदा सो सानुकूल रह मो पर । कृ पािसंधु सौिमिऽ गुनाकर ॥४॥
िरपुसूदन पद कमल नमामी । सूर सुसील भरत अनुगामी ॥
महावीर िबनवउँ हनुमाना । राम जासु जस आप बखाना ॥५॥

सोरठा
ूनवउँ पवनकुमार खल बन पावक यानधन ।
जासु हृदय आगार बसिहं राम सर चाप धर ॥१७॥

किपपित रछ िनसाचर राजा । अंगदािद जे कस समाजा ॥


बंदउँ सब के चरन सुहाए । अधम सर र राम जन्ह पाए ॥१॥
रघुपित चरन उपासक जेते । खग मृग सुर नर असुर समेते ॥
बंदउँ पद सरोज सब केरे । जे िबनु काम राम के चेरे ॥२॥
सुक सनकािद भगत मुिन नारद । जे मुिनबर िब यान िबसारद ॥
ूनवउँ सबिहं धरिन धिर सीसा । करहु कृ पा जन जािन मुनीसा ॥३॥
जनकसुता जग जनिन जानक । अितसय िूय क ना िनधान क ॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ । जासु कृ पाँ िनरमल मित पावउँ ॥४॥
पुिन मन बचन कम रघुनायक । चरन कमल बंदउँ सब लायक ॥
रा जवनयन धर धनु सायक । भगत िबपित भंजन सुख दायक ॥५॥

दोहरा
िगरा अरथ जल बीिच सम किहअत िभन्न न िभन्न ।
बदउँ सीता राम पद जन्हिह परम िूय खन्न ॥१८॥

बंदउँ नाम राम रघुवर को । हे तु कृ सानु भानु िहमकर को ॥


िबिध हिर हरमय बेद ूान सो । अगुन अनूपम गुन िनधान सो ॥१॥
महामंऽ जोइ जपत महे सू । कासीं मुकुित हे तु उपदे सू ॥
मिहमा जासु जान गनराउ । ूथम पू जअत नाम ूभाऊ ॥२॥

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रामचिरतमानस - 13 - बालकांड

जान आिदकिब नाम ूतापू । भयउ सु किर उलटा जापू ॥


सहस नाम सम सुिन िसव बानी । जिप जेई िपय संग भवानी ॥३॥
हरषे हे तु हे िर हर ह को । िकय भूषन ितय भूषन ती को ॥
नाम ूभाउ जान िसव नीको । कालकूट फलु द न्ह अमी को ॥४॥

दोहरा
बरषा िरतु रघुपित भगित तुलसी सािल सुदास ॥
राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास ॥१९॥

आखर मधुर मनोहर दोऊ । बरन िबलोचन जन जय जोऊ ॥


सुिमरत सुलभ सुखद सब काहू । लोक लाहु परलोक िनबाहू ॥१॥
कहत सुनत सुिमरत सुिठ नीके । राम लखन सम िूय तुलसी के ॥
बरनत बरन ूीित िबलगाती । ॄ जीव सम सहज सँघाती ॥२॥
नर नारायन सिरस सुॅाता । जग पालक िबसेिष जन ऽाता ॥
भगित सुितय कल करन िबभूषन । जग िहत हे तु िबमल िबधु पूषन ॥३॥
ःवाद तोष सम सुगित सुधा के । कमठ सेष सम धर बसुधा के ॥
जन मन मंजु कंज मधुकर से । जीह जसोमित हिर हलधर से ॥४॥

दोहरा
एकु छऽु एकु मुकुटमिन सब बरनिन पर जोउ ।
तुलसी रघुबर नाम के बरन िबराजत दोउ ॥२०॥

समुझत सिरस नाम अ नामी । ूीित परसपर ूभु अनुगामी ॥


नाम प दइु ईस उपाधी । अकथ अनािद सुसामु झ साधी ॥१॥
को बड़ छोट कहत अपराधू । सुिन गुन भेद समु झहिहं साधू ॥
दे खअिहं प नाम आधीना । प यान निहं नाम िबह ना ॥२॥
प िबसेष नाम िबनु जान । करतल गत न परिहं पिहचान ॥
सुिमिरअ नाम प िबनु दे ख । आवत हृदयँ सनेह िबसेष ॥३॥
नाम प गित अकथ कहानी । समुझत सुखद न परित बखानी ॥
अगुन सगुन िबच नाम सुसाखी । उभय ूबोधक चतुर दभाषी
ु ॥४॥

दोहरा
राम नाम मिनद प ध जीह दे हर ार ।
तुलसी भीतर बाहे रहँु ज चाहिस उ जआर ॥२१॥

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रामचिरतमानस - 14 - बालकांड

नाम जीहँ जिप जागिहं जोगी । िबरित िबरं िच ूपंच िबयोगी ॥


ॄ सुखिह अनुभविहं अनूपा । अकथ अनामय नाम न पा ॥१॥
जाना चहिहं गूढ़ गित जेऊ । नाम जीहँ जिप जानिहं तेऊ ॥
साधक नाम जपिहं लय लाएँ । होिहं िस अिनमािदक पाएँ ॥२॥
जपिहं नामु जन आरत भार । िमटिहं कुसंकट होिहं सुखार ॥
राम भगत जग चािर ूकारा । सुकृती चािरउ अनघ उदारा ॥३॥
चहू चतुर कहँु नाम अधारा । यानी ूभुिह िबसेिष िपआरा ॥
चहँु जुग चहँु ौुित ना ूभाऊ । किल िबसेिष निहं आन उपाऊ ॥४॥

दोहरा
सकल कामना हन जे राम भगित रस लीन ।
नाम सुूेम िपयूष हद ितन्हहँु िकए मन मीन ॥२२॥

अगुन सगुन दइु ॄ स पा । अकथ अगाध अनािद अनूपा ॥


मोर मत बड़ नामु दहु ू त । िकए जेिहं जुग िनज बस िनज बूत ॥१॥
ूोिढ़ सुजन जिन जानिहं जन क । कहउँ ूतीित ूीित िच मन क ॥
एकु दा गत दे खअ एकू । पावक सम जुग ॄ िबबेकू ॥२॥
उभय अगम जुग सुगम नाम त । कहे उँ नामु बड़ ॄ राम त ॥
यापकु एकु ॄ अिबनासी । सत चेतन धन आनँद रासी ॥३॥
अस ूभु हृदयँ अछत अिबकार । सकल जीव जग दन दखार
ु ॥
नाम िन पन नाम जतन त । सोउ ूगटत जिम मोल रतन त ॥४॥

दोहरा
िनरगुन त एिह भाँित बड़ नाम ूभाउ अपार ।
कहउँ नामु बड़ राम त िनज िबचार अनुसार ॥२३॥

राम भगत िहत नर तनु धार । सिह संकट िकए साधु सुखार ॥
नामु सूेम जपत अनयासा । भगत होिहं मुद मंगल बासा ॥१॥
राम एक तापस ितय तार । नाम कोिट खल कुमित सुधार ॥
िरिष िहत राम सुकेतुसुता क । सिहत सेन सुत क न्ह िबबाक ॥२॥
सिहत दोष दख
ु दास दरासा
ु । दलइ नामु जिम रिब िनिस नासा ॥
भंजेउ राम आपु भव चापू । भव भय भंजन नाम ूतापू ॥३॥
दं डक बनु ूभु क न्ह सुहावन । जन मन अिमत नाम िकए पावन ॥ ।
िनिसचर िनकर दले रघुनंदन । नामु सकल किल कलुष िनकंदन ॥४॥

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रामचिरतमानस - 15 - बालकांड

दोहरा
सबर गीध सुसेवकिन सुगित द न्ह रघुनाथ ।
नाम उधारे अिमत खल बेद िबिदत गुन गाथ ॥२४॥

राम सुकंठ िबभीषन दोऊ । राखे सरन जान सबु कोऊ ॥


नाम गर ब अनेक नेवाजे । लोक बेद बर िबिरद िबराजे ॥१॥
राम भालु किप कटकु बटोरा । सेतु हे तु ौमु क न्ह न थोरा ॥
नामु लेत भविसंधु सुखाह ं । करहु िबचा सुजन मन माह ं ॥२॥
राम सकुल रन रावनु मारा । सीय सिहत िनज पुर पगु धारा ॥
राजा रामु अवध रजधानी । गावत गुन सुर मुिन बर बानी ॥३॥
सेवक सुिमरत नामु सूीती । िबनु ौम ूबल मोह दलु जीती ॥
िफरत सनेहँ मगन सुख अपन । नाम ूसाद सोच निहं सपन ॥४॥

दोहरा
ॄ राम त नामु बड़ बर दायक बर दािन ।
रामचिरत सत कोिट महँ िलय महे स जयँ जािन ॥२५॥

मासपारायण, पहला िवौाम

नाम ूसाद संभु अिबनासी । साजु अमंगल मंगल रासी ॥


सुक सनकािद िस मुिन जोगी । नाम ूसाद ॄ सुख भोगी ॥१॥
नारद जानेउ नाम ूतापू । जग िूय हिर हिर हर िूय आपू ॥
नामु जपत ूभु क न्ह ूसाद ू । भगत िसरोमिन भे ूहलाद ू ॥२॥
ीुवँ सगलािन जपेउ हिर नाऊँ । पायउ अचल अनूपम ठाऊँ ॥
सुिमिर पवनसुत पावन नामू । अपने बस किर राखे रामू ॥३॥
अपतु अजािमलु गजु गिनकाऊ । भए मुकुत हिर नाम ूभाऊ ॥
कह कहाँ लिग नाम बड़ाई । रामु न सकिहं नाम गुन गाई ॥४॥

दोहरा
नामु राम को कलपत किल क यान िनवासु ।
जो सुिमरत भयो भाँग त तुलसी तुलसीदासु ॥२६॥

चहँु जुग तीिन काल ितहँु लोका । भए नाम जिप जीव िबसोका ॥
बेद पुरान संत मत एहू । सकल सुकृत फल राम सनेहू ॥१॥
यानु ूथम जुग मखिबिध दज
ू । ापर पिरतोषत ूभु पूज ॥
किल केवल मल मूल मलीना । पाप पयोिनिध जन जन मीना ॥२॥

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रामचिरतमानस - 16 - बालकांड

नाम कामत काल कराला । सुिमरत समन सकल जग जाला ॥


राम नाम किल अिभमत दाता । िहत परलोक लोक िपतु माता ॥३॥
निहं किल करम न भगित िबबेकू । राम नाम अवलंबन एकू ॥
कालनेिम किल कपट िनधानू । नाम सुमित समरथ हनुमानू ॥४॥

दोहरा
राम नाम नरकेसर कनककिसपु किलकाल ।
जापक जन ूहलाद जिम पािलिह दिल सुरसाल ॥२७॥

भायँ कुभायँ अनख आलसहँू । नाम जपत मंगल िदिस दसहँू ॥


सुिमिर सो नाम राम गुन गाथा । करउँ नाइ रघुनाथिह माथा ॥१॥
मोिर सुधािरिह सो सब भाँती । जासु कृ पा निहं कृ पाँ अघाती ॥
राम सुःवािम कुसेवकु मोसो । िनज िदिस दै ख दयािनिध पोसो ॥२॥
लोकहँु बेद सुसािहब र तीं । िबनय सुनत पिहचानत ूीती ॥
गनी गर ब मामनर नागर । पंिडत मूढ़ मलीन उजागर ॥३॥
सुकिब कुकिब िनज मित अनुहार । नृपिह सराहत सब नर नार ॥
साधु सुजान सुसील नृपाला । ईस अंस भव परम कृ पाला ॥४॥
सुिन सनमानिहं सबिह सुबानी । भिनित भगित नित गित पिहचानी ॥
यह ूाकृ त मिहपाल सुभाऊ । जान िसरोमिन कोसलराऊ ॥५॥
र झत राम सनेह िनसोत । को जग मंद मिलनमित मोत ॥६॥

दोहरा
सठ सेवक क ूीित िच र खहिहं राम कृ पालु ।
उपल िकए जलजान जेिहं सिचव सुमित किप भालु ॥२८(क)॥
हौहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास ।
सािहब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास ॥२८(ख)॥

अित बिड़ मोिर िढठाई खोर । सुिन अघ नरकहँु नाक सकोर ॥


समु झ सहम मोिह अपडर अपन । सो सुिध राम क न्ह निहं सपन ॥१॥
सुिन अवलोिक सुिचत चख चाह । भगित मोिर मित ःवािम सराह ॥
कहत नसाइ होइ िहयँ नीक । र झत राम जािन जन जी क ॥२॥
रहित न ूभु िचत चूक िकए क । करत सुरित सय बार िहए क ॥
जेिहं अघ बधेउ याध जिम बाली। िफिर सुकंठ सोइ क न्ह कुचाली ॥३॥
सोइ करतूित िबभीषन केर । सपनेहुँ सो न राम िहयँ हे र ॥
ते भरतिह भटत सनमाने । राजसभाँ रघुबीर बखाने ॥४॥

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रामचिरतमानस - 17 - बालकांड

दोहरा
ूभु त तर किप डार पर ते िकए आपु समान ॥
तुलसी कहँू न राम से सािहब सीलिनधान ॥२९(क)॥
राम िनका रावर है सबह को नीक ।
ज यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक ॥२९(ख)॥
एिह िबिध िनज गुन दोष किह सबिह बहिर
ु िस नाइ ।
बरनउँ रघुबर िबसद जसु सुिन किल कलुष नसाइ ॥२९(ग)॥

जागबिलक जो कथा सुहाई । भर ाज मुिनबरिह सुनाई ॥


किहहउँ सोइ संबाद बखानी । सुनहँु सकल स जन सुखु मानी ॥१॥
संभु क न्ह यह चिरत सुहावा । बहिर
ु कृ पा किर उमिह सुनावा ॥
सोइ िसव कागभुसुंिडिह द न्हा । राम भगत अिधकार चीन्हा ॥२॥
तेिह सन जागबिलक पुिन पावा । ितन्ह पुिन भर ाज ूित गावा ॥
ते ौोता बकता समसीला । सवँदरसी जानिहं हिरलीला ॥३॥
जानिहं तीिन काल िनज याना । करतल गत आमलक समाना ॥
औरउ जे हिरभगत सुजाना । कहिहं सुनिहं समुझिहं िबिध नाना ॥४॥

दोहरा
मै पुिन िनज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत ।
समुझी निह तिस बालपन तब अित रहे उँ अचेत ॥३०(क)॥
ौोता बकता यानिनिध कथा राम कै गूढ़ ।
िकिम समुझ मै जीव जड़ किल मल मिसत िबमूढ़ ॥३०(ख)

तदिप कह गुर बारिहं बारा । समु झ पर कछु मित अनुसारा ॥


भाषाब करिब म सोई । मोर मन ूबोध जेिहं होई ॥१॥
जस कछु बुिध िबबेक बल मेर । तस किहहउँ िहयँ हिर के ूेर ॥
िनज संदेह मोह ॅम हरनी । करउँ कथा भव सिरता तरनी ॥२॥
बुध िबौाम सकल जन रं जिन । रामकथा किल कलुष िबभंजिन ॥
रामकथा किल पंनग भरनी । पुिन िबबेक पावक कहँु अरनी ॥३॥
रामकथा किल कामद गाई । सुजन सजीविन मूिर सुहाई ॥
सोइ बसुधातल सुधा तरं िगिन । भय भंजिन ॅम भेक भुअंिगिन ॥४॥
असुर सेन सम नरक िनकंिदिन । साधु िबबुध कुल िहत िगिरनंिदिन ॥
संत समाज पयोिध रमा सी । िबःव भार भर अचल छमा सी ॥५॥
जम गन मुहँ मिस जग जमुना सी । जीवन मुकुित हे तु जनु कासी ॥
रामिह िूय पाविन तुलसी सी । तुलिसदास िहत िहयँ हलसी
ु सी ॥६॥

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रामचिरतमानस - 18 - बालकांड

िसवूय मेकल सैल सुता सी । सकल िसि सुख संपित रासी ॥


सदगुन सुरगन अंब अिदित सी । रघुबर भगित ूेम परिमित सी ॥७॥

दोहरा
राम कथा मंदािकनी िचऽकूट िचत चा ।
तुलसी सुभग सनेह बन िसय रघुबीर िबहा ॥३१॥

राम चिरत िचंतामिन चा । संत सुमित ितय सुभग िसंगा ॥


जग मंगल गुन माम राम के । दािन मुकुित धन धरम धाम के ॥१॥
सदगुर यान िबराग जोग के । िबबुध बैद भव भीम रोग के ॥
जनिन जनक िसय राम ूेम के । बीज सकल ॄत धरम नेम के ॥२॥
समन पाप संताप सोक के । िूय पालक परलोक लोक के ॥
सिचव सुभट भूपित िबचार के । कुंभज लोभ उदिध अपार के ॥३॥
काम कोह किलमल किरगन के । केहिर सावक जन मन बन के ॥
अितिथ पू य िूयतम पुरािर के । कामद घन दािरद दवािर के ॥४॥
मंऽ महामिन िबषय याल के । मेटत किठन कुअंक भाल के ॥
हरन मोह तम िदनकर कर से । सेवक सािल पाल जलधर से ॥५॥
अिभमत दािन दे वत बर से । सेवत सुलभ सुखद हिर हर से ॥
सुकिब सरद नभ मन उडगन से । रामभगत जन जीवन धन से ॥६॥
सकल सुकृत फल भूिर भोग से । जग िहत िन पिध साधु लोग से ॥
सेवक मन मानस मराल से । पावक गंग तंरग माल से ॥७॥

दोहरा
कुपथ कुतरक कुचािल किल कपट दं भ पाषंड ।
दहन राम गुन माम जिम इं धन अनल ूचंड ॥३२(क)॥
रामचिरत राकेस कर सिरस सुखद सब काहु ।
स जन कुमुद चकोर िचत िहत िबसेिष बड़ लाहु ॥३२(ख)॥

क न्ह ूःन जेिह भाँित भवानी । जेिह िबिध संकर कहा बखानी ॥
सो सब हे तु कहब म गाई । कथाूबंध िबिचऽ बनाई ॥१॥
जेिह यह कथा सुनी निहं होई । जिन आचरजु कर सुिन सोई ॥
कथा अलौिकक सुनिहं जे यानी । निहं आचरजु करिहं अस जानी ॥२ ॥
रामकथा कै िमित जग नाह ं । अिस ूतीित ितन्ह के मन माह ं ॥
नाना भाँित राम अवतारा । रामायन सत कोिट अपारा ॥३॥
कलपभेद हिरचिरत सुहाए । भाँित अनेक मुनीसन्ह गाए ॥
किरअ न संसय अस उर आनी । सुिनअ कथा सारद रित मानी ॥४॥

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रामचिरतमानस - 19 - बालकांड

दोहरा
राम अनंत अनंत गुन अिमत कथा िबःतार ।
सुिन आचरजु न मािनहिहं जन्ह क िबमल िबचार ॥३३॥

एिह िबिध सब संसय किर दरू । िसर धिर गुर पद पंकज धूर ॥
पुिन सबह िबनवउँ कर जोर । करत कथा जेिहं लाग न खोर ॥१॥
सादर िसविह नाइ अब माथा । बरनउँ िबसद राम गुन गाथा ॥
संबत सोरह सै एकतीसा । करउँ कथा हिर पद धिर सीसा ॥२॥
नौमी भौम बार मधु मासा । अवधपुर ं यह चिरत ूकासा ॥
जेिह िदन राम जनम ौुित गाविहं । तीरथ सकल तहाँ चिल आविहं ॥३॥
असुर नाग खग नर मुिन दे वा । आइ करिहं रघुनायक सेवा ॥
जन्म महो सव रचिहं सुजाना । करिहं राम कल क रित गाना ॥४॥

दोहरा
म जिह स जन बृंद बहु पावन सरजू नीर ।
जपिहं राम धिर यान उर सुंदर ःयाम सर र ॥३४॥

दरस परस म जन अ पाना । हरइ पाप कह बेद पुराना ॥


नद पुनीत अिमत मिहमा अित । किह न सकइ सारद िबमलमित ॥१॥
राम धामदा पुर सुहाविन । लोक समःत िबिदत अित पाविन ॥
चािर खािन जग जीव अपारा । अवध तजे तनु निह संसारा ॥२॥
सब िबिध पुर मनोहर जानी । सकल िसि ूद मंगल खानी ॥
िबमल कथा कर क न्ह अरं भा । सुनत नसािहं काम मद दं भा ॥३॥
रामचिरतमानस एिह नामा । सुनत ौवन पाइअ िबौामा ॥
मन किर िवषय अनल बन जरई । होइ सुखी जौ एिहं सर परई ॥४॥
रामचिरतमानस मुिन भावन । िबरचेउ संभु सुहावन पावन ॥
िऽिबध दोष दख
ु दािरद दावन । किल कुचािल कुिल कलुष नसावन ॥५॥
रिच महे स िनज मानस राखा । पाइ सुसमउ िसवा सन भाषा ॥
तात रामचिरतमानस बर । धरे उ नाम िहयँ हे िर हरिष हर ॥६॥
कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई । सादर सुनहु सुजन मन लाई ॥७॥

दोहरा
जस मानस जेिह िबिध भयउ जग ूचार जेिह हे तु ।
अब सोइ कहउँ ूसंग सब सुिमिर उमा बृषकेतु ॥३५॥

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रामचिरतमानस - 20 - बालकांड

संभु ूसाद सुमित िहयँ हलसी


ु । रामचिरतमानस किब तुलसी ॥
करइ मनोहर मित अनुहार । सुजन सुिचत सुिन लेहु सुधार ॥१॥
सुमित भूिम थल हृदय अगाधू । बेद पुरान उदिध घन साधू ॥
बरषिहं राम सुजस बर बार । मधुर मनोहर मंगलकार ॥२॥
लीला सगुन जो कहिहं बखानी । सोइ ःव छता करइ मल हानी ॥
ूेम भगित जो बरिन न जाई । सोइ मधुरता सुसीतलताई ॥३॥
सो जल सुकृत सािल िहत होई । राम भगत जन जीवन सोई ॥
मेधा मिह गत सो जल पावन । सिकिल ौवन मग चलेउ सुहावन ॥४॥
भरे उ सुमानस सुथल िथराना । सुखद सीत िच चा िचराना ॥५॥

दोहरा
सुिठ सुंदर संबाद बर िबरचे बुि िबचािर ।
तेइ एिह पावन सुभग सर घाट मनोहर चािर ॥३६॥

स ूबन्ध सुभग सोपाना । यान नयन िनरखत मन माना ॥


रघुपित मिहमा अगुन अबाधा । बरनब सोइ बर बािर अगाधा ॥१॥
राम सीय जस सिलल सुधासम । उपमा बीिच िबलास मनोरम ॥
पुरइिन सघन चा चौपाई । जुगुित मंजु मिन सीप सुहाई ॥२॥
छं द सोरठा सुंदर दोहा । सोइ बहरंु ग कमल कुल सोहा ॥
अरथ अनूप सुमाव सुभासा । सोइ पराग मकरं द सुबासा ॥३॥
सुकृत पुंज मंजुल अिल माला । यान िबराग िबचार मराला ॥
धुिन अवरे ब किबत गुन जाती । मीन मनोहर ते बहभाँ
ु ती ॥४॥
अरथ धरम कामािदक चार । कहब यान िब यान िबचार ॥
नव रस जप तप जोग िबरागा । ते सब जलचर चा तड़ागा ॥५॥
सुकृती साधु नाम गुन गाना । ते िबिचऽ जल िबहग समाना ॥
संतसभा चहँु िदिस अवँराई । ौ ा िरतु बसंत सम गाई ॥६॥
भगित िन पन िबिबध िबधाना । छमा दया दम लता िबताना ॥
सम जम िनयम फूल फल याना । हिर पत रित रस बेद बखाना ॥७॥
औरउ कथा अनेक ूसंगा । तेइ सुक िपक बहबरन
ु िबहं गा ॥८॥

दोहरा
पुलक बािटका बाग बन सुख सुिबहं ग िबहा ।
माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चा ॥३७॥

जे गाविहं यह चिरत सँभारे । तेइ एिह ताल चतुर रखवारे ॥


सदा सुनिहं सादर नर नार । तेइ सुरबर मानस अिधकार ॥१॥

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रामचिरतमानस - 21 - बालकांड

अित खल जे िबषई बग कागा । एिहं सर िनकट न जािहं अभागा ॥


संबुक भेक सेवार समाना । इहाँ न िबषय कथा रस नाना ॥२॥
तेिह कारन आवत िहयँ हारे । कामी काक बलाक िबचारे ॥
आवत एिहं सर अित किठनाई । राम कृ पा िबनु आइ न जाई ॥३॥
किठन कुसंग कुपंथ कराला । ितन्ह के बचन बाघ हिर याला ॥
गृह कारज नाना जंजाला । ते अित दगम
ु सैल िबसाला ॥४॥
बन बहु िबषम मोह मद माना । नद ं कुतक भयंकर नाना ॥५॥

दोहरा
जे ौ ा संबल रिहत निह संतन्ह कर साथ ।
ितन्ह कहँु मानस अगम अित जन्हिह न िूय रघुनाथ ॥३८॥

ज किर क जाइ पुिन कोई । जातिहं नींद जुड़ाई होई ॥


जड़ता जाड़ िबषम उर लागा । गएहँु न म जन पाव अभागा ॥१॥
किर न जाइ सर म जन पाना । िफिर आवइ समेत अिभमाना ॥
ज बहोिर कोउ पूछन आवा । सर िनंदा किर तािह बुझावा ॥२॥
सकल िब न यापिह निहं तेह । राम सुकृपाँ िबलोकिहं जेह ॥
सोइ सादर सर म जनु करई । महा घोर ऽयताप न जरई ॥३॥
ते नर यह सर तजिहं न काऊ । जन्ह के राम चरन भल भाऊ ॥
जो नहाइ चह एिहं सर भाई । सो सतसंग करउ मन लाई ॥४॥
अस मानस मानस चख चाह । भइ किब बुि िबमल अवगाह ॥
भयउ हृदयँ आनंद उछाहू । उमगेउ ूेम ूमोद ूबाहू ॥५॥
चली सुभग किबता सिरता सो । राम िबमल जस जल भिरता सो ॥
सरजू नाम सुमंगल मूला । लोक बेद मत मंजुल कूला ॥६॥
नद पुनीत सुमानस नंिदिन । किलमल तृन त मूल िनकंिदिन ॥७॥

दोहरा
ौोता िऽिबध समाज पुर माम नगर दहँु ु कूल ।
संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल ॥३९॥

रामभगित सुरसिरतिह जाई । िमली सुक रित सरजु सुहाई ॥


सानुज राम समर जसु पावन । िमलेउ महानद ु सोन सुहावन ॥१॥
जुग िबच भगित दे वधुिन धारा । सोहित सिहत सुिबरित िबचारा ॥
िऽिबध ताप ऽासक ितमुहानी । राम स प िसंधु समुहानी ॥२॥
मानस मूल िमली सुरसिरह । सुनत सुजन मन पावन किरह ॥
िबच िबच कथा िबिचऽ िबभागा । जनु सिर तीर तीर बन बागा ॥३॥

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रामचिरतमानस - 22 - बालकांड

उमा महे स िबबाह बराती । ते जलचर अगिनत बहभाँ


ु ती ॥
रघुबर जनम अनंद बधाई । भवँर तरं ग मनोहरताई ॥४॥

दोहरा
बालचिरत चहु बंधु के बनज िबपुल बहरंु ग ।
नृप रानी पिरजन सुकृत मधुकर बािरिबहं ग ॥४०॥

सीय ःवयंबर कथा सुहाई । सिरत सुहाविन सो छिब छाई ॥


नद नाव पटु ूःन अनेका । केवट कुसल उतर सिबबेका ॥१॥
सुिन अनुकथन परःपर होई । पिथक समाज सोह सिर सोई ॥
घोर धार भृगुनाथ िरसानी । घाट सुब राम बर बानी ॥२॥
सानुज राम िबबाह उछाहू । सो सुभ उमग सुखद सब काहू ॥
कहत सुनत हरषिहं पुलकाह ं । ते सुकृती मन मुिदत नहाह ं ॥३॥
राम ितलक िहत मंगल साजा । परब जोग जनु जुरे समाजा ॥
काई कुमित केकई केर । पर जासु फल िबपित घनेर ॥४॥

दोहरा
समन अिमत उतपात सब भरतचिरत जपजाग ।
किल अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग ॥४१॥

क रित सिरत छहँू िरतु र । समय सुहाविन पाविन भूर ॥


िहम िहमसैलसुता िसव याहू । िसिसर सुखद ूभु जनम उछाहू ॥१॥
बरनब राम िबबाह समाजू । सो मुद मंगलमय िरतुराजू ॥
मीषम दसह
ु राम बनगवनू । पंथकथा खर आतप पवनू ॥२॥
बरषा घोर िनसाचर रार । सुरकुल सािल सुमंगलकार ॥
राम राज सुख िबनय बड़ाई । िबसद सुखद सोइ सरद सुहाई ॥३॥
सती िसरोमिन िसय गुनगाथा । सोइ गुन अमल अनूपम पाथा ॥
भरत सुभाउ सुसीतलताई । सदा एकरस बरिन न जाई ॥४॥

दोहरा
अवलोकिन बोलिन िमलिन ूीित परसपर हास ।
भायप भिल चहु बंधु क जल माधुर सुबास ॥४२॥

आरित िबनय द नता मोर । लघुता लिलत सुबािर न थोर ॥


अदभुत सिलल सुनत गुनकार । आस िपआस मनोमल हार ॥१॥

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रामचिरतमानस - 23 - बालकांड

राम सुूेमिह पोषत पानी । हरत सकल किल कलुष गलानौ ॥


भव ौम सोषक तोषक तोषा । समन दिरत
ु दख
ु दािरद दोषा ॥२॥
काम कोह मद मोह नसावन । िबमल िबबेक िबराग बढ़ावन ॥
सादर म जन पान िकए त । िमटिहं पाप पिरताप िहए त ॥३॥
जन्ह एिह बािर न मानस धोए । ते कायर किलकाल िबगोए ॥
तृिषत िनर ख रिब कर भव बार । िफिरहिह मृग जिम जीव दखार
ु ॥४॥

दोहरा
मित अनुहािर सुबािर गुन गिन मन अन्हवाइ ।
सुिमिर भवानी संकरिह कह किब कथा सुहाइ ॥४३(क)॥
अब रघुपित पद पंक ह िहयँ धिर पाइ ूसाद ।
कहउँ जुगल मुिनबज कर िमलन सुभग संबाद ॥४३(ख)॥

भर ाज मुिन बसिहं ूयागा । ितन्हिह राम पद अित अनुरागा ॥


तापस सम दम दया िनधाना । परमारथ पथ परम सुजाना ॥१॥
माघ मकरगत रिब जब होई । तीरथपितिहं आव सब कोई ॥
दे व दनुज िकंनर नर ौेनी । सादर म जिहं सकल िऽबेनीं ॥२॥
पूजिह माधव पद जलजाता । परिस अखय बटु हरषिहं गाता ॥
भर ाज आौम अित पावन । परम र य मुिनबर मन भावन ॥३॥
तहाँ होइ मुिन िरषय समाजा । जािहं जे म जन तीरथराजा ॥
म जिहं ूात समेत उछाहा । कहिहं परसपर हिर गुन गाहा ॥४॥

दोहरा
ॄ िन पम धरम िबिध बरनिहं त व िबभाग ।
कहिहं भगित भगवंत कै संजुत यान िबराग ॥४४॥

एिह ूकार भिर माघ नहाह ं । पुिन सब िनज िनज आौम जाह ं ॥
ूित संबत अित होइ अनंदा । मकर म ज गवनिहं मुिनबृंदा ॥१॥
एक बार भिर मकर नहाए । सब मुनीस आौमन्ह िसधाए ॥
जगबािलक मुिन परम िबबेक । भर दाज राखे पद टे क ॥२॥
सादर चरन सरोज पखारे । अित पुनीत आसन बैठारे ॥
किर पूजा मुिन सुजस बखानी । बोले अित पुनीत मृद ु बानी ॥३॥
नाथ एक संसउ बड़ मोर । करगत बेदत व सबु तोर ॥
कहत सो मोिह लागत भय लाजा । जौ न कहउँ बड़ होइ अकाजा ॥४॥

दोहरा

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रामचिरतमानस - 24 - बालकांड

संत कहिह अिस नीित ूभु ौुित पुरान मुिन गाव ।


होइ न िबमल िबबेक उर गुर सन िकएँ दराव
ु ॥४५॥

अस िबचािर ूगटउँ िनज मोहू । हरहु नाथ किर जन पर छोहू ॥


रास नाम कर अिमत ूभावा । संत पुरान उपिनषद गावा ॥१॥
संतत जपत संभु अिबनासी । िसव भगवान यान गुन रासी ॥
आकर चािर जीव जग अहह ं । कासीं मरत परम पद लहह ं ॥२॥
सोिप राम मिहमा मुिनराया । िसव उपदे सु करत किर दाया ॥
रामु कवन ूभु पूछउँ तोह । किहअ बुझाइ कृ पािनिध मोह ॥३॥
एक राम अवधेस कुमारा । ितन्ह कर चिरत िबिदत संसारा ॥
नािर िबरहँ दखु
ु लहे उ अपारा । भयहु रोषु रन रावनु मारा ॥४॥

दोहरा
ूभु सोइ राम िक अपर कोउ जािह जपत िऽपुरािर ।
स यधाम सब य तु ह कहहु िबबेकु िबचािर ॥४६॥

जैसे िमटै मोर ॅम भार । कहहु सो कथा नाथ िबःतार ॥


जागबिलक बोले मुसुकाई । तु हिह िबिदत रघुपित ूभुताई ॥१॥
राममगत तु ह मन बम बानी । चतुराई तु हार म जानी ॥
चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा । क न्हहु ूःन मनहँु अित मूढ़ा ॥२॥
तात सुनहु सादर मनु लाई । कहउँ राम कै कथा सुहाई ॥
महामोहु मिहषेसु िबसाला । रामकथा कािलका कराला ॥३॥
रामकथा सिस िकरन समाना । संत चकोर करिहं जेिह पाना ॥
ऐसेइ संसय क न्ह भवानी । महादे व तब कहा बखानी ॥४॥

दोहरा
कहउँ सो मित अनुहािर अब उमा संभु संबाद ।
भयउ समय जेिह हे तु जेिह सुनु मुिन िमिटिह िबषाद ॥४७॥

एक बार ऽेता जुग माह ं । संभु गए कुंभज िरिष पाह ं ॥


संग सती जगजनिन भवानी । पूजे िरिष अ खलेःवर जानी ॥१॥
रामकथा मुनीबज बखानी । सुनी महे स परम सुखु मानी ॥
िरिष पूछ हिरभगित सुहाई । कह संभु अिधकार पाई ॥२॥
कहत सुनत रघुपित गुन गाथा । कछु िदन तहाँ रहे िगिरनाथा ॥
मुिन सन िबदा मािग िऽपुरार । चले भवन सँग द छकुमार ॥३॥

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रामचिरतमानस - 25 - बालकांड

तेिह अवसर भंजन मिहभारा । हिर रघुबंस लीन्ह अवतारा ॥


िपता बचन तज राजु उदासी । दं डक बन िबचरत अिबनासी ॥४॥

दोहरा
अदयँ िबचारत जात हर केिह िबिध दरसनु होइ ।
गु प अवतरे उ ूभु गएँ जान सबु कोइ ॥४८(क)॥

सोरठा
संकर उर अित छोभु सती न जानिहं मरमु सोइ ॥
तुलसी दरसन लोभु मन ड लोचन लालची ॥४८(ख)॥

रावन मरन मनुज कर जाचा । ूभु िबिध बचनु क न्ह चह साचा ॥


ज निहं जाउँ रहइ पिछतावा । करत िबचा न बनत बनावा ॥१॥
एिह िबिध भए सोचबस ईसा । तेिह समय जाइ दससीसा ॥
लीन्ह नीच मार चिह संगा । भयउ तुरत सोइ कपट कुरं गा ॥२॥
किर छलु मूढ़ हर बैदेह । ूभु ूभाउ तस िबिदत न तेह ॥
मृग बिध बन्धु सिहत हिर आए । आौमु दे ख नयन जल छाए ॥३॥
िबरह िबकल नर इव रघुराई । खोजत िबिपन िफरत दोउ भाई ॥
कबहँू जोग िबयोग न जाक । दे खा ूगट िबरह दख
ु ताक ॥४॥

दोहरा
अित िविचऽ रघुपित चिरत जानिहं परम सुजान ।
जे मितमंद िबमोह बस हृदयँ धरिहं कछु आन ॥४९॥

संभु समय तेिह रामिह दे खा । उपजा िहयँ अित हरपु िबसेषा ॥


भिर लोचन छिबिसंधु िनहार । कुसमय जािनन क न्ह िचन्हार ॥१॥
जय स चदानंद जग पावन । अस किह चलेउ मनोज नसावन ॥
चले जात िसव सती समेता । पुिन पुिन पुलकत कृ पािनकेता ॥२॥
सतीं सो दसा संभु कै दे खी । उर उपजा संदेहु िबसेषी ॥
संक जगतबं जगद सा । सुर नर मुिन सब नावत सीसा ॥३॥
ितन्ह नृपसुतिह नह परनामा । किह स चदानंद परधमा ॥
भए मगन छिब तासु िबलोक । अजहँु ूीित उर रहित न रोक ॥४॥

दोहरा
ॄ जो यापक िबरज अज अकल अनीह अभेद ।
सो िक दे ह धिर होइ नर जािह न जानत वेद ॥५०॥

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रामचिरतमानस - 26 - बालकांड

िबंनु जो सुर िहत नरतनु धार । सोउ सब य जथा िऽपुरार ॥


खोजइ सो िक अ य इव नार । यानधाम ौीपित असुरार ॥१॥
संभुिगरा पुिन मृषा न होई । िसव सब य जान सबु कोई ॥
अस संसय मन भयउ अपारा । होई न हृदयँ ूबोध ूचारा ॥२॥
ज िप ूगट न कहे उ भवानी । हर अंतरजामी सब जानी ॥
सुनिह सती तव नािर सुभाऊ । संसय अस न धिरअ उर काऊ ॥३॥
जासु कथा कुभंज िरिष गाई । भगित जासु म मुिनिह सुनाई ॥
सोउ मम इ दे व रघुबीरा । सेवत जािह सदा मुिन धीरा ॥४॥

छं द
मुिन धीर जोगी िस संतत िबमल मन जेिह यावह ं ।
किह नेित िनगम पुरान आगम जासु क रित गावह ं ॥
सोइ रामु यापक ॄ भुवन िनकाय पित माया धनी ।
अवतरे उ अपने भगत िहत िनजतंऽ िनत रघुकुलमिन ॥

सोरठा
लाग न उर उपदे सु जदिप कहे उ िसवँ बार बहु ।
बोले िबहिस महे सु हिरमाया बलु जािन जयँ ॥५१॥

ज तु हर मन अित संदेहू । तौ िकन जाइ पर छा लेहू ॥


तब लिग बैठ अहउँ बटछािहं । जब लिग तु ह ऐहहु मोिह पाह ॥१॥
जैस जाइ मोह ॅम भार । करे हु सो जतनु िबबेक िबचार ॥
चलीं सती िसव आयसु पाई । करिहं िबचा कर का भाई ॥२॥
इहाँ संभु अस मन अनुमाना । द छसुता कहँु निहं क याना ॥
मोरे हु कह न संसय जाह ं । िबधी िबपर त भलाई नाह ं ॥३॥
होइिह सोइ जो राम रिच राखा । को किर तक बढ़ावै साखा ॥
अस किह लगे जपन हिरनामा । गई सती जहँ ूभु सुखधामा ॥४॥

दोहरा
पुिन पुिन हृदयँ िवचा किर धिर सीता कर प ।
आग होइ चिल पंथ तेिह जेिहं आवत नरभूप ॥५२॥

लिछमन दख उमाकृ त बेषा चिकत भए ॅम हृदयँ िबसेषा ॥


किह न सकत कछु अित गंभीरा । ूभु ूभाउ जानत मितधीरा ॥१॥
सती कपटु जानेउ सुरःवामी । सबदरसी सब अंतरजामी ॥
सुिमरत जािह िमटइ अ याना । सोइ सरब य रामु भगवाना ॥२॥

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रामचिरतमानस - 27 - बालकांड

सती क न्ह चह तहँ हुँ दराऊ


ु । दे खहु नािर सुभाव ूभाऊ ॥
िनज माया बलु हृदयँ बखानी । बोले िबहिस रामु मृद ु बानी ॥३॥
जोिर पािन ूभु क न्ह ूनामू । िपता समेत लीन्ह िनज नामू ॥
कहे उ बहोिर कहाँ बृषकेतू । िबिपन अकेिल िफरहु केिह हे तू ॥४॥

दोहरा
राम बचन मृद ु गूढ़ सुिन उपजा अित संकोचु ।
सती सभीत महे स पिहं चलीं हृदयँ बड़ सोचु ॥५३॥

म संकर कर कहा न माना । िनज अ यानु राम पर आना ॥


जाइ उत अब दे हउँ काहा । उर उपजा अित दा न दाहा ॥१॥
जाना राम सतीं दखु
ु पावा । िनज ूभाउ कछु ूगिट जनावा ॥
सतीं दख कौतुकु मग जाता । आग रामु सिहत ौी ॅाता ॥२॥
िफिर िचतवा पाछ ूभु दे खा । सिहत बंधु िसय सुंदर वेषा ॥
जहँ िचतविहं तहँ ूभु आसीना । सेविहं िस मुनीस ूबीना ॥३॥
दे खे िसव िबिध िबंनु अनेका । अिमत ूभाउ एक त एका ॥
बंदत चरन करत ूभु सेवा । िबिबध बेष दे खे सब दे वा ॥४॥

दोहरा
सती िबधाऽी इं िदरा दे खीं अिमत अनूप ।
जेिहं जेिहं बेष अजािद सुर तेिह तेिह तन अनु प ॥५४॥

दे खे जहँ तहँ रघुपित जेते । सि न्ह सिहत सकल सुर तेते ॥


जीव चराचर जो संसारा । दे खे सकल अनेक ूकारा ॥१॥
पूजिहं ूभुिह दे व बहु बेषा । राम प दसर
ू निहं दे खा ॥
अवलोके रघुपित बहते
ु रे । सीता सिहत न बेष घनेरे ॥२॥
सोइ रघुबर सोइ लिछमनु सीता । दे ख सती अित भई सभीता ॥
हृदय कंप तन सुिध कछु नाह ं । नयन मूिद बैठ ं मग माह ं ॥३॥
बहिर
ु िबलोकेउ नयन उघार । कछु न दख तहँ द छकुमार ॥
पुिन पुिन नाइ राम पद सीसा । चलीं तहाँ जहँ रहे िगर सा ॥४॥

दोहरा
गई समीप महे स तब हँ िस पूछ कुसलात ।
लीन्ह पर छा कवन िबिध कहहु स य सब बात ॥५५॥

मासपारायण, दसरा
ू िवौाम

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रामचिरतमानस - 28 - बालकांड

सतीं समु झ रघुबीर ूभाऊ । भय बस िसव सन क न्ह दराऊ


ु ॥
कछु न पर छा ली न्ह गोसाई । क न्ह ूनामु तु हािरिह नाई ॥१॥
जो तु ह कहा सो मृषा न होई । मोर मन ूतीित अित सोई ॥
तब संकर दे खेउ धिर याना । सतीं जो क न्ह चिरत सब जाना ॥२॥
बहिर
ु राममायिह िस नावा । ूेिर सितिह जेिहं झूँठ कहावा ॥
हिर इ छा भावी बलवाना । हृदयँ िबचारत संभु सुजाना ॥३॥
सतीं क न्ह सीता कर बेषा । िसव उर भयउ िबषाद िबसेषा ॥
ज अब करउँ सती सन ूीती । िमटइ भगित पथु होइ अनीती ॥४॥

दोहरा
परम पुनीत न जाइ तज िकएँ ूेम बड़ पापु ।
ूगिट न कहत महे सु कछु हृदयँ अिधक संतापु ॥५६॥

तब संकर ूभु पद िस नावा । सुिमरत रामु हृदयँ अस आवा ॥


एिहं तन सितिह भेट मोिह नाह ं । िसव संक पु क न्ह मन माह ं ॥१॥
अस िबचािर संक मितधीरा । चले भवन सुिमरत रघुबीरा ॥
चलत गगन भै िगरा सुहाई । जय महे स भिल भगित ढ़ाई ॥२॥
अस पन तु ह िबनु करइ को आना । रामभगत समरथ भगवाना ॥
सुिन नभिगरा सती उर सोचा । पूछा िसविह समेत सकोचा ॥३॥
क न्ह कवन पन कहहु कृ पाला । स यधाम ूभु द नदयाला ॥
जदिप सतीं पूछा बहु भाँती । तदिप न कहे उ िऽपुर आराती ॥४॥

दोहरा
सतीं हृदय अनुमान िकय सबु जानेउ सब य ।
क न्ह कपटु म संभु सन नािर सहज जड़ अ य ॥५७॥

हृदयँ सोचु समुझत िनज करनी । िचंता अिमत जाइ निह बरनी ॥
कृ पािसंधु िसव परम अगाधा । ूगट न कहे उ मोर अपराधा ॥१॥
संकर ख अवलोिक भवानी । ूभु मोिह तजेउ हृदयँ अकुलानी ॥
िनज अघ समु झ न कछु किह जाई । तपइ अवाँ इव उर अिधकाई ॥२॥
सितिह ससोच जािन बृषकेतू । कह ं कथा सुंदर सुख हे तू ॥
बरनत पंथ िबिबध इितहासा । िबःवनाथ पहँु चे कैलासा ॥३॥
तहँ पुिन संभु समु झ पन आपन । बैठे बट तर किर कमलासन ॥
संकर सहज स प स हारा । लािग समािध अखंड अपारा ॥४॥

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रामचिरतमानस - 29 - बालकांड

दोहरा
सती बसिह कैलास तब अिधक सोचु मन मािहं ।
मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम िदवस िसरािहं ॥५८॥

िनत नव सोचु सतीं उर भारा । कब जैहउँ दख


ु सागर पारा ॥
म जो क न्ह रघुपित अपमाना । पुिनपित बचनु मृषा किर जाना ॥१॥
सो फलु मोिह िबधाताँ द न्हा । जो कछु उिचत रहा सोइ क न्हा ॥
अब िबिध अस बू झअ निह तोह । संकर िबमुख जआविस मोह ॥२॥
किह न जाई कछु हृदय गलानी । मन महँु रामािह सुिमर सयानी ॥
जौ ूभु द नदयालु कहावा । आरती हरन बेद जसु गावा ॥३॥
तौ म िबनय करउँ कर जोर । छूटउ बेिग दे ह यह मोर ॥
ज मोरे िसव चरन सनेहू । मन बम बचन स य ॄतु एहू ॥४॥

दोहरा
तौ सबदरसी सुिनअ ूभु करउ सो बेिग उपाइ ।
होइ मरनु जेह िबनिहं ौम दसह
ु िबपि िबहाइ ॥५९(क)॥

सोरठा
जलु पय सिरस िबकाइ दे खहु ूीित िक र ित भिल ।
िबलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुिन ॥५९(ख)॥

एिह िबिध द ु खत ूजेसकुमार । अकथनीय दा न दखु


ु भार ॥
बीत संबत सहस सतासी । तजी समािध संभु अिबनासी ॥१॥
राम नाम िसव सुिमरन लागे । जानेउ सतीं जगतपित जागे ॥
जाइ संभु पद बंदनु क न्ह । सनमुख संकर आसनु द न्हा ॥२॥
लगे कहन हिरकथा रसाला । द छ ूजेस भए तेिह काला ॥
दे खा िबिध िबचािर सब लायक । द छिह क न्ह ूजापित नायक ॥३॥
बड़ अिधकार द छ जब पावा । अित अिभमानु हृदयँ तब आवा ॥
निहं कोउ अस जनमा जग माह ं । ूभुता पाइ जािह मद नाह ं ॥४॥

दोहरा
द छ िलए मुिन बोिल सब करन लगे बड़ जाग ।
नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग ॥६०॥

िकंनर नाग िस गंधबा । बधुन्ह समेत चले सुर सबा ॥


िबंनु िबरं िच महे सु िबहाई । चले सकल सुर जान बनाई ॥१॥

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रामचिरतमानस - 30 - बालकांड

सतीं िबलोके योम िबमाना । जात चले सुंदर िबिध नाना ॥


सुर सुंदर करिहं कल गाना । सुनत ौवन छूटिहं मुिन याना ॥२॥
पूछेउ तब िसवँ कहे उ बखानी । िपता ज य सुिन कछु हरषानी ॥
ज महे सु मोिह आयसु दे ह ं । कुछ िदन जाइ रह िमस एह ं ॥३॥
पित पिर याग हृदय दखु
ु भार । कहइ न िनज अपराध िबचार ॥
बोली सती मनोहर बानी । भय संकोच ूेम रस सानी ॥४॥

दोहरा
िपता भवन उ सव परम ज ूभु आयसु होइ ।
तौ मै जाउँ कृ पायतन सादर दे खन सोइ ॥६१॥

कहे हु नीक मोरे हुँ मन भावा । यह अनुिचत निहं नेवत पठावा ॥


द छ सकल िनज सुता बोलाई । हमर बयर तु हउ िबसराई ॥१॥
ॄ सभाँ हम सन दखु
ु माना । तेिह त अजहँु करिहं अपमाना ॥
ज िबनु बोल जाहु भवानी । रहइ न सीलु सनेहु न कानी ॥२॥
जदिप िमऽ ूभु िपतु गुर गेहा । जाइअ िबनु बोलेहुँ न सँदेहा ॥
तदिप िबरोध मान जहँ कोई । तहाँ गएँ क यानु न होई ॥३॥
भाँित अनेक संभु समुझावा । भावी बस न यानु उर आवा ॥
कह ूभु जाहु जो िबनिहं बोलाएँ । निहं भिल बात हमारे भाएँ ॥४॥

दोहरा
किह दे खा हर जतन बहु रहइ न द छकुमािर ।
िदए मु य गन संग तब िबदा क न्ह िऽपुरािर ॥६२॥

िपता भवन जब गई भवानी । द छ ऽास काहँु न सनमानी ॥


सादर भलेिहं िमली एक माता । भिगनीं िमलीं बहत
ु मुसुकाता ॥१॥
द छ न कछु पूछ कुसलाता । सितिह िबलोिक जरे सब गाता ॥
सतीं जाइ दे खेउ तब जागा । कतहँु न दख संभु कर भागा ॥२॥
तब िचत चढ़े उ जो संकर कहे ऊ । ूभु अपमानु समु झ उर दहे ऊ ॥
पािछल दखु
ु न हृदयँ अस यापा । जस यह भयउ महा पिरतापा ॥३॥
ज िप जग दा न दख
ु नाना । सब त किठन जाित अवमाना ॥
समु झ सो सितिह भयउ अित बोधा।बहु िबिध जननीं क न्ह ूबोधा ॥४॥

दोहरा
िसव अपमानु न जाइ सिह हृदयँ न होइ ूबोध ।
सकल सभिह हिठ हटिक तब बोलीं बचन सबोध ॥६३॥

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रामचिरतमानस - 31 - बालकांड

सुनहु सभासद सकल मुिनंदा । कह सुनी जन्ह संकर िनंदा ॥


सो फलु तुरत लहब सब काहँू । भली भाँित पिछताब िपताहँू ॥१॥
संत संभु ौीपित अपबादा । सुिनअ जहाँ तहँ अिस मरजादा ॥
कािटअ तासु जीभ जो बसाई । ौवन मूिद न त चिलअ पराई ॥२॥
जगदातमा महे सु पुरार । जगत जनक सब के िहतकार ॥
िपता मंदमित िनंदत तेह । द छ सुब संभव यह दे ह ॥३॥
त जहउँ तुरत दे ह तेिह हे तू । उर धिर चंिमौिल बृषकेतू ॥
अस किह जोग अिगिन तनु जारा । भयउ सकल मख हाहाकारा ॥४॥

दोहरा
सती मरनु सुिन संभु गन लगे करन मख खीस ।
ज य िबधंस िबलोिक भृगु र छा क न्ह मुनीस ॥६४॥

समाचार सब संकर पाए । बीरभि ु किर कोप पठाए ॥


ज य िबधंस जाइ ितन्ह क न्हा । सकल सुरन्ह िबिधवत फलु द न्हा ॥१॥
भे जगिबिदत द छ गित सोई । जिस कछु संभु िबमुख कै होई ॥
यह इितहास सकल जग जानी । ताते म संछेप बखानी ॥२॥
सतीं मरत हिर सन ब मागा । जनम जनम िसव पद अनुरागा ॥
तेिह कारन िहमिगिर गृह जाई । जनमीं पारबती तनु पाई ॥३॥
जब त उमा सैल गृह जा । सकल िसि संपित तहँ छाई ॥
जहँ तहँ मुिनन्ह सुआौम क न्हे । उिचत बास िहम भूधर द न्हे ॥४॥

दोहरा
सदा सुमन फल सिहत सब िम
ु नव नाना जाित ।
ूगट ं सुंदर सैल पर मिन आकर बहु भाँित ॥६५॥

सिरता सब पुिनत जलु बहह ं । खग मृग मधुप सुखी सब रहह ं ॥


सहज बय सब जीवन्ह यागा । िगिर पर सकल करिहं अनुरागा ॥१॥
सोह सैल िगिरजा गृह आएँ । जिम जनु रामभगित के पाएँ ॥
िनत नूतन मंगल गृह तासू । ॄ ािदक गाविहं जसु जासू ॥२॥
नारद समाचार सब पाए । कौतुकह ं िगिर गेह िसधाए ॥
सैलराज बड़ आदर क न्हा । पद पखािर बर आसनु द न्हा ॥३॥
नािर सिहत मुिन पद िस नावा । चरन सिलल सबु भवनु िसंचावा ॥
िनज सौभा य बहत
ु िगिर बरना । सुता बोिल मेली मुिन चरना ॥४॥

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रामचिरतमानस - 32 - बालकांड

दोहरा
िऽकाल य सब य तु ह गित सबऽ तु हािर ॥
कहहु सुता के दोष गुन मुिनबर हृदयँ िबचािर ॥६६॥

कह मुिन िबहिस गूढ़ मृद ु बानी । सुता तु हािर सकल गुन खानी ॥
सुंदर सहज सुसील सयानी । नाम उमा अंिबका भवानी ॥१॥
सब ल छन संपन्न कुमार । होइिह संतत िपयिह िपआर ॥
सदा अचल एिह कर अिहवाता । एिह त जसु पैहिहं िपतु माता ॥२॥
होइिह पू य सकल जग माह ं । एिह सेवत कछु दलभ
ु नाह ं ॥
एिह कर नामु सुिमिर संसारा । िऽय चढ़हिहँ पितॄत अिसधारा ॥३॥
सैल सुल छन सुता तु हार । सुनहु जे अब अवगुन दइु चार ॥
अगुन अमान मातु िपतु ह ना । उदासीन सब संसय छ ना ॥४॥

दोहरा
जोगी जिटल अकाम मन नगन अमंगल बेष ॥
अस ःवामी एिह कहँ िमिलिह पर हःत अिस रे ख ॥६७॥

सुिन मुिन िगरा स य जयँ जानी । दख


ु दं पितिह उमा हरषानी ॥
नारदहँु यह भेद ु न जाना । दसा एक समुझब िबलगाना ॥१॥
सकल सखीं िगिरजा िगिर मैना । पुलक सर र भरे जल नैना ॥
होइ न मृषा दे विरिष भाषा । उमा सो बचनु हृदयँ धिर राखा ॥२॥
उपजेउ िसव पद कमल सनेहू । िमलन किठन मन भा संदेहू ॥
जािन कुअवस ूीित दराई
ु । सखी उछँ ग बैठ पुिन जाई ॥३॥
झूिठ न होइ दे विरिष बानी । सोचिह दं पित सखीं सयानी ॥
उर धिर धीर कहइ िगिरराऊ । कहहु नाथ का किरअ उपाऊ ॥४॥

दोहरा
कह मुनीस िहमवंत सुनु जो िबिध िलखा िललार ।
दे व दनुज नर नाग मुिन कोउ न मेटिनहार ॥६८॥

तदिप एक म कहउँ उपाई । होइ करै ज दै उ सहाई ॥


जस ब म बरनेउँ तु ह पाह ं । िमलिह उमिह तस संसय नाह ं ॥१॥
जे जे बर के दोष बखाने । ते सब िसव पिह म अनुमाने ॥
ज िबबाहु संकर सन होई । दोषउ गुन सम कह सबु कोई ॥२॥

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रामचिरतमानस - 33 - बालकांड

ज अिह सेज सयन हिर करह ं । बुध कछु ितन्ह कर दोषु न धरह ं ॥
भानु कृ सानु सब रस खाह ं । ितन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाह ं ॥३॥
सुभ अ असुभ सिलल सब बहई । सुरसिर कोउ अपुनीत न कहई ॥
समरथ कहँु निहं दोषु गोसाई । रिब पावक सुरसिर क नाई ॥४॥

दोहरा
ज अस िहिसषा करिहं नर जिड़ िबबेक अिभमान ।
परिहं कलप भिर नरक महँु जीव िक ईस समान ॥६९॥

सुरसिर जल कृ त बा िन जाना । कबहँु न संत करिहं तेिह पाना ॥


सुरसिर िमल सो पावन जैस । ईस अनीसिह अंत तैस ॥१॥
संभु सहज समरथ भगवाना । एिह िबबाहँ सब िबिध क याना ॥
दरारा
ु य पै अहिहं महे सू । आसुतोष पुिन िकएँ कलेसू ॥२॥
ज तपु करै कुमािर तु हार । भािवउ मेिट सकिहं िऽपुरार ॥
ज िप बर अनेक जग माह ं । एिह कहँ िसव तज दसर
ू नाह ं ॥३॥
बर दायक ूनतारित भंजन । कृ पािसंधु सेवक मन रं जन ॥
इ छत फल िबनु िसव अवराधे । लिहअ न कोिट जोग जप साध ॥४॥

दोहरा
अस किह नारद सुिमिर हिर िगिरजिह द न्ह असीस ।
होइिह यह क यान अब संसय तजहु िगर स ॥७०॥

किह अस ॄ भवन मुिन गयऊ । आिगल चिरत सुनहु जस भयऊ ॥


पितिह एकांत पाइ कह मैना । नाथ न म समुझे मुिन बैना ॥१॥
ज घ ब कुलु होइ अनूपा । किरअ िबबाहु सुता अनु पा ॥
न त कन्या ब रहउ कुआर । कंत उमा मम ूानिपआर ॥२॥
ज न िमलिह ब िगिरजिह जोगू । िगिर जड़ सहज किहिह सबु लोगू ॥
सोइ िबचािर पित करे हु िबबाहू । जेिहं न बहोिर होइ उर दाहू ॥३॥
अस किह पिर चरन धिर सीसा । बोले सिहत सनेह िगर सा ॥
ब पावक ूगटै सिस माह ं । नारद बचनु अन्यथा नाह ं ॥४॥

दोहरा
िूया सोचु पिरहरहु सबु सुिमरहु ौीभगवान ।
पारबितिह िनरमयउ जेिहं सोइ किरिह क यान ॥७१॥

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रामचिरतमानस - 34 - बालकांड

अब जौ तु हिह सुता पर नेहू । तौ अस जाइ िसखावन दे हू ॥


करै सो तपु जेिहं िमलिहं महे सू । आन उपायँ न िमटिह कलेसू ॥१॥
नारद बचन सगभ सहे तू । सुंदर सब गुन िनिध बृषकेतू ॥
अस िबचािर तु ह तजहु असंका । सबिह भाँित संक अकलंका ॥२॥
सुिन पित बचन हरिष मन माह ं । गई तुरत उिठ िगिरजा पाह ं ॥
उमिह िबलोिक नयन भरे बार । सिहत सनेह गोद बैठार ॥३॥
बारिहं बार लेित उर लाई । गदगद कंठ न कछु किह जाई ॥
जगत मातु सब य भवानी । मातु सुखद बोलीं मृद ु बानी ॥४॥

दोहरा
सुनिह मातु म दख अस सपन सुनावउँ तोिह ।
सुंदर गौर सुिबूबर अस उपदे सेउ मोिह ॥७२॥

करिह जाइ तपु सैलकुमार । नारद कहा सो स य िबचार ॥


मातु िपतिह पुिन यह मत भावा । तपु सुखूद दख
ु दोष नसावा ॥१॥
तपबल रचइ ूपंच िबधाता । तपबल िबंनु सकल जग ऽाता ॥
तपबल संभु करिहं संघारा । तपबल सेषु धरइ मिहभारा ॥२॥
तप अधार सब सृि भवानी । करिह जाइ तपु अस जयँ जानी ॥
सुनत बचन िबसिमत महतार । सपन सुनायउ िगिरिह हँ कार ॥३॥
मातु िपतुिह बहिबिध
ु समुझाई । चलीं उमा तप िहत हरषाई ॥
िूय पिरवार िपता अ माता । भए िबकल मुख आव न बाता ॥४॥

दोहरा
बेदिसरा मुिन आइ तब सबिह कहा समुझाइ ॥
पारबती मिहमा सुनत रहे ूबोधिह पाइ ॥७३॥

उर धिर उमा ूानपित चरना । जाइ िबिपन लागीं तपु करना ॥


अित सुकुमार न तनु तप जोगू । पित पद सुिमिर तजेउ सबु भोगू ॥१ ॥
िनत नव चरन उपज अनुरागा । िबसर दे ह तपिहं मनु लागा ॥
संबत सहस मूल फल खाए । सागु खाइ सत बरष गवाँए ॥२॥
कछु िदन भोजनु बािर बतासा । िकए किठन कछु िदन उपबासा ॥
बेल पाती मिह परइ सुखाई । तीिन सहस संबत सोई खाई ॥३॥
पुिन पिरहरे सुखानेउ परना । उमिह नाम तब भयउ अपरना ॥
दे ख उमिह तप खीन सर रा । ॄ िगरा भै गगन गभीरा ॥४॥

दोहरा

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रामचिरतमानस - 35 - बालकांड

भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु िगिरजाकुमािर ।


पिरह दसह
ु कलेस सब अब िमिलहिहं िऽपुरािर ॥७४॥

अस तपु काहँु न क न्ह भवानी । भउ अनेक धीर मुिन यानी ॥


अब उर धरहु ॄ बर बानी । स य सदा संतत सुिच जानी ॥१॥
आवै िपता बोलावन जबह ं । हठ पिरहिर घर जाएहु तबह ं ॥
िमलिहं तु हिह जब स िरषीसा । जानेहु तब ूमान बागीसा ॥२॥
सुनत िगरा िबिध गगन बखानी । पुलक गात िगिरजा हरषानी ॥
उमा चिरत सुंदर म गावा । सुनहु संभु कर चिरत सुहावा ॥३॥
जब त सती जाइ तनु यागा । तब स िसव मन भयउ िबरागा ॥
जपिहं सदा रघुनायक नामा । जहँ तहँ सुनिहं राम गुन मामा ॥४॥

दोहरा
िचदानन्द सुखधाम िसव िबगत मोह मद काम ।
िबचरिहं मिह धिर हृदयँ हिर सकल लोक अिभराम ॥७५॥

कतहँु मुिनन्ह उपदे सिहं याना । कतहँु राम गुन करिहं बखाना ॥
जदिप अकाम तदिप भगवाना । भगत िबरह दख
ु द ु खत सुजाना ॥१॥
एिह िबिध गयउ कालु बहु बीती । िनत नै होइ राम पद ूीती ॥
नैमु ूेमु संकर कर दे खा । अिबचल हृदयँ भगित कै रे खा ॥२॥
ूगटै रामु कृ त य कृ पाला । प सील िनिध तेज िबसाला ॥
बहु ूकार संकरिह सराहा । तु ह िबनु अस ॄतु को िनरबाहा ॥३॥
बहिबिध
ु राम िसविह समुझावा । पारबती कर जन्मु सुनावा ॥
अित पुनीत िगिरजा कै करनी । िबःतर सिहत कृ पािनिध बरनी ॥४॥

दोहरा
अब िबनती मम सुनेहु िसव ज मो पर िनज नेहु ।
जाइ िबबाहहु सैलजिह यह मोिह माग दे हु ॥७६॥

कह िसव जदिप उिचत अस नाह ं । नाथ बचन पुिन मेिट न जाह ं ॥


िसर धिर आयसु किरअ तु हारा । परम धरमु यह नाथ हमारा ॥१॥
मातु िपता गुर ूभु कै बानी । िबनिहं िबचार किरअ सुभ जानी ॥
तु ह सब भाँित परम िहतकार । अ या िसर पर नाथ तु हार ॥२॥
ूभु तोषेउ सुिन संकर बचना । भि िबबेक धम जुत रचना ॥
कह ूभु हर तु हार पन रहे ऊ । अब उर राखेहु जो हम कहे ऊ ॥३॥

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रामचिरतमानस - 36 - बालकांड

अंतरधान भए अस भाषी । संकर सोइ मूरित उर राखी ॥


तबिहं स िरिष िसव पिहं आए । बोले ूभु अित बचन सुहाए ॥४॥

दोहरा
पारबती पिहं जाइ तु ह ूेम पिर छा लेहु ।
िगिरिह ूेिर पठएहु भवन दिर
ू करे हु संदेहु ॥७७॥

िरिषन्ह गौिर दे खी तहँ कैसी । मूरितमंत तपःया जैसी ॥


बोले मुिन सुनु सैलकुमार । करहु कवन कारन तपु भार ॥१॥
केिह अवराधहु का तु ह चहहू । हम सन स य मरमु िकन कहहू ॥
कहत बचत मनु अित सकुचाई । हँ िसहहु सुिन हमािर जड़ताई ॥२॥
मनु हठ परा न सुनइ िसखावा । चहत बािर पर भीित उठावा ॥
नारद कहा स य सोइ जाना । िबनु पंखन्ह हम चहिहं उड़ाना ॥३॥
दे खहु मुिन अिबबेकु हमारा । चािहअ सदा िसविह भरतारा ॥४॥

दोहरा
सुनत बचन िबहसे िरषय िगिरसंभव तब दे ह ।
नारद कर उपदे सु सुिन कहहु बसेउ िकसु गेह ॥७८॥

द छसुतन्ह उपदे से न्ह जाई । ितन्ह िफिर भवनु न दे खा आई ॥


िचऽकेतु कर घ उन घाला । कनककिसपु कर पुिन अस हाला ॥१॥
नारद िसख जे सुनिहं नर नार । अविस होिहं तज भवनु िभखार ॥
मन कपट तन स जन चीन्हा । आपु सिरस सबह चह क न्हा ॥२॥
तेिह क बचन मािन िबःवासा । तु ह चाहहु पित सहज उदासा ॥
िनगुन िनलज कुबेष कपाली । अकुल अगेह िदगंबर याली ॥३॥
कहहु कवन सुखु अस ब पाएँ । भल भूिलहु ठग के बौराएँ ॥
पंच कह िसवँ सती िबबाह । पुिन अवडे िर मराए न्ह ताह ॥४॥

दोहरा
अब सुख सोवत सोचु निह भीख मािग भव खािहं ।
सहज एकािकन्ह के भवन कबहँु िक नािर खटािहं ॥७९॥

अजहँू मानहु कहा हमारा । हम तु ह कहँु ब नीक िबचारा ॥


अित सुंदर सुिच सुखद सुसीला । गाविहं बेद जासु जस लीला ॥१॥
दषन
ू रिहत सकल गुन रासी । ौीपित पुर बैकुंठ िनवासी ॥
अस ब तु हिह िमलाउब आनी । सुनत िबहिस कह बचन भवानी ॥२॥

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रामचिरतमानस - 37 - बालकांड

स य कहे हु िगिरभव तनु एहा । हठ न छूट छूटै ब दे हा ॥


कनकउ पुिन पषान त होई । जारे हुँ सहजु न पिरहर सोई ॥३॥
नारद बचन न म पिरहरऊँ । बसउ भवनु उजरउ निहं डरऊँ ॥
गुर क बचन ूतीित न जेह । सपनेहुँ सुगम न सुख िसिध तेह ॥४॥

दोहरा
महादे व अवगुन भवन िबंनु सकल गुन धाम ।
जेिह कर मनु रम जािह सन तेिह तेह सन काम ॥८०॥

ज तु ह िमलतेहु ूथम मुनीसा । सुनितउँ िसख तु हािर धिर सीसा ॥


अब म जन्मु संभु िहत हारा । को गुन दषन
ू करै िबचारा ॥१॥
ज तु हरे हठ हृदयँ िबसेषी । रिह न जाइ िबनु िकएँ बरे षी ॥
तौ कौतुिकअन्ह आलसु नाह ं । बर कन्या अनेक जग माह ं ॥२॥
जन्म कोिट लिग रगर हमार । बरउँ संभु न त रहउँ कुआर ॥
तजउँ न नारद कर उपदे सू । आपु कहिह सत बार महे सू ॥३॥
म पा परउँ कहइ जगदं बा । तु ह गृह गवनहु भयउ िबलंबा ॥
दे ख ूेमु बोले मुिन यानी । जय जय जगदं िबके भवानी ॥४॥

दोहरा
तु ह माया भगवान िसव सकल जगत िपतु मातु ।
नाइ चरन िसर मुिन चले पुिन पुिन हरषत गातु ॥८१॥

जाइ मुिनन्ह िहमवंतु पठाए । किर िबनती िगरजिहं गृह याए ॥


बहिर
ु स िरिष िसव पिहं जाई । कथा उमा कै सकल सुनाई ॥१॥
भए मगन िसव सुनत सनेहा । हरिष स िरिष गवने गेहा ॥
मनु िथर किर तब संभु सुजाना । लगे करन रघुनायक याना ॥२॥
तारकु असुर भयउ तेिह काला । भुज ूताप बल तेज िबसाला ॥
तिह सब लोक लोकपित जीते । भए दे व सुख संपित र ते ॥३॥
अजर अमर सो जीित न जाई । हारे सुर किर िबिबध लराई ॥
तब िबरं िच सन जाइ पुकारे । दे खे िबिध सब दे व दखारे
ु ॥४॥

दोहरा
सब सन कहा बुझाइ िबिध दनुज िनधन तब होइ ।
संभु सुब संभूत सुत एिह जीतइ रन सोइ ॥८२॥

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रामचिरतमानस - 38 - बालकांड

मोर कहा सुिन करहु उपाई । होइिह ईःवर किरिह सहाई ॥


सतीं जो तजी द छ मख दे हा । जनमी जाइ िहमाचल गेहा ॥१॥
तेिहं तपु क न्ह संभु पित लागी । िसव समािध बैठे सबु यागी ॥
जदिप अहइ असमंजस भार । तदिप बात एक सुनहु हमार ॥२॥
पठवहु कामु जाइ िसव पाह ं । करै छोभु संकर मन माह ं ॥
तब हम जाइ िसविह िसर नाई । करवाउब िबबाहु बिरआई ॥३॥
एिह िबिध भलेिह दे विहत होई । मर अित नीक कहइ सबु कोई ॥
अःतुित सुरन्ह क न्ह अित हे तू । ूगटे उ िबषमबान झषकेतू ॥४॥

दोहरा
सुरन्ह कह ं िनज िबपित सब सुिन मन क न्ह िबचार ।
संभु िबरोध न कुसल मोिह िबहिस कहे उ अस मार ॥८३॥

तदिप करब म काजु तु हारा । ौुित कह परम धरम उपकारा ॥


पर िहत लािग तजइ जो दे ह । संतत संत ूसंसिहं तेह ॥१॥
अस किह चलेउ सबिह िस नाई । सुमन धनुष कर सिहत सहाई ॥
चलत मार अस हृदयँ िबचारा । िसव िबरोध ीुव मरनु हमारा ॥२॥
तब आपन ूभाउ िबःतारा । िनज बस क न्ह सकल संसारा ॥
कोपेउ जबिह बािरचरकेतू । छन महँु िमटे सकल ौुित सेतू ॥३॥
ॄ चज ॄत संजम नाना । धीरज धरम यान िब याना ॥
सदाचार जप जोग िबरागा । सभय िबबेक कटकु सब भागा ॥४॥

छं द
भागेउ िबबेक सहाय सिहत सो सुभट संजुग मिह मुरे ।
सदमंथ पबत कंदर न्ह महँु जाइ तेिह अवसर दरेु ॥
होिनहार का करतार को रखवार जग खरभ परा ।
दइु माथ केिह रितनाथ जेिह कहँु कोिप कर धनु स धरा ॥

दोहरा
जे सजीव जग अचर चर नािर पु ष अस नाम ।
ते िनज िनज मरजाद तज भए सकल बस काम ॥८४॥

सब के हृदयँ मदन अिभलाषा । लता िनहािर नविहं त साखा ॥


नद ं उमिग अंबुिध कहँु धाई । संगम करिहं तलाव तलाई ॥१॥
जहँ अिस दसा जड़न्ह कै बरनी । को किह सकइ सचेतन करनी ॥
पसु प छ नभ जल थलचार । भए कामबस समय िबसार ॥२॥

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रामचिरतमानस - 39 - बालकांड

मदन अंध याकुल सब लोका । िनिस िदनु निहं अवलोकिहं कोका ॥


दे व दनुज नर िकंनर याला । ूेत िपसाच भूत बेताला ॥३॥
इन्ह कै दसा न कहे उँ बखानी । सदा काम के चेरे जानी ॥
िस िबर महामुिन जोगी । तेिप कामबस भए िबयोगी ॥४॥

छं द
भए कामबस जोगीस तापस पावँर न्ह क को कहै ।
दे खिहं चराचर नािरमय जे ॄ मय दे खत रहे ॥
अबला िबलोकिहं पु षमय जगु पु ष सब अबलामयं ।
दइु दं ड भिर ॄ ांड भीतर कामकृ त कौतुक अयं ॥

सोरठा
धर न काहँू िधर सबके मन मनिसज हरे ।
जे राखे रघुबीर ते उबरे तेिह काल महँु ॥८५॥

उभय घर अस कौतुक भयऊ । जौ लिग कामु संभु पिहं गयऊ ॥


िसविह िबलोिक ससंकेउ मा । भयउ जथािथित सबु संसा ॥१॥
भए तुरत सब जीव सुखारे । जिम मद उतिर गएँ मतवारे ॥
ििह दे ख मदन भय माना । दराधरष
ु दगम
ु भगवाना ॥२॥
िफरत लाज कछु किर निहं जाई । मरनु ठािन मन रचेिस उपाई ॥
ूगटे िस तुरत िचर िरतुराजा । कुसुिमत नव त रा ज िबराजा ॥३॥
बन उपबन बािपका तड़ागा । परम सुभग सब िदसा िबभागा ॥
जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा । दे ख मुएहँु मन मनिसज जागा ॥४॥

छं द
जागइ मनोभव मुएहँु मन बन सुभगता न परै कह ।
सीतल सुगंध सुमंद मा त मदन अनल सखा सह ॥
िबकसे सर न्ह बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा ।
कलहं स िपक सुक सरस रव किर गान नाचिहं अपछरा ॥

दोहरा
सकल कला किर कोिट िबिध हारे उ सेन समेत ।
चली न अचल समािध िसव कोपेउ हृदयिनकेत ॥८६॥

दे ख रसाल िबटप बर साखा । तेिह पर चढ़े उ मदनु मन माखा ॥


सुमन चाप िनज सर संधाने । अित िरस तािक ौवन लिग ताने ॥१॥

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रामचिरतमानस - 40 - बालकांड

छाड़े िबषम िबिसख उर लागे । छुिट समािध संभु तब जागे ॥


भयउ ईस मन छोभु िबसेषी । नयन उघािर सकल िदिस दे खी ॥२॥
सौरभ प लव मदनु िबलोका । भयउ कोपु कंपेउ ऽैलोका ॥
तब िसवँ तीसर नयन उघारा । िचतवत कामु भयउ जिर छारा ॥३॥
हाहाकार भयउ जग भार । डरपे सुर भए असुर सुखार ॥
समु झ कामसुखु सोचिहं भोगी । भए अकंटक साधक जोगी ॥४॥

छं द
जोिग अकंटक भए पित गित सुनत रित मु िछत भई ।
रोदित बदित बहु भाँित क ना करित संकर पिहं गई ।
अित ूेम किर िबनती िबिबध िबिध जोिर कर सन्मुख रह ।
ूभु आसुतोष कृ पाल िसव अबला िनर ख बोले सह ॥

दोहरा
अब त रित तव नाथ कर होइिह नामु अनंगु ।
िबनु बपु यािपिह सबिह पुिन सुनु िनज िमलन ूसंगु ॥८७॥

जब जदबं
ु स कृ ंन अवतारा । होइिह हरन महा मिहभारा ॥
कृ ंन तनय होइिह पित तोरा । बचनु अन्यथा होइ न मोरा ॥१॥
रित गवनी सुिन संकर बानी । कथा अपर अब कहउँ बखानी ॥
दे वन्ह समाचार सब पाए । ॄ ािदक बैकुंठ िसधाए ॥२॥
सब सुर िबंनु िबरं िच समेता । गए जहाँ िसव कृ पािनकेता ॥
पृथक पृथक ितन्ह क न्ह ूसंसा । भए ूसन्न चंि अवतंसा ॥३॥
बोले कृ पािसंधु बृषकेतू । कहहु अमर आए केिह हे तू ॥
कह िबिध तु ह ूभु अंतरजामी । तदिप भगित बस िबनवउँ ःवामी ॥४॥

दोहरा
सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु ।
िनज नयन न्ह दे खा चहिहं नाथ तु हार िबबाहु ॥८८॥

यह उ सव दे खअ भिर लोचन । सोइ कछु करहु मदन मद मोचन ।


कामु जािर रित कहँु ब द न्हा । कृ पािसंधु यह अित भल क न्हा ॥१॥
सासित किर पुिन करिहं पसाऊ । नाथ ूभुन्ह कर सहज सुभाऊ ॥
पारबतीं तपु क न्ह अपारा । करहु तासु अब अंगीकारा ॥२॥
सुिन िबिध िबनय समु झ ूभु बानी । ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी ॥
तब दे वन्ह दं द
ु भीं
ु बजा । बरिष सुमन जय जय सुर साई ॥३॥

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रामचिरतमानस - 41 - बालकांड

अवस जािन स िरिष आए । तुरतिहं िबिध िगिरभवन पठाए ॥


ूथम गए जहँ रह भवानी । बोले मधुर बचन छल सानी ॥४॥

दोहरा
कहा हमार न सुनेहु तब नारद क उपदे स ।
अब भा झूठ तु हार पन जारे उ कामु महे स ॥८९॥

मासपारायण तीसरा िवौाम

सुिन बोलीं मुसकाइ भवानी । उिचत कहे हु मुिनबर िब यानी ॥


तु हर जान कामु अब जारा । अब लिग संभु रहे सिबकारा ॥१॥
हमर जान सदा िसव जोगी । अज अनव अकाम अभोगी ॥
ज म िसव सेये अस जानी । ूीित समेत कम मन बानी ॥२॥
तौ हमार पन सुनहु मुनीसा । किरहिहं स य कृ पािनिध ईसा ॥
तु ह जो कहा हर जारे उ मारा । सोइ अित बड़ अिबबेकु तु हारा ॥३॥
तात अनल कर सहज सुभाऊ । िहम तेिह िनकट जाइ निहं काऊ ॥
गएँ समीप सो अविस नसाई । अिस मन्मथ महे स क नाई ॥४॥

दोहरा
िहयँ हरषे मुिन बचन सुिन दे ख ूीित िबःवास ॥
चले भवािनिह नाइ िसर गए िहमाचल पास ॥९०॥

सबु ूसंगु िगिरपितिह सुनावा । मदन दहन सुिन अित दखु


ु पावा ॥
बहिर
ु कहे उ रित कर बरदाना । सुिन िहमवंत बहत
ु सुखु माना ॥१॥
हृदयँ िबचािर संभु ूभुताई । सादर मुिनबर िलए बोलाई ॥
सुिदनु सुनखतु सुघर सोचाई । बेिग बेदिबिध लगन धराई ॥२॥
पऽी स िरिषन्ह सोइ द न्ह । गिह पद िबनय िहमाचल क न्ह ॥
जाइ िबिधिह द न्ह सो पाती । बाचत ूीित न हृदयँ समाती ॥३॥
लगन बािच अज सबिह सुनाई । हरषे मुिन सब सुर समुदाई ॥
सुमन बृि नभ बाजन बाजे । मंगल कलस दसहँु िदिस साजे ॥४॥

दोहरा
लगे सँवारन सकल सुर बाहन िबिबध िबमान ।
होिह सगुन मंगल सुभद करिहं अपछरा गान ॥९१॥

िसविह संभु गन करिहं िसंगारा । जटा मुकुट अिह मौ सँवारा ॥


कुंडल कंकन पिहरे याला । तन िबभूित पट केहिर छाला ॥१॥

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रामचिरतमानस - 42 - बालकांड

सिस ललाट सुंदर िसर गंगा । नयन तीिन उपबीत भुजंगा ॥


गरल कंठ उर नर िसर माला । अिसव बेष िसवधाम कृ पाला ॥२॥
कर िऽसूल अ डम िबराजा । चले बसहँ चिढ़ बाजिहं बाजा ॥
दे ख िसविह सुरिऽय मुसुकाह ं । बर लायक दलिहिन
ु जग नाह ं ॥३॥
िबंनु िबरं िच आिद सुरॄाता । चिढ़ चिढ़ बाहन चले बराता ॥
सुर समाज सब भाँित अनूपा । निहं बरात दलह
ू अनु पा ॥४॥

दोहरा
िबंनु कहा अस िबहिस तब बोिल सकल िदिसराज ।
िबलग िबलग होइ चलहु सब िनज िनज सिहत समाज ॥९२॥

बर अनुहािर बरात न भाई । हँ सी करै हहु पर पुर जाई ॥


िबंनु बचन सुिन सुर मुसकाने । िनज िनज सेन सिहत िबलगाने ॥१॥
मनह ं मन महे सु मुसुकाह ं । हिर के िबं य बचन निहं जाह ं ॥
अित िूय बचन सुनत िूय केरे । भृंिगिह ूेिर सकल गन टे रे ॥२॥
िसव अनुसासन सुिन सब आए । ूभु पद जलज सीस ितन्ह नाए ॥
नाना बाहन नाना बेषा । िबहसे िसव समाज िनज दे खा ॥३॥
कोउ मुखह न िबपुल मुख काहू । िबनु पद कर कोउ बहु पद बाहू ॥
िबपुल नयन कोउ नयन िबह ना । िर पु कोउ अित तनखीना ॥४॥

छं द
तन खीन कोउ अित पीन पावन कोउ अपावन गित धर ।
भूषन कराल कपाल कर सब स सोिनत तन भर ॥
खर ःवान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगिनत को गनै ।
बहु जनस ूेत िपसाच जोिग जमात बरनत निहं बनै ॥

सोरठा
नाचिहं गाविहं गीत परम तरं गी भूत सब ।
दे खत अित िबपर त बोलिहं बचन िबिचऽ िबिध ॥९३॥

जस दलह
ू ु तिस बनी बराता । कौतुक िबिबध होिहं मग जाता ॥
इहाँ िहमाचल रचेउ िबताना । अित िबिचऽ निहं जाइ बखाना ॥१॥
सैल सकल जहँ लिग जग माह ं । लघु िबसाल निहं बरिन िसराह ं ॥
बन सागर सब नद ं तलावा । िहमिगिर सब कहँु नेवत पठावा ॥२॥
काम प सुंदर तन धार । सिहत समाज सिहत बर नार ॥
गए सकल तुिहनाचल गेहा । गाविहं मंगल सिहत सनेहा ॥३॥

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रामचिरतमानस - 43 - बालकांड

ूथमिहं िगिर बहु गृह सँवराए । जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए ॥


पुर सोभा अवलोिक सुहाई । लागइ लघु िबरं िच िनपुनाई ॥४॥

छं द
लघु लाग िबिध क िनपुनता अवलोिक पुर सोभा सह ।
बन बाग कूप तड़ाग सिरता सुभग सब सक को कह ॥
मंगल िबपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहह ं ॥
बिनता पु ष सुंदर चतुर छिब दे ख मुिन मन मोहह ं ॥

दोहरा
जगदं बा जहँ अवतर सो पु बरिन िक जाइ ।
िरि िसि संपि सुख िनत नूतन अिधकाइ ॥९४॥

नगर िनकट बरात सुिन आई । पुर खरभ सोभा अिधकाई ॥


किर बनाव सज बाहन नाना । चले लेन सादर अगवाना ॥१॥
िहयँ हरषे सुर सेन िनहार । हिरिह दे ख अित भए सुखार ॥
िसव समाज जब दे खन लागे । िबडिर चले बाहन सब भागे ॥२॥
धिर धीरजु तहँ रहे सयाने । बालक सब लै जीव पराने ॥
गएँ भवन पूछिहं िपतु माता । कहिहं बचन भय कंिपत गाता ॥३॥
किहअ काह किह जाइ न बाता । जम कर धार िकध बिरआता ॥
ब बौराह बसहँ असवारा । याल कपाल िबभूषन छारा ॥४॥

छं द
तन छार याल कपाल भूषन नगन जिटल भयंकरा ।
सँग भूत ूेत िपसाच जोिगिन िबकट मुख रजनीचरा ॥
जो जअत रिहिह बरात दे खत पुन्य बड़ तेिह कर सह ।
दे खिह सो उमा िबबाहु घर घर बात अिस लिरकन्ह कह ॥

दोहरा
समु झ महे स समाज सब जनिन जनक मुसुकािहं ।
बाल बुझाए िबिबध िबिध िनडर होहु ड नािहं ॥९५॥

लै अगवान बरातिह आए । िदए सबिह जनवास सुहाए ॥


मैनाँ सुभ आरती सँवार । संग सुमंगल गाविहं नार ॥१॥
कंचन थार सोह बर पानी । पिरछन चली हरिह हरषानी ॥
िबकट बेष ििह जब दे खा । अबलन्ह उर भय भयउ िबसेषा ॥२॥

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रामचिरतमानस - 44 - बालकांड

भािग भवन पैठ ं अित ऽासा । गए महे सु जहाँ जनवासा ॥


मैना हृदयँ भयउ दखु
ु भार । लीन्ह बोिल िगर सकुमार ॥३॥
अिधक सनेहँ गोद बैठार । ःयाम सरोज नयन भरे बार ॥
जेिहं िबिध तु हिह पु अस द न्हा । तेिहं जड़ ब बाउर कस क न्हा ॥४॥

छं द
कस क न्ह ब बौराह िबिध जेिहं तु हिह सुंदरता दई ।
जो फलु चिहअ सुरत िहं सो बरबस बबूरिहं लागई ॥
तु ह सिहत िगिर त िगर पावक जर जलिनिध महँु पर ॥
घ जाउ अपजसु होउ जग जीवत िबबाहु न ह कर ॥

दोहरा
भई िबकल अबला सकल द ु खत दे ख िगिरनािर ।
किर िबलापु रोदित बदित सुता सनेहु सँभािर ॥९६॥

नारद कर म काह िबगारा । भवनु मोर जन्ह बसत उजारा ॥


अस उपदे सु उमिह जन्ह द न्हा । बौरे बरिह लिग तपु क न्हा ॥१॥
साचेहुँ उन्ह के मोह न माया । उदासीन धनु धामु न जाया ॥
पर घर घालक लाज न भीरा । बाझँ िक जान ूसव क पीरा ॥२॥
जनिनिह िबकल िबलोिक भवानी । बोली जुत िबबेक मृद ु बानी ॥
अस िबचािर सोचिह मित माता । सो न टरइ जो रचइ िबधाता ॥३॥
करम िलखा जौ बाउर नाहू । तौ कत दोसु लगाइअ काहू ॥
तु ह सन िमटिहं िक िबिध के अंका । मातु यथ जिन लेहु कलंका ॥४॥

छं द
जिन लेहु मातु कलंकु क ना पिरहरहु अवसर नह ं ।
दखु
ु सुखु जो िलखा िललार हमर जाब जहँ पाउब तह ं ॥
सुिन उमा बचन िबनीत कोमल सकल अबला सोचह ं ॥
बहु भाँित िबिधिह लगाइ दषन
ू नयन बािर िबमोचह ं ॥

दोहरा
तेिह अवसर नारद सिहत अ िरिष स समेत ।
समाचार सुिन तुिहनिगिर गवने तुरत िनकेत ॥९७॥

तब नारद सबिह समुझावा । पू ब कथाूसंगु सुनावा ॥


मयना स य सुनहु मम बानी । जगदं बा तव सुता भवानी ॥१॥

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रामचिरतमानस - 45 - बालकांड

अजा अनािद सि अिबनािसिन । सदा संभु अरधंग िनवािसिन ॥


जग संभव पालन लय कािरिन । िनज इ छा लीला बपु धािरिन ॥२॥
जनमीं ूथम द छ गृह जाई । नामु सती सुंदर तनु पाई ॥
तहँ हुँ सती संकरिह िबबाह ं । कथा ूिस सकल जग माह ं ॥३॥
एक बार आवत िसव संगा । दे खेउ रघुकुल कमल पतंगा ॥
भयउ मोहु िसव कहा न क न्हा । ॅम बस बेषु सीय कर लीन्हा ॥४॥

छं द
िसय बेषु सती जो क न्ह तेिह अपराध संकर पिरहर ं ।
हर िबरहँ जाइ बहोिर िपतु क ज य जोगानल जर ं ॥
अब जनिम तु हरे भवन िनज पित लािग दा न तपु िकया ।
अस जािन संसय तजहु िगिरजा सबदा संकर िूया ॥

दोहरा
सुिन नारद के बचन तब सब कर िमटा िबषाद ।
छन महँु यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद ॥९८॥

तब मयना िहमवंतु अनंदे । पुिन पुिन पारबती पद बंदे ॥


नािर पु ष िससु जुबा सयाने । नगर लोग सब अित हरषाने ॥१॥
लगे होन पुर मंगलगाना । सजे सबिह हाटक घट नाना ॥
भाँित अनेक भई जेवराना । सूपसा जस कछु यवहारा ॥२॥
सो जेवनार िक जाइ बखानी । बसिहं भवन जेिहं मातु भवानी ॥
सादर बोले सकल बराती । िबंनु िबरं िच दे व सब जाती ॥३॥
िबिबिध पाँित बैठ जेवनारा । लागे प सन िनपुन सुआरा ॥
नािरबृंद सुर जेवँत जानी । लगीं दे न गार ं मृद ु बानी ॥४॥

छं द
गार ं मधुर ःवर दे िहं सुंदिर िबं य बचन सुनावह ं ।
भोजनु करिहं सुर अित िबलंबु िबनोद ु सुिन सचु पावह ं ॥
जेवँत जो बकयो अनंद ु सो मुख कोिटहँू न परै क ो ।
अचवाँइ द न्हे पान गवने बास जहँ जाको र ो ॥

दोहरा
बहिर
ु मुिनन्ह िहमवंत कहँु लगन सुनाई आइ ।
समय िबलोिक िबबाह कर पठए दे व बोलाइ ॥९९॥

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रामचिरतमानस - 46 - बालकांड

बोिल सकल सुर सादर लीन्हे । सबिह जथोिचत आसन द न्हे ॥


बेद बेद िबधान सँवार । सुभग सुमंगल गाविहं नार ॥१॥
िसंघासनु अित िद य सुहावा । जाइ न बरिन िबरं िच बनावा ॥
बैठे िसव िबून्ह िस नाई । हृदयँ सुिमिर िनज ूभु रघुराई ॥२॥
बहिर
ु मुनीसन्ह उमा बोलाई । किर िसंगा सखीं लै आई ॥
दे खत पु सकल सुर मोहे । बरनै छिब अस जग किब को है ॥३॥
जगदं िबका जािन भव भामा । सुरन्ह मनिहं मन क न्ह ूनामा ॥
सुंदरता मरजाद भवानी । जाइ न कोिटहँु बदन बखानी ॥४॥

छं द
कोिटहँु बदन निहं बनै बरनत जग जनिन सोभा महा ।
सकुचिहं कहत ौुित सेष सारद मंदमित तुलसी कहा ॥
छिबखािन मातु भवािन गवनी म य मंडप िसव जहाँ ॥
अवलोिक सकिहं न सकुच पित पद कमल मनु मधुक तहाँ ॥

दोहरा
मुिन अनुसासन गनपितिह पूजेउ संभु भवािन ।
कोउ सुिन संसय करै जिन सुर अनािद जयँ जािन ॥१००॥

जिस िबबाह कै िबिध ौुित गाई । महामुिनन्ह सो सब करवाई ॥


गिह िगर स कुस कन्या पानी । भविह समरपीं जािन भवानी ॥१॥
पािनमहन जब क न्ह महे सा । िहं यँ हरषे तब सकल सुरेसा ॥
बेद मंऽ मुिनबर उ चरह ं । जय जय जय संकर सुर करह ं ॥२॥
बाजिहं बाजन िबिबध िबधाना । सुमनबृि नभ भै िबिध नाना ॥
हर िगिरजा कर भयउ िबबाहू । सकल भुवन भिर रहा उछाहू ॥३॥
दासीं दास तुरग रथ नागा । धेनु बसन मिन बःतु िबभागा ॥
अन्न कनकभाजन भिर जाना । दाइज द न्ह न जाइ बखाना ॥४॥

छं द
दाइज िदयो बहु भाँित पुिन कर जोिर िहमभूधर क ो ।
का दे उँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गिह र ो ॥
िसवँ कृ पासागर ससुर कर संतोषु सब भाँितिहं िकयो ।
पुिन गहे पद पाथोज मयनाँ ूेम पिरपूरन िहयो ॥

दोहरा

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रामचिरतमानस - 47 - बालकांड

नाथ उमा मन ूान सम गृहिकंकर करे हु ।


छमेहु सकल अपराध अब होइ ूसन्न ब दे हु ॥१०१॥

बहु िबिध संभु सास समुझाई । गवनी भवन चरन िस नाई ॥


जननीं उमा बोिल तब लीन्ह । लै उछं ग सुंदर िसख द न्ह ॥१॥
करे हु सदा संकर पद पूजा । नािरधरमु पित दे उ न दजा
ू ॥
बचन कहत भरे लोचन बार । बहिर
ु लाइ उर ली न्ह कुमार ॥२॥
कत िबिध सृजीं नािर जग माह ं । पराधीन सपनेहुँ सुखु नाह ं ॥
भै अित ूेम िबकल महतार । धीरजु क न्ह कुसमय िबचार ॥३॥
पुिन पुिन िमलित परित गिह चरना । परम ूेम कछु जाइ न बरना ॥
सब नािरन्ह िमिल भेिट भवानी । जाइ जनिन उर पुिन लपटानी ॥४॥

छं द
जनिनिह बहिर
ु िमिल चली उिचत असीस सब काहँू द ।
िफिर िफिर िबलोकित मातु तन तब सखीं लै िसव पिहं गई ॥
जाचक सकल संतोिष संक उमा सिहत भवन चले ।
सब अमर हरषे सुमन बरिष िनसान नभ बाजे भले ॥

दोहरा
चले संग िहमवंतु तब पहँु चावन अित हे तु ।
िबिबध भाँित पिरतोषु किर िबदा क न्ह बृषकेतु ॥१०२॥

तुरत भवन आए िगिरराई । सकल सैल सर िलए बोलाई ॥


आदर दान िबनय बहमाना
ु । सब कर िबदा क न्ह िहमवाना ॥१॥
जबिहं संभु कैलासिहं आए । सुर सब िनज िनज लोक िसधाए ॥
जगत मातु िपतु संभु भवानी । तेह िसंगा न कहउँ बखानी ॥२॥
करिहं िबिबध िबिध भोग िबलासा । गनन्ह समेत बसिहं कैलासा ॥
हर िगिरजा िबहार िनत नयऊ । एिह िबिध िबपुल काल चिल गयऊ ॥३॥
तब जनमेउ षटबदन कुमारा । तारकु असुर समर जेिहं मारा ॥
आगम िनगम ूिस पुराना । षन्मुख जन्मु सकल जग जाना ॥४॥

छं द
जगु जान षन्मुख जन्मु कमु ूतापु पु षारथु महा ।
तेिह हे तु म बृषकेतु सुत कर चिरत संछेपिहं कहा ॥
यह उमा संगु िबबाहु जे नर नािर कहिहं जे गावह ं ।
क यान काज िबबाह मंगल सबदा सुखु पावह ं ॥

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रामचिरतमानस - 48 - बालकांड

दोहरा
चिरत िसंधु िगिरजा रमन बेद न पाविहं पा ।
बरनै तुलसीदासु िकिम अित मितमंद गवाँ ॥१०३॥

संभु चिरत सुिन सरस सुहावा । भर ाज मुिन अित सुख पावा ॥


बहु लालसा कथा पर बाढ़ । नयन न्ह नी रोमाविल ठाढ़ ॥१॥
ूेम िबबस मुख आव न बानी । दसा दे ख हरषे मुिन यानी ॥
अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा । तु हिह ूान सम िूय गौर सा ॥२॥
िसव पद कमल जन्हिह रित नाह ं । रामिह ते सपनेहुँ न सोहाह ं ॥
िबनु छल िबःवनाथ पद नेहू । राम भगत कर ल छन एहू ॥३॥
िसव सम को रघुपित ॄतधार । िबनु अघ तजी सती अिस नार ॥
पनु किर रघुपित भगित दे खाई । को िसव सम रामिह िूय भाई ॥४॥

दोहरा
ूथमिहं मै किह िसव चिरत बूझा मरमु तु हार ।
सुिच सेवक तु ह राम के रिहत समःत िबकार ॥१०४॥

म जाना तु हार गुन सीला । कहउँ सुनहु अब रघुपित लीला ॥


सुनु मुिन आजु समागम तोर । किह न जाइ जस सुखु मन मोर ॥१॥
राम चिरत अित अिमत मुिनसा । किह न सकिहं सत कोिट अह सा ॥
तदिप जथाौुत कहउँ बखानी । सुिमिर िगरापित ूभु धनुपानी ॥२॥
सारद दा नािर सम ःवामी । रामु सूऽधर अंतरजामी ॥
जेिह पर कृ पा करिहं जनु जानी । किब उर अ जर नचाविहं बानी ॥३॥
ूनवउँ सोइ कृ पाल रघुनाथा । बरनउँ िबसद तासु गुन गाथा ॥
परम र य िगिरब कैलासू । सदा जहाँ िसव उमा िनवासू ॥४॥

दोहरा
िस तपोधन जोिगजन सूर िकंनर मुिनबृंद ।
बसिहं तहाँ सुकृती सकल सेविहं िसब सुखकंद ॥१०५॥

हिर हर िबमुख धम रित नाह ं । ते नर तहँ सपनेहुँ निहं जाह ं ॥


तेिह िगिर पर बट िबटप िबसाला । िनत नूतन सुंदर सब काला ॥१॥
िऽिबध समीर सुसीतिल छाया । िसव िबौाम िबटप ौुित गाया ॥
एक बार तेिह तर ूभु गयऊ । त िबलोिक उर अित सुखु भयऊ ॥२॥

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रामचिरतमानस - 49 - बालकांड

िनज कर डािस नागिरपु छाला । बैठै सहजिहं संभु कृ पाला ॥


कुंद इं द ु दर गौर सर रा । भुज ूलंब पिरधन मुिनचीरा ॥३॥
त न अ न अंबुज सम चरना । नख दित
ु भगत हृदय तम हरना ॥
भुजग भूित भूषन िऽपुरार । आननु सरद चंद छिब हार ॥४॥

दोहरा
जटा मुकुट सुरसिरत िसर लोचन निलन िबसाल ।
नीलकंठ लावन्यिनिध सोह बालिबधु भाल ॥१०६॥

बैठे सोह कामिरपु कैस । धर सर सांतरसु जैस ॥


पारबती भल अवस जानी । गई संभु पिहं मातु भवानी ॥१॥
जािन िूया आद अित क न्हा । बाम भाग आसनु हर द न्हा ॥
बैठ ं िसव समीप हरषाई । पू ब जन्म कथा िचत आई ॥२॥
पित िहयँ हे तु अिधक अनुमानी । िबहिस उमा बोलीं िूय बानी ॥
कथा जो सकल लोक िहतकार । सोइ पूछन चह सैलकुमार ॥३॥
िबःवनाथ मम नाथ पुरार । िऽभुवन मिहमा िबिदत तु हार ॥
चर अ अचर नाग नर दे वा । सकल करिहं पद पंकज सेवा ॥४॥

दोहरा
ूभु समरथ सब य िसव सकल कला गुन धाम ॥
जोग यान बैरा य िनिध ूनत कलपत नाम ॥१०७॥

ज मो पर ूसन्न सुखरासी । जािनअ स य मोिह िनज दासी ॥


त ूभु हरहु मोर अ याना । किह रघुनाथ कथा िबिध नाना ॥१॥
जासु भवनु सुरत तर होई । सिह िक दिरि जिनत दखु
ु सोई ॥
सिसभूषन अस हृदयँ िबचार । हरहु नाथ मम मित ॅम भार ॥२॥
ूभु जे मुिन परमारथबाद । कहिहं राम कहँु ॄ अनाद ॥
सेस सारदा बेद पुराना । सकल करिहं रघुपित गुन गाना ॥३॥
तु ह पुिन राम राम िदन राती । सादर जपहु अनँग आराती ॥
रामु सो अवध नृपित सुत सोई । क अज अगुन अलखगित कोई ॥४॥

दोहरा
ज नृप तनय त ॄ िकिम नािर िबरहँ मित भोिर ।
दे ख चिरत मिहमा सुनत ॅमित बुि अित मोिर ॥१०८॥

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रामचिरतमानस - 50 - बालकांड

ज अनीह यापक िबभु कोऊ । कबहु बुझाइ नाथ मोिह सोऊ ॥


अ य जािन िरस उर जिन धरहू । जेिह िबिध मोह िमटै सोइ करहू ॥१॥
मै बन द ख राम ूभुताई । अित भय िबकल न तु हिह सुनाई ॥
तदिप मिलन मन बोधु न आवा । सो फलु भली भाँित हम पावा ॥२॥
अजहँू कछु संसउ मन मोरे । करहु कृ पा िबनवउँ कर जोर ॥
ूभु तब मोिह बहु भाँित ूबोधा । नाथ सो समु झ करहु जिन बोधा ॥३॥
तब कर अस िबमोह अब नाह ं । रामकथा पर िच मन माह ं ॥
कहहु पुनीत राम गुन गाथा । भुजगराज भूषन सुरनाथा ॥४॥

दोहरा
बंदउ पद धिर धरिन िस िबनय करउँ कर जोिर ।
बरनहु रघुबर िबसद जसु ौुित िस ांत िनचोिर ॥१०९॥

जदिप जोिषता निहं अिधकार । दासी मन बम बचन तु हार ॥


गूढ़उ त व न साधु दराविहं
ु । आरत अिधकार जहँ पाविहं ॥१॥
अित आरित पूछउँ सुरराया । रघुपित कथा कहहु किर दाया ॥
ूथम सो कारन कहहु िबचार । िनगुन ॄ सगुन बपु धार ॥२॥
पुिन ूभु कहहु राम अवतारा । बालचिरत पुिन कहहु उदारा ॥
कहहु जथा जानक िबबाह ं । राज तजा सो दष
ू न काह ं ॥३॥
बन बिस क न्हे चिरत अपारा । कहहु नाथ जिम रावन मारा ॥
राज बैिठ क न्ह ं बहु लीला । सकल कहहु संकर सुखलीला ॥४॥

दोहरा
बहिर
ु कहहु क नायतन क न्ह जो अचरज राम ।
ूजा सिहत रघुबंसमिन िकिम गवने िनज धाम ॥११०॥

पुिन ूभु कहहु सो त व बखानी । जेिहं िब यान मगन मुिन यानी ॥


भगित यान िब यान िबरागा । पुिन सब बरनहु सिहत िबभागा ॥१॥
औरउ राम रहःय अनेका । कहहु नाथ अित िबमल िबबेका ॥
जो ूभु म पूछा निह होई । सोउ दयाल राखहु जिन गोई ॥२॥
तु ह िऽभुवन गुर बेद बखाना । आन जीव पाँवर का जाना ॥
ूःन उमा कै सहज सुहाई । छल िबह न सुिन िसव मन भाई ॥३॥
हर िहयँ रामचिरत सब आए । ूेम पुलक लोचन जल छाए ॥
ौीरघुनाथ प उर आवा । परमानंद अिमत सुख पावा ॥४॥

दोहरा

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रामचिरतमानस - 51 - बालकांड

मगन यानरस दं ड जुग पुिन मन बाहे र क न्ह ।


रघुपित चिरत महे स तब हरिषत बरनै लीन्ह ॥१११॥

झूठेउ स य जािह िबनु जान । जिम भुजंग िबनु रजु पिहचान ॥


जेिह जान जग जाइ हे राई । जाग जथा सपन ॅम जाई ॥१॥
बंदउँ बाल प सोई रामू । सब िसिध सुलभ जपत जसु नामू ॥
मंगल भवन अमंगल हार । िवउ सो दसरथ अ जर िबहार ॥२॥
किर ूनाम रामिह िऽपुरार । हरिष सुधा सम िगरा उचार ॥
धन्य धन्य िगिरराजकुमार । तु ह समान निहं कोउ उपकार ॥३॥
पूँछेहु रघुपित कथा ूसंगा । सकल लोक जग पाविन गंगा ॥
तु ह रघुबीर चरन अनुरागी । क न्हहु ूःन जगत िहत लागी ॥४॥

दोहरा
रामकृ पा त पारबित सपनेहुँ तव मन मािहं ।
सोक मोह संदेह ॅम मम िबचार कछु नािहं ॥११२॥

तदिप असंका क न्हहु सोई । कहत सुनत सब कर िहत होई ॥


जन्ह हिर कथा सुनी निहं काना । ौवन रं ी अिहभवन समाना ॥१॥
नयन न्ह संत दरस निहं दे खा । लोचन मोरपंख कर लेखा ॥
ते िसर कटु तुंबिर समतूला । जे न नमत हिर गुर पद मूला ॥२॥
जन्ह हिरभगित हृदयँ निहं आनी । जीवत सव समान तेइ ूानी ॥
जो निहं करइ राम गुन गाना । जीह सो दादरु जीह समाना ॥३॥
कुिलस कठोर िनठु र सोइ छाती । सुिन हिरचिरत न जो हरषाती ॥
िगिरजा सुनहु राम कै लीला । सुर िहत दनुज िबमोहनसीला ॥४॥

दोहरा
रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दािन ।
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जािन ॥११३॥

रामकथा सुंदर कर तार । संसय िबहग उडाविनहार ॥


रामकथा किल िबटप कुठार । सादर सुनु िगिरराजकुमार ॥१॥
राम नाम गुन चिरत सुहाए । जनम करम अगिनत ौुित गाए ॥
जथा अनंत राम भगवाना । तथा कथा क रित गुन नाना ॥२॥
तदिप जथा ौुत जिस मित मोर । किहहउँ दे ख ूीित अित तोर ॥
उमा ूःन तव सहज सुहाई । सुखद संतसंमत मोिह भाई ॥३॥

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रामचिरतमानस - 52 - बालकांड

एक बात निह मोिह सोहानी । जदिप मोह बस कहे हु भवानी ॥


तुम जो कहा राम कोउ आना । जेिह ौुित गाव धरिहं मुिन याना ॥४॥

दोहरा
कहिह सुनिह अस अधम नर मसे जे मोह िपसाच ।
पाषंड हिर पद िबमुख जानिहं झूठ न साच ॥११४॥

अ य अकोिबद अंध अभागी । काई िबषय मुकर मन लागी ॥


लंपट कपट कुिटल िबसेषी । सपनेहुँ संतसभा निहं दे खी ॥१॥
कहिहं ते बेद असंमत बानी । जन्ह क सूझ लाभु निहं हानी ॥
मुकर मिलन अ नयन िबह ना । राम प दे खिहं िकिम द ना ॥२॥
जन्ह क अगुन न सगुन िबबेका । ज पिहं क पत बचन अनेका ॥
हिरमाया बस जगत ॅमाह ं । ितन्हिह कहत कछु अघिटत नाह ं ॥३॥
बातुल भूत िबबस मतवारे । ते निहं बोलिहं बचन िबचारे ॥
जन्ह कृ त महामोह मद पाना । ितन ् कर कहा किरअ निहं काना ॥४॥

सोरठा
अस िनज हृदयँ िबचािर तजु संसय भजु राम पद ।
सुनु िगिरराज कुमािर ॅम तम रिब कर बचन मम ॥११५॥

सगुनिह अगुनिह निहं कछु भेदा । गाविहं मुिन पुरान बुध बेदा ॥
अगुन अ प अलख अज जोई । भगत ूेम बस सगुन सो होई ॥१॥
जो गुन रिहत सगुन सोइ कैस । जलु िहम उपल िबलग निहं जैस ॥
जासु नाम ॅम ितिमर पतंगा । तेिह िकिम किहअ िबमोह ूसंगा ॥२॥
राम स चदानंद िदनेसा । निहं तहँ मोह िनसा लवलेसा ॥
सहज ूकास प भगवाना । निहं तहँ पुिन िब यान िबहाना ॥३॥
हरष िबषाद यान अ याना । जीव धम अहिमित अिभमाना ॥
राम ॄ यापक जग जाना । परमानन्द परे स पुराना ॥४॥

दोहरा
पु ष ूिस ूकास िनिध ूगट परावर नाथ ॥
रघुकुलमिन मम ःवािम सोइ किह िसवँ नायउ माथ ॥११६॥

िनज ॅम निहं समुझिहं अ यानी । ूभु पर मोह धरिहं जड़ ूानी ॥


जथा गगन घन पटल िनहार । झाँपेउ मानु कहिहं कुिबचार ॥१॥

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रामचिरतमानस - 53 - बालकांड

िचतव जो लोचन अंगुिल लाएँ । ूगट जुगल सिस तेिह के भाएँ ॥


उमा राम िबषइक अस मोहा । नभ तम धूम धूिर जिम सोहा ॥२॥
िबषय करन सुर जीव समेता । सकल एक त एक सचेता ॥
सब कर परम ूकासक जोई । राम अनािद अवधपित सोई ॥३॥
जगत ूकाःय ूकासक रामू । मायाधीस यान गुन धामू ॥
जासु स यता त जड माया । भास स य इव मोह सहाया ॥४॥

दोहरा
रजत सीप महँु मास जिम जथा भानु कर बािर ।
जदिप मृषा ितहँु काल सोइ ॅम न सकइ कोउ टािर ॥११७॥

एिह िबिध जग हिर आिौत रहई । जदिप अस य दे त दख


ु अहई ॥
ज सपन िसर काटै कोई । िबनु जाग न दिर
ू दख
ु होई ॥१॥
जासु कृ पाँ अस ॅम िमिट जाई । िगिरजा सोइ कृ पाल रघुराई ॥
आिद अंत कोउ जासु न पावा । मित अनुमािन िनगम अस गावा ॥२॥
िबनु पद चलइ सुनइ िबनु काना । कर िबनु करम करइ िबिध नाना ॥
आनन रिहत सकल रस भोगी । िबनु बानी बकता बड़ जोगी ॥३॥
तनु िबनु परस नयन िबनु दे खा । महइ यान िबनु बास असेषा ॥
अिस सब भाँित अलौिकक करनी । मिहमा जासु जाइ निहं बरनी ॥४॥

दोहरा
जेिह इिम गाविह बेद बुध जािह धरिहं मुिन यान ॥
सोइ दसरथ सुत भगत िहत कोसलपित भगवान ॥११८॥

कासीं मरत जंतु अवलोक । जासु नाम बल करउँ िबसोक ॥


सोइ ूभु मोर चराचर ःवामी । रघुबर सब उर अंतरजामी ॥१॥
िबबसहँु जासु नाम नर कहह ं । जनम अनेक रिचत अघ दहह ं ॥
सादर सुिमरन जे नर करह ं । भव बािरिध गोपद इव तरह ं ॥२॥
राम सो परमातमा भवानी । तहँ ॅम अित अिबिहत तव बानी ॥
अस संसय आनत उर माह ं । यान िबराग सकल गुन जाह ं ॥३॥
सुिन िसव के ॅम भंजन बचना । िमिट गै सब कुतरक कै रचना ॥
भइ रघुपित पद ूीित ूतीती । दा न असंभावना बीती ॥४॥

दोहरा

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रामचिरतमानस - 54 - बालकांड

पुिन पुिन ूभु पद कमल गिह जोिर पंक ह पािन ।


बोली िगिरजा बचन बर मनहँु ूेम रस सािन ॥११९॥

सिस कर सम सुिन िगरा तु हार । िमटा मोह सरदातप भार ॥


तु ह कृ पाल सबु संसउ हरे ऊ । राम ःव प जािन मोिह परे ऊ ॥१॥
नाथ कृ पाँ अब गयउ िबषादा । सुखी भयउँ ूभु चरन ूसादा ॥
अब मोिह आपिन िकंकिर जानी । जदिप सहज जड नािर अयानी ॥२॥
ूथम जो म पूछा सोइ कहहू । ज मो पर ूसन्न ूभु अहहू ॥
राम ॄ िचनमय अिबनासी । सब रिहत सब उर पुर बासी ॥३॥
नाथ धरे उ नरतनु केिह हे तू । मोिह समुझाइ कहहु बृषकेतू ॥
उमा बचन सुिन परम िबनीता । रामकथा पर ूीित पुनीता ॥४॥

दोहरा
िहँ यँ हरषे कामािर तब संकर सहज सुजान
बहु िबिध उमिह ूसंिस पुिन बोले कृ पािनधान ॥१२०(क)॥

नवान्हपारायन,पहला िवौाम
मासपारायण, चौथा िवौाम

सोरठा
सुनु सुभ कथा भवािन रामचिरतमानस िबमल ।
कहा भुसुंिड बखािन सुना िबहग नायक ग ड ॥१२०(ख)॥
सो संबाद उदार जेिह िबिध भा आग कहब ।
सुनहु राम अवतार चिरत परम सुंदर अनघ ॥१२०(ग)॥
हिर गुन नाम अपार कथा प अगिनत अिमत ।
म िनज मित अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु ॥१२०(घ)॥

सुनु िगिरजा हिरचिरत सुहाए । िबपुल िबसद िनगमागम गाए ॥


हिर अवतार हे तु जेिह होई । इदिम थं किह जाइ न सोई ॥१॥
राम अत य बुि मन बानी । मत हमार अस सुनिह सयानी ॥
तदिप संत मुिन बेद पुराना । जस कछु कहिहं ःवमित अनुमाना ॥२॥
तस म सुमु ख सुनावउँ तोह । समु झ परइ जस कारन मोह ॥
जब जब होइ धरम कै हानी । बाढिहं असुर अधम अिभमानी ॥३॥
करिहं अनीित जाइ निहं बरनी । सीदिहं िबू धेनु सुर धरनी ॥
तब तब ूभु धिर िबिबध सर रा । हरिह कृ पािनिध स जन पीरा ॥४॥

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रामचिरतमानस - 55 - बालकांड

दोहरा
असुर मािर थापिहं सुरन्ह राखिहं िनज ौुित सेतु ।
जग िबःतारिहं िबसद जस राम जन्म कर हे तु ॥१२१॥

सोइ जस गाइ भगत भव तरह ं । कृ पािसंधु जन िहत तनु धरह ं ॥


राम जनम के हे तु अनेका । परम िबिचऽ एक त एका ॥१॥
जनम एक दइु कहउँ बखानी । सावधान सुनु सुमित भवानी ॥
ारपाल हिर के िूय दोऊ । जय अ िबजय जान सब कोऊ ॥२॥
िबू ौाप त दनउ
ू भाई । तामस असुर दे ह ितन्ह पाई ॥
कनककिसपु अ हाटक लोचन । जगत िबिदत सुरपित मद मोचन ॥३॥
िबजई समर बीर िब याता । धिर बराह बपु एक िनपाता ॥
होइ नरहिर दसर
ू पुिन मारा । जन ूहलाद सुजस िबःतारा ॥४॥

दोहरा
भए िनसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान ।
कुंभकरन रावण सुभट सुर िबजई जग जान ॥१२२॥

मुकुत न भए हते भगवाना । तीिन जनम ि ज बचन ूवाना ॥


एक बार ितन्ह के िहत लागी । धरे उ सर र भगत अनुरागी ॥१॥
कःयप अिदित तहाँ िपतु माता । दसरथ कौस या िब याता ॥
एक कलप एिह िबिध अवतारा । चिरऽ पिवऽ िकए संसारा ॥२॥
एक कलप सुर दे ख दखारे
ु । समर जलंधर सन सब हारे ॥
संभु क न्ह संमाम अपारा । दनुज महाबल मरइ न मारा ॥३॥
परम सती असुरािधप नार । तेिह बल तािह न जतिहं पुरार ॥४॥

दोहरा
छल किर टारे उ तासु ॄत ूभु सुर कारज क न्ह ॥
जब तेिह जानेउ मरम तब ौाप कोप किर द न्ह ॥१२३॥

तासु ौाप हिर द न्ह ूमाना । कौतुकिनिध कृ पाल भगवाना ॥


तहाँ जलंधर रावन भयऊ । रन हित राम परम पद दयऊ ॥१॥
एक जनम कर कारन एहा । जेिह लािग राम धर नरदे हा ॥
ूित अवतार कथा ूभु केर । सुनु मुिन बरनी किबन्ह घनेर ॥२॥
नारद ौाप द न्ह एक बारा । कलप एक तेिह लिग अवतारा ॥
िगिरजा चिकत भई सुिन बानी । नारद िबंनुभगत पुिन यािन ॥३॥

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रामचिरतमानस - 56 - बालकांड

कारन कवन ौाप मुिन द न्हा । का अपराध रमापित क न्हा ॥


यह ूसंग मोिह कहहु पुरार । मुिन मन मोह आचरज भार ॥४॥

दोहरा
बोले िबहिस महे स तब यानी मूढ़ न कोइ ।
जेिह जस रघुपित करिहं जब सो तस तेिह छन होइ ॥१२४(क)॥

सोरठा
कहउँ राम गुन गाथ भर ाज सादर सुनहु ।
भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तज मान मद ॥१२४(ख)॥

िहमिगिर गुहा एक अित पाविन । बह समीप सुरसर सुहाविन ॥


आौम परम पुनीत सुहावा । दे ख दे विरिष मन अित भावा ॥१॥
िनर ख सैल सिर िबिपन िबभागा । भयउ रमापित पद अनुरागा ॥
सुिमरत हिरिह ौाप गित बाधी । सहज िबमल मन लािग समाधी ॥२॥
मुिन गित दे ख सुरेस डे राना । कामिह बोिल क न्ह समाना ॥
सिहत सहाय जाहु मम हे तू । चकेउ हरिष िहयँ जलचरकेतू ॥३॥
सुनासीर मन महँु अिस ऽासा । चहत दे विरिष मम पुर बासा ॥
जे कामी लोलुप जग माह ं । कुिटल काक इव सबिह डे राह ं ॥४॥

दोहरा
सुख हाड़ लै भाग सठ ःवान िनर ख मृगराज ।
छ िन लेइ जिन जान जड़ ितिम सुरपितिह न लाज ॥१२५॥

तेिह आौमिहं मदन जब गयऊ । िनज मायाँ बसंत िनरमयऊ ॥


कुसुिमत िबिबध िबटप बहरंु गा । कूजिहं कोिकल गुंजिह भृंगा ॥१॥
चली सुहाविन िऽिबध बयार । काम कृ सानु बढ़ाविनहार ॥
रं भािदक सुरनािर नबीना । सकल असमसर कला ूबीना ॥२॥
करिहं गान बहु तान तरं गा । बहिबिध
ु ब ड़िह पािन पतंगा ॥
दे ख सहाय मदन हरषाना । क न्हे िस पुिन ूपंच िबिध नाना ॥३॥
काम कला कछु मुिनिह न यापी । िनज भयँ डरे उ मनोभव पापी ॥
सीम िक चाँिप सकइ कोउ तासु । बड़ रखवार रमापित जासू ॥४॥

दोहरा
सिहत सहाय सभीत अित मािन हािर मन मैन ।
गहे िस जाइ मुिन चरन तब किह सुिठ आरत बैन ॥१२६॥

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रामचिरतमानस - 57 - बालकांड

भयउ न नारद मन कछु रोषा । किह िूय बचन काम पिरतोषा ॥


नाइ चरन िस आयसु पाई । गयउ मदन तब सिहत सहाई ॥१॥
मुिन सुसीलता आपिन करनी । सुरपित सभाँ जाइ सब बरनी ॥
सुिन सब क मन अचरजु आवा । मुिनिह ूसंिस हिरिह िस नावा ॥२ ॥
तब नारद गवने िसव पाह ं । जता काम अहिमित मन माह ं ॥
मार चिरत संकरिहं सुनाए । अितिूय जािन महे स िसखाए ॥३॥
बार बार िबनवउँ मुिन तोह ं । जिम यह कथा सुनायहु मोह ं ॥
ितिम जिन हिरिह सुनावहु कबहँू । चलेहुँ ूसंग दराएड
ु ु तबहँू ॥४॥

दोहरा
संभु द न्ह उपदे स िहत निहं नारदिह सोहान ।
भार ाज कौतुक सुनहु हिर इ छा बलवान ॥१२७॥

राम क न्ह चाहिहं सोइ होई । करै अन्यथा अस निहं कोई ॥


संभु बचन मुिन मन निहं भाए । तब िबरं िच के लोक िसधाए ॥१॥
एक बार करतल बर बीना । गावत हिर गुन गान ूबीना ॥
छ रिसंधु गवने मुिननाथा । जहँ बस ौीिनवास ौुितमाथा ॥२॥
हरिष िमले उिठ रमािनकेता । बैठे आसन िरिषिह समेता ॥
बोले िबहिस चराचर राया । बहते
ु िदनन क न्ह मुिन दाया ॥३॥
काम चिरत नारद सब भाषे । ज िप ूथम बर ज िसवँ राखे ॥
अित ूचंड रघुपित कै माया । जेिह न मोह अस को जग जाया ॥४॥

दोहरा
ख बदन किर बचन मृद ु बोले ौीभगवान ।
तु हरे सुिमरन त िमटिहं मोह मार मद मान ॥१२८॥

सुनु मुिन मोह होइ मन ताक । यान िबराग हृदय निहं जाके ॥
ॄ चरज ॄत रत मितधीरा । तु हिह िक करइ मनोभव पीरा ॥१॥
नारद कहे उ सिहत अिभमाना । कृ पा तु हािर सकल भगवाना ॥
क नािनिध मन दख िबचार । उर अंकुरे उ गरब त भार ॥२॥
बेिग सो मै डािरहउँ उखार । पन हमार सेवक िहतकार ॥
मुिन कर िहत मम कौतुक होई । अविस उपाय करिब मै सोई ॥३॥
तब नारद हिर पद िसर नाई । चले हृदयँ अहिमित अिधकाई ॥
ौीपित िनज माया तब ूेर । सुनहु किठन करनी तेिह केर ॥४॥

दोहरा

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रामचिरतमानस - 58 - बालकांड

िबरचेउ मग महँु नगर तेिहं सत जोजन िबःतार ।


ौीिनवासपुर त अिधक रचना िबिबध ूकार ॥१२९॥

बसिहं नगर सुंदर नर नार । जनु बहु मनिसज रित तनुधार ॥


तेिहं पुर बसइ सीलिनिध राजा । अगिनत हय गय सेन समाजा ॥१॥
सत सुरेस सम िबभव िबलासा । प तेज बल नीित िनवासा ॥
िबःवमोहनी तासु कुमार । ौी िबमोह जसु पु िनहार ॥२॥
सोइ हिरमाया सब गुन खानी । सोभा तासु िक जाइ बखानी ॥
करइ ःवयंबर सो नृपबाला । आए तहँ अगिनत मिहपाला ॥३॥
मुिन कौतुक नगर तेिहं गयऊ । पुरबािसन्ह सब पूछत भयऊ ॥
सुिन सब चिरत भूपगृहँ आए । किर पूजा नृप मुिन बैठाए ॥४॥

दोहरा
आिन दे खाई नारदिह भूपित राजकुमािर ।
कहहु नाथ गुन दोष सब एिह के हृदयँ िबचािर ॥१३०॥

दे ख प मुिन िबरित िबसार । बड़ बार लिग रहे िनहार ॥


ल छन तासु िबलोिक भुलाने । हृदयँ हरष निहं ूगट बखाने ॥१॥
जो एिह बरइ अमर सोइ होई । समरभूिम तेिह जीत न कोई ॥
सेविहं सकल चराचर ताह । बरइ सीलिनिध कन्या जाह ॥२॥
ल छन सब िबचािर उर राखे । कछुक बनाइ भूप सन भाषे ॥
सुता सुल छन किह नृप पाह ं । नारद चले सोच मन माह ं ॥३॥
कर जाइ सोइ जतन िबचार । जेिह ूकार मोिह बरै कुमार ॥
जप तप कछु न होइ तेिह काला । हे िबिध िमलइ कवन िबिध बाला ॥४॥

दोहरा
एिह अवसर चािहअ परम सोभा प िबसाल ।
जो िबलोिक र झै कुअँिर तब मेलै जयमाल ॥१३१॥

हिर सन माग सुंदरताई । होइिह जात गह अित भाई ॥


मोर िहत हिर सम निहं कोऊ । एिह अवसर सहाय सोइ होऊ ॥१॥
बहिबिध
ु िबनय क न्ह तेिह काला । ूगटे उ ूभु कौतुक कृ पाला ॥
ूभु िबलोिक मुिन नयन जुड़ाने । होइिह काजु िहएँ हरषाने ॥२॥
अित आरित किह कथा सुनाई । करहु कृ पा किर होहु सहाई ॥
आपन प दे हु ूभु मोह । आन भाँित निहं पाव ओह ॥३॥
जेिह िबिध नाथ होइ िहत मोरा । करहु सो बेिग दास म तोरा ॥

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रामचिरतमानस - 59 - बालकांड

िनज माया बल दे ख िबसाला । िहयँ हँ िस बोले द नदयाला ॥४॥

दोहरा
जेिह िबिध होइिह परम िहत नारद सुनहु तु हार ।
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार ॥१३२॥

कुपथ माग ज याकुल रोगी । बैद न दे इ सुनहु मुिन जोगी ॥


एिह िबिध िहत तु हार म ठयऊ । किह अस अंतरिहत ूभु भयऊ ॥१॥
माया िबबस भए मुिन मूढ़ा । समुझी निहं हिर िगरा िनगूढ़ा ॥
गवने तुरत तहाँ िरिषराई । जहाँ ःवयंबर भूिम बनाई ॥२॥
िनज िनज आसन बैठे राजा । बहु बनाव किर सिहत समाजा ॥
मुिन मन हरष प अित मोर । मोिह तज आनिह बािरिह न भोर ॥३॥
मुिन िहत कारन कृ पािनधाना । द न्ह कु प न जाइ बखाना ॥
सो चिरऽ लख काहँु न पावा । नारद जािन सबिहं िसर नावा ॥४॥

दोहरा
रहे तहाँ दइु ि गन ते जानिहं सब भेउ ।
िबूबेष दे खत िफरिहं परम कौतुक तेउ ॥१३३॥

जिह समाज बठे मुिन जाई । हृदयँ प अहिमित अिधकाई ॥


तहँ बैठ महे स गन दोऊ । िबूबेष गित लखइ न कोऊ ॥१॥
करिहं कूिट नारदिह सुनाई । नीिक द न्ह हिर सुंदरताई ॥
र झिह राजकुअँिर छिब दे खी । इन्हिह बिरिह हिर जािन िबसेषी ॥२॥
मुिनिह मोह मन हाथ पराएँ । हँ सिहं संभु गन अित सचु पाएँ ॥
जदिप सुनिहं मुिन अटपिट बानी । समु झ न परइ बुि ॅम सानी ॥३॥
काहँु न लखा सो चिरत िबसेषा । सो स प नृपकन्याँ दे खा ॥
मकट बदन भयंकर दे ह । दे खत हृदयँ बोध भा तेह ॥४॥

दोहरा
सखीं संग लै कुअँिर तब चिल जनु राजमराल ।
दे खत िफरइ मह प सब कर सरोज जयमाल ॥१३४॥

जेिह िदिस बैठे नारद फूली । सो िदिस दे िह न िबलोक भूली ॥


पुिन पुिन मुिन उकसिहं अकुलाह ं । दे ख दसा हर गन मुसकाह ं ॥१॥
धिर नृपतनु तहँ गयउ कृ पाला । कुअँिर हरिष मेलेउ जयमाला ॥
दलिहिन
ु लै गे ल छिनवासा । नृपसमाज सब भयउ िनरासा ॥२॥

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रामचिरतमानस - 60 - बालकांड

मुिन अित िबकल म हँ मित नाठ । मिन िगिर गई छूिट जनु गाँठ ॥
तब हर गन बोले मुसुकाई । िनज मुख मुकुर िबलोकहु जाई ॥३॥
अस किह दोउ भागे भयँ भार । बदन दख मुिन बािर िनहार ॥
बेषु िबलोिक बोध अित बाढ़ा । ितन्हिह सराप द न्ह अित गाढ़ा ॥४॥

दोहरा
होहु िनसाचर जाइ तु ह कपट पापी दोउ ।
हँ सेहु हमिह सो लेहु फल बहिर
ु हँ सेहु मुिन कोउ ॥१३५॥

पुिन जल दख प िनज पावा । तदिप हृदयँ संतोष न आवा ॥


फरकत अधर कोप मन माह ं । सपद चले कमलापित पाह ं ॥१॥
दे हउँ ौाप िक मिरहउँ जाई । जगत मोर उपहास कराई ॥
बीचिहं पंथ िमले दनुजार । संग रमा सोइ राजकुमार ॥२॥
बोले मधुर बचन सुरसा । मुिन कहँ चले िबकल क ना ॥
सुनत बचन उपजा अित बोधा । माया बस न रहा मन बोधा ॥३॥
पर संपदा सकहु निहं दे खी । तु हर इिरषा कपट िबसेषी ॥
मथत िसंधु ििह बौरायहु । सुरन्ह ूेर िबष पान करायहु ॥४॥

दोहरा
असुर सुरा िबष संकरिह आपु रमा मिन चा ।
ःवारथ साधक कुिटल तु ह सदा कपट यवहा ॥१३६॥

परम ःवतंऽ न िसर पर कोई । भावइ मनिह करहु तु ह सोई ॥


भलेिह मंद मंदेिह भल करहू । िबसमय हरष न िहयँ कछु धरहू ॥१॥
डहिक डहिक पिरचेहु सब काहू । अित असंक मन सदा उछाहू ॥
करम सुभासुभ तु हिह न बाधा । अब लिग तु हिह न काहँू साधा ॥२॥
भले भवन अब बायन द न्हा । पावहगे
ु फल आपन क न्हा ॥
बंचेहु मोिह जविन धिर दे हा । सोइ तनु धरहु ौाप मम एहा ॥३॥
किप आकृ ित तु ह क न्ह हमार । किरहिहं कस सहाय तु हार ॥
मम अपकार क न्ह तु ह भार । नार िबरहँ तु ह होब दखार
ु ॥४॥

दोहरा
ौाप सीस धर हरिष िहयँ ूभु बहु िबनती क न्ह ।
िनज माया कै ूबलता करिष कृ पािनिध ली न्ह ॥१३७॥

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रामचिरतमानस - 61 - बालकांड

जब हिर माया दिर


ू िनवार । निहं तहँ रमा न राजकुमार ॥
तब मुिन अित सभीत हिर चरना । गहे पािह ूनतारित हरना ॥१॥
मृषा होउ मम ौाप कृ पाला । मम इ छा कह द नदयाला ॥
म दबचन
ु कहे बहते
ु रे । कह मुिन पाप िमिटिहं िकिम मेरे ॥२॥
जपहु जाइ संकर सत नामा । होइिह हृदयँ तुरंत िबौामा ॥
कोउ निहं िसव समान िूय मोर । अिस परतीित तजहु जिन भोर ॥३॥
जेिह पर कृ पा न करिहं पुरार । सो न पाव मुिन भगित हमार ॥
अस उर धिर मिह िबचरहु जाई । अब न तु हिह माया िनअराई ॥४॥

दोहरा
बहिबिध
ु मुिनिह ूबोिध ूभु तब भए अंतरधान ॥
स यलोक नारद चले करत राम गुन गान ॥१३८॥

हर गन मुिनिह जात पथ दे खी । िबगतमोह मन हरष िबसेषी ॥


अित सभीत नारद पिहं आए । गिह पद आरत बचन सुनाए ॥१॥
हर गन हम न िबू मुिनराया । बड़ अपराध क न्ह फल पाया ॥
ौाप अनुमह करहु कृ पाला । बोले नारद द नदयाला ॥२॥
िनिसचर जाइ होहु तु ह दोऊ । बैभव िबपुल तेज बल होऊ ॥
भुजबल िबःव जतब तु ह जिहआ।धिरहिहं िबंनु मनुज तनु तिहआ॥३॥
समर मरन हिर हाथ तु हारा । होइहहु मुकुत न पुिन संसारा ॥
चले जुगल मुिन पद िसर नाई । भए िनसाचर कालिह पाई ॥४॥

दोहरा
एक कलप एिह हे तु ूभु लीन्ह मनुज अवतार ।
सुर रं जन स जन सुखद हिर भंजन भुिब भार ॥१३९॥

एिह िबिध जनम करम हिर केरे । सुंदर सुखद िबिचऽ घनेरे ॥
कलप कलप ूित ूभु अवतरह ं । चा चिरत नानािबिध करह ं ॥१॥
तब तब कथा मुनीसन्ह गाई । परम पुनीत ूबंध बनाई ॥
िबिबध ूसंग अनूप बखाने । करिहं न सुिन आचरजु सयाने ॥२॥
हिर अनंत हिरकथा अनंता । कहिहं सुनिहं बहिबिध
ु सब संता ॥
रामचंि के चिरत सुहाए । कलप कोिट लिग जािहं न गाए ॥३॥
यह ूसंग म कहा भवानी । हिरमायाँ मोहिहं मुिन यानी ॥
ूभु कौतुक ूनत िहतकार ॥ सेवत सुलभ सकल दख
ु हार ॥४॥

सोरठा

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रामचिरतमानस - 62 - बालकांड

सुर नर मुिन कोउ नािहं जेिह न मोह माया ूबल ॥


अस िबचािर मन मािहं भ जअ महामाया पितिह ॥१४०॥

अपर हे तु सुनु सैलकुमार । कहउँ िबिचऽ कथा िबःतार ॥


जेिह कारन अज अगुन अ पा । ॄ भयउ कोसलपुर भूपा ॥१॥
जो ूभु िबिपन िफरत तु ह दे खा । बंधु समेत धर मुिनबेषा ॥
जासु चिरत अवलोिक भवानी । सती सर र रिहहु बौरानी ॥२॥
अजहँु न छाया िमटित तु हार । तासु चिरत सुनु ॅम ज हार ॥
लीला क न्ह जो तेिहं अवतारा । सो सब किहहउँ मित अनुसारा ॥३॥
भर ाज सुिन संकर बानी । सकुिच सूेम उमा मुसकानी ॥
लगे बहिर
ु बरने बृषकेतू । सो अवतार भयउ जेिह हे तू ॥४॥

दोहरा
सो म तु ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई ॥
राम कथा किल मल हरिन मंगल करिन सुहाइ ॥१४१॥

ःवायंभू मनु अ सत पा । जन्ह त भै नरसृि अनूपा ॥


दं पित धरम आचरन नीका । अजहँु गाव ौुित जन्ह कै लीका ॥१॥
नृप उ ानपाद सुत तासू । ीुव हिर भगत भयउ सुत जासू ॥
लघु सुत नाम िूेॄत ताह । बेद पुरान ूसंसिह जाह ॥२॥
दे वहित
ू पुिन तासु कुमार । जो मुिन कदम कै िूय नार ॥
आिददे व ूभु द नदयाला । जठर धरे उ जेिहं किपल कृ पाला ॥३॥
सां य सा जन्ह ूगट बखाना । त व िबचार िनपुन भगवाना ॥
तेिहं मनु राज क न्ह बहु काला । ूभु आयसु सब िबिध ूितपाला ॥४॥

सोरठा
होइ न िबषय िबराग भवन बसत भा चौथपन ।
हृदयँ बहत
ु दख
ु लाग जनम गयउ हिरभगित िबनु ॥१४२॥

बरबस राज सुतिह तब द न्हा । नािर समेत गवन बन क न्हा ॥


तीरथ बर नैिमष िब याता । अित पुनीत साधक िसिध दाता ॥१॥
बसिहं तहाँ मुिन िस समाजा । तहँ िहयँ हरिष चलेउ मनु राजा ॥
पंथ जात सोहिहं मितधीरा । यान भगित जनु धर सर रा ॥२॥
पहँु चे जाइ धेनुमित तीरा । हरिष नहाने िनरमल नीरा ॥
आए िमलन िस मुिन यानी । धरम धुरंधर नृपिरिष जानी ॥३॥
जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए । मुिनन्ह सकल सादर करवाए ॥

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रामचिरतमानस - 63 - बालकांड

कृ स सर र मुिनपट पिरधाना । सत समाज िनत सुनिहं पुराना ॥४॥

दोहरा
ादस अ छर मंऽ पुिन जपिहं सिहत अनुराग ।
बासुदेव पद पंक ह दं पित मन अित लाग ॥१४३॥

करिहं अहार साक फल कंदा । सुिमरिहं ॄ स चदानंदा ॥


पुिन हिर हे तु करन तप लागे । बािर अधार मूल फल यागे ॥१॥
उर अिभलाष िनंरंतर होई । दे खा नयन परम ूभु सोई ॥
अगुन अखंड अनंत अनाद । जेिह िचंतिहं परमारथबाद ॥२॥
नेित नेित जेिह बेद िन पा । िनजानंद िन पािध अनूपा ॥
संभु िबरं िच िबंनु भगवाना । उपजिहं जासु अंस त नाना ॥३॥
ऐसेउ ूभु सेवक बस अहई । भगत हे तु लीलातनु गहई ॥
ज यह बचन स य ौुित भाषा । तौ हमार पूजिह अिभलाषा ॥४॥

दोहरा
एिह िबिध बीत बरष षट सहस बािर आहार ।
संबत स सह पुिन रहे समीर अधार ॥१४४॥

बरष सहस दस यागेउ सोऊ । ठाढ़े रहे एक पद दोऊ ॥


िबिध हिर तप दे ख अपारा । मनु समीप आए बहु बारा ॥१॥
मागहु बर बहु भाँित लोभाए । परम धीर निहं चलिहं चलाए ॥
अ ःथमाऽ होइ रहे सर रा । तदिप मनाग मनिहं निहं पीरा ॥२॥
ूभु सब य दास िनज जानी । गित अनन्य तापस नृप रानी ॥
मागु मागु ब भै नभ बानी । परम गभीर कृ पामृत सानी ॥३॥
मृतक जआविन िगरा सुहाई । ौबन रं ी होइ उर जब आई ॥
॑ पु तन भए सुहाए । मानहँु अबिहं भवन ते आए ॥४॥

दोहरा
ौवन सुधा सम बचन सुिन पुलक ूफु लत गात ।
बोले मनु किर दं डवत ूेम न हृदयँ समात ॥१४५॥

सुनु सेवक सुरत सुरधेनु । िबिध हिर हर बंिदत पद रे नू ॥


सेवत सुलभ सकल सुख दायक । ूनतपाल सचराचर नायक ॥१॥
ज अनाथ िहत हम पर नेहू । तौ ूसन्न होइ यह बर दे हू ॥
जो स प बस िसव मन माह ं । जेिह कारन मुिन जतन कराह ं ॥२॥

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रामचिरतमानस - 64 - बालकांड

जो भुसुंिड मन मानस हं सा । सगुन अगुन जेिह िनगम ूसंसा ॥


दे खिहं हम सो प भिर लोचन । कृ पा करहु ूनतारित मोचन ॥३॥
दं पित बचन परम िूय लागे । मुदल
ु िबनीत ूेम रस पागे ॥
भगत बछल ूभु कृ पािनधाना । िबःवबास ूगटे भगवाना ॥४॥

दोहरा
नील सरो ह नील मिन नील नीरधर ःयाम ।
लाजिहं तन सोभा िनर ख कोिट कोिट सत काम ॥१४६॥

सरद मयंक बदन छिब सींवा । चा कपोल िचबुक दर मीवा ॥


अधर अ न रद सुंदर नासा । िबधु कर िनकर िबिनंदक हासा ॥१॥
नव अबुंज अंबक छिब नीक । िचतविन लिलत भावँती जी क ॥
भुकुिट मनोज चाप छिब हार । ितलक ललाट पटल दितकार
ु ॥२॥
कुंडल मकर मुकुट िसर ॅाजा । कुिटल केस जनु मधुप समाजा ॥
उर ौीब स िचर बनमाला । पिदक हार भूषन मिनजाला ॥३॥
केहिर कंधर चा जनेउ । बाहु िबभूषन सुंदर तेऊ ॥
किर कर सिर सुभग भुजदं डा । किट िनषंग कर सर कोदं डा ॥४॥

दोहरा
तिडत िबिनंदक पीत पट उदर रे ख बर तीिन ॥
नािभ मनोहर लेित जनु जमुन भवँर छिब छ िन ॥१४७॥

पद राजीव बरिन निह जाह ं । मुिन मन मधुप बसिहं जेन्ह माह ं ॥


बाम भाग सोभित अनुकूला । आिदसि छिबिनिध जगमूला ॥१॥
जासु अंस उपजिहं गुनखानी । अगिनत ल छ उमा ॄ ानी ॥
भृकुिट िबलास जासु जग होई । राम बाम िदिस सीता सोई ॥२॥
छिबसमुि हिर प िबलोक । एकटक रहे नयन पट रोक ॥
िचतविहं सादर प अनूपा । तृि न मानिहं मनु सत पा ॥३॥
हरष िबबस तन दसा भुलानी । परे दं ड इव गिह पद पानी ॥
िसर परसे ूभु िनज कर कंजा । तुरत उठाए क नापुंजा ॥४॥

दोहरा
बोले कृ पािनधान पुिन अित ूसन्न मोिह जािन ।
मागहु बर जोइ भाव मन महादािन अनुमािन ॥१४८॥

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रामचिरतमानस - 65 - बालकांड

सुिन ूभु बचन जोिर जुग पानी । धिर धीरजु बोली मृद ु बानी ॥
नाथ दे ख पद कमल तु हारे । अब पूरे सब काम हमारे ॥१॥
एक लालसा बिड़ उर माह । सुगम अगम किह जात सो नाह ं ॥
तु हिह दे त अित सुगम गोसा । अगम लाग मोिह िनज कृ पना ॥२॥
जथा दिरि िबबुधत पाई । बहु संपित मागत सकुचाई ॥
तासु ूभा जान निहं सोई । तथा हृदयँ मम संसय होई ॥३॥
सो तु ह जानहु अंतरजामी । पुरवहु मोर मनोरथ ःवामी ॥
सकुच िबहाइ मागु नृप मोिह । मोर निहं अदे य कछु तोह ॥४॥

दोहरा
दािन िसरोमिन कृ पािनिध नाथ कहउँ सितभाउ ॥
चाहउँ तु हिह समान सुत ूभु सन कवन दराउ
ु ॥१४९॥

दे ख ूीित सुिन बचन अमोले । एवमःतु क नािनिध बोले ॥


आपु सिरस खोज कहँ जाई । नृप तव तनय होब म आई ॥१॥
सत पिह िबलोिक कर जोर । दे िब मागु ब जो िच तोरे ॥
जो ब नाथ चतुर नृप मागा । सोइ कृ पाल मोिह अित िूय लागा ॥२ ॥
ूभु परं तु सुिठ होित िढठाई । जदिप भगत िहत तु हिह सोहाई ॥
तु ह ॄ ािद जनक जग ःवामी । ॄ सकल उर अंतरजामी ॥३॥
अस समुझत मन संसय होई । कहा जो ूभु ूवान पुिन सोई ॥
जे िनज भगत नाथ तव अहह ं । जो सुख पाविहं जो गित लहह ं ॥४॥

दोहरा
सोइ सुख सोइ गित सोइ भगित सोइ िनज चरन सनेहु ॥
सोइ िबबेक सोइ रहिन ूभु हमिह कृ पा किर दे हु ॥१५०॥

सुनु मृद ु गूढ़ िचर बर रचना । कृ पािसंधु बोले मृद ु बचना ॥


जो कछु िच तु हे र मन माह ं । म सो द न्ह सब संसय नाह ं ॥१॥
मातु िबबेक अलोिकक तोर । कबहँु न िमिटिह अनुमह मोर ॥
बंिद चरन मनु कहे उ बहोर । अवर एक िबनित ूभु मोर ॥२॥
सुत िबषइक तव पद रित होऊ । मोिह बड़ मूढ़ कहै िकन कोऊ ॥
मिन िबनु फिन जिम जल िबनु मीना।मम जीवन ितिम तु हिह अधीना॥
अस ब मािग चरन गिह रहे ऊ । एवमःतु क नािनिध कहे ऊ ॥
अब तु ह मम अनुसासन मानी । बसहु जाइ सुरपित रजधानी ॥४॥

सोरठा

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रामचिरतमानस - 66 - बालकांड

तहँ किर भोग िबसाल तात गउँ कछु काल पुिन ।


होइहहु अवध भुआल तब म होब तु हार सुत ॥१५१॥

इ छामय नरबेष सँवार । होइहउँ ूगट िनकेत तु हारे ॥


अंसन्ह सिहत दे ह धिर ताता । किरहउँ चिरत भगत सुखदाता ॥१॥
जे सुिन सादर नर बड़भागी । भव तिरहिहं ममता मद यागी ॥
आिदसि जेिहं जग उपजाया । सोउ अवतिरिह मोिर यह माया ॥२॥
पुरउब म अिभलाष तु हारा । स य स य पन स य हमारा ॥
पुिन पुिन अस किह कृ पािनधाना । अंतरधान भए भगवाना ॥३॥
दं पित उर धिर भगत कृ पाला । तेिहं आौम िनवसे कछु काला ॥
समय पाइ तनु तज अनयासा । जाइ क न्ह अमरावित बासा ॥४॥

दोहरा
यह इितहास पुनीत अित उमिह कह बृषकेतु ।
भर ाज सुनु अपर पुिन राम जनम कर हे तु ॥१५२॥

मासपारायण पाँचवाँ िवौाम

सुनु मुिन कथा पुनीत पुरानी । जो िगिरजा ूित संभु बखानी ॥


िबःव िबिदत एक कैकय दे सू । स यकेतु तहँ बसइ नरे सू ॥१॥
धरम धुरंधर नीित िनधाना । तेज ूताप सील बलवाना ॥
तेिह क भए जुगल सुत बीरा । सब गुन धाम महा रनधीरा ॥२॥
राज धनी जो जेठ सुत आह । नाम ूतापभानु अस ताह ॥
अपर सुतिह अिरमदन नामा । भुजबल अतुल अचल संमामा ॥३॥
भाइिह भाइिह परम समीती । सकल दोष छल बर जत ूीती ॥
जेठे सुतिह राज नृप द न्हा । हिर िहत आपु गवन बन क न्हा ॥४॥

दोहरा
जब ूतापरिब भयउ नृप िफर दोहाई दे स ।
ूजा पाल अित बेदिबिध कतहँु नह ं अघ लेस ॥१५३॥

नृप िहतकारक सिचव सयाना । नाम धरम िच सुब समाना ॥


सिचव सयान बंधु बलबीरा । आपु ूतापपुंज रनधीरा ॥१॥
सेन संग चतुरंग अपारा । अिमत सुभट सब समर जुझारा ॥
सेन िबलोिक राउ हरषाना । अ बाजे गहगहे िनसाना ॥२॥
िबजय हे तु कटकई बनाई । सुिदन सािध नृप चलेउ बजाई ॥

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रामचिरतमानस - 67 - बालकांड

जँह तहँ पर ं अनेक लरा । जीते सकल भूप बिरआई ॥३॥


स दप भुजबल बस क न्हे । लै लै दं ड छािड़ नृप द न्ह ॥
सकल अविन मंडल तेिह काला । एक ूतापभानु मिहपाला ॥४॥

दोहरा
ःवबस िबःव किर बाहबल
ु िनज पुर क न्ह ूबेसु ।
अरथ धरम कामािद सुख सेवइ समयँ नरे सु ॥१५४॥

भूप ूतापभानु बल पाई । कामधेनु भै भूिम सुहाई ॥


सब दख
ु बर जत ूजा सुखार । धरमसील सुंदर नर नार ॥१॥
सिचव धरम िच हिर पद ूीती । नृप िहत हे तु िसखव िनत नीती ॥
गुर सुर संत िपतर मिहदे वा । करइ सदा नृप सब कै सेवा ॥२॥
भूप धरम जे बेद बखाने । सकल करइ सादर सुख माने ॥
िदन ूित दे ह िबिबध िबिध दाना । सुनहु सा बर बेद पुराना ॥३॥
नाना बापीं कूप तड़ागा । सुमन बािटका सुंदर बागा ॥
िबूभवन सुरभवन सुहाए । सब तीरथन्ह िबिचऽ बनाए ॥४॥

दोहरा
जँह लिग कहे पुरान ौुित एक एक सब जाग ।
बार सह सह नृप िकए सिहत अनुराग ॥१५५॥

हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना । भूप िबबेक परम सुजाना ॥


करइ जे धरम करम मन बानी । बासुदेव अिपत नृप यानी ॥१॥
चिढ़ बर बा ज बार एक राजा । मृगया कर सब सा ज समाजा ॥
िबं याचल गभीर बन गयऊ । मृग पुनीत बहु मारत भयऊ ॥२॥
िफरत िबिपन नृप दख बराहू । जनु बन दरेु उ सिसिह मिस राहू ॥
बड़ िबधु निह समात मुख माह ं । मनहँु बोधबस उिगलत नाह ं ॥३॥
कोल कराल दसन छिब गाई । तनु िबसाल पीवर अिधकाई ॥
घु घुरात हय आरौ पाएँ । चिकत िबलोकत कान उठाएँ ॥४॥

दोहरा
नील मह धर िसखर सम दे ख िबसाल बराहु ।
चपिर चलेउ हय सुटु िक नृप हाँिक न होइ िनबाहु ॥१५६॥

आवत दे ख अिधक रव बाजी । चलेउ बराह म त गित भाजी ॥


तुरत क न्ह नृप सर संधाना । मिह िमिल गयउ िबलोकत बाना ॥१॥

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रामचिरतमानस - 68 - बालकांड

तिक तिक तीर मह स चलावा । किर छल सुअर सर र बचावा ॥


ूगटत दरत
ु जाइ मृग भागा । िरस बस भूप चलेउ संग लागा ॥२॥
गयउ दिर
ू घन गहन बराहू । जहँ नािहन गज बा ज िनबाहू ॥
अित अकेल बन िबपुल कलेसू । तदिप न मृग मग तजइ नरे सू ॥३॥
कोल िबलोिक भूप बड़ धीरा । भािग पैठ िगिरगुहाँ गभीरा ॥
अगम दे ख नृप अित पिछताई । िफरे उ महाबन परे उ भुलाई ॥४॥

दोहरा
खेद खन्न छुि त तृिषत राजा बा ज समेत ।
खोजत याकुल सिरत सर जल िबनु भयउ अचेत ॥१५७॥

िफरत िबिपन आौम एक दे खा । तहँ बस नृपित कपट मुिनबेषा ॥


जासु दे स नृप लीन्ह छड़ाई । समर सेन तज गयउ पराई ॥१॥
समय ूतापभानु कर जानी । आपन अित असमय अनुमानी ॥
गयउ न गृह मन बहत
ु गलानी । िमला न राजिह नृप अिभमानी ॥२॥
िरस उर मािर रं क जिम राजा । िबिपन बसइ तापस क साजा ॥
तासु समीप गवन नृप क न्हा । यह ूतापरिब तेिह तब चीन्हा ॥३॥
राउ तृिषत निह सो पिहचाना । दे ख सुबेष महामुिन जाना ॥
उतिर तुरग त क न्ह ूनामा । परम चतुर न कहे उ िनज नामा ॥४॥

दोहा
भूपित तृिषत िबलोिक तेिहं सरब द न्ह दे खाइ ।
म जन पान समेत हय क न्ह नृपित हरषाइ ॥१५८॥

गै ौम सकल सुखी नृप भयऊ । िनज आौम तापस लै गयऊ ॥


आसन द न्ह अःत रिब जानी । पुिन तापस बोलेउ मृद ु बानी ॥१॥
को तु ह कस बन िफरहु अकेल । सुंदर जुबा जीव परहे ल ॥
चबबित के ल छन तोर । दे खत दया लािग अित मोर ॥२॥
नाम ूतापभानु अवनीसा । तासु सिचव म सुनहु मुनीसा ॥
िफरत अहे र परे उँ भुलाई । बडे भाग दे खउँ पद आई ॥३॥
हम कहँ दलभ
ु दरस तु हारा । जानत ह कछु भल होिनहारा ॥
कह मुिन तात भयउ अँिधयारा । जोजन स िर नग तु हारा ॥४॥

दोहरा
िनसा घोर ग भीर बन पंथ न सुनहु सुजान ।
बसहु आजु अस जािन तु ह जाएहु होत िबहान ॥१५९(क)॥

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रामचिरतमानस - 69 - बालकांड

तुलसी जिस भवत यता तैसी िमलइ सहाइ ।


आपुनु आवइ तािह पिहं तािह तहाँ लै जाइ ॥१५९(ख)॥

भलेिहं नाथ आयसु धिर सीसा । बाँिध तुरग त बैठ मह सा ॥


नृप बहु भाित ूसंसेउ ताह । चरन बंिद िनज भा य सराह ॥१॥
पुिन बोले मृद ु िगरा सुहाई । जािन िपता ूभु करउँ िढठाई ॥
मोिह मुिनस सुत सेवक जानी । नाथ नाम िनज कहहु बखानी ॥२॥
तेिह न जान नृप नृपिह सो जाना । भूप सु॑द सो कपट सयाना ॥
बैर पुिन छऽी पुिन राजा । छल बल क न्ह चहइ िनज काजा ॥३॥
समु झ राजसुख द ु खत अराती । अवाँ अनल इव सुलगइ छाती ॥
सरल बचन नृप के सुिन काना । बयर सँभािर हृदयँ हरषाना ॥४॥

दोहरा
कपट बोिर बानी मृदल
ु बोलेउ जुगुित समेत ।
नाम हमार िभखािर अब िनधन रिहत िनकेित ॥१६०॥

कह नृप जे िब यान िनधाना । तु ह सािरखे गिलत अिभमाना ॥


सदा रहिह अपनपौ दराएँ
ु । सब िबिध कुसल कुबेष बनाएँ ॥१॥
तेिह त कहिह संत ौुित टे र । परम अिकंचन िूय हिर केर ॥
तु ह सम अधन िभखािर अगेहा । होत िबरं िच िसविह संदेहा ॥२॥
जोिस सोिस तव चरन नमामी । मो पर कृ पा किरअ अब ःवामी ॥
सहज ूीित भूपित कै दे खी । आपु िबषय िबःवास िबसेषी ॥३॥
सब ूकार राजिह अपनाई । बोलेउ अिधक सनेह जनाई ॥
सुनु सितभाउ कहउँ मिहपाला । इहाँ बसत बीते बहु काला ॥४॥

दोहरा
अब लिग मोिह न िमलेउ कोउ म न जनावउँ काहु ।
लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु ॥१६१(क)॥

सोरठा
तुलसी दे ख सुबेषु भूलिहं मूढ़ न चतुर नर ।
सुंदर केिकिह पेखु बचन सुधा सम असन अिह ॥१६१(ख)॥

तात गुपुत रहउँ जग माह ं । हिर तज िकमिप ूयोजन नाह ं ॥


ूभु जानत सब िबनिहं जनाएँ । कहहु कविन िसिध लोक िरझाएँ ॥१॥
तु ह सुिच सुमित परम िूय मोर । ूीित ूतीित मोिह पर तोर ॥

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रामचिरतमानस - 70 - बालकांड

अब ज तात दरावउँ
ु तोह । दा न दोष घटइ अित मोह ॥२॥
जिम जिम तापसु कथइ उदासा । ितिम ितिम नृपिह उपज िबःवासा ॥
दे खा ःवबस कम मन बानी । तब बोला तापस बग यानी ॥३॥
नाम हमार एकतनु भाई । सुिन नृप बोले पुिन िस नाई ॥
कहहु नाम कर अरथ बखानी । मोिह सेवक अित आपन जानी ॥४॥

दोहरा
आिदसृि उपजी जबिहं तब उतपित भै मोिर ।
नाम एकतनु हे तु तेिह दे ह न धर बहोिर ॥१६२॥

जिन आच ज करहु मन माह ं । सुत तप त दलभ


ु कछु नाह ं ॥
तपबल त जग सृजइ िबधाता । तपबल िबंनु भए पिरऽाता ॥१॥
तपबल संभु करिहं संघारा । तप त अगम न कछु संसारा ॥
भयउ नृपिह सुिन अित अनुरागा । कथा पुरातन कहै सो लागा ॥२॥
करम धरम इितहास अनेका । करइ िन पन िबरित िबबेका ॥
उदभव पालन ूलय कहानी । कहे िस अिमत आचरज बखानी ॥३॥
सुिन मिहप तापस बस भयऊ । आपन नाम कहत तब लयऊ ॥
कह तापस नृप जानउँ तोह । क न्हे हु कपट लाग भल मोह ॥४॥

सोरठा
सुनु मह स अिस नीित जहँ तहँ नाम न कहिहं नृप ।
मोिह तोिह पर अित ूीित सोइ चतुरता िबचािर तव ॥१६३॥

नाम तु हार ूताप िदनेसा । स यकेतु तव िपता नरे सा ॥


गुर ूसाद सब जािनअ राजा । किहअ न आपन जािन अकाजा ॥१॥
दे ख तात तव सहज सुधाई । ूीित ूतीित नीित िनपुनाई ॥
उप ज पिर ममता मन मोर । कहउँ कथा िनज पूछे तोर ॥२॥
अब ूसन्न म संसय नाह ं । मागु जो भूप भाव मन माह ं ॥
सुिन सुबचन भूपित हरषाना । गिह पद िबनय क न्ह िबिध नाना ॥३॥
कृ पािसंधु मुिन दरसन तोर । चािर पदारथ करतल मोर ॥
ूभुिह तथािप ूसन्न िबलोक । मािग अगम बर होउँ असोक ॥४॥

दोहरा
जरा मरन दख
ु रिहत तनु समर जतै जिन कोउ ।
एकछऽ िरपुह न मिह राज कलप सत होउ ॥१६४॥

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रामचिरतमानस - 71 - बालकांड

कह तापस नृप ऐसेइ होऊ । कारन एक किठन सुनु सोऊ ॥


कालउ तुअ पद नाइिह सीसा । एक िबूकुल छािड़ मह सा ॥१॥
तपबल िबू सदा बिरआरा । ितन्ह के कोप न कोउ रखवारा ॥
ज िबून्ह सब करहु नरे सा । तौ तुअ बस िबिध िबंनु महे सा ॥२॥
चल न ॄ कुल सन बिरआई । स य कहउँ दोउ भुजा उठाई ॥
िबू ौाप िबनु सुनु मिहपाला । तोर नास निह कवनेहुँ काला ॥३॥
हरषेउ राउ बचन सुिन तासू । नाथ न होइ मोर अब नासू ॥
तव ूसाद ूभु कृ पािनधाना । मो कहँु सब काल क याना ॥४॥

दोहरा
एवमःतु किह कपटमुिन बोला कुिटल बहोिर ।
िमलब हमार भुलाब िनज कहहु त हमिह न खोिर ॥१६५॥

तात मै तोिह बरजउँ राजा । कह कथा तव परम अकाजा ॥


छठ ौवन यह परत कहानी । नास तु हार स य मम बानी ॥१॥
यह ूगट अथवा ि जौापा । नास तोर सुनु भानुूतापा ॥
आन उपायँ िनधन तव नाह ं । ज हिर हर कोपिहं मन माह ं ॥२॥
स य नाथ पद गिह नृप भाषा । ि ज गुर कोप कहहु को राखा ॥
राखइ गुर ज कोप िबधाता । गुर िबरोध निहं कोउ जग ऽाता ॥३॥
ज न चलब हम कहे तु हार । होउ नास निहं सोच हमार ॥
एकिहं डर डरपत मन मोरा । ूभु मिहदे व ौाप अित घोरा ॥४॥

दोहरा
होिहं िबू बस कवन िबिध कहहु कृ पा किर सोउ ।
तु ह तज द नदयाल िनज िहतू न दे खउँ कोउँ ॥१६६॥

सुनु नृप िबिबध जतन जग माह ं । क सा य पुिन होिहं िक नाह ं ॥


अहइ एक अित सुगम उपाई । तहाँ परं तु एक किठनाई ॥१॥
मम आधीन जुगुित नृप सोई । मोर जाब तव नगर न होई ॥
आजु लग अ जब त भयऊँ । काहू के गृह माम न गयऊँ ॥२॥
ज न जाउँ तव होइ अकाजू । बना आइ असमंजस आजू ॥
सुिन मह स बोलेउ मृद ु बानी । नाथ िनगम अिस नीित बखानी ॥३॥
बड़े सनेह लघुन्ह पर करह ं । िगिर िनज िसरिन सदा तृन धरह ं ॥
जलिध अगाध मौिल बह फेनू । संतत धरिन धरत िसर रे नू ॥४॥

दोहरा

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रामचिरतमानस - 72 - बालकांड

अस किह गहे नरे स पद ःवामी होहु कृ पाल ।


मोिह लािग दख
ु सिहअ ूभु स जन द नदयाल ॥१६७॥

जािन नृपिह आपन आधीना । बोला तापस कपट ूबीना ॥


स य कहउँ भूपित सुनु तोह । जग नािहन दलभ
ु कछु मोह ॥१॥
अविस काज म किरहउँ तोरा । मन तन बचन भगत त मोरा ॥
जोग जुगुित तप मंऽ ूभाऊ । फलइ तबिहं जब किरअ दराऊ
ु ॥२॥
ज नरे स म कर रसोई । तु ह प सहु मोिह जान न कोई ॥
अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई । सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई ॥३॥
पुिन ितन्ह के गृह जेवँइ जोऊ । तव बस होइ भूप सुनु सोऊ ॥
जाइ उपाय रचहु नृप एहू । संबत भिर संकलप करे हू ॥४॥

दोहरा
िनत नूतन ि ज सहस सत बरे हु सिहत पिरवार ।
म तु हरे संकलप लिग िदनिहं किरब जेवनार ॥१६८॥

एिह िबिध भूप क अित थोर । होइहिहं सकल िबू बस तोर ॥


किरहिहं िबू होम मख सेवा । तेिहं ूसंग सहजेिहं बस दे वा ॥१॥
और एक तोिह कहऊँ लखाऊ । म एिह बेष न आउब काऊ ॥
तु हरे उपरोिहत कहँु राया । हिर आनब म किर िनज माया ॥२॥
तपबल तेिह किर आपु समाना । र खहउँ इहाँ बरष परवाना ॥
म धिर तासु बेषु सुनु राजा । सब िबिध तोर सँवारब काजा ॥३॥
गै िनिस बहत
ु सयन अब क जे । मोिह तोिह भूप भट िदन तीजे ॥
म तपबल तोिह तुरग समेता । पहँु चेहउँ सोवतिह िनकेता ॥४॥

दोहरा
म आउब सोइ बेषु धिर पिहचानेहु तब मोिह ।
जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनाव तोिह ॥१६९॥

सयन क न्ह नृप आयसु मानी । आसन जाइ बैठ छल यानी ॥


ौिमत भूप िनिा अित आई । सो िकिम सोव सोच अिधकाई ॥१॥
कालकेतु िनिसचर तहँ आवा । जेिहं सूकर होइ नृपिह भुलावा ॥
परम िमऽ तापस नृप केरा । जानइ सो अित कपट घनेरा ॥२॥
तेिह के सत सुत अ दस भाई । खल अित अजय दे व दखदाई
ु ॥
ूथमिह भूप समर सब मारे । िबू संत सुर दे ख दखारे
ु ॥३॥
तेिहं खल पािछल बय सँभरा । तापस नृप िमिल मंऽ िबचारा ॥

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रामचिरतमानस - 73 - बालकांड

जेिह िरपु छय सोइ रचे न्ह उपाऊ । भावी बस न जान कछु राऊ ॥४॥

दोहरा
िरपु तेजसी अकेल अिप लघु किर गिनअ न ताहु ।
अजहँु दे त दख
ु रिब सिसिह िसर अवसेिषत राहु ॥१७०॥

तापस नृप िनज सखिह िनहार । हरिष िमलेउ उिठ भयउ सुखार ॥
िमऽिह किह सब कथा सुनाई । जातुधान बोला सुख पाई ॥१॥
अब साधेउँ िरपु सुनहु नरे सा । ज तु ह क न्ह मोर उपदे सा ॥
पिरहिर सोच रहहु तु ह सोई । िबनु औषध िबआिध िबिध खोई ॥२॥
कुल समेत िरपु मूल बहाई । चौथे िदवस िमलब म आई ॥
तापस नृपिह बहत
ु पिरतोषी । चला महाकपट अितरोषी ॥३॥
भानुूतापिह बा ज समेता । पहँु चाएिस छन माझ िनकेता ॥
नृपिह नािर पिहं सयन कराई । हयगृहँ बाँधेिस बा ज बनाई ॥४॥

दोहरा
राजा के उपरोिहतिह हिर लै गयउ बहोिर ।
लै राखेिस िगिर खोह महँु मायाँ किर मित भोिर ॥१७१॥

आपु िबरिच उपरोिहत पा । परे उ जाइ तेिह सेज अनूपा ॥


जागेउ नृप अनभएँ िबहाना । दे ख भवन अित अचरजु माना ॥१॥
मुिन मिहमा मन महँु अनुमानी । उठे उ गवँिह जेिह जान न रानी ॥
कानन गयउ बा ज चिढ़ तेह ं । पुर नर नािर न जानेउ केह ं ॥२॥
गएँ जाम जुग भूपित आवा । घर घर उ सव बाज बधावा ॥
उपरोिहतिह दे ख जब राजा । चिकत िबलोिक सुिमिर सोइ काजा ॥३॥
जुग सम नृपिह गए िदन तीनी । कपट मुिन पद रह मित लीनी ॥
समय जािन उपरोिहत आवा । नृपिह मते सब किह समुझावा ॥४॥

दोहरा
नृप हरषेउ पिहचािन गु ॅम बस रहा न चेत ।
बरे तुरत सत सहस बर िबू कुटंु ब समेत ॥१७२॥

उपरोिहत जेवनार बनाई । छरस चािर िबिध जिस ौुित गाई ॥


मायामय तेिहं क न्ह रसोई । िबंजन बहु गिन सकइ न कोई ॥१॥
िबिबध मृगन्ह कर आिमष राँधा । तेिह महँु िबू माँसु खल साँधा ॥
भोजन कहँु सब िबू बोलाए । पद पखािर सादर बैठाए ॥२॥

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रामचिरतमानस - 74 - बालकांड

प सन जबिहं लाग मिहपाला । भै अकासबानी तेिह काला ॥


िबूबृंद उिठ उिठ गृह जाहू । है बिड़ हािन अन्न जिन खाहू ॥३॥
भयउ रसो भूसुर माँसू । सब ि ज उठे मािन िबःवासू ॥
भूप िबकल मित मोहँ भुलानी । भावी बस आव मुख बानी ॥४॥

दोहरा
बोले िबू सकोप तब निहं कछु क न्ह िबचार ।
जाइ िनसाचर होहु नृप मूढ़ सिहत पिरवार ॥१७३॥

छऽबंधु त िबू बोलाई । घालै िलए सिहत समुदाई ॥


ईःवर राखा धरम हमारा । जैहिस त समेत पिरवारा ॥१॥
संबत म य नास तव होऊ । जलदाता न रिहिह कुल कोऊ ॥
नृप सुिन ौाप िबकल अित ऽासा । भै बहोिर बर िगरा अकासा ॥२॥
िबूहु ौाप िबचािर न द न्हा । निहं अपराध भूप कछु क न्हा ॥
चिकत िबू सब सुिन नभबानी । भूप गयउ जहँ भोजन खानी ॥३॥
तहँ न असन निहं िबू सुआरा । िफरे उ राउ मन सोच अपारा ॥
सब ूसंग मिहसुरन्ह सुनाई । ऽिसत परे उ अवनीं अकुलाई ॥४॥

दोहरा
भूपित भावी िमटइ निहं जदिप न दषन
ू तोर ।
िकएँ अन्यथा होइ निहं िबूौाप अित घोर ॥१७४॥

अस किह सब मिहदे व िसधाए । समाचार पुरलोगन्ह पाए ॥


सोचिहं दषन
ू दै विह दे ह ं । िबचरत हं स काग िकय जेह ं ॥१॥
उपरोिहतिह भवन पहँु चाई । असुर तापसिह खबिर जनाई ॥
तेिहं खल जहँ तहँ पऽ पठाए । सज सज सेन भूप सब धाए ॥२॥
घेरे न्ह नगर िनसान बजाई । िबिबध भाँित िनत होई लराई ॥
जूझे सकल सुभट किर करनी । बंधु समेत परे उ नृप धरनी ॥३॥
स यकेतु कुल कोउ निहं बाँचा । िबूौाप िकिम होइ असाँचा ॥
िरपु जित सब नृप नगर बसाई । िनज पुर गवने जय जसु पाई ॥४॥

दोहरा
भर ाज सुनु जािह जब होइ िबधाता बाम ।
धूिर मे सम जनक जम तािह यालसम दाम ॥१७५॥

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रामचिरतमानस - 75 - बालकांड

काल पाइ मुिन सुनु सोइ राजा । भयउ िनसाचर सिहत समाजा ॥
दस िसर तािह बीस भुजदं डा । रावन नाम बीर बिरबंडा ॥१॥
भूप अनुज अिरमदन नामा । भयउ सो कुंभकरन बलधामा ॥
सिचव जो रहा धरम िच जासू । भयउ िबमाऽ बंधु लघु तासू ॥२॥
नाम िबभीषन जेिह जग जाना । िबंनुभगत िब यान िनधाना ॥
रहे जे सुत सेवक नृप केरे । भए िनसाचर घोर घनेरे ॥३॥
काम प खल जनस अनेका । कुिटल भयंकर िबगत िबबेका ॥
कृ पा रिहत िहं सक सब पापी । बरिन न जािहं िबःव पिरतापी ॥४॥

दोहरा
उपजे जदिप पुलः यकुल पावन अमल अनूप ।
तदिप मह सुर ौाप बस भए सकल अघ प ॥१७६॥

क न्ह िबिबध तप तीिनहँु भाई । परम उम निहं बरिन सो जाई ॥


गयउ िनकट तप दे ख िबधाता । मागहु बर ूसन्न म ताता ॥१॥
किर िबनती पद गिह दससीसा । बोलेउ बचन सुनहु जगद सा ॥
हम काहू के मरिहं न मार । बानर मनुज जाित दइु बार ॥२॥
एवमःतु तु ह बड़ तप क न्हा । म ॄ ाँ िमिल तेिह बर द न्हा ॥
पुिन ूभु कुंभकरन पिहं गयऊ । तेिह िबलोिक मन िबसमय भयऊ ॥३ ॥
ज एिहं खल िनत करब अहा । होइिह सब उजािर संसा ॥
सारद ूेिर तासु मित फेर । मागेिस नीद मास षट केर ॥४॥

दोहरा
गए िबभीषन पास पुिन कहे उ पुऽ बर मागु ।
तेिहं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु ॥१७७॥

ित न्ह दे इ बर ॄ िसधाए । हरिषत ते अपने गृह आए ॥


मय तनुजा मंदोदिर नामा । परम सुंदर नािर ललामा ॥१॥
सोइ मयँ द न्ह रावनिह आनी । होइिह जातुधानपित जानी ॥
हरिषत भयउ नािर भिल पाई । पुिन दोउ बंधु िबआहे िस जाई ॥२॥
िगिर िऽकूट एक िसंधु मझार । िबिध िनिमत दगम
ु अित भार ॥
सोइ मय दानवँ बहिर
ु सँवारा । कनक रिचत मिनभवन अपारा ॥३॥
भोगावित जिस अिहकुल बासा । अमरावित जिस सबिनवासा ॥
ितन्ह त अिधक र य अित बंका । जग िब यात नाम तेिह लंका ॥४॥

दोहरा

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रामचिरतमानस - 76 - बालकांड

खा िसंधु गभीर अित चािरहँु िदिस िफिर आव ।


कनक कोट मिन खिचत ढ़ बरिन न जाइ बनाव ॥१७८(क)॥
हिरूेिरत जेिहं कलप जोइ जातुधानपित होइ ।
सूर ूतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ ॥१७८(ख)॥

रहे तहाँ िनिसचर भट भारे । ते सब सुरन्ह समर संघारे ॥


अब तहँ रहिहं सब के ूेरे । र छक कोिट ज छपित केरे ॥१॥
दसमुख कतहँु खबिर अिस पाई । सेन सा ज गढ़ घेरेिस जाई ॥
दे ख िबकट भट बिड़ कटकाई । ज छ जीव लै गए पराई ॥२॥
िफिर सब नगर दसानन दे खा । गयउ सोच सुख भयउ िबसेषा ॥
सुंदर सहज अगम अनुमानी । क न्ह तहाँ रावन रजधानी ॥३॥
जेिह जस जोग बाँिट गृह द न्हे । सुखी सकल रजनीचर क न्हे ॥
एक बार कुबेर पर धावा । पुंपक जान जीित लै आवा ॥४॥

दोहरा
कौतुकह ं कैलास पुिन लीन्हे िस जाइ उठाइ ।
मनहँु तौिल िनज बाहबल
ु चला बहत
ु सुख पाइ ॥१७९॥

सुख संपित सुत सेन सहाई । जय ूताप बल बुि बड़ाई ॥


िनत नूतन सब बाढ़त जाई । जिम ूितलाभ लोभ अिधकाई ॥१॥
अितबल कुंभकरन अस ॅाता । जेिह कहँु निहं ूितभट जग जाता ॥
करइ पान सोवइ षट मासा । जागत होइ ितहँु पुर ऽासा ॥२॥
ज िदन ूित अहार कर सोई । िबःव बेिग सब चौपट होई ॥
समर धीर निहं जाइ बखाना । तेिह सम अिमत बीर बलवाना ॥३॥
बािरदनाद जेठ सुत तासू । भट महँु ूथम लीक जग जासू ॥
जेिह न होइ रन सनमुख कोई । सुरपुर िनतिहं परावन होई ॥४॥

दोहरा
कुमुख अकंपन कुिलसरद धूमकेतु अितकाय ।
एक एक जग जीित सक ऐसे सुभट िनकाय ॥१८०॥

काम प जानिहं सब माया । सपनेहुँ जन्ह क धरम न दाया ॥


दसमुख बैठ सभाँ एक बारा । दे ख अिमत आपन पिरवारा ॥१॥
सुत समूह जन पिरजन नाती । गे को पार िनसाचर जाती ॥
सेन िबलोिक सहज अिभमानी । बोला बचन बोध मद सानी ॥२॥
सुनहु सकल रजनीचर जूथा । हमरे बैर िबबुध ब था ॥

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रामचिरतमानस - 77 - बालकांड

ते सनमुख निहं करह लराई । दे ख सबल िरपु जािहं पराई ॥३॥


तेन्ह कर मरन एक िबिध होई । कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई ॥
ि जभोजन मख होम सराधा ॥ सब कै जाइ करहु तु ह बाधा ॥४॥

दोहरा
छुधा छन बलह न सुर सहजेिहं िमिलहिहं आइ ।
तब मािरहउँ िक छािड़हउँ भली भाँित अपनाइ ॥१८१॥

मेघनाद कहँु पुिन हँ करावा । द न्ह िसख बलु बय बढ़ावा ॥


जे सुर समर धीर बलवाना । जन्ह क लिरबे कर अिभमाना ॥१॥
ितन्हिह जीित रन आनेसु बाँधी । उिठ सुत िपतु अनुसासन काँधी ॥
एिह िबिध सबह अ या द न्ह । आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ह ॥२॥
चलत दसानन डोलित अवनी । गजत गभ विहं सुर रवनी ॥
रावन आवत सुनेउ सकोहा । दे वन्ह तके मे िगिर खोहा ॥३॥
िदगपालन्ह के लोक सुहाए । सूने सकल दसानन पाए ॥
पुिन पुिन िसंघनाद किर भार । दे इ दे वतन्ह गािर पचार ॥४॥
रन मद म िफरइ जग धावा । ूितभट खौजत कतहँु न पावा ॥
रिब सिस पवन ब न धनधार । अिगिन काल जम सब अिधकार ॥५॥
िकंनर िस मनुज सुर नागा । हिठ सबह के पंथिहं लागा ॥
ॄ सृि जहँ लिग तनुधार । दसमुख बसबत नर नार ॥६॥
आयसु करिहं सकल भयभीता । नविहं आइ िनत चरन िबनीता ॥७॥

दोहरा
भुजबल िबःव बःय किर राखेिस कोउ न सुतंऽ ।
मंडलीक मिन रावन राज करइ िनज मंऽ ॥१८२(क)॥
दे व ज छ गंधव नर िकंनर नाग कुमािर ।
जीित बर ं िनज बाहबल
ु बहु सुंदर बर नािर ॥१८२(ख)॥

इं िजीत सन जो कछु कहे ऊ । सो सब जनु पिहलेिहं किर रहे ऊ ॥


ूथमिहं जन्ह कहँु आयसु द न्हा । ितन्ह कर चिरत सुनहु जो क न्हा॥१॥
दे खत भीम प सब पापी । िनिसचर िनकर दे व पिरतापी ॥
करिह उपिव असुर िनकाया । नाना प धरिहं किर माया ॥२॥
जेिह िबिध होइ धम िनमूला । सो सब करिहं बेद ूितकूला ॥
जेिहं जेिहं दे स धेनु ि ज पाविहं । नगर गाउँ पुर आिग लगाविहं ॥३॥
सुभ आचरन कतहँु निहं होई । दे व िबू गु मान न कोई ॥
निहं हिरभगित ज य तप याना । सपनेहुँ सुिनअ न बेद पुराना ॥४॥

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रामचिरतमानस - 78 - बालकांड

छं द
जप जोग िबरागा तप मख भागा ौवन सुनइ दससीसा ।
आपुनु उिठ धावइ रहै न पावइ धिर सब घालइ खीसा ॥
अस ॅ अचारा भा संसारा धम सुिनअ निह काना ।
तेिह बहिबिध
ु ऽासइ दे स िनकासइ जो कह बेद पुराना ॥

सोरठा
बरिन न जाइ अनीित घोर िनसाचर जो करिहं ।
िहं सा पर अित ूीित ितन्ह के पापिह कविन िमित ॥१८३॥

मासपारायण छठा िवौाम

बाढ़े खल बहु चोर जुआरा । जे लंपट परधन परदारा ॥


मानिहं मातु िपता निहं दे वा । साधुन्ह सन करवाविहं सेवा ॥१॥
जन्ह के यह आचरन भवानी । ते जानेहु िनिसचर सब ूानी ॥
अितसय दे ख धम कै लानी । परम सभीत धरा अकुलानी ॥२॥
िगिर सिर िसंधु भार निहं मोह । जस मोिह ग अ एक परिोह ॥
सकल धम दे खइ िबपर ता । किह न सकइ रावन भय भीता ॥३॥
धेनु प धिर हृदयँ िबचार । गई तहाँ जहँ सुर मुिन झार ॥
िनज संताप सुनाएिस रोई । काहू त कछु काज न होई ॥४॥

छं द
सुर मुिन गंधबा िमिल किर सबा गे िबरं िच के लोका ।
सँग गोतनुधार भूिम िबचार परम िबकल भय सोका ॥
ॄ ाँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई ।
जा किर त दासी सो अिबनासी हमरे उ तोर सहाई ॥

सोरठा
धरिन धरिह मन धीर कह िबरं िच हिरपद सुिम ।
जानत जन क पीर ूभु भं जिह दा न िबपित ॥१८४॥

बैठे सुर सब करिहं िबचारा । कहँ पाइअ ूभु किरअ पुकारा ॥


पुर बैकुंठ जान कह कोई । कोउ कह पयिनिध बस ूभु सोई ॥१॥
जाके हृदयँ भगित जिस ूीित । ूभु तहँ ूगट सदा तेिहं र ती ॥
तेिह समाज िगिरजा म रहे ऊँ । अवसर पाइ बचन एक कहे ऊँ ॥२॥
हिर यापक सबऽ समाना । ूेम त ूगट होिहं म जाना ॥

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रामचिरतमानस - 79 - बालकांड

दे स काल िदिस िबिदिसहु माह ं । कहहु सो कहाँ जहाँ ूभु नाह ं ॥३॥
अग जगमय सब रिहत िबरागी । ूेम त ूभु ूगटइ जिम आगी ॥
मोर बचन सब के मन माना । साधु साधु किर ॄ बखाना ॥४॥

दोहरा
सुिन िबरं िच मन हरष तन पुलिक नयन बह नीर ।
अःतुित करत जोिर कर सावधान मितधीर ॥१८५॥

छं द
जय जय सुरनायक जन सुखदायक ूनतपाल भगवंता ।
गो ि ज िहतकार जय असुरार िसधुंसुता िूय कंता ॥
पालन सुर धरनी अ त
ु करनी मरम न जानइ कोई ।
जो सहज कृ पाला द नदयाला करउ अनुमह सोई ॥
जय जय अिबनासी सब घट बासी यापक परमानंदा ।
अिबगत गोतीतं चिरत पुनीतं मायारिहत मुकुंदा ॥
जेिह लािग िबरागी अित अनुरागी िबगतमोह मुिनबृंदा ।
िनिस बासर याविहं गुन गन गाविहं जयित स चदानंदा ॥
जेिहं सृि उपाई िऽिबध बनाई संग सहाय न दजा
ू ।
सो करउ अघार िचंत हमार जािनअ भगित न पूजा ॥
जो भव भय भंजन मुिन मन रं जन गंजन िबपित ब था ।
मन बच बम बानी छािड़ सयानी सरन सकल सुर जूथा ॥
सारद ौुित सेषा िरषय असेषा जा कहँु कोउ निह जाना ।
जेिह दन िपआरे बेद पुकारे िवउ सो ौीभगवाना ॥
भव बािरिध मंदर सब िबिध सुंदर गुनमंिदर सुखपुज
ं ा ।
मुिन िस सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा ॥

दोहरा
जािन सभय सुरभूिम सुिन बचन समेत सनेह ।
गगनिगरा गंभीर भइ हरिन सोक संदेह ॥१८६॥

जिन डरपहु मुिन िस सुरेसा । तु हिह लािग धिरहउँ नर बेसा ॥


अंसन्ह सिहत मनुज अवतारा । लेहउँ िदनकर बंस उदारा ॥१॥
कःयप अिदित महातप क न्हा । ितन्ह कहँु म पूरब बर द न्हा ॥
ते दसरथ कौस या पा । कोसलपुर ं ूगट नरभूपा ॥२॥
ितन्ह के गृह अवतिरहउँ जाई । रघुकुल ितलक सो चािरउ भाई ॥
नारद बचन स य सब किरहउँ । परम सि समेत अवतिरहउँ ॥३॥

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रामचिरतमानस - 80 - बालकांड

हिरहउँ सकल भूिम ग आई । िनभय होहु दे व समुदाई ॥


गगन ॄ बानी सुनी काना । तुरत िफरे सुर हृदय जुड़ाना ॥४॥
तब ॄ ा धरिनिह समुझावा । अभय भई भरोस जयँ आवा ॥५॥

दोहरा
िनज लोकिह िबरं िच गे दे वन्ह इहइ िसखाइ ।
बानर तनु धिर धिर मिह हिर पद सेवहु जाइ ॥१८७॥

गए दे व सब िनज िनज धामा । भूिम सिहत मन कहँु िबौामा ।


जो कछु आयसु ॄ ाँ द न्हा । हरषे दे व िबलंब न क न्हा ॥१॥
बनचर दे ह धिर िछित माह ं । अतुिलत बल ूताप ितन्ह पाह ं ॥
िगिर त नख आयुध सब बीरा । हिर मारग िचतविहं मितधीरा ॥२॥
िगिर कानन जहँ तहँ भिर पूर । रहे िनज िनज अनीक रिच र ॥
यह सब िचर चिरत म भाषा । अब सो सुनहु जो बीचिहं राखा ॥३॥
अवधपुर ं रघुकुलमिन राऊ । बेद िबिदत तेिह दसरथ नाऊँ ॥
धरम धुरंधर गुनिनिध यानी । हृदयँ भगित मित सारँ गपानी ॥४॥

दोहरा
कौस यािद नािर िूय सब आचरन पुनीत ।
पित अनुकूल ूेम ढ़ हिर पद कमल िबनीत ॥१८८॥

एक बार भूपित मन माह ं । भै गलािन मोर सुत नाह ं ॥


गुर गृह गयउ तुरत मिहपाला । चरन लािग किर िबनय िबसाला ॥१॥
िनज दख
ु सुख सब गुरिह सुनायउ । किह बिस बहिबिध
ु समुझायउ ॥
धरहु धीर होइहिहं सुत चार । िऽभुवन िबिदत भगत भय हार ॥२॥
सृंगी िरषिह बिस बोलावा । पुऽकाम सुभ ज य करावा ॥
भगित सिहत मुिन आहित
ु द न्ह । ूगटे अिगिन च कर लीन्ह ॥३॥
जो बिस कछु हृदयँ िबचारा । सकल काजु भा िस तु हारा ॥
यह हिब बाँिट दे हु नृप जाई । जथा जोग जेिह भाग बनाई ॥४॥

दोहरा
तब अ ःय भए पावक सकल सभिह समुझाइ ॥
परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ ॥१८९॥

तबिहं रायँ िूय नािर बोला । कौस यािद तहाँ चिल आई ॥


अध भाग कौस यािह द न्हा । उभय भाग आधे कर क न्हा ॥१॥

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रामचिरतमानस - 81 - बालकांड

कैकेई कहँ नृप सो दयऊ । र ो सो उभय भाग पुिन भयऊ ॥


कौस या कैकेई हाथ धिर । द न्ह सुिमऽिह मन ूसन्न किर ॥२॥
एिह िबिध गभसिहत सब नार । भ हृदयँ हरिषत सुख भार ॥
जा िदन त हिर गभिहं आए । सकल लोक सुख संपित छाए ॥३॥
मंिदर महँ सब राजिहं रानी । सोभा सील तेज क खानीं ॥
सुख जुत कछुक काल चिल गयऊ । जेिहं ूभु ूगट सो अवसर भयऊ ॥४॥

दोहरा
जोग लगन मह बार ितिथ सकल भए अनुकूल ।
चर अ अचर हषजुत राम जनम सुखमूल ॥१९०॥

नौमी ितिथ मधु मास पुनीता । सुकल प छ अिभ जत हिरूीता ॥


म यिदवस अित सीत न घामा । पावन काल लोक िबौामा ॥१॥
सीतल मंद सुरिभ बह बाऊ । हरिषत सुर संतन मन चाऊ ॥
बन कुसुिमत िगिरगन मिनआरा । विहं सकल सिरताऽमृतधारा ॥२॥
सो अवसर िबरं िच जब जाना । चले सकल सुर सा ज िबमाना ॥
गगन िबमल सकुल सुर जूथा । गाविहं गुन गंधब ब था ॥३॥
बरषिहं सुमन सुअंजिल साजी । गहगिह गगन दं द
ु भी
ु बाजी ॥
अःतुित करिहं नाग मुिन दे वा । बहिबिध
ु लाविहं िनज िनज सेवा ॥४॥

दोहरा
सुर समूह िबनती किर पहँु चे िनज िनज धाम ।
जगिनवास ूभु ूगटे अ खल लोक िबौाम ॥१९१॥

छं द
भए ूगट कृ पाला द नदयाला कौस या िहतकार ।
हरिषत महतार मुिन मन हार अ त
ु प िबचार ॥
लोचन अिभरामा तनु घनःयामा िनज आयुध भुज चार ।
भूषन बनमाला नयन िबसाला सोभािसंधु खरार ॥
कह दइु कर जोर अःतुित तोर केिह िबिध कर अनंता ।
माया गुन यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता ॥
क ना सुख सागर सब गुन आगर जेिह गाविहं ौुित संता ।
सो मम िहत लागी जन अनुरागी भयउ ूगट ौीकंता ॥
ॄ ांड िनकाया िनिमत माया रोम रोम ूित बेद कहै ।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पित िथर न रहै ॥
उपजा जब याना ूभु मुसकाना चिरत बहत
ु िबिध क न्ह चहै ।

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रामचिरतमानस - 82 - बालकांड

किह कथा सुहाई मातु बुझाई जेिह ूकार सुत ूेम लहै ॥
माता पुिन बोली सो मित डौली तजहु तात यह पा ।
क जै िससुलीला अित िूयसीला यह सुख परम अनूपा ॥
सुिन बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा ।
यह चिरत जे गाविहं हिरपद पाविहं ते न परिहं भवकूपा ॥

दोहरा
िबू धेनु सुर संत िहत लीन्ह मनुज अवतार ।
िनज इ छा िनिमत तनु माया गुन गो पार ॥१९२॥

सुिन िससु दन परम िूय बानी । संॅम चिल आई सब रानी ॥


हरिषत जहँ तहँ धा दासी । आनँद मगन सकल पुरबासी ॥१॥
दसरथ पुऽजन्म सुिन काना । मानहँु ॄ ानंद समाना ॥
परम ूेम मन पुलक सर रा । चाहत उठत करत मित धीरा ॥२॥
जाकर नाम सुनत सुभ होई । मोर गृह आवा ूभु सोई ॥
परमानंद पूिर मन राजा । कहा बोलाइ बजावहु बाजा ॥३॥
गुर बिस कहँ गयउ हँ कारा । आए ि जन सिहत नृप ारा ॥
अनुपम बालक दे खे न्ह जाई । प रािस गुन किह न िसराई ॥४॥

दोहरा
नंद मुख सराध किर जातकरम सब क न्ह ।
हाटक धेनु बसन मिन नृप िबून्ह कहँ द न्ह ॥१९३॥

वज पताक तोरन पुर छावा । किह न जाइ जेिह भाँित बनावा ॥


सुमनबृि अकास त होई । ॄ ानंद मगन सब लोई ॥१॥
बृंद बृंद िमिल चलीं लोगाई । सहज संगार िकएँ उिठ धाई ॥
कनक कलस मंगल धिर थारा । गावत पैठिहं भूप दआरा
ु ॥२॥
किर आरित नेवछाविर करह ं । बार बार िससु चरन न्ह परह ं ॥
मागध सूत बंिदगन गायक । पावन गुन गाविहं रघुनायक ॥३॥
सबस दान द न्ह सब काहू । जेिहं पावा राखा निहं ताहू ॥
मृगमद चंदन कुंकुम क चा । मची सकल बीिथन्ह िबच बीचा ॥४॥

दोहरा
गृह गृह बाज बधाव सुभ ूगटे सुषमा कंद ।
हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नािर नर बृंद ॥१९४॥

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रामचिरतमानस - 83 - बालकांड

कैकयसुता सुिमऽा दोऊ । सुंदर सुत जनमत भ ओऊ ॥


वह सुख संपित समय समाजा । किह न सकइ सारद अिहराजा ॥१॥
अवधपुर सोहइ एिह भाँती । ूभुिह िमलन आई जनु राती ॥
दे ख भानू जनु मन सकुचानी । तदिप बनी सं या अनुमानी ॥२॥
अगर धूप बहु जनु अँिधआर । उड़इ अभीर मनहँु अ नार ॥
मंिदर मिन समूह जनु तारा । नृप गृह कलस सो इं द ु उदारा ॥३॥
भवन बेदधुिन अित मृद ु बानी । जनु खग मूखर समयँ जनु सानी ॥
कौतुक दे ख पतंग भुलाना । एक मास तेइँ जात न जाना ॥४॥

दोहरा
मास िदवस कर िदवस भा मरम न जानइ कोइ ।
रथ समेत रिब थाकेउ िनसा कवन िबिध होइ ॥१९५॥

यह रहःय काहू निहं जाना । िदन मिन चले करत गुनगाना ॥


दे ख महो सव सुर मुिन नागा । चले भवन बरनत िनज भागा ॥१॥
औरउ एक कहउँ िनज चोर । सुनु िगिरजा अित ढ़ मित तोर ॥
काक भुसुंिड संग हम दोऊ । मनुज प जानइ निहं कोऊ ॥२॥
परमानंद ूेमसुख फूले । बीिथन्ह िफरिहं मगन मन भूले ॥
यह सुभ चिरत जान पै सोई । कृ पा राम कै जापर होई ॥३॥
तेिह अवसर जो जेिह िबिध आवा । द न्ह भूप जो जेिह मन भावा ॥
गज रथ तुरग हे म गो ह रा । द न्हे नृप नानािबिध चीरा ॥४॥

दोहरा
मन संतोषे सब न्ह के जहँ तहँ दे िह असीस ।
सकल तनय िचर जीवहँु तुलिसदास के ईस ॥१९६॥

कछुक िदवस बीते एिह भाँती । जात न जािनअ िदन अ राती ॥


नामकरन कर अवस जानी । भूप बोिल पठए मुिन यानी ॥१॥
किर पूजा भूपित अस भाषा । धिरअ नाम जो मुिन गुिन राखा ॥
इन्ह के नाम अनेक अनूपा । म नृप कहब ःवमित अनु पा ॥२॥
जो आनंद िसंधु सुखरासी । सीकर त ऽैलोक सुपासी ॥
सो सुख धाम राम अस नामा । अ खल लोक दायक िबौामा ॥३॥
िबःव भरन पोषन कर जोई । ताकर नाम भरत अस होई ॥
जाके सुिमरन त िरपु नासा । नाम सऽुहन बेद ूकासा ॥४॥

दोहरा

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रामचिरतमानस - 84 - बालकांड

ल छन धाम राम िूय सकल जगत आधार ।


गु बिस तेिह राखा लिछमन नाम उदार ॥१९७॥

धरे नाम गुर हृदयँ िबचार । बेद त व नृप तव सुत चार ॥


मुिन धन जन सरबस िसव ूाना । बाल केिल तेिहं सुख माना ॥१॥
बारे िह ते िनज िहत पित जानी । लिछमन राम चरन रित मानी ॥
भरत सऽुहन दनउ
ू भाई । ूभु सेवक जिस ूीित बड़ाई ॥२॥
ःयाम गौर सुंदर दोउ जोर । िनरखिहं छिब जननीं तृन तोर ॥
चािरउ सील प गुन धामा । तदिप अिधक सुखसागर रामा ॥३॥
हृदयँ अनुमह इं द ु ूकासा । सूचत िकरन मनोहर हासा ॥
कबहँु उछं ग कबहँु बर पलना । मातु दलारइ
ु किह िूय ललना ॥४॥

दोहरा
यापक ॄ िनरं जन िनगुन िबगत िबनोद ।
सो अज ूेम भगित बस कौस या के गोद ॥१९८॥

काम कोिट छिब ःयाम सर रा । नील कंज बािरद गंभीरा ॥


अ न चरन पकंज नख जोती । कमल दल न्ह बैठे जनु मोती ॥१॥
रे ख कुिलस धवज अंकुर सोहे । नूपुर धुिन सुिन मुिन मन मोहे ॥
किट िकंिकनी उदर ऽय रे खा । नािभ गभीर जान जेिह दे खा ॥२॥
भुज िबसाल भूषन जुत भूर । िहयँ हिर नख अित सोभा र ॥
उर मिनहार पिदक क सोभा । िबू चरन दे खत मन लोभा ॥३॥
कंबु कंठ अित िचबुक सुहाई । आनन अिमत मदन छिब छाई ॥
दइु दइु दसन अधर अ नारे । नासा ितलक को बरनै पारे ॥४॥
सुंदर ौवन सुचा कपोला । अित िूय मधुर तोतरे बोला ॥
िच कन कच कुंिचत गभुआरे । बहु ूकार रिच मातु सँवारे ॥५॥
पीत झगुिलआ तनु पिहराई । जानु पािन िबचरिन मोिह भाई ॥
प सकिहं निहं किह ौुित सेषा । सो जानइ सपनेहुँ जेिह दे खा ॥६॥

दोहरा
सुख संदोह मोहपर यान िगरा गोतीत ।
दं पित परम ूेम बस कर िससुचिरत पुनीत ॥१९९॥

एिह िबिध राम जगत िपतु माता । कोसलपुर बािसन्ह सुखदाता ॥


जन्ह रघुनाथ चरन रित मानी । ितन्ह क यह गित ूगट भवानी ॥१ ॥
रघुपित िबमुख जतन कर कोर । कवन सकइ भव बंधन छोर ॥

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रामचिरतमानस - 85 - बालकांड

जीव चराचर बस कै राखे । सो माया ूभु स भय भाखे ॥२॥


भृकुिट िबलास नचावइ ताह । अस ूभु छािड़ भ जअ कहु काह ॥
मन बम बचन छािड़ चतुराई । भजत कृ पा किरहिहं रघुराई ॥३॥
एिह िबिध िससुिबनोद ूभु क न्हा । सकल नगरबािसन्ह सुख द न्हा ॥
लै उछं ग कबहँु क हलरावै । कबहँु पालन घािल झुलावै ॥४॥

दोहरा
ूेम मगन कौस या िनिस िदन जात न जान ।
सुत सनेह बस माता बालचिरत कर गान ॥२००॥

एक बार जननीं अन्हवाए । किर िसंगार पलनाँ पौढ़ाए ॥


िनज कुल इ दे व भगवाना । पूजा हे तु क न्ह अःनाना ॥१॥
किर पूजा नैबे चढ़ावा । आपु गई जहँ पाक बनावा ॥
बहिर
ु मातु तहवाँ चिल आई । भोजन करत दे ख सुत जाई ॥२॥
गै जननी िससु पिहं भयभीता । दे खा बाल तहाँ पुिन सूता ॥
बहिर
ु आइ दे खा सुत सोई । हृदयँ कंप मन धीर न होई ॥३॥
इहाँ उहाँ दइु बालक दे खा । मितॅम मोर िक आन िबसेषा ॥
दे ख राम जननी अकुलानी । ूभु हँ िस द न्ह मधुर मुसुकानी ॥४॥

दोहरा
दे खरावा मातिह िनज अदभुत प अखंड ।
रोम रोम ूित लागे कोिट कोिट ॄ ड
ं ॥२०१॥

अगिनत रिब सिस िसव चतुरानन । बहु िगिर सिरत िसंधु मिह कानन ॥
काल कम गुन यान सुभाऊ । सोउ दे खा जो सुना न काऊ ॥१॥
दे खी माया सब िबिध गाढ़ । अित सभीत जोर कर ठाढ़ ॥
दे खा जीव नचावइ जाह । दे खी भगित जो छोरइ ताह ॥२॥
तन पुलिकत मुख बचन न आवा । नयन मूिद चरनिन िस नावा ॥
िबसमयवंत दे ख महतार । भए बहिर
ु िससु प खरार ॥३॥
अःतुित किर न जाइ भय माना । जगत िपता म सुत किर जाना ॥
हिर जनिन बहिबिध
ु समुझाई । यह जिन कतहँु कहिस सुनु माई ॥४॥

दोहरा
बार बार कौस या िबनय करइ कर जोिर ॥
अब जिन कबहँू यापै ूभु मोिह माया तोिर ॥२०२॥

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रामचिरतमानस - 86 - बालकांड

बालचिरत हिर बहिबिध


ु क न्हा । अित अनंद दासन्ह कहँ द न्हा ॥
कछुक काल बीत सब भाई । बड़े भए पिरजन सुखदाई ॥१॥
चूड़ाकरन क न्ह गु जाई । िबून्ह पुिन दिछना बहु पाई ॥
परम मनोहर चिरत अपारा । करत िफरत चािरउ सुकुमारा ॥२॥
मन बम बचन अगोचर जोई । दसरथ अ जर िबचर ूभु सोई ॥
भोजन करत बोल जब राजा । निहं आवत तज बाल समाजा ॥३॥
कौस या जब बोलन जाई । ठु मकु ठु मकु ूभु चलिहं पराई ॥
िनगम नेित िसव अंत न पावा । तािह धरै जननी हिठ धावा ॥४॥
धूरस धूिर भर तनु आए । भूपित िबहिस गोद बैठाए ॥५॥

दोहरा
भोजन करत चपल िचत इत उत अवस पाइ ।
भा ज चले िकलकत मुख दिध ओदन लपटाइ ॥२०३॥

बालचिरत अित सरल सुहाए । सारद सेष संभु ौुित गाए ॥


जन कर मन इन्ह सन निहं राता । ते जन बंिचत िकए िबधाता ॥१॥
भए कुमार जबिहं सब ॅाता । द न्ह जनेऊ गु िपतु माता ॥
गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई । अलप काल िब ा सब आई ॥२॥
जाक सहज ःवास ौुित चार । सो हिर पढ़ यह कौतुक भार ॥
िब ा िबनय िनपुन गुन सीला । खेलिहं खेल सकल नृपलीला ॥३॥
करतल बान धनुष अित सोहा । दे खत प चराचर मोहा ॥
जन्ह बीिथन्ह िबहरिहं सब भाई । थिकत होिहं सब लोग लुगाई ॥४॥

दोहरा
कोसलपुर बासी नर नािर बृ अ बाल ।
ूानहु ते िूय लागत सब कहँु राम कृ पाल ॥२०४॥

बंधु सखा संग लेिहं बोलाई । बन मृगया िनत खेलिहं जाई ॥


पावन मृग मारिहं जयँ जानी । िदन ूित नृपिह दे खाविहं आनी ॥१॥
जे मृग राम बान के मारे । ते तनु तज सुरलोक िसधारे ॥
अनुज सखा सँग भोजन करह ं । मातु िपता अ या अनुसरह ं ॥२॥
जेिह िबिध सुखी होिहं पुर लोगा । करिहं कृ पािनिध सोइ संजोगा ॥
बेद पुरान सुनिहं मन लाई । आपु कहिहं अनुजन्ह समुझाई ॥३॥
ूातकाल उिठ कै रघुनाथा । मातु िपता गु नाविहं माथा ॥
आयसु मािग करिहं पुर काजा । दे ख चिरत हरषइ मन राजा ॥४॥

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रामचिरतमानस - 87 - बालकांड

दोहरा
यापक अकल अनीह अज िनगुन नाम न प ।
भगत हे तु नाना िबिध करत चिरऽ अनूप ॥२०५॥

यह सब चिरत कहा म गाई । आिगिल कथा सुनहु मन लाई ॥


िबःवािमऽ महामुिन यानी । बसिह िबिपन सुभ आौम जानी ॥१॥
जहँ जप ज य मुिन करह । अित मार च सुबाहिह
ु डरह ं ॥
दे खत ज य िनसाचर धाविह । करिह उपिव मुिन दख
ु पाविहं ॥२॥
गािधतनय मन िचंता यापी । हिर िबनु मरिह न िनिसचर पापी ॥
तब मुिनवर मन क न्ह िबचारा । ूभु अवतरे उ हरन मिह भारा ॥३॥
एहँु िमस दे ख पद जाई । किर िबनती आनौ दोउ भाई ॥
यान िबराग सकल गुन अयना । सो ूभु मै दे खब भिर नयना ॥४॥

दोहरा
बहिबिध
ु करत मनोरथ जात लािग निहं बार ।
किर म जन सरऊ जल गए भूप दरबार ॥२०६॥

मुिन आगमन सुना जब राजा । िमलन गयऊ लै िबू समाजा ॥


किर दं डवत मुिनिह सनमानी । िनज आसन बैठारे न्ह आनी ॥१॥
चरन पखािर क न्ह अित पूजा । मो सम आजु धन्य निहं दजा
ू ॥
िबिबध भाँित भोजन करवावा । मुिनवर हृदयँ हरष अित पावा ॥२॥
पुिन चरनिन मेले सुत चार । राम दे ख मुिन दे ह िबसार ॥
भए मगन दे खत मुख सोभा । जनु चकोर पूरन सिस लोभा ॥३॥
तब मन हरिष बचन कह राऊ । मुिन अस कृ पा न क न्हहु काऊ ॥
केिह कारन आगमन तु हारा । कहहु सो करत न लावउँ बारा ॥४॥
असुर समूह सताविहं मोह । मै जाचन आयउँ नृप तोह ॥
अनुज समेत दे हु रघुनाथा । िनिसचर बध म होब सनाथा ॥५॥

दोहरा
दे हु भूप मन हरिषत तजहु मोह अ यान ।
धम सुजस ूभु तु ह क इन्ह कहँ अित क यान ॥२०७॥

सुिन राजा अित अिूय बानी । हृदय कंप मुख दित


ु कुमुलानी ॥
चौथपन पायउँ सुत चार । िबू बचन निहं कहे हु िबचार ॥१॥
मागहु भूिम धेनु धन कोसा । सबस दे उँ आजु सहरोसा ॥

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रामचिरतमानस - 88 - बालकांड

दे ह ूान त िूय कछु नाह । सोउ मुिन दे उँ िनिमष एक माह ॥२॥


सब सुत िूय मोिह ूान िक ना । राम दे त निहं बनइ गोसाई ॥
कहँ िनिसचर अित घोर कठोरा । कहँ सुंदर सुत परम िकसोरा ॥३॥
सुिन नृप िगरा ूेम रस सानी । हृदयँ हरष माना मुिन यानी ॥
तब बिस बहु िनिध समुझावा । नृप संदेह नास कहँ पावा ॥४॥
अित आदर दोउ तनय बोलाए । हृदयँ लाइ बहु भाँित िसखाए ॥
मेरे ूान नाथ सुत दोऊ । तु ह मुिन िपता आन निहं कोऊ ॥५॥

दोहरा
स पे भूप िरिषिह सुत बहु िबिध दे इ असीस ।
जननी भवन गए ूभु चले नाइ पद सीस ॥२०८(क)॥

सोरठा
पु षिसंह दोउ बीर हरिष चले मुिन भय हरन ॥
कृ पािसंधु मितधीर अ खल िबःव कारन करन ॥२०८(ख)॥

अ न नयन उर बाहु िबसाला । नील जलज तनु ःयाम तमाला ॥


किट पट पीत कस बर भाथा । िचर चाप सायक दहँु ु हाथा ॥१॥
ःयाम गौर सुंदर दोउ भाई । िबःबािमऽ महािनिध पाई ॥
ूभु ॄ न्यदे व मै जाना । मोिह िनित िपता तजेहु भगवाना ॥२॥
चले जात मुिन द न्ह िदखाई । सुिन ताड़का बोध किर धाई ॥
एकिहं बान ूान हिर लीन्हा । दन जािन तेिह िनज पद द न्हा ॥३॥
तब िरिष िनज नाथिह जयँ चीन्ह । िब ािनिध कहँु िब ा द न्ह ॥
जाते लाग न छुधा िपपासा । अतुिलत बल तनु तेज ूकासा ॥४॥

दोहरा
आयुष सब समिप कै ूभु िनज आौम आिन ।
कंद मूल फल भोजन द न्ह भगित िहत जािन ॥२०९॥

ूात कहा मुिन सन रघुराई । िनभय ज य करहु तु ह जाई ॥


होम करन लागे मुिन झार । आपु रहे मख कं रखवार ॥१॥
सुिन मार च िनसाचर बोह । लै सहाय धावा मुिनिोह ॥
िबनु फर बान राम तेिह मारा । सत जोजन गा सागर पारा ॥२॥
पावक सर सुबाहु पुिन मारा । अनुज िनसाचर कटकु सँघारा ॥
मािर असुर ि ज िनमयकार । अःतुित करिहं दे व मुिन झार ॥३॥
तहँ पुिन कछुक िदवस रघुराया । रहे क न्ह िबून्ह पर दाया ॥

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रामचिरतमानस - 89 - बालकांड

भगित हे तु बहु कथा पुराना । कहे िबू ज िप ूभु जाना ॥४॥


तब मुिन सादर कहा बुझाई । चिरत एक ूभु दे खअ जाई ॥
धनुषज य मुिन रघुकुल नाथा । हरिष चले मुिनबर के साथा ॥५॥
आौम एक दख मग माह ं । खग मृग जीव जंतु तहँ नाह ं ॥
पूछा मुिनिह िसला ूभु दे खी । सकल कथा मुिन कहा िबसेषी ॥६॥

दोहरा
गौतम नािर ौाप बस उपल दे ह धिर धीर ।
चरन कमल रज चाहित कृ पा करहु रघुबीर ॥२१०॥

छं द
परसत पद पावन सोक नसावन ूगट भई तपपुंज सह ।
दे खत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोिर रह ॥
अित ूेम अधीरा पुलक सर रा मुख निहं आवइ बचन कह ।
अितसय बड़भागी चरन न्ह लागी जुगल नयन जलधार बह ॥
धीरजु मन क न्हा ूभु कहँु चीन्हा रघुपित कृ पाँ भगित पाई ।
अित िनमल बानीं अःतुित ठानी यानग य जय रघुराई ॥
मै नािर अपावन ूभु जग पावन रावन िरपु जन सुखदाई ।
राजीव िबलोचन भव भय मोचन पािह पािह सरनिहं आई ॥
मुिन ौाप जो द न्हा अित भल क न्हा परम अनुमह म माना ।
दे खेउँ भिर लोचन हिर भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना ॥
िबनती ूभु मोर म मित भोर नाथ न मागउँ बर आना ।
पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना ॥
जेिहं पद सुरसिरता परम पुनीता ूगट भई िसव सीस धर ।
सोइ पद पंकज जेिह पूजत अज मम िसर धरे उ कृ पाल हर ॥
एिह भाँित िसधार गौतम नार बार बार हिर चरन पर ।
जो अित मन भावा सो ब पावा गै पितलोक अनंद भर ॥

दोहरा
अस ूभु द नबंधु हिर कारन रिहत दयाल ।
तुलिसदास सठ तेिह भजु छािड़ कपट जंजाल ॥२११॥

मासपारायण सातवाँ िवौाम

चले राम लिछमन मुिन संगा । गए जहाँ जग पाविन गंगा ॥


गािधसूनु सब कथा सुनाई । जेिह ूकार सुरसिर मिह आई ॥१॥

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रामचिरतमानस - 90 - बालकांड

तब ूभु िरिषन्ह समेत नहाए । िबिबध दान मिहदे व न्ह पाए ॥


हरिष चले मुिन बृद
ं सहाया । बेिग िबदे ह नगर िनअराया ॥२॥
पुर र यता राम जब दे खी । हरषे अनुज समेत िबसेषी ॥
बापीं कूप सिरत सर नाना । सिलल सुधासम मिन सोपाना ॥३॥
गुंजत मंजु म रस भृंगा । कूजत कल बहबरन
ु िबहं गा ॥
बरन बरन िबकसे बन जाता । िऽिबध समीर सदा सुखदाता ॥४॥

दोहरा
सुमन बािटका बाग बन िबपुल िबहं ग िनवास ।
फूलत फलत सुप लवत सोहत पुर चहँु पास ॥२१२॥

बनइ न बरनत नगर िनकाई । जहाँ जाइ मन तहँ इँ लोभाई ॥


चा बजा िबिचऽ अँबार । मिनमय िबिध जनु ःवकर सँवार ॥१॥
धिनक बिनक बर धनद समाना । बैठ सकल बःतु लै नाना ॥
चौहट सुंदर गलीं सुहाई । संतत रहिहं सुगंध िसंचाई ॥२॥
मंगलमय मंिदर सब केर । िचिऽत जनु रितनाथ िचतेर ॥
पुर नर नािर सुभग सुिच संता । धरमसील यानी गुनवंता ॥३॥
अित अनूप जहँ जनक िनवासू । िबथकिहं िबबुध िबलोिक िबलासू ॥
होत चिकत िचत कोट िबलोक । सकल भुवन सोभा जनु रोक ॥४॥

दोहरा
धवल धाम मिन पुरट पट सुघिटत नाना भाँित ।
िसय िनवास सुंदर सदन सोभा िकिम किह जाित ॥२१३॥

सुभग ार सब कुिलस कपाटा । भूप भीर नट मागध भाटा ॥


बनी िबसाल बा ज गज साला । हय गय रथ संकुल सब काला ॥१॥
सूर सिचव सेनप बहते
ु रे । नृपगृह सिरस सदन सब केरे ॥
पुर बाहे र सर सािरत समीपा । उतरे जहँ तहँ िबपुल मह पा ॥२॥
दे ख अनूप एक अँवराई । सब सुपास सब भाँित सुहाई ॥
कौिसक कहे उ मोर मनु माना । इहाँ रिहअ रघुबीर सुजाना ॥३॥
भलेिहं नाथ किह कृ पािनकेता । उतरे तहँ मुिनबृंद समेता ॥
िबःवािमऽ महामुिन आए । समाचार िमिथलापित पाए ॥४॥

दोहरा

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रामचिरतमानस - 91 - बालकांड

संग सिचव सुिच भूिर भट भूसुर बर गुर याित ।


चले िमलन मुिननायकिह मुिदत राउ एिह भाँित ॥२१४॥

क न्ह ूनामु चरन धिर माथा । द न्ह असीस मुिदत मुिननाथा ॥


िबूबृंद सब सादर बंदे । जािन भा य बड़ राउ अनंदे ॥१॥
कुसल ूःन किह बारिहं बारा । िबःवािमऽ नृपिह बैठारा ॥
तेिह अवसर आए दोउ भाई । गए रहे दे खन फुलवाई ॥२॥
ःयाम गौर मृद ु बयस िकसोरा । लोचन सुखद िबःव िचत चोरा ॥
उठे सकल जब रघुपित आए । िबःवािमऽ िनकट बैठाए ॥३॥
भए सब सुखी दे ख दोउ ॅाता । बािर िबलोचन पुलिकत गाता ॥
मूरित मधुर मनोहर दे खी । भयउ िबदे हु िबदे हु िबसेषी ॥४॥

दोहरा
ूेम मगन मनु जािन नृपु किर िबबेकु धिर धीर ।
बोलेउ मुिन पद नाइ िस गदगद िगरा गभीर ॥२१५॥

कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक । मुिनकुल ितलक िक नृपकुल पालक ॥


ॄ जो िनगम नेित किह गावा । उभय बेष धिर क सोइ आवा ॥१॥
सहज िबराग प मनु मोरा । थिकत होत जिम चंद चकोरा ॥
ताते ूभु पूछउँ सितभाऊ । कहहु नाथ जिन करहु दराऊ
ु ॥२॥
इन्हिह िबलोकत अित अनुरागा । बरबस ॄ सुखिह मन यागा ॥
कह मुिन िबहिस कहे हु नृप नीका । बचन तु हार न होइ अलीका ॥३॥
ए िूय सबिह जहाँ लिग ूानी । मन मुसुकािहं रामु सुिन बानी ॥
रघुकुल मिन दसरथ के जाए । मम िहत लािग नरे स पठाए ॥४॥

दोहरा
रामु लखनु दोउ बंधुबर प सील बल धाम ।
मख राखेउ सबु सा ख जगु जते असुर संमाम ॥२१६॥

मुिन तव चरन दे ख कह राऊ । किह न सकउँ िनज पुन्य ूाभाऊ ॥


सुंदर ःयाम गौर दोउ ॅाता । आनँदहू के आनँद दाता ॥१॥
इन्ह कै ूीित परसपर पाविन । किह न जाइ मन भाव सुहाविन ॥
सुनहु नाथ कह मुिदत िबदे हू । ॄ जीव इव सहज सनेहू ॥२॥
पुिन पुिन ूभुिह िचतव नरनाहू । पुलक गात उर अिधक उछाहू ॥
ॆुिनिह ूसंिस नाइ पद सीसू । चलेउ लवाइ नगर अवनीसू ॥३॥
सुंदर सदनु सुखद सब काला । तहाँ बासु लै द न्ह भुआला ॥

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रामचिरतमानस - 92 - बालकांड

किर पूजा सब िबिध सेवकाई । गयउ राउ गृह िबदा कराई ॥४॥

दोहरा
िरषय संग रघुबंस मिन किर भोजनु िबौामु ।
बैठे ूभु ॅाता सिहत िदवसु रहा भिर जामु ॥२१७॥

लखन हृदयँ लालसा िबसेषी । जाइ जनकपुर आइअ दे खी ॥


ूभु भय बहिर
ु मुिनिह सकुचाह ं । ूगट न कहिहं मनिहं मुसुकाह ं ॥१॥
राम अनुज मन क गित जानी । भगत बछलता िहं यँ हलसानी
ु ॥
परम िबनीत सकुिच मुसुकाई । बोले गुर अनुसासन पाई ॥२॥
नाथ लखनु पु दे खन चहह ं । ूभु सकोच डर ूगट न कहह ं ॥
ज राउर आयसु म पाव । नगर दे खाइ तुरत लै आवौ ॥३॥
सुिन मुनीसु कह बचन सूीती । कस न राम तु ह राखहु नीती ॥
धरम सेतु पालक तु ह ताता । ूेम िबबस सेवक सुखदाता ॥४॥

दोहरा
जाइ दे खी आवहु नग सुख िनधान दोउ भाइ ।
करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन दे खाइ ॥२१८॥

मासपारायण, आठवाँ िवौाम


नवान्हपारायण, दसरा
ू िवौाम

मुिन पद कमल बंिद दोउ ॅाता । चले लोक लोचन सुख दाता ॥
बालक बृंिद दे ख अित सोभा । लगे संग लोचन मनु लोभा ॥१॥
पीत बसन पिरकर किट भाथा । चा चाप सर सोहत हाथा ॥
तन अनुहरत सुचंदन खोर । ःयामल गौर मनोहर जोर ॥२॥
केहिर कंधर बाहु िबसाला । उर अित िचर नागमिन माला ॥
सुभग सोन सरसी ह लोचन । बदन मयंक तापऽय मोचन ॥३॥
कान न्ह कनक फूल छिब दे ह ं । िचतवत िचतिह चोिर जनु लेह ं ॥
िचतविन चा भृकुिट बर बाँक । ितलक रे खा सोभा जनु चाँक ॥४॥

दोहरा
िचर चौतनीं सुभग िसर मेचक कुंिचत केस ।
नख िसख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस ॥२१९॥

दे खन नग भूपसुत आए । समाचार पुरबािसन्ह पाए ॥


धाए धाम काम सब यागी । मनहु रं क िनिध लूटन लागी ॥१॥

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रामचिरतमानस - 93 - बालकांड

िनर ख सहज सुंदर दोउ भाई । होिहं सुखी लोचन फल पाई ॥


जुबतीं भवन झरोख न्ह लागीं । िनरखिहं राम प अनुरागीं ॥२॥
कहिहं परसपर बचन सूीती । सख इन्ह कोिट काम छिब जीती ॥
सुर नर असुर नाग मुिन माह ं । सोभा अिस कहँु सुिनअित नाह ं ॥३॥
िबंनु चािर भुज िबिघ मुख चार । िबकट बेष मुख पंच पुरार ॥
अपर दे उ अस कोउ न आह । यह छिब सख पटतिरअ जाह ॥४॥

दोहरा
बय िकसोर सुषमा सदन ःयाम गौर सुख घाम ।
अंग अंग पर वािरअिहं कोिट कोिट सत काम ॥२२०॥

कहहु सखी अस को तनुधार । जो न मोह यह प िनहार ॥


कोउ सूेम बोली मृद ु बानी । जो म सुना सो सुनहु सयानी ॥१॥
ए दोऊ दसरथ के ढोटा । बाल मराल न्ह के कल जोटा ॥
मुिन कौिसक मख के रखवारे । जन्ह रन अ जर िनसाचर मारे ॥२॥
ःयाम गात कल कंज िबलोचन । जो मार च सुभुज मद ु मोचन ॥
कौस या सुत सो सुख खानी । नामु रामु धनु सायक पानी ॥३॥
गौर िकसोर बेषु बर काछ । कर सर चाप राम के पाछ ॥
लिछमनु नामु राम लघु ॅाता । सुनु सख तासु सुिमऽा माता ॥४॥

दोहरा
िबूकाजु किर बंधु दोउ मग मुिनबधू उधािर ।
आए दे खन चापमख सुिन हरषीं सब नािर ॥२२१॥

दे ख राम छिब कोउ एक कहई । जोगु जानिकिह यह ब अहई ॥


जौ सख इन्हिह दे ख नरनाहू । पन पिरहिर हिठ करइ िबबाहू ॥१॥
कोउ कह ए भूपित पिहचाने । मुिन समेत सादर सनमाने ॥
सख परं तु पनु राउ न तजई । िबिध बस हिठ अिबबेकिह भजई ॥२॥
कोउ कह ज भल अहइ िबधाता । सब कहँ सुिनअ उिचत फलदाता ॥
तौ जानिकिह िमिलिह ब एहू । नािहन आिल इहाँ संदेहू ॥३॥
जौ िबिध बस अस बनै सँजोगू । तौ कृ तकृ य होइ सब लोगू ॥
सख हमर आरित अित तात । कबहँु क ए आविहं एिह नात ॥४॥

दोहरा

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रामचिरतमानस - 94 - बालकांड

नािहं त हम कहँु सुनहु सख इन्ह कर दरसनु दिर


ू ।
यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृ त भूिर ॥२२२॥

बोली अपर कहे हु सख नीका । एिहं िबआह अित िहत सबह ं का ॥


कोउ कह संकर चाप कठोरा । ए ःयामल मृदगात
ु िकसोरा ॥१॥
सबु असमंजस अहइ सयानी । यह सुिन अपर कहइ मृद ु बानी ॥
सख इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहह ं । बड़ ूभाउ दे खत लघु अहह ं ॥२॥
परिस जासु पद पंकज धूर । तर अह या कृ त अघ भूर ॥
सो िक रिहिह िबनु िसवधनु तोर । यह ूतीित पिरहिरअ न भोर ॥३॥
जेिहं िबरं िच रिच सीय सँवार । तेिहं ःयामल ब रचेउ िबचार ॥
तासु बचन सुिन सब हरषानीं । ऐसेइ होउ कहिहं मुद ु बानी ॥४॥

दोहरा
िहयँ हरषिहं बरषिहं सुमन सुमु ख सुलोचिन बृंद ।
जािहं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद ॥२२३॥

पुर पूरब िदिस गे दोउ भाई । जहँ धनुमख िहत भूिम बनाई ॥
अित िबःतार चा गच ढार । िबमल बेिदका िचर सँवार ॥१॥
चहँु िदिस कंचन मंच िबसाला । रचे जहाँ बेठिहं मिहपाला ॥
तेिह पाछ समीप चहँु पासा । अपर मंच मंडली िबलासा ॥२॥
कछुक ऊँिच सब भाँित सुहाई । बैठिहं नगर लोग जहँ जाई ॥
ितन्ह के िनकट िबसाल सुहाए । धवल धाम बहबरन
ु बनाए ॥३॥
जहँ बठ दे खिहं सब नार । जथा जोगु िनज कुल अनुहार ॥
पुर बालक किह किह मृद ु बचना । सादर ूभुिह दे खाविहं रचना ॥४॥

दोहरा
सब िससु एिह िमस ूेमबस परिस मनोहर गात ।
तन पुलकिहं अित हरषु िहयँ दे ख दे ख दोउ ॅात ॥२२४॥

िससु सब राम ूेमबस जाने । ूीित समेत िनकेत बखाने ॥


िनज िनज िच सब लिहं बोलाई । सिहत सनेह जािहं दोउ भाई ॥१॥
राम दे खाविहं अनुजिह रचना । किह मृद ु मधुर मनोहर बचना ॥
लव िनमेष महँ भुवन िनकाया । रचइ जासु अनुसासन माया ॥२॥
भगित हे तु सोइ द नदयाला । िचतवत चिकत धनुष मखसाला ॥
कौतुक दे ख चले गु पाह ं । जािन िबलंबु ऽास मन माह ं ॥३॥
जासु ऽास डर कहँु डर होई । भजन ूभाउ दे खावत सोई ॥

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रामचिरतमानस - 95 - बालकांड

किह बात मृद ु मधुर सुहा । िकए िबदा बालक बिरआई ॥४॥

दोहरा
सभय सूेम िबनीत अित सकुच सिहत दोउ भाइ ।
गुर पद पंकज नाइ िसर बैठे आयसु पाइ ॥२२५॥

िनिस ूबेस मुिन आयसु द न्हा । सबह ं सं याबंदनु क न्हा ॥


कहत कथा इितहास पुरानी । िचर रजिन जुग जाम िसरानी ॥१॥
मुिनबर सयन क न्ह तब जाई । लगे चरन चापन दोउ भाई ॥
जन्ह के चरन सरो ह लागी । करत िबिबध जप जोग िबरागी ॥२॥
तेइ दोउ बंधु ूेम जनु जीते । गुर पद कमल पलोटत ूीते ॥
बारबार मुिन अ या द न्ह । रघुबर जाइ सयन तब क न्ह ॥३॥
चापत चरन लखनु उर लाएँ । सभय सूेम परम सचु पाएँ ॥
पुिन पुिन ूभु कह सोवहु ताता । पौढ़े धिर उर पद जलजाता ॥४॥

दोहरा
उठे लखन िनिस िबगत सुिन अ निसखा धुिन कान ॥
गुर त पिहलेिहं जगतपित जागे रामु सुजान ॥२२६॥

सकल सौच किर जाइ नहाए । िन य िनबािह मुिनिह िसर नाए ॥


समय जािन गुर आयसु पाई । लेन ूसून चले दोउ भाई ॥१॥
भूप बागु बर दे खेउ जाई । जहँ बसंत िरतु रह लोभाई ॥
लागे िबटप मनोहर नाना । बरन बरन बर बेिल िबताना ॥२॥
नव प लव फल सुमान सुहाए । िनज संपित सुर ख लजाए ॥
चातक कोिकल कर चकोरा । कूजत िबहग नटत कल मोरा ॥३॥
म य बाग स सोह सुहावा । मिन सोपान िबिचऽ बनावा ॥
िबमल सिललु सरिसज बहरंु गा । जलखग कूजत गुंजत भृंगा ॥४॥

दोहरा
बागु तड़ागु िबलोिक ूभु हरषे बंधु समेत ।
परम र य आरामु यहु जो रामिह सुख दे त ॥२२७॥

चहँु िदिस िचतइ पूँिछ मािलगन । लगे लेन दल फूल मुिदत मन ॥


तेिह अवसर सीता तहँ आई । िगिरजा पूजन जनिन पठाई ॥१॥
संग सखीं सब सुभग सयानी । गाविहं गीत मनोहर बानी ॥
सर समीप िगिरजा गृह सोहा । बरिन न जाइ दे ख मनु मोहा ॥२॥

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रामचिरतमानस - 96 - बालकांड

म जनु किर सर स खन्ह समेता । गई मुिदत मन गौिर िनकेता ॥


पूजा क न्ह अिधक अनुरागा । िनज अनु प सुभग ब मागा ॥३॥
एक सखी िसय संगु िबहाई । गई रह दे खन फुलवाई ॥
तेिह दोउ बंधु िबलोके जाई । ूेम िबबस सीता पिहं आई ॥४॥

दोहरा
तासु दसा दे ख स खन्ह पुलक गात जलु नैन ।
कहु कारनु िनज हरष कर पूछिह सब मृद ु बैन ॥२२८॥

दे खन बागु कुअँर दइु आए । बय िकसोर सब भाँित सुहाए ॥


ःयाम गौर िकिम कह बखानी । िगरा अनयन नयन िबनु बानी ॥१॥
सुिन हरषी सब सखीं सयानी । िसय िहयँ अित उतकंठा जानी ॥
एक कहइ नृपसुत तेइ आली । सुने जे मुिन सँग आए काली ॥२॥
जन्ह िनज प मोहनी डार । क न्ह ःवबस नगर नर नार ॥
बरनत छिब जहँ तहँ सब लोगू । अविस दे खअिहं दे खन जोगू ॥३॥
तासु वचन अित िसयिह सुहाने । दरस लािग लोचन अकुलाने ॥
चली अम किर िूय सख सोई । ूीित पुरातन लखइ न कोई ॥४॥

दोहरा
सुिमिर सीय नारद बचन उपजी ूीित पुनीत ॥
चिकत िबलोकित सकल िदिस जनु िससु मृगी सभीत ॥२२९॥

कंकन िकंिकिन नूपुर धुिन सुिन । कहत लखन सन रामु हृदयँ गुिन ॥
मानहँु मदन दं द
ु भी
ु द न्ह ॥ मनसा िबःव िबजय कहँ क न्ह ॥१॥
अस किह िफिर िचतए तेिह ओरा । िसय मुख सिस भए नयन चकोरा ॥
भए िबलोचन चा अचंचल । मनहँु सकुिच िनिम तजे िदगंचल ॥२॥
दे ख सीय सोभा सुखु पावा । हृदयँ सराहत बचनु न आवा ॥
जनु िबरं िच सब िनज िनपुनाई । िबरिच िबःव कहँ ूगिट दे खाई ॥३॥
सुंदरता कहँु सुंदर करई । छिबगृहँ द पिसखा जनु बरई ॥
सब उपमा किब रहे जुठार । केिहं पटतर िबदे हकुमार ॥४॥

दोहरा
िसय सोभा िहयँ बरिन ूभु आपिन दसा िबचािर ।
बोले सुिच मन अनुज सन बचन समय अनुहािर ॥२३०॥

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रामचिरतमानस - 97 - बालकांड

तात जनकतनया यह सोई । धनुषज य जेिह कारन होई ॥


पूजन गौिर सखीं लै आई । करत ूकासु िफरइ फुलवाई ॥१॥
जासु िबलोिक अलोिकक सोभा । सहज पुनीत मोर मनु छोभा ॥
सो सबु कारन जान िबधाता । फरकिहं सुभद अंग सुनु ॅाता ॥२॥
रघुबंिसन्ह कर सहज सुभाऊ । मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ ॥
मोिह अितसय ूतीित मन केर । जेिहं सपनेहुँ परनािर न हे र ॥३॥
जन्ह कै लहिहं न िरपु रन पीठ । निहं पाविहं परितय मनु डठ ॥
मंगन लहिह न जन्ह कै नाह ं । ते नरबर थोरे जग माह ं ॥४॥

दोहरा
करत बतकिह अनुज सन मन िसय प लोभान ।
मुख सरोज मकरं द छिब करइ मधुप इव पान ॥२३१॥

िचतविह चिकत चहँू िदिस सीता । कहँ गए नृपिकसोर मनु िचंता ॥


जहँ िबलोक मृग सावक नैनी । जनु तहँ बिरस कमल िसत ौेनी ॥१॥
लता ओट तब स खन्ह लखाए । ःयामल गौर िकसोर सुहाए ॥
दे ख प लोचन ललचाने । हरषे जनु िनज िनिध पिहचाने ॥२॥
थके नयन रघुपित छिब दे ख । पलक न्हहँू पिरहर ं िनमेष ॥
अिधक सनेहँ दे ह भै भोर । सरद सिसिह जनु िचतव चकोर ॥३॥
लोचन मग रामिह उर आनी । द न्हे पलक कपाट सयानी ॥
जब िसय स खन्ह ूेमबस जानी । किह न सकिहं कछु मन सकुचानी॥४॥

दोहरा
लताभवन त ूगट भे तेिह अवसर दोउ भाइ ।
िनकसे जनु जुग िबमल िबधु जलद पटल िबलगाइ ॥२३२॥

सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा । नील पीत जलजाभ सर रा ॥


मोरपंख िसर सोहत नीके । गु छ बीच िबच कुसुम कली के ॥१॥
भाल ितलक ौमिबंद ु सुहाए । ौवन सुभग भूषन छिब छाए ॥
िबकट भृकुिट कच घूघरवारे । नव सरोज लोचन रतनारे ॥२॥
चा िचबुक नािसका कपोला । हास िबलास लेत मनु मोला ॥
मुखछिब किह न जाइ मोिह पाह ं । जो िबलोिक बहु काम लजाह ं ॥३॥
उर मिन माल कंबु कल गीवा । काम कलभ कर भुज बलसींवा ॥
सुमन समेत बाम कर दोना । सावँर कुअँर सखी सुिठ लोना ॥४॥

दोहरा

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रामचिरतमानस - 98 - बालकांड

केहिर किट पट पीत धर सुषमा सील िनधान ।


दे ख भानुकुलभूषनिह िबसरा स खन्ह अपान ॥२३३॥

धिर धीरजु एक आिल सयानी । सीता सन बोली गिह पानी ॥


बहिर
ु गौिर कर यान करे हू । भूपिकसोर दे ख िकन लेहू ॥१॥
सकुिच सीयँ तब नयन उघारे । सनमुख दोउ रघुिसंघ िनहारे ॥
नख िसख दे ख राम कै सोभा । सुिमिर िपता पनु मनु अित छोभा ॥२ ॥
परबस स खन्ह लखी जब सीता । भयउ गह सब कहिह सभीता ॥
पुिन आउब एिह बेिरआँ काली । अस किह मन िबहसी एक आली ॥३॥
गूढ़ िगरा सुिन िसय सकुचानी । भयउ िबलंबु मातु भय मानी ॥
धिर बिड़ धीर रामु उर आने । िफिर अपनपउ िपतुबस जाने ॥४॥

दोहरा
दे खन िमस मृग िबहग त िफरइ बहोिर बहोिर ।
िनर ख िनर ख रघुबीर छिब बाढ़इ ूीित न थोिर ॥२३४॥

जािन किठन िसवचाप िबसूरित । चली रा ख उर ःयामल मूरित ॥


ूभु जब जात जानक जानी । सुख सनेह सोभा गुन खानी ॥१॥
परम ूेममय मृद ु मिस क न्ह । चा िचत भीतीं िलख लीन्ह ॥
गई भवानी भवन बहोर । बंिद चरन बोली कर जोर ॥२॥
जय जय िगिरबरराज िकसोर । जय महे स मुख चंद चकोर ॥
जय गज बदन षड़ानन माता । जगत जनिन दािमिन दित
ु गाता ॥३॥
निहं तव आिद म य अवसाना । अिमत ूभाउ बेद ु निहं जाना ॥
भव भव िबभव पराभव कािरिन । िबःव िबमोहिन ःवबस िबहािरिन ॥४॥

दोहरा
पितदे वता सुतीय महँु मातु ूथम तव रे ख ।
मिहमा अिमत न सकिहं किह सहस सारदा सेष ॥२३५॥

सेवत तोिह सुलभ फल चार । बरदायनी पुरािर िपआर ॥


दे िब पू ज पद कमल तु हारे । सुर नर मुिन सब होिहं सुखारे ॥१॥
मोर मनोरथु जानहु नीक । बसहु सदा उर पुर सबह क ॥
क न्हे उँ ूगट न कारन तेह ं । अस किह चरन गहे बैदेह ं ॥२॥
िबनय ूेम बस भई भवानी । खसी माल मूरित मुसुकानी ॥
सादर िसयँ ूसाद ु िसर धरे ऊ । बोली गौिर हरषु िहयँ भरे ऊ ॥३॥
सुनु िसय स य असीस हमार । पू जिह मन कामना तु हार ॥

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रामचिरतमानस - 99 - बालकांड

नारद बचन सदा सुिच साचा । सो ब िमिलिह जािहं मनु राचा ॥४॥

छं द
मनु जािहं राचेउ िमिलिह सो ब सहज सुंदर साँवरो ।
क ना िनधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ॥
एिह भाँित गौिर असीस सुिन िसय सिहत िहयँ हरषीं अली ।
तुलसी भवािनिह पू ज पुिन पुिन मुिदत मन मंिदर चली ॥

सोरठा
जािन गौिर अनुकूल िसय िहय हरषु न जाइ किह ।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ॥२३६॥

हृदयँ सराहत सीय लोनाई । गुर समीप गवने दोउ भाई ॥


राम कहा सबु कौिसक पाह ं । सरल सुभाउ छुअत छल नाह ं ॥१॥
सुमन पाइ मुिन पूजा क न्ह । पुिन असीस दहु ु भाइन्ह द न्ह ॥
सुफल मनोरथ होहँु तु हारे । रामु लखनु सुिन भए सुखारे ॥२॥
किर भोजनु मुिनबर िब यानी । लगे कहन कछु कथा पुरानी ॥
िबगत िदवसु गु आयसु पाई । सं या करन चले दोउ भाई ॥३॥
ूाची िदिस सिस उयउ सुहावा । िसय मुख सिरस दे ख सुखु पावा ॥
बहिर
ु िबचा क न्ह मन माह ं । सीय बदन सम िहमकर नाह ं ॥४॥

दोहरा
जनमु िसंधु पुिन बंधु िबषु िदन मलीन सकलंक ।
िसय मुख समता पाव िकिम चंद ु बापुरो रं क ॥२३७॥

घटइ बढ़इ िबरहिन दखदाई


ु । मसइ राहु िनज संिधिहं पाई ॥
कोक िसकूद पंकज िोह । अवगुन बहत
ु चंिमा तोह ॥१॥
बैदेह मुख पटतर द न्हे । होइ दोष बड़ अनुिचत क न्हे ॥
िसय मुख छिब िबधु याज बखानी । गु पिहं चले िनसा बिड़ जानी॥२॥
किर मुिन चरन सरोज ूनामा । आयसु पाइ क न्ह िबौामा ॥
िबगत िनसा रघुनायक जागे । बंधु िबलोिक कहन अस लागे ॥३॥
उदउ अ न अवलोकहु ताता । पंकज कोक लोक सुखदाता ॥
बोले लखनु जोिर जुग पानी । ूभु ूभाउ सूचक मृद ु बानी ॥४॥

दोहरा

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रामचिरतमानस - 100 - बालकांड

अ नोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोित मलीन ।


जिम तु हार आगमन सुिन भए नृपित बलह न ॥२३८॥

नृप सब नखत करिहं उ जआर । टािर न सकिहं चाप तम भार ॥


कमल कोक मधुकर खग नाना । हरषे सकल िनसा अवसाना ॥१॥
ऐसेिहं ूभु सब भगत तु हारे । होइहिहं ू
टट धनुष सुखारे ॥
उयउ भानु िबनु ौम तम नासा । दरेु नखत जग तेजु ूकासा ॥२॥
रिब िनज उदय याज रघुराया । ूभु ूतापु सब नृपन्ह िदखाया ॥
तव भुज बल मिहमा उदघाट । ूगट धनु िबघटन पिरपाट ॥३॥
बंधु बचन सुिन ूभु मुसुकाने । होइ सुिच सहज पुनीत नहाने ॥
िन यिबया किर गु पिहं आए । चरन सरोज सुभग िसर नाए ॥४॥
सतानंद ु तब जनक बोलाए । कौिसक मुिन पिहं तुरत पठाए ॥
जनक िबनय ितन्ह आइ सुनाई । हरषे बोिल िलए दोउ भाई ॥५॥

दोहरा
सतानंद पद बंिद ूभु बैठे गुर पिहं जाइ ।
चलहु तात मुिन कहे उ तब पठवा जनक बोलाइ ॥२३९॥

सीय ःवयंब दे खअ जाई । ईसु कािह ध दे इ बड़ाई ॥


लखन कहा जस भाजनु सोई । नाथ कृ पा तव जापर होई ॥१॥
हरषे मुिन सब सुिन बर बानी । द न्ह असीस सबिहं सुखु मानी ॥
पुिन मुिनबृंद समेत कृ पाला । दे खन चले धनुषमख साला ॥२॥
रं गभूिम आए दोउ भाई । अिस सुिध सब पुरबािसन्ह पाई ॥
चले सकल गृह काज िबसार । बाल जुबान जरठ नर नार ॥३॥
दे खी जनक भीर भै भार । सुिच सेवक सब िलए हँ कार ॥
तुरत सकल लोगन्ह पिहं जाहू । आसन उिचत दे हू सब काहू ॥४॥

दोहरा
किह मृद ु बचन िबनीत ितन्ह बैठारे नर नािर ।
उ म म यम नीच लघु िनज िनज थल अनुहािर ॥२४०॥

राजकुअँर तेिह अवसर आए । मनहँु मनोहरता तन छाए ॥


गुन सागर नागर बर बीरा । सुंदर ःयामल गौर सर रा ॥१॥
राज समाज िबराजत रे । उडगन महँु जनु जुग िबधु पूरे ॥
जन्ह क रह भावना जैसी । ूभु मूरित ितन्ह दे खी तैसी ॥२॥
दे खिहं प महा रनधीरा । मनहँु बीर रसु धर सर रा ॥

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रामचिरतमानस - 101 - बालकांड

डरे कुिटल नृप ूभुिह िनहार । मनहँु भयानक मूरित भार ॥३॥
रहे असुर छल छोिनप बेषा । ितन्ह ूभु ूगट कालसम दे खा ॥
पुरबािसन्ह दे खे दोउ भाई । नरभूषन लोचन सुखदाई ॥४॥

दोहरा
नािर िबलोकिहं हरिष िहयँ िनज िनज िच अनु प ।
जनु सोहत िसंगार धिर मूरित परम अनूप ॥२४१॥

िबदषन्ह
ु ूभु िबराटमय द सा । बहु मुख कर पग लोचन सीसा ॥
जनक जाित अवलोकिहं कैस । सजन सगे िूय लागिहं जैस ॥१॥
सिहत िबदे ह िबलोकिहं रानी । िससु सम ूीित न जाित बखानी ॥
जोिगन्ह परम त वमय भासा । सांत सु सम सहज ूकासा ॥२॥
हिरभगतन्ह दे खे दोउ ॅाता । इ दे व इव सब सुख दाता ॥
रामिह िचतव भायँ जेिह सीया । सो सनेहु सुखु निहं कथनीया ॥३॥
उर अनुभवित न किह सक सोऊ । कवन ूकार कहै किब कोऊ ॥
एिह िबिध रहा जािह जस भाऊ । तेिहं तस दे खेउ कोसलराऊ ॥४॥

दोहरा
राजत राज समाज महँु कोसलराज िकसोर ।
सुंदर ःयामल गौर तन िबःव िबलोचन चोर ॥२४२॥

सहज मनोहर मूरित दोऊ । कोिट काम उपमा लघु सोऊ ॥


सरद चंद िनंदक मुख नीके । नीरज नयन भावते जी के ॥१॥
िचतवत चा मार मनु हरनी । भावित हृदय जाित नह ं बरनी ॥
कल कपोल ौुित कुंडल लोला । िचबुक अधर सुद
ं र मृद ु बोला ॥२॥
कुमुदबंधु कर िनंदक हाँसा । भृकुट िबकट मनोहर नासा ॥
भाल िबसाल ितलक झलकाह ं । कच िबलोिक अिल अविल लजाह ं ॥३ ॥
पीत चौतनीं िसर न्ह सुहाई । कुसुम कलीं िबच बीच बना ॥
रे ख िचर कंबु कल गीवाँ । जनु िऽभुवन सुषमा क सीवाँ ॥४॥

दोहरा
कुंजर मिन कंठा किलत उर न्ह तुलिसका माल ।
बृषभ कंध केहिर ठविन बल िनिध बाहु िबसाल ॥२४३॥

किट तूनीर पीत पट बाँधे । कर सर धनुष बाम बर काँधे ॥


पीत ज य उपबीत सुहाए । नख िसख मंजु महाछिब छाए ॥१॥

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रामचिरतमानस - 102 - बालकांड

दे ख लोग सब भए सुखारे । एकटक लोचन चलत न तारे ॥


हरषे जनकु दे ख दोउ भाई । मुिन पद कमल गहे तब जाई ॥२॥
किर िबनती िनज कथा सुनाई । रं ग अविन सब मुिनिह दे खाई ॥
जहँ जहँ जािह कुअँर बर दोऊ । तहँ तहँ चिकत िचतव सबु कोऊ ॥३॥
िनज िनज ख रामिह सबु दे खा । कोउ न जान कछु मरमु िबसेषा ॥
भिल रचना मुिन नृप सन कहे ऊ । राजाँ मुिदत महासुख लहे ऊ ॥४॥

दोहरा
सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर िबसद िबसाल ।
मुिन समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे मिहपाल ॥२४४॥

ूभुिह दे ख सब नृप िहँ यँ हारे । जनु राकेस उदय भएँ तारे ॥


अिस ूतीित सब के मन माह ं । राम चाप तोरब सक नाह ं ॥१॥
िबनु भंजेहुँ भव धनुषु िबसाला । मेिलिह सीय राम उर माला ॥
अस िबचािर गवनहु घर भाई । जसु ूतापु बलु तेजु गवाँई ॥२॥
िबहसे अपर भूप सुिन बानी । जे अिबबेक अंध अिभमानी ॥
तोरे हुँ धनुषु याहु अवगाहा । िबनु तोर को कुअँिर िबआहा ॥३॥
एक बार कालउ िकन होऊ । िसय िहत समर जतब हम सोऊ ॥
यह सुिन अवर मिहप मुसकाने । धरमसील हिरभगत सयाने ॥४॥

सोरठा
सीय िबआहिब राम गरब दिर
ू किर नृपन्ह के ॥
जीित को सक संमाम दसरथ के रन बाँकुरे ॥२४५॥

यथ मरहु जिन गाल बजाई । मन मोदक न्ह िक भूख बुताई ॥


िसख हमािर सुिन परम पुनीता । जगदं बा जानहु जयँ सीता ॥१॥
जगत िपता रघुपितिह िबचार । भिर लोचन छिब लेहु िनहार ॥
सुंदर सुखद सकल गुन रासी । ए दोउ बंधु संभु उर बासी ॥२॥
सुधा समुि समीप िबहाई । मृगजलु िनर ख मरहु कत धाई ॥
करहु जाइ जा कहँु जोई भावा । हम तौ आजु जनम फलु पावा ॥३॥
अस किह भले भूप अनुरागे । प अनूप िबलोकन लागे ॥
दे खिहं सुर नभ चढ़े िबमाना । बरषिहं सुमन करिहं कल गाना ॥४॥

दोहरा

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रामचिरतमानस - 103 - बालकांड

जािन सुअवस सीय तब पठई जनक बोलाई ।


चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवा ॥२४६॥

िसय सोभा निहं जाइ बखानी । जगदं िबका प गुन खानी ॥


उपमा सकल मोिह लघु लागीं । ूाकृ त नािर अंग अनुरागीं ॥१॥
िसय बरिनअ तेइ उपमा दे ई । कुकिब कहाइ अजसु को लेई ॥
जौ पटतिरअ तीय सम सीया । जग अिस जुबित कहाँ कमनीया ॥२॥
िगरा मुखर तन अरध भवानी । रित अित द ु खत अतनु पित जानी ॥
िबष बा नी बंधु िूय जेह । किहअ रमासम िकिम बैदेह ॥३॥
जौ छिब सुधा पयोिनिध होई । परम पमय क छप सोई ॥
सोभा रजु मंद िसंगा । मथै पािन पंकज िनज मा ॥४॥

दोहरा
एिह िबिध उपजै ल छ जब सुंदरता सुख मूल ।
तदिप सकोच समेत किब कहिहं सीय समतूल ॥२४७॥

चिलं संग लै सखीं सयानी । गावत गीत मनोहर बानी ॥


सोह नवल तनु सुंदर सार । जगत जनिन अतुिलत छिब भार ॥१॥
भूषन सकल सुदेस सुहाए । अंग अंग रिच स खन्ह बनाए ॥
रं गभूिम जब िसय पगु धार । दे ख प मोहे नर नार ॥२॥
हरिष सुरन्ह दं द
ु भीं
ु बजाई । बरिष ूसून अपछरा गाई ॥
पािन सरोज सोह जयमाला । अवचट िचतए सकल भुआला ॥३॥
सीय चिकत िचत रामिह चाहा । भए मोहबस सब नरनाहा ॥
मुिन समीप दे खे दोउ भाई । लगे ललिक लोचन िनिध पाई ॥४॥

दोहरा
गुरजन लाज समाजु बड़ दे ख सीय सकुचािन ॥
लािग िबलोकन स खन्ह तन रघुबीरिह उर आिन ॥२४८॥

राम पु अ िसय छिब दे ख । नर नािरन्ह पिरहर ं िनमेष ॥


सोचिहं सकल कहत सकुचाह ं । िबिध सन िबनय करिहं मन माह ं ॥१॥
ह िबिध बेिग जनक जड़ताई । मित हमािर अिस दे िह सुहाई ॥
िबनु िबचार पनु तज नरनाहु । सीय राम कर करै िबबाहू ॥२॥
जग भल कहिह भाव सब काहू । हठ क न्हे अंतहँु उर दाहू ॥
एिहं लालसाँ मगन सब लोगू । ब साँवरो जानक जोगू ॥३॥
तब बंद जन जनक बौलाए । िबिरदावली कहत चिल आए ॥

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रामचिरतमानस - 104 - बालकांड

कह नृप जाइ कहहु पन मोरा । चले भाट िहयँ हरषु न थोरा ॥४॥

दोहरा
बोले बंद बचन बर सुनहु सकल मिहपाल ।
पन िबदे ह कर कहिहं हम भुजा उठाइ िबसाल ॥२४९॥

नृप भुजबल िबधु िसवधनु राहू । ग अ कठोर िबिदत सब काहू ॥


रावनु बानु महाभट भारे । दे ख सरासन गवँिहं िसधारे ॥१॥
सोइ पुरािर कोदं डु कठोरा । राज समाज आजु जोइ तोरा ॥
िऽभुवन जय समेत बैदेह ॥ िबनिहं िबचार बरइ हिठ तेह ॥२॥
सुिन पन सकल भूप अिभलाषे । भटमानी अितसय मन माखे ॥
पिरकर बाँिध उठे अकुलाई । चले इ दे वन्ह िसर नाई ॥३॥
तमिक तािक तिक िसवधनु धरह ं । उठइ न कोिट भाँित बलु करह ं ॥
जन्ह के कछु िबचा मन माह ं । चाप समीप मह प न जाह ं ॥४॥

दोहरा
तमिक धरिहं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलिहं लजाइ ।
मनहँु पाइ भट बाहबलु
ु अिधकु अिधकु ग आइ ॥२५०॥

भूप सहस दस एकिह बारा । लगे उठावन टरइ न टारा ॥


डगइ न संभु सरासन कैस । कामी बचन सती मनु जैस ॥१॥
सब नृप भए जोगु उपहासी । जैस िबनु िबराग संन्यासी ॥
क रित िबजय बीरता भार । चले चाप कर बरबस हार ॥२॥
ौीहत भए हािर िहयँ राजा । बैठे िनज िनज जाइ समाजा ॥
नृपन्ह िबलोिक जनकु अकुलाने । बोले बचन रोष जनु साने ॥३॥
दप दप के भूपित नाना । आए सुिन हम जो पनु ठाना ॥
दे व दनुज धिर मनुज सर रा । िबपुल बीर आए रनधीरा ॥४॥

दोहरा
कुअँिर मनोहर िबजय बिड़ क रित अित कमनीय ।
पाविनहार िबरं िच जनु रचेउ न धनु दमनीय ॥२५१॥

कहहु कािह यहु लाभु न भावा । काहँु न संकर चाप चढ़ावा ॥


रहउ चढ़ाउब तोरब भाई । ितलु भिर भूिम न सके छड़ाई ॥१॥
अब जिन कोउ माखै भट मानी । बीर िबह न मह म जानी ॥
तजहु आस िनज िनज गृह जाहू । िलखा न िबिध बैदेिह िबबाहू ॥२॥

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रामचिरतमानस - 105 - बालकांड

सुकृत जाइ ज पनु पिरहरऊँ । कुअँिर कुआिर रहउ का करऊँ ॥


जो जनतेउँ िबनु भट भुिब भाई । तौ पनु किर होतेउँ न हँ साई ॥३॥
जनक बचन सुिन सब नर नार । दे ख जानिकिह भए दखार
ु ॥
माखे लखनु कुिटल भइँ भह । रदपट फरकत नयन िरस ह ॥४॥

दोहरा
किह न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान ।
नाइ राम पद कमल िस बोले िगरा ूमान ॥२५२॥

रघुबंिसन्ह महँु जहँ कोउ होई । तेिहं समाज अस कहइ न कोई ॥


कह जनक जिस अनुिचत बानी । िब मान रघुकुल मिन जानी ॥१॥
सुनहु भानुकुल पंकज भानू । कहउँ सुभाउ न कछु अिभमानू ॥
जौ तु हािर अनुसासन पाव । कंदक
ु इव ॄ ांड उठाव ॥२॥
काचे घट जिम डार फोर । सकउँ मे मूलक जिम तोर ॥
तव ूताप मिहमा भगवाना । को बापुरो िपनाक पुराना ॥३॥
नाथ जािन अस आयसु होऊ । कौतुकु कर िबलोिकअ सोऊ ॥
कमल नाल जिम चाफ चढ़ाव । जोजन सत ूमान लै धाव ॥४॥

दोहरा
तोर छऽक दं ड जिम तव ूताप बल नाथ ।
ज न कर ूभु पद सपथ कर न धर धनु भाथ ॥२५३॥

लखन सकोप बचन जे बोले । डगमगािन मिह िद गज डोले ॥


सकल लोक सब भूप डे राने । िसय िहयँ हरषु जनकु सकुचाने ॥१॥
गुर रघुपित सब मुिन मन माह ं । मुिदत भए पुिन पुिन पुलकाह ं ॥
सयनिहं रघुपित लखनु नेवारे । ूेम समेत िनकट बैठारे ॥२॥
िबःवािमऽ समय सुभ जानी । बोले अित सनेहमय बानी ॥
उठहु राम भंजहु भवचापा । मेटहु तात जनक पिरतापा ॥३॥
सुिन गु बचन चरन िस नावा । हरषु िबषाद ु न कछु उर आवा ॥
ठाढ़े भए उिठ सहज सुभाएँ । ठविन जुबा मृगराजु लजाएँ ॥४॥

दोहरा
उिदत उदयिगिर मंच पर रघुबर बालपतंग ।
िबकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग ॥२५४॥

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रामचिरतमानस - 106 - बालकांड

नृपन्ह केिर आसा िनिस नासी । बचन नखत अवली न ूकासी ॥


मानी मिहप कुमुद सकुचाने । कपट भूप उलूक लुकाने ॥१॥
भए िबसोक कोक मुिन दे वा । बिरसिहं सुमन जनाविहं सेवा ॥
गुर पद बंिद सिहत अनुरागा । राम मुिनन्ह सन आयसु मागा ॥२॥
सहजिहं चले सकल जग ःवामी । म मंजु बर कुंजर गामी ॥
चलत राम सब पुर नर नार । पुलक पूिर तन भए सुखार ॥३॥
बंिद िपतर सुर सुकृत सँभारे । ज कछु पुन्य ूभाउ हमारे ॥
तौ िसवधनु मृनाल क ना । तोरहँु राम गनेस गोसा ॥४॥

दोहरा
रामिह ूेम समेत लख स खन्ह समीप बोलाइ ।
सीता मातु सनेह बस बचन कहइ िबलखाइ ॥२५५॥

सख सब कौतुक दे खिनहारे । जेठ कहावत िहतू हमारे ॥


कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाह ं । ए बालक अिस हठ भिल नाह ं ॥१॥
रावन बान छुआ निहं चापा । हारे सकल भूप किर दापा ॥
सो धनु राजकुअँर कर दे ह ं । बाल मराल िक मंदर लेह ं ॥२॥
भूप सयानप सकल िसरानी । सख िबिध गित कछु जाित न जानी ॥
बोली चतुर सखी मृद ु बानी । तेजवंत लघु गिनअ न रानी ॥३॥
कहँ कुंभज कहँ िसंधु अपारा । सोषेउ सुजसु सकल संसारा ॥
रिब मंडल दे खत लघु लागा । उदयँ तासु ितभुवन तम भागा ॥४॥

दोहरा
मंऽ परम लघु जासु बस िबिध हिर हर सुर सब ।
महाम गजराज कहँु बस कर अंकुस खब ॥२५६॥

काम कुसुम धनु सायक लीन्हे । सकल भुवन अपने बस क न्हे ॥


दे िब त जअ संसउ अस जानी । भंजब धनुष रामु सुनु रानी ॥१॥
सखी बचन सुिन भै परतीती । िमटा िबषाद ु बढ़ अित ूीती ॥
तब रामिह िबलोिक बैदेह । सभय हृदयँ िबनवित जेिह तेह ॥२॥
मनह ं मन मनाव अकुलानी । होहु ूसन्न महे स भवानी ॥
करहु सफल आपिन सेवकाई । किर िहतु हरहु चाप ग आई ॥३॥
गननायक बरदायक दे वा । आजु लग क न्हउँ तुअ सेवा ॥
बार बार िबनती सुिन मोर । करहु चाप गु ता अित थोर ॥४॥

दोहरा

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रामचिरतमानस - 107 - बालकांड

दे ख दे ख रघुबीर तन सुर मनाव धिर धीर ॥


भरे िबलोचन ूेम जल पुलकावली सर र ॥२५७॥

नीक िनर ख नयन भिर सोभा । िपतु पनु सुिमिर बहिर


ु मनु छोभा ॥
अहह तात दा िन हठ ठानी । समुझत निहं कछु लाभु न हानी ॥१॥
सिचव सभय िसख दे इ न कोई । बुध समाज बड़ अनुिचत होई ॥
कहँ धनु कुिलसहु चािह कठोरा । कहँ ःयामल मृदगात
ु िकसोरा ॥२॥
िबिध केिह भाँित धर उर धीरा । िसरस सुमन कन बेिधअ ह रा ॥
सकल सभा कै मित भै भोर । अब मोिह संभुचाप गित तोर ॥३॥
िनज जड़ता लोगन्ह पर डार । होिह ह अ रघुपितिह िनहार ॥
अित पिरताप सीय मन माह । लव िनमेष जुग सब सय जाह ं ॥४॥

दोहरा
ूभुिह िचतइ पुिन िचतव मिह राजत लोचन लोल ।
खेलत मनिसज मीन जुग जनु िबधु मंडल डोल ॥२५८॥

िगरा अिलिन मुख पंकज रोक । ूगट न लाज िनसा अवलोक ॥


लोचन जलु रह लोचन कोना । जैसे परम कृ पन कर सोना ॥१॥
सकुची याकुलता बिड़ जानी । धिर धीरजु ूतीित उर आनी ॥
तन मन बचन मोर पनु साचा । रघुपित पद सरोज िचतु राचा ॥२॥
तौ भगवानु सकल उर बासी । किरिहं मोिह रघुबर कै दासी ॥
जेिह क जेिह पर स य सनेहू । सो तेिह िमलइ न कछु संहेहू ॥३॥
ूभु तन िचतइ ूेम तन ठाना । कृ पािनधान राम सबु जाना ॥
िसयिह िबलोिक तकेउ धनु कैसे । िचतव ग लघु यालिह जैसे ॥४॥

दोहरा
लखन लखेउ रघुबंसमिन ताकेउ हर कोदं डु ।
पुलिक गात बोले बचन चरन चािप ॄ ांडु ॥२५९॥

िदसकुंजरहु कमठ अिह कोला । धरहु धरिन धिर धीर न डोला ॥


रामु चहिहं संकर धनु तोरा । होहु सजग सुिन आयसु मोरा ॥१॥
चाप सपीप रामु जब आए । नर नािरन्ह सुर सुकृत मनाए ॥
सब कर संसउ अ अ यानू । मंद मह पन्ह कर अिभमानू ॥२॥
भृगुपित केिर गरब ग आई । सुर मुिनबरन्ह केिर कदराई ॥
िसय कर सोचु जनक पिछतावा । रािनन्ह कर दा न दख
ु दावा ॥३॥
संभुचाप बड बोिहतु पाई । चढे जाइ सब संगु बनाई ॥

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रामचिरतमानस - 108 - बालकांड

राम बाहबल
ु िसंधु अपा । चहत पा निह कोउ कड़हा ॥४॥

दोहरा
राम िबलोके लोग सब िचऽ िलखे से दे ख ।
िचतई सीय कृ पायतन जानी िबकल िबसेिष ॥२६०॥

दे खी िबपुल िबकल बैदेह । िनिमष िबहात कलप सम तेह ॥


तृिषत बािर िबनु जो तनु यागा । मुएँ करइ का सुधा तड़ागा ॥१॥
का बरषा सब कृ षी सुखान । समय चुक पुिन का पिछतान ॥
अस जयँ जािन जानक दे खी । ूभु पुलके लख ूीित िबसेषी ॥२॥
गुरिह ूनामु मनिह मन क न्हा । अित लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा ॥
दमकेउ दािमिन जिम जब लयऊ । पुिन नभ धनु मंडल सम भयऊ ॥३॥
लेत चढ़ावत खचत गाढ़ । काहँु न लखा दे ख सबु ठाढ़ ॥
तेिह छन राम म य धनु तोरा । भरे भुवन धुिन घोर कठोरा ॥४॥

छं द
भरे भुवन घोर कठोर रव रिब बा ज तज मारगु चले ।
िच करिहं िद गज डोल मिह अिह कोल कू म कलमले ॥
सुर असुर मुिन कर कान द न्ह सकल िबकल िबचारह ं ।
कोदं ड खंडेउ राम तुलसी जयित बचन उचारह ॥

सोरठा
संकर चापु जहाजु साग रघुबर बाहबलु
ु ।
बूड़ सो सकल समाजु चढ़ा जो ूथमिहं मोह बस ॥२६१॥

ूभु दोउ चापखंड मिह डारे । दे ख लोग सब भए सुखारे ॥


कोिसक प पयोिनिध पावन । ूेम बािर अवगाहु सुहावन ॥१॥
राम प राकेसु िनहार । बढ़त बीिच पुलकाविल भार ॥
बाजे नभ गहगहे िनसाना । दे वबधू नाचिहं किर गाना ॥२॥
ॄ ािदक सुर िस मुनीसा । ूभुिह ूसंसिह दे िहं असीसा ॥
बिरसिहं सुमन रं ग बहु माला । गाविहं िकंनर गीत रसाला ॥३॥
रह भुवन भिर जय जय बानी । धनुषभंग धुिन जात न जानी ॥
मुिदत कहिहं जहँ तहँ नर नार । भंजेउ राम संभुधनु भार ॥४॥

दोहरा

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रामचिरतमानस - 109 - बालकांड

बंद मागध सूतगन िब द बदिहं मितधीर ।


करिहं िनछाविर लोग सब हय गय धन मिन चीर ॥२६२॥

झाँ झ मृदंग संख सहनाई । भेिर ढोल दं द


ु भी
ु सुहाई ॥
बाजिहं बहु बाजने सुहाए । जहँ तहँ जुबितन्ह मंगल गाए ॥१॥
स खन्ह सिहत हरषी अित रानी । सूखत धान परा जनु पानी ॥
जनक लहे उ सुखु सोचु िबहाई । पैरत थक थाह जनु पाई ॥२॥
ौीहत भए भूप धनु ू
टटे । जैस िदवस दप छिब छूटे ॥
सीय सुखिह बरिनअ केिह भाँती । जनु चातक पाइ जलु ःवाती ॥३॥
रामिह लखनु िबलोकत कैस । सिसिह चकोर िकसोरकु जैस ॥
सतानंद तब आयसु द न्हा । सीताँ गमनु राम पिहं क न्हा ॥४॥

दोहरा
संग सखीं सुदंर चतुर गाविहं मंगलचार ।
गवनी बाल मराल गित सुषमा अंग अपार ॥२६३॥

स खन्ह म य िसय सोहित कैसे । छिबगन म य महाछिब जैस ॥


कर सरोज जयमाल सुहाई । िबःव िबजय सोभा जेिहं छाई ॥१॥
तन सकोचु मन परम उछाहू । गूढ़ ूेमु लख परइ न काहू ॥
जाइ समीप राम छिब दे खी । रिह जनु कुँअिर िचऽ अवरे खी ॥२॥
चतुर सखीं लख कहा बुझाई । पिहरावहु जयमाल सुहाई ॥
सुनत जुगल कर माल उठाई । ूेम िबबस पिहराइ न जाई ॥३॥
सोहत जनु जुग जलज सनाला । सिसिह सभीत दे त जयमाला ॥
गाविहं छिब अवलोिक सहे ली । िसयँ जयमाल राम उर मेली ॥४॥

सोरठा
रघुबर उर जयमाल दे ख दे व बिरसिहं सुमन ।
सकुचे सकल भुआल जनु िबलोिक रिब कुमुदगन ॥२६४॥

पुर अ योम बाजने बाजे । खल भए मिलन साधु सब राजे ॥


सुर िकंनर नर नाग मुनीसा । जय जय जय किह दे िहं असीसा ॥१॥
नाचिहं गाविहं िबबुध बधूट ं । बार बार कुसुमांजिल छूट ं ॥
जहँ तहँ िबू बेदधुिन करह ं । बंद िबरदाविल उ चरह ं ॥२॥
मिह पाताल नाक जसु यापा । राम बर िसय भंजेउ चापा ॥
करिहं आरती पुर नर नार । दे िहं िनछाविर िब िबसार ॥३॥
सोहित सीय राम कै जौर । छिब िसंगा मनहँु एक ठोर ॥

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रामचिरतमानस - 110 - बालकांड

सखीं कहिहं ूभुपद गहु सीता । करित न चरन परस अित भीता ॥४॥

दोहरा
गौतम ितय गित सुरित किर निहं परसित पग पािन ।
मन िबहसे रघुबंसमिन ूीित अलौिकक जािन ॥२६५॥

तब िसय दे ख भूप अिभलाषे । कूर कपूत मूढ़ मन माखे ॥


उिठ उिठ पिहिर सनाह अभागे । जहँ तहँ गाल बजावन लागे ॥१॥
लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ । धिर बाँधहु नृप बालक दोऊ ॥
तोर धनुषु चाड़ निहं सरई । जीवत हमिह कुअँिर को बरई ॥२॥
ज िबदे हु कछु करै सहाई । जीतहु समर सिहत दोउ भाई ॥
साधु भूप बोले सुिन बानी । राजसमाजिह लाज लजानी ॥३॥
बलु ूतापु बीरता बड़ाई । नाक िपनाकिह संग िसधाई ॥
सोइ सूरता िक अब कहँु पाई । अिस बुिध तौ िबिध मुहँ मिस लाई ॥४ ॥

दोहरा
दे खहु रामिह नयन भिर तज इिरषा मद ु कोहु ।
लखन रोषु पावकु ूबल जािन सलभ जिन होहु ॥२६६॥

बैनतेय बिल जिम चह कागू । जिम ससु चहै नाग अिर भागू ॥
जिम चह कुसल अकारन कोह । सब संपदा चहै िसविोह ॥१॥
लोभी लोलुप कल क रित चहई । अकलंकता िक कामी लहई ॥
हिर पद िबमुख परम गित चाहा । तस तु हार लालचु नरनाहा ॥२॥
कोलाहलु सुिन सीय सकानी । सखीं लवाइ ग जहँ रानी ॥
रामु सुभायँ चले गु पाह ं । िसय सनेहु बरनत मन माह ं ॥३॥
रािनन्ह सिहत सोचबस सीया । अब ध िबिधिह काह करनीया ॥
भूप बचन सुिन इत उत तकह ं । लखनु राम डर बोिल न सकह ं ॥४॥

दोहरा
अ न नयन भृकुट कुिटल िचतवत नृपन्ह सकोप ।
मनहँु म गजगन िनर ख िसंघिकसोरिह चोप ॥२६७॥

खरभ दे ख िबकल पुर नार ं । सब िमिल दे िहं मह पन्ह गार ं ॥


तेिहं अवसर सुिन िसव धनु भंगा । आयसु भृगुकुल कमल पतंगा ॥१॥
दे ख मह प सकल सकुचाने । बाज झपट जनु लवा लुकाने ॥
गौिर सर र भूित भल ॅाजा । भाल िबसाल िऽपुंड िबराजा ॥२॥

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रामचिरतमानस - 111 - बालकांड

सीस जटा सिसबदनु सुहावा । िरसबस कछुक अ न होइ आवा ॥


भृकुट कुिटल नयन िरस राते । सहजहँु िचतवत मनहँु िरसाते ॥३॥
बृषभ कंध उर बाहु िबसाला । चा जनेउ माल मृगछाला ॥
किट मुिन बसन तून दइु बाँध । धनु सर कर कुठा कल काँध ॥४॥

दोहरा
सांत बेषु करनी किठन बरिन न जाइ स प ।
धिर मुिनतनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप ॥२६८॥

दे खत भृगुपित बेषु कराला । उठे सकल भय िबकल भुआला ॥


िपतु समेत किह किह िनज नामा । लगे करन सब दं ड ूनामा ॥१॥
जेिह सुभायँ िचतविहं िहतु जानी । सो जानइ जनु आइ खुटानी ॥
जनक बहोिर आइ िस नावा । सीय बोलाइ ूनामु करावा ॥२॥
आिसष द न्ह सखीं हरषानीं । िनज समाज लै गई सयानीं ॥
िबःवािमऽु िमले पुिन आई । पद सरोज मेले दोउ भाई ॥३॥
रामु लखनु दसरथ के ढोटा । द न्ह असीस दे ख भल जोटा ॥
रामिह िचतइ रहे थिक लोचन । प अपार मार मद मोचन ॥४॥

दोहरा
बहिर
ु िबलोिक िबदे ह सन कहहु काह अित भीर ॥
पूछत जािन अजान जिम यापेउ कोपु सर र ॥२६९॥

समाचार किह जनक सुनाए । जेिह कारन मह प सब आए ॥


सुनत बचन िफिर अनत िनहारे । दे खे चापखंड मिह डारे ॥१॥
अित िरस बोले बचन कठोरा । कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा ॥
बेिग दे खाउ मूढ़ न त आजू । उलटउँ मिह जहँ लिह तव राजू ॥२॥
अित ड उत दे त नृपु नाह ं । कुिटल भूप हरषे मन माह ं ॥
सुर मुिन नाग नगर नर नार ॥ सोचिहं सकल ऽास उर भार ॥३॥
मन पिछताित सीय महतार । िबिध अब सँवर बात िबगार ॥
भृगुपित कर सुभाउ सुिन सीता । अरध िनमेष कलप सम बीता ॥४॥

दोहरा
सभय िबलोके लोग सब जािन जानक भी ।
हृदयँ न हरषु िबषाद ु कछु बोले ौीरघुबी ॥२७०॥

मासपारायण नवाँ िवौाम

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रामचिरतमानस - 112 - बालकांड

नाथ संभुधनु भंजिनहारा । होइिह केउ एक दास तु हारा ॥


आयसु काह किहअ िकन मोह । सुिन िरसाइ बोले मुिन कोह ॥१॥
सेवकु सो जो करै सेवकाई । अिर करनी किर किरअ लराई ॥
सुनहु राम जेिहं िसवधनु तोरा । सहसबाहु सम सो िरपु मोरा ॥२॥
सो िबलगाउ िबहाइ समाजा । न त मारे जैहिहं सब राजा ॥
सुिन मुिन बचन लखन मुसुकाने । बोले परसुधरिह अपमाने ॥३॥
बहु धनुह ं तोर ं लिरका । कबहँु न अिस िरस क न्ह गोसा ॥
एिह धनु पर ममता केिह हे तू । सुिन िरसाइ कह भृगुकुलकेतू ॥४॥

दोहरा
रे नृप बालक कालबस बोलत तोिह न सँमार ॥
धनुह सम ितपुरािर धनु िबिदत सकल संसार ॥२७१॥

लखन कहा हँ िस हमर जाना । सुनहु दे व सब धनुष समाना ॥


का छित लाभु जून धनु तौर । दे खा राम नयन के भोर ॥१॥
छुअत ू
टट रघुपितहु न दोसू । मुिन िबनु काज किरअ कत रोसू ॥
बोले िचतइ परसु क ओरा । रे सठ सुनेिह सुभाउ न मोरा ॥२॥
बालकु बोिल बधउँ निहं तोह । केवल मुिन जड़ जानिह मोह ॥
बाल ॄ चार अित कोह । िबःव िबिदत छिऽयकुल िोह ॥३॥
भुजबल भूिम भूप िबनु क न्ह । िबपुल बार मिहदे वन्ह द न्ह ॥
सहसबाहु भुज छे दिनहारा । परसु िबलोकु मह पकुमारा ॥४॥

दोहरा
मातु िपतिह जिन सोचबस करिस मह सिकसोर ।
गभन्ह के अभक दलन परसु मोर अित घोर ॥२७२॥

िबहिस लखनु बोले मृद ु बानी । अहो मुनीसु महा भटमानी ॥


पुिन पुिन मोिह दे खाव कुठा । चहत उड़ावन फूँिक पहा ॥१॥
इहाँ कु हड़बितया कोउ नाह ं । जे तरजनी दे ख मिर जाह ं ॥
दे ख कुठा सरासन बाना । म कछु कहा सिहत अिभमाना ॥२॥
भृगुसुत समु झ जनेउ िबलोक । जो कछु कहहु सहउँ िरस रोक ॥
सुर मिहसुर हिरजन अ गाई । हमर कुल इन्ह पर न सुराई ॥३॥
बध पापु अपक रित हार । मारतहँू पा पिरअ तु हार ॥
कोिट कुिलस सम बचनु तु हारा । यथ धरहु धनु बान कुठारा ॥४॥

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रामचिरतमानस - 113 - बालकांड

दोहरा
जो िबलोिक अनुिचत कहे उँ छमहु महामुिन धीर ।
सुिन सरोष भृगुबंसमिन बोले िगरा गभीर ॥२७३॥

कौिसक सुनहु मंद यहु बालकु । कुिटल कालबस िनज कुल घालकु ॥
भानु बंस राकेस कलंकू । िनपट िनरं कुस अबुध असंकू ॥१॥
काल कवलु होइिह छन माह ं । कहउँ पुकािर खोिर मोिह नाह ं ॥
तु ह हटकउ ज चहहु उबारा । किह ूतापु बलु रोषु हमारा ॥२॥
लखन कहे उ मुिन सुजस तु हारा । तु हिह अछत को बरनै पारा ॥
अपने मुँह तु ह आपिन करनी । बार अनेक भाँित बहु बरनी ॥३॥
निहं संतोषु त पुिन कछु कहहू । जिन िरस रोिक दसह
ु दख
ु सहहू ॥
बीरॄती तु ह धीर अछोभा । गार दे त न पावहु सोभा ॥४॥

दोहरा
सूर समर करनी करिहं किह न जनाविहं आपु ।
िब मान रन पाइ िरपु कायर कथिहं ूतापु ॥२७४॥

तु ह तौ कालु हाँक जनु लावा । बार बार मोिह लािग बोलावा ॥


सुनत लखन के बचन कठोरा । परसु सुधािर धरे उ कर घोरा ॥१॥
अब जिन दे इ दोसु मोिह लोगू । ु
कटबाद बालकु बधजोगू ॥
बाल िबलोिक बहत
ु म बाँचा । अब यहु मरिनहार भा साँचा ॥२॥
कौिसक कहा छिमअ अपराधू । बाल दोष गुन गनिहं न साधू ॥
खर कुठार म अक न कोह । आग अपराधी गु िोह ॥३॥
उतर दे त छोड़उँ िबनु मार । केवल कौिसक सील तु हार ॥
न त एिह कािट कुठार कठोर । गुरिह उिरन होतेउँ ौम थोर ॥४॥

दोहरा
गािधसूनु कह हृदयँ हँ िस मुिनिह हिरअरइ सूझ ।
अयमय खाँड न ऊखमय अजहँु न बूझ अबूझ ॥२७५॥

कहे उ लखन मुिन सीलु तु हारा । को निह जान िबिदत संसारा ॥


माता िपतिह उिरन भए नीक । गुर िरनु रहा सोचु बड़ जीक ॥१॥
सो जनु हमरे िह माथे काढ़ा । िदन चिल गए याज बड़ बाढ़ा ॥
अब आिनअ यवहिरआ बोली । तुरत दे उँ म थैली खोली ॥२॥
सुिन कटु बचन कुठार सुधारा । हाय हाय सब सभा पुकारा ॥

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रामचिरतमानस - 114 - बालकांड

भृगुबर परसु दे खावहु मोह । िबू िबचािर बचउँ नृपिोह ॥३॥


िमले न कबहँु सुभट रन गाढ़े । ि ज दे वता घरिह के बाढ़े ॥
अनुिचत किह सब लोग पुकारे । रघुपित सयनिहं लखनु नेवारे ॥४॥

दोहरा
लखन उतर आहित
ु सिरस भृगुबर कोपु कृ सानु ।
बढ़त दे ख जल सम बचन बोले रघुकुलभानु ॥२७६॥

नाथ करहु बालक पर छोहू । सूध दधमु


ू ख किरअ न कोहू ॥
ज पै ूभु ूभाउ कछु जाना । तौ िक बराबिर करत अयाना ॥१॥
ज लिरका कछु अचगिर करह ं । गुर िपतु मातु मोद मन भरह ं ॥
किरअ कृ पा िससु सेवक जानी । तु ह सम सील धीर मुिन यानी ॥२ ॥
राम बचन सुिन कछुक जुड़ाने । किह कछु लखनु बहिर
ु मुसकाने ॥
हँ सत दे ख नख िसख िरस यापी । राम तोर ॅाता बड़ पापी ॥३॥
गौर सर र ःयाम मन माह ं । कालकूटमुख पयमुख नाह ं ॥
सहज टे ढ़ अनुहरइ न तोह । नीचु मीचु सम दे ख न मौह ं ॥४॥

दोहरा
लखन कहे उ हँ िस सुनहु मुिन बोधु पाप कर मूल ।
जेिह बस जन अनुिचत करिहं चरिहं िबःव ूितकूल ॥२७७॥

म तु हार अनुचर मुिनराया । पिरहिर कोपु किरअ अब दाया ॥



टट चाप निहं जुरिह िरसाने । बैिठअ होइिहं पाय िपराने ॥१॥
जौ अित िूय तौ किरअ उपाई । जोिरअ कोउ बड़ गुनी बोलाई ॥
बोलत लखनिहं जनकु डे राह ं । म करहु अनुिचत भल नाह ं ॥२॥
थर थर कापिहं पुर नर नार । छोट कुमार खोट बड़ भार ॥
भृगुपित सुिन सुिन िनरभय बानी । िरस तन जरइ होइ बल हानी ॥३॥
बोले रामिह दे इ िनहोरा । बचउँ िबचािर बंधु लघु तोरा ॥
मनु मलीन तनु सुंदर कैस । िबष रस भरा कनक घटु जैस ॥४॥

दोहरा
सुिन लिछमन िबहसे बहिर
ु नयन तरे रे राम ।
गुर समीप गवने सकुिच पिरहिर बानी बाम ॥२७८॥

अित िबनीत मृद ु सीतल बानी । बोले रामु जोिर जुग पानी ॥
सुनहु नाथ तु ह सहज सुजाना । बालक बचनु किरअ निहं काना ॥१॥

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रामचिरतमानस - 115 - बालकांड

बररै बालक एकु सुभाऊ । इन्हिह न संत िबदषिहं


ू काऊ ॥
तेिहं नाह ं कछु काज िबगारा । अपराधी म नाथ तु हारा ॥२॥
कृ पा कोपु बधु बँधब गोसा । मो पर किरअ दास क नाई ॥
किहअ बेिग जेिह िबिध िरस जाई । मुिननायक सोइ कर उपाई ॥३॥
कह मुिन राम जाइ िरस कैस । अजहँु अनुज तव िचतव अनैस ॥
एिह के कंठ कुठा न द न्हा । तौ म काह कोपु किर क न्हा ॥४॥

दोहरा
गभ विहं अविनप रविन सुिन कुठार गित घोर ।
परसु अछत दे खउँ जअत बैर भूपिकसोर ॥२७९॥

बहइ न हाथु दहइ िरस छाती । भा कुठा कुंिठत नृपघाती ॥


भयउ बाम िबिध िफरे उ सुभाऊ । मोरे हृदयँ कृ पा किस काऊ ॥१॥
आजु दया दखु
ु दसह
ु सहावा । सुिन सौिमऽ िबहिस िस नावा ॥
बाउ कृ पा मूरित अनुकूला । बोलत बचन झरत जनु फूला ॥२॥
ज पै कृ पाँ जिरिहं मुिन गाता । बोध भएँ तनु राख िबधाता ॥
दे खु जनक हिठ बालक एहू । क न्ह चहत जड़ जमपुर गेहू ॥३॥
बेिग करहु िकन आँ खन्ह ओटा । दे खत छोट खोट नृप ढोटा ॥
िबहसे लखनु कहा मन माह ं । मूद आँ ख कतहँु कोउ नाह ं ॥४॥

दोहरा
परसुरामु तब राम ूित बोले उर अित बोधु ।
संभु सरासनु तोिर सठ करिस हमार ूबोधु ॥२८०॥

बंधु कहइ कटु संमत तोर । तू छल िबनय करिस कर जोर ॥


क पिरतोषु मोर संमामा । नािहं त छाड़ कहाउब रामा ॥१॥
छलु तज करिह सम िसविोह । बंधु सिहत न त मारउँ तोह ॥
भृगुपित बकिहं कुठार उठाएँ । मन मुसकािहं रामु िसर नाएँ ॥२॥
गुनह लखन कर हम पर रोषू । कतहँु सुधाइहु ते बड़ दोषू ॥
टे ढ़ जािन सब बंदइ काहू । बब चंिमिह मसइ न राहू ॥३॥
राम कहे उ िरस त जअ मुनीसा । कर कुठा आग यह सीसा ॥
जिहं िरस जाइ किरअ सोइ ःवामी । मोिह जािन आपन अनुगामी ॥४॥

दोहरा

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रामचिरतमानस - 116 - बालकांड

ूभुिह सेवकिह सम कस तजहु िबूबर रोसु ।


बेषु िबलोक कहे िस कछु बालकहू निहं दोसु ॥२८१॥

दे ख कुठार बान धनु धार । भै लिरकिह िरस बी िबचार ॥


नामु जान पै तु हिह न चीन्हा । बंस सुभायँ उत तिहं द न्हा ॥१॥
ज तु ह औतेहु मुिन क ना । पद रज िसर िससु धरत गोसा ॥
छमहु चूक अनजानत केर । चिहअ िबू उर कृ पा घनेर ॥२॥
हमिह तु हिह सिरबिर किस नाथा ॥ कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा ॥
राम माऽ लघु नाम हमारा । परसु सिहत बड़ नाम तोहारा ॥३॥
दे व एकु गुनु धनुष हमार । नव गुन परम पुनीत तु हार ॥
सब ूकार हम तु ह सन हारे । छमहु िबू अपराध हमारे ॥४॥

दोहरा
बार बार मुिन िबूबर कहा राम सन राम ।
बोले भृगुपित स ष हिस तहँू बंधु सम बाम ॥२८२॥

िनपटिहं ि ज किर जानिह मोह । म जस िबू सुनावउँ तोह ॥


चाप ुवा सर आहित
ु जानू । कोप मोर अित घोर कृ सानु ॥१॥
सिमिध सेन चतुरंग सुहाई । महा मह प भए पसु आई ॥
मै एिह परसु कािट बिल द न्हे । समर ज य जप कोिटन्ह क न्हे ॥२॥
मोर ूभाउ िबिदत निहं तोर । बोलिस िनदिर िबू के भोर ॥
भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा । अहिमित मनहँु जीित जगु ठाढ़ा ॥३॥
राम कहा मुिन कहहु िबचार । िरस अित बिड़ लघु चूक हमार ॥
छुअतिहं ू
टट िपनाक पुराना । म किह हे तु कर अिभमाना ॥४॥

दोहरा
ज हम िनदरिहं िबू बिद स य सुनहु भृगुनाथ ।
तौ अस को जग सुभटु जेिह भय बस नाविहं माथ ॥२८३॥

दे व दनुज भूपित भट नाना । समबल अिधक होउ बलवाना ॥


ज रन हमिह पचारै कोऊ । लरिहं सुखेन कालु िकन होऊ ॥१॥
छिऽय तनु धिर समर सकाना । कुल कलंकु तेिहं पावँर आना ॥
कहउँ सुभाउ न कुलिह ूसंसी । कालहु डरिहं न रन रघुबंसी ॥२॥
िबूबंस कै अिस ूभुताई । अभय होइ जो तु हिह डे राई ॥
सुनु मृद ु गूढ़ बचन रघुपित के । उघरे पटल परसुधर मित के ॥३॥
राम रमापित कर धनु लेहू । खचहु िमटै मोर संदेहू ॥

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रामचिरतमानस - 117 - बालकांड

दे त चापु आपुिहं चिल गयऊ । परसुराम मन िबसमय भयऊ ॥४॥

दोहरा
जाना राम ूभाउ तब पुलक ूफु लत गात ।
जोिर पािन बोले बचन अदयँ न ूेमु अमात ॥२८४॥

जय रघुबंस बनज बन भानू । गहन दनुज कुल दहन कृ सानु ॥


जय सुर िबू धेनु िहतकार । जय मद मोह कोह ॅम हार ॥१॥
िबनय सील क ना गुन सागर । जयित बचन रचना अित नागर ॥
सेवक सुखद सुभग सब अंगा । जय सर र छिब कोिट अनंगा ॥२॥
कर काह मुख एक ूसंसा । जय महे स मन मानस हं सा ॥
अनुिचत बहत
ु कहे उँ अ याता । छमहु छमामंिदर दोउ ॅाता ॥३॥
किह जय जय जय रघुकुलकेतू । भृगुपित गए बनिह तप हे तू ॥
अपभयँ कुिटल मह प डे राने । जहँ तहँ कायर गवँिहं पराने ॥४॥

दोहरा
दे वन्ह द न्ह ं दं द
ु भीं
ु ूभु पर बरषिहं फूल ।
हरषे पुर नर नािर सब िमट मोहमय सूल ॥२८५॥

अित गहगहे बाजने बाजे । सबिहं मनोहर मंगल साजे ॥


जूथ जूथ िमिल सुमुख सुनयनीं । करिहं गान कल कोिकलबयनी ॥१॥
सुखु िबदे ह कर बरिन न जाई । जन्मदिरि मनहँु िनिध पाई ॥
गत ऽास भइ सीय सुखार । जनु िबधु उदयँ चकोरकुमार ॥२॥
जनक क न्ह कौिसकिह ूनामा । ूभु ूसाद धनु भंजेउ रामा ॥
मोिह कृ तकृ य क न्ह दहँु ु भा । अब जो उिचत सो किहअ गोसाई ॥३॥
कह मुिन सुनु नरनाथ ूबीना । रहा िबबाहु चाप आधीना ॥

टटतह ं धनु भयउ िबबाहू । सुर नर नाग िबिदत सब काहु ॥४॥

दोहरा
तदिप जाइ तु ह करहु अब जथा बंस यवहा ।
बू झ िबू कुलबृ गुर बेद िबिदत आचा ॥२८६॥

दत
ू अवधपुर पठवहु जाई । आनिहं नृप दसरथिह बोलाई ॥
मुिदत राउ किह भलेिहं कृ पाला । पठए दत
ू बोिल तेिह काला ॥१॥
बहिर
ु महाजन सकल बोलाए । आइ सब न्ह सादर िसर नाए ॥
हाट बाट मंिदर सुरबासा । नग सँवारहु चािरहँु पासा ॥२॥

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रामचिरतमानस - 118 - बालकांड

हरिष चले िनज िनज गृह आए । पुिन पिरचारक बोिल पठाए ॥


रचहु िबिचऽ िबतान बनाई । िसर धिर बचन चले सचु पाई ॥३॥
पठए बोिल गुनी ितन्ह नाना । जे िबतान िबिध कुसल सुजाना ॥
िबिधिह बंिद ितन्ह क न्ह अरं भा । िबरचे कनक कदिल के खंभा ॥४॥

दोहरा
हिरत मिनन्ह के पऽ फल पदमराग
ु के फूल ।
रचना दे ख िबिचऽ अित मनु िबरं िच कर भूल ॥२८७॥

बेिन हिरत मिनमय सब क न्हे । सरल सपरब परिहं निहं चीन्हे ॥


कनक किलत अिहबेल बनाई । लख निह परइ सपरन सुहाई ॥१॥
तेिह के रिच पिच बंध बनाए । िबच िबच मुकता दाम सुहाए ॥
मािनक मरकत कुिलस िपरोजा । चीिर कोिर पिच रचे सरोजा ॥२॥
िकए भृंग बहरंु ग िबहं गा । गुज
ं िहं कूजिहं पवन ूसंगा ॥
सुर ूितमा खंभन गढ़ काढ़ । मंगल ि य िलएँ सब ठाढ़ ॥३॥
चक भाँित अनेक पुरा । िसंधुर मिनमय सहज सुहाई ॥४॥

दोहरा
सौरभ प लव सुभग सुिठ िकए नीलमिन कोिर ॥
हे म बौर मरकत घविर लसत पाटमय डोिर ॥२८८॥

रचे िचर बर बंदिनबारे । मनहँु मनोभवँ फंद सँवारे ॥


मंगल कलस अनेक बनाए । वज पताक पट चमर सुहाए ॥१॥
दप मनोहर मिनमय नाना । जाइ न बरिन िबिचऽ िबताना ॥
जेिहं मंडप दलिहिन
ु बैदेह । सो बरनै अिस मित किब केह ॥२॥
दलह
ू ु रामु प गुन सागर । सो िबतानु ितहँु लोक उजागर ॥
जनक भवन कै सौभा जैसी । गृह गृह ूित पुर दे खअ तैसी ॥३॥
जेिहं तेरहित
ु तेिह समय िनहार । तेिह लघु लगिहं भुवन दस चार ॥
जो संपदा नीच गृह सोहा । सो िबलोिक सुरनायक मोहा ॥४॥

दोहरा
बसइ नगर जेिह ल छ किर कपट नािर बर बेषु ॥
तेिह पुर कै सोभा कहत सकुचिहं सारद सेषु ॥२८९॥

पहँु चे दत
ू राम पुर पावन । हरषे नगर िबलोिक सुहावन ॥
भूप ार ितन्ह खबिर जनाई । दसरथ नृप सुिन िलए बोलाई ॥१॥

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रामचिरतमानस - 119 - बालकांड

किर ूनामु ितन्ह पाती द न्ह । मुिदत मह प आपु उिठ लीन्ह ॥


बािर िबलोचन बाचत पाँती । पुलक गात आई भिर छाती ॥२॥
रामु लखनु उर कर बर चीठ । रिह गए कहत न खाट मीठ ॥
पुिन धिर धीर पिऽका बाँची । हरषी सभा बात सुिन साँची ॥३॥
खेलत रहे तहाँ सुिध पाई । आए भरतु सिहत िहत भाई ॥
पूछत अित सनेहँ सकुचाई । तात कहाँ त पाती आई ॥४॥

दोहरा
कुसल ूानिूय बंधु दोउ अहिहं कहहु केिहं दे स ।
सुिन सनेह साने बचन बाची बहिर
ु नरे स ॥२९०॥

सुिन पाती पुलके दोउ ॅाता । अिधक सनेहु समात न गाता ॥


ूीित पुनीत भरत कै दे खी । सकल सभाँ सुखु लहे उ िबसेषी ॥१॥
तब नृप दत
ू िनकट बैठारे । मधुर मनोहर बचन उचारे ॥
भैया कहहु कुसल दोउ बारे । तु ह नीक िनज नयन िनहारे ॥२॥
ःयामल गौर धर धनु भाथा । बय िकसोर कौिसक मुिन साथा ॥
पिहचानहु तु ह कहहु सुभाऊ । ूेम िबबस पुिन पुिन कह राऊ ॥३॥
जा िदन त मुिन गए लवाई । तब त आजु साँिच सुिध पाई ॥
कहहु िबदे ह कवन िबिध जाने । सुिन िूय बचन दत
ू मुसकाने ॥४॥

दोहरा
सुनहु मह पित मुकुट मिन तु ह सम धन्य न कोउ ।
रामु लखनु जन्ह के तनय िबःव िबभूषन दोउ ॥२९१॥

पूछन जोगु न तनय तु हारे । पु षिसंघ ितहु पुर उ जआरे ॥


जन्ह के जस ूताप क आगे । सिस मलीन रिब सीतल लागे ॥१॥
ितन्ह कहँ किहअ नाथ िकिम चीन्हे । दे खअ रिब िक दप कर लीन्हे ॥
सीय ःवयंबर भूप अनेका । सिमटे सुभट एक त एका ॥२॥
संभु सरासनु काहँु न टारा । हारे सकल बीर बिरआरा ॥
तीिन लोक महँ जे भटमानी । सभ कै सकित संभु धनु भानी ॥३॥
सकइ उठाइ सरासुर मे । सोउ िहयँ हािर गयउ किर फे ॥
जेिह कौतुक िसवसैलु उठावा । सोउ तेिह सभाँ पराभउ पावा ॥४॥

दोहरा

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रामचिरतमानस - 120 - बालकांड

तहाँ राम रघुबंस मिन सुिनअ महा मिहपाल ।


भंजेउ चाप ूयास िबनु जिम गज पंकज नाल ॥२९२॥

सुिन सरोष भृगुनायकु आए । बहत


ु भाँित ितन्ह आँ ख दे खाए ॥
दे ख राम बलु िनज धनु द न्हा । किर बहु िबनय गवनु बन क न्हा ॥१॥
राजन रामु अतुलबल जैस । तेज िनधान लखनु पुिन तैस ॥
कंपिह भूप िबलोकत जाक । जिम गज हिर िकसोर के ताक ॥२॥
दे व दे ख तव बालक दोऊ । अब न आँ ख तर आवत कोऊ ॥
दत
ू बचन रचना िूय लागी । ूेम ूताप बीर रस पागी ॥३॥
सभा समेत राउ अनुरागे । दतन्ह
ू दे न िनछाविर लागे ॥
किह अनीित ते मूदिहं काना । धरमु िबचािर सबिहं सुख माना ॥४॥

दोहरा
तब उिठ भूप बिस कहँु द न्ह पिऽका जाइ ।
कथा सुनाई गुरिह सब सादर दत
ू बोलाइ ॥२९३॥

सुिन बोले गुर अित सुखु पाई । पुन्य पु ष कहँु मिह सुख छाई ॥
जिम सिरता सागर महँु जाह ं । ज िप तािह कामना नाह ं ॥१॥
ितिम सुख संपित िबनिहं बोलाएँ । धरमसील पिहं जािहं सुभाएँ ॥
तु ह गुर िबू धेनु सुर सेबी । तिस पुनीत कौस या दे बी ॥२॥
सुकृती तु ह समान जग माह ं । भयउ न है कोउ होनेउ नाह ं ॥
तु ह ते अिधक पुन्य बड़ काक । राजन राम सिरस सुत जाक ॥३॥
बीर िबनीत धरम ॄत धार । गुन सागर बर बालक चार ॥
तु ह कहँु सब काल क याना । सजहु बरात बजाइ िनसाना ॥४॥

दोहरा
चलहु बेिग सुिन गुर बचन भलेिहं नाथ िस नाइ ।
भूपित गवने भवन तब दतन्ह
ू बासु दे वाइ ॥२९४॥

राजा सबु रिनवास बोलाई । जनक पिऽका बािच सुनाई ॥


सुिन संदेसु सकल हरषानीं । अपर कथा सब भूप बखानीं ॥१॥
ूेम ूफु लत राजिहं रानी । मनहँु िस खिन सुिन बािरद बनी ॥
मुिदत असीस दे िहं गु नार ं । अित आनंद मगन महतार ं ॥२॥
लेिहं परःपर अित िूय पाती । हृदयँ लगाइ जुड़ाविहं छाती ॥
राम लखन कै क रित करनी । बारिहं बार भूपबर बरनी ॥३॥
मुिन ूसाद ु किह ार िसधाए । रािनन्ह तब मिहदे व बोलाए ॥

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रामचिरतमानस - 121 - बालकांड

िदए दान आनंद समेता । चले िबूबर आिसष दे ता ॥४॥

सोरठा
जाचक िलए हँ कािर द न्ह िनछाविर कोिट िबिध ।
िच जीवहँु सुत चािर चबबित दसर थ के ॥२९५॥

कहत चले पिहर पट नाना । हरिष हने गहगहे िनसाना ॥


समाचार सब लोगन्ह पाए । लागे घर घर होने बधाए ॥१॥
भुवन चािर दस भरा उछाहू । जनकसुता रघुबीर िबआहू ॥
सुिन सुभ कथा लोग अनुरागे । मग गृह गलीं सँवारन लागे ॥२॥
ज िप अवध सदै व सुहाविन । राम पुर मंगलमय पाविन ॥
तदिप ूीित कै ूीित सुहाई । मंगल रचना रची बनाई ॥३॥
वज पताक पट चामर चा । छावा परम िबिचऽ बजा ॥
कनक कलस तोरन मिन जाला । हरद दब
ू दिध अ छत माला ॥४॥

दोहरा
मंगलमय िनज िनज भवन लोगन्ह रचे बनाइ ।
बीथीं सीचीं चतुरसम चौक चा पुराइ ॥२९६॥

जहँ तहँ जूथ जूथ िमिल भािमिन । सज नव स सकल दित


ु दािमिन ॥
िबधुबदनीं मृग सावक लोचिन । िनज स प रित मानु िबमोचिन ॥१॥
गाविहं मंगल मंजुल बानीं । सुिनकल रव कलकंिठ लजानीं ॥
भूप भवन िकिम जाइ बखाना । िबःव िबमोहन रचेउ िबताना ॥२॥
मंगल ि य मनोहर नाना । राजत बाजत िबपुल िनसाना ॥
कतहँु िबिरद बंद उ चरह ं । कतहँु बेद धुिन भूसुर करह ं ॥३॥
गाविहं सुंदिर मंगल गीता । लै लै नामु रामु अ सीता ॥
बहत
ु उछाहु भवनु अित थोरा । मानहँु उमिग चला चहु ओरा ॥४॥

दोहरा
सोभा दसरथ भवन कइ को किब बरनै पार ।
जहाँ सकल सुर सीस मिन राम लीन्ह अवतार ॥२९७॥

भूप भरत पुिन िलए बोलाई । हय गय ःयंदन साजहु जाई ॥


चलहु बेिग रघुबीर बराता । सुनत पुलक पूरे दोउ ॅाता ॥१॥
भरत सकल साहनी बोलाए । आयसु द न्ह मुिदत उिठ धाए ॥
रिच िच जीन तुरग ितन्ह साजे । बरन बरन बर बा ज िबराजे ॥२॥

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रामचिरतमानस - 122 - बालकांड

सुभग सकल सुिठ चंचल करनी । अय इव जरत धरत पग धरनी ॥


नाना जाित न जािहं बखाने । िनदिर पवनु जनु चहत उड़ाने ॥३॥
ितन्ह सब छयल भए असवारा । भरत सिरस बय राजकुमारा ॥
सब सुंदर सब भूषनधार । कर सर चाप तून किट भार ॥४॥

दोहरा
छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन ।
जुग पदचर असवार ूित जे अिसकला ूबीन ॥२९८॥

बाँधे िबरद बीर रन गाढ़े । िनकिस भए पुर बाहे र ठाढ़े ॥


फेरिहं चतुर तुरग गित नाना । हरषिहं सुिन सुिन पवन िनसाना ॥१॥
रथ सारिथन्ह िबिचऽ बनाए । वज पताक मिन भूषन लाए ॥
चवँर चा िकंिकन धुिन करह । भानु जान सोभा अपहरह ं ॥२॥
सावँकरन अगिनत हय होते । ते ितन्ह रथन्ह सारिथन्ह जोते ॥
सुंदर सकल अलंकृत सोहे । जन्हिह िबलोकत मुिन मन मोहे ॥३॥
जे जल चलिहं थलिह क नाई । टाप न बूड़ बेग अिधकाई ॥
अ स सबु साजु बनाई । रथी सारिथन्ह िलए बोलाई ॥४॥

दोहरा
चिढ़ चिढ़ रथ बाहे र नगर लागी जुरन बरात ।
होत सगुन सुन्दर सबिह जो जेिह कारज जात ॥२९९॥

किलत किरबर न्ह पर ं अँबार ं । किह न जािहं जेिह भाँित सँवार ं ॥


चले म गज घंट िबराजी । मनहँु सुभग सावन घन राजी ॥१॥
बाहन अपर अनेक िबधाना । िसिबका सुभग सुखासन जाना ॥
ितन्ह चिढ़ चले िबूबर बृन्दा । जनु तनु धर सकल ौुित छं दा ॥२॥
मागध सूत बंिद गुनगायक । चले जान चिढ़ जो जेिह लायक ॥
बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती । चले बःतु भिर अगिनत भाँती ॥३॥
कोिटन्ह काँविर चले कहारा । िबिबध बःतु को बरनै पारा ॥
चले सकल सेवक समुदाई । िनज िनज साजु समाजु बनाई ॥४॥

दोहरा
सब क उर िनभर हरषु पूिरत पुलक सर र ।
कबिहं दे खबे नयन भिर रामु लखनू दोउ बीर ॥३००॥

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रामचिरतमानस - 123 - बालकांड

गरजिहं गज घंटा धुिन घोरा । रथ रव बा ज िहं स चहु ओरा ॥


िनदिर घनिह घु मरिहं िनसाना । िनज पराइ कछु सुिनअ न काना ॥१ ॥
महा भीर भूपित के ार । रज होइ जाइ पषान पबार ॥
चढ़ अटािरन्ह दे खिहं नार ं । िलँएँ आरती मंगल थार ॥२॥
गाविहं गीत मनोहर नाना । अित आनंद ु न जाइ बखाना ॥
तब सुमंऽ दइु ःपंदन साजी । जोते रिब हय िनंदक बाजी ॥३॥
दोउ रथ िचर भूप पिहं आने । निहं सारद पिहं जािहं बखाने ॥
राज समाजु एक रथ साजा । दसर
ू तेज पुज
ं अित ॅाजा ॥४॥

दोहरा
तेिहं रथ िचर बिस कहँु हरिष चढ़ाइ नरे सु ।
आपु चढ़े उ ःपंदन सुिमिर हर गुर गौिर गनेसु ॥३०१॥

सिहत बिस सोह नृप कैस । सुर गुर संग पुरंदर जैस ॥
किर कुल र ित बेद िबिध राऊ । दे ख सबिह सब भाँित बनाऊ ॥१॥
सुिमिर रामु गुर आयसु पाई । चले मह पित संख बजाई ॥
हरषे िबबुध िबलोिक बराता । बरषिहं सुमन सुमंगल दाता ॥२॥
भयउ कोलाहल हय गय गाजे । योम बरात बाजने बाजे ॥
सुर नर नािर सुमंगल गाई । सरस राग बाजिहं सहनाई ॥३॥
घंट घंिट धुिन बरिन न जाह ं । सरव करिहं पाइक फहराह ं ॥
करिहं िबदषक
ू कौतुक नाना । हास कुसल कल गान सुजाना ॥४॥

दोहरा
तुरग नचाविहं कुँअर बर अकिन मृदंग िनसान ॥
नागर नट िचतविहं चिकत डगिहं न ताल बँधान ॥३०२॥

बनइ न बरनत बनी बराता । होिहं सगुन सुंदर सुभदाता ॥


चारा चाषु बाम िदिस लेई । मनहँु सकल मंगल किह दे ई ॥१॥
दािहन काग सुखेत सुहावा । नकुल दरसु सब काहँू पावा ॥
सानुकूल बह िऽिबध बयार । सघट सवाल आव बर नार ॥२॥
लोवा िफिर िफिर दरसु दे खावा । सुरभी सनमुख िससुिह िपआवा ॥
मृगमाला िफिर दािहिन आई । मंगल गन जनु द न्ह दे खाई ॥३॥
छे मकर कह छे म िबसेषी । ःयामा बाम सुत पर दे खी ॥
सनमुख आयउ दिध अ मीना । कर पुःतक दइु िबू ूबीना ॥४॥

दोहरा

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रामचिरतमानस - 124 - बालकांड

मंगलमय क यानमय अिभमत फल दातार ।


जनु सब साचे होन िहत भए सगुन एक बार ॥३०३॥

मंगल सगुन सुगम सब ताक । सगुन ॄ सुंदर सुत जाक ॥


राम सिरस ब दलिहिन
ु सीता । समधी दसरथु जनकु पुनीता ॥१॥
सुिन अस याहु सगुन सब नाचे । अब क न्हे िबरं िच हम साँचे ॥
एिह िबिध क न्ह बरात पयाना । हय गय गाजिहं हने िनसाना ॥२॥
आवत जािन भानुकुल केतू । सिरत न्ह जनक बँधाए सेतू ॥
बीच बीच बर बास बनाए । सुरपुर सिरस संपदा छाए ॥३॥
असन सयन बर बसन सुहाए । पाविहं सब िनज िनज मन भाए ॥
िनत नूतन सुख लख अनुकूले । सकल बराितन्ह मंिदर भूले ॥४॥

दोहरा
आवत जािन बरात बर सुिन गहगहे िनसान ।
सज गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान ॥३०४॥

मासपारायण दसवाँ िवौाम

कनक कलस भिर कोपर थारा । भाजन लिलत अनेक ूकारा ॥


भरे सुधासम सब पकवाने । नाना भाँित न जािहं बखाने ॥१॥
फल अनेक बर बःतु सुहा । हरिष भट िहत भूप पठा ॥
भूषन बसन महामिन नाना । खग मृग हय गय बहिबिध
ु जाना ॥२॥
मंगल सगुन सुगंध सुहाए । बहत
ु भाँित मिहपाल पठाए ॥
दिध िचउरा उपहार अपारा । भिर भिर काँविर चले कहारा ॥३॥
अगवानन्ह जब द ख बराता ।उर आनंद ु पुलक भर गाता ॥
दे ख बनाव सिहत अगवाना । मुिदत बराितन्ह हने िनसाना ॥४॥

दोहरा
हरिष परसपर िमलन िहत कछुक चले बगमेल ।
जनु आनंद समुि दइु िमलत िबहाइ सुबेल ॥३०५॥

बरिष सुमन सुर सुंदिर गाविहं । मुिदत दे व दं द


ु भीं
ु बजाविहं ॥
बःतु सकल राखीं नृप आग । िबनय क न्ह ितन्ह अित अनुराग ॥१॥
ूेम समेत रायँ सबु लीन्हा । भै बकसीस जाचक न्ह द न्हा ॥
किर पूजा मान्यता बड़ाई । जनवासे कहँु चले लवाई ॥२॥
बसन िबिचऽ पाँवड़े परह ं । दे ख धनहु धन मद ु पिरहरह ं ॥

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रामचिरतमानस - 125 - बालकांड

अित सुंदर द न्हे उ जनवासा । जहँ सब कहँु सब भाँित सुपासा ॥३॥


जानी िसयँ बरात पुर आई । कछु िनज मिहमा ूगिट जनाई ॥
हृदयँ सुिमिर सब िसि बोलाई । भूप पहनई
ु करन पठाई ॥४॥

दोहरा
िसिध सब िसय आयसु अकिन ग जहाँ जनवास ।
िलएँ संपदा सकल सुख सुरपुर भोग िबलास ॥३०६॥

िनज िनज बास िबलोिक बराती । सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती ॥
िबभव भेद कछु कोउ न जाना । सकल जनक कर करिहं बखाना ॥१॥
िसय मिहमा रघुनायक जानी । हरषे हृदयँ हे तु पिहचानी ॥
िपतु आगमनु सुनत दोउ भाई । हृदयँ न अित आनंद ु अमाई ॥२॥
सकुचन्ह किह न सकत गु पाह ं । िपतु दरसन लालचु मन माह ं ॥
िबःवािमऽ िबनय बिड़ दे खी । उपजा उर संतोषु िबसेषी ॥३॥
हरिष बंधु दोउ हृदयँ लगाए । पुलक अंग अंबक जल छाए ॥
चले जहाँ दसरथु जनवासे । मनहँु सरोबर तकेउ िपआसे ॥४॥

दोहरा
भूप िबलोके जबिहं मुिन आवत सुतन्ह समेत ।
उठे हरिष सुखिसंधु महँु चले थाह सी लेत ॥३०७॥

मुिनिह दं डवत क न्ह मह सा । बार बार पद रज धिर सीसा ॥


कौिसक राउ िलये उर लाई । किह असीस पूछ कुसलाई ॥१॥
पुिन दं डवत करत दोउ भाई । दे ख नृपित उर सुखु न समाई ॥
सुत िहयँ लाइ दसह
ु दख
ु मेटे । मृतक सर र ूान जनु भटे ॥२॥
पुिन बिस पद िसर ितन्ह नाए । ूेम मुिदत मुिनबर उर लाए ॥
िबू बृंद बंदे दहँु ु भा । मन भावती असीस पा ॥३॥
भरत सहानुज क न्ह ूनामा । िलए उठाइ लाइ उर रामा ॥
हरषे लखन दे ख दोउ ॅाता । िमले ूेम पिरपूिरत गाता ॥४॥

दोहरा
पुरजन पिरजन जाितजन जाचक मंऽी मीत ।
िमले जथािबिध सबिह ूभु परम कृ पाल िबनीत ॥३०८॥

रामिह दे ख बरात जुड़ानी । ूीित िक र ित न जाित बखानी ॥


नृप समीप सोहिहं सुत चार । जनु धन धरमािदक तनुधार ॥१॥

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रामचिरतमानस - 126 - बालकांड

सुतन्ह समेत दसरथिह दे खी । मुिदत नगर नर नािर िबसेषी ॥


सुमन बिरिस सुर हनिहं िनसाना । नाकनट ं नाचिहं किर गाना ॥२॥
सतानंद अ िबू सिचव गन । मागध सूत िबदष
ु बंद जन ॥
सिहत बरात राउ सनमाना । आयसु मािग िफरे अगवाना ॥३॥
ूथम बरात लगन त आई । तात पुर ूमोद ु अिधकाई ॥
ॄ ानंद ु लोग सब लहह ं । बढ़हँु िदवस िनिस िबिध सन कहह ं ॥४॥

दोहरा
रामु सीय सोभा अविध सुकृत अविध दोउ राज ।
जहँ जहँ पुरजन कहिहं अस िमिल नर नािर समाज ॥३०९॥

जनक सुकृत मूरित बैदेह । दसरथ सुकृत रामु धर दे ह ॥


इन्ह सम काँहु न िसव अवराधे । कािहँ न इन्ह समान फल लाधे ॥१॥
इन्ह सम कोउ न भयउ जग माह ं । है निहं कतहँू होनेउ नाह ं ॥
हम सब सकल सुकृत कै रासी । भए जग जनिम जनकपुर बासी ॥२॥
जन्ह जानक राम छिब दे खी । को सुकृती हम सिरस िबसेषी ॥
पुिन दे खब रघुबीर िबआहू । लेब भली िबिध लोचन लाहू ॥३॥
कहिहं परसपर कोिकलबयनीं । एिह िबआहँ बड़ लाभु सुनयनीं ॥
बड़ भाग िबिध बात बनाई । नयन अितिथ होइहिहं दोउ भाई ॥४॥

दोहरा
बारिहं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय ।
लेन आइहिहं बंधु दोउ कोिट काम कमनीय ॥३१०॥

िबिबध भाँित होइिह पहनाई


ु । िूय न कािह अस सासुर माई ॥
तब तब राम लखनिह िनहार । होइहिहं सब पुर लोग सुखार ॥१॥
सख जस राम लखनकर जोटा । तैसेइ भूप संग दइु ढोटा ॥
ःयाम गौर सब अंग सुहाए । ते सब कहिहं दे ख जे आए ॥२॥
कहा एक म आजु िनहारे । जनु िबरं िच िनज हाथ सँवारे ॥
भरतु रामह क अनुहार । सहसा लख न सकिहं नर नार ॥३॥
लखनु सऽुसूदनु एक पा । नख िसख ते सब अंग अनूपा ॥
मन भाविहं मुख बरिन न जाह ं । उपमा कहँु िऽभुवन कोउ नाह ं ॥४॥

छं द
उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहँु किब कोिबद कह ।
बल िबनय िब ा सील सोभा िसंधु इन्ह से एइ अह ॥

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रामचिरतमानस - 127 - बालकांड

पुर नािर सकल पसािर अंचल िबिधिह बचन सुनावह ं ॥


यािहअहँु चािरउ भाइ एिहं पुर हम सुमंगल गावह ं ॥

सोरठा
कहिहं परःपर नािर बािर िबलोचन पुलक तन ।
सख सबु करब पुरािर पुन्य पयोिनिध भूप दोउ ॥३११॥

एिह िबिध सकल मनोरथ करह ं । आनँद उमिग उमिग उर भरह ं ॥


जे नृप सीय ःवयंबर आए । दे ख बंधु सब ितन्ह सुख पाए ॥१॥
कहत राम जसु िबसद िबसाला । िनज िनज भवन गए मिहपाला ॥
गए बीित कुछ िदन एिह भाँती । ूमुिदत पुरजन सकल बराती ॥२॥
मंगल मूल लगन िदनु आवा । िहम िरतु अगहनु मासु सुहावा ॥
मह ितिथ नखतु जोगु बर बा । लगन सोिध िबिध क न्ह िबचा ॥३॥
पठै द न्ह नारद सन सोई । गनी जनक के गनकन्ह जोई ॥
सुनी सकल लोगन्ह यह बाता । कहिहं जोितषी आिहं िबधाता ॥४॥

दोहरा
धेनुधूिर बेला िबमल सकल सुमंगल मूल ।
िबून्ह कहे उ िबदे ह सन जािन सगुन अनुकुल ॥३१२॥

उपरोिहतिह कहे उ नरनाहा । अब िबलंब कर कारनु काहा ॥


सतानंद तब सिचव बोलाए । मंगल सकल सा ज सब याए ॥१॥
संख िनसान पनव बहु बाजे । मंगल कलस सगुन सुभ साजे ॥
सुभग सुआिसिन गाविहं गीता । करिहं बेद धुिन िबू पुनीता ॥२॥
लेन चले सादर एिह भाँती । गए जहाँ जनवास बराती ॥
कोसलपित कर दे ख समाजू । अित लघु लाग ितन्हिह सुरराजू ॥३॥
भयउ समउ अब धािरअ पाऊ । यह सुिन परा िनसानिहं घाऊ ॥
गुरिह पूिछ किर कुल िबिध राजा । चले संग मुिन साधु समाजा ॥४॥

दोहरा
भा य िबभव अवधेस कर दे ख दे व ॄ ािद ।
लगे सराहन सहस मुख जािन जनम िनज बािद ॥३१३॥

सुरन्ह सुमंगल अवस जाना । बरषिहं सुमन बजाइ िनसाना ॥


िसव ॄ ािदक िबबुध ब था । चढ़े िबमान न्ह नाना जूथा ॥१॥
ूेम पुलक तन हृदयँ उछाहू । चले िबलोकन राम िबआहू ॥

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रामचिरतमानस - 128 - बालकांड

दे ख जनकपु सुर अनुरागे । िनज िनज लोक सबिहं लघु लागे ॥२॥
िचतविहं चिकत िबिचऽ िबताना । रचना सकल अलौिकक नाना ॥
नगर नािर नर प िनधाना । सुघर सुधरम सुसील सुजाना ॥३॥
ितन्हिह दे ख सब सुर सुरनार ं । भए नखत जनु िबधु उ जआर ं ॥
िबिधिह भयह आचरजु िबसेषी । िनज करनी कछु कतहँु न दे खी ॥४॥

दोहरा
िसवँ समुझाए दे व सब जिन आचरज भुलाहु ।
हृदयँ िबचारहु धीर धिर िसय रघुबीर िबआहु ॥३१४॥

जन्ह कर नामु लेत जग माह ं । सकल अमंगल मूल नसाह ं ॥


करतल होिहं पदारथ चार । तेइ िसय रामु कहे उ कामार ॥१॥
एिह िबिध संभु सुरन्ह समुझावा । पुिन आग बर बसह चलावा ॥
दे वन्ह दे खे दसरथु जाता । महामोद मन पुलिकत गाता ॥२॥
साधु समाज संग मिहदे वा । जनु तनु धर करिहं सुख सेवा ॥
सोहत साथ सुभग सुत चार । जनु अपबरग सकल तनुधार ॥३॥
मरकत कनक बरन बर जोर । दे ख सुरन्ह भै ूीित न थोर ॥
पुिन रामिह िबलोिक िहयँ हरषे । नृपिह सरािह सुमन ितन्ह बरषे ॥४॥

दोहरा
राम पु नख िसख सुभग बारिहं बार िनहािर ।
पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरािर ॥३१५॥

केिक कंठ दित


ु ःयामल अंगा । तिड़त िबिनंदक बसन सुरंगा ॥
याह िबभूषन िबिबध बनाए । मंगल सब सब भाँित सुहाए ॥१॥
सरद िबमल िबधु बदनु सुहावन । नयन नवल राजीव लजावन ॥
सकल अलौिकक सुंदरताई । किह न जाइ मनह ं मन भाई ॥२॥
बंधु मनोहर सोहिहं संगा । जात नचावत चपल तुरंगा ॥
राजकुअँर बर बा ज दे खाविहं । बंस ूसंसक िबिरद सुनाविहं ॥३॥
जेिह तुरंग पर रामु िबराजे । गित िबलोिक खगनायकु लाजे ॥
किह न जाइ सब भाँित सुहावा । बा ज बेषु जनु काम बनावा ॥४॥

छं द
जनु बा ज बेषु बनाइ मनिसजु राम िहत अित सोहई ।
आपन बय बल प गुन गित सकल भुवन िबमोहई ॥
जगमगत जीनु जराव जोित सुमोित मिन मािनक लगे ।

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रामचिरतमानस - 129 - बालकांड

िकंिकिन ललाम लगामु लिलत िबलोिक सुर नर मुिन ठगे ॥

दोहरा
ूभु मनसिहं लयलीन मनु चलत बा ज छिब पाव ।
भूिषत उड़गन तिड़त घनु जनु बर बरिह नचाव ॥३१६॥

जेिहं बर बा ज रामु असवारा । तेिह सारदउ न बरनै पारा ॥


संक राम प अनुरागे । नयन पंचदस अित िूय लागे ॥१॥
हिर िहत सिहत रामु जब जोहे । रमा समेत रमापित मोहे ॥
िनर ख राम छिब िबिध हरषाने । आठइ नयन जािन पिछताने ॥२॥
सुर सेनप उर बहत
ु उछाहू । िबिध ते डे वढ़ लोचन लाहू ॥
रामिह िचतव सुरेस सुजाना । गौतम ौापु परम िहत माना ॥३॥
दे व सकल सुरपितिह िसहाह ं । आजु पुरंदर सम कोउ नाह ं ॥
मुिदत दे वगन रामिह दे खी । नृपसमाज दहँु ु हरषु िबसेषी ॥४॥

छं द
अित हरषु राजसमाज दहु ु िदिस दं द
ु भीं
ु बाजिहं घनी ।
बरषिहं सुमन सुर हरिष किह जय जयित जय रघुकुलमनी ॥
एिह भाँित जािन बरात आवत बाजने बहु बाजह ं ।
रािन सुआिसिन बोिल पिरछिन हे तु मंगल साजह ं ॥

दोहरा
सज आरती अनेक िबिध मंगल सकल सँवािर ।
चलीं मुिदत पिरछिन करन गजगािमिन बर नािर ॥३१७॥

िबधुबदनीं सब सब मृगलोचिन । सब िनज तन छिब रित मद ु मोचिन ॥


पिहर बरन बरन बर चीरा । सकल िबभूषन सज सर रा ॥१॥
सकल सुमग
ं ल अंग बनाएँ । करिहं गान कलकंिठ लजाएँ ॥
कंकन िकंिकिन नूपुर बाजिहं । चािल िबलोिक काम गज लाजिहं ॥२॥
बाजिहं बाजने िबिबध ूकारा । नभ अ नगर सुमंगलचारा ॥
सची सारदा रमा भवानी । जे सुरितय सुिच सहज सयानी ॥३॥
कपट नािर बर बेष बनाई । िमलीं सकल रिनवासिहं जाई ॥
करिहं गान कल मंगल बानीं । हरष िबबस सब काहँु न जानी ॥४॥

छं द

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रामचिरतमानस - 130 - बालकांड

को जान केिह आनंद बस सब ॄ ु बर पिरछन चली ।


कल गान मधुर िनसान बरषिहं सुमन सुर सोभा भली ॥
आनंदकंद ु िबलोिक दलह
ू ु सकल िहयँ हरिषत भई ॥
अंभोज अंबक अंबु उमिग सुअंग पुलकाविल छई ॥

दोहरा
जो सुख भा िसय मातु मन दे ख राम बर बेषु ।
सो न सकिहं किह कलप सत सहस सारदा सेषु ॥३१८॥

नयन नी हिट मंगल जानी । पिरछिन करिहं मुिदत मन रानी ॥


बेद िबिहत अ कुल आचा । क न्ह भली िबिध सब यवहा ॥१॥
पंच सबद धुिन मंगल गाना । पट पाँवड़े परिहं िबिध नाना ॥
किर आरती अरघु ितन्ह द न्हा । राम गमनु मंडप तब क न्हा ॥२॥
दसरथु सिहत समाज िबराजे । िबभव िबलोिक लोकपित लाजे ॥
समयँ समयँ सुर बरषिहं फूला । सांित पढ़िहं मिहसुर अनुकूला ॥३॥
नभ अ नगर कोलाहल होई । आपिन पर कछु सुनइ न कोई ॥
एिह िबिध रामु मंडपिहं आए । अरघु दे इ आसन बैठाए ॥४॥

छं द
बैठािर आसन आरती किर िनर ख ब सुखु पावह ं ॥
मिन बसन भूषन भूिर वारिहं नािर मंगल गावह ं ॥
ॄ ािद सुरबर िबू बेष बनाइ कौतुक दे खह ं ।
अवलोिक रघुकुल कमल रिब छिब सुफल जीवन लेखह ं ॥

दोहरा
नाऊ बार भाट नट राम िनछाविर पाइ ।
मुिदत असीसिहं नाइ िसर हरषु न हृदयँ समाइ ॥३१९॥

िमले जनकु दसरथु अित ूीतीं । किर बैिदक लौिकक सब र तीं ॥


िमलत महा दोउ राज िबराजे । उपमा खो ज खो ज किब लाजे ॥१॥
लह न कतहँु हािर िहयँ मानी । इन्ह सम एइ उपमा उर आनी ॥
सामध दे ख दे व अनुरागे । सुमन बरिष जसु गावन लागे ॥२॥
जगु िबरं िच उपजावा जब त । दे खे सुने याह बहु तब त ॥
सकल भाँित सम साजु समाजू । सम समधी दे खे हम आजू ॥३॥
दे व िगरा सुिन सुद
ं र साँची । ूीित अलौिकक दहु ु िदिस माची ॥
दे त पाँवड़े अरघु सुहाए । सादर जनकु मंडपिहं याए ॥४॥

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रामचिरतमानस - 131 - बालकांड

छं द
मंडपु िबलोिक िबचीऽ रचनाँ िचरताँ मुिन मन हरे ॥
िनज पािन जनक सुजान सब कहँु आिन िसंघासन धरे ॥
कुल इ सिरस बिस पूजे िबनय किर आिसष लह ।
कौिसकिह पूजत परम ूीित िक र ित तौ न परै कह ॥

दोहरा
बामदे व आिदक िरषय पूजे मुिदत मह स ।
िदए िद य आसन सबिह सब सन लह असीस ॥३२०॥

बहिर
ु क न्ह कोसलपित पूजा । जािन ईस सम भाउ न दजा
ू ॥
क न्ह जोिर कर िबनय बड़ाई । किह िनज भा य िबभव बहताई
ु ॥१॥
पूजे भूपित सकल बराती । समिध सम सादर सब भाँती ॥
आसन उिचत िदए सब काहू । कह काह मूख एक उछाहू ॥२॥
सकल बरात जनक सनमानी । दान मान िबनती बर बानी ॥
िबिध हिर ह िदिसपित िदनराऊ । जे जानिहं रघुबीर ूभाऊ ॥३॥
कपट िबू बर बेष बनाएँ । कौतुक दे खिहं अित सचु पाएँ ॥
पूजे जनक दे व सम जान । िदए सुआसन िबनु पिहचान ॥४॥

छं द
पिहचान को केिह जान सबिहं अपान सुिध भोर भई ।
आनंद कंद ु िबलोिक दलह
ू ु उभय िदिस आनँद मई ॥
सुर लखे राम सुजान पूजे मानिसक आसन दए ।
अवलोिक सीलु सुभाउ ूभु को िबबुध मन ूमुिदत भए ॥

दोहरा
रामचंि मुख चंि छिब लोचन चा चकोर ।
करत पान सादर सकल ूेमु ूमोद ु न थोर ॥३२१॥

समउ िबलोिक बिस बोलाए । सादर सतानंद ु सुिन आए ॥


बेिग कुअँिर अब आनहु जाई । चले मुिदत मुिन आयसु पाई ॥१॥
रानी सुिन उपरोिहत बानी । ूमुिदत स खन्ह समेत सयानी ॥
िबू बधू कुलबृ बोला । किर कुल र ित सुमंगल गा ॥२॥
नािर बेष जे सुर बर बामा । सकल सुभायँ सुंदर ःयामा ॥
ितन्हिह दे ख सुखु पाविहं नार ं । िबनु पिहचािन ूानहु ते यार ं ॥३॥

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रामचिरतमानस - 132 - बालकांड

बार बार सनमानिहं रानी । उमा रमा सारद सम जानी ॥


सीय सँवािर समाजु बनाई । मुिदत मंडपिहं चलीं लवाई ॥४॥

छं द
चिल याइ सीतिह सखीं सादर सज सुमंगल भािमनीं ।
नवस साज सुंदर सब म कुंजर गािमनीं ॥
कल गान सुिन मुिन यान यागिहं काम कोिकल लाजह ं ।
मंजीर नूपुर किलत कंकन ताल गती बर बाजह ं ॥

दोहरा
सोहित बिनता बृंद महँु सहज सुहाविन सीय ।
छिब ललना गन म य जनु सुषमा ितय कमनीय ॥३२२॥

िसय सुंदरता बरिन न जाई । लघु मित बहत


ु मनोहरताई ॥
आवत द ख बराितन्ह सीता ॥ प रािस सब भाँित पुनीता ॥१॥
सबिह मनिहं मन िकए ूनामा । दे ख राम भए पूरनकामा ॥
हरषे दसरथ सुतन्ह समेता । किह न जाइ उर आनँद ु जेता ॥२॥
सुर ूनामु किर बरसिहं फूला । मुिन असीस धुिन मंगल मूला ॥
गान िनसान कोलाहलु भार । ूेम ूमोद मगन नर नार ॥३॥
एिह िबिध सीय मंडपिहं आई । ूमुिदत सांित पढ़िहं मुिनराई ॥
तेिह अवसर कर िबिध यवहा । दहँु ु कुलगुर सब क न्ह अचा ॥४॥

छं द
आचा किर गुर गौिर गनपित मुिदत िबू पुजावह ं ।
सुर ूगिट पूजा लेिहं दे िहं असीस अित सुखु पावह ं ॥
मधुपक मंगल ि य जो जेिह समय मुिन मन महँु चह ।
भरे कनक कोपर कलस सो सब िलएिहं पिरचारक रह ॥१॥

कुल र ित ूीित समेत रिब किह दे त सबु सादर िकयो ।


एिह भाँित दे व पुजाइ सीतिह सुभग िसंघासनु िदयो ॥
िसय राम अवलोकिन परसपर ूेम काहु न लख परै ॥
मन बुि बर बानी अगोचर ूगट किब कैस करै ॥२॥

दोहरा
होम समय तनु धिर अनलु अित सुख आहित
ु लेिहं ।
िबू बेष धिर बेद सब किह िबबाह िबिध दे िहं ॥३२३॥

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रामचिरतमानस - 133 - बालकांड

जनक पाटमिहषी जग जानी । सीय मातु िकिम जाइ बखानी ॥


सुजसु सुकृत सुख सुदंरताई । सब समेिट िबिध रची बनाई ॥१॥
समउ जािन मुिनबरन्ह बोलाई । सुनत सुआिसिन सादर याई ॥
जनक बाम िदिस सोह सुनयना । िहमिगिर संग बिन जनु मयना ॥२॥
कनक कलस मिन कोपर रे । सुिच सुंगध मंगल जल पूरे ॥
िनज कर मुिदत रायँ अ रानी । धरे राम के आग आनी ॥३॥
पढ़िहं बेद मुिन मंगल बानी । गगन सुमन झिर अवस जानी ॥
ब िबलोिक दं पित अनुरागे । पाय पुनीत पखारन लागे ॥४॥

छं द
लागे पखारन पाय पंकज ूेम तन पुलकावली ।
नभ नगर गान िनसान जय धुिन उमिग जनु चहँु िदिस चली ॥
जे पद सरोज मनोज अिर उर सर सदै व िबराजह ं ।
जे सकृ त सुिमरत िबमलता मन सकल किल मल भाजह ं ॥१॥

जे परिस मुिनबिनता लह गित रह जो पातकमई ।


मकरं द ु जन्ह को संभु िसर सुिचता अविध सुर बरनई ॥
किर मधुप मन मुिन जोिगजन जे सेइ अिभमत गित लह ।
ते पद पखारत भा यभाजनु जनकु जय जय सब कहै ॥२॥

बर कुअँिर करतल जोिर साखोचा दोउ कुलगुर कर ।


भयो पािनगहनु िबलोिक िबिध सुर मनुज मुिन आँनद भर ॥
सुखमूल दलह
ू ु दे ख दं पित पुलक तन हलःयो
ु िहयो ।
किर लोक बेद िबधानु कन्यादानु नृपभूषन िकयो ॥३॥

िहमवंत जिम िगिरजा महे सिह हिरिह ौी सागर दई ।


ितिम जनक रामिह िसय समरपी िबःव कल क रित नई ॥
य करै िबनय िबदे हु िकयो िबदे हु मूरित सावँर ।
किर होम िबिधवत गाँिठ जोर होन लागी भावँर ॥४॥

दोहरा
जय धुिन बंद बेद धुिन मंगल गान िनसान ।
सुिन हरषिहं बरषिहं िबबुध सुरत सुमन सुजान ॥३२४॥

कुअँ कुअँिर कल भावँिर दे ह ं ॥ नयन लाभु सब सादर लेह ं ॥


जाइ न बरिन मनोहर जोर । जो उपमा कछु कह सो थोर ॥१॥

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रामचिरतमानस - 134 - बालकांड

राम सीय सुंदर ूितछाह ं । जगमगात मिन खंभन माह ं ।


मनहँु मदन रित धिर बहु पा । दे खत राम िबआहु अनूपा ॥२॥
दरस लालसा सकुच न थोर । ूगटत दरत
ु बहोिर बहोर ॥
भए मगन सब दे खिनहारे । जनक समान अपान िबसारे ॥३॥
ूमुिदत मुिनन्ह भावँर फेर । नेगसिहत सब र ित िनबेर ं ॥
राम सीय िसर सदरु दे ह ं । सोभा किह न जाित िबिध केह ं ॥४॥
अ न पराग जलजु भिर नीक । सिसिह भूष अिह लोभ अमी क ॥
बहिर
ु बिस द न्ह अनुसासन । ब दलिहिन
ु बैठे एक आसन ॥५॥

छं द
बैठे बरासन रामु जानिक मुिदत मन दसरथु भए ।
तनु पुलक पुिन पुिन दे ख अपन सुकृत सुरत फल नए ॥
भिर भुवन रहा उछाहु राम िबबाहु भा सबह ं कहा ।
केिह भाँित बरिन िसरात रसना एक यहु मंगलु महा ॥१॥

तब जनक पाइ बिस आयसु याह साज सँवािर कै ।


माँडवी ौुितक रित उरिमला कुअँिर ल हँ कािर के ॥
कुसकेतु कन्या ूथम जो गुन सील सुख सोभामई ।
सब र ित ूीित समेत किर सो यािह नृप भरतिह दई ॥२॥

जानक लघु भिगनी सकल सुंदिर िसरोमिन जािन कै ।


सो तनय द न्ह यािह लखनिह सकल िबिध सनमािन कै ॥
जेिह नामु ौुतक रित सुलोचिन सुमु ख सब गुन आगर ।
सो दई िरपुसूदनिह भूपित प सील उजागर ॥३॥

अनु प बर दलिहिन
ु परःपर लख सकुच िहयँ हरषह ं ।
सब मुिदत सुंदरता सराहिहं सुमन सुर गन बरषह ं ॥
सुंदर सुद
ं र बरन्ह सह सब एक मंडप राजह ं ।
जनु जीव उर चािरउ अवःथा िबमुन सिहत िबराजह ं ॥४॥

दोहरा
मुिदत अवधपित सकल सुत बधुन्ह समेत िनहािर ।
जनु पार मिहपाल मिन िबयन्ह सिहत फल चािर ॥३२५॥

जिस रघुबीर याह िबिध बरनी । सकल कुअँर याहे तेिहं करनी ॥
किह न जाइ कछु दाइज भूर । रहा कनक मिन मंडपु पूर ॥१॥

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रामचिरतमानस - 135 - बालकांड

कंबल बसन िबिचऽ पटोरे । भाँित भाँित बहु मोल न थोरे ॥


गज रथ तुरग दास अ दासी । धेनु अलंकृत कामदहा
ु सी ॥२॥
बःतु अनेक किरअ िकिम लेखा । किह न जाइ जानिहं जन्ह दे खा ॥
लोकपाल अवलोिक िसहाने । लीन्ह अवधपित सबु सुखु माने ॥३॥
द न्ह जाचक न्ह जो जेिह भावा । उबरा सो जनवासेिहं आवा ॥
तब कर जोिर जनकु मृद ु बानी । बोले सब बरात सनमानी ॥४॥

छं द
सनमािन सकल बरात आदर दान िबनय बड़ाइ कै ।
ूमुिदत महा मुिन बृंद बंदे पू ज ूेम लड़ाइ कै ॥
िस नाइ दे व मनाइ सब सन कहत कर संपुट िकएँ ।
सुर साधु चाहत भाउ िसंधु िक तोष जल अंजिल िदएँ ॥१॥

कर जोिर जनकु बहोिर बंधु समेत कोसलराय स ।


बोले मनोहर बयन सािन सनेह सील सुभाय स ॥
संबंध राजन रावर हम बड़े अब सब िबिध भए ।
एिह राज साज समेत सेवक जािनबे िबनु गथ लए ॥२॥

ए दािरका पिरचािरका किर पािलबीं क ना नई ।


अपराधु छिमबो बोिल पठए बहत
ु ह ढ यो कई ॥
पुिन भानुकुलभूषन सकल सनमान िनिध समधी िकए ।
किह जाित निहं िबनती परःपर ूेम पिरपूरन िहए ॥३॥

बृंदारका गन सुमन बिरसिहं राउ जनवासेिह चले ।


दं द
ु भी
ु जय धुिन बेद धुिन नभ नगर कौतूहल भले ॥
तब सखीं मंगल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै ।
दलह
ू दलिहिनन्ह
ु सिहत सुंदिर चलीं कोहबर याइ कै ॥४॥

दोहरा
पुिन पुिन रामिह िचतव िसय सकुचित मनु सकुचै न ।
हरत मनोहर मीन छिब ूेम िपआसे नैन ॥३२६॥

मासपारायण यारहवाँ िवौाम

ःयाम सर सुभायँ सुहावन । सोभा कोिट मनोज लजावन ॥


जावक जुत पद कमल सुहाए । मुिन मन मधुप रहत जन्ह छाए ॥१॥
पीत पुनीत मनोहर धोती । हरित बाल रिब दािमिन जोती ॥

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रामचिरतमानस - 136 - बालकांड

कल िकंिकिन किट सूऽ मनोहर । बाहु िबसाल िबभूषन सुद


ं र ॥२॥
पीत जनेउ महाछिब दे ई । कर मुििका चोिर िचतु लेई ॥
सोहत याह साज सब साजे । उर आयत उरभूषन राजे ॥३॥
िपअर उपरना काखासोती । दहँु ु आँचर न्ह लगे मिन मोती ॥
नयन कमल कल कुंडल काना । बदनु सकल स दज िनधाना ॥४॥
सुंदर भृकुिट मनोहर नासा । भाल ितलकु िचरता िनवासा ॥
सोहत मौ मनोहर माथे । मंगलमय मुकुता मिन गाथे ॥५॥

छं द
गाथे महामिन मौर मंजुल अंग सब िचत चोरह ं ।
पुर नािर सुर सुंदर ं बरिह िबलोिक सब ितन तोरह ं ॥
मिन बसन भूषन वािर आरित करिहं मंगल गाविहं ।
सुर सुमन बिरसिहं सूत मागध बंिद सुजसु सुनावह ं ॥१॥

कोहबरिहं आने कुँअर कुँअिर सुआिसिनन्ह सुख पाइ कै ।


अित ूीित लौिकक र ित लागीं करन मंगल गाइ कै ॥
लहकौिर गौिर िसखाव रामिह सीय सन सारद कह ।
रिनवासु हास िबलास रस बस जन्म को फलु सब लह ॥२॥

िनज पािन मिन महँु दे खअित मूरित सु पिनधान क ।


चालित न भुजब ली िबलोकिन िबरह भय बस जानक ॥
कौतुक िबनोद ूमोद ु ूेमु न जाइ किह जानिहं अलीं ।
बर कुअँिर सुंदर सकल सखीं लवाइ जनवासेिह चलीं ॥३॥

तेिह समय सुिनअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँद ु महा ।


िच जअहँु जोर ं चा चारयो मुिदत मन सबह ं कहा ॥
जोगीन्ि िस मुनीस दे व िबलोिक ूभु दं द
ु िभ
ु हनी ।
चले हरिष बरिष ूसून िनज िनज लोक जय जय जय भनी ॥४॥

दोहरा
सिहत बधूिटन्ह कुअँर सब तब आए िपतु पास ।
सोभा मंगल मोद भिर उमगेउ जनु जनवास ॥३२७॥

पुिन जेवनार भई बहु भाँती । पठए जनक बोलाइ बराती ॥


परत पाँवड़े बसन अनूपा । सुतन्ह समेत गवन िकयो भूपा ॥१॥
सादर सबके पाय पखारे । जथाजोगु पीढ़न्ह बैठारे ॥

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रामचिरतमानस - 137 - बालकांड

धोए जनक अवधपित चरना । सीलु सनेहु जाइ निहं बरना ॥२॥
बहिर
ु राम पद पंकज धोए । जे हर हृदय कमल महँु गोए ॥
तीिनउ भाई राम सम जानी । धोए चरन जनक िनज पानी ॥३॥
आसन उिचत सबिह नृप द न्हे । बोिल सूपकार सब लीन्हे ॥
सादर लगे परन पनवारे । कनक कल मिन पान सँवारे ॥४॥

दोहरा
सूपोदन सुरभी सरिप सुंदर ःवाद ु पुनीत ।
छन महँु सब क प िस गे चतुर सुआर िबनीत ॥३२८॥

पंच कवल किर जेवन लागे । गािर गान सुिन अित अनुरागे ॥
भाँित अनेक परे पकवाने । सुधा सिरस निहं जािहं बखाने ॥१॥
प सन लगे सुआर सुजाना । िबंजन िबिबध नाम को जाना ॥
चािर भाँित भोजन िबिध गाई । एक एक िबिध बरिन न जाई ॥२॥
छरस िचर िबंजन बहु जाती । एक एक रस अगिनत भाँती ॥
जेवँत दे िहं मधुर धुिन गार । लै लै नाम पु ष अ नार ॥३॥
समय सुहाविन गािर िबराजा । हँ सत राउ सुिन सिहत समाजा ॥
एिह िबिध सबह ं भौजनु क न्हा । आदर सिहत आचमनु द न्हा ॥४॥

दोहरा
दे इ पान पूजे जनक दसरथु सिहत समाज ।
जनवासेिह गवने मुिदत सकल भूप िसरताज ॥३२९॥

िनत नूतन मंगल पुर माह ं । िनिमष सिरस िदन जािमिन जाह ं ॥
बड़े भोर भूपितमिन जागे । जाचक गुन गन गावन लागे ॥१॥
दे ख कुअँर बर बधुन्ह समेता । िकिम किह जात मोद ु मन जेता ॥
ूातिबया किर गे गु पाह ं । महाूमोद ु ूेमु मन माह ं ॥२॥
किर ूनाम पूजा कर जोर । बोले िगरा अिमअँ जनु बोर ॥
तु हर कृ पाँ सुनहु मुिनराजा । भयउँ आजु म पूरनकाजा ॥३॥
अब सब िबू बोलाइ गोसा । दे हु धेनु सब भाँित बनाई ॥
सुिन गुर किर मिहपाल बड़ाई । पुिन पठए मुिन बृंद बोलाई ॥४॥

दोहरा
बामदे उ अ दे विरिष बालमीिक जाबािल ।
आए मुिनबर िनकर तब कौिसकािद तपसािल ॥३३०॥

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रामचिरतमानस - 138 - बालकांड

दं ड ूनाम सबिह नृप क न्हे । पू ज सूेम बरासन द न्हे ॥


चािर ल छ बर धेनु मगाई । कामसुरिभ सम सील सुहाई ॥१॥
सब िबिध सकल अलंकृत क न्ह ं । मुिदत मिहप मिहदे वन्ह द न्ह ं ॥
करत िबनय बहु िबिध नरनाहू । लहे उँ आजु जग जीवन लाहू ॥२॥
पाइ असीस मह सु अनंदा । िलए बोिल पुिन जाचक बृंदा ॥
कनक बसन मिन हय गय ःयंदन । िदए बू झ िच रिबकुलनंदन ॥३॥
चले पढ़त गावत गुन गाथा । जय जय जय िदनकर कुल नाथा ॥
एिह िबिध राम िबआह उछाहू । सकइ न बरिन सहस मुख जाहू ॥४॥

दोहरा
बार बार कौिसक चरन सीसु नाइ कह राउ ।
यह सबु सुखु मुिनराज तव कृ पा कटा छ पसाउ ॥३३१॥

जनक सनेहु सीलु करतूती । नृपु सब भाँित सराह िबभूती ॥


िदन उिठ िबदा अवधपित मागा । राखिहं जनकु सिहत अनुरागा ॥१॥
िनत नूतन आद अिधकाई । िदन ूित सहस भाँित पहनाई
ु ॥
िनत नव नगर अनंद उछाहू । दसरथ गवनु सोहाइ न काहू ॥२॥
बहत
ु िदवस बीते एिह भाँती । जनु सनेह रजु बँधे बराती ॥
कौिसक सतानंद तब जाई । कहा िबदे ह नृपिह समुझाई ॥३॥
अब दसरथ कहँ आयसु दे हू । ज िप छािड़ न सकहु सनेहू ॥
भलेिहं नाथ किह सिचव बोलाए । किह जय जीव सीस ितन्ह नाए ॥४॥

दोहरा
अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ ।
भए ूेमबस सिचव सुिन िबू सभासद राउ ॥३३२॥

पुरबासी सुिन चिलिह बराता । बूझत िबकल परःपर बाता ॥


स य गवनु सुिन सब िबलखाने । मनहँु साँझ सरिसज सकुचाने ॥१॥
जहँ जहँ आवत बसे बराती । तहँ तहँ िस चला बहु भाँती ॥
िबिबध भाँित मेवा पकवाना । भोजन साजु न जाइ बखाना ॥२॥
भिर भिर बसहँ अपार कहारा । पठई जनक अनेक सुसारा ॥
तुरग लाख रथ सहस पचीसा । सकल सँवारे नख अ सीसा ॥३॥
म सहस दस िसंधुर साजे । जन्हिह दे ख िदिसकुंजर लाजे ॥
कनक बसन मिन भिर भिर जाना । मिहषीं धेनु बःतु िबिध नाना ॥४॥

दोहरा

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रामचिरतमानस - 139 - बालकांड

दाइज अिमत न सिकअ किह द न्ह िबदे हँ बहोिर ।


जो अवलोकत लोकपित लोक संपदा थोिर ॥३३३॥

सबु समाजु एिह भाँित बनाई । जनक अवधपुर द न्ह पठाई ॥


चिलिह बरात सुनत सब रानीं । िबकल मीनगन जनु लघु पानीं ॥१॥
पुिन पुिन सीय गोद किर लेह ं । दे इ असीस िसखावनु दे ह ं ॥
होएहु संतत िपयिह िपआर । िच अिहबात असीस हमार ॥२॥
सासु ससुर गुर सेवा करे हू । पित ख लख आयसु अनुसरे हू ॥
अित सनेह बस सखीं सयानी । नािर धरम िसखविहं मृद ु बानी ॥३॥
सादर सकल कुअँिर समुझाई । रािनन्ह बार बार उर लाई ॥
बहिर
ु बहिर
ु भेटिहं महतार ं । कहिहं िबरं िच रचीं कत नार ं ॥४॥

दोहरा
तेिह अवसर भाइन्ह सिहत रामु भानु कुल केतु ।
चले जनक मंिदर मुिदत िबदा करावन हे तु ॥३३४॥

चािरअ भाइ सुभायँ सुहाए । नगर नािर नर दे खन धाए ॥


कोउ कह चलन चहत हिहं आजू । क न्ह िबदे ह िबदा कर साजू ॥१॥
लेहु नयन भिर प िनहार । िूय पाहने
ु भूप सुत चार ॥
को जानै केिह सुकृत सयानी । नयन अितिथ क न्हे िबिध आनी ॥२॥
मरनसीलु जिम पाव िपऊषा । सुरत लहै जनम कर भूखा ॥
पाव नारक हिरपद ु जैस । इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसे ॥३॥
िनर ख राम सोभा उर धरहू । िनज मन फिन मूरित मिन करहू ॥
एिह िबिध सबिह नयन फलु दे ता । गए कुअँर सब राज िनकेता ॥४॥

दोहरा
प िसंधु सब बंधु लख हरिष उठा रिनवासु ।
करिह िनछाविर आरती महा मुिदत मन सासु ॥३३५॥

दे ख राम छिब अित अनुरागीं । ूेमिबबस पुिन पुिन पद लागीं ॥


रह न लाज ूीित उर छाई । सहज सनेहु बरिन िकिम जाई ॥१॥
भाइन्ह सिहत उबिट अन्हवाए । छरस असन अित हे तु जेवाँए ॥
बोले रामु सुअवस जानी । सील सनेह सकुचमय बानी ॥२॥
राउ अवधपुर चहत िसधाए । िबदा होन हम इहाँ पठाए ॥
मातु मुिदत मन आयसु दे हू । बालक जािन करब िनत नेहू ॥३॥
सुनत बचन िबलखेउ रिनवासू । बोिल न सकिहं ूेमबस सासू ॥

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रामचिरतमानस - 140 - बालकांड

हृदयँ लगाइ कुअँिर सब लीन्ह । पितन्ह स िप िबनती अित क न्ह ॥४॥

छं द
किर िबनय िसय रामिह समरपी जोिर कर पुिन पुिन कहै ।
बिल जाँउ तात सुजान तु ह कहँु िबिदत गित सब क अहै ॥
पिरवार पुरजन मोिह राजिह ूानिूय िसय जािनबी ।
तुलसीस सीलु सनेहु लख िनज िकंकर किर मािनबी ॥

सोरठा
तु ह पिरपूरन काम जान िसरोमिन भाविूय ।
जन गुन गाहक राम दोष दलन क नायतन ॥३३६॥

अस किह रह चरन गिह रानी । ूेम पंक जनु िगरा समानी ॥


सुिन सनेहसानी बर बानी । बहिबिध
ु राम सासु सनमानी ॥१॥
राम िबदा मागत कर जोर । क न्ह ूनामु बहोिर बहोर ॥
पाइ असीस बहिर
ु िस नाई । भाइन्ह सिहत चले रघुराई ॥२॥
मंजु मधुर मूरित उर आनी । भई सनेह िसिथल सब रानी ॥
पुिन धीरजु धिर कुअँिर हँ कार । बार बार भेटिहं महतार ं ॥३॥
पहँु चाविहं िफिर िमलिहं बहोर । बढ़ परःपर ूीित न थोर ॥
पुिन पुिन िमलत स खन्ह िबलगाई । बाल ब छ जिम धेनु लवाई ॥४॥

दोहा
ूेमिबबस नर नािर सब स खन्ह सिहत रिनवासु ।
मानहँु क न्ह िबदे हपुर क नाँ िबरहँ िनवासु ॥३३७॥

सुक सािरका जानक याए । कनक िपंजर न्ह रा ख पढ़ाए ॥


याकुल कहिहं कहाँ बैदेह । सुिन धीरजु पिरहरइ न केह ॥१॥
भए िबकल खग मृग एिह भाँित । मनुज दसा कैस किह जाती ॥
बंधु समेत जनकु तब आए । ूेम उमिग लोचन जल छाए ॥२॥
सीय िबलोिक धीरता भागी । रहे कहावत परम िबरागी ॥
ली न्ह राँय उर लाइ जानक । िमट महामरजाद यान क ॥३॥
समुझावत सब सिचव सयाने । क न्ह िबचा न अवसर जाने ॥
बारिहं बार सुता उर लाई । सज सुंदर पालक ं मगाई ॥४॥

दोहा
ूेमिबबस पिरवा सबु जािन सुलगन नरे स ।

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रामचिरतमानस - 141 - बालकांड

कुँअिर चढ़ाई पालिकन्ह सुिमरे िसि गनेस ॥३३८॥

बहिबिध
ु भूप सुता समुझाई । नािरधरमु कुलर ित िसखाई ॥
दासीं दास िदए बहते
ु रे । सुिच सेवक जे िूय िसय केरे ॥१॥
सीय चलत याकुल पुरबासी । होिहं सगुन सुभ मंगल रासी ॥
भूसुर सिचव समेत समाजा । संग चले पहँु चावन राजा ॥२॥
समय िबलोिक बाजने बाजे । रथ गज बा ज बराितन्ह साजे ॥
दसरथ िबू बोिल सब लीन्हे । दान मान पिरपूरन क न्हे ॥३॥
चरन सरोज धूिर धिर सीसा । मुिदत मह पित पाइ असीसा ॥
सुिमिर गजाननु क न्ह पयाना । मंगलमूल सगुन भए नाना ॥४॥

दोहा
सुर ूसून बरषिह हरिष करिहं अपछरा गान ।
चले अवधपित अवधपुर मुिदत बजाइ िनसान ॥३३९॥

नृप किर िबनय महाजन फेरे । सादर सकल मागने टे रे ॥


भूषन बसन बा ज गज द न्हे । ूेम पोिष ठाढ़े सब क न्हे ॥१॥
बार बार िबिरदाविल भाषी । िफरे सकल रामिह उर राखी ॥
बहिर
ु बहिर
ु कोसलपित कहह ं । जनकु ूेमबस िफरै न चहह ं ॥२॥
पुिन कह भूपित बचन सुहाए । िफिरअ मह स दिर
ू बिड़ आए ॥
राउ बहोिर उतिर भए ठाढ़े । ूेम ूबाह िबलोचन बाढ़े ॥३॥
तब िबदे ह बोले कर जोर । बचन सनेह सुधाँ जनु बोर ॥
करौ कवन िबिध िबनय बनाई । महाराज मोिह द न्ह बड़ाई ॥४॥

दोहा
कोसलपित समधी सजन सनमाने सब भाँित ।
िमलिन परसपर िबनय अित ूीित न हृदयँ समाित ॥३४०॥

मुिन मंडिलिह जनक िस नावा । आिसरबाद ु सबिह सन पावा ॥


सादर पुिन भटे जामाता । प सील गुन िनिध सब ॅाता ॥१॥
जोिर पंक ह पािन सुहाए । बोले बचन ूेम जनु जाए ॥
राम करौ केिह भाँित ूसंसा । मुिन महे स मन मानस हं सा ॥२॥
करिहं जोग जोगी जेिह लागी । कोहु मोहु ममता मद ु यागी ॥
यापकु ॄ ु अलखु अिबनासी । िचदानंद ु िनरगुन गुनरासी ॥३॥
मन समेत जेिह जान न बानी । तरिक न सकिहं सकल अनुमानी ॥
मिहमा िनगमु नेित किह कहई । जो ितहँु काल एकरस रहई ॥४॥

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रामचिरतमानस - 142 - बालकांड

दोहा
नयन िबषय मो कहँु भयउ सो समःत सुख मूल ।
सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकुल ॥३४१॥

सबिह भाँित मोिह द न्ह बड़ाई । िनज जन जािन लीन्ह अपनाई ॥


होिहं सहस दस सारद सेषा । करिहं कलप कोिटक भिर लेखा ॥१॥
मोर भा य राउर गुन गाथा । किह न िसरािहं सुनहु रघुनाथा ॥
मै कछु कहउँ एक बल मोर । तु ह र झहु सनेह सुिठ थोर ॥२॥
बार बार मागउँ कर जोर । मनु पिरहरै चरन जिन भोर ॥
सुिन बर बचन ूेम जनु पोषे । पूरनकाम रामु पिरतोषे ॥३॥
किर बर िबनय ससुर सनमाने । िपतु कौिसक बिस सम जाने ॥
िबनती बहिर
ु भरत सन क न्ह । िमिल सूेमु पुिन आिसष द न्ह ॥४॥

दोहा
िमले लखन िरपुसूदनिह द न्ह असीस मह स ।
भए परःपर ूेमबस िफिर िफिर नाविहं सीस ॥३४२॥

बार बार किर िबनय बड़ाई । रघुपित चले संग सब भाई ॥


जनक गहे कौिसक पद जाई । चरन रे नु िसर नयनन्ह लाई ॥१॥
सुनु मुनीस बर दरसन तोर । अगमु न कछु ूतीित मन मोर ॥
जो सुखु सुजसु लोकपित चहह ं । करत मनोरथ सकुचत अहह ं ॥२॥
सो सुखु सुजसु सुलभ मोिह ःवामी । सब िसिध तव दरसन अनुगामी ॥
क न्ह िबनय पुिन पुिन िस नाई । िफरे मह सु आिसषा पाई ॥३॥
चली बरात िनसान बजाई । मुिदत छोट बड़ सब समुदाई ॥
रामिह िनर ख माम नर नार । पाइ नयन फलु होिहं सुखार ॥४॥

दोहा
बीच बीच बर बास किर मग लोगन्ह सुख दे त ।
अवध समीप पुनीत िदन पहँु ची आइ जनेत ॥३४३॥

हने िनसान पनव बर बाजे । भेिर संख धुिन हय गय गाजे ॥


झाँ झ िबरव िडं डमीं सुहाई । सरस राग बाजिहं सहनाई ॥१॥
पुर जन आवत अकिन बराता । मुिदत सकल पुलकाविल गाता ॥
िनज िनज सुंदर सदन सँवारे । हाट बाट चौहट पुर ारे ॥२॥
गलीं सकल अरगजाँ िसंचाई । जहँ तहँ चौक चा पुराई ॥

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रामचिरतमानस - 143 - बालकांड

बना बजा न जाइ बखाना । तोरन केतु पताक िबताना ॥३॥


सफल पूगफल कदिल रसाला । रोपे बकुल कदं ब तमाला ॥
लगे सुभग त परसत धरनी । मिनमय आलबाल कल करनी ॥४॥

दोहा
िबिबध भाँित मंगल कलस गृह गृह रचे सँवािर ।
सुर ॄ ािद िसहािहं सब रघुबर पुर िनहािर ॥३४४॥

भूप भवन तेिह अवसर सोहा । रचना दे ख मदन मनु मोहा ॥


मंगल सगुन मनोहरताई । िरिध िसिध सुख संपदा सुहाई ॥१॥
जनु उछाह सब सहज सुहाए । तनु धिर धिर दसरथ दसरथ गृहँ छाए ॥
दे खन हे तु राम बैदेह । कहहु लालसा होिह न केह ॥२॥
जुथ जूथ िमिल चलीं सुआिसिन । िनज छिब िनदरिहं मदन िबलासिन ॥
सकल सुमंगल सज आरती । गाविहं जनु बहु बेष भारती ॥३॥
भूपित भवन कोलाहलु होई । जाइ न बरिन समउ सुखु सोई ॥
कौस यािद राम महतार ं । ूेम िबबस तन दसा िबसार ं ॥४॥

दोहा
िदए दान िबून्ह िबपुल पू ज गनेस पुरार ।
ूमुिदत परम दिरि जनु पाइ पदारथ चािर ॥३४५॥

मोद ूमोद िबबस सब माता । चलिहं न चरन िसिथल भए गाता ॥


राम दरस िहत अित अनुरागीं । पिरछिन साजु सजन सब लागीं ॥१॥
िबिबध िबधान बाजने बाजे । मंगल मुिदत सुिमऽाँ साजे ॥
हरद दब
ू दिध प लव फूला । पान पूगफल मंगल मूला ॥२॥
अ छत अंकुर लोचन लाजा । मंजुल मंजिर तुलिस िबराजा ॥
छुहे पुरट घट सहज सुहाए । मदन सकुन जनु नीड़ बनाए ॥३॥
सगुन सुंगध न जािहं बखानी । मंगल सकल सजिहं सब रानी ॥
रचीं आरतीं बहत
ु िबधाना । मुिदत करिहं कल मंगल गाना ॥४॥

दोहा
कनक थार भिर मंगल न्ह कमल कर न्ह िलएँ मात ।
चलीं मुिदत पिरछिन करन पुलक प लिवत गात ॥३४६॥

धूप धूम नभु मेचक भयऊ । सावन घन घमंडु जनु ठयऊ ॥


सुरत सुमन माल सुर बरषिहं । मनहँु बलाक अविल मनु करषिहं ॥१॥

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रामचिरतमानस - 144 - बालकांड

मंजुल मिनमय बंदिनवारे । मनहँु पाकिरपु चाप सँवारे ॥


ूगटिहं दरिहं
ु अटन्ह पर भािमिन । चा चपल जनु दमकिहं दािमिन ॥२॥
दं द
ु िभ
ु धुिन घन गरजिन घोरा । जाचक चातक दादरु मोरा ॥
सुर सुगन्ध सुिच बरषिहं बार । सुखी सकल सिस पुर नर नार ॥३॥
समउ जानी गुर आयसु द न्हा । पुर ूबेसु रघुकुलमिन क न्हा ॥
सुिमिर संभु िगरजा गनराजा । मुिदत मह पित सिहत समाजा ॥४॥

दोहा
होिहं सगुन बरषिहं सुमन सुर दं द
ु भीं
ु बजाइ ।
िबबुध बधू नाचिहं मुिदत मंजुल मंगल गाइ ॥३४७॥

मागध सूत बंिद नट नागर । गाविहं जसु ितहु लोक उजागर ॥


जय धुिन िबमल बेद बर बानी । दस िदिस सुिनअ सुमंगल सानी ॥१॥
िबपुल बाजने बाजन लागे । नभ सुर नगर लोग अनुरागे ॥
बने बराती बरिन न जाह ं । महा मुिदत मन सुख न समाह ं ॥२॥
पुरबािसन्ह तब राय जोहारे । दे खत रामिह भए सुखारे ॥
करिहं िनछाविर मिनगन चीरा । बािर िबलोचन पुलक सर रा ॥३॥
आरित करिहं मुिदत पुर नार । हरषिहं िनर ख कुँअर बर चार ॥
िसिबका सुभग ओहार उघार । दे ख दलिहिनन्ह
ु होिहं सुखार ॥४॥

दोहा
एिह िबिध सबह दे त सुखु आए राजदआर
ु ।
मुिदत मातु प छिन करिहं बधुन्ह समेत कुमार ॥३४८॥

करिहं आरती बारिहं बारा । ूेमु ूमोद ु कहै को पारा ॥


भूषन मिन पट नाना जाती ॥ करह िनछाविर अगिनत भाँती ॥१॥
बधुन्ह समेत दे ख सुत चार । परमानंद मगन महतार ॥
पुिन पुिन सीय राम छिब दे खी ॥ मुिदत सफल जग जीवन लेखी ॥२॥
सखीं सीय मुख पुिन पुिन चाह । गान करिहं िनज सुकृत सराह ॥
बरषिहं सुमन छनिहं छन दे वा । नाचिहं गाविहं लाविहं सेवा ॥३॥
दे ख मनोहर चािरउ जोर ं । सारद उपमा सकल ढँ ढोर ं ॥
दे त न बनिहं िनपट लघु लागी । एकटक रह ं प अनुरागीं ॥४॥

दोहा
िनगम नीित कुल र ित किर अरघ पाँवड़े दे त ।
बधुन्ह सिहत सुत पिरिछ सब चलीं लवाइ िनकेत ॥३४९॥

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रामचिरतमानस - 145 - बालकांड

चािर िसंघासन सहज सुहाए । जनु मनोज िनज हाथ बनाए ॥


ितन्ह पर कुअँिर कुअँर बैठारे । सादर पाय पुिनत पखारे ॥१॥
धूप दप नैबेद बेद िबिध । पूजे बर दलिहिन
ु मंगलिनिध ॥
बारिहं बार आरती करह ं । यजन चा चामर िसर ढरह ं ॥२॥
बःतु अनेक िनछावर होह ं । भर ं ूमोद मातु सब सोह ं ॥
पावा परम त व जनु जोगीं । अमृत लहे उ जनु संतत रोगीं ॥३॥
जनम रं क जनु पारस पावा । अंधिह लोचन लाभु सुहावा ॥
मूक बदन जनु सारद छाई । मानहँु समर सूर जय पाई ॥४॥

दोहा
एिह सुख ते सत कोिट गुन पाविहं मातु अनंद ु ॥
भाइन्ह सिहत िबआिह घर आए रघुकुलचंद ु ॥३५०(क)॥
लोक रत जननी करिहं बर दलिहिन
ु सकुचािहं ।
मोद ु िबनोद ु िबलोिक बड़ रामु मनिहं मुसकािहं ॥३५०(ख)॥

दे व िपतर पूजे िबिध नीक । पूजीं सकल बासना जी क ॥


सबिहं बंिद मागिहं बरदाना । भाइन्ह सिहत राम क याना ॥१॥
अंतरिहत सुर आिसष दे ह ं । मुिदत मातु अंचल भिर लह ं ॥
भूपित बोिल बराती लीन्हे । जान बसन मिन भूषन द न्हे ॥२॥
आयसु पाइ रा ख उर रामिह । मुिदत गए सब िनज िनज धामिह ॥
पुर नर नािर सकल पिहराए । घर घर बाजन लगे बधाए ॥३॥
जाचक जन जाचिह जोइ जोई । ूमुिदत राउ दे िहं सोइ सोई ॥
सेवक सकल बजिनआ नाना । पूरन िकए दान सनमाना ॥४॥

दोहा
दिहं असीस जोहािर सब गाविहं गुन गन गाथ ।
तब गुर भूसुर सिहत गृहँ गवनु क न्ह नरनाथ ॥३५१॥

जो बिस अनुसासन द न्ह । लोक बेद िबिध सादर क न्ह ॥


भूसुर भीर दे ख सब रानी । सादर उठ ं भा य बड़ जानी ॥१॥
पाय पखािर सकल अन्हवाए । पू ज भली िबिध भूप जेवाँए ॥
आदर दान ूेम पिरपोषे । दे त असीस चले मन तोषे ॥२॥
बहु िबिध क न्ह गािधसुत पूजा । नाथ मोिह सम धन्य न दजा
ू ॥
क न्ह ूसंसा भूपित भूर । रािनन्ह सिहत ली न्ह पग धूर ॥३॥
भीतर भवन द न्ह बर बासु । मन जोगवत रह नृप रिनवासू ॥

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रामचिरतमानस - 146 - बालकांड

पूजे गुर पद कमल बहोर । क न्ह िबनय उर ूीित न थोर ॥४॥

दोहा
बधुन्ह समेत कुमार सब रािनन्ह सिहत मह सु ।
पुिन पुिन बंदत गुर चरन दे त असीस मुनीसु ॥३५२॥

िबनय क न्ह उर अित अनुराग । सुत संपदा रा ख सब आग ॥


नेगु मािग मुिननायक लीन्हा । आिसरबाद ु बहत
ु िबिध द न्हा ॥१॥
उर धिर रामिह सीय समेता । हरिष क न्ह गुर गवनु िनकेता ॥
िबूबधू सब भूप बोलाई । चैल चा भूषन पिहराई ॥२॥
बहिर
ु बोलाइ सुआिसिन लीन्ह ं । िच िबचािर पिहराविन द न्ह ं ॥
नेगी नेग जोग सब लेह ं । िच अनु प भूपमिन दे ह ं ॥३॥
िूय पाहने
ु पू य जे जाने । भूपित भली भाँित सनमाने ॥
दे व दे ख रघुबीर िबबाहू । बरिष ूसून ूसंिस उछाहू ॥४॥

दोहा
चले िनसान बजाइ सुर िनज िनज पुर सुख पाइ ।
कहत परसपर राम जसु ूेम न हृदयँ समाइ ॥३५३॥

सब िबिध सबिह समिद नरनाहू । रहा हृदयँ भिर पूिर उछाहू ॥


जहँ रिनवासु तहाँ पगु धारे । सिहत बहिटन्ह
ू कुअँर िनहारे ॥१॥
िलए गोद किर मोद समेता । को किह सकइ भयउ सुखु जेता ॥
बधू सूेम गोद बैठार ं । बार बार िहयँ हरिष दलार
ु ं ॥२॥
दे ख समाजु मुिदत रिनवासू । सब क उर अनंद िकयो बासू ॥
कहे उ भूप जिम भयउ िबबाहू । सुिन हरषु होत सब काहू ॥३॥
जनक राज गुन सीलु बड़ाई । ूीित र ित संपदा सुहाई ॥
बहिबिध
ु भूप भाट जिम बरनी । रानीं सब ूमुिदत सुिन करनी ॥४॥

दोहा
सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोिल िबू गुर याित ।
भोजन क न्ह अनेक िबिध घर पंच गइ राित ॥३५४॥

मंगलगान करिहं बर भािमिन । भै सुखमूल मनोहर जािमिन ॥


अँचइ पान सब काहँू पाए । ग सुगंध भूिषत छिब छाए ॥१॥
रामिह दे ख रजायसु पाई । िनज िनज भवन चले िसर नाई ॥
ूेम ूमोद िबनोद ु बढ़ाई । समउ समाजु मनोहरताई ॥२॥

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रामचिरतमानस - 147 - बालकांड

किह न सकिह सत सारद सेसू । बेद िबरं िच महे स गनेसू ॥


सो मै कह कवन िबिध बरनी । भूिमनागु िसर धरइ िक धरनी ॥३॥
नृप सब भाँित सबिह सनमानी । किह मृद ु बचन बोलाई रानी ॥
बधू लिरकनीं पर घर आ । राखेहु नयन पलक क नाई ॥४॥

दोहा
लिरका ौिमत उनीद बस सयन करावहु जाइ ।
अस किह गे िबौामगृहँ राम चरन िचतु लाइ ॥३५५॥

भूप बचन सुिन सहज सुहाए । जिरत कनक मिन पलँग डसाए ॥
सुभग सुरिभ पय फेन समाना । कोमल किलत सुपेतीं नाना ॥१॥
उपबरहन बर बरिन न जाह ं । ग सुगंध मिनमंिदर माह ं ॥
रतनद प सुिठ चा चँदोवा । कहत न बनइ जान जेिहं जोवा ॥२॥
सेज िचर रिच रामु उठाए । ूेम समेत पलँग पौढ़ाए ॥
अ या पुिन पुिन भाइन्ह द न्ह । िनज िनज सेज सयन ितन्ह क न्ह ॥३॥
दे ख ःयाम मृद ु मंजुल गाता । कहिहं सूेम बचन सब माता ॥
मारग जात भयाविन भार । केिह िबिध तात ताड़का मार ॥४॥

दोहा
घोर िनसाचर िबकट भट समर गनिहं निहं काहु ॥
मारे सिहत सहाय िकिम खल मार च सुबाहु ॥३५६॥

मुिन ूसाद बिल तात तु हार । ईस अनेक करवर टार ॥


मख रखवार किर दहँु ु भाई । गु ूसाद सब िब ा पाई ॥१॥
मुिनतय तर लगत पग धूर । क रित रह भुवन भिर पूर ॥
कमठ पीिठ पिब कूट कठोरा । नृप समाज महँु िसव धनु तोरा ॥२॥
िबःव िबजय जसु जानिक पाई । आए भवन यािह सब भाई ॥
सकल अमानुष करम तु हारे । केवल कौिसक कृ पाँ सुधारे ॥३॥
आजु सुफल जग जनमु हमारा । दे ख तात िबधुबदन तु हारा ॥
जे िदन गए तु हिह िबनु दे ख । ते िबरं िच जिन पारिहं लेख ॥४॥

दोहा
राम ूतोषीं मातु सब किह िबनीत बर बैन ।
सुिमिर संभु गुर िबू पद िकए नीदबस नैन ॥३५७॥

नीदउँ बदन सोह सुिठ लोना । मनहँु साँझ सरसी ह सोना ॥

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रामचिरतमानस - 148 - बालकांड

घर घर करिहं जागरन नार ं । दे िहं परसपर मंगल गार ं ॥१॥


पुर िबराजित राजित रजनी । रानीं कहिहं िबलोकहु सजनी ॥
सुंदर बधुन्ह सासु लै सोई । फिनकन्ह जनु िसरमिन उर गोई ॥२॥
ूात पुनीत काल ूभु जागे । अ नचूड़ बर बोलन लागे ॥
बंिद मागध न्ह गुनगन गाए । पुरजन ार जोहारन आए ॥३॥
बंिद िबू सुर गुर िपतु माता । पाइ असीस मुिदत सब ॅाता ॥
जनिनन्ह सादर बदन िनहारे । भूपित संग ार पगु धारे ॥४॥

दोहा
क न्ह सौच सब सहज सुिच सिरत पुनीत नहाइ ।
ूातिबया किर तात पिहं आए चािरउ भाइ ॥३५८॥

नवान्हपारायण, तीसरा िवौाम

भूप िबलोिक िलए उर लाई । बैठै हरिष रजायसु पाई ॥


दे ख रामु सब सभा जुड़ानी । लोचन लाभ अविध अनुमानी ॥१॥
पुिन बिस ु मुिन कौिसक आए । सुभग आसन न्ह मुिन बैठाए ॥
सुतन्ह समेत पू ज पद लागे । िनर ख रामु दोउ गुर अनुरागे ॥२॥
कहिहं बिस ु धरम इितहासा । सुनिहं मह सु सिहत रिनवासा ॥
मुिन मन अगम गािधसुत करनी । मुिदत बिस िबपुल िबिध बरनी ॥३॥
बोले बामदे उ सब साँची । क रित किलत लोक ितहँु माची ॥
सुिन आनंद ु भयउ सब काहू । राम लखन उर अिधक उछाहू ॥४॥

दोहा
मंगल मोद उछाह िनत जािहं िदवस एिह भाँित ।
उमगी अवध अनंद भिर अिधक अिधक अिधकाित ॥३५९॥

सुिदन सोिध कल कंकन छौरे । मंगल मोद िबनोद न थोरे ॥


िनत नव सुखु सुर दे ख िसहाह ं । अवध जन्म जाचिहं िबिध पाह ं ॥१॥
िबःवािमऽु चलन िनत चहह ं । राम सूेम िबनय बस रहह ं ॥
िदन िदन सयगुन भूपित भाऊ । दे ख सराह महामुिनराऊ ॥२॥
मागत िबदा राउ अनुरागे । सुतन्ह समेत ठाढ़ भे आगे ॥
नाथ सकल संपदा तु हार । म सेवकु समेत सुत नार ॥३॥
करब सदा लिरकनः पर छोहू । दरसन दे त रहब मुिन मोहू ॥
अस किह राउ सिहत सुत रानी । परे उ चरन मुख आव न बानी ॥४॥
द न्ह असीस िबू बहु भाँती । चले न ूीित र ित किह जाती ॥

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रामचिरतमानस - 149 - बालकांड

रामु सूेम संग सब भाई । आयसु पाइ िफरे पहँु चाई ॥५॥

दोहा
राम पु भूपित भगित याहु उछाहु अनंद ु ।
जात सराहत मनिहं मन मुिदत गािधकुलचंद ु ॥३६०॥

बामदे व रघुकुल गुर यानी । बहिर


ु गािधसुत कथा बखानी ॥
सुिन मुिन सुजसु मनिहं मन राऊ । बरनत आपन पुन्य ूभाऊ ॥१॥
बहरेु लोग रजायसु भयऊ । सुतन्ह समेत नृपित गृहँ गयऊ ॥
जहँ तहँ राम याहु सबु गावा । सुजसु पुनीत लोक ितहँु छावा ॥२॥
आए यािह रामु घर जब त । बसइ अनंद अवध सब तब त ॥
ूभु िबबाहँ जस भयउ उछाहू । सकिहं न बरिन िगरा अिहनाहू ॥३॥
किबकुल जीवनु पावन जानी । राम सीय जसु मंगल खानी ॥
तेिह ते म कछु कहा बखानी । करन पुनीत हे तु िनज बानी ॥४॥

छं द
िनज िगरा पाविन करन कारन राम जसु तुलसी क ो ।
रघुबीर चिरत अपार बािरिध पा किब कौन ल ो ॥
उपबीत याह उछाह मंगल सुिन जे सादर गावह ं ।
बैदेिह राम ूसाद ते जन सबदा सुखु पावह ं ॥

सोरठा
िसय रघुबीर िबबाहु जे सूेम गाविहं सुनिहं ।
ितन्ह कहँु सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु ॥३६१॥

मासपारायण, बारहवाँ िवौाम

इित ौीमिामचिरतमानसे सकलकिलकलुषिब वंसने ूथमः सोपानः समा ः ।


(बालकाण्ड समा )

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